http://hi.brajdiscovery.org/api.php?action=feedcontributions&user=%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%9C%E0%A4%AF&feedformat=atomBrajdiscovery - सदस्य योगदान [hi]2024-03-28T17:29:26Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.35.6http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BF:NewArticleTemplate&diff=56713मीडियाविकि:NewArticleTemplate2010-04-29T05:01:01Z<p>जन्मेजय: </p>
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==दीपावली / दिवाली / Deepavali / Diwali==<br />
[[चित्र:lakshmi-ganesh-1.jpg|thumb|250|[[लक्ष्मी]]-[[गणेश]]<br />Lakshmi-Ganesha]]<br />
त्योहारों का जो वातावरण और [[धनतेरस]] से प्रारम्भ होता है, वह आज के दिन पूरे चरम पर आता है। दीपावली की रात्रि को घरों तथा दुकानों पर भारी संख्या में दीपक, मोमबत्तियां और बल्ब जलाए जाते हैं। दीपावली भारत के त्योहारों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इस दिन [[लक्ष्मी]] के पूजन का विशेष विधान है। रात्रि के समय प्रत्येक घर में धनधान्य की अधिष्ठात्री देवी [[लक्ष्मी|महालक्ष्मीजी]], विघ्न-विनाशक [[गणेश]] जी और विद्या एवं कला की देवी मातेश्वरी सरस्वती|सरस्वती देवी की पूजा-आराधना की जाती है। [[ब्रह्मपुराण]] के अनुसार [[कार्तिक अमावस्या]] की इस अंधेरी रात्रि अर्थात अर्धरात्रि में महालक्ष्मी स्वयं भूलोक में आती हैं और प्रत्येक सद्गृहस्थ के घर में विचरण करती हैं। जो घर हर प्रकार से स्वच्छ, शुद्ध और सुंदर तरीके से सुसज्जित और प्रकाशयुक्त होता है वहां अंश रूप में ठहर जाती हैं। और गंदे स्थानों की तरफ देखती भी नहीं। इसलिए इस दिन घर-बाहर को खूब साफ-सुथरा करके सजाया-संवारा जाता है। दीपावली मनाने से लक्ष्मीजी प्रसन्न होकर स्थायी रूप से सद्गृहस्थों के घर निवास करती हैं। वास्तव में [[धनतेरस]], नरक चतुर्दशी तथा महालक्ष्मी पूजन-इन तीनों पर्वों का मिश्रण है दीपावली। भारतीय पद्धति के अनुसार प्रत्येक आराधना, उपासना व अर्चना में आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक इन तीनों रूपों का समन्वित व्यवहार होता है। इस मान्यतानुसार इस उत्सव में भी सोने, चांदी, सिक्के आदि के रूप में आधिभौतिक लक्ष्मी का आधिदैविक लक्ष्मी से संबंध स्वीकार करके पूजन किया जाता हैं घरों को दीपमाला आदि से अलंकृत करना इत्यादि कार्य लक्ष्मी के आध्यात्मिक स्वरूप की शोभा को अविर्भूत करने के लिए किए जाते हैं। इस तरह इस उत्सव में उपरोक्त तीनों प्रकार से लक्ष्मी की उपासना हो जाती है।<br />
<br />
==धार्मिक मान्यता== <br />
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दीपावली के दिन [[आतिशबाजी]] की प्रथा के पीछे सम्भवत: यह धारण है कि दीपावली-अमावस्या से पितरों की रात आरम्भ होती है। कहीं वे मार्ग भटक न जाएं, इसलिए उनके लिए प्रकाश की व्यवस्था इस रूप में की जाती है। इस प्रथा का बंगाल में विशेष प्रचलन है। <br />
धर्मग्रंथों के अनुसार कार्तिक अमावस्या को भगवान श्री [[राम|रामचंद्रजी]] चौदह वर्ष का वनवास काटकर तथा असुरी वृत्तियों के प्रतीक [[रावण|रावणादि]] का संहार करके [[अयोध्या]] लौटे थे। तब अयोध्याविसयों ने राम के राज्यारोहण पर दीपमालाएं जलाकर महोत्सव मनाया था। इसीलिए दीपावली हिंदुओं के प्रमुख त्योहारों में से एक है। यह पर्व अलग-अलग नाम और विधानों से पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इसका एक कारण यह भी कि इसी दिन अनेक विजयश्री युक्त कार्य हुए हैं। बहुत से सुभ कार्यों का प्रारम्भ भी इसी दिन से माना गया है। इसी दिन उज्जैन के सम्राट [[विक्रमादित्य]] का राजतिलक हुआ था। [[विक्रमी संवत]] का आरम्भ भी इसी दिन से माना जाता है। अत: यह नए वर्ष का प्रथम दिन भी है। आज ही के दिन व्यापारी अपने बही-खाते बदलते हैं। तथा लाभ-हानि का ब्यौरा तैयार करते हैं।<br />
==लक्ष्मी पूजन==<br />
दीपावली पर लक्ष्मीजी का पूजन घरों में ही नहीं, दुकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों में भी किया जाता है। कर्मचारियों को पूजन के बाद मिठाई, बर्तन और रूपये आदि भी दिए जाते हैं। दीपावली पर कहीं-कहीं जुआ भी खेला जाता है। इसका प्रधान लक्ष्य वर्ष भर के भाग्य की परीक्षा करना है।<br />
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इस दिन धन के देवता [[कुबेर|कुबेरजी]], विघ्नविनाशक [[गणेश|गणेशजी]], राज्य सुख के दाता [[इन्द्र|इन्द्रदेव]], समस्त मनोरथों को पूरा करने वाले [[विष्णु]] भगवान तथा बुद्धि की दाता [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] जी की भी [[लक्ष्मी]] के साथ पूजा करें।<br />
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इस प्रथा के साथ भगवान [[शंकर]] तथा [[पार्वती]] के जुआ खेलने के प्रसंग को भी जोड़ा जाता है, जिसमें भगवान शंकर पराजित हो गए थे। जहां तक धार्मिक दृष्टि का प्रश्न है आज पूरे दिन व्रत रखना चाहिए और मध्यरात्रि में लक्ष्मी-पूजन के बाद ही भोजन करना चाहिए। जहां तक व्यावहारिकता का प्रश्न है, तीन देवों-महालक्ष्मी, गणेशजी और सरस्वतीजी के संयुक्त पूजन के बावजूद इस पूजा में त्योहार का उल्लास ही अधिक रहता है। इस दिन प्रदोष काल में पूजन करके जो स्त्री-पुरुष भोजन करते हैं, उनके नेत्र वर्ष भर निर्मल रहते हैं। इसी रात को ऐन्द्रजालिक तथा अन्य तंत्र-मन्त्र वेत्ता श्मशान में मन्त्रों को जगाकर सुदृढ़ करते हैं। कार्तिक मास की अमावस्या के दिन भगवान [[विष्णु]] क्षीरसागर की तरंग पर सुख से सोते हैं और लक्ष्मी जी भी दैत्य भय से विमुख होकर कमल के उदर में सुख से सोती हैं। इसलिए मनुष्यों को सुख प्राप्ति का उत्सव विधिपूर्वक करना चाहिएं। लोकमान्यता के अनुसार इस दिन आंख में काजल न लगवाने वाला व्यक्ति अगले जन्म में छछून्दर रूप में विचरण करता है।<br />
<br />
==पूजन विधि==<br />
लक्ष्मी जी के पूजन के लिए घर की साफ-सफ़ाई करके दीवार को गेरू से पोतकर लक्ष्मी जी का चित्र बनाया जाता है। लक्ष्मीजी का चित्र भी लगाया जा सकता है। सन्ध्या के समय भोजन में स्वादिष्ट व्यंजन, केला, पापड़ तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ होनी चाहिए। लक्ष्मी जी के चित्र के सामने एक चौकी रखकर उस पर मौली बांधनी चाहिए। इस पर गणेश जी की व लक्ष्मी जी की मिट्टी या चांदी की प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए तथा उन्हें तिलक करना चाहिए। चौकी पर छ: चौमुखे व 26 छोटे दीपक रखने चाहिए और तेल-बत्ती डालकर जलाना चाहिए। फिर जल, मौली, चावल, फल, गुड़, अबीर, गुलाल, धूप आदि से विधिवत पूजन करना चाहिए। पूजा पहले पुरुष करें, बाद में स्त्रियां। पूजन करने के बाद एक-एक दीपक घर के कोनों में जलाकर रखें। एक छोटा तथा एक चौमुखा दीपक रखकर लक्ष्मीजी का पूजन करें। इस पूजन के पश्चात तिजोरी में गणेश जी तथा लक्ष्मी जी की मूर्ति रखकर विधिवत पूजा करें। अपने व्यापार के स्थान पर बहीखातों की पूजा करें। इसके बाद जितनी श्रद्धा हो घर की बहू-बेटियों को रूपये दें। लक्ष्मी पूजन रात के समय बारह बजे करना चाहिए।<br />
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इस दिन धन के [[देवता]] [[कुबेर]]जी, विघ्नविनाशक [[गणेश]]जी, राज्य सुख के दाता [[इन्द्र]]देव, समस्त मनोरथों को पूरा करने वाले [[विष्णु]] भगवान तथा बुद्धि की दाता [[सरस्वती देवी|सरस्वती]] जी की भी लक्ष्मी के साथ पूजा करें। जहां दीवार पर गणेश, लक्ष्मी बनाएं हो वहाँ उनके आगे एक पट्टे पर चौमुखा दीपक और छ: छोटे दीपक में घी, बत्ती डालकर रख दें तथा रात्रि के बारह बजे लक्ष्मी-पूजन करें। इसके लिए एक पाट पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक जोड़ी लक्ष्मी तथा गणेशजी की मूर्ति रखें। समीप ही 101 रूपये, सवा सेर चावल, गुड़, चार केले, हरी ग्वार की फली तथा पांच लड्डू रखकर, लक्ष्मी-गणेश का पूजन करके लड्डुओं से भोग लगाएं। फिर गणेश, लक्ष्मी, दीप, रूपये आदि सब की पूजा करें। दीपकों का काजल सब स्त्री-पुरुषों को आंखों में लगाना चाहिए तथा रात्रि जागरण करके गोपाल सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए। यदि इस दिन घर में बिल्ली आए तो उसे भगाना नहीं चाहिए। पूजन की समाप्ति के बाद अपने से बड़ों की चरण वंदना करनी चाहिए। दुकान की गद्दी की भी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। <br />
----<br />
रात को बारह बजे दीपावली पूजन के बाद चूने या गेरू में रूई भिगोकर चक्की, चूल्हा, सिल-बट्टा तथा सूप पर तिलक करना चाहिए। रात्रि की ब्रह्मबेला अर्थात प्रात:काल चार बजे उठकर स्त्रियां पुराने सूप में कूड़ा रखकर उसे दूर फेंकने के लिए ले जाती हैं तथा सूप पीटकर दरिद्रता भगाती हैं। सूप पीटने का तात्पर्य है- 'आज से लक्ष्मीजी का वास हो गया। दुख दरिद्रता का सर्वनाश हो।' फिर घर आकर स्त्रियां कहती हैं- इस घर से दरिद्र चला गया है। हे लक्ष्मी जी! आप निर्भय होकर यहां निवास करिए।<br />
<br />
==दीपावली मनाने की प्रचलित धारणाएं==<br />
1. कहा जाता है कि इस दिन भगवान [[विष्णु]] ने राजा [[बलि]] को पाताल लोक का [[इन्द्र]] बनाया था और इन्द्र ने स्वर्ग को सुरक्षित जानकर प्रसन्नतापूर्वक दीपावली मनाई थी।<br/ > <br />
2. इसी दिन [[समुद्र मंथन]] के समय क्षीरसागर से [[लक्ष्मी]]जी प्रकट हुई थीं और भगवान विष्णु को अपना पति स्वीकार किया था।<br/ ><br />
3. इस दिन जब श्री [[राम|रामचंद्र]] [[लंका]] से वापस आए तो उनका राज्यारोहण किया गया था। इस ख़ुशी में [[अयोध्या]]वासियों ने घरों में दीपक जलाए थे। <br/ ><br />
4. इसी समय कृषकों के घर में नवीन अन्न आते हैं, जिसकी ख़ुशी में दीपक जलाए जाते हैं।<br/ ><br />
5. इसी दिन गुप्तवंशीय राजा [[चंद्रगुप्त विक्रमादित्य]] ने अपने '[[विक्रम संवत]]' की स्थापना की थीं धर्म, गणित तथा ज्योतिष के दिग्गज विद्वानों को आमन्त्रित कर यह मुहूर्त निकलवाया कि-नया [[संवत]] चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मनाया जाए। <br/ ><br />
6. इसी दिन [[आर्यसमाज]] के संस्थापक महर्षि [[दयानंद सरस्वती]] का निर्वाण हुआ था। <br/ ><br />
==दीपावली की कथा प्रथम==<br />
एक बार सनत्कुमारजी ने सभी महर्षि-मुनियों से कहा- 'महानुभाव! [[कार्तिक]] की अमावस्या को प्रात:काल स्नान करके भक्तिपूर्वक पितर तथा देव पूजन करना चाहिए। उस दिन रोगी तथा बालक के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। सन्ध्या समय विधिपूर्वक [[लक्ष्मी]]जी का मण्डप बनाकर उसे फूल, पत्ते, तोरण, ध्वज और पताका आदि से सुसज्जित करना चाहिए। अन्य देवी-देवताओं सहित लक्ष्मी जी का षोडशोपचार पूजन तथा पूजनोपरांत परिक्रमा करनी चाहिए। मुनिश्वरों ने पूछा- 'लक्ष्मी-पूजन के साथ अन्य देवी-देवताओं के पूजन का क्या कारण है?'<br/ ><br />
इस सनत्कुमारजी बोले -'लक्ष्मीजी समस्त देवी-देवताओं के साथ राजा [[बलि]] के यहां बंधक थीं। आज ही के दिन भगवान [[विष्णु]] ने उन सबको बंधनमुक्त किया था। बंधनमुक्त होते ही सब देवता लक्ष्मी जी के साथ जाकर क्षीर-सागर में सो गए थे। इसलिए अब हमें अपने-अपने घरों में उनके शयन का ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि वे क्षीरसागर की ओर न जाकर स्वच्छ स्थान और कोमल शैय्या पाकर यहीं विश्राम करें। जो लोग लक्ष्मी जी के स्वागत की उत्साहपूर्वक तैयारियां करते हैं, उनको छोड़कर वे कहीं भी नहीं जातीं। रात्रि के समय लक्ष्मीजी का आह्वान करके उनका विधिपूर्वक पूजन करके नाना प्रकार के मिष्ठान्न का नैवेद्य अर्पण करना चाहिए। दीपक जलाने चाहिए। दीपकों को सर्वानिष्ट निवृत्ति हेतु अपने मस्तक पर घुमाकर चौराहे या श्मशान में रखना चाहिए। <br />
==दीपावली की कथा द्वितीय==<br />
प्राचीनकाल में एक साहूकार था। उसकी एक सुशील और सुंदर बेटी थी। वह प्रतिदिन पीपल पर जल चढ़ाने जाती थीं। उस पीपल पर [[लक्ष्मी]] जी का वास था। एक दिन लक्ष्मीजी ने साहूकार की बेटी से कहा- 'तुम मेरी सहेली बन जाओ।' तब साहूकार के बेटी ने लक्ष्मी जी से कहा- 'मैं कल अपने पिता से पूछकर उत्तर दूंगी।' घर जाकर उसने अपने पिता को सारी बात कह सुनाई। उसने कहा- 'पीपल पर एक स्त्री मुझे अपनी सहेली बनाना चाहती है।' तब साहूकार ने कहा- 'वह तो लक्ष्मी जी हैं। और हमें क्या चाहिए, तू उनकी सहेली बन जा।' इस प्रकार पिता के हां कर देने पर दूसरे दिन साहूकार की बेटी जब पीपल सींचने गई तो उसने लक्ष्मी जी को सहेली बनाना स्वीकार कर लिया। एक दिन लक्ष्मी जी ने साहूकार की बेटी को भोजन का न्यौता दिया। जब साहूकार की बेटी लक्ष्मी जी के यहां भोजन करने गई तो लक्ष्मी जी ने उसको ओढ़ने के लिए शाल दुशाला दिया तथा सोने की चौकी पर बैठाकर, सोने की थाली में अनेक प्रकार के भोजन कराए। जब साहूकार की बेटी खा-पीकर अपने घर को लौटने लगी तो लक्ष्मी जी ने उसे पकड़ लिया और कहा- 'तुम मुझे अपने घर कब बुला रही हो? मैं भी तेरे घर जीमने आऊंगी।' पहले तो उसने आनाकानी की, फिर कहा -'अच्छा, आ जाना।' घर आकर वह रूठकर बैठ गई। तब साहूकार ने कहा- 'तुम लक्ष्मीजी को तो घर आने का निमन्त्रण दे आई हो और स्वयं उदास बैठी हो।' तब साहूकार की बेटी बोली- 'पिताजी! लक्ष्मी जी ने तो मुझे इतना दिया और बहुत उत्तम भोजन कराया। मैं उन्हें किस प्रकार खिलाऊंगी, हमारे घर में तो वैसा कुछ भी नहीं है।'<br />
----<br />
तब साहूकार ने कहा- 'जो अपने से बनेगा, वही ख़ातिर कर देंगे। तू जल्दी से गोबर मिट्टी से चौका देकर सफ़ाई कर दे। चौमुखा दीपक बनाकर लक्ष्मी जी का नाम लेकर बैठ जा।' तभी एक चील किसी रानी का नौलखा हार उठा लाई और उसे साहूकार की बेटी के पास डाल गई। साहूकार की बेटी ने उस हार को बेचकर सोने का थाल, शाल, दुशाला और अनेक प्रकार के भोजन की तैयारी कर ली। थोड़ी देर बाद लक्ष्मी जी उसके घर पर आ गईं। साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी को बैठने के लिए सोने की चौकी दी। लक्ष्मी जी ने बैठने को बहुत मना किया और कहा- 'इस पर तो राजा-रानी बैठते हैं।' तब साहूकार की बेटी ने कहा- 'तुम्हें तो हमारे यहां बैठना ही पड़ेगा।' तब लक्ष्मी जी उस पर बैठ गई। साहूकार की बेटी ने लक्ष्मीजी की बहुत ख़ातिरदारी की, इससे लक्ष्मी जी बहुत प्रसन्न हुई और साहूकार के पास बहुत धन-दौलत हो गई। <br />
*हे लक्ष्मी माता! जैसे तुम साहूकार की बेटी की चौकी पर बैठी और बहुत सा धन दिया, वैसे ही सबको देना।<br />
<br />
==सावधानियाँ==<br />
*सावधान और सजग रहें। असावधानी और लापरवाही से मनुष्य बहुत कुछ खो बैठता है। [[विजयादशमी]] और दीपावली के आगमन पर इस त्योहार का आनंद, ख़ुशी और उत्साह बनाये रखने के लिए सावधानीपूर्वक रहें।<br />
*पटाखों के साथ खिलवाड़ न करें। उचित दूरी से पटाखे चलाएँ।<br />
*मिठाइयों और पकवानों की शुद्धता, पवित्रता का ध्यान रखें ।<br />
*भारतीय संस्कृति के अनुसार आदर्शों व सादगी से मनायें। पाश्चात्य जगत का अंधानुकरण ना करें।<br />
*पटाखे घर से दूर चलायें और आस-पास के लोगों की असुविधा के प्रति सजग रहें।<br />
*स्वच्छ्ता और पर्यावरण का ध्यान रखें।<br />
*पटाखों से बच्चों को उचित दूरी बनाये रखने और सावधानियों को प्रयोग करने का सहज ज्ञान दें।<br />
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{{साँचा:पर्व और त्योहार}}<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:पर्व और त्योहार]]<br />
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<blockquote>'''THE MODERN DISTRICT; ITS CONFORMATION, EXTENT AND DIVISIONS AT DIFFERENT PERIODS. THE CHARACTER OF THE PEOPLE AND THEIR LANGUAGE. THE PREDOMINANT CASTES; THE JATS AND THEIR ORIGIN; THE CHAUBES; THE AHIVASIS; THE GAURUA THAKURS. THE JAINIS AND THEIR TEMPLES. THE PRINCIPAL FAMILIES; THE SETH; THE RAJA F HATHRAS; THE RAIS OF SADABAD. AGRICULTURAL CLASSIFICATION OF LAND; CANALS; FAMINES; THE DELHI ROAD AND ITS SARAES.'''</blockquote><br />
<br />
The modern district of Mathura is one of the five which together make up the Agra Division of the North West Provinces. It has an area of 1,453 square miles, with a population of 671,690, the vast majority of whom,viz., 611,626, are Hindus.<br />
In the year 1803, when its area was first included in British territory, part of it was administered from Agra and part from Sadabad. This arrangement continued till 1832, when the city of Mathura was recognized as the most fitting centre of local government and, superseding the village of Sadabad, gave its name to a new district, comprising eight tahsilis, viz., Aring, Sahar, and Kosi, on the right bank of the Jamuna; and on the left, Mat, Noh-jhil, Mahaban, Sadabad, and Jalesar. In 1860, Mat and Noh-jhil were united, with the former as the head-quarters of the Tahsildar; and in 1868 the revenue offices at Aring were transferred to Mathura, but the general boundaries remained unchanged.<br />
<br />
The district, however, as thus constituted, was of a most inconvenient shape. Its outline was that of a carpenter's square, of which the two parallelograms were nearly equal in extent; the upper one lying due north and south, while the other at right angles to it stretched due eastward below. The capital, situated at the interior angle of junction, was more accessible from the contiguous district of Aligarh and the independent State of Bharat-pur than from the greater part of its own territory. The Jalesar pargana was the most remote of all ; its two chief towns, Awa and Jalesar, being respectively 55 and 43 miles from the local Courts, a greater distance than separated them from the capitals of four other districts.<br />
<br />
This, under any conditions, would have been justly considered an inconvenience, and there were peculiar circumstances which rendered it exceptionally so. The transfer of a very large proportion of the land from the old proprietary village communities to wealthy strangers had created a wide-spread feeling of restlessness and impatience, which was certainly intensified by the remoteness of the Courts and the consequent unwillingness to have recourse to them for the settlement of a dispute in its incipient stages. Hence the frequent occurrence of serious outrages, such as burglaries and highway robberies, which were often carried out with more or less impunity, notwithstanding the number of people that must have been privy to their commission. However willing the authorities of the different districts were to act in concert, investigation on the part of the police was greatly hampered by the readiness with which the criminals could escape across the border and disperse themselves through the five districts of Mathura, Agra, Mainpuri, Eta, and Aligarh. Thus, though a local administrator is naturally jealous of any change calculated to diminish the importance of his charge, and Jalesar was unquestionably the richest portion of the district, still it was generally admitted by each successive Magistrate and Collector that its exchange for a tract of country with much fewer natural advantages would be a most politic and beneficial measure.<ref>In the first edition of this work, written before the change had been affected, I thus sum&shy;marized the points of difference between the Jalesar and the other parganas:&mdash;The Jalesar pargana affords a marked contrast to all the rest of the district, from which it differs no less in soil and scenery than in the character and social status of the population. In the other six parganas wheat, indigo, and rice are seldom or never to be seen, here they form the staple crops ; there the pasturage is abundant and every villager has his herd of cattle, here all the land is arable and no more cattle are kept than are barely enough to work the plough; there the country is dotted with natural woods and groves, but has no enclosed orchards, here the mango and other fruit trees are freely planted and thrive well, but there is no jungle; there the village communities still for the most part retain possession of their ancestral lands, here they have been ousted almost completely by modern capitalists ; there the Jats constitute the great mass of the population, here they occupy one solitary village; there the Muhammadans have never gained any permanent footing and every spot is impregnated with Hindu traditions, here what local history there is mainly associated with Muhammadan families.</ref><br />
<br />
The matter, which had often before been under the consideration of Government, was at last settled towards the close of the year 1874, when Jalesar was finally struck off from Mathura. At first it was attached to Agra; but six years later it was again transferred and joined on to Eta, which was then raised to the rank of a full district. No other territory had been given in compensation till 1879, when 84 villages, constituting the pargana of Farrah, were taken from Agra and added on to the Mathura tahsili. The district has thus been rendered much more manageable and compact. It is now in the shape of an imperfect crescent, with its convex side to the south-west and its horns and hollow centre on the left bank of the river looking upwards to the north-east. The eastern portion is a fair specimen of the land ordinarily found in the Doab. It is abundantly watered, both by wells and rivers, and is carefully cultivated. Its luxuriant crops and fine orchards indicate the fertility of the soil and render the landscape not unpleasing to the eye; but though far the more valuable part of the district for the purposes of the farmer and the economist, it possesses few historical associations to detain the antiquary. On the other hand, the western side of the district, though comparatively poor in natural products, is rich in mythological legend, and contains in the towns of Mathura and Brinda-ban a series of the master-pieces of modern Hindu architecture. Its still greater wealth in earlier times is attested by the extraordinary merit of the few specimens which have survived the torrent of Muhammadan barbarism and the more slowly corroding lapse of time.<br />
<br />
Yet, widely as the two tracts of country differ in character, there is reason to believe that their first union dates from a very early period. Thus, Varaha Mihira, writing in the latter half of the fifth century of the Christian era, seems to speak of Mathura as consisting at that time also of two very dissimilar portions For, in the 16th section of the Brihat Sanhita, he includes its eastern half, with all river lands (such as is the Doab), under the protection of the planet Budha—that is, Mercury ; and the western half, with the Bharatas and Purohits and other managers of religious ceremonies (classes which still to the present day form the mass of the population of western Mathura, and more particularly so if the Bharatas are taken to mean the Bharat-pur Jats) under the tutelage of Jiva--that is, Jupiter. The Chinese pilgrim, Hwen Thsang, may also be adduced as a witness to the same effect. He visited India in the. seventh century after Christ, and describes the circumference of the kingdom of Mathura as 5,000 li i.e., 950 miles, taking the Chinese li as not quite one-fifth of an English mile. The people, he says, are of a soft and easy nature and delight to perform meritorious works with a view to a future life. The soil is rich and fertile and specially adapted to the cultivation of grain. Cotton staffs of fine texture are also here obtainable and gold; while the mango trees <ref>The fruit intended is probably the mango, dmra ; but the word as&nbsp;given in Chinese is an-mo-lo-ko, which might also stand for amlika, the tamarind, or dmla, the Phyllanthus emblica.</ref> are so abundant that they form complete forests-the fruit being of two varieties, a smaller kind, which turns yellow as it ripens, and a larger, which remains always green. From this description it would appear that the then kingdom of Mathura extended east of the capital along the Doab in the direction of Mainpuri; for there the mango flourishes most luxuriantly and almost every village boasts a fine grove; whereas in Western Mathura it will scarcely grow at all except under the most careful treatment. In support of this inference it may be observed that, notwithstanding the number of monasteries and stupas mentioned by the Buddhist pilgrims as existing in the kingdom of Mathura, comparatively few traces of any such buildings have been discovered in the modern district, except in the immediate neighbourhood of the capital. In Mainpuri, on the contrary, and more especially on the side where it is nearest to Mathura, fragments of Buddhist sculpture may be seen lying in almost every village. In all probability the territory of Mathura at the time of Hwen -Thsang's visit, included not only the eastern half of the modem district, but also some small part of Agra and the whole of the Shikohabad and Mustafabad parganas of Mainpuri; while the remainder of the present Mainpuri district formed a portion of the kingdom of Sankasya, which extended to the borders of Kanauj. But all local recollection of this exceptional period has absolutely perished, and the mutilated effigies of Buddha and Maya are replaced on their pedestals and adored as Brahma and Devi by the ignorant villagers, whose forefathers, after long struggles, had triumphed in their overthrow.<br />
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In the time of the Emperor Akbar the land now included in the Mathura district formed parts of three different Sarkars, or Divisions—viz., Agra, Kol, and Sahar.<br />
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The Agra Sarkar comprised 33 mahals, four of which were Mathura, Maholi, Mangotla, and Maha-ban. Of these, the second, Maholi, (the Madhupuri of Sanskrit literature) is now quite an insignificant village and is so close to the city as almost to form one of its suburbs. The third, Mangotla or Magora, has disappeared altogether from the revenue-roll, having been divided into four pattis or shares, which are now accounted so many distinct villages. The fourth, Maha-ban, in addition to its present area, included some ten villages of what is now the Sadabad pargana and the whole of Mat; while Noh –jhil, lately united with Mat was at that time the centre of pargana Noh <ref>There is another large town, bearing the same strange name of Noh, at no great distance, but west of the Jamuna, in the district of Gurganw.&nbsp;It is specially notes for its extensive salt works</ref> which was included in the Kol Sarkar.The Sadabad <ref>Dr. Hunter,in his Imperial Gazetteer has thought proper to represent the name of this pargana as Saidabad, which he corrects to Sayyidabad.</ref> pargana had no independent existence till the reign of Shahjahan, when his famous minister, Sadullah Khan, founded the town which still bears his name, and subordinated to it all the surrounding country, including part of Khandauli, which is now in the Agra district.<br />
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The Sahar Sarkar consisted of seven mahals, or parganas, and included the territory of Bharat-pur. Its home pargana comprised a large portion of the modern Mathura district, extending from Kosi and Shergarh on the north to Aring on the south. It was not till after the dissolution of the Muhammadan power that Kosi was formed by the Jats into a separate pargana ; as also was the case with Shahpur, near the Gurganw border, which is now merged again in Kosi. About the same unsettled period a separate pargana was formed of Gobardhan. Subsequently, Sahar dropped out of the list of Sarkars, altogether; great part of it, including its principal town, was subject to Bharat-pur, while the remainder came under the head of Mathura then called Islampur or Islamabad. Since the mutiny, Sahar has ceased to give a name even to a pargana ; as the head-quarters of the Tahsildar were at that time removed, for greater safety, to the large fort-like sarae at Chhata.<br />
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As might be expected from the almost total absence of the Muhammadan element in the population, the language of the people, as distinct from that of the official classes, is purely Hindi. In ordinary speech 'water' is jal ; ' land' is dharti; 'a father,' pita; ‘grandson,' nati (from the Sanskrit naptri),and 'time' is often ‘samay’.Generally speaking, the conventional Persian phrases of compliment are represented by Hindi equivalents, as for instance, ikbal by pratap and tashrlf lana by kripa krana . The number of words absolutely peculiar to the district is probably very small; for Braj Bhasha (and Western Mathura is coterminous with Braj), is the typical form of Hindi, to which other local varieties are assimilated as far as possible. A short list of some expression that might strike a stranger as unusual has been prepared and will be found in the Appendix. In village reckonings, the Hindustani numerals, which are of singularly irregular formation and therefore difficult to remember, seldom employed in their integrity, and any sum above 20, except round numbers, is expressed by a periphrasis—thus, 75 it not pachhattar, but panch ghat assi, i.e., 80—5 ; and 97 is not suttanawe but tin ghat eau, i.e., 100-3. In pronunciation there are some noticeable deviations from established usage; thus, let s is substituted for sh, as in samil for shamil ; sumar for shumar : 2nd, ch takes the place of s as in Chita for Sita, and occasionally vice versa; as in charsa for church: and 3rd, in the vowels there is little or no distinction between a and i, thus we have Lakshmin for Lakshman The prevalence of this latter vulgarism explains the fact of the word Brahman being ordinarily spelt in English as Brahmin. It is still more noticeable in the adjoining district of Mainpuri; where, too, a generally becomes 0, as chalo gayo, “he went," for chala gaya-a provincialism equally common in the mouths of the Mathura peasants. It may also, as a grammatical peculiarity, be remarked that kari, the older form of the past participle of the verb karna, 'to do,' is much more popular than its modern abbreviation, ki; ne, which is now generally recognized as the sign of the agent, is sometimes used in a very perplexing way, for what it originally was, viz., the sign of the dative; and the demonstrative pronouns with the open vowel terminations, ta and wa, are always preferred to the sibilant Urdu forms is and us. As for Muhammadan proper names, they have as foreign a sound and are as much corrupted as English; for example, Wazir-ud-din, Hidayat-ullah and Taj Muhammad would be known in their own village only as Waju, Hatu and Taju, and would themselves be rather shy about claiming the longer title; while Mauja, which stands for the Arabic Mauj-ud-din, is transformed so completely that it is no longer recognized as a specially Muhammadan name and is often given to Hindus.<br />
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The merest glance at the map is sufficient proof of the almost exclusively Hindi character of the district. In the two typical parganas of Kosi and Chhata there are in all 172 villages, not one of which bears a name with the elsewhere familiar Persian termination of -abad. Less than a score of names altogether betray any admixture of a Muhammadan element, and even these are formed with some Hindi ending, as pur, nagar, or garh ; for instance, Akbar pur, Sher-nagar, and Sher-garh. All the remainder, to any one but a philo logical student, denote simply such and such a village, but have no connotation whatever, and are at once set down as utterly barbarous and unmeaning. An entire chapter further on will be devoted to their special elucidation. The Muhammadans in their time made several attempts to remodel the local nomen clature, the most conspicuous illustrations of the vain endeavour being the sub stitution of Islampur for the venerable name of Mathura and of Muminabad for Brinda-ban. The former is still occasionally heard in the law Courts when documents of the last generation have to be recited; and several others, though almost unknown in the places to which they refer, are regularly recorded in the register of the revenue officials. Thus, a village near Gobardhan is Parsoli to its inhabitants, but Muhammad-pur in the office; and it would be possible to live many years in Mathura before discovering that the extensive gardens on the opposite side of the river were not properly described as being at Hans ganj, but belonged to a place called Isa-pur. A yet more curious fact, and one which would scarcely be possible in any country but India, is this, that a name has sometimes been changed simply through the mistake of a copying clerk. Thus, a village in the Kosi pargana had always been known as Chacholi till the name was inadvertently copied in the settlement papers as Piloli and has remained so ever since. Similarly with two populous villages, now called Great and Little Bharna, in the Chhata pargana, the Bharna Khurd of the record-room is Lohra Marna on the spot; lohra being the Hindi equivalent for the more common chhota, 'little,' and Marna being the original name, which from the close resemblance in Nagari writing of m to bh has been corrupted by a clerical error into Bharna.<br />
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As in almost every part of the country where Hindus are predominant, the population consists mainly of Brahmans, Thakurs, and Baniyas; but to these three classes a fourth of equal extent, the Jats, must be added as the specially distinctive element. During part of last century the ancestors of the Jat Raja, who still governs the border State of Bharat-pur, exercised sovereign power over nearly all the western half of the district; and their influence on the country has been so great and so permanent in its results that they are justly entitled to first mention. Nothing more clearly indicated the alien character of the Jalesar; pargana than the fact that in all its 203 villages the Jats occupied only one; in Kosi and Maha-ban they hold more than half the entire number and in Chhata at least one-third.<br />
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It is said that the local traditions of Bayana and Bharat-pur point to Kandahar as the parent country of the Jats and attempts have been made to prove their ancient power and renown by identifying them with certain tribes men tioned by the later classical authors—the Xanthii of Strabo, the Xuthii of Dionysius of Samos, the Jatii of Pliny and Ptolemy—and at a more recent period with the Jats or Zaths, whom the Muhammadan found in Sindh when they first invaded that country.<ref>Tod, however,considered the last-mentioned tribe quite distinct. He writes : &ldquo;The Jats or Jits,far more numerous than perhaps all the Rajputs tribes put together,still retain their ancient appellation through the whole of Sindh.They are amogst the oldest converts to Islam&rdquo;</ref>These are the speculations of European scholars, which, it is needless to say, have never reached the ears of the persons most interested in the discussion. But lately the subject has attracted the attention of Native enquirers also, and a novel theory was propounded in a little Sanskrit pamphlet, entitled Jatharotpati, compiled by Sastri Angad Sarmma for the gratification of Pandit Giri Prasad, himself an accomplished Sanskrit scholar, and a Jat by caste, who resided at Beswa on the Aligarh border. It is a catena of all the ancient texts mentioning the obscure tribe of the Jatharas, with whom the writer wishes to identify the modern Jats and so bring them into the ranks of the Kshatriyas. The origin of the Jatharas is related in very similar terms by all the authorities; we select the passage from the Padma Purana as being the shortest. It runs as follows :-" Of old, when the world had been bereft, by the son of Bhrigu, of all the Kshatriya race, their daughters, seeing the land thus solitary and being desirous of conceiv ing sons, laid hold of the B'rahmans, and carefully cherishing the seed sown in their womb (jathara) brought forth Kshatriya sons called Jatharas."<br />
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<poem>'''क्षत्रशून्ये पुरा लोके भार्गवेण यदा कृते ।।'''<br />
'''बिलोक्यक्षित्रयां धात्रीं कन्यास्तेषां सहस्रश ।।'''<br />
'''ब्राह्मणान् जगृहुस्तस्मिन् पुत्रोत्पादनलिप्सया ।।'''<br />
'''जठरे धारितं गर्भं संरज्य विधिवत्पुरा ।।'''<br />
'''पुत्रान् सुषुविरे कन्या जाठरान् क्षत्रवंशजान् ।।'''<br />
'''आग्नेय्यां दिशि कोशलकलिंडग़वंडग़ोपवंगजठरांडग़ा ।।'''</poem><br />
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Now, there is no great intrinsic improbability in the hypothesis that the word Jathara has been shortened into Jat; but if the one race is really descended from the other, it is exceedingly strange that the fact should never have been so stated before. This difficulty might be met by replying that the Jats have always been, with very few exceptions, an illiterate class, who were not likely to trouble them-selves about mythological pedigrees; while the story of their parentage would not be of sufficient interest to induce outsiders to investigate it. But a more unanswerable objection is found in a passage which the Sastri himself quotes from the Brihat Sanhita (XIV., 8). This places the home of the Jatharas in the south-eastern quarter, whereas it is certain that the Jats have come from the west. Probably the leaders of Jat society would refuse to accept as their progenitors either the Jatharas of the Beswa Pandit or the Sindhian Zaths of General Cunningham; for the Bharat-pur princes affect to consider themselves as the same race with the Jadavas, and the Court bards in their panegyrics are always careful to style them Jadu-vansi.<br />
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However, all these speculations and assumptions have little basis beyond a mere similarity of name, which is often a very delusive test; and it is certain that whatever may have been the status of the Jats in remote antiquity, in historic times they were no way distinguished from other agricultural tribes, such as the Kurmis and Lodhas, till so recent a period as the beginning of last century.<br />
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Many of the largest Jat communities in the district distinctly recognize the social inferiority of the caste, by representing themselves as having been degrad ed from the rank of Thakurs on account of certain irregularities in their mar riage customs or similar reasons. Thus, the Jats of the Godha sub-division, who occupy the 18 villages of the Ayra-khera circle in the Maha-ban pargana, trace their pedigree from a certain Thakur of the very ancient Pramar- clan, who emigrated into these parts from Dhar in the Dakhin. They say that his sons, for want of more suitable alliances, married into Jat families in the neighbourhood and thus came to be reckoned as Jats themselves. Similarly the Dangri Jats of the five Madem villages in the same pargana have a tradition, the accuracy of which there seems no reason to dispute, that their ancestor, by name Kapur, was a Sissodiya Thakur from Chitor. These facts are both curious in themselves and also conclusive as showing that the Jats have no claim to pure Kshatriya descent; but they throw no light at all upon the origin of the tribe which the new immigrants found already settled in the country and with which they amalgamated: and as the name, in its present form, does not occur in any literary record whatever till quite recent days, there must always remain some doubt about the matter. The subdivisions are exceedingly numerous : one of the largest of them all being the Nohwar, who derive their name from the town of Noh and form the bulk of the population throughout the whole of the Noh‑jhil paragana.<br />
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Of Brahmans the most numerous class is the Sanadh, frequently called Sanaurhiya, and next the Gaur; but these will be found in every part of India, and claim no special investigation. The Chaubes of Mathura however, number ing in all some 6,000 persons, are a peculiar race and must not be passed over so summarily. They are still very celebrated as wrestlers and, in the Mathura Mahatmya, their learning and other virtues also are extolled in the most extra vagant terms; but either the writer was prejudiced or time has had a sadly de teriorating effect. They are now ordinarily described by their own country-men as a low and ignorant horde of rapacious mendicants. Like the Pragwalas at Allahabad, they are the recognized local cicerones; and they may always be seen with their portly forms lolling about near the most popular ghats and temples, ready to bear down upon the first pilgrim that approaches. One of their most noticeable peculiarities is that they are very reluctant to make a match with an outsider, and if by any possibility it can be managed, will always find bridegrooms for their daughters among the residents of the town. <ref>Tieffenthaller mentions this as a peculiarity of the women of Gokul. He says : &quot;Via a vis d Aurengabad eat an village nomme Gokul, .oG lion dit que demeuraient size mille femmes aveo les quelles Krishna etait marie. Les femmes de ce village se distinguent in ce quelles n'en sortent pas et ne ee martinet pas ailleurs.&quot; The writer, Father Joseph Tieffenthaller, a native of Bozuno, in the Austrian Tyrol, came out to India as a Jesuit missionary in 1743 and remained in the country all the rest of his life, nearly 42 years. As he never resided long in any one place, his travels eventually extended over nearly the whole continent and supplied him with matter for several treatises which he composed in Latin. None of them have been published in that language ; but a French translation of his Indian Geography, from which the above extract is taken, appeared in 1786 at Berlin as the first volume of Bernoulli's Description de lined. He died at Lucknow in July, 1785, but was buried at Agra, where on the stone that covers his grave may still be read the words : &quot; Pater Joseph Tieff'enthaller, obiit Lanoi 5 JuIli,, 1785.&quot; This is at the back of the old Catholic Church (built by Walter Reinhard), which stands in the same enclosure as the modern Cathedral, but has been long disused. I quote from him on several occasions rather on account of the rarity than the intrinsic value of the book.</ref> Hence the popular saving-<br />
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'''<poem>मथुरा की बेटी गोकुल की गाय<br />
करम फूटै तौ अनत जाय'''</poem>'''<br />
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which may be thus roughly rendered<br />
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'''<poem>Mathura girls and Gokal cows <br />
will never move while fate allows:'''</poem>'''<br />
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because, as is implied, there is no other place where they are likely to be so well off. This custom results in two other exceptional usages: first, that mar riage contracts are often made while one, or even both, of the parties most con cerned are still unborn; and secondly, that little or no regard is paid to relative age; thus a Chaube, if his friend has no available daughter to bestow upon him, will agree to wait for the first grand-daughter. Many years ago, a consider-able migration was made to Mainpuri, where the Mathuriya Chaubes now form a large and wealthy section of the community and are in every way of better repute than the parent stock.<br />
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Another Brahmanical, or rather pseudo-Brahmanical, tribe almost peculiar to the district, though found also at the town of Hathras and in Mewat, is that of the Ahivasis, a name which scarcely any one beyond the borders of Mathura is likely to have heard, unless he has had dealings with them in the way of business <ref>They are not mentioned either by Wilson or Elliot in their Glossaries. They have as many are seventy-two sub-divisions, two of the principal of which are called Daghlia and Bajravat</ref> They are largely employed as general carriers and have almost a complete monopoly of the trade in salt, and some of them have thus acquired considerable substance. They are also the hereditary proprietors of several vil lages on the west of the Jamuna, chiefly in the pargana of Chhata, where they rather affect large brick-built houses, two or more stories in height and covering a considerable area of ground, but so faultily constructed that an uncracked wall is a noticeable phenomenon. Without exception they are utterly ignorant and illiterate, and it is popularly believed that the mother of the race was a Chamar woman, who has influenced the character of her offspring more than the Brahman father. The name is derived from ahi, the great ‘serpent’ Kaliya, whom Krishna defeated; and their first home is stated to have been the village of Sunrakh, which adjoins the Kali-mardan ghat at Brinda-ban. The Pandes of the great temple of Baladeva are all Ahivasis, and it is matter for regret that the revenues of so wealthy a shrine should be at the absolute disposal of a com munity so extremely unlikely ever to make a good use of them.<br />
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The main divisions of Thakurs in Mathura are the Jadon and the Gaurua The former, however, are not recognized as equal in rank to the Jadons of Raj putana, though their prinicipal representative, the Raja of Awa,<ref>Now that Jalesar, the Raji's residence, has been included in the Eta district, he can no longer be reckoned among the gentry of Mathuti: but as part of his estate still lies here, it may be convenient to give, in the form of a note, a brief sketch of the family history. The pedigree begins only in the reign of Muhammad Shill (1710&mdash;1748 A. D.), when Thakur Chatur-bhuj, a zamindar of Earl In the Chhata pargana, came and settled at Jalesar, and was employed by the local governor in the professional capacity of a physician. His son, Bijay Sinh, for a short time also followed the vocation of his father, but was afterwards appointed to a small military command. The Jidol' zamindars of some adjacent villages, having become involved in pecuniary difficulties, were assisted by Chatur-bhuj, now become a wealthy man, and his son, themselves also members of the Jadon clan. They thus acquired considerable local influence, which was further extender by Bijay Sinh's eldest son, Bhakt Sinh. He was for a time in the service of Jawahir Sinh, the Maharaja of Bharat-pur, and also lent some support to Thakur Bahadur Sinh of Umargarh, from whom he received a grant of the village of Mesa. A number of other villages, belonging to different Thakur clans, also passed into his hands t and this accession of revenue enabled him to enlist under his standard a troop of marauding Mewatis, with whose aid he established himself, according to the custom of the time, as an independent free-booting chief. Finally he obtained a sanad from the Mahrattas authorizing him to build a fort at Awe. This was simply a garhi with a circuit of mud wells. The present formidable stronghold was built by his successor, Hira Sinh. In the Mahratta war the latter was able to ran leer some good service to the English ; and in 1838 it is said that his son, Pita bar Sinh, was recognised as Raja by the then Governor-General, Lord Auckland. He died in 1845, leaving no issue of his own save one daughter, who was married to a Rajput chief in the Gwaliar territory. His eon by adoption, Raja Prithi Sinh. a descendant of Thakur Bijay Sinh, the second of the family, died in July, 1878, leaving an infant heir, the present Elijah, Chhtra Pal Sinh, born 12th August, 1874 ; his mother being a member of the branch of the Nepal royal family residing at Banaras</ref> is one of the wealthiest landed proprietors in the whole of Upper India. The origin of the latter name is obscure, but it implies impure descent and is merely the generic title which has as many subordinate branches as the original Thakur stock. Thus we have Gauruas, who call themselves-some Kachhwahas, some Jasawats, some Sissodiyas, and so on, throughout the whole series of Thakur clans. The last named are more commonly known as Bachhals from the Bachh-ban at Sehi, where their Guru always resides. According to their own traditions they emi grated from Chitor some 700 or 800 years ago, but probably at rather a later period, after Ala-ud-din's famous siege of 1303. As they gave the name of Ranera to one of their original settlements in the Mathura district, there can be little doubt that the emigration took place after the year 1202, when the Sovereign of Chitor first assumed the title of Rana instead of the older Raval. They now occupy as many as 24 villages in the Chhata pargana, and a few of the same clan-872 souls in all are also to be found in the Bhauganw and Bewar parganas of the Mainpuri district.<br />
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The great majority of Baniyas in the district are Agarwalas. Of the Saraugis, whose ranks are recruited exclusively from the Baniya class, some few belong to that sub-division, but most of them, including Seth Raghunath Das, are of the Khandel gachchha or got. They number in all 1593 only and are not making such rapid progress here as notably in the adjoining district of Mainpuri and in some other parts of India. In this centre of orthodoxy 'the naked gods' are held in unaffected horror by the great mass of Hindus, and the submission of any well-to-do convert is generally productive of local disturbance, as has been the case more than once at Kosi. The temples of the sect are therefore few and far between, and only to be found in the neighbourhood of the large trading marts.<br />
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The principal one is that belonging to the Seth, which stands in the suburb of Kesopur. After ascending a flight of steps and entering the gate, the visitor finds himself in a square paved and cloistered court-yard with the temple opposite to him. It is a very plain solid building, arranged in three aisles, with the altar under a small dome in the centre aisle, one bay short of the end, so as to allow of a processional at the back. There are no windows, and the interior is lighted only by the three small doors in the front, one in each aisle, which is a traditional feature in Jaini architecture. What with the want of light, the lowness of the vault, and the extreme heaviness of the piers, the general effect is more that of a crypt than of a building so well raised above the ground as this really is, It is said that Jambu Swami here practised penance, and that his name is recorded in an old and almost effaced inscription on a stone slab that is still preserved under the altar. He is reputed the last of the Kevalis, or divinely inspired teachers, being the pupil of Sudharma, who was the only surviving disciple of Mahavira, the great apostle of the Digambaras, as Parsva Nath was of the Svetambara sect. When the temple was built by Mani Ram, he enshrined in it a figure of Chandra Prabhu, the second of the Tirthankaras; but a few years ago Seth Raghunath Das brought, from a ruined temple at Gwaliar, a large marble statue of Ajit Nath, which now occupies the place of honour. It is a seated figure of the conventional type, and beyond it there is nothing whatever of beauty or interest in the temple, which is as bare and unimpressive a place of worship as any Methodist meetinghouse. The site, for some unexplained reason, is called the Chaurasi, and the temple itself is most popularly known by that name. An annual fair is held here, lasting for a week, from Kartik 5 to 12: it was instituted in 1870 by Nain-Sukh, a Saraugis of Bharat-pur. In the city are two other Jain temples, both small and both dedicated to Padma Prabhu-the one in the Ghiya mandi, the other in the Chaubes' quarter. There are other temples out in the district at Kosi and Sahpau.<br />
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The Muhammadans, who number only 58,088 in a total population of 671,690, are not only numerically few but are also insignificant from their social position. A large proportion of them are the descendants of converts made by force of the sword in early days and are called Malakanas. They are almost exclusively of the Sunni persuasion, and the Shias have not a single mosque of their own, either in the city or elsewhere. In Western Mathura they nowhere form a considerable community, except at Shahpur, where they are the zamindars and constitute nearly half of the inhabitants of the town, and at Kosi, where they have been attracted by the large cattle-market, which they attend as butchers and dealers. To the east of the Jamuna they are rather more numerous and of somewhat higher stamp; the head of the Muhammadan family seated at Sadabad ranking among the leading gentry of the district. There is also, at Maha-ban, a Saiyid clan, who have been settled there for several centuries, being the descendants of Sufi Yahya of Mashhad, who recovered the fort from the Hindus in the reign of Ala-ud-din; but they are not in very affluent circumstances and, beyond their respectable pedigree, have no other claim to distinction. The head of the family, Sardar Ali, officiated for a time as a tahsildar in the Mainpuri district. The ancestral estate consists, in addition to part of the township of Maha-ban, of the village of Goharpur and Nagara Bharu; while some of his kinsmen are the proprietors of Shahpur Ghosna, where they have resided for several generations.<br />
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Though more than half the population of the district is engaged in agricul tural pursuits, the number of resident country gentlemen is exceptionally small.<br />
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Two of the largest estates are religious endowments; the one belonging to the Seth's temple at Brinda-ban, the other to the Gosain of Gokul. A third is enjoyed by absentees, the heirs of the Lala Babu, who are residents of Cal cutta; while several others of considerable value have been recently acquired by rich city merchants and traders.<br />
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For many years past the most influential person in the district has been the head of the great banking firm of Mani Ram and Lakhmi Chand. The house has not only a wider and more substantial reputation than any other in the North-Western Provinces, but has few rivals in the whole of India. With branch establishments in Delhi, Calcutta, Bombay, and all the other great cen tres of commerce, it is known everywhere, and from the Himalayas to Cape Comorin a security for any amount endorsed by the Mathura Seth is as readily convertible into cash as a Bank of England Note in London or Paris. The founder of the firm was a Gujarati Brahman of the Vallabhacharya persuasion. As he held the important post of ' Treasurer' to the Gwaliar State, he is thence always known as Parikh Ji, though strictly speaking, that was only his official designation, and his real name was Gokul Das. Being childless and on bad terms with his only brother, he, at his death in 1826, bequeathed the whole of his immense wealth to Mani Ram, one of his office subordinates, for whom he had conceived a great affection; notwithstanding that the latter was a Jaini, and thus the difference of religion between them so great, that it was impossible to adopt him formally as a son. As was to be expected, the will was fiercely disputed by the surviving brother; but after a litigation which extended over several years, its validity was finally declared by the highest Court of appeal, and the property confirmed in Mani Ram's possession. On his death, in 1886, it devolved in great part upon the eldest of his three sons, the famous million aire, Seth Lakhmi Chand, who died in 1866, leaving an only son, by name Raghunath Das. As the latter seemed scarcely to have inherited his father's talent for business, the management of affairs passed into the hands of his two uncles, Radha Krishan and Gobind Das. They became converts to Vaish navism, under the influence of the learned scholar, Swami Rangacharya, whom they afterwards placed at the head of the great temple of Rang Ji, which they founded at Brinda-ban; the only large establishment in all Upper India that is owned by the followers of Ramanuja.<br />
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On the death of Radha Krishan in 1859, the sole surviving brother, Gobind Das, became the recognized head of the family. In acknowledgment of his many distinguished public services, he was made a Companion of the Star of India on the 1st of January, 1877, when Her Majesty assumed the Imperial title. Unfortunately he did not live long to enjoy the well-merited honour, but died only twelve months afterwards, leaving as his joint heirs his two nephews, Raghunath Das, the son of Lakhmi Chand, and Lachhman Das, the son of Radha Krishan. For many years past the business has been mainly conducted by the head manager, Seth Mangi Lal, who is now also largely assisted by his two sons, Narayan Das and Srinivasa Das. The latter, who has charge of the Delhi branch, is an author as well as a man of business, and has published a Hindi drama of some merit entitled ‘Randhir and Prem-mohini.’ Narayan Das is the manager of the Brinda-ban Temple estate, and a very active member of the Municipal Committee, both there and at Mathura. For his personal exertions in superintending the relief operations during the late severe famine he received a khilat of honour from the Lieutenant-Governor in a pub lic Darbar held at Agra in the year 1880.<br />
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At the time of the mutiny, when all the three brothers were still living, with Seth Lakhmi Chand as the senior partner, their loyalty was most con spicuous. They warned the Collector, Mr. Thornhill, of the impending outbreak a day before it actually took place; and after it had occurred they sent such immediate information to the authorities at Agra as enabled them to dis arm and thus anticipate the mutiny of the other companies of the same Native Regiments, the 44th and the 67th, which were quartered there. After the houses in the station had been burnt down, they sheltered the Collector and the other European residents in their house in the city till the 5th of July, when, on the approach of the Nimach force, they took boat and dropped down the river to Agra. After their departure the Seths took charge of the Government treasure and maintained public order. They also advanced large sums of money for Government purposes on different occasions, when other wealthy firms had positively refused to give any assistance; and, so long as the disturb ances lasted, they kept up at great expense, for which they never made any claim to reimbursement, a very large establishment for the purpose of procur ing information and maintaining communication between Delhi and Agra. In acknowledgment of these services, the title of Rao Bahadur was conferred upon Seth Lakhmi Chand, with a khilat of Rs. 3,000. A grant was also made him of certain confiscated estates, yielding an annual revenue of Rs. 16,125, rentfree for his own life and at half rates for another life.<br />
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During the more than 20 years of peace which have now elapsed since those eventful days, the Seths, whenever occasion required, have shown themselves equally liberal and public spirited. Thus, when Sir William Muir started his scheme for a Central College at Allahabad, they supported him with a subscrip tion of Rs. 2,500 ; and in the famine of 1874, before the Government had put forth any appeal to the public; they spontaneously called a relief meeting and headed the list with a donation of Rs. 7,100. Again, when the construction of the Mathura and Hathras Light Railway was made conditional on its receiving a certain amount of local support, they at once took shares to the extent of a lakh and-a-half of rupees, simply with the view of furthering the wishes of Gov ernment and promoting the prosperity of their native town: profit was certainly not their object, as the money had to be withdrawn from other investments, where it was yielding a much higher rate of interest. In short, it has always been the practice of the family to devote a large proportion of their ample means to works of charity and general utility. Thus their great temple at Brinda-ban, built at a cost of 45 lakhs of rupees, is not only a place for religious worship, but includes also an alms-house for the relief of the indigent and a college where students are trained in Sanskrit literature and philosophy. Again, the city of Mathura, which has now become one of the handsomest in all Upper India, owes much of its striking appearance to the buildings erected in it by the Seths. It is also approached on either side, both from Delhi and from Agra, by a fine bridge constructed at the sole cost of Lakhmi Chand. To other works, which do not so conspicuously bear their names, they have been among the largest contributors, and it would be scarcely possible to find a single deserving institution in the neighbourhood, to which they have not given a helping hand. Even the Catholic Church received from them a donation of Rs. 1,100, a fact that deserves mention as a signal illustration of their unsectarian benevolence.<br />
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The Jat family of highest ancestral rank in the district is the one repre sented by the titular Raja of Hathras, who comes of the same stock as the Raja of Mursan. His two immediate predecessors were both men of mark in local history, and his pedigree, as will be seen from the accompanying sketch, is one of respectable antiquity.<br />
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[[Image:Makhan-Singh-Table.jpg|center]]<br />
Makhan Sinh, the founder of the family, was an immigrant from Rajputana, who settled in the neighbourhood of Mursan about the year 1860 A.D. His great-grandson, Thakur Nand Ram, who bore also the title of Faujdar, died in 1696, leaving 14 sons, of whom it is necessary to mention two only, viz., Jaikaran Sinh and Jai Sinh. The great-grandson of the former was Raja Bhagavant Sinh of Mursan, and of the latter Thakur Daya Ram of Hathras, who, during the early years of British administration, were the two most power ful chiefs in this part of the country. From a report made by the Acting Collector of Aligarh in 1808, we learn that the Mursan Raja's power extended at that time over the whole of Sa'dabad and Sonkh, while Mat, Maha-ban, Sonai, Raya Hasangarh, Sahpau and Khandauli, were all held by his kinsman at Hathras. Their title, however, does not appear to have been altogether un questioned, for the writer goes on to say:—" The valuable and extensive parganas which they farmed were placed under their authority by Lord Lake, im mediately after the conquest of these Provinces; and they have since continued in their possession, as the resumption of them was considered to be calculated to excite dissatisfaction and as it was an object of temporary policy to conciliate their confidence."<br />
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This unwise reluctance on the part of the paramount power to enquire into the validity of the title, by which its vassals held their estates, was naturally construed as a confession of weakness and hastened the very evils which it was intended to avert. Both chieftains claimed to be independent and assumed so menacing an attitude that it became necessary to dislodge them from their strongholds; the climax of Daya Ram's recusancy being his refusal to surren der four men charged with murder. A force was despatched against them under Major-General Marshall, and Mursan was reduced without difficulty. But Hathras, which was said to be one of the strongest forts in the country, its defences having been improved on the model of those carried out by British Engineers in the neighbouring fort of Aligarh, had to be subjected to a regular siege. It was invested on the 21st of February, 1817. Daya Ram, it is said, was anxious to negotiate, but was prevented from carrying out his intention by Nek Ram Sinh (his son by an ahiri concubine), who even made an attempt to have his father assassinated as he was returning in a litter from the English camp. Hostilities, at all events, were continued, and on the 1st of March fire was opened on the fort from forty-five mortars and three breaching batteries of heavy guns. On the evening of the same day a magazine exploded and caused such general devastation that Daya Ram gave up all for lost and fled away by night on a little hunting pony, which took him the whole way to Bharat-pur. There Raja Randhir Sinh declined to run the risk of affording him protection, and he continued his flight to Jaypur. His fort was dismantled and his estates all confiscated, but he was allowed a pension of Rs. 1,000 a month for his personal maintenance.<br />
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On his death in 1841, he was succeeded by his son, Thakur Gobind Sinh, who at the time of the mutiny in 1857 held only a portion of one village, Shahgarh, and that merely in mortgage. “With his antecedents," writes Mr. Bramley, the Magistrate of Aligarh, in his report to the Special Commissioner, dated the 4th of May, 1858, " it would, perhaps, have been no matter for sur prise had he, like others in his situation, taken part against the Government. However, his conduct has been eminently loyal. I am not aware that he at any time wavered. On the first call of the Magistrate and Collector of Mathura he came with his personal followers and servants to the assistance of that gentleman, and was shortly afterwards summoned to Aligarh; there he remained throughout the disturbed period, ready to perform any services within his power; and it was in a great measure due to him that the important town of Hathras was saved from plunder by the surrounding population. He accompanied the force under Major Montgomery to Kol, and was present with his men in the action fought with the rebel followers of Muhammad Ghos Khan at Man Sinh's Bagh on the 24th of August. On the flight of the rebel Governor of Kol, he was put in charge of the town and was allowed to raise a body of men for this service. He held the town of Kol and assisted in collecting revenue and recovering plundered property till September 25th, when he was surprised by a Muham madan rabble under Nasim-ullah and forced to leave the town with some loss of men. This service was one, I presume, of very considerable danger, for he was surrounded by a low and incensed Muhammadan population and on the high road of retreat of the Delhi rebels, while the support of Major Montgomery's force at Hathras was distant and liable itself to be called away on any exigency occurring at Agra.<br />
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On the re-occupation of the Aligarh district Gobind Sinh resumed his post in the city, and by his good example rendered most important aid in the work of restoring order. His followers have at all times been ready for any service and have been extremely useful in police duties and in escort ing treasure to Agra and Bulandshahr; in guarding ghats and watch ing the advance of rebels; in performing, indeed, the duties of regular troops. His loyalty has exposed him to considerable pecuniary loss; his losses on September 25th being estimated at upwards of Rs. 30,000, while his house at Brinda-ban was also plundered, by rebel's returning from Delhi, to a much larger amount of ancestral property that cannot be replaced."<br />
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In compensation for these losses and in acknowledgment of the very valua ble services which he had rendered to Government by his family influence and personal energy, he received a grant of Rs. 50,000 in cash, together with a landed estate <ref>Tod, however,considered the last-mentioned tribe quite distinct. He writes : &ldquo;The Jats or Jits,far more numerous than perhaps all the Rajputs tribes put together,still retain their ancient appellation through the whole of Sindh.They are amogst the oldest converts to Islam&rdquo</ref> lying in the districts of Mathura and Bulandshahr, and was also honoured with the title of Raja; the sanad, signed by Lord Canning, being dated the 25th of June, 1858.<br />
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Raja Gobind Sinh was connected by marriage with the head of the Jat clan; his wife, a daughter of Chaudhari Charan Sinh, being sister to Chaudhari Ratan Sinh, the maternal uncle of Maharaja Jasvant Sinh of Bharat-pur. This lady, the Rani Sahib Kunvar, is still living and manages her estate with much ability and discretion through the agency of Pandit chitar Sinh, a very old friend of the family. At the time of her husband's decease in 1861, there was an infant son, but he died very soon after the father. As this event had been anticipated, the Raja had authorized his widow to adopt a son, and she selected for the purpose Hari Narayan Sinh, born in 1863, the son of Thakur Rup Sinh of Jatoi, a descendant, as was also Raja Gobind Sinh himself, of Thakur Nand Ram's younger son, Jai Sinh. This adoption was opposed by Kesri Sinh, the son of Nek Ram, who was the illegitimate offspring of Thakur Daya Ram. But the claim that he advanced on behalf of his own sons, Sher Sinh and Balavant Sinh, was rejected by the Judge of Agra in his order dated November, 1872, and his view of the case was afterwards upheld by the High Court on appeal. At the Delhi Assemblage of the 1st of January, 1877, in honour of Her Majesty's assumption of the Imperial title, Raja Gobind Sinh's title was formally continued to Hari Narayan Sinh for life. He resides with his mother, the Rani Sahib Kunvar, at Brinda-ban, where he has a handsome house on the bank of the Jamuna, opposite the Kesi ghat, and here, on the occa sion of his marriage in February, 1877, be gave a grand entertainment to all the European residents of the station, including the officers of the Xth Royal Hussars. Though only 14 years of age, he played his part of host with perfect propriety and good breeding—taking a lady into dinner, sitting at the head of his table—though, of course, not eating anything—and making a little speech to return thanks after his health had been proposed.<br />
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The only Muhammadan family of any importance is the one seated at Sa'dabad. This is a branch of the Lal-Khani stock, which musters strongest in the Bulandshahr district, where several of its members are persons of high dis tinction and own very large estates.<br />
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They claim descent from Kunvar Pratap Sinh, a Bargujar Thakur of Rajaur, in Rajputana, who joined Prithi Raj of Delhi in his expedition against Mahoba. On his way thither he assisted the Dor Raja of Kol in reducing a rebellion of the Minas, and was rewarded by receiving in marriage the Raja's daughter, with a dowry of 150 villages in the neighbourhood of Pahasu. The eleventh in descent from Pratap Sinh was Lal Sinh, who, though a Hindu, received from the Emperor Akbar the title of Khan ; whence the name LalKhani, by which the family is ordinarily designated. It was his grandson, Itimad Rae, in the reign of Aurangzeb, who first embraced Muhammadanism. The seventh in descent from Itimed Rae was Nahar Ali Khan, who, with his nephew, Dunde Khan, held the fort of Kumona, in Bulandshahr, against the English, and thus forfeited his estate, which was conferred upon his relative, Mardan Ali Khan.<br />
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The latter, who resided at Chhatari, which is still regarded as the chief seat of the family, was the purchaser of the Sa'dabad estate, which on his death passed to his eldest son, Husain Ali Khan, and is now held by the widow, the Thakurani Hakim-un-nissa. It yields an annual income of Rs. 48,569, derived from as many as 26 different villages. The Thakurani being childless, the pro perty was long managed on her behalf by her husband's nephew, the late Kun var Irshad Ali Khan. He died in 1876 and was succeeded by his son, ltimad Ali Khan, who is the present head of the family in this district. Several of his relatives have other lands here. Thus his uncle, Naval Sir Faiz Ali Khan, K.C.S.I., owns the village of Nanau ; and the villages of Chhava and Dauhai, yielding a net income of Rs. 1,993, belong to Thakurani Zeb-un-nissa, the widow of Kamr Ali Khan, Sir Faiz's uncle. Two other villages, Bahardoi and Narayan pur, are the property of a minor, Ghulam Muhammad Khan, the son of Hidayat Ali Khan, who was adopted by Zuhur Ali Khan of Dharmpur on the failure of issue by his first wife; they yield an income of Rs. 3,555. The relationship existing between all these persons will be best understood by a glance at the accompanying genealogical table.<br />
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[[चित्र:Table-Growse-3.jpg|center]]<br />
The family, in commemoration of their descent, retain the Hindu titles of Kunvar and Thakurani and have hitherto, in their marriage and other social customs, observed many old Hindu usages. The tendency of the present generation is, however, rather to affect an ultra-rigid Muhammadanism; and the head of the house, the Nawab of Chhatari, is an adherent of the Wahabis.<br />
Of the smaller estates in the district, some few belong to respectable old families of the yeoman type; others have been recently acquired by speculating money-lenders; but the far greater number are split up into infinitesimal frac tions among the whole village community. Owing to this prevalence of the Bhaiyachari system, as it is called, the small farmers who cultivate their own lands constitute a very large class, while the total of the non-proprietary classes is proportionately reduced. A decided majority of the latter have no assured status, but are merely tenants-at-will. Throughout the district, all the land brought under the plough is classified under two heads,—first, according to its productiveness; secondly, according to its accessibility. The fields capable of artificial irrigation—and it is the supply of water which most influences the amount of produce—are styled chahi, all others khaki; those nearest the village are known as bara, those rather more remote as manjha, and the furthest away barha . <ref>Tieffenthaller mentions this as a peculiarity of the women of Gokul. He says : &quot;Via a vis d Aurengabad eat an village nomme Gokul, .oG lion dit que demeuraient size mille femmes aveo les quelles Krishna etait marie. Les femmes de ce village se distinguent in ce quelles n'en sortent pas et ne ee martinet pas ailleurs.&quot; The writer, Father Joseph Tieffenthaller, a native of Bozuno, in the Austrian Tyrol, came out to India as a Jesuit missionary in 1743 and remained in the country all the rest of his life, nearly 42 years. As he never resided long in any one place, his travels eventually extended over nearly the whole continent and supplied him with matter for several treatises which he composed in Latin. None of them have been published in that language ; but a French translation of his Indian Geography, from which the above extract is taken, appeared in 1786 at Berlin as the first volume of Bernoulli's Description de lined. He died at Lucknow in July, 1785, but was buried at Agra, where on the stone that covers his grave may still be read the words : &quot; Pater Joseph Tieff'enthaller, obiit Lanoi 5 JuIli,, 1785.&quot; This is at the back of the old Catholic Church (built by Walter Reinhard), which stands in the same enclosure as the modern Cathedral, but has been long disused. I quote from him on several occasions rather on account of the rarity than the intrinsic value of the book.</ref> The combination of the two classes gives six varieties, and ordinarily no others are recognized, though along the course of the Jamuna the tracts of alluvial land are, as elsewhere, called khadar—the high sterile banks are bangar, and where broken into ravines behar; a soil exceptionally sandy is bhur, sand-hills are puth, and the levels between the hills pulaj.<br />
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The completion of the Agra Canal has been a great boon to the district. It traverses the entire length of Western Mathura, passing close to the towns of Kosi, Sahar, and Aring, and having as its extreme points Hathana to the north and Little Kosi to the south. It was officially opened by Sir William Muir on the 5th of March, 1874, and became available for irrigation purposes about the end of 1875, by which time its distributaries also had been con structed. Its total length from Okhla to the Utangan river at Bihari below Fatihabad is 140 miles, and it commands an area of three-quarters of a million acres, of which probably one-third—that is 250,000 acres—will be annually irrigated. The cost has been above £710,000, while the net income will he about £58,000, being a return of 8 per cent. It will be practicable for boats and barges, both in its main line and its distributaries, and thus, instead of the shallow uncertain course of the Jamuna, there will be sure and easy naviga tion between the three great cities of Delhi, Mathura, and Agra. One of the most immediate effects of the canal will probably be a large diminution of the area under bajra and joar, which, by reason of their requiring no artificial irriga tion, have hitherto been almost the only crops grown on much of the land. For, with water ordinarily from 40 to 60 feet below the surface and a sandy subsoil, the construction of a well is a costly and difficult undertaking. In future, wheat and barley, for which the soil when irrigated is well adapted, will be the staple produce ; indigo and opium, now almost unknown, will be gradually introduced; vegetables will be more largely cultivated and double-cropping will become the ordinary rule. Thus, not only will the yield per acre be increased by the facili ties for irrigation, but the produce will be of an entirely different and much more valuable character.<br />
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A scheme for extending the irrigation of the Ganges Canal through the parganas on the opposite—that is to say, the left—side of the Jamuna has long been held in view. The branch which takes off from the main canal at Dehra in the Merath district has by auticipation been termed the Mat branch, though its irrigation stops short in the Tappal pargana of Aligarh, one distribu tary only irrigating a few villages north of Noh jhil. The water-supply in the Ganges Canal is limited, and would not have sufficed for any further exten sion; but now that the Kanhpur branch is supplied from the new Lower Ganges Canal, a certain volume of water has become available, a portion of which has been allotted for the Mat branch extension. If the project be sanctioned in its entirety, the existing sub-branch will be widened to carry the additional supply and extended through the Tappal pargana, entering Noh-jhil in the village of Bhure-ka. The course of the main supply line will pass along the water shed of the Karwan and Jamuna Doab to the east of Bhure-ka, and then by the villages of Dandisara, Harnaul, Nasithi, and Arua till it crosses the Mat and Raya road and the Light Railway. Thence it will extend to Karab, Sonkh, and Pachawar, where at its 40th mile it will end in three distributaries, which will carry the water as far as the Agra and Aligarh road. The scheme thus pro vides for the irrigation of the parganas of Noh jhil, Mat, Maha-ban, and that portion of Sa'dabad which lies to the west of the Karwan nadi. About five miles of the main line were excavated as a famine relief work in 1878; but operations were stopped inconsequence of financial difficulties, and it is doubtful whether they will be resumed. There is also a considerable amount of well irrigation in Maha-ban and Sa'dabad, which renders the extension into those parganas a less pressing necessity.<br />
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The district is one which has often suffered severely from drought. In 1813-14 the neighbourhood of Sahar was one of the localities where the distress was most intense. Many died from hunger, and others were glad to sell their wives and children for a few rupees or even for a single meal. In 1825-26 the whole of the territories known at that time as the Western Provinces were afflicted with a terrible drought. The rabi crops of the then Sa'dadad district were estimated by Mr. Boddam, the Collector, as below the average by more than 200,000 mans; Maha-ban and Jalesar being the two parganas which suf fered most. But the famine of 1837-38 was a far greater calamity, and still forms an epoch in native chronology under the name of ` the chauranawe,' or `the 94'; 1894 being its date according to the Hindu era. Though Mathura was not one of the districts most grievously afflicted, distress was still extreme, as appears from the report submitted by the Commissioner, Mr. Hamilton, after personal investigation. About Raya, Mat, and Maha-ban he found the crops scanty, and the soil dry, and cultivated only in the immediate vicinity of masonry wells. About Mathura, the people were almost in despair from the wells fast turning so brackish and salt as to destroy rather than refresh vege tation. " All of the Aring and Gobardhan parganas (he writes) which came under my observation was an extensive arid waste, and for miles I rode over ground which had been both ploughed and sown, but in which the seed had not germinated and where there seemed no prospect of a harvest. The cattle in Aring were scarcely able to crawl, and they were collected in the village and suffered to pull at the thatch, the people declaring it useless to drive them forth to seek for pasture. Emigration had already commenced, and people of all classes appeared to be suffering."<br />
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Of the famine of 1860-61 (commonly called the ath-sera, from the pre valent bazaar rate of eight sers only for the rupee) the following narrative was recorded by Mr. Robertson, Officiating Collector :—" Among prosperous agri culturists," he says, "about half the land usually brought under cultivation is irrigated, and irrigated lands alone produce crops this year. But though only half the crop procured in ordinary years was obtained by this class of cultiva tors, the high price of corn enabled them, while realizing considerable profits, to meet the Government demand without much difficulty. The poorer class of cultivators were, however, ruined, and with the poorest in the cities, taking advantage of the position of Mathura as one of the border famine tracts, they abandoned the district in large numbers, chiefly towards the close of 1860. Rather more than one-fourth of the agricultural emigrants have returned, and the quiet, unmurmuring industry with which they have recommenced life is not a less pleasing feature than the total absence of agrarian outrage during the famine. The greatest number of deaths from starvation occurred during the first three months of 1861, when the average per mensem was 497. During the succeeding three months this average was reduced to 85, while the deaths in July and August were only five and six respectively. The total number of deaths during the eight months has been 1,758. Viewing the universality of the famine, these results sufficiently evidence ,the active co-operation in mea sures of relief rendered by the native officials assisted by the police, and the people everywhere most pointedly express their obligation to the Government and English liberality. No return of the number of deaths caused by starva tion seems to have been kept from October, 1860, to January, 1861, but judging by the subsequent returns, 250 per mensem might be considered as the highest average. Thus, the mortality caused by the famine in this district in the year 1860-61 may approximately be estimated at 2,500." <ref> Mr. Robertson&rsquo;s narrative has been copied form the original paper in the District Office. The other particulars have been extracted from Mr. Girdlestone&rsquo;s Report on Past Famines, Published by Government in 1868.</ref> If such a large number of persons really died simply from starvation—and there seems no reason to doubt the fact—the arrangements for dispensing relief can scarcely have merited all the praise bestowed upon them. There was certainly no lack of funds towards the end, but possibly they came when it was almost too late. In the month of April some 8,000 men were employed daily on the Delhi road ; the local donations amounted to 16,227, and this sum was increased by a contribution of 8,000 from the Agra Central Committee, and Its. 5,300 from Government, making a total of Rs. 29,528. An allotment of Rs. 5,000 was also made from the Central Committee for distribution among the indigent agriculturists, that they might have wherewithal to purchase seed and cattle.<br />
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At the present time the district has scarcely recovered from a series of disastrous seasons, resulting in a famine of exceptional severity and duration, which will leave melancholy traces behind it for many years yet to come. Both in 1875 and 1876 the rainfall was much below the average, and the crops on all unirrigated land proportionately small. In 1877 the entire period of the ordinary monsoon passed with scarcely a single shower, and it was not till the beginning of October, when almost all hope was over, that a heavy fall of rain was vouchsafed, which allowed the ground to be ploughed and seed to be sown for the ensuing year. The autumn crops, upon which the poorer classes mainly subsist, failed absolutely, and for the most part had never even been sown. As early as July, 1877, the prices of every kind of grain were at famine rates, which continued steadily on the increase, while the commoner sorts were before long entirely exhausted. The distress in the villages was naturally greatest among the agricultural labourers, who were thown out of all employ by the cessation of work in the fields, while even in the towns the petty handicraftsmen were unable to purchase sufficient food for their daily subsist ence on account of the high prices that prevailed in the bazar. In addition to its normal population the city was further thronged by crowds of refugees from outside, from the adjoining native states, more especially Bharat-pur, who were attracted by the fame of the many charitable institutions that exist both in the city itself and at Brinda-ban. No relief works on the part of the Government were started till October, when they were commenced in different places all over the district under the supervision of the resident Engineer. They con sisted chiefly of the ordinary repairs and improvements to the roads, which are annually carried out after the cessation of the rains. The expense incurred under this head was Rs. 17,762, the average daily attendance being 5,519. On the 25th of November in the same year (1877) it was found necessary to open a poorhouse in the city for the relief of those who were too feeble to work. Here the daily average attendance was 890 but, on the 30th July, 1878, the number of inmates amounted to 2,139, and this was unquestionably the time when the distress was at its highest. The maximum attendance at the relief works, however, was not reached till a little later, viz., the 19th of August, when it was 20,483, but it would seem to have been artificially increased by the unnecessarily high rates which the Government was then paying.<br />
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The rabi crops, sown after the fall of rain in October, 1877, had been fur ther benefited by unusually heavy winter rains, and it was hoped that there would be a magnificent outturn. In the end, however, it proved to be even below the average, great damage having been done by the high winds which blew in February. Thus, though the spring harvest of 1878 gave some relief, it was but slight, and necessarily it could not affect at all the prices of the common autumn grains. The long-continued privation had also had its effect upon the people both physically and mentally, and they were less able to strug gle against their misfortunes. The rains for 1878 were, moreover, very slight and partial and so long delayed that they had scarcely set in by the end of July, and thus it was, as already stated, that this month was the time when the famine was at its climax. In August and September matters steadily improved, and henceforth continued to do so; but the poorhouse was not closed till the end of June, 1879. The total number of inmates had then been 395,824, who had been relieved at a total cost of its. 43,070, of which sum Rs. 2,990 had been raised by private subscription and Rs. 3,500 was a grant from the Municipality.<br />
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Beside the repairs of the roads the other relief works undertaken and their cost were as follows : the excavation of the Jait tank, Rs. 6,787 ; the deepening of the Balbhadra tank, Rs. 5,770 ; and the levelling of the Jamalpur mounds, s.Rs. 7,238: these adjoined the Magistrate's Court-house, and will be frequently mentioned hereafter as the site of a large Buddhist monastery. On the 11th of May, 1878, the earthwork of the Mathura and Achnera Railway was taken in hand and continued till the beginning of September, during which time it gave employment to 713,315 persons, at an expenditure of Rs. 56,639. An extension of the Mat branch of the Ganges Canal was also commenced on the 30th July, and employed' 579,351 persons, at a coat of Rs. 43,142, till its close on the 16th of October. There should also be added Rs. 6,379, which were spent by the Municipality through the District Engineer, in levelling some broken ground opposite the City Police Station. The total cost on all these relief works thus amounted to Rs. 1,80,630. No remission of revenue was granted by the Government, but advances for the purchase of bullocks and seed were distributed to the extent of Rs. 35,000. <ref>I saw nothing of the famine myself, as I left the district in April, 1877, before it had begun.&nbsp;Selfishly,&nbsp;I am glad to have escaped the sight of so much misery: though, possibly, if I had been on the spot, my local experience might have proved useful both to the Government and the people.</ref> The following tabular statement shows the mortality that prevailed during the worst months of this calamitous period : the total population of the district being 778,839<br />
<br />
<table border="1" cellpadding="5" cellspacing="0"><br />
<tr height="17"><br />
<td height="17" width="61">&nbsp;</td><br />
<td width="39">July</td><br />
<td width="38">Aug</td><br />
<td width="56">&nbsp;Sept.</td><br />
<td width="46">Oct</td><br />
<td width="54">&nbsp; Nov.</td><br />
<td width="40">Dece</td><br />
<td width="38">Jan</td><br />
<td width="41">Feb</td><br />
<td width="51">March</td><br />
<td width="45">April</td><br />
<td width="40">May</td><br />
<td width="49">June</td><br />
</tr><br />
<tr height="17"><br />
<td height="17" width="61">1877-78..</td><br />
<td width="39">&nbsp;973</td><br />
<td align="right" width="38">1,126</td><br />
<td width="56">&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;932</td><br />
<td width="46">&nbsp;1,337</td><br />
<td align="right" width="54">1,579</td><br />
<td align="right" width="40">1,973</td><br />
<td align="right" width="38">1,869</td><br />
<td align="right" width="41">1,725</td><br />
<td align="right" width="51">2,018</td><br />
<td align="right" width="45">2,511</td><br />
<td align="right" width="40">2,189</td><br />
<td> &nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;&nbsp;3672</td><br />
</tr><br />
<tr height="17"><br />
<td height="17" width="61">1878-79..</td><br />
<td width="39">2,562</td><br />
<td width="38">&nbsp;2,970</td><br />
<td align="right">6,579</td><br />
<td align="right">10,414</td><br />
<td align="right">8,643</td><br />
<td align="right">4,710</td><br />
<td align="right">2,491</td><br />
<td align="right">1,474</td><br />
<td align="right">1,143</td><br />
<td align="right">1,511</td><br />
<td align="right">1,891</td><br />
<td align="right">1,661</td><br />
</tr><br />
</table><br />
<br />
The metalling of the Delhi road, which has been incidentally mentioned as the principal relief work in 1860, was not only a boon at the time, but still con tinues a source of the greatest advantage to the district. The old imperial thoroughfare, which connected the two capitals of Agra and Lahor, kept closely to the same line, as is shown by the ponderous kos minars, which are found still standing at intervals of about three miles, and nowhere at any great distance from the wayside. Here was the " delectable alley of trees, the most incomparable ever beheld," which the Emperor Jahangir enjoys the credit of having planted. That it was really a fine avenue is attested by the language of the sober Dutch topographer, John de Laet, who, in his India Vera, written in 1631, that is, early in the reign of Shahjahan, speaks of it in the following terms :—" The whole of the country between Agra and Lahor is well-watered and by far the most fertile part of India. It abounds in all kinds of produce, especially sugar. The highway is bordered on either side by trees which bear a fruit not unlike the mulberry <ref> In the original Latin text the word is morus, which Mr. Lethbridge, in his scholarly English edition, translates by &lsquo;flg;&rsquo; but I think &lsquo;mulberry&rsquo; a more accurate rendering, and that to be the tree intended.&nbsp;It is to this day largely used for roadside planting at Lahore, and still more so in the Peshawar valley and in Kabul and on the Oxus.&nbsp;De Laet says it was only like the mulberry, and not that it positively was the mulberry, on account of the difference of the two varieties of the fruit, the Indian and the European, which is very considerable.&nbsp;In the Kashmir valley both are to be seen.</ref> and as he adds in another place, "form a beautiful avenue." " At intervals of five or six coss," he continues, " there are sarais built either by the king or by some of the nobles. In these travellers can find bed and lodging ; when a person has once taken possession he cannot be turned out by any one." The glory of the road, however, seems to have been of short duration, for Bernier, writing only thirty years later, that is, in 1663, says :--"- Between Delhi and Agra, a distance of fifty or sixty leagues, the whole road is cheerless and uninteresting;" and even so late as 1825, Bishop Heber, on his way down to Calcutta, was apparently much struck with what he calls "the wildness of the country," but mentions no avenue, as he certainly would have done had one then existed. Thus it is clear that the more recent administrators of the district, since its incorporation into British territory, are the only persons entitled to the traveler’s blessing for the magnificent and almost unbroken canopy of over-arching boughs, which now extends for more than thirty miles from the city of Mathura to the border of the Gurganw district, and forms a sufficient protection from even the mid-day glare of an Indian summer's sun.<br />
Though the country is now generally brought under cultivation, and can scarcely be described as even well wooded, there are still here and there many patches of waste land covered with low trees and jungle, which might be consi dered to justify the Bishop's epithet of wild-looking. The herds of deer are so numerous that the traveller will seldom go many miles in any direction along a bye-road without seeing a black-buck, followed by his harem, bound across the path. The number has probably increased rather than diminished in late years, as the roving and vagabond portion of the population, who used to keep them in check, were all disarmed after the mutiny. Complaints are now frequent of the damage done to the crops ; and in some parts of the district yet more serious injury is occasioned by the increase in the number of wolves.<br />
<br />
The old Customs hedge, now happily abolished, used to run along the whole length of this road from Jait, seven miles out of Mathura, to the Gurganw border. Though in every other respect a source of much annoyance to the people living in its neighbourhood, the watchmen, who patrolled it night and day, were a great protection to travellers, and a highway robbery was never known to take place; while on the corresponding road between Mathura and Agra they were at one time of frequent occurrence.<ref>This Inland Customs Line, which had no parallel in the world except the great wall of China, was about 1,200 miles in length, from the Tapti to the Indus, and was manned by an establishment of between 8,000 and 9,000 officers and men. It consisted of a barrier, chiefly in the form of a thick, thorny hedge, along which were placed at short intervals more than 1,300 guard posts. The cost was about &pound;100,000 per annum, and the revenue realized about a million sterling; the yearly import of salt from Rajputana being about 80,000 tons, of which on an average one-half came from the Bharat-pur State</ref><br />
<br />
The quantity of sugarcane now grown in this part of the district is very inconsiderable. The case may have been different in De Laet's time ; but on other grounds there seems reason for believing that his descriptions are not drawn from actual observation, and are therefore not thoroughly trustworthy. For example, he gives the marches from Agra to Delhi as follows:—" Front Agra, the residence of the king, to Rownoctan, twelve coss ; to Bady, a sarae, ten ; to Achbarpore, twelve (this was formerly a considerable town, now it is only visited by pilgrims, who come on account of many holy Muhammadans buried here) ; to Hondle, thirteen coss ; to Pulwool, twelve ; to Fareedabad, twelve; to Delhi, ten." Now, this passage requires much manipulation before it can be reconciled with established facts. Rownoctan, it may be presumed, would, if correctly spelt, appear in the form Raunak-than, meaning " a royal halting-place," and was probably merely the fashionable appellation, for the time, of the Hindu village of Rankata, which is still the first stage out of Agra. Bady or Bad, is a small village on the narrow strip of Bharat-pur territory which so inconveniently intersects the Agra and Mathura road. There has never been any saran these ; the one intended is the Jamal-pur sarae, some three coss further on, at the entrance to the civil station. The fact that Mathura has dropt out of the Itinerary altogether, in favour of such an insignificant little hamlet as Bad, is a striking illustration of the low estate to which the great Hindu city had been reduced at the time in question <ref>Similarly, it will be seen that Tavernier, writing about 1650, recognizes Mathura as the name of a temple only, not of a town at all</ref> Again, the place with the Muhammadan tombs is not Akbar-pur, but the next village, Dotana; and the large saraes at Kosi and Chhata are both omitted.<br />
<br />
These saraes are fine fort-like buildings, with massive battlemented walls and bastions and high-arched gateways. They are five in number: one at the entrance to the civil station ; the second at 'Azamabad, two miles beyond the city on the Delhi road ; another at Chaumuha; the fourth at Chhata, and the fifth at Kosi. The first, which is smaller than the others and has been much modernized <ref>A range of vaulted chambers flanking the central gateway were pulled down by the Public Works department in 1876, to make way for some modern buildings intended to answer the same purpose, but necessarily of much less substantial construction. The old cells had been rendered unsightly by the mud walls with which the arches had been closed; but these excrescences could all have been cleared away at very slight expense</ref> has for many years past been occupied by the police reserve, and is ordinarily called ' the Damdama.' The three latter are generally ascribed by local tradition to Sher Shah, whose reign extended from 1540 to 1545, though it is also said that Itibar Khan was the name of the founder of the two at Mathura and Kosi, and A’saf Khan of the one at Chhata. It is probable that both traditions are based on facts: for at Chhata it is obvious at a glance that both the gateways are double buildings, half dating from one period and half from another. The inner front, which is plain and heavy, may be referred to Sher Shah, while the lighter and more elaborate stone front, looking towards the town, is a subsequent addition. As A’saf Khan is simply a title of honour (the ' Asaph the Recorder' of the Old Testament) which was borne by several persons in succession, a little doubt arises at first as to the precise individual intended. The presumption, however, is strongly in favour of Abd-ul-majid, who was first Humayun's Diwan, and on Akbar's accession was appointed Governor of Delhi. The same post was held later on by Khwaja Itibar Khan, the reputed founder of the Kosi sarae. The general style of architecture is in exact conformity with that of similar buildings known to have been erected in Akbar's reign, such, for example, as the fort of Agra. The Chaumuha sarae <ref>Chaumuha is distorted by Tieffenthaler intoTschaomao. He speaks of its sane as &quot; hotelellerie at commode.&quot;</ref> is, moreover, always described in the old topographies as at Akbarpur . <ref>At Akbarpur, by the roadside is a large and very deep bauli approached by a flight of 76 steps, once cased with stone, which has now been almost all stripped off and applied by the villagers to other purposes.Immediately adjoining are the ruins of a mosque and tomb, and masoury tank 12 bighas in extent. The boundary walls of the latter are now for the most part broken down, and of the eight kiosques that crowned the extremities of the ghats only one remains. These extensive works are said to have been constructed some two centuries ago by a converted Thakur named Dhakmal. A rajbaha of the Agra Canal paws through the village lands, and a nest-house to being built at the point where it crows the high road.</ref> This latter name is now restricted in application to a village some three miles dis tant ; but in the 16th century local divisions were few in number and wide in extent, and beyond a doubt the foundation of the imperial same was the origin of the village name which has now deserted the spot that suggested it. The separate existence of Chaumuha is known to date from a very recent period, when the name was bestowed in consequence of the discovery of an ancient Jain sculpture, supposed by the ignorant rustics to represent the four-headed (chaumuha) god, Brahma.<br />
<br />
Though these saraes were primarily built mainly from selfish motives on the line of road traversed by the imperial camp, they were at the same time enormous boons to the general public; for the highway was then beset with gangs of robbers, with whose vocation the law either dared not or cared not to interfere. On one occasion, in the reign of Jahangir, we read of a caravan having to stay six weeks at Mathura before it was thought strong enough to proceed to Delhi ; no smaller number than 500 or 600 men being deemed ade quate to encounter the dangers of the road. Now, the solitary traveller is so confident of protection that, rather than drive his cart up the steep ascent that conducts to the portals of the fortified enclosure, he prefers to spend the night unguarded on the open plain. Hence it comes that not one of the saraes is now applied to the precise purpose for which it was erected. At Chhata one corner is occupied by the school, another by the offices of the tahsildar and local police, and a street with a double row of shops has recently been con structed in the centre; at Chaumuha the solid walls have in past years been undermined and carted away piecemeal for building materials; and at Kosi, the principal bazar lies between the two gateways and forms the nucleus of the town.<br />
<br />
Still more complete destruction has overtaken the 'Azamabad sarae, which seems to have been the largest of the series, as it certainly was the plainest and the most modern. Its erection is ordinarily ascribed by the people on the spot to Prince 'Azam, the son of Aurangzeb, being the only historical personage of the name with whom they are acquainted. But, as with the other buildings of the same character, its real founder was a local governor, 'Azam Khan Mir Muhammad Bair, also called Iradat Khan, who was faujdar of Mathura from 1642 to 1645. In the latter year he was superseded in office, as his age had rendered him unequal to the task of suppressing the constant outbreaks against the government, and in 1648 he died. <ref>For this and several other facts gathered from the Persian chronicles, I was indebted to the late Mr. Blochmann, the Secretary of the Calcutta Asiatic Society, a gentleman whose knowledge of Muhammadan history and literature was as unlimited as was the courtesy with which he communicated it.</ref> As the new road does not pass immediately under the walls of the sarae, it had ceased to be of any use to tra vellers ; and a few years ago, it was to a great extent demolished and the ma terials used in paving the streets of the adjoining city. Though there was little or no architectural embellishment, the foundations were most securely laid, reaching down below the ground as many feet as the superstructure which they supported stood above it. Of this ocular demonstration was recently afforded, for one of the villagers in digging came upon what he hoped would prove the entrance to a subterranean treasure chamber ; but deeper excavations showed it to be only one of the line of arches forming the foundation of the sarae wall. The original mosque is still standing, but is little used for reli gious purposes, as the village numbers only nine Muhammadan in a population of 343. They all live within the old ruinous enclosure.<br />
<br />
==References==<br />
<references/><br />
</div><br />
__INDEX__</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_20&diff=56369चतुर्वेदी इतिहास 202010-04-24T05:47:45Z<p>जन्मेजय: /* राजनैतिक क्षितिज पर ऊँचे उठते राष्ट्रसेवा ब्रती चतुर्वेदी */</p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==स्वतंत्रता संग्राम के रणबांकुरे बीर==<br />
स्वाधीनता संग्रामों में चतुर्वेदी किसी से पीछे नहीं रहे हैं । सैकड़ों हजारों की संख्या में देशभक्त वीरों ने अनेकों विपत्तियाँ उठाकर भी देश के लिये अपना तन मन धन उत्सर्ग करने के प्रशंसनीय प्रयास किये हैं, किन्तु स्वतंत्रता सेनानियों में बहुत कम लोगों के नाम अंकित होने से बड़ी संख्या में ऐसे योद्धा रह गये हैं, जो वास्तव में सम्मान पाने के अधिकारी हैं । वे अभी भी निर्लिप्त और आत्मसंतुष्ट हैं । इनमें से कुछ अति बिशिष्ट शीर्षस्थ बन्धुओं के ही विवरण यहाँ देना पर्याप्त है- <br />
<br />
श्री मदनमोहनजी चतुर्वेदी- इन्हें मथुरा क्षेत्र का महात्मा गांधी कहें तो कुछ अतिशयोक्ति न होगी । लंबा खादी का कुर्ता चौड़ा माथा मधुर उदार स्नेह युक्त वाणी हर सहायता को आगे उद्यत उनका सहज शालीन आत्मीय व्यक्तित्व था । उनका जीवनकाल 1950-2037 वि0 था कर्मठ विचारों और गतिविधियों में अग्रगामी होने के कारण वे 20 वर्ष आयु में ही राष्ट्रीय आन्दोलनों में कूद पड़े । 1970 वि0 के जबरन कुलो भर्ती के अमानवीय अत्याचार का उनने डट कर विरोध किया । 1974 वि0 में वे आनंदी प्रसाद चौबे के साथ होमरूल लीग के जिला प्रचार कर्ता बने । 71 से 75 तक सेवा समिति राष्ट्रीय सेवा संगठन के संस्थापक हुए जिसमें अदम्य उत्साह और सेवा भावना के साथ यमुना बाढ़ इनफ्लूऐंजा दीन अनाथों की चिकित्सा आदि में अग्रवर्तो रहे । 76 में रौलटएक्टविरोध 78 में विदेशी माल वहिष्कार तथा जिला के अंग्रेज कलक्टर फ्रीमेन्टल से संघर्ष जम कर छेड़ दिया । इसी वर्ष आप राष्ट्रीय प्रचार करते हुए गोरखपुर में <br />
गिरफ्तार हुए तथा सरकार के विरूद्ध षडयंत्र में 1 कठोर कारागार तथा 2 मास की काल कोठरी की सजा से दंडित हुए । लखनऊ जेल में इन्हें भारी बेड़िया पहिना कर ऊपर से मोटी तख्तियों की माला गले में डाल कर चक्की पिसाई में लगाया गया जिससे छाती में गहिरा जखम हो जाने पर श्री मालवीय जी कुंजरू आदि नेताओं द्वारा सरकार को कड़ी भाषा में प्रतारित करने पर इन्हें इस यातना से मुक्त किया गया । इस समय लखनऊ जिला जेल में इनके साथी श्री पुरूषोत्तम दास टंडन, मोतीलाल नेहरू, जबाहरलाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी, मोहनलाल नेहरू, श्यामलाल नेहरू, राजेन्द्र बसु, मोहनलाल सक्सेना, के0 पी0 जाफरी, रवीन्द्रवाशिम, रामनाथ गुर्टू, तसद्दुत हुसेन, रामेश्वर सहायसिंह, बालमुकुन्द बाजपेयी, अब्दुलवाही आदि चोटी के नेता पचीसियों थे जो जेल में श्री चतुर्वेदी की महान इज्जत करते थे तथा अपनी श्रद्धा के प्रमाण रूप इनकी डायरी में इन सभी ने अपने हस्ताक्षर अर्पित किये हैं- यह डायरी अभी भी इनके परिवार के जनों के पास एक अमूल्य धरोहर है । इसी वर्ष आप मथुरा रामलीला केस में भी गिरफ्तार हुए । <br />
<br />
1989 वि0 में इन्होंने कटरा केशवदेव पर प्राचीन मन्दिर की भूमि पर घोषियों द्वारा अनधिकृत जोर जबरदस्ती से कब्जा जमा लेने को कठोरता से निरस्त कर भारी प्राणघात की जोखम उठाई इस उपलक्ष में श्री रायकृष्णदासजी ने यह सारी भूमि इन्हें प्रदान कर इस पर कोई सार्वजनिक संस्थान बनाने का इनसे आग्रह किया ये पत्र इनके वंशजों के पास है । अपनी त्याग भावना में अनुप्राणित हो तब इन्होंने इसे लेने से स्पष्ट निषेध कर दिया और इस हेतु महामना श्री मदनमोहन मालवीय जी को प्रेरित कर वहाँ जन्म भूमि ट्रस्ट महाविद्यालय, सेवा समिति, बाढ़ रिलीफ फंड, महामारी सेवा दलों आदि में सक्रिय रहे । राष्ट्रीय चोटी के नेताओं और क्रान्तिकारियों को भी वे उसी भाव से सहायता पहुँचाते थे । यूनानी और आयुर्वेद में विशेष रूचि होने के कारण वे चिकित्सा और जवाहराती औषधि रसरसायन बनाने में भी परम सिद्ध हस्त थे । उनकी अध्ययन और अनुभव से सिद्ध चिकित्सा शत प्रतिशत लाभकारी होती थी । अपने प्रियजनों से उनका व्यवहार बहुत ही उदार और अहंभाव शून्य था । वास्तव में वे अपने समाज के एक महान देव दुर्लभ पुरूष थे ।<br />
<br />
'''श्री राधामोहन चतुर्वेदी-''' राजनैतिक क्षेत्र में आपका बड़ा सम्मान है । राष्ट्रीय विचारों के कट्टर समर्थक होने से आप 1987 वि0 में मथुरा जिले के आंदोलन के डिक्टेटर बन कर जेल गये । 97 98 तथा 99 संवतों में आप फिर कारागार वासी हुए तथा श्री द्वारिकाधीश प्रभु की प्रबंध व्यवस्था से आराम लेकर अब शांत जीवन व्यतीत कर रहे हैं ।<br />
<br />
'''श्री गोपालप्रशाद चतुर्वेदी-''' इन्हें मथुरा की राजनीति का सुभाष बोस कहना उप युक्त होगा । गांधी आन्दोलनों में अनेक बार जेल यात्रा करने के साथ ही ये क्रान्तिकारियों और हिन्दू सभा गोरक्षा आदि के भी उत्कट समर्थक थे । कितने ही क्रांतिकारियों से इनका निकट सम्पर्क था हिन्दू मित्र पत्र निकाला, भारत में अंग्रेज और गोबध पुस्तिका लिखी और मथुरा के कसाई खाने को जन्म भुमि के समीप से हटाने का बम्बई से आन्दोलन उठाया, महाराज अलवर के राज्योतिषी बन कर मान और द्रव्य कमाया जिसे समाज के लोग युग-युग स्मर्ण करते रहेंगे । इनके अतिरिक्त राष्ट्र समर्पित लोगों में प्रथम श्री गौरीदत्त, श्री भगवानादत्त, श्री कैलाशनाथ 'वायकाट', श्री कर्मवीर कुन्दनलाल, श्री कल्याण सोती, श्री सुन्दरश्याम, श्री रघुनाथप्रशाद घी वाले, श्री विश्वनाथ वैद्य, श्री आनन्दीप्रशाद, श्री कालीचरन, श्री मनोहलाल, श्री गुरूदत्त, श्री त्रिलोकीनाथ, श्रीनाथ, बालमुकुंद, डा0 प्रयागनाथ, दौलतराम सराफ, रामू चौबे, पृथ्वीनाथ, बल्देवजी आदि अनगिनती ऐसे चतुर्वेदी रणवांकुरे देश भक्त कार्यकर्ता हैं जिनके यश और सेवायें पार्टी राजनीति में कुचल कर अज्ञात प्राय होती जा रही है ।<br />
<br />
==संगठन और समाज सुधार आन्दोलन==<br />
<br />
माथुरों की संगठन प्रणाली प्राचीन है । ऋग्वेद के समय ये मंडलवृद्ध रहते थे, शत्रुघ्न काल में ये गोत्र कुल संगठनों में तथा वज्रनाभ के समय ये श्रेणीबद्ध (थोक धड़े अखाड़े और मुहल्लों के संगठनों में) अपने सामाजिक क्रिया कलापों में अनुशासनवद्ध रखते थे । गजनवी गोरी मुगल कालों में भी इनके पंचपंचायतों सरदारों के संगठन अपने क्षेत्रों में रक्षा सहायता और समाज सुधार के प्रयासौं को निरन्तर सम्हाले रहते थे । इस समय के निर्णय 'लिखतम' नाम के लेखों में अंकित कर सुरक्षित रक्खे जाते थे, जिन पर सभी प्रमुख सरदारों के हस्ताक्षर रहते थे । ऐसी अनेक लिखतमें मोटे कागजों का आलेखित अभी प्राप्त हैं । <br />
श्रीमती माथुर सभा- 1910 वि0 में पहिली बार पंचायतों ने मिलकर माथुर सभा का रूप ग्रहण किया । 1958 वि0 में इसकी एक विशिष्ट समिति ने सरकार द्वारा माथुर चौबों को तीसरे दर्जे का ब्राह्मण घोषित करने का उपक्रम किया तब इस समिति ने इसका विरोध किया प्रमाण संग्रह किये और एक लघु पुस्तिका 'माथुर चन्द्रोदय' छपवाई ।<br />
<br />
1969 वि0 में माथुर सभा ने कुरीतियों के सुधार हेतु कुछ 'रसमबन्दी' नियम प्रचारित किये । इस समय के लोग सीधेसादे बड़ों का मान करने वाले और पंचों का फैसला परमेसुर की आज्ञा मानते थे, किन्तु कुछ लोग महा उच्घ्रंखल ऐंडें बैंड़े और बिगारा भी थे जो रसमों को तोड़ने में ही अपनी अहंमन्यता को सफल मानते थे । इन्होंने माथुर सभा को प्राण हीन किया और तब-<br />
<br />
'''श्री माथुर चतुर्वेद परिषद-''' का जन्म 1975 वि0 में पांड़े श्री डिब्बारामजी के बाड़े (होली दरवाजा) में उनही की अध्यक्षता में हुआ । तब से सुगठित रह कर इस संगठन ने अनेक उपयोग कार्य किये । उस समय इसके कार्यकर्ता सरदार और समाज सेवा ब्रती कितने ही विनम्र जन थे । इनमें श्री क्याखूबजी (चार हजार भाइयों का जूतों का गुलाम हूं एसी विनम्र भावना युक्त), श्री नटवर जी (समाज सेवा हेतु जीवन समर्पित) , श्री गणेशीलाल जी चौधरी (हम तो आपके सिपाही हैं एसी भावना युक्त), निर्लोभ सेवा संचालक गंगाराम (उचाढा), नीत लाल चौधरी के कार्य प्रमुख हैं । अनेक उतार चढावों के बाद परिषद आगे बढ़ती रही और 2005 वि0 में यह रजिष्टर्ड सभा बनी किन्तु इतने पर भी समाज के अवांछनीय कीटाणुओं ने इसका पीछा न छोड़ा । समाज में अभी भी कुछ घातक कुचकी तत्व एसे हैं जो सच्चे कार्यकर्ताओं को पदों पर देखकर दाँतपीसते हैं, उन्हैं अनेक दुष्प्रचारों से लांछित और हतोत्साहित करके पदों से हटजाने को विवश करते हैं, तथा धींगधसेड़ी से आप सभा पर अधिकार करके उसकी सम्पत्तियों कार्यक्रमों यहाँ तक कि कागजात रजिष्टरों आदि को भी उदरस्थ करके संस्था को अपना बुभुक्षा ग्रास बना कर ही चैंन मानते हैं । सामाजिक सम्पत्तियों को लपक कर खाने वाले इन युग दानवों ने पुस्तकालय बगीची अखाड़े बरतन एतिहासिक दस्तावेजैं पाठशालायें औषधालय सभा के फर्श फर्नीचर लालटैंने सरकारी पत्राचार आदि न जाने क्या क्या चवाये और डकारे हैं, तथा इतने पर भी वे समाज के सामने अकड़ते हुंकराते अपनी काली करतूतों पर गर्व ही करते रहते हैं । वर्तमान पीढ़ी को संस्याओं को जीवित रखने के लिये इनका उपचार सोचना ही होगा । <br />
<br />
'''चतुर्वेदी महासभा-''' 1952 वि0 में आगरा नगर में विद्यार्थियों द्वारा प्रवासी बन्धुओं की संस्था 'चतुर्वेदी महासभा' का जन्म हुआ । इसने 'चतुर्वेदी' नाम की एक पत्रिका भी निकाली जो अभी चल रही है । इस संस्था ने भी अनेक झंझावात झेले हैं । विशेष सम्पत्ति और विरोध होने पर मुकदमे बाजी की भी नौवतें आयीं, परन्तु अब यह सावधान सुव्यवस्थित और चेतना शील है । सभा ने विद्यार्थियों विधवाओं अनाथों को मासिक वृत्तियाँ देने का भी सत्प्रयास जारी रक्खा है । <br />
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'''संगठन महासभा-''' 1985 वि0 में सक्रिय हुई यह 'मीठे चौबे' वर्ग की संस्था है । 2025 वि0 में इसने अपना विराट अधिवेशन मथुरा में आयोजित किया जिसमें 'मीठे कडुए एकीकरण' पर अच्छा वायुमंडल बना परन्तु फिर यह अपनी ही उपेक्षा से मोह निद्रा में ग्रस्त हो गयी । <br />
चतुर्वेद सेवा समिति- 1975 वि0 में ही मथुरा में इस श्रेष्ठ सेवाब्रती संस्था का गठन हुआ । इसमें उस समय के प्राय: सभी प्रतिष्ठित परिवारों के सदस्य सरदार मुनैंदार लोग स्वयं सेवक थे । मथुरा के मेले यमद्वितीया स्नान, रामजी द्वारा मेला आदि की स्वयं सेवक दल द्वारा प्रबन्ध व्यवस्था इसने आरम्भ की, जो आज पुलिस के सरकारी तन्त्र के हाथों में जा पहुँची है । पुस्तकालय औषधालय अनाथ रोगी दुर्बलों की सेवा के साथ इस कर्मठ संस्थान ने ब्रज में पड़े भयानक अकाल में भी गाँव-गाँव में जाकर गायों को चारा, भूखों को सस्ता अनाज वस्त्र औषधि आदि वितरण की सराहनीय व्यवस्था चलायी । मथुरा के चौबों की यह आदर्श राष्ट्र भावनामयी मानव कल्याण भावी तथा ब्रज मण्डल के संरक्षण प्रयास युक्त सर्वोपरि प्रगतिशील उदारवादी संस्था थी, जो इतना महान कार्य करने पर भी न जाने क्यों कालग्रास हो गयी । <br />
चतुर्वेद किशोर संघ-2019 वि0 में गठित चतुर्वेदी युवकों और विद्यार्थियों की यह श्रेष्ठ कर्मठ संस्था थी । इसने पुस्तकालय वाचनालय शिक्षा, सम्मेलन, कोचिंग नाइट स्कूल आदि कई कार्यक्रम चलाये जिनसे समाज को काफी लाभ मिला । 2021 वि0 में इसका रजिष्ट्रेशन भी हुआ । फिर भी यह चिरनिद्रा में सो गयी । <br />
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'''श्री माथुर चतुर्वेद विद्यालय-''' श्रीमती माथुर सभा द्वारा 1960 वि0 में दान दाताओं से चन्दा सहायता 'दान पुस्तिका' द्वारा संग्रह कर इस विद्यालय की जाति सेवा लगनशील स्वाभिमानी युगचिन्तकों द्वारा स्थापना की गई । 1975 वि0 से स्वनाम धन्य उदार दानवीर चौबे बैगनाथ जी ने इसका संचालन अपने संरक्षण में समिति के आधीन लिया । वे इस महान सांस्कृतिक सेवा और उत्थान कार्य से इतने प्रभावित हुए कि 1982 वि0 में इन्होंने एक लाख नौ हजार रूपया लगा कर विद्यालय भवन तथा स्थायी फंड की व्यवस्था करके इसका रजिष्टर्ड ट्रस्ट बोर्ड बना दिया तथा अपने बाद अपनी सारी सम्पत्ति चल अचल कलकत्ते की वेजनाथ चौबे कम्पनी आदि सभी विद्यालय को दान में दे दिये जाने की लिखा पढ़ी करदी । यह एक आदर्श दान था जो अनुदार स्वार्थी सार्वजनिक धन भक्षियों कंजूसौं के मुंह पर एक कसकर लगाया हुआ तमांचा कहा जाना चाहिये । श्री बैज नाथजी के बाद विद्यालय का नाम 'श्री बैजनाथ चौबे चतुर्वेद विद्यालय' हुआ, उन्हें चतुर्वेद सेवा समिति ने स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया, जिसके परवर्ती काल में यह संस्थान फिर दलबन्दी स्वार्थ परता और आपा धापी के दलदल में फंसती चली गयी है । <br />
चतुर्वेद महिला शिल्प विद्यालय- 2007 वि0 में इस संस्थान का रजिष्ट्रेशन चतुर्वेदी समाज की नारियों में शिक्षा शिल्प कला और स्वावलंवन की भावना को जाग्रत करने के हेतु से हुआ । यह संस्था जीवित है, किन्तु अपने लक्ष के अनुसार इस के कार्यक्रमों का आधिकारिक विकास नहीं हुआ है । <br />
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'''चतुर्वेदी युवक संघ-''' यह संस्था 1980 वि0 में लगभग गठित हुई, जिसने बाल विवाह अनमेल विवाह आदि के उन्मूलन हेतु घनघोर प्रचारकार्य किया । <br />
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'''चतुर्वेद सेवा समाज-''' सांस्कृति नवनिर्माण हेतु प्रयासी सुगठित संगठन है, जिसने 2038 वि0 में संगठित होकर मथुरा में होलिकोत्सव के अवसर पर यज्ञ, धार्मिक ग्रंथ पाठ, सन्त सम्मेलन, श्री यमुना छप्पन भोग, गुणीजन सम्मान, नगर शोभा यात्रा, धार्मिक उपदेश प्रवचन लीला प्रदर्शन आदि के सुरम्य गौरवान्वित श्रेष्ठतम कार्यक्रमों का आयोजन करने के साथ ही अपनी एक स्मारिका भी प्रकाशित की है जो नयी पीढ़ी को एक उपयोगी मानसिक पोषक आहार प्रदान करने वाली है । <br />
चतुर्वेद प्रगति मंडल, बम्बई- इस उपयोगी संस्थान का गठन 2032 वि0 में चतुर्वेदी समाज के बम्बई निवासी शिक्षित उद्योग प्रवीण अर्थ व्यवस्था सम्पन्न स्वाभिमानी महात्वाकांक्षी बन्धुओं द्वारा हुआ है । इस संस्थान ने 2042 वि0 में बम्बई जैसे महानगर में बड़े शालीन रूप से एक 'चतुर्वेदी महोत्सव' का सफल आयोजन किया था, जो समाज के लिये एक दिशा निर्देश है । इस अवसर पर संस्थान की एक स्मारिका भी भव्य रूप में प्रकाशित हुई है । संस्थान के शिक्षा व्यवसाय और उद्योग सम्पन्न, उदीयमान विकास अध्यवसायी, सदस्यों से समाज को नयी दिशा में गति पाने की महान आशायें हैं ।<br />
===माथुरों के सरग्राही जीवन का लोक सन्मान===<br />
'हाथ के सच्चे, बात के सच्चे, जीभ के सच्चे और लंगोटी के सच्चे' चौबेजी के चार सर्वोच्च गुण हैं । सुरीली भाँग ठंडाई, तरांतर भोजन, बगीची, संस्कार, मृदुव्यवहार, मनमौजी जीवन ने इन्हें लोक आकर्षण का केन्द्र बनाया है । श्री कृष्ण का गीता में निर्धारित सात्विक: आहार 'आयु सत्व बलारोग्य सुख प्रीति विबर्धन: रस्या स्निग्धा स्थिरा हृद्या आहार: सात्विक: प्रिय:' इनका खीर, रबड़ी, खोआ, खुरचन, माँखन, मलाई, सिखरन, चूरमां दाल बाटी प्रधान आहार हैं । बलिष्ठ विशाल देह बाले पूर्वज 15,20,25 सेर तक तरमाल छक जाते थे । 1945 वि0 में श्री स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है- हमारे यहाँ, मथुरा के चौबे कुश्तीगीर आते हैं- लड्डू कचौड़ी खाते हैं, मौज से 5-7 सेर भोजन खा लेते हैं । 'भाधव मिश्र निबंधमाला' के सम्पादक श्री सुदर्शनजी ने लिखा है- मथुरा के पंडे चौबे हैं । ये बड़े हृष्ट पुष्ट देखने में सुश्रीक और स्वभाव के बड़े मधुर हैं । बड़े मिलनसार हैं । कटु बचन कहना व उदास होना तो ये जानते ही नहीं । लड्डू पेड़ा विजया के पूर्ण भक्त हैं । दण्ड पेलना कुश्ती करना यही इनका नित्य कर्म है । 'जै जमुना मैया की' इसी पर चारों वेद की समाप्ति है । एक चौबे को 4-5 सेर लड्डू खाना और आधमन दूध पीना कोई बड़ी बात नहीं है । इनकी स्त्रियाँ भी सुन्दरी और स्वभाव की सुशील मृदु भाषिणी होती है । गीत इतने मधुर सुरूचि पूर्ण और कवित्वमय होते हैं कि और जगह के कवियों को इनसे शिक्षा मिल सकती है । माथुरी भाषा की मधुरिमाँ तो जग प्रसिद्ध है । मथुरा के चौबे और उनकी स्त्रियाँ उसी विशुद्ध सुललित ब्रज भाषा में बोलते हैं । जिसमें सूरदास और कविवर बिहारीलाल ने अपनी रचनायें की हैं । जबकि इसी क्षेत्र के दुकानदारों और साधारण जनों की बोलचाल भ्रष्ट और विचित्र सी है । कि उसका कोई नाम नहीं बताया जा सकता । <br />
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===नयीधारा के प्रगतिगामी चतुर्वेदी===<br />
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नवीन युग की चेतना के साथ हमारे चतुर्वेदी समाज ने भी अपने कदम बढ़ाये हैं । वैज्ञानिक तकनीकी और चार्टर्ड एकाउन्टेन्सी के साथ अर्थप्रबन्ध, उद्योग( प्रा.लि.) और लि0 कम्पनियों की स्थापना और संचालन में भी महान प्रगति हुई है । इस युग की यह एक महत्वपूर्ण क्रान्ति है । केवल बम्बई क्षेत्र में ही हमारे समाज के अनेकों उद्योग विस्तारत परिवार है । मथुरा तथा अन्य जगहों पर विभिन्न व्यवसायों में सरकारी नौकरियाँ, प्रोफेसर, वकील, डाक्टर, डाइरेक्टर, मैनेजर, चार्टर्ड एकाउन्टैन्ट, परामर्शदाता, ट्रान्सपोर्ट संचालक, कपड़ा, औषधि, साईकिल, विद्युत सामान, इलेक्ट्रानिक, इन्जनीयरी, टेक्नीशियन, बस सर्विस, टैक्सी सर्विस, होटल लघु उद्योगों आदि में हमारे हजारों चतुर्वेद बन्धु अग्रगामी हो रहे हैं जो अगली दशद्वियों में समाज को आदर्श उच्च समाज बनाने में पूर्णत: सफल हो सकेंगे ।<br />
===सांसद और विधायक===<br />
कुछ सांसदों और विधायकों के नाम भी समाज की गौरवमयी सूची में हैं सांसद श्री रोहनलाल जी उप रेल मंत्री एटा, श्रीमती विद्यावती एटा, श्रीनरेशचन्द कानपुर विधायक-श्रीललितकिशोर जयपुर भू0पू0 मंत्री, श्री भुवनेशजी कोटा, श्री सुखदा मिश्र इटावा, श्री शतीश चन्द्र महाराष्ट्र, आदि समाज को इन सभी पर गर्व है ।<br />
===राजनैतिक क्षितिज पर ऊँचे उठते राष्ट्रसेवा ब्रती चतुर्वेदी===<br />
'''राष्ट्र की महान सेवा साधना''' में चतुर्वेदी आज भी अग्रवर्ती हैं यह 'तथ्य हाल ही के मथुरा में आयोजित प्रधान मन्त्री श्री राजीव गांधी द्वारा निर्देशित संचालित राष्ट्रीय प्रशिक्षण सेवादल के महत्वपूर्ण अवसर पर जनता के सामने आया है । सन् 85 के काँग्रेस शताब्दी समारोह बम्बई के अवसर पर देश के शीर्षस्थ नेता श्री राजीवगांधी ने काँग्रेस सेवादल को उसका पूर्ण गौरवमय स्वरूप देने के लिये एक रचनात्मक कर्मठ कार्यकर्ता प्रशिक्षण की घोषणा की, उसी को साकार रूप देने को बिहार और उत्तर प्रदेश के काँग्रेस (इ0) के होनहार राष्ट्रकर्मियों को देश के नेतृत्व का ठोस प्रशिक्षण देने के लिये पटना नगर में एक शिविर लगाने की आयोजना थी, जिसमें देश के इन राज्यों के 40 वर्ष की आयु तक के स्नातक योग्यता वाले चुने हुए निष्ठावान कार्यकर्ताओं, विधायकों, सांसदों को 150 की संख्या में एकत्र करके उन्हें देश सेवा ब्रत के ज्ञान और कार्यक्षमता में पारंगत किये जाने की योजना थी ।<br />
मथुरा के श्री महेशपाठक चतुरर्वेदी हाईकामन द्वारा इस शिविर के सयोजक निर्धारक किये गये, उन्होंने इस शिविर में मथुरा को आयोजित करने का निर्णय हाईकमान से लिया और इस हेतु बिहार और उत्तर प्रदेश के 150 सदस्यों की सूची स्वीकृत करायी । यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी जिसमें महान प्रबन्ध व्यवस्था साधनों और कार्यक्रमों को सुनियोजित ढंग से सफल बनाने की पूर्णक्षमता अपेक्षित थी । प्रसन्नता की बात यह है कि हमारे निष्ठावान लगनशील कठिन परिश्रमी और सूझबूझ वाले आत्मविश्वासी तरूण बन्धु ने इस सारी जिम्मेदारी को बड़े सुन्दर और सफल ढंग से सम्पन्न करके अपने राष्ट्र सेवा धर्म के पालन की क्षमता का सुयोग्य परिचय दिया । इस आयोजन में प्रमुख सेवा व्यवस्था चतुर्वेदियों के हाथों में थी । <br />
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'''मथुरा नगर''' के भूतेश्वर स्थानीय चतुर्वेदियों के ही एक विस्तृत भूभाग पर 'इन्दिरा नगर' के रूप में एक सुन्दर सुसज्जित शिविर की रचना की गयी, जिसमें भव्य पंडाल और तिरंगे झन्डों की शोभा अवर्णनीय थी । 21 अप्रेल से 6 मई 86 तक चलने वाले इस 15 दिवसीय प्रशिक्षण शिविर का उद्घाटन प्रधान मंत्री श्री राजीवगाँधी ने 25 अप्रेल को किया । अखिल भारतीय सेवादल (ई) के संचालकों के अतिरिक्त जो प्रमुख राजनैतिक हस्तियाँ आयी उनमें प्रधानमंत्री श्री राजीवगाँधी, अध्यक्ष अ0 भा0 कां0 क0 (ई), श्री तारिख अनवर अध्यक्ष अ0 भा0 कां0 (ई) सेवादल, श्री के0 सी0 पन्त केन्द्रीय मंत्री, श्री बीरबहादुर मुख्यमंत्री उ0प्र0, श्री महावीर प्रशाद अध्यक्ष उ0प्र0, कां क0 (ई) श्री आर0 एल0 भाटिया महामन्त्री अ0 भां0 काँ0 क0 (ई), श्री हरदेव जोशी मुख्यमंत्री राजस्थान, श्री अशोक गहलोत अध्यक्ष कां0 क0 राजस्थान, श्री नवलकिशोर शर्मा महामंत्री अ0 भा0 कां0 क0, (ई) श्री सीताराम केसरी केन्द्रीय संसद राज्यमंत्री, डा0 संजयसिंह परिवहन मन्त्री उ0प्र0, श्री नरेन्द्रसिंह चौधरी कृषि मन्त्री उ0प्र0, श्री जगदम्बिका पाल अध्यक्ष कांग्रेस सेवा दल उ0 प्र0, श्री सन्तोसिंह अध्यक्ष उत्तर प्रदेश युवक कां0 क0, श्री नरेन्द्रदेव पांडे शिविर अधिष्ठाता, श्री के0 वी0 पणिक्कर महामंत्री अ0 भा0 काँ0 क0 तथा प्राय: सभी विधायक और सांसद सदस्य सहभागी थे <br />
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'''इस प्रकार''' बड़े सफल रूप में यह शिविर देश का सर्व प्रारंभिक आदर्श व्यवस्था पूर्ण सुनियोजित आयोजन सम्पन्न बनकर चतुर्वेदियों की देश सेवा <br />
को राष्ट्र की प्रगति में उजागर बनाने वाला महत्वपूर्ण शिविर रहा, जो अपनी गरिमां के साथ देश के इतिहास में अपना एक विशिष्ट अमर स्थान बनाकर सदैव चिरस्मणीय रहेगा । <br />
चतुर्वेदी समाज की यह अद्यतन राष्ट्रीय सेवा क्षेत्र की गरिमामयी उपलब्धि है । <br />
हमारी सर्वतोमुखी प्रगति के तथ्य यह बतलाते हैं कि स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद हमारे माथुर चतुर्वेदी समाज ने एक नयी करबट बदली है । प्रत्येक प्रगति के क्षेत्र में हमारे उत्साही जनों ने आगे बढ़कर अपना राष्ट्रीय दायित्व बड़ी शालीनता के साथ निभाया है । प्रगति के नये अग्रगामी पथों में वे कहीं भी रूके झिझके या पिछड़े नहीं रहे हैं । <br />
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'''नयी चेतना''' की इस जानकारी का संक्षिप्त परिचय देना भी यहाँ समाज के बन्धुजनों के लिये उपयोगी होगा । स्वाधीनता की स्थापना के बाद हमारे कर्मठ नेता देश भक्त और उत्साही कार्यकर्ता प्रत्येक कार्यक्षेत्र में आगे बढ़े हैं । काँग्रेस (ई0) सोशलिष्ट, कम्यूनिष्ट, जनता पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, लोकदल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक, संघ,किसान, मजदूर आन्दोलनों आदि प्राय: सभी दलों और संगठनों में हमारा सर्वेतोमुखी विचार स्वातंत्र्य पूर्णयोगदान रहा है । श्री जवाहरलाल नेहरू, बल्लभ भाई पटेल, श्री राजेन्द्र बाबू, श्री इन्दिरा गाँधी, गोविन्दवल्लभ पंत, श्री मदनमोहन मालवीय, चौधरी चरणसिंह, श्री जगजीवनराम, श्रीराममनोहर लोहिया, श्री जयप्रकाशजी तथा वर्तमान में माननीय राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंहजी तथा राजीवगांधी आदि सभी राष्ट्र के कर्णधारों से हमारे समाज के सुमधुर प्रेरणात्मक और सद्भावात्मक संबंध रहे हैं । देश के नरेश सत्ता उन्मूलन प्रजा परिषदों के आन्दोलनों , जमीदारी उन्मूलन, सहकारी संगठनों की गतिविधियों, कृषि विकास, हिन्दी प्रचार, राष्ट्रीय अखंडता और एकता के प्रचार में हमारे कर्मठजन अनेक प्रदेशों में प्रचार रत रहे हैं । चुनाव प्रचार अभियानों के चतुर्वेदी सर्वोपरि संचालक माने जाते हैं । अपने गीत-संगीत प्रदर्शन काव्य रचनाओं भाषणों से जनता को बांध लेते हैं । तथा जिधर चतुर्वेदी दल की उपस्थिति होती है उसकी जीत निश्चित मान ली जाती है । इस प्रचार तंत्र की श्रेष्ठता काव्य के रचना कारण बड़े बड़े नेता और पार्टियां इन्हें दूर दूर तक अपने क्षेत्रों में सम्मान के साथ बुलाते हैं ।<br />
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'''देश की सभी भाषायें''' बोलने और उन भाषा भाषियों के साथ हमारे अति सुमधुर तीर्थ पोराहित्य सबंध हैं । प्रत्येक प्रान्त के भारतीय प्रजाजन तथा विदेशों के पर्यटक जिज्ञासु जन भी जो ब्रज भूमि और मथुरा दर्शन को आते हैं । उन्हें उन्हीं की भाषा में ब्रज की दर्शनीय वस्तुओं का ज्ञान, ब्रजभक्ति और मथुरा की गरिमा का महत्व तथा अपने चरित्र को ऊँचा उठाने विश्व बंधुता और भक्ति की पावनता को धारण करने का मार्ग दर्शन कराते हुए हमारे जन देश की भावनात्मक एकता और चरित्र निर्माण मानव प्रेम को राष्ट्रीय लक्ष बनाने के लिये पूर्ण प्रयत्न रत रहते हैं । <br />
हमारी धार्मिक सहिष्णुता तो इतनी प्रबल है कि हमारा कभी किसी धार्मिक वर्ग मुसलमान ईसाई जैन सिख आदि से असह्म विरोध या संघर्ष नहीं हुआ । सभी मतों के लोग हमारा समान रूप से आदर करते हैं ।<br />
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'''स्वतंत्रता सेनानियों''' में हमारे पर्याप्त देश भक्त सम्मानित हैं । राष्ट्र सेवा कार्यों में सेना में, पुलिस में, न्यायालयों में, रेल यातायात, परिवहन, विश्वविद्यालयों मेडीकल सेवाओं, सहकारी वितरण सेवाओं में हमारे शतश: बन्धु उद्योगरत हैं । रेडियों, टेलीविजन, वीड़ियों काव्य और साहित्य की नई धाराओं में हम आगे ही बढ़ते जा रहे हैं । ब्रज भाषा हमारी माधुर्य और गरिमामयी मातृ भाषा है । अत: उसके रचना क्षेत्र पर हमारा सर्वाधिक प्रमुख अधिकार है । ब्रजभाषा आज भी हमारे घरों में विशुद्ध रूप में बोली जाती हैं । तथा ब्रज भाषा की काव्य रचना के सर्वोपरि जगमगाते सामर्थशाली कवि और साहित्य निर्माता हमारे ही समाज में है । हमारे कथाकार ब्रजभाषा भाषी विद्वान देश के प्रत्येक भागों में बुलाये जाकर अपनी रसमयी ललित ललाम ब्रज वाणी से जन जन को मोहित और आत्म विभोर बनाते हैं । अभिनय के क्षेत्र में रामलीला का प्रचार हमारे समाज में दिन दूना बढ़ता जा रहा है । तथा हमारे शिक्षा क्षेत्र में सुयोग्य विद्वान संस्कृत विद्यालयों में, संगीत, साहित्य के गृह प्रशिक्षण (ट्यूशनों) में बड़ी योग्यता से कार्य कर रहे हैं । धार्मिक स्थानों में हमारे सुयोग्य प्रबंधक प्रशासकों का मान हैं मथुरा द्वारिकाधीश , ब्रन्दावन के बांकेबिहारी, दाऊजी के दाऊजी मंदिर, गोकुल नाथराजा के गोकुलठाकुर, तथा अन्य अनेक धर्मशालाओं पाठशालाओं कार्यशालाओं में हमारे बन्धु सम्मान के साथ प्रतिष्ठित हैं । <br />
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'''नयी प्रगति''' के युग में हमारी सम्पत्तियाँ भी बढ़ी हैं । मथुरा में ही चतुर्वेदियों की मार्केटें, निजी भवनों की संख्या वृद्धि, दुकान फैक्ट्रियाँ, निजी उद्योग, होटल, पर्यटन व्यवसाय, तथा मथुरा से बाहर बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, बंगलोर, कोचीन, आगरा आदि में भी हमारे भाइयों के अनेकानेक उद्योग व्यवसाय और राष्ट्र के 20 सूत्री कार्यक्रम में परिवार नियोजन में ग्राम पंचायतों के विकास तथा हरित शान्ति में 'हमारे कार्यकर्ताओं को सुदृढ़ निष्ठा है । चतुर्वेदी राजकीय अधिकारियों की यह विशेष गुणवत्ता है कि वे अपने कार्यों में नैतिकता को मान देते हुए रिश्वत भ्रष्टाचार सिफारिशों से दूर रहे हैं । <br />
कठिन परिश्रम, सूझ बूझ, कर्तव्यनिष्ठा स्वामिभक्ति, आत्म सम्मान, सदाचार और सहज त्याग संयम और निर्लोभी जीवन के साथ जीने में चतुर्वेदी, अटूट पैतृक निष्ठा रहते हैं । यही कारण है जो इन्हें सब जगह सहज सम्मान आदर और श्रेष्ठता की उपलब्धि स्वाभविक रूप से हो जाती है । चतुर्वेदी बालक स्वरूपवान स्वस्थ प्रतिभा सम्पन्न निर्भीक, और साहस शौर्य से सम्पन्न होते हैं ।<br />
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'''महिला वर्ग-''' माथुरों का महिला वर्ग अनेक गुणों से सम्पन्न है । सुमधुर भाषण गीत संगीत की सरसता, ब्रजवाणी का लालित्य गृह कर्मों की कुशलता, काव्य रचना की सहज स्वाभाविक प्रवृति, धार्मिक आचरणों का निष्ठा के साथ पालन, तीर्थ यात्रा दान ब्रत देव अर्चना आदि में दृढ़ विश्वास इनके प्रमुख गुण हैं । इनमें रूढ़ियों का पालन कुरीतियों का सृजन सीमा से अधिक औदार्य अशिक्षा आदि कुछ प्राचीन त्रुर्टिया भी हैं जो नयी पीढ़ी की बालिकाओं में जो शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ती रही हैं इनमें ये लुप्त होती जा रही हैं । महिलाओं में नवीन सभ्यता के पहिनावे उत्तम कोटि के भोजन पदार्थ, गहनों से लादे जाने की अभिलाषा कमी बालकों को शिक्षित बनाने साफ सुथरा रखने गृह सज्जा की उत्तमता में भी ये प्रयत्नशील होती जा रही है । <br />
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चतुर्वेदियों ने कंस के मेला की नवीन प्रभावशाली आत्म प्रतिष्ठामय रूप दिया है, सेवा समाज द्वारा होली के अवसर पर भव्य संत सम्मेलन यज्ञ कथा लीला नगर यात्रा आदि के साथ महान महोत्सव का प्रति वर्ष आयोजन प्रसंशनीय है ।ब्रज यात्रा के भक्त श्रद्धालुओं को सर्व सुविधा सम्पन्न यात्रा व्यवस्था (रसोड़ा) की परम्परा का विकास भी एक नये युग की मांग की पूर्ति कहा जा सकता हैं जिससे यजमान के साथ पुरोहित का अति विश्वस्त घनिष्ट पारिवारिक संबंध जैसा श्रद्धाफल स्नेहभाव के साथ ही पुरोहित कर्म में धनापार्जन की भी यथा वृद्धि हो जाती है । समाज के विकास के पथ में बढ़ते स्वरूप का यह चित्र उत्साहवर्धक है ।<br />
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===दिशाबोध===<br />
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श्री माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण समाज की लंबी इतिहास यात्रा के बाद आगे हमारा क्या कर्तव्य है तथा इतिहास से हमें क्या प्रेरणायें लेनी हैं यह विचारना आवश्यक हो जाता है । हमारे सामने आज अनेक चुनौतियाँ हैं जिनका हमें सामना और निराकरण करना है । हमारे यशस्वी पूर्वज जिस पथ से आगे बढ़कर आदर्श के शिखर पर पहुँचे हैं वही हमारा श्रेय पंथ है । इस चेतना को आगे बढ़ाने में हमें इन प्रयासों की अवधारणा निष्ठा के साथ करनी है । <br />
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(1) स्वधर्म रक्षण- माथुरों का कुल धर्म प्रभु श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट श्री मद्भागवत एकादश स्कंध तथा गीता 3,12,17,18 आध्यायों में वर्णित वैदिक स्मार्त सनातन धर्म है, जिसमें यज्ञ दान तप इष्ट आराधना गुरूजन सेवा नित्यकर्म उपासना कुलमर्यादाओं के रक्षण के साथ सत्य दया क्षमा स्थैर्य अस्तेय आचार विचारों की पवित्रता तृष्णा और बिलास व्यसनों का त्याग लोक शिक्षा के प्रयास आदि श्रेष्ठ मानवी गुणा का विकास अपने जीवन में करना है । समय पर संस्कार संध्या, गायत्रीजाप, आचमन प्राणायाम मार्जन अघमर्षण भूतशुद्धि सूर्याध्यदान उपस्थान आदि का नित्य आचरण दैनिक ज्ञान चर्चा हमारा परम पालनीय ब्रह्मकर्म में होना चाहिये, इनसे ब्रह्मतेज आत्मबल देवत्व और लोक प्रतिष्ठा की महती स्थिति प्राप्त होती है । <br />
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(2) विकृत्तियों से सावधानी- समय के प्रवाह से देश समाज और वातावरण में जो विदेशी प्रभाव के प्रवेश से स्वधर्म घातक संस्कृति के दूषण बढ़ने लगते हैं उनसे सावधानी के साथ अपनी रक्षा उचित कर्तव्य है । संस्कारों के प्रति अश्रद्धा उनमें बढ़ाये हुए दिखावट अपव्यय, प्रमाद, बालकों को शुद्ध आहार संयम लोक सदाचार की शिक्षा न दिलाकर उन्हें कुमार्ग में जाते देखकर उसे उन्नति मानना जीवन के घातक विदूषण हैं । सगोत्र, सपिंड स्वच्छंद व बहिर्जातीय विवाह, की संतानें दुष्टकर्मा, इन्द्रिय लोलुप निर्लज्ज झूठी चोर कुल मर्यादा विनाशक माता पिता की सेवा का तिरस्कार करने वाली द्रोही अधर्मी स्वार्थरत दुशकर्मा आनन्दी होती हैं ।, ऐसा भगवान मनुका अनुभव युक्त आदेश है । इससे धर्म समाज कुल की मर्यादायें टटकर बिखर जाती हैं, अत: ऐसे सभी दुराचारों से अपने परिवार को बचाना चाहिये ।<br />
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(3) स्वरूप संरक्षण- स्वरूप की रक्षा हमारा तीसरा प्रधान कर्तव्य है । 'चौबेजी' की पहिचान हजारों में बिना बतलाये हो जाती थी, यह हमारे परम गौरव और आचार श्रेष्ठता का प्रतीक है, इसके लिए ब्रह्मचार्य, व्यायाम, सात्विक भोजन और स्वास्थ्य के घातक भोजनों का त्याग शुद्धवाणी देव आराधना का तेज निर्लोभ निर्भय स्वभाव जीवन में आनन्द और मस्ती हमारे खास गुण हैं, जो हमारे बालकों में आने चाहिये । किसी प्राचीन पूर्वज ने चौबे के सात गुण कहे हैं- <br />
त्याग तपस्या आत्मबल, ब्रह्मचर्य कुल मान ।<br />
निर्भय निरलोभी सुदृढ़ सो, माथुर मुनि जान ।।<br />
सेवा प्रेम उदार मृदु, छिमाँ सान्त सन्तोष ।<br />
चौबे के गुन सात हैं, जग पूजैं निरदोस ।<br />
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(4) द्रव्य का सदुपयोग- अपनी कठिन श्रम की शुद्ध कमाई के धन को गृहस्थी के आदर्श वातावरण निर्माण में, समाज सेवा कार्यों में बन्धुओं की यथाशक्ति सहायता में, तीर्थ यज्ञ, माता पिता की सेवा में, आनन्द और उत्सवों अभावग्रस्त दीन दुखियों की सहायता में उपयोग करना ही महानता का पद है । साहित्य का प्रकाशन प्रचार माथुर गरिमां के ग्रंथों बाराह पुराण गर्गसंहिता भागवत गोपालतापिनी उपनिषद, गीता आदि का पठन पाठन कराकर नयी पीढ़ी को सुसंस्कृत बनाना । प्रभु बामन परशुराम, महर्षि वेदव्यास श्री उद्धवाचार्य महाकवि बिहारी, सात ऋषि, वेदज्ञान आदि के उत्सव आयोजित कर अपने पूर्वजों की गरिमां को जन जन में व्याप्त बनाना यही द्रव्य का सदुपयोग है । <br />
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(5)दहेज लोलुपता- यह महान घातक अकमै समाज में पनपता जा रहा है । सभी इससे आटंकित और भयग्रस्त हैं । हमें सामाजिक तिरस्कार असहयोग और पक्षपात हीन निर्भयता से साहसी वातावरण बनाकर इस दानवी प्रवृति का दमन करना चाहिये । <br />
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(6) कुरीतियों की बृद्धि- समाज में कुरीतियाँ अकुशहीन होकर बढ़ती जा रही हैं । कुछ लोग धन के मद में अपने को ऊँचा बनाने के दंभ में इन्हें बढ़ा रहे हैं । पिछलग्गू मध्यम वर्ग इनके पीछे घिसटता हुआ क्षोभ और संत्रास के गर्त में गरकर कराह रहा है । चरूई, गौंने की अड़-अड़ी, आदि असाधारण कुरीतियाँ ग्रहस्थों को रौद कुचल रही हैं । मध्यमवर्ग को संगठित होकर अल्पमत वाले अहंकारियों के मान मर्दन को बहुमत के सुदृढ़ प्रयासों द्वारा इसका युगानुकूल स्वावलंबी जन जागरण आन्दोलन चलाना चाहिये । उन्हें यह शिक्षा दी जानी चाहिये । कि धन का यशस्वी उपयोग समाज सेवा में विद्यादान, शिक्षा सहायता, बेकारी निवारण , दीन दुखियों अभाव ग्रस्त जनों की सेवा, नवीन उद्योगों की स्थापना आदि सत्कायों में विनियोग करने में है । <br />
<br />
(7) खान-पान की शुद्धता- 'यादृशी भक्षते अन्नं तादृशी जायते मति:' 'जैसा खाय अन्न वैसा बने मन' के अनुभवी सिद्धान्त के अनुसार हमें अपने आहार बिहार में सावधानी बरतना नई पीढ़ी को सिखलाना होगा । विदेशी शिक्षा धन कमाने के लिये आत्म घातक हैं । हम अपना भोजन स्वयं सिद्ध करें, विशेष परिस्थियों में भी यह देखें कि हमारा आहार शुद्ध, सात्विक , निर्दोष, व्यसनहीन, मदहीन, और हमारी कुल मर्यादाओं के अनुकूल है या नहीं । उदरबाद के नाम पर हमें डुबाने वाले होटलों का भ्रष्ट खाना, सिगरेट, शराब, अण्डा, मांस मछली, केकब्रैड, आदि से हम सावधान रहें । हमारा अब तक सम्मान और श्रेष्ठता आहार बिहार भी शुद्धि से ही लोक नमस्कृत रहे हैं । <br />
<br />
(8) दैनिकचर्या और सामाजिक आचरण- अपने व्यक्तिगत आचरण में हमें अपना जीवन पवित्र शांत सुखी सम्पन्न धीर गम्भीर शालीनतामय और गुण सम्पन्न बनाना है । हमें चतुर्वेदी रहना है तो शास्त्रोचित आचरण स्थिर रखना ही होगा तथा इसके लिये शिखा सूत्र, तिलक मुद्रा नित्यस्नान, संध्यावंदन, गायत्री जाप, सूर्याध्यदान, जूठकूठ का विचार रखते हुए दया क्षमा सत्य सन्तोष ईश्वरविश्वास उदारता सर्वजन स्नेह, मृदु भाषण परोपकार सार्वजनिक सेवा देश भक्ति, माता पिता गुरूजनों की सेवा विनम्रता अन्याय की कमाई से विरक्ति, बन्धुजन सन्मान निर्भयता निष्पक्षता आत्मनिग्रह आदि मानवीय सद्गुणों को धारण कर कुल गौरव की मर्यादा को उच्च से उच्चतर बनाना है । <br />
<br />
(9) भ्रातृत्व स्नेह- हमें अपने जातिय बन्धुजनों से सहज स्वाभाविक प्रेमभाव बढ़ाना चाहिये । हमारे सजातीय बन्धु हमारे सहायक रक्षक संकट में आढे आने वाले हमारे प्राण हैं । समूहबद्धता से ही हमारा लोक में अस्तित्व पहिचान और सन्मान है, अत: समाज की दृढता के लिये हमें सामाजिक संगठनों नियमों मर्यादाओं में पूर्णत: अनुशासन बद्ध बनकर रहना है । यह शिक्षा अपने पुत्र पोत्रों परिवारों को भी सिखानी है । <br />
<br />
(10) नव निर्माण- नव निर्माण के कार्यों में उत्साह से योग देकर शिक्षा संस्थान, उद्योग संस्थान, जनसेवा आदि व्यवसायों में सहयोग देना, संस्थानों, जातिय भवन, पुस्तकालय, चिकित्सालय, कुरीतिनिवारण आन्दोलनों सामाजिक संपत्तियों की रक्षा, गरीब साधन हीन बन्धुओं का मार्ग दर्शन और सेवा, जातीय सम्मेलनों का आयोजन, बैंक, प्रेस, कालेज, प्रकाशन-गृह, यमुना प्रदूषण निवारण, तीर्थ विकास, यात्री व्यवस्था, सांस्कृतिक महोत्सव, गुरूजन विशिष्टजन सन्मान, जातिय गरिमां प्रचारक इतिहास , विशिष्टजन परिचय ग्रंथों का प्रसारण, लोकवंद्य अपने पूर्वजों के चरित्र ग्रंन्थों का प्रकाशन, बेकार बन्धुओं के लिये राजकीय सहायता, लघु उद्योगों की स्थापना और संचालन का निर्देशन, प्रगति के मार्गों और प्रगतिपथ में बढते हुए प्रयासों की समीक्षा और जानकारी समय-समय पर अपने बन्धुओं को देते रहना आदि कार्यों में प्रत्येक समर्थजन को सचेष्ट रहना आज के युग की मांग है । <br />
<br />
(11) जन-जागरण- जन जागरण और अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करना आज के युग का व्यापक कर्तव्य है । जनता को साथ लेकर शिक्षा के लिये, बेकारी की समस्या को हल करने के लिये, नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये दुर्बलों के संरक्षण और उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए, अपनी सांस्कृतिक गरिमां की रक्षा, तीर्थयात्री और पर्यटकों के मार्ग दर्शन ज्ञान के प्रशिक्षण हेतु एक संस्थान की स्थापना, मथुरा का सांस्कृतिक विकास, तथा इसे भारत के तीर्थों के मानचित्र में प्रमुख स्थान दिलाने के लिये, रेल बस आदि यातायात सुविधाओं, यात्री विश्राम गृहों के राजकीय निर्माणों के लिये, खांद्य पदार्थों की मिलावट दूर करने के लिये अपने जातीय निवास चतुर्वेद पुर (चौबिया पाड़ा) की उपेक्षा दूर करने के लिये, प्राचीन देव स्थानों परिक्रमा मार्गों, यात्रा मार्गों, ब्रजयात्रा के विश्राम स्थलों में कूप बृक्ष सरोवर पशुपक्षी वृक्षों की रक्षा के लिये हमें जोरदार आवाज उठानी चाहिये तथा सम्भावित कष्टों का साहस के साथ सामना करके अपनी संस्कृति की रक्षा में आगे बढ़ने के जोरदार प्रयास चलाने चाहिये । इससे हमारा आदरकीय रूप फिर देश के सामने आयेगा । प्रभु हमें इसके लिये बल दैं ?<br />
भगवान श्री बाराह देव का माथुर विप्र स्वरूप दर्शन आज से 11, 303 वर्ष (9260 विक्रम संवत पूर्व) में प्रभु बाराह देव ने हिरण्याक्ष के बध के अनन्तर बसुंधारा देवी से जो मथुरा और माथुर विप्रवर्य महात्म कथन किया है उसके कुछ वाक्य हमारे एक इतिहास प्रेमी बन्धु के आग्रह से आवश्यक समझ कर विषय समाप्ति के बाद भी यहाँ संयुक्त किये जा रहे हैं-<br />
<br />
श्री राम अयोध्यापति वाक्य- भवंतोमम पूज्यसिंह रक्ष्या पोष्याश्च सर्वदा ।<br />
<br />
<poem>येषां पूजन मात्रेण परमात्मा पृहृष्यति ।।12-54।।<br />
श्री बाराह देव वाणी- अनृचो माथुरोयत्र चतुर्वेदस्तथा पर: ।<br />
चतुर्वेदं परित्यज्य माथुरं परिपूजयेत् ।।12-49।।<br />
माथुराणां हि यद्रूपं तन्मेरूपं वसुंधरे ।<br />
एकस्मिन्भोजिते विप्रे कोटिर्भवति भोजित:।।61।।<br />
न केशव समो देवो न माथुर समो द्विज:।<br />
न विश्वेश्वर समंलिंग सत्यं-सत्यं वसुंधरे।।62।।<br />
माथुरामम रूपाहि माथुरामम बल्लभा: ।<br />
माथुरे परितुष्टेतु तुष्टोहं नात्र संशय: ।।64।।<br />
माथुरा परमात्मानो माथुरा परमाशिष: ।<br />
माथुरा मम प्राणावै सत्यं सत्यं वसुंधरे ।।65।।<br />
भार्गवाख्य पुनर्भूत्वा पूजयिष्यामि माथुरान् ।<br />
सूर्यवंशोद्भवश्चैव शत्रुघ्नोहं वसुंधरे ।।66।।<br />
यदुवंशेभविष्यामि पूजयिष्यामि माथुरान् ।<br />
एषां पूजनमात्रेण तुष्टोहं त्ववने सदा ।।68।।<br />
धन्यौऽसौ माथुरो लोके धन्यासौ मथुरापुरी ।<br />
धन्यास्ते माथुरा विप्रा: कपिलंपश्यन्ति ये सदा ।।63।।<br />
यदन्येषां सहस्त्राणां ब्राह्मणानां महात्मनाम् ।<br />
एकेनपूजितेन स्यान्माथुरेणाखिलं हि तत् ।।64।।<br />
भवंतिसर्व तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च ।<br />
मंगलानि च सर्वाणि यत्रतिष्ठन्ति माथुरा: ।।66।।<br />
नार्यावर्त समोदशो न मथुरा सदृशी पुरी ।<br />
न केशव समोदवो न माथुरसमो द्विज: ।।67।।<br />
सिद्ध भूतगणा सर्वे ये च देवगणा: भुवि ।<br />
देवात्मान् माथुरान् लोके तेपश्यन्ति चतुर्भुजान् ।।68।।<br />
मथुरायां ये वसन्ति देवरूपाह्रि माथुरान् ।<br />
अज्ञानास्तान्नपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषा: ।।69।।<br />
मथुरावसथ: शास्तास्तपोयुक्ता मनीषिण: ।<br />
कलिंदजा जले स्नाता विप्रास्ते मामकी तनु: ।।18-23।।<br />
विद्धिभागवतान्देवि विश्रान्तौ तु गतश्रमनान् ।<br />
मथुरायां वर्तमाना ये माथुरा: स्नानतत्परा: ।।22।।<br />
भगवान नारायण वाक्य- माथुराणां तु यद्रूपतन्मेरूपं विहंगम ।<br />
ये पापास्ते न पश्यन्ति ममरूपान्माथुराद्विजान् ।।33।।<br />
त्रिराज कृच्छया एकं चांद्रायण समाधिना ।<br />
तेषा पादांतकेबासो कृतेन सुकृतो भवेत् ।।25-58।।</poem><br />
<br />
माथुर ब्राह्मणों के पूजनार्थ श्री राघवेन्द्र सरकार और श्री शत्रुघ्न देव का मथुरा में विप्रार्चन महोत्सव वर्णन-<br />
<br />
<poem>शत्रुघ्नेन पुरा घोरोलवणो सूदितो यदा ।<br />
द्विजानुग्रहकामार्थं सत्रमुत्सवरूपिणम् ।।27-1।।<br />
मार्गशीर्षस्य द्वादश्यां उपोश्यनियत: शुचि: ।<br />
य: करोतिवरारोहे शत्रुघ्न चरितं यथा ।।3।।<br />
द्विजानां सुप्रियं कृत्वां शुद्धांन्नंवरदक्षिणाम् ।<br />
हर्षस्तु सुमहान्जातो रामश्याक्लिष्टकर्मण: ।।<br />
अयोध्याया समायातो राम:सबलवाहन: ।।4।।<br />
एकादश्यां सोपवास: स्नात्वाविश्रांत संज्ञके ।<br />
कृत्वा महोत्सवं तत्र कुटुंव सहित: पुरा ।।6।।<br />
माथुरान्भोजयेत्भक्त्या य: कुर्यात्सुमहोत्सवम् ।<br />
यथाकामं तीर्थफलं लभते माथुर चनात् ।।7।।<br />
सर्वपाप विनिर्मुक्त: देवैश्च सह मोदते ।<br />
स्वर्ग लोके चिरंकालं यावस्थित्यग्रजन्मन: ।।8।।<br />
एतन्माथुर माहात्म्यं वाराहोकथितं पुरा ।<br />
व्यासदेवेन संगृह्र पुरार्ण संप्रतिष्ठितम् ।।9।।<br />
इति श्रीवाराहपुराणे माथुर मथुरा महात्म्यम् ।।</poem></div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_20&diff=56368चतुर्वेदी इतिहास 202010-04-24T05:45:29Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==स्वतंत्रता संग्राम के रणबांकुरे बीर==<br />
स्वाधीनता संग्रामों में चतुर्वेदी किसी से पीछे नहीं रहे हैं । सैकड़ों हजारों की संख्या में देशभक्त वीरों ने अनेकों विपत्तियाँ उठाकर भी देश के लिये अपना तन मन धन उत्सर्ग करने के प्रशंसनीय प्रयास किये हैं, किन्तु स्वतंत्रता सेनानियों में बहुत कम लोगों के नाम अंकित होने से बड़ी संख्या में ऐसे योद्धा रह गये हैं, जो वास्तव में सम्मान पाने के अधिकारी हैं । वे अभी भी निर्लिप्त और आत्मसंतुष्ट हैं । इनमें से कुछ अति बिशिष्ट शीर्षस्थ बन्धुओं के ही विवरण यहाँ देना पर्याप्त है- <br />
<br />
श्री मदनमोहनजी चतुर्वेदी- इन्हें मथुरा क्षेत्र का महात्मा गांधी कहें तो कुछ अतिशयोक्ति न होगी । लंबा खादी का कुर्ता चौड़ा माथा मधुर उदार स्नेह युक्त वाणी हर सहायता को आगे उद्यत उनका सहज शालीन आत्मीय व्यक्तित्व था । उनका जीवनकाल 1950-2037 वि0 था कर्मठ विचारों और गतिविधियों में अग्रगामी होने के कारण वे 20 वर्ष आयु में ही राष्ट्रीय आन्दोलनों में कूद पड़े । 1970 वि0 के जबरन कुलो भर्ती के अमानवीय अत्याचार का उनने डट कर विरोध किया । 1974 वि0 में वे आनंदी प्रसाद चौबे के साथ होमरूल लीग के जिला प्रचार कर्ता बने । 71 से 75 तक सेवा समिति राष्ट्रीय सेवा संगठन के संस्थापक हुए जिसमें अदम्य उत्साह और सेवा भावना के साथ यमुना बाढ़ इनफ्लूऐंजा दीन अनाथों की चिकित्सा आदि में अग्रवर्तो रहे । 76 में रौलटएक्टविरोध 78 में विदेशी माल वहिष्कार तथा जिला के अंग्रेज कलक्टर फ्रीमेन्टल से संघर्ष जम कर छेड़ दिया । इसी वर्ष आप राष्ट्रीय प्रचार करते हुए गोरखपुर में <br />
गिरफ्तार हुए तथा सरकार के विरूद्ध षडयंत्र में 1 कठोर कारागार तथा 2 मास की काल कोठरी की सजा से दंडित हुए । लखनऊ जेल में इन्हें भारी बेड़िया पहिना कर ऊपर से मोटी तख्तियों की माला गले में डाल कर चक्की पिसाई में लगाया गया जिससे छाती में गहिरा जखम हो जाने पर श्री मालवीय जी कुंजरू आदि नेताओं द्वारा सरकार को कड़ी भाषा में प्रतारित करने पर इन्हें इस यातना से मुक्त किया गया । इस समय लखनऊ जिला जेल में इनके साथी श्री पुरूषोत्तम दास टंडन, मोतीलाल नेहरू, जबाहरलाल नेहरू, गणेश शंकर विद्यार्थी, मोहनलाल नेहरू, श्यामलाल नेहरू, राजेन्द्र बसु, मोहनलाल सक्सेना, के0 पी0 जाफरी, रवीन्द्रवाशिम, रामनाथ गुर्टू, तसद्दुत हुसेन, रामेश्वर सहायसिंह, बालमुकुन्द बाजपेयी, अब्दुलवाही आदि चोटी के नेता पचीसियों थे जो जेल में श्री चतुर्वेदी की महान इज्जत करते थे तथा अपनी श्रद्धा के प्रमाण रूप इनकी डायरी में इन सभी ने अपने हस्ताक्षर अर्पित किये हैं- यह डायरी अभी भी इनके परिवार के जनों के पास एक अमूल्य धरोहर है । इसी वर्ष आप मथुरा रामलीला केस में भी गिरफ्तार हुए । <br />
<br />
1989 वि0 में इन्होंने कटरा केशवदेव पर प्राचीन मन्दिर की भूमि पर घोषियों द्वारा अनधिकृत जोर जबरदस्ती से कब्जा जमा लेने को कठोरता से निरस्त कर भारी प्राणघात की जोखम उठाई इस उपलक्ष में श्री रायकृष्णदासजी ने यह सारी भूमि इन्हें प्रदान कर इस पर कोई सार्वजनिक संस्थान बनाने का इनसे आग्रह किया ये पत्र इनके वंशजों के पास है । अपनी त्याग भावना में अनुप्राणित हो तब इन्होंने इसे लेने से स्पष्ट निषेध कर दिया और इस हेतु महामना श्री मदनमोहन मालवीय जी को प्रेरित कर वहाँ जन्म भूमि ट्रस्ट महाविद्यालय, सेवा समिति, बाढ़ रिलीफ फंड, महामारी सेवा दलों आदि में सक्रिय रहे । राष्ट्रीय चोटी के नेताओं और क्रान्तिकारियों को भी वे उसी भाव से सहायता पहुँचाते थे । यूनानी और आयुर्वेद में विशेष रूचि होने के कारण वे चिकित्सा और जवाहराती औषधि रसरसायन बनाने में भी परम सिद्ध हस्त थे । उनकी अध्ययन और अनुभव से सिद्ध चिकित्सा शत प्रतिशत लाभकारी होती थी । अपने प्रियजनों से उनका व्यवहार बहुत ही उदार और अहंभाव शून्य था । वास्तव में वे अपने समाज के एक महान देव दुर्लभ पुरूष थे ।<br />
<br />
'''श्री राधामोहन चतुर्वेदी-''' राजनैतिक क्षेत्र में आपका बड़ा सम्मान है । राष्ट्रीय विचारों के कट्टर समर्थक होने से आप 1987 वि0 में मथुरा जिले के आंदोलन के डिक्टेटर बन कर जेल गये । 97 98 तथा 99 संवतों में आप फिर कारागार वासी हुए तथा श्री द्वारिकाधीश प्रभु की प्रबंध व्यवस्था से आराम लेकर अब शांत जीवन व्यतीत कर रहे हैं ।<br />
<br />
'''श्री गोपालप्रशाद चतुर्वेदी-''' इन्हें मथुरा की राजनीति का सुभाष बोस कहना उप युक्त होगा । गांधी आन्दोलनों में अनेक बार जेल यात्रा करने के साथ ही ये क्रान्तिकारियों और हिन्दू सभा गोरक्षा आदि के भी उत्कट समर्थक थे । कितने ही क्रांतिकारियों से इनका निकट सम्पर्क था हिन्दू मित्र पत्र निकाला, भारत में अंग्रेज और गोबध पुस्तिका लिखी और मथुरा के कसाई खाने को जन्म भुमि के समीप से हटाने का बम्बई से आन्दोलन उठाया, महाराज अलवर के राज्योतिषी बन कर मान और द्रव्य कमाया जिसे समाज के लोग युग-युग स्मर्ण करते रहेंगे । इनके अतिरिक्त राष्ट्र समर्पित लोगों में प्रथम श्री गौरीदत्त, श्री भगवानादत्त, श्री कैलाशनाथ 'वायकाट', श्री कर्मवीर कुन्दनलाल, श्री कल्याण सोती, श्री सुन्दरश्याम, श्री रघुनाथप्रशाद घी वाले, श्री विश्वनाथ वैद्य, श्री आनन्दीप्रशाद, श्री कालीचरन, श्री मनोहलाल, श्री गुरूदत्त, श्री त्रिलोकीनाथ, श्रीनाथ, बालमुकुंद, डा0 प्रयागनाथ, दौलतराम सराफ, रामू चौबे, पृथ्वीनाथ, बल्देवजी आदि अनगिनती ऐसे चतुर्वेदी रणवांकुरे देश भक्त कार्यकर्ता हैं जिनके यश और सेवायें पार्टी राजनीति में कुचल कर अज्ञात प्राय होती जा रही है ।<br />
<br />
==संगठन और समाज सुधार आन्दोलन==<br />
<br />
माथुरों की संगठन प्रणाली प्राचीन है । ऋग्वेद के समय ये मंडलवृद्ध रहते थे, शत्रुघ्न काल में ये गोत्र कुल संगठनों में तथा वज्रनाभ के समय ये श्रेणीबद्ध (थोक धड़े अखाड़े और मुहल्लों के संगठनों में) अपने सामाजिक क्रिया कलापों में अनुशासनवद्ध रखते थे । गजनवी गोरी मुगल कालों में भी इनके पंचपंचायतों सरदारों के संगठन अपने क्षेत्रों में रक्षा सहायता और समाज सुधार के प्रयासौं को निरन्तर सम्हाले रहते थे । इस समय के निर्णय 'लिखतम' नाम के लेखों में अंकित कर सुरक्षित रक्खे जाते थे, जिन पर सभी प्रमुख सरदारों के हस्ताक्षर रहते थे । ऐसी अनेक लिखतमें मोटे कागजों का आलेखित अभी प्राप्त हैं । <br />
श्रीमती माथुर सभा- 1910 वि0 में पहिली बार पंचायतों ने मिलकर माथुर सभा का रूप ग्रहण किया । 1958 वि0 में इसकी एक विशिष्ट समिति ने सरकार द्वारा माथुर चौबों को तीसरे दर्जे का ब्राह्मण घोषित करने का उपक्रम किया तब इस समिति ने इसका विरोध किया प्रमाण संग्रह किये और एक लघु पुस्तिका 'माथुर चन्द्रोदय' छपवाई ।<br />
<br />
1969 वि0 में माथुर सभा ने कुरीतियों के सुधार हेतु कुछ 'रसमबन्दी' नियम प्रचारित किये । इस समय के लोग सीधेसादे बड़ों का मान करने वाले और पंचों का फैसला परमेसुर की आज्ञा मानते थे, किन्तु कुछ लोग महा उच्घ्रंखल ऐंडें बैंड़े और बिगारा भी थे जो रसमों को तोड़ने में ही अपनी अहंमन्यता को सफल मानते थे । इन्होंने माथुर सभा को प्राण हीन किया और तब-<br />
<br />
'''श्री माथुर चतुर्वेद परिषद-''' का जन्म 1975 वि0 में पांड़े श्री डिब्बारामजी के बाड़े (होली दरवाजा) में उनही की अध्यक्षता में हुआ । तब से सुगठित रह कर इस संगठन ने अनेक उपयोग कार्य किये । उस समय इसके कार्यकर्ता सरदार और समाज सेवा ब्रती कितने ही विनम्र जन थे । इनमें श्री क्याखूबजी (चार हजार भाइयों का जूतों का गुलाम हूं एसी विनम्र भावना युक्त), श्री नटवर जी (समाज सेवा हेतु जीवन समर्पित) , श्री गणेशीलाल जी चौधरी (हम तो आपके सिपाही हैं एसी भावना युक्त), निर्लोभ सेवा संचालक गंगाराम (उचाढा), नीत लाल चौधरी के कार्य प्रमुख हैं । अनेक उतार चढावों के बाद परिषद आगे बढ़ती रही और 2005 वि0 में यह रजिष्टर्ड सभा बनी किन्तु इतने पर भी समाज के अवांछनीय कीटाणुओं ने इसका पीछा न छोड़ा । समाज में अभी भी कुछ घातक कुचकी तत्व एसे हैं जो सच्चे कार्यकर्ताओं को पदों पर देखकर दाँतपीसते हैं, उन्हैं अनेक दुष्प्रचारों से लांछित और हतोत्साहित करके पदों से हटजाने को विवश करते हैं, तथा धींगधसेड़ी से आप सभा पर अधिकार करके उसकी सम्पत्तियों कार्यक्रमों यहाँ तक कि कागजात रजिष्टरों आदि को भी उदरस्थ करके संस्था को अपना बुभुक्षा ग्रास बना कर ही चैंन मानते हैं । सामाजिक सम्पत्तियों को लपक कर खाने वाले इन युग दानवों ने पुस्तकालय बगीची अखाड़े बरतन एतिहासिक दस्तावेजैं पाठशालायें औषधालय सभा के फर्श फर्नीचर लालटैंने सरकारी पत्राचार आदि न जाने क्या क्या चवाये और डकारे हैं, तथा इतने पर भी वे समाज के सामने अकड़ते हुंकराते अपनी काली करतूतों पर गर्व ही करते रहते हैं । वर्तमान पीढ़ी को संस्याओं को जीवित रखने के लिये इनका उपचार सोचना ही होगा । <br />
<br />
'''चतुर्वेदी महासभा-''' 1952 वि0 में आगरा नगर में विद्यार्थियों द्वारा प्रवासी बन्धुओं की संस्था 'चतुर्वेदी महासभा' का जन्म हुआ । इसने 'चतुर्वेदी' नाम की एक पत्रिका भी निकाली जो अभी चल रही है । इस संस्था ने भी अनेक झंझावात झेले हैं । विशेष सम्पत्ति और विरोध होने पर मुकदमे बाजी की भी नौवतें आयीं, परन्तु अब यह सावधान सुव्यवस्थित और चेतना शील है । सभा ने विद्यार्थियों विधवाओं अनाथों को मासिक वृत्तियाँ देने का भी सत्प्रयास जारी रक्खा है । <br />
<br />
'''संगठन महासभा-''' 1985 वि0 में सक्रिय हुई यह 'मीठे चौबे' वर्ग की संस्था है । 2025 वि0 में इसने अपना विराट अधिवेशन मथुरा में आयोजित किया जिसमें 'मीठे कडुए एकीकरण' पर अच्छा वायुमंडल बना परन्तु फिर यह अपनी ही उपेक्षा से मोह निद्रा में ग्रस्त हो गयी । <br />
चतुर्वेद सेवा समिति- 1975 वि0 में ही मथुरा में इस श्रेष्ठ सेवाब्रती संस्था का गठन हुआ । इसमें उस समय के प्राय: सभी प्रतिष्ठित परिवारों के सदस्य सरदार मुनैंदार लोग स्वयं सेवक थे । मथुरा के मेले यमद्वितीया स्नान, रामजी द्वारा मेला आदि की स्वयं सेवक दल द्वारा प्रबन्ध व्यवस्था इसने आरम्भ की, जो आज पुलिस के सरकारी तन्त्र के हाथों में जा पहुँची है । पुस्तकालय औषधालय अनाथ रोगी दुर्बलों की सेवा के साथ इस कर्मठ संस्थान ने ब्रज में पड़े भयानक अकाल में भी गाँव-गाँव में जाकर गायों को चारा, भूखों को सस्ता अनाज वस्त्र औषधि आदि वितरण की सराहनीय व्यवस्था चलायी । मथुरा के चौबों की यह आदर्श राष्ट्र भावनामयी मानव कल्याण भावी तथा ब्रज मण्डल के संरक्षण प्रयास युक्त सर्वोपरि प्रगतिशील उदारवादी संस्था थी, जो इतना महान कार्य करने पर भी न जाने क्यों कालग्रास हो गयी । <br />
चतुर्वेद किशोर संघ-2019 वि0 में गठित चतुर्वेदी युवकों और विद्यार्थियों की यह श्रेष्ठ कर्मठ संस्था थी । इसने पुस्तकालय वाचनालय शिक्षा, सम्मेलन, कोचिंग नाइट स्कूल आदि कई कार्यक्रम चलाये जिनसे समाज को काफी लाभ मिला । 2021 वि0 में इसका रजिष्ट्रेशन भी हुआ । फिर भी यह चिरनिद्रा में सो गयी । <br />
<br />
'''श्री माथुर चतुर्वेद विद्यालय-''' श्रीमती माथुर सभा द्वारा 1960 वि0 में दान दाताओं से चन्दा सहायता 'दान पुस्तिका' द्वारा संग्रह कर इस विद्यालय की जाति सेवा लगनशील स्वाभिमानी युगचिन्तकों द्वारा स्थापना की गई । 1975 वि0 से स्वनाम धन्य उदार दानवीर चौबे बैगनाथ जी ने इसका संचालन अपने संरक्षण में समिति के आधीन लिया । वे इस महान सांस्कृतिक सेवा और उत्थान कार्य से इतने प्रभावित हुए कि 1982 वि0 में इन्होंने एक लाख नौ हजार रूपया लगा कर विद्यालय भवन तथा स्थायी फंड की व्यवस्था करके इसका रजिष्टर्ड ट्रस्ट बोर्ड बना दिया तथा अपने बाद अपनी सारी सम्पत्ति चल अचल कलकत्ते की वेजनाथ चौबे कम्पनी आदि सभी विद्यालय को दान में दे दिये जाने की लिखा पढ़ी करदी । यह एक आदर्श दान था जो अनुदार स्वार्थी सार्वजनिक धन भक्षियों कंजूसौं के मुंह पर एक कसकर लगाया हुआ तमांचा कहा जाना चाहिये । श्री बैज नाथजी के बाद विद्यालय का नाम 'श्री बैजनाथ चौबे चतुर्वेद विद्यालय' हुआ, उन्हें चतुर्वेद सेवा समिति ने स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया, जिसके परवर्ती काल में यह संस्थान फिर दलबन्दी स्वार्थ परता और आपा धापी के दलदल में फंसती चली गयी है । <br />
चतुर्वेद महिला शिल्प विद्यालय- 2007 वि0 में इस संस्थान का रजिष्ट्रेशन चतुर्वेदी समाज की नारियों में शिक्षा शिल्प कला और स्वावलंवन की भावना को जाग्रत करने के हेतु से हुआ । यह संस्था जीवित है, किन्तु अपने लक्ष के अनुसार इस के कार्यक्रमों का आधिकारिक विकास नहीं हुआ है । <br />
<br />
'''चतुर्वेदी युवक संघ-''' यह संस्था 1980 वि0 में लगभग गठित हुई, जिसने बाल विवाह अनमेल विवाह आदि के उन्मूलन हेतु घनघोर प्रचारकार्य किया । <br />
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'''चतुर्वेद सेवा समाज-''' सांस्कृति नवनिर्माण हेतु प्रयासी सुगठित संगठन है, जिसने 2038 वि0 में संगठित होकर मथुरा में होलिकोत्सव के अवसर पर यज्ञ, धार्मिक ग्रंथ पाठ, सन्त सम्मेलन, श्री यमुना छप्पन भोग, गुणीजन सम्मान, नगर शोभा यात्रा, धार्मिक उपदेश प्रवचन लीला प्रदर्शन आदि के सुरम्य गौरवान्वित श्रेष्ठतम कार्यक्रमों का आयोजन करने के साथ ही अपनी एक स्मारिका भी प्रकाशित की है जो नयी पीढ़ी को एक उपयोगी मानसिक पोषक आहार प्रदान करने वाली है । <br />
चतुर्वेद प्रगति मंडल, बम्बई- इस उपयोगी संस्थान का गठन 2032 वि0 में चतुर्वेदी समाज के बम्बई निवासी शिक्षित उद्योग प्रवीण अर्थ व्यवस्था सम्पन्न स्वाभिमानी महात्वाकांक्षी बन्धुओं द्वारा हुआ है । इस संस्थान ने 2042 वि0 में बम्बई जैसे महानगर में बड़े शालीन रूप से एक 'चतुर्वेदी महोत्सव' का सफल आयोजन किया था, जो समाज के लिये एक दिशा निर्देश है । इस अवसर पर संस्थान की एक स्मारिका भी भव्य रूप में प्रकाशित हुई है । संस्थान के शिक्षा व्यवसाय और उद्योग सम्पन्न, उदीयमान विकास अध्यवसायी, सदस्यों से समाज को नयी दिशा में गति पाने की महान आशायें हैं ।<br />
===माथुरों के सरग्राही जीवन का लोक सन्मान===<br />
'हाथ के सच्चे, बात के सच्चे, जीभ के सच्चे और लंगोटी के सच्चे' चौबेजी के चार सर्वोच्च गुण हैं । सुरीली भाँग ठंडाई, तरांतर भोजन, बगीची, संस्कार, मृदुव्यवहार, मनमौजी जीवन ने इन्हें लोक आकर्षण का केन्द्र बनाया है । श्री कृष्ण का गीता में निर्धारित सात्विक: आहार 'आयु सत्व बलारोग्य सुख प्रीति विबर्धन: रस्या स्निग्धा स्थिरा हृद्या आहार: सात्विक: प्रिय:' इनका खीर, रबड़ी, खोआ, खुरचन, माँखन, मलाई, सिखरन, चूरमां दाल बाटी प्रधान आहार हैं । बलिष्ठ विशाल देह बाले पूर्वज 15,20,25 सेर तक तरमाल छक जाते थे । 1945 वि0 में श्री स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है- हमारे यहाँ, मथुरा के चौबे कुश्तीगीर आते हैं- लड्डू कचौड़ी खाते हैं, मौज से 5-7 सेर भोजन खा लेते हैं । 'भाधव मिश्र निबंधमाला' के सम्पादक श्री सुदर्शनजी ने लिखा है- मथुरा के पंडे चौबे हैं । ये बड़े हृष्ट पुष्ट देखने में सुश्रीक और स्वभाव के बड़े मधुर हैं । बड़े मिलनसार हैं । कटु बचन कहना व उदास होना तो ये जानते ही नहीं । लड्डू पेड़ा विजया के पूर्ण भक्त हैं । दण्ड पेलना कुश्ती करना यही इनका नित्य कर्म है । 'जै जमुना मैया की' इसी पर चारों वेद की समाप्ति है । एक चौबे को 4-5 सेर लड्डू खाना और आधमन दूध पीना कोई बड़ी बात नहीं है । इनकी स्त्रियाँ भी सुन्दरी और स्वभाव की सुशील मृदु भाषिणी होती है । गीत इतने मधुर सुरूचि पूर्ण और कवित्वमय होते हैं कि और जगह के कवियों को इनसे शिक्षा मिल सकती है । माथुरी भाषा की मधुरिमाँ तो जग प्रसिद्ध है । मथुरा के चौबे और उनकी स्त्रियाँ उसी विशुद्ध सुललित ब्रज भाषा में बोलते हैं । जिसमें सूरदास और कविवर बिहारीलाल ने अपनी रचनायें की हैं । जबकि इसी क्षेत्र के दुकानदारों और साधारण जनों की बोलचाल भ्रष्ट और विचित्र सी है । कि उसका कोई नाम नहीं बताया जा सकता । <br />
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===नयीधारा के प्रगतिगामी चतुर्वेदी===<br />
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नवीन युग की चेतना के साथ हमारे चतुर्वेदी समाज ने भी अपने कदम बढ़ाये हैं । वैज्ञानिक तकनीकी और चार्टर्ड एकाउन्टेन्सी के साथ अर्थप्रबन्ध, उद्योग( प्रा.लि.) और लि0 कम्पनियों की स्थापना और संचालन में भी महान प्रगति हुई है । इस युग की यह एक महत्वपूर्ण क्रान्ति है । केवल बम्बई क्षेत्र में ही हमारे समाज के अनेकों उद्योग विस्तारत परिवार है । मथुरा तथा अन्य जगहों पर विभिन्न व्यवसायों में सरकारी नौकरियाँ, प्रोफेसर, वकील, डाक्टर, डाइरेक्टर, मैनेजर, चार्टर्ड एकाउन्टैन्ट, परामर्शदाता, ट्रान्सपोर्ट संचालक, कपड़ा, औषधि, साईकिल, विद्युत सामान, इलेक्ट्रानिक, इन्जनीयरी, टेक्नीशियन, बस सर्विस, टैक्सी सर्विस, होटल लघु उद्योगों आदि में हमारे हजारों चतुर्वेद बन्धु अग्रगामी हो रहे हैं जो अगली दशद्वियों में समाज को आदर्श उच्च समाज बनाने में पूर्णत: सफल हो सकेंगे ।<br />
===सांसद और विधायक===<br />
कुछ सांसदों और विधायकों के नाम भी समाज की गौरवमयी सूची में हैं सांसद श्री रोहनलाल जी उप रेल मंत्री एटा, श्रीमती विद्यावती एटा, श्रीनरेशचन्द कानपुर विधायक-श्रीललितकिशोर जयपुर भू0पू0 मंत्री, श्री भुवनेशजी कोटा, श्री सुखदा मिश्र इटावा, श्री शतीश चन्द्र महाराष्ट्र, आदि समाज को इन सभी पर गर्व है ।<br />
===राजनैतिक क्षितिज पर ऊँचे उठते राष्ट्रसेवा ब्रती चतुर्वेदी===<br />
राष्ट्र की महान सेवा साधना में चतुर्वेदी आज भी अग्रवर्ती हैं यह 'तथ्य हाल ही के मथुरा में आयोजित प्रधान मन्त्री श्री राजीव गांधी द्वारा निर्देशित संचालित राष्ट्रीय प्रशिक्षण सेवादल के महत्वपूर्ण अवसर पर जनता के सामने आया है । सन् 85 के काँग्रेस शताब्दी समारोह बम्बई के अवसर पर देश के शीर्षस्थ नेता श्री राजीवगांधी ने काँग्रेस सेवादल को उसका पूर्ण गौरवमय स्वरूप देने के लिये एक रचनात्मक कर्मठ कार्यकर्ता प्रशिक्षण की घोषणा की, उसी को साकार रूप देने को बिहार और उत्तर प्रदेश के काँग्रेस (इ0) के होनहार राष्ट्रकर्मियों को देश के नेतृत्व का ठोस प्रशिक्षण देने के लिये पटना नगर में एक शिविर लगाने की आयोजना थी, जिसमें देश के इन राज्यों के 40 वर्ष की आयु तक के स्नातक योग्यता वाले चुने हुए निष्ठावान कार्यकर्ताओं, विधायकों, सांसदों को 150 की संख्या में एकत्र करके उन्हें देश सेवा ब्रत के ज्ञान और कार्यक्षमता में पारंगत किये जाने की योजना थी ।<br />
मथुरा के श्री महेशपाठक चतुरर्वेदी हाईकामन द्वारा इस शिविर के सयोजक निर्धारक किये गये, उन्होंने इस शिविर में मथुरा को आयोजित करने का निर्णय हाईकमान से लिया और इस हेतु बिहार और उत्तर प्रदेश के 150 सदस्यों की सूची स्वीकृत करायी । यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी जिसमें महान प्रबन्ध व्यवस्था साधनों और कार्यक्रमों को सुनियोजित ढंग से सफल बनाने की पूर्णक्षमता अपेक्षित थी । प्रसन्नता की बात यह है कि हमारे निष्ठावान लगनशील कठिन परिश्रमी और सूझबूझ वाले आत्मविश्वासी तरूण बन्धु ने इस सारी जिम्मेदारी को बड़े सुन्दर और सफल ढंग से सम्पन्न करके अपने राष्ट्र सेवा धर्म के पालन की क्षमता का सुयोग्य परिचय दिया । इस आयोजन में प्रमुख सेवा व्यवस्था चतुर्वेदियों के हाथों में थी । <br />
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मथुरा नगर के भूतेश्वर स्थानीय चतुर्वेदियों के ही एक विस्तृत भूभाग पर 'इन्दिरा नगर' के रूप में एक सुन्दर सुसज्जित शिविर की रचना की गयी, जिसमें भव्य पंडाल और तिरंगे झन्डों की शोभा अवर्णनीय थी । 21 अप्रेल से 6 मई 86 तक चलने वाले इस 15 दिवसीय प्रशिक्षण शिविर का उद्घाटन प्रधान मंत्री श्री राजीवगाँधी ने 25 अप्रेल को किया । अखिल भारतीय सेवादल (ई) के संचालकों के अतिरिक्त जो प्रमुख राजनैतिक हस्तियाँ आयी उनमें प्रधानमंत्री श्री राजीवगाँधी, अध्यक्ष अ0 भा0 कां0 क0 (ई), श्री तारिख अनवर अध्यक्ष अ0 भा0 कां0 (ई) सेवादल, श्री के0 सी0 पन्त केन्द्रीय मंत्री, श्री बीरबहादुर मुख्यमंत्री उ0प्र0, श्री महावीर प्रशाद अध्यक्ष उ0प्र0, कां क0 (ई) श्री आर0 एल0 भाटिया महामन्त्री अ0 भां0 काँ0 क0 (ई), श्री हरदेव जोशी मुख्यमंत्री राजस्थान, श्री अशोक गहलोत अध्यक्ष कां0 क0 राजस्थान, श्री नवलकिशोर शर्मा महामंत्री अ0 भा0 कां0 क0, (ई) श्री सीताराम केसरी केन्द्रीय संसद राज्यमंत्री, डा0 संजयसिंह परिवहन मन्त्री उ0प्र0, श्री नरेन्द्रसिंह चौधरी कृषि मन्त्री उ0प्र0, श्री जगदम्बिका पाल अध्यक्ष कांग्रेस सेवा दल उ0 प्र0, श्री सन्तोसिंह अध्यक्ष उत्तर प्रदेश युवक कां0 क0, श्री नरेन्द्रदेव पांडे शिविर अधिष्ठाता, श्री के0 वी0 पणिक्कर महामंत्री अ0 भा0 काँ0 क0 तथा प्राय: सभी विधायक और सांसद सदस्य सहभागी थे <br />
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इस प्रकार बड़े सफल रूप में यह शिविर देश का सर्व प्रारंभिक आदर्श व्यवस्था पूर्ण सुनियोजित आयोजन सम्पन्न बनकर चतुर्वेदियों की देश सेवा <br />
को राष्ट्र की प्रगति में उजागर बनाने वाला महत्वपूर्ण शिविर रहा, जो अपनी गरिमां के साथ देश के इतिहास में अपना एक विशिष्ट अमर स्थान बनाकर सदैव चिरस्मणीय रहेगा । <br />
चतुर्वेदी समाज की यह अद्यतन राष्ट्रीय सेवा क्षेत्र की गरिमामयी उपलब्धि है । <br />
हमारी सर्वतोमुखी प्रगति के तथ्य यह बतलाते हैं कि स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद हमारे माथुर चतुर्वेदी समाज ने एक नयी करबट बदली है । प्रत्येक प्रगति के क्षेत्र में हमारे उत्साही जनों ने आगे बढ़कर अपना राष्ट्रीय दायित्व बड़ी शालीनता के साथ निभाया है । प्रगति के नये अग्रगामी पथों में वे कहीं भी रूके झिझके या पिछड़े नहीं रहे हैं । <br />
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नयी चेतना की इस जानकारी का संक्षिप्त परिचय देना भी यहाँ समाज के बन्धुजनों के लिये उपयोगी होगा । स्वाधीनता की स्थापना के बाद हमारे कर्मठ नेता देश भक्त और उत्साही कार्यकर्ता प्रत्येक कार्यक्षेत्र में आगे बढ़े हैं । काँग्रेस (ई0) सोशलिष्ट, कम्यूनिष्ट, जनता पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, लोकदल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक, संघ,किसान, मजदूर आन्दोलनों आदि प्राय: सभी दलों और संगठनों में हमारा सर्वेतोमुखी विचार स्वातंत्र्य पूर्णयोगदान रहा है । श्री जवाहरलाल नेहरू, बल्लभ भाई पटेल, श्री राजेन्द्र बाबू, श्री इन्दिरा गाँधी, गोविन्दवल्लभ पंत, श्री मदनमोहन मालवीय, चौधरी चरणसिंह, श्री जगजीवनराम, श्रीराममनोहर लोहिया, श्री जयप्रकाशजी तथा वर्तमान में माननीय राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंहजी तथा राजीवगांधी आदि सभी राष्ट्र के कर्णधारों से हमारे समाज के सुमधुर प्रेरणात्मक और सद्भावात्मक संबंध रहे हैं । देश के नरेश सत्ता उन्मूलन प्रजा परिषदों के आन्दोलनों , जमीदारी उन्मूलन, सहकारी संगठनों की गतिविधियों, कृषि विकास, हिन्दी प्रचार, राष्ट्रीय अखंडता और एकता के प्रचार में हमारे कर्मठजन अनेक प्रदेशों में प्रचार रत रहे हैं । चुनाव प्रचार अभियानों के चतुर्वेदी सर्वोपरि संचालक माने जाते हैं । अपने गीत-संगीत प्रदर्शन काव्य रचनाओं भाषणों से जनता को बांध लेते हैं । तथा जिधर चतुर्वेदी दल की उपस्थिति होती है उसकी जीत निश्चित मान ली जाती है । इस प्रचार तंत्र की श्रेष्ठता काव्य के रचना कारण बड़े बड़े नेता और पार्टियां इन्हें दूर दूर तक अपने क्षेत्रों में सम्मान के साथ बुलाते हैं ।<br />
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देश की सभी भाषायें बोलने और उन भाषा भाषियों के साथ हमारे अति सुमधुर तीर्थ पोराहित्य सबंध हैं । प्रत्येक प्रान्त के भारतीय प्रजाजन तथा विदेशों के पर्यटक जिज्ञासु जन भी जो ब्रज भूमि और मथुरा दर्शन को आते हैं । उन्हें उन्हीं की भाषा में ब्रज की दर्शनीय वस्तुओं का ज्ञान, ब्रजभक्ति और मथुरा की गरिमा का महत्व तथा अपने चरित्र को ऊँचा उठाने विश्व बंधुता और भक्ति की पावनता को धारण करने का मार्ग दर्शन कराते हुए हमारे जन देश की भावनात्मक एकता और चरित्र निर्माण मानव प्रेम को राष्ट्रीय लक्ष बनाने के लिये पूर्ण प्रयत्न रत रहते हैं । <br />
हमारी धार्मिक सहिष्णुता तो इतनी प्रबल है कि हमारा कभी किसी धार्मिक वर्ग मुसलमान ईसाई जैन सिख आदि से असह्म विरोध या संघर्ष नहीं हुआ । सभी मतों के लोग हमारा समान रूप से आदर करते हैं ।<br />
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स्वतंत्रता सेनानियों में हमारे पर्याप्त देश भक्त सम्मानित हैं । राष्ट्र सेवा कार्यों में सेना में, पुलिस में, न्यायालयों में, रेल यातायात, परिवहन, विश्वविद्यालयों मेडीकल सेवाओं, सहकारी वितरण सेवाओं में हमारे शतश: बन्धु उद्योगरत हैं । रेडियों, टेलीविजन, वीड़ियों काव्य और साहित्य की नई धाराओं में हम आगे ही बढ़ते जा रहे हैं । ब्रज भाषा हमारी माधुर्य और गरिमामयी मातृ भाषा है । अत: उसके रचना क्षेत्र पर हमारा सर्वाधिक प्रमुख अधिकार है । ब्रजभाषा आज भी हमारे घरों में विशुद्ध रूप में बोली जाती हैं । तथा ब्रज भाषा की काव्य रचना के सर्वोपरि जगमगाते सामर्थशाली कवि और साहित्य निर्माता हमारे ही समाज में है । हमारे कथाकार ब्रजभाषा भाषी विद्वान देश के प्रत्येक भागों में बुलाये जाकर अपनी रसमयी ललित ललाम ब्रज वाणी से जन जन को मोहित और आत्म विभोर बनाते हैं । अभिनय के क्षेत्र में रामलीला का प्रचार हमारे समाज में दिन दूना बढ़ता जा रहा है । तथा हमारे शिक्षा क्षेत्र में सुयोग्य विद्वान संस्कृत विद्यालयों में, संगीत, साहित्य के गृह प्रशिक्षण (ट्यूशनों) में बड़ी योग्यता से कार्य कर रहे हैं । धार्मिक स्थानों में हमारे सुयोग्य प्रबंधक प्रशासकों का मान हैं मथुरा द्वारिकाधीश , ब्रन्दावन के बांकेबिहारी, दाऊजी के दाऊजी मंदिर, गोकुल नाथराजा के गोकुलठाकुर, तथा अन्य अनेक धर्मशालाओं पाठशालाओं कार्यशालाओं में हमारे बन्धु सम्मान के साथ प्रतिष्ठित हैं । <br />
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नयी प्रगति के युग में हमारी सम्पत्तियाँ भी बढ़ी हैं । मथुरा में ही चतुर्वेदियों की मार्केटें, निजी भवनों की संख्या वृद्धि, दुकान फैक्ट्रियाँ, निजी उद्योग, होटल, पर्यटन व्यवसाय, तथा मथुरा से बाहर बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली, लखनऊ, कानपुर, बंगलोर, कोचीन, आगरा आदि में भी हमारे भाइयों के अनेकानेक उद्योग व्यवसाय और राष्ट्र के 20 सूत्री कार्यक्रम में परिवार नियोजन में ग्राम पंचायतों के विकास तथा हरित शान्ति में 'हमारे कार्यकर्ताओं को सुदृढ़ निष्ठा है । चतुर्वेदी राजकीय अधिकारियों की यह विशेष गुणवत्ता है कि वे अपने कार्यों में नैतिकता को मान देते हुए रिश्वत भ्रष्टाचार सिफारिशों से दूर रहे हैं । <br />
कठिन परिश्रम, सूझ बूझ, कर्तव्यनिष्ठा स्वामिभक्ति, आत्म सम्मान, सदाचार और सहज त्याग संयम और निर्लोभी जीवन के साथ जीने में चतुर्वेदी, अटूट पैतृक निष्ठा रहते हैं । यही कारण है जो इन्हें सब जगह सहज सम्मान आदर और श्रेष्ठता की उपलब्धि स्वाभविक रूप से हो जाती है । चतुर्वेदी बालक स्वरूपवान स्वस्थ प्रतिभा सम्पन्न निर्भीक, और साहस शौर्य से सम्पन्न होते हैं ।<br />
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महिलाबर्ग- माथुरों का महिला वर्ग अनेक गुणों से सम्पन्न है । सुमधुर भाषण गीत संगीत की सरसता, ब्रजवाणी का लालित्य गृह कर्मों की कुशलता, काव्य रचना की सहज स्वाभाविक प्रवृति, धार्मिक आचरणों का निष्ठा के साथ पालन, तीर्थ यात्रा दान ब्रत देव अर्चना आदि में दृढ़ विश्वास इनके प्रमुख गुण हैं । इनमें रूढ़ियों का पालन कुरीतियों का सृजन सीमा से अधिक औदार्य अशिक्षा आदि कुछ प्राचीन त्रुर्टिया भी हैं जो नयी पीढ़ी की बालिकाओं में जो शिक्षा के क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ती रही हैं इनमें ये लुप्त होती जा रही हैं । महिलाओं में नवीन सभ्यता के पहिनावे उत्तम कोटि के भोजन पदार्थ, गहनों से लादे जाने की अभिलाषा कमी बालकों को शिक्षित बनाने साफ सुथरा रखने गृह सज्जा की उत्तमता में भी ये प्रयत्नशील होती जा रही है । <br />
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चतुर्वेदियों ने कंस के मेला की नवीन प्रभावशाली आत्म प्रतिष्ठामय रूप दिया है, सेवा समाज द्वारा होली के अवसर पर भव्य संत सम्मेलन यज्ञ कथा लीला नगर यात्रा आदि के साथ महान महोत्सव का प्रति वर्ष आयोजन प्रसंशनीय है ।ब्रज यात्रा के भक्त श्रद्धालुओं को सर्व सुविधा सम्पन्न यात्रा व्यवस्था (रसोड़ा) की परम्परा का विकास भी एक नये युग की मांग की पूर्ति कहा जा सकता हैं जिससे यजमान के साथ पुरोहित का अति विश्वस्त घनिष्ट पारिवारिक संबंध जैसा श्रद्धाफल स्नेहभाव के साथ ही पुरोहित कर्म में धनापार्जन की भी यथा वृद्धि हो जाती है । समाज के विकास के पथ में बढ़ते स्वरूप का यह चित्र उत्साहवर्धक है । <br />
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===दिशाबोध===<br />
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श्री माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण समाज की लंबी इतिहास यात्रा के बाद आगे हमारा क्या कर्तव्य है तथा इतिहास से हमें क्या प्रेरणायें लेनी हैं यह विचारना आवश्यक हो जाता है । हमारे सामने आज अनेक चुनौतियाँ हैं जिनका हमें सामना और निराकरण करना है । हमारे यशस्वी पूर्वज जिस पथ से आगे बढ़कर आदर्श के शिखर पर पहुँचे हैं वही हमारा श्रेय पंथ है । इस चेतना को आगे बढ़ाने में हमें इन प्रयासों की अवधारणा निष्ठा के साथ करनी है । <br />
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(1) स्वधर्म रक्षण- माथुरों का कुल धर्म प्रभु श्री कृष्ण द्वारा उपदिष्ट श्री मद्भागवत एकादश स्कंध तथा गीता 3,12,17,18 आध्यायों में वर्णित वैदिक स्मार्त सनातन धर्म है, जिसमें यज्ञ दान तप इष्ट आराधना गुरूजन सेवा नित्यकर्म उपासना कुलमर्यादाओं के रक्षण के साथ सत्य दया क्षमा स्थैर्य अस्तेय आचार विचारों की पवित्रता तृष्णा और बिलास व्यसनों का त्याग लोक शिक्षा के प्रयास आदि श्रेष्ठ मानवी गुणा का विकास अपने जीवन में करना है । समय पर संस्कार संध्या, गायत्रीजाप, आचमन प्राणायाम मार्जन अघमर्षण भूतशुद्धि सूर्याध्यदान उपस्थान आदि का नित्य आचरण दैनिक ज्ञान चर्चा हमारा परम पालनीय ब्रह्मकर्म में होना चाहिये, इनसे ब्रह्मतेज आत्मबल देवत्व और लोक प्रतिष्ठा की महती स्थिति प्राप्त होती है । <br />
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(2) विकृत्तियों से सावधानी- समय के प्रवाह से देश समाज और वातावरण में जो विदेशी प्रभाव के प्रवेश से स्वधर्म घातक संस्कृति के दूषण बढ़ने लगते हैं उनसे सावधानी के साथ अपनी रक्षा उचित कर्तव्य है । संस्कारों के प्रति अश्रद्धा उनमें बढ़ाये हुए दिखावट अपव्यय, प्रमाद, बालकों को शुद्ध आहार संयम लोक सदाचार की शिक्षा न दिलाकर उन्हें कुमार्ग में जाते देखकर उसे उन्नति मानना जीवन के घातक विदूषण हैं । सगोत्र, सपिंड स्वच्छंद व बहिर्जातीय विवाह, की संतानें दुष्टकर्मा, इन्द्रिय लोलुप निर्लज्ज झूठी चोर कुल मर्यादा विनाशक माता पिता की सेवा का तिरस्कार करने वाली द्रोही अधर्मी स्वार्थरत दुशकर्मा आनन्दी होती हैं ।, ऐसा भगवान मनुका अनुभव युक्त आदेश है । इससे धर्म समाज कुल की मर्यादायें टटकर बिखर जाती हैं, अत: ऐसे सभी दुराचारों से अपने परिवार को बचाना चाहिये ।<br />
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(3) स्वरूप संरक्षण- स्वरूप की रक्षा हमारा तीसरा प्रधान कर्तव्य है । 'चौबेजी' की पहिचान हजारों में बिना बतलाये हो जाती थी, यह हमारे परम गौरव और आचार श्रेष्ठता का प्रतीक है, इसके लिए ब्रह्मचार्य, व्यायाम, सात्विक भोजन और स्वास्थ्य के घातक भोजनों का त्याग शुद्धवाणी देव आराधना का तेज निर्लोभ निर्भय स्वभाव जीवन में आनन्द और मस्ती हमारे खास गुण हैं, जो हमारे बालकों में आने चाहिये । किसी प्राचीन पूर्वज ने चौबे के सात गुण कहे हैं- <br />
त्याग तपस्या आत्मबल, ब्रह्मचर्य कुल मान ।<br />
निर्भय निरलोभी सुदृढ़ सो, माथुर मुनि जान ।।<br />
सेवा प्रेम उदार मृदु, छिमाँ सान्त सन्तोष ।<br />
चौबे के गुन सात हैं, जग पूजैं निरदोस ।<br />
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(4) द्रव्य का सदुपयोग- अपनी कठिन श्रम की शुद्ध कमाई के धन को गृहस्थी के आदर्श वातावरण निर्माण में, समाज सेवा कार्यों में बन्धुओं की यथाशक्ति सहायता में, तीर्थ यज्ञ, माता पिता की सेवा में, आनन्द और उत्सवों अभावग्रस्त दीन दुखियों की सहायता में उपयोग करना ही महानता का पद है । साहित्य का प्रकाशन प्रचार माथुर गरिमां के ग्रंथों बाराह पुराण गर्गसंहिता भागवत गोपालतापिनी उपनिषद, गीता आदि का पठन पाठन कराकर नयी पीढ़ी को सुसंस्कृत बनाना । प्रभु बामन परशुराम, महर्षि वेदव्यास श्री उद्धवाचार्य महाकवि बिहारी, सात ऋषि, वेदज्ञान आदि के उत्सव आयोजित कर अपने पूर्वजों की गरिमां को जन जन में व्याप्त बनाना यही द्रव्य का सदुपयोग है । <br />
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(5)दहेज लोलुपता- यह महान घातक अकमै समाज में पनपता जा रहा है । सभी इससे आटंकित और भयग्रस्त हैं । हमें सामाजिक तिरस्कार असहयोग और पक्षपात हीन निर्भयता से साहसी वातावरण बनाकर इस दानवी प्रवृति का दमन करना चाहिये । <br />
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(6) कुरीतियों की बृद्धि- समाज में कुरीतियाँ अकुशहीन होकर बढ़ती जा रही हैं । कुछ लोग धन के मद में अपने को ऊँचा बनाने के दंभ में इन्हें बढ़ा रहे हैं । पिछलग्गू मध्यम वर्ग इनके पीछे घिसटता हुआ क्षोभ और संत्रास के गर्त में गरकर कराह रहा है । चरूई, गौंने की अड़-अड़ी, आदि असाधारण कुरीतियाँ ग्रहस्थों को रौद कुचल रही हैं । मध्यमवर्ग को संगठित होकर अल्पमत वाले अहंकारियों के मान मर्दन को बहुमत के सुदृढ़ प्रयासों द्वारा इसका युगानुकूल स्वावलंबी जन जागरण आन्दोलन चलाना चाहिये । उन्हें यह शिक्षा दी जानी चाहिये । कि धन का यशस्वी उपयोग समाज सेवा में विद्यादान, शिक्षा सहायता, बेकारी निवारण , दीन दुखियों अभाव ग्रस्त जनों की सेवा, नवीन उद्योगों की स्थापना आदि सत्कायों में विनियोग करने में है । <br />
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(7) खान-पान की शुद्धता- 'यादृशी भक्षते अन्नं तादृशी जायते मति:' 'जैसा खाय अन्न वैसा बने मन' के अनुभवी सिद्धान्त के अनुसार हमें अपने आहार बिहार में सावधानी बरतना नई पीढ़ी को सिखलाना होगा । विदेशी शिक्षा धन कमाने के लिये आत्म घातक हैं । हम अपना भोजन स्वयं सिद्ध करें, विशेष परिस्थियों में भी यह देखें कि हमारा आहार शुद्ध, सात्विक , निर्दोष, व्यसनहीन, मदहीन, और हमारी कुल मर्यादाओं के अनुकूल है या नहीं । उदरबाद के नाम पर हमें डुबाने वाले होटलों का भ्रष्ट खाना, सिगरेट, शराब, अण्डा, मांस मछली, केकब्रैड, आदि से हम सावधान रहें । हमारा अब तक सम्मान और श्रेष्ठता आहार बिहार भी शुद्धि से ही लोक नमस्कृत रहे हैं । <br />
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(8) दैनिकचर्या और सामाजिक आचरण- अपने व्यक्तिगत आचरण में हमें अपना जीवन पवित्र शांत सुखी सम्पन्न धीर गम्भीर शालीनतामय और गुण सम्पन्न बनाना है । हमें चतुर्वेदी रहना है तो शास्त्रोचित आचरण स्थिर रखना ही होगा तथा इसके लिये शिखा सूत्र, तिलक मुद्रा नित्यस्नान, संध्यावंदन, गायत्री जाप, सूर्याध्यदान, जूठकूठ का विचार रखते हुए दया क्षमा सत्य सन्तोष ईश्वरविश्वास उदारता सर्वजन स्नेह, मृदु भाषण परोपकार सार्वजनिक सेवा देश भक्ति, माता पिता गुरूजनों की सेवा विनम्रता अन्याय की कमाई से विरक्ति, बन्धुजन सन्मान निर्भयता निष्पक्षता आत्मनिग्रह आदि मानवीय सद्गुणों को धारण कर कुल गौरव की मर्यादा को उच्च से उच्चतर बनाना है । <br />
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(9) भ्रातृत्व स्नेह- हमें अपने जातिय बन्धुजनों से सहज स्वाभाविक प्रेमभाव बढ़ाना चाहिये । हमारे सजातीय बन्धु हमारे सहायक रक्षक संकट में आढे आने वाले हमारे प्राण हैं । समूहबद्धता से ही हमारा लोक में अस्तित्व पहिचान और सन्मान है, अत: समाज की दृढता के लिये हमें सामाजिक संगठनों नियमों मर्यादाओं में पूर्णत: अनुशासन बद्ध बनकर रहना है । यह शिक्षा अपने पुत्र पोत्रों परिवारों को भी सिखानी है । <br />
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(10) नव निर्माण- नव निर्माण के कार्यों में उत्साह से योग देकर शिक्षा संस्थान, उद्योग संस्थान, जनसेवा आदि व्यवसायों में सहयोग देना, संस्थानों, जातिय भवन, पुस्तकालय, चिकित्सालय, कुरीतिनिवारण आन्दोलनों सामाजिक संपत्तियों की रक्षा, गरीब साधन हीन बन्धुओं का मार्ग दर्शन और सेवा, जातीय सम्मेलनों का आयोजन, बैंक, प्रेस, कालेज, प्रकाशन-गृह, यमुना प्रदूषण निवारण, तीर्थ विकास, यात्री व्यवस्था, सांस्कृतिक महोत्सव, गुरूजन विशिष्टजन सन्मान, जातिय गरिमां प्रचारक इतिहास , विशिष्टजन परिचय ग्रंथों का प्रसारण, लोकवंद्य अपने पूर्वजों के चरित्र ग्रंन्थों का प्रकाशन, बेकार बन्धुओं के लिये राजकीय सहायता, लघु उद्योगों की स्थापना और संचालन का निर्देशन, प्रगति के मार्गों और प्रगतिपथ में बढते हुए प्रयासों की समीक्षा और जानकारी समय-समय पर अपने बन्धुओं को देते रहना आदि कार्यों में प्रत्येक समर्थजन को सचेष्ट रहना आज के युग की मांग है । <br />
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(11) जन-जागरण- जन जागरण और अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करना आज के युग का व्यापक कर्तव्य है । जनता को साथ लेकर शिक्षा के लिये, बेकारी की समस्या को हल करने के लिये, नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये दुर्बलों के संरक्षण और उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए, अपनी सांस्कृतिक गरिमां की रक्षा, तीर्थयात्री और पर्यटकों के मार्ग दर्शन ज्ञान के प्रशिक्षण हेतु एक संस्थान की स्थापना, मथुरा का सांस्कृतिक विकास, तथा इसे भारत के तीर्थों के मानचित्र में प्रमुख स्थान दिलाने के लिये, रेल बस आदि यातायात सुविधाओं, यात्री विश्राम गृहों के राजकीय निर्माणों के लिये, खांद्य पदार्थों की मिलावट दूर करने के लिये अपने जातीय निवास चतुर्वेद पुर (चौबिया पाड़ा) की उपेक्षा दूर करने के लिये, प्राचीन देव स्थानों परिक्रमा मार्गों, यात्रा मार्गों, ब्रजयात्रा के विश्राम स्थलों में कूप बृक्ष सरोवर पशुपक्षी वृक्षों की रक्षा के लिये हमें जोरदार आवाज उठानी चाहिये तथा सम्भावित कष्टों का साहस के साथ सामना करके अपनी संस्कृति की रक्षा में आगे बढ़ने के जोरदार प्रयास चलाने चाहिये । इससे हमारा आदरकीय रूप फिर देश के सामने आयेगा । प्रभु हमें इसके लिये बल दैं ?<br />
भगवान श्री बाराह देव का माथुर विप्र स्वरूप दर्शन आज से 11, 303 वर्ष (9260 विक्रम संवत पूर्व) में प्रभु बाराह देव ने हिरण्याक्ष के बध के अनन्तर बसुंधारा देवी से जो मथुरा और माथुर विप्रवर्य महात्म कथन किया है उसके कुछ वाक्य हमारे एक इतिहास प्रेमी बन्धु के आग्रह से आवश्यक समझ कर विषय समाप्ति के बाद भी यहाँ संयुक्त किये जा रहे हैं-<br />
<br />
श्री राम अयोध्यापति वाक्य- भवंतोमम पूज्यसिंह रक्ष्या पोष्याश्च सर्वदा ।<br />
<br />
<poem>येषां पूजन मात्रेण परमात्मा पृहृष्यति ।।12-54।।<br />
श्री बाराह देव वाणी- अनृचो माथुरोयत्र चतुर्वेदस्तथा पर: ।<br />
चतुर्वेदं परित्यज्य माथुरं परिपूजयेत् ।।12-49।।<br />
माथुराणां हि यद्रूपं तन्मेरूपं वसुंधरे ।<br />
एकस्मिन्भोजिते विप्रे कोटिर्भवति भोजित:।।61।।<br />
न केशव समो देवो न माथुर समो द्विज:।<br />
न विश्वेश्वर समंलिंग सत्यं-सत्यं वसुंधरे।।62।।<br />
माथुरामम रूपाहि माथुरामम बल्लभा: ।<br />
माथुरे परितुष्टेतु तुष्टोहं नात्र संशय: ।।64।।<br />
माथुरा परमात्मानो माथुरा परमाशिष: ।<br />
माथुरा मम प्राणावै सत्यं सत्यं वसुंधरे ।।65।।<br />
भार्गवाख्य पुनर्भूत्वा पूजयिष्यामि माथुरान् ।<br />
सूर्यवंशोद्भवश्चैव शत्रुघ्नोहं वसुंधरे ।।66।।<br />
यदुवंशेभविष्यामि पूजयिष्यामि माथुरान् ।<br />
एषां पूजनमात्रेण तुष्टोहं त्ववने सदा ।।68।।<br />
धन्यौऽसौ माथुरो लोके धन्यासौ मथुरापुरी ।<br />
धन्यास्ते माथुरा विप्रा: कपिलंपश्यन्ति ये सदा ।।63।।<br />
यदन्येषां सहस्त्राणां ब्राह्मणानां महात्मनाम् ।<br />
एकेनपूजितेन स्यान्माथुरेणाखिलं हि तत् ।।64।।<br />
भवंतिसर्व तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च ।<br />
मंगलानि च सर्वाणि यत्रतिष्ठन्ति माथुरा: ।।66।।<br />
नार्यावर्त समोदशो न मथुरा सदृशी पुरी ।<br />
न केशव समोदवो न माथुरसमो द्विज: ।।67।।<br />
सिद्ध भूतगणा सर्वे ये च देवगणा: भुवि ।<br />
देवात्मान् माथुरान् लोके तेपश्यन्ति चतुर्भुजान् ।।68।।<br />
मथुरायां ये वसन्ति देवरूपाह्रि माथुरान् ।<br />
अज्ञानास्तान्नपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषा: ।।69।।<br />
मथुरावसथ: शास्तास्तपोयुक्ता मनीषिण: ।<br />
कलिंदजा जले स्नाता विप्रास्ते मामकी तनु: ।।18-23।।<br />
विद्धिभागवतान्देवि विश्रान्तौ तु गतश्रमनान् ।<br />
मथुरायां वर्तमाना ये माथुरा: स्नानतत्परा: ।।22।।<br />
भगवान नारायण वाक्य- माथुराणां तु यद्रूपतन्मेरूपं विहंगम ।<br />
ये पापास्ते न पश्यन्ति ममरूपान्माथुराद्विजान् ।।33।।<br />
त्रिराज कृच्छया एकं चांद्रायण समाधिना ।<br />
तेषा पादांतकेबासो कृतेन सुकृतो भवेत् ।।25-58।।</poem><br />
<br />
माथुर ब्राह्मणों के पूजनार्थ श्री राघवेन्द्र सरकार और श्री शत्रुघ्न देव का मथुरा में विप्रार्चन महोत्सव वर्णन-<br />
<br />
<poem>शत्रुघ्नेन पुरा घोरोलवणो सूदितो यदा ।<br />
द्विजानुग्रहकामार्थं सत्रमुत्सवरूपिणम् ।।27-1।।<br />
मार्गशीर्षस्य द्वादश्यां उपोश्यनियत: शुचि: ।<br />
य: करोतिवरारोहे शत्रुघ्न चरितं यथा ।।3।।<br />
द्विजानां सुप्रियं कृत्वां शुद्धांन्नंवरदक्षिणाम् ।<br />
हर्षस्तु सुमहान्जातो रामश्याक्लिष्टकर्मण: ।।<br />
अयोध्याया समायातो राम:सबलवाहन: ।।4।।<br />
एकादश्यां सोपवास: स्नात्वाविश्रांत संज्ञके ।<br />
कृत्वा महोत्सवं तत्र कुटुंव सहित: पुरा ।।6।।<br />
माथुरान्भोजयेत्भक्त्या य: कुर्यात्सुमहोत्सवम् ।<br />
यथाकामं तीर्थफलं लभते माथुर चनात् ।।7।।<br />
सर्वपाप विनिर्मुक्त: देवैश्च सह मोदते ।<br />
स्वर्ग लोके चिरंकालं यावस्थित्यग्रजन्मन: ।।8।।<br />
एतन्माथुर माहात्म्यं वाराहोकथितं पुरा ।<br />
व्यासदेवेन संगृह्र पुरार्ण संप्रतिष्ठितम् ।।9।।<br />
इति श्रीवाराहपुराणे माथुर मथुरा महात्म्यम् ।।</poem></div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_19&diff=56364चतुर्वेदी इतिहास 192010-04-24T05:34:37Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==तीर्थ पौरोहित्य सम्मान==<br />
<br />
तीर्थ पुरोहित के नाते ब्रज चौरासी कोस के तीर्थाचार्य माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों के चरण पूजते और अपने हस्त लेख इनकी वाहियों में अंकित करने वाले विशिष्ट महानुभावों की एक संक्षिप्त नामाबलि हम यहाँ दे रहे हैं । इसमें समय विक्रम संवत में है । <br />
<br />
'''1. शुंग नरेश का ताम्र पत्र'''- धौलपुर के शेरगढ स्थान से एक ताम्र पत्र मिला है, जिसमें अहिच्छत्रा (उत्तर पांचाल रूहेलखंड) के निवासी शुंग वंशी राजा शिवादित्य के वंशज द्वारा अपने पूज्य पुरोहित माथुर चतुर्वेद ब्राह्मण को 15 द्राम (सिक्के) तथा भूमि पुप्यार्थ दान में दी गई । यह लेख 128 वि0 पू0 का है । <br />
<br />
'''2. गुप्त वंश का दान'''- 533 वि0 में गुप्त सम्राट के विषयपति शर्वनाग ने इन्द्रपुर के सूर्य मन्दिर में देव अर्चना करने वाले मथुरा के चतुर्वेदी देवविष्णु को दीपार्चन के लिये द्रव्य राशि दान दी । इस दान पत्र में दानदाता के स्वामी सम्राट समुद्र गुप्त को परम भट्टारक महाराजाधिराज तथा उनके विषय पति सर्वनाग को अभिवर्धमान विजय राज्य कहा गया है । <br />
<br />
'''3. चित्तौड़ उदयपुर''' के राणा भीमसिंह जी का श्री उजागर देव वंशजों को पौरोहित्य 1853 वि0 ।<br />
<br />
'''4. नैपाल नरेन्द्र श्री सुरेन्द्रवीर''' विक्रम शाहबहादुर 1830 तथा महाराजाधिराज श्री त्रिभुवनवीर विक्रम ।<br />
<br />
'''5. मैसूर राज्य''' के महाराज का लेख ।<br />
<br />
'''6. करौली नरेश महाराज''' प्रतापपालदेव 1897 वि0 । -7कोटा नरेश महाराज छत्रसाल कोटा 1815 -1820 वि0 रीवाँ, दतिया, ओरछा, जोधपुर जैसलमेर के नरेशों के लेख ।<br />
<br />
'''7. पूंछ काश्मीर के राज''' श्री मोतीसिंह का लेख 1327 वि0 श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ ।<br />
<br />
'''8. जंबू काश्मीर नरेश''' महाराज श्री गुलाबसिंह जी का तथा श्री प्रतापसिंह जी एवं महाराज जगतसिंह जी के यात्रा लेख 1888 ।<br />
<br />
'''9. परिशिष्ट''' 7, 9, 10-4; 5, 238-3; 6; 7 बड़े चौब जी श्री विनोदी चन्द जी के वंशधरों के यहाँ हैं ।<br />
बड़े चौबेजी गोपालचंद जी जमनादासजी के यहाँ<br />
<br />
'''9. श्री पैहारीजी महाराज''' 1592 वि0 । श्री रामलालजी मिहारी सर्दार के वंशजों के पास गोपाल भट्ट गोस्वामी 1590 । श्री भट्ट दामोदरदास जी 1580 । ब्रह्मचारी मन्दिर के महंतजी श्री गिरिधारीदास जी 1549 । राधावल्लजी के गो0 श्री दामोदरदास जी, विलासदासजी, कमलनयनजी, हित हरिवंशजी के पौत्र । गो0 श्री शुकदेवजी हरिदेवजी । गो0 छबीलेलालजी, गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी, श्री प्रसादबल्लभजी । श्री चैतन्य महाप्रभु को दामोदरजी भगवान जी मिहारी द्वारा विश्रान्त स्नान और ब्रज दर्शन ।<br />
<br />
'''10. श्री बल्लभाचार्य वंश'''- श्री महाप्रभु बल्लभाचार्यजी का ताम्रपत्र- 'श्री मद् विष्णुस्वामिमतानुयायिन: श्री बल्लभेन मथुरा मंडले श्री उजागरशर्मण: पौरोहित्येन सम्मानित:' 1551 । श्री विश्रान्त तीर्थराज पर श्री यमुनाष्टक की प्रेरणा और पौरोहित्य आवाहन 1552 । श्री गो0 विठ्टलनाथ जी तथा 7 स्वरूपों का मथुरा (सतघरा) में निवास 1600 वि । गो0 गोविन्दलालजी नाथ द्वारा 1818 । गो0 विठ्टलनाथजी कोटा 1881 गो0 गोकुलनाथजी चापासनी जोधपुर 1828 । गो0 गोवर्धनलाल जी बम्बई, 1847 । गो0 बाल कृष्णजी बम्बई 1862 । गो0 प्रद्युम्नजी कोटा 1822 । गो0 यदुनाथजी बम्बई 1891 गो0 विठ्टलनाथजी वल्लभजी 1867 । गो0 गिरधरलालजी कांकरोली 1822 । गो0 प्रद्युम्न जी बड़ौदा 1822 । गो0 गोपीनाथजी राजाठाकुर गोकुल 1888 । गो0 टीकमजी सूरत 1881 । गो0 श्री दामोदरलालजी तिलकायत नाथ द्वारा 1869 । गो0 गिरधरलालजी कांकरौली 1916-1940 । गो0 बालकृष्ण जी 1940 । गो0 गोपाललालजी कोटा 1931 । गो0 घनश्यामलाल जी कामवन 1914 । गो0 देवकीनन्दनजी की माताजी जमनाबहू जी कामवन 1925 । गो0 ब्रजरत्नजी नड़ियाद 1915 । गो0 नृसिंहलालजी बंबई 1919 । गो0 ब्रज जीवनजी काशी 1806-1932 । गो0 रणछोरलालजी पोरबंदर 1974 । गो0 कल्याणरायजी 1967 । गो0 ब्रजभूषणलालजी कांकरौली 2025 । श्री बन महाराज बृन्दावन के दो बार ब्रज यात्रा किये जाने के लेख 2001 तथा 2008 वि0 ।<br />
गो0 तिलकामत महाराज श्री गोवर्धनलालजी नाथ द्वारा, श्री दामोदरलाल जी 1822 । गो0 श्री गिरधरलालजी कांकरौली 1822 । गो0 हरिरायजी जगन्नाथजी । गो0 दामोदरलालजी दूसरी गादी नाथ द्वारा 1889 । गो0 श्री बालकृष्ण जी गोवर्धननाथजी बम्बई 1862 । गो0 श्री टीकमजी सूरत 1881 । राजा ठाकुर गोकुल के गो0 गोपीनाथजी ब्रज जीवनजी 1885 । नाथ द्वारा दूसरी गादी के गो0 श्री घनश्याम लालजी , बालकृष्ण जी 1940 । मथुरा मदनमोहन हवेली के गो0 कल्याण राय ब्रजनाथजी 1967, श्री माजी महाराज यमुना बहूजी गोपाललालजी 1967 ।<br />
<br />
'''11. माध्व संप्रदाय'''- गो0 श्याम सुन्दर जी चरण । गो0 श्री रामचन्द्र देव चरण 1912 ।<br />
<br />
'''12. रामानन्दी'''- श्री मद् अनंताचार्य शिष्य श्री स्वामि जनार्दन पयोहारिणा श्री मद् कृष्णाचार्येण श्री मथुरा क्षेत्रे श्री उजागरजी माथुर: पुरोधानित: वैशाख: शु0 3 सं0 1592 वि0 । <br />
<br />
'''13. द्वारिका के रणछोरजी के गोस्वामिगण'''- श्री नरोत्तमदास जी राम प्रसाद जी शंखोद्वार संस्थान 1936 । श्री रूपलालजी सत्यभामा मन्दिर द्वारिका 1937 । श्रीगंगादासजी अधिकारी जामवती मन्दिर 1969 । श्री हरिवल्लभ जी ब्रह्मचारी जामवती मन्दिर 1936 । श्री हरिवल्लभजी जगन्नाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री यदुनाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री नारायण जी ब्रह्मचारी शंख नारायण मन्दिर 1936 । श्री रघुवीरदास जी शंखोद्वार बेट 1935 ।<br />
<br />
'''14. श्री राधाबल्लभ संप्रदाय'''- गो0 श्री दामोदरजी श्री हितहरिवंश जी के पौत्र श्री रासदास जी, श्री विलासदासजी, श्रीकमलनयनजी बृन्दावन 1707 । श्रीसुख देवलालजी हरदेवलालजी जैदेवलालजी 1707 । श्री छबीलेलालजी 1707 । गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी श्री प्रसादबल्लभ जी 1707 । गो0 श्री हरप्रसादजी हरवल्लभजी 1707 । गो0 ब्रजपति जी ब्रजानन्द जी 1739 । श्री दयालालजी सुन्दरलालजी 1814 । श्री गोपीलालजी रमणलालजी खड़िया अहमदाबाद 1925 । गो0 श्री दामोदर लालजी 1970 । श्री रूपलाल जी किशोरी लालजी 1987 । <br />
<br />
<br />
'''15. श्री बांकेबिहारी के गोस्वामी गण'''- श्री रासदासजी स्वामी हरिरायजी सुत कृष्णदासजी वृन्दावन 1711 । श्री राजारामजी सुत वैनीदासजी 1785 । श्री हरिदासजी श्री जगन्नाथजी के वंशज गोर्धनाथजी 1834 ।<br />
<br />
'''16. श्री गोविन्ददेवजी जैपुर के गौडीय गोस्वामी गण'''- गो0 श्री रामनारायणजी, हरेकृष्णजी, कृष्णचन्द्रजी श्री बलीरामजी श्रीजी के, श्री चरणदेवजी 1810 । श्री नीलांवरदेवजी 1825 । श्री ब्रजानन्दजी राधागोविन्द जी के गोस्वामी 1862 । श्री कृष्णशरणजी 1869 । श्री भक्त सारंग गोस्वामी गौडीयमठ लंदन के प्रधान 1941 । श्री अतुलदेवजी 1989 । श्री त्रिदंडीजी स्वामी भक्ति प्रज्ञान केशव महाराज (ब्रज यात्रा की)2001 । श्री नृसिंह महाराज नवद्वीप 2008 । श्री भक्ति विलास तीर्थ जी 2009 । श्री भक्ति कुमुद संत महाराज मिदनापुर 1952 । श्री नारायण महाराज गौड़ीय वेदान्त समिति 1954 । श्री सिद्धांती महाराज सारस्वत गौडीय मठ 1954 । श्री योगी त्रिदंडी स्वामी 2010 । श्री प्रकाश तीर्थ स्वामी महाराज 2011 ।<br />
<br />
'''17. बड़े चौबे जी''' श्री विजयचन्द्र जी प्रतापचन्द जी के यहाँ-<br />
<br />
1. बादशाह अकबर का अपने राज्य प्राप्ति के दूसरे वर्ष में माधौपुर गाँव के समीप चौबे गोकुलचन्दजी शोभाराम जी बड़े चौबे जी को भूमि दान का शाही फर्मान 1615 वि0 ।<br />
<br />
2. बादशाह जहाँगीर द्वारा अपनेराज्य के चौथे वर्ष में बड़े चौवेजी गोकुल चन्दजी को जमीन वाग कुआ बख्शीश देने का शाही फर्मान 1667 वि0 ।<br />
<br />
3. दिल्ली के मुगल बादशाही मुहम्मद शाहबली द्वारा बड़े चौबे जी गोकुल चन्दजी को गांव मुर्शिबाद, आजमपुर, मगोर्रा माधौपुर आदि में भूमि 6 बाग खेत आदि दिये जाने का फर्मान 1791 वि0 ।<br />
<br />
4. श्री जयपुर नरेश महाराज सबाई जयसिंह जी द्वारा बड़े चौबेजी श्रीगोकुल चन्द जी को वृन्दावन में केशी घाट पर तीर्थ स्नान कर जागीर की भूमि दान में देने का राजकीय दानपत्र 1778 वि0 ।<br />
<br />
'''18. बड़े चौबे जी श्री विनोदी चन्दजी के यहाँ'''-<br />
<br />
1. उदैयपुर चित्तौड़ के राणा श्री भीमसिंह जी महाराज का ब्रज चौरासी कोस के पौरोहित्य का लेख 1639 वि0 । <br />
<br />
2- शिवपुर (बड़ौदा) के राजा साहब इन्द्रसिंह जी की सनद 1781 वि0 । <br />
<br />
3- जयपुर नरेश सवाई महाराज श्री ईश्वरी सिंह जी द्वारा बृन्दावन में केशी घाट पर स्नान करके बड़े चौबे जी को भूमि दान देने का लेख 1803 वि0 । <br />
<br />
4- जैपुर नरेश सवाई माधौसिंह जी 1809 वि0 । <br />
<br />
5- करौली नरेश महाराज श्री प्रतापपालजी देव 1857 वि0 । <br />
<br />
6- स्यामुई नरेश महाराज श्री शिवदानसिंह जी 1860 वि0 । <br />
<br />
7- करौली नरेश महाराज हरबक्श पालसिंह जी 1889 वि0 । <br />
<br />
8- रामपुरा भानपुरा नरेश राजा लक्ष्मणसिंह जी की धर्मपत्नि माजी साहब का लेख 1900 वि0 । <br />
<br />
9- रामपुरा भानपुरा नरेश महाराज श्यौदान सिंहजी 1915 वि0 । <br />
<br />
10- कोटा नरेश महाराज श्री छत्रसालसिंह जी 1929 वि0 ।<br />
<br />
'''19. श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ-'''<br />
<br />
1. पूँछ काश्मीर नरेश राजा मोतीसिंह जी 1627 । <br />
<br />
2- जम्बू काश्मीर नरेश महाराज श्री रणवीरसिंह जी 1931 । <br />
<br />
3- जम्बू नरेश महाराज प्रतापसिंह जी 1942 । <br />
<br />
4- चिन्हैनी राज्य के दीवान श्री चरणदासजी 1960 । <br />
<br />
5- जंबू नरेश महाराज श्री गुलाबसिंह जी बालिया 1888 । <br />
<br />
6- पूंछ नरेश श्री राजा जगदेवसिंह जी 1990 । <br />
<br />
7- सफौरा वीसलपुर (पीलीभीत) के राजा रामलाल जी छदम्मी लालजी 1990 वि0 ।<br />
<br />
'''20. श्री विशंभरनाथ माना राव के पुत्र श्रीकैलाश नाथ जी के वंश धरों के यहाँ-'''<br />
<br />
1. महाराज शिवाजी के गुरू श्री समर्थरामदास महाराज का मथुरा में गणेश टीले पर निवास का लेख 1743 । 2- ग्वालियर के कुशाजी शिंदे, महारानी साहब श्री विजयावाई शिंदे 1754 । 3- ग्वालियर नरेश महाराज श्री जियाजी महाराज शिंदे 1795 । 4- दत्र पति श्री शिवाजी महाराज के पुत्र श्री शंभाजी भौंसले फल्टन सितारा की पुरोहिताई की सनद, मंत्री शिवदेव द्वारा लिखित 1797 । ग्वालियर के महाराज दौलतराव शिंदे तथा माधवजी शिंदे का चौबे जी को तेहरा गांव दान 1710 । 5- महाराजा मैसूर का लेख 1788 । 6- शाहजादा रहिजान अलीखाँ 1245 । 7- शाह साहिबराम नियाज अलीखाँ 1247 । 8- कोल्हापुर की महारानी श्रीमती पद्मावती रानी साहब 1252 । 9- मिरज सांगली नरेश बाबा साहब पटवर्धनजी तथा श्रीमती जमुनाबाई पटवर्धन 1680 । 10- आलमगीर साहब नवाब बंदेबहादुर 1893 ।<br />
<br />
'''21. श्री श्यामलाल जी चौधरी के वंशजों के यहाँ-'''<br />
<br />
1-बीकानेर के श्रीमंत सेठ हरखचन्द जै गोविन्द जैचन्द ने शाहजहाँ काल में मथुरा यात्रा की, प्रोहित गोपाल जी कुंज बिहारी जी (कचरेजी) द्वारिकानाथ जी (दुआरो) को पूर्व के सेठ गोपाल जी नरसिंह जी का 1665 वि0 का लेख देख कर पूजित किया 1713 वि0 में । इन्होंने अपनी मथुरा यात्रा पर एक पुस्तक लिखी है जो अनूप संस्कृत लाईब्रेरी बीकानेर में सुरक्षित है । <br />
<br />
2- महामना श्री मदनमोहन जी मालवीय तथा समस्त मालवीय वंशों के पौरोहित्य लेख । <br />
<br />
3- माल पानी माहेश्वरी सेठ सहजराम जिन्होंने बेणीराम वंश को वेद मूर्ति पूजनीक लिखा है 1868 वि0 । <br />
<br />
4- रामानुज श्री संप्रदाय के डीडवाना (राजस्थान) के झालरिया मठ के आचार्य श्री स्वामीजी रामावत जी 1773 वि0 । <br />
<br />
5- डीडवाना के महंत चतुर्भुजदासजी 1889 वि0 ।<br />
<br />
6- यहीं के रामानुज पीठ के महंत मनसारामदास जी 1889 वि0 । <br />
<br />
7- महंतजी श्री भगवानदास जी गुरू तुलसीदास जी 1889 वि0 । <br />
<br />
8- महंत जी श्री कान्हरदास जी गुरू भागीरथदास जी 1888 वि0 । <br />
<br />
9- महंतजी श्री रामदास जी गुरू राधाकृष्णदास जी जानकीदास जी 1990 वि0 । सुप्रसिद्ध उद्योगपति माहेश्वरी सेठ बांगड़ परिवार (मगनीराम रामकुमार बांगड़) के पौरोहित्य के वंश परम्परागत लेख ।<br />
<br />
<br />
<br />
23. निम्बार्क संप्रदाय- निम्बार्क संप्रदाय के अनेक गण्यमान्य साधु संतों आचार्यों के लेख मिहारी सर्दार रामलालजी के यहाँ हैं । <br />
<br />
श्री रघुनाथ प्रशादजी शास्त्री (घासीराम बद्रीजी चौबे के बंशजों) के पास- निम्बार्क संप्रदाय के प्राचीन आचार्य महंतों के हस्त लेख हैं, इनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं- श्री सर्वेश्वर शरणजी 1862 वि0- 1871 वि0 50 बीघा भूमि का दान, श्री हरिव्यासदेव जी 20 महंतों के साथ विश्रान्त तीर्थ स्नान को पधारे 1866 वि0, ब्रज दूलह श्री महादास जी 12 बीघा भूमि दान 1868 वि0, श्री केशव काश्मीरी परम्परा के श्री भट्टजी हरिव्यासदेवजी, सोभूरामजी, कान्हर देवजी (चतुरानागा जी) 1869 वि0, धूलेड़ा के महंत भगवानरामजी 1870 वि0, राधौगढ के संतोषदासजी तुलसीदासजी गंगारामजी देवदासजी 1872 वि0, टोड़ा के गरिनारी दयामरामदासजी 1889 वि0, महंत गोपेश्वरलालजी 1904 वि0, निर्वाणी अखाड़े के समस्त महंतों का लेख 1911 वि0, महानिर्वाणी केशौदास जी माधुरीदास जी 1911 वि0, जुनागढ के पीताम्बरदासजी 1922 वि0, दिगंबरी अखाड़े के नाथजी 1925 वि0, आदि के पचीसियों लेख ।<br />
<br />
24. काश्मीर मंडल- काश्मीर के सुप्रसिद्ध नेहरू परिवार में-<br />
<br />
1- श्री गंगाधर जी नेहरू तथा समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों का लेख श्रीबालकरामशर्मा का लिखित 18 सोने की मुहरों से युक्त चौबे श्री गोपीनाथ जी बनकली जी काश्मीरी प्रोहित के यहाँ है 1920 । <br />
<br />
2- श्री अमरनाथजी हरीशंकरजी काश्मीरी पंडित का लेख समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों की तरफ से प्रोहिताई का 1922 । <br />
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3- श्री मोतीलाल जी नेहरू 1908 । श्री जवाहरलाल जी श्रीमती इन्दिरागांधी जी का हस्तलेख 25-3-52 । श्री मोतीलाल जी नेहरू पुत्र श्री गंगाराम नेहरू पौत्र श्री वृन्दावन नेहरू का उर्दू हस्तलेख 22-8-42 का । दूसरा 19-7-1908 का । <br />
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25 महामान्य श्री राजेन्द्र प्रशाद जी- का लेख चौबेजी श्रीधर जी हरिहरजी के यहाँ हैं । प्रोहित श्री त्रिलोकीनाथ चौबे 25-12-59 । हिमालचल प्रदेश के राजाओं के लेख सर्दार बन्दर सिकन्दर चौबे जी के वंशजों के यहाँ हैं । <br />
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26. राष्ट्रपिता पूज्य महात्मा गांधी जी- इनका तथा इनके समस्त परिवारों के लेख चौबेजी लालाराम सालिगराम रामरज वंश के यहाँ हैं । <br />
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27. इनके अतिरिक्त- श्री बल्लभभाई पटैल, श्री भूलाभाई देसाई, श्री मुरारजी देसाई, श्री गोविन्द बल्लभ पंत, श्री सुभाष चन्द्र बोस, श्री राजा महेन्द्र प्रतापजी तथा बिरला, बांगड़, डालमियाँ, मोदी, सिहानियाँ, आदि अनेकों भारत प्रसिद्ध परिवारों के पौरोहित्य पूज्यता के लेख माथुरों की बहियों में लेख बद्ध हैं, जो इनकी अखिल भारतीय पूज्यता और मान्यतायुक्त गौरव के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । <br />
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1782 वि0 में चौबे हुलासीराम और इनके पुत्र गंगाराम चौबे पूना रह कर पेशवा वाजीराव को श्री मद्भागवत सुनाते थे । श्री याज्ञिक सोहनलालजी नैपाल बड़ोदा कोटाबूंदी चरखारी पन्ना बिजावर 21 राज्यों के पूज्य पंडित थे और इन राजाओं के संस्कार यज्ञ देव समारोह सम्पन्न कराने को बुलाये जाते थे । <br />
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==मन्दिर द्वारिकाधीश की स्थापना ==<br />
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'''द्वारिकाधीश भगवान''' मथुरा के प्रमुखतम देवता हैं । श्री द्वारिकाधीश की स्थापना के विषय में मथुरा की जनता बहुत कम जानती है । लेखक विद्वान भी यथार्थशून्य मन गढन्त कपोल-कल्पनाओं को बटोर कर भ्रान्तियों का ताना बाना बुनते रहते हैं । द्वारिकाधीश मन्दिर की स्थापना का सारा प्रयास चतुर्वेदियों का है और उनके ही पास इसकी विशेष जानकारी भी है । माथुरों में श्री उद्धवाचार्य देव जू के बंश में श्री द्वारिकानाथ जी मिहारी बड़े सिद्ध और त्यागी तपस्वी महापुरूष हुए हैं । अपने 'ब्रज मथुरा इतिहास' ग्रंथ में श्री छंगालाल जी ने लिखा है-'श्री द्वारिकानाथ जी ग्वालियर महाराज के गुरू और दानाध्यक्ष हे, लश्कर में सब चौबे और ब्राह्मणों को हौसा (वार्षिक वृत्ति) बाँटते । मथुरा हू में सब ऋतुन में महाराज के दान के बस्त्र, कलश पात्र, अन्न आदि ब्राह्मणन कौं बांटते रहते । ये बहौत पुण्यात्मा, भजनानन्दी, शास्त्र पठन पाठनकारी, जीव है । दुपहर तक अपने पाठ पूजा में लगे रहते- गोपाल जी कों लाढ लढाते- एकादसी के दिन निर्जल ब्रत करते, पानी तक न पीते, रात कौं प्राय: मथुरा ही में रहते, काहूते बात न करते, एकांत में बैठ श्री हरि कौ ध्यान करते । इनके चेहरा पैं सूर्य के समान तेज प्रकाश मान देखवे में आती हो, लोग दूर दूरते इनके दरसन कौं आयौ करते, ये देवर्सि कोटिके महात्मा हैं ।?<br />
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'''इनके तप को देखकर''' सिंधिया महाराज दौलत राव ने इन्हें अपने राज्य के दानध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित किया तथा 5 गाँव-सौंसा साहिपुरा चैनपुरा कुदौली और लाढ़पुरा इनकी भेंट किये । इनका समय 1825-1896 वि0 है । 1844 वि0 में बड़ौदा के प्रसिद्ध पारिख परिवार से आये गोकुलदास भाई की राज्य के खजानची के पद पर नौकरी लगवाई पारिख इनका अनन्य आज्ञाकारी भक्त था, जिसका समय 1831- 1917 वि0 है । 1849 वि0 में उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे जिनका क्षिप्रा तट पर विशाल मठ तथा 500 तलवार धारी उग्रकर्मा नागा सन्यासी इनके चेले थे । महंत महाराज को लूटमार और आतंक से सारी प्रजा दुखी थी । इन्हैं पकड़ कर लाने के लिये महाराज ने प्रश्न उठाया और पारिख ने आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा ली तथा एक लाख रूपया तथा 100 बंदूकधारी सिपाही सहायता को माँगे । तुरंत सहायता प्राप्त होते ही पारिख उज्जैन तीर्थ यात्रा को चल दिये । उज्जैन में आकर उन्हौंने एक बाड़ा लिया और उसमें नित्य साधुओं ब्राह्मणों को भोजन और जिसने जो मांगा वही दान देने का कार्य चालू किया । सोमवती अमावास्या को महंत लच्छी गिरि के साधुओं ने सेठ के यहाँ भोजन का निमंत्रण लिया और सब साधुओं के बाड़े में आजाने पर पारिख ने फाटक बंद करा दिया तथा पत्तल परोस कर 'लड्डू आवें' इस संकेत पर गोली बर्सा कराके समस्त साधुओं को पत्तलों पर खून से लथ पथ विछा दिया । वे महंत लच्छी गिरि के खजाने का अपार अटूट द्रव्य और महंत महाराज को बांधकर ग्वालियर को चल दियो । इसी बीच किसी चुगलने चुगली की और महाराज ने क्रोधित हो पापी पारिख का मुंह न देखने का निश्चय किया ।<br />
पारिख ने आकर सुना तो वे व्याकुल हो गुरू जी द्वारिकानाथ जी की सेवा में उपस्थित हुए और कर्तव्य निर्देशन की प्रार्थना की । इससे पूर्व पारिख जी लश्कर नगर में अपना एक विशाल भवन और घेरा पारिख जी का बाड़ा नाम से बनवा चुके थे तथा उसमें गुरू द्वारिकानाथ जी की कचहरी तथा महाराज के छत्री बाग में नींव खोदते समय प्राप्त दो देव प्रतिमाओं में (1 हरीहरनाथ 2 चतुर्भुज ) नारायण प्रतिमा को अपने कांकरौली गुरू घराने की सेवानुसार द्वारिकाधीश नाम से पूजित कर वहाँ पधरा चुके थे । श्री द्वारिकानाथ जी की सलाह से इनने वह सारा अपार द्रव्य जिसे गंगाजली खाते में नहीं लिया गया उस सबको द्वारिकाधीश प्रभु की भेंट कर उसे गाढ़ाओं में लाद तथा बैलों के रथ में श्री द्वारिकाधीश देव को विराजमान कर मथुरा वैष्णव तीर्थ की ओर प्रयाण किया ।<br />
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आश्चर्य यह कि मथुरा आते ही प्रभु का रथ नगर में नहीं घंसा और बृन्दावन मार्ग में मतरौढ़ बन में लाकर रूक गया । तब यहीं प्रभु को तथा सारे धन को उतार कर वहाँ भूमि लेकर एक किलेनुमा बाग और सेवा मंडप का निर्माण कराया गया । रक्षा के लिये सिपाहियों का दल रखकर धन जमीन में गाढ़ दिया गया । इस समय इस बन में राधा कंजरी और उसके लुटेरे कंजर टांड़े का बड़ा जोर था अत: मथुरा में एक हवेली लेकर उसके नीचे तबेले में रक्षार्थ लड़ाकू मेवों की एक टोली रक्खी गयी ।<br />
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प्रभु की सेवा उत्सव प्रसाद सामिग्री बड़ी राशि में तैयार होती किन्तु लुटेरों के उस बन में मथुरा का कोई नागरिक दर्शन प्रसाद को न जाता- बृन्दावन के विरक्त साधु मधुकरी भिक्षा की जगह षटरस पकवान लेना स्वीकार न करते । यह देख पारिखजी अति दुखी हुए और मनीराम राधाकिशन के पक्ष विपक्ष में चिठ्ठी डालकर मथुरा का निर्णय आने पर ठाकुर को मथुरा ले आये । बृन्दावन से प्रभु की सवारी बड़े धूमधाम से मथुरा पधारी । चौबों का दल नाचता गाता भगवान को लेकर आया ।वे कूद कूद कर गा रहे थे-<br />
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<poem>आये द्वारिकाधीश, हमारे आये द्वारिकाधीश ।<br />
ठाकुर कौं ससुरार न भायी, घर नहीं होइ सो बसैं ससुरायी ।।<br />
तीन लोक को नाथ हमारौ, सब देवन को ईस-हमारे आये0 <br />
बृन्दावन से गोपेश्वर के एक साधु से ठकुरानी मूर्ति लेकर प्रभु सपत्नीक आ रहे थे- तब यह गाया-<br />
जै द्वारिकाधीश की, बृन्दावन ते व्याहिलाये पांच की पच्चीस की । रडुआ गयौ दुल्हा बनि आयौ, पाग बंधाई सीस की-जै0<br />
न चौबे कौं नित लडुआ छकावै, यही कला जगदीश की-जै0</poem><br />
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'''मथुरा में भगवान द्वारिकाधीश''' बीबी का महल जो अब जूना मन्दिर गोलपारे में है । उसमें विराजे जो पहिले बज्रनाम का महल था तथा इसे अलाउद्दीन खिलजी 1352 वि0 के भाई उलग खाँ ने अपनी बीबी का महल बनाया तथा उसकी मृत्यु पर बेगम ने उसकी एक बड़ी कब्र मजार गोर के नाम से बनवाई ।<br />
श्री द्वारिकाधीश 1850 वि0 में यहाँ आकर विराजे और भवन का रूप परिवर्तन कर उसे द्वारिकाधीश की हवेली जूना मन्दिर बनाया गया किन्तु यह भवन गली के अन्दर अंधेरे और सन्नाटे युक्त देव शोभा के लिये अनुपयुक्त मानकर नवीन भव्य मन्दिर निर्माण के लिये भूमि की शोध की जाने लगी । <br />
विश्रान्त घाट और असिकुंड तीर्थ पुष्पस्थल मणिकर्णिका अविमुक्त तीर्थ श्री कृष्णजन्म स्थली (कंस कारागार कारा महल) आदि युक्त गतश्रम नारायण के निकट एक चौड़ा ऊँचा कुकुर यादव दुर्ग का टीला था । यहाँ ककोरों मिहारियों कोहरे पटवारियों मानिक चौक कुआ वारी गली के सर्दारों की बगीची और मुरारी भगवान का मन्दिर या जिसे 'मोर वारौ बाग' कहा जाता था । श्री द्वारिकानाथ जी ने सब सरदारों को राजी कर उन्हें 'चार हजार की बगीची' के लिये भूतेश्वर पर एक बड़ा भूखंड दिलाकर इसे द्वारिकाधीश मन्दिर के लिये ले लिया । मन्दिर की इस भूमि के चौकोर होने में एक कोने पर एक मिहारी सर्दार चिन्ताराम चौबे का घर था । उनकी पत्नी बिरजोदेवी अपना घर छोड़ने को राजी न थीं । द्वारिकानाथ जी ने बहुत समझाया तब उसने कहा- 'पुरखन के हाड़ बेचौंगी नांइ-पारिख भीक मांगै तो देदोंगी' इधर पारिख जी भीख माँगने को तैयार न थे । तब श्री द्वारिकानाथ जी ने उन्हें समझाया-'अपने लिये भीख मत माँगो-प्रभु सेवा के लिये भीख माँगना तो उत्तम धर्म है । बामन प्रभु ने देवों के कार्य हेतु असुर बलिराज से भरी सभा में भीख मांगी थी' गुरूजी की शिक्षा से पारिखजी भीख माँगने बिरजौ माई के द्वार पर आये । उस समय यह दृश्य देखने को भारी भीड़ जमा थी । किसी भाबुक कवि ने तभी यह रचना की-<br />
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<poem>अमर कर्यो जस बिरजो माई, कुल कीरति बिस्तारी ।<br />
पारिख जेसौ दानी मानी, द्वारै ठड़ौ भिकारी ।।<br />
चिन्तामन कौ नाम बढ़ायौ, मन्दिर में बनि साझी ।<br />
मंद-मंद मुसक्यावै ठाकुर, ऊँची नौवत बाजी ।।<br />
साधु महात्मा चकित निहारैं, अदभुत बुद्धी पाई ।<br />
गुनन गुनीली प्रेम पगीली, धत्र-धत्र मेरी बिरजोमाई ।।<br />
चिन्ताराम आनन्द मग्न हो नांचने लगे- <br />
मेरौ प्रान द्वारिकाधीश, बिजै चौवेन की भई ।<br />
नित बाजैं संख घरियार, बात चौबे की रही ।।<br />
चौबे बाप चौविन ही मइया, ये चौबेन कौ ठाकुर ।<br />
चौबे लाये चौबे राखैं, विप्र बंस प्रेमातुर ।।<br />
जमना जी कौ पुन्न प्रताप चित्त की चिन्ता गई ।।मेरौ0 ।।</poem><br />
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'''मन्दिर के दूसरे''' सिरे पर काजियों की एक मसजिद थी । चौबे सरदारों ने बड़ी युक्ति से अधिकृत कर मन्दिर को चारौं कोनों से सम्पूर्ण शोभायमान बनाया । गाथा बहुत लंबी है- यहाँ बहुत संक्षेप में लिखी जा रही है ।<br />
मन्दिर के निर्माण की अनेक अदभुत घटनायें हैं- श्री द्वारिकानाथजी के गुरू देवासिद्ध महात्मा ने मन्दिर का नकशा बनाया और मन्दिर निर्माण के बाद उसके प्रत्येक खंभा देहर महराव में देवताओं की स्थापना की । ये महासिद्ध संत थे- चतुरानागा की निवार्क परंपरा में दीक्षित ये बरसाने के निकट सुन्हैरा वन में तप करते थे तथा आकाश मार्ग से प्रतिदिन मथुरा आकर यमुना स्नान करते थे । ये नित्य मन्दिर के निर्माण कार्य का निरीक्षण करते तथा आगे के कार्य का निर्देशन शिल्पियों के मुखिया जगना धांधू को देते थे । मन्दिर का पाटोत्सव पारिख ने बड़ी धूम-धाम से किया । 1 मास तक चौबों और साधु संतों भक्तों को उत्तम उत्तम पकवान भोजन कराये गये । चौबों को पोसाकैं कड़े दुशाला पीताम्बर पात्र मुहरैं दक्षिण में दी गयीं । गुरू देवासिद्ध की आज्ञा से मंदिर की प्रतिष्ठा श्री शीलचंदजी ने तथा उस समय के बैदिक कर्म कांडी विद्वान यज्ञ दत्त हुलासीराम चौबेजी ने सम्पन्न करायी । इस समारोह की कुछ उल्लेखनीय समयाबलि इस प्रकार है- श्री द्वारिकाधीश मथुरा पदार्पण 1850 चैत्र शु0 11, भतरोंड में सेवा 1850-1858 वि, जूना मन्दिर में बिराजे 1858-1874 वि0, नवीन बर्तमान मन्दिर का शिलान्यास 1871 कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा, मन्दिर का निर्माण सम्पन्न 1874 वि0, देव प्रतिष्ठा 1874 बैशाखशुक्ल 3, कांकरौली भेट 1930 वि0, जेठ सुदी 11, रंगजी का मन्दिर 1908 वि0 में 34 वर्ष बाद बना । मथुरा वासियों के लिये द्वारिकाधीश की स्थापना एक महान हर्ष और सौभाग्य की बात थी । औरंगजेबी ध्वंस के 148 वर्ष बाद और अब्दाली के संहार के 61 वर्ष बाद मथुरा ने एक नये देवता और हर्ष के वातावरण का आनन्द पाया । पारिख मन्दिर ,द्वारिकाधीश के गुरू द्वारिकानाथ जी को अर्पण करना चाहते थे परन्तु उनने- 'देवलो ग्राम याचक:' वृत्ति को हीन मान कर निषेध कर दिया तब पारिख ने एक विशाल हवेली बनवा कर उनकी भेट की जिसके आगे पीछे खुली भूमि तथा द्वारिकाधीश मन्दिर शैली की गौख हैं ।<br />
लालजी महाराज-1896 वि0 में 71 वर्ष की आयु में श्री द्वारिकानाथ जी का गोलोक वास हुआ और तब उनके पुत्र श्री लालजी महाराज उत्ताधिकारी हुए । जैसा कि होता है प्रतापी पुरूष के बाद उनकी सन्तति विलासी भोगी और अपव्ययी होती है । लालजी यद्यपि विद्वान कवि दानी और स्वाभिमानी थे, किन्तु उनने पिता के प्रयासों को आगे बढाने का प्रयास नहीं किया । उनके अमीरी खर्च काफी बढ गये । रोज चौका में 100-150 भोजन करने वालों के पटा पड़ते थे, मनों अचार मुरव्वा फल शाक वितरित होता रहता था- फलस्वरूप एक -एक कर पांचों गांव बिक गये । ग्वालियर का दानध्यक्ष पद निकल गया और हौसा (वार्षिक वृत्ति ) के वितरण का कार्य भी लापरवाही से हाथ से चला गया । कोई पुत्र सन्तान न होने से पुत्री ने छीना झपटी शुरू कर दी और भाई भतीजों से विद्वेष मानने के कारण निज की हवेली भी कर्जा में फंसा दी । अंत में उनके राज सम्मान के कागज पत्र अभिलेख गाँवों के खाते खतौनी मूल्यवान पैत्रिक लेख फर्मान दस्तावेज भी सभी पुत्री द्वारा अपहृत कर लिये गये, और इस प्रकार उनके गौरव के सारे प्रमाण क्रूर काल के गर्त में समा गये ।<br />
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==जन संख्या विमर्ष==<br />
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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की संख्या लगभग 3 लाख अनुमान की जाती है ।<br />
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4022 वि0 पू0 में लवणासुर के विनाश से बचे 200 से कुछ अधिक माथुर अयोध्या गये थे । शत्रुघ्न के मथुरा में उन्हैं फिर एकत्र कर बसाने के समय उनकी संख्या 36,000 हो गयी थी, संभवत: ये सभी इधर उधर गहन वनों में छिपे रहे थे । 3042 वि0 पू0 में ब्रज्रनाभ के समय ये हजारों की संख्या में मुख्य श्रेणियों (धड़े थोकों अखाड़ों) में सुसंगठित थे, जो पांडवों की परम समृद्ध धार्मिक नगरी इन्द्रप्रस्थ में कुछ समय ही पहिले जाकर बसे थे । 964 वि0 भट्ट दिवाकर के समय तक इनकी संख्या छत्तीस हजार ही थी । इस संख्या का विनाश 1074 वि0 में महमूद गजनवी के साके में हुआ । एक अनुभवी वयोवद्ध ने बतलाया है कि गजनवी की मार काट में 10 हजार योद्धा लड़े, 2,000 कट मारे गये, 26 हजार स्त्री बालक बूढे दुर्बल डरपोक जंगलों में छिपाये गये थे, जिनमें से 20 हजार फिर नहीं लौटे गाँवों को पलायन कर गये । शेष 8 हजार शूरवीर विजयी पुरूष तथा 6 हजार उनके स्त्री बच्चे वृद्ध गण वनों से लौट कर आये, तब मथुरा में हमारी संख्या 14 हजार थी । इसके बाद गुलामों खिलजी तुगलक सैयद लोदियों के नित्य के प्रहारों और अत्याचारों से संख्या मथुरा में घट कर ग्राउस काल 1931 वि0 तक 6,000 (4,000 पुरूष 2,000 स्त्रियाँ) ही रह गयी । इन अवधियों में कितने ही समूहों में हमारे वन्धु 20 सहस्त्र की संख्या में छोटे-छोटे दलों में बंटकर भदावर एटा मैनपुरी कासगंज बरेली मालवा बुंदेलखंड पंजाब राजस्थान गुजरात आदि निकलते गये थे । वे वहाँ और अधिक बढ़े और फैले । आज मथुरा की 2043 वि0 की श्री दयारामजी ककोर के पुत्रों के यज्ञोपवीत उपलक्ष में वितरित गिदौड़ा दैंनी की सही गणना के अनुसार हमारी मथुरा में जनसंख्या पुरूष वर्ग 6,400 तथा इसी अनुमान से स्त्री वर्ग की संख्या 8,600 कुल संख्या 15 सहस्त्र के लगभग है । सब स्थानों को मिलाकर मथुरा के 15,000, भदावर वासी 40,000, मीठे 30,000 तथा देश के अन्यत्र सभी प्रान्तों और क्षेत्रों में फैले असीमित विस्तार वालों की संख्या2,15,000 मानकर समस्त जाति की जनसंख्या 3 लाख आंकी जा रही है । चौबों की सही गणना अभी तक कहीं भी कभी भी नहीं की जा सकी है जिससे पूरा समाज अंधकार में है ।<br />
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चतुर्वेदी सुविज्ञ महानुभाव अपने को देश की अल्प संख्यक जाति अनुमान करते हैं, किन्तु आज के युग में अल्प संख्यकों को ही तो बहुतायत से संरक्षण और राजकीय सहायतायें दी जाती हैं । अस्तु हमें गरीबी की रेखा से नीचे दबे हुए अपने बन्धुओं की संख्या गणना करके उनके लिये भूमि रोजगार पोषक आहार चिकित्सा बैंकऋण शिक्षा सरकारी नौकरियों में आरक्षण आदि की विशेषाधिकार पूर्ण मांगैं सरकार के सन्मुख प्रस्तुत करके जोरदार आवाज उठानी चाहिये ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_19&diff=56362चतुर्वेदी इतिहास 192010-04-24T05:33:56Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==तीर्थ पौरोहित्य सम्मान==<br />
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तीर्थ पुरोहित के नाते ब्रज चौरासी कोस के तीर्थाचार्य माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों के चरण पूजते और अपने हस्त लेख इनकी वाहियों में अंकित करने वाले विशिष्ट महानुभावों की एक संक्षिप्त नामाबलि हम यहाँ दे रहे हैं । इसमें समय विक्रम संवत में है । <br />
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'''1. शुंग नरेश का ताम्र पत्र'''- धौलपुर के शेरगढ स्थान से एक ताम्र पत्र मिला है, जिसमें अहिच्छत्रा (उत्तर पांचाल रूहेलखंड) के निवासी शुंग वंशी राजा शिवादित्य के वंशज द्वारा अपने पूज्य पुरोहित माथुर चतुर्वेद ब्राह्मण को 15 द्राम (सिक्के) तथा भूमि पुप्यार्थ दान में दी गई । यह लेख 128 वि0 पू0 का है । <br />
<br />
'''2. गुप्त वंश का दान'''- 533 वि0 में गुप्त सम्राट के विषयपति शर्वनाग ने इन्द्रपुर के सूर्य मन्दिर में देव अर्चना करने वाले मथुरा के चतुर्वेदी देवविष्णु को दीपार्चन के लिये द्रव्य राशि दान दी । इस दान पत्र में दानदाता के स्वामी सम्राट समुद्र गुप्त को परम भट्टारक महाराजाधिराज तथा उनके विषय पति सर्वनाग को अभिवर्धमान विजय राज्य कहा गया है । <br />
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'''3. चित्तौड़ उदयपुर''' के राणा भीमसिंह जी का श्री उजागर देव वंशजों को पौरोहित्य 1853 वि0 ।<br />
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'''4. नैपाल नरेन्द्र श्री सुरेन्द्रवीर''' विक्रम शाहबहादुर 1830 तथा महाराजाधिराज श्री त्रिभुवनवीर विक्रम ।<br />
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'''5. मैसूर राज्य''' के महाराज का लेख ।<br />
<br />
'''6. करौली नरेश महाराज''' प्रतापपालदेव 1897 वि0 । -7कोटा नरेश महाराज छत्रसाल कोटा 1815 -1820 वि0 रीवाँ, दतिया, ओरछा, जोधपुर जैसलमेर के नरेशों के लेख ।<br />
<br />
'''7. पूंछ काश्मीर के राज''' श्री मोतीसिंह का लेख 1327 वि0 श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ ।<br />
<br />
'''8. जंबू काश्मीर नरेश''' महाराज श्री गुलाबसिंह जी का तथा श्री प्रतापसिंह जी एवं महाराज जगतसिंह जी के यात्रा लेख 1888 ।<br />
<br />
'''9. परिशिष्ट''' 7, 9, 10-4; 5, 238-3; 6; 7 बड़े चौब जी श्री विनोदी चन्द जी के वंशधरों के यहाँ हैं ।<br />
बड़े चौबेजी गोपालचंद जी जमनादासजी के यहाँ<br />
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'''9. श्री पैहारीजी महाराज''' 1592 वि0 । श्री रामलालजी मिहारी सर्दार के वंशजों के पास गोपाल भट्ट गोस्वामी 1590 । श्री भट्ट दामोदरदास जी 1580 । ब्रह्मचारी मन्दिर के महंतजी श्री गिरिधारीदास जी 1549 । राधावल्लजी के गो0 श्री दामोदरदास जी, विलासदासजी, कमलनयनजी, हित हरिवंशजी के पौत्र । गो0 श्री शुकदेवजी हरिदेवजी । गो0 छबीलेलालजी, गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी, श्री प्रसादबल्लभजी । श्री चैतन्य महाप्रभु को दामोदरजी भगवान जी मिहारी द्वारा विश्रान्त स्नान और ब्रज दर्शन ।<br />
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'''10. श्री बल्लभाचार्य वंश'''- श्री महाप्रभु बल्लभाचार्यजी का ताम्रपत्र- 'श्री मद् विष्णुस्वामिमतानुयायिन: श्री बल्लभेन मथुरा मंडले श्री उजागरशर्मण: पौरोहित्येन सम्मानित:' 1551 । श्री विश्रान्त तीर्थराज पर श्री यमुनाष्टक की प्रेरणा और पौरोहित्य आवाहन 1552 । श्री गो0 विठ्टलनाथ जी तथा 7 स्वरूपों का मथुरा (सतघरा) में निवास 1600 वि । गो0 गोविन्दलालजी नाथ द्वारा 1818 । गो0 विठ्टलनाथजी कोटा 1881 गो0 गोकुलनाथजी चापासनी जोधपुर 1828 । गो0 गोवर्धनलाल जी बम्बई, 1847 । गो0 बाल कृष्णजी बम्बई 1862 । गो0 प्रद्युम्नजी कोटा 1822 । गो0 यदुनाथजी बम्बई 1891 गो0 विठ्टलनाथजी वल्लभजी 1867 । गो0 गिरधरलालजी कांकरोली 1822 । गो0 प्रद्युम्न जी बड़ौदा 1822 । गो0 गोपीनाथजी राजाठाकुर गोकुल 1888 । गो0 टीकमजी सूरत 1881 । गो0 श्री दामोदरलालजी तिलकायत नाथ द्वारा 1869 । गो0 गिरधरलालजी कांकरौली 1916-1940 । गो0 बालकृष्ण जी 1940 । गो0 गोपाललालजी कोटा 1931 । गो0 घनश्यामलाल जी कामवन 1914 । गो0 देवकीनन्दनजी की माताजी जमनाबहू जी कामवन 1925 । गो0 ब्रजरत्नजी नड़ियाद 1915 । गो0 नृसिंहलालजी बंबई 1919 । गो0 ब्रज जीवनजी काशी 1806-1932 । गो0 रणछोरलालजी पोरबंदर 1974 । गो0 कल्याणरायजी 1967 । गो0 ब्रजभूषणलालजी कांकरौली 2025 । श्री बन महाराज बृन्दावन के दो बार ब्रज यात्रा किये जाने के लेख 2001 तथा 2008 वि0 ।<br />
गो0 तिलकामत महाराज श्री गोवर्धनलालजी नाथ द्वारा, श्री दामोदरलाल जी 1822 । गो0 श्री गिरधरलालजी कांकरौली 1822 । गो0 हरिरायजी जगन्नाथजी । गो0 दामोदरलालजी दूसरी गादी नाथ द्वारा 1889 । गो0 श्री बालकृष्ण जी गोवर्धननाथजी बम्बई 1862 । गो0 श्री टीकमजी सूरत 1881 । राजा ठाकुर गोकुल के गो0 गोपीनाथजी ब्रज जीवनजी 1885 । नाथ द्वारा दूसरी गादी के गो0 श्री घनश्याम लालजी , बालकृष्ण जी 1940 । मथुरा मदनमोहन हवेली के गो0 कल्याण राय ब्रजनाथजी 1967, श्री माजी महाराज यमुना बहूजी गोपाललालजी 1967 ।<br />
<br />
'''11. माध्व संप्रदाय'''- गो0 श्याम सुन्दर जी चरण । गो0 श्री रामचन्द्र देव चरण 1912 ।<br />
<br />
'''12. रामानन्दी'''- श्री मद् अनंताचार्य शिष्य श्री स्वामि जनार्दन पयोहारिणा श्री मद् कृष्णाचार्येण श्री मथुरा क्षेत्रे श्री उजागरजी माथुर: पुरोधानित: वैशाख: शु0 3 सं0 1592 वि0 । <br />
<br />
'''13. द्वारिका के रणछोरजी के गोस्वामिगण'''- श्री नरोत्तमदास जी राम प्रसाद जी शंखोद्वार संस्थान 1936 । श्री रूपलालजी सत्यभामा मन्दिर द्वारिका 1937 । श्रीगंगादासजी अधिकारी जामवती मन्दिर 1969 । श्री हरिवल्लभ जी ब्रह्मचारी जामवती मन्दिर 1936 । श्री हरिवल्लभजी जगन्नाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री यदुनाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री नारायण जी ब्रह्मचारी शंख नारायण मन्दिर 1936 । श्री रघुवीरदास जी शंखोद्वार बेट 1935 ।<br />
<br />
'''14. श्री राधाबल्लभ संप्रदाय'''- गो0 श्री दामोदरजी श्री हितहरिवंश जी के पौत्र श्री रासदास जी, श्री विलासदासजी, श्रीकमलनयनजी बृन्दावन 1707 । श्रीसुख देवलालजी हरदेवलालजी जैदेवलालजी 1707 । श्री छबीलेलालजी 1707 । गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी श्री प्रसादबल्लभ जी 1707 । गो0 श्री हरप्रसादजी हरवल्लभजी 1707 । गो0 ब्रजपति जी ब्रजानन्द जी 1739 । श्री दयालालजी सुन्दरलालजी 1814 । श्री गोपीलालजी रमणलालजी खड़िया अहमदाबाद 1925 । गो0 श्री दामोदर लालजी 1970 । श्री रूपलाल जी किशोरी लालजी 1987 । <br />
<br />
<br />
'''15. श्री बांकेबिहारी के गोस्वामी गण'''- श्री रासदासजी स्वामी हरिरायजी सुत कृष्णदासजी वृन्दावन 1711 । श्री राजारामजी सुत वैनीदासजी 1785 । श्री हरिदासजी श्री जगन्नाथजी के वंशज गोर्धनाथजी 1834 ।<br />
<br />
'''16. श्री गोविन्ददेवजी जैपुर के गौडीय गोस्वामी गण'''- गो0 श्री रामनारायणजी, हरेकृष्णजी, कृष्णचन्द्रजी श्री बलीरामजी श्रीजी के, श्री चरणदेवजी 1810 । श्री नीलांवरदेवजी 1825 । श्री ब्रजानन्दजी राधागोविन्द जी के गोस्वामी 1862 । श्री कृष्णशरणजी 1869 । श्री भक्त सारंग गोस्वामी गौडीयमठ लंदन के प्रधान 1941 । श्री अतुलदेवजी 1989 । श्री त्रिदंडीजी स्वामी भक्ति प्रज्ञान केशव महाराज (ब्रज यात्रा की)2001 । श्री नृसिंह महाराज नवद्वीप 2008 । श्री भक्ति विलास तीर्थ जी 2009 । श्री भक्ति कुमुद संत महाराज मिदनापुर 1952 । श्री नारायण महाराज गौड़ीय वेदान्त समिति 1954 । श्री सिद्धांती महाराज सारस्वत गौडीय मठ 1954 । श्री योगी त्रिदंडी स्वामी 2010 । श्री प्रकाश तीर्थ स्वामी महाराज 2011 ।<br />
<br />
'''17. बड़े चौबे जी''' श्री विजयचन्द्र जी प्रतापचन्द जी के यहाँ-<br />
<br />
1. बादशाह अकबर का अपने राज्य प्राप्ति के दूसरे वर्ष में माधौपुर गाँव के समीप चौबे गोकुलचन्दजी शोभाराम जी बड़े चौबे जी को भूमि दान का शाही फर्मान 1615 वि0 ।<br />
<br />
2. बादशाह जहाँगीर द्वारा अपनेराज्य के चौथे वर्ष में बड़े चौवेजी गोकुल चन्दजी को जमीन वाग कुआ बख्शीश देने का शाही फर्मान 1667 वि0 ।<br />
<br />
3. दिल्ली के मुगल बादशाही मुहम्मद शाहबली द्वारा बड़े चौबे जी गोकुल चन्दजी को गांव मुर्शिबाद, आजमपुर, मगोर्रा माधौपुर आदि में भूमि 6 बाग खेत आदि दिये जाने का फर्मान 1791 वि0 ।<br />
<br />
4. श्री जयपुर नरेश महाराज सबाई जयसिंह जी द्वारा बड़े चौबेजी श्रीगोकुल चन्द जी को वृन्दावन में केशी घाट पर तीर्थ स्नान कर जागीर की भूमि दान में देने का राजकीय दानपत्र 1778 वि0 ।<br />
<br />
'''18. बड़े चौबे जी श्री विनोदी चन्दजी के यहाँ'''-<br />
<br />
1. उदैयपुर चित्तौड़ के राणा श्री भीमसिंह जी महाराज का ब्रज चौरासी कोस के पौरोहित्य का लेख 1639 वि0 । <br />
<br />
2- शिवपुर (बड़ौदा) के राजा साहब इन्द्रसिंह जी की सनद 1781 वि0 । <br />
<br />
3- जयपुर नरेश सवाई महाराज श्री ईश्वरी सिंह जी द्वारा बृन्दावन में केशी घाट पर स्नान करके बड़े चौबे जी को भूमि दान देने का लेख 1803 वि0 । <br />
<br />
4- जैपुर नरेश सवाई माधौसिंह जी 1809 वि0 । <br />
<br />
5- करौली नरेश महाराज श्री प्रतापपालजी देव 1857 वि0 । <br />
<br />
6- स्यामुई नरेश महाराज श्री शिवदानसिंह जी 1860 वि0 । <br />
<br />
7- करौली नरेश महाराज हरबक्श पालसिंह जी 1889 वि0 । <br />
<br />
8- रामपुरा भानपुरा नरेश राजा लक्ष्मणसिंह जी की धर्मपत्नि माजी साहब का लेख 1900 वि0 । <br />
<br />
9- रामपुरा भानपुरा नरेश महाराज श्यौदान सिंहजी 1915 वि0 । <br />
<br />
10- कोटा नरेश महाराज श्री छत्रसालसिंह जी 1929 वि0 ।<br />
<br />
'''19. श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ-'''<br />
<br />
1. पूँछ काश्मीर नरेश राजा मोतीसिंह जी 1627 । <br />
<br />
2- जम्बू काश्मीर नरेश महाराज श्री रणवीरसिंह जी 1931 । <br />
<br />
3- जम्बू नरेश महाराज प्रतापसिंह जी 1942 । <br />
<br />
4- चिन्हैनी राज्य के दीवान श्री चरणदासजी 1960 । <br />
<br />
5- जंबू नरेश महाराज श्री गुलाबसिंह जी बालिया 1888 । <br />
<br />
6- पूंछ नरेश श्री राजा जगदेवसिंह जी 1990 । <br />
<br />
7- सफौरा वीसलपुर (पीलीभीत) के राजा रामलाल जी छदम्मी लालजी 1990 वि0 ।<br />
<br />
'''20. श्री विशंभरनाथ माना राव के पुत्र श्रीकैलाश नाथ जी के वंश धरों के यहाँ-'''<br />
<br />
1. महाराज शिवाजी के गुरू श्री समर्थरामदास महाराज का मथुरा में गणेश टीले पर निवास का लेख 1743 । 2- ग्वालियर के कुशाजी शिंदे, महारानी साहब श्री विजयावाई शिंदे 1754 । 3- ग्वालियर नरेश महाराज श्री जियाजी महाराज शिंदे 1795 । 4- दत्र पति श्री शिवाजी महाराज के पुत्र श्री शंभाजी भौंसले फल्टन सितारा की पुरोहिताई की सनद, मंत्री शिवदेव द्वारा लिखित 1797 । ग्वालियर के महाराज दौलतराव शिंदे तथा माधवजी शिंदे का चौबे जी को तेहरा गांव दान 1710 । 5- महाराजा मैसूर का लेख 1788 । 6- शाहजादा रहिजान अलीखाँ 1245 । 7- शाह साहिबराम नियाज अलीखाँ 1247 । 8- कोल्हापुर की महारानी श्रीमती पद्मावती रानी साहब 1252 । 9- मिरज सांगली नरेश बाबा साहब पटवर्धनजी तथा श्रीमती जमुनाबाई पटवर्धन 1680 । 10- आलमगीर साहब नवाब बंदेबहादुर 1893 ।<br />
<br />
'''21. श्री श्यामलाल जी चौधरी के वंशजों के यहाँ-'''<br />
<br />
1-बीकानेर के श्रीमंत सेठ हरखचन्द जै गोविन्द जैचन्द ने शाहजहाँ काल में मथुरा यात्रा की, प्रोहित गोपाल जी कुंज बिहारी जी (कचरेजी) द्वारिकानाथ जी (दुआरो) को पूर्व के सेठ गोपाल जी नरसिंह जी का 1665 वि0 का लेख देख कर पूजित किया 1713 वि0 में । इन्होंने अपनी मथुरा यात्रा पर एक पुस्तक लिखी है जो अनूप संस्कृत लाईब्रेरी बीकानेर में सुरक्षित है । <br />
<br />
2- महामना श्री मदनमोहन जी मालवीय तथा समस्त मालवीय वंशों के पौरोहित्य लेख । <br />
<br />
3- माल पानी माहेश्वरी सेठ सहजराम जिन्होंने बेणीराम वंश को वेद मूर्ति पूजनीक लिखा है 1868 वि0 । <br />
<br />
4- रामानुज श्री संप्रदाय के डीडवाना (राजस्थान) के झालरिया मठ के आचार्य श्री स्वामीजी रामावत जी 1773 वि0 । <br />
<br />
5- डीडवाना के महंत चतुर्भुजदासजी 1889 वि0 ।<br />
<br />
6- यहीं के रामानुज पीठ के महंत मनसारामदास जी 1889 वि0 । <br />
<br />
7- महंतजी श्री भगवानदास जी गुरू तुलसीदास जी 1889 वि0 । <br />
<br />
8- महंत जी श्री कान्हरदास जी गुरू भागीरथदास जी 1888 वि0 । <br />
<br />
9- महंतजी श्री रामदास जी गुरू राधाकृष्णदास जी जानकीदास जी 1990 वि0 । सुप्रसिद्ध उद्योगपति माहेश्वरी सेठ बांगड़ परिवार (मगनीराम रामकुमार बांगड़) के पौरोहित्य के वंश परम्परागत लेख ।<br />
<br />
<br />
<br />
23. निम्बार्क संप्रदाय- निम्बार्क संप्रदाय के अनेक गण्यमान्य साधु संतों आचार्यों के लेख मिहारी सर्दार रामलालजी के यहाँ हैं । <br />
<br />
श्री रघुनाथ प्रशादजी शास्त्री (घासीराम बद्रीजी चौबे के बंशजों) के पास- निम्बार्क संप्रदाय के प्राचीन आचार्य महंतों के हस्त लेख हैं, इनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं- श्री सर्वेश्वर शरणजी 1862 वि0- 1871 वि0 50 बीघा भूमि का दान, श्री हरिव्यासदेव जी 20 महंतों के साथ विश्रान्त तीर्थ स्नान को पधारे 1866 वि0, ब्रज दूलह श्री महादास जी 12 बीघा भूमि दान 1868 वि0, श्री केशव काश्मीरी परम्परा के श्री भट्टजी हरिव्यासदेवजी, सोभूरामजी, कान्हर देवजी (चतुरानागा जी) 1869 वि0, धूलेड़ा के महंत भगवानरामजी 1870 वि0, राधौगढ के संतोषदासजी तुलसीदासजी गंगारामजी देवदासजी 1872 वि0, टोड़ा के गरिनारी दयामरामदासजी 1889 वि0, महंत गोपेश्वरलालजी 1904 वि0, निर्वाणी अखाड़े के समस्त महंतों का लेख 1911 वि0, महानिर्वाणी केशौदास जी माधुरीदास जी 1911 वि0, जुनागढ के पीताम्बरदासजी 1922 वि0, दिगंबरी अखाड़े के नाथजी 1925 वि0, आदि के पचीसियों लेख ।<br />
<br />
24. काश्मीर मंडल- काश्मीर के सुप्रसिद्ध नेहरू परिवार में-<br />
<br />
1- श्री गंगाधर जी नेहरू तथा समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों का लेख श्रीबालकरामशर्मा का लिखित 18 सोने की मुहरों से युक्त चौबे श्री गोपीनाथ जी बनकली जी काश्मीरी प्रोहित के यहाँ है 1920 । <br />
<br />
2- श्री अमरनाथजी हरीशंकरजी काश्मीरी पंडित का लेख समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों की तरफ से प्रोहिताई का 1922 । <br />
<br />
3- श्री मोतीलाल जी नेहरू 1908 । श्री जवाहरलाल जी श्रीमती इन्दिरागांधी जी का हस्तलेख 25-3-52 । श्री मोतीलाल जी नेहरू पुत्र श्री गंगाराम नेहरू पौत्र श्री वृन्दावन नेहरू का उर्दू हस्तलेख 22-8-42 का । दूसरा 19-7-1908 का । <br />
<br />
25 महामान्य श्री राजेन्द्र प्रशाद जी- का लेख चौबेजी श्रीधर जी हरिहरजी के यहाँ हैं । प्रोहित श्री त्रिलोकीनाथ चौबे 25-12-59 । हिमालचल प्रदेश के राजाओं के लेख सर्दार बन्दर सिकन्दर चौबे जी के वंशजों के यहाँ हैं । <br />
<br />
26. राष्ट्रपिता पूज्य महात्मा गांधी जी- इनका तथा इनके समस्त परिवारों के लेख चौबेजी लालाराम सालिगराम रामरज वंश के यहाँ हैं । <br />
<br />
27. इनके अतिरिक्त- श्री बल्लभभाई पटैल, श्री भूलाभाई देसाई, श्री मुरारजी देसाई, श्री गोविन्द बल्लभ पंत, श्री सुभाष चन्द्र बोस, श्री राजा महेन्द्र प्रतापजी तथा बिरला, बांगड़, डालमियाँ, मोदी, सिहानियाँ, आदि अनेकों भारत प्रसिद्ध परिवारों के पौरोहित्य पूज्यता के लेख माथुरों की बहियों में लेख बद्ध हैं, जो इनकी अखिल भारतीय पूज्यता और मान्यतायुक्त गौरव के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । <br />
<br />
1782 वि0 में चौबे हुलासीराम और इनके पुत्र गंगाराम चौबे पूना रह कर पेशवा वाजीराव को श्री मद्भागवत सुनाते थे । श्री याज्ञिक सोहनलालजी नैपाल बड़ोदा कोटाबूंदी चरखारी पन्ना बिजावर 21 राज्यों के पूज्य पंडित थे और इन राजाओं के संस्कार यज्ञ देव समारोह सम्पन्न कराने को बुलाये जाते थे । <br />
<br />
==मन्दिर द्वारिकाधीश की स्थापना ==<br />
<br />
'''द्वारिकाधीश भगवान''' मथुरा के प्रमुखतम देवता हैं । श्री द्वारिकाधीश की स्थापना के विषय में मथुरा की जनता बहुत कम जानती है । लेखक विद्वान भी यथार्थशून्य मन गढन्त कपोल-कल्पनाओं को बटोर कर भ्रान्तियों का ताना बाना बुनते रहते हैं । द्वारिकाधीश मन्दिर की स्थापना का सारा प्रयास चतुर्वेदियों का है और उनके ही पास इसकी विशेष जानकारी भी है । माथुरों में श्री उद्धवाचार्य देव जू के बंश में श्री द्वारिकानाथ जी मिहारी बड़े सिद्ध और त्यागी तपस्वी महापुरूष हुए हैं । अपने 'ब्रज मथुरा इतिहास' ग्रंथ में श्री छंगालाल जी ने लिखा है-'श्री द्वारिकानाथ जी ग्वालियर महाराज के गुरू और दानाध्यक्ष हे, लश्कर में सब चौबे और ब्राह्मणों को हौसा (वार्षिक वृत्ति) बाँटते । मथुरा हू में सब ऋतुन में महाराज के दान के बस्त्र, कलश पात्र, अन्न आदि ब्राह्मणन कौं बांटते रहते । ये बहौत पुण्यात्मा, भजनानन्दी, शास्त्र पठन पाठनकारी, जीव है । दुपहर तक अपने पाठ पूजा में लगे रहते- गोपाल जी कों लाढ लढाते- एकादसी के दिन निर्जल ब्रत करते, पानी तक न पीते, रात कौं प्राय: मथुरा ही में रहते, काहूते बात न करते, एकांत में बैठ श्री हरि कौ ध्यान करते । इनके चेहरा पैं सूर्य के समान तेज प्रकाश मान देखवे में आती हो, लोग दूर दूरते इनके दरसन कौं आयौ करते, ये देवर्सि कोटिके महात्मा हैं ।?<br />
<br />
'''इनके तप को देखकर''' सिंधिया महाराज दौलत राव ने इन्हें अपने राज्य के दानध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित किया तथा 5 गाँव-सौंसा साहिपुरा चैनपुरा कुदौली और लाढ़पुरा इनकी भेंट किये । इनका समय 1825-1896 वि0 है । 1844 वि0 में बड़ौदा के प्रसिद्ध पारिख परिवार से आये गोकुलदास भाई की राज्य के खजानची के पद पर नौकरी लगवाई पारिख इनका अनन्य आज्ञाकारी भक्त था, जिसका समय 1831- 1917 वि0 है । 1849 वि0 में उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे जिनका क्षिप्रा तट पर विशाल मठ तथा 500 तलवार धारी उग्रकर्मा नागा सन्यासी इनके चेले थे । महंत महाराज को लूटमार और आतंक से सारी प्रजा दुखी थी । इन्हैं पकड़ कर लाने के लिये महाराज ने प्रश्न उठाया और पारिख ने आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा ली तथा एक लाख रूपया तथा 100 बंदूकधारी सिपाही सहायता को माँगे । तुरंत सहायता प्राप्त होते ही पारिख उज्जैन तीर्थ यात्रा को चल दिये । उज्जैन में आकर उन्हौंने एक बाड़ा लिया और उसमें नित्य साधुओं ब्राह्मणों को भोजन और जिसने जो मांगा वही दान देने का कार्य चालू किया । सोमवती अमावास्या को महंत लच्छी गिरि के साधुओं ने सेठ के यहाँ भोजन का निमंत्रण लिया और सब साधुओं के बाड़े में आजाने पर पारिख ने फाटक बंद करा दिया तथा पत्तल परोस कर 'लड्डू आवें' इस संकेत पर गोली बर्सा कराके समस्त साधुओं को पत्तलों पर खून से लथ पथ विछा दिया । वे महंत लच्छी गिरि के खजाने का अपार अटूट द्रव्य और महंत महाराज को बांधकर ग्वालियर को चल दियो । इसी बीच किसी चुगलने चुगली की और महाराज ने क्रोधित हो पापी पारिख का मुंह न देखने का निश्चय किया ।<br />
पारिख ने आकर सुना तो वे व्याकुल हो गुरू जी द्वारिकानाथ जी की सेवा में उपस्थित हुए और कर्तव्य निर्देशन की प्रार्थना की । इससे पूर्व पारिख जी लश्कर नगर में अपना एक विशाल भवन और घेरा पारिख जी का बाड़ा नाम से बनवा चुके थे तथा उसमें गुरू द्वारिकानाथ जी की कचहरी तथा महाराज के छत्री बाग में नींव खोदते समय प्राप्त दो देव प्रतिमाओं में (1 हरीहरनाथ 2 चतुर्भुज ) नारायण प्रतिमा को अपने कांकरौली गुरू घराने की सेवानुसार द्वारिकाधीश नाम से पूजित कर वहाँ पधरा चुके थे । श्री द्वारिकानाथ जी की सलाह से इनने वह सारा अपार द्रव्य जिसे गंगाजली खाते में नहीं लिया गया उस सबको द्वारिकाधीश प्रभु की भेंट कर उसे गाढ़ाओं में लाद तथा बैलों के रथ में श्री द्वारिकाधीश देव को विराजमान कर मथुरा वैष्णव तीर्थ की ओर प्रयाण किया ।<br />
<br />
आश्चर्य यह कि मथुरा आते ही प्रभु का रथ नगर में नहीं घंसा और बृन्दावन मार्ग में मतरौढ़ बन में लाकर रूक गया । तब यहीं प्रभु को तथा सारे धन को उतार कर वहाँ भूमि लेकर एक किलेनुमा बाग और सेवा मंडप का निर्माण कराया गया । रक्षा के लिये सिपाहियों का दल रखकर धन जमीन में गाढ़ दिया गया । इस समय इस बन में राधा कंजरी और उसके लुटेरे कंजर टांड़े का बड़ा जोर था अत: मथुरा में एक हवेली लेकर उसके नीचे तबेले में रक्षार्थ लड़ाकू मेवों की एक टोली रक्खी गयी ।<br />
<br />
प्रभु की सेवा उत्सव प्रसाद सामिग्री बड़ी राशि में तैयार होती किन्तु लुटेरों के उस बन में मथुरा का कोई नागरिक दर्शन प्रसाद को न जाता- बृन्दावन के विरक्त साधु मधुकरी भिक्षा की जगह षटरस पकवान लेना स्वीकार न करते । यह देख पारिखजी अति दुखी हुए और मनीराम राधाकिशन के पक्ष विपक्ष में चिठ्ठी डालकर मथुरा का निर्णय आने पर ठाकुर को मथुरा ले आये । बृन्दावन से प्रभु की सवारी बड़े धूमधाम से मथुरा पधारी । चौबों का दल नाचता गाता भगवान को लेकर आया ।वे कूद कूद कर गा रहे थे-<br />
<br />
<poem>आये द्वारिकाधीश, हमारे आये द्वारिकाधीश ।<br />
ठाकुर कौं ससुरार न भायी, घर नहीं होइ सो बसैं ससुरायी ।।<br />
तीन लोक को नाथ हमारौ, सब देवन को ईस-हमारे आये0 <br />
बृन्दावन से गोपेश्वर के एक साधु से ठकुरानी मूर्ति लेकर प्रभु सपत्नीक आ रहे थे- तब यह गाया-<br />
जै द्वारिकाधीश की, बृन्दावन ते व्याहिलाये पांच की पच्चीस की । रडुआ गयौ दुल्हा बनि आयौ, पाग बंधाई सीस की-जै0<br />
न चौबे कौं नित लडुआ छकावै, यही कला जगदीश की-जै0</poem><br />
<br />
'''मथुरा में भगवान द्वारिकाधीश''' बीबी का महल जो अब जूना मन्दिर गोलपारे में है । उसमें विराजे जो पहिले बज्रनाम का महल था तथा इसे अलाउद्दीन खिलजी 1352 वि0 के भाई उलग खाँ ने अपनी बीबी का महल बनाया तथा उसकी मृत्यु पर बेगम ने उसकी एक बड़ी कब्र मजार गोर के नाम से बनवाई ।<br />
श्री द्वारिकाधीश 1850 वि0 में यहाँ आकर विराजे और भवन का रूप परिवर्तन कर उसे द्वारिकाधीश की हवेली जूना मन्दिर बनाया गया किन्तु यह भवन गली के अन्दर अंधेरे और सन्नाटे युक्त देव शोभा के लिये अनुपयुक्त मानकर नवीन भव्य मन्दिर निर्माण के लिये भूमि की शोध की जाने लगी । <br />
विश्रान्त घाट और असिकुंड तीर्थ पुष्पस्थल मणिकर्णिका अविमुक्त तीर्थ श्री कृष्णजन्म स्थली (कंस कारागार कारा महल) आदि युक्त गतश्रम नारायण के निकट एक चौड़ा ऊँचा कुकुर यादव दुर्ग का टीला था । यहाँ ककोरों मिहारियों कोहरे पटवारियों मानिक चौक कुआ वारी गली के सर्दारों की बगीची और मुरारी भगवान का मन्दिर या जिसे 'मोर वारौ बाग' कहा जाता था । श्री द्वारिकानाथ जी ने सब सरदारों को राजी कर उन्हें 'चार हजार की बगीची' के लिये भूतेश्वर पर एक बड़ा भूखंड दिलाकर इसे द्वारिकाधीश मन्दिर के लिये ले लिया । मन्दिर की इस भूमि के चौकोर होने में एक कोने पर एक मिहारी सर्दार चिन्ताराम चौबे का घर था । उनकी पत्नी बिरजोदेवी अपना घर छोड़ने को राजी न थीं । द्वारिकानाथ जी ने बहुत समझाया तब उसने कहा- 'पुरखन के हाड़ बेचौंगी नांइ-पारिख भीक मांगै तो देदोंगी' इधर पारिख जी भीख माँगने को तैयार न थे । तब श्री द्वारिकानाथ जी ने उन्हें समझाया-'अपने लिये भीख मत माँगो-प्रभु सेवा के लिये भीख माँगना तो उत्तम धर्म है । बामन प्रभु ने देवों के कार्य हेतु असुर बलिराज से भरी सभा में भीख मांगी थी' गुरूजी की शिक्षा से पारिखजी भीख माँगने बिरजौ माई के द्वार पर आये । उस समय यह दृश्य देखने को भारी भीड़ जमा थी । किसी भाबुक कवि ने तभी यह रचना की-<br />
<br />
<poem>अमर कर्यो जस बिरजो माई, कुल कीरति बिस्तारी ।<br />
पारिख जेसौ दानी मानी, द्वारै ठड़ौ भिकारी ।।<br />
चिन्तामन कौ नाम बढ़ायौ, मन्दिर में बनि साझी ।<br />
मंद-मंद मुसक्यावै ठाकुर, ऊँची नौवत बाजी ।।<br />
साधु महात्मा चकित निहारैं, अदभुत बुद्धी पाई ।<br />
गुनन गुनीली प्रेम पगीली, धत्र-धत्र मेरी बिरजोमाई ।।<br />
चिन्ताराम आनन्द मग्न हो नांचने लगे- <br />
मेरौ प्रान द्वारिकाधीश, बिजै चौवेन की भई ।<br />
नित बाजैं संख घरियार, बात चौबे की रही ।।<br />
चौबे बाप चौविन ही मइया, ये चौबेन कौ ठाकुर ।<br />
चौबे लाये चौबे राखैं, विप्र बंस प्रेमातुर ।।<br />
जमना जी कौ पुन्न प्रताप चित्त की चिन्ता गई ।।मेरौ0 ।।</poem><br />
<br />
'''मन्दिर के दूसरे''' सिरे पर काजियों की एक मसजिद थी । चौबे सरदारों ने बड़ी युक्ति से अधिकृत कर मन्दिर को चारौं कोनों से सम्पूर्ण शोभायमान बनाया । गाथा बहुत लंबी है- यहाँ बहुत संक्षेप में लिखी जा रही है ।<br />
मन्दिर के निर्माण की अनेक अदभुत घटनायें हैं- श्री द्वारिकानाथजी के गुरू देवासिद्ध महात्मा ने मन्दिर का नकशा बनाया और मन्दिर निर्माण के बाद उसके प्रत्येक खंभा देहर महराव में देवताओं की स्थापना की । ये महासिद्ध संत थे- चतुरानागा की निवार्क परंपरा में दीक्षित ये बरसाने के निकट सुन्हैरा वन में तप करते थे तथा आकाश मार्ग से प्रतिदिन मथुरा आकर यमुना स्नान करते थे । ये नित्य मन्दिर के निर्माण कार्य का निरीक्षण करते तथा आगे के कार्य का निर्देशन शिल्पियों के मुखिया जगना धांधू को देते थे । मन्दिर का पाटोत्सव पारिख ने बड़ी धूम-धाम से किया । 1 मास तक चौबों और साधु संतों भक्तों को उत्तम उत्तम पकवान भोजन कराये गये । चौबों को पोसाकैं कड़े दुशाला पीताम्बर पात्र मुहरैं दक्षिण में दी गयीं । गुरू देवासिद्ध की आज्ञा से मंदिर की प्रतिष्ठा श्री शीलचंदजी ने तथा उस समय के बैदिक कर्म कांडी विद्वान यज्ञ दत्त हुलासीराम चौबेजी ने सम्पन्न करायी । इस समारोह की कुछ उल्लेखनीय समयाबलि इस प्रकार है- श्री द्वारिकाधीश मथुरा पदार्पण 1850 चैत्र शु0 11, भतरोंड में सेवा 1850-1858 वि, जूना मन्दिर में बिराजे 1858-1874 वि0, नवीन बर्तमान मन्दिर का शिलान्यास 1871 कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा, मन्दिर का निर्माण सम्पन्न 1874 वि0, देव प्रतिष्ठा 1874 बैशाखशुक्ल 3, कांकरौली भेट 1930 वि0, जेठ सुदी 11, रंगजी का मन्दिर 1908 वि0 में 34 वर्ष बाद बना । मथुरा वासियों के लिये द्वारिकाधीश की स्थापना एक महान हर्ष और सौभाग्य की बात थी । औरंगजेबी ध्वंस के 148 वर्ष बाद और अब्दाली के संहार के 61 वर्ष बाद मथुरा ने एक नये देवता और हर्ष के वातावरण का आनन्द पाया । पारिख मन्दिर ,द्वारिकाधीश के गुरू द्वारिकानाथ जी को अर्पण करना चाहते थे परन्तु उनने- 'देवलो ग्राम याचक:' वृत्ति को हीन मान कर निषेध कर दिया तब पारिख ने एक विशाल हवेली बनवा कर उनकी भेट की जिसके आगे पीछे खुली भूमि तथा द्वारिकाधीश मन्दिर शैली की गौख हैं ।<br />
लालजी महाराज-1896 वि0 में 71 वर्ष की आयु में श्री द्वारिकानाथ जी का गोलोक वास हुआ और तब उनके पुत्र श्री लालजी महाराज उत्ताधिकारी हुए । जैसा कि होता है प्रतापी पुरूष के बाद उनकी सन्तति विलासी भोगी और अपव्ययी होती है । लालजी यद्यपि विद्वान कवि दानी और स्वाभिमानी थे, किन्तु उनने पिता के प्रयासों को आगे बढाने का प्रयास नहीं किया । उनके अमीरी खर्च काफी बढ गये । रोज चौका में 100-150 भोजन करने वालों के पटा पड़ते थे, मनों अचार मुरव्वा फल शाक वितरित होता रहता था- फलस्वरूप एक -एक कर पांचों गांव बिक गये । ग्वालियर का दानध्यक्ष पद निकल गया और हौसा (वार्षिक वृत्ति ) के वितरण का कार्य भी लापरवाही से हाथ से चला गया । कोई पुत्र सन्तान न होने से पुत्री ने छीना झपटी शुरू कर दी और भाई भतीजों से विद्वेष मानने के कारण निज की हवेली भी कर्जा में फंसा दी । अंत में उनके राज सम्मान के कागज पत्र अभिलेख गाँवों के खाते खतौनी मूल्यवान पैत्रिक लेख फर्मान दस्तावेज भी सभी पुत्री द्वारा अपहृत कर लिये गये, और इस प्रकार उनके गौरव के सारे प्रमाण क्रूर काल के गर्त में समा गये ।<br />
<br />
जन संख्या विमर्ष<br />
<br />
माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की संख्या लगभग 3 लाख अनुमान की जाती है ।<br />
<br />
4022 वि0 पू0 में लवणासुर के विनाश से बचे 200 से कुछ अधिक माथुर अयोध्या गये थे । शत्रुघ्न के मथुरा में उन्हैं फिर एकत्र कर बसाने के समय उनकी संख्या 36,000 हो गयी थी, संभवत: ये सभी इधर उधर गहन वनों में छिपे रहे थे । 3042 वि0 पू0 में ब्रज्रनाभ के समय ये हजारों की संख्या में मुख्य श्रेणियों (धड़े थोकों अखाड़ों) में सुसंगठित थे, जो पांडवों की परम समृद्ध धार्मिक नगरी इन्द्रप्रस्थ में कुछ समय ही पहिले जाकर बसे थे । 964 वि0 भट्ट दिवाकर के समय तक इनकी संख्या छत्तीस हजार ही थी । इस संख्या का विनाश 1074 वि0 में महमूद गजनवी के साके में हुआ । एक अनुभवी वयोवद्ध ने बतलाया है कि गजनवी की मार काट में 10 हजार योद्धा लड़े, 2,000 कट मारे गये, 26 हजार स्त्री बालक बूढे दुर्बल डरपोक जंगलों में छिपाये गये थे, जिनमें से 20 हजार फिर नहीं लौटे गाँवों को पलायन कर गये । शेष 8 हजार शूरवीर विजयी पुरूष तथा 6 हजार उनके स्त्री बच्चे वृद्ध गण वनों से लौट कर आये, तब मथुरा में हमारी संख्या 14 हजार थी । इसके बाद गुलामों खिलजी तुगलक सैयद लोदियों के नित्य के प्रहारों और अत्याचारों से संख्या मथुरा में घट कर ग्राउस काल 1931 वि0 तक 6,000 (4,000 पुरूष 2,000 स्त्रियाँ) ही रह गयी । इन अवधियों में कितने ही समूहों में हमारे वन्धु 20 सहस्त्र की संख्या में छोटे-छोटे दलों में बंटकर भदावर एटा मैनपुरी कासगंज बरेली मालवा बुंदेलखंड पंजाब राजस्थान गुजरात आदि निकलते गये थे । वे वहाँ और अधिक बढ़े और फैले । आज मथुरा की 2043 वि0 की श्री दयारामजी ककोर के पुत्रों के यज्ञोपवीत उपलक्ष में वितरित गिदौड़ा दैंनी की सही गणना के अनुसार हमारी मथुरा में जनसंख्या पुरूष वर्ग 6,400 तथा इसी अनुमान से स्त्री वर्ग की संख्या 8,600 कुल संख्या 15 सहस्त्र के लगभग है । सब स्थानों को मिलाकर मथुरा के 15,000, भदावर वासी 40,000, मीठे 30,000 तथा देश के अन्यत्र सभी प्रान्तों और क्षेत्रों में फैले असीमित विस्तार वालों की संख्या2,15,000 मानकर समस्त जाति की जनसंख्या 3 लाख आंकी जा रही है । चौबों की सही गणना अभी तक कहीं भी कभी भी नहीं की जा सकी है जिससे पूरा समाज अंधकार में है ।<br />
<br />
चतुर्वेदी सुविज्ञ महानुभाव अपने को देश की अल्प संख्यक जाति अनुमान करते हैं, किन्तु आज के युग में अल्प संख्यकों को ही तो बहुतायत से संरक्षण और राजकीय सहायतायें दी जाती हैं । अस्तु हमें गरीबी की रेखा से नीचे दबे हुए अपने बन्धुओं की संख्या गणना करके उनके लिये भूमि रोजगार पोषक आहार चिकित्सा बैंकऋण शिक्षा सरकारी नौकरियों में आरक्षण आदि की विशेषाधिकार पूर्ण मांगैं सरकार के सन्मुख प्रस्तुत करके जोरदार आवाज उठानी चाहिये ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_19&diff=56354चतुर्वेदी इतिहास 192010-04-24T04:53:38Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==तीर्थ पौरोहित्य सम्मान==<br />
<br />
तीर्थ पुरोहित के नाते ब्रज चौरासी कोस के तीर्थाचार्य माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों के चरण पूजते और अपने हस्त लेख इनकी वाहियों में अंकित करने वाले विशिष्ट महानुभावों की एक संक्षिप्त नामाबलि हम यहाँ दे रहे हैं । इसमें समय विक्रम संवत में है । <br />
<br />
'''1. शुंग नरेश का ताम्र पत्र'''- धौलपुर के शेरगढ स्थान से एक ताम्र पत्र मिला है, जिसमें अहिच्छत्रा (उत्तर पांचाल रूहेलखंड) के निवासी शुंग वंशी राजा शिवादित्य के वंशज द्वारा अपने पूज्य पुरोहित माथुर चतुर्वेद ब्राह्मण को 15 द्राम (सिक्के) तथा भूमि पुप्यार्थ दान में दी गई । यह लेख 128 वि0 पू0 का है । <br />
<br />
'''2. गुप्त वंश का दान'''- 533 वि0 में गुप्त सम्राट के विषयपति शर्वनाग ने इन्द्रपुर के सूर्य मन्दिर में देव अर्चना करने वाले मथुरा के चतुर्वेदी देवविष्णु को दीपार्चन के लिये द्रव्य राशि दान दी । इस दान पत्र में दानदाता के स्वामी सम्राट समुद्र गुप्त को परम भट्टारक महाराजाधिराज तथा उनके विषय पति सर्वनाग को अभिवर्धमान विजय राज्य कहा गया है । <br />
<br />
'''3. चित्तौड़ उदयपुर''' के राणा भीमसिंह जी का श्री उजागर देव वंशजों को पौरोहित्य 1853 वि0 ।<br />
<br />
'''4. नैपाल नरेन्द्र श्री सुरेन्द्रवीर''' विक्रम शाहबहादुर 1830 तथा महाराजाधिराज श्री त्रिभुवनवीर विक्रम ।<br />
<br />
'''5. मैसूर राज्य''' के महाराज का लेख ।<br />
<br />
'''6. करौली नरेश महाराज''' प्रतापपालदेव 1897 वि0 । -7कोटा नरेश महाराज छत्रसाल कोटा 1815 -1820 वि0 रीवाँ, दतिया, ओरछा, जोधपुर जैसलमेर के नरेशों के लेख ।<br />
<br />
'''7. पूंछ काश्मीर के राज''' श्री मोतीसिंह का लेख 1327 वि0 श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ ।<br />
<br />
'''8. जंबू काश्मीर नरेश''' महाराज श्री गुलाबसिंह जी का तथा श्री प्रतापसिंह जी एवं महाराज जगतसिंह जी के यात्रा लेख 1888 ।<br />
<br />
'''9. परिशिष्ट''' 7, 9, 10-4; 5, 238-3; 6; 7 बड़े चौब जी श्री विनोदी चन्द जी के वंशधरों के यहाँ हैं ।<br />
बड़े चौबेजी गोपालचंद जी जमनादासजी के यहाँ<br />
<br />
'''9. श्री पैहारीजी महाराज''' 1592 वि0 । श्री रामलालजी मिहारी सर्दार के वंशजों के पास गोपाल भट्ट गोस्वामी 1590 । श्री भट्ट दामोदरदास जी 1580 । ब्रह्मचारी मन्दिर के महंतजी श्री गिरिधारीदास जी 1549 । राधावल्लजी के गो0 श्री दामोदरदास जी, विलासदासजी, कमलनयनजी, हित हरिवंशजी के पौत्र । गो0 श्री शुकदेवजी हरिदेवजी । गो0 छबीलेलालजी, गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी, श्री प्रसादबल्लभजी । श्री चैतन्य महाप्रभु को दामोदरजी भगवान जी मिहारी द्वारा विश्रान्त स्नान और ब्रज दर्शन ।<br />
<br />
'''10. श्री बल्लभाचार्य वंश'''- श्री महाप्रभु बल्लभाचार्यजी का ताम्रपत्र- 'श्री मद् विष्णुस्वामिमतानुयायिन: श्री बल्लभेन मथुरा मंडले श्री उजागरशर्मण: पौरोहित्येन सम्मानित:' 1551 । श्री विश्रान्त तीर्थराज पर श्री यमुनाष्टक की प्रेरणा और पौरोहित्य आवाहन 1552 । श्री गो0 विठ्टलनाथ जी तथा 7 स्वरूपों का मथुरा (सतघरा) में निवास 1600 वि । गो0 गोविन्दलालजी नाथ द्वारा 1818 । गो0 विठ्टलनाथजी कोटा 1881 गो0 गोकुलनाथजी चापासनी जोधपुर 1828 । गो0 गोवर्धनलाल जी बम्बई, 1847 । गो0 बाल कृष्णजी बम्बई 1862 । गो0 प्रद्युम्नजी कोटा 1822 । गो0 यदुनाथजी बम्बई 1891 गो0 विठ्टलनाथजी वल्लभजी 1867 । गो0 गिरधरलालजी कांकरोली 1822 । गो0 प्रद्युम्न जी बड़ौदा 1822 । गो0 गोपीनाथजी राजाठाकुर गोकुल 1888 । गो0 टीकमजी सूरत 1881 । गो0 श्री दामोदरलालजी तिलकायत नाथ द्वारा 1869 । गो0 गिरधरलालजी कांकरौली 1916-1940 । गो0 बालकृष्ण जी 1940 । गो0 गोपाललालजी कोटा 1931 । गो0 घनश्यामलाल जी कामवन 1914 । गो0 देवकीनन्दनजी की माताजी जमनाबहू जी कामवन 1925 । गो0 ब्रजरत्नजी नड़ियाद 1915 । गो0 नृसिंहलालजी बंबई 1919 । गो0 ब्रज जीवनजी काशी 1806-1932 । गो0 रणछोरलालजी पोरबंदर 1974 । गो0 कल्याणरायजी 1967 । गो0 ब्रजभूषणलालजी कांकरौली 2025 । श्री बन महाराज बृन्दावन के दो बार ब्रज यात्रा किये जाने के लेख 2001 तथा 2008 वि0 ।<br />
गो0 तिलकामत महाराज श्री गोवर्धनलालजी नाथ द्वारा, श्री दामोदरलाल जी 1822 । गो0 श्री गिरधरलालजी कांकरौली 1822 । गो0 हरिरायजी जगन्नाथजी । गो0 दामोदरलालजी दूसरी गादी नाथ द्वारा 1889 । गो0 श्री बालकृष्ण जी गोवर्धननाथजी बम्बई 1862 । गो0 श्री टीकमजी सूरत 1881 । राजा ठाकुर गोकुल के गो0 गोपीनाथजी ब्रज जीवनजी 1885 । नाथ द्वारा दूसरी गादी के गो0 श्री घनश्याम लालजी , बालकृष्ण जी 1940 । मथुरा मदनमोहन हवेली के गो0 कल्याण राय ब्रजनाथजी 1967, श्री माजी महाराज यमुना बहूजी गोपाललालजी 1967 ।<br />
<br />
'''11. माध्व संप्रदाय'''- गो0 श्याम सुन्दर जी चरण । गो0 श्री रामचन्द्र देव चरण 1912 ।<br />
<br />
'''12. रामानन्दी'''- श्री मद् अनंताचार्य शिष्य श्री स्वामि जनार्दन पयोहारिणा श्री मद् कृष्णाचार्येण श्री मथुरा क्षेत्रे श्री उजागरजी माथुर: पुरोधानित: वैशाख: शु0 3 सं0 1592 वि0 । <br />
<br />
'''13. द्वारिका के रणछोरजी के गोस्वामिगण'''- श्री नरोत्तमदास जी राम प्रसाद जी शंखोद्वार संस्थान 1936 । श्री रूपलालजी सत्यभामा मन्दिर द्वारिका 1937 । श्रीगंगादासजी अधिकारी जामवती मन्दिर 1969 । श्री हरिवल्लभ जी ब्रह्मचारी जामवती मन्दिर 1936 । श्री हरिवल्लभजी जगन्नाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री यदुनाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री नारायण जी ब्रह्मचारी शंख नारायण मन्दिर 1936 । श्री रघुवीरदास जी शंखोद्वार बेट 1935 ।<br />
<br />
'''14. श्री राधाबल्लभ संप्रदाय'''- गो0 श्री दामोदरजी श्री हितहरिवंश जी के पौत्र श्री रासदास जी, श्री विलासदासजी, श्रीकमलनयनजी बृन्दावन 1707 । श्रीसुख देवलालजी हरदेवलालजी जैदेवलालजी 1707 । श्री छबीलेलालजी 1707 । गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी श्री प्रसादबल्लभ जी 1707 । गो0 श्री हरप्रसादजी हरवल्लभजी 1707 । गो0 ब्रजपति जी ब्रजानन्द जी 1739 । श्री दयालालजी सुन्दरलालजी 1814 । श्री गोपीलालजी रमणलालजी खड़िया अहमदाबाद 1925 । गो0 श्री दामोदर लालजी 1970 । श्री रूपलाल जी किशोरी लालजी 1987 । <br />
<br />
<br />
'''15. श्री बांकेबिहारी के गोस्वामी गण'''- श्री रासदासजी स्वामी हरिरायजी सुत कृष्णदासजी वृन्दावन 1711 । श्री राजारामजी सुत वैनीदासजी 1785 । श्री हरिदासजी श्री जगन्नाथजी के वंशज गोर्धनाथजी 1834 ।<br />
<br />
'''16. श्री गोविन्ददेवजी जैपुर के गौडीय गोस्वामी गण'''- गो0 श्री रामनारायणजी, हरेकृष्णजी, कृष्णचन्द्रजी श्री बलीरामजी श्रीजी के, श्री चरणदेवजी 1810 । श्री नीलांवरदेवजी 1825 । श्री ब्रजानन्दजी राधागोविन्द जी के गोस्वामी 1862 । श्री कृष्णशरणजी 1869 । श्री भक्त सारंग गोस्वामी गौडीयमठ लंदन के प्रधान 1941 । श्री अतुलदेवजी 1989 । श्री त्रिदंडीजी स्वामी भक्ति प्रज्ञान केशव महाराज (ब्रज यात्रा की)2001 । श्री नृसिंह महाराज नवद्वीप 2008 । श्री भक्ति विलास तीर्थ जी 2009 । श्री भक्ति कुमुद संत महाराज मिदनापुर 1952 । श्री नारायण महाराज गौड़ीय वेदान्त समिति 1954 । श्री सिद्धांती महाराज सारस्वत गौडीय मठ 1954 । श्री योगी त्रिदंडी स्वामी 2010 । श्री प्रकाश तीर्थ स्वामी महाराज 2011 ।<br />
<br />
'''17. बड़े चौबे जी''' श्री विजयचन्द्र जी प्रतापचन्द जी के यहाँ-<br />
<br />
1. बादशाह अकबर का अपने राज्य प्राप्ति के दूसरे वर्ष में माधौपुर गाँव के समीप चौबे गोकुलचन्दजी शोभाराम जी बड़े चौबे जी को भूमि दान का शाही फर्मान 1615 वि0 ।<br />
<br />
2. बादशाह जहाँगीर द्वारा अपनेराज्य के चौथे वर्ष में बड़े चौवेजी गोकुल चन्दजी को जमीन वाग कुआ बख्शीश देने का शाही फर्मान 1667 वि0 ।<br />
<br />
3. दिल्ली के मुगल बादशाही मुहम्मद शाहबली द्वारा बड़े चौबे जी गोकुल चन्दजी को गांव मुर्शिबाद, आजमपुर, मगोर्रा माधौपुर आदि में भूमि 6 बाग खेत आदि दिये जाने का फर्मान 1791 वि0 ।<br />
<br />
4. श्री जयपुर नरेश महाराज सबाई जयसिंह जी द्वारा बड़े चौबेजी श्रीगोकुल चन्द जी को वृन्दावन में केशी घाट पर तीर्थ स्नान कर जागीर की भूमि दान में देने का राजकीय दानपत्र 1778 वि0 ।<br />
<br />
'''18. बड़े चौबे जी श्री विनोदी चन्दजी के यहाँ'''-<br />
<br />
1. उदैयपुर चित्तौड़ के राणा श्री भीमसिंह जी महाराज का ब्रज चौरासी कोस के पौरोहित्य का लेख 1639 वि0 । <br />
<br />
2- शिवपुर (बड़ौदा) के राजा साहब इन्द्रसिंह जी की सनद 1781 वि0 । <br />
<br />
3- जयपुर नरेश सवाई महाराज श्री ईश्वरी सिंह जी द्वारा बृन्दावन में केशी घाट पर स्नान करके बड़े चौबे जी को भूमि दान देने का लेख 1803 वि0 । <br />
<br />
4- जैपुर नरेश सवाई माधौसिंह जी 1809 वि0 । <br />
<br />
5- करौली नरेश महाराज श्री प्रतापपालजी देव 1857 वि0 । <br />
<br />
6- स्यामुई नरेश महाराज श्री शिवदानसिंह जी 1860 वि0 । <br />
<br />
7- करौली नरेश महाराज हरबक्श पालसिंह जी 1889 वि0 । <br />
<br />
8- रामपुरा भानपुरा नरेश राजा लक्ष्मणसिंह जी की धर्मपत्नि माजी साहब का लेख 1900 वि0 । <br />
<br />
9- रामपुरा भानपुरा नरेश महाराज श्यौदान सिंहजी 1915 वि0 । <br />
<br />
10- कोटा नरेश महाराज श्री छत्रसालसिंह जी 1929 वि0 ।<br />
<br />
'''19. श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ-'''<br />
<br />
1. पूँछ काश्मीर नरेश राजा मोतीसिंह जी 1627 । <br />
<br />
2- जम्बू काश्मीर नरेश महाराज श्री रणवीरसिंह जी 1931 । <br />
<br />
3- जम्बू नरेश महाराज प्रतापसिंह जी 1942 । <br />
<br />
4- चिन्हैनी राज्य के दीवान श्री चरणदासजी 1960 । <br />
<br />
5- जंबू नरेश महाराज श्री गुलाबसिंह जी बालिया 1888 । <br />
<br />
6- पूंछ नरेश श्री राजा जगदेवसिंह जी 1990 । <br />
<br />
7- सफौरा वीसलपुर (पीलीभीत) के राजा रामलाल जी छदम्मी लालजी 1990 वि0 ।<br />
<br />
'''20. श्री विशंभरनाथ माना राव के पुत्र श्रीकैलाश नाथ जी के वंश धरों के यहाँ-'''<br />
<br />
1. महाराज शिवाजी के गुरू श्री समर्थरामदास महाराज का मथुरा में गणेश टीले पर निवास का लेख 1743 । 2- ग्वालियर के कुशाजी शिंदे, महारानी साहब श्री विजयावाई शिंदे 1754 । 3- ग्वालियर नरेश महाराज श्री जियाजी महाराज शिंदे 1795 । 4- दत्र पति श्री शिवाजी महाराज के पुत्र श्री शंभाजी भौंसले फल्टन सितारा की पुरोहिताई की सनद, मंत्री शिवदेव द्वारा लिखित 1797 । ग्वालियर के महाराज दौलतराव शिंदे तथा माधवजी शिंदे का चौबे जी को तेहरा गांव दान 1710 । 5- महाराजा मैसूर का लेख 1788 । 6- शाहजादा रहिजान अलीखाँ 1245 । 7- शाह साहिबराम नियाज अलीखाँ 1247 । 8- कोल्हापुर की महारानी श्रीमती पद्मावती रानी साहब 1252 । 9- मिरज सांगली नरेश बाबा साहब पटवर्धनजी तथा श्रीमती जमुनाबाई पटवर्धन 1680 । 10- आलमगीर साहब नवाब बंदेबहादुर 1893 ।<br />
<br />
'''21. श्री श्यामलाल जी चौधरी के वंशजों के यहाँ-'''<br />
<br />
1-बीकानेर के श्रीमंत सेठ हरखचन्द जै गोविन्द जैचन्द ने शाहजहाँ काल में मथुरा यात्रा की, प्रोहित गोपाल जी कुंज बिहारी जी (कचरेजी) द्वारिकानाथ जी (दुआरो) को पूर्व के सेठ गोपाल जी नरसिंह जी का 1665 वि0 का लेख देख कर पूजित किया 1713 वि0 में । इन्होंने अपनी मथुरा यात्रा पर एक पुस्तक लिखी है जो अनूप संस्कृत लाईब्रेरी बीकानेर में सुरक्षित है । <br />
<br />
2- महामना श्री मदनमोहन जी मालवीय तथा समस्त मालवीय वंशों के पौरोहित्य लेख । <br />
<br />
3- माल पानी माहेश्वरी सेठ सहजराम जिन्होंने बेणीराम वंश को वेद मूर्ति पूजनीक लिखा है 1868 वि0 । <br />
<br />
4- रामानुज श्री संप्रदाय के डीडवाना (राजस्थान) के झालरिया मठ के आचार्य श्री स्वामीजी रामावत जी 1773 वि0 । <br />
<br />
5- डीडवाना के महंत चतुर्भुजदासजी 1889 वि0 ।<br />
<br />
6- यहीं के रामानुज पीठ के महंत मनसारामदास जी 1889 वि0 । <br />
<br />
7- महंतजी श्री भगवानदास जी गुरू तुलसीदास जी 1889 वि0 । <br />
<br />
8- महंत जी श्री कान्हरदास जी गुरू भागीरथदास जी 1888 वि0 । <br />
<br />
9- महंतजी श्री रामदास जी गुरू राधाकृष्णदास जी जानकीदास जी 1990 वि0 । सुप्रसिद्ध उद्योगपति माहेश्वरी सेठ बांगड़ परिवार (मगनीराम रामकुमार बांगड़) के पौरोहित्य के वंश परम्परागत लेख ।<br />
<br />
<br />
<br />
23. निम्बार्क संप्रदाय- निम्बार्क संप्रदाय के अनेक गण्यमान्य साधु संतों आचार्यों के लेख मिहारी सर्दार रामलालजी के यहाँ हैं । <br />
<br />
श्री रघुनाथ प्रशादजी शास्त्री (घासीराम बद्रीजी चौबे के बंशजों) के पास- निम्बार्क संप्रदाय के प्राचीन आचार्य महंतों के हस्त लेख हैं, इनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं- श्री सर्वेश्वर शरणजी 1862 वि0- 1871 वि0 50 बीघा भूमि का दान, श्री हरिव्यासदेव जी 20 महंतों के साथ विश्रान्त तीर्थ स्नान को पधारे 1866 वि0, ब्रज दूलह श्री महादास जी 12 बीघा भूमि दान 1868 वि0, श्री केशव काश्मीरी परम्परा के श्री भट्टजी हरिव्यासदेवजी, सोभूरामजी, कान्हर देवजी (चतुरानागा जी) 1869 वि0, धूलेड़ा के महंत भगवानरामजी 1870 वि0, राधौगढ के संतोषदासजी तुलसीदासजी गंगारामजी देवदासजी 1872 वि0, टोड़ा के गरिनारी दयामरामदासजी 1889 वि0, महंत गोपेश्वरलालजी 1904 वि0, निर्वाणी अखाड़े के समस्त महंतों का लेख 1911 वि0, महानिर्वाणी केशौदास जी माधुरीदास जी 1911 वि0, जुनागढ के पीताम्बरदासजी 1922 वि0, दिगंबरी अखाड़े के नाथजी 1925 वि0, आदि के पचीसियों लेख ।<br />
<br />
24. काश्मीर मंडल- काश्मीर के सुप्रसिद्ध नेहरू परिवार में-<br />
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1- श्री गंगाधर जी नेहरू तथा समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों का लेख श्रीबालकरामशर्मा का लिखित 18 सोने की मुहरों से युक्त चौबे श्री गोपीनाथ जी बनकली जी काश्मीरी प्रोहित के यहाँ है 1920 । <br />
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2- श्री अमरनाथजी हरीशंकरजी काश्मीरी पंडित का लेख समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों की तरफ से प्रोहिताई का 1922 । <br />
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3- श्री मोतीलाल जी नेहरू 1908 । श्री जवाहरलाल जी श्रीमती इन्दिरागांधी जी का हस्तलेख 25-3-52 । श्री मोतीलाल जी नेहरू पुत्र श्री गंगाराम नेहरू पौत्र श्री वृन्दावन नेहरू का उर्दू हस्तलेख 22-8-42 का । दूसरा 19-7-1908 का । <br />
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25 महामान्य श्री राजेन्द्र प्रशाद जी- का लेख चौबेजी श्रीधर जी हरिहरजी के यहाँ हैं । प्रोहित श्री त्रिलोकीनाथ चौबे 25-12-59 । हिमालचल प्रदेश के राजाओं के लेख सर्दार बन्दर सिकन्दर चौबे जी के वंशजों के यहाँ हैं । <br />
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26. राष्ट्रपिता पूज्य महात्मा गांधी जी- इनका तथा इनके समस्त परिवारों के लेख चौबेजी लालाराम सालिगराम रामरज वंश के यहाँ हैं । <br />
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27. इनके अतिरिक्त- श्री बल्लभभाई पटैल, श्री भूलाभाई देसाई, श्री मुरारजी देसाई, श्री गोविन्द बल्लभ पंत, श्री सुभाष चन्द्र बोस, श्री राजा महेन्द्र प्रतापजी तथा बिरला, बांगड़, डालमियाँ, मोदी, सिहानियाँ, आदि अनेकों भारत प्रसिद्ध परिवारों के पौरोहित्य पूज्यता के लेख माथुरों की बहियों में लेख बद्ध हैं, जो इनकी अखिल भारतीय पूज्यता और मान्यतायुक्त गौरव के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । <br />
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1782 वि0 में चौबे हुलासीराम और इनके पुत्र गंगाराम चौबे पूना रह कर पेशवा वाजीराव को श्री मद्भागवत सुनाते थे । श्री याज्ञिक सोहनलालजी नैपाल बड़ोदा कोटाबूंदी चरखारी पन्ना बिजावर 21 राज्यों के पूज्य पंडित थे और इन राजाओं के संस्कार यज्ञ देव समारोह सम्पन्न कराने को बुलाये जाते थे । <br />
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मन्दिर द्वारिकाधीश की स्थापना <br />
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द्वारिकाधीश भगवान मथुरा के प्रमुखतम देवता हैं । श्री द्वारिकाधीश की स्थापना के विषय में मथुरा की जनता बहुत कम जानती है । लेखक विद्वान भी यथार्थशून्य मन गढन्त कपोल-कल्पनाओं को बटोर कर भ्रान्तियों का ताना बाना बुनते रहते हैं । द्वारिकाधीश मन्दिर की स्थापना का सारा प्रयास चतुर्वेदियों का है और उनके ही पास इसकी विशेष जानकारी भी है । माथुरों में श्री उद्धवाचार्य देव जू के बंश में श्री द्वारिकानाथ जी मिहारी बड़े सिद्ध और त्यागी तपस्वी महापुरूष हुए हैं । अपने 'ब्रज मथुरा इतिहास' ग्रंथ में श्री छंगालाल जी ने लिखा है-'श्री द्वारिकानाथ जी ग्वालियर महाराज के गुरू और दानाध्यक्ष हे, लश्कर में सब चौबे और ब्राह्मणों को हौसा (वार्षिक वृत्ति) बाँटते । मथुरा हू में सब ऋतुन में महाराज के दान के बस्त्र, कलश पात्र, अन्न आदि ब्राह्मणन कौं बांटते रहते । ये बहौत पुण्यात्मा, भजनानन्दी, शास्त्र पठन पाठनकारी, जीव है । दुपहर तक अपने पाठ पूजा में लगे रहते- गोपाल जी कों लाढ लढाते- एकादसी के दिन निर्जल ब्रत करते, पानी तक न पीते, रात कौं प्राय: मथुरा ही में रहते, काहूते बात न करते, एकांत में बैठ श्री हरि कौ ध्यान करते । इनके चेहरा पैं सूर्य के समान तेज प्रकाश मान देखवे में आती हो, लोग दूर दूरते इनके दरसन कौं आयौ करते, ये देवर्सि कोटिके महात्मा हैं ।?<br />
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इनके तप को देखकर सिंधिया महाराज दौलत राव ने इन्हें अपने राज्य के दानध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित किया तथा 5 गाँव-सौंसा साहिपुरा चैनपुरा कुदौली और लाढ़पुरा इनकी भेंट किये । इनका समय 1825-1896 वि0 है । 1844 वि0 में बड़ौदा के प्रसिद्ध पारिख परिवार से आये गोकुलदास भाई की राज्य के खजानची के पद पर नौकरी लगवाई पारिख इनका अनन्य आज्ञाकारी भक्त था, जिसका समय 1831- 1917 वि0 है । 1849 वि0 में उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे जिनका क्षिप्रा तट पर विशाल मठ तथा 500 तलवार धारी उग्रकर्मा नागा सन्यासी इनके चेले थे । महंत महाराज को लूटमार और आतंक से सारी प्रजा दुखी थी । इन्हैं पकड़ कर लाने के लिये महाराज ने प्रश्न उठाया और पारिख ने आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा ली तथा एक लाख रूपया तथा 100 बंदूकधारी सिपाही सहायता को माँगे । तुरंत सहायता प्राप्त होते ही पारिख उज्जैन तीर्थ यात्रा को चल दिये । उज्जैन में आकर उन्हौंने एक बाड़ा लिया और उसमें नित्य साधुओं ब्राह्मणों को भोजन और जिसने जो मांगा वही दान देने का कार्य चालू किया । सोमवती अमावास्या को महंत लच्छी गिरि के साधुओं ने सेठ के यहाँ भोजन का निमंत्रण लिया और सब साधुओं के बाड़े में आजाने पर पारिख ने फाटक बंद करा दिया तथा पत्तल परोस कर 'लड्डू आवें' इस संकेत पर गोली बर्सा कराके समस्त साधुओं को पत्तलों पर खून से लथ पथ विछा दिया । वे महंत लच्छी गिरि के खजाने का अपार अटूट द्रव्य और महंत महाराज को बांधकर ग्वालियर को चल दियो । इसी बीच किसी चुगलने चुगली की और महाराज ने क्रोधित हो पापी पारिख का मुंह न देखने का निश्चय किया ।<br />
पारिख ने आकर सुना तो वे व्याकुल हो गुरू जी द्वारिकानाथ जी की सेवा में उपस्थित हुए और कर्तव्य निर्देशन की प्रार्थना की । इससे पूर्व पारिख जी लश्कर नगर में अपना एक विशाल भवन और घेरा पारिख जी का बाड़ा नाम से बनवा चुके थे तथा उसमें गुरू द्वारिकानाथ जी की कचहरी तथा महाराज के छत्री बाग में नींव खोदते समय प्राप्त दो देव प्रतिमाओं में (1 हरीहरनाथ 2 चतुर्भुज ) नारायण प्रतिमा को अपने कांकरौली गुरू घराने की सेवानुसार द्वारिकाधीश नाम से पूजित कर वहाँ पधरा चुके थे । श्री द्वारिकानाथ जी की सलाह से इनने वह सारा अपार द्रव्य जिसे गंगाजली खाते में नहीं लिया गया उस सबको द्वारिकाधीश प्रभु की भेंट कर उसे गाढ़ाओं में लाद तथा बैलों के रथ में श्री द्वारिकाधीश देव को विराजमान कर मथुरा वैष्णव तीर्थ की ओर प्रयाण किया ।<br />
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आश्चर्य यह कि मथुरा आते ही प्रभु का रथ नगर में नहीं घंसा और बृन्दावन मार्ग में मतरौढ़ बन में लाकर रूक गया । तब यहीं प्रभु को तथा सारे धन को उतार कर वहाँ भूमि लेकर एक किलेनुमा बाग और सेवा मंडप का निर्माण कराया गया । रक्षा के लिये सिपाहियों का दल रखकर धन जमीन में गाढ़ दिया गया । इस समय इस बन में राधा कंजरी और उसके लुटेरे कंजर टांड़े का बड़ा जोर था अत: मथुरा में एक हवेली लेकर उसके नीचे तबेले में रक्षार्थ लड़ाकू मेवों की एक टोली रक्खी गयी ।<br />
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प्रभु की सेवा उत्सव प्रसाद सामिग्री बड़ी राशि में तैयार होती किन्तु लुटेरों के उस बन में मथुरा का कोई नागरिक दर्शन प्रसाद को न जाता- बृन्दावन के विरक्त साधु मधुकरी भिक्षा की जगह षटरस पकवान लेना स्वीकार न करते । यह देख पारिखजी अति दुखी हुए और मनीराम राधाकिशन के पक्ष विपक्ष में चिठ्ठी डालकर मथुरा का निर्णय आने पर ठाकुर को मथुरा ले आये । बृन्दावन से प्रभु की सवारी बड़े धूमधाम से मथुरा पधारी । चौबों का दल नाचता गाता भगवान को लेकर आया ।वे कूद कूद कर गा रहे थे-<br />
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<poem>आये द्वारिकाधीश, हमारे आये द्वारिकाधीश ।<br />
ठाकुर कौं ससुरार न भायी, घर नहीं होइ सो बसैं ससुरायी ।।<br />
तीन लोक को नाथ हमारौ, सब देवन को ईस-हमारे आये0 <br />
बृन्दावन से गोपेश्वर के एक साधु से ठकुरानी मूर्ति लेकर प्रभु सपत्नीक आ रहे थे- तब यह गाया-<br />
जै द्वारिकाधीश की, बृन्दावन ते व्याहिलाये पांच की पच्चीस की । रडुआ गयौ दुल्हा बनि आयौ, पाग बंधाई सीस की-जै0<br />
न चौबे कौं नित लडुआ छकावै, यही कला जगदीश की-जै0</poem><br />
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मथुरा में भगवान द्वारिकाधीश बीबी का महल जो अब जूना मन्दिर गोलपारे में है । उसमें विराजे जो पहिले बज्रनाम का महल था तथा इसे अलाउद्दीन खिलजी 1352 वि0 के भाई उलग खाँ ने अपनी बीबी का महल बनाया तथा उसकी मृत्यु पर बेगम ने उसकी एक बड़ी कब्र मजार गोर के नाम से बनवाई ।<br />
श्री द्वारिकाधीश 1850 वि0 में यहाँ आकर विराजे और भवन का रूप परिवर्तन कर उसे द्वारिकाधीश की हवेली जूना मन्दिर बनाया गया किन्तु यह भवन गली के अन्दर अंधेरे और सन्नाटे युक्त देव शोभा के लिये अनुपयुक्त मानकर नवीन भव्य मन्दिर निर्माण के लिये भूमि की शोध की जाने लगी । <br />
विश्रान्त घाट और असिकुंड तीर्थ पुष्पस्थल मणिकर्णिका अविमुक्त तीर्थ श्री कृष्णजन्म स्थली (कंस कारागार कारा महल) आदि युक्त गतश्रम नारायण के निकट एक चौड़ा ऊँचा कुकुर यादव दुर्ग का टीला था । यहाँ ककोरों मिहारियों कोहरे पटवारियों मानिक चौक कुआ वारी गली के सर्दारों की बगीची और मुरारी भगवान का मन्दिर या जिसे 'मोर वारौ बाग' कहा जाता था । श्री द्वारिकानाथ जी ने सब सरदारों को राजी कर उन्हें 'चार हजार की बगीची' के लिये भूतेश्वर पर एक बड़ा भूखंड दिलाकर इसे द्वारिकाधीश मन्दिर के लिये ले लिया । मन्दिर की इस भूमि के चौकोर होने में एक कोने पर एक मिहारी सर्दार चिन्ताराम चौबे का घर था । उनकी पत्नी बिरजोदेवी अपना घर छोड़ने को राजी न थीं । द्वारिकानाथ जी ने बहुत समझाया तब उसने कहा- 'पुरखन के हाड़ बेचौंगी नांइ-पारिख भीक मांगै तो देदोंगी' इधर पारिख जी भीख माँगने को तैयार न थे । तब श्री द्वारिकानाथ जी ने उन्हें समझाया-'अपने लिये भीख मत माँगो-प्रभु सेवा के लिये भीख माँगना तो उत्तम धर्म है । बामन प्रभु ने देवों के कार्य हेतु असुर बलिराज से भरी सभा में भीख मांगी थी' गुरूजी की शिक्षा से पारिखजी भीख माँगने बिरजौ माई के द्वार पर आये । उस समय यह दृश्य देखने को भारी भीड़ जमा थी । किसी भाबुक कवि ने तभी यह रचना की-<br />
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<poem>अमर कर्यो जस बिरजो माई, कुल कीरति बिस्तारी ।<br />
पारिख जेसौ दानी मानी, द्वारै ठड़ौ भिकारी ।।<br />
चिन्तामन कौ नाम बढ़ायौ, मन्दिर में बनि साझी ।<br />
मंद-मंद मुसक्यावै ठाकुर, ऊँची नौवत बाजी ।।<br />
साधु महात्मा चकित निहारैं, अदभुत बुद्धी पाई ।<br />
गुनन गुनीली प्रेम पगीली, धत्र-धत्र मेरी बिरजोमाई ।।<br />
चिन्ताराम आनन्द मग्न हो नांचने लगे- <br />
मेरौ प्रान द्वारिकाधीश, बिजै चौवेन की भई ।<br />
नित बाजैं संख घरियार, बात चौबे की रही ।।<br />
चौबे बाप चौविन ही मइया, ये चौबेन कौ ठाकुर ।<br />
चौबे लाये चौबे राखैं, विप्र बंस प्रेमातुर ।।<br />
जमना जी कौ पुन्न प्रताप चित्त की चिन्ता गई ।।मेरौ0 ।।</poem><br />
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मन्दिर के दूसरे सिरे पर काजियों की एक मसजिद थी । चौबे सरदारों ने बड़ी युक्ति से अधिकृत कर मन्दिर को चारौं कोनों से सम्पूर्ण शोभायमान बनाया । गाथा बहुत लंबी है- यहाँ बहुत संक्षेप में लिखी जा रही है ।<br />
मन्दिर के निर्माण की अनेक अदभुत घटनायें हैं- श्री द्वारिकानाथजी के गुरू देवासिद्ध महात्मा ने मन्दिर का नकशा बनाया और मन्दिर निर्माण के बाद उसके प्रत्येक खंभा देहर महराव में देवताओं की स्थापना की । ये महासिद्ध संत थे- चतुरानागा की निवार्क परंपरा में दीक्षित ये बरसाने के निकट सुन्हैरा वन में तप करते थे तथा आकाश मार्ग से प्रतिदिन मथुरा आकर यमुना स्नान करते थे । ये नित्य मन्दिर के निर्माण कार्य का निरीक्षण करते तथा आगे के कार्य का निर्देशन शिल्पियों के मुखिया जगना धांधू को देते थे । मन्दिर का पाटोत्सव पारिख ने बड़ी धूम-धाम से किया । 1 मास तक चौबों और साधु संतों भक्तों को उत्तम उत्तम पकवान भोजन कराये गये । चौबों को पोसाकैं कड़े दुशाला पीताम्बर पात्र मुहरैं दक्षिण में दी गयीं । गुरू देवासिद्ध की आज्ञा से मंदिर की प्रतिष्ठा श्री शीलचंदजी ने तथा उस समय के बैदिक कर्म कांडी विद्वान यज्ञ दत्त हुलासीराम चौबेजी ने सम्पन्न करायी । इस समारोह की कुछ उल्लेखनीय समयाबलि इस प्रकार है- श्री द्वारिकाधीश मथुरा पदार्पण 1850 चैत्र शु0 11, भतरोंड में सेवा 1850-1858 वि, जूना मन्दिर में बिराजे 1858-1874 वि0, नवीन बर्तमान मन्दिर का शिलान्यास 1871 कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा, मन्दिर का निर्माण सम्पन्न 1874 वि0, देव प्रतिष्ठा 1874 बैशाखशुक्ल 3, कांकरौली भेट 1930 वि0, जेठ सुदी 11, रंगजी का मन्दिर 1908 वि0 में 34 वर्ष बाद बना । मथुरा वासियों के लिये द्वारिकाधीश की स्थापना एक महान हर्ष और सौभाग्य की बात थी । औरंगजेबी ध्वंस के 148 वर्ष बाद और अब्दाली के संहार के 61 वर्ष बाद मथुरा ने एक नये देवता और हर्ष के वातावरण का आनन्द पाया । पारिख मन्दिर ,द्वारिकाधीश के गुरू द्वारिकानाथ जी को अर्पण करना चाहते थे परन्तु उनने- 'देवलो ग्राम याचक:' वृत्ति को हीन मान कर निषेध कर दिया तब पारिख ने एक विशाल हवेली बनवा कर उनकी भेट की जिसके आगे पीछे खुली भूमि तथा द्वारिकाधीश मन्दिर शैली की गौख हैं ।<br />
लालजी महाराज-1896 वि0 में 71 वर्ष की आयु में श्री द्वारिकानाथ जी का गोलोक वास हुआ और तब उनके पुत्र श्री लालजी महाराज उत्ताधिकारी हुए । जैसा कि होता है प्रतापी पुरूष के बाद उनकी सन्तति विलासी भोगी और अपव्ययी होती है । लालजी यद्यपि विद्वान कवि दानी और स्वाभिमानी थे, किन्तु उनने पिता के प्रयासों को आगे बढाने का प्रयास नहीं किया । उनके अमीरी खर्च काफी बढ गये । रोज चौका में 100-150 भोजन करने वालों के पटा पड़ते थे, मनों अचार मुरव्वा फल शाक वितरित होता रहता था- फलस्वरूप एक -एक कर पांचों गांव बिक गये । ग्वालियर का दानध्यक्ष पद निकल गया और हौसा (वार्षिक वृत्ति ) के वितरण का कार्य भी लापरवाही से हाथ से चला गया । कोई पुत्र सन्तान न होने से पुत्री ने छीना झपटी शुरू कर दी और भाई भतीजों से विद्वेष मानने के कारण निज की हवेली भी कर्जा में फंसा दी । अंत में उनके राज सम्मान के कागज पत्र अभिलेख गाँवों के खाते खतौनी मूल्यवान पैत्रिक लेख फर्मान दस्तावेज भी सभी पुत्री द्वारा अपहृत कर लिये गये, और इस प्रकार उनके गौरव के सारे प्रमाण क्रूर काल के गर्त में समा गये ।<br />
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जन संख्या विमर्ष<br />
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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की संख्या लगभग 3 लाख अनुमान की जाती है ।<br />
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4022 वि0 पू0 में लवणासुर के विनाश से बचे 200 से कुछ अधिक माथुर अयोध्या गये थे । शत्रुघ्न के मथुरा में उन्हैं फिर एकत्र कर बसाने के समय उनकी संख्या 36,000 हो गयी थी, संभवत: ये सभी इधर उधर गहन वनों में छिपे रहे थे । 3042 वि0 पू0 में ब्रज्रनाभ के समय ये हजारों की संख्या में मुख्य श्रेणियों (धड़े थोकों अखाड़ों) में सुसंगठित थे, जो पांडवों की परम समृद्ध धार्मिक नगरी इन्द्रप्रस्थ में कुछ समय ही पहिले जाकर बसे थे । 964 वि0 भट्ट दिवाकर के समय तक इनकी संख्या छत्तीस हजार ही थी । इस संख्या का विनाश 1074 वि0 में महमूद गजनवी के साके में हुआ । एक अनुभवी वयोवद्ध ने बतलाया है कि गजनवी की मार काट में 10 हजार योद्धा लड़े, 2,000 कट मारे गये, 26 हजार स्त्री बालक बूढे दुर्बल डरपोक जंगलों में छिपाये गये थे, जिनमें से 20 हजार फिर नहीं लौटे गाँवों को पलायन कर गये । शेष 8 हजार शूरवीर विजयी पुरूष तथा 6 हजार उनके स्त्री बच्चे वृद्ध गण वनों से लौट कर आये, तब मथुरा में हमारी संख्या 14 हजार थी । इसके बाद गुलामों खिलजी तुगलक सैयद लोदियों के नित्य के प्रहारों और अत्याचारों से संख्या मथुरा में घट कर ग्राउस काल 1931 वि0 तक 6,000 (4,000 पुरूष 2,000 स्त्रियाँ) ही रह गयी । इन अवधियों में कितने ही समूहों में हमारे वन्धु 20 सहस्त्र की संख्या में छोटे-छोटे दलों में बंटकर भदावर एटा मैनपुरी कासगंज बरेली मालवा बुंदेलखंड पंजाब राजस्थान गुजरात आदि निकलते गये थे । वे वहाँ और अधिक बढ़े और फैले । आज मथुरा की 2043 वि0 की श्री दयारामजी ककोर के पुत्रों के यज्ञोपवीत उपलक्ष में वितरित गिदौड़ा दैंनी की सही गणना के अनुसार हमारी मथुरा में जनसंख्या पुरूष वर्ग 6,400 तथा इसी अनुमान से स्त्री वर्ग की संख्या 8,600 कुल संख्या 15 सहस्त्र के लगभग है । सब स्थानों को मिलाकर मथुरा के 15,000, भदावर वासी 40,000, मीठे 30,000 तथा देश के अन्यत्र सभी प्रान्तों और क्षेत्रों में फैले असीमित विस्तार वालों की संख्या2,15,000 मानकर समस्त जाति की जनसंख्या 3 लाख आंकी जा रही है । चौबों की सही गणना अभी तक कहीं भी कभी भी नहीं की जा सकी है जिससे पूरा समाज अंधकार में है ।<br />
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चतुर्वेदी सुविज्ञ महानुभाव अपने को देश की अल्प संख्यक जाति अनुमान करते हैं, किन्तु आज के युग में अल्प संख्यकों को ही तो बहुतायत से संरक्षण और राजकीय सहायतायें दी जाती हैं । अस्तु हमें गरीबी की रेखा से नीचे दबे हुए अपने बन्धुओं की संख्या गणना करके उनके लिये भूमि रोजगार पोषक आहार चिकित्सा बैंकऋण शिक्षा सरकारी नौकरियों में आरक्षण आदि की विशेषाधिकार पूर्ण मांगैं सरकार के सन्मुख प्रस्तुत करके जोरदार आवाज उठानी चाहिये ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_19&diff=56350चतुर्वेदी इतिहास 192010-04-24T04:43:12Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==तीर्थ पौरोहित्य सम्मान==<br />
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तीर्थ पुरोहित के नाते ब्रज चौरासी कोस के तीर्थाचार्य माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों के चरण पूजते और अपने हस्त लेख इनकी वाहियों में अंकित करने वाले विशिष्ट महानुभावों की एक संक्षिप्त नामाबलि हम यहाँ दे रहे हैं । इसमें समय विक्रम संवत में है । <br />
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1. शुंग नरेश का ताम्र पत्र- धौलपुर के शेरगढ स्थान से एक ताम्र पत्र मिला है, जिसमें अहिच्छत्रा (उत्तर पांचाल रूहेलखंड) के निवासी शुंग वंशी राजा शिवादित्य के वंशज द्वारा अपने पूज्य पुरोहित माथुर चतुर्वेद ब्राह्मण को 15 द्राम (सिक्के) तथा भूमि पुप्यार्थ दान में दी गई । यह लेख 128 वि0 पू0 का है । <br />
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2. गुप्त वंश का दान- 533 वि0 में गुप्त सम्राट के विषयपति शर्वनाग ने इन्द्रपुर के सूर्य मन्दिर में देव अर्चना करने वाले मथुरा के चतुर्वेदी देवविष्णु को दीपार्चन के लिये द्रव्य राशि दान दी । इस दान पत्र में दानदाता के स्वामी सम्राट समुद्र गुप्त को परम भट्टारक महाराजाधिराज तथा उनके विषय पति सर्वनाग को अभिवर्धमान विजय राज्य कहा गया है । <br />
<br />
3. चित्तौड़ उदयपुर के राणा भीमसिंह जी का श्री उजागर देव वंशजों को पौरोहित्य 1853 वि0 ।<br />
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4. नैपाल नरेन्द्र श्री सुरेन्द्रवीर विक्रम शाहबहादुर 1830 तथा महाराजाधिराज श्री त्रिभुवनवीर विक्रम ।<br />
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5. मैसूर राज्य के महाराज का लेख ।<br />
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6. करौली नरेश महाराज प्रतापपालदेव 1897 वि0 । -7कोटा नरेश महाराज छत्रसाल कोटा 1815 -1820 वि0 रीवाँ, दतिया, ओरछा, जोधपुर जैसलमेर के नरेशों के लेख ।<br />
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7. पूंछ काश्मीर के राज श्री मोतीसिंह का लेख 1327 वि0 श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ ।<br />
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8. जंबू काश्मीर नरेश महाराज श्री गुलाबसिंह जी का तथा श्री प्रतापसिंह जी एवं महाराज जगतसिंह जी के यात्रा लेख 1888 ।<br />
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9. परिशिष्ट 7, 9, 10-4; 5, 238-3; 6; 7 बड़े चौब जी श्री विनोदी चन्द जी के वंशधरों के यहाँ हैं ।<br />
बड़े चौबेजी गोपालचंद जी जमनादासजी के यहाँ<br />
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9. श्री पैहारीजी महाराज 1592 वि0 । श्री रामलालजी मिहारी सर्दार के वंशजों के पास गोपाल भट्ट गोस्वामी 1590 । श्री भट्ट दामोदरदास जी 1580 । ब्रह्मचारी मन्दिर के महंतजी श्री गिरिधारीदास जी 1549 । राधावल्लजी के गो0 श्री दामोदरदास जी, विलासदासजी, कमलनयनजी, हित हरिवंशजी के पौत्र । गो0 श्री शुकदेवजी हरिदेवजी । गो0 छबीलेलालजी, गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी, श्री प्रसादबल्लभजी । श्री चैतन्य महाप्रभु को दामोदरजी भगवान जी मिहारी द्वारा विश्रान्त स्नान और ब्रज दर्शन ।<br />
<br />
10. श्री बल्लभाचार्य वंश- श्री महाप्रभु बल्लभाचार्यजी का ताम्रपत्र- 'श्री मद् विष्णुस्वामिमतानुयायिन: श्री बल्लभेन मथुरा मंडले श्री उजागरशर्मण: पौरोहित्येन सम्मानित:' 1551 । श्री विश्रान्त तीर्थराज पर श्री यमुनाष्टक की प्रेरणा और पौरोहित्य आवाहन 1552 । श्री गो0 विठ्टलनाथ जी तथा 7 स्वरूपों का मथुरा (सतघरा) में निवास 1600 वि । गो0 गोविन्दलालजी नाथ द्वारा 1818 । गो0 विठ्टलनाथजी कोटा 1881 गो0 गोकुलनाथजी चापासनी जोधपुर 1828 । गो0 गोवर्धनलाल जी बम्बई, 1847 । गो0 बाल कृष्णजी बम्बई 1862 । गो0 प्रद्युम्नजी कोटा 1822 । गो0 यदुनाथजी बम्बई 1891 गो0 विठ्टलनाथजी वल्लभजी 1867 । गो0 गिरधरलालजी कांकरोली 1822 । गो0 प्रद्युम्न जी बड़ौदा 1822 । गो0 गोपीनाथजी राजाठाकुर गोकुल 1888 । गो0 टीकमजी सूरत 1881 । गो0 श्री दामोदरलालजी तिलकायत नाथ द्वारा 1869 । गो0 गिरधरलालजी कांकरौली 1916-1940 । गो0 बालकृष्ण जी 1940 । गो0 गोपाललालजी कोटा 1931 । गो0 घनश्यामलाल जी कामवन 1914 । गो0 देवकीनन्दनजी की माताजी जमनाबहू जी कामवन 1925 । गो0 ब्रजरत्नजी नड़ियाद 1915 । गो0 नृसिंहलालजी बंबई 1919 । गो0 ब्रज जीवनजी काशी 1806-1932 । गो0 रणछोरलालजी पोरबंदर 1974 । गो0 कल्याणरायजी 1967 । गो0 ब्रजभूषणलालजी कांकरौली 2025 । श्री बन महाराज बृन्दावन के दो बार ब्रज यात्रा किये जाने के लेख 2001 तथा 2008 वि0 ।<br />
गो0 तिलकामत महाराज श्री गोवर्धनलालजी नाथ द्वारा, श्री दामोदरलाल जी 1822 । गो0 श्री गिरधरलालजी कांकरौली 1822 । गो0 हरिरायजी जगन्नाथजी । गो0 दामोदरलालजी दूसरी गादी नाथ द्वारा 1889 । गो0 श्री बालकृष्ण जी गोवर्धननाथजी बम्बई 1862 । गो0 श्री टीकमजी सूरत 1881 । राजा ठाकुर गोकुल के गो0 गोपीनाथजी ब्रज जीवनजी 1885 । नाथ द्वारा दूसरी गादी के गो0 श्री घनश्याम लालजी , बालकृष्ण जी 1940 । मथुरा मदनमोहन हवेली के गो0 कल्याण राय ब्रजनाथजी 1967, श्री माजी महाराज यमुना बहूजी गोपाललालजी 1967 ।<br />
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11. माध्व संप्रदाय- गो0 श्याम सुन्दर जी चरण । गो0 श्री रामचन्द्र देव चरण 1912 ।<br />
<br />
12. रामानन्दी- श्री मद् अनंताचार्य शिष्य श्री स्वामि जनार्दन पयोहारिणा श्री मद् कृष्णाचार्येण श्री मथुरा क्षेत्रे श्री उजागरजी माथुर: पुरोधानित: वैशाख: शु0 3 सं0 1592 वि0 । <br />
<br />
13. द्वारिका के रणछोरजी के गोस्वामिगण- श्री नरोत्तमदास जी राम प्रसाद जी शंखोद्वार संस्थान 1936 । श्री रूपलालजी सत्यभामा मन्दिर द्वारिका 1937 । श्रीगंगादासजी अधिकारी जामवती मन्दिर 1969 । श्री हरिवल्लभ जी ब्रह्मचारी जामवती मन्दिर 1936 । श्री हरिवल्लभजी जगन्नाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री यदुनाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री नारायण जी ब्रह्मचारी शंख नारायण मन्दिर 1936 । श्री रघुवीरदास जी शंखोद्वार बेट 1935 ।<br />
<br />
14. श्री राधाबल्लभ संप्रदाय- गो0 श्री दामोदरजी श्री हितहरिवंश जी के पौत्र श्री रासदास जी, श्री विलासदासजी, श्रीकमलनयनजी बृन्दावन 1707 । श्रीसुख देवलालजी हरदेवलालजी जैदेवलालजी 1707 । श्री छबीलेलालजी 1707 । गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी श्री प्रसादबल्लभ जी 1707 । गो0 श्री हरप्रसादजी हरवल्लभजी 1707 । गो0 ब्रजपति जी ब्रजानन्द जी 1739 । श्री दयालालजी सुन्दरलालजी 1814 । श्री गोपीलालजी रमणलालजी खड़िया अहमदाबाद 1925 । गो0 श्री दामोदर लालजी 1970 । श्री रूपलाल जी किशोरी लालजी 1987 । <br />
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<br />
15. श्री बांकेबिहारी के गोस्वामी गण- श्री रासदासजी स्वामी हरिरायजी सुत कृष्णदासजी वृन्दावन 1711 । श्री राजारामजी सुत वैनीदासजी 1785 । श्री हरिदासजी श्री जगन्नाथजी के वंशज गोर्धनाथजी 1834 ।<br />
<br />
16. श्री गोविन्ददेवजी जैपुर के गौडीय गोस्वामी गण- गो0 श्री रामनारायणजी, हरेकृष्णजी, कृष्णचन्द्रजी श्री बलीरामजी श्रीजी के, श्री चरणदेवजी 1810 । श्री नीलांवरदेवजी 1825 । श्री ब्रजानन्दजी राधागोविन्द जी के गोस्वामी 1862 । श्री कृष्णशरणजी 1869 । श्री भक्त सारंग गोस्वामी गौडीयमठ लंदन के प्रधान 1941 । श्री अतुलदेवजी 1989 । श्री त्रिदंडीजी स्वामी भक्ति प्रज्ञान केशव महाराज (ब्रज यात्रा की)2001 । श्री नृसिंह महाराज नवद्वीप 2008 । श्री भक्ति विलास तीर्थ जी 2009 । श्री भक्ति कुमुद संत महाराज मिदनापुर 1952 । श्री नारायण महाराज गौड़ीय वेदान्त समिति 1954 । श्री सिद्धांती महाराज सारस्वत गौडीय मठ 1954 । श्री योगी त्रिदंडी स्वामी 2010 । श्री प्रकाश तीर्थ स्वामी महाराज 2011 ।<br />
<br />
17. बड़े चौबे जी श्री विजयचन्द्र जी प्रतापचन्द जी के यहाँ-<br />
<br />
1. बादशाह अकबर का अपने राज्य प्राप्ति के दूसरे वर्ष में माधौपुर गाँव के समीप चौबे गोकुलचन्दजी शोभाराम जी बड़े चौबे जी को भूमि दान का शाही फर्मान 1615 वि0 ।<br />
<br />
2. बादशाह जहाँगीर द्वारा अपनेराज्य के चौथे वर्ष में बड़े चौवेजी गोकुल चन्दजी को जमीन वाग कुआ बख्शीश देने का शाही फर्मान 1667 वि0 ।<br />
<br />
3. दिल्ली के मुगल बादशाही मुहम्मद शाहबली द्वारा बड़े चौबे जी गोकुल चन्दजी को गांव मुर्शिबाद, आजमपुर, मगोर्रा माधौपुर आदि में भूमि 6 बाग खेत आदि दिये जाने का फर्मान 1791 वि0 ।<br />
<br />
4. श्री जयपुर नरेश महाराज सबाई जयसिंह जी द्वारा बड़े चौबेजी श्रीगोकुल चन्द जी को वृन्दावन में केशी घाट पर तीर्थ स्नान कर जागीर की भूमि दान में देने का राजकीय दानपत्र 1778 वि0 ।<br />
<br />
18. बड़े चौबे जी श्री विनोदी चन्दजी के यहाँ-<br />
<br />
1. उदैयपुर चित्तौड़ के राणा श्री भीमसिंह जी महाराज का ब्रज चौरासी कोस के पौरोहित्य का लेख 1639 वि0 । 2- शिवपुर (बड़ौदा) के राजा साहब इन्द्रसिंह जी की सनद 1781 वि0 । 3- जयपुर नरेश सवाई महाराज श्री ईश्वरी सिंह जी द्वारा बृन्दावन में केशी घाट पर स्नान करके बड़े चौबे जी को भूमि दान देने का लेख 1803 वि0 । 4- जैपुर नरेश सवाई माधौसिंह जी 1809 वि0 । 5- करौली नरेश महाराज श्री प्रतापपालजी देव 1857 वि0 । 6- स्यामुई नरेश महाराज श्री शिवदानसिंह जी 1860 वि0 । 7- करौली नरेश महाराज हरबक्श पालसिंह जी 1889 वि0 । 8- रामपुरा भानपुरा नरेश राजा लक्ष्मणसिंह जी की धर्मपत्नि माजी साहब का लेख 1900 वि0 । 9- रामपुरा भानपुरा नरेश महाराज श्यौदान सिंहजी 1915 वि0 । 10- कोटा नरेश महाराज श्री छत्रसालसिंह जी 1929 वि0 ।<br />
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19. श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ-<br />
<br />
1. पूँछ काश्मीर नरेश राजा मोतीसिंह जी 1627 । 2- जम्बू काश्मीर नरेश महाराज श्री रणवीरसिंह जी 1931 । 3- जम्बू नरेश महाराज प्रतापसिंह जी 1942 । 4- चिन्हैनी राज्य के दीवान श्री चरणदासजी 1960 । 5- जंबू नरेश महाराज श्री गुलाबसिंह जी बालिया 1888 । 6- पूंछ नरेश श्री राजा जगदेवसिंह जी 1990 । 7- सफौरा वीसलपुर (पीलीभीत) के राजा रामलाल जी छदम्मी लालजी 1990 वि0 ।<br />
<br />
20. श्री विशंभरनाथ माना राव के पुत्र श्रीकैलाश नाथ जी के वंश धरों के यहाँ-<br />
<br />
1. महाराज शिवाजी के गुरू श्री समर्थरामदास महाराज का मथुरा में गणेश टीले पर निवास का लेख 1743 । 2- ग्वालियर के कुशाजी शिंदे, महारानी साहब श्री विजयावाई शिंदे 1754 । 3- ग्वालियर नरेश महाराज श्री जियाजी महाराज शिंदे 1795 । 4- दत्र पति श्री शिवाजी महाराज के पुत्र श्री शंभाजी भौंसले फल्टन सितारा की पुरोहिताई की सनद, मंत्री शिवदेव द्वारा लिखित 1797 । ग्वालियर के महाराज दौलतराव शिंदे तथा माधवजी शिंदे का चौबे जी को तेहरा गांव दान 1710 । 5- महाराजा मैसूर का लेख 1788 । 6- शाहजादा रहिजान अलीखाँ 1245 । 7- शाह साहिबराम नियाज अलीखाँ 1247 । 8- कोल्हापुर की महारानी श्रीमती पद्मावती रानी साहब 1252 । 9- मिरज सांगली नरेश बाबा साहब पटवर्धनजी तथा श्रीमती जमुनाबाई पटवर्धन 1680 । 10- आलमगीर साहब नवाब बंदेबहादुर 1893 ।<br />
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21. श्री श्यामलाल जी चौधरी के वंशजों के यहाँ-<br />
<br />
1-बीकानेर के श्रीमंत सेठ हरखचन्द जै गोविन्द जैचन्द ने शाहजहाँ काल में मथुरा यात्रा की, प्रोहित गोपाल जी कुंज बिहारी जी (कचरेजी) द्वारिकानाथ जी (दुआरो) को पूर्व के सेठ गोपाल जी नरसिंह जी का 1665 वि0 का लेख देख कर पूजित किया 1713 वि0 में । इन्होंने अपनी मथुरा यात्रा पर एक पुस्तक लिखी है जो अनूप संस्कृत लाईब्रेरी बीकानेर में सुरक्षित है । <br />
<br />
2- महामना श्री मदनमोहन जी मालवीय तथा समस्त मालवीय वंशों के पौरोहित्य लेख । <br />
<br />
3- माल पानी माहेश्वरी सेठ सहजराम जिन्होंने बेणीराम वंश को वेद मूर्ति पूजनीक लिखा है 1868 वि0 । <br />
<br />
4- रामानुज श्री संप्रदाय के डीडवाना (राजस्थान) के झालरिया मठ के आचार्य श्री स्वामीजी रामावत जी 1773 वि0 । <br />
<br />
5- डीडवाना के महंत चतुर्भुजदासजी 1889 वि0 ।<br />
<br />
6- यहीं के रामानुज पीठ के महंत मनसारामदास जी 1889 वि0 । <br />
<br />
7- महंतजी श्री भगवानदास जी गुरू तुलसीदास जी 1889 वि0 । <br />
<br />
8- महंत जी श्री कान्हरदास जी गुरू भागीरथदास जी 1888 वि0 । <br />
<br />
9- महंतजी श्री रामदास जी गुरू राधाकृष्णदास जी जानकीदास जी 1990 वि0 । सुप्रसिद्ध उद्योगपति माहेश्वरी सेठ बांगड़ परिवार (मगनीराम रामकुमार बांगड़) के पौरोहित्य के वंश परम्परागत लेख ।<br />
<br />
23. निम्बार्क संप्रदाय- निम्बार्क संप्रदाय के अनेक गण्यमान्य साधु संतों आचार्यों के लेख मिहारी सर्दार रामलालजी के यहाँ हैं । <br />
<br />
श्री रघुनाथ प्रशादजी शास्त्री (घासीराम बद्रीजी चौबे के बंशजों) के पास- निम्बार्क संप्रदाय के प्राचीन आचार्य महंतों के हस्त लेख हैं, इनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं- श्री सर्वेश्वर शरणजी 1862 वि0- 1871 वि0 50 बीघा भूमि का दान, श्री हरिव्यासदेव जी 20 महंतों के साथ विश्रान्त तीर्थ स्नान को पधारे 1866 वि0, ब्रज दूलह श्री महादास जी 12 बीघा भूमि दान 1868 वि0, श्री केशव काश्मीरी परम्परा के श्री भट्टजी हरिव्यासदेवजी, सोभूरामजी, कान्हर देवजी (चतुरानागा जी) 1869 वि0, धूलेड़ा के महंत भगवानरामजी 1870 वि0, राधौगढ के संतोषदासजी तुलसीदासजी गंगारामजी देवदासजी 1872 वि0, टोड़ा के गरिनारी दयामरामदासजी 1889 वि0, महंत गोपेश्वरलालजी 1904 वि0, निर्वाणी अखाड़े के समस्त महंतों का लेख 1911 वि0, महानिर्वाणी केशौदास जी माधुरीदास जी 1911 वि0, जुनागढ के पीताम्बरदासजी 1922 वि0, दिगंबरी अखाड़े के नाथजी 1925 वि0, आदि के पचीसियों लेख ।<br />
<br />
24. काश्मीर मंडल- काश्मीर के सुप्रसिद्ध नेहरू परिवार में-<br />
<br />
1- श्री गंगाधर जी नेहरू तथा समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों का लेख श्रीबालकरामशर्मा का लिखित 18 सोने की मुहरों से युक्त चौबे श्री गोपीनाथ जी बनकली जी काश्मीरी प्रोहित के यहाँ है 1920 । <br />
<br />
2- श्री अमरनाथजी हरीशंकरजी काश्मीरी पंडित का लेख समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों की तरफ से प्रोहिताई का 1922 । <br />
<br />
3- श्री मोतीलाल जी नेहरू 1908 । श्री जवाहरलाल जी श्रीमती इन्दिरागांधी जी का हस्तलेख 25-3-52 । श्री मोतीलाल जी नेहरू पुत्र श्री गंगाराम नेहरू पौत्र श्री वृन्दावन नेहरू का उर्दू हस्तलेख 22-8-42 का । दूसरा 19-7-1908 का । <br />
<br />
25 महामान्य श्री राजेन्द्र प्रशाद जी- का लेख चौबेजी श्रीधर जी हरिहरजी के यहाँ हैं । प्रोहित श्री त्रिलोकीनाथ चौबे 25-12-59 । हिमालचल प्रदेश के राजाओं के लेख सर्दार बन्दर सिकन्दर चौबे जी के वंशजों के यहाँ हैं । <br />
<br />
26. राष्ट्रपिता पूज्य महात्मा गांधी जी- इनका तथा इनके समस्त परिवारों के लेख चौबेजी लालाराम सालिगराम रामरज वंश के यहाँ हैं । <br />
<br />
27. इनके अतिरिक्त- श्री बल्लभभाई पटैल, श्री भूलाभाई देसाई, श्री मुरारजी देसाई, श्री गोविन्द बल्लभ पंत, श्री सुभाष चन्द्र बोस, श्री राजा महेन्द्र प्रतापजी तथा बिरला, बांगड़, डालमियाँ, मोदी, सिहानियाँ, आदि अनेकों भारत प्रसिद्ध परिवारों के पौरोहित्य पूज्यता के लेख माथुरों की बहियों में लेख बद्ध हैं, जो इनकी अखिल भारतीय पूज्यता और मान्यतायुक्त गौरव के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । <br />
<br />
1782 वि0 में चौबे हुलासीराम और इनके पुत्र गंगाराम चौबे पूना रह कर पेशवा वाजीराव को श्री मद्भागवत सुनाते थे । श्री याज्ञिक सोहनलालजी नैपाल बड़ोदा कोटाबूंदी चरखारी पन्ना बिजावर 21 राज्यों के पूज्य पंडित थे और इन राजाओं के संस्कार यज्ञ देव समारोह सम्पन्न कराने को बुलाये जाते थे । <br />
<br />
मन्दिर द्वारिकाधीश की स्थापना <br />
<br />
द्वारिकाधीश भगवान मथुरा के प्रमुखतम देवता हैं । श्री द्वारिकाधीश की स्थापना के विषय में मथुरा की जनता बहुत कम जानती है । लेखक विद्वान भी यथार्थशून्य मन गढन्त कपोल-कल्पनाओं को बटोर कर भ्रान्तियों का ताना बाना बुनते रहते हैं । द्वारिकाधीश मन्दिर की स्थापना का सारा प्रयास चतुर्वेदियों का है और उनके ही पास इसकी विशेष जानकारी भी है । माथुरों में श्री उद्धवाचार्य देव जू के बंश में श्री द्वारिकानाथ जी मिहारी बड़े सिद्ध और त्यागी तपस्वी महापुरूष हुए हैं । अपने 'ब्रज मथुरा इतिहास' ग्रंथ में श्री छंगालाल जी ने लिखा है-'श्री द्वारिकानाथ जी ग्वालियर महाराज के गुरू और दानाध्यक्ष हे, लश्कर में सब चौबे और ब्राह्मणों को हौसा (वार्षिक वृत्ति) बाँटते । मथुरा हू में सब ऋतुन में महाराज के दान के बस्त्र, कलश पात्र, अन्न आदि ब्राह्मणन कौं बांटते रहते । ये बहौत पुण्यात्मा, भजनानन्दी, शास्त्र पठन पाठनकारी, जीव है । दुपहर तक अपने पाठ पूजा में लगे रहते- गोपाल जी कों लाढ लढाते- एकादसी के दिन निर्जल ब्रत करते, पानी तक न पीते, रात कौं प्राय: मथुरा ही में रहते, काहूते बात न करते, एकांत में बैठ श्री हरि कौ ध्यान करते । इनके चेहरा पैं सूर्य के समान तेज प्रकाश मान देखवे में आती हो, लोग दूर दूरते इनके दरसन कौं आयौ करते, ये देवर्सि कोटिके महात्मा हैं ।?<br />
<br />
इनके तप को देखकर सिंधिया महाराज दौलत राव ने इन्हें अपने राज्य के दानध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित किया तथा 5 गाँव-सौंसा साहिपुरा चैनपुरा कुदौली और लाढ़पुरा इनकी भेंट किये । इनका समय 1825-1896 वि0 है । 1844 वि0 में बड़ौदा के प्रसिद्ध पारिख परिवार से आये गोकुलदास भाई की राज्य के खजानची के पद पर नौकरी लगवाई पारिख इनका अनन्य आज्ञाकारी भक्त था, जिसका समय 1831- 1917 वि0 है । 1849 वि0 में उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे जिनका क्षिप्रा तट पर विशाल मठ तथा 500 तलवार धारी उग्रकर्मा नागा सन्यासी इनके चेले थे । महंत महाराज को लूटमार और आतंक से सारी प्रजा दुखी थी । इन्हैं पकड़ कर लाने के लिये महाराज ने प्रश्न उठाया और पारिख ने आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा ली तथा एक लाख रूपया तथा 100 बंदूकधारी सिपाही सहायता को माँगे । तुरंत सहायता प्राप्त होते ही पारिख उज्जैन तीर्थ यात्रा को चल दिये । उज्जैन में आकर उन्हौंने एक बाड़ा लिया और उसमें नित्य साधुओं ब्राह्मणों को भोजन और जिसने जो मांगा वही दान देने का कार्य चालू किया । सोमवती अमावास्या को महंत लच्छी गिरि के साधुओं ने सेठ के यहाँ भोजन का निमंत्रण लिया और सब साधुओं के बाड़े में आजाने पर पारिख ने फाटक बंद करा दिया तथा पत्तल परोस कर 'लड्डू आवें' इस संकेत पर गोली बर्सा कराके समस्त साधुओं को पत्तलों पर खून से लथ पथ विछा दिया । वे महंत लच्छी गिरि के खजाने का अपार अटूट द्रव्य और महंत महाराज को बांधकर ग्वालियर को चल दियो । इसी बीच किसी चुगलने चुगली की और महाराज ने क्रोधित हो पापी पारिख का मुंह न देखने का निश्चय किया ।<br />
पारिख ने आकर सुना तो वे व्याकुल हो गुरू जी द्वारिकानाथ जी की सेवा में उपस्थित हुए और कर्तव्य निर्देशन की प्रार्थना की । इससे पूर्व पारिख जी लश्कर नगर में अपना एक विशाल भवन और घेरा पारिख जी का बाड़ा नाम से बनवा चुके थे तथा उसमें गुरू द्वारिकानाथ जी की कचहरी तथा महाराज के छत्री बाग में नींव खोदते समय प्राप्त दो देव प्रतिमाओं में (1 हरीहरनाथ 2 चतुर्भुज ) नारायण प्रतिमा को अपने कांकरौली गुरू घराने की सेवानुसार द्वारिकाधीश नाम से पूजित कर वहाँ पधरा चुके थे । श्री द्वारिकानाथ जी की सलाह से इनने वह सारा अपार द्रव्य जिसे गंगाजली खाते में नहीं लिया गया उस सबको द्वारिकाधीश प्रभु की भेंट कर उसे गाढ़ाओं में लाद तथा बैलों के रथ में श्री द्वारिकाधीश देव को विराजमान कर मथुरा वैष्णव तीर्थ की ओर प्रयाण किया ।<br />
<br />
आश्चर्य यह कि मथुरा आते ही प्रभु का रथ नगर में नहीं घंसा और बृन्दावन मार्ग में मतरौढ़ बन में लाकर रूक गया । तब यहीं प्रभु को तथा सारे धन को उतार कर वहाँ भूमि लेकर एक किलेनुमा बाग और सेवा मंडप का निर्माण कराया गया । रक्षा के लिये सिपाहियों का दल रखकर धन जमीन में गाढ़ दिया गया । इस समय इस बन में राधा कंजरी और उसके लुटेरे कंजर टांड़े का बड़ा जोर था अत: मथुरा में एक हवेली लेकर उसके नीचे तबेले में रक्षार्थ लड़ाकू मेवों की एक टोली रक्खी गयी ।<br />
<br />
प्रभु की सेवा उत्सव प्रसाद सामिग्री बड़ी राशि में तैयार होती किन्तु लुटेरों के उस बन में मथुरा का कोई नागरिक दर्शन प्रसाद को न जाता- बृन्दावन के विरक्त साधु मधुकरी भिक्षा की जगह षटरस पकवान लेना स्वीकार न करते । यह देख पारिखजी अति दुखी हुए और मनीराम राधाकिशन के पक्ष विपक्ष में चिठ्ठी डालकर मथुरा का निर्णय आने पर ठाकुर को मथुरा ले आये । बृन्दावन से प्रभु की सवारी बड़े धूमधाम से मथुरा पधारी । चौबों का दल नाचता गाता भगवान को लेकर आया ।वे कूद कूद कर गा रहे थे-<br />
<br />
<poem>आये द्वारिकाधीश, हमारे आये द्वारिकाधीश ।<br />
ठाकुर कौं ससुरार न भायी, घर नहीं होइ सो बसैं ससुरायी ।।<br />
तीन लोक को नाथ हमारौ, सब देवन को ईस-हमारे आये0 <br />
बृन्दावन से गोपेश्वर के एक साधु से ठकुरानी मूर्ति लेकर प्रभु सपत्नीक आ रहे थे- तब यह गाया-<br />
जै द्वारिकाधीश की, बृन्दावन ते व्याहिलाये पांच की पच्चीस की । रडुआ गयौ दुल्हा बनि आयौ, पाग बंधाई सीस की-जै0<br />
न चौबे कौं नित लडुआ छकावै, यही कला जगदीश की-जै0</poem><br />
<br />
मथुरा में भगवान द्वारिकाधीश बीबी का महल जो अब जूना मन्दिर गोलपारे में है । उसमें विराजे जो पहिले बज्रनाम का महल था तथा इसे अलाउद्दीन खिलजी 1352 वि0 के भाई उलग खाँ ने अपनी बीबी का महल बनाया तथा उसकी मृत्यु पर बेगम ने उसकी एक बड़ी कब्र मजार गोर के नाम से बनवाई ।<br />
श्री द्वारिकाधीश 1850 वि0 में यहाँ आकर विराजे और भवन का रूप परिवर्तन कर उसे द्वारिकाधीश की हवेली जूना मन्दिर बनाया गया किन्तु यह भवन गली के अन्दर अंधेरे और सन्नाटे युक्त देव शोभा के लिये अनुपयुक्त मानकर नवीन भव्य मन्दिर निर्माण के लिये भूमि की शोध की जाने लगी । <br />
विश्रान्त घाट और असिकुंड तीर्थ पुष्पस्थल मणिकर्णिका अविमुक्त तीर्थ श्री कृष्णजन्म स्थली (कंस कारागार कारा महल) आदि युक्त गतश्रम नारायण के निकट एक चौड़ा ऊँचा कुकुर यादव दुर्ग का टीला था । यहाँ ककोरों मिहारियों कोहरे पटवारियों मानिक चौक कुआ वारी गली के सर्दारों की बगीची और मुरारी भगवान का मन्दिर या जिसे 'मोर वारौ बाग' कहा जाता था । श्री द्वारिकानाथ जी ने सब सरदारों को राजी कर उन्हें 'चार हजार की बगीची' के लिये भूतेश्वर पर एक बड़ा भूखंड दिलाकर इसे द्वारिकाधीश मन्दिर के लिये ले लिया । मन्दिर की इस भूमि के चौकोर होने में एक कोने पर एक मिहारी सर्दार चिन्ताराम चौबे का घर था । उनकी पत्नी बिरजोदेवी अपना घर छोड़ने को राजी न थीं । द्वारिकानाथ जी ने बहुत समझाया तब उसने कहा- 'पुरखन के हाड़ बेचौंगी नांइ-पारिख भीक मांगै तो देदोंगी' इधर पारिख जी भीख माँगने को तैयार न थे । तब श्री द्वारिकानाथ जी ने उन्हें समझाया-'अपने लिये भीख मत माँगो-प्रभु सेवा के लिये भीख माँगना तो उत्तम धर्म है । बामन प्रभु ने देवों के कार्य हेतु असुर बलिराज से भरी सभा में भीख मांगी थी' गुरूजी की शिक्षा से पारिखजी भीख माँगने बिरजौ माई के द्वार पर आये । उस समय यह दृश्य देखने को भारी भीड़ जमा थी । किसी भाबुक कवि ने तभी यह रचना की-<br />
<br />
<poem>अमर कर्यो जस बिरजो माई, कुल कीरति बिस्तारी ।<br />
पारिख जेसौ दानी मानी, द्वारै ठड़ौ भिकारी ।।<br />
चिन्तामन कौ नाम बढ़ायौ, मन्दिर में बनि साझी ।<br />
मंद-मंद मुसक्यावै ठाकुर, ऊँची नौवत बाजी ।।<br />
साधु महात्मा चकित निहारैं, अदभुत बुद्धी पाई ।<br />
गुनन गुनीली प्रेम पगीली, धत्र-धत्र मेरी बिरजोमाई ।।<br />
चिन्ताराम आनन्द मग्न हो नांचने लगे- <br />
मेरौ प्रान द्वारिकाधीश, बिजै चौवेन की भई ।<br />
नित बाजैं संख घरियार, बात चौबे की रही ।।<br />
चौबे बाप चौविन ही मइया, ये चौबेन कौ ठाकुर ।<br />
चौबे लाये चौबे राखैं, विप्र बंस प्रेमातुर ।।<br />
जमना जी कौ पुन्न प्रताप चित्त की चिन्ता गई ।।मेरौ0 ।।</poem><br />
<br />
मन्दिर के दूसरे सिरे पर काजियों की एक मसजिद थी । चौबे सरदारों ने बड़ी युक्ति से अधिकृत कर मन्दिर को चारौं कोनों से सम्पूर्ण शोभायमान बनाया । गाथा बहुत लंबी है- यहाँ बहुत संक्षेप में लिखी जा रही है ।<br />
मन्दिर के निर्माण की अनेक अदभुत घटनायें हैं- श्री द्वारिकानाथजी के गुरू देवासिद्ध महात्मा ने मन्दिर का नकशा बनाया और मन्दिर निर्माण के बाद उसके प्रत्येक खंभा देहर महराव में देवताओं की स्थापना की । ये महासिद्ध संत थे- चतुरानागा की निवार्क परंपरा में दीक्षित ये बरसाने के निकट सुन्हैरा वन में तप करते थे तथा आकाश मार्ग से प्रतिदिन मथुरा आकर यमुना स्नान करते थे । ये नित्य मन्दिर के निर्माण कार्य का निरीक्षण करते तथा आगे के कार्य का निर्देशन शिल्पियों के मुखिया जगना धांधू को देते थे । मन्दिर का पाटोत्सव पारिख ने बड़ी धूम-धाम से किया । 1 मास तक चौबों और साधु संतों भक्तों को उत्तम उत्तम पकवान भोजन कराये गये । चौबों को पोसाकैं कड़े दुशाला पीताम्बर पात्र मुहरैं दक्षिण में दी गयीं । गुरू देवासिद्ध की आज्ञा से मंदिर की प्रतिष्ठा श्री शीलचंदजी ने तथा उस समय के बैदिक कर्म कांडी विद्वान यज्ञ दत्त हुलासीराम चौबेजी ने सम्पन्न करायी । इस समारोह की कुछ उल्लेखनीय समयाबलि इस प्रकार है- श्री द्वारिकाधीश मथुरा पदार्पण 1850 चैत्र शु0 11, भतरोंड में सेवा 1850-1858 वि, जूना मन्दिर में बिराजे 1858-1874 वि0, नवीन बर्तमान मन्दिर का शिलान्यास 1871 कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा, मन्दिर का निर्माण सम्पन्न 1874 वि0, देव प्रतिष्ठा 1874 बैशाखशुक्ल 3, कांकरौली भेट 1930 वि0, जेठ सुदी 11, रंगजी का मन्दिर 1908 वि0 में 34 वर्ष बाद बना । मथुरा वासियों के लिये द्वारिकाधीश की स्थापना एक महान हर्ष और सौभाग्य की बात थी । औरंगजेबी ध्वंस के 148 वर्ष बाद और अब्दाली के संहार के 61 वर्ष बाद मथुरा ने एक नये देवता और हर्ष के वातावरण का आनन्द पाया । पारिख मन्दिर ,द्वारिकाधीश के गुरू द्वारिकानाथ जी को अर्पण करना चाहते थे परन्तु उनने- 'देवलो ग्राम याचक:' वृत्ति को हीन मान कर निषेध कर दिया तब पारिख ने एक विशाल हवेली बनवा कर उनकी भेट की जिसके आगे पीछे खुली भूमि तथा द्वारिकाधीश मन्दिर शैली की गौख हैं ।<br />
लालजी महाराज-1896 वि0 में 71 वर्ष की आयु में श्री द्वारिकानाथ जी का गोलोक वास हुआ और तब उनके पुत्र श्री लालजी महाराज उत्ताधिकारी हुए । जैसा कि होता है प्रतापी पुरूष के बाद उनकी सन्तति विलासी भोगी और अपव्ययी होती है । लालजी यद्यपि विद्वान कवि दानी और स्वाभिमानी थे, किन्तु उनने पिता के प्रयासों को आगे बढाने का प्रयास नहीं किया । उनके अमीरी खर्च काफी बढ गये । रोज चौका में 100-150 भोजन करने वालों के पटा पड़ते थे, मनों अचार मुरव्वा फल शाक वितरित होता रहता था- फलस्वरूप एक -एक कर पांचों गांव बिक गये । ग्वालियर का दानध्यक्ष पद निकल गया और हौसा (वार्षिक वृत्ति ) के वितरण का कार्य भी लापरवाही से हाथ से चला गया । कोई पुत्र सन्तान न होने से पुत्री ने छीना झपटी शुरू कर दी और भाई भतीजों से विद्वेष मानने के कारण निज की हवेली भी कर्जा में फंसा दी । अंत में उनके राज सम्मान के कागज पत्र अभिलेख गाँवों के खाते खतौनी मूल्यवान पैत्रिक लेख फर्मान दस्तावेज भी सभी पुत्री द्वारा अपहृत कर लिये गये, और इस प्रकार उनके गौरव के सारे प्रमाण क्रूर काल के गर्त में समा गये ।<br />
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जन संख्या विमर्ष<br />
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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की संख्या लगभग 3 लाख अनुमान की जाती है ।<br />
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4022 वि0 पू0 में लवणासुर के विनाश से बचे 200 से कुछ अधिक माथुर अयोध्या गये थे । शत्रुघ्न के मथुरा में उन्हैं फिर एकत्र कर बसाने के समय उनकी संख्या 36,000 हो गयी थी, संभवत: ये सभी इधर उधर गहन वनों में छिपे रहे थे । 3042 वि0 पू0 में ब्रज्रनाभ के समय ये हजारों की संख्या में मुख्य श्रेणियों (धड़े थोकों अखाड़ों) में सुसंगठित थे, जो पांडवों की परम समृद्ध धार्मिक नगरी इन्द्रप्रस्थ में कुछ समय ही पहिले जाकर बसे थे । 964 वि0 भट्ट दिवाकर के समय तक इनकी संख्या छत्तीस हजार ही थी । इस संख्या का विनाश 1074 वि0 में महमूद गजनवी के साके में हुआ । एक अनुभवी वयोवद्ध ने बतलाया है कि गजनवी की मार काट में 10 हजार योद्धा लड़े, 2,000 कट मारे गये, 26 हजार स्त्री बालक बूढे दुर्बल डरपोक जंगलों में छिपाये गये थे, जिनमें से 20 हजार फिर नहीं लौटे गाँवों को पलायन कर गये । शेष 8 हजार शूरवीर विजयी पुरूष तथा 6 हजार उनके स्त्री बच्चे वृद्ध गण वनों से लौट कर आये, तब मथुरा में हमारी संख्या 14 हजार थी । इसके बाद गुलामों खिलजी तुगलक सैयद लोदियों के नित्य के प्रहारों और अत्याचारों से संख्या मथुरा में घट कर ग्राउस काल 1931 वि0 तक 6,000 (4,000 पुरूष 2,000 स्त्रियाँ) ही रह गयी । इन अवधियों में कितने ही समूहों में हमारे वन्धु 20 सहस्त्र की संख्या में छोटे-छोटे दलों में बंटकर भदावर एटा मैनपुरी कासगंज बरेली मालवा बुंदेलखंड पंजाब राजस्थान गुजरात आदि निकलते गये थे । वे वहाँ और अधिक बढ़े और फैले । आज मथुरा की 2043 वि0 की श्री दयारामजी ककोर के पुत्रों के यज्ञोपवीत उपलक्ष में वितरित गिदौड़ा दैंनी की सही गणना के अनुसार हमारी मथुरा में जनसंख्या पुरूष वर्ग 6,400 तथा इसी अनुमान से स्त्री वर्ग की संख्या 8,600 कुल संख्या 15 सहस्त्र के लगभग है । सब स्थानों को मिलाकर मथुरा के 15,000, भदावर वासी 40,000, मीठे 30,000 तथा देश के अन्यत्र सभी प्रान्तों और क्षेत्रों में फैले असीमित विस्तार वालों की संख्या2,15,000 मानकर समस्त जाति की जनसंख्या 3 लाख आंकी जा रही है । चौबों की सही गणना अभी तक कहीं भी कभी भी नहीं की जा सकी है जिससे पूरा समाज अंधकार में है ।<br />
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चतुर्वेदी सुविज्ञ महानुभाव अपने को देश की अल्प संख्यक जाति अनुमान करते हैं, किन्तु आज के युग में अल्प संख्यकों को ही तो बहुतायत से संरक्षण और राजकीय सहायतायें दी जाती हैं । अस्तु हमें गरीबी की रेखा से नीचे दबे हुए अपने बन्धुओं की संख्या गणना करके उनके लिये भूमि रोजगार पोषक आहार चिकित्सा बैंकऋण शिक्षा सरकारी नौकरियों में आरक्षण आदि की विशेषाधिकार पूर्ण मांगैं सरकार के सन्मुख प्रस्तुत करके जोरदार आवाज उठानी चाहिये ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_18&diff=56347चतुर्वेदी इतिहास 182010-04-24T04:36:12Z<p>जन्मेजय: /* हर्षोल्लास और मेले */</p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==श्री बल्लभाचार्य संप्रदाय- ==<br />
1336 वि0, में प्रादुर्भावित श्री बाल गोपाल सेवा के प्रवर्तक श्री विष्णु स्वामी संप्रदाय की परम्परा को लेकर श्री बल्लभाचार्य महाप्रभु का अविर्भाव 1535 वि0, में हुआ । ये 1549 वि0 में मथुरा पधारे । इन्होंने 1550 वि0 में अपने विश्राम घाट निवास में यमुनाष्टक की रचना करने के बाद 6 बार श्री उद्धवाचार्य जी के उपदेश से तथा श्री उजागरजी के पौरोहित्य निर्देशन में ब्रज यात्रायें कीं जिनके विषद वर्णन का ग्रंथ श्री उद्धवाचार्य देव जू द्वारा लिखित 650 पृष्ठों में वर्णित हमारे संग्रह में सुरक्षित है । श्री महाप्रभु ने मथुरा ब्रज महात्म और यात्रा पद्धति का 'ब्रज मथुरा प्रकाश' नाम का ग्रंथ भी रचा है जाते हमारे ही यहाँ हैं । उनकी 6 ब्रज यात्राओं में-1-1550 वि0 ग्वालियर से पधारे तब, 2-1555 वि0 में पुष्कर से पधारे तब, 3-1571 वि0 अडैल से पधारे तब, 4-1573 वि0 पुन:, 5-1585 वि0 द्वारिकापुरी से पधारे तब और 6-1586 वि0 गोपलापुर (जतीपुरा) निवास करते तब इस प्रकार 6 ब्रज यात्राओं को सम्पन्न कर ब्रज रस की सिद्धि करने का महा मनोर्थ वर्णित है । ब्रज के प्रमुख स्थलों में इनकी भागवत परायण की 24 बैठकैं सर्व विदित हैं । 1571 वि0 की बृजयात्रा सिकन्दर लोदी काल में जब बहुला बन में पहुंची तो वहाँ के कट्टर इस्लामी फौजदार ने बहुलावन कीं पाषाण गौर की पूजा रोकदी तब माथुर श्री उद्धवदेव जी के ऋग्वेदीय गो सूक्त के पाठ से गौ ने घास खायी और हाकिम चमत्कृत और लज्जित पराजित हुआ । 1565 वि0 में कवि सम्राट सूरदास जी इनकी शरण में आये, इनके समीप ही मणि कर्णिका की एक कोठरी में रहे । 1623 वि0 में जब श्री नाथ जी मथुरा में सतघरा में विराजे थे उस फाग अवसर पर बादशाह अकबर सूरदास जी के दर्शन को आया किंन्तु सूरदास जी ने दर्शन नहीं दिये । श्री आचार्यजी का आसुर व्यामोह 1587 वि0 में हुआ ।<br />
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गो0 श्री बिठ्टलनाथजी- 1572 वि0 में जन्मे श्री बिठ्टलनाथजी का मथुरा बास 1622 से 1627 वि0 तब रहा । रानी दुर्गावती ने उनके और उनके 7 पुत्रों के लिये सतघरा महुल्ले में सात हवेलियां युक्त विशाल भवन बनवाया । 1623 वि0 में उनके पुत्र गो0 गिरधर जी श्री नाथ जी को जतीपुरा से मथुरा ले आये इस होली उत्सव में बादशाह अकबर आया । श्री गोसांई जी ने अपने समय में श्रीनाथ जी की सेवा का नियमित विस्तार कर कीर्तन साहित्य और कीर्तन की राग पद्धति का विकास करने को अष्ट छाप के कवियों की स्थापना की । <br />
1600 वि0 में गो0 विठ्टलनाथजी ने ब्रजयात्रा की तब श्री उजागरवंश को पौरोहित्य का वृत्ति पत्र लिखा-<br />
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'स्वस्ति श्री मद्विट्ठल दीक्षितानां मथुरा क्षेत्रे तीर्थ पुरोहितो उजागर शर्मा माथुरोस्ति- वि0 संवत 1600 ।<br />
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इस लेख की फोटो प्रति 1989 वि0 में कांकरौली के गोस्वामी श्री ब्रजभूषण लाल ने अपनी ब्रज यात्रा के अवसर पर ली थी जो अब काँकरौली विद्या विभाग के ग्रंथागार में है । इस सम्बन्ध में प्राचीन मर्यादा के अनुसार श्रीराधाचन्द ने लिखा है- चतुर्णा संप्रदायाणां माचार्ये धर्म वित्तमै: , उद्धवोजागरौ पादौ पूजितानिश्च भक्तित: ।<br />
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1644 वि0 में गोस्वामीजी को गोकुल की भूमि का पट्टा मिला और तब से वे गोकुल में रहने लगे । श्री उद्धवाचार्य देवजी ने ही 1559 वि0 में पूरनमलखत्री के द्रव्य से श्रीनाथजी का मन्दिर हीरामन मिस्त्री से तैयार कराया और अनेक विध सेवाओं और उत्सवों के बाद औरंगजेब के प्रहार से रक्षा हेतु श्री नाथजी को 1726 वि0 में मेवाड़ ले जाया गया ।<br />
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इस वंश में गो0 श्री गोकुलनाथजी, श्री हरिरामजी, श्री गोपेश्वरजी , तिलकायत श्री गोवर्धननाथजी, श्री दाऊजी, श्री यदुनाथजी, श्री रमणप्रभु जी, श्रीमधुसूदनलालजी, श्रीद्वारकेशलालजी, श्री माधवरायजी, श्री गोपाललालजी, आदि अनेक आदरणीय महापुरूष हुए हैं । जिनके हस्तलेख चौबों के यहाँ हैं ।<br />
चैतन्य महाप्रभु- इनका माध्व गौडीय संप्रदाय है । 1572 वि0 में श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा पधारे । यमुना देखकर प्रेमोन्मत्त हुए जल में कूद पड़े और हरिकीर्तन नृत्य करने लगे । उस समय श्री उद्धवाचार्य देवजी के पौत्र विरक्त वृत्तिधारी श्री दामोदरजी मिहारी वहाँ थे, वे भी अपनी माधवेन्द्र पुरी जी से प्राप्त दीक्षा के अनुसार कीर्तन नृत्य करने लगे । श्री चैतन्य देव ने उन्हें आलिंगन किया और गुरू भाई तथा तीर्थ गुरू की तरह मान दिया चरणों में गिर गये ।<br />
<poem> <br />
मथुरा आइया केल विश्राम स्नान । यमुना तट चव्वीस घाटे प्रभु केल स्नान ।।<br />
सेई विप्र प्रभु केल दिखायतीर्थ स्थान । स्वायंभू विश्रान्त दीर्घविष्णु भूतेश्वर ।।<br />
महाविद्या गोकर्ण देखला निस्तर । सेई ब्राह्मण प्रभु संग ते लाइल ।।<br />
मधुबन तालबन कुमुदबन गेइला । देखला बारह बने ब्रज धाम ।।</poem><br />
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विश्रान्त से श्री दामोदर जी उन्हें घर ले गये, प्रसाद अर्पण आदि करके प्रभु का सस्नेह सत्कार किया । प्रभु ने उनके साथ मथुरा परिक्रमा के सभी तीर्थ दर्शन किये, मथुरा के केशव देव दीर्घविष्णु महाविद्या भूतेश्वर गोकर्ण आदि तीर्थ दर्शन किये फिर उन्हीं के साथ 12 बनोंयुक्त ब्रज की यात्रा की । श्री दामोदर देव ने उन्हैं तीर्थों कुंडों में स्नान आचमन देव दर्शन महात्म श्रवण कराया । अक्रूर घाट पर कुछ दिन निवास कर जब उनके साथी उन्हैं अपने देश ले जाने का विचार करने लगे तो महाप्रभु ने उन्हीं दामोदर जी से इसकी आज्ञा चाही । आज्ञा मिलने पर वे जब चलने लगे तो श्री दामोदर जी ने उनका साथ नहीं छोड़ा । वह मथुरिया माथुर विप्र दामोदर देव प्रयाग तक उनके साथ गये । रास्ते में महाबन के समीप अलीपुर खानपुर के बन में पठानों से संघर्ष हुआ और श्री दामोदरजी ने पठानों से मुक्ति दिलायी । वे सभी कीर्तन भक्त होकर वैश्नव पठान बन गये । बंगाल से फिर महाप्रभु ने ब्रज रसानुभव के लिय भी सनातन रूप जीव मधु रधुनाथ रघुनाथ भट्ट आदि अनेक अपने भक्त ब्रज में भेजे । 1574 वि0 में श्री सनातन और रूप गोस्वामी मथुरा आये । श्री रूप जी ने 1600 वि0 में श्री भगवान देवजी के यहाँ से ब्रज का ग्रंथ तथ अन्य अनेक ग्रंथ अवलोकन कर अपना 'मथुरा महात्म' ग्रंन्थ लिखा । सनातन जी नित्य मथुरा में पवित्र पूजनीक माथुर ब्राह्मणों के घरों से भिक्षा लेने आते थे । उन्हैं चौबे जी नारायण अझुमियाँ के घर से पहिले मदना नाम का बालक और फिर मोर मुकटवारों श्याम सुन्दर विग्रह जिसे उन्होनें मदनमोहन ही माना प्राप्त हुआ । ये घटनायें बहुत विस्तार से वर्णित हैं जिन्हें यहाँ संक्षेप में दिया जा रहा है । श्री नारायण जी अझुमियाँ की पत्नी किशोरी देवी थीं जो अपने ठाकुर मोर मुकटवारे को बड़े लाढ से लढाकर सेवा करती थीं । उनके विषय में कुछ पद्य मिले हैं –<br />
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<poem>सनातन चरनन लोटत डोलै, पदरज सीस चढावै ।<br />
जसुधा जैसी लाढ़ लढ़ाती, माता के गुन गावै । <br />
भक्त सिरोमनि ध्न्य किसोरी, श्यामसुन्दर प्रिय दीन्हों ।<br />
जन्म सुफल करदियौ सनातन, सुजस लोक में लीन्हों ।।<br />
मेरौ लाल सम्हार राखियो, बड़े जतन ते पाल्यौ ।<br />
मेरौ घर सूनों भयौ बाबा, तू कछू जादू डार्यो ।।<br />
जनम-जनम जस गांऊरी मैया, सेवा सिद्ध करूंगो ।<br />
मदन मोहन मेरैं प्रानन प्यारौ, तन मन धन अरपूंगो ।।<br />
तेरे घर तौ सदां रहैं है, मेरैंहू कुटी में खेलैं ।।<br />
दूध मलाई माखन रबड़ी, भक्तन छाक सकेलै ।।<br />
उर लिपटाइ मदनमोहन कौ, भाग्यौ रस मदमांतौ ।<br />
रही किसोरी मौंन देखती, बस कछु नहीं जु चलातौ ।।<br />
</poem><br />
ये ठाकुर मदन मोहन जी अब करौली में विराजते हैं जो जैपुर रहकर करौली नरेश की याचना पर जैपुर महाराज ने उन्हें अर्पित किये हैं । चौबों को वृन्दावन में मन्दिर बन जाने पर श्री सनातन जी ने यच्छव भेंट के रूप में 1 घोड़ा दुशाला जोड़ी, कड़े सिरपेच नगद दक्षिणा और जब तक वहाँ रहें नित्य मधुर प्रसाद दिये जाने का नेग बांधा जो अभी भी करौली में मान्य है ।<br />
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==मल्ल विद्या ==<br />
माथुर चौबों की मल्ल श्रेष्ठता भारत प्रसिद्ध हैं । मधु कैटभ माधव केशव बलदाऊ जी भीमसेन कंसराज चांडूल मुष्टिक शल तोशल कूट आदि परम्परा प्राचीन थी, किन्तु समय की मांग के अनुसार चौवों ने औरंगजेब काल में इसको विशेष विस्तार दिया । इस काल में हरएक घर में रोगी दुर्बल को छोड़कर प्राय: सभी पुरूष पहलवान बन गयें थे । मथुरा के इन मल्ल सम्राटों ने पंजाब, दिल्ली हरियाणा महाराष्ट्र मध्य प्रदेश बिहार दक्षिण देश सभी खण्डों के नामी-नामी पहलवानों को धूल चटायी थी । इनकी संख्या हजारों में है, अत: सूची न देकर कुछ खास-खास गुरूओं के नाम ही देना पर्याप्त होगा- <br />
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अलीदत्त कुलीदत्त, रमजीलैया, हौआ चौवे, हरिगुरू, खूंगसिंह, दाऊगुरू, भंग्गाजी, उद्धवसिंह, खैला पांड़े, भगवंतचौवे, बिलासा जी, खौनाबाबा, गिल्हरगुरू, चंके बंके, खुनखुन पाई, धीरा फकीरा, नत्थू, पीनूरसका, बंदर सिकन्दर, जगन्नाथ उस्ताद, गलगलजी, भंवरजी, माखनजी, लछमनजी, चूंचू, गेसीलाल, देविया, महादेवा, मोथा जी, द्वारा जी, माखनजी, सिरियागुरू, जौहरी, मेघा, दंगी गुरू, मेघाजी, तपियां, खुश्याला, हिंम्मां, भौंदा, टैंउआं, गोपीनाथजी, विशनजी, बल्देवजी, विसंभरजी (सप्पे), गुलची, गुमानी, हनुमान मिश्र पिनाहट, कल्यान जोनमाने चंदपुर, कन्हईसिंह कमतरी, रौनभौंन मैंनपुरी, बेचेलाल मैंनपुरी, जै गोपाल धौलपुर आदि आदि ।<br />
==काव्य साहित्य==<br />
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चतुर्वेदियों में कवियों की परम्परा खूब फली फूली है सैकड़ों कवि हरेक शताद्धियों में हुए हैं । उन सभी का विवरण प्रस्तुत करना संभव नहीं है इनमें से कुछ प्रमुख और ज्ञातव्य जनों के नाम देना उर्चित होगा । इनमें महाकवि बिहारी लाल विश्वख्याति के शीर्षस्थ कवि हैं जो हमारी उपेक्षा के अन्ध कूप में पड़े हैं । <br />
माथुर चतुर्वेदी कवि सूची- <br />
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(1400-1500वि0,) जैनन्द मिहारी 1485, पद्माचारी 1489, (1500-1600 वि,) परसोत्तम बट्ठिया, परसा, 1518, मलूक चौबे 1538, छीत स्वामी 1572, छीहल 1575, विट्ठलदास चीत्तौड़ 1586, कान्हरदास चित्तौड़ 1599, कृपाराम 1598, (1600-1700 वि0), मोहन चौबे निर्गुण काव्य, केशव उचाढ़ा महाकवि बिहारी के पिता 1620, दामोदर चौवे 1622 समय प्रबन्ध, सुलखान चौवे 1620, सुखदेव माथुर 1615 (नील वानर का सेतुशास्त्र 4330 वि0पू0 रचित का अब्दुलरहीम खानखाना के लिय काव्यानुवाद), गंगाधर 1627, चतुर्भुज मिश्र 1624, मोहन चौबे 1630 सहज सनेही, माना 1631, राधा मोहन रावत 1632 मैनपुरी के राजदीवान, दत्तूकवि 1648 केशव माला, कान्हर चौवे 1657, महाकवि बिहारीलाल सतसईकर्ता 1660, उदैराम माथुर, 1660, माथुर नरसिंह 1665 मथुरा महात्म बीकानेर अनूप लाइब्रेरी में, वाण पाठक 1674 कवि चरित्र अकबर काल, चौबेलाल 1687, कवीन्द्र पाठक चन्दपुर 1668, नीलकंठ मिश्र 1648, गोविन्द अटल 1670, बूंदी के (सालिगंराम, हीरालाल, अमरकृष्ण, कृष्णदास 1615) जीवाराम चौवे मथुरा महात्म 1627, (1700-1800 वि0,) हरीबल्लभ 1701, गो0 हरिवंश शिष्य 30 हजार पद, हरदत्त चौब 1715 महाविद्या रत्न, कुलपति मिश्र 1717 संग्राम सार, सुखदेव मिश्र 1728, हरदेव मिश्र 1760, चन्द्रभान चौबे 1731, अखैराम मिश्र 1730, चौबेलाल ककोर 1740, कृष्ण कवि ककोर 1740 बिहार के मानजे सत सई पर छंद युक्त टीका, श्यामलाल मिश्र 1738, गणपति मिश्र 1756, कृष्णदेव कृष्ण 1750 भागवत प्रबन्ध, लच्छीराम 1756 करूणा भरण, नीलकंठ मिश्र (सोमनाथ के पिता) 1755, प्रभू 1757, रामकृष्ण 1754, लोकनाथ मिश्र बून्दी 1752, पत्नी रानी चौबे 1754, श्रीधर मिश्र 1756, भोजा मिश्र 1768, मनीराम मिश्र 1778, गंगेश मिश्र 1773, रत्तीराम मिश्र 1780, सोमनाथ मिश्र 1694 (रस पीयूष निधि रासपवाध्यायी) (1800-1900 वि0) ब्रजलाल 1807, आनंद कवि 1821 कोकसार, बालकृष्ण बसुआ 1826 बिहारी के वंशज, सूदन 1801-1812 सुसजान चरित्र, जीवाराम बूंदी 1814, मधुसूदन चौबे हाथरस 1839, रामाश्वमेध, विक्रम 1830 सांझी बत्ती सी, मधुसूदन इटावा 1839, जुगल चौबे 1836 दोहावली, कृष्ण कवि चर्चरी मैनपुरी 1853 तिमिर प्रदीप, मुरली सौरौं 1843 रत्नाबली चरित्र, राधाकिशन चित्र कूट 1849, प्यारे मिश्र 1841, वसींधर पांड़े 1804, हरप्रसाद मिश्र 1856 भाषा तिलक, धांधू चौबे 1860, गुमन कवि 1861 गुमान गढ (भरतपुर युद्ध), जवाहर तिवारी 1862 ब्रज वर्ण, सीतल दास (टटिया स्थान वृन्दावन) 1860 गुलजार चमन आदि, नाथूराम 1874, पिरभू रामकिसन छबीले चौबे 1873, बनमालजी 1882-1976, कल्याण 1880, कलीराम 1884 सुदामा चरित्र, नारायण पंडित 1882, गंगदत्त 1870, चतुर्भुज मिश्र 1880 अलंकार अमी भरतपुर बल्देवसिंह के राज कवि, डिब्बाराम पांड़े दिवेस 1897 ब्रजराज रसामृत, लालजी मिहारी 1897, शीलचन्द्र शील 1893, (1900-2000 वि0) घासीराम चन्दपुर 1908 रतलाम के राज कवि छगन मगन छंगालाल मिहारी 1132 गोविन्द माला, गंगाराम चौबे 1932 संगीत सेतु कश्मीर नरेश के लिये, प्रताप जोनमाने 1937, सभा विनोद, चौबे दत्तराम 1938 दानलीला, चतुर्भुज पाठक 'कंज' 1930-1977 यमक मंजरी, उदैराम 1934 जोग लीला, हनुमान 1930, भोलांराम मालाधारी 1930 काशीनरेश की मुहरैं दान, नवनीत कविनीत 1932 गोपीप्रेम पीयूष प्रवाह मूर्खशतक आदि, माखनचौबे पांड़े 1930 पूरनमासी लीला (करहला के रासधारियों के गुरू), हरदेवा 1934 मोहज्ञान संग्रह, गंगाधर चौबे दूसरे 1944 नागलीला, ऋषीकेश चतु0 आगरा 1998-2030 राम कृष्ण काव्य भंग का लोटा आदि अनेक, मानिक पाठक 1950 मानिक बोध, पुरूषोत्तम दास पुरा कन्हैरा 1967, खड़ग कवि 1884-1935 (दतिया के राजा भवानीसिंह के दरबार में) खड़गवानी, खरखरे छंद आदि, हितराम माथुर 1950, हरीप्रसाद चौबे 1969 महाविद्या रत्न संस्कृत वि0 वि0 बनारस के पुस्तकालय में, अमृतलाल चतुर्वेदी आगरा 1962, गोविन्द तिवारी 1967 रेल पच्चीसी, हीरालाल बूंदी 1916, चतुर्भुज रावत मैनपुरी 1960 पानांजलि आदि 65 ग्रंथ, (ख्याललावनी के उस्ताद अखाड़ा झंडासिंह मथुरा)1958 देवीलाल ककोर, भैरौसिंह ककोर, (रिसाल गिर अखाड़ा) बंसीगुरू गणेश चौवे, हरदेवा, गुलवा अझुमियाँ, मोहन पाँड़े दीवान जी मुकदम आदि, कवि भगवानदत्त 1957-2031 सुपर्णा, रामदयाल उचाढ़ा 2013 काव्य कालिंदी, क्याखूब चौबे रामप्रशाद 1953 दानलीला रंगीली होली, बालमुकुन्द 'मुकुन्द' मुदित मुकुन्द 1984 यमुना लहरी ब्रजभागवत आदि 84 रचनायें, विदुर देव वैद्य 1959-1992 जवकुश नाटक संगीत, जुगादी राम चौबे 1980 काव्य संग्रह मथुरा महात्म, उमरावसिंह पाँड़े 1959, गयादत्त शास्त्री गया 1974 कंस वध, गोकुलचन्द चन्दजी 2010, गोविन्द 2043 ब्रजवानी कमल सतसई, श्री नारायण चतुर्वेदी श्रीवर 1998, बालकृष्ण खिलाखिल जहाँगीर पुर एटा 1989, सीजीराम उचाढ़ा 1989 यमुनाष्टक छंद, वैजनाथ चौबे बैजू इटावा 1994 भजन पुष्पाँ जलि, बालकृष्ण हाथरस 1997, ओमीनन्द 1990, नरेन्द्रनाथ लखनऊ 1992, नवीनचन्द्र पुराकन्हैरा 1997, बिहारीलाल हीरालाल 1995 गणेश विरूदावली, घनश्याम निर्भीक 2040 समुद्रमंथन उद्धव गोपी संवाद, दीनानाथी सुमनेश 1997, (2000 से आगे 2043 तक) दूधाधारी 2000, नाथा पाठक 2010, बनमाली शास्त्री 2020, धीरजलाल जाटवारे 2010, अमृतलाल चतु0 आगरा 2005, हालस्यरसावतार जगन्नाथ प्रशाद चतु0 मलयपुर 2002, चन्द्रशेखर शास्त्री 2020, महेन्द्र 2000, राजन्द्र रंजन 2040, महेन्द्र नेह 2041, बमवटुक 2030, शैल चतुर्वेदी 2043, रामकुमार चंचल 2015, डा0 बरसाने लाल 2043 हाथी के पंख, सुरेश हाथरस 2043,छेदालाल छेदभरतपुर 2043, घनश्याम घनश्री 225, राजेन्द्र खट्टो 2010, मनमोहन चतु0 2027, विष्णु विराट 2043, शंकरलाल काहौ 2043, विजय कवि 2043 व्यंग हास्य, कैलाशनाथ मस्त (पान वाले) 2025, गोवर्धन पुरा कन्हैरा 2010, महादेव प्रशाद वैद्य 2042, उग्रसेन निर्मल कानपुर 2042 सत्यनारायण कथा, मकुन्द महल वारे 2043, गोर्धन बुदौआ 2043 (पोरबंदर),<br />
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==संगी नृत्य अभिनय==<br />
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संगीत- मथुरा के चौबों में संगीत के बड़े नामी कलाकार हुए हैं । चौबों को इस कला से स्वाभाविक प्रेम रहा है । इन कलाओं के कुछ विशिष्ट गुणीजनों के नाम यहाँ दिये जा रहे हैं –<br />
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श्री छीत स्वामी 1572-1642 वि0 (अष्टछाप के कीर्तन कार), श्रीस्वामी ललित किशोरी जी 1758, श्रीस्वामी हरिदास टटिया स्थान के नित्य विहार गायक आचार्य, रागी पागी चौवे 1876, बालो चौवे हाथरस 1898, अंवाराम खंबाराम छिनोजी 1900, चन्दनजी गनपतजी 1929-30,बालजी 1970, जमना दास 1930, हरदेव बाबा 1937, बुलबुल मनोहर औघड़ 1970 (अलगोजा), रामचन्द पाठक 1860 (गणेशीलालजी के संगीत गुरू दत्तराम जी के पितामह), लालन जी 1988 (इसराज बादक), छैया नचैया गनपतजी 1980 (तबला के अद्वितीयवादक), गणेशीलालजी संगीत सम्राट 1903-1968 वि0 विश्व विख्यात संगीत आचार्य, इनके भाई चौखेलाल अजुद्धी मुकुंदी 1907 वि0, बंसीधर 1887 वि0 धनीराम 1904, भगवानदास सारंगीवादक कछपुरा 1998, चंदनजी के शिष्यवासुदेव (घुर्रेजी), शिवकुमार लछमनजी बालजी रंछोर पांड़े 1960-2010 तक, अच्चा-पच्चा, मोतीवारौ, सोहनलाल पारूआ, 1986 आदि ।<br />
बर्तमान 2043 वि0 में- सुखदेव, मुरारीलाल, श्रीकांत, बिहारीलाल, लव, कुश, रमेशराजा, भोला पाठक, मधुसूदन, कृपानाथ, हरदेव, छगनलाल, मदन लाल, बिहारी मुंशी, जगदीश बंसरीवाला, भगवानदास सारंगी वादक कछपुरा, गोविन्दराम (पुच्चड़जी) इसराज मास्टर, नगरा, फगड़ा, बिदुर, केशवदेव आदि ।<br />
नृत्य- नृत्य चौबे समुदाय की एक विशिष्ट कला है । इसमें विरनृत्य (नरसिंह लीला), श्रृगार नृत्य चौपाई होली की, हास्य नृत्य स्वांग भगत, अद्भुद भगत, भक्ति शांत रस रामलीला में आयोजित होते हैं । नृत्य के प्रभावी कलाकार रीछा टोली श्री गनपतजी (छैयानचैया) मानिकलाल पाठक, फैली मनोरथा दुमियाँ जगन्नाथ नन्दू चट्ठा चाऊचाचा रघुवर कंचन छोटे, नीतलाल (गनपतजी), गरूड़ पाठक, विटना पाठक, केदार, भैयालाल, आदि हुए हैं ।<br />
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अभिनय- भगत अब समाप्त हो चुकी हैं । संगीत नौंटंकी के सवांग यदा कदा होते रहते हैं , नाटक लवकुश नाटक के बाद नहीं हुआ । कृष्ण लीला की प्रस्तुति कुछ अधिकार लोलुप लोगों ने विखंडित कर दी । रामलीला का उद्योग बढ़ रहा है ।<br /><br />
रामलीला- चतुर्वेदी समाज के लिये यह एक कमाऊ उद्योग है । लगभग 32 मंडलियाँ प्रति वर्ष आश्विनमास में देश के कोने-कोने में जाकर लीला प्रदर्शन करतीं और धन तथा यश अर्जित करती हैं । अनुमान है कि प्रति वर्ष 3 लाख रूपया इस उद्योग से जो केवल 10-15 दिन ही में समाप्त हो जाता है चतुर्वेदी किशोर कलाकारों को बट जाता है । कुछ मंडल साल भर तक भी जहाँ तहाँ जाते रहते हैं । इस कला उद्योग को और अधिक ऊँचा उठाने और सुसंगठित किये जाने की आवश्यकता है ।<br /><br />
रामलीला का आंरभ मथुरा के चतुर्वेदी सुप्रसिद्ध रामभक्त श्री गिरराजदत्त जी (खपाटाचाचे बाद में ज्ञानानन्दजी कार्ष्णि) के द्वारा 1900 वि0 के लगभग हुआ इनके पुत्र श्री वैकुंठदत्तजी तथा प्रधान शिष्य श्री गोविन्दजी नायक हनुमानजी द्वारा रामलीला का परमोत्कर्ष हुआ । इनके परिवारों की मण्डली अभी भी श्रेष्ठ मण्डली मानी जाती है । इस परम्पराओं को और आगे श्री गंगेजी विष्णुजी वैजनाथ जी मथु रेशदत्तजी बासुदेव जी हरदेवजी बढ़ाते जा रहे हैं। <br />
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==हर्षोल्लास और मेले==<br />
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आमोद प्रमोद और विनोद माथुरों के जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं । यहाँ अनेक अवसरों पर उत्सवों और मेलों का सरस आयोजन होता ही रहता है । इनमें से कुछ प्रमुख हैं –<br />
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'''1. कंस का मेला'''- कार्तिक शु0 10 को होने वाला यह मेला चौबे समाज का प्रमुख मेला है । इसमें कागज का बड़ा कंस का पुतला बनाकर कंस टीले पर ले जाया जाता है- कृष्ण बलराम की सुसज्जित सवारी हाथी पर वहाँ जाती है । चतुर्वेदी समुदाय के सभी नर नारी किशोर युवक वृद्ध राजा महाराजाओं की प्रदत्त अदभुद पोषाकों शस्त्रों विशाल लट्ठों को लेकर उन्माद के साथ नाचते कूदते गाते हुए इसमें भाग लेते हैं । बाहर कार्यकरत उद्योगी बन्धु भी इस अवसर पर आते हैं । मथुरा के वायु मंडल में इस समय बड़ा आनन्द और उत्साह रहता है । कुछ सांस्कृतिक झांकियों और सजावट रोशनी से भी वर्तमान में मेला का रूप भव्य बना है । कंस का मेला वज्रनाभ काल 3042 वि0 पू0 से है । हरिवंश पुराण के अनुसार मथुरा के यादव गण माथुरों के साथ नृत्य गान उल्लास के उत्सव मनाते थे, जिन्हें द्वारिका प्रयाण के बाद वे द्वारिकापुरी में तथा माथुर प्रजा मथुरा में मनाती थी । प्राणिनी ने अष्टध्यायी 1143 वि0 पू0 में तथा कंस वध नाटक में इसका प्रस्तुतिकरण किया है । इसमें उद्घोष की जाने वाली साखी भी शौरसेनी प्राकृत से किंचित ही रूपांतरित हैं यथा-'कंस्स बलरम्मा लै आम्मैं सखा सूरसेन '(हम) सूरसेन '।' कंस्सा मारू मधुप्पुरी आए कंसा के घर केह घव्वराए आदि ।<br />
भारयुक्त हैं- इनमें मानिक<br />
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'''2. नृसिंह लीला'''- यह वीर नृत्न प्रदर्शन माथुरों के पुरूषार्थ परिक्षण का महान महोत्सव है । वैशाख शु0 14 से 3-4 तक यह मेला अनेक चौबों के मुहल्लों में चलता रहता है । यह अयोध्या पति भगवान राम के समय 4044 वि0पू0 से यहाँ स्थापित है, जब शत्रुहन द्वारा लवणासुर का वध किये जाने पर नवनिर्मित मथुरा में वे पधारे, विश्रान्ततीर्थ पर तीर्थस्नान रात्रिजागरण ब्रत किया तब निशा काल यापन के लिये मथुरा के चतुर्वेदियों ने इस वीर विजय शास्त्रीय द्वंद युद्ध शैली में प्रवर्तित इस लीला का उनके सन्मुख प्रस्तुतीकरण किया । एतिहासिक प्रमाण तथ्य यह हैं कि इस लीला में विनायक गणेश से सिंधुर दैत्य, देवी से मर्हिषासुर, हनुमान से अहिरावण अधकट्, ब्रत्तासुर से इन्द्र श्रीबाराहदेव से हिरण्याक्ष का द्वंद रात्रि में तथा निशान्त में ब्रह्मा से शंकर युद्ध पांचवा ब्रह्मा का मुख छेदन शिव से ताड़कारसुर का तथा अन्त में भगवान नृसिंह का प्रादुर्भाव होकर हिरयकशिपु का संहार होता है । त्रेता का मरू बाजा, बाराहों का वर्हा वाद्य भर्रा झांझ, नृसिंह का सिंह प्रहार मुद्राओं में शौर्य नृत्य इसकी विशेषतायें हैं तथा लीला में राम रावण, शत्रुघ्न लवण, कृष्ण कंस का युद्ध अनुपस्थित होने से इसे राम कालीन मानने की विंचार धारा को दृढ़ बल मिलता है । नृसिंह भगवान के चेहरे (मुखौटे) भी पर्याप्त भारयुक्त हैं- इनमें मानिक चौक का 15 सेर चौबच्चा का 10 सेर मारू गली का 8 सेर गोलपारे का 5 सेर बताये जाते हैं । चौबच्चा का चेहरा मुलतान से 1710 वि0 में शाहजहाँ काल में चौबे खड़गराम पाठक लाये थे । कहते हैं । मुलतान के हाकिम अबुल फतह ने हिन्दुओं के देवता नरसिंह की असलियत की परिक्षा करनी चाही । उसके निर्देश से पंजाबी पहलवान गवरू को हिरण्याक्ष बनाने के लिये खूब बादाम घी आदि खुराक खिलाकर नरसिंह को पराजित करने को तैयार किया गया । उस समय नरसिंह के स्वरूप के लिये उससे भी अधिक बलवान पहलवान की खोज हुई पंजाब में सिख औरंगजेब विरोधी थे, वे पहलवानों योद्धाओं पटेवाजों का बड़ा सम्मान और पोषण करते थे, मथुरा के चौबे पहलवान इसी आधार से पंजाब जाते रहते थे । खड़गराम पाठक भी वहीं थे, वे बुलाये गये और उन्हें नरसिंह का लीला पद अर्पित किया गया । लाखों दर्शकों की अति उत्सुक भीड़ में चौबेजी ने देव आवेश में आकर हिरण्याक्ष को चिड़िया की तरह मरोड़ कर उछाल कर गोद में ले लिया और उसका तीक्ष्ण नखों से उदर विदीर्ण कर डाला । यह देख उसके पक्ष के गुंडे पहलवानों ने चौबे को मार डालने का गिरोह बनाया, ज्ञात होते ही खड़गजी रातों रात उस मुखौटे को कपड़े में लपेट पीठ से बांध वहाँ से मथुरा भाग आये और यहाँ अगले वर्ष से उसी चेहरे से लीला प्रदर्शित की । ये मथुरा से चन्दपुर जाकर भी कुछ काल अपने परिवार के पाठकों के साथ रहे थे । वर्तमान में इनके वंश के 'खरगराम के पाठक' मथुरा में चौबच्चा मुहल्ला में अभी रहते हैं । अन्य मेलों में- होली की चौपई (नृत्य गान), संवत्सर के फूल डोल, यमुना छट, रामनवमी, आषाढी दंगल, राधा अष्टमी वृन्दावन टटिया स्थान, रामलीला, यमदुतिया, गोचारन, अखैनौमी, देव उठान (परिक्रमायें), आदि हैं । प्राय: सभी मेले सुरीली भांग ठंडाई, उत्तम मिष्टान्न भोजन, चीज चट्टोंनी, सैर सपाटे के लिये आकर्षण के केन्द्र हैं जिन्हें आज की नई पाश्चात्य सभ्यता में पिकनिक का खोल उढाया जा रहा है ।समय की मार से मधुवन, सतोहा, गरूड़-गोविन्द, करौटनी गोर्धन, द्वारिकाधीश के होरी खेल के दर्शन, बन विहार आदि मेले मंहगाई के पेट में समागये हैं ।<br />
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==विव्दद्वर्ग और विशिष्टजन==<br />
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माथुरों में विद्वानों और गुणीजनों की बहुत संख्या है । चतुर्वेद विद्यालय के द्वारा संस्कृत पण्डितों की बहुत बृद्धि हुई है, तथा ये मथुरा बृन्दावन गोकुल दाऊजी जतीपुरा, गोवर्धन बरसाना नन्दगाँव आदि अनेक क्षेत्रों के संस्कृत विद्यालयों में प्रधानाध्यापक और अध्यापक हैं । इनमें वेदपाठी, कथा वाचक, कर्मकाँडी, ज्यौतिषी, आयुर्वेदज्ञ, सिद्ध महात्मा, तंत्रमंत्रज्ञ, अंग्रेजी शिक्षा पारंगत, प्रोफेसर, डाकटर, एडवोकेट, वैरिष्टर, इंजनीयर, राजकीय सेवा नियुक्त, व्यापारी, उद्योग पति, वित्तीय प्रबन्धक, निर्देशक और सलाहकार, वैज्ञानिक तकनीशियन, सैनिक व पुलिस उच्चाधिकारी , मुनीम, मेनेजर, कार्याधिकारी कुशल और प्रतिष्ठा प्राप्तजनों की संख्या हजारों की संख्या में है । अस्तु कुछ अतिविशिष्ट उल्लेखनीय महानुभावों के नाम निर्देश ही यहाँ पर्याप्त होंगे ।<br />
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'''विद्वद्वर्ग'''- श्री महाप्रभु उद्धवाचार्यदेव, भगवान जी मिहारी, श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचंदजी, श्री नन्दजी, श्री वासुदेवजी, श्रीकेशवदेवजी, रंगदत्त गंगदत्त, बन्नाजी, बनमालजी, गयादत्तजी शास्त्री, गुलवा पंडित, श्रीवरजी, हरिहरजी, रंछोरजी, केशवदेव पांड़े, श्री जंगीरामजी (भागवत कंठाग्र पढाने वालेद्ध, बिहारी लाल शास्त्री, बिदुरजी पाठक, हरदेवजी (हाबू पंडित), बाला मौरे (भागवत वक्ता), बनमाली शास्त्री, जगनजी, गोर्धनजी शास्त्री, मगन पंडित, सैंतीरामजी, मदननरसीजी, अर्जुनजी, सोहनलालजी पांड़े, मालीराम, छंगालालजी, जनार्दनजी, वामनजी, वासुदेव शास्त्री, अनंतरामजी, पं0 छप्पाराम, विश्वनाथ शास्त्री, रिषीराम रामायणी, गोपालचन्द जी बड़े चौबे, राधाचन्दजी, अलवेली चन्दजी, वर्तमान में भी सैकड़ों की संख्या में चतुर्वेदी विद्वान हैं । भगावत और रामायण पाठियों की तो कोई गिनती ही नहीं- सहस्त्र भागवत पाठ कराने वाले श्रद्धावान को सहस्त्र से, भी अधिक पंडित केवल माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों में ही मिल सकते हैं । चतुर्वेद विद्यालय की छत्र-छाया में यहाँ संस्कृत विद्वानों की अभूत पूर्व बृद्धि हुई है ।<br />
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'''ज्योतिष'''- ज्योतिष विद्या के अनेक धुरंधर मनीषि माथुरों में हुए हैं जिनमें कुछ नाम यहाँ दिये जा रहे हैं- नृसिंह दैवज्ञ भानुचन्द दैवज्ञ अकबर के दरवारी ज्योतिषी, रमामेला पंडित, भगवानजी (इनने ज्योतिषी के अनेक दुर्लभ ग्रंथ लिखे हैं विदेशी यूनानी ओलंपिया देश की ज्योतिष का ओलंपिक शास्त्र, अरवी का रमलशास्त्र इनका लिखा तथा अनेक ग्रंथ-यंत्र आदि हमने पंडित प्रयागदत्त के पास स्वयं देखे हैं) ज्योतिर्विद पं0 शंभूरामजी (महान गणितज्ञ), नारायण पंडित, चन्द्रशेखर शास्त्री, जगन्नाथ पंडित ग्वालियर राज ज्योतिषी, प्रेमसिंह पांड़े, तालगांव, नरोत्तम मिश्र, नीकंठमिश्र, (ताजिक नीकंठीकर्ता) घंघलजी, गणेशी (तपियाँ) आदि ।<br />
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'''आयुर्वेद'''-आयुर्वेद भी हमारी सिद्ध विद्या है । इसमें प्रमुख विद्वानों के नाम हैं- हरप्रसाद जी (1822 अनूप शहर में हकीम अफजल अली से शिक्षा) इनके पुत्र सुआलाल हकीम (राजा अलवर को पुत्रोत्पत्ति), मोहन, सोहन (हिकमतप्रकाश हिकमत प्रदीप रचना), डोरा से नाड़ी निदान भैंस का उचित निदान बतलाया, घोलम मोलम, अच्चा बच्चा जी वैद, कूकाजी, नटवर जी, तप्पीराम, तपियाजी, चौबे गणेशीलाल संगीतज्ञ (चिकित्सा सागर विशाल ग्रंथ लेखक), विदुरदेव, बाबूदेव शास्त्री (चतु0 विद्यालय) लालाराम वैद्य, झूपारामजी, चक्रपाणि शास्त्री, राधाचन्द्र, मदनमोहन मुन्शी, गोपालजी, गरूड़ध्वज आदि ।<br />
यंत्रमंत्र- श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचन्दजी महाराज, श्री बासुदेवजी, श्री केशवदेवजी, श्री करूणा शंकरजी, श्री वृन्दावनजी, बटुकनाथजी, तुलारामजी, विष्णुजी, गणेश दीक्षित, गंगदत्त, कवि नवनीत, श्री बद्रीदत्तजी महाराज, कामेश्वरनाथजी, मूसरा धार चौबे, शिंभूराम चौधरी, लक्ष्मणदादा (गंगदत्त रंगदत्त के पिता), आदि ।<br />
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कर्मकांड वेद यज्ञ-विशिष्टजन नरोत्तमजी, सोहनलालजी, भगवानदत्तजी, याज्ञिक, लक्ष्मणदत्त शास्त्री, बिहारीलाल याज्ञिक, लड्डूगोपाल शास्त्री, लक्ष्मीनारायण वदेनिधि, प्रहलादजी, कन्हैयालालजी, धीरजजी सामवेदी, गोकुलचंदजी, हेलाचेला, बालाजी मौरे, धीरजजी प्रयाग घाट, कैलाशनाथ, ब्रह्मदत्त (लिंगाजी), टिम्माजी, गिरिराज शास्त्री, हुदनाजी, सैंगरजी, आदि ।<br />
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===गुरूगादी पदासीन ग्रहस्थ आचार्य===<br />
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श्री गोपाल मन्दिर पीठ के – आचार्यों में श्री मौजीरामजी, मठोलजी, बंशाजी, श्री नन्दनजी महाराज (इनसे शास्त्रार्थ में पराजय के भय से स्वामीदयानंद रातोंरात भाग गये थे), श्री योगीराज बाबा रज्जूजी, 1920 वि0 जन्म (योगचर्या सिद्ध दिव्य दृष्ठा), श्री विष्णुजी महाराज जन्म 1956 वि0 )गोपाल वेद पाठशाला संस्थापक) तथा वर्तमान में श्री विठ्ठलेशजी महाराज इस गादी के सरल शुद्ध विद्वान इष्ट सेवी और आदर्श चरित्र हैं । चौबों में इनके हजारों शिष्य हैं ।<br />
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श्री विद्या आदि पीठके – लोक वंदित सिद्ध आचार्यों में दक्ष गो़त्रिय श्री मकरंदजी महाराज 1742 वि0, श्री पतिजी 1772, श्री मोहनजी 1794, श्री गुरूशंकर मुनिजी 1822, श्री चेतरामजी 1850, स्वनामधन्य श्री शीलचंदजी बाबा गुरू 1861-1905, श्री वासुदेवजी 1887, श्री केशवदेवजी (भैयाजी) 1928, श्री शिवप्रकाशजी 1960, श्री करूणा शंकरजी 1968 वि0, आदि महानुभाव हुए हैं ।<br />
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श्री शंकर मुनिजी को जयपुर के जगन्नाथ पंडितराज सम्राट दीक्षित ने श्री विद्या यंत्रराज तथा पूजारत्न ग्रंथ समर्पित किया । इन्होंने ही श्री महाविद्यादेवी मन्दिर का शिखरबन्ध निर्माणकरा कर दीक्षित महोदय को महाविद्या उपासना की सिद्धि उपलब्ध करायी । श्री शीलचन्दजी की जिव्हा पर वाग्भज बीज मंत्र अनूप शहर में गंगा तट पर श्री गंगा माता ने स्वयं प्रगट होकर स्थापित कर बाणी सिद्ध महापुरूष बना दिया था। इनके सैकड़ों शिष्य चौबों में तथा अन्यत्र हुए है । श्री महाविद्या जी की नव पीठ प्रतिष्ठा, दशभुजी गणेश स्थापना, विश्रान्त मुकट मन्दिर तथा श्री द्वारिकाधीश स्थापना आदि अनेक महान कार्य इनके द्वारा हुए हैं । गंगदत्त रंगदत्त, ब्रह्मानन्द सरस्वती, बूंटी सिद्ध, गणेशीलाल संगीत मार्तड इनके शिष्य थे । श्री गोपाल सुन्दरी और पीतांबरा तथा वाला पद्धतियाँ इनकी रचित हैं । श्री वासुदेव बबुआजी की जिव्हा पर बाग्वादिनी सरस्वती माता विराजती थी अर्कीमन्डी के राजाध्यानसिंह, काम बन के गो0 देवकीनन्दनजी, काशी नरेश आदि इनके अनेक भक्त और शिष्य थे । श्री केशवदेव भैयाजी असाधारण तेजस्वी और शास्त्र प्रवक्ता थे । इनका नित्य आन्हिक बहुत विस्तृत तथा ग्रंथ प्रणयन अति गहन चिंतनमय था । आपकी कृपा से गो0 गोपाललालजी कठिन रोग से मुक्त तथा भरतपुर के धाऊजी को बृद्ध अवस्था में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । आपकी अनेक उपासना पद्धति श्री बालात्रिपुरसुन्दरी, बगलामुखी, भुवनेश्वरी, माता आदि की रचित हैं । श्री शिवप्रकाशजी लाल बाबा गम्भीर अल्पभाषी विद्वान थे । कलकत्ता के कार्पालक आचार्य चांवर्दिया ओझा को आपने तंत्र शास्त्र में नतमस्तक कर उससे श्री यंत्र भेंट में प्राप्त किया । श्री करूणा शंकरजी सार्वदेशिक विद्वान थे- राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रशादजी उप राष्ट्रपति बासप्पादानप्पा जत्ती राजपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी महोदय तथा मथुरा विद्वत्सभा, काशी तांत्रिक सम्मेलन, संस्कृत अकादमी उ0प्र0, गायत्रीयागदतिया, ललितात्रिपुरसुन्दरी पीठ उरई, गंगेश्वरानन्द वेद पीठ आदि से आप सम्मानित किये गये । आपके रचित तंत्र के अनेक ग्रंथ हैं । बर्तमान में इनकी गादी पर श्री पृथ्वीधरणजी विराजमान हैं जो सीधे सरल सौम्य और संकोची गम्भीर प्रकृति के हैं । श्री लालबाबा महाराज की प्रधान गादी पर श्री लक्ष्मी पतिजी (मुन्ना बाबा) विराजमान हैं, जो एकनिष्ठ उपासना तंत्र-ज्ञान और तेजस्विता की मूर्ति हैं । स्नेह भाव और सौहार्द्र इनने स्वाभाविक ही पाया है । श्री लालबाबा की पूज्य मातु श्री माया देवी (महारानीजी) भी परम बिदुषी कृपानिष्ठ और सर्व कल्याण भावना मयी महान आत्मा थीं, जिनके आशीर्वाद प्राय: सिद्ध और मंगलकारी ही होते थे । इस गादी के हजारों शिष्य चौबे तथा अन्य लोग हैं । इस गादी के शिष्य धूजी चौबे ने घोर अकाल की आशंका वाले अवर्षण काल में मंत्र बल से इन्द्र लोक जाकर इन्द्रदेव द्वारा मूसलाधार वर्षा करायी जिससे उनका नाम ही मूसराधार चौबे पड़ गया । <br />
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श्री यमुनाजी धर्मराज पीठ-श्री शंकर मुनिजी के वंश की दूसरी गादी में श्री आसारामजी, हरिदत्तजी, दामोदरजी, (टुन्नौजी) श्री बद्रीदत्तजी श्री पूर्णानन्दजी तथा अब इस वंश में श्री कामेश्वरनाथ जी (दिल्ली गौरीशंकर मन्दिर) तथा श्री नित्यानन्दजी (दिल्ली राम मन्दिर) के व्यवस्था आचार्य हैं । यहाँ भी प्राचीन श्री शंकर मुनिजी द्वारा अर्चित श्री यंत्र की तांत्रिक उपासना है ।<br />
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श्री पीठ रत्न कुंड- इस शक्ति पीठ के प्रथम आचार्य श्री गंगारामजी (घघलजी) 1820 वि0 थे जो रीवांनरेश नघुराज सिंह के तीर्थ गुरू थे । अपनी श्री विद्या साधना से इनने राजा का अधमकुष्ट रोग दूर किया और भेंट में 2 गाँव पाये । इनके पुत्र सूरतरामजी 1853, तुलारामजी 1881, श्री बृन्दावनजी 1912 बहिन श्री यशोदादेवी 1914, श्री बटुकनाथजी 1944 भाई श्री भगवानजी 1946 तथा वर्तमान में तंत्र शास्त्र के मान्य विद्वान श्री विष्णुजी हैं । इस परिवार के प्राय: सभी महानुभाव तंत्र शास्त्र श्री यंत्र के एक निष्ठ आराधक ज्योतिविंद पुराणविद् तथा शाक्त संप्रदाय के प्रभाव शाली आचार्य रहे हैं । श्री विष्णुजी ने काशी के तांत्रिक सम्मेलन में मथुरा के विद्वन्मंडल का नेत्रिटत्व किया तथा यमुना पार की पैंठ बस्ती में जड़िया परिवार द्वारा श्री विद्यापीठ की स्थापना करायी है । श्री भगवानजी के कुल रत्न सपूत वर्तमान में टटिया स्थान की गादी पर हैं । जिनके हजारौं माथुर शिष्य प्रशिष्य हैं। <br />
विदुर जी तांत्रिक की बैठक-इस स्थान के आचार्य सुप्रसिद्ध भारत विख्यात विद्वान श्री गंगदत्त रंगदत्त के वंशज श्री विदुर दत्तजी तांत्रिक थे । ये श्री यंत्र उपासक एक चमत्कारी सिद्ध पुरूष थे । इनने अनेक लोगों को संकटमुक्त और दुर्गाभक्त बनाकर मंत्र दीक्षित किया था । वर्तमान में इस स्थान पर कोई प्रभाव शाली आराधक नहीं हैं ।<br />
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===माथुर समाज के विशिष्टजन===<br />
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दानवीर श्री बैजनाथजी इटावा (चतुर्वेद विद्यालय को अपना लाखों का सर्वस्वदान), चौबे रामदासजी, श्री डिब्बारामजी (जगद गुरू श्री शंकराचार्य स्वामी के पूज्य, चतुर्वेद परिषद के प्रथम अध्यक्ष) , श्री नन्दजी महाराज, श्री शीलचंदजी वासुदेवजी केशवदेवजी, महामहोपाध्याय श्री गिरधर शर्मा जी, राजा जय कृष्णदास, कुंवर जगदीशप्रशाद परमानन्द जी कृष्णानन्दजी, श्री ऋषीकेश चतुर्वेदी, बन्नाजी बंसाजी पाठक, छप्पारामजी, गजाधर प्रशादजी (चतुर्वेदी महासभा अध्यक्ष), तपस्वीराम लालगंजवारे, चतुर्भुजजी जाटवारे, गणेशी लाल जी चौधरी, गैंदाजी ककोर सर्दार, अलखूराम मिहारी, सर्दाररामलाल मिहारी, शम्भूनाथजी मैम्बर, होली पांड़े, झाऊ दामोदर चौबे, बुचईसिंह, बिक्रमाजीत कमलाकर पांड़े काजीमार, हरगोविन्द श्री वैष्णव, श्री मन्नारायणजी, चौबे द्वारिकानाथजी (द्वारिकाधीश संस्थापक), द्वारिकाप्रशादजी ।<br />
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===राजकीय सन्मानित जन===<br />
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रोहनलाल चतु0 केन्द्रीय उप रेल मंत्री, कुंवर जगदीशप्रसाद आई0सी0एस0 मुख्य सचिव वायसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल के मैम्बर उ0 प्र0, श्री नारायण जी भू0 पू0 शिक्षा निर्देशक उ0 प्र0 आकाशवाणी उप महानिदेशक, दीवान परमानन्दजी झालावाड़ के, रघुनाथदासजी कोटा राज्य दीवान, रा0 ब0 विश्वम्भरनाथ कोटा राज्य दीवान, यादराम चौबे भरतपुर राज्य मंत्री, मुन्नालालजी सूवा ग्वालियर, पृथ्वीनाथजी आई0 ए0एस0 शिक्षा सचिव उ0 प्र0, चंपाराम गिरीशचन्द्र आई0 ए0 एस0 चांसलर गोरखपुर विश्व विद्यालय, भरतचंद्र म0 प्र0 राज्य उपसचिव, मनोहरदास डिवाई जंगलात के सर्वोच्च अधिकारी, शम्भूनाथजी एस0 पी0 पद त्याग वर्तमान संसद सदस्य, भूपेन्द्रनाथ थर्ड सिक्योरिटी फोर्स के डी0 आई0 मनोहरलाल सिक्योरिटी आफीसर, त्रिलोकीनाथ चतु0 केन्द्रीय लेखा निरीक्षक, सचिव केन्द्रीय गृह विभाग, डिप्टी राधेलाल रजि0 कोआपरेटिव सोसाइटी उ0 प्र0, देवकी नन्दनजी बूंदी दीवान, सर लक्ष्मीपति जी सर्वोच्च चीफ कमिश्नर रेल विभाग, जनरल मैनेजर हिन्दमोटर्स, सतीशचन्द्र सदस्य केन्द्रीय रेलवे बोर्ड, कैलाशचन्द पाठक सीनियर गवर्मेंट रेलवे इन्सपेक्टर, प्रभातचंद्र मिश्र महाप्रबन्धक उत्तर रेलवे, मृगेन्द्र नाथ आई0 ए0 एस0 अधिकारी केन्द्र सरकार, रा0 व0 विश्वंश्वरदयाल रेवेन्यू कमिश्नर, बद्रीनाथ आई0 ए0 एस0 पुरातत्व अधिकारी मद्रास, ललित किशोरजी राजस्थान, मंत्री, सतीशचन्द्रजी मंत्री महाराष्ट्र प्रदेश ।<br />
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सेना पुलिस विभाग- डी0 पी0 मिश्र मेजर जनरल, मोहनस्वरूप एयर मार्शल, सोहनलाल मिश्र नौसेना कमांडर, जगदीश पाठक एयर इन्डिया फ्लाइट, ज्वालाप्रशादजी जटवारे मथुरा के ऐसे विद्वान थे जिन्होंने सर्वप्रथम अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर भरतपुर नरेशों और उनके राजकुमारों को अंग्रेजी पढ़ाई । नरोत्तमदास आई0 जी0 हैद्राबाद, जयेन्द्रनाथ पुलिस कमिश्नर दिल्ली, डाइरेक्टर जनरल पुलिस उ0प्र0 ,सुशीलकुमार आई0 जी0, भरतचन्द मिश्र आई0 जी0 प्र0, फणीचन्द्र नाथ आई0 जी0 मध्य प्रदेश । <br />
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न्याय- न्याय मूर्ति प्यारेलालजी जज बीकानेर, श्री ब्रजकिशोरजी इन्दौर, श्री मिश्रीलालजी प्रयाग उच्च न्यायालय, श्री शम्भूरामजी जज मध्यप्रदेश, संपादक उच्चन्यायालय निर्णय पत्रिका, समाज में बैरिष्टर वकील एडवोकेटों की संख्या भी बहुत विस्तृत है । <br />
इंजनीयर और तकनीकविद्- चंद्रसेन चौबे कलकत्ता यंत्र आविष्कारक हिन्दीबंगवासी, में, मुक्ताप्रसाद, अविनाशचन्द्र, उजागरलाल, रामस्वरूप, दिनेश चन्द्र, राकेशकुमार । 30 वि0 पू0 में माथुर भीमसेन ने मथुरा में विश्वकर्मा शिल्प शास्त्र का 1 लाख 18 हजार श्लोकों में प्राक्रत से पाली में अनुवाद शुंगकाल में किया जो 12 विभागों में था । सुखदेव माथुर के 1615 वि0- के राम काल के नलनील बानरों के सेतु शास्त्र का अब्दुलरहीम खानखाना के अनुरोध पर 15, 480 श्लोकों में अनुवाद किया इस पर खानखाना 16 हजार मुहरैं उन्हें भेटकीं । इस ग्रंथ में सेतु, जलवंध, सरिता, नहरें, तड़ाग कूपवापी आदि निर्माण का विधान था ।<br />
चिकित्सा- डा0 संपतराम, डा0 कृष्णचन्द्र, बालस्वरूप (नागपुर), उमेशचन्द्र महावीरप्रशाद (कनाडा में), राजीव रंजन, बीणांदेवी ।<br />
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'''शिक्षा-''' श्री नारायणजी, सालिगराम, दीनानाथ, बरसानेलाल, ओंकारनाथ, प्रयागनाथ, प्रो0 चंपाराम, विश्व विद्यालयों में अनेकों डीन रीडर चान्सलर प्राध्यापक हैं ।<br /><br />
'''साहित्यकार लेखक सम्पादक'''- श्री नारायणजी, बनारसीदास, जवाहरलालचतु0, दत्तराम चौबे, नारायण दत्तपाठक, द्वारिका प्रशादजी, चन्द्रशेखर शास्त्री, राधाचन्दजी, जगदीशप्रशाद, रामेश्वरप्रसाद, हास्य रसावातार जगन्नाथप्रशाद, प्रभु दयाल पांड़े प्रथम पत्रकार सम्पादक हिन्दी बंगवाली कलकत्ता, मदनलाल पत्रकार, युगलकिशोरजी, रघुनाथप्रशाद शास्त्री, सबल किशोरजी, बासुदेव कृष्ण, रामस्वरूप, बालमुकुन्द, माला रविन्दम्, राजेन्द्र रंजन ।<br />
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===श्री विश्रान्त तीर्थराज===<br />
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ब्रजमंडल की राजधानी श्री मथुरापुरी में विश्रान्त तीर्थ विश्व के तीर्थों का मुकुटमणि सब तीर्थों का पिता परम पुरातन तीर्थ हैं । सतयुग के आरंभकाल में भगवान श्री आदि नारायण (गतश्रम नारायण) प्रभु ने अपने दो अंगभूत देवों केशव माधव के द्वारा महामल्ल मधु कैटभ का संहार कराकर चतुर्मास की विश्राम निद्रा के साथ यहाँ विश्राम किया- सूर्य सुता श्री यमुना महारानीजी ने अपने भाई यमराज के सत्कार में उनके साथ स्नान किया तथा महामान्य श्री बसुदेव जी ने अपने लाढ़ले पुत्रों श्री कृष्ण बालराम के घर आने पर पूर्व संकल्पित 10 हजार गोऐं माथुर ब्राह्मणों को दान में दीं । वे यहीं यादवों की कुकुरपुरी (ककोरन) में कंस के कारागार में बन्द रहे थे अस्तु यहीं समीप में कारामहल नाम की प्राचीन काराग्रह स्थली में श्रीकृष्ण के जन्म स्थान की स्थली है । जिसे लोग आज भी नहीं जानते ।<br />
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काल पुरूष का दान- विश्रान्त के महादानों के संदर्भ में काल पुरूष दान की प्राचीन चर्चा है । दक्षिण देश का राजा गौथमां यह दान करने सुवर्ण निर्मित काल पुरूष मूर्ति को लेकर मथुरा आया बात बहुत पुरानी है । इतिहास विमर्ष से ज्ञात हुआ है कि यह 170 विक्रम संवत में हुआ । तब गोदावरी तट की काकुलमपुरी और दक्षिण पैंठण में सात वाहन (शालि वाहन) बंशी गौत्तमीपुत्र, शातकर्णी का विशाल साम्राज्य था । उसके लाढ़ले राजकुमार वाशिष्ठीपुत्र पुलुमायी को आसाध्यरोग लगा दक्षिणी पंडितों ने उसे काल ग्रास योग बताया और उसका उपाय एकमात्र काल पुरूष का दान ही ऐसा निश्चित किया । तब 21 मन सुवर्ण की रत्नों से जड़ी काल पुरूष की मूर्ति बनवाई, गयी, और पंडितों ने उसमें विधिवत काल पुरूष की प्राण प्रतिष्ठा की ।<br />
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प्रथम यह काल पुरूष काशी ले जाया गया- एक महीने तक वह भयानक दुर्जय मूर्ति काशी के गंगा तट पर खड़ी रही- कोई ब्राह्मण उसका दान न ले सका । लोग दूर से ही उसका कराल भयोत्पादक रूप देखकर कांप उठते थे तथा जो सामने आकर आँख मिलाता वह मूर्छित होकर प्राण हीन हो जाता था । तब काशी से यह महाकाल मथुरा लाया गया उस समय मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के तप तेज की सारे देश में प्रसिद्धि थी । महाराज गौत्तमीपुत्र ने कहा- 'ब्राह्मणों के ब्रह्मतेज की आज कठिन परिक्षा है' । 15 दिवस यहाँ भी किसी का इस दान को लेने का साहस नहीं हुआ, तब माथुरों ने बिचार किया-'मथुरा की बात जाती है, इस समय सिद्धपति गुरू को किसी तरह लाना चाहिये- उन्होंने 24 गायत्री मंत्र के कठिन अनुष्ठान किये हैं ।' बहुत प्रयत्नों के बाद किसी तरह वे महात्मा पधारे । उन्होंने राज से संकल्प लिया और गायत्री मंत्र से प्रथम बार जल छिड़का तो मूर्ति का रंग श्याम पड़ गया-दूसरी बार में काल पुरूष का सीस नीचे झुक गया और तीसरे मार्जन में उसके खंड खंड होकर बिखर गये । राजा और दर्शक लोग चकित रह गये और भारी जय जय कार होने लगी । माथुर मुकुट मणि धौम्य गोत्री श्री सिद्धपतिजी ने यमुना जल से मूर्ति खण्डों को धुलवाया और उससे 3 महासंभार युक्त गायत्री माता के अनुष्ठान गायत्री तीर्थ (गायत्री टीला) पर किये । इसी स्थान पर पीछे तपस्वी रूप बूटी सिद्ध ने गायत्री मंत्र सिद्ध किया । यह स्थान अभी भी माथुरों की सेवा साधना के अन्तर्गत है ।<br />
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1584 वि0 में उदयपुर चित्तोड़ के राना सांगा (संग्रामसिंह) ने बावर की मुगल दासता से मातृभूमि का उद्धार करने को स्वाधीनता प्रेमी राजपूत राजाओं का संघ मथुरा में बनाया, और एक बिशाल सेना संगठित कर फतेहपुर सीकरी के पास बावर से लोहा लिया । वास्तव में भारतीय स्वाधीनता का यह सबसे पहिला एतिहासिक अभियान था राणा सांगा ने तब मथुरा में विश्रांत पर प्रभूत द्रव्य दान किया और उससे विश्रान्त तीर्थ पर शोडष दल कमल चौकी, आरती की चौंतरी तथा ककइयाईष्टों की घाट की सीढियों एवं कुछ तिवारियाँ बनवाई, जिनके कारण विश्राम घाट का नाम सांगा नाम तीर्थ कहा जाने लगा । 1622 वि0 में जैपुर के महाराज मानसिंह ने अपने पिता बिहारीमल का तुला दान कराने को जैपुर का तुला द्वार बनवाया जो कालांतर में ढह गया । जैपुर के राजा कंसखार के समीप हाथीघोड़ा बारी लाल पत्थर की विशाल हवेली में रहते थे और बिहारी मल की रानी के सती होने का सतीबुर्ज निकट ही यमुना तट पर है । <br />
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1671 वि0 में ओरछा नरेश बुन्देले बीरसिंह ने अपार सुवर्ण राशि (81 मन) से विश्रान्त पर तुला दान किया । <br />
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इस सुवर्ण राशि को उनके तीर्थ पुरोहित गोविन्द जी ने ठुकरा दिया । किंबदंती है कि राज ने दान देते समय कुछ गर्वाक्ति पूर्ण कटु शब्द कहे जिससे पुरोहितजी रूष्ट हो गये और द्रव्य राशि का त्याग कर दिया । परन्तु एतिहासिक साक्षी कुछ और ही चित्र प्रस्तुत करती है । बीरसिंह बुंदेला शाहजादे जहाँगीर का कृपा पात्र था उसकी अकबर से नहीं बनती थी । अकबर का विश्वस्त बजीर अबुलफजल इन दोनों के प्रतिकूल बादशाह के कान भरता रहता था । इस काल में अबुलफजल दक्षिण से सुलतानी राज्यों को सम्हालता अपार सुवर्ण और रत्न राशि लेकर आगरा आ रहा था । जहाँगीर ने बुंदेले को संकेत दिया और राजा ने ग्वालियर केसमीप अबुलफजल की सैनिक टुकड़ी को खदेड़ कर बड़ी निर्दयता से बृद्ध अबुलफजल को कत्ल कर दिया । सारा अटूट सुवर्ण उसके हाथ लगा । धन लूट कर बुन्देला बहुत चिंतित हुआ- विद्वान धार्मिक शांत चित्त निरपराध विनय करते बुजुर्ग की हत्या उसे रह कर कचोट रही थी । नींद में अकसर उसे सिर नीचा किये कराहते अबुलफजल की रूह सामने दीखती थी । उसने वह द्रव्य अपने खजाने में नहीं रखा । पंडितों से पूछा तो उनने भी इस धन को 'सत्यानाशी कौड़ी' बताया और इसे किसी तीर्थ में लगादेने की सलाहदी ।<br />
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राजा तब सारा सोना लेकर सप्तपुरी शिरोमणि मथुरापुरी में आया । उसने तुलादान के प्रयास से सारा सोना दान कर अपने शरीर में व्याप्त बृद्ध हत्या को शमन करने का संकल्प लिया । गुरू गोविन्दचन्ददेव जी को यह जब ज्ञात हुआ कि यह 'हत्या की कौड़ी' है तो उन्होंने बहाना पाकर उस सारे द्रव्य को सहज ही ठुकरा दिया । तब राजा के उस द्रव्य को किसी चौबे ने भी नहीं लिया, और राजा ने केशव मन्दिर, बरसाना मंदिर, भानोखर, पान सरोवर (नन्द गाँव) गोपाल सागर समुद्र सागर नाम के बिशाल तालाब बनवाकर उस द्रव्य को ठिकाने लगाया । गोविदचन्दजी के इस त्याग की प्रशंसा में चतुर्वेदियों के कवियों ने कई कवितायें रची हैं ।<br />
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1908 वि0 में रीवाँ नरेश श्री रघुराजसिंह जी ने तुलाद्वार निर्माण कर रजत तुलादान किया । 1902 वि0 में शिंदे माधव राव (महादजी) रघुनाथ राव सीतावाई ने मुकट मंडल का मंदिर बनाया जिसके कागज परिशिष्ट में हैं । <br />
1962 वि0 में काशी नरेश श्री प्रभु नारायण सिंहजी ने तुला द्वार बनाकर 3।। मन सुवर्ण से तुला दान किया तथा 1969 वि0 में उनकी पत्नी महारानी साहिबा ने अपना पृथक तुला द्वार बनवाकर तुला दान किया । इस तुला दान की मुहरैं समस्त चतुर्वेदियों को घर घर बाँटी गई ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_18&diff=56346चतुर्वेदी इतिहास 182010-04-24T04:34:10Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==श्री बल्लभाचार्य संप्रदाय- ==<br />
1336 वि0, में प्रादुर्भावित श्री बाल गोपाल सेवा के प्रवर्तक श्री विष्णु स्वामी संप्रदाय की परम्परा को लेकर श्री बल्लभाचार्य महाप्रभु का अविर्भाव 1535 वि0, में हुआ । ये 1549 वि0 में मथुरा पधारे । इन्होंने 1550 वि0 में अपने विश्राम घाट निवास में यमुनाष्टक की रचना करने के बाद 6 बार श्री उद्धवाचार्य जी के उपदेश से तथा श्री उजागरजी के पौरोहित्य निर्देशन में ब्रज यात्रायें कीं जिनके विषद वर्णन का ग्रंथ श्री उद्धवाचार्य देव जू द्वारा लिखित 650 पृष्ठों में वर्णित हमारे संग्रह में सुरक्षित है । श्री महाप्रभु ने मथुरा ब्रज महात्म और यात्रा पद्धति का 'ब्रज मथुरा प्रकाश' नाम का ग्रंथ भी रचा है जाते हमारे ही यहाँ हैं । उनकी 6 ब्रज यात्राओं में-1-1550 वि0 ग्वालियर से पधारे तब, 2-1555 वि0 में पुष्कर से पधारे तब, 3-1571 वि0 अडैल से पधारे तब, 4-1573 वि0 पुन:, 5-1585 वि0 द्वारिकापुरी से पधारे तब और 6-1586 वि0 गोपलापुर (जतीपुरा) निवास करते तब इस प्रकार 6 ब्रज यात्राओं को सम्पन्न कर ब्रज रस की सिद्धि करने का महा मनोर्थ वर्णित है । ब्रज के प्रमुख स्थलों में इनकी भागवत परायण की 24 बैठकैं सर्व विदित हैं । 1571 वि0 की बृजयात्रा सिकन्दर लोदी काल में जब बहुला बन में पहुंची तो वहाँ के कट्टर इस्लामी फौजदार ने बहुलावन कीं पाषाण गौर की पूजा रोकदी तब माथुर श्री उद्धवदेव जी के ऋग्वेदीय गो सूक्त के पाठ से गौ ने घास खायी और हाकिम चमत्कृत और लज्जित पराजित हुआ । 1565 वि0 में कवि सम्राट सूरदास जी इनकी शरण में आये, इनके समीप ही मणि कर्णिका की एक कोठरी में रहे । 1623 वि0 में जब श्री नाथ जी मथुरा में सतघरा में विराजे थे उस फाग अवसर पर बादशाह अकबर सूरदास जी के दर्शन को आया किंन्तु सूरदास जी ने दर्शन नहीं दिये । श्री आचार्यजी का आसुर व्यामोह 1587 वि0 में हुआ ।<br />
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गो0 श्री बिठ्टलनाथजी- 1572 वि0 में जन्मे श्री बिठ्टलनाथजी का मथुरा बास 1622 से 1627 वि0 तब रहा । रानी दुर्गावती ने उनके और उनके 7 पुत्रों के लिये सतघरा महुल्ले में सात हवेलियां युक्त विशाल भवन बनवाया । 1623 वि0 में उनके पुत्र गो0 गिरधर जी श्री नाथ जी को जतीपुरा से मथुरा ले आये इस होली उत्सव में बादशाह अकबर आया । श्री गोसांई जी ने अपने समय में श्रीनाथ जी की सेवा का नियमित विस्तार कर कीर्तन साहित्य और कीर्तन की राग पद्धति का विकास करने को अष्ट छाप के कवियों की स्थापना की । <br />
1600 वि0 में गो0 विठ्टलनाथजी ने ब्रजयात्रा की तब श्री उजागरवंश को पौरोहित्य का वृत्ति पत्र लिखा-<br />
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'स्वस्ति श्री मद्विट्ठल दीक्षितानां मथुरा क्षेत्रे तीर्थ पुरोहितो उजागर शर्मा माथुरोस्ति- वि0 संवत 1600 ।<br />
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इस लेख की फोटो प्रति 1989 वि0 में कांकरौली के गोस्वामी श्री ब्रजभूषण लाल ने अपनी ब्रज यात्रा के अवसर पर ली थी जो अब काँकरौली विद्या विभाग के ग्रंथागार में है । इस सम्बन्ध में प्राचीन मर्यादा के अनुसार श्रीराधाचन्द ने लिखा है- चतुर्णा संप्रदायाणां माचार्ये धर्म वित्तमै: , उद्धवोजागरौ पादौ पूजितानिश्च भक्तित: ।<br />
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1644 वि0 में गोस्वामीजी को गोकुल की भूमि का पट्टा मिला और तब से वे गोकुल में रहने लगे । श्री उद्धवाचार्य देवजी ने ही 1559 वि0 में पूरनमलखत्री के द्रव्य से श्रीनाथजी का मन्दिर हीरामन मिस्त्री से तैयार कराया और अनेक विध सेवाओं और उत्सवों के बाद औरंगजेब के प्रहार से रक्षा हेतु श्री नाथजी को 1726 वि0 में मेवाड़ ले जाया गया ।<br />
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इस वंश में गो0 श्री गोकुलनाथजी, श्री हरिरामजी, श्री गोपेश्वरजी , तिलकायत श्री गोवर्धननाथजी, श्री दाऊजी, श्री यदुनाथजी, श्री रमणप्रभु जी, श्रीमधुसूदनलालजी, श्रीद्वारकेशलालजी, श्री माधवरायजी, श्री गोपाललालजी, आदि अनेक आदरणीय महापुरूष हुए हैं । जिनके हस्तलेख चौबों के यहाँ हैं ।<br />
चैतन्य महाप्रभु- इनका माध्व गौडीय संप्रदाय है । 1572 वि0 में श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा पधारे । यमुना देखकर प्रेमोन्मत्त हुए जल में कूद पड़े और हरिकीर्तन नृत्य करने लगे । उस समय श्री उद्धवाचार्य देवजी के पौत्र विरक्त वृत्तिधारी श्री दामोदरजी मिहारी वहाँ थे, वे भी अपनी माधवेन्द्र पुरी जी से प्राप्त दीक्षा के अनुसार कीर्तन नृत्य करने लगे । श्री चैतन्य देव ने उन्हें आलिंगन किया और गुरू भाई तथा तीर्थ गुरू की तरह मान दिया चरणों में गिर गये ।<br />
<poem> <br />
मथुरा आइया केल विश्राम स्नान । यमुना तट चव्वीस घाटे प्रभु केल स्नान ।।<br />
सेई विप्र प्रभु केल दिखायतीर्थ स्थान । स्वायंभू विश्रान्त दीर्घविष्णु भूतेश्वर ।।<br />
महाविद्या गोकर्ण देखला निस्तर । सेई ब्राह्मण प्रभु संग ते लाइल ।।<br />
मधुबन तालबन कुमुदबन गेइला । देखला बारह बने ब्रज धाम ।।</poem><br />
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विश्रान्त से श्री दामोदर जी उन्हें घर ले गये, प्रसाद अर्पण आदि करके प्रभु का सस्नेह सत्कार किया । प्रभु ने उनके साथ मथुरा परिक्रमा के सभी तीर्थ दर्शन किये, मथुरा के केशव देव दीर्घविष्णु महाविद्या भूतेश्वर गोकर्ण आदि तीर्थ दर्शन किये फिर उन्हीं के साथ 12 बनोंयुक्त ब्रज की यात्रा की । श्री दामोदर देव ने उन्हैं तीर्थों कुंडों में स्नान आचमन देव दर्शन महात्म श्रवण कराया । अक्रूर घाट पर कुछ दिन निवास कर जब उनके साथी उन्हैं अपने देश ले जाने का विचार करने लगे तो महाप्रभु ने उन्हीं दामोदर जी से इसकी आज्ञा चाही । आज्ञा मिलने पर वे जब चलने लगे तो श्री दामोदर जी ने उनका साथ नहीं छोड़ा । वह मथुरिया माथुर विप्र दामोदर देव प्रयाग तक उनके साथ गये । रास्ते में महाबन के समीप अलीपुर खानपुर के बन में पठानों से संघर्ष हुआ और श्री दामोदरजी ने पठानों से मुक्ति दिलायी । वे सभी कीर्तन भक्त होकर वैश्नव पठान बन गये । बंगाल से फिर महाप्रभु ने ब्रज रसानुभव के लिय भी सनातन रूप जीव मधु रधुनाथ रघुनाथ भट्ट आदि अनेक अपने भक्त ब्रज में भेजे । 1574 वि0 में श्री सनातन और रूप गोस्वामी मथुरा आये । श्री रूप जी ने 1600 वि0 में श्री भगवान देवजी के यहाँ से ब्रज का ग्रंथ तथ अन्य अनेक ग्रंथ अवलोकन कर अपना 'मथुरा महात्म' ग्रंन्थ लिखा । सनातन जी नित्य मथुरा में पवित्र पूजनीक माथुर ब्राह्मणों के घरों से भिक्षा लेने आते थे । उन्हैं चौबे जी नारायण अझुमियाँ के घर से पहिले मदना नाम का बालक और फिर मोर मुकटवारों श्याम सुन्दर विग्रह जिसे उन्होनें मदनमोहन ही माना प्राप्त हुआ । ये घटनायें बहुत विस्तार से वर्णित हैं जिन्हें यहाँ संक्षेप में दिया जा रहा है । श्री नारायण जी अझुमियाँ की पत्नी किशोरी देवी थीं जो अपने ठाकुर मोर मुकटवारे को बड़े लाढ से लढाकर सेवा करती थीं । उनके विषय में कुछ पद्य मिले हैं –<br />
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<poem>सनातन चरनन लोटत डोलै, पदरज सीस चढावै ।<br />
जसुधा जैसी लाढ़ लढ़ाती, माता के गुन गावै । <br />
भक्त सिरोमनि ध्न्य किसोरी, श्यामसुन्दर प्रिय दीन्हों ।<br />
जन्म सुफल करदियौ सनातन, सुजस लोक में लीन्हों ।।<br />
मेरौ लाल सम्हार राखियो, बड़े जतन ते पाल्यौ ।<br />
मेरौ घर सूनों भयौ बाबा, तू कछू जादू डार्यो ।।<br />
जनम-जनम जस गांऊरी मैया, सेवा सिद्ध करूंगो ।<br />
मदन मोहन मेरैं प्रानन प्यारौ, तन मन धन अरपूंगो ।।<br />
तेरे घर तौ सदां रहैं है, मेरैंहू कुटी में खेलैं ।।<br />
दूध मलाई माखन रबड़ी, भक्तन छाक सकेलै ।।<br />
उर लिपटाइ मदनमोहन कौ, भाग्यौ रस मदमांतौ ।<br />
रही किसोरी मौंन देखती, बस कछु नहीं जु चलातौ ।।<br />
</poem><br />
ये ठाकुर मदन मोहन जी अब करौली में विराजते हैं जो जैपुर रहकर करौली नरेश की याचना पर जैपुर महाराज ने उन्हें अर्पित किये हैं । चौबों को वृन्दावन में मन्दिर बन जाने पर श्री सनातन जी ने यच्छव भेंट के रूप में 1 घोड़ा दुशाला जोड़ी, कड़े सिरपेच नगद दक्षिणा और जब तक वहाँ रहें नित्य मधुर प्रसाद दिये जाने का नेग बांधा जो अभी भी करौली में मान्य है ।<br />
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==मल्ल विद्या ==<br />
माथुर चौबों की मल्ल श्रेष्ठता भारत प्रसिद्ध हैं । मधु कैटभ माधव केशव बलदाऊ जी भीमसेन कंसराज चांडूल मुष्टिक शल तोशल कूट आदि परम्परा प्राचीन थी, किन्तु समय की मांग के अनुसार चौवों ने औरंगजेब काल में इसको विशेष विस्तार दिया । इस काल में हरएक घर में रोगी दुर्बल को छोड़कर प्राय: सभी पुरूष पहलवान बन गयें थे । मथुरा के इन मल्ल सम्राटों ने पंजाब, दिल्ली हरियाणा महाराष्ट्र मध्य प्रदेश बिहार दक्षिण देश सभी खण्डों के नामी-नामी पहलवानों को धूल चटायी थी । इनकी संख्या हजारों में है, अत: सूची न देकर कुछ खास-खास गुरूओं के नाम ही देना पर्याप्त होगा- <br />
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अलीदत्त कुलीदत्त, रमजीलैया, हौआ चौवे, हरिगुरू, खूंगसिंह, दाऊगुरू, भंग्गाजी, उद्धवसिंह, खैला पांड़े, भगवंतचौवे, बिलासा जी, खौनाबाबा, गिल्हरगुरू, चंके बंके, खुनखुन पाई, धीरा फकीरा, नत्थू, पीनूरसका, बंदर सिकन्दर, जगन्नाथ उस्ताद, गलगलजी, भंवरजी, माखनजी, लछमनजी, चूंचू, गेसीलाल, देविया, महादेवा, मोथा जी, द्वारा जी, माखनजी, सिरियागुरू, जौहरी, मेघा, दंगी गुरू, मेघाजी, तपियां, खुश्याला, हिंम्मां, भौंदा, टैंउआं, गोपीनाथजी, विशनजी, बल्देवजी, विसंभरजी (सप्पे), गुलची, गुमानी, हनुमान मिश्र पिनाहट, कल्यान जोनमाने चंदपुर, कन्हईसिंह कमतरी, रौनभौंन मैंनपुरी, बेचेलाल मैंनपुरी, जै गोपाल धौलपुर आदि आदि ।<br />
==काव्य साहित्य==<br />
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चतुर्वेदियों में कवियों की परम्परा खूब फली फूली है सैकड़ों कवि हरेक शताद्धियों में हुए हैं । उन सभी का विवरण प्रस्तुत करना संभव नहीं है इनमें से कुछ प्रमुख और ज्ञातव्य जनों के नाम देना उर्चित होगा । इनमें महाकवि बिहारी लाल विश्वख्याति के शीर्षस्थ कवि हैं जो हमारी उपेक्षा के अन्ध कूप में पड़े हैं । <br />
माथुर चतुर्वेदी कवि सूची- <br />
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(1400-1500वि0,) जैनन्द मिहारी 1485, पद्माचारी 1489, (1500-1600 वि,) परसोत्तम बट्ठिया, परसा, 1518, मलूक चौबे 1538, छीत स्वामी 1572, छीहल 1575, विट्ठलदास चीत्तौड़ 1586, कान्हरदास चित्तौड़ 1599, कृपाराम 1598, (1600-1700 वि0), मोहन चौबे निर्गुण काव्य, केशव उचाढ़ा महाकवि बिहारी के पिता 1620, दामोदर चौवे 1622 समय प्रबन्ध, सुलखान चौवे 1620, सुखदेव माथुर 1615 (नील वानर का सेतुशास्त्र 4330 वि0पू0 रचित का अब्दुलरहीम खानखाना के लिय काव्यानुवाद), गंगाधर 1627, चतुर्भुज मिश्र 1624, मोहन चौबे 1630 सहज सनेही, माना 1631, राधा मोहन रावत 1632 मैनपुरी के राजदीवान, दत्तूकवि 1648 केशव माला, कान्हर चौवे 1657, महाकवि बिहारीलाल सतसईकर्ता 1660, उदैराम माथुर, 1660, माथुर नरसिंह 1665 मथुरा महात्म बीकानेर अनूप लाइब्रेरी में, वाण पाठक 1674 कवि चरित्र अकबर काल, चौबेलाल 1687, कवीन्द्र पाठक चन्दपुर 1668, नीलकंठ मिश्र 1648, गोविन्द अटल 1670, बूंदी के (सालिगंराम, हीरालाल, अमरकृष्ण, कृष्णदास 1615) जीवाराम चौवे मथुरा महात्म 1627, (1700-1800 वि0,) हरीबल्लभ 1701, गो0 हरिवंश शिष्य 30 हजार पद, हरदत्त चौब 1715 महाविद्या रत्न, कुलपति मिश्र 1717 संग्राम सार, सुखदेव मिश्र 1728, हरदेव मिश्र 1760, चन्द्रभान चौबे 1731, अखैराम मिश्र 1730, चौबेलाल ककोर 1740, कृष्ण कवि ककोर 1740 बिहार के मानजे सत सई पर छंद युक्त टीका, श्यामलाल मिश्र 1738, गणपति मिश्र 1756, कृष्णदेव कृष्ण 1750 भागवत प्रबन्ध, लच्छीराम 1756 करूणा भरण, नीलकंठ मिश्र (सोमनाथ के पिता) 1755, प्रभू 1757, रामकृष्ण 1754, लोकनाथ मिश्र बून्दी 1752, पत्नी रानी चौबे 1754, श्रीधर मिश्र 1756, भोजा मिश्र 1768, मनीराम मिश्र 1778, गंगेश मिश्र 1773, रत्तीराम मिश्र 1780, सोमनाथ मिश्र 1694 (रस पीयूष निधि रासपवाध्यायी) (1800-1900 वि0) ब्रजलाल 1807, आनंद कवि 1821 कोकसार, बालकृष्ण बसुआ 1826 बिहारी के वंशज, सूदन 1801-1812 सुसजान चरित्र, जीवाराम बूंदी 1814, मधुसूदन चौबे हाथरस 1839, रामाश्वमेध, विक्रम 1830 सांझी बत्ती सी, मधुसूदन इटावा 1839, जुगल चौबे 1836 दोहावली, कृष्ण कवि चर्चरी मैनपुरी 1853 तिमिर प्रदीप, मुरली सौरौं 1843 रत्नाबली चरित्र, राधाकिशन चित्र कूट 1849, प्यारे मिश्र 1841, वसींधर पांड़े 1804, हरप्रसाद मिश्र 1856 भाषा तिलक, धांधू चौबे 1860, गुमन कवि 1861 गुमान गढ (भरतपुर युद्ध), जवाहर तिवारी 1862 ब्रज वर्ण, सीतल दास (टटिया स्थान वृन्दावन) 1860 गुलजार चमन आदि, नाथूराम 1874, पिरभू रामकिसन छबीले चौबे 1873, बनमालजी 1882-1976, कल्याण 1880, कलीराम 1884 सुदामा चरित्र, नारायण पंडित 1882, गंगदत्त 1870, चतुर्भुज मिश्र 1880 अलंकार अमी भरतपुर बल्देवसिंह के राज कवि, डिब्बाराम पांड़े दिवेस 1897 ब्रजराज रसामृत, लालजी मिहारी 1897, शीलचन्द्र शील 1893, (1900-2000 वि0) घासीराम चन्दपुर 1908 रतलाम के राज कवि छगन मगन छंगालाल मिहारी 1132 गोविन्द माला, गंगाराम चौबे 1932 संगीत सेतु कश्मीर नरेश के लिये, प्रताप जोनमाने 1937, सभा विनोद, चौबे दत्तराम 1938 दानलीला, चतुर्भुज पाठक 'कंज' 1930-1977 यमक मंजरी, उदैराम 1934 जोग लीला, हनुमान 1930, भोलांराम मालाधारी 1930 काशीनरेश की मुहरैं दान, नवनीत कविनीत 1932 गोपीप्रेम पीयूष प्रवाह मूर्खशतक आदि, माखनचौबे पांड़े 1930 पूरनमासी लीला (करहला के रासधारियों के गुरू), हरदेवा 1934 मोहज्ञान संग्रह, गंगाधर चौबे दूसरे 1944 नागलीला, ऋषीकेश चतु0 आगरा 1998-2030 राम कृष्ण काव्य भंग का लोटा आदि अनेक, मानिक पाठक 1950 मानिक बोध, पुरूषोत्तम दास पुरा कन्हैरा 1967, खड़ग कवि 1884-1935 (दतिया के राजा भवानीसिंह के दरबार में) खड़गवानी, खरखरे छंद आदि, हितराम माथुर 1950, हरीप्रसाद चौबे 1969 महाविद्या रत्न संस्कृत वि0 वि0 बनारस के पुस्तकालय में, अमृतलाल चतुर्वेदी आगरा 1962, गोविन्द तिवारी 1967 रेल पच्चीसी, हीरालाल बूंदी 1916, चतुर्भुज रावत मैनपुरी 1960 पानांजलि आदि 65 ग्रंथ, (ख्याललावनी के उस्ताद अखाड़ा झंडासिंह मथुरा)1958 देवीलाल ककोर, भैरौसिंह ककोर, (रिसाल गिर अखाड़ा) बंसीगुरू गणेश चौवे, हरदेवा, गुलवा अझुमियाँ, मोहन पाँड़े दीवान जी मुकदम आदि, कवि भगवानदत्त 1957-2031 सुपर्णा, रामदयाल उचाढ़ा 2013 काव्य कालिंदी, क्याखूब चौबे रामप्रशाद 1953 दानलीला रंगीली होली, बालमुकुन्द 'मुकुन्द' मुदित मुकुन्द 1984 यमुना लहरी ब्रजभागवत आदि 84 रचनायें, विदुर देव वैद्य 1959-1992 जवकुश नाटक संगीत, जुगादी राम चौबे 1980 काव्य संग्रह मथुरा महात्म, उमरावसिंह पाँड़े 1959, गयादत्त शास्त्री गया 1974 कंस वध, गोकुलचन्द चन्दजी 2010, गोविन्द 2043 ब्रजवानी कमल सतसई, श्री नारायण चतुर्वेदी श्रीवर 1998, बालकृष्ण खिलाखिल जहाँगीर पुर एटा 1989, सीजीराम उचाढ़ा 1989 यमुनाष्टक छंद, वैजनाथ चौबे बैजू इटावा 1994 भजन पुष्पाँ जलि, बालकृष्ण हाथरस 1997, ओमीनन्द 1990, नरेन्द्रनाथ लखनऊ 1992, नवीनचन्द्र पुराकन्हैरा 1997, बिहारीलाल हीरालाल 1995 गणेश विरूदावली, घनश्याम निर्भीक 2040 समुद्रमंथन उद्धव गोपी संवाद, दीनानाथी सुमनेश 1997, (2000 से आगे 2043 तक) दूधाधारी 2000, नाथा पाठक 2010, बनमाली शास्त्री 2020, धीरजलाल जाटवारे 2010, अमृतलाल चतु0 आगरा 2005, हालस्यरसावतार जगन्नाथ प्रशाद चतु0 मलयपुर 2002, चन्द्रशेखर शास्त्री 2020, महेन्द्र 2000, राजन्द्र रंजन 2040, महेन्द्र नेह 2041, बमवटुक 2030, शैल चतुर्वेदी 2043, रामकुमार चंचल 2015, डा0 बरसाने लाल 2043 हाथी के पंख, सुरेश हाथरस 2043,छेदालाल छेदभरतपुर 2043, घनश्याम घनश्री 225, राजेन्द्र खट्टो 2010, मनमोहन चतु0 2027, विष्णु विराट 2043, शंकरलाल काहौ 2043, विजय कवि 2043 व्यंग हास्य, कैलाशनाथ मस्त (पान वाले) 2025, गोवर्धन पुरा कन्हैरा 2010, महादेव प्रशाद वैद्य 2042, उग्रसेन निर्मल कानपुर 2042 सत्यनारायण कथा, मकुन्द महल वारे 2043, गोर्धन बुदौआ 2043 (पोरबंदर),<br />
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==संगी नृत्य अभिनय==<br />
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संगीत- मथुरा के चौबों में संगीत के बड़े नामी कलाकार हुए हैं । चौबों को इस कला से स्वाभाविक प्रेम रहा है । इन कलाओं के कुछ विशिष्ट गुणीजनों के नाम यहाँ दिये जा रहे हैं –<br />
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श्री छीत स्वामी 1572-1642 वि0 (अष्टछाप के कीर्तन कार), श्रीस्वामी ललित किशोरी जी 1758, श्रीस्वामी हरिदास टटिया स्थान के नित्य विहार गायक आचार्य, रागी पागी चौवे 1876, बालो चौवे हाथरस 1898, अंवाराम खंबाराम छिनोजी 1900, चन्दनजी गनपतजी 1929-30,बालजी 1970, जमना दास 1930, हरदेव बाबा 1937, बुलबुल मनोहर औघड़ 1970 (अलगोजा), रामचन्द पाठक 1860 (गणेशीलालजी के संगीत गुरू दत्तराम जी के पितामह), लालन जी 1988 (इसराज बादक), छैया नचैया गनपतजी 1980 (तबला के अद्वितीयवादक), गणेशीलालजी संगीत सम्राट 1903-1968 वि0 विश्व विख्यात संगीत आचार्य, इनके भाई चौखेलाल अजुद्धी मुकुंदी 1907 वि0, बंसीधर 1887 वि0 धनीराम 1904, भगवानदास सारंगीवादक कछपुरा 1998, चंदनजी के शिष्यवासुदेव (घुर्रेजी), शिवकुमार लछमनजी बालजी रंछोर पांड़े 1960-2010 तक, अच्चा-पच्चा, मोतीवारौ, सोहनलाल पारूआ, 1986 आदि ।<br />
बर्तमान 2043 वि0 में- सुखदेव, मुरारीलाल, श्रीकांत, बिहारीलाल, लव, कुश, रमेशराजा, भोला पाठक, मधुसूदन, कृपानाथ, हरदेव, छगनलाल, मदन लाल, बिहारी मुंशी, जगदीश बंसरीवाला, भगवानदास सारंगी वादक कछपुरा, गोविन्दराम (पुच्चड़जी) इसराज मास्टर, नगरा, फगड़ा, बिदुर, केशवदेव आदि ।<br />
नृत्य- नृत्य चौबे समुदाय की एक विशिष्ट कला है । इसमें विरनृत्य (नरसिंह लीला), श्रृगार नृत्य चौपाई होली की, हास्य नृत्य स्वांग भगत, अद्भुद भगत, भक्ति शांत रस रामलीला में आयोजित होते हैं । नृत्य के प्रभावी कलाकार रीछा टोली श्री गनपतजी (छैयानचैया) मानिकलाल पाठक, फैली मनोरथा दुमियाँ जगन्नाथ नन्दू चट्ठा चाऊचाचा रघुवर कंचन छोटे, नीतलाल (गनपतजी), गरूड़ पाठक, विटना पाठक, केदार, भैयालाल, आदि हुए हैं ।<br />
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अभिनय- भगत अब समाप्त हो चुकी हैं । संगीत नौंटंकी के सवांग यदा कदा होते रहते हैं , नाटक लवकुश नाटक के बाद नहीं हुआ । कृष्ण लीला की प्रस्तुति कुछ अधिकार लोलुप लोगों ने विखंडित कर दी । रामलीला का उद्योग बढ़ रहा है ।<br /><br />
रामलीला- चतुर्वेदी समाज के लिये यह एक कमाऊ उद्योग है । लगभग 32 मंडलियाँ प्रति वर्ष आश्विनमास में देश के कोने-कोने में जाकर लीला प्रदर्शन करतीं और धन तथा यश अर्जित करती हैं । अनुमान है कि प्रति वर्ष 3 लाख रूपया इस उद्योग से जो केवल 10-15 दिन ही में समाप्त हो जाता है चतुर्वेदी किशोर कलाकारों को बट जाता है । कुछ मंडल साल भर तक भी जहाँ तहाँ जाते रहते हैं । इस कला उद्योग को और अधिक ऊँचा उठाने और सुसंगठित किये जाने की आवश्यकता है ।<br /><br />
रामलीला का आंरभ मथुरा के चतुर्वेदी सुप्रसिद्ध रामभक्त श्री गिरराजदत्त जी (खपाटाचाचे बाद में ज्ञानानन्दजी कार्ष्णि) के द्वारा 1900 वि0 के लगभग हुआ इनके पुत्र श्री वैकुंठदत्तजी तथा प्रधान शिष्य श्री गोविन्दजी नायक हनुमानजी द्वारा रामलीला का परमोत्कर्ष हुआ । इनके परिवारों की मण्डली अभी भी श्रेष्ठ मण्डली मानी जाती है । इस परम्पराओं को और आगे श्री गंगेजी विष्णुजी वैजनाथ जी मथु रेशदत्तजी बासुदेव जी हरदेवजी बढ़ाते जा रहे हैं। <br />
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==हर्षोल्लास और मेले==<br />
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आमोद प्रमोद और विनोद माथुरों के जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं । यहाँ अनेक अवसरों पर उत्सवों और मेलों का सरस आयोजन होता ही रहता है । इनमें से कुछ प्रमुख हैं –<br />
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'''1. कंस का मेला'''- कार्तिक शु0 10 को होने वाला यह मेला चौबे समाज का प्रमुख मेला है । इसमें कागज का बड़ा कंस का पुतला बनाकर कंस टीले पर ले जाया जाता है- कृष्ण बलराम की सुसज्जित सवारी हाथी पर वहाँ जाती है । चतुर्वेदी समुदाय के सभी नर नारी किशोर युवक वृद्ध राजा महाराजाओं की प्रदत्त अदभुद पोषाकों शस्त्रों विशाल लट्ठों को लेकर उन्माद के साथ नाचते कूदते गाते हुए इसमें भाग लेते हैं । बाहर कार्यकरत उद्योगी बन्धु भी इस अवसर पर आते हैं । मथुरा के वायु मंडल में इस समय बड़ा आनन्द और उत्साह रहता है । कुछ सांस्कृतिक झांकियों और सजावट रोशनी से भी वर्तमान में मेला का रूप भव्य बना है । कंस का मेला वज्रनाभ काल 3042 वि0 पू0 से है । हरिवंश पुराण के अनुसार मथुरा के यादव गण माथुरों के साथ नृत्य गान उल्लास के उत्सव मनाते थे, जिन्हें द्वारिका प्रयाण के बाद वे द्वारिकापुरी में तथा माथुर प्रजा मथुरा में मनाती थी । प्राणिनी ने अष्टध्यायी 1143 वि0 पू0 में तथा कंस वध नाटक में इसका प्रस्तुतिकरण किया है । इसमें उद्घोष की जाने वाली साखी भी शौरसेनी प्राकृत से किंचित ही रूपांतरित हैं यथा-'कंस्स बलरम्मा लै आम्मैं सखा सूरसेन ''''''''''' (हम) सूरसेन ''''''' ।' कंस्सा मारू मधुप्पुरी आए कंसा के घर केह घव्वराए आदि ।<br />
भारयुक्त हैं- इनमें मानिक<br />
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'''2. नृसिंह लीला'''- यह वीर नृत्न प्रदर्शन माथुरों के पुरूषार्थ परिक्षण का महान महोत्सव है । वैशाख शु0 14 से 3-4 तक यह मेला अनेक चौबों के मुहल्लों में चलता रहता है । यह अयोध्या पति भगवान राम के समय 4044 वि0पू0 से यहाँ स्थापित है, जब शत्रुहन द्वारा लवणासुर का वध किये जाने पर नवनिर्मित मथुरा में वे पधारे, विश्रान्ततीर्थ पर तीर्थस्नान रात्रिजागरण ब्रत किया तब निशा काल यापन के लिये मथुरा के चतुर्वेदियों ने इस वीर विजय शास्त्रीय द्वंद युद्ध शैली में प्रवर्तित इस लीला का उनके सन्मुख प्रस्तुतीकरण किया । एतिहासिक प्रमाण तथ्य यह हैं कि इस लीला में विनायक गणेश से सिंधुर दैत्य, देवी से मर्हिषासुर, हनुमान से अहिरावण अधकट्, ब्रत्तासुर से इन्द्र श्रीबाराहदेव से हिरण्याक्ष का द्वंद रात्रि में तथा निशान्त में ब्रह्मा से शंकर युद्ध पांचवा ब्रह्मा का मुख छेदन शिव से ताड़कारसुर का तथा अन्त में भगवान नृसिंह का प्रादुर्भाव होकर हिरयकशिपु का संहार होता है । त्रेता का मरू बाजा, बाराहों का वर्हा वाद्य भर्रा झांझ, नृसिंह का सिंह प्रहार मुद्राओं में शौर्य नृत्य इसकी विशेषतायें हैं तथा लीला में राम रावण, शत्रुघ्न लवण, कृष्ण कंस का युद्ध अनुपस्थित होने से इसे राम कालीन मानने की विंचार धारा को दृढ़ बल मिलता है । नृसिंह भगवान के चेहरे (मुखौटे) भी पर्याप्त भारयुक्त हैं- इनमें मानिक चौक का 15 सेर चौबच्चा का 10 सेर मारू गली का 8 सेर गोलपारे का 5 सेर बताये जाते हैं । चौबच्चा का चेहरा मुलतान से 1710 वि0 में शाहजहाँ काल में चौबे खड़गराम पाठक लाये थे । कहते हैं । मुलतान के हाकिम अबुल फतह ने हिन्दुओं के देवता नरसिंह की असलियत की परिक्षा करनी चाही । उसके निर्देश से पंजाबी पहलवान गवरू को हिरण्याक्ष बनाने के लिये खूब बादाम घी आदि खुराक खिलाकर नरसिंह को पराजित करने को तैयार किया गया । उस समय नरसिंह के स्वरूप के लिये उससे भी अधिक बलवान पहलवान की खोज हुई पंजाब में सिख औरंगजेब विरोधी थे, वे पहलवानों योद्धाओं पटेवाजों का बड़ा सम्मान और पोषण करते थे, मथुरा के चौबे पहलवान इसी आधार से पंजाब जाते रहते थे । खड़गराम पाठक भी वहीं थे, वे बुलाये गये और उन्हें नरसिंह का लीला पद अर्पित किया गया । लाखों दर्शकों की अति उत्सुक भीड़ में चौबेजी ने देव आवेश में आकर हिरण्याक्ष को चिड़िया की तरह मरोड़ कर उछाल कर गोद में ले लिया और उसका तीक्ष्ण नखों से उदर विदीर्ण कर डाला । यह देख उसके पक्ष के गुंडे पहलवानों ने चौबे को मार डालने का गिरोह बनाया, ज्ञात होते ही खड़गजी रातों रात उस मुखौटे को कपड़े में लपेट पीठ से बांध वहाँ से मथुरा भाग आये और यहाँ अगले वर्ष से उसी चेहरे से लीला प्रदर्शित की । ये मथुरा से चन्दपुर जाकर भी कुछ काल अपने परिवार के पाठकों के साथ रहे थे । वर्तमान में इनके वंश के 'खरगराम के पाठक' मथुरा में चौबच्चा मुहल्ला में अभी रहते हैं । अन्य मेलों में- होली की चौपई (नृत्य गान), संवत्सर के फूल डोल, यमुना छट, रामनवमी, आषाढी दंगल, राधा अष्टमी वृन्दावन टटिया स्थान, रामलीला, यमदुतिया, गोचारन, अखैनौमी, देव उठान (परिक्रमायें), आदि हैं । प्राय: सभी मेले सुरीली भांग ठंडाई, उत्तम मिष्टान्न भोजन, चीज चट्टोंनी, सैर सपाटे के लिये आकर्षण के केन्द्र हैं जिन्हें आज की नई पाश्चात्य सभ्यता में पिकनिक का खोल उढाया जा रहा है ।समय की मार से मधुवन, सतोहा, गरूड़-गोविन्द, करौटनी गोर्धन, द्वारिकाधीश के होरी खेल के दर्शन, बन विहार आदि मेले मंहगाई के पेट में समागये हैं । <br />
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==विव्दद्वर्ग और विशिष्टजन==<br />
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माथुरों में विद्वानों और गुणीजनों की बहुत संख्या है । चतुर्वेद विद्यालय के द्वारा संस्कृत पण्डितों की बहुत बृद्धि हुई है, तथा ये मथुरा बृन्दावन गोकुल दाऊजी जतीपुरा, गोवर्धन बरसाना नन्दगाँव आदि अनेक क्षेत्रों के संस्कृत विद्यालयों में प्रधानाध्यापक और अध्यापक हैं । इनमें वेदपाठी, कथा वाचक, कर्मकाँडी, ज्यौतिषी, आयुर्वेदज्ञ, सिद्ध महात्मा, तंत्रमंत्रज्ञ, अंग्रेजी शिक्षा पारंगत, प्रोफेसर, डाकटर, एडवोकेट, वैरिष्टर, इंजनीयर, राजकीय सेवा नियुक्त, व्यापारी, उद्योग पति, वित्तीय प्रबन्धक, निर्देशक और सलाहकार, वैज्ञानिक तकनीशियन, सैनिक व पुलिस उच्चाधिकारी , मुनीम, मेनेजर, कार्याधिकारी कुशल और प्रतिष्ठा प्राप्तजनों की संख्या हजारों की संख्या में है । अस्तु कुछ अतिविशिष्ट उल्लेखनीय महानुभावों के नाम निर्देश ही यहाँ पर्याप्त होंगे ।<br />
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'''विद्वद्वर्ग'''- श्री महाप्रभु उद्धवाचार्यदेव, भगवान जी मिहारी, श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचंदजी, श्री नन्दजी, श्री वासुदेवजी, श्रीकेशवदेवजी, रंगदत्त गंगदत्त, बन्नाजी, बनमालजी, गयादत्तजी शास्त्री, गुलवा पंडित, श्रीवरजी, हरिहरजी, रंछोरजी, केशवदेव पांड़े, श्री जंगीरामजी (भागवत कंठाग्र पढाने वालेद्ध, बिहारी लाल शास्त्री, बिदुरजी पाठक, हरदेवजी (हाबू पंडित), बाला मौरे (भागवत वक्ता), बनमाली शास्त्री, जगनजी, गोर्धनजी शास्त्री, मगन पंडित, सैंतीरामजी, मदननरसीजी, अर्जुनजी, सोहनलालजी पांड़े, मालीराम, छंगालालजी, जनार्दनजी, वामनजी, वासुदेव शास्त्री, अनंतरामजी, पं0 छप्पाराम, विश्वनाथ शास्त्री, रिषीराम रामायणी, गोपालचन्द जी बड़े चौबे, राधाचन्दजी, अलवेली चन्दजी, वर्तमान में भी सैकड़ों की संख्या में चतुर्वेदी विद्वान हैं । भगावत और रामायण पाठियों की तो कोई गिनती ही नहीं- सहस्त्र भागवत पाठ कराने वाले श्रद्धावान को सहस्त्र से, भी अधिक पंडित केवल माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों में ही मिल सकते हैं । चतुर्वेद विद्यालय की छत्र-छाया में यहाँ संस्कृत विद्वानों की अभूत पूर्व बृद्धि हुई है ।<br />
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'''ज्योतिष'''- ज्योतिष विद्या के अनेक धुरंधर मनीषि माथुरों में हुए हैं जिनमें कुछ नाम यहाँ दिये जा रहे हैं- नृसिंह दैवज्ञ भानुचन्द दैवज्ञ अकबर के दरवारी ज्योतिषी, रमामेला पंडित, भगवानजी (इनने ज्योतिषी के अनेक दुर्लभ ग्रंथ लिखे हैं विदेशी यूनानी ओलंपिया देश की ज्योतिष का ओलंपिक शास्त्र, अरवी का रमलशास्त्र इनका लिखा तथा अनेक ग्रंथ-यंत्र आदि हमने पंडित प्रयागदत्त के पास स्वयं देखे हैं) ज्योतिर्विद पं0 शंभूरामजी (महान गणितज्ञ), नारायण पंडित, चन्द्रशेखर शास्त्री, जगन्नाथ पंडित ग्वालियर राज ज्योतिषी, प्रेमसिंह पांड़े, तालगांव, नरोत्तम मिश्र, नीकंठमिश्र, (ताजिक नीकंठीकर्ता) घंघलजी, गणेशी (तपियाँ) आदि ।<br />
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'''आयुर्वेद'''-आयुर्वेद भी हमारी सिद्ध विद्या है । इसमें प्रमुख विद्वानों के नाम हैं- हरप्रसाद जी (1822 अनूप शहर में हकीम अफजल अली से शिक्षा) इनके पुत्र सुआलाल हकीम (राजा अलवर को पुत्रोत्पत्ति), मोहन, सोहन (हिकमतप्रकाश हिकमत प्रदीप रचना), डोरा से नाड़ी निदान भैंस का उचित निदान बतलाया, घोलम मोलम, अच्चा बच्चा जी वैद, कूकाजी, नटवर जी, तप्पीराम, तपियाजी, चौबे गणेशीलाल संगीतज्ञ (चिकित्सा सागर विशाल ग्रंथ लेखक), विदुरदेव, बाबूदेव शास्त्री (चतु0 विद्यालय) लालाराम वैद्य, झूपारामजी, चक्रपाणि शास्त्री, राधाचन्द्र, मदनमोहन मुन्शी, गोपालजी, गरूड़ध्वज आदि ।<br />
यंत्रमंत्र- श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचन्दजी महाराज, श्री बासुदेवजी, श्री केशवदेवजी, श्री करूणा शंकरजी, श्री वृन्दावनजी, बटुकनाथजी, तुलारामजी, विष्णुजी, गणेश दीक्षित, गंगदत्त, कवि नवनीत, श्री बद्रीदत्तजी महाराज, कामेश्वरनाथजी, मूसरा धार चौबे, शिंभूराम चौधरी, लक्ष्मणदादा (गंगदत्त रंगदत्त के पिता), आदि ।<br />
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कर्मकांड वेद यज्ञ-विशिष्टजन नरोत्तमजी, सोहनलालजी, भगवानदत्तजी, याज्ञिक, लक्ष्मणदत्त शास्त्री, बिहारीलाल याज्ञिक, लड्डूगोपाल शास्त्री, लक्ष्मीनारायण वदेनिधि, प्रहलादजी, कन्हैयालालजी, धीरजजी सामवेदी, गोकुलचंदजी, हेलाचेला, बालाजी मौरे, धीरजजी प्रयाग घाट, कैलाशनाथ, ब्रह्मदत्त (लिंगाजी), टिम्माजी, गिरिराज शास्त्री, हुदनाजी, सैंगरजी, आदि ।<br />
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===गुरूगादी पदासीन ग्रहस्थ आचार्य===<br />
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श्री गोपाल मन्दिर पीठ के – आचार्यों में श्री मौजीरामजी, मठोलजी, बंशाजी, श्री नन्दनजी महाराज (इनसे शास्त्रार्थ में पराजय के भय से स्वामीदयानंद रातोंरात भाग गये थे), श्री योगीराज बाबा रज्जूजी, 1920 वि0 जन्म (योगचर्या सिद्ध दिव्य दृष्ठा), श्री विष्णुजी महाराज जन्म 1956 वि0 )गोपाल वेद पाठशाला संस्थापक) तथा वर्तमान में श्री विठ्ठलेशजी महाराज इस गादी के सरल शुद्ध विद्वान इष्ट सेवी और आदर्श चरित्र हैं । चौबों में इनके हजारों शिष्य हैं ।<br />
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श्री विद्या आदि पीठके – लोक वंदित सिद्ध आचार्यों में दक्ष गो़त्रिय श्री मकरंदजी महाराज 1742 वि0, श्री पतिजी 1772, श्री मोहनजी 1794, श्री गुरूशंकर मुनिजी 1822, श्री चेतरामजी 1850, स्वनामधन्य श्री शीलचंदजी बाबा गुरू 1861-1905, श्री वासुदेवजी 1887, श्री केशवदेवजी (भैयाजी) 1928, श्री शिवप्रकाशजी 1960, श्री करूणा शंकरजी 1968 वि0, आदि महानुभाव हुए हैं ।<br />
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श्री शंकर मुनिजी को जयपुर के जगन्नाथ पंडितराज सम्राट दीक्षित ने श्री विद्या यंत्रराज तथा पूजारत्न ग्रंथ समर्पित किया । इन्होंने ही श्री महाविद्यादेवी मन्दिर का शिखरबन्ध निर्माणकरा कर दीक्षित महोदय को महाविद्या उपासना की सिद्धि उपलब्ध करायी । श्री शीलचन्दजी की जिव्हा पर वाग्भज बीज मंत्र अनूप शहर में गंगा तट पर श्री गंगा माता ने स्वयं प्रगट होकर स्थापित कर बाणी सिद्ध महापुरूष बना दिया था। इनके सैकड़ों शिष्य चौबों में तथा अन्यत्र हुए है । श्री महाविद्या जी की नव पीठ प्रतिष्ठा, दशभुजी गणेश स्थापना, विश्रान्त मुकट मन्दिर तथा श्री द्वारिकाधीश स्थापना आदि अनेक महान कार्य इनके द्वारा हुए हैं । गंगदत्त रंगदत्त, ब्रह्मानन्द सरस्वती, बूंटी सिद्ध, गणेशीलाल संगीत मार्तड इनके शिष्य थे । श्री गोपाल सुन्दरी और पीतांबरा तथा वाला पद्धतियाँ इनकी रचित हैं । श्री वासुदेव बबुआजी की जिव्हा पर बाग्वादिनी सरस्वती माता विराजती थी अर्कीमन्डी के राजाध्यानसिंह, काम बन के गो0 देवकीनन्दनजी, काशी नरेश आदि इनके अनेक भक्त और शिष्य थे । श्री केशवदेव भैयाजी असाधारण तेजस्वी और शास्त्र प्रवक्ता थे । इनका नित्य आन्हिक बहुत विस्तृत तथा ग्रंथ प्रणयन अति गहन चिंतनमय था । आपकी कृपा से गो0 गोपाललालजी कठिन रोग से मुक्त तथा भरतपुर के धाऊजी को बृद्ध अवस्था में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । आपकी अनेक उपासना पद्धति श्री बालात्रिपुरसुन्दरी, बगलामुखी, भुवनेश्वरी, माता आदि की रचित हैं । श्री शिवप्रकाशजी लाल बाबा गम्भीर अल्पभाषी विद्वान थे । कलकत्ता के कार्पालक आचार्य चांवर्दिया ओझा को आपने तंत्र शास्त्र में नतमस्तक कर उससे श्री यंत्र भेंट में प्राप्त किया । श्री करूणा शंकरजी सार्वदेशिक विद्वान थे- राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रशादजी उप राष्ट्रपति बासप्पादानप्पा जत्ती राजपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी महोदय तथा मथुरा विद्वत्सभा, काशी तांत्रिक सम्मेलन, संस्कृत अकादमी उ0प्र0, गायत्रीयागदतिया, ललितात्रिपुरसुन्दरी पीठ उरई, गंगेश्वरानन्द वेद पीठ आदि से आप सम्मानित किये गये । आपके रचित तंत्र के अनेक ग्रंथ हैं । बर्तमान में इनकी गादी पर श्री पृथ्वीधरणजी विराजमान हैं जो सीधे सरल सौम्य और संकोची गम्भीर प्रकृति के हैं । श्री लालबाबा महाराज की प्रधान गादी पर श्री लक्ष्मी पतिजी (मुन्ना बाबा) विराजमान हैं, जो एकनिष्ठ उपासना तंत्र-ज्ञान और तेजस्विता की मूर्ति हैं । स्नेह भाव और सौहार्द्र इनने स्वाभाविक ही पाया है । श्री लालबाबा की पूज्य मातु श्री माया देवी (महारानीजी) भी परम बिदुषी कृपानिष्ठ और सर्व कल्याण भावना मयी महान आत्मा थीं, जिनके आशीर्वाद प्राय: सिद्ध और मंगलकारी ही होते थे । इस गादी के हजारों शिष्य चौबे तथा अन्य लोग हैं । इस गादी के शिष्य धूजी चौबे ने घोर अकाल की आशंका वाले अवर्षण काल में मंत्र बल से इन्द्र लोक जाकर इन्द्रदेव द्वारा मूसलाधार वर्षा करायी जिससे उनका नाम ही मूसराधार चौबे पड़ गया । <br />
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श्री यमुनाजी धर्मराज पीठ-श्री शंकर मुनिजी के वंश की दूसरी गादी में श्री आसारामजी, हरिदत्तजी, दामोदरजी, (टुन्नौजी) श्री बद्रीदत्तजी श्री पूर्णानन्दजी तथा अब इस वंश में श्री कामेश्वरनाथ जी (दिल्ली गौरीशंकर मन्दिर) तथा श्री नित्यानन्दजी (दिल्ली राम मन्दिर) के व्यवस्था आचार्य हैं । यहाँ भी प्राचीन श्री शंकर मुनिजी द्वारा अर्चित श्री यंत्र की तांत्रिक उपासना है ।<br />
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श्री पीठ रत्न कुंड- इस शक्ति पीठ के प्रथम आचार्य श्री गंगारामजी (घघलजी) 1820 वि0 थे जो रीवांनरेश नघुराज सिंह के तीर्थ गुरू थे । अपनी श्री विद्या साधना से इनने राजा का अधमकुष्ट रोग दूर किया और भेंट में 2 गाँव पाये । इनके पुत्र सूरतरामजी 1853, तुलारामजी 1881, श्री बृन्दावनजी 1912 बहिन श्री यशोदादेवी 1914, श्री बटुकनाथजी 1944 भाई श्री भगवानजी 1946 तथा वर्तमान में तंत्र शास्त्र के मान्य विद्वान श्री विष्णुजी हैं । इस परिवार के प्राय: सभी महानुभाव तंत्र शास्त्र श्री यंत्र के एक निष्ठ आराधक ज्योतिविंद पुराणविद् तथा शाक्त संप्रदाय के प्रभाव शाली आचार्य रहे हैं । श्री विष्णुजी ने काशी के तांत्रिक सम्मेलन में मथुरा के विद्वन्मंडल का नेत्रिटत्व किया तथा यमुना पार की पैंठ बस्ती में जड़िया परिवार द्वारा श्री विद्यापीठ की स्थापना करायी है । श्री भगवानजी के कुल रत्न सपूत वर्तमान में टटिया स्थान की गादी पर हैं । जिनके हजारौं माथुर शिष्य प्रशिष्य हैं। <br />
विदुर जी तांत्रिक की बैठक-इस स्थान के आचार्य सुप्रसिद्ध भारत विख्यात विद्वान श्री गंगदत्त रंगदत्त के वंशज श्री विदुर दत्तजी तांत्रिक थे । ये श्री यंत्र उपासक एक चमत्कारी सिद्ध पुरूष थे । इनने अनेक लोगों को संकटमुक्त और दुर्गाभक्त बनाकर मंत्र दीक्षित किया था । वर्तमान में इस स्थान पर कोई प्रभाव शाली आराधक नहीं हैं ।<br />
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===माथुर समाज के विशिष्टजन===<br />
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दानवीर श्री बैजनाथजी इटावा (चतुर्वेद विद्यालय को अपना लाखों का सर्वस्वदान), चौबे रामदासजी, श्री डिब्बारामजी (जगद गुरू श्री शंकराचार्य स्वामी के पूज्य, चतुर्वेद परिषद के प्रथम अध्यक्ष) , श्री नन्दजी महाराज, श्री शीलचंदजी वासुदेवजी केशवदेवजी, महामहोपाध्याय श्री गिरधर शर्मा जी, राजा जय कृष्णदास, कुंवर जगदीशप्रशाद परमानन्द जी कृष्णानन्दजी, श्री ऋषीकेश चतुर्वेदी, बन्नाजी बंसाजी पाठक, छप्पारामजी, गजाधर प्रशादजी (चतुर्वेदी महासभा अध्यक्ष), तपस्वीराम लालगंजवारे, चतुर्भुजजी जाटवारे, गणेशी लाल जी चौधरी, गैंदाजी ककोर सर्दार, अलखूराम मिहारी, सर्दाररामलाल मिहारी, शम्भूनाथजी मैम्बर, होली पांड़े, झाऊ दामोदर चौबे, बुचईसिंह, बिक्रमाजीत कमलाकर पांड़े काजीमार, हरगोविन्द श्री वैष्णव, श्री मन्नारायणजी, चौबे द्वारिकानाथजी (द्वारिकाधीश संस्थापक), द्वारिकाप्रशादजी ।<br />
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===राजकीय सन्मानित जन===<br />
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रोहनलाल चतु0 केन्द्रीय उप रेल मंत्री, कुंवर जगदीशप्रसाद आई0सी0एस0 मुख्य सचिव वायसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल के मैम्बर उ0 प्र0, श्री नारायण जी भू0 पू0 शिक्षा निर्देशक उ0 प्र0 आकाशवाणी उप महानिदेशक, दीवान परमानन्दजी झालावाड़ के, रघुनाथदासजी कोटा राज्य दीवान, रा0 ब0 विश्वम्भरनाथ कोटा राज्य दीवान, यादराम चौबे भरतपुर राज्य मंत्री, मुन्नालालजी सूवा ग्वालियर, पृथ्वीनाथजी आई0 ए0एस0 शिक्षा सचिव उ0 प्र0, चंपाराम गिरीशचन्द्र आई0 ए0 एस0 चांसलर गोरखपुर विश्व विद्यालय, भरतचंद्र म0 प्र0 राज्य उपसचिव, मनोहरदास डिवाई जंगलात के सर्वोच्च अधिकारी, शम्भूनाथजी एस0 पी0 पद त्याग वर्तमान संसद सदस्य, भूपेन्द्रनाथ थर्ड सिक्योरिटी फोर्स के डी0 आई0 मनोहरलाल सिक्योरिटी आफीसर, त्रिलोकीनाथ चतु0 केन्द्रीय लेखा निरीक्षक, सचिव केन्द्रीय गृह विभाग, डिप्टी राधेलाल रजि0 कोआपरेटिव सोसाइटी उ0 प्र0, देवकी नन्दनजी बूंदी दीवान, सर लक्ष्मीपति जी सर्वोच्च चीफ कमिश्नर रेल विभाग, जनरल मैनेजर हिन्दमोटर्स, सतीशचन्द्र सदस्य केन्द्रीय रेलवे बोर्ड, कैलाशचन्द पाठक सीनियर गवर्मेंट रेलवे इन्सपेक्टर, प्रभातचंद्र मिश्र महाप्रबन्धक उत्तर रेलवे, मृगेन्द्र नाथ आई0 ए0 एस0 अधिकारी केन्द्र सरकार, रा0 व0 विश्वंश्वरदयाल रेवेन्यू कमिश्नर, बद्रीनाथ आई0 ए0 एस0 पुरातत्व अधिकारी मद्रास, ललित किशोरजी राजस्थान, मंत्री, सतीशचन्द्रजी मंत्री महाराष्ट्र प्रदेश ।<br />
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सेना पुलिस विभाग- डी0 पी0 मिश्र मेजर जनरल, मोहनस्वरूप एयर मार्शल, सोहनलाल मिश्र नौसेना कमांडर, जगदीश पाठक एयर इन्डिया फ्लाइट, ज्वालाप्रशादजी जटवारे मथुरा के ऐसे विद्वान थे जिन्होंने सर्वप्रथम अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर भरतपुर नरेशों और उनके राजकुमारों को अंग्रेजी पढ़ाई । नरोत्तमदास आई0 जी0 हैद्राबाद, जयेन्द्रनाथ पुलिस कमिश्नर दिल्ली, डाइरेक्टर जनरल पुलिस उ0प्र0 ,सुशीलकुमार आई0 जी0, भरतचन्द मिश्र आई0 जी0 प्र0, फणीचन्द्र नाथ आई0 जी0 मध्य प्रदेश । <br />
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न्याय- न्याय मूर्ति प्यारेलालजी जज बीकानेर, श्री ब्रजकिशोरजी इन्दौर, श्री मिश्रीलालजी प्रयाग उच्च न्यायालय, श्री शम्भूरामजी जज मध्यप्रदेश, संपादक उच्चन्यायालय निर्णय पत्रिका, समाज में बैरिष्टर वकील एडवोकेटों की संख्या भी बहुत विस्तृत है । <br />
इंजनीयर और तकनीकविद्- चंद्रसेन चौबे कलकत्ता यंत्र आविष्कारक हिन्दीबंगवासी, में, मुक्ताप्रसाद, अविनाशचन्द्र, उजागरलाल, रामस्वरूप, दिनेश चन्द्र, राकेशकुमार । 30 वि0 पू0 में माथुर भीमसेन ने मथुरा में विश्वकर्मा शिल्प शास्त्र का 1 लाख 18 हजार श्लोकों में प्राक्रत से पाली में अनुवाद शुंगकाल में किया जो 12 विभागों में था । सुखदेव माथुर के 1615 वि0- के राम काल के नलनील बानरों के सेतु शास्त्र का अब्दुलरहीम खानखाना के अनुरोध पर 15, 480 श्लोकों में अनुवाद किया इस पर खानखाना 16 हजार मुहरैं उन्हें भेटकीं । इस ग्रंथ में सेतु, जलवंध, सरिता, नहरें, तड़ाग कूपवापी आदि निर्माण का विधान था ।<br />
चिकित्सा- डा0 संपतराम, डा0 कृष्णचन्द्र, बालस्वरूप (नागपुर), उमेशचन्द्र महावीरप्रशाद (कनाडा में), राजीव रंजन, बीणांदेवी ।<br />
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'''शिक्षा-''' श्री नारायणजी, सालिगराम, दीनानाथ, बरसानेलाल, ओंकारनाथ, प्रयागनाथ, प्रो0 चंपाराम, विश्व विद्यालयों में अनेकों डीन रीडर चान्सलर प्राध्यापक हैं ।<br /><br />
'''साहित्यकार लेखक सम्पादक'''- श्री नारायणजी, बनारसीदास, जवाहरलालचतु0, दत्तराम चौबे, नारायण दत्तपाठक, द्वारिका प्रशादजी, चन्द्रशेखर शास्त्री, राधाचन्दजी, जगदीशप्रशाद, रामेश्वरप्रसाद, हास्य रसावातार जगन्नाथप्रशाद, प्रभु दयाल पांड़े प्रथम पत्रकार सम्पादक हिन्दी बंगवाली कलकत्ता, मदनलाल पत्रकार, युगलकिशोरजी, रघुनाथप्रशाद शास्त्री, सबल किशोरजी, बासुदेव कृष्ण, रामस्वरूप, बालमुकुन्द, माला रविन्दम्, राजेन्द्र रंजन ।<br />
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===श्री विश्रान्त तीर्थराज===<br />
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ब्रजमंडल की राजधानी श्री मथुरापुरी में विश्रान्त तीर्थ विश्व के तीर्थों का मुकुटमणि सब तीर्थों का पिता परम पुरातन तीर्थ हैं । सतयुग के आरंभकाल में भगवान श्री आदि नारायण (गतश्रम नारायण) प्रभु ने अपने दो अंगभूत देवों केशव माधव के द्वारा महामल्ल मधु कैटभ का संहार कराकर चतुर्मास की विश्राम निद्रा के साथ यहाँ विश्राम किया- सूर्य सुता श्री यमुना महारानीजी ने अपने भाई यमराज के सत्कार में उनके साथ स्नान किया तथा महामान्य श्री बसुदेव जी ने अपने लाढ़ले पुत्रों श्री कृष्ण बालराम के घर आने पर पूर्व संकल्पित 10 हजार गोऐं माथुर ब्राह्मणों को दान में दीं । वे यहीं यादवों की कुकुरपुरी (ककोरन) में कंस के कारागार में बन्द रहे थे अस्तु यहीं समीप में कारामहल नाम की प्राचीन काराग्रह स्थली में श्रीकृष्ण के जन्म स्थान की स्थली है । जिसे लोग आज भी नहीं जानते ।<br />
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काल पुरूष का दान- विश्रान्त के महादानों के संदर्भ में काल पुरूष दान की प्राचीन चर्चा है । दक्षिण देश का राजा गौथमां यह दान करने सुवर्ण निर्मित काल पुरूष मूर्ति को लेकर मथुरा आया बात बहुत पुरानी है । इतिहास विमर्ष से ज्ञात हुआ है कि यह 170 विक्रम संवत में हुआ । तब गोदावरी तट की काकुलमपुरी और दक्षिण पैंठण में सात वाहन (शालि वाहन) बंशी गौत्तमीपुत्र, शातकर्णी का विशाल साम्राज्य था । उसके लाढ़ले राजकुमार वाशिष्ठीपुत्र पुलुमायी को आसाध्यरोग लगा दक्षिणी पंडितों ने उसे काल ग्रास योग बताया और उसका उपाय एकमात्र काल पुरूष का दान ही ऐसा निश्चित किया । तब 21 मन सुवर्ण की रत्नों से जड़ी काल पुरूष की मूर्ति बनवाई, गयी, और पंडितों ने उसमें विधिवत काल पुरूष की प्राण प्रतिष्ठा की ।<br />
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प्रथम यह काल पुरूष काशी ले जाया गया- एक महीने तक वह भयानक दुर्जय मूर्ति काशी के गंगा तट पर खड़ी रही- कोई ब्राह्मण उसका दान न ले सका । लोग दूर से ही उसका कराल भयोत्पादक रूप देखकर कांप उठते थे तथा जो सामने आकर आँख मिलाता वह मूर्छित होकर प्राण हीन हो जाता था । तब काशी से यह महाकाल मथुरा लाया गया उस समय मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के तप तेज की सारे देश में प्रसिद्धि थी । महाराज गौत्तमीपुत्र ने कहा- 'ब्राह्मणों के ब्रह्मतेज की आज कठिन परिक्षा है' । 15 दिवस यहाँ भी किसी का इस दान को लेने का साहस नहीं हुआ, तब माथुरों ने बिचार किया-'मथुरा की बात जाती है, इस समय सिद्धपति गुरू को किसी तरह लाना चाहिये- उन्होंने 24 गायत्री मंत्र के कठिन अनुष्ठान किये हैं ।' बहुत प्रयत्नों के बाद किसी तरह वे महात्मा पधारे । उन्होंने राज से संकल्प लिया और गायत्री मंत्र से प्रथम बार जल छिड़का तो मूर्ति का रंग श्याम पड़ गया-दूसरी बार में काल पुरूष का सीस नीचे झुक गया और तीसरे मार्जन में उसके खंड खंड होकर बिखर गये । राजा और दर्शक लोग चकित रह गये और भारी जय जय कार होने लगी । माथुर मुकुट मणि धौम्य गोत्री श्री सिद्धपतिजी ने यमुना जल से मूर्ति खण्डों को धुलवाया और उससे 3 महासंभार युक्त गायत्री माता के अनुष्ठान गायत्री तीर्थ (गायत्री टीला) पर किये । इसी स्थान पर पीछे तपस्वी रूप बूटी सिद्ध ने गायत्री मंत्र सिद्ध किया । यह स्थान अभी भी माथुरों की सेवा साधना के अन्तर्गत है ।<br />
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1584 वि0 में उदयपुर चित्तोड़ के राना सांगा (संग्रामसिंह) ने बावर की मुगल दासता से मातृभूमि का उद्धार करने को स्वाधीनता प्रेमी राजपूत राजाओं का संघ मथुरा में बनाया, और एक बिशाल सेना संगठित कर फतेहपुर सीकरी के पास बावर से लोहा लिया । वास्तव में भारतीय स्वाधीनता का यह सबसे पहिला एतिहासिक अभियान था राणा सांगा ने तब मथुरा में विश्रांत पर प्रभूत द्रव्य दान किया और उससे विश्रान्त तीर्थ पर शोडष दल कमल चौकी, आरती की चौंतरी तथा ककइयाईष्टों की घाट की सीढियों एवं कुछ तिवारियाँ बनवाई, जिनके कारण विश्राम घाट का नाम सांगा नाम तीर्थ कहा जाने लगा । 1622 वि0 में जैपुर के महाराज मानसिंह ने अपने पिता बिहारीमल का तुला दान कराने को जैपुर का तुला द्वार बनवाया जो कालांतर में ढह गया । जैपुर के राजा कंसखार के समीप हाथीघोड़ा बारी लाल पत्थर की विशाल हवेली में रहते थे और बिहारी मल की रानी के सती होने का सतीबुर्ज निकट ही यमुना तट पर है । <br />
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1671 वि0 में ओरछा नरेश बुन्देले बीरसिंह ने अपार सुवर्ण राशि (81 मन) से विश्रान्त पर तुला दान किया । <br />
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इस सुवर्ण राशि को उनके तीर्थ पुरोहित गोविन्द जी ने ठुकरा दिया । किंबदंती है कि राज ने दान देते समय कुछ गर्वाक्ति पूर्ण कटु शब्द कहे जिससे पुरोहितजी रूष्ट हो गये और द्रव्य राशि का त्याग कर दिया । परन्तु एतिहासिक साक्षी कुछ और ही चित्र प्रस्तुत करती है । बीरसिंह बुंदेला शाहजादे जहाँगीर का कृपा पात्र था उसकी अकबर से नहीं बनती थी । अकबर का विश्वस्त बजीर अबुलफजल इन दोनों के प्रतिकूल बादशाह के कान भरता रहता था । इस काल में अबुलफजल दक्षिण से सुलतानी राज्यों को सम्हालता अपार सुवर्ण और रत्न राशि लेकर आगरा आ रहा था । जहाँगीर ने बुंदेले को संकेत दिया और राजा ने ग्वालियर केसमीप अबुलफजल की सैनिक टुकड़ी को खदेड़ कर बड़ी निर्दयता से बृद्ध अबुलफजल को कत्ल कर दिया । सारा अटूट सुवर्ण उसके हाथ लगा । धन लूट कर बुन्देला बहुत चिंतित हुआ- विद्वान धार्मिक शांत चित्त निरपराध विनय करते बुजुर्ग की हत्या उसे रह कर कचोट रही थी । नींद में अकसर उसे सिर नीचा किये कराहते अबुलफजल की रूह सामने दीखती थी । उसने वह द्रव्य अपने खजाने में नहीं रखा । पंडितों से पूछा तो उनने भी इस धन को 'सत्यानाशी कौड़ी' बताया और इसे किसी तीर्थ में लगादेने की सलाहदी ।<br />
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राजा तब सारा सोना लेकर सप्तपुरी शिरोमणि मथुरापुरी में आया । उसने तुलादान के प्रयास से सारा सोना दान कर अपने शरीर में व्याप्त बृद्ध हत्या को शमन करने का संकल्प लिया । गुरू गोविन्दचन्ददेव जी को यह जब ज्ञात हुआ कि यह 'हत्या की कौड़ी' है तो उन्होंने बहाना पाकर उस सारे द्रव्य को सहज ही ठुकरा दिया । तब राजा के उस द्रव्य को किसी चौबे ने भी नहीं लिया, और राजा ने केशव मन्दिर, बरसाना मंदिर, भानोखर, पान सरोवर (नन्द गाँव) गोपाल सागर समुद्र सागर नाम के बिशाल तालाब बनवाकर उस द्रव्य को ठिकाने लगाया । गोविदचन्दजी के इस त्याग की प्रशंसा में चतुर्वेदियों के कवियों ने कई कवितायें रची हैं ।<br />
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1908 वि0 में रीवाँ नरेश श्री रघुराजसिंह जी ने तुलाद्वार निर्माण कर रजत तुलादान किया । 1902 वि0 में शिंदे माधव राव (महादजी) रघुनाथ राव सीतावाई ने मुकट मंडल का मंदिर बनाया जिसके कागज परिशिष्ट में हैं । <br />
1962 वि0 में काशी नरेश श्री प्रभु नारायण सिंहजी ने तुला द्वार बनाकर 3।। मन सुवर्ण से तुला दान किया तथा 1969 वि0 में उनकी पत्नी महारानी साहिबा ने अपना पृथक तुला द्वार बनवाकर तुला दान किया । इस तुला दान की मुहरैं समस्त चतुर्वेदियों को घर घर बाँटी गई ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_17&diff=56344चतुर्वेदी इतिहास 172010-04-24T04:26:06Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
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==भदाबर खंड==<br />
भदावन प्राचीन यादव राज्य (डबरा) की बृष्णि शाखा में बसुदsव वंश का प्रमुख क्षेत्र है । पौराणिंक विवंरण के अनुसार यहाँ चंद्रवंशी ययाति पुत्र पुरू के बंशधरों में महाराजा रंतिदेव का 4540 वि0 पू0 में राज्य यमुना चर्मण्वती के तटों पर था । राजा रंतिदेव की पुरी रापुरी का तब नाम दसपुर दस्युपुर या त्रास दस्युपुर श्यौपुर था मांधाता त्रसदस्यु ने दस्युओं को दस्यु कर्म से विरत करने को कठोर त्रास दिए थे । महाराज रंतिदेव पहिले महामेध यज्ञों के कर्ता होने के कारण इनके यज्ञों में हजारौं पशु देवबलि में अर्पित होते थे जिन के चर्म नदी में डालने के कारण नदी का नाम चर्मण्वती हुआ तथा अस्थियाँ भूविवरों वर्षा खातों में डालने वे भर्का प्रसिद्ध थे । एक दिन राजा ने एक गौ के नेत्रों से अश्रुधारा बहते देखी और उसके हृदय में करूणा का स्त्रोत उमड़ने से उसने यज्ञ प्रथा बंद करदी और दान दया अतिथि सेवा के रूप में धर्म का व्रत लिया, तब उपकी 200 पाक शालाओं में भोजन बनाने वाले 2000 पाक शास्त्री काम करते थे तथा प्राय: समस्त प्रजा जन घरों में भोजन न बनाकर राज्य भोजनालयों के मान्य अतिथि होते थे । इस महासत्र से इन्द्र कुपित हुआ अवर्षण अकाल पड़ा और राजा स्वयं मुट्ठीभर अत्र और एक कमंडलु जल को बन बन भटकने लगा परिक्षा हेतु जब राजा 48 दिन की क्षुधा के बाद बन में से बीनकर घास के दाने लाया रोटी बनायी और एक कमंडल जल खोज कर सपिरवार ग्राम लेते बैंठा कि द्वार पर चांडाल अतिथि ने शब्द किया और राजा के सत्कार रूप में सारा अत्र और पानी उदस्थ कर लिया- यह दृढब्रत देख भगवान प्रगट हुए और राजा को महादानीयों में श्रेष्ठ पद दिया । इससे द्रवित हो राजा ने अपना सारा राज्य और सम्पत्ति ब्राम्ह्मणों को दान में देदी और आप सपरिवार हरिघाम को गया वह माथुर गुरू बशिष्ठ की सेवा कर आंगिरस कुत्स कुल में आत्म समर्पित हुआ । 3082 वि0 पू0 में इस क्षेत्र में इक्ष्वाकु सूर्य वंश के महाराव मांधाता के पुत्र अंवरीष मथुरा वासी के भाई राजा मुचुकुंद नरेश का राज्य था जो देवासुर संग्राम में देवों की विजय करा कर अखंड निद्रा हेतु अपनी स्थापित पुरिका नगरी पुरा और उसके समीपन के भूकंदरा स्थान (कन्हैया) में शयन कर रहा था ।<br />
<br />
इसी समय पर जरासन्ध के कालयवन के साथ 17 वीं चढ़ाई की तब श्री कृष्ण बलराम अपने इस यादव क्षेत्र में अपने भाई बन्धुओं में छिप गये । काल यवन ने कन्दरा में सोते मुचकुन्द को श्री कृष्ण समझा और पादप्रहार करते ही वह उसकी नेत्र ज्वाला से भस्म हो गया । मुचकुन्छ का राज्य भी चर्मवती तट के दुर्गम भूविवरों के क्षेत्र में था । महत कांतार (हतकांतबन) विंध्याटवी (अटेर) तथा विंध्यकानन(भिंड) इसके एतिहासिक साक्षी हैं ।<br />
भदावर नामकरण- इस क्षेत्र का भद्रावर्त या भदावर नाम श्री कृष्ण के भाई बलभद्र बहिन सुभद्र तथा उनकी माता रोहिणी के परिवार विस्तार के कारण हुआ । देवकी का परिवार मथुरा क्षेत्र में तथा रोहिणी का परिवार भद्रक्षेत्र में श्री वसुदेवजी द्वारा बसाया गया । उनकी 14 पत्नियों हैं 7 देव मीढ पुत्र देवक राजा की पुत्नी थीं, रोहिणी राजस्थान के रोहिंडी नरेश की पुत्री थीं । रोहिणी पुत्रों में बलभद्र भद्रगुप्त भद्रविद्, भद्ररथ, भद्रकल्य, भद्राश्व, भद्र, भद्रबाहु आदि 12 महापराक्रमी यादव वीर थे । अर्जुन पत्नि सुभद्रा इनकी बहिन थी । पांडव यज्ञ काल में भदौरिया यादवों का भद्रावर्त राज्य एक समृद्ध गणराज्य था । यहाँ के क्षत्रिय विपुल साधन सम्पत्र राजकुमार बहुत सा रत्न धन सुवर्ण लेकर युधिष्ठर यज्ञ में उपस्थित हुआ और उसे यज्ञ की भेंट किया । अथर्वद के गोपाल तापिनी उपनिषद में गोपाल के प्रिय दो बनों में भद्रवन का कथन है जो यमुना के तट पर था । द्वेबने स्त: कृष्णवनं भद्रवनं- पुण्यानि पुष्य तमानि तेष्वेव देवा स्तिष्ठन्ति सिद्धा: सिद्धिं प्राप्ता: ।।33।। । वेदों के अनुसार- 'भदंकर्णेभि श्रृणुयाम देवा:' देवों की वाणी भद्रश्रव भदावर की बोली थी । वेद व्यास के मत से त्रेता में 7000 वि0पू0 में यहाँ माथुरों की पुरातन तप स्थली श्रीमथुरा (सीरमथुरा धौलपुर करौली के मध्य) थी जहाँ माथुर नाम धारी ऋषि बहुत पूर्व से तप करते आ रहे थे-<br />
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<poem>ऋषिर्माथुरनामात्र तप: कुर्वन्ति शाश्वते ।<br />
अतोस्य मथुरा नामऽभवदाद्यश्रियायुतम् ।।</poem><br />
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भदावर में माथुर चौबों के 18 गाँव हैं- <br />
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1- चद्रपुर चंद्रवंशी चंदेलों का प्राचीन पुर (चंद्रवंशी चदेले बुधबंशी बुंदेले रोहिणी बलराम बंशी रूहेले हैं) <br /><br />
2- कछपुरा(जैपुर के कछवाहों और उनके सेवक काछियों का पुर) <br /><br />
3- कमतरी (कार्मुक धनुष कमान कमंठा चलाने में विशेषज्ञ कमठानों का पुर)<br /> <br />
4-पारनां (पारावत रावतों का केन्द्र)<br /><br />
5- नहटौली (नाट्य कला कुशल नाहटा नटों का गांव)<br /> <br />
6- हतकांन्ता या महत् कान्तार (एसे महा कान्तार कांटापुर कन्तित में भी थे)<br /><br />
7- रीछापुर मुचुकुन्द के भाई अँवरीष का रीषा पुर) <br /><br />
8- नौ गाँव (भदौरीयों का बसाया नवीन ग्राम नवगाँव)<br /><br />
9- कचौरा (बिना पूर्ण पकाये अधकच्चे घी की मंडी जो डांग (पर्वत खंडों का) घी कहा जाता हैं <br /><br />
10- होली पुरा मथुरा के होलीदरवाजा होली वाली गली होलीबन (हुलवानौ) की स्मृति से प्रभावित होली सिंह चौबे का बसाया गाँव<br /><br />
11- पुरा कन्हैंरा राजा मुचुकुंद की पुरिकानगरी और अनका भूकंदरा (भरकाओं युक्त एकाँत शयन स्थल कन्हैंरा) <br /><br />
12- ताल गाँव (तालध्वज और तालफल तथा ताल पेय ताड़ी के प्रेमी बलरामजी का तालबृक्षक्षेत्र मथुरा में तालबन में उन्हौनें तालफल आस्वादन को धेनुकासुर का वध किया था)<br /><br />
13- पिन्हाहट (ब्रज के गोपीनाथ भगवान के उपासकों का गोपीनाथ बन और देव स्थान)<br /> <br />
14-मई (मय दानव का कला और शिल्प केन्द्र)<br /><br />
15- बटेश्वर महावट वृक्ष के नीचे माता गिरजा के साथ बिराजते अमर कथा सुनाते भगवान रूद्र उपासक थे- ययाति का ययाति पुर (जतीपुरा) में प्राचीनतम रूद्रकुंड गिरिराज पर्वत पर श्री नाथजी मंदिर के समीप उमापति रूद्र का देवालय अभी है । (उमापर्ति मूर्ति तो खंडित दशा में वहीं पड़ी हुई औरंगजेब के ध्वंस कर्म की कहानी कह रही है ) <br /><br />
16- बिचकौली विचक्र असुर जो जरासंध के मंत्री हंस डिंभक मित्र था जो राजसूर्ययज्ञ में विध्न डालने पर श्री कृष्ण द्वारा मारा गया उसकी राजधानी । <br /><br />
17- तरसोखर (त्रिशोक काण्व ऋषि का आश्रम जो कृष्ण के ब्रम्हविधा धागुरू घोर काण्व का वंशधर तथा यदुवंश की भद्रशाखा का पुरोहित था) इनका ऋग्वेद का आठवाँ मंडल आधिकृत हैं । <br /><br />
18-चौम्हाँ ब्रज का चौमुहाँ, जो क्षौम पट (अलसी के रेशों से बनाये वस्त्र) क्षौमाम्बर धारी देवों और संकर्षण गणों यादवों का पुरा । भदावर के प्रवासी माथुरों में भारद्वाजगोत्री पाँड़े पाठक रावत तिवारी, वशिष्ठ गोत्रियों में जौनमाने, धौम्य गोत्री घरवारी, तथा सौश्रवस गोत्री मिश्र छिरौरा- आदि प्रधान हैं । ये एक समूह में मथुरा में नहीं गये किन्तु अनेक अवसरों पर कई बार में समय संकट और सम्पर्क सुविधा के अनुसार जाते रहे हैं । इनके प्रवास के कुछ एतिहासिक सूत्र विशेष विचारणीय हैं, जो इस प्रकार हैं-<br />
<br />
1- परातत्व के आधुनिक अन्दवेषकों को यहाँ धूसर चित्रित तथा श्याम चित्रित ओपदार भाँड़ों के ठीकरे मिले हैं जो 5-6 हजार वर्ष पूर्वे के हैं, तथा जो हस्तिनापुर की खुदाई में पाँडव कालीन प्राप्त हुए हैं ।<br /><br />
2- बटेश्वर के समीप जरासंध द्वारा ध्वंस किये गये संकुरीपुर (संकर्षणपुर) के खण्डहर मीलों तक फैले पड़े हैं ।<br /><br />
3- काल यवन को भस्म करने वाले राजा मुचुकुन्द की कंदरा (कन्हैरा) के भूविवर दुर्गम भरका बड़े बिस्तार में अभी भी हैं । यहाँ के भद्रावर्ती राजकुमार युधिष्ठरा के राजसूययज्ञ में बहुत-सा धन रत्न भेटें करने को लेकर गये थे । पिनाहट में यादव वंश के देवता गोपीनाथ के प्राचीन मन्दिर का स्तंभ मण्डप अभी दर्शनीय हैं । पिनाहट में ही पाली भाषा में अंकित शिला लेखों में 567 वि0 कें हूणों के अक्रमणों का उल्लेख है ।<br /><br />
4- यहाँ के क्षेत्रों में धारापुरी के परमाल वंशी महायशस्वी महाराज भोज के सिक्के मिले हैं जो माथुरों का परमभक्त था, इसके सभा के रत्न मालीजी चौबे ने इसके हनुमंनाटक की टीका की है तथा इसके सेनापति कूलचन्द का सुदृढ दुर्ग महमूद आक्रमण काल में महाबन में था । 1100 वि0 में कमंठाधारी भदौरिया कमतरी में आत्मरक्षा हेतु जा बसे थे ।<br />
5- तरसोखर में 1474 वि0, का चौबे भूदेव मिश्र का शिलालेख मिला है । 1460 वि0 में चन्द्रपुर में चौबों के रहने के प्रमाण मिले हैं 1455 वि0 में चंद्रपाठक के पुत्र धनेश्वर पाठक तैमूर लंग के आक्रमण की आशंका के भय से तथा फीरोज तुगलक के क्रूर शासन से त्रस्त हो चंदपुर में आकर बसे थे ।<br /><br />
6-1584 वि0 महाराणा सांगा और बाबर के युद्ध में भदौरिया नरेश की सेना के सेनाध्यक्ष बनकर चौबे मुकुन्ददेव और हरनाथ मिश्र लड़ने गये थे । 1557 वि0 में केशवदेव पाँड़े को ग्वालियर नरेश राजा मानसिंह तोमर ने विश्रांत घाट से ले लाकर शंकरपुर में बसाया तथा इनकी पांचवी पीढ़ी 1695 वि0 में कल्याणकर पांडे को राज्य से विशेष सम्मान के रूप में पूरा शंकरपुरा गाँव पर्वत पर विशाल महल, सरोवर, बाग, आदि प्रदान किये गये ।<br /><br />
7-1652 वि0 में भदौरिया राजा मुकुटमणि के सेनापति उसके भाई गजसिंह के साथ चतुर्भुज पांड़े (चत्तू पांड़े) अकबर के सेनापति राजा मानसिंह के साथ काबुल की चढाई पर गये । 1665 वि0 में भदौरिया नरेश बदनंसिंह को उपदेश देकर भदाबर में मथुरा की स्थापना के लिये यमुना की धारा को कंसकिले की तरह मोड़कर नगर संकर्षणपुर (संकुरी) को सुरक्षित करने हेतु एक सुदृढ बांध घाटों (बट छांहबासी) शिव के मंदिरों विश्रान्त तीर्थ और बाराह मंदिर का निर्माण कराया । 1681 में बीरसिंह देव के बीर बुंदेला पुत्र हरदौल की मान्यता कर उसकी पूजा और थान प्रचलित कराये । 1692 वि0 में शाहजहाँ काल में उसके क्रूर पुत्र औरंगजेब का मथुरा पर आतंक फैला देखकर मथुरा से चक्रपाणि के पुत्र शिरोमणि चौबे यहाँ कमतरी में आकर बसे यह लेख हरिद्वार के पंडा की बही में है । 1643 वि0 में पांड़े कल्याण कर को शंकर पुर का पूरा गांव तथा राज सम्मान मिला ।<br /><br />
8-भदौरिया महाराज बनदसिंह के राज में बटेश्वर आदि क्षेत्रों में माथुरों को सम्मान भूमिदान धन अर्पण राज सेवाओं में उच्च पद प्रदान की बात सुनकर अनेक चौबे परिवार 1700 वि0 के आस-पास भदावर के गांवों में मथुरा से जाकर बसे । 1700 वि0 में होलीसिंह पांड़े खिरिया से अपने दादा बुचईसिंह का खजाना दादी जी के बतलाने पर लेकर आये तथा अपने पिता भोगचन्द के संरक्षण में बौहरे का काम (लैंने दैंने साहूकारी) भदावर के गांवों में चलाया । 1710 वि0 में होली सिंह को महाराज बदनसिंह से भूमि मिली जहाँ इन्हौंने प्राचीन गांव की जगह अपने नाम का होलीपुरा बसाया । 1715 वि0 में यहाँ होली बाबा ने विशाल हवेली कुआँ आदि बनवाये ।<br /><br />
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1712 वि0 में चन्दपुर में मैनपुरी से आये चौबे जगजीवनदास बिहारी जी का मन्दिर निर्माण कराया । 1738 वि0 में होलीसिंह के भाई तिलोकसिंह पुरा में भूमि पाकर बसे । 1738 वि0 में इन ही के भाई जीवनसिंह पांड़े को भदावर नरेश उदितसिंह ने पुरा कन्हैरा में बड़ा इलाका दिया तब वे वहीं बसे । 1740 वि0 में महाराज कल्याण सिंह ने चौबों को हतकांत में स्थान देकर वहाँ बसे उपद्रवी मेवौं को विजय करने का निर्देश दिया इन्हें अपने किले का दुर्गपाल तथा सेना का सेनापतित्व भी दिया । चौबों ने तब बड़ी शूरवीरता से मेवों को पराजित और ध्वस्त किया । इस उपलक्ष में 1741 वि0 में राजा ने इन्हें 18 गाँव दिये तथा चौबों के सर्दार छत्रपति राव को मेव दमन के पुरस्कार ने विशेष सम्मान और उपहार दिये । 1742 वि0 में तब हंतकांत में चौबों ने अपनी केन्द्रिय सत्ता बनाकर 18 गाँवों के मुखिया 18 मुहल्लों में बसाये जहाँ उनकी विशाल हवेलियाँ निर्माण हुई । 1745 वि0 में विक्रमाजीत और कमलाकर पांड़े 'मथुरा से औंरगजेब के राज के काजी नवीहुसैंन को उसके घर पर काजीपाड़े में मारकर तरसोखर फरौली आदि गाँवों में आकर रहे । 1794 वि0 में बाजीराव पेशवा ने दिल्ली कूच के समय अटेर का किला और बस्ती लूटी उस समय के भदौरिया महाराज हिम्मतसिंह की शक्ति क्षीण हो चुकी थी । पेशवाओं ने मथुरा की भक्ति के कारण चौबों को मैत्रीभाव और सम्मान दिया ।<br />
<br />
इस प्रकार माथुरों का भदावर में निवास बहुत प्राचीन काल से सिद्ध होता है । वे जैसा कि लोग सोचते हैं वे केवल आक्रमणों के भय से ही पलायन नहीं कर गये अपितु इसके अनेक हेतु रहे- जैसे यादववंश और बलराजजी से विशेष स्नेह और सम्मान, ननसाल ससुराल भाई बन्धुओं का स्नेह सम्बन्ध और आग्रह, दत्तक पुत्रों के रूप में प्रतिष्ठा, राजमान, और भूमि, पदा आदि की प्राप्ति, व्यवसाय की सुविधायें, मथुरा में विध्वंस संकट, गृह कलह, आक्रमणों की मृत्युभय युक्त आशंका ।<br />
इन्हीं हेतुओं को लेकर शंकरपुर करौली, चित्तौड़, जयपुर, भरतपुर, बम्बई, कलकत्ता, जलगाँव, मलयपुर आदि अनेक स्थलों में माथुर गये हैं ।<br />
प्रवासी बन्धुओं में अनेक विशिष्ट और उल्लेखनीय महानुभाव हुए हैं, उन सभी का वर्णन एक अलग ग्रंन्थ की वस्तु है । यहाँ हम कुछ अतिविष्ट लोगों का समावेश ही कर सकेंगे । प्रमाणों के देखते यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये बन्धु प्रधान रूप से सिकन्दर लोदी 1545-1574 वि0 इब्राहीम लोदी 1574-1583 वि0, औरंगजेब 1715-1764, अद्वाली 1814 वि0 के उत्पीड़न कालों में मथुरा से जहाँ-तहाँ जाकर बसे हैं ।<br />
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===कुछ उल्लेखनीय घटनायें और व्यक्ति===<br />
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चित्तौड़ में बसावट- 1284 वि0 पृथ्वीराज चौहान काल में पृथ्थावाई के साथ भेजे गये रिषिकेशमिश्र चित्तौड़ में बाघावास स्थान में भूमि पाकर बसे इनके वंशज बहुत काल तक यहाँ रहे तथा इनके सहाये से अन्य भी पचासों लोग जाकर चित्तौड़ में थोक बन्दी के साथ रहे । इनमें 1586 वि0, बिठ्ठलदास चौबे तथा इनके पुत्र कान्हरदास संगीत नृत्य पद गायन हरिकीर्तन की पद्धतियों में विशेष पारंगत थे । इनने मीराबाई को तथा उनकी ननद ऊदावाई को नृत्य संगीत की शिक्षा दी । ये वृन्दावन के राधाबल्लभजी आचार्य हितहरिवंशजी के शिष्य थे- नित्य बिहार का गान करते थे । भक्त माल में नाभादास जी ने इन्हें माथुर चौबे तथा महाराणा का प्रोहित लिखा है । ग्रियर्सन ने लिखा है- कि इनके यहाँ एक बड़ा साधु समाज हुआ था जिसमें भक्त नाभा को 'भक्तमाल' की पदवी दी गई थी क्योंकि उन्होंने वहाँ भक्तों के सरस मनोहर चरित्रों का गान किया था ।<br /><br />
शंकर पुर के पांड़े-1557 वि0 में केशव पांड़े को ग्वालियर के तोमर राजा मानसिंह अपने साथ लेकर गये- उन्हें शंकरपुर गांव में बसाया तथा 1693 वि0 में परम विद्वान इनके वंशधर कल्याण की पांड़े ने राज प्रभाव से पूरा शंकर पुर गांव प्राप्त कर पांड़े वंश का यशस्वी कुल स्थापित किया । इनके वंशधर लालजीराम उर्फ खंगमणि 1834 वि0 में राजारामसिंह तोमर के यहाँ उनकी नयी राजधानी नरवर में दीवान रहे । इनकी पत्नी सती हुई ।<br />
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बुचईसिंह पांड़े का रण संग्राम- 1622 वि0 में बाघावास चित्तौड़ से जाकर बहुत सा धन बंजारों के टांड़े के रूप में ले जाने वाले अपने पूर्वजों के साथ खिरिया गाँव (जि0 एटा) में वहाँ के ठाकुर सर्दारों पर विजय प्राप्त कर प्रभाव जमाने वाले वीरशिरोमणि बुचईसिंह और वाहनसिंह के साथ नवाब की पठान सेना से भयानक युद्ध किया । विजनसिंह के ससुराल में उस समय उनके साले का विवाह था । बहूरानी वहाँ भेज दी तथा आप खिरिया के समीप के किसी गांव में आयी बरात में नवाब की सेना से घमासान संग्राम करके पठानों के सैकड़ों लड़ाकों को मारकाट कर खूर में सरोवर पहुंचे बरातियों के साथ मुगलों की लोथों के बिछे क्षेत्र में भोजन किया परिहावन ली और फिर उसी क्षण खिरिया गांव लौटकर आ गये । दूसरे दिन फिर नवाब की सेना चढी उसे फिर चूर्ण किया । इस बार इनके पिता बीरपुंगव बुचई बाबा वीरगति को प्राप्त हुए तथा तीसरे दिन बहुत बड़ी नवाव की पठानी सेना से युद्ध करने ये अपनी रणबांकुरी मातु श्री बुचाकर रानी के साथ दौनौं भाई विजनसिंह बाहनसिंह रण संग्राम में उतरे और हजारौं म्लेच्छों का संहार कर सभी वीरगति को प्राप्त हुए । इनका यश दिगदिगंत में व्याप्त हुआ और इनके कुल कीर्ति गायक बरूने इनकी विरूदावली गान की जो इस प्रकार है- सोही राजरीति पांडत्रे होली सतानंद जू कै, सोई राजरीति जीति लीनी भुजबल कै ।<br />
<br />
<poem>पाल सुखपाल माल मोतिन के कोट लगे, कमला निवास सो विलासदास झलकैं ।।<br />
कहै 'अभैराम' सुनों माथुर मयंक मुनि, तेरी मौज पाऊँ सो कहत मन ललकैं ।<br />
राव जाने राजा जाने खान सुलतान जाने, नैकहून मोल चढै़ पांड़े हलधर कैं ।।<br />
<br />
बाही तेग विजन अरियन सिर, दपटि दररानी ।<br />
काटी कड़ी जिरह बखतर की, मारे मुगल भुजा फहरानी ।।<br />
नैं कुन डिग्यौ कहूं भारत में, काटि- काटि कल्ले कहरानी ।<br />
चच्चर कियौ सिंह बुचई के, रूधिर मांझ पहिरी पहिरानी ।।</poem><br />
<br />
छंद में विजनसिंह पांड़े की अदभुद वीरता की यश गाथा है- चच्चर या चांचर (चांचल्य चपलागुणं) ब्रज का एक प्राचीन झपट्टे के साथ छियाछेरी का खेल था जो चाँदनी रात का क्रीड़ा नृत्य है जिसे सूरदासजी ने रास प्रसंग में अपने पदों में प्रयुक्त किया है । पांड़े होलीसिंह इसवंश के चौथे यशस्वी पुरूष हैं जो अपनी दादीजी की सहायता से खिरिया गाँव से बुचईसिंह का अटूट खजाना लाये और होलीपुरा गाँव 1715 वि0 में बसाया । इनने पुत्र न होने की स्थिति में पांड़े सतानन्द को गोद लिया और उसका विवाह करैटी (बेला परतागढ प्रयाग) के चौबे चिन्तामन की पुत्री के साथ किया जिसमें 1-1 लाख के कई ठिक नेग इन्हैं 'सजन सत्कार' में मिले । चिन्तामन की वह भूमि करैटी मौजा में गंगातट पर हैं- इनकी विशाल हवेली के खंडडर अभी भी वहाँ देखे जा सकते हैं । यह भूमि ग्रन्थ कर्ता के प्रतापी पूर्वज छंगालालजी कन्हैयालालजी के स्वामित्व में थी जो अब जमींदारी उन्मूलन में प्राप्त हो चिन्तामन के वंशधरों ब्रजमोहनदास जगमोहनदास के कृषि उद्योग में है, श्री छंगालालजी कन्हैयालालजी मिहारी प्रयाग में महीनों निवास करते थे – इनके इस क्षेत्र में राजासाव भदरी कालाकांकर बहती समस्तपुर दहियांवां आदि अनेक राज्य तथा प्रयाग के समस्त मालवीय परिवार जिनमें पं0 मदन मोहनजी मालवीय हैं यजमान थे । प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों की प्रयागबाल पंडा सभा ने भी इन्हैं अपनी पंचायत से सम्मानित कर मथुरा का तीर्थ पुरोहितों मान्य किया था । चौबे चिन्तामणि की यशगाथा भी बड़ी अदभुद है- कहते है। <br />
<br />
एक समय मुगल बादशाह को प्रयाग से इन्होंने करहटी बुलाया खातिर की तथा नौका बिहार के समय बादशाह के प्रश्न करने पर इन्होंने अपने इष्टदेव गंगा माता को स्मर्ण कर बादशाह के आगे रत्नों का ढेर लगा दिया बादशाह बड़ा, चमत्कृत हुआ और इन्है। जागीर दी । तब इन्होंने धूमधाम से माता गंगा की पूजा कर अपनी हवेली के कोठों में भरी 2000 शक्कर भी बोरियां खोलकर गंगा में चढ़ा दीं जिससे प्रयाग तक गंगा जल मीठा अमृतांपम हो गया । इससे गंगा माता इन पर और कृपालु हुई । एक दिवस जब ये गंगा स्नान कर रहे थे इनके पैर में कुछ चुभा निकालने पर सुवर्ण की मोटी सांकल थी जिस का बहुत खींचने पर भी द्रोपदी के चीर की तरह अन्त न आया । इस सुवर्ण से इनके विशाल भवन के सारे कोठे कोठार आँगन छत भर गये तब बहुत विनय करने पर सांकल का अन्त आया- इस प्रकार चिन्तामन के धन की कोई सीमा न थी । सतानन्द के पुत्र हलधर पांड़े थे । जिनके पुत्र गंगाधर पांड़े के विवाह 1837 वि में अभैराम बरू ने उक्त विरूद पढा था ।<br />
<br />
काजी मार पांड़े- काजी मार पांड़े मथुरा के पांड़ों की बस्ती हाथी वाली गली के निवासी थे । ये विक्रमाजीत और कमलाकर पांड़े नाम के दो भाई थे । 1745 वि0 औरंगजेब काल में इनके परिवार में पुत्र विवाह था । विवाह के गीत कन्हरी गान में स्त्रियों ने रात के समय छत के ऊपर से एक गीत गाया- 'हमारे अमुक <br />
<br />
<poem>चन्द बोलेंरी, अमुक दारी समाधिन आ सेजरिंयां ।<br />
तू उटकी मटकी डोलैं, दारी उनई-उनई डोलै तू सूधी बात न बोलै ।<br />
तेरौ बालम मोधू- चल काजी कैं बोई तेरौं न्याउ निवेरै ।।</poem><br />
<br />
रात के सन्नाटे में गीत समीप ही बसे काजीपाड़े के काजी के कानों में पड़ा, सवेरे ही उसने सिपाही भेजे उन चौवनों को मेरे दरबार में हाजिर करो में उनका न्याय निवेरूँगा । सिपाहियों के डाटने पर स्त्रियाँ घबड़ा गयीं-रोनें लगीं तभी विक्रम पांड़े बरात से आये, सारा मामला सुनकर वे आग गुर्राया इमाम बाड़े में घुस गया, उन्होंने वहीं झपट कर काजी को दवोच लिया और तलवार से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । काजीपाड़े में कोहराम मच गया । दोनों भाई निकलकर अपने घर आये और सलाह करके स्त्री बच्चों सहित मथुरा छोड़ देने का निश्चय किया । औरंगजेब का जमाना था हुसेनखाँ(खरद्दी हुसेन) हाकिम था किन्तु औरंगजेबी नीति से मथुरा और ब्रज में विद्रोह उठ चुका था ।<br />
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पांड़े विक्रमाजीत और कमलाकर काजी नवीहुसेन का वध कर चुपचाप बड़े सवेरे घर से निकले उधर मुगल सिपाहियों ने घर घेर लिया किन्तु उन्हें वे दोनों चौबे वहाँ न मिले घर सूना पड़ा था । दोनों भाई यमुना पार कर राया मुरसान हाथरस की तरफ भागे पीछे से मुगल सेना ने भी चढाई की । राये के समीप काजी के और मुगल हाकिम खरद्दी हुसेन के सिपाहियों में घनघोर युद्ध हुआ जिसमें विक्रमाजी पाँड़े के विचले पुत्र रामलाल खेत रहे किन्तु इस स्थिति में भी दौनों भाई और इनके दो पुत्र उदैचंद दुर्गादास ने बड़ी वीरता और साहस से मुगल सेना का सफाया कर दिया । यहाँ से चलकर ये तरसोखर फरौली मैनपुरी तथा अन्य कई स्थानों में बसे कहीं ये 5 भाई थे ऐसा भी कहा गया है । तरसोखर के परमानन्द जी ने लिखा है- चतुर्वेदी समाज में सबसे ज्यादा वंशवृद्धि मथुरा के पांडे विक्रमाजीत के वंश की हुई- लगभग 325 वर्ष में यह वंश अनेक क्षेत्रों में फैलकर खूब फला-फूला है । पुरा कन्हैरा के सम्बन्ध में श्री धर्म गोपालजी ने, चन्द्रपुर के विषय में श्री द्वारिका प्रशाद चौबे ने पुस्तकें लिखी हैं, तथा मुक्ता प्रसाद स्मारक ग्रंथ में प्रचुर सामिग्री सामने आयी है । प्रवासी बन्धुओं में अनेक उल्लेखनीय विशिष्ट महानुभाव हुए हैं- यहाँ हम उनका पृथक अनुकथन न देकर समस्त माथुर समाज के विशिष्टजनों में उनका उल्लेख करेंगे ।<br />
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===धार्मिक आचार्य===<br />
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भारतवर्ष के सभी धर्म संप्रदायों के भक्ति ज्ञान वैराग्य मार्गों के अंकुरण का प्रधान क्षेत्र मथुरा मंडल का माधुर्य मय क्षेत्र रहा है, तथा इन सभी के आचार्यों ने माथुर मुनीश्वरों से आशीर्वाद और मार्ग दर्शनमयी प्रेरणायें लेकर नव जागरण की तेजस्विता प्राप्त की है । यहाँ संक्षेप में इसका दिग्दर्शन प्रस्तुत हैं-<br />
509 वि0 पृ0 कुमारिल स्वामी और श्री आद्यशंकराचार्य महाराज 452 वि0 पू0 का विवरण पीछे दिया जात चुका है । 999 वि0 में ब्रजभक्ति संप्रदाय के प्रमुख आचार्य श्री निम्बार्क देव का यहाँ उद्भव हुआ । इस संप्रदाय का प्रथम स्थान मथुरा का नारदटीला (ध्रुवटीला) है । मथुरा के दीर्घ विष्णु, बाराहजी , पद्मनाभ- नज्रानन हनुमान (असकुंडा), हरदेवजी गोवर्धन, आदि पुरातन मंदिरों में इसी संप्रदाय की पद्धति से सेवा पूजा होती है- ब्रज के प्राय: प्रत्येक गाँव कुंड सरोवर बन उपबन में इनके मंदिर पुजारी साधु और महंत प्रतिष्ठित हैं । नारद टीले के मन्दिर में इनके अनेक आचार्यों की समाधियाँ हैं ।<br />
निम्बार्क संप्रदाय- आचार्य श्री निवास देव 1130 वि0, देवाचार्य महाराज 1352 वि0, केशव काश्मीरी 1598 वि0, श्री भट्टजी 1635 वि0, हरिराम व्यास (युगजकिशोर मन्दिर) 1669 वि0, आदि अनेक महानुभाव मथुरा के अपने स्थान में साधना निष्ठ रहे हैं । मथुरा के वर्तमान मंदिरों में भी प्राय: सभी में निम्बार्क पद्धति की सेवा है । इस संप्रदाय की ही बहुनिष्ठामयी शाखा श्रीस्वामी हरिदासजी की गादी परंपरा है जो इस वैभव संचय के युग में सर्वोपारि विरक्त नित्य बिहार उपासना मयी रसिक संप्रदाय है । केशव काश्मीरी के साथ 14 हजार साधुशिष्य चलते थे इनने दिल्ली में यवन यंत्र लगाया तथा शेरशाह सूर ने अजमेर पुष्कर जाते हुए जब इनका पीछा किया तो उसे इनकी जपात के सभी साधु सिंह नजर आये और 14 हजार सिंहों की गर्जना और आक्रमण को देख वह कांप गया और इनसे क्षमा याचना कर सलेमाँबाद की जागीर इन्हैं भेट की । श्री भटजी ने इनमें ही विज्ञान्त तीर्थ पर मंत्र दीक्षा लीथी तथा इनने माथुर मधुपावली में माथुरों के यश गान का पद अर्पित किया है ।<br />
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रामानुज संप्रदाय- इस संप्रदाय की भारतवर्ष में 8 मुख्य पीठ हैं, इनमें से 7 दक्षिण में तथा गोवर्धन (मथुरा) में है । उत्तर भारत का सर्वप्रधान रामानुज पीठ (दिव्यदेश) श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर 'गोवर्धन पीठ' नाम से मान्यता प्राप्त है । कूरेशस्वामी ने अपने 'अतिमानुष स्तोत्र' में गोवर्धन यमुना वृन्दावन (कुसुमबन) और मथुरापुरी को परम पवित्र भगवच्चरण रज से पावनीभूत माना है-<br />
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<poem>गोवर्धनो गिरीवरो यमुनानदी सा , वृन्दावनंच मथुरा च पुरी पुराणी ।<br />
अद्यपि हन्त सुलभा कृतिनांजनानां, मेने भवच्चरणचारू जुष: प्रदेशा: ।।</poem><br />
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श्री मद् अनंताचार्य वैंकटनाथ स्वामी के भवमंगलाष्टक के 'गुरू परम्परा प्रभाव स्तोत्र' में श्री रामानुजस्वामी के 16 निवास तीर्थों में मथुरा को बरहवाँ पुण्यतीर्थ कहा गया है –<br />
<poem><br />
श्री रगं शैल करिमज्जनगिरौ शैषाद्रि सिंहाचलम् ।<br />
श्री कूर्म पुरूषौत्तमं च बदरी नारायणो नैमिषम् ।।<br />
श्रीमद् द्वारवती प्रयाग मथुरा ऽयोध्यागया पुष्करम् ।<br />
शालिग्राम निवासिनो विजयते रामनुजोयं मुनि: ।।</poem><br />
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गौवर्धन पीठ के सुरम्य वृन्दावन (कुसुमोखर) में श्रीरामानुजाचार्य स्वामी 1094 वि0 श्री नाथमुनि 1124 वि0, श्री ईश्वरमुनि 1132 वि0, यामुनमुनि 1147 वि0, कूरेश स्वामी 1157 वि., श्री रंगदेशिक स्वामी 1356 वि0, बरवर मुनि 1394 वि0, श्री निवासाचार्य 1387 वि0, गोवर्धनाचार्य 1440 वि0, आदि श्री वैष्णव आचार्य विराजते और श्री लक्ष्मीनारायण प्रभुकी सेवा अर्चना करके तप साधना करते रहे । इनके प्रभुनिष्ठाभाव से प्रभावित होकर भरतपुर नरेशों ने राजाबलवंतसिंह रंधीरसिंह छतरियों के शिल्प कौशल में इनके पुरातनजीर्ण मन्दिर को नवीन रूप में निर्माण कराया तथा भरतपुर दीघ में लक्ष्मण मन्दिर निर्माण कराये । मथुरा में श्री रामानुजस्वामी बसुमती सरोवर तट की जिस नारायण बाटिका में बिराजे थे उस स्थल पर इनके ही संप्रदाय के श्री प्राणनाथ स्वामी ने सुन्दर बाटिका युक्त रामानुज कोट श्री गतश्रम नारायण प्रभु का मन्दिर ब्रज शैली में निर्माण कराया हे जो मथुरा के प्राचीन देव स्थलों में से है इटावा में मथुरा के चौबे श्री लक्ष्मी प्रपन्ना चार्य ने बैकटेश मन्दिर बनाया है तथा प्रपन्नामृत, प्रपत्ति वैभव वेदाँतसार ग्रंथ लिखे हैं ।<br />
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रामानन्दी संप्रदाय- 1356 वि0 में अल्लाउद्दीन खिलजी के समय श्री रामानन्द स्वामी का जन्म हुआ । इस समय मथुरा और माथुरों पर घोर अत्याचार हो रहे थे, छोटी जातियाँ उत्पीड़न पूर्वक मुसलमान बनायी जा रही थी । हिन्दू समाज के शिल्पीवर्ग शूद्र भृंगी गण (भंगी) डाली निर्माता चंडमुंड बंशी चांडाल, दुंदुभी डुमडुमी बजाने वाले डोम, चर्माम्बर निर्माता चमार बलात् बेगमों के पायखाने सिर पर ढोने के काम में मृत पशु उठाने के कामों में लगाकर अछूत बनाये गये ऐसे समय में महात्मा रामानन्द ने काशी में जन्म लेकर इन उत्नीड़ित संकट ग्रस्त मानवों के उद्धार के लिये अपना संप्रदाय 'रामनाम' युक्त प्रवर्तित किया और उसमें रैदास (चमार) कवीर' (जुलाहा) सेना (नाई) करमांबाई (तेलिन), नाम देव (दर्जी), दीक्षित किये । इस संप्रदाय में दीक्षित महात्मा पयहारी जी 1586 वि0, मथुरा में प्रयाग तीर्थ पर गलताकुंज में बिराजते थे तथा गल्तेश्वर महादेव की इनके द्वारा स्थापना हुई थी । इनके शिष्य अग्रदास कवि, कील स्वामी ध्रुवदास कीलमठवासी' नाभादास भक्तमाल कर्ता, प्रिया दास टीका कार आदि यहीं रहते थे । श्री रामानन्द स्वामी ने अपने 'वैष्णव मताव्ज भास्कर' प्रश्न 8 में मथुरा में अपने आश्रम को श्री कृष्ण उपासना का स्थल कहा है-<br />
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सत्स्थाने मथुरा भिधाश्रमवरे श्री बालकृष्णं प्रभुम् ।।<br />
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इनका माथुरों पर अति स्नेह था जिसके कारण महोली पौर के निवासी चोबे मनोहरदास जो मनोहर मंजरी काव्य ग्रंथ के रचपिता थे उन्होंने इनका संप्रदाय ग्रहण किया और केशवपुरा के पास अपना मनोहपुरा बसाकर निर्गुण संप्रदाय का प्रचार किया । इनका ग्रंथ बीकानेर की अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में सुरक्षित है । <br />
राधाबल्लभ संप्रदाय- श्री हित हरिवंश गोस्वामी 1552 वि0 ने अपने यमुनाष्टक मे यमुना पुत्र माथुरों का वर्णन इन शब्दों में किया है- 'समस्त वेद मस्तकैरगम्य वैभवै सदा, महामुनिन्द्र नारदादि ब्रह्म पुत्र संभवा:' ये समस्त वेदों को कंठाग्र मस्तक में धारण करने वाले वेद शास्त्रों विद्याओं के अगम्य वैभव से मूषित, महामुनीन्द्र नारदादि से भ्रात्टत्व प्राप्त ब्रह्मदेव के सन्मानित पुत्र हैं ?<br />
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राधारमण संप्रदाय- श्री गोपालभट्ट गोस्वामी का 1580 वि0, का यात्रा लेख तथा उनके समस्त वंशधर गोस्वामियों के ब्रज यात्रा पौरोहित्य लेख श्री रामलाल मिहारी के पास हैं ।<br />
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श्री स्वामी हरिदास संप्रदाय- इसमें मथुरा के चौबों की प्रमुखता है श्री ललित किशोरीजी के समय के अनेक आचार्य माथुर हुए हैं । श्री रसिक राय जी का महल तथा बिहारी जी का सवरूप मथुरा में माथुरों के यहाँ हैं । श्री ललित किशोरी जी पहिले हतकाँत के गंगाराम पांड़े चौबे थे जन्म 1733 वि0, 1758 वि0, से 1823 वि0, तक गादी पर रहे । 1760 वि0, में निधिबन में गोस्वामियों को बांके बिहारी विग्रह दे देने पर भी कलह बढ़ता गया तब वहाँ से यमुना तट पर पीपल के नीचे नित्य बिहार स्थल बना बिहारी जी पधराकर बांस की टटियाओं से घिरा टटिया स्थान प्रगट किया । इनके गुरूदेव श्रीरसिकदेवजी 1741-1758 वि0, का महल और बिहारीजी विग्रह मथुरा में ककोरनघाटी पर पाठक मुन्नीलाल मदनमोहन गोपालजी के यहाँ है । 71 वर्ष की आयु 1804 वि0, में दिल्ली के मुगलबादशाह मुहम्मदशाह ने इनके दर्शन करने की प्रार्थना की । इन्होंने पूर्ण निषेध करते हुए उसे अपना चित्र देने की स्वीकृति दी तब मुगलों का शाही चित्रकार आकर इनका चित्र बादशाह के लिये बना कर ले गया । इस स्थान पर मथुरा के चतुर्वेदी परिवारों के श्री रणछोरदास जी ब्रह्मयुर्या 1987-1990 वि0, श्री राधाचरणदासजी मिहारी 1994 वि0, से अभी विराजमान हैं जो बृन्दावन के विरक्त महात्माओं में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं । अन्य महात्माओं में श्री विठ्टल विपुलजी 1550 वि0, श्री बिहारनदास 1608 वि, सरसदास 1611 वि0, किशन गढ के नागरीदास 1756 वि0, श्री ललित मोहिनी जी 1782 वि0, सहचरि शरण 1803 वि0, आदि अनेक महापुरूष हुए हैं तथा शिष्यों में तानसेन वैजू गोपाल नायक, रामदास, दिवाकर भट्ट सोमनाथ महाकवि बिहारी आदि अनेक हुए हैं ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_16&diff=56341चतुर्वेदी इतिहास 162010-04-24T04:16:40Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==जयपुर राज्य ==<br />
अकबर कल में श्री उजागर देवजी के नेतृत्व में माथुर सरदारों के एक शिष्ट मंडल ने राजा मानसिंह से यह अनुरोध किया कि वे मथुरा नगर की रक्षा के लिये कोई बड़ा प्रयास आयोजित करें । उस समय यमुना की जल धारा वर्षा ऋतु में स्वामीघाट से चौक मैदान तथा घीयामंडी भरतपुर दरवाजा तक और वृन्दावन दरवाजा तक अपनी पुरानी धारा के प्रवाह क्षेत्र में घुस जाती थी जिससे बाजार मकानों और दुकानों को अपार क्षति उठानी पड़ती थी । जयपुर नरेश ने तब सुविज्ञ शिल्पयों बुलाकर परामर्श किया और उसमें कुशिकपुर के एक टेकरे पर सुदृढ़ बुजों बनवाकर यमुना की धारा को मोड़ देने का सुझाव था । राजा ने सोचा क्यों न एक अपना सुरक्षित दुर्ग बनाकर इस कार्य की पूर्ति की जाय । तभी राजा ने वहाँ एक सुविशाल अति सुदृढ़ लाल पत्थरों से कला पूर्ण शिल्प युक्त एक ऐसे दुर्ग का निर्माण कराया जिससे यमुना की धारा के नगर प्रवेश और क्षति विस्तार का मार्ग बन्द हो गया जिसका भग्नाशेष अभी भी मथुरा नगर की रक्षा कर रहा है और लोग उसे 'कंस किलौ' विशालता के कारण कहने लगे ।<br />
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इस काल में मथुरा आगरा के सूवे के राजा मानसिंह सूबेदार थे । उनका परिवार मथुरा में निवास करता था । राजा भगवानदास की माता यमुना तट पर सती हुई उनका सती बुर्ज यमुना तट पर हैं, राजा की बहिन जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ हुआ, मानसिंह की बहन जहांगीर को ब्याही । इन संबंधों से मानसिंह अकबर के प्रधान सेनापति का दायित्व सम्हालते थे । राजा मानसिंह ने मथुरा के प्रचीन गोविन्द मन्दिर की पूर्ति में जहां सिकन्दर लोदी के ध्वंस के बाद मुसलमान पठान बसकर मेवा और किराने की मंडी लगाते थे उस चकाबू स्थान को छोड़कर वृन्दावन में गोविन्द भगवान का विशाल मंदिर 1650 वि0 में बनवाया इसके पिता भगवानदास ने 1947 वि0 में गोवर्धन में सुप्रसिद्ध हरदेव मंदिर मनसा देवी तथा मानसी गंगा नदी का बांध उसके पक्के घाट बनवाये ।<br />
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राजा द्वितीय जयसिंह ने चौबेजी का बुर्ज तथा जयसिंहपुरा उपनगर उसमें सम्राट दीक्षित के निर्देशन में खगोल वेधशाला स्थापित की । ये सुप्रसिद्ध खगोल विद सम्राट दीक्षित जगन्नाथ पंडितराज बृद्धावस्था में मथुरा में दशावतार गली की अपनी दक्षिणियों की हवेली में रहते थे । यहां के तांत्रिक घरानों को उनने श्री यंत्रराज तथा पूजा रत्न ग्रंथ दिये थे । जयपुर बसाने में इसने मथुरा के मूर्तिकार चित्रकार लडाकूबीर नागा दल, रंगाई और छपाई करने वाले कारीगर कवि और विद्वानों को प्रोत्साहन देकर अपने साथ लेजाकर जयपुर में बसाया ।<br /><br />
सतसई के कर्ता विश्व मान्यता प्राप्त महाकवि बिहारी मथुरा से जयपुर दरबार में ले जाये गये उन्हें प्रति दोहा स्वर्ण मुहरें भेंट की गयी तथा बसुआ गोविन्द पुरा गांव उन्हें जागीरी में दिए गए । इनके ही भानजे मथुरा के कृष्णकवि ककोर ने जयपुर के कोषपाल राजा आयामल के आदेश पर बिहारी सतसई की काव्यमयी टीका की वे लिखते है- माथुर विप्रलकोर कुल कह्मौ कृष्ण कवि नांउ । बिहारी सतसई की 1790 वि0 की मेघराज लेखक की लिखी सबसे प्राचीन प्रति हमारे संग्रह में सुरक्षित है । 1652 वि0 में जयपुर के तोमर गोविन्ददास हरीदास ने बृन्दावन में युगल घाट पर जुगलकिशोर मंदिर बनाया तथा लूनकरण कछवाहा ने केशीघाट पर युगलकिशोर मन्दिर बनाया, यह गोपीनाथ मन्दिर निर्माता रायसेन कछवाह का भाई था ।<br />
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==जाट मरहटा काल==<br />
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ओरंगजेबी शासन का अंत करने को ब्रज में जाट शक्ति का उदय हुआ । बीरपुंगव गोकुलाजाट ने उसके सामने ही ब्रज में विद्रोह का झंडा खड़ा किया । चौबौ ने काजी को मारा और मुगलों की बिखरी लोथों के ऊपर छत पर बैठकर विवाह की बरात के पकवान उड़ाये । जाट ब्रज के राजा और रक्षक कहे जाते थे । 1777 वि0 में राजा चूरामन ने जाट शासन की नींव रक्खी थी । 1779 वि0 में बदनसिंह तथा 1812 वि0 में शूर शिरोमणि राजा सूरजमल तथा 1820 वि0 में इनके पुत्र नरकेहरी जवाहरसिंह ने जाट शौर्य का सर्वोपरि प्रताप प्रवर्तित किया । जाटों के सहायक मथुरा के चौबे थे और जाट उनके परम भक्त शिष्य और सम्मानित पदों पर उनकी प्रतिष्ठा करने वाले थे । 1894 वि0 में जब नादिरशाह दुर्रानोने दिल्ली भी लूट में 30 हजार प्रजाजन कत्ल लिये 10 करोड का धन शाही खजाना और तख्त लाऊस लूटा और उसकी निर्दय सेंनाने भागते हुए प्रजा के लोगों का मथुरा वृन्दावन तक पीछा किया तो इससे जोटों का खून उवल उठा । वीर सूरजमल ने अपने 7 जंग लड़कर शत्रुओं के दांत खट्टे किये ।<br />
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1805 वि0 में जब सूरजमल दिल्लीशाह के बजीर-सलावतखाँ से युद्ध कर रहा था तभी उसके मन में परलोक में बैकुंठ पद या मुक्ति प्राप्ति की प्रबल इच्छा जगीं । मथुरा में जन्म यज्ञीपवीत मृत्यु या दाहसंस्कारों में से एक भी हो जाने से मुक्ति पद निश्चित हो जाता है यह जान वे युद्ध से समय निकाल दौड़े हुए मथुरा आये और माथुर गुरूओं से यज्ञोपकीत संस्कार करा कर हंसियारानी से विवाह किया तथा उस स्थान पर हंसीय घाट तथा हंसगंजपुर बसाकर रानी को उसके नये रामभवन में निवास दिया । करौ व्याहु मथुरापुरी कृपा पायि जदुनाथ । अपने शौर्य की धाक जमाने की जाट गूजरमैना गुरू चौबों के दल के साथ 1942 वि0 में सिनसिनी के जाट राजाराम ने आगरा पर धावा बोला और सिकंदर में बनी अकबर की वैभवपूर्ण मजार को लूटकर कब्र से अकबर की अदस्थियों को निकाल कर उनका दाह संस्कार किया जिसे लोगों ने 'मियांकी होली' कहा । फिर जोरावर भज्जा चूरामन बदनसिंह ने मुगलों की नाक में दमकरदी तथा बदनसिंह ने जैपुर से मित्रता की तब जैपुर नरेश ने इन्हें 'ब्रजराज' पदवी से अलंकृत किया । <br />
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इस समय का शौर्य चित्र कविवर सूदन ने इन शब्दों में मुसलिम भावना के रूप में चित्रित किया है-'रव भी रजा है हमें सहना ही बजा है बक्त हिन्दू का जगा है आया ओर तुरकानीका । सूरजमल दिल्ली के समीप शाहदरा में थोड़े से साथियों के साथ मुगलों से घिर कर मारे गये थे । एक दिन जवाहरसिंह पाग का पेचउमैंठ रहे थे तब माता ने कहा- 'बेटारे तेरे पिता की पगड़ी तो दिल्ली के रणक्षेत्र में पड़ी है और तू यहाँ पगी उमैंठ देता है' माता के बचन जवाहर के कलेजे में से आरपार हो गये उसने दिल्ली के मुगलों को इसका परिणाम चखाने की गरज से 'दिल्ली दलेल' के नाम से दिल्ली पर हमला करने का निश्चय कर लिया 'संवत 1810 के वैसाख मास में जवाहरसिंह ने एक बहुत बड़ी ब्रज के वीरों की सेना लेकर दिल्ली पर चढ़ाई थी । 3 मास दिल्ली नगर को अपने घेरे में कैद रखते और तीन दिन तक दुश्मनों की कटा करके दिल्ली की विपुल संपत्तिओं को अधिकार में किया जिससे दिल्ली की लूट कहा जाता है । महत्व की बात यह है कि ब्रजवीरों ने किसी प्रकार जन निरपराध प्रजाजनों का कत्ल नहीं किया ।<br />
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केवल दंड रूप में नगर की और बादशाह की राज लक्ष्मी को अपने आधीन बनाया । बादशाह महलों में किवाड बन्द किये चूहे की तरह छिपा रहा खजाना 14 वर्ष पूर्व ही नादिरशाह द्वारा लूटाजा चुका था । जाटों ने जो हाथ आया छीना । इस ब्रज जागरण जंग का वर्णन माथुर कवि सूदन ने अपने वीर काव्य सुजान चरित्र की जंग 6 में बड़े ओज पूर्ण छंदों में किया है । इस विजय में जाटों को अपार धन और सम्पत्ति हाथ आयी जिसे उन्होंने अपने वीर यौद्धाओं को बाँटा तथा ब्रज में अनेक स्थलों का निर्माण किया । मथुरा के चौबे इस युद्ध में ब्रज भर में ब्रजरक्षक विप्र प्रसिद्ध हुए । उनके हजारों सैनिकों के अतिरिक्त 30 प्रमुख सूरवीर सेनाध्यक्ष इस सेना में अग्रवर्ती थे । इनमें से कुछ के नाम सूदन ने सुजान चरित्र में दिये हैं जो इस प्रकार हैं- मोहनराममाथुर, चन्द्रभान, राजाराम, दौलतराम, हरनागरमथुरिया, कृपाराम, दानीरामचौबे, लछमनगुरू, जैकृष्ण, मंसाराम, सुखराममाथुर, चंके, बंके, मानसिंह, उद्धतराम, जुआरसिंह, बुद्धिबलचौबे, लोकमन, श्यौसिंह, उदैभान, नैंनू, झग्गा, खिल्लू, सभाराम, मितमंता, अनूपचौबे, उदोती, जैतसिंह, आदि । सोमनाथमिश्र, के सुजान विलास में भी इस युद्ध का वर्णन है । इस धन से ब्रज में भारत प्रसिद्ध डीग के भवन चंद्रसरोवर, नवल अप्सराकुंड, हरजी पोखर, बलभद्रकुंड बलभद्र मन्दिर मथुरा, धाऊ की हवेली, जाटवाले चौबों की हवेली, टौंटावारी वक्शी शिवनाथ मिश्र द्वारा इनकी पगड़ी मुकुट छत्र आदि राज चिन्ह धारण कर इन्हैं सुरक्षित साधारण भेष में निकाल कर इनकी संकट में प्राणरक्षा करने पर चौबेजी को प्राणरक्षक के रूप में बड़ी सम्पत्ति दी गयी जिससे उन्हौंने मथुरा चूना कंकड़ मुहल्ले में प्राचीन करागार भवन कारा महल लेकर बड़ी प्रतिष्ठा के साथ जीवन विताया । कुल पति मिश्र की हवेली गली पीर पंच में हैं तथा महाकवि बिहारीलाल का निवास स्थल बिहारी पुरा के नाम से अभी प्रसिद्ध है जाटों की दिल्ली विजय के उत्सव रूप हरदेव पूजन (गोर्धनपूजा अन्नकूट) तथा मानसी गंगा पर अदभुत दीपदान की परंपरा वहाँ आज भी मनायी जाती है । अंग्रेजों से जाटों का युद्ध भी इतिहास प्रसिद्ध है, इसमें भी मथुरा और भरतपुर के कितने ही चतुर्वेदी परिवारों के वीर जूझे थे । राजा रंधीरसिंह के नेतृत्व में लड़े गये इस युद्ध में 4 बार अंग्रेजी सेना पराजित हुई जसराज कवि ने लिखा है-<br />
<br />
<poem>छोटौ सौ इक किलौ भरतपुर सातौ बिलासत चढ़ आई । <br />
खट्टे दाँत किये गीरेन के जाट वीरता परिचायी ।। <br />
बोटी बोटी काटे गोरे खाइन में वे लुढ़काये । <br />
ऊपर कूदपरे आपुन हूगुत्थम पुत्था गरकाये ।।</poem><br />
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मरहटा और पेशवा- मरहटा दक्षिण से आये थे ये वैदिक देवता रूद्र गणों में मरूत गणों के वंशज राठोरों के वंशज रूद्र उपासक हैं जो भस्म त्रिपुंड धारी हैं और कुशल लड़ाकू वंशज हैं मुगलक्षीणता के काल में इन्हौंने दिल्ली सल्तनत पर कब्जा जमाया । इनका संगठन केन्द्र मथुरा में अर्जुनपुरा के समीप एक ऊँचे टेकरे पर था जहाँ इनके मरहटों के महल अब शेष अभी देखे जा सकते हैं शिवाजी के रक्षण के बाद इनका मथुरा और माथुरों पर पूर्णविश्वास और भक्ति हो गयी थी । 1785 वि0 के बाद जो सूबेदार जगीरदार थे वे सभी स्वतेत्र राजा महाराजा बनवैठे इनमें मरहटों के सिंधिया, गवालियर, होल्कर, इन्द्रौर, गायकबाढ बड़ौदा प्रमुख थे । लोकख्यति और सच्चे आचरण मान प्रतिष्ठा के कारण तथा मल्लविद्या की महान उपलब्धियों के कारण ये सभी माथुर चौबों के परम भक्त थे- उनका आदर पूजन और सम्मान करते थे । राजनीति कुशल महादजी सिंधिया तो मथुरा में ही रहकर दिल्ली दरवार की शाही सल्तनत का संचालन करते थे । वे परम कृष्ण भक्त थे, विश्राम घाट पर मुकुट मंडल का मंन्दिर बनाया था पोतराकुंड बनाकर उसके समीप ही बनी एक सुन्दर छत्री और बाग में तन्मय भाव से कृष्ण कीर्तन और सेवा करते थे पोतरकुंड के जल खींचने के मरकंडों की विशालता से ही इनके योगके विस्तार और वैभव का पता लगाया जा सकता है । इनके सतय ब्रज की राधा कंजरी ने इनपर जादू चलाया जिससे चौबों ने ही इन्है। संकटमुक्त कराया माथुरों की सलाह से ही इन्होंने 1847 वि0 में द्वितिय शाह आलम से समस्त भारत में गोवध निषोध का शाही फर्मान घोषित कराया । 1894 वि0 में मथुरा जिले में भयानक सूखा और अकाल पड़ा जिसमें महादजी ने माथुरों और ब्रजवासियों की सराहनीय सेवा की ।<br />
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1825 वि0 में मराठों ने अंग्रेजों को मथुरा से भगा दिया तब 1860 वि0 में मराठों की अंग्रेजों से मथुरा अर्जुनपुरा के मरहठों के महल में संधि हुई और मथुरा अंग्रेजों को दे दी गयी ।<br />
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===लालाबाबू और चौबेजी ===<br />
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1869 वि0 में कलकत्ता के बंगाली जमींदार लालाबाबू कृष्ण भक्ति का आधार लेकर मथुरा आये । उनने व्रन्दावन में एक भव्य विशाल राधा गांविन्द का मंदिर निर्माण कराया । उनकी दृष्टि चौबों की विशाल जमीदांरी और भूसम्पत्ति पर थी । प्रथम उन्हौंने ब्रज के गौरहे ठाकुरों की जमींदारी की यह कहकर कि सरकार जमीदारों की सम्पत्ति शीघ्र ही बिना मुआवजा छीन रहीं हैं, उनसे मात्र 672 रूपयों में उनकी सारी भूमि अपने नाम कराली फिर मथुरा के चौबों को भोला भाला पाकर उन्हैं मंग छना कर नित्य ब्रंन्दावन के मंदिर में छककर बढ़ीया भोजन कराकर यही चकमा देकर 100-100,50-50 रूपया देकर उनकी मथुरा और उसके आसपास की समस्त भूमियों भवनों जालदादों को ये सब ठाकुरजी के लिये है एसा आश्वासन देकर हस्तांतरण कराली । काम बन जाने के बाद भोजन बंद हो गये । लुटे दुखी माथुरों ने तब संतोष किया और उनके बाचिक शाप से लालाबाबू को उनके ही घोड़े ने एसी लात जमायी, कि वे फिर उठ न सके और उनका शब सारे वृन्दावन की गलियों में खसीटा जाकर यमुना में प्रवाहित हुआ । लोक में तब यह कि वदन्ती चालू हुई <br />
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'लालाबाबू मरि गये धोड़ा लात लुढकाइ । पारिख कैं कीरा परे बिरधि ते कहा बस्याइ ।।'<br />
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==नादिरशाह और अब्दाली==<br />
1795 वि0 में नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला किया । दिल्ली के साहूकारों से 15 करोड़ रूपया नगद तथा 50 करोड़ का सोना जवाहरात लूटकर प्रजा को जी खोलकर कत्ल किया, । वहाँ से भागते हुए लोग ब्रन्दावन में आ छिपे । नादिरशाह के हत्यारे सिपाहियों ने कीमती जेबर जवाहरात छिपा ले चले हैं इस आशंका से उनका पीछा किया और उनको क्रूरता से कत्ल किया । दिल्ली के भूतपूर्व शाही खजाँची धनानदं कायस्थ जो विरक्त साधु थे, उनके हाथ काट डाले जिससे वे मर गये । मथुरा में उनकी लूट के लिये कुछ न बचा था । मंदिर हवेलियाँ सब पहिले ही औरंगजेब द्वारा लूटे और तोड़े जा चुके थे चौबों के कच्चे टूटे फूटे के कोठे कोठरी थे, जिनके निवासी नरनारी नगर से दूर बनों बगीचियों और खेतों में रहते थे । पहलवान लोग रज में लिपटे लंगोटी लगाये अखाड़ों में जमीन पर लुड़का करते थे । घर घर नांदिर के दिल्ली पर अत्याचारों की चर्चा थी । नारियाँ गाती थी- नादर श्याह मरी तेरे हौलों से यह गीत आगमन न होकर भय और आशंका के वातावरण का प्रमाण हैं ।<br />
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===अब्दाली आक्रमण===<br />
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1814 वि. में अहमद अब्दाली ने दिल्ली से मथुरा पर आक्रमण किया । ग्वालियर का मरहटा सेनापति अंताजी जो मथुरा अन्तापाड़ा में था 3 हजार सेना लेकर उससे लड़ने गया तथा जाटों की बड़ी सेना ने भी चौमां में अब्दाली से मोर्चा लिया । उस समय होली का अवसर था अब्दाली ने चौबों को बुलाकर कहा- 'मेरे अजीजो ! ब्रज की होली नामी है आप हमारे दोस्त हो बादशाहों ने इज्जत दी है, मुझे भी कुछ होली का रंग दिखलाओ' चौबों ने हँस कर कहा- 'वेशक मालिक जरूर दिखलायेंगे, तीन चीज यहाँ की खास हैं- रबड़ी का भोजन, जमना की सैर और लोगों की मस्ती नाच रंग' । अब्दाली ने कहा- 'यह सारा सरंजाम आप लोगों को ही जुटाना है' इस वार्तालाप से चौबों के रंगीले ज्वान काफी प्रभावित हुए, उनने 5 बड़े मटकों में गोबर भरकर ऊपर से रबड़ी सजायी और उन्हैं अब्दाली के शिविर में पहुँचाए । अब्दाली के सामने वे मटके पेश हुए उसने खुश होकर कहा- चौबों की सौगात सब को बाँट दो ? बाँटने के लिए प्यालियों में रखने को जैसे ही मटकों में हाथ डाला गया गोवर निकल पड़ा और अब्दाली गुस्से से चिल्लाया-'ओफ ? यह गुस्ताखी, इतना गन्दा मजाक, इन शैतानों को आज ही इसका मजा चखाया जाय'<br />
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शाम का समय आया- चतुर्वेदी जवान छैला सज सजकर चौपई की तैयारी करने लगे । नारियाँ छतों छज्जों चबूतरों पर झूमने लगीं, तभी अब्दाली की केशोपुरा में पड़ी सेना लपलपाली तलवारें लेकर नगला पाइसा की गली में घुसीं- जो सामने आया तलवार से काट डाला- चौबे वेखबर थे, देखते ही पुकारे- मुसल्टरा आइ धरती पर लुढ़कने लगे- भागती नवयुवतियों के ऊपर तलवारों के प्रहार होने लगे । देखते देखते सारा नाच रंग खून की कीच रूदन हाहाकार और चीत्कारों में बदल गया । 'आगे मत बढ़ना चौबों का मजबूत गढ़ है' कह कर पठान सेना पीछे लौट गई ।<br /><br />
रात भर चौबों में कल की आशंका पर विचार चलता रहा । दूसरे दिन नई चौपाई थी । चौबेपुर के प्रवेश के 14 मार्गों में से 6 जो संकीर्ण थे पत्थर के टीलों ईंट भाटाओं से बन्दकर दिये गये । 6 मार्ग भी ईंट खंगड़ों से दुर्गम बनाकर उन पर 400-400, 500-500 ज्वान बजरंगी लठा, जोड़ी, मुगदर, फरसा, बल्लमों से लैस होकर आ डटे । गूजर जादों अहीर भी अपने मोर्चों पर थे । दोपहर होते ही अफगानी सेना दलबादल सह उमड़ कर आयी- 'या अली' वे चिल्लाये 'जै बजरंगा ' इधर से जबाब मिला । माथुर पहलवानों का दल शूरवीर और मस्ताना था । जिन्होंने रीछों से कुश्ती लड़ी, बवरशेर पछाड़े, हाथी दबोचे, मगरों से युद्ध किया विशाल वृक्षों को चीरकर बल अजमाया वे वीर घोड़ों पर कुदकते सिपाहियों को मच्छर भुनगा समझते थे । उन्होंने कलाई तोड़कर तलवारें छीन लीं, घोड़ों पर चढ़े सवारों को घोड़ों सहित जोड़ी मुगदरों से कूट डाला, जो आगे बढ़ा उसे फरसा से काटकर या टांग पकड़कर पछाड़ कर अथवा पैर पर पैर रखकर चीर कर दो पला कर दिया । यवन सेना घबरा गयी और भाग उठी । मोर्चा चौबों के हाथ रहा । उनके लठा भादों की घटा की तरह बरस रहे थे । हार कर पठानों ने मोर्चें से बाहर चौबेजी के बुर्ज पर हमला किया जहां एक छोटी सी टोली ने उनके सैंकड़ों सिपाही मार डाले तथा बगल से एक बरछा लगने से खुश्यालासिंह नाम के एक चौबेजी परम गति को प्राप्त हुए, जो भुमिया बाबा के थान के रूप में पूजे जाते हैं- बुर्ज नहीं टूट सका ।<br />
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तीसरे दिन अब्दाली ने हुकम दिया - 'चौबों की तरफ कोई न जाय- साहूकारों व्यापारियों को लूटो काटो मारो ।' और सेना का रूख घीया मन्डी, रामदास की मन्डी, गुड़हाई, ब्रन्दावन दरबाजा, गौघाट, बैराग पुरा की ओर घुमा दिया गया । भारी मारकाट और लूट की गई परन्तु धन कुछ ज्यादा हाथ न लगा क्योंकि औरंगजेब ने पहले ही सब कुछ सफाया कर दिया था । तीन दिन के बाद पस्त हौसले वाला अब्दाली महावन पर किले में भारी दौलत है यह सोच कर चढ़ चला, किन्तु वह किला राजा सकीट (राणा शक्तिसिंह) का था हरदत्त द्रोण उसका रक्षक था उसके आज्ञा देते ही 5000 नागवंशी महाविषवर्षक नागा साधु चमचमाती तलवारें लेकर निकल पड़े- उनने जो युद्ध मचाया उससे अब्दाली का कलेजा बैठ गया । 20 हजार अफगान सेना के सिपाही और सिपहसालार इन वीरों ने 4 घण्टे में कचरघान कर दिये । मुसलमान इतिहास लेखकों के अनुसार इनके 2000 नागा मरे ऐसा लिखा गया है । इस घटना के वर्णन में जिसे माथुर छोटा साका कहते थे मुसलमान शाहों और नवाबों के टुकड़ों पर पलने वाले खुशामदसे मालिकों को फुलाकर उनसे मन चाहे इनाम पाने वाले मुसलिम लेखकों तथा उनहीं को शिरोधार्य मानकर इतिहास को कुरूप करने वाले लेखकों ने जो बढ़ाचढ़ा कर लूट के धन और गुलामों की संख्या का उल्लेख किया है वह सर्वथा मान्य नहीं है ।<br />
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हिन्दू खासकर चौबों की एक भी नारी कैद में नहीं पड़ी । गूजर अहीर माली खत्री कायस्थ वैश्यों की जो कुछ थोड़ी सी रूपवती युवतियाँ इनके हाथ पड़ीं उनने सिर पटककर अन्न जल त्याग कर यहीं प्राण विसर्जित कर सती धर्म का पालन किया । एतिहासिक प्रबल तथ्य यह भी है कि गजनी गोरी के समय में जो हिन्दू गुलाम बनाकर ले जाये जाते थे वे सुलेमान ओर हिन्दूकुश पर्वतों की चढ़ाई पर ही कड़ाके की ठन्ड से (चीथड़ों में लिपटे अधभूखे) कांपते हुए मर जाते थे, इसी से उस पर्वत का नाम हिन्दुकुश (हिन्दू की मौत) रक्खा गया और भविष्य में भारत से गुलाम ले जाने की निषेध नीति स्थिर कर ली गई थी । साधुओं की झौंपड़ियाँ तो मथुरा के घाटों पर श्रीं ही नहीं- जो निम्बार्क और गौड़ीय सम्प्रदाय के साधु मथुरा में मथूकरी भिक्षा करने आते थे वे भी भिक्षा पाकर दूरदूर गिरिराज तरह राधाकुंड कामां वृन्दावन आदि में चले जाते थे । अही भी अपनी गायों को लेकर मांट नौहझील के गहन बनों में चले गये थे । इनके सम्बन्ध में गढ़े गये गपोड़े बिलकुल ही अविश्वस्त है ।<br />
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==अंगरेजी राज्य==<br />
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1859 वि0 में पेशवा से मथुरा के अर्जुनपुरा में सन्धि करके अंग्रेजों ने अपना कम्पनी राज्य स्थिर कर लिया । अंग्रेजों की राज्यव्यवस्था देखने में उदार और रक्षात्मक थी, किन्तु अपने देश का पक्षपात, भारतियों से राजकार्यों में भेदभाव तथा हीनता की दृष्टि से भारतियों के हृदयों में विदेशी शासन के प्रति आशंकायें जाग्रत होने लगीं थी । इस भावना ने जब उग्र रूप धारण किया तो 1857 (1914 वि0) का सेना विद्रोह प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम' के रूप में फूट पड़ा । आरम्भ में माथुर अंग्रेजों के प्रशंसक थे किन्तु राजनीति नग्नता प्रकट होने पर वे उनके कट्टर विरोधी बन गये । विद्रोह के प्रकट होने से पहिले से ही वे सेना में स्वाधीनता की भावना के प्रचारक बन चुके थे । फौजी सिपाही और अफसर जो यमुना स्नान को आते उन्हैं वे अंग्रेजों की गुलामी से छूटने के लिए प्रेरित करते थे । गदर में जब मथुरा कचहरी का खजाना लूटा गया तब नागरिकों के दल में 200 चौबे शामिल थे । इन्होंने कोष लूटा उसे आगरा नहीं जाने दिया अंगरेजों की कचहरी बँगले जलाये गये तथा कप्तान बार्लटन सहित अनेक गौरे अफसरों को मार डाला ।<br />
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अंग्रेजी शासन की जड़ उखाड़ने के प्रयासों में चौबे सबसे आगे रहते थे उन्हैं 'अगलगी कौ बरा' कहा जाता था- उस समय के अंग्रेज लेखक ग्राउस और ड्रेक ब्लैक मैंन ने अपने मथुरा गजेटियरों में लिखा है- मथुरा के क्रांतिकारियों को मथुरा के चौबों से बड़ी सहायता प्राप्त हुई इस क्रांति के जन्म दाता भी चौबे ही थे । क्रांति के पूर्व ही उन्होंने महोली (मधुवन ध्रुवजी की कदम खंडी) में क्रांति आयोजकों का एक सम्मेलन किया और उसमें मथुरा के उग्र विचारों वाले विद्यागुरू स्वामी विरजानन्द को एक पालकी में बैठाकर वहाँ ले गये, उनका भेट पूजा से समादर किया और उनके प्रभावशाली भाषण से उपस्थित जनों को अपने निश्चय में दृढ़ प्रयासी बनाया ।<br />
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इस सम्मेलन में बादशाह बहादुर शाह के शहजादे, मरहटा सरदार रंगोबापू तथा शाही इमाम अजी मुल्ला खाँ, तात्या टोपे तथा जगदीशपुर के कुंवरसिंह उपस्थित थे । <br /><br />
इस राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चे में मथुरा के सेठ गोविन्दास राधाकिशन ने जो अँग्रेजी अफसरों की रक्षा की उससे कुपित विद्रोहियों के सेना प्रहार से मुनीम मंगीलाल श्रीनिवास माहेश्वरी चौबे रामदास जी तथा उनके प्रमुख निर्देशक चौबे छंगालाल जी ने मथुरा नगर की बड़े गम्भीर संकट में रक्षा की । अषाढ़ मास में फौजी विद्रोहियों का एक दल मथुरा में दो दिन रूका, उस समय नगर निवासियों से कुछ धन इकट्ठा कर मुनीम मंगीलाल ने उन्हें आगे बढ़ा दिया । कार्तिक के बाद एक दूसरा दल फिर आया जो मथुरा को तोपों से उड़ा देने के इरादे में था । श्रीचिंतामणि शुक्ल अपने मथुरा जनपद के राजनैतिक इतिहास में लिखते हैं- '26 दिसम्बर को दिल्ली से वापिस आते हुए क्रांतिकारियों का एक दल मथुरा आया । यह दल की 72 वी नाम की पल्टन से मिल गया , इस दल के नायक सूबेदार हीरासिंह थे । सेना की इस ब्रिगेड ने यमुना के पास सेठ की हवेली की ओर मुँह करके तोपैं लगा दीं, जिससे नगर आतंकित हो उठा । सूबेदार हीरासिंह इलाहाबाद जिले के ब्राह्मण थे तथा चौबे छंगालालजी के यजमान थे । मुनीम मंगीलाल ने तथा चौबे रामदास जी ने जो इन्हीं के मकान में रहते थे उनसे प्रार्थना की कि वे हीरासिंह को इस कार्य से विरत करैं और सामदाम नीति से मथुरा नगर की रक्षा करैं । श्री छंगालाल जी तब अकेले नाव लेकर यमुना पार 72 वी सेना के शिविर में गये । सूबेदार हीरासिंह को समझाया और मन का आशय लिया कि उनके पास रसद की कमी है, वे एक लाख रूपया नगद तथा रसद चाहते हैं । तत्काल उन्हौंने सेना को आटा दाल आदि खाद्य सामिग्री पहुँचवादी । तब हीरासिंह ने सरकारी कलक्टरी कचहरी कोतवाली तहसील पर कब्जा किया । इस समय मथुरा की जामा मसजिद के मौलवी करामात अली बादशाह के प्रतिनिधि (बायसराय) घोषित किए गये- रहमतुल्ला सदर कानूगो, मनोहरलाल सरिश्तेदार, वजीर अली को कलक्टरी के औहदेदारों के पद दिये गये- नये नये राजाज्ञा पत्र (आर्डर) जारी किए गए हीरासिंह 15 दिन मथुरा में रहे तब तक मुनीम मंगीलाल ने बड़ी चतुराई से मथुरा से सेठों से 1 लाख रूपया (1000-1000रूपया) इकट्ठा करके उनके अर्पण कर दिये ।<br />
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दुर्भाग्य से इसी समय तीसरी बार बरेली की बागी पल्टन ने मथुरा में प्रवेश किया । उसने भी अपनी तोपें विश्रान्त और असिकुन्डा के घाटों के सामने लगाकर उनके मुँह सेठ की हवेली की तरफ कर दिये । अब मंगीलाल मुनीम घबड़ाये, तुरन्त सूबेदार हीरासिंह के पास गये, उनसे नंगी तलवारें लिए 100 घुड़सवार मौके पर भेजे- बरेली के फौजी दस्ते के सूबेदार को समझाया और उनके न मानने पर उनकी तोपों हथियारों पर कब्जा कर उन्हैं बलपूर्वक मार कर भगा दिया । फिर सूबेदार हीरासिंह अपनी फौजी टुकड़ी को लेकर हाथरस बरेली को चले गये । आश्विन मास में क्रांन्ति की ज्वाला मन्द पड़ने लगी और तब तक अँग्रेजों ने अपना सैन्य बल पुन: संगठित कर कठोर दमन का चक्र चलाना आरम्भ कर दिया । लोगों को खोज खोज कर सार्वजनिक स्थानों पर फाँसी पर लटकाया गया और उन्हैं गोलियों से उड़ा कर बदला लिया गया । चतुर्वेदियों के वे उत्साही शूरवीर जिन्हौंने इस क्रांति में आगे बढ़कर भाग लिया था शत्रुओं के हाथों अपराधियों की मौत मरने को तैयार न थे अत: वे अपने 40 साथियों के साथ विभिन्न स्थानों में बिलीन हो गये जिनका फिर कोई पता न चला । चौबों में जो दैनी के गिदौड़ा बांटे जाते हैं उनमें उस समय 'गदर के 40 आँक' धड़े दारों को दिए जाते थे । उस समय इन वीरों के नाम लेने पर भी कड़ी पाबन्दी थी अत: लोग उन्हैं भूल गये । अति महत्व की बात यह है कि किसी अज्ञात प्रयत्न से उस समय के कंपनी के सरकारी गदर के कागजात भी गुम हो गये, अत: यह जानना दुष्कर हो गया कि इस साल में मथुरा में कितने किन व्याक्तियों को क्या कुछ हुआ ।<br />
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चौबों की उत्कट देश भक्ति और बलिदान भावना की एक घटना जो परम अद्भुद है राजक्रांति के इतिहास में अमर हैं । जिस समय सदर बाजार में निरपराध रोते बिलखते लोगों को फांसी दी जा रही थी उस समय अचानक कहीं से आकर नरसीं चौबे नाम के एक निर्भय देश भक्त ने ललकार कर कहा- 'कायरो, रूको इन निरपराधों को क्यों फाँसी दे रहे हो- गोरों का मारने वाला तो मैं हूँ-मुझे जो कुछ बने करो' गोरे सत्र रह गये, काना फूँसी की और उस बहादुर वीर को फांसी पर लटका दिया । इस सम्बन्ध में एक गोपनीय रहस्य मयी और घटना है । हीरा सिंह जब मथुरा से जाने लगे तो उनके साथ के एक राजस्थानी गूजर सिपाही ने उनसे आज्ञा ले मथुरा में ही रहना निश्चय किया । वह व्यक्ति जो अपना नाम भवानी नाम बतलाता था और अर्ध विक्षिप्त की तरह सारे दिन एक कोठरी में अपने आश्रयदाता श्री द्वारिका नाथ जी के पुत्र श्री लालजी महाराज की हवेली में बन्द पड़ा रहता था तथा जब बाहर जाता सड़क पर पड़े कागज चिथड़े कील पत्ती लोहा झोली में भर लाता था आजीवन यहीं रहा । उसने अपना गाँव जाति कभी किसी को नहीं बतलाया- लेखकने स्वयं उसे अपनी बाल्य अवस्था में देखा था । अँग्रेजों की सहायता के पुरस्कार में सेठों को 'राजा' का तथा चौबे रामदासजी को 'राय बहादुर' का खिताब एवं सेठों को बागी देशभक्तों की जप्त की गई 16 लाख सालाना की जमींने गांव और जमीदारियाँ दी गई । मथुरा में जयसिंहपुरा में गणेश टीले के पास पेशवावंशज नाना साहब की एक भव्य कोठी तथा बाग था अँग्रेजों ने इसे ध्वस्त करके बाग के वृक्षों को भी काट कर अपना कलेजा ठन्डा किया । <br />
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===प्रमुख महापुरूषों का मथुरा पदार्पण===<br />
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1893 वि0 में रामकृष्ण परमहंस, 1945 वि0 में स्वामी विवेकानन्द, 1962 वि0 में स्वामी रामतीर्थ, 1974 वि0 में लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय, 952 वि0 में विनोबा भावे, 1976, 78,86 में महात्मा गाँधी, 1978 वि0 में लाला लाजपतराय, अबुल कलाम आजाद, डा0 अन्सारी, आसिफ अली, पं0 मोतीलाल नेहरू, 1974 वि. में लोकमान्य तिलक, 1983 वि. में जवाहरलाल नेहरू, 1987 वि. में विठ्ठलभाई पटेल, 1988 वि. में सुभाषचन्द्र बोस, अरूणाआसिफ अली, 1994 वि. में लाल बहादुर शास्त्री, 2011 में पुरूषोत्तमदास टन्डन, 2016 वि. में बाबू राजेन्द्र प्रसाद, इन्दिरा गांधी मथुरा पधारे, इनमें से प्राय: सभी ने यमुना जी के स्नान दर्शन कर माथुर चतुर्वेदियों का यथोचित सम्मान किया ब्रज संस्कृति का सुमधुर रसास्वादन किया और जनता में जन जाग्रति का शंखनाद किया ।<br />
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===धर्माचार्यों का आगमन===<br />
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धर्मचार्यों में जगदगुरू श्री शंकराचार्य, रामानुज जीयर स्वामी, मैसूर के राजगुरू स्वामी, झालरिया नागौरी मठों के स्वामीजी, माध्वाचार्य, बल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी गण, चैतन्य महाप्रभु श्री सनातनरूपजी तथा अन्य गौड़ीय आचार्य, निम्बाकै के आचार्य, रामानंदी पयहारीजी, अनंतजी कीलजी नाभाजी प्रियादास हितंहरिवंश आदि अनेकानेक महानुभाव मथुरा पधारे जिनके परंपराबद्ध हस्तलेख माथुरों के पास हैं ।<br />
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===ब्रज यात्रा आयोजन===<br />
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ब्रजयात्रा मथुरा मंडल ब्रजभूमि की अति प्राचीन यात्रा पद्धति है । प्रभु आदिवाराह 9260 भगवान राम 4035 वि0 पू0 , भक्त प्रहलाद 9254 वि0 पू0, श्री नारदजी 9000 वि0 पू0, उद्धवजी 3100 वि0 पू0, वज्रनाभ 3042 वि0पू0 , तथा निम्बार्क संप्रदाय, बल्लभ संप्रदाय गौड़ीय संप्रदाय, राधा बल्लभ, राधा रमण, संप्रदायों के आचार्यों ने ब्रज यात्रायें की है इनमें माथुरों की अपनी ब्रजयात्रा लठामार सब से पुरातन थी जो अब साधु संतो द्वारा की जाती है । बल्लभ संप्रदाय की ब्रज यात्रा तो प्रति वर्ष तथा कभी कभी कई कई गोस्वामियों द्वारा बड़े समारोह और राजसी ठाठ से की जाती है । मथुरा के चौबेजी जो ब्रज चौरासी कोस के तीर्थ पुरोहित है वे ही इन यात्राओं में साथ साथ चलकर यात्रा के तीर्थों का तीर्थ विधान दान दक्षिणा दर्शन महात्म परिचय आदि की विधि सम्पन्न कराकर अपना सनातन कर्तव्य निभाते हैं । अनेक श्रद्धालुजनों को इन ब्रजयात्राओं में भगवद् साक्षात्कार और आलौकिक अनुभव दिव्य रसास्वादन आत्मतत्वबोध आदि की परम दुर्लभ अनुभूतियाँ प्रत्यक्ष होती हैं जो जीव के लिये जीवन का परम लाभ है । <br />
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===भक्त और संत महात्मा===<br />
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माथुरों द्वारा मथुरा का दिव्य रसास्वादन प्राप्ति हेतु यहाँ आने वाले भक्तों और संतों की सूची लंबी है । उनमें से कुछ प्रमुख महानुभावों के नाम यहाँ देना संभव है । म0 विष्णुस्वामी महाराज 1257 वि0 । श्री भट्टजी 1344 वि0, रामानंदजी 1356 वि0, श्री स्वामी हरिदासजी 1541 वि0, श्री हितहरिवंशजी 1559 वि0, भक्त नाभादासजी 1600 वि0, पयहारीजी 1572 वि., स्वामी अग्रदास 1632 वि0, श्री अनंतदास 1645 वि0, श्रीहरिराम व्यास 1541 वि0, रानाकुँभा 1490 वि0, तानसेन 1624 वि, मीराबाई 1592- 1620 वि0, गो0 तुलसीदास 1628 वि0, महात्मासूरदासजी 1565 वि0, पशुराम देव 1450 वि0, श्री गो0 बल्लभाचार्य 1549 वि0, श्री चैतन्यमहाप्रभु 1572 वि0 राना सांगा (संग्राम सिंह) 1584 वि0, चंद्रसखी 1648 वि0, भक्त कवि सेनापति 1680 वि, श्री विठ्ठुलजी , बिहासन दास जी, भगवद्रसिकजी, ललितमोहिनीजी, ललित किशोरी जी, रंछोर दासजी, स्वामी कील ध्रुवदासजी, गो0 बिठ्ठलनाथजी 1600 वि0, 'भक्त रसखान 1592 वि0, श्री माधवेन्द्र पुरीजी 1507 वि0, श्री ईश्वर पुरीजी 1538 वि0, पद्मना दास 1560 वि, श्री रूप जी 1572 वि0, श्री सनातनजी 1592 वि0, श्री जीव गोस्वामी 1592 वि, श्री रघुनाथ गो0 रघुनाथ भट्ट, गदाधर भट्ट, श्री गोपाल भट्टजी(राधारमणी गो0) 1616 वि0, श्री नारायण भट्ट 1602 वि0, श्री केशव काश्मीरी 1598 वि, भक्त महाकवि बिहारी लाल चौबे 1660 वि0, बेगम ताज 1580 वि0 नागरी दासजी 1622 वि0, भक्त जगतानंद कवि 1658 वि, ब्रन्दावन देव हरिदासी 1754 वि0, मुकुँद हाड़ा बूँदी के 1635 वि, अमरसिंह हाड़ा जोधपुर के 1621 वि0, राजा पृथ्वीराज बीकानेर के 1624 वि, घमंडीराम करहला के 1549 वि0, उदैकरण 1700 वि0, खेमकरण 1755 वि0,विक्रम 1735 राजामानसिंह 1597 वि0, राजाजयसिंह 1760 वि0, रहीम खान खाना 1580 वि0, बीर सिंह बुँदेला 1671 वि0, आनंदधन गोस्वामी नंदगाँव के 1620 वि0, प्राणनाथ स्वामी परनामी 1628 वि0, हठी बरसानियाँ 1622 वि0, ओलीराम 1621 वि0, भक्त नाभादासजी 1600 वि, प्रियादासजी 1719 वि0, लालाबाबू 1866 वि0, भक्त कवि छीतस्वामी 1572 वि0, तपस्वी भक्त द्वारिकानाथजी मिहारी 1896 वि, बूटी सिद्धजी 1744 वि, राज पटनीमल काशी 916 वि, पंडितराम जगत्राथ सम्राट दीक्षित 1767 वि, । राधेबाबा 2028 वि, गुदारिया बाबा 2030 वि, ग्वारिया बाबा 2000 वि, । देवा सिद्ध योगीराज 1838 वि, । श्री रज्जू जी महाराज 1980 वि, ।<br />
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===बर्तमान कालीन सन्त महात्मा=== <br />
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युगल बिहार उपासी अनन्य रसिकवर श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के गादीस्थ श्री राधाचरणदास जी टटिया स्थान वृन्दावन, श्रीयोगीराज महाराज के गोपाल पीठ के आचार्य श्री विट्ठलेराजी महाराज मथुरा, विरक्त सन्त कौशल किशोर मन्दिर वृन्दावन के महंतपस्वी श्री कौशल किशोरजी महाराज, पनकी कानपुर के हनुमान मन्दिर गादी के महन्त श्री भुवनेश्वरनाथ जी (मत्रू बाबा) पनकी कानपुर । <br />
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माथुरों के भेद उपभेद-<br />
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माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों के दो भेद हैं- 1. कड्डए चौबे 2- मीठे चौबे ।<br />
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कडुओं में 1- मथुरास्थ, 2-प्रवासस्थ दो भेद हैं । प्रवासी बन्धुओं में 1- कुलीन, 2 कदलुआ, 3- सैंगबार तीन उपभेद हैं ।<br />
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खड़ग कवि ने कहा है-<br />
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<poem>करूऔ बौलैं मीठौ खाँइ, मथुरा छांड़ कहूं नहीं जांइ ।<br />
मथुरा के हित सीस कटाये, पुरखा पंगत पैज निभाये ।।<br />
राउरंक की करैं न कान, करूऔ पीतौ राखै आन ।<br />
हित की बात गरजकैं कहैं, राग द्वेषते न्यारे रहैं ।।<br />
कठिन खरखरे खरे सुहाये, करूए पीते करूए कहाए ।।<br />
मिठबोला जो मीठे रहे, जीव बचात धाम तजि गये ।<br />
करूएन नैं जब सीस कटाए, खीर खांड़ मीठेन नें खायें ।।<br />
करूएन झेले संकट घोर, बने न कुल कीरति के चोर ।<br />
अचल रहे ब्रत मेरू समान, धीरज धरम तेज की खान ।।<br />
माथुर तीन लोक ते न्यारे, चौबे तीन लोक के प्यारे ।<br />
जमुना मैया सदा सहाई, अमर कीरति भूमण्डल छाई ।</poem><br />
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मथुरास्थ- मथुरास्थ माथुरों की प्रधान शाखा है जो अपने मूल उत्पत्ति केन्द्र मथुरा नगर में बसी है । इसी में से समय समय पर उक्त सभी शाखायें निकल कर बाहर फैली हैं । मथुरास्थों के आचार विचार स्वधर्म और कुल परम्परा की दृढता सभी के लिए अनुकरणीय और प्रेरणा दायक है । अपने कठोर संयम और अविचल भाव तथा आत्मगौरव के लिए मरमिटने की दृढनिष्टा के कारण ही ये कडुए चौबे नाम के विख्यात हुए हैं । इनका कुलाचारा आज भी आदर्श है जिसकी विशेषता यह है कि- 1 ये कच्ची रसोई किसी ब्राह्मण या अन्य जाति के हाथ की ग्रहण नहीं करते । 2 इनके यज्ञोपवीत आदि संस्कार शास्त्रानुसार यथा समय होते हैं । 3 ये हुक्का चिलम तमाखू बीड़ी सिगरेट नहीं पीते, मद्य मांस प्याज लशुन सुलफा गांजा अन्डा केक होटल का किसी भी प्रकार का भोजन स्वीकार नहीं करते 4 ये चोटी यज्ञोपवीत कंठी तिलक धारण करते, स्नान के बाद ही भोजन पाते तथा यथावकाश गायत्री संध्या तर्पण श्राद्ध देवपूजन नैवेद्यनिवेदन देव स्तुति आदि ब्राह्मण कर्मों का दृढता से पालन करते हैं, 5 ये अपने को श्री यमुना माता का पुत्र मानते हैं तथा माता जी की रक्षा कृपा पर पूर्ण भरोसा रखते हैं ।<br />
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कुलीन- ये मथुरास्थ गुरूओं के आचरण को निष्ठाऔर श्रद्धा के साथ धारण करने से प्रयासी माथुर कुल के गौरव को स्वाभिमान के साथ निर्वाह करने वनाये रखने के कारण ये अपने को श्रेष्ठ माथुर कुल धारी होने के गौरव के हेतु से कुलीन कहते हैं ।<br />
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बदलुआ- अपनी मध्यमवर्गीय आर्थिक स्थिति के कारण बड़े धनी समृद्ध वर्ग में विवाह सम्बन्ध न कर पाने के कारण परस्पर में कन्या के बदले में कन्या लेने के सामाजिक व्यवहार के कारण ये बदलुआ कहे गए । यह बदले की प्रथा पहलवानी काल में पुत्रों की बहुवृद्धि के कारण मथुरा के मथुरास्थों में भी प्रचलित हो गयी थी ।<br />
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सैंगवार- सैंगरपुरा मथुरा से अपने प्रयाण के कारण ये अपने को सैंगरवार या सैंगवार कहते थे । 'कैमर पूजै सैंगरखांइ' कहावत के आशय से यह भी सिद्ध होता है कि त्रेता द्वापर युगों के समय में ये सैंगर (शमीवृक्ष) की फली, सैंगरफरी को सुखाकर उनका आहार में पुरोडाश (हलुआ लापसी) बनाकर प्रयोग करते थे । शमी वृक्ष को छौकर खेजड़ी कीकर कई नाम से जाना जाता है । महर्षि वेद व्यास के तपोवन शम्याप्राश के मुनिजन शमी आहारी थे । राजस्थान में त्स्य देश में कैर सांगरी एक बहुप्रचलित सुखाया हुआ शाक है । खेजड़ी को आहार मे प्रयुक्त करने वाले केजड़ीवाल, छौंकर भक्षी छौंकर, कीकर भोजी काकड़ा व्यास ब्रह्मर्षि देश में हैं ।<br />
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मीठे चौबे- मीठों में उपभेद नहीं हैं । वे सभी 'रचनं मधुरं बचनं मधुर' की मीठी चाशनी में पगे हैं । अति मधुरता के कारण इनके ब्रज तथा राजस्थान के किसानों जाटों गूजर मैंना अहीरों के साथ घुल मिल जाने के कारण इनके माथुरी आचार में काफी ढिलाई आ गई । ये हुक्का पीने लगे खाट पर बैठ कर जाट गूजरों के साथ दालरोटी खाने लगे, समय पर संस्कार यज्ञोपवीत आदि से विरहित हो गये, स्नान करके भोजन करना गायत्री जाप आदि कर्म उपेक्षित पड़ गये, इतना ही नहीं जबकि चीतौड़ा भदौरिया आदि बन्धुओं ने दूर से आकर मथुरा में अपने आवास पुन: स्थापित किये तब इन्हौनें समीप ही रहते हुए भी मथुरा में अपना कोई दस बीस घरौं का मुहल्ला भी नहीं बसाया । इन्होंने मथुरा और मथुरास्थ बन्धुओं से आत्मीय सम्बन्ध भी शिथिल कर लिए और कुछ अंशों में कटु जैसे बना लिए । इनकी यह मनोदशा और आचार स्खलन को देखकर मथुरास्थों का इस दिशा में कोई संगठित या सुनिश्चित निर्णय नहीं था केवल व्यक्तिगत भावनाओं से लोगों को यह अरूचिकर बन गया । अब समय बदला है इनमें शिक्षित संस्कारित और संगठन भावी लोग आगे बढ़ते आ रहे हैं । प्रेमपरक माधुर्य और स्नेह के सरस सौम्यरूप श्री बाबूजी मुनीन्द्र नाथजी जैसे सत्पुरूषों के संगठन प्रयासरूप समय पलटेगा ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_18&diff=56327चतुर्वेदी इतिहास 182010-04-23T13:37:53Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
श्री बल्लभाचार्य संप्रदाय- 1336 वि0, में प्रादुर्भावित श्री बाल गोपाल सेवा के प्रवर्तक श्री विष्णु स्वामी संप्रदाय की परम्परा को लेकर श्री बल्लभाचार्य महाप्रभु का अविर्भाव 1535 वि0, में हुआ । ये 1549 वि0 में मथुरा पधारे । इन्होंने 1550 वि0 में अपने विश्राम घाट निवास में यमुनाष्टक की रचना करने के बाद 6 बार श्री उद्धवाचार्य जी के उपदेश से तथा श्री उजागरजी के पौरोहित्य निर्देशन में ब्रज यात्रायें कीं जिनके विषद वर्णन का ग्रंथ श्री उद्धवाचार्य देव जू द्वारा लिखित 650 पृष्ठों में वर्णित हमारे संग्रह में सुरक्षित है । श्री महाप्रभु ने मथुरा ब्रज महात्म और यात्रा पद्धति का 'ब्रज मथुरा प्रकाश' नाम का ग्रंथ भी रचा है जाते हमारे ही यहाँ हैं । उनकी 6 ब्रज यात्राओं में-1-1550 वि0 ग्वालियर से पधारे तब, 2-1555 वि0 में पुष्कर से पधारे तब, 3-1571 वि0 अडैल से पधारे तब, 4-1573 वि0 पुन:, 5-1585 वि0 द्वारिकापुरी से पधारे तब और 6-1586 वि0 गोपलापुर (जतीपुरा) निवास करते तब इस प्रकार 6 ब्रज यात्राओं को सम्पन्न कर ब्रज रस की सिद्धि करने का महा मनोर्थ वर्णित है । ब्रज के प्रमुख स्थलों में इनकी भागवत परायण की 24 बैठकैं सर्व विदित हैं । 1571 वि0 की बृजयात्रा सिकन्दर लोदी काल में जब बहुला बन में पहुंची तो वहाँ के कट्टर इस्लामी फौजदार ने बहुलावन कीं पाषाण गौर की पूजा रोकदी तब माथुर श्री उद्धवदेव जी के ऋग्वेदीय गो सूक्त के पाठ से गौ ने घास खायी और हाकिम चमत्कृत और लज्जित पराजित हुआ । 1565 वि0 में कवि सम्राट सूरदास जी इनकी शरण में आये, इनके समीप ही मणि कर्णिका की एक कोठरी में रहे । 1623 वि0 में जब श्री नाथ जी मथुरा में सतघरा में विराजे थे उस फाग अवसर पर बादशाह अकबर सूरदास जी के दर्शन को आया किंन्तु सूरदास जी ने दर्शन नहीं दिये । श्री आचार्यजी का आसुर व्यामोह 1587 वि0 में हुआ ।<br />
गो0 श्री बिठ्टलनाथजी- 1572 वि0 में जन्मे श्री बिठ्टलनाथजी का मथुरा बास 1622 से 1627 वि0 तब रहा । रानी दुर्गावती ने उनके और उनके 7 पुत्रों के लिये सतघरा महुल्ले में सात हवेलियां युक्त विशाल भवन बनवाया । 1623 वि0 में उनके पुत्र गो0 गिरधर जी श्री नाथ जी को जतीपुरा से मथुरा ले आये इस होली उत्सव में बादशाह अकबर आया । श्री गोसांई जी ने अपने समय में श्रीनाथ जी की सेवा का नियमित विस्तार कर कीर्तन साहित्य और कीर्तन की राग पद्धति का विकास करने को अष्ट छाप के कवियों की स्थापना की । <br />
1600 वि0 में गो0 विठ्टलनाथजी ने ब्रजयात्रा की तब श्री उजागरवंश को पौरोहित्य का वृत्ति पत्र लिखा-<br />
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'स्वस्ति श्री मद्विट्ठल दीक्षितानां मथुरा क्षेत्रे तीर्थ पुरोहितो उजागर शर्मा माथुरोस्ति- वि0 संवत 1600 ।<br />
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इस लेख की फोटो प्रति 1989 वि0 में कांकरौली के गोस्वामी श्री ब्रजभूषण लाल ने अपनी ब्रज यात्रा के अवसर पर ली थी जो अब काँकरौली विद्या विभाग के ग्रंथागार में है । इस सम्बन्ध में प्राचीन मर्यादा के अनुसार श्रीराधाचन्द ने लिखा है- चतुर्णा संप्रदायाणां माचार्ये धर्म वित्तमै: , उद्धवोजागरौ पादौ पूजितानिश्च भक्तित: ।<br />
1644 वि0 में गोस्वामीजी को गोकुल की भूमि का पट्टा मिला और तब से वे गोकुल में रहने लगे । श्री उद्धवाचार्य देवजी ने ही 1559 वि0 में पूरनमलखत्री के द्रव्य से श्रीनाथजी का मन्दिर हीरामन मिस्त्री से तैयार कराया और अनेक विध सेवाओं और उत्सवों के बाद औरंगजेब के प्रहार से रक्षा हेतु श्री नाथजी को 1726 वि0 में मेवाड़ ले जाया गया । <br />
इस वंश में गो0 श्री गोकुलनाथजी, श्री हरिरामजी, श्री गोपेश्वरजी , तिलकायत श्री गोवर्धननाथजी, श्री दाऊजी, श्री यदुनाथजी, श्री रमणप्रभु जी, श्रीमधुसूदनलालजी, श्रीद्वारकेशलालजी, श्री माधवरायजी, श्री गोपाललालजी, आदि अनेक आदरणीय महापुरूष हुए हैं । जिनके हस्तलेख चौबों के यहाँ हैं ।<br />
चैतन्य महाप्रभु- इनका माध्व गौडीय संप्रदाय है । 1572 वि0 में श्री चैतन्य महाप्रभु मथुरा पधारे । यमुना देखकर प्रेमोन्मत्त हुए जल में कूद पड़े और हरिकीर्तन नृत्य करने लगे । उस समय श्री उद्धवाचार्य देवजी के पौत्र विरक्त वृत्तिधारी श्री दामोदरजी मिहारी वहाँ थे, वे भी अपनी माधवेन्द्र पुरी जी से प्राप्त दीक्षा के अनुसार कीर्तन नृत्य करने लगे । श्री चैतन्य देव ने उन्हें आलिंगन किया और गुरू भाई तथा तीर्थ गुरू की तरह मान दिया चरणों में गिर गये । <br />
मथुरा आइया केल विश्राम स्नान । यमुना तट चव्वीस घाटे प्रभु केल स्नान ।।<br />
सेई विप्र प्रभु केल दिखायतीर्थ स्थान । स्वायंभू विश्रान्त दीर्घविष्णु भूतेश्वर ।।<br />
महाविद्या गोकर्ण देखला निस्तर । सेई ब्राह्मण प्रभु संग ते लाइल ।।<br />
मधुबन तालबन कुमुदबन गेइला । देखला बारह बने ब्रज धाम ।।<br />
विश्रान्त से श्री दामोदर जी उन्हें घर ले गये, प्रसाद अर्पण आदि करके प्रभु का सस्नेह सत्कार किया । प्रभु ने उनके साथ मथुरा परिक्रमा के सभी तीर्थ दर्शन किये, मथुरा के केशव देव दीर्घविष्णु महाविद्या भूतेश्वर गोकर्ण आदि तीर्थ दर्शन किये फिर उन्हीं के साथ 12 बनोंयुक्त ब्रज की यात्रा की । श्री दामोदर देव ने उन्हैं तीर्थों कुंडों में स्नान आचमन देव दर्शन महात्म श्रवण कराया । अक्रूर घाट पर कुछ दिन निवास कर जब उनके साथी उन्हैं अपने देश ले जाने का विचार करने लगे तो महाप्रभु ने उन्हीं दामोदर जी से इसकी आज्ञा चाही । आज्ञा मिलने पर वे जब चलने लगे तो श्री दामोदर जी ने उनका साथ नहीं छोड़ा । वह मथुरिया माथुर विप्र दामोदर देव प्रयाग तक उनके साथ गये । रास्ते में महाबन के समीप अलीपुर खानपुर के बन में पठानों से संघर्ष हुआ और श्री दामोदरजी ने पठानों से मुक्ति दिलायी । वे सभी कीर्तन भक्त होकर वैश्नव पठान बन गये । बंगाल से फिर महाप्रभु ने ब्रज रसानुभव के लिय भी सनातन रूप जीव मधु रधुनाथ रघुनाथ भट्ट आदि अनेक अपने भक्त ब्रज में भेजे । 1574 वि0 में श्री सनातन और रूप गोस्वामी मथुरा आये । श्री रूप जी ने 1600 वि0 में श्री भगवान देवजी के यहाँ से ब्रज का ग्रंथ तथ अन्य अनेक ग्रंथ अवलोकन कर अपना 'मथुरा महात्म' ग्रंन्थ लिखा । सनातन जी नित्य मथुरा में पवित्र पूजनीक माथुर ब्राह्मणों के घरों से भिक्षा लेने आते थे । उन्हैं चौबे जी नारायण अझुमियाँ के घर से पहिले मदना नाम का बालक और फिर मोर मुकटवारों श्याम सुन्दर विग्रह जिसे उन्होनें मदनमोहन ही माना प्राप्त हुआ । ये घटनायें बहुत विस्तार से वर्णित हैं जिन्हें यहाँ संक्षेप में दिया जा रहा है । श्री नारायण जी अझुमियाँ की पत्नी किशोरी देवी थीं जो अपने ठाकुर मोर मुकटवारे को बड़े लाढ से लढाकर सेवा करती थीं । उनके विषय में कुछ पद्य मिले हैं –<br />
सनातन चरनन लोटत डोलै, पदरज सीस चढावै ।<br />
जसुधा जैसी लाढ़ लढ़ाती, माता के गुन गावै । <br />
भक्त सिरोमनि ध्न्य किसोरी, श्यामसुन्दर प्रिय दीन्हों ।<br />
जन्म सुफल करदियौ सनातन, सुजस लोक में लीन्हों ।।<br />
मेरौ लाल सम्हार राखियो, बड़े जतन ते पाल्यौ ।<br />
मेरौ घर सूनों भयौ बाबा, तू कछू जादू डार्यो ।।<br />
जनम-जनम जस गांऊरी मैया, सेवा सिद्ध करूंगो ।<br />
मदन मोहन मेरैं प्रानन प्यारौ, तन मन धन अरपूंगो ।।<br />
तेरे घर तौ सदां रहैं है, मेरैंहू कुटी में खेलैं ।।<br />
दूध मलाई माखन रबड़ी, भक्तन छाक सकेलै ।।<br />
उर लिपटाइ मदनमोहन कौ, भाग्यौ रस मदमांतौ ।<br />
रही किसोरी मौंन देखती, बस कछु नहीं जु चलातौ ।।<br />
ये ठाकुर मदन मोहन जी अब करौली में विराजते हैं जो जैपुर रहकर करौली नरेश की याचना पर जैपुर महाराज ने उन्हें अर्पित किये हैं । चौबों को वृन्दावन में मन्दिर बन जाने पर श्री सनातन जी ने यच्छव भेंट के रूप में 1 घोड़ा दुशाला जोड़ी, कड़े सिरपेच नगद दक्षिणा और जब तक वहाँ रहें नित्य मधुर प्रसाद दिये जाने का नेग बांधा जो अभी भी करौली में मान्य है ।<br />
मल्ल विद्या <br />
माथुर चौबों की मल्ल श्रेष्ठता भारत प्रसिद्ध हैं । मधु कैटभ माधव केशव बलदाऊ जी भीमसेन कंसराज चांडूल मुष्टिक शल तोशल कूट आदि परम्परा प्राचीन थी, किन्तु समय की मांग के अनुसार चौवों ने औरंगजेब काल में इसको विशेष विस्तार दिया । इस काल में हरएक घर में रोगी दुर्बल को छोड़कर प्राय: सभी पुरूष पहलवान बन गयें थे । मथुरा के इन मल्ल सम्राटों ने पंजाब, दिल्ली हरियाणा महाराष्ट्र मध्य प्रदेश बिहार दक्षिण देश सभी खण्डों के नामी-नामी पहलवानों को धूल चटायी थी । इनकी संख्या हजारों में है, अत: सूची न देकर कुछ खास-खास गुरूओं के नाम ही देना पर्याप्त होगा- अलीदत्त कुलीदत्त, रमजीलैया, हौआ चौवे, हरिगुरू, खूंगसिंह, दाऊगुरू, भंग्गाजी, उद्धवसिंह, खैला पांड़े, भगवंतचौवे, बिलासा जी, खौनाबाबा, गिल्हरगुरू, चंके बंके, खुनखुन पाई, धीरा फकीरा, नत्थू, पीनूरसका, बंदर सिकन्दर, जगन्नाथ उस्ताद, गलगलजी, भंवरजी, माखनजी, लछमनजी, चूंचू, गेसीलाल, देविया, महादेवा, मोथा जी, द्वारा जी, माखनजी, सिरियागुरू, जौहरी, मेघा, दंगी गुरू, मेघाजी, तपियां, खुश्याला, हिंम्मां, भौंदा, टैंउआं, गोपीनाथजी, विशनजी, बल्देवजी, विसंभरजी (सप्पे), गुलची, गुमानी, हनुमान मिश्र पिनाहट, कल्यान जोनमाने चंदपुर, कन्हईसिंह कमतरी, रौनभौंन मैंनपुरी, बेचेलाल मैंनपुरी, जै गोपाल धौलपुर आदि आदि ।<br />
काव्य साहित्य<br />
चतुर्वेदियों में कवियों की परम्परा खूब फली फूली है सैकड़ों कवि हरेक शताद्धियों में हुए हैं । उन सभी का विवरण प्रस्तुत करना संभव नहीं है इनमें से कुछ प्रमुख और ज्ञातव्य जनों के नाम देना उर्चित होगा । इनमें महाकवि बिहारी लाल विश्वख्याति के शीर्षस्थ कवि हैं जो हमारी उपेक्षा के अन्ध कूप में पड़े हैं । <br />
माथुर चतुर्वेदी कवि सूची- (1400-1500वि0,) जैनन्द मिहारी 1485, पद्माचारी 1489, (1500-1600 वि,) परसोत्तम बट्ठिया, परसा, 1518, मलूक चौबे 1538, छीत स्वामी 1572, छीहल 1575, विट्ठलदास चीत्तौड़ 1586, कान्हरदास चित्तौड़ 1599, कृपाराम 1598, (1600-1700 वि0), मोहन चौबे निर्गुण काव्य, केशव उचाढ़ा महाकवि बिहारी के पिता 1620, दामोदर चौवे 1622 समय प्रबन्ध, सुलखान चौवे 1620, सुखदेव माथुर 1615 (नील वानर का सेतुशास्त्र 4330 वि0पू0 रचित का अब्दुलरहीम खानखाना के लिय काव्यानुवाद), गंगाधर 1627, चतुर्भुज मिश्र 1624, मोहन चौबे 1630 सहज सनेही, माना 1631, राधा मोहन रावत 1632 मैनपुरी के राजदीवान, दत्तूकवि 1648 केशव माला, कान्हर चौवे 1657, महाकवि बिहारीलाल सतसईकर्ता 1660, उदैराम माथुर, 1660, माथुर नरसिंह 1665 मथुरा महात्म बीकानेर अनूप लाइब्रेरी में, वाण पाठक 1674 कवि चरित्र अकबर काल, चौबेलाल 1687, कवीन्द्र पाठक चन्दपुर 1668, नीलकंठ मिश्र 1648, गोविन्द अटल 1670, बूंदी के (सालिगंराम, हीरालाल, अमरकृष्ण, कृष्णदास 1615) जीवाराम चौवे मथुरा महात्म 1627, (1700-1800 वि0,) हरीबल्लभ 1701, गो0 हरिवंश शिष्य 30 हजार पद, हरदत्त चौब 1715 महाविद्या रत्न, कुलपति मिश्र 1717 संग्राम सार, सुखदेव मिश्र 1728, हरदेव मिश्र 1760, चन्द्रभान चौबे 1731, अखैराम मिश्र 1730, चौबेलाल ककोर 1740, कृष्ण कवि ककोर 1740 बिहार के मानजे सत सई पर छंद युक्त टीका, श्यामलाल मिश्र 1738, गणपति मिश्र 1756, कृष्णदेव कृष्ण 1750 भागवत प्रबन्ध, लच्छीराम 1756 करूणा भरण, नीलकंठ मिश्र (सोमनाथ के पिता) 1755, प्रभू 1757, रामकृष्ण 1754, लोकनाथ मिश्र बून्दी 1752, पत्नी रानी चौबे 1754, श्रीधर मिश्र 1756, भोजा मिश्र 1768, मनीराम मिश्र 1778, गंगेश मिश्र 1773, रत्तीराम मिश्र 1780, सोमनाथ मिश्र 1694 (रस पीयूष निधि रासपवाध्यायी) (1800-1900 वि0) ब्रजलाल 1807, आनंद कवि 1821 कोकसार, बालकृष्ण बसुआ 1826 बिहारी के वंशज, सूदन 1801-1812 सुसजान चरित्र, जीवाराम बूंदी 1814, मधुसूदन चौबे हाथरस 1839, रामाश्वमेध, विक्रम 1830 सांझी बत्ती सी, मधुसूदन इटावा 1839, जुगल चौबे 1836 दोहावली, कृष्ण कवि चर्चरी मैनपुरी 1853 तिमिर प्रदीप, मुरली सौरौं 1843 रत्नाबली चरित्र, राधाकिशन चित्र कूट 1849, प्यारे मिश्र 1841, वसींधर पांड़े 1804, हरप्रसाद मिश्र 1856 भाषा तिलक, धांधू चौबे 1860, गुमन कवि 1861 गुमान गढ (भरतपुर युद्ध), जवाहर तिवारी 1862 ब्रज वर्ण, सीतल दास (टटिया स्थान वृन्दावन) 1860 गुलजार चमन आदि, नाथूराम 1874, पिरभू रामकिसन छबीले चौबे 1873, बनमालजी 1882-1976, कल्याण 1880, कलीराम 1884 सुदामा चरित्र, नारायण पंडित 1882, गंगदत्त 1870, चतुर्भुज मिश्र 1880 अलंकार अमी भरतपुर बल्देवसिंह के राज कवि, डिब्बाराम पांड़े दिवेस 1897 ब्रजराज रसामृत, लालजी मिहारी 1897, शीलचन्द्र शील 1893, (1900-2000 वि0) घासीराम चन्दपुर 1908 रतलाम के राज कवि छगन मगन छंगालाल मिहारी 1132 गोविन्द माला, गंगाराम चौबे 1932 संगीत सेतु कश्मीर नरेश के लिये, प्रताप जोनमाने 1937, सभा विनोद, चौबे दत्तराम 1938 दानलीला, चतुर्भुज पाठक 'कंज' 1930-1977 यमक मंजरी, उदैराम 1934 जोग लीला, हनुमान 1930, भोलांराम मालाधारी 1930 काशीनरेश की मुहरैं दान, नवनीत कविनीत 1932 गोपीप्रेम पीयूष प्रवाह मूर्खशतक आदि, माखनचौबे पांड़े 1930 पूरनमासी लीला (करहला के रासधारियों के गुरू), हरदेवा 1934 मोहज्ञान संग्रह, गंगाधर चौबे दूसरे 1944 नागलीला, ऋषीकेश चतु0 आगरा 1998-2030 राम कृष्ण काव्य भंग का लोटा आदि अनेक, मानिक पाठक 1950 मानिक बोध, पुरूषोत्तम दास पुरा कन्हैरा 1967, खड़ग कवि 1884-1935 (दतिया के राजा भवानीसिंह के दरबार में) खड़गवानी, खरखरे छंद आदि, हितराम माथुर 1950, हरीप्रसाद चौबे 1969 महाविद्या रत्न संस्कृत वि0 वि0 बनारस के पुस्तकालय में, अमृतलाल चतुर्वेदी आगरा 1962, गोविन्द तिवारी 1967 रेल पच्चीसी, हीरालाल बूंदी 1916, चतुर्भुज रावत मैनपुरी 1960 पानांजलि आदि 65 ग्रंथ, (ख्याललावनी के उस्ताद अखाड़ा झंडासिंह मथुरा)1958 देवीलाल ककोर, भैरौसिंह ककोर, (रिसाल गिर अखाड़ा) बंसीगुरू गणेश चौवे, हरदेवा, गुलवा अझुमियाँ, मोहन पाँड़े दीवान जी मुकदम आदि, कवि भगवानदत्त 1957-2031 सुपर्णा, रामदयाल उचाढ़ा 2013 काव्य कालिंदी, क्याखूब चौबे रामप्रशाद 1953 दानलीला रंगीली होली, बालमुकुन्द 'मुकुन्द' मुदित मुकुन्द 1984 यमुना लहरी ब्रजभागवत आदि 84 रचनायें, विदुर देव वैद्य 1959-1992 जवकुश नाटक संगीत, जुगादी राम चौबे 1980 काव्य संग्रह मथुरा महात्म, उमरावसिंह पाँड़े 1959, गयादत्त शास्त्री गया 1974 कंस वध, गोकुलचन्द चन्दजी 2010, गोविन्द 2043 ब्रजवानी कमल सतसई, श्री नारायण चतुर्वेदी श्रीवर 1998, बालकृष्ण खिलाखिल जहाँगीर पुर एटा 1989, सीजीराम उचाढ़ा 1989 यमुनाष्टक छंद, वैजनाथ चौबे बैजू इटावा 1994 भजन पुष्पाँ जलि, बालकृष्ण हाथरस 1997, ओमीनन्द 1990, नरेन्द्रनाथ लखनऊ 1992, नवीनचन्द्र पुराकन्हैरा 1997, बिहारीलाल हीरालाल 1995 गणेश विरूदावली, घनश्याम निर्भीक 2040 समुद्रमंथन उद्धव गोपी संवाद, दीनानाथी सुमनेश 1997, (2000 से आगे 2043 तक) दूधाधारी 2000, नाथा पाठक 2010, बनमाली शास्त्री 2020, धीरजलाल जाटवारे 2010, अमृतलाल चतु0 आगरा 2005, हालस्यरसावतार जगन्नाथ प्रशाद चतु0 मलयपुर 2002, चन्द्रशेखर शास्त्री 2020, महेन्द्र 2000, राजन्द्र रंजन 2040, महेन्द्र नेह 2041, बमवटुक 2030, शैल चतुर्वेदी 2043, रामकुमार चंचल 2015, डा0 बरसाने लाल 2043 हाथी के पंख, सुरेश हाथरस 2043,छेदालाल छेदभरतपुर 2043, घनश्याम घनश्री 225, राजेन्द्र खट्टो 2010, मनमोहन चतु0 2027, विष्णु विराट 2043, शंकरलाल काहौ 2043, विजय कवि 2043 व्यंग हास्य, कैलाशनाथ मस्त (पान वाले) 2025, गोवर्धन पुरा कन्हैरा 2010, महादेव प्रशाद वैद्य 2042, उग्रसेन निर्मल कानपुर 2042 सत्यनारायण कथा, मकुन्द महल वारे 2043, गोर्धन बुदौआ 2043 (पोरबंदर),<br />
संगी नृत्य अभिनय<br />
संगीत- मथुरा के चौबों में संगीत के बड़े नामी कलाकार हुए हैं । चौबों को इस कला से स्वाभाविक प्रेम रहा है । इन कलाओं के कुछ विशिष्ट गुणीजनों के नाम यहाँ दिये जा रहे हैं –<br />
श्री छीत स्वामी 1572-1642 वि0 (अष्टछाप के कीर्तन कार), श्रीस्वामी ललित किशोरी जी 1758, श्रीस्वामी हरिदास टटिया स्थान के नित्य विहार गायक आचार्य, रागी पागी चौवे 1876, बालो चौवे हाथरस 1898, अंवाराम खंबाराम छिनोजी 1900, चन्दनजी गनपतजी 1929-30,बालजी 1970, जमना दास 1930, हरदेव बाबा 1937, बुलबुल मनोहर औघड़ 1970 (अलगोजा), रामचन्द पाठक 1860 (गणेशीलालजी के संगीत गुरू दत्तराम जी के पितामह), लालन जी 1988 (इसराज बादक), छैया नचैया गनपतजी 1980 (तबला के अद्वितीयवादक), गणेशीलालजी संगीत सम्राट 1903-1968 वि0 विश्व विख्यात संगीत आचार्य, इनके भाई चौखेलाल अजुद्धी मुकुंदी 1907 वि0, बंसीधर 1887 वि0 धनीराम 1904, भगवानदास सारंगीवादक कछपुरा 1998, चंदनजी के शिष्यवासुदेव (घुर्रेजी), शिवकुमार लछमनजी बालजी रंछोर पांड़े 1960-2010 तक, अच्चा-पच्चा, मोतीवारौ, सोहनलाल पारूआ, 1986 आदि ।<br />
बर्तमान 2043 वि0 में- सुखदेव, मुरारीलाल, श्रीकांत, बिहारीलाल, लव, कुश, रमेशराजा, भोला पाठक, मधुसूदन, कृपानाथ, हरदेव, छगनलाल, मदन लाल, बिहारी मुंशी, जगदीश बंसरीवाला, भगवानदास सारंगी वादक कछपुरा, गोविन्दराम (पुच्चड़जी) इसराज मास्टर, नगरा, फगड़ा, बिदुर, केशवदेव आदि ।<br />
नृत्य- नृत्य चौबे समुदाय की एक विशिष्ट कला है । इसमें विरनृत्य (नरसिंह लीला), श्रृगार नृत्य चौपाई होली की, हास्य नृत्य स्वांग भगत, अद्भुद भगत, भक्ति शांत रस रामलीला में आयोजित होते हैं । नृत्य के प्रभावी कलाकार रीछा टोली श्री गनपतजी (छैयानचैया) मानिकलाल पाठक, फैली मनोरथा दुमियाँ जगन्नाथ नन्दू चट्ठा चाऊचाचा रघुवर कंचन छोटे, नीतलाल (गनपतजी), गरूड़ पाठक, विटना पाठक, केदार, भैयालाल, आदि हुए हैं ।<br />
अभिनय- भगत अब समाप्त हो चुकी हैं । संगीत नौंटंकी के सवांग यदा कदा होते रहते हैं , नाटक लवकुश नाटक के बाद नहीं हुआ । कृष्ण लीला की प्रस्तुति कुछ अधिकार लोलुप लोगों ने विखंडित कर दी । रामलीला का उद्योग बढ़ रहा है ।<br />
रामलीला- चतुर्वेदी समाज के लिये यह एक कमाऊ उद्योग है । लगभग 32 मंडलियाँ प्रति वर्ष आश्विनमास में देश के कोने-कोने में जाकर लीला प्रदर्शन करतीं और धन तथा यश अर्जित करती हैं । अनुमान है कि प्रति वर्ष 3 लाख रूपया इस उद्योग से जो केवल 10-15 दिन ही में समाप्त हो जाता है चतुर्वेदी किशोर कलाकारों को बट जाता है । कुछ मंडल साल भर तक भी जहाँ तहाँ जाते रहते हैं । इस कला उद्योग को और अधिक ऊँचा उठाने और सुसंगठित किये जाने की आवश्यकता है ।<br />
रामलीला का आंरभ मथुरा के चतुर्वेदी सुप्रसिद्ध रामभक्त श्री गिरराजदत्त जी (खपाटाचाचे बाद में ज्ञानानन्दजी कार्ष्णि) के द्वारा 1900 वि0 के लगभग हुआ इनके पुत्र श्री वैकुंठदत्तजी तथा प्रधान शिष्य श्री गोविन्दजी नायक हनुमानजी द्वारा रामलीला का परमोत्कर्ष हुआ । इनके परिवारों की मण्डली अभी भी श्रेष्ठ मण्डली मानी जाती है । इस परम्पराओं को और आगे श्री गंगेजी विष्णुजी वैजनाथ जी मथु रेशदत्तजी बासुदेव जी हरदेवजी बढ़ाते जा रहे हैं। <br />
हर्षोल्लास और मेले<br />
आमोद प्रमोद और विनोद माथुरों के जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं । यहाँ अनेक अवसरों पर उत्सवों और मेलों का सरस आयोजन होता ही रहता है । इनमें से कुछ प्रमुख हैं –<br />
1. कंस का मेला- कार्तिक शु0 10 को होने वाला यह मेला चौबे समाज का प्रमुख मेला है । इसमें कागज का बड़ा कंस का पुतला बनाकर कंस टीले पर ले जाया जाता है- कृष्ण बलराम की सुसज्जित सवारी हाथी पर वहाँ जाती है । चतुर्वेदी समुदाय के सभी नर नारी किशोर युवक वृद्ध राजा महाराजाओं की प्रदत्त अदभुद पोषाकों शस्त्रों विशाल लट्ठों को लेकर उन्माद के साथ नाचते कूदते गाते हुए इसमें भाग लेते हैं । बाहर कार्यकरत उद्योगी बन्धु भी इस अवसर पर आते हैं । मथुरा के वायु मंडल में इस समय बड़ा आनन्द और उत्साह रहता है । कुछ सांस्कृतिक झांकियों और सजावट रोशनी से भी वर्तमान में मेला का रूप भव्य बना है । कंस का मेला वज्रनाभ काल 3042 वि0 पू0 से है । हरिवंश पुराण के अनुसार मथुरा के यादव गण माथुरों के साथ नृत्य गान उल्लास के उत्सव मनाते थे, जिन्हें द्वारिका प्रयाण के बाद वे द्वारिकापुरी में तथा माथुर प्रजा मथुरा में मनाती थी । प्राणिनी ने अष्टध्यायी 1143 वि0 पू0 में तथा कंस वध नाटक में इसका प्रस्तुतिकरण किया है । इसमें उद्घोष की जाने वाली साखी भी शौरसेनी प्राकृत से किंचित ही रूपांतरित हैं यथा-'कंस्स बलरम्मा लै आम्मैं सखा सूरसेन ''''''''''' (हम) सूरसेन ''''''' ।' कंस्सा मारू मधुप्पुरी आए कंसा के घर केह घव्वराए आदि ।<br />
भारयुक्त हैं- इनमें मानिक<br />
2. नृसिंह लीला- यह वीर नृत्न प्रदर्शन माथुरों के पुरूषार्थ परिक्षण का महान महोत्सव है । वैशाख शु0 14 से 3-4 तक यह मेला अनेक चौबों के मुहल्लों में चलता रहता है । यह अयोध्या पति भगवान राम के समय 4044 वि0पू0 से यहाँ स्थापित है, जब शत्रुहन द्वारा लवणासुर का वध किये जाने पर नवनिर्मित मथुरा में वे पधारे, विश्रान्ततीर्थ पर तीर्थस्नान रात्रिजागरण ब्रत किया तब निशा काल यापन के लिये मथुरा के चतुर्वेदियों ने इस वीर विजय शास्त्रीय द्वंद युद्ध शैली में प्रवर्तित इस लीला का उनके सन्मुख प्रस्तुतीकरण किया । एतिहासिक प्रमाण तथ्य यह हैं कि इस लीला में विनायक गणेश से सिंधुर दैत्य, देवी से मर्हिषासुर, हनुमान से अहिरावण अधकट्, ब्रत्तासुर से इन्द्र श्रीबाराहदेव से हिरण्याक्ष का द्वंद रात्रि में तथा निशान्त में ब्रह्मा से शंकर युद्ध पांचवा ब्रह्मा का मुख छेदन शिव से ताड़कारसुर का तथा अन्त में भगवान नृसिंह का प्रादुर्भाव होकर हिरयकशिपु का संहार होता है । त्रेता का मरू बाजा, बाराहों का वर्हा वाद्य भर्रा झांझ, नृसिंह का सिंह प्रहार मुद्राओं में शौर्य नृत्य इसकी विशेषतायें हैं तथा लीला में राम रावण, शत्रुघ्न लवण, कृष्ण कंस का युद्ध अनुपस्थित होने से इसे राम कालीन मानने की विंचार धारा को दृढ़ बल मिलता है । नृसिंह भगवान के चेहरे (मुखौटे) भी पर्याप्त भारयुक्त हैं- इनमें मानिक चौक का 15 सेर चौबच्चा का 10 सेर मारू गली का 8 सेर गोलपारे का 5 सेर बताये जाते हैं । चौबच्चा का चेहरा मुलतान से 1710 वि0 में शाहजहाँ काल में चौबे खड़गराम पाठक लाये थे । कहते हैं । मुलतान के हाकिम अबुल फतह ने हिन्दुओं के देवता नरसिंह की असलियत की परिक्षा करनी चाही । उसके निर्देश से पंजाबी पहलवान गवरू को हिरण्याक्ष बनाने के लिये खूब बादाम घी आदि खुराक खिलाकर नरसिंह को पराजित करने को तैयार किया गया । उस समय नरसिंह के स्वरूप के लिये उससे भी अधिक बलवान पहलवान की खोज हुई पंजाब में सिख औरंगजेब विरोधी थे, वे पहलवानों योद्धाओं पटेवाजों का बड़ा सम्मान और पोषण करते थे, मथुरा के चौबे पहलवान इसी आधार से पंजाब जाते रहते थे । खड़गराम पाठक भी वहीं थे, वे बुलाये गये और उन्हें नरसिंह का लीला पद अर्पित किया गया । लाखों दर्शकों की अति उत्सुक भीड़ में चौबेजी ने देव आवेश में आकर हिरण्याक्ष को चिड़िया की तरह मरोड़ कर उछाल कर गोद में ले लिया और उसका तीक्ष्ण नखों से उदर विदीर्ण कर डाला । यह देख उसके पक्ष के गुंडे पहलवानों ने चौबे को मार डालने का गिरोह बनाया, ज्ञात होते ही खड़गजी रातों रात उस मुखौटे को कपड़े में लपेट पीठ से बांध वहाँ से मथुरा भाग आये और यहाँ अगले वर्ष से उसी चेहरे से लीला प्रदर्शित की । ये मथुरा से चन्दपुर जाकर भी कुछ काल अपने परिवार के पाठकों के साथ रहे थे । वर्तमान में इनके वंश के 'खरगराम के पाठक' मथुरा में चौबच्चा मुहल्ला में अभी रहते हैं । अन्य मेलों में- होली की चौपई (नृत्य गान), संवत्सर के फूल डोल, यमुना छट, रामनवमी, आषाढी दंगल, राधा अष्टमी वृन्दावन टटिया स्थान, रामलीला, यमदुतिया, गोचारन, अखैनौमी, देव उठान (परिक्रमायें), आदि हैं । प्राय: सभी मेले सुरीली भांग ठंडाई, उत्तम मिष्टान्न भोजन, चीज चट्टोंनी, सैर सपाटे के लिये आकर्षण के केन्द्र हैं जिन्हें आज की नई पाश्चात्य सभ्यता में पिकनिक का खोल उढाया जा रहा है ।समय की मार से मधुवन, सतोहा, गरूड़-गोविन्द, करौटनी गोर्धन, द्वारिकाधीश के होरी खेल के दर्शन, बन विहार आदि मेले मंहगाई के पेट में समागये हैं । <br />
विव्दद्वर्ग और विशिष्टजन<br />
माथुरों में विद्वानों और गुणीजनों की बहुत संख्या है । चतुर्वेद विद्यालय के द्वारा संस्कृत पण्डितों की बहुत बृद्धि हुई है, तथा ये मथुरा बृन्दावन गोकुल दाऊजी जतीपुरा, गोवर्धन बरसाना नन्दगाँव आदि अनेक क्षेत्रों के संस्कृत विद्यालयों में प्रधानाध्यापक और अध्यापक हैं । इनमें वेदपाठी, कथा वाचक, कर्मकाँडी, ज्यौतिषी, आयुर्वेदज्ञ, सिद्ध महात्मा, तंत्रमंत्रज्ञ, अंग्रेजी शिक्षा पारंगत, प्रोफेसर, डाकटर, एडवोकेट, वैरिष्टर, इंजनीयर, राजकीय सेवा नियुक्त, व्यापारी, उद्योग पति, वित्तीय प्रबन्धक, निर्देशक और सलाहकार, वैज्ञानिक तकनीशियन, सैनिक व पुलिस उच्चाधिकारी , मुनीम, मेनेजर, कार्याधिकारी कुशल और प्रतिष्ठा प्राप्तजनों की संख्या हजारों की संख्या में है । अस्तु कुछ अतिविशिष्ट उल्लेखनीय महानुभावों के नाम निर्देश ही यहाँ पर्याप्त होंगे ।<br />
विद्वद्वर्ग- श्री महाप्रभु उद्धवाचार्यदेव, भगवान जी मिहारी, श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचंदजी, श्री नन्दजी, श्री वासुदेवजी, श्रीकेशवदेवजी, रंगदत्त गंगदत्त, बन्नाजी, बनमालजी, गयादत्तजी शास्त्री, गुलवा पंडित, श्रीवरजी, हरिहरजी, रंछोरजी, केशवदेव पांड़े, श्री जंगीरामजी (भागवत कंठाग्र पढाने वालेद्ध, बिहारी लाल शास्त्री, बिदुरजी पाठक, हरदेवजी (हाबू पंडित), बाला मौरे (भागवत वक्ता), बनमाली शास्त्री, जगनजी, गोर्धनजी शास्त्री, मगन पंडित, सैंतीरामजी, मदननरसीजी, अर्जुनजी, सोहनलालजी पांड़े, मालीराम, छंगालालजी, जनार्दनजी, वामनजी, वासुदेव शास्त्री, अनंतरामजी, पं0 छप्पाराम, विश्वनाथ शास्त्री, रिषीराम रामायणी, गोपालचन्द जी बड़े चौबे, राधाचन्दजी, अलवेली चन्दजी, वर्तमान में भी सैकड़ों की संख्या में चतुर्वेदी विद्वान हैं । भगावत और रामायण पाठियों की तो कोई गिनती ही नहीं- सहस्त्र भागवत पाठ कराने वाले श्रद्धावान को सहस्त्र से, भी अधिक पंडित केवल माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों में ही मिल सकते हैं । चतुर्वेद विद्यालय की छत्र-छाया में यहाँ संस्कृत विद्वानों की अभूत पूर्व बृद्धि हुई है ।<br />
ज्योतिष- ज्योतिष विद्या के अनेक धुरंधर मनीषि माथुरों में हुए हैं जिनमें कुछ नाम यहाँ दिये जा रहे हैं- नृसिंह दैवज्ञ भानुचन्द दैवज्ञ अकबर के दरवारी ज्योतिषी, रमामेला पंडित, भगवानजी (इनने ज्योतिषी के अनेक दुर्लभ ग्रंथ लिखे हैं विदेशी यूनानी ओलंपिया देश की ज्योतिष का ओलंपिक शास्त्र, अरवी का रमलशास्त्र इनका लिखा तथा अनेक ग्रंथ-यंत्र आदि हमने पंडित प्रयागदत्त के पास स्वयं देखे हैं) ज्योतिर्विद पं0 शंभूरामजी (महान गणितज्ञ), नारायण पंडित, चन्द्रशेखर शास्त्री, जगन्नाथ पंडित ग्वालियर राज ज्योतिषी, प्रेमसिंह पांड़े, तालगांव, नरोत्तम मिश्र, नीकंठमिश्र, (ताजिक नीकंठीकर्ता) घंघलजी, गणेशी (तपियाँ) आदि ।<br />
आयुर्वेद-आयुर्वेद भी हमारी सिद्ध विद्या है । इसमें प्रमुख विद्वानों के नाम हैं- हरप्रसाद जी (1822 अनूप शहर में हकीम अफजल अली से शिक्षा) इनके पुत्र सुआलाल हकीम (राजा अलवर को पुत्रोत्पत्ति), मोहन, सोहन (हिकमतप्रकाश हिकमत प्रदीप रचना), डोरा से नाड़ी निदान भैंस का उचित निदान बतलाया, घोलम मोलम, अच्चा बच्चा जी वैद, कूकाजी, नटवर जी, तप्पीराम, तपियाजी, चौबे गणेशीलाल संगीतज्ञ (चिकित्सा सागर विशाल ग्रंथ लेखक), विदुरदेव, बाबूदेव शास्त्री (चतु0 विद्यालय) लालाराम वैद्य, झूपारामजी, चक्रपाणि शास्त्री, राधाचन्द्र, मदनमोहन मुन्शी, गोपालजी, गरूड़ध्वज आदि ।<br />
यंत्रमंत्र- श्री शंकर मुनिजी, श्री शीलचन्दजी महाराज, श्री बासुदेवजी, श्री केशवदेवजी, श्री करूणा शंकरजी, श्री वृन्दावनजी, बटुकनाथजी, तुलारामजी, विष्णुजी, गणेश दीक्षित, गंगदत्त, कवि नवनीत, श्री बद्रीदत्तजी महाराज, कामेश्वरनाथजी, मूसरा धार चौबे, शिंभूराम चौधरी, लक्ष्मणदादा (गंगदत्त रंगदत्त के पिता), आदि ।<br />
कर्मकांड वेद यज्ञ-विशिष्टजन नरोत्तमजी, सोहनलालजी, भगवानदत्तजी, याज्ञिक, लक्ष्मणदत्त शास्त्री, बिहारीलाल याज्ञिक, लड्डूगोपाल शास्त्री, लक्ष्मीनारायण वदेनिधि, प्रहलादजी, कन्हैयालालजी, धीरजजी सामवेदी, गोकुलचंदजी, हेलाचेला, बालाजी मौरे, धीरजजी प्रयाग घाट, कैलाशनाथ, ब्रह्मदत्त (लिंगाजी), टिम्माजी, गिरिराज शास्त्री, हुदनाजी, सैंगरजी, आदि ।<br />
गुरूगादी पदासीन ग्रहस्थ आचार्य<br />
श्री गोपाल मन्दिर पीठ के – आचार्यों में श्री मौजीरामजी, मठोलजी, बंशाजी, श्री नन्दनजी महाराज (इनसे शास्त्रार्थ में पराजय के भय से स्वामीदयानंद रातोंरात भाग गये थे), श्री योगीराज बाबा रज्जूजी, 1920 वि0 जन्म (योगचर्या सिद्ध दिव्य दृष्ठा), श्री विष्णुजी महाराज जन्म 1956 वि0 )गोपाल वेद पाठशाला संस्थापक) तथा वर्तमान में श्री विठ्ठलेशजी महाराज इस गादी के सरल शुद्ध विद्वान इष्ट सेवी और आदर्श चरित्र हैं । चौबों में इनके हजारों शिष्य हैं ।<br />
श्री विद्या आदि पीठके – लोक वंदित सिद्ध आचार्यों में दक्ष गो़त्रिय श्री मकरंदजी महाराज 1742 वि0, श्री पतिजी 1772, श्री मोहनजी 1794, श्री गुरूशंकर मुनिजी 1822, श्री चेतरामजी 1850, स्वनामधन्य श्री शीलचंदजी बाबा गुरू 1861-1905, श्री वासुदेवजी 1887, श्री केशवदेवजी (भैयाजी) 1928, श्री शिवप्रकाशजी 1960, श्री करूणा शंकरजी 1968 वि0, आदि महानुभाव हुए हैं । <br />
श्री शंकर मुनिजी को जयपुर के जगन्नाथ पंडितराज सम्राट दीक्षित ने श्री विद्या यंत्रराज तथा पूजारत्न ग्रंथ समर्पित किया । इन्होंने ही श्री महाविद्यादेवी मन्दिर का शिखरबन्ध निर्माणकरा कर दीक्षित महोदय को महाविद्या उपासना की सिद्धि उपलब्ध करायी । श्री शीलचन्दजी की जिव्हा पर वाग्भज बीज मंत्र अनूप शहर में गंगा तट पर श्री गंगा माता ने स्वयं प्रगट होकर स्थापित कर बाणी सिद्ध महापुरूष बना दिया था। इनके सैकड़ों शिष्य चौबों में तथा अन्यत्र हुए है । श्री महाविद्या जी की नव पीठ प्रतिष्ठा, दशभुजी गणेश स्थापना, विश्रान्त मुकट मन्दिर तथा श्री द्वारिकाधीश स्थापना आदि अनेक महान कार्य इनके द्वारा हुए हैं । गंगदत्त रंगदत्त, ब्रह्मानन्द सरस्वती, बूंटी सिद्ध, गणेशीलाल संगीत मार्तड इनके शिष्य थे । श्री गोपाल सुन्दरी और पीतांबरा तथा वाला पद्धतियाँ इनकी रचित हैं । श्री वासुदेव बबुआजी की जिव्हा पर बाग्वादिनी सरस्वती माता विराजती थी अर्कीमन्डी के राजाध्यानसिंह, काम बन के गो0 देवकीनन्दनजी, काशी नरेश आदि इनके अनेक भक्त और शिष्य थे । श्री केशवदेव भैयाजी असाधारण तेजस्वी और शास्त्र प्रवक्ता थे । इनका नित्य आन्हिक बहुत विस्तृत तथा ग्रंथ प्रणयन अति गहन चिंतनमय था । आपकी कृपा से गो0 गोपाललालजी कठिन रोग से मुक्त तथा भरतपुर के धाऊजी को बृद्ध अवस्था में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । आपकी अनेक उपासना पद्धति श्री बालात्रिपुरसुन्दरी, बगलामुखी, भुवनेश्वरी, माता आदि की रचित हैं । श्री शिवप्रकाशजी लाल बाबा गम्भीर अल्पभाषी विद्वान थे । कलकत्ता के कार्पालक आचार्य चांवर्दिया ओझा को आपने तंत्र शास्त्र में नतमस्तक कर उससे श्री यंत्र भेंट में प्राप्त किया । श्री करूणा शंकरजी सार्वदेशिक विद्वान थे- राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रशादजी उप राष्ट्रपति बासप्पादानप्पा जत्ती राजपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी महोदय तथा मथुरा विद्वत्सभा, काशी तांत्रिक सम्मेलन, संस्कृत अकादमी उ0प्र0, गायत्रीयागदतिया, ललितात्रिपुरसुन्दरी पीठ उरई, गंगेश्वरानन्द वेद पीठ आदि से आप सम्मानित किये गये । आपके रचित तंत्र के अनेक ग्रंथ हैं । बर्तमान में इनकी गादी पर श्री पृथ्वीधरणजी विराजमान हैं जो सीधे सरल सौम्य और संकोची गम्भीर प्रकृति के हैं । श्री लालबाबा महाराज की प्रधान गादी पर श्री लक्ष्मी पतिजी (मुन्ना बाबा) विराजमान हैं, जो एकनिष्ठ उपासना तंत्र-ज्ञान और तेजस्विता की मूर्ति हैं । स्नेह भाव और सौहार्द्र इनने स्वाभाविक ही पाया है । श्री लालबाबा की पूज्य मातु श्री माया देवी (महारानीजी) भी परम बिदुषी कृपानिष्ठ और सर्व कल्याण भावना मयी महान आत्मा थीं, जिनके आशीर्वाद प्राय: सिद्ध और मंगलकारी ही होते थे । इस गादी के हजारों शिष्य चौबे तथा अन्य लोग हैं । इस गादी के शिष्य धूजी चौबे ने घोर अकाल की आशंका वाले अवर्षण काल में मंत्र बल से इन्द्र लोक जाकर इन्द्रदेव द्वारा मूसलाधार वर्षा करायी जिससे उनका नाम ही मूसराधार चौबे पड़ गया । <br />
श्री यमुनाजी धर्मराज पीठ-श्री शंकर मुनिजी के वंश की दूसरी गादी में श्री आसारामजी, हरिदत्तजी, दामोदरजी, (टुन्नौजी) श्री बद्रीदत्तजी श्री पूर्णानन्दजी तथा अब इस वंश में श्री कामेश्वरनाथ जी (दिल्ली गौरीशंकर मन्दिर) तथा श्री नित्यानन्दजी (दिल्ली राम मन्दिर) के व्यवस्था आचार्य हैं । यहाँ भी प्राचीन श्री शंकर मुनिजी द्वारा अर्चित श्री यंत्र की तांत्रिक उपासना है ।<br />
श्री पीठ रत्न कुंड- इस शक्ति पीठ के प्रथम आचार्य श्री गंगारामजी (घघलजी) 1820 वि0 थे जो रीवांनरेश नघुराज सिंह के तीर्थ गुरू थे । अपनी श्री विद्या साधना से इनने राजा का अधमकुष्ट रोग दूर किया और भेंट में 2 गाँव पाये । इनके पुत्र सूरतरामजी 1853, तुलारामजी 1881, श्री बृन्दावनजी 1912 बहिन श्री यशोदादेवी 1914, श्री बटुकनाथजी 1944 भाई श्री भगवानजी 1946 तथा वर्तमान में तंत्र शास्त्र के मान्य विद्वान श्री विष्णुजी हैं । इस परिवार के प्राय: सभी महानुभाव तंत्र शास्त्र श्री यंत्र के एक निष्ठ आराधक ज्योतिविंद पुराणविद् तथा शाक्त संप्रदाय के प्रभाव शाली आचार्य रहे हैं । श्री विष्णुजी ने काशी के तांत्रिक सम्मेलन में मथुरा के विद्वन्मंडल का नेत्रिटत्व किया तथा यमुना पार की पैंठ बस्ती में जड़िया परिवार द्वारा श्री विद्यापीठ की स्थापना करायी है । श्री भगवानजी के कुल रत्न सपूत वर्तमान में टटिया स्थान की गादी पर हैं । जिनके हजारौं माथुर शिष्य प्रशिष्य हैं। <br />
विदुर जी तांत्रिक की बैठक-इस स्थान के आचार्य सुप्रसिद्ध भारत विख्यात विद्वान श्री गंगदत्त रंगदत्त के वंशज श्री विदुर दत्तजी तांत्रिक थे । ये श्री यंत्र उपासक एक चमत्कारी सिद्ध पुरूष थे । इनने अनेक लोगों को संकटमुक्त और दुर्गाभक्त बनाकर मंत्र दीक्षित किया था । वर्तमान में इस स्थान पर कोई प्रभाव शाली आराधक नहीं हैं ।<br />
माथुर समाज के विशिष्टजन<br />
दानवीर श्री बैजनाथजी इटावा (चतुर्वेद विद्यालय को अपना लाखों का सर्वस्वदान), चौबे रामदासजी, श्री डिब्बारामजी (जगद गुरू श्री शंकराचार्य स्वामी के पूज्य, चतुर्वेद परिषद के प्रथम अध्यक्ष) , श्री नन्दजी महाराज, श्री शीलचंदजी वासुदेवजी केशवदेवजी, महामहोपाध्याय श्री गिरधर शर्मा जी, राजा जय कृष्णदास, कुंवर जगदीशप्रशाद परमानन्द जी कृष्णानन्दजी, श्री ऋषीकेश चतुर्वेदी, बन्नाजी बंसाजी पाठक, छप्पारामजी, गजाधर प्रशादजी (चतुर्वेदी महासभा अध्यक्ष), तपस्वीराम लालगंजवारे, चतुर्भुजजी जाटवारे, गणेशी लाल जी चौधरी, गैंदाजी ककोर सर्दार, अलखूराम मिहारी, सर्दाररामलाल मिहारी, शम्भूनाथजी मैम्बर, होली पांड़े, झाऊ दामोदर चौबे, बुचईसिंह, बिक्रमाजीत कमलाकर पांड़े काजीमार, हरगोविन्द श्री वैष्णव, श्री मन्नारायणजी, चौबे द्वारिकानाथजी (द्वारिकाधीश संस्थापक), द्वारिकाप्रशादजी ।<br />
राजकीय सन्मानित जन<br />
रोहनलाल चतु0 केन्द्रीय उप रेल मंत्री, कुंवर जगदीशप्रसाद आई0सी0एस0 मुख्य सचिव वायसराय की एक्जीक्यूटिव कौंसिल के मैम्बर उ0 प्र0, श्री नारायण जी भू0 पू0 शिक्षा निर्देशक उ0 प्र0 आकाशवाणी उप महानिदेशक, दीवान परमानन्दजी झालावाड़ के, रघुनाथदासजी कोटा राज्य दीवान, रा0 ब0 विश्वम्भरनाथ कोटा राज्य दीवान, यादराम चौबे भरतपुर राज्य मंत्री, मुन्नालालजी सूवा ग्वालियर, पृथ्वीनाथजी आई0 ए0एस0 शिक्षा सचिव उ0 प्र0, चंपाराम गिरीशचन्द्र आई0 ए0 एस0 चांसलर गोरखपुर विश्व विद्यालय, भरतचंद्र म0 प्र0 राज्य उपसचिव, मनोहरदास डिवाई जंगलात के सर्वोच्च अधिकारी, शम्भूनाथजी एस0 पी0 पद त्याग वर्तमान संसद सदस्य, भूपेन्द्रनाथ थर्ड सिक्योरिटी फोर्स के डी0 आई0 मनोहरलाल सिक्योरिटी आफीसर, त्रिलोकीनाथ चतु0 केन्द्रीय लेखा निरीक्षक, सचिव केन्द्रीय गृह विभाग, डिप्टी राधेलाल रजि0 कोआपरेटिव सोसाइटी उ0 प्र0, देवकी नन्दनजी बूंदी दीवान, सर लक्ष्मीपति जी सर्वोच्च चीफ कमिश्नर रेल विभाग, जनरल मैनेजर हिन्दमोटर्स, सतीशचन्द्र सदस्य केन्द्रीय रेलवे बोर्ड, कैलाशचन्द पाठक सीनियर गवर्मेंट रेलवे इन्सपेक्टर, प्रभातचंद्र मिश्र महाप्रबन्धक उत्तर रेलवे, मृगेन्द्र नाथ आई0 ए0 एस0 अधिकारी केन्द्र सरकार, रा0 व0 विश्वंश्वरदयाल रेवेन्यू कमिश्नर, बद्रीनाथ आई0 ए0 एस0 पुरातत्व अधिकारी मद्रास, ललित किशोरजी राजस्थान, मंत्री, सतीशचन्द्रजी मंत्री महाराष्ट्र प्रदेश ।<br />
सेना पुलिस विभाग- डी0 पी0 मिश्र मेजर जनरल, मोहनस्वरूप एयर मार्शल, सोहनलाल मिश्र नौसेना कमांडर, जगदीश पाठक एयर इन्डिया फ्लाइट, ज्वालाप्रशादजी जटवारे मथुरा के ऐसे विद्वान थे जिन्होंने सर्वप्रथम अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर भरतपुर नरेशों और उनके राजकुमारों को अंग्रेजी पढ़ाई । नरोत्तमदास आई0 जी0 हैद्राबाद, जयेन्द्रनाथ पुलिस कमिश्नर दिल्ली, डाइरेक्टर जनरल पुलिस उ0प्र0 ,सुशीलकुमार आई0 जी0, भरतचन्द मिश्र आई0 जी0 प्र0, फणीचन्द्र नाथ आई0 जी0 मध्य प्रदेश । <br />
न्याय- न्याय मूर्ति प्यारेलालजी जज बीकानेर, श्री ब्रजकिशोरजी इन्दौर, श्री मिश्रीलालजी प्रयाग उच्च न्यायालय, श्री शम्भूरामजी जज मध्यप्रदेश, संपादक उच्चन्यायालय निर्णय पत्रिका, समाज में बैरिष्टर वकील एडवोकेटों की संख्या भी बहुत विस्तृत है । <br />
इंजनीयर और तकनीकविद्- चंद्रसेन चौबे कलकत्ता यंत्र आविष्कारक हिन्दीबंगवासी, में, मुक्ताप्रसाद, अविनाशचन्द्र, उजागरलाल, रामस्वरूप, दिनेश चन्द्र, राकेशकुमार । 30 वि0 पू0 में माथुर भीमसेन ने मथुरा में विश्वकर्मा शिल्प शास्त्र का 1 लाख 18 हजार श्लोकों में प्राक्रत से पाली में अनुवाद शुंगकाल में किया जो 12 विभागों में था । सुखदेव माथुर के 1615 वि0- के राम काल के नलनील बानरों के सेतु शास्त्र का अब्दुलरहीम खानखाना के अनुरोध पर 15, 480 श्लोकों में अनुवाद किया इस पर खानखाना 16 हजार मुहरैं उन्हें भेटकीं । इस ग्रंथ में सेतु, जलवंध, सरिता, नहरें, तड़ाग कूपवापी आदि निर्माण का विधान था ।<br />
चिकित्सा- डा0 संपतराम, डा0 कृष्णचन्द्र, बालस्वरूप (नागपुर), उमेशचन्द्र महावीरप्रशाद (कनाडा में), राजीव रंजन, बीणांदेवी ।<br />
शिक्षा- श्री नारायणजी, सालिगराम, दीनानाथ, बरसानेलाल, ओंकारनाथ, प्रयागनाथ, प्रो0 चंपाराम, विश्व विद्यालयों में अनेकों डीन रीडर चान्सलर प्राध्यापक हैं ।<br />
साहित्यकार लेखक सम्पादक- श्री नारायणजी, बनारसीदास, जवाहरलालचतु0, दत्तराम चौबे, नारायण दत्तपाठक, द्वारिका प्रशादजी, चन्द्रशेखर शास्त्री, राधाचन्दजी, जगदीशप्रशाद, रामेश्वरप्रसाद, हास्य रसावातार जगन्नाथप्रशाद, प्रभु दयाल पांड़े प्रथम पत्रकार सम्पादक हिन्दी बंगवाली कलकत्ता, मदनलाल पत्रकार, युगलकिशोरजी, रघुनाथप्रशाद शास्त्री, सबल किशोरजी, बासुदेव कृष्ण, रामस्वरूप, बालमुकुन्द, माला रविन्दम्, राजेन्द्र रंजन ।<br />
श्री विश्रान्त तीर्थराज<br />
ब्रजमंडल की राजधानी श्री मथुरापुरी में विश्रान्त तीर्थ विश्व के तीर्थों का मुकुटमणि सब तीर्थों का पिता परम पुरातन तीर्थ हैं । सतयुग के आरंभकाल में भगवान श्री आदि नारायण (गतश्रम नारायण) प्रभु ने अपने दो अंगभूत देवों केशव माधव के द्वारा महामल्ल मधु कैटभ का संहार कराकर चतुर्मास की विश्राम निद्रा के साथ यहाँ विश्राम किया- सूर्य सुता श्री यमुना महारानीजी ने अपने भाई यमराज के सत्कार में उनके साथ स्नान किया तथा महामान्य श्री बसुदेव जी ने अपने लाढ़ले पुत्रों श्री कृष्ण बालराम के घर आने पर पूर्व संकल्पित 10 हजार गोऐं माथुर ब्राह्मणों को दान में दीं । वे यहीं यादवों की कुकुरपुरी (ककोरन) में कंस के कारागार में बन्द रहे थे अस्तु यहीं समीप में कारामहल नाम की प्राचीन काराग्रह स्थली में श्रीकृष्ण के जन्म स्थान की स्थली है । जिसे लोग आज भी नहीं जानते । <br />
काल पुरूष का दान- विश्रान्त के महादानों के संदर्भ में काल पुरूष दान की प्राचीन चर्चा है । दक्षिण देश का राजा गौथमां यह दान करने सुवर्ण निर्मित काल पुरूष मूर्ति को लेकर मथुरा आया बात बहुत पुरानी है । इतिहास विमर्ष से ज्ञात हुआ है कि यह 170 विक्रम संवत में हुआ । तब गोदावरी तट की काकुलमपुरी और दक्षिण पैंठण में सात वाहन (शालि वाहन) बंशी गौत्तमीपुत्र, शातकर्णी का विशाल साम्राज्य था । उसके लाढ़ले राजकुमार वाशिष्ठीपुत्र पुलुमायी को आसाध्यरोग लगा दक्षिणी पंडितों ने उसे काल ग्रास योग बताया और उसका उपाय एकमात्र काल पुरूष का दान ही ऐसा निश्चित किया । तब 21 मन सुवर्ण की रत्नों से जड़ी काल पुरूष की मूर्ति बनवाई, गयी, और पंडितों ने उसमें विधिवत काल पुरूष की प्राण प्रतिष्ठा की ।<br />
प्रथम यह काल पुरूष काशी ले जाया गया- एक महीने तक वह भयानक दुर्जय मूर्ति काशी के गंगा तट पर खड़ी रही- कोई ब्राह्मण उसका दान न ले सका । लोग दूर से ही उसका कराल भयोत्पादक रूप देखकर कांप उठते थे तथा जो सामने आकर आँख मिलाता वह मूर्छित होकर प्राण हीन हो जाता था । तब काशी से यह महाकाल मथुरा लाया गया उस समय मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के तप तेज की सारे देश में प्रसिद्धि थी । महाराज गौत्तमीपुत्र ने कहा- 'ब्राह्मणों के ब्रह्मतेज की आज कठिन परिक्षा है' । 15 दिवस यहाँ भी किसी का इस दान को लेने का साहस नहीं हुआ, तब माथुरों ने बिचार किया-'मथुरा की बात जाती है, इस समय सिद्धपति गुरू को किसी तरह लाना चाहिये- उन्होंने 24 गायत्री मंत्र के कठिन अनुष्ठान किये हैं ।' बहुत प्रयत्नों के बाद किसी तरह वे महात्मा पधारे । उन्होंने राज से संकल्प लिया और गायत्री मंत्र से प्रथम बार जल छिड़का तो मूर्ति का रंग श्याम पड़ गया-दूसरी बार में काल पुरूष का सीस नीचे झुक गया और तीसरे मार्जन में उसके खंड खंड होकर बिखर गये । राजा और दर्शक लोग चकित रह गये और भारी जय जय कार होने लगी । माथुर मुकुट मणि धौम्य गोत्री श्री सिद्धपतिजी ने यमुना जल से मूर्ति खण्डों को धुलवाया और उससे 3 महासंभार युक्त गायत्री माता के अनुष्ठान गायत्री तीर्थ (गायत्री टीला) पर किये । इसी स्थान पर पीछे तपस्वी रूप बूटी सिद्ध ने गायत्री मंत्र सिद्ध किया । यह स्थान अभी भी माथुरों की सेवा साधना के अन्तर्गत है । <br />
1584 वि0 में उदयपुर चित्तोड़ के राना सांगा (संग्रामसिंह) ने बावर की मुगल दासता से मातृभूमि का उद्धार करने को स्वाधीनता प्रेमी राजपूत राजाओं का संघ मथुरा में बनाया, और एक बिशाल सेना संगठित कर फतेहपुर सीकरी के पास बावर से लोहा लिया । वास्तव में भारतीय स्वाधीनता का यह सबसे पहिला एतिहासिक अभियान था राणा सांगा ने तब मथुरा में विश्रांत पर प्रभूत द्रव्य दान किया और उससे विश्रान्त तीर्थ पर शोडष दल कमल चौकी, आरती की चौंतरी तथा ककइयाईष्टों की घाट की सीढियों एवं कुछ तिवारियाँ बनवाई, जिनके कारण विश्राम घाट का नाम सांगा नाम तीर्थ कहा जाने लगा । 1622 वि0 में जैपुर के महाराज मानसिंह ने अपने पिता बिहारीमल का तुला दान कराने को जैपुर का तुला द्वार बनवाया जो कालांतर में ढह गया । जैपुर के राजा कंसखार के समीप हाथीघोड़ा बारी लाल पत्थर की विशाल हवेली में रहते थे और बिहारी मल की रानी के सती होने का सतीबुर्ज निकट ही यमुना तट पर है । <br />
1671 वि0 में ओरछा नरेश बुन्देले बीरसिंह ने अपार सुवर्ण राशि (81 मन) से विश्रान्त पर तुला दान किया । <br />
इस सुवर्ण राशि को उनके तीर्थ पुरोहित गोविन्द जी ने ठुकरा दिया । किंबदंती है कि राज ने दान देते समय कुछ गर्वाक्ति पूर्ण कटु शब्द कहे जिससे पुरोहितजी रूष्ट हो गये और द्रव्य राशि का त्याग कर दिया । परन्तु एतिहासिक साक्षी कुछ और ही चित्र प्रस्तुत करती है । बीरसिंह बुंदेला शाहजादे जहाँगीर का कृपा पात्र था उसकी अकबर से नहीं बनती थी । अकबर का विश्वस्त बजीर अबुलफजल इन दोनों के प्रतिकूल बादशाह के कान भरता रहता था । इस काल में अबुलफजल दक्षिण से सुलतानी राज्यों को सम्हालता अपार सुवर्ण और रत्न राशि लेकर आगरा आ रहा था । जहाँगीर ने बुंदेले को संकेत दिया और राजा ने ग्वालियर केसमीप अबुलफजल की सैनिक टुकड़ी को खदेड़ कर बड़ी निर्दयता से बृद्ध अबुलफजल को कत्ल कर दिया । सारा अटूट सुवर्ण उसके हाथ लगा । धन लूट कर बुन्देला बहुत चिंतित हुआ- विद्वान धार्मिक शांत चित्त निरपराध विनय करते बुजुर्ग की हत्या उसे रह कर कचोट रही थी । नींद में अकसर उसे सिर नीचा किये कराहते अबुलफजल की रूह सामने दीखती थी । उसने वह द्रव्य अपने खजाने में नहीं रखा । पंडितों से पूछा तो उनने भी इस धन को 'सत्यानाशी कौड़ी' बताया और इसे किसी तीर्थ में लगादेने की सलाहदी ।<br />
राजा तब सारा सोना लेकर सप्तपुरी शिरोमणि मथुरापुरी में आया । उसने तुलादान के प्रयास से सारा सोना दान कर अपने शरीर में व्याप्त बृद्ध हत्या को शमन करने का संकल्प लिया । गुरू गोविन्दचन्ददेव जी को यह जब ज्ञात हुआ कि यह 'हत्या की कौड़ी' है तो उन्होंने बहाना पाकर उस सारे द्रव्य को सहज ही ठुकरा दिया । तब राजा के उस द्रव्य को किसी चौबे ने भी नहीं लिया, और राजा ने केशव मन्दिर, बरसाना मंदिर, भानोखर, पान सरोवर (नन्द गाँव) गोपाल सागर समुद्र सागर नाम के बिशाल तालाब बनवाकर उस द्रव्य को ठिकाने लगाया । गोविदचन्दजी के इस त्याग की प्रशंसा में चतुर्वेदियों के कवियों ने कई कवितायें रची हैं ।<br />
1908 वि0 में रीवाँ नरेश श्री रघुराजसिंह जी ने तुलाद्वार निर्माण कर रजत तुलादान किया । 1902 वि0 में शिंदे माधव राव (महादजी) रघुनाथ राव सीतावाई ने मुकट मंडल का मंदिर बनाया जिसके कागज परिशिष्ट में हैं । <br />
1962 वि0 में काशी नरेश श्री प्रभु नारायण सिंहजी ने तुला द्वार बनाकर 3।। मन सुवर्ण से तुला दान किया तथा 1969 वि0 में उनकी पत्नी महारानी साहिबा ने अपना पृथक तुला द्वार बनवाकर तुला दान किया । इस तुला दान की मुहरैं समस्त चतुर्वेदियों को घर घर बाँटी गई ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_17&diff=56326चतुर्वेदी इतिहास 172010-04-23T13:35:06Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
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बदलुआ- अपनी मध्यमवर्गीय आर्थिक स्थिति के कारण बड़े धनी समृद्ध वर्ग में विवाह सम्बन्ध न कर पाने के कारण परस्पर में कन्या के बदले में कन्या लेने के सामाजिक व्यवहार के कारण ये बदलुआ कहे गए । यह बदले की प्रथा पहलवानी काल में पुत्रों की बहुवृद्धि के कारण मथुरा के मथुरास्थों में भी प्रचलित हो गयी थी ।<br />
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सैंगवार- सैंगरपुरा मथुरा से अपने प्रयाण के कारण ये अपने को सैंगरवार या सैंगवार कहते थे । 'कैमर पूजै सैंगरखांइ' कहावत के आशय से यह भी सिद्ध होता है कि त्रेता द्वापर युगों के समय में ये सैंगर (शमीवृक्ष) की फली, सैंगरफरी को सुखाकर उनका आहार में पुरोडाश (हलुआ लापसी) बनाकर प्रयोग करते थे । शमी वृक्ष को छौकर खेजड़ी कीकर कई नाम से जाना जाता है । महर्षि वेद व्यास के तपोवन शम्याप्राश के मुनिजन शमी आहारी थे । राजस्थान में त्स्य देश में कैर सांगरी एक बहुप्रचलित सुखाया हुआ शाक है । खेजड़ी को आहार मे प्रयुक्त करने वाले केजड़ीवाल, छौंकर भक्षी छौंकर, कीकर भोजी काकड़ा व्यास ब्रह्मर्षि देश में हैं ।<br />
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मीठे चौबे- मीठों में उपभेद नहीं हैं । वे सभी 'रचनं मधुरं बचनं मधुर' की मीठी चाशनी में पगे हैं । अति मधुरता के कारण इनके ब्रज तथा राजस्थान के किसानों जाटों गूजर मैंना अहीरों के साथ घुल मिल जाने के कारण इनके माथुरी आचार में काफी ढिलाई आ गई । ये हुक्का पीने लगे खाट पर बैठ कर जाट गूजरों के साथ दालरोटी खाने लगे, समय पर संस्कार यज्ञोपवीत आदि से विरहित हो गये, स्नान करके भोजन करना गायत्री जाप आदि कर्म उपेक्षित पड़ गये, इतना ही नहीं जबकि चीतौड़ा भदौरिया आदि बन्धुओं ने दूर से आकर मथुरा में अपने आवास पुन: स्थापित किये तब इन्हौनें समीप ही रहते हुए भी मथुरा में अपना कोई दस बीस घरौं का मुहल्ला भी नहीं बसाया । इन्होंने मथुरा और मथुरास्थ बन्धुओं से आत्मीय सम्बन्ध भी शिथिल कर लिए और कुछ अंशों में कटु जैसे बना लिए । इनकी यह मनोदशा और आचार स्खलन को देखकर मथुरास्थों का इस दिशा में कोई संगठित या सुनिश्चित निर्णय नहीं था केवल व्यक्तिगत भावनाओं से लोगों को यह अरूचिकर बन गया । अब समय बदला है इनमें शिक्षित संस्कारित और संगठन भावी लोग आगे बढ़ते आ रहे हैं । प्रेमपरक माधुर्य और स्नेह के सरस सौम्यरूप श्री बाबूजी मुनीन्द्र नाथजी जैसे सत्पुरूषों के संगठन प्रयासरूप समय पलटेगा ।<br />
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भदाबर खंड<br />
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भदावन प्राचीन यादव राज्य (डबरा) की बृष्णि शाखा में बसुदsव वंश का प्रमुख क्षेत्र है । पौराणिंक विवंरण के अनुसार यहाँ चंद्रवंशी ययाति पुत्र पुरू के बंशधरों में महाराजा रंतिदेव का 4540 वि0 पू0 में राज्य यमुना चर्मण्वती के तटों पर था । राजा रंतिदेव की पुरी रापुरी का तब नाम दसपुर दस्युपुर या त्रास दस्युपुर श्यौपुर था मांधाता त्रसदस्यु ने दस्युओं को दस्यु कर्म से विरत करने को कठोर त्रास दिए थे । महाराज रंतिदेव पहिले महामेध यज्ञों के कर्ता होने के कारण इनके यज्ञों में हजारौं पशु देवबलि में अर्पित होते थे जिन के चर्म नदी में डालने के कारण नदी का नाम चर्मण्वती हुआ तथा अस्थियाँ भूविवरों वर्षा खातों में डालने वे भर्का प्रसिद्ध थे । एक दिन राजा ने एक गौ के नेत्रों से अश्रुधारा बहते देखी और उसके हृदय में करूणा का स्त्रोत उमड़ने से उसने यज्ञ प्रथा बंद करदी और दान दया अतिथि सेवा के रूप में धर्म का व्रत लिया, तब उपकी 200 पाक शालाओं में भोजन बनाने वाले 2000 पाक शास्त्री काम करते थे तथा प्राय: समस्त प्रजा जन घरों में भोजन न बनाकर राज्य भोजनालयों के मान्य अतिथि होते थे । इस महासत्र से इन्द्र कुपित हुआ अवर्षण अकाल पड़ा और राजा स्वयं मुट्ठीभर अत्र और एक कमंडलु जल को बन बन भटकने लगा परिक्षा हेतु जब राजा 48 दिन की क्षुधा के बाद बन में से बीनकर घास के दाने लाया रोटी बनायी और एक कमंडल जल खोज कर सपिरवार ग्राम लेते बैंठा कि द्वार पर चांडाल अतिथि ने शब्द किया और राजा के सत्कार रूप में सारा अत्र और पानी उदस्थ कर लिया- यह दृढब्रत देख भगवान प्रगट हुए और राजा को महादानीयों में श्रेष्ठ पद दिया । इससे द्रवित हो राजा ने अपना सारा राज्य और सम्पत्ति ब्राम्ह्मणों को दान में देदी और आप सपरिवार हरिघाम को गया वह माथुर गुरू बशिष्ठ की सेवा कर आंगिरस कुत्स कुल में आत्म समर्पित हुआ । 3082 वि0 पू0 में इस क्षेत्र में इक्ष्वाकु सूर्य वंश के महाराव मांधाता के पुत्र अंवरीष मथुरा वासी के भाई राजा मुचुकुंद नरेश का राज्य था जो देवासुर संग्राम में देवों की विजय करा कर अखंड निद्रा हेतु अपनी स्थापित पुरिका नगरी पुरा और उसके समीपन के भूकंदरा स्थान (कन्हैया) में शयन कर रहा था ।<br />
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इसी समय पर जरासन्ध के कालयवन के साथ 17 वीं चढ़ाई की तब श्री कृष्ण बलराम अपने इस यादव क्षेत्र में अपने भाई बन्धुओं में छिप गये । काल यवन ने कन्दरा में सोते मुचकुन्द को श्री कृष्ण समझा और पादप्रहार करते ही वह उसकी नेत्र ज्वाला से भस्म हो गया । मुचकुन्छ का राज्य भी चर्मवती तट के दुर्गम भूविवरों के क्षेत्र में था । महत कांतार (हतकांतबन) विंध्याटवी (अटेर) तथा विंध्यकानन(भिंड) इसके एतिहासिक साक्षी हैं ।<br />
भदावर नामकरण- इस क्षेत्र का भद्रावर्त या भदावर नाम श्री कृष्ण के भाई बलभद्र बहिन सुभद्र तथा उनकी माता रोहिणी के परिवार विस्तार के कारण हुआ । देवकी का परिवार मथुरा क्षेत्र में तथा रोहिणी का परिवार भद्रक्षेत्र में श्री वसुदेवजी द्वारा बसाया गया । उनकी 14 पत्नियों हैं 7 देव मीढ पुत्र देवक राजा की पुत्नी थीं, रोहिणी राजस्थान के रोहिंडी नरेश की पुत्री थीं । रोहिणी पुत्रों में बलभद्र भद्रगुप्त भद्रविद्, भद्ररथ, भद्रकल्य, भद्राश्व, भद्र, भद्रबाहु आदि 12 महापराक्रमी यादव वीर थे । अर्जुन पत्नि सुभद्रा इनकी बहिन थी । पांडव यज्ञ काल में भदौरिया यादवों का भद्रावर्त राज्य एक समृद्ध गणराज्य था । यहाँ के क्षत्रिय विपुल साधन सम्पत्र राजकुमार बहुत सा रत्न धन सुवर्ण लेकर युधिष्ठर यज्ञ में उपस्थित हुआ और उसे यज्ञ की भेंट किया । अथर्वद के गोपाल तापिनी उपनिषद में गोपाल के प्रिय दो बनों में भद्रवन का कथन है जो यमुना के तट पर था । द्वेबने स्त: कृष्णवनं भद्रवनं- पुण्यानि पुष्य तमानि तेष्वेव देवा स्तिष्ठन्ति सिद्धा: सिद्धिं प्राप्ता: ।।33।। । वेदों के अनुसार- 'भदंकर्णेभि श्रृणुयाम देवा:' देवों की वाणी भद्रश्रव भदावर की बोली थी । वेद व्यास के मत से त्रेता में 7000 वि0पू0 में यहाँ माथुरों की पुरातन तप स्थली श्रीमथुरा (सीरमथुरा धौलपुर करौली के मध्य) थी जहाँ माथुर नाम धारी ऋषि बहुत पूर्व से तप करते आ रहे थे-<br />
ऋषिर्माथुरनामात्र तप: कुर्वन्ति शाश्वते ।<br />
अतोस्य मथुरा नामऽभवदाद्यश्रियायुतम् ।।<br />
भदावर में माथुर चौबों के 18 गाँव हैं- (1) चद्रपुर चंद्रवंशी चंदेलों का प्राचीन पुर (चंद्रवंशी चदेले बुधबंशी बुंदेले रोहिणी बलराम बंशी रूहेले हैं) 2- कछपुरा(जैपुर के कछवाहों और उनके सेवक काछियों का पुर) 3- कमतरी (कार्मुक धनुष कमान कमंठा चलाने में विशेषज्ञ कमठानों का पुर), 4-पारनां (पारावत रावतों का केन्द्र), 5- नहटौली (नाट्य कला कुशल नाहटा नटों का गांव), 6- हतकांन्ता या महत् कान्तार (एसे महा कान्तार कांटापुर कन्तित में भी थे), 7- रीछापुर मुचुकुन्द के भाई अँवरीष का रीषा पुर) , 8- नौ गाँव (भदौरीयों का बसाया नवीन ग्राम नवगाँव), 9- कचौरा (बिना पूर्ण पकाये अधकच्चे घी की मंडी जो डांग (पर्वत खंडों का) घी कहा जाता हैं 10- होली पुरा मथुरा के होलीदरवाजा होली वाली गली होलीबन (हुलवानौ) की स्मृति से प्रभावित होली सिंह चौबे का बसाया गाँव, 11- पुरा कन्हैंरा राजा मुचुकुंद की पुरिकानगरी और अनका भूकंदरा (भरकाओं युक्त एकाँत शयन स्थल कन्हैंरा) 12- ताल गाँव (तालध्वज और तालफल तथा ताल पेय ताड़ी के प्रेमी बलरामजी का तालबृक्षक्षेत्र मथुरा में तालबन में उन्हौनें तालफल आस्वादन को धेनुकासुर का वध किया था), 13- पिन्हाहट (ब्रज के गोपीनाथ भगवान के उपासकों का गोपीनाथ बन और देव स्थान), 14-मई (मय दानव का कला और शिल्प केन्द्र), 15- बटेश्वर महावट वृक्ष के नीचे माता गिरजा के साथ बिराजते अमर कथा सुनाते भगवान रूद्र उपासक थे- ययाति का ययाति पुर (जतीपुरा) में प्राचीनतम रूद्रकुंड गिरिराज पर्वत पर श्री नाथजी मंदिर के समीप उमापति रूद्र का देवालय अभी है । (उमापर्ति मूर्ति तो खंडित दशा में वहीं पड़ी हुई औरंगजेब के ध्वंस कर्म की कहानी कह रही है ) 16- बिचकौली विचक्र असुर जो जरासंध के मंत्री हंस डिंभक मित्र था जो राजसूर्ययज्ञ में विध्न डालने पर श्री कृष्ण द्वारा मारा गया उसकी राजधानी । 17- तरसोखर (त्रिशोक काण्व ऋषि का आश्रम जो कृष्ण के ब्रम्हविधा धागुरू घोर काण्व का वंशधर तथा यदुवंश की भद्रशाखा का पुरोहित था) इनका ऋग्वेद का आठवाँ मंडल आधिकृत हैं । 18-चौम्हाँ ब्रज का चौमुहाँ, जो क्षौम पट (अलसी के रेशों से बनाये वस्त्र) क्षौमाम्बर धारी देवों और संकर्षण गणों यादवों का पुरा । भदावर के प्रवासी माथुरों में भारद्वाजगोत्री पाँड़े पाठक रावत तिवारी, वशिष्ठ गोत्रियों में जौनमाने, धौम्य गोत्री घरवारी, तथा सौश्रवस गोत्री मिश्र छिरौरा- आदि प्रधान हैं । ये एक समूह में मथुरा में नहीं गये किन्तु अनेक अवसरों पर कई बार में समय संकट और सम्पर्क सुविधा के अनुसार जाते रहे हैं । इनके प्रवास के कुछ एतिहासिक सूत्र विशेष विचारणीय हैं, जो इस प्रकार हैं-<br />
1- परातत्व के आधुनिक अन्दवेषकों को यहाँ धूसर चित्रित तथा श्याम चित्रित ओपदार भाँड़ों के ठीकरे मिले हैं जो 5-6 हजार वर्ष पूर्वे के हैं, तथा जो हस्तिनापुर की खुदाई में पाँडव कालीन प्राप्त हुए हैं ।<br />
2- बटेश्वर के समीप जरासंध द्वारा ध्वंस किये गये संकुरीपुर (संकर्षणपुर) के खण्डहर मीलों तक फैले पड़े हैं ।<br />
3- काल यवन को भस्म करने वाले राजा मुचुकुन्द की कंदरा (कन्हैरा) के भूविवर दुर्गम भरका बड़े बिस्तार में अभी भी हैं । यहाँ के भद्रावर्ती राजकुमार युधिष्ठरा के राजसूययज्ञ में बहुत-सा धन रत्न भेटें करने को लेकर गये थे । पिनाहट में यादव वंश के देवता गोपीनाथ के प्राचीन मन्दिर का स्तंभ मण्डप अभी दर्शनीय हैं । पिनाहट में ही पाली भाषा में अंकित शिला लेखों में 567 वि0 कें हूणों के अक्रमणों का उल्लेख है ।<br />
4- यहाँ के क्षेत्रों में धारापुरी के परमाल वंशी महायशस्वी महाराज भोज के सिक्के मिले हैं जो माथुरों का परमभक्त था, इसके सभा के रत्न मालीजी चौबे ने इसके हनुमंनाटक की टीका की है तथा इसके सेनापति कूलचन्द का सुदृढ दुर्ग महमूद आक्रमण काल में महाबन में था । 1100 वि0 में कमंठाधारी भदौरिया कमतरी में आत्मरक्षा हेतु जा बसे थे ।<br />
5- तरसोखर में 1474 वि0, का चौबे भूदेव मिश्र का शिलालेख मिला है । 1460 वि0 में चन्द्रपुर में चौबों के रहने के प्रमाण मिले हैं 1455 वि0 में चंद्रपाठक के पुत्र धनेश्वर पाठक तैमूर लंग के आक्रमण की आशंका के भय से तथा फीरोज तुगलक के क्रूर शासन से त्रस्त हो चंदपुर में आकर बसे थे ।<br />
6-1584 वि0 महाराणा सांगा और बाबर के युद्ध में भदौरिया नरेश की सेना के सेनाध्यक्ष बनकर चौबे मुकुन्ददेव और हरनाथ मिश्र लड़ने गये थे । 1557 वि0 में केशवदेव पाँड़े को ग्वालियर नरेश राजा मानसिंह तोमर ने विश्रांत घाट से ले लाकर शंकरपुर में बसाया तथा इनकी पांचवी पीढ़ी 1695 वि0 में कल्याणकर पांडे को राज्य से विशेष सम्मान के रूप में पूरा शंकरपुरा गाँव पर्वत पर विशाल महल, सरोवर, बाग, आदि प्रदान किये गये ।<br />
7-1652 वि0 में भदौरिया राजा मुकुटमणि के सेनापति उसके भाई गजसिंह के साथ चतुर्भुज पांड़े (चत्तू पांड़े) अकबर के सेनापति राजा मानसिंह के साथ काबुल की चढाई पर गये । 1665 वि0 में भदौरिया नरेश बदनंसिंह को उपदेश देकर भदाबर में मथुरा की स्थापना के लिये यमुना की धारा को कंसकिले की तरह मोड़कर नगर संकर्षणपुर (संकुरी) को सुरक्षित करने हेतु एक सुदृढ बांध घाटों (बट छांहबासी) शिव के मंदिरों विश्रान्त तीर्थ और बाराह मंदिर का निर्माण कराया । 1681 में बीरसिंह देव के बीर बुंदेला पुत्र हरदौल की मान्यता कर उसकी पूजा और थान प्रचलित कराये । 1692 वि0 में शाहजहाँ काल में उसके क्रूर पुत्र औरंगजेब का मथुरा पर आतंक फैला देखकर मथुरा से चक्रपाणि के पुत्र शिरोमणि चौबे यहाँ कमतरी में आकर बसे यह लेख हरिद्वार के पंडा की बही में है । 1643 वि0 में पांड़े कल्याण कर को शंकर पुर का पूरा गांव तथा राज सम्मान मिला ।<br />
8-भदौरिया महाराज बनदसिंह के राज में बटेश्वर आदि क्षेत्रों में माथुरों को सम्मान भूमिदान धन अर्पण राज सेवाओं में उच्च पद प्रदान की बात सुनकर अनेक चौबे परिवार 1700 वि0 के आस-पास भदावर के गांवों में मथुरा से जाकर बसे । 1700 वि0 में होलीसिंह पांड़े खिरिया से अपने दादा बुचईसिंह का खजाना दादी जी के बतलाने पर लेकर आये तथा अपने पिता भोगचन्द के संरक्षण में बौहरे का काम (लैंने दैंने साहूकारी) भदावर के गांवों में चलाया । 1710 वि0 में होली सिंह को महाराज बदनसिंह से भूमि मिली जहाँ इन्हौंने प्राचीन गांव की जगह अपने नाम का होलीपुरा बसाया । 1715 वि0 में यहाँ होली बाबा ने विशाल हवेली कुआँ आदि बनवाये ।<br />
1712 वि0 में चन्दपुर में मैनपुरी से आये चौबे जगजीवनदास बिहारी जी का मन्दिर निर्माण कराया । 1738 वि0 में होलीसिंह के भाई तिलोकसिंह पुरा में भूमि पाकर बसे । 1738 वि0 में इन ही के भाई जीवनसिंह पांड़े को भदावर नरेश उदितसिंह ने पुरा कन्हैरा में बड़ा इलाका दिया तब वे वहीं बसे । 1740 वि0 में महाराज कल्याण सिंह ने चौबों को हतकांत में स्थान देकर वहाँ बसे उपद्रवी मेवौं को विजय करने का निर्देश दिया इन्हें अपने किले का दुर्गपाल तथा सेना का सेनापतित्व भी दिया । चौबों ने तब बड़ी शूरवीरता से मेवों को पराजित और ध्वस्त किया । इस उपलक्ष में 1741 वि0 में राजा ने इन्हें 18 गाँव दिये तथा चौबों के सर्दार छत्रपति राव को मेव दमन के पुरस्कार ने विशेष सम्मान और उपहार दिये । 1742 वि0 में तब हंतकांत में चौबों ने अपनी केन्द्रिय सत्ता बनाकर 18 गाँवों के मुखिया 18 मुहल्लों में बसाये जहाँ उनकी विशाल हवेलियाँ निर्माण हुई । 1745 वि0 में विक्रमाजीत और कमलाकर पांड़े 'मथुरा से औंरगजेब के राज के काजी नवीहुसैंन को उसके घर पर काजीपाड़े में मारकर तरसोखर फरौली आदि गाँवों में आकर रहे । 1794 वि0 में बाजीराव पेशवा ने दिल्ली कूच के समय अटेर का किला और बस्ती लूटी उस समय के भदौरिया महाराज हिम्मतसिंह की शक्ति क्षीण हो चुकी थी । पेशवाओं ने मथुरा की भक्ति के कारण चौबों को मैत्रीभाव और सम्मान दिया ।<br />
इस प्रकार माथुरों का भदावर में निवास बहुत प्राचीन काल से सिद्ध होता है । वे जैसा कि लोग सोचते हैं वे केवल आक्रमणों के भय से ही पलायन नहीं कर गये अपितु इसके अनेक हेतु रहे- जैसे यादववंश और बलराजजी से विशेष स्नेह और सम्मान, ननसाल ससुराल भाई बन्धुओं का स्नेह सम्बन्ध और आग्रह, दत्तक पुत्रों के रूप में प्रतिष्ठा, राजमान, और भूमि, पदा आदि की प्राप्ति, व्यवसाय की सुविधायें, मथुरा में विध्वंस संकट, गृह कलह, आक्रमणों की मृत्युभय युक्त आशंका ।<br />
इन्हीं हेतुओं को लेकर शंकरपुर करौली, चित्तौड़, जयपुर, भरतपुर, बम्बई, कलकत्ता, जलगाँव, मलयपुर आदि अनेक स्थलों में माथुर गये हैं ।<br />
प्रवासी बन्धुओं में अनेक विशिष्ट और उल्लेखनीय महानुभाव हुए हैं, उन सभी का वर्णन एक अलग ग्रंन्थ की वस्तु है । यहाँ हम कुछ अतिविष्ट लोगों का समावेश ही कर सकेंगे । प्रमाणों के देखते यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये बन्धु प्रधान रूप से सिकन्दर लोदी 1545-1574 वि0 इब्राहीम लोदी 1574-1583 वि0, औरंगजेब 1715-1764, अद्वाली 1814 वि0 के उत्पीड़न कालों में मथुरा से जहाँ-तहाँ जाकर बसे हैं ।<br />
कुछ उल्लेखनीय घटनायें और व्यक्ति<br />
चित्तौड़ में बसावट- 1284 वि0 पृथ्वीराज चौहान काल में पृथ्थावाई के साथ भेजे गये रिषिकेशमिश्र चित्तौड़ में बाघावास स्थान में भूमि पाकर बसे इनके वंशज बहुत काल तक यहाँ रहे तथा इनके सहाये से अन्य भी पचासों लोग जाकर चित्तौड़ में थोक बन्दी के साथ रहे । इनमें 1586 वि0, बिठ्ठलदास चौबे तथा इनके पुत्र कान्हरदास संगीत नृत्य पद गायन हरिकीर्तन की पद्धतियों में विशेष पारंगत थे । इनने मीराबाई को तथा उनकी ननद ऊदावाई को नृत्य संगीत की शिक्षा दी । ये वृन्दावन के राधाबल्लभजी आचार्य हितहरिवंशजी के शिष्य थे- नित्य बिहार का गान करते थे । भक्त माल में नाभादास जी ने इन्हें माथुर चौबे तथा महाराणा का प्रोहित लिखा है । ग्रियर्सन ने लिखा है- कि इनके यहाँ एक बड़ा साधु समाज हुआ था जिसमें भक्त नाभा को 'भक्तमाल' की पदवी दी गई थी क्योंकि उन्होंने वहाँ भक्तों के सरस मनोहर चरित्रों का गान किया था ।<br />
शंकर पुर के पांड़े-1557 वि0 में केशव पांड़े को ग्वालियर के तोमर राजा मानसिंह अपने साथ लेकर गये- उन्हें शंकरपुर गांव में बसाया तथा 1693 वि0 में परम विद्वान इनके वंशधर कल्याण की पांड़े ने राज प्रभाव से पूरा शंकर पुर गांव प्राप्त कर पांड़े वंश का यशस्वी कुल स्थापित किया । इनके वंशधर लालजीराम उर्फ खंगमणि 1834 वि0 में राजारामसिंह तोमर के यहाँ उनकी नयी राजधानी नरवर में दीवान रहे । इनकी पत्नी सती हुई ।<br />
बुचईसिंह पांड़े का रण संग्राम- 1622 वि0 में बाघावास चित्तौड़ से जाकर बहुत सा धन बंजारों के टांड़े के रूप में ले जाने वाले अपने पूर्वजों के साथ खिरिया गाँव (जि0 एटा) में वहाँ के ठाकुर सर्दारों पर विजय प्राप्त कर प्रभाव जमाने वाले वीरशिरोमणि बुचईसिंह और वाहनसिंह के साथ नवाब की पठान सेना से भयानक युद्ध किया । विजनसिंह के ससुराल में उस समय उनके साले का विवाह था । बहूरानी वहाँ भेज दी तथा आप खिरिया के समीप के किसी गांव में आयी बरात में नवाब की सेना से घमासान संग्राम करके पठानों के सैकड़ों लड़ाकों को मारकाट कर खूर में सरोवर पहुंचे बरातियों के साथ मुगलों की लोथों के बिछे क्षेत्र में भोजन किया परिहावन ली और फिर उसी क्षण खिरिया गांव लौटकर आ गये । दूसरे दिन फिर नवाब की सेना चढी उसे फिर चूर्ण किया । इस बार इनके पिता बीरपुंगव बुचई बाबा वीरगति को प्राप्त हुए तथा तीसरे दिन बहुत बड़ी नवाव की पठानी सेना से युद्ध करने ये अपनी रणबांकुरी मातु श्री बुचाकर रानी के साथ दौनौं भाई विजनसिंह बाहनसिंह रण संग्राम में उतरे और हजारौं म्लेच्छों का संहार कर सभी वीरगति को प्राप्त हुए । इनका यश दिगदिगंत में व्याप्त हुआ और इनके कुल कीर्ति गायक बरूने इनकी विरूदावली गान की जो इस प्रकार है- सोही राजरीति पांडत्रे होली सतानंद जू कै, सोई राजरीति जीति लीनी भुजबल कै ।<br />
पाल सुखपाल माल मोतिन के कोट लगे, कमला निवास सो विलासदास झलकैं ।।<br />
कहै 'अभैराम' सुनों माथुर मयंक मुनि, तेरी मौज पाऊँ सो कहत मन ललकैं ।<br />
राव जाने राजा जाने खान सुलतान जाने, नैकहून मोल चढै़ पांड़े हलधर कैं ।।<br />
बाही तेग विजन अरियन सिर, दपटि दररानी ।<br />
काटी कड़ी जिरह बखतर की, मारे मुगल भुजा फहरानी ।।<br />
नैं कुन डिग्यौ कहूं भारत में, काटि- काटि कल्ले कहरानी ।<br />
चच्चर कियौ सिंह बुचई के, रूधिर मांझ पहिरी पहिरानी ।।<br />
छंद में विजनसिंह पांड़े की अदभुद वीरता की यश गाथा है- चच्चर या चांचर (चांचल्य चपलागुणं) ब्रज का एक प्राचीन झपट्टे के साथ छियाछेरी का खेल था जो चाँदनी रात का क्रीड़ा नृत्य है जिसे सूरदासजी ने रास प्रसंग में अपने पदों में प्रयुक्त किया है । पांड़े होलीसिंह इसवंश के चौथे यशस्वी पुरूष हैं जो अपनी दादीजी की सहायता से खिरिया गाँव से बुचईसिंह का अटूट खजाना लाये और होलीपुरा गाँव 1715 वि0 में बसाया । इनने पुत्र न होने की स्थिति में पांड़े सतानन्द को गोद लिया और उसका विवाह करैटी (बेला परतागढ प्रयाग) के चौबे चिन्तामन की पुत्री के साथ किया जिसमें 1-1 लाख के कई ठिक नेग इन्हैं 'सजन सत्कार' में मिले । चिन्तामन की वह भूमि करैटी मौजा में गंगातट पर हैं- इनकी विशाल हवेली के खंडडर अभी भी वहाँ देखे जा सकते हैं । यह भूमि ग्रन्थ कर्ता के प्रतापी पूर्वज छंगालालजी कन्हैयालालजी के स्वामित्व में थी जो अब जमींदारी उन्मूलन में प्राप्त हो चिन्तामन के वंशधरों ब्रजमोहनदास जगमोहनदास के कृषि उद्योग में है, श्री छंगालालजी कन्हैयालालजी मिहारी प्रयाग में महीनों निवास करते थे – इनके इस क्षेत्र में राजासाव भदरी कालाकांकर बहती समस्तपुर दहियांवां आदि अनेक राज्य तथा प्रयाग के समस्त मालवीय परिवार जिनमें पं0 मदन मोहनजी मालवीय हैं यजमान थे । प्रयाग के तीर्थ पुरोहितों की प्रयागबाल पंडा सभा ने भी इन्हैं अपनी पंचायत से सम्मानित कर मथुरा का तीर्थ पुरोहितों मान्य किया था । चौबे चिन्तामणि की यशगाथा भी बड़ी अदभुद है- कहते है। एक समय मुगल बादशाह को प्रयाग से इन्होंने करहटी बुलाया खातिर की तथा नौका बिहार के समय बादशाह के प्रश्न करने पर इन्होंने अपने इष्टदेव गंगा माता को स्मर्ण कर बादशाह के आगे रत्नों का ढेर लगा दिया बादशाह बड़ा, चमत्कृत हुआ और इन्है। जागीर दी । तब इन्होंने धूमधाम से माता गंगा की पूजा कर अपनी हवेली के कोठों में भरी 2000 शक्कर भी बोरियां खोलकर गंगा में चढ़ा दीं जिससे प्रयाग तक गंगा जल मीठा अमृतांपम हो गया । इससे गंगा माता इन पर और कृपालु हुई । एक दिवस जब ये गंगा स्नान कर रहे थे इनके पैर में कुछ चुभा निकालने पर सुवर्ण की मोटी सांकल थी जिस का बहुत खींचने पर भी द्रोपदी के चीर की तरह अन्त न आया । इस सुवर्ण से इनके विशाल भवन के सारे कोठे कोठार आँगन छत भर गये तब बहुत विनय करने पर सांकल का अन्त आया- इस प्रकार चिन्तामन के धन की कोई सीमा न थी । सतानन्द के पुत्र हलधर पांड़े थे । जिनके पुत्र गंगाधर पांड़े के विवाह 1837 वि में अभैराम बरू ने उक्त विरूद पढा था ।<br />
काजी मार पांड़े- काजी मार पांड़े मथुरा के पांड़ों की बस्ती हाथी वाली गली के निवासी थे । ये विक्रमाजीत और कमलाकर पांड़े नाम के दो भाई थे । 1745 वि0 औरंगजेब काल में इनके परिवार में पुत्र विवाह था । विवाह के गीत कन्हरी गान में स्त्रियों ने रात के समय छत के ऊपर से एक गीत गाया- 'हमारे अमुक चन्द बोलेंरी, अमुक दारी समाधिन आ सेजरिंयां ।<br />
तू उटकी मटकी डोलैं, दारी उनई-उनई डोलै तू सूधी बात न बोलै ।<br />
तेरौ बालम मोधू- चल काजी कैं बोई तेरौं न्याउ निवेरै ।।<br />
रात के सन्नाटे में गीत समीप ही बसे काजीपाड़े के काजी के कानों में पड़ा, सवेरे ही उसने सिपाही भेजे उन चौवनों को मेरे दरबार में हाजिर करो में उनका न्याय निवेरूँगा । सिपाहियों के डाटने पर स्त्रियाँ घबड़ा गयीं-रोनें लगीं तभी विक्रम पांड़े बरात से आये, सारा मामला सुनकर वे आग गुर्राया इमाम बाड़े में घुस गया, उन्होंने वहीं झपट कर काजी को दवोच लिया और तलवार से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । काजीपाड़े में कोहराम मच गया । दोनों भाई निकलकर अपने घर आये और सलाह करके स्त्री बच्चों सहित मथुरा छोड़ देने का निश्चय किया । औरंगजेब का जमाना था हुसेनखाँ(खरद्दी हुसेन) हाकिम था किन्तु औरंगजेबी नीति से मथुरा और ब्रज में विद्रोह उठ चुका था ।<br />
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पांड़े विक्रमाजीत और कमलाकर काजी नवीहुसेन का वध कर चुपचाप बड़े सवेरे घर से निकले उधर मुगल सिपाहियों ने घर घेर लिया किन्तु उन्हें वे दोनों चौबे वहाँ न मिले घर सूना पड़ा था । दोनों भाई यमुना पार कर राया मुरसान हाथरस की तरफ भागे पीछे से मुगल सेना ने भी चढाई की । राये के समीप काजी के और मुगल हाकिम खरद्दी हुसेन के सिपाहियों में घनघोर युद्ध हुआ जिसमें विक्रमाजी पाँड़े के विचले पुत्र रामलाल खेत रहे किन्तु इस स्थिति में भी दौनों भाई और इनके दो पुत्र उदैचंद दुर्गादास ने बड़ी वीरता और साहस से मुगल सेना का सफाया कर दिया । यहाँ से चलकर ये तरसोखर फरौली मैनपुरी तथा अन्य कई स्थानों में बसे कहीं ये 5 भाई थे ऐसा भी कहा गया है । तरसोखर के परमानन्द जी ने लिखा है- चतुर्वेदी समाज में सबसे ज्यादा वंशवृद्धि मथुरा के पांडे विक्रमाजीत के वंश की हुई- लगभग 325 वर्ष में यह वंश अनेक क्षेत्रों में फैलकर खूब फला-फूला है । पुरा कन्हैरा के सम्बन्ध में श्री धर्म गोपालजी ने, चन्द्रपुर के विषय में श्री द्वारिका प्रशाद चौबे ने पुस्तकें लिखी हैं, तथा मुक्ता प्रसाद स्मारक ग्रंथ में प्रचुर सामिग्री सामने आयी है । प्रवासी बन्धुओं में अनेक उल्लेखनीय विशिष्ट महानुभाव हुए हैं- यहाँ हम उनका पृथक अनुकथन न देकर समस्त माथुर समाज के विशिष्टजनों में उनका उल्लेख करेंगे ।<br />
धार्मिक आचार्य<br />
भारतवर्ष के सभी धर्म संप्रदायों के भक्ति ज्ञान वैराग्य मार्गों के अंकुरण का प्रधान क्षेत्र मथुरा मंडल का माधुर्य मय क्षेत्र रहा है, तथा इन सभी के आचार्यों ने माथुर मुनीश्वरों से आशीर्वाद और मार्ग दर्शनमयी प्रेरणायें लेकर नव जागरण की तेजस्विता प्राप्त की है । यहाँ संक्षेप में इसका दिग्दर्शन प्रस्तुत हैं-<br />
509 वि0 पृ0 कुमारिल स्वामी और श्री आद्यशंकराचार्य महाराज 452 वि0 पू0 का विवरण पीछे दिया जात चुका है । 999 वि0 में ब्रजभक्ति संप्रदाय के प्रमुख आचार्य श्री निम्बार्क देव का यहाँ उद्भव हुआ । इस संप्रदाय का प्रथम स्थान मथुरा का नारदटीला (ध्रुवटीला) है । मथुरा के दीर्घ विष्णु, बाराहजी , पद्मनाभ- नज्रानन हनुमान (असकुंडा), हरदेवजी गोवर्धन, आदि पुरातन मंदिरों में इसी संप्रदाय की पद्धति से सेवा पूजा होती है- ब्रज के प्राय: प्रत्येक गाँव कुंड सरोवर बन उपबन में इनके मंदिर पुजारी साधु और महंत प्रतिष्ठित हैं । नारद टीले के मन्दिर में इनके अनेक आचार्यों की समाधियाँ हैं ।<br />
निम्बार्क संप्रदाय- आचार्य श्री निवास देव 1130 वि0, देवाचार्य महाराज 1352 वि0, केशव काश्मीरी 1598 वि0, श्री भट्टजी 1635 वि0, हरिराम व्यास (युगजकिशोर मन्दिर) 1669 वि0, आदि अनेक महानुभाव मथुरा के अपने स्थान में साधना निष्ठ रहे हैं । मथुरा के वर्तमान मंदिरों में भी प्राय: सभी में निम्बार्क पद्धति की सेवा है । इस संप्रदाय की ही बहुनिष्ठामयी शाखा श्रीस्वामी हरिदासजी की गादी परंपरा है जो इस वैभव संचय के युग में सर्वोपारि विरक्त नित्य बिहार उपासना मयी रसिक संप्रदाय है । केशव काश्मीरी के साथ 14 हजार साधुशिष्य चलते थे इनने दिल्ली में यवन यंत्र लगाया तथा शेरशाह सूर ने अजमेर पुष्कर जाते हुए जब इनका पीछा किया तो उसे इनकी जपात के सभी साधु सिंह नजर आये और 14 हजार सिंहों की गर्जना और आक्रमण को देख वह कांप गया और इनसे क्षमा याचना कर सलेमाँबाद की जागीर इन्हैं भेट की । श्री भटजी ने इनमें ही विज्ञान्त तीर्थ पर मंत्र दीक्षा लीथी तथा इनने माथुर मधुपावली में माथुरों के यश गान का पद अर्पित किया है ।<br />
रामानुज संप्रदाय- इस संप्रदाय की भारतवर्ष में 8 मुख्य पीठ हैं, इनमें से 7 दक्षिण में तथा गोवर्धन (मथुरा) में है । उत्तर भारत का सर्वप्रधान रामानुज पीठ (दिव्यदेश) श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर 'गोवर्धन पीठ' नाम से मान्यता प्राप्त है । कूरेशस्वामी ने अपने 'अतिमानुष स्तोत्र' में गोवर्धन यमुना वृन्दावन (कुसुमबन) और मथुरापुरी को परम पवित्र भगवच्चरण रज से पावनीभूत माना है-<br />
गोवर्धनो गिरीवरो यमुनानदी सा , वृन्दावनंच मथुरा च पुरी पुराणी ।<br />
अद्यपि हन्त सुलभा कृतिनांजनानां, मेने भवच्चरणचारू जुष: प्रदेशा: ।।<br />
श्री मद् अनंताचार्य वैंकटनाथ स्वामी के भवमंगलाष्टक के 'गुरू परम्परा प्रभाव स्तोत्र' में श्री रामानुजस्वामी के 16 निवास तीर्थों में मथुरा को बरहवाँ पुण्यतीर्थ कहा गया है –<br />
श्री रगं शैल करिमज्जनगिरौ शैषाद्रि सिंहाचलम् ।<br />
श्री कूर्म पुरूषौत्तमं च बदरी नारायणो नैमिषम् ।।<br />
श्रीमद् द्वारवती प्रयाग मथुरा ऽयोध्यागया पुष्करम् ।<br />
शालिग्राम निवासिनो विजयते रामनुजोयं मुनि: ।।<br />
गौवर्धन पीठ के सुरम्य वृन्दावन (कुसुमोखर) में श्रीरामानुजाचार्य स्वामी 1094 वि0 श्री नाथमुनि 1124 वि0, श्री ईश्वरमुनि 1132 वि0, यामुनमुनि 1147 वि0, कूरेश स्वामी 1157 वि., श्री रंगदेशिक स्वामी 1356 वि0, बरवर मुनि 1394 वि0, श्री निवासाचार्य 1387 वि0, गोवर्धनाचार्य 1440 वि0, आदि श्री वैष्णव आचार्य विराजते और श्री लक्ष्मीनारायण प्रभुकी सेवा अर्चना करके तप साधना करते रहे । इनके प्रभुनिष्ठाभाव से प्रभावित होकर भरतपुर नरेशों ने राजाबलवंतसिंह रंधीरसिंह छतरियों के शिल्प कौशल में इनके पुरातनजीर्ण मन्दिर को नवीन रूप में निर्माण कराया तथा भरतपुर दीघ में लक्ष्मण मन्दिर निर्माण कराये । मथुरा में श्री रामानुजस्वामी बसुमती सरोवर तट की जिस नारायण बाटिका में बिराजे थे उस स्थल पर इनके ही संप्रदाय के श्री प्राणनाथ स्वामी ने सुन्दर बाटिका युक्त रामानुज कोट श्री गतश्रम नारायण प्रभु का मन्दिर ब्रज शैली में निर्माण कराया हे जो मथुरा के प्राचीन देव स्थलों में से है इटावा में मथुरा के चौबे श्री लक्ष्मी प्रपन्ना चार्य ने बैकटेश मन्दिर बनाया है तथा प्रपन्नामृत, प्रपत्ति वैभव वेदाँतसार ग्रंथ लिखे हैं ।<br />
रामानन्दी संप्रदाय- 1356 वि0 में अल्लाउद्दीन खिलजी के समय श्री रामानन्द स्वामी का जन्म हुआ । इस समय मथुरा और माथुरों पर घोर अत्याचार हो रहे थे, छोटी जातियाँ उत्पीड़न पूर्वक मुसलमान बनायी जा रही थी । हिन्दू समाज के शिल्पीवर्ग शूद्र भृंगी गण (भंगी) डाली निर्माता चंडमुंड बंशी चांडाल, दुंदुभी डुमडुमी बजाने वाले डोम, चर्माम्बर निर्माता चमार बलात् बेगमों के पायखाने सिर पर ढोने के काम में मृत पशु उठाने के कामों में लगाकर अछूत बनाये गये ऐसे समय में महात्मा रामानन्द ने काशी में जन्म लेकर इन उत्नीड़ित संकट ग्रस्त मानवों के उद्धार के लिये अपना संप्रदाय 'रामनाम' युक्त प्रवर्तित किया और उसमें रैदास (चमार) कवीर' (जुलाहा) सेना (नाई) करमांबाई (तेलिन), नाम देव (दर्जी), दीक्षित किये । इस संप्रदाय में दीक्षित महात्मा पयहारी जी 1586 वि0, मथुरा में प्रयाग तीर्थ पर गलताकुंज में बिराजते थे तथा गल्तेश्वर महादेव की इनके द्वारा स्थापना हुई थी । इनके शिष्य अग्रदास कवि, कील स्वामी ध्रुवदास कीलमठवासी' नाभादास भक्तमाल कर्ता, प्रिया दास टीका कार आदि यहीं रहते थे । श्री रामानन्द स्वामी ने अपने 'वैष्णव मताव्ज भास्कर' प्रश्न 8 में मथुरा में अपने आश्रम को श्री कृष्ण उपासना का स्थल कहा है-<br />
सत्स्थाने मथुरा भिधाश्रमवरे श्री बालकृष्णं प्रभुम् ।।<br />
इनका माथुरों पर अति स्नेह था जिसके कारण महोली पौर के निवासी चोबे मनोहरदास जो मनोहर मंजरी काव्य ग्रंथ के रचपिता थे उन्होंने इनका संप्रदाय ग्रहण किया और केशवपुरा के पास अपना मनोहपुरा बसाकर निर्गुण संप्रदाय का प्रचार किया । इनका ग्रंथ बीकानेर की अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में सुरक्षित है । <br />
राधाबल्लभ संप्रदाय- श्री हित हरिवंश गोस्वामी 1552 वि0 ने अपने यमुनाष्टक मे यमुना पुत्र माथुरों का वर्णन इन शब्दों में किया है- 'समस्त वेद मस्तकैरगम्य वैभवै सदा, महामुनिन्द्र नारदादि ब्रह्म पुत्र संभवा:' ये समस्त वेदों को कंठाग्र मस्तक में धारण करने वाले वेद शास्त्रों विद्याओं के अगम्य वैभव से मूषित, महामुनीन्द्र नारदादि से भ्रात्टत्व प्राप्त ब्रह्मदेव के सन्मानित पुत्र हैं ?<br />
राधारमण संप्रदाय- श्री गोपालभट्ट गोस्वामी का 1580 वि0, का यात्रा लेख तथा उनके समस्त वंशधर गोस्वामियों के ब्रज यात्रा पौरोहित्य लेख श्री रामलाल मिहारी के पास हैं ।<br />
श्री स्वामी हरिदास संप्रदाय- इसमें मथुरा के चौबों की प्रमुखता है श्री ललित किशोरीजी के समय के अनेक आचार्य माथुर हुए हैं । श्री रसिक राय जी का महल तथा बिहारी जी का सवरूप मथुरा में माथुरों के यहाँ हैं । श्री ललित किशोरी जी पहिले हतकाँत के गंगाराम पांड़े चौबे थे जन्म 1733 वि0, 1758 वि0, से 1823 वि0, तक गादी पर रहे । 1760 वि0, में निधिबन में गोस्वामियों को बांके बिहारी विग्रह दे देने पर भी कलह बढ़ता गया तब वहाँ से यमुना तट पर पीपल के नीचे नित्य बिहार स्थल बना बिहारी जी पधराकर बांस की टटियाओं से घिरा टटिया स्थान प्रगट किया । इनके गुरूदेव श्रीरसिकदेवजी 1741-1758 वि0, का महल और बिहारीजी विग्रह मथुरा में ककोरनघाटी पर पाठक मुन्नीलाल मदनमोहन गोपालजी के यहाँ है । 71 वर्ष की आयु 1804 वि0, में दिल्ली के मुगलबादशाह मुहम्मदशाह ने इनके दर्शन करने की प्रार्थना की । इन्होंने पूर्ण निषेध करते हुए उसे अपना चित्र देने की स्वीकृति दी तब मुगलों का शाही चित्रकार आकर इनका चित्र बादशाह के लिये बना कर ले गया । इस स्थान पर मथुरा के चतुर्वेदी परिवारों के श्री रणछोरदास जी ब्रह्मयुर्या 1987-1990 वि0, श्री राधाचरणदासजी मिहारी 1994 वि0, से अभी विराजमान हैं जो बृन्दावन के विरक्त महात्माओं में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं । अन्य महात्माओं में श्री विठ्टल विपुलजी 1550 वि0, श्री बिहारनदास 1608 वि, सरसदास 1611 वि0, किशन गढ के नागरीदास 1756 वि0, श्री ललित मोहिनी जी 1782 वि0, सहचरि शरण 1803 वि0, आदि अनेक महापुरूष हुए हैं तथा शिष्यों में तानसेन वैजू गोपाल नायक, रामदास, दिवाकर भट्ट सोमनाथ महाकवि बिहारी आदि अनेक हुए हैं ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_16&diff=56322चतुर्वेदी इतिहास 162010-04-23T13:26:14Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==जयपुर राज्य ==<br />
अकबर कल में श्री उजागर देवजी के नेतृत्व में माथुर सरदारों के एक शिष्ट मंडल ने राजा मानसिंह से यह अनुरोध किया कि वे मथुरा नगर की रक्षा के लिये कोई बड़ा प्रयास आयोजित करें । उस समय यमुना की जल धारा वर्षा ऋतु में स्वामीघाट से चौक मैदान तथा घीयामंडी भरतपुर दरवाजा तक और वृन्दावन दरवाजा तक अपनी पुरानी धारा के प्रवाह क्षेत्र में घुस जाती थी जिससे बाजार मकानों और दुकानों को अपार क्षति उठानी पड़ती थी । जयपुर नरेश ने तब सुविज्ञ शिल्पयों बुलाकर परामर्श किया और उसमें कुशिकपुर के एक टेकरे पर सुदृढ़ बुजों बनवाकर यमुना की धारा को मोड़ देने का सुझाव था । राजा ने सोचा क्यों न एक अपना सुरक्षित दुर्ग बनाकर इस कार्य की पूर्ति की जाय । तभी राजा ने वहाँ एक सुविशाल अति सुदृढ़ लाल पत्थरों से कला पूर्ण शिल्प युक्त एक ऐसे दुर्ग का निर्माण कराया जिससे यमुना की धारा के नगर प्रवेश और क्षति विस्तार का मार्ग बन्द हो गया जिसका भग्नाशेष अभी भी मथुरा नगर की रक्षा कर रहा है और लोग उसे 'कंस किलौ' विशालता के कारण कहने लगे ।<br />
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इस काल में मथुरा आगरा के सूवे के राजा मानसिंह सूबेदार थे । उनका परिवार मथुरा में निवास करता था । राजा भगवानदास की माता यमुना तट पर सती हुई उनका सती बुर्ज यमुना तट पर हैं, राजा की बहिन जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ हुआ, मानसिंह की बहन जहांगीर को ब्याही । इन संबंधों से मानसिंह अकबर के प्रधान सेनापति का दायित्व सम्हालते थे । राजा मानसिंह ने मथुरा के प्रचीन गोविन्द मन्दिर की पूर्ति में जहां सिकन्दर लोदी के ध्वंस के बाद मुसलमान पठान बसकर मेवा और किराने की मंडी लगाते थे उस चकाबू स्थान को छोड़कर वृन्दावन में गोविन्द भगवान का विशाल मंदिर 1650 वि0 में बनवाया इसके पिता भगवानदास ने 1947 वि0 में गोवर्धन में सुप्रसिद्ध हरदेव मंदिर मनसा देवी तथा मानसी गंगा नदी का बांध उसके पक्के घाट बनवाये ।<br />
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राजा द्वितीय जयसिंह ने चौबेजी का बुर्ज तथा जयसिंहपुरा उपनगर उसमें सम्राट दीक्षित के निर्देशन में खगोल वेधशाला स्थापित की । ये सुप्रसिद्ध खगोल विद सम्राट दीक्षित जगन्नाथ पंडितराज बृद्धावस्था में मथुरा में दशावतार गली की अपनी दक्षिणियों की हवेली में रहते थे । यहां के तांत्रिक घरानों को उनने श्री यंत्रराज तथा पूजा रत्न ग्रंथ दिये थे । जयपुर बसाने में इसने मथुरा के मूर्तिकार चित्रकार लडाकूबीर नागा दल, रंगाई और छपाई करने वाले कारीगर कवि और विद्वानों को प्रोत्साहन देकर अपने साथ लेजाकर जयपुर में बसाया ।<br /><br />
सतसई के कर्ता विश्व मान्यता प्राप्त महाकवि बिहारी मथुरा से जयपुर दरबार में ले जाये गये उन्हें प्रति दोहा स्वर्ण मुहरें भेंट की गयी तथा बसुआ गोविन्द पुरा गांव उन्हें जागीरी में दिए गए । इनके ही भानजे मथुरा के कृष्णकवि ककोर ने जयपुर के कोषपाल राजा आयामल के आदेश पर बिहारी सतसई की काव्यमयी टीका की वे लिखते है- माथुर विप्रलकोर कुल कह्मौ कृष्ण कवि नांउ । बिहारी सतसई की 1790 वि0 की मेघराज लेखक की लिखी सबसे प्राचीन प्रति हमारे संग्रह में सुरक्षित है । 1652 वि0 में जयपुर के तोमर गोविन्ददास हरीदास ने बृन्दावन में युगल घाट पर जुगलकिशोर मंदिर बनाया तथा लूनकरण कछवाहा ने केशीघाट पर युगलकिशोर मन्दिर बनाया, यह गोपीनाथ मन्दिर निर्माता रायसेन कछवाह का भाई था ।<br />
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==जाट मरहटा काल==<br />
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ओरंगजेबी शासन का अंत करने को ब्रज में जाट शक्ति का उदय हुआ । बीरपुंगव गोकुलाजाट ने उसके सामने ही ब्रज में विद्रोह का झंडा खड़ा किया । चौबौ ने काजी को मारा और मुगलों की बिखरी लोथों के ऊपर छत पर बैठकर विवाह की बरात के पकवान उड़ाये । जाट ब्रज के राजा और रक्षक कहे जाते थे । 1777 वि0 में राजा चूरामन ने जाट शासन की नींव रक्खी थी । 1779 वि0 में बदनसिंह तथा 1812 वि0 में शूर शिरोमणि राजा सूरजमल तथा 1820 वि0 में इनके पुत्र नरकेहरी जवाहरसिंह ने जाट शौर्य का सर्वोपरि प्रताप प्रवर्तित किया । जाटों के सहायक मथुरा के चौबे थे और जाट उनके परम भक्त शिष्य और सम्मानित पदों पर उनकी प्रतिष्ठा करने वाले थे । 1894 वि0 में जब नादिरशाह दुर्रानोने दिल्ली भी लूट में 30 हजार प्रजाजन कत्ल लिये 10 करोड का धन शाही खजाना और तख्त लाऊस लूटा और उसकी निर्दय सेंनाने भागते हुए प्रजा के लोगों का मथुरा वृन्दावन तक पीछा किया तो इससे जोटों का खून उवल उठा । वीर सूरजमल ने अपने 7 जंग लड़कर शत्रुओं के दांत खट्टे किये ।<br />
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1805 वि0 में जब सूरजमल दिल्लीशाह के बजीर-सलावतखाँ से युद्ध कर रहा था तभी उसके मन में परलोक में बैकुंठ पद या मुक्ति प्राप्ति की प्रबल इच्छा जगीं । मथुरा में जन्म यज्ञीपवीत मृत्यु या दाहसंस्कारों में से एक भी हो जाने से मुक्ति पद निश्चित हो जाता है यह जान वे युद्ध से समय निकाल दौड़े हुए मथुरा आये और माथुर गुरूओं से यज्ञोपकीत संस्कार करा कर हंसियारानी से विवाह किया तथा उस स्थान पर हंसीय घाट तथा हंसगंजपुर बसाकर रानी को उसके नये रामभवन में निवास दिया । करौ व्याहु मथुरापुरी कृपा पायि जदुनाथ । अपने शौर्य की धाक जमाने की जाट गूजरमैना गुरू चौबों के दल के साथ 1942 वि0 में सिनसिनी के जाट राजाराम ने आगरा पर धावा बोला और सिकंदर में बनी अकबर की वैभवपूर्ण मजार को लूटकर कब्र से अकबर की अदस्थियों को निकाल कर उनका दाह संस्कार किया जिसे लोगों ने 'मियांकी होली' कहा । फिर जोरावर भज्जा चूरामन बदनसिंह ने मुगलों की नाक में दमकरदी तथा बदनसिंह ने जैपुर से मित्रता की तब जैपुर नरेश ने इन्हें 'ब्रजराज' पदवी से अलंकृत किया । <br />
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इस समय का शौर्य चित्र कविवर सूदन ने इन शब्दों में मुसलिम भावना के रूप में चित्रित किया है-'रव भी रजा है हमें सहना ही बजा है बक्त हिन्दू का जगा है आया ओर तुरकानीका । सूरजमल दिल्ली के समीप शाहदरा में थोड़े से साथियों के साथ मुगलों से घिर कर मारे गये थे । एक दिन जवाहरसिंह पाग का पेचउमैंठ रहे थे तब माता ने कहा- 'बेटारे तेरे पिता की पगड़ी तो दिल्ली के रणक्षेत्र में पड़ी है और तू यहाँ पगी उमैंठ देता है' माता के बचन जवाहर के कलेजे में से आरपार हो गये उसने दिल्ली के मुगलों को इसका परिणाम चखाने की गरज से 'दिल्ली दलेल' के नाम से दिल्ली पर हमला करने का निश्चय कर लिया 'संवत 1810 के वैसाख मास में जवाहरसिंह ने एक बहुत बड़ी ब्रज के वीरों की सेना लेकर दिल्ली पर चढ़ाई थी । 3 मास दिल्ली नगर को अपने घेरे में कैद रखते और तीन दिन तक दुश्मनों की कटा करके दिल्ली की विपुल संपत्तिओं को अधिकार में किया जिससे दिल्ली की लूट कहा जाता है । महत्व की बात यह है कि ब्रजवीरों ने किसी प्रकार जन निरपराध प्रजाजनों का कत्ल नहीं किया ।<br />
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केवल दंड रूप में नगर की और बादशाह की राज लक्ष्मी को अपने आधीन बनाया । बादशाह महलों में किवाड बन्द किये चूहे की तरह छिपा रहा खजाना 14 वर्ष पूर्व ही नादिरशाह द्वारा लूटाजा चुका था । जाटों ने जो हाथ आया छीना । इस ब्रज जागरण जंग का वर्णन माथुर कवि सूदन ने अपने वीर काव्य सुजान चरित्र की जंग 6 में बड़े ओज पूर्ण छंदों में किया है । इस विजय में जाटों को अपार धन और सम्पत्ति हाथ आयी जिसे उन्होंने अपने वीर यौद्धाओं को बाँटा तथा ब्रज में अनेक स्थलों का निर्माण किया । मथुरा के चौबे इस युद्ध में ब्रज भर में ब्रजरक्षक विप्र प्रसिद्ध हुए । उनके हजारों सैनिकों के अतिरिक्त 30 प्रमुख सूरवीर सेनाध्यक्ष इस सेना में अग्रवर्ती थे । इनमें से कुछ के नाम सूदन ने सुजान चरित्र में दिये हैं जो इस प्रकार हैं- मोहनराममाथुर, चन्द्रभान, राजाराम, दौलतराम, हरनागरमथुरिया, कृपाराम, दानीरामचौबे, लछमनगुरू, जैकृष्ण, मंसाराम, सुखराममाथुर, चंके, बंके, मानसिंह, उद्धतराम, जुआरसिंह, बुद्धिबलचौबे, लोकमन, श्यौसिंह, उदैभान, नैंनू, झग्गा, खिल्लू, सभाराम, मितमंता, अनूपचौबे, उदोती, जैतसिंह, आदि । सोमनाथमिश्र, के सुजान विलास में भी इस युद्ध का वर्णन है । इस धन से ब्रज में भारत प्रसिद्ध डीग के भवन चंद्रसरोवर, नवल अप्सराकुंड, हरजी पोखर, बलभद्रकुंड बलभद्र मन्दिर मथुरा, धाऊ की हवेली, जाटवाले चौबों की हवेली, टौंटावारी वक्शी शिवनाथ मिश्र द्वारा इनकी पगड़ी मुकुट छत्र आदि राज चिन्ह धारण कर इन्हैं सुरक्षित साधारण भेष में निकाल कर इनकी संकट में प्राणरक्षा करने पर चौबेजी को प्राणरक्षक के रूप में बड़ी सम्पत्ति दी गयी जिससे उन्हौंने मथुरा चूना कंकड़ मुहल्ले में प्राचीन करागार भवन कारा महल लेकर बड़ी प्रतिष्ठा के साथ जीवन विताया । कुल पति मिश्र की हवेली गली पीर पंच में हैं तथा महाकवि बिहारीलाल का निवास स्थल बिहारी पुरा के नाम से अभी प्रसिद्ध है जाटों की दिल्ली विजय के उत्सव रूप हरदेव पूजन (गोर्धनपूजा अन्नकूट) तथा मानसी गंगा पर अदभुत दीपदान की परंपरा वहाँ आज भी मनायी जाती है । अंग्रेजों से जाटों का युद्ध भी इतिहास प्रसिद्ध है, इसमें भी मथुरा और भरतपुर के कितने ही चतुर्वेदी परिवारों के वीर जूझे थे । राजा रंधीरसिंह के नेतृत्व में लड़े गये इस युद्ध में 4 बार अंग्रेजी सेना पराजित हुई जसराज कवि ने लिखा है-<br />
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<poem>छोटौ सौ इक किलौ भरतपुर सातौ बिलासत चढ़ आई । <br />
खट्टे दाँत किये गीरेन के जाट वीरता परिचायी ।। <br />
बोटी बोटी काटे गोरे खाइन में वे लुढ़काये । <br />
ऊपर कूदपरे आपुन हूगुत्थम पुत्था गरकाये ।।</poem><br />
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मरहटा और पेशवा- मरहटा दक्षिण से आये थे ये वैदिक देवता रूद्र गणों में मरूत गणों के वंशज राठोरों के वंशज रूद्र उपासक हैं जो भस्म त्रिपुंड धारी हैं और कुशल लड़ाकू वंशज हैं मुगलक्षीणता के काल में इन्हौंने दिल्ली सल्तनत पर कब्जा जमाया । इनका संगठन केन्द्र मथुरा में अर्जुनपुरा के समीप एक ऊँचे टेकरे पर था जहाँ इनके मरहटों के महल अब शेष अभी देखे जा सकते हैं शिवाजी के रक्षण के बाद इनका मथुरा और माथुरों पर पूर्णविश्वास और भक्ति हो गयी थी । 1785 वि0 के बाद जो सूबेदार जगीरदार थे वे सभी स्वतेत्र राजा महाराजा बनवैठे इनमें मरहटों के सिंधिया, गवालियर, होल्कर, इन्द्रौर, गायकबाढ बड़ौदा प्रमुख थे । लोकख्यति और सच्चे आचरण मान प्रतिष्ठा के कारण तथा मल्लविद्या की महान उपलब्धियों के कारण ये सभी माथुर चौबों के परम भक्त थे- उनका आदर पूजन और सम्मान करते थे । राजनीति कुशल महादजी सिंधिया तो मथुरा में ही रहकर दिल्ली दरवार की शाही सल्तनत का संचालन करते थे । वे परम कृष्ण भक्त थे, विश्राम घाट पर मुकुट मंडल का मंन्दिर बनाया था पोतराकुंड बनाकर उसके समीप ही बनी एक सुन्दर छत्री और बाग में तन्मय भाव से कृष्ण कीर्तन और सेवा करते थे पोतरकुंड के जल खींचने के मरकंडों की विशालता से ही इनके योगके विस्तार और वैभव का पता लगाया जा सकता है । इनके सतय ब्रज की राधा कंजरी ने इनपर जादू चलाया जिससे चौबों ने ही इन्है। संकटमुक्त कराया माथुरों की सलाह से ही इन्होंने 1847 वि0 में द्वितिय शाह आलम से समस्त भारत में गोवध निषोध का शाही फर्मान घोषित कराया । 1894 वि0 में मथुरा जिले में भयानक सूखा और अकाल पड़ा जिसमें महादजी ने माथुरों और ब्रजवासियों की सराहनीय सेवा की ।<br />
<br />
1825 वि0 में मराठों ने अंग्रेजों को मथुरा से भगा दिया तब 1860 वि0 में मराठों की अंग्रेजों से मथुरा अर्जुनपुरा के मरहठों के महल में संधि हुई और मथुरा अंग्रेजों को दे दी गयी ।<br />
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===लालाबाबू और चौबेजी ===<br />
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1869 वि0 में कलकत्ता के बंगाली जमींदार लालाबाबू कृष्ण भक्ति का आधार लेकर मथुरा आये । उनने व्रन्दावन में एक भव्य विशाल राधा गांविन्द का मंदिर निर्माण कराया । उनकी दृष्टि चौबों की विशाल जमीदांरी और भूसम्पत्ति पर थी । प्रथम उन्हौंने ब्रज के गौरहे ठाकुरों की जमींदारी की यह कहकर कि सरकार जमीदारों की सम्पत्ति शीघ्र ही बिना मुआवजा छीन रहीं हैं, उनसे मात्र 672 रूपयों में उनकी सारी भूमि अपने नाम कराली फिर मथुरा के चौबों को भोला भाला पाकर उन्हैं मंग छना कर नित्य ब्रंन्दावन के मंदिर में छककर बढ़ीया भोजन कराकर यही चकमा देकर 100-100,50-50 रूपया देकर उनकी मथुरा और उसके आसपास की समस्त भूमियों भवनों जालदादों को ये सब ठाकुरजी के लिये है एसा आश्वासन देकर हस्तांतरण कराली । काम बन जाने के बाद भोजन बंद हो गये । लुटे दुखी माथुरों ने तब संतोष किया और उनके बाचिक शाप से लालाबाबू को उनके ही घोड़े ने एसी लात जमायी, कि वे फिर उठ न सके और उनका शब सारे वृन्दावन की गलियों में खसीटा जाकर यमुना में प्रवाहित हुआ । लोक में तब यह कि वदन्ती चालू हुई <br />
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'लालाबाबू मरि गये धोड़ा लात लुढकाइ । पारिख कैं कीरा परे बिरधि ते कहा बस्याइ ।।'<br />
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==नादिरशाह और अब्दाली==<br />
1795 वि0 में नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला किया । दिल्ली के साहूकारों से 15 करोड़ रूपया नगद तथा 50 करोड़ का सोना जवाहरात लूटकर प्रजा को जी खोलकर कत्ल किया, । वहाँ से भागते हुए लोग ब्रन्दावन में आ छिपे । नादिरशाह के हत्यारे सिपाहियों ने कीमती जेबर जवाहरात छिपा ले चले हैं इस आशंका से उनका पीछा किया और उनको क्रूरता से कत्ल किया । दिल्ली के भूतपूर्व शाही खजाँची धनानदं कायस्थ जो विरक्त साधु थे, उनके हाथ काट डाले जिससे वे मर गये । मथुरा में उनकी लूट के लिये कुछ न बचा था । मंदिर हवेलियाँ सब पहिले ही औरंगजेब द्वारा लूटे और तोड़े जा चुके थे चौबों के कच्चे टूटे फूटे के कोठे कोठरी थे, जिनके निवासी नरनारी नगर से दूर बनों बगीचियों और खेतों में रहते थे । पहलवान लोग रज में लिपटे लंगोटी लगाये अखाड़ों में जमीन पर लुड़का करते थे । घर घर नांदिर के दिल्ली पर अत्याचारों की चर्चा थी । नारियाँ गाती थी- नादर श्याह मरी तेरे हौलों से यह गीत आगमन न होकर भय और आशंका के वातावरण का प्रमाण हैं ।<br />
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===अब्दाली आक्रमण===<br />
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1814 वि. में अहमद अब्दाली ने दिल्ली से मथुरा पर आक्रमण किया । ग्वालियर का मरहटा सेनापति अंताजी जो मथुरा अन्तापाड़ा में था 3 हजार सेना लेकर उससे लड़ने गया तथा जाटों की बड़ी सेना ने भी चौमां में अब्दाली से मोर्चा लिया । उस समय होली का अवसर था अब्दाली ने चौबों को बुलाकर कहा- 'मेरे अजीजो ! ब्रज की होली नामी है आप हमारे दोस्त हो बादशाहों ने इज्जत दी है, मुझे भी कुछ होली का रंग दिखलाओ' चौबों ने हँस कर कहा- 'वेशक मालिक जरूर दिखलायेंगे, तीन चीज यहाँ की खास हैं- रबड़ी का भोजन, जमना की सैर और लोगों की मस्ती नाच रंग' । अब्दाली ने कहा- 'यह सारा सरंजाम आप लोगों को ही जुटाना है' इस वार्तालाप से चौबों के रंगीले ज्वान काफी प्रभावित हुए, उनने 5 बड़े मटकों में गोबर भरकर ऊपर से रबड़ी सजायी और उन्हैं अब्दाली के शिविर में पहुँचाए । अब्दाली के सामने वे मटके पेश हुए उसने खुश होकर कहा- चौबों की सौगात सब को बाँट दो ? बाँटने के लिए प्यालियों में रखने को जैसे ही मटकों में हाथ डाला गया गोवर निकल पड़ा और अब्दाली गुस्से से चिल्लाया-'ओफ ? यह गुस्ताखी, इतना गन्दा मजाक, इन शैतानों को आज ही इसका मजा चखाया जाय'<br />
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शाम का समय आया- चतुर्वेदी जवान छैला सज सजकर चौपई की तैयारी करने लगे । नारियाँ छतों छज्जों चबूतरों पर झूमने लगीं, तभी अब्दाली की केशोपुरा में पड़ी सेना लपलपाली तलवारें लेकर नगला पाइसा की गली में घुसीं- जो सामने आया तलवार से काट डाला- चौबे वेखबर थे, देखते ही पुकारे- मुसल्टरा आइ धरती पर लुढ़कने लगे- भागती नवयुवतियों के ऊपर तलवारों के प्रहार होने लगे । देखते देखते सारा नाच रंग खून की कीच रूदन हाहाकार और चीत्कारों में बदल गया । 'आगे मत बढ़ना चौबों का मजबूत गढ़ है' कह कर पठान सेना पीछे लौट गई ।<br /><br />
रात भर चौबों में कल की आशंका पर विचार चलता रहा । दूसरे दिन नई चौपाई थी । चौबेपुर के प्रवेश के 14 मार्गों में से 6 जो संकीर्ण थे पत्थर के टीलों ईंट भाटाओं से बन्दकर दिये गये । 6 मार्ग भी ईंट खंगड़ों से दुर्गम बनाकर उन पर 400-400, 500-500 ज्वान बजरंगी लठा, जोड़ी, मुगदर, फरसा, बल्लमों से लैस होकर आ डटे । गूजर जादों अहीर भी अपने मोर्चों पर थे । दोपहर होते ही अफगानी सेना दलबादल सह उमड़ कर आयी- 'या अली' वे चिल्लाये 'जै बजरंगा ' इधर से जबाब मिला । माथुर पहलवानों का दल शूरवीर और मस्ताना था । जिन्होंने रीछों से कुश्ती लड़ी, बवरशेर पछाड़े, हाथी दबोचे, मगरों से युद्ध किया विशाल वृक्षों को चीरकर बल अजमाया वे वीर घोड़ों पर कुदकते सिपाहियों को मच्छर भुनगा समझते थे । उन्होंने कलाई तोड़कर तलवारें छीन लीं, घोड़ों पर चढ़े सवारों को घोड़ों सहित जोड़ी मुगदरों से कूट डाला, जो आगे बढ़ा उसे फरसा से काटकर या टांग पकड़कर पछाड़ कर अथवा पैर पर पैर रखकर चीर कर दो पला कर दिया । यवन सेना घबरा गयी और भाग उठी । मोर्चा चौबों के हाथ रहा । उनके लठा भादों की घटा की तरह बरस रहे थे । हार कर पठानों ने मोर्चें से बाहर चौबेजी के बुर्ज पर हमला किया जहां एक छोटी सी टोली ने उनके सैंकड़ों सिपाही मार डाले तथा बगल से एक बरछा लगने से खुश्यालासिंह नाम के एक चौबेजी परम गति को प्राप्त हुए, जो भुमिया बाबा के थान के रूप में पूजे जाते हैं- बुर्ज नहीं टूट सका ।<br />
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तीसरे दिन अब्दाली ने हुकम दिया - 'चौबों की तरफ कोई न जाय- साहूकारों व्यापारियों को लूटो काटो मारो ।' और सेना का रूख घीया मन्डी, रामदास की मन्डी, गुड़हाई, ब्रन्दावन दरबाजा, गौघाट, बैराग पुरा की ओर घुमा दिया गया । भारी मारकाट और लूट की गई परन्तु धन कुछ ज्यादा हाथ न लगा क्योंकि औरंगजेब ने पहले ही सब कुछ सफाया कर दिया था । तीन दिन के बाद पस्त हौसले वाला अब्दाली महावन पर किले में भारी दौलत है यह सोच कर चढ़ चला, किन्तु वह किला राजा सकीट (राणा शक्तिसिंह) का था हरदत्त द्रोण उसका रक्षक था उसके आज्ञा देते ही 5000 नागवंशी महाविषवर्षक नागा साधु चमचमाती तलवारें लेकर निकल पड़े- उनने जो युद्ध मचाया उससे अब्दाली का कलेजा बैठ गया । 20 हजार अफगान सेना के सिपाही और सिपहसालार इन वीरों ने 4 घण्टे में कचरघान कर दिये । मुसलमान इतिहास लेखकों के अनुसार इनके 2000 नागा मरे ऐसा लिखा गया है । इस घटना के वर्णन में जिसे माथुर छोटा साका कहते थे मुसलमान शाहों और नवाबों के टुकड़ों पर पलने वाले खुशामदसे मालिकों को फुलाकर उनसे मन चाहे इनाम पाने वाले मुसलिम लेखकों तथा उनहीं को शिरोधार्य मानकर इतिहास को कुरूप करने वाले लेखकों ने जो बढ़ाचढ़ा कर लूट के धन और गुलामों की संख्या का उल्लेख किया है वह सर्वथा मान्य नहीं है ।<br />
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हिन्दू खासकर चौबों की एक भी नारी कैद में नहीं पड़ी । गूजर अहीर माली खत्री कायस्थ वैश्यों की जो कुछ थोड़ी सी रूपवती युवतियाँ इनके हाथ पड़ीं उनने सिर पटककर अन्न जल त्याग कर यहीं प्राण विसर्जित कर सती धर्म का पालन किया । एतिहासिक प्रबल तथ्य यह भी है कि गजनी गोरी के समय में जो हिन्दू गुलाम बनाकर ले जाये जाते थे वे सुलेमान ओर हिन्दूकुश पर्वतों की चढ़ाई पर ही कड़ाके की ठन्ड से (चीथड़ों में लिपटे अधभूखे) कांपते हुए मर जाते थे, इसी से उस पर्वत का नाम हिन्दुकुश (हिन्दू की मौत) रक्खा गया और भविष्य में भारत से गुलाम ले जाने की निषेध नीति स्थिर कर ली गई थी । साधुओं की झौंपड़ियाँ तो मथुरा के घाटों पर श्रीं ही नहीं- जो निम्बार्क और गौड़ीय सम्प्रदाय के साधु मथुरा में मथूकरी भिक्षा करने आते थे वे भी भिक्षा पाकर दूरदूर गिरिराज तरह राधाकुंड कामां वृन्दावन आदि में चले जाते थे । अही भी अपनी गायों को लेकर मांट नौहझील के गहन बनों में चले गये थे । इनके सम्बन्ध में गढ़े गये गपोड़े बिलकुल ही अविश्वस्त है ।<br />
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==अंगरेजी राज्य==<br />
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1859 वि0 में पेशवा से मथुरा के अर्जुनपुरा में सन्धि करके अंग्रेजों ने अपना कम्पनी राज्य स्थिर कर लिया । अंग्रेजों की राज्यव्यवस्था देखने में उदार और रक्षात्मक थी, किन्तु अपने देश का पक्षपात, भारतियों से राजकार्यों में भेदभाव तथा हीनता की दृष्टि से भारतियों के हृदयों में विदेशी शासन के प्रति आशंकायें जाग्रत होने लगीं थी । इस भावना ने जब उग्र रूप धारण किया तो 1857 (1914 वि0) का सेना विद्रोह प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम' के रूप में फूट पड़ा । आरम्भ में माथुर अंग्रेजों के प्रशंसक थे किन्तु राजनीति नग्नता प्रकट होने पर वे उनके कट्टर विरोधी बन गये । विद्रोह के प्रकट होने से पहिले से ही वे सेना में स्वाधीनता की भावना के प्रचारक बन चुके थे । फौजी सिपाही और अफसर जो यमुना स्नान को आते उन्हैं वे अंग्रेजों की गुलामी से छूटने के लिए प्रेरित करते थे । गदर में जब मथुरा कचहरी का खजाना लूटा गया तब नागरिकों के दल में 200 चौबे शामिल थे । इन्होंने कोष लूटा उसे आगरा नहीं जाने दिया अंगरेजों की कचहरी बँगले जलाये गये तथा कप्तान बार्लटन सहित अनेक गौरे अफसरों को मार डाला ।<br />
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अंग्रेजी शासन की जड़ उखाड़ने के प्रयासों में चौबे सबसे आगे रहते थे उन्हैं 'अगलगी कौ बरा' कहा जाता था- उस समय के अंग्रेज लेखक ग्राउस और ड्रेक ब्लैक मैंन ने अपने मथुरा गजेटियरों में लिखा है- मथुरा के क्रांतिकारियों को मथुरा के चौबों से बड़ी सहायता प्राप्त हुई इस क्रांति के जन्म दाता भी चौबे ही थे । क्रांति के पूर्व ही उन्होंने महोली (मधुवन ध्रुवजी की कदम खंडी) में क्रांति आयोजकों का एक सम्मेलन किया और उसमें मथुरा के उग्र विचारों वाले विद्यागुरू स्वामी विरजानन्द को एक पालकी में बैठाकर वहाँ ले गये, उनका भेट पूजा से समादर किया और उनके प्रभावशाली भाषण से उपस्थित जनों को अपने निश्चय में दृढ़ प्रयासी बनाया ।<br />
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इस सम्मेलन में बादशाह बहादुर शाह के शहजादे, मरहटा सरदार रंगोबापू तथा शाही इमाम अजी मुल्ला खाँ, तात्या टोपे तथा जगदीशपुर के कुंवरसिंह उपस्थित थे । <br /><br />
इस राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चे में मथुरा के सेठ गोविन्दास राधाकिशन ने जो अँग्रेजी अफसरों की रक्षा की उससे कुपित विद्रोहियों के सेना प्रहार से मुनीम मंगीलाल श्रीनिवास माहेश्वरी चौबे रामदास जी तथा उनके प्रमुख निर्देशक चौबे छंगालाल जी ने मथुरा नगर की बड़े गम्भीर संकट में रक्षा की । अषाढ़ मास में फौजी विद्रोहियों का एक दल मथुरा में दो दिन रूका, उस समय नगर निवासियों से कुछ धन इकट्ठा कर मुनीम मंगीलाल ने उन्हें आगे बढ़ा दिया । कार्तिक के बाद एक दूसरा दल फिर आया जो मथुरा को तोपों से उड़ा देने के इरादे में था । श्रीचिंतामणि शुक्ल अपने मथुरा जनपद के राजनैतिक इतिहास में लिखते हैं- '26 दिसम्बर को दिल्ली से वापिस आते हुए क्रांतिकारियों का एक दल मथुरा आया । यह दल की 72 वी नाम की पल्टन से मिल गया , इस दल के नायक सूबेदार हीरासिंह थे । सेना की इस ब्रिगेड ने यमुना के पास सेठ की हवेली की ओर मुँह करके तोपैं लगा दीं, जिससे नगर आतंकित हो उठा । सूबेदार हीरासिंह इलाहाबाद जिले के ब्राह्मण थे तथा चौबे छंगालालजी के यजमान थे । मुनीम मंगीलाल ने तथा चौबे रामदास जी ने जो इन्हीं के मकान में रहते थे उनसे प्रार्थना की कि वे हीरासिंह को इस कार्य से विरत करैं और सामदाम नीति से मथुरा नगर की रक्षा करैं । श्री छंगालाल जी तब अकेले नाव लेकर यमुना पार 72 वी सेना के शिविर में गये । सूबेदार हीरासिंह को समझाया और मन का आशय लिया कि उनके पास रसद की कमी है, वे एक लाख रूपया नगद तथा रसद चाहते हैं । तत्काल उन्हौंने सेना को आटा दाल आदि खाद्य सामिग्री पहुँचवादी । तब हीरासिंह ने सरकारी कलक्टरी कचहरी कोतवाली तहसील पर कब्जा किया । इस समय मथुरा की जामा मसजिद के मौलवी करामात अली बादशाह के प्रतिनिधि (बायसराय) घोषित किए गये- रहमतुल्ला सदर कानूगो, मनोहरलाल सरिश्तेदार, वजीर अली को कलक्टरी के औहदेदारों के पद दिये गये- नये नये राजाज्ञा पत्र (आर्डर) जारी किए गए हीरासिंह 15 दिन मथुरा में रहे तब तक मुनीम मंगीलाल ने बड़ी चतुराई से मथुरा से सेठों से 1 लाख रूपया (1000-1000रूपया) इकट्ठा करके उनके अर्पण कर दिये ।<br />
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दुर्भाग्य से इसी समय तीसरी बार बरेली की बागी पल्टन ने मथुरा में प्रवेश किया । उसने भी अपनी तोपें विश्रान्त और असिकुन्डा के घाटों के सामने लगाकर उनके मुँह सेठ की हवेली की तरफ कर दिये । अब मंगीलाल मुनीम घबड़ाये, तुरन्त सूबेदार हीरासिंह के पास गये, उनसे नंगी तलवारें लिए 100 घुड़सवार मौके पर भेजे- बरेली के फौजी दस्ते के सूबेदार को समझाया और उनके न मानने पर उनकी तोपों हथियारों पर कब्जा कर उन्हैं बलपूर्वक मार कर भगा दिया । फिर सूबेदार हीरासिंह अपनी फौजी टुकड़ी को लेकर हाथरस बरेली को चले गये । आश्विन मास में क्रांन्ति की ज्वाला मन्द पड़ने लगी और तब तक अँग्रेजों ने अपना सैन्य बल पुन: संगठित कर कठोर दमन का चक्र चलाना आरम्भ कर दिया । लोगों को खोज खोज कर सार्वजनिक स्थानों पर फाँसी पर लटकाया गया और उन्हैं गोलियों से उड़ा कर बदला लिया गया । चतुर्वेदियों के वे उत्साही शूरवीर जिन्हौंने इस क्रांति में आगे बढ़कर भाग लिया था शत्रुओं के हाथों अपराधियों की मौत मरने को तैयार न थे अत: वे अपने 40 साथियों के साथ विभिन्न स्थानों में बिलीन हो गये जिनका फिर कोई पता न चला । चौबों में जो दैनी के गिदौड़ा बांटे जाते हैं उनमें उस समय 'गदर के 40 आँक' धड़े दारों को दिए जाते थे । उस समय इन वीरों के नाम लेने पर भी कड़ी पाबन्दी थी अत: लोग उन्हैं भूल गये । अति महत्व की बात यह है कि किसी अज्ञात प्रयत्न से उस समय के कंपनी के सरकारी गदर के कागजात भी गुम हो गये, अत: यह जानना दुष्कर हो गया कि इस साल में मथुरा में कितने किन व्याक्तियों को क्या कुछ हुआ ।<br />
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चौबों की उत्कट देश भक्ति और बलिदान भावना की एक घटना जो परम अद्भुद है राजक्रांति के इतिहास में अमर हैं । जिस समय सदर बाजार में निरपराध रोते बिलखते लोगों को फांसी दी जा रही थी उस समय अचानक कहीं से आकर नरसीं चौबे नाम के एक निर्भय देश भक्त ने ललकार कर कहा- 'कायरो, रूको इन निरपराधों को क्यों फाँसी दे रहे हो- गोरों का मारने वाला तो मैं हूँ-मुझे जो कुछ बने करो' गोरे सत्र रह गये, काना फूँसी की और उस बहादुर वीर को फांसी पर लटका दिया । इस सम्बन्ध में एक गोपनीय रहस्य मयी और घटना है । हीरा सिंह जब मथुरा से जाने लगे तो उनके साथ के एक राजस्थानी गूजर सिपाही ने उनसे आज्ञा ले मथुरा में ही रहना निश्चय किया । वह व्यक्ति जो अपना नाम भवानी नाम बतलाता था और अर्ध विक्षिप्त की तरह सारे दिन एक कोठरी में अपने आश्रयदाता श्री द्वारिका नाथ जी के पुत्र श्री लालजी महाराज की हवेली में बन्द पड़ा रहता था तथा जब बाहर जाता सड़क पर पड़े कागज चिथड़े कील पत्ती लोहा झोली में भर लाता था आजीवन यहीं रहा । उसने अपना गाँव जाति कभी किसी को नहीं बतलाया- लेखकने स्वयं उसे अपनी बाल्य अवस्था में देखा था । अँग्रेजों की सहायता के पुरस्कार में सेठों को 'राजा' का तथा चौबे रामदासजी को 'राय बहादुर' का खिताब एवं सेठों को बागी देशभक्तों की जप्त की गई 16 लाख सालाना की जमींने गांव और जमीदारियाँ दी गई । मथुरा में जयसिंहपुरा में गणेश टीले के पास पेशवावंशज नाना साहब की एक भव्य कोठी तथा बाग था अँग्रेजों ने इसे ध्वस्त करके बाग के वृक्षों को भी काट कर अपना कलेजा ठन्डा किया । <br />
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===प्रमुख महापुरूषों का मथुरा पदार्पण===<br />
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1893 वि0 में रामकृष्ण परमहंस, 1945 वि0 में स्वामी विवेकानन्द, 1962 वि0 में स्वामी रामतीर्थ, 1974 वि0 में लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय, 952 वि0 में विनोबा भावे, 1976, 78,86 में महात्मा गाँधी, 1978 वि0 में लाला लाजपतराय, अबुल कलाम आजाद, डा0 अन्सारी, आसिफ अली, पं0 मोतीलाल नेहरू, 1974 वि. में लोकमान्य तिलक, 1983 वि. में जवाहरलाल नेहरू, 1987 वि. में विठ्ठलभाई पटेल, 1988 वि. में सुभाषचन्द्र बोस, अरूणाआसिफ अली, 1994 वि. में लाल बहादुर शास्त्री, 2011 में पुरूषोत्तमदास टन्डन, 2016 वि. में बाबू राजेन्द्र प्रसाद, इन्दिरा गांधी मथुरा पधारे, इनमें से प्राय: सभी ने यमुना जी के स्नान दर्शन कर माथुर चतुर्वेदियों का यथोचित सम्मान किया ब्रज संस्कृति का सुमधुर रसास्वादन किया और जनता में जन जाग्रति का शंखनाद किया ।<br />
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===धर्माचार्यों का आगमन===<br />
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धर्मचार्यों में जगदगुरू श्री शंकराचार्य, रामानुज जीयर स्वामी, मैसूर के राजगुरू स्वामी, झालरिया नागौरी मठों के स्वामीजी, माध्वाचार्य, बल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी गण, चैतन्य महाप्रभु श्री सनातनरूपजी तथा अन्य गौड़ीय आचार्य, निम्बाकै के आचार्य, रामानंदी पयहारीजी, अनंतजी कीलजी नाभाजी प्रियादास हितंहरिवंश आदि अनेकानेक महानुभाव मथुरा पधारे जिनके परंपराबद्ध हस्तलेख माथुरों के पास हैं ।<br />
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===ब्रज यात्रा आयोजन===<br />
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ब्रजयात्रा मथुरा मंडल ब्रजभूमि की अति प्राचीन यात्रा पद्धति है । प्रभु आदिवाराह 9260 भगवान राम 4035 वि0 पू0 , भक्त प्रहलाद 9254 वि0 पू0, श्री नारदजी 9000 वि0 पू0, उद्धवजी 3100 वि0 पू0, वज्रनाभ 3042 वि0पू0 , तथा निम्बार्क संप्रदाय, बल्लभ संप्रदाय गौड़ीय संप्रदाय, राधा बल्लभ, राधा रमण, संप्रदायों के आचार्यों ने ब्रज यात्रायें की है इनमें माथुरों की अपनी ब्रजयात्रा लठामार सब से पुरातन थी जो अब साधु संतो द्वारा की जाती है । बल्लभ संप्रदाय की ब्रज यात्रा तो प्रति वर्ष तथा कभी कभी कई कई गोस्वामियों द्वारा बड़े समारोह और राजसी ठाठ से की जाती है । मथुरा के चौबेजी जो ब्रज चौरासी कोस के तीर्थ पुरोहित है वे ही इन यात्राओं में साथ साथ चलकर यात्रा के तीर्थों का तीर्थ विधान दान दक्षिणा दर्शन महात्म परिचय आदि की विधि सम्पन्न कराकर अपना सनातन कर्तव्य निभाते हैं । अनेक श्रद्धालुजनों को इन ब्रजयात्राओं में भगवद् साक्षात्कार और आलौकिक अनुभव दिव्य रसास्वादन आत्मतत्वबोध आदि की परम दुर्लभ अनुभूतियाँ प्रत्यक्ष होती हैं जो जीव के लिये जीवन का परम लाभ है । <br />
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===भक्त और संत महात्मा===<br />
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माथुरों द्वारा मथुरा का दिव्य रसास्वादन प्राप्ति हेतु यहाँ आने वाले भक्तों और संतों की सूची लंबी है । उनमें से कुछ प्रमुख महानुभावों के नाम यहाँ देना संभव है । म0 विष्णुस्वामी महाराज 1257 वि0 । श्री भट्टजी 1344 वि0, रामानंदजी 1356 वि0, श्री स्वामी हरिदासजी 1541 वि0, श्री हितहरिवंशजी 1559 वि0, भक्त नाभादासजी 1600 वि0, पयहारीजी 1572 वि., स्वामी अग्रदास 1632 वि0, श्री अनंतदास 1645 वि0, श्रीहरिराम व्यास 1541 वि0, रानाकुँभा 1490 वि0, तानसेन 1624 वि, मीराबाई 1592- 1620 वि0, गो0 तुलसीदास 1628 वि0, महात्मासूरदासजी 1565 वि0, पशुराम देव 1450 वि0, श्री गो0 बल्लभाचार्य 1549 वि0, श्री चैतन्यमहाप्रभु 1572 वि0 राना सांगा (संग्राम सिंह) 1584 वि0, चंद्रसखी 1648 वि0, भक्त कवि सेनापति 1680 वि, श्री विठ्ठुलजी , बिहासन दास जी, भगवद्रसिकजी, ललितमोहिनीजी, ललित किशोरी जी, रंछोर दासजी, स्वामी कील ध्रुवदासजी, गो0 बिठ्ठलनाथजी 1600 वि0, 'भक्त रसखान 1592 वि0, श्री माधवेन्द्र पुरीजी 1507 वि0, श्री ईश्वर पुरीजी 1538 वि0, पद्मना दास 1560 वि, श्री रूप जी 1572 वि0, श्री सनातनजी 1592 वि0, श्री जीव गोस्वामी 1592 वि, श्री रघुनाथ गो0 रघुनाथ भट्ट, गदाधर भट्ट, श्री गोपाल भट्टजी(राधारमणी गो0) 1616 वि0, श्री नारायण भट्ट 1602 वि0, श्री केशव काश्मीरी 1598 वि, भक्त महाकवि बिहारी लाल चौबे 1660 वि0, बेगम ताज 1580 वि0 नागरी दासजी 1622 वि0, भक्त जगतानंद कवि 1658 वि, ब्रन्दावन देव हरिदासी 1754 वि0, मुकुँद हाड़ा बूँदी के 1635 वि, अमरसिंह हाड़ा जोधपुर के 1621 वि0, राजा पृथ्वीराज बीकानेर के 1624 वि, घमंडीराम करहला के 1549 वि0, उदैकरण 1700 वि0, खेमकरण 1755 वि0,विक्रम 1735 राजामानसिंह 1597 वि0, राजाजयसिंह 1760 वि0, रहीम खान खाना 1580 वि0, बीर सिंह बुँदेला 1671 वि0, आनंदधन गोस्वामी नंदगाँव के 1620 वि0, प्राणनाथ स्वामी परनामी 1628 वि0, हठी बरसानियाँ 1622 वि0, ओलीराम 1621 वि0, भक्त नाभादासजी 1600 वि, प्रियादासजी 1719 वि0, लालाबाबू 1866 वि0, भक्त कवि छीतस्वामी 1572 वि0, तपस्वी भक्त द्वारिकानाथजी मिहारी 1896 वि, बूटी सिद्धजी 1744 वि, राज पटनीमल काशी 916 वि, पंडितराम जगत्राथ सम्राट दीक्षित 1767 वि, । राधेबाबा 2028 वि, गुदारिया बाबा 2030 वि, ग्वारिया बाबा 2000 वि, । देवा सिद्ध योगीराज 1838 वि, । श्री रज्जू जी महाराज 1980 वि, ।<br />
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===बर्तमान कालीन सन्त महात्मा=== <br />
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युगल बिहार उपासी अनन्य रसिकवर श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के गादीस्थ श्री राधाचरणदास जी टटिया स्थान वृन्दावन, श्रीयोगीराज महाराज के गोपाल पीठ के आचार्य श्री विट्ठलेराजी महाराज मथुरा, विरक्त सन्त कौशल किशोर मन्दिर वृन्दावन के महंतपस्वी श्री कौशल किशोरजी महाराज, पनकी कानपुर के हनुमान मन्दिर गादी के महन्त श्री भुवनेश्वरनाथ जी (मत्रू बाबा) पनकी कानपुर । <br />
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माथुरों के भेद उपभेद-<br />
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माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों के दो भेद हैं- 1. कड्डए चौबे 2- मीठे चौबे ।<br />
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कडुओं में 1- मथुरास्थ, 2-प्रवासस्थ दो भेद हैं । प्रवासी बन्धुओं में 1- कुलीन, 2 कदलुआ, 3- सैंगबार तीन उपभेद हैं ।<br />
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खड़ग कवि ने कहा है-<br />
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<poem>करूऔ बौलैं मीठौ खाँइ, मथुरा छांड़ कहूं नहीं जांइ ।<br />
मथुरा के हित सीस कटाये, पुरखा पंगत पैज निभाये ।।<br />
राउरंक की करैं न कान, करूऔ पीतौ राखै आन ।<br />
हित की बात गरजकैं कहैं, राग द्वेषते न्यारे रहैं ।।<br />
कठिन खरखरे खरे सुहाये, करूए पीते करूए कहाए ।।<br />
मिठबोला जो मीठे रहे, जीव बचात धाम तजि गये ।<br />
करूएन नैं जब सीस कटाए, खीर खांड़ मीठेन नें खायें ।।<br />
करूएन झेले संकट घोर, बने न कुल कीरति के चोर ।<br />
अचल रहे ब्रत मेरू समान, धीरज धरम तेज की खान ।।<br />
माथुर तीन लोक ते न्यारे, चौबे तीन लोक के प्यारे ।<br />
जमुना मैया सदा सहाई, अमर कीरति भूमण्डल छाई ।</poem><br />
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मथुरास्थ- मथुरास्थ माथुरों की प्रधान शाखा है जो अपने मूल उत्पत्ति केन्द्र मथुरा नगर में बसी है । इसी में से समय समय पर उक्त सभी शाखायें निकल कर बाहर फैली हैं । मथुरास्थों के आचार विचार स्वधर्म और कुल परम्परा की दृढता सभी के लिए अनुकरणीय और प्रेरणा दायक है । अपने कठोर संयम और अविचल भाव तथा आत्मगौरव के लिए मरमिटने की दृढनिष्टा के कारण ही ये कडुए चौबे नाम के विख्यात हुए हैं । इनका कुलाचारा आज भी आदर्श है जिसकी विशेषता यह है कि- 1 ये कच्ची रसोई किसी ब्राह्मण या अन्य जाति के हाथ की ग्रहण नहीं करते । 2 इनके यज्ञोपवीत आदि संस्कार शास्त्रानुसार यथा समय होते हैं । 3 ये हुक्का चिलम तमाखू बीड़ी सिगरेट नहीं पीते, मद्य मांस प्याज लशुन सुलफा गांजा अन्डा केक होटल का किसी भी प्रकार का भोजन स्वीकार नहीं करते 4 ये चोटी यज्ञोपवीत कंठी तिलक धारण करते, स्नान के बाद ही भोजन पाते तथा यथावकाश गायत्री संध्या तर्पण श्राद्ध देवपूजन नैवेद्यनिवेदन देव स्तुति आदि ब्राह्मण कर्मों का दृढता से पालन करते हैं, 5 ये अपने को श्री यमुना माता का पुत्र मानते हैं तथा माता जी की रक्षा कृपा पर पूर्ण भरोसा रखते हैं ।<br />
<br />
कुलीन- ये मथुरास्थ गुरूओं के आचरण को निष्ठाऔर श्रद्धा के साथ धारण करने से प्रयासी माथुर कुल के गौरव को स्वाभिमान के साथ निर्वाह करने वनाये रखने के कारण ये अपने को श्रेष्ठ माथुर कुल धारी होने के गौरव के हेतु से कुलीन कहते हैं ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_15&diff=56320चतुर्वेदी इतिहास 152010-04-23T13:20:51Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==मुहम्मद गोरी के बाद==<br />
गुलाम वंश के 11 बादशाह तथा एक रजिया बेगम ने 84 वर्ष(1263-1347 वि0) राज किया । इस समय पठान दल के दल विसायती खाना चूड़ी हींग आदि लेकर बेचते हुए गाँव-गाँव नगर-नगर में छा गये । 1347-1377 वि0 के 30 वर्ष में खिलजी वंश की सल्तनत रहीं । ये सभी हिन्दू धर्म और ब्राह्मणों के शत्रु थे । अलाउद्दीन खिलजी (1355-1372 वि0) ने जो महानिर्दयी क्रूर और दगाबाज जालिम बादशाह था मथुरा और माथुरों पर दुसह अत्याचार किये । मथुरा के जो बचे थे उन सभी मन्दिरों को तोड़कर इसने सरायें मकतव इमाम बड़े बनवाये । होली दरवाजा, भरतपुर दरवाजा, डीग दरवाजा आदि पर जो सरायें हैं वे प्राचीन मन्दिर थे जिन्हैं इसने नष्ट किये । इसके भाई असफखाँ (उलगखाँ) ने असिकुंड तीर्थ के समीप के नवमंजक तीर्थ पर स्थित मुंजकेश रूद्र मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रयास किया जो विफल हो गया । शिव वाहन नंदी यहाँ अभी भी हैं । खिलजी ने यमुना के घाटों यात्रियों और माथुर ब्राह्मणों को भी भारीक्षति पहुँचाई परन्तु घोर अत्याचारों के बाद भी वह माथुरों के (चौबिया पारा) में भग्न मन्दिरों पर कोई मसजिद सराय या मकतव न बना सका । माथुरों ने दृढता से इसके सभी प्रयासों कौ पूर्णत: विफल कर दिये । इसने कामांध होकर रानी पदि्मनी के लिये चित्तौड़ पर आक्रमण किये पहिली बार वीर राजपूतों ने डोलों में बैठकर जनाने भेषों में इसके शिवर में प्रवेश किया और काट कर इसकी सेना को भगा दिया परन्तु दूसरी बार बहुत बड़ी यवन सेना के साथ चित्तौड़ का घेरा डालने पर 13 हजार राजपूतों ने जौहर किया रानी पदि्मनी चिता में चढ गयी तथा इसी 1360 वि0 में मथुरा के माथुर चित्तौड़ से मथुरा लौट आये ।<br />
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इसका उत्तराधिकारी मुबारक शाह खिलजी भी महानिर्लज्य था इतिहास भास्कर का लेखक लिखता है 'जाइ प्रजाघर नांचवे कर नारी को भेष' कभू नगिन दरबार में बैठत आपु नरेश । दरबारी उमराव तिन्ह के परिमल व सन पै करवाबत पेशाब वोलि कंचनी नगिन करि।। यह राजा हिजड़ों का हिमायती था आप नंगा दरवार में आ बैठता तथा नग्न वैश्याओं से दरबारी लोगों के झीने वस्त्रों पर पेशाब करवाता इतना ही नहीं बादशाह खुद घर घर हीजड़ी बनकर ढोलक बजाकर नाचता था । वह इस्लाम का भी पक्षपाती न था, लिखा है- चौकी रची कुरानकी तापर मूरति धारि, हिन्दुन नैं पूजा करी या विधि महीना चारि । इसे नाच गान की तरफ से मोहित कर मथुरा के चौबे और अन्य लोगों ने कुरान की चौकी बनाकर उस पर भगवान नृत्य गोपाल की मूर्ति विराजमान कर चार महीना चतुर्मास का महोत्सव मनाया जिसमें बादशाह को भी खूब नचाया ।<br /><br />
खिलजियों के बाद तुगलकों का राज्य (1377-1471 वि0) 94 वर्ष रहा । इनमें मुहम्मद तुगलक की मूर्खता और हठ इतिहास प्रसिद्ध हैं ।<br />
<br />
फीरोज तुगलक भी हठी सनकी और निर्दय अत्याचारी था । 1455 वि0 में लंगड़ तैमूर ने दिल्ली पर हमला बोला । 5 दिन दिल्ली लूटी और एक लाख कैदी गुलाम बनाकर पंजाब लूटता काबुल को लौट गया, तब 16 वर्ष तक दिल्ली अनाथ रही । 1471 वि0 में सैयद वंश ने दिल्ली तख्त दबाया । 1507 वि0 में लोदी वंश आया इनमें सिकन्दर लोदी (1545-1574 वि0) महा अत्याचारी हिन्दुओं का कट्टर विरोधी था यह अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा ले आया तथा मथुरा केशव मन्दिर तोड़कर वहाँ कसाइयों को बसाकर मांस बेचने का काम सुपुर्द किया । मन्दिरों की मूर्तियाँ मांस तोलने के बाँट बनायी गयीं । माथुरों पर कठोर अत्याचार हुए तथा यात्रियों के स्नान मुन्डन आदि पर जाजिया कर लगाया गया । मथुरा पर काजी का राज था । ये और उसके फर्मावरदार तलवार लिये गली गली घाट घाट घूमते थे । मथुरा में इसके सिफाही लोधे समूह के साथ बस गये । 1583 वि0 में मुगुल बाबर ने भारत पर हमला किया और इब्राहिम लोदी से दिल्ली सल्तनत छीन ली । इब्राहीम (हिमवंत खन्ड) मेवात के शूरवीर मेवों का कठोर दमन कर उन्हैं मुसमान बनाया । इनमें से एक दल चंबल के बीहड़ों में भाग गया तथा कुछ मलकानें बनकर दुधर्मी बनकर रह गये । जो माँस भक्षण के कारण मल खाने प्रसिद्ध हुए ।<br />
1326 वि0 में गया सुट्टीलप भवन के समय धार्मिक अत्याचार होने पर 1 लाख मेव मारे या भाग गये ।<br />
<br />
==मुगल राज्य==<br />
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मुगल वंश का पहिला बादशाह बाबर (1583-1589 वि0) था जो तुर्क तैमूर लंग का परपोता था इसके समय चित्तौड़ के राणा सग्राम सिंह (साँगा) ने जो बड़ा राजा कहा जाता था 9 राजा तथा 10 सामन्तों का देश रक्षा संघ मथुरा में बनाकर फतेहपुर सीकरी के पास बाबर से मोर्चा लिया । साँगा अद्वितिय शूरवीर था- उसके देह पर 80 घावों के निशान थे तथा युद्धों में उसकी एक आँख और पैर मारे गये थे । बाबर उसे जीत नहीं सकता था अत: भोजन पर बैठे राजपूतों पर धोखे से हमला करके उन्हैं रौंद डाला । एक अनुश्रुति यह भी है कि मुगलों ने गायें आगे कर हमला किया जिससे राजपूत कर्तव्य विमूढ़ हो गये ।<br />
सांगा का अधिक विवरण 'श्री विश्रान्त तीर्थ राज' शीर्षक में हैं । हुमायू ने (1587-1613 वि0) 26 वर्ष राज किया, अधिकतर वह भागता ही फिरा । उसके समय मथुरा में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुई । इसके समय 1593 वि0 में महाप्रभु चैतन्य के शिष्य सनातन और रूप ब्रज में आये और उन्होंने यहाँ तीर्थ यात्रा का मार्ग निर्देशन करते हुए भावुक भक्ति रसज्ञ माथुरों को देखा । उन्होंने प्रेम विभोर होकर लिखा- <br />
<br />
<poem>अत्रासीत्किल नंद सद्म शकट स्यत्रा मभूद् भंजम् ।<br />
बंधच्छेद करोऽपि दामभिरभूद् वद्धोत्र दामोदर: ।।<br />
इत्थं माथुर वृद्ध वक्त्र विगलद् पीयूष धारां पिव ।<br />
आनंदाम्बुधर: कदा मधुपुरी धन्या चरिष्याम्यहम् ।।</poem><br />
<br />
1313 वि0 में 13 वर्ष की आयु में अकबर गद्दी पर बैठा । अकबर उदार और भावुक प्रकृति का जीव था । उसने जैपुर के राजा भगवान दास की बहिन तथा राजा मानसिंह की बुआ जोधा वाई से विवाह किया जिससे जहाँगीर पैदा हुआ था । अकबर ब्रजभूमि मथुरा पुरी और मथुरा के चौंबों का परम भक्त था । उसके दरबार में तानसेन (स्वामी हरिदास जी का शिष्य), बीरबर, टोडरमण, हरनाथ माथुर आगरा के किले के प्रबंधक जिन्हैं आगरा में जंजीरी कटरा खिलअत में मिला), था रसखान, नृसिंह दैवज्ञ ज्योतिष शशि भानुचं ददरबारी अकबर ने नवरत्नों में देवज्ञ थे ।<br />
<br />
अकबर ने दीन इलाही चलाया जिसमें सूर्य चन्द्रमा गण और अग्नि की पूजा थी । वह तिलक लगाता कंठी जनेऊ बगलबंदी पहिनता हुआ पूरा गोशांई बन जाता था । उस पर माथुरों का भारी प्रभाव था । ब्रज भक्ति रसाचार्यपरम प्रभु श्री उद्धवाचार्य देव ने उसे कंचन रत्न मयी मथुरा के दर्शन कराये थे । श्री स्वामी हिरदासजी का संगीत सुधा रस पान करने को वह तानसेन का सेवक बन कर आया था उसकी बेगम ताज मथुरा के ताज पुरा में गो0 विनट्ठ नाथजी के (सतधरा) के निकट ही रहती थी । अकबर ने चौंबों को अनेक अवसरों पर भूमि, दान दिये जिनके फर्मान इस ग्रंथ के परिशिष्ट संकलन भाग में हैं । अकबर ने अपने बजीर टोडरमल के मथुरा आकर विश्राम घाट पर यमुना जी के दर्शन करके चौबों को तीर्थ की मर्यादानुसार पूजन और दान दक्षिणा ने देने पर चौबों के श्री भगवान मिहारी के दावे को बहाल करते हुए अपने ही जीमीर पर 350 रूपयों की डिग्री की जिसकी चुकती राजा टोडरमल ने बंड़े विनय के साथ पैरों पड़कर की । <br />
बीरबल की कठिन समस्यायें जब अटक जाती थी तो वह उन्हें सुलझाने चौबे गुरूओं के ही पास आता था । इस समय की अनेक मनोरंजक घटनायें चुटकुलों के रूप में लोगों की जुबानों पर हैं-<br />
<br />
1. बादशाह का महाभारत- अकबर ने एक बार हरवंश मिहारी को बुला कर कहा-' हमारा महाभारत बनाओ' चौबेजी ने कहा- ' इसमें तो बड़ा खर्च पड़ेगा' । बादशाह ने तब बहुत सा धन देकर चौबेजी को रबाना किया । अब क्या था हजारों चौबे बाबा यमुना तटके घाटों पर कागजों के गट्ठर सामने रखे यमुना यमुना लिखकर कागजों के गठर बांधकर रखते जाते बादशाह के आदमी आते देख जाते हर महिना हजारो रूपया खर्च कौ आने लगा और माल घुटने लगे । 3 वर्ष बाद बादशाह ने चौबे जी को बुला कर पूछा-' अब कितना काम वाकी है ?' गुरूजी ने कहा- 'काम तोबहुत कुछ हो चुका है- एक समस्या अटकी है उसे एकांत में चलें तो पूछूँ' एकांत में जाने पर कहा- 'जहाँ पनाह, एक बड़ी समस्या अटकी है, द्रोपदी के पाँच पति थे- आपने भी सुना होगा ।<br /><br />
आपकी बेगम साहिबा के एक श्रीमान है तथा चारौं के नाम और बतलायें जायैं । बादशाह ने कहा मैं नहीं जानता क्या इसके बगैर काम न चलेगा, मैं रात बेगम साहबा से दरयाक्त करूँगा रात को बादशाह ने जब बेगम के सामने सबाल रखा तो वे झल्ला उठी- जहन्नुम में डालौं यह करिश्मां-मेरा उसमें जिक्र भी मत देना । बादशाह बेहद शर्मिन्दा हुए और कहा- 'महात्माजी, इस काम को फौरन बंद करदो और जोलिखा है उसे जमना में बहा दो'<br /><br />
चौबेजी ने कहा- 'हजुर एसा न करैं सारी मेहनत पर पानी फिर जायेगा, हजारों पंडित मेहनत कर रहें हैं ? बादशाह ने- पुन: बहुत सा धन दिया और कहा- जो हुआ सो हुआ, अब इसे आगे मत बढ़ाओ ? चौबेजी हंसी खुशी अपने घर आये ।<br />
<br />
2- कौड़ी का बटयारा- एक बार बहुत से चौबों के आशीर्वाद देने पर बादशाह ने श्री भगवान गुरू को 1 कौड़ी देकर हंसकर कहा- 'इसे सबको बाँट दो' बादशाह चले गये, अब चौबों के दल ने गुरू जी को घेर लिया 'क्या दिया है दिखाओ और बाँटो' भगवान गुरू हंसे- 'तुम मेरी मुठी की कीमत बताओ और बट ले लो किसी ने कहा- 'एक मुहर है किसी ने कहा पाँच है' गुरूजी ने जिसने जो कहा- उसी हिसाब से उसे बाँट देकर हजारों रूपया लुटा दिये' बादशाह ने जब यह सुना उन्हें बुलाया और कहा- 'तुमने मुट्ठी क्यों नहीं खोलदी' गुरूजी ने कहा- श्रीमान उसमें आपकी और मेरी आबरू बंद थी' मैं उसे खोल कैसे देता ? इस उत्तर से बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और उम्मीद से ज्यादा धन और भूमि जागीर देकर उन्हैं सम्मानित किया ।<br />
<br />
3- मोती माला- एक बार बादशाह नौका में बैठकर यमुना में से मथुरा की शोभा देख रहे थे । गुरूजी भगवान महाराज साथ थे । उनके यमुना और मथुरा महात्म को सुनकर बादशाह ने प्रसन्न हो उन्हैं एक बहुमूल्य मोतियों की माला भेंट की । गुरूजी ने मस्तक से लगा कर उसे श्री यमुना जी के अर्पण कर दी यह देख बादशाह हैरत में पड़ गया -'यह क्या किया मेरे मालिक वह तो बहुत वेश कीमती थी । भगवान गुरू मुस्कराये-'चिन्ता क्यों करते हैं खल्कत के मालिक- यह देखो' कैसा आश्चर्य उन्हौंने यमुना जल में हाथ डाला और माला पर हजारों मोती की मालाओं का ढ़ेर बादशाह के सामने लगा दिया । ये सभी बादशाह भी माला से बहुत अधिक कीमतों की थीं यह भक्ति बल देख बादशाह चकित और लज्जित हो गया ।<br /><br />
इस प्रकार की और भी बहुत सी घटनायें जन मानस में गहिरी पैंठी हुई हैं ।<br /><br />
<br />
===माथुर चतुर्वेदी कुल के सूर्य चंद्रमा श्री उद्धवजी उजागरजी===<br />
<br />
उक्त दौनों महापुरूष माथुर कुल के परम यशस्वी तेजस्वी रत्न हुए हैं । श्री मद् उद्धवाचार्य मिहारीपीवंश के तथा श्री उजागर जी ककोर कुल सरदार थे । श्री उद्धवजी का जन्म 1532 चैत्र शुक्ल 6 (यमुनाछट) को तथा लीला प्रवेश 1624 कार्तिक शुक्ल 11 (प्रवोधिनी) का हुआ था दोनों की मातायें यमुना गंगा परस्पर श्री गणेशानंद सोती की पुत्री सगी बहिनैं थी । श्री उद्धवजी के पिता योगाचार्य श्री गोपीनाथजी थे जिनकी ब्रम्हजीन साधना पर माता यमुना सती हुई और तभी अपनी बहन गंगा को निर्देश दिया कि- 'मेरे ऊधौं कौं अपने उजागर ते जादा करकौं राखियों- यामें भेद आयौ तौ अलैंह परैगी' माता ने उसी भाव से दोनों का लालन-पालन किया तथा वे माता सती के आशीर्वाद से परम तेजस्वी लोक पूर्जित और महामान्य प्रतापी पुरूष हुए । दोनों भाई एक प्राण दो देहबन कर रहे । वे दोनों प्रत्येक सामाजिक समारोहों उत्सवों पंचायतों में एक साथ श्री उजागरजी के सुन्हैरी ताम झाम में बैठ कर पधारते थे । आगे पीछे घुड़सवार और सेवक चलते थे । श्री उद्धवजी जन्म से ही बड़े तेजस्वी ज्ञानी रूपवान और गंभीर चितंन स्वभाव के थे । अपने गुरू योगेन्द्र ब्रह्मचारी से उन्होंने वेदादि सर्व शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किया था । उनके जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनायें हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं ।<br />
<br />
1- श्री माधवेन्द्र पुरी महाराज मथुरा पधारे तब उन्हैं मथुरा और ब्रज भूमि महात्म उपदेश कर गिरिराज तरहटी के ढूकाँ दाऊजी के सुरभीबन में श्री कृष्ण अराधना की प्रेरणादी तथा वहां के श्री गोपालजी (श्री नाथजी) के विग्रह को श्री माहाप्रभु वल्लभ आचार्य जी द्वारा सेवा अधिकृत करने पर ढूंका बल्देव का श्री माधवेन्द्र पुरी जीका बनाया प्राचीन मन्दिर सूना हो गया और तब वहाँ एक बड़ी शिला को बड़े भाई बलराम मानकर पूजित कराया ।<br />
<br />
2- महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य जी जब मथुरा पधारे तब उन्हैं अपने आवास में यमुना वाटिका में निवास दिया और अपने कथा स्थल विश्रान्त अवि मुक्त के संगम के निकट श्री यमुना आराधना का परम तत्व हृदयगम कराया तथा संप्रदाय स्थापना से पूर्व श्री यमुनाष्टक की रचना और सविधि उसका पारायण कराया तथा श्री माताजी का प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर श्री गोवर्धन शिखर पर बालगोपाल प्रभु की सेवा पद्धति से संप्रदाय की स्थिति की श्री वृद्धि का मार्ग निर्दिष्ट कराया ।<br />
<br />
3- श्री माधवेन्द्र पुरी जी के शिष्य ईश्वर पुरी जी को नंद गांव में नंदगोपाल प्रभु की आराधना उपदेश की जिससे वे ईश्वरवाटिका और ईश्वर पुष्करिणी (ईसरा ग्वाल की पोखर) बना कर अपनी भक्ति साधना में सफल हुए ।<br />
<br />
4- श्री बल्लभदेव को आन्यौर के निकट प्रागट की ठौर से प्रगट श्री नाथ प्रभु का स्वरूप दिलाकर पूरनमल खत्री (टोडरमल परिवारी) को मथुरा से लाकर श्री नाथ जी के दर्शन कराकर मन्दिर निर्माण की प्रेरणा दी तथा मथुरा से कारीगर निर्माण सामिग्री की व्यवस्था कर मन्दिर निर्माण करवाया ।<br />
<br />
5- श्री नाथजी के परटोत्सव में ब्रज के सभी संप्रदायों के संतमहंत भक्तों विरक्तों को आमंत्रित कराकर उन सभी का यथोचित सेवा सत्कार और सम्मान कराया ।<br />
<br />
6- श्री उद्धवदेव कथा रस के अद्वितिय प्रवर्तक थे । वे नित्य प्रति श्री विश्रान्त और अविमुक्त तीर्थ के संगम पर राजा भगवान दास आमेर की रानी द्वारा बनवाये एक छोटे से बुर्ज पर विराज कर श्री मद् भागवत और बाराह पुराण मथुरा महात्म की कथा कहते थे जिसका सुधारस पान करने को अनेक राजा महाराजा संतभक्त विरक्त सुधीजन यमुना पुलिन रेणुका में बैठकर रस लेने आते थे- बादशाह भी यहाँ आया था ।<br />
<br />
7- यहीं आपने श्री यमुना माता की कृपा से ऋग्वेद के 'माथुर स्वामी भाष्य' की रचना की जिसमें ऋग्वेद में श्री कृष्ण लीलाओं का अनुसंधानात्मक विवेचन है । ऋग्वेद के हिन्दी भाषान्तर कर्ता श्री रामगोविन्द त्रिवेदी ने अपने हिन्दी ऋग्वेद' की भूमिका में इसका उल्लेख किया है और बतलाया है कि यह भाष्य अब जर्मनी में है ।<br />
<br />
8- श्री यमुना तट पर ही आपने अपने विशाल 650 पृष्ठों वाले ब्रजयात्रा ग्रंथ की रचना संपन्न की जो ब्रज ज्ञान का अभूतपूर्व भक्ति रस कोष है ।<br />
<br />
9- श्री विश्रान्त तीर्थ पर ही आपने 1550 वि0 में आद्यरास का प्रादुभवि किया जिसमें माथुर बालकों के 8 स्वरूप प्रस्तुत कर श्री स्वामी हरिदासजी तथा श्री बल्लभाचार्य के सहयोग से परम रास रहस्य का प्रागट्य किया इसमें दैवयोग से श्री लालजी का स्वरूप तिरोहित (लीला प्रविष्ट) हो गया जिससे मिहारी वंश में बालक को स्वरूप बनाने और केसरिया वस्त्र पहिराने की बिठोक हो गयी जिसे वृद्धा मातायें अभी भी मानती हैं । इस विषय में 'रास सर्वस्व, में लिखा है-<br />
<br />
<poem>प्रथम रास विश्रान्त किय बहु ब्रजभक्त बुलाइ।<br />
उद्धव श्री हरिदास वहाँ प्रागट रचेउ सुहाइ ।।<br />
उद्धव रस के पारखी गान किये रस राग ।<br />
बल्लभ नेह छकित भये उमग्यौ अति अनुराग ।।<br />
रसावेश उमग्यौ अगम भयौ तिरोहित रूप ।<br />
तब आरंत विहबल भये परेजु करूनां कूप ।।<br />
माथुर लीला विरत भे तब घमंड समुझाई ।<br />
तुम यह परिपाटी गहौ हरि भक्तन हित छाइ ।।<br />
गांव करैहला जानियैं स्वामी पद तिन्ह दीन्ह ।।<br />
उद्वव रस के महोदधि अजुगत लीला कीन्ह ।।</poem><br />
<br />
घमंडीराम करहला निवासी कीर्त्नियाँ थे, उन्हैं इस रास में समाजी का पद दिया गया था तथा बाद में उन्होंने ही करहला से इस रास की परंपरा को आगे बढ़ाया जो अभी तक चली आ रही है ।<br /><br />
10. 1550 वि0 में श्री बल्लभाचार्य को ब्रजयात्रा कराते समय बहुलावन के मुसलमान हाकिम ने उन्हैं गाय की मूर्ति की पूजा से रोक दिया -कहा कि यदि पत्थर की गाय घास चरे तो सच्चा देव मानूँ । श्री उद्वव देव ने वेद का गोसूक्त पढ़ा और तत्काल गौ सामने रक्खी घास को खाने लगी । हाकिम लज्जित हो गया और दर्शक जय जय कार कर उठे ।<br />
<br />
11. 1571 वि0 में मुसलमान बादशाह लोदी के एक पीर ने विश्रान्त घाट पर एक एसा यंत्र लगाया कि जिसके नीचे से निकलने वाले हिन्दू कीचोटी गायब हो कर दाड़ी निकल आती थी । इसके प्रतीकार में श्री उद्ववजी ने एक 'यमराज यंत्र' निर्माण किया और उसे दिल्ली नगर के प्रधान द्वार पर श्री केशव काश्मीरी भक्त से लगवाया जिससे मुसलमान की दाढ़ी गायब होकर चोटी निकल आती थी । इस यंत्र से दिल्ली नगर में तहलका मच गया और तब बादशाह ने क्षमा मांगकर दोनों यंत्र हटवा दिये ।<br />
<br />
12-1580 वि0 में रहीम खानखाना ने आपके उपदेश पर 1 लाख मुद्रा गंग कवि को पुरस्कार दिये । गंग ने एक दोहा पढ़ा था-<br />
गंग गौंछ मौछैं यमुन अधरन सरसुति राग ।<br />
प्रगट खानखाना तेरे अधरन पुण्य प्रयाग ।<br />
<br />
13- 1615 वि0 में इनके पुत्र श्री भगवान मिहारी ने अकबर दरबार में टोडरमल बजीर पर 350) की डिगरी करायी ।<br />
<br />
14- 1603 वि0 में भक्त रसखान ने इन की देहरी चूंभी तब उसे गोविंद कुंड पर गो0 विछल नाथ जी की सेवा में भेजा ।<br />
<br />
15- 1584 वि0 में राणा सांगा को विश्रान्त पर घाट निर्माण की प्रेरणा दी ।<br />
<br />
16- श्री उद्धवदेव की प्रशस्ति में अनेक भक्तों ने काव्य रचनायें की हैं, उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं-<br />
<br />
<poem>शास्त्रज्ञ धर्मज्ञ कला प्रवीण:, अनेक सच्छास्त्र कृति: रसज्ञ: ।<br />
चंडांशुवद्दीपित लोक पूज्यो, श्री उद्धवो माथुर सर्व वंद्य: ।।<br />
श्री कृष्ण भक्ति महदांबुधि पूर्ण चंद्रो, तत्वज्ञ दिव्य ब्रज मंडल तीर्थ धाम्नि ।<br />
लीला रसज्ञ भुविभास्कर चक्रवर्ती, श्री उद्धवो विजयते श्रुतिससार्वभौम: ।।<br />
लोक वंद्यो जगत्पूज्यो उदार करूणाम्बुधि: ।<br />
पादार्चयन्ति विवुधा उद्धवस्य महात्मनाम् ।।<br />
शास्त्राण्येन अकृलंता नृपवरै र्विद्वज्जनैर्वं दिता: ।<br />
भक्ति स्थापन लोक पावन करं तत्वं समुद्घोषिता: ।।<br />
नानादैवत तीर्थ शोधन कृता विप्रांश्च संस्कारिता:।<br />
श्री ब्रजमंडल मंडनं विजयते श्री उद्धवेशो प्रभु: ।।<br />
कालिंदी जगदंब क्रोड विलसन्हृष्टो पय: पानत ।<br />
साक्षाच्छीरविजा विनिर्दिशषतितंबात्सल्य प्राप्तं सुतम् ।।<br />
नाना वैष्णव संप्रदाय प्रमुखा गृण्हन्ति गोप्यं रसं ।<br />
श्री मन्माथुर भास्करों विजयते श्री उद्धवेशो प्रभु: ।।<br />
येषां कृपा कटाक्षेण हरिलीला प्रस्फुरायते ।<br />
तं श्री मदुद्धवाचार्य पादरेणुं नमाम्यहम् ।।<br />
पग परतत आचार्य भूप ठाड़े रहैं द्वारे।<br />
गावत जस कवि छंद भक्त जन प्रानन प्यारे ।।<br />
वेदपाठ धुनि होत अचल रविजा भुवि भक्ती ।<br />
हरि रस चातक भक्त चरन चांपत अनुरक्ती ।।<br />
अनुभव अनंत भगवंत पद लछीराम बंदत गनी ।<br />
राजाधिराज द्विजराज वर उद्धव जय त्रिभुवन धनी ।।<br />
जिनकी कृपा प्रसाद भक्त भुवि मंडल नांची ।<br />
मथुरा देव निवास लखी कलिजुग में सांची ।।<br />
खोलि दियौ भंडार रतन श्री महारानी जू ।<br />
अगनित तारे जीव भागवत बरदानी जू ।।<br />
जय 'छगन मगन' आनंदघन ब्रजमंडल वैभवभरन ।<br />
माथुर श्री उद्धव देवजू त्रिभुवन जन पूजितचरन ।।<br />
सम्राडकवरेणैते प्रार्थिता श्री मदुद्धवा: ।<br />
स्वरूपं मथुरायाश्च तं ददर्श महद्भुतम् ।।<br />
सुवर्ण निर्मिता रत्नैर्जटिता मथुरापुरी ।<br />
दर्शिता तं विलोक्या ऽसौ सम्राट सुचकितोऽभवत् ।।<br />
श्री भागवत वखानि अमृत की धार बहाई ।<br />
अमल करी सब अवनि ताप हारक सुखदाई ।।<br />
भक्तन सौं अनुराग दीन कौं परम दयाकर ।<br />
भजन यशोदानंद संत संधट के आगर ।।<br />
भीषम हरिभक्ति उदार उर कलियुग दाता सुमति के ।<br />
तप बर्धमान मंगल गभिर उभैं थंम हरि भक्ति के ।।<br />
श्री उद्धव अवतार भक्त उद्धव के गाये ।<br />
मथुरा माथुर विप्र मिहारी कुल प्रगटाये ।।<br />
काव्य चित्र संगीत सकल शास्त्रनु के ज्ञाता ।<br />
तपसी तेज निधान चरन पूजित बिख्याता ।।<br />
तिन्ह के बंधु प्रवीन उजागर परम प्रतापी ।<br />
नारद देह अगाध मान धारी हरि जापी ।।<br />
राजा राव राना नित वंदना करत ठाड़े ।<br />
मारगधरैया भेद जाचत अनाद हैं ।।<br />
ब्रज सरबस रस चाख्यौ है सुगम करि,<br />
काट्यौ तप तेज बल भ्रमनां प्रमाद है ।।<br />
'भगवंत' संत सुर मुनि मिलि सेवा करें,<br />
श्री जमुना कौ धाम तहाँ होत शंखनाद हैं ।<br />
जुरि-जुरि आवैं भक्त पीवत न थाकैं सुधा,<br />
छाकैं छाक श्री उद्धौजू की कृपा के प्रसाद हैं ।।</poem><br />
<br />
श्री उद्धव उजागरजी की प्रशस्ति में ब्रज मंडल के 45 भक्त कवियों ने पद किये हैं जिन का संग्रह माथुर' मधुयापावली' नाम से हमारे प्राचीन ग्रंथ संग्रह में हैं ।<br />
<br />
16. एक बार गहिरी निद्रा में शयन करते हुए उन्हैं माता श्री यमुना जी ने उठाकर अपनी गोद में बैठाया सिर पर हाथ फेरा और फिर उन्हैं कंचन कटोरा में लाया हुआ अपना निज प्रसाद सुरभी दूध पय पान बड़े लाढ़ के साथ कराया और बर दिया कि 'पुत्र तू त्रिभुवन मंगल कारी होगा ।<br />
<br />
17- एक बार अकबर बादशाह इनकी सेवा में उपस्थित हुआ और उपदेश सुनकर अर्ज की कि- मेरे मालिक मैंने सुना है देवों की मथुरापुरी अद्भुदरहस्य भयी अलौकिक रूप है । क्या आप कृपा कर के उसकी छटामुझ को दिखला सकैंगे ?' आप मुस्कराये और यमुना जल का छींटा उसके नेत्रों पर देकर कहा- 'अब सामने देखो' । आश्चर्य कि सारी पुरी कंचन और रत्नों से जगमगा रही थी । बादशाह अपने को भूल गया चरणों में झुक गया । होश में आने पर एक सहस्त्र सुवर्ण और रत्नों से भरे कलश चरणों में रख क्षमा याचना करने लगा- इसका वर्णन करने वाले तीन पद प्राप्त हुए हैं जो अति महत्व पूर्ण हैं । आपने ब्रज भक्तों को बतलाया कि देवों की दिव्यपुरी मथुरा -'रत्नबद्धोभय तटा हंस पद्मादि संकुला' है जिसे विरले बड़भागी भक्त ही देख पाते है।<br />
<br />
बादशाह अकबर रस प्यास ।<br />
<br />
<poem>दोइ बेर दीदार न पाया अतिमन रहा उदासा ।<br />
तीजी बेर कृपा प्रभु कीनीं, जमुना तट बैठायौ ।<br />
करत कदम बोसी रहमत कर आपनौ धाम दिखाऔ,<br />
दीन इलाही मरम बतायौ खुदावंद रहमानी ।<br />
जर्रे-जर्रे बीच समाया खिदमत कर इन्सानी ।<br />
मत भटकै मिट्टी के पुतले अंदर खुदा समाया ।<br />
बंसींवाला चोर मांखन का इस जमीन में छाया ।<br />
ये सूरज की बेटी यमुना हर दिल को नित धोती ।।<br />
बंद चश्म के नैंन खोलती मन में पोती मोती ।।<br />
तेरा अल्ला मेरा कन्हैयां जुदा-जुदा मति जानैं ।<br />
इक सिक्के के दो पहलू हैं सच्चा जीव पहिचानैं ।।<br />
हरदम जाम पिया कर मस्ती चश्म सरूर बसाले ।<br />
ब्रज का देव निराला आला आलम इश्क समा ले ।।<br />
देख सामने उसकी मथुरा लाख जनम नहीं देखी ।<br />
आज देखले चाह दीवाने उसकी महर विसेखी ।।<br />
बानी रूकी बचन नहीं आवै शाह हुआ दीवाना ।<br />
बार-बार रज सीस चढावै हजरत मद मस्ताना ।।<br />
सिजदाकरत शाह भू लोटत दिल की चाह गई ।<br />
नई जिंदगी नई रोसनी पाई राह नई ।।<br />
दिल्लीपति पैकरी कृपा प्रभू उद्धवजू दीन दयाल ।<br />
कह भवंत धाम प्रगटायौ कीनौं नेह निहाल ।।</poem><br />
<br />
<poem>अथ मधुपुरी दर्शन कंचन मयी मधुपुरी देखी ।<br />
शाहंशाह शाह की उतरी शाहंशाही शेखी ।।<br />
कंचन घाट मनिन के बुरजा कोटिन भानु प्रकाशी ।<br />
रत्न अमोल सिला तहाँ जग मग चखन चौंध चपलासी ।।<br />
मनि के मंच खंभ पुर द्वारे ऊँचे कंचन कलसा ।<br />
हीरा लाल नील मनि पन्ना महाजोति झलमलसा ।<br />
सूर्य कांत ससिकांता विद्युतकाँति महा दुति धामा ।<br />
कौस्तुम पझराग स्यामांतक अति अद्मुद अभिरामा ।।<br />
अल्ला अल्ला एसी मथुरा आँखैं मूंदै खोलैं ।<br />
कहैं 'भगवंत' शाहंशाह अकबर म्हौंते कछून बोलैं ।।<br />
बारंबार गिरै चरनन में उठै गिरै फिर चूमैं ।<br />
सिजदा करै बंदमी वजावै मतवारौ सौ घूमैं ।<br />
यह भगवंत अगोचर महिमां श्री उद्धव प्रभु प्यारे ।<br />
श्री यमुना पद रेनु एक कन दुरलभ भाग निहारे ।।<br />
</poem><br />
'''शाहंशाह विदाई'''<br />
<br />
<poem>चरन रज धारत सिनदा कीन्हौं ।<br />
मन मतंग सो भौ मत वारौ, प्राण महारस भीनौं ।।<br />
सहस कलस मुहरन के राखे, दोसौ रतनन कलसा ।।<br />
फिर भी मन में धीर न मानी, मन चाहा नहीं हुलसा <br />
मुझे दुआ दो मेर मालिक रहूँहजूरी बंदा ।<br />
कहै 'भगवंत कृपा उद्धवजूकी, मानत सदां आनंदा ।।<br />
</poem><br />
<br />
श्री आचार्य देव ने यह समस्त प्राप्त द्रव्य सरस्वती संगम से सप्त ऋषि वुधतीर्थ तक श्री महारानी जी के घाटों को मोटी शिलाओं से मंडित करने और तीर्थों के उनके बीच में बुर्ज छत्री आदि बनाने में लगा दिया और फिर जो कुछ बचा वह माथुर बन्धुओं को सप्रेम बितरित कर दिया । संवत 1624 कार्तिक शुक्ल 11 को जब देव जागरन हो रहा था आपको माता जी के मिलन की उत्कंठा हुई-एकात्म भाव से मातेश्वरी से पुकार की और सभी जल धार में से 6 रत्न सिहासंन प्रगट हुआ और श्री जगज्जनिनी ने आपको अपनी गोद में लेकर अंग लीन कर लिया <br />
<br />
===श्री उजागर देव===<br />
<br />
श्री उजागर देव श्री उद्धवजी से 2 वर्ष छोटे थे । आप का जन्म 1534 वि0 चैत्र कृष्ण 1 तथा लीला प्रवेश 1611 वि0 आषाण शुक्ल पूर्णिमा को हुआ ये दक्ष गोत्रिय ककोर शाखा में श्री दौंनूरामजी के पुत्र श्री माधौजी के पुत्र थे माता का नाम गंगा देवी था । ये विद्वान सभाचतुर नीतिज्ञ और राजवैभव शाली महापुरूष थे । जहाँ श्री उद्धवजी तप त्याग विद्या और विरक्ति की मूर्ति थे, वहीं ये युक्ति कुशल पर्यटन्प्रिय सम्मानप्रयाशी और राज सभाओं में समय की बात कहने वाले तेजस्वी पुरूष थे । श्री उद्धवजी के कथा सत्संग में जो राजा राजपुरूष आते थे ये उन सब से सम्मान पूर्वक परिचय करके उन्हैं अपना यजमान बनाने को तत्पर रहते थे । इस प्रकार इन्होंने 52 राजाओं को अपने यजमान बनाये । आचार्यो पर भी आप प्रभाव डालते थे-<br />
श्रीवल्लभाचार्य के पौत्र श्री यदुनाथ श्री महाराज ने अपने बल्लभ दिग्विजय ग्रन्थ लिखा है-<br />
<br />
<poem>उज्जागराधिनं वेदनिधानं हरे प्राणम् ।<br />
चक्रु परोधसं तं माधुर विप्रं प्रवोध्यैव ।।</poem><br />
<br />
श्री उजागर चंदजी के पुत्र गिरधर चंद उनके पुत्र जयचंद के पुत्र हरिश्चंद के पुत्र विजयचंद और गौविन्द चंन्द्र थे इनके श्री गोकुल चंद शोभाचंद थे । श्री गोविन्द चंद ने राजा वीरसिंह देव का सुवर्ण दान त्याग किया तथा श्री गोकुल चंद शोभा राम को भूमि ग्राम दान के फमनि शाहजहाँ काल के हैं जो परिशिष्ट सकलन में संकलित हैं । श्री उजागरदेवजी को जैपुर नरेश राजा भगवान दास ने एक विशाल दुर्ग कोटि का राजभवन (बाढ) बनाकर भैंट किया जिसमें इनकी घुड़सवार टुकड़ी कचहरी महकमा इन्तजाम आदि थे । इस महकमे के कर्मचारी आनेवाले राजाओं आचार्यों राजपुरूषों के आवास तीर्थ भ्रमण सत्कार आदि की व्यवस्था करते थे । श्री उजागर जी श्री उद्धवजी के साथ सुन्हैंरे ताम झाम पर बैठकर निकलते तब उनके आगे पीछे घुड़सवार सिपाही चलते थे । सेवकों की टोली भी साथ रहती थी । उनके भ्रातृत्व स्नेह के कारण ही उनके नाम एक में संयुक्त कर 'उद्दूउजागर' बड़े चौबे, सर्दार सुन्हैरा हार कहेजाते थे । बड़े चौबेजी की प्रशस्ति इन्हैं बड़े राजसी ठाटवाट के कारण मिली थी । इनकी हवेली वाड़े का एक बुर्ज छत्ताबाजार के किनारे लाल पत्थर का कला पूर्ण अपने पिछले वैभव और शाजीनता की कहानी आज भी सुनाता है । यह परिवार श्री स्वामी हरिदासजी का भक्त होने से इनके भवन में श्री कुंज बिहारी जी की सेवा विराजमान है । इस परिवार में अभी भी राजा महाराजाओं आचार्यों ठाकुरों राजपूतों ठिकानेदारों के लेख तथा शाही सनदैं पर्याप्त मात्रा में हैं ।<br />
<br />
===अकबर के पश्चात=== <br />
<br />
अकबर के समय ही 1628 वि0 में संतशिरोमणि गो0 तुलसीदासजी मथुरा आये यहाँ उनके भाई नंददास सूरदास की सेवा में थे । वे सूरदासजी से मिले मथुरा में रामजी द्वारा में अष्टभुजी गोपालजी के विग्रह से प्रगट रामजी के दर्शन किये- कहा कहौं छवि आजकी भले बने हौ नाथ, तुलसी मस्तक नवत है धनुष वान लेउ हाथ ।। कित मुरली कित चंद्रिका कित गुपियन को साथ अपने जनके कारनै कृष्ण भये रघुनाथ ।। तथा फिर कहा- तुलसी मथुरा राम है अंत आदि भजि लेउ । जामुख अंतन आदि है वा मुख मध्यहि देउ ।।<br />
वृन्दावन बैकुँठकौ। तोल्यौं तुलसी दास भारौ। हो सो भू रह्मौं हलको गयो अकास ।। कृष्ण कृष्ण सब रटत हैं आक ढ़ाक अरू खैर । तुलसी या ब्रजभूमि में कहा राम सौ बैर ।। उन्होंने यहाँ के प्रभाव से रसार्द्र होकर कृष्ण पदावली की भी रचना की । एक दोहा में कहा गया है जब गोस्वामी जी विश्रान्त तीर्थ पर आये स्नान किया तो चौबे गुरूओं ने उनसे कुछ दान देने को कहा- उनके पास और कुछ नहीं था, जल का कमंडल था, उन्होंने उसे ही दान करके दे दिया-<br />
<br />
<poem>तुलसी मथुरा आइकैं, किय यमुना असनान ।<br />
माथुर के पद परसि कैं, दियेउ कमंडलु दान ।।</poem><br />
<br />
अकबर के बाद जहाँगीर का समय 1663-1684 वि0 हैं । इस समय श्री पद्मनाभ दास पयहारी मथुरा के अपने गल्ता मन्दिर वेणी माधव प्रयाग घाट में विराजते थे । यही उनके शिष्य नाभा दासजी ने 1660 वि0 में भक्तमाल की रचना आंरभ की । इसी समय उदैपुर के महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह राणाकर्ण सिंह जहाँगीर दरबार में आकर सम्मिलित हुए । इस समय महावन का विशाल सूट्टठ दुर्ग जिसमें कलापूर्ण मंडप चौरासीं खंभा में श्री बल्देव जी विराजते थे राणा सकीट शक्तिसिंह के अधिकार में था । और नागवंशी नागाओं की एक बड़ी लडा़कू सेना उसकी रक्षा करती थी । इसके समय का माथुर चौबे को भूमि दान का फामनि परिशिष्ट संकलन में हैं ।<br />
<br />
शाह जहाँ का समय 1684-1715 वि0 तक है । शाहजहां उदार भावुक कला प्रेमी और धर्मान्धताहीन सम्राट था । इसके समय मथुरा के माथुरों को अनेक भूमिदान मिले जिनके फर्मान परिशिष्ट संकलन में है। । इसके ही कारण में मथुरा वृन्दावन में अनेक कला पूर्ण मंदिर बने । इनमें- 1650 वि0 का जयपुर के राजा मानसिह का गोविदंपुर मंदिर । 1628 का बीरसिंह बुंदेले का केशव मंदिर, सनातन गोस्वामी का मदनमोहन मंदिर, 1646 वि0 का रायसेन कछवाह का गोपीनाथ मंदिर, 1683 वि0 का सुनदरदास कायस्थ का राधाबल्लभ मंदिर, 1684 वि0 का नूनकरण का जुगलकिशोर मंदिर, 1647 वि0 का राजाभगवानदास का गोवर्धन का हरदेवजी मंदिर , 1567 वि0 में आरंभ अंवाला के पूरनमल खत्री का श्रीनाथजी का मंदिर आदि प्रमुख हैं । महत्व की बात यह है कि जहाँ औरंगजेब ने केशवदेव हरदेव गोविन्देव बल्देव श्रीनाथजी के मंदिर विनष्ट किये वहीं अन्य शाहजहाँ अपने पिता कालीन अन्य मंदिर सहीसलामत बच गये । शाहजहाँ ने आगरा में ताजमहल की विश्वविख्यात कृति भी निर्माण करायी । इसके दरबार में मथुरा से महाकवि बिहारीलाल पहुंचे और 1691 वि0 में मथुरा के महोली पौर निवासी पांडे मनोहर कवि ने अपने काव्य ग्रंथ की रचना की जो बीकानेर की अनूप संस्कृत लायब्रेरी में है । इसका शाहजादा दारा मथुरा और माथुरों का श्रद्धावान भक्त था ।<br />
<br />
===ब्रज का अनुभव===<br />
<br />
1687 वि0 में शाहजहाँ को श्री स्वामी हरिदास के साथ अपने पिता अकबर का चित्र देखकर श्री ब्रजेश्वरी राधारानी के प्रत्यक्ष दर्शन की लालसा हुई । वह मथुरा आया और महात्मा पृथ्वीराज मिहारी के पुत्र श्री भूपतिराय की सेवा में अपना मनोर्थ निवेदन किया वे उसे उस समय के श्री हरिदास स्वामी जी की गद्दी के महंत श्री नरसिंहदास बाबा की सेवा में ले गये । मिन्नतआरजू के बाद स्वामीजी उसे बरसाने ऊँचा गाँव ले गये और वहाँ एक पुरानी विशाल हवेली के द्वार पर पहुंचकर श्री स्वामीजी ने टेर लगायी- 'ललिता तोइ हेरत शाहजहाँ' टैर देने पर भीरा से उत्तर मिला- 'ऊधौ तुम आये श्याम कहाँ !' स्वामी जी ने कहा-'दरसन तो दैरी गोपलजी' उत्तर मिला- 'कहा देखै सूनी कुंजगली श्रीस्वामी जी ने पुन: कई हेला दिये- 'दरसन तौ दै हो गोपलली' तब भीतर के किवाड़ की ओर से श्री ललितादेवी ने झांककर देखा और घूंघट का पट जरा सा सरकाते ही रूपमाधुरी से चकचौधा होकर बादशाह मूर्छित होकर गिर गया । यह देख एक सखी ने श्री ललिताजी का चरणोदक लाकर उस पर छिड़का जिससे वह किसी तरह चैतन्य हुआ । उस समय उसकी दशा अति अदभुत और विह्वल थी । बड़ी कठिन से श्री भूपतिजी उसे मथुरा लाये और फिर आगरे भेज दिया । इस उपलक्ष में उसने भूपतिदेव को आगरे बुलाकर उनका यथायोग्य सम्मान कर भूमि दान का एक शाही फर्मान अर्पण किया जो परिशिष्ट से फर्मान 3 पर है । इस घटना का कविवर नवनीत जी ने अपने 'हरिदास वंशानु चरित्र' ग्रंथ में उल्लेख किया है ।<br />
<br />
===औरंगजेव काल===<br />
<br />
औरंगजेव का समय 1715-1764 वि0 है । यह समय माथुर इतिहास के लिये बहुत घटनापूर्ण है । औरंगजेव कट्टर धर्मोन्मादी क्रूर और विध्वंसक था, किन्तु माथुर उससे भी ज्यादा चतुर थे । उन्होंने पिछले नृशंस कार्यो को देखते हुए अपनी नीति और जीवन चर्या बदल डाली । उन्होंने धन संग्रह का परित्याग कर दिया जो पैसा आता उसे घी दूध बदाम खीरखांड में खर्च करके वे बल संचय के साथ पहलवानी की वृद्धि करने लगे-हर घर में प्रत्येक युवा पहलवान होने लगा । उनके लिये अब विद्या के नाम पर काला अक्षर भैंस बराबर था । सरदारों के हस्ताक्षर एक ही व्यक्ति' बरहुकम सरदार के ' लिखकर कर देता तथा सर्व साधारण दस्खत की जगह निसानी चीरा या गोला भी बना देते । बड़े बूढ़े कहते- 'ओनामासी धम, बाप पढ़े ना हम्' 'पढ पढ कैं पत्थर भये, गुण गुन कैं भई ईंट- रटरट कैं गारौ भयौ रही भीत की भीत' वे मुसलमानों को भी घाटों बनों और जमुना की सैर कराते और कहते- 'सेख सैयद मुगल पठान- चारौ चौबेन के जिजमान' हजुरे आला हम नवीसाब के मलंग है हमें कुछ खैरात जरूर दो' । अब चौबों के घरों में वैभव का संचय न था- बड़े बड़े सरदार और माथुरी देवियाँ पूरी गूजरनी जाटनी बन गयीं थीं । वे लैहंगा अंगिया लूगड़ी फरिया, तथा चाँदी गिलट के दो एक आभूषण पहिनतीं, तथा सरदार पंच लोग भी पागड़ी कमरी बंडी पहिनते थे । सर्व साधारण सारे देह पर रज(मृतिका) लपेटे चीमटी लगाये फिरते थे । लोटा सोटा लंगोटा अंगौछा चौबेजी के चार सिंगार । ये ही उनका मात्र धन था । अब लूट और बर्बादी के लिये कोई मौका उन्होंने रक्खा ही न था ।<br />
<br />
औरंगजेब की नीति राष्ट्र निर्माण के लिये घातक थी । उसका विश्वास था- हिन्दू जब अपने को अपमानित दलित ही और असुरक्षित अनुभव करेगा तभी इसलाम धर्म कबूल करेगा । देवालयों मूर्तियों धर्मस्थानों का ध्वंस, हिन्दू पाठशालाओं का सर्वनाश, धार्मिक रीति रिवाजों का प्रतिवंध, जजियाकर, भेदभाव पर आधारित राजकर और व्यापार, हिन्दूओं को राजकीय पदों से वंचित करना, उनकी जीविका के साधनों का समूल उन्मूलन, उसकी राजनीति के प्रतिदिन के आचरण थे । इससे एक बड़ी खाई पैदा हुई जिसमें औरंगजेबी साम्राज्य समा गया ।<br />
<br />
इस संकट में चौबे लोग किनारा पकड़ गये, हवा के रूख के साथ काल धर्म को पकड़कर घूम गये । ब्रह्मज्ञान उर्फ आलम चौबे ने अब्दुलनवी से कुरान की कुछ आयतें हदीस सीखकर बादशाह से मुलाकात की और यह कह कर कि हम बुतों को नहीं पूजते, हमारा खूदा अल्लाह की न्यामत दिरयाये जमन हैं बादशाह को- खुदा की खुदाई यमुना की जलधारा दिखलाई और कुरान की आयतें पढ़तें हुए अपने को इस्लामाबाद का हाफिज बतलाया इस पर खुश होकर औरंगजेब ने उस चौबे विरहमन मलिंग को 12 वीघा जमीन वख्शीश में दी । यह फर्मान जो बादशाह के बड़े वजीर शाइश्त खाँ के दस्तखत और मुहरों से युक्त था अब लापता है । एक एतिहासिक सूचना के अनुसार चौबे कृष्णवन चंद्रमन मिहारी औरंगजेब के शिक्षा गुरू थे और बादशाह उनसे ब्रजभाषा काव्य पढ़ा तथा चाड़क्य नीति के चुंनिदा प्रसंग सुनता था । उन्हें भी बड़ी जागीर दी थी ।<br /><br />
इस समय मथुरा नगर का हाकिम अब्दुलनवी था । यह चौबों की इज्जत करता था और बादशाह के काम बनाता था । उसने चौक बाजार में पुराने गोविन्द देव मंदिर के खंडहर पर नवी की मसजिद खड़ी की और आस पास हम्माम और नानबाई की मांस की दुकानें लगवाई- हिन्दूओं को सन्तुष्ट करने को एक दुकान में गीता विष्णु सहस्त्रनाम के पाठ की ब्राह्मण द्वारा व्यवस्था रक्खीं ।<br />
<br />
इसके समय में ही मथुरा के जमनादास धोवी के पुत्र अजीजबेग का पोता करोमबेग धोवियों का सरगना था । अजीजवेग की माँ अकबर की धायों में जगह पागयी थी, अत: अजीना अकबर का धायजात भाई था । उसने नगला भूतिया के सभी धोवी मुसलमान बनवा दिये तथा करीमां ने इस बस्ती में नवी की सहायता से एक बहुत बड़ी मसजिद बनाने का मंसूबा किया । यह एतिहासिक बात है कि अनेक मंदिर तोड़े जाने पर भी चौबे भाइयों ने चौबिया पाड़े (चतुर्वेद पुर) में कोई मसजिद नहीं बनने दी, न कोई मुसलमान या ईसाई परिवार यहाँ बसने दिया । इस समय फौंदा भौंदा गल्लू गुमान और गोले पाँच चौबों ने इस मसजिद को न बनने देने का प्रण उठाया । वे पांचौवीर मसजिद निर्माण को जो भी चूना ईट पत्थर आते थे उन्हें रातोंरात लापता कर देते थे । चार मांस तक यह क्रम चलता रहा, आखिर हारकर मसजिद का इरादा मुल्तबी करना पड़ा । इस बड़ी साजिश में गुमान और गोले दो चौबे पंकड़े गये जिन्हें आगरा लेजाकर कोतवाली के सामनेकत्ल किया गया, इससे उत्तेजित होकर 500 चतुर्वेद युवकों ने अपना बलिदान देकर मसजिद नहीं बनने देने की प्रतिज्ञा की । यह जान कर नवी डरगया और यह कार्य हमेशा को रोक दिया, तब खिसियाकर धोवी चौधरी ने बस्ती की चौपाल की तिवारी में मसजिद का नाम करण किया । इन पंच वीरों के कारण ही इस मुहल्ले का पंचवीर कहा जाने लगा जो धोवियों का पंचपीर हो गया ।<br />
<br />
इस समय के मथुरा के संत परनामी संप्रदाय के संस्थापक महात्मा प्राणनाथ स्वमी जिनकी बगीची सदर बाजार के समीप है उन्होंने अपने 'कयामत नामा' ग्रंथ के आधार पर चौबों के साहस से प्रेरित हो औरंगजेब से धार्मिक संवाद किया जिसमें औरंगजेब नत मस्तक हुआ । इसी युग में दिल्ली नगर में 'यमुना ही सांचा देव है और सब कुछ नहीं' का बाजार बाजार गली गली घोष करने वाले दो माथुर बन्धुओं हन्ना मन्ना को औरंगजेब ने पकड़वा कर दिल्ली की जामा जसजिद की सीढ़ियों को खुदवा कर उसमें जीवित गढ़वा दिया- उस समय भी ये निर्भय साहसी बलिदानी वीर सगर्व अचल होकर गायत्री मंत्र का जाप करते रहे ।<br />
<br />
इतने अत्याचारों के बाद भी औरंगजेब मथुरा में किसी ब्राह्मण ठाकुर बनियाँ जाट गूजर अहीर माली कुम्हार भंगी चमार तक को मुसलमान न बना सका । उसके सारे प्रयास से केवल कुंजड़े, धुनियाँ, धोबी, तेली, रंगरेज लुहार भाँड़ नक्कारची बावर्ची कसाई हकीम नाई घोसो मदारी साईस सिकलीगर मनिहार बिसायती ही उसके चंगुल में आये । औरंगजेब के मुगल तुर्क सिपाहियों से जूझने वाले अनेक माथुर वीरों के थान आले और खिड़कियों के रूप में पच्चीसियों भूमियाँ बाबा चौबिया पारे में जगह जगह हैं ।<br />
बीर गोले सिंह के विषय में तो यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- 'गोले सिंह गुलाम बखत पै आवैं काम' । अब्दुलनवी की मृत्यु एक विद्रोही बलवे में हुई उसके बाद उसका भाई हुसेन खाँ 1727 वि0 में मथुरा का हाकिम बना । वह भी धर्मान्ध और अत्याचारी था । इसकी हवेली जो पहिले कुषाणराजा कनिष्क का महल थी अब खरद्दी हुसैन का बाढ़ा के नाम से ज्ञात हैं । नवी की हवेली भी काजी पाड़े की एक गली के नाके पर टूटी फूटी दशा में हैं ।<br />
<br />
===मंदिरों का ध्वंस=== <br />
<br />
औरंगजेब द्वारा किन मंदिरों का विनाश हुआ इसकी सही एतिहासिक जानकारी उसके राज्यारोहण के दो वर्ष पूर्व ही 1713 वि0 में मथुरा की तीर्थयात्रा को आये एक वीकानेरी सेठ के यात्रा विवरण से मिलती है । यह यात्रा विवरण बीकानेर की अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में है, जिसका विवरण सेठ गोंविद दास जी की ब्रज और ब्रज यात्रा पुस्तक में हैं । औरंगजेब को मथुरा से धन नहीं मिला प्राचीन विशाल मंदिर गजनवी खिलजी लोदियों द्वारा तोड़े और लूटे जा चुके थे, केवल केशव मंदिर ही बुंदेला का वैभव युक्त था, शेष बचे मंदिरों के नाम इस प्रकार हैं-<br />
<br />
1- भूतेश्वर महादेव (अदभुद देहरौ),<br />
<br />
2-भवानी शंकर महादेव (भैंस बहोरा शिव अदभुद), <br />
<br />
3- गोकर्ण (दिव्य मूर्ति बड़ा मंदिर), <br />
<br />
4- कालिंजर महादेव तथा दुर्गा (कृष्णगंगा इंछा पूरनार), <br />
<br />
5- और भी सात महादेव तथा 5 देवीयाँ <br />
<br />
6-विसरांत घाट, <br />
<br />
7- रूघनाथजी (रामजीद्वारा दो मंदिर शिखरवंध), <br />
<br />
8-अदभुद ठाकुर (बाटीवारी कुंज एक प्रान दो देह), <br />
<br />
9- नरसिंहजी (मूरत अदभुद मानिक चौक में), <br />
<br />
10-ठाकुर देवकी बसुदेव (प्राचीन कृष्ण जन्म स्थान का काला महल विश्रांत पांच ठाकुर), <br />
<br />
11-सांवलियाजी (मुरारी भगवान मोर कौ बाग असिकुंडा), <br />
<br />
12- देवी महाविद्या विद्येसुरी(पुरानी महाविद्या घाटी ककोरन पर बड़ी महिमा वाली), <br />
<br />
13- गोपीनाथ मंदिर (अक्रूर घाट) । वृन्दावन में इतने ठाकुर उस समय थे जो पीछे पलायन कर गये- मदनमोहन जी, राधाबल्लभजी, गोपीनाथ, राधामाधव, राधारमण, राधाकृष्ण, राधामोहन, गोविन्देव, बाँकेबिहारी, जुगलकिशोर, व्यासजी के ठाकुर, नरसिंहजी, रसिकरसीली, औरंगजेब ने इनमें से शिखरबंध या बहुविख्यात मंदिर ही तोड़े । ठाकुर मूर्तियों की भागदौड़ में गोवर्धन के हरिदेवजी की ठकुरानी की मूर्ति मथुरा में छोड़ दी गई जो मथुरा के चौबेजी जंगीघाट्या के वंशज नाथजी हीरालाल के अधिकार में प्रयाग घाट की एक छोटी सी बुर्जी में विराजमान थी । यह मूर्ति 3 फुट ऊँची तथा लगभग 211 मन बजन की अष्टधातु की थी जिसकी धातु कभी चमक हीन नहीं होती थी मूर्ति चोरों ने सोने के लोभ से इसे हरण करली ।<br />
<br />
इससे उस काल की मूर्तियों की बहुमूल्यता का अनुमान लगाया जा सकता है । बीकानेरी माहेश्वरी सेठ नरसिंहजी हरचंद के उस समय तीर्थ पुरोहित गोपालजी कुंजबिहारी के पुत्र श्री द्वारिकानाथजी बिहारी(कचरेजी द्वारेजी) थे ये यात्रा लेख में उल्लिखित है । गोपालजी महाराज ने 42 वर्ष एक साथ राजस्थान का भ्रमण कर मथुरा की अपनी तीर्थ प्रोहिताई का विस्तार किया था । ये द्वारिकानाथ जी वे ही महापुरूष हैं जिन्होंने ग्वालियर की सिधिया सरकार के दानाध्यक्ष पद को ग्रहणकर गोकुलदास पारिख को राज्य का प्रधान कोषाध्यक्ष बनवाया तथा ठाकुर श्री द्वारिकाधीश को मथुरा लाकर मथुरा में उनका सर्व प्रमुख देवालय निर्माण कराया ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_15&diff=56317चतुर्वेदी इतिहास 152010-04-23T13:08:59Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==मुहम्मद गोरी के बाद==<br />
गुलाम वंश के 11 बादशाह तथा एक रजिया बेगम ने 84 वर्ष(1263-1347 वि0) राज किया । इस समय पठान दल के दल विसायती खाना चूड़ी हींग आदि लेकर बेचते हुए गाँव-गाँव नगर-नगर में छा गये । 1347-1377 वि0 के 30 वर्ष में खिलजी वंश की सल्तनत रहीं । ये सभी हिन्दू धर्म और ब्राह्मणों के शत्रु थे । अलाउद्दीन खिलजी (1355-1372 वि0) ने जो महानिर्दयी क्रूर और दगाबाज जालिम बादशाह था मथुरा और माथुरों पर दुसह अत्याचार किये । मथुरा के जो बचे थे उन सभी मन्दिरों को तोड़कर इसने सरायें मकतव इमाम बड़े बनवाये । होली दरवाजा, भरतपुर दरवाजा, डीग दरवाजा आदि पर जो सरायें हैं वे प्राचीन मन्दिर थे जिन्हैं इसने नष्ट किये । इसके भाई असफखाँ (उलगखाँ) ने असिकुंड तीर्थ के समीप के नवमंजक तीर्थ पर स्थित मुंजकेश रूद्र मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रयास किया जो विफल हो गया । शिव वाहन नंदी यहाँ अभी भी हैं । खिलजी ने यमुना के घाटों यात्रियों और माथुर ब्राह्मणों को भी भारीक्षति पहुँचाई परन्तु घोर अत्याचारों के बाद भी वह माथुरों के (चौबिया पारा) में भग्न मन्दिरों पर कोई मसजिद सराय या मकतव न बना सका । माथुरों ने दृढता से इसके सभी प्रयासों कौ पूर्णत: विफल कर दिये । इसने कामांध होकर रानी पदि्मनी के लिये चित्तौड़ पर आक्रमण किये पहिली बार वीर राजपूतों ने डोलों में बैठकर जनाने भेषों में इसके शिवर में प्रवेश किया और काट कर इसकी सेना को भगा दिया परन्तु दूसरी बार बहुत बड़ी यवन सेना के साथ चित्तौड़ का घेरा डालने पर 13 हजार राजपूतों ने जौहर किया रानी पदि्मनी चिता में चढ गयी तथा इसी 1360 वि0 में मथुरा के माथुर चित्तौड़ से मथुरा लौट आये ।<br />
<br />
इसका उत्तराधिकारी मुबारक शाह खिलजी भी महानिर्लज्य था इतिहास भास्कर का लेखक लिखता है 'जाइ प्रजाघर नांचवे कर नारी को भेष' कभू नगिन दरबार में बैठत आपु नरेश । दरबारी उमराव तिन्ह के परिमल व सन पै करवाबत पेशाब वोलि कंचनी नगिन करि।। यह राजा हिजड़ों का हिमायती था आप नंगा दरवार में आ बैठता तथा नग्न वैश्याओं से दरबारी लोगों के झीने वस्त्रों पर पेशाब करवाता इतना ही नहीं बादशाह खुद घर घर हीजड़ी बनकर ढोलक बजाकर नाचता था । वह इस्लाम का भी पक्षपाती न था, लिखा है- चौकी रची कुरानकी तापर मूरति धारि, हिन्दुन नैं पूजा करी या विधि महीना चारि । इसे नाच गान की तरफ से मोहित कर मथुरा के चौबे और अन्य लोगों ने कुरान की चौकी बनाकर उस पर भगवान नृत्य गोपाल की मूर्ति विराजमान कर चार महीना चतुर्मास का महोत्सव मनाया जिसमें बादशाह को भी खूब नचाया ।<br /><br />
खिलजियों के बाद तुगलकों का राज्य (1377-1471 वि0) 94 वर्ष रहा । इनमें मुहम्मद तुगलक की मूर्खता और हठ इतिहास प्रसिद्ध हैं ।<br />
<br />
फीरोज तुगलक भी हठी सनकी और निर्दय अत्याचारी था । 1455 वि0 में लंगड़ तैमूर ने दिल्ली पर हमला बोला । 5 दिन दिल्ली लूटी और एक लाख कैदी गुलाम बनाकर पंजाब लूटता काबुल को लौट गया, तब 16 वर्ष तक दिल्ली अनाथ रही । 1471 वि0 में सैयद वंश ने दिल्ली तख्त दबाया । 1507 वि0 में लोदी वंश आया इनमें सिकन्दर लोदी (1545-1574 वि0) महा अत्याचारी हिन्दुओं का कट्टर विरोधी था यह अपनी राजधानी दिल्ली से आगरा ले आया तथा मथुरा केशव मन्दिर तोड़कर वहाँ कसाइयों को बसाकर मांस बेचने का काम सुपुर्द किया । मन्दिरों की मूर्तियाँ मांस तोलने के बाँट बनायी गयीं । माथुरों पर कठोर अत्याचार हुए तथा यात्रियों के स्नान मुन्डन आदि पर जाजिया कर लगाया गया । मथुरा पर काजी का राज था । ये और उसके फर्मावरदार तलवार लिये गली गली घाट घाट घूमते थे । मथुरा में इसके सिफाही लोधे समूह के साथ बस गये । 1583 वि0 में मुगुल बाबर ने भारत पर हमला किया और इब्राहिम लोदी से दिल्ली सल्तनत छीन ली । इब्राहीम (हिमवंत खन्ड) मेवात के शूरवीर मेवों का कठोर दमन कर उन्हैं मुसमान बनाया । इनमें से एक दल चंबल के बीहड़ों में भाग गया तथा कुछ मलकानें बनकर दुधर्मी बनकर रह गये । जो माँस भक्षण के कारण मल खाने प्रसिद्ध हुए ।<br />
1326 वि0 में गया सुट्टीलप भवन के समय धार्मिक अत्याचार होने पर 1 लाख मेव मारे या भाग गये ।<br />
<br />
==मुगल राज्य==<br />
<br />
मुगल वंश का पहिला बादशाह बाबर (1583-1589 वि0) था जो तुर्क तैमूर लंग का परपोता था इसके समय चित्तौड़ के राणा सग्राम सिंह (साँगा) ने जो बड़ा राजा कहा जाता था 9 राजा तथा 10 सामन्तों का देश रक्षा संघ मथुरा में बनाकर फतेहपुर सीकरी के पास बाबर से मोर्चा लिया । साँगा अद्वितिय शूरवीर था- उसके देह पर 80 घावों के निशान थे तथा युद्धों में उसकी एक आँख और पैर मारे गये थे । बाबर उसे जीत नहीं सकता था अत: भोजन पर बैठे राजपूतों पर धोखे से हमला करके उन्हैं रौंद डाला । एक अनुश्रुति यह भी है कि मुगलों ने गायें आगे कर हमला किया जिससे राजपूत कर्तव्य विमूढ़ हो गये ।<br />
सांगा का अधिक विवरण 'श्री विश्रान्त तीर्थ राज' शीर्षक में हैं । हुमायू ने (1587-1613 वि0) 26 वर्ष राज किया, अधिकतर वह भागता ही फिरा । उसके समय मथुरा में कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुई । इसके समय 1593 वि0 में महाप्रभु चैतन्य के शिष्य सनातन और रूप ब्रज में आये और उन्होंने यहाँ तीर्थ यात्रा का मार्ग निर्देशन करते हुए भावुक भक्ति रसज्ञ माथुरों को देखा । उन्होंने प्रेम विभोर होकर लिखा- <br />
<br />
<poem>अत्रासीत्किल नंद सद्म शकट स्यत्रा मभूद् भंजम् ।<br />
बंधच्छेद करोऽपि दामभिरभूद् वद्धोत्र दामोदर: ।।<br />
इत्थं माथुर वृद्ध वक्त्र विगलद् पीयूष धारां पिव ।<br />
आनंदाम्बुधर: कदा मधुपुरी धन्या चरिष्याम्यहम् ।।</poem><br />
<br />
1313 वि0 में 13 वर्ष की आयु में अकबर गद्दी पर बैठा । अकबर उदार और भावुक प्रकृति का जीव था । उसने जैपुर के राजा भगवान दास की बहिन तथा राजा मानसिंह की बुआ जोधा वाई से विवाह किया जिससे जहाँगीर पैदा हुआ था । अकबर ब्रजभूमि मथुरा पुरी और मथुरा के चौंबों का परम भक्त था । उसके दरबार में तानसेन (स्वामी हरिदास जी का शिष्य), बीरबर, टोडरमण, हरनाथ माथुर आगरा के किले के प्रबंधक जिन्हैं आगरा में जंजीरी कटरा खिलअत में मिला), था रसखान, नृसिंह दैवज्ञ ज्योतिष शशि भानुचं ददरबारी अकबर ने नवरत्नों में देवज्ञ थे ।<br />
<br />
अकबर ने दीन इलाही चलाया जिसमें सूर्य चन्द्रमा गण और अग्नि की पूजा थी । वह तिलक लगाता कंठी जनेऊ बगलबंदी पहिनता हुआ पूरा गोशांई बन जाता था । उस पर माथुरों का भारी प्रभाव था । ब्रज भक्ति रसाचार्यपरम प्रभु श्री उद्धवाचार्य देव ने उसे कंचन रत्न मयी मथुरा के दर्शन कराये थे । श्री स्वामी हिरदासजी का संगीत सुधा रस पान करने को वह तानसेन का सेवक बन कर आया था उसकी बेगम ताज मथुरा के ताज पुरा में गो0 विनट्ठ नाथजी के (सतधरा) के निकट ही रहती थी । अकबर ने चौंबों को अनेक अवसरों पर भूमि, दान दिये जिनके फर्मान इस ग्रंथ के परिशिष्ट संकलन भाग में हैं । अकबर ने अपने बजीर टोडरमल के मथुरा आकर विश्राम घाट पर यमुना जी के दर्शन करके चौबों को तीर्थ की मर्यादानुसार पूजन और दान दक्षिणा ने देने पर चौबों के श्री भगवान मिहारी के दावे को बहाल करते हुए अपने ही जीमीर पर 350 रूपयों की डिग्री की जिसकी चुकती राजा टोडरमल ने बंड़े विनय के साथ पैरों पड़कर की । <br />
बीरबल की कठिन समस्यायें जब अटक जाती थी तो वह उन्हें सुलझाने चौबे गुरूओं के ही पास आता था । इस समय की अनेक मनोरंजक घटनायें चुटकुलों के रूप में लोगों की जुबानों पर हैं-<br />
<br />
1. बादशाह का महाभारत- अकबर ने एक बार हरवंश मिहारी को बुला कर कहा-' हमारा महाभारत बनाओ' चौबेजी ने कहा- ' इसमें तो बड़ा खर्च पड़ेगा' । बादशाह ने तब बहुत सा धन देकर चौबेजी को रबाना किया । अब क्या था हजारों चौबे बाबा यमुना तटके घाटों पर कागजों के गट्ठर सामने रखे यमुना यमुना लिखकर कागजों के गठर बांधकर रखते जाते बादशाह के आदमी आते देख जाते हर महिना हजारो रूपया खर्च कौ आने लगा और माल घुटने लगे । 3 वर्ष बाद बादशाह ने चौबे जी को बुला कर पूछा-' अब कितना काम वाकी है ?' गुरूजी ने कहा- 'काम तोबहुत कुछ हो चुका है- एक समस्या अटकी है उसे एकांत में चलें तो पूछूँ' एकांत में जाने पर कहा- 'जहाँ पनाह, एक बड़ी समस्या अटकी है, द्रोपदी के पाँच पति थे- आपने भी सुना होगा ।<br /><br />
आपकी बेगम साहिबा के एक श्रीमान है तथा चारौं के नाम और बतलायें जायैं । बादशाह ने कहा मैं नहीं जानता क्या इसके बगैर काम न चलेगा, मैं रात बेगम साहबा से दरयाक्त करूँगा रात को बादशाह ने जब बेगम के सामने सबाल रखा तो वे झल्ला उठी- जहन्नुम में डालौं यह करिश्मां-मेरा उसमें जिक्र भी मत देना । बादशाह बेहद शर्मिन्दा हुए और कहा- 'महात्माजी, इस काम को फौरन बंद करदो और जोलिखा है उसे जमना में बहा दो'<br /><br />
चौबेजी ने कहा- 'हजुर एसा न करैं सारी मेहनत पर पानी फिर जायेगा, हजारों पंडित मेहनत कर रहें हैं ? बादशाह ने- पुन: बहुत सा धन दिया और कहा- जो हुआ सो हुआ, अब इसे आगे मत बढ़ाओ ? चौबेजी हंसी खुशी अपने घर आये ।<br />
<br />
2- कौड़ी का बटयारा- एक बार बहुत से चौबों के आशीर्वाद देने पर बादशाह ने श्री भगवान गुरू को 1 कौड़ी देकर हंसकर कहा- 'इसे सबको बाँट दो' बादशाह चले गये, अब चौबों के दल ने गुरू जी को घेर लिया 'क्या दिया है दिखाओ और बाँटो' भगवान गुरू हंसे- 'तुम मेरी मुठी की कीमत बताओ और बट ले लो किसी ने कहा- 'एक मुहर है किसी ने कहा पाँच है' गुरूजी ने जिसने जो कहा- उसी हिसाब से उसे बाँट देकर हजारों रूपया लुटा दिये' बादशाह ने जब यह सुना उन्हें बुलाया और कहा- 'तुमने मुट्ठी क्यों नहीं खोलदी' गुरूजी ने कहा- श्रीमान उसमें आपकी और मेरी आबरू बंद थी' मैं उसे खोल कैसे देता ? इस उत्तर से बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और उम्मीद से ज्यादा धन और भूमि जागीर देकर उन्हैं सम्मानित किया ।<br />
<br />
3- मोती माला- एक बार बादशाह नौका में बैठकर यमुना में से मथुरा की शोभा देख रहे थे । गुरूजी भगवान महाराज साथ थे । उनके यमुना और मथुरा महात्म को सुनकर बादशाह ने प्रसन्न हो उन्हैं एक बहुमूल्य मोतियों की माला भेंट की । गुरूजी ने मस्तक से लगा कर उसे श्री यमुना जी के अर्पण कर दी यह देख बादशाह हैरत में पड़ गया -'यह क्या किया मेरे मालिक वह तो बहुत वेश कीमती थी । भगवान गुरू मुस्कराये-'चिन्ता क्यों करते हैं खल्कत के मालिक- यह देखो' कैसा आश्चर्य उन्हौंने यमुना जल में हाथ डाला और माला पर हजारों मोती की मालाओं का ढ़ेर बादशाह के सामने लगा दिया । ये सभी बादशाह भी माला से बहुत अधिक कीमतों की थीं यह भक्ति बल देख बादशाह चकित और लज्जित हो गया ।<br /><br />
इस प्रकार की और भी बहुत सी घटनायें जन मानस में गहिरी पैंठी हुई हैं ।<br /><br />
<br />
===माथुर चतुर्वेदी कुल के सूर्य चंद्रमा श्री उद्धवजी उजागरजी===<br />
<br />
उक्त दौनों महापुरूष माथुर कुल के परम यशस्वी तेजस्वी रत्न हुए हैं । श्री मद् उद्धवाचार्य मिहारीपीवंश के तथा श्री उजागर जी ककोर कुल सरदार थे । श्री उद्धवजी का जन्म 1532 चैत्र शुक्ल 6 (यमुनाछट) को तथा लीला प्रवेश 1624 कार्तिक शुक्ल 11 (प्रवोधिनी) का हुआ था दोनों की मातायें यमुना गंगा परस्पर श्री गणेशानंद सोती की पुत्री सगी बहिनैं थी । श्री उद्धवजी के पिता योगाचार्य श्री गोपीनाथजी थे जिनकी ब्रम्हजीन साधना पर माता यमुना सती हुई और तभी अपनी बहन गंगा को निर्देश दिया कि- 'मेरे ऊधौं कौं अपने उजागर ते जादा करकौं राखियों- यामें भेद आयौ तौ अलैंह परैगी' माता ने उसी भाव से दोनों का लालन-पालन किया तथा वे माता सती के आशीर्वाद से परम तेजस्वी लोक पूर्जित और महामान्य प्रतापी पुरूष हुए । दोनों भाई एक प्राण दो देहबन कर रहे । वे दोनों प्रत्येक सामाजिक समारोहों उत्सवों पंचायतों में एक साथ श्री उजागरजी के सुन्हैरी ताम झाम में बैठ कर पधारते थे । आगे पीछे घुड़सवार और सेवक चलते थे । श्री उद्धवजी जन्म से ही बड़े तेजस्वी ज्ञानी रूपवान और गंभीर चितंन स्वभाव के थे । अपने गुरू योगेन्द्र ब्रह्मचारी से उन्होंने वेदादि सर्व शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किया था । उनके जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनायें हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं ।<br />
<br />
1- श्री माधवेन्द्र पुरी महाराज मथुरा पधारे तब उन्हैं मथुरा और ब्रज भूमि महात्म उपदेश कर गिरिराज तरहटी के ढूकाँ दाऊजी के सुरभीबन में श्री कृष्ण अराधना की प्रेरणादी तथा वहां के श्री गोपालजी (श्री नाथजी) के विग्रह को श्री माहाप्रभु वल्लभ आचार्य जी द्वारा सेवा अधिकृत करने पर ढूंका बल्देव का श्री माधवेन्द्र पुरी जीका बनाया प्राचीन मन्दिर सूना हो गया और तब वहाँ एक बड़ी शिला को बड़े भाई बलराम मानकर पूजित कराया ।<br />
<br />
2- महाप्रभु श्री बल्लभाचार्य जी जब मथुरा पधारे तब उन्हैं अपने आवास में यमुना वाटिका में निवास दिया और अपने कथा स्थल विश्रान्त अवि मुक्त के संगम के निकट श्री यमुना आराधना का परम तत्व हृदयगम कराया तथा संप्रदाय स्थापना से पूर्व श्री यमुनाष्टक की रचना और सविधि उसका पारायण कराया तथा श्री माताजी का प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर श्री गोवर्धन शिखर पर बालगोपाल प्रभु की सेवा पद्धति से संप्रदाय की स्थिति की श्री वृद्धि का मार्ग निर्दिष्ट कराया ।<br />
<br />
3- श्री माधवेन्द्र पुरी जी के शिष्य ईश्वर पुरी जी को नंद गांव में नंदगोपाल प्रभु की आराधना उपदेश की जिससे वे ईश्वरवाटिका और ईश्वर पुष्करिणी (ईसरा ग्वाल की पोखर) बना कर अपनी भक्ति साधना में सफल हुए ।<br />
<br />
4- श्री बल्लभदेव को आन्यौर के निकट प्रागट की ठौर से प्रगट श्री नाथ प्रभु का स्वरूप दिलाकर पूरनमल खत्री (टोडरमल परिवारी) को मथुरा से लाकर श्री नाथ जी के दर्शन कराकर मन्दिर निर्माण की प्रेरणा दी तथा मथुरा से कारीगर निर्माण सामिग्री की व्यवस्था कर मन्दिर निर्माण करवाया ।<br />
<br />
5- श्री नाथजी के परटोत्सव में ब्रज के सभी संप्रदायों के संतमहंत भक्तों विरक्तों को आमंत्रित कराकर उन सभी का यथोचित सेवा सत्कार और सम्मान कराया ।<br />
<br />
6- श्री उद्धवदेव कथा रस के अद्वितिय प्रवर्तक थे । वे नित्य प्रति श्री विश्रान्त और अविमुक्त तीर्थ के संगम पर राजा भगवान दास आमेर की रानी द्वारा बनवाये एक छोटे से बुर्ज पर विराज कर श्री मद् भागवत और बाराह पुराण मथुरा महात्म की कथा कहते थे जिसका सुधारस पान करने को अनेक राजा महाराजा संतभक्त विरक्त सुधीजन यमुना पुलिन रेणुका में बैठकर रस लेने आते थे- बादशाह भी यहाँ आया था ।<br />
<br />
7- यहीं आपने श्री यमुना माता की कृपा से ऋग्वेद के 'माथुर स्वामी भाष्य' की रचना की जिसमें ऋग्वेद में श्री कृष्ण लीलाओं का अनुसंधानात्मक विवेचन है । ऋग्वेद के हिन्दी भाषान्तर कर्ता श्री रामगोविन्द त्रिवेदी ने अपने हिन्दी ऋग्वेद' की भूमिका में इसका उल्लेख किया है और बतलाया है कि यह भाष्य अब जर्मनी में है ।<br />
<br />
8- श्री यमुना तट पर ही आपने अपने विशाल 650 पृष्ठों वाले ब्रजयात्रा ग्रंथ की रचना संपन्न की जो ब्रज ज्ञान का अभूतपूर्व भक्ति रस कोष है ।<br />
<br />
9- श्री विश्रान्त तीर्थ पर ही आपने 1550 वि0 में आद्यरास का प्रादुभवि किया जिसमें माथुर बालकों के 8 स्वरूप प्रस्तुत कर श्री स्वामी हरिदासजी तथा श्री बल्लभाचार्य के सहयोग से परम रास रहस्य का प्रागट्य किया इसमें दैवयोग से श्री लालजी का स्वरूप तिरोहित (लीला प्रविष्ट) हो गया जिससे मिहारी वंश में बालक को स्वरूप बनाने और केसरिया वस्त्र पहिराने की बिठोक हो गयी जिसे वृद्धा मातायें अभी भी मानती हैं । इस विषय में 'रास सर्वस्व, में लिखा है-<br />
<br />
<poem>प्रथम रास विश्रान्त किय बहु ब्रजभक्त बुलाइ।<br />
उद्धव श्री हरिदास वहाँ प्रागट रचेउ सुहाइ ।।<br />
उद्धव रस के पारखी गान किये रस राग ।<br />
बल्लभ नेह छकित भये उमग्यौ अति अनुराग ।।<br />
रसावेश उमग्यौ अगम भयौ तिरोहित रूप ।<br />
तब आरंत विहबल भये परेजु करूनां कूप ।।<br />
माथुर लीला विरत भे तब घमंड समुझाई ।<br />
तुम यह परिपाटी गहौ हरि भक्तन हित छाइ ।।<br />
गांव करैहला जानियैं स्वामी पद तिन्ह दीन्ह ।।<br />
उद्वव रस के महोदधि अजुगत लीला कीन्ह ।।</poem><br />
<br />
घमंडीराम करहला निवासी कीर्त्नियाँ थे, उन्हैं इस रास में समाजी का पद दिया गया था तथा बाद में उन्होंने ही करहला से इस रास की परंपरा को आगे बढ़ाया जो अभी तक चली आ रही है ।<br /><br />
10. 1550 वि0 में श्री बल्लभाचार्य को ब्रजयात्रा कराते समय बहुलावन के मुसलमान हाकिम ने उन्हैं गाय की मूर्ति की पूजा से रोक दिया -कहा कि यदि पत्थर की गाय घास चरे तो सच्चा देव मानूँ । श्री उद्वव देव ने वेद का गोसूक्त पढ़ा और तत्काल गौ सामने रक्खी घास को खाने लगी । हाकिम लज्जित हो गया और दर्शक जय जय कार कर उठे ।<br />
<br />
11. 1571 वि0 में मुसलमान बादशाह लोदी के एक पीर ने विश्रान्त घाट पर एक एसा यंत्र लगाया कि जिसके नीचे से निकलने वाले हिन्दू कीचोटी गायब हो कर दाड़ी निकल आती थी । इसके प्रतीकार में श्री उद्ववजी ने एक 'यमराज यंत्र' निर्माण किया और उसे दिल्ली नगर के प्रधान द्वार पर श्री केशव काश्मीरी भक्त से लगवाया जिससे मुसलमान की दाढ़ी गायब होकर चोटी निकल आती थी । इस यंत्र से दिल्ली नगर में तहलका मच गया और तब बादशाह ने क्षमा मांगकर दोनों यंत्र हटवा दिये ।<br />
<br />
12-1580 वि0 में रहीम खानखाना ने आपके उपदेश पर 1 लाख मुद्रा गंग कवि को पुरस्कार दिये । गंग ने एक दोहा पढ़ा था-<br />
गंग गौंछ मौछैं यमुन अधरन सरसुति राग ।<br />
प्रगट खानखाना तेरे अधरन पुण्य प्रयाग ।<br />
<br />
13- 1615 वि0 में इनके पुत्र श्री भगवान मिहारी ने अकबर दरबार में टोडरमल बजीर पर 350) की डिगरी करायी ।<br />
<br />
14- 1603 वि0 में भक्त रसखान ने इन की देहरी चूंभी तब उसे गोविंद कुंड पर गो0 विछल नाथ जी की सेवा में भेजा ।<br />
<br />
15- 1584 वि0 में राणा सांगा को विश्रान्त पर घाट निर्माण की प्रेरणा दी ।<br />
<br />
16- श्री उद्धवदेव की प्रशस्ति में अनेक भक्तों ने काव्य रचनायें की हैं, उनमें से कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं-<br />
<br />
<poem>शास्त्रज्ञ धर्मज्ञ कला प्रवीण:, अनेक सच्छास्त्र कृति: रसज्ञ: ।<br />
चंडांशुवद्दीपित लोक पूज्यो, श्री उद्धवो माथुर सर्व वंद्य: ।।<br />
श्री कृष्ण भक्ति महदांबुधि पूर्ण चंद्रो, तत्वज्ञ दिव्य ब्रज मंडल तीर्थ धाम्नि ।<br />
लीला रसज्ञ भुविभास्कर चक्रवर्ती, श्री उद्धवो विजयते श्रुतिससार्वभौम: ।।<br />
लोक वंद्यो जगत्पूज्यो उदार करूणाम्बुधि: ।<br />
पादार्चयन्ति विवुधा उद्धवस्य महात्मनाम् ।।<br />
शास्त्राण्येन अकृलंता नृपवरै र्विद्वज्जनैर्वं दिता: ।<br />
भक्ति स्थापन लोक पावन करं तत्वं समुद्घोषिता: ।।<br />
नानादैवत तीर्थ शोधन कृता विप्रांश्च संस्कारिता:।<br />
श्री ब्रजमंडल मंडनं विजयते श्री उद्धवेशो प्रभु: ।।<br />
कालिंदी जगदंब क्रोड विलसन्हृष्टो पय: पानत ।<br />
साक्षाच्छीरविजा विनिर्दिशषतितंबात्सल्य प्राप्तं सुतम् ।।<br />
नाना वैष्णव संप्रदाय प्रमुखा गृण्हन्ति गोप्यं रसं ।<br />
श्री मन्माथुर भास्करों विजयते श्री उद्धवेशो प्रभु: ।।<br />
येषां कृपा कटाक्षेण हरिलीला प्रस्फुरायते ।<br />
तं श्री मदुद्धवाचार्य पादरेणुं नमाम्यहम् ।।<br />
पग परतत आचार्य भूप ठाड़े रहैं द्वारे।<br />
गावत जस कवि छंद भक्त जन प्रानन प्यारे ।।<br />
वेदपाठ धुनि होत अचल रविजा भुवि भक्ती ।<br />
हरि रस चातक भक्त चरन चांपत अनुरक्ती ।।<br />
अनुभव अनंत भगवंत पद लछीराम बंदत गनी ।<br />
राजाधिराज द्विजराज वर उद्धव जय त्रिभुवन धनी ।।<br />
जिनकी कृपा प्रसाद भक्त भुवि मंडल नांची ।<br />
मथुरा देव निवास लखी कलिजुग में सांची ।।<br />
खोलि दियौ भंडार रतन श्री महारानी जू ।<br />
अगनित तारे जीव भागवत बरदानी जू ।।<br />
जय 'छगन मगन' आनंदघन ब्रजमंडल वैभवभरन ।<br />
माथुर श्री उद्धव देवजू त्रिभुवन जन पूजितचरन ।।<br />
सम्राडकवरेणैते प्रार्थिता श्री मदुद्धवा: ।<br />
स्वरूपं मथुरायाश्च तं ददर्श महद्भुतम् ।।<br />
सुवर्ण निर्मिता रत्नैर्जटिता मथुरापुरी ।<br />
दर्शिता तं विलोक्या ऽसौ सम्राट सुचकितोऽभवत् ।।<br />
श्री भागवत वखानि अमृत की धार बहाई ।<br />
अमल करी सब अवनि ताप हारक सुखदाई ।।<br />
भक्तन सौं अनुराग दीन कौं परम दयाकर ।<br />
भजन यशोदानंद संत संधट के आगर ।।<br />
भीषम हरिभक्ति उदार उर कलियुग दाता सुमति के ।<br />
तप बर्धमान मंगल गभिर उभैं थंम हरि भक्ति के ।।<br />
श्री उद्धव अवतार भक्त उद्धव के गाये ।<br />
मथुरा माथुर विप्र मिहारी कुल प्रगटाये ।।<br />
काव्य चित्र संगीत सकल शास्त्रनु के ज्ञाता ।<br />
तपसी तेज निधान चरन पूजित बिख्याता ।।<br />
तिन्ह के बंधु प्रवीन उजागर परम प्रतापी ।<br />
नारद देह अगाध मान धारी हरि जापी ।।<br />
राजा राव राना नित वंदना करत ठाड़े ।<br />
मारगधरैया भेद जाचत अनाद हैं ।।<br />
ब्रज सरबस रस चाख्यौ है सुगम करि,<br />
काट्यौ तप तेज बल भ्रमनां प्रमाद है ।।<br />
'भगवंत' संत सुर मुनि मिलि सेवा करें,<br />
श्री जमुना कौ धाम तहाँ होत शंखनाद हैं ।<br />
जुरि-जुरि आवैं भक्त पीवत न थाकैं सुधा,<br />
छाकैं छाक श्री उद्धौजू की कृपा के प्रसाद हैं ।।</poem><br />
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श्री उद्धव उजागरजी की प्रशस्ति में ब्रज मंडल के 45 भक्त कवियों ने पद किये हैं जिन का संग्रह माथुर' मधुयापावली' नाम से हमारे प्राचीन ग्रंथ संग्रह में हैं ।<br />
<br />
16. एक बार गहिरी निद्रा में शयन करते हुए उन्हैं माता श्री यमुना जी ने उठाकर अपनी गोद में बैठाया सिर पर हाथ फेरा और फिर उन्हैं कंचन कटोरा में लाया हुआ अपना निज प्रसाद सुरभी दूध पय पान बड़े लाढ़ के साथ कराया और बर दिया कि 'पुत्र तू त्रिभुवन मंगल कारी होगा ।<br />
<br />
17- एक बार अकबर बादशाह इनकी सेवा में उपस्थित हुआ और उपदेश सुनकर अर्ज की कि- मेरे मालिक मैंने सुना है देवों की मथुरापुरी अद्भुदरहस्य भयी अलौकिक रूप है । क्या आप कृपा कर के उसकी छटामुझ को दिखला सकैंगे ?' आप मुस्कराये और यमुना जल का छींटा उसके नेत्रों पर देकर कहा- 'अब सामने देखो' । आश्चर्य कि सारी पुरी कंचन और रत्नों से जगमगा रही थी । बादशाह अपने को भूल गया चरणों में झुक गया । होश में आने पर एक सहस्त्र सुवर्ण और रत्नों से भरे कलश चरणों में रख क्षमा याचना करने लगा- इसका वर्णन करने वाले तीन पद प्राप्त हुए हैं जो अति महत्व पूर्ण हैं । आपने ब्रज भक्तों को बतलाया कि देवों की दिव्यपुरी मथुरा -'रत्नबद्धोभय तटा हंस पद्मादि संकुला' है जिसे विरले बड़भागी भक्त ही देख पाते है।<br />
<br />
बादशाह अकबर रस प्यास ।<br />
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<poem>दोइ बेर दीदार न पाया अतिमन रहा उदासा ।<br />
तीजी बेर कृपा प्रभु कीनीं, जमुना तट बैठायौ ।<br />
करत कदम बोसी रहमत कर आपनौ धाम दिखाऔ,<br />
दीन इलाही मरम बतायौ खुदावंद रहमानी ।<br />
जर्रे-जर्रे बीच समाया खिदमत कर इन्सानी ।<br />
मत भटकै मिट्टी के पुतले अंदर खुदा समाया ।<br />
बंसींवाला चोर मांखन का इस जमीन में छाया ।<br />
ये सूरज की बेटी यमुना हर दिल को नित धोती ।।<br />
बंद चश्म के नैंन खोलती मन में पोती मोती ।।<br />
तेरा अल्ला मेरा कन्हैयां जुदा-जुदा मति जानैं ।<br />
इक सिक्के के दो पहलू हैं सच्चा जीव पहिचानैं ।।<br />
हरदम जाम पिया कर मस्ती चश्म सरूर बसाले ।<br />
ब्रज का देव निराला आला आलम इश्क समा ले ।।<br />
देख सामने उसकी मथुरा लाख जनम नहीं देखी ।<br />
आज देखले चाह दीवाने उसकी महर विसेखी ।।<br />
बानी रूकी बचन नहीं आवै शाह हुआ दीवाना ।<br />
बार-बार रज सीस चढावै हजरत मद मस्ताना ।।<br />
सिजदाकरत शाह भू लोटत दिल की चाह गई ।<br />
नई जिंदगी नई रोसनी पाई राह नई ।।<br />
दिल्लीपति पैकरी कृपा प्रभू उद्धवजू दीन दयाल ।<br />
कह भवंत धाम प्रगटायौ कीनौं नेह निहाल ।।</poem><br />
<br />
<poem>अथ मधुपुरी दर्शन कंचन मयी मधुपुरी देखी ।<br />
शाहंशाह शाह की उतरी शाहंशाही शेखी ।।<br />
कंचन घाट मनिन के बुरजा कोटिन भानु प्रकाशी ।<br />
रत्न अमोल सिला तहाँ जग मग चखन चौंध चपलासी ।।<br />
मनि के मंच खंभ पुर द्वारे ऊँचे कंचन कलसा ।<br />
हीरा लाल नील मनि पन्ना महाजोति झलमलसा ।<br />
सूर्य कांत ससिकांता विद्युतकाँति महा दुति धामा ।<br />
कौस्तुम पझराग स्यामांतक अति अद्मुद अभिरामा ।।<br />
अल्ला अल्ला एसी मथुरा आँखैं मूंदै खोलैं ।<br />
कहैं 'भगवंत' शाहंशाह अकबर म्हौंते कछून बोलैं ।।<br />
बारंबार गिरै चरनन में उठै गिरै फिर चूमैं ।<br />
सिजदा करै बंदमी वजावै मतवारौ सौ घूमैं ।<br />
यह भगवंत अगोचर महिमां श्री उद्धव प्रभु प्यारे ।<br />
श्री यमुना पद रेनु एक कन दुरलभ भाग निहारे ।।<br />
</poem><br />
'''शाहंशाह विदाई'''<br />
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<poem>चरन रज धारत सिनदा कीन्हौं ।<br />
मन मतंग सो भौ मत वारौ, प्राण महारस भीनौं ।।<br />
सहस कलस मुहरन के राखे, दोसौ रतनन कलसा ।।<br />
फिर भी मन में धीर न मानी, मन चाहा नहीं हुलसा <br />
मुझे दुआ दो मेर मालिक रहूँहजूरी बंदा ।<br />
कहै 'भगवंत कृपा उद्धवजूकी, मानत सदां आनंदा ।।<br />
</poem><br />
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श्री आचार्य देव ने यह समस्त प्राप्त द्रव्य सरस्वती संगम से सप्त ऋषि वुधतीर्थ तक श्री महारानी जी के घाटों को मोटी शिलाओं से मंडित करने और तीर्थों के उनके बीच में बुर्ज छत्री आदि बनाने में लगा दिया और फिर जो कुछ बचा वह माथुर बन्धुओं को सप्रेम बितरित कर दिया । संवत 1624 कार्तिक शुक्ल 11 को जब देव जागरन हो रहा था आपको माता जी के मिलन की उत्कंठा हुई-एकात्म भाव से मातेश्वरी से पुकार की और सभी जल धार में से 6 रत्न सिहासंन प्रगट हुआ और श्री जगज्जनिनी ने आपको अपनी गोद में लेकर अंग लीन कर लिया <br />
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श्री उजागर देव<br />
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श्री उजागर देव श्री उद्धवजी से 2 वर्ष छोटे थे । आप का जन्म 1534 वि0 चैत्र कृष्ण 1 तथा लीला प्रवेश 1611 वि0 आषाण शुक्ल पूर्णिमा को हुआ ये दक्ष गोत्रिय ककोर शाखा में श्री दौंनूरामजी के पुत्र श्री माधौजी के पुत्र थे माता का नाम गंगा देवी था । ये विद्वान सभाचतुर नीतिज्ञ और राजवैभव शाली महापुरूष थे । जहाँ श्री उद्धवजी तप त्याग विद्या और विरक्ति की मूर्ति थे, वहीं ये युक्ति कुशल पर्यटन्प्रिय सम्मानप्रयाशी और राज सभाओं में समय की बात कहने वाले तेजस्वी पुरूष थे । श्री उद्धवजी के कथा सत्संग में जो राजा राजपुरूष आते थे ये उन सब से सम्मान पूर्वक परिचय करके उन्हैं अपना यजमान बनाने को तत्पर रहते थे । इस प्रकार इन्होंने 52 राजाओं को अपने यजमान बनाये । आचार्यो पर भी आप प्रभाव डालते थे-<br />
श्रीवल्लभाचार्य के पौत्र श्री यदुनाथ श्री महाराज ने अपने बल्लभ दिग्विजय ग्रन्थ लिखा है-<br />
उज्जागराधिनं वेदनिधानं हरे प्राणम् ।<br />
चक्रु परोधसं तं माधुर विप्रं प्रवोध्यैव ।।<br />
श्री उजागर चंदजी के पुत्र गिरधर चंद उनके पुत्र जयचंद के पुत्र हरिश्चंद के पुत्र विजयचंद और गौविन्द चंन्द्र थे इनके श्री गोकुल चंद शोभाचंद थे । श्री गोविन्द चंद ने राजा वीरसिंह देव का सुवर्ण दान त्याग किया तथा श्री गोकुल चंद शोभा राम को भूमि ग्राम दान के फमनि शाहजहाँ काल के हैं जो परिशिष्ट सकलन में संकलित हैं । श्री उजागरदेवजी को जैपुर नरेश राजा भगवान दास ने एक विशाल दुर्ग कोटि का राजभवन (बाढ) बनाकर भैंट किया जिसमें इनकी घुड़सवार टुकड़ी कचहरी महकमा इन्तजाम आदि थे । इस महकमे के कर्मचारी आनेवाले राजाओं आचार्यों राजपुरूषों के आवास तीर्थ भ्रमण सत्कार आदि की व्यवस्था करते थे । श्री उजागर जी श्री उद्धवजी के साथ सुन्हैंरे ताम झाम पर बैठकर निकलते तब उनके आगे पीछे घुड़सवार सिपाही चलते थे । सेवकों की टोली भी साथ रहती थी । उनके भ्रातृत्व स्नेह के कारण ही उनके नाम एक में संयुक्त कर 'उद्दूउजागर' बड़े चौबे, सर्दार सुन्हैरा हार कहेजाते थे । बड़े चौबेजी की प्रशस्ति इन्हैं बड़े राजसी ठाटवाट के कारण मिली थी । इनकी हवेली वाड़े का एक बुर्ज छत्ताबाजार के किनारे लाल पत्थर का कला पूर्ण अपने पिछले वैभव और शाजीनता की कहानी आज भी सुनाता है । यह परिवार श्री स्वामी हरिदासजी का भक्त होने से इनके भवन में श्री कुंज बिहारी जी की सेवा विराजमान है । इस परिवार में अभी भी राजा महाराजाओं आचार्यों ठाकुरों राजपूतों ठिकानेदारों के लेख तथा शाही सनदैं पर्याप्त मात्रा में हैं ।<br />
अकबर के पश्चात <br />
अकबर के समय ही 1628 वि0 में संतशिरोमणि गो0 तुलसीदासजी मथुरा आये यहाँ उनके भाई नंददास सूरदास की सेवा में थे । वे सूरदासजी से मिले मथुरा में रामजी द्वारा में अष्टभुजी गोपालजी के विग्रह से प्रगट रामजी के दर्शन किये- कहा कहौं छवि आजकी भले बने हौ नाथ, तुलसी मस्तक नवत है धनुष वान लेउ हाथ ।। कित मुरली कित चंद्रिका कित गुपियन को साथ अपने जनके कारनै कृष्ण भये रघुनाथ ।। तथा फिर कहा- तुलसी मथुरा राम है अंत आदि भजि लेउ । जामुख अंतन आदि है वा मुख मध्यहि देउ ।।<br />
वृन्दावन बैकुँठकौ। तोल्यौं तुलसी दास भारौ। हो सो भू रह्मौं हलको गयो अकास ।। कृष्ण कृष्ण सब रटत हैं आक ढ़ाक अरू खैर । तुलसी या ब्रजभूमि में कहा राम सौ बैर ।। उन्होंने यहाँ के प्रभाव से रसार्द्र होकर कृष्ण पदावली की भी रचना की । एक दोहा में कहा गया है जब गोस्वामी जी विश्रान्त तीर्थ पर आये स्नान किया तो चौबे गुरूओं ने उनसे कुछ दान देने को कहा- उनके पास और कुछ नहीं था, जल का कमंडल था, उन्होंने उसे ही दान करके दे दिया-<br />
तुलसी मथुरा आइकैं, किय यमुना असनान ।<br />
माथुर के पद परसि कैं, दियेउ कमंडलु दान ।।<br />
अकबर के बाद जहाँगीर का समय 1663-1684 वि0 हैं । इस समय श्री पद्मनाभ दास पयहारी मथुरा के अपने गल्ता मन्दिर वेणी माधव प्रयाग घाट में विराजते थे । यही उनके शिष्य नाभा दासजी ने 1660 वि0 में भक्तमाल की रचना आंरभ की । इसी समय उदैपुर के महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह राणाकर्ण सिंह जहाँगीर दरबार में आकर सम्मिलित हुए । इस समय महावन का विशाल सूट्टठ दुर्ग जिसमें कलापूर्ण मंडप चौरासीं खंभा में श्री बल्देव जी विराजते थे राणा सकीट शक्तिसिंह के अधिकार में था । और नागवंशी नागाओं की एक बड़ी लडा़कू सेना उसकी रक्षा करती थी । इसके समय का माथुर चौबे को भूमि दान का फामनि परिशिष्ट संकलन में हैं ।<br />
शाह जहाँ का समय 1684-1715 वि0 तक है । शाहजहां उदार भावुक कला प्रेमी और धर्मान्धताहीन सम्राट था । इसके समय मथुरा के माथुरों को अनेक भूमिदान मिले जिनके फर्मान परिशिष्ट संकलन में है। । इसके ही कारण में मथुरा वृन्दावन में अनेक कला पूर्ण मंदिर बने । इनमें- 1650 वि0 का जयपुर के राजा मानसिह का गोविदंपुर मंदिर । 1628 का बीरसिंह बुंदेले का केशव मंदिर, सनातन गोस्वामी का मदनमोहन मंदिर, 1646 वि0 का रायसेन कछवाह का गोपीनाथ मंदिर, 1683 वि0 का सुनदरदास कायस्थ का राधाबल्लभ मंदिर, 1684 वि0 का नूनकरण का जुगलकिशोर मंदिर, 1647 वि0 का राजाभगवानदास का गोवर्धन का हरदेवजी मंदिर , 1567 वि0 में आरंभ अंवाला के पूरनमल खत्री का श्रीनाथजी का मंदिर आदि प्रमुख हैं । महत्व की बात यह है कि जहाँ औरंगजेब ने केशवदेव हरदेव गोविन्देव बल्देव श्रीनाथजी के मंदिर विनष्ट किये वहीं अन्य शाहजहाँ अपने पिता कालीन अन्य मंदिर सहीसलामत बच गये । शाहजहाँ ने आगरा में ताजमहल की विश्वविख्यात कृति भी निर्माण करायी । इसके दरबार में मथुरा से महाकवि बिहारीलाल पहुंचे और 1691 वि0 में मथुरा के महोली पौर निवासी पांडे मनोहर कवि ने अपने काव्य ग्रंथ की रचना की जो बीकानेर की अनूप संस्कृत लायब्रेरी में है । इसका शाहजादा दारा मथुरा और माथुरों का श्रद्धावान भक्त था ।<br />
ब्रज का अनुभव<br />
1687 वि0 में शाहजहाँ को श्री स्वामी हरिदास के साथ अपने पिता अकबर का चित्र देखकर श्री ब्रजेश्वरी राधारानी के प्रत्यक्ष दर्शन की लालसा हुई । वह मथुरा आया और महात्मा पृथ्वीराज मिहारी के पुत्र श्री भूपतिराय की सेवा में अपना मनोर्थ निवेदन किया वे उसे उस समय के श्री हरिदास स्वामी जी की गद्दी के महंत श्री नरसिंहदास बाबा की सेवा में ले गये । मिन्नतआरजू के बाद स्वामीजी उसे बरसाने ऊँचा गाँव ले गये और वहाँ एक पुरानी विशाल हवेली के द्वार पर पहुंचकर श्री स्वामीजी ने टेर लगायी- 'ललिता तोइ हेरत शाहजहाँ' टैर देने पर भीरा से उत्तर मिला- 'ऊधौ तुम आये श्याम कहाँ !' स्वामी जी ने कहा-'दरसन तो दैरी गोपलजी' उत्तर मिला- 'कहा देखै सूनी कुंजगली श्रीस्वामी जी ने पुन: कई हेला दिये- 'दरसन तौ दै हो गोपलली' तब भीतर के किवाड़ की ओर से श्री ललितादेवी ने झांककर देखा और घूंघट का पट जरा सा सरकाते ही रूपमाधुरी से चकचौधा होकर बादशाह मूर्छित होकर गिर गया । यह देख एक सखी ने श्री ललिताजी का चरणोदक लाकर उस पर छिड़का जिससे वह किसी तरह चैतन्य हुआ । उस समय उसकी दशा अति अदभुत और विह्वल थी । बड़ी कठिन से श्री भूपतिजी उसे मथुरा लाये और फिर आगरे भेज दिया । इस उपलक्ष में उसने भूपतिदेव को आगरे बुलाकर उनका यथायोग्य सम्मान कर भूमि दान का एक शाही फर्मान अर्पण किया जो परिशिष्ट से फर्मान 3 पर है । इस घटना का कविवर नवनीत जी ने अपने 'हरिदास वंशानु चरित्र' ग्रंथ में उल्लेख किया है ।<br />
औरंगजेव काल<br />
औरंगजेव का समय 1715-1764 वि0 है । यह समय माथुर इतिहास के लिये बहुत घटनापूर्ण है । औरंगजेव कट्टर धर्मोन्मादी क्रूर और विध्वंसक था, किन्तु माथुर उससे भी ज्यादा चतुर थे । उन्होंने पिछले नृशंस कार्यो को देखते हुए अपनी नीति और जीवन चर्या बदल डाली । उन्होंने धन संग्रह का परित्याग कर दिया जो पैसा आता उसे घी दूध बदाम खीरखांड में खर्च करके वे बल संचय के साथ पहलवानी की वृद्धि करने लगे-हर घर में प्रत्येक युवा पहलवान होने लगा । उनके लिये अब विद्या के नाम पर काला अक्षर भैंस बराबर था । सरदारों के हस्ताक्षर एक ही व्यक्ति' बरहुकम सरदार के ' लिखकर कर देता तथा सर्व साधारण दस्खत की जगह निसानी चीरा या गोला भी बना देते । बड़े बूढ़े कहते- 'ओनामासी धम, बाप पढ़े ना हम्' 'पढ पढ कैं पत्थर भये, गुण गुन कैं भई ईंट- रटरट कैं गारौ भयौ रही भीत की भीत' वे मुसलमानों को भी घाटों बनों और जमुना की सैर कराते और कहते- 'सेख सैयद मुगल पठान- चारौ चौबेन के जिजमान' हजुरे आला हम नवीसाब के मलंग है हमें कुछ खैरात जरूर दो' । अब चौबों के घरों में वैभव का संचय न था- बड़े बड़े सरदार और माथुरी देवियाँ पूरी गूजरनी जाटनी बन गयीं थीं । वे लैहंगा अंगिया लूगड़ी फरिया, तथा चाँदी गिलट के दो एक आभूषण पहिनतीं, तथा सरदार पंच लोग भी पागड़ी कमरी बंडी पहिनते थे । सर्व साधारण सारे देह पर रज(मृतिका) लपेटे चीमटी लगाये फिरते थे । लोटा सोटा लंगोटा अंगौछा चौबेजी के चार सिंगार । ये ही उनका मात्र धन था । अब लूट और बर्बादी के लिये कोई मौका उन्होंने रक्खा ही न था ।<br />
औरंगजेब की नीति राष्ट्र निर्माण के लिये घातक थी । उसका विश्वास था- हिन्दू जब अपने को अपमानित दलित ही और असुरक्षित अनुभव करेगा तभी इसलाम धर्म कबूल करेगा । देवालयों मूर्तियों धर्मस्थानों का ध्वंस, हिन्दू पाठशालाओं का सर्वनाश, धार्मिक रीति रिवाजों का प्रतिवंध, जजियाकर, भेदभाव पर आधारित राजकर और व्यापार, हिन्दूओं को राजकीय पदों से वंचित करना, उनकी जीविका के साधनों का समूल उन्मूलन, उसकी राजनीति के प्रतिदिन के आचरण थे । इससे एक बड़ी खाई पैदा हुई जिसमें औरंगजेबी साम्राज्य समा गया ।<br />
इस संकट में चौबे लोग किनारा पकड़ गये, हवा के रूख के साथ काल धर्म को पकड़कर घूम गये । ब्रह्मज्ञान उर्फ आलम चौबे ने अब्दुलनवी से कुरान की कुछ आयतें हदीस सीखकर बादशाह से मुलाकात की और यह कह कर कि हम बुतों को नहीं पूजते, हमारा खूदा अल्लाह की न्यामत दिरयाये जमन हैं बादशाह को- खुदा की खुदाई यमुना की जलधारा दिखलाई और कुरान की आयतें पढ़तें हुए अपने को इस्लामाबाद का हाफिज बतलाया इस पर खुश होकर औरंगजेब ने उस चौबे विरहमन मलिंग को 12 वीघा जमीन वख्शीश में दी । यह फर्मान जो बादशाह के बड़े वजीर शाइश्त खाँ के दस्तखत और मुहरों से युक्त था अब लापता है । एक एतिहासिक सूचना के अनुसार चौबे कृष्णवन चंद्रमन मिहारी औरंगजेब के शिक्षा गुरू थे और बादशाह उनसे ब्रजभाषा काव्य पढ़ा तथा चाड़क्य नीति के चुंनिदा प्रसंग सुनता था । उन्हें भी बड़ी जागीर दी थी ।<br />
इस समय मथुरा नगर का हाकिम अब्दुलनवी था । यह चौबों की इज्जत करता था और बादशाह के काम बनाता था । उसने चौक बाजार में पुराने गोविन्द देव मंदिर के खंडहर पर नवी की मसजिद खड़ी की और आस पास हम्माम और नानबाई की मांस की दुकानें लगवाई- हिन्दूओं को सन्तुष्ट करने को एक दुकान में गीता विष्णु सहस्त्रनाम के पाठ की ब्राह्मण द्वारा व्यवस्था रक्खीं ।<br />
इसके समय में ही मथुरा के जमनादास धोवी के पुत्र अजीजबेग का पोता करोमबेग धोवियों का सरगना था । अजीजवेग की माँ अकबर की धायों में जगह पागयी थी, अत: अजीना अकबर का धायजात भाई था । उसने नगला भूतिया के सभी धोवी मुसलमान बनवा दिये तथा करीमां ने इस बस्ती में नवी की सहायता से एक बहुत बड़ी मसजिद बनाने का मंसूबा किया । यह एतिहासिक बात है कि अनेक मंदिर तोड़े जाने पर भी चौबे भाइयों ने चौबिया पाड़े (चतुर्वेद पुर) में कोई मसजिद नहीं बनने दी, न कोई मुसलमान या ईसाई परिवार यहाँ बसने दिया । इस समय फौंदा भौंदा गल्लू गुमान और गोले पाँच चौबों ने इस मसजिद को न बनने देने का प्रण उठाया । वे पांचौवीर मसजिद निर्माण को जो भी चूना ईट पत्थर आते थे उन्हें रातोंरात लापता कर देते थे । चार मांस तक यह क्रम चलता रहा, आखिर हारकर मसजिद का इरादा मुल्तबी करना पड़ा । इस बड़ी साजिश में गुमान और गोले दो चौबे पंकड़े गये जिन्हें आगरा लेजाकर कोतवाली के सामनेकत्ल किया गया, इससे उत्तेजित होकर 500 चतुर्वेद युवकों ने अपना बलिदान देकर मसजिद नहीं बनने देने की प्रतिज्ञा की । यह जान कर नवी डरगया और यह कार्य हमेशा को रोक दिया, तब खिसियाकर धोवी चौधरी ने बस्ती की चौपाल की तिवारी में मसजिद का नाम करण किया । इन पंच वीरों के कारण ही इस मुहल्ले का पंचवीर कहा जाने लगा जो धोवियों का पंचपीर हो गया ।<br />
इस समय के मथुरा के संत परनामी संप्रदाय के संस्थापक महात्मा प्राणनाथ स्वमी जिनकी बगीची सदर बाजार के समीप है उन्होंने अपने 'कयामत नामा' ग्रंथ के आधार पर चौबों के साहस से प्रेरित हो औरंगजेब से धार्मिक संवाद किया जिसमें औरंगजेब नत मस्तक हुआ । इसी युग में दिल्ली नगर में 'यमुना ही सांचा देव है और सब कुछ नहीं' का बाजार बाजार गली गली घोष करने वाले दो माथुर बन्धुओं हन्ना मन्ना को औरंगजेब ने पकड़वा कर दिल्ली की जामा जसजिद की सीढ़ियों को खुदवा कर उसमें जीवित गढ़वा दिया- उस समय भी ये निर्भय साहसी बलिदानी वीर सगर्व अचल होकर गायत्री मंत्र का जाप करते रहे ।<br />
इतने अत्याचारों के बाद भी औरंगजेब मथुरा में किसी ब्राह्मण ठाकुर बनियाँ जाट गूजर अहीर माली कुम्हार भंगी चमार तक को मुसलमान न बना सका । उसके सारे प्रयास से केवल कुंजड़े, धुनियाँ, धोबी, तेली, रंगरेज लुहार भाँड़ नक्कारची बावर्ची कसाई हकीम नाई घोसो मदारी साईस सिकलीगर मनिहार बिसायती ही उसके चंगुल में आये । औरंगजेब के मुगल तुर्क सिपाहियों से जूझने वाले अनेक माथुर वीरों के थान आले और खिड़कियों के रूप में पच्चीसियों भूमियाँ बाबा चौबिया पारे में जगह जगह हैं ।<br />
बीर गोले सिंह के विषय में तो यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- 'गोले सिंह गुलाम बखत पै आवैं काम' । अब्दुलनवी की मृत्यु एक विद्रोही बलवे में हुई उसके बाद उसका भाई हुसेन खाँ 1727 वि0 में मथुरा का हाकिम बना । वह भी धर्मान्ध और अत्याचारी था । इसकी हवेली जो पहिले कुषाणराजा कनिष्क का महल थी अब खरद्दी हुसैन का बाढ़ा के नाम से ज्ञात हैं । नवी की हवेली भी काजी पाड़े की एक गली के नाके पर टूटी फूटी दशा में हैं ।<br />
मंदिरों का ध्वंस <br />
औरंगजेब द्वारा किन मंदिरों का विनाश हुआ इसकी सही एतिहासिक जानकारी उसके राज्यारोहण के दो वर्ष पूर्व ही 1713 वि0 में मथुरा की तीर्थयात्रा को आये एक वीकानेरी सेठ के यात्रा विवरण से मिलती है । यह यात्रा विवरण बीकानेर की अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में है, जिसका विवरण सेठ गोंविद दास जी की ब्रज और ब्रज यात्रा पुस्तक में हैं । औरंगजेब को मथुरा से धन नहीं मिला प्राचीन विशाल मंदिर गजनवी खिलजी लोदियों द्वारा तोड़े और लूटे जा चुके थे, केवल केशव मंदिर ही बुंदेला का वैभव युक्त था, शेष बचे मंदिरों के नाम इस प्रकार हैं-<br />
1- भूतेश्वर महादेव (अदभुद देहरौ),2-भवानी शंकर महादेव (भैंस बहोरा शिव अदभुद), 3- गोकर्ण (दिव्य मूर्ति बड़ा मंदिर), 4- कालिंजर महादेव तथा दुर्गा (कृष्णगंगा इंछा पूरनार), 5- और भी सात महादेव तथा 5 देवीयाँ 6-विसरांत घाट, 7- रूघनाथजी (रामजीद्वारा दो मंदिर शिखरवंध), 8-अदभुद ठाकुर (बाटीवारी कुंज एक प्रान दो देह), 9- नरसिंहजी (मूरत अदभुद मानिक चौक में), 10-ठाकुर देवकी बसुदेव (प्राचीन कृष्ण जन्म स्थान का काला महल विश्रांत पांच ठाकुर), 11-सांवलियाजी (मुरारी भगवान मोर कौ बाग असिकुंडा), 12- देवी महाविद्या विद्येसुरी(पुरानी महाविद्या घाटी ककोरन पर बड़ी महिमा वाली), 13- गोपीनाथ मंदिर (अक्रूर घाट) । वृन्दावन में इतने ठाकुर उस समय थे जो पीछे पलायन कर गये- मदनमोहन जी, राधाबल्लभजी, गोपीनाथ, राधामाधव, राधारमण, राधाकृष्ण, राधामोहन, गोविन्देव, बाँकेबिहारी, जुगलकिशोर, व्यासजी के ठाकुर, नरसिंहजी, रसिकरसीली, औरंगजेब ने इनमें से शिखरबंध या बहुविख्यात मंदिर ही तोड़े । ठाकुर मूर्तियों की भागदौड़ में गोवर्धन के हरिदेवजी की ठकुरानी की मूर्ति मथुरा में छोड़ दी गई जो मथुरा के चौबेजी जंगीघाट्या के वंशज नाथजी हीरालाल के अधिकार में प्रयाग घाट की एक छोटी सी बुर्जी में विराजमान थी । यह मूर्ति 3 फुट ऊँची तथा लगभग 211 मन बजन की अष्टधातु की थी जिसकी धातु कभी चमक हीन नहीं होती थी मूर्ति चोरों ने सोने के लोभ से इसे हरण करली ।<br />
इससे उस काल की मूर्तियों की बहुमूल्यता का अनुमान लगाया जा सकता है । बीकानेरी माहेश्वरी सेठ नरसिंहजी हरचंद के उस समय तीर्थ पुरोहित गोपालजी कुंजबिहारी के पुत्र श्री द्वारिकानाथजी बिहारी(कचरेजी द्वारेजी) थे ये यात्रा लेख में उल्लिखित है । गोपालजी महाराज ने 42 वर्ष एक साथ राजस्थान का भ्रमण कर मथुरा की अपनी तीर्थ प्रोहिताई का विस्तार किया था । ये द्वारिकानाथ जी वे ही महापुरूष हैं जिन्होंने ग्वालियर की सिधिया सरकार के दानाध्यक्ष पद को ग्रहणकर गोकुलदास पारिख को राज्य का प्रधान कोषाध्यक्ष बनवाया तथा ठाकुर श्री द्वारिकाधीश को मथुरा लाकर मथुरा में उनका सर्व प्रमुख देवालय निर्माण कराया ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_14&diff=56311चतुर्वेदी इतिहास 142010-04-23T13:00:54Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}} <br />
==माथुर धर्म विवेक==<br />
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श्रीमान् परम हंस संन्यासियों के श्रेष्ठ आचार्य, व्याकरण न्याय आदि शास्त्रों के पारंगत विद्वान, यम, नियम आसन, प्राणायम, प्रत्यौहार धारणा, ध्यान, समाधि आदि आठ अंगों वाले योग के धारण से निष्ठायुक्त तपश्चर्या के करने वाले चक्रवर्ती सम्राट, अनादि काल से निरन्तर चली आने वाली गुरू परंपरा से प्राप्त हुए ये मतों का सिद्धान्तों की स्थापना के आचार्य, तीन सांख्य शास्त्रों के प्रतिपादक वैदिक मार्ग के प्रवर्तक, समस्त वेद शास्त्रों के सारयुक्त ह्दय वाले श्रीमान् सुधन्वा के साम्राज्य को सथापित करने वाले आचार्य, श्रीमान् राजाधिराजों के गुरू, भूमण्डल के आचार्य, चारों वर्णों के शिक्षक, गोमती के तीर पर बसी हुई श्रीमती द्वारिकापुरी के अधीश्वर, पश्चिम में गुरू परम्परा से प्राप्त संप्रदाय से युक्त श्रीमान् शारदापीठ के अधीश्वर ब्रह्मज्ञानोपदेश श्री मान् केशवाश्रम स्वामी के कर कमलों से स्थापित हुए श्री शारदापीठ के अधीश्वर श्रीमान् राज राजेश्वर श्री शंकराश्रम स्वामी के द्वारा शिष्य कोटि में प्रविष्ट हुए अनेक प्रकार की कलाओं के विलास भवन समस्त देशीय ब्राह्मणों को, तथा श्रीमान् महाराज पुरूषों को निर्विरोध ईश्वर के ऐक्यानुसंधान से निश्चित, नारायण के स्मरण से भली भाँति सूचित आशीर्वाद प्राप्त हो ।<br />
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'''जगद्गुरू,''' भगवान महेश्वर के अन्य अवतार, पूज्यपाद श्रीमान् भगवान् शंकराचार्य के आदिम एकान्त के स्थान द्वारिकास्थ श्रीमान् शारदापीठ से सम्बन्ध रखने वाली भक्ति ही इस समय मानव के असीम कल्याण की कारण है, इस बात को सभी जानते हैं ।<br /><br />
अनन्तर इस समय मनोहर मधुपुरी(मथुरा) में निवास करने वाले, "चौबे" इस दूसरे पर्याय वाचक नाम से प्रवहन्त माथुरों की जाति पर इधर उधर से होने वाली सामयिक अनेक शंकाओं के स्वरूप पर धर्मालोचन या विचार करने से उसके निर्णय विशेष को ग्रहण करने की इच्छा के कारण प्रसस्त प्रार्थना वाले, वहां के ब्रह्मज्ञानोपदेश आचार्य के पद से अंकित श्रीमान् वासुदेव एवं रज्जु शर्मा के लिये ता अन्य शिष्ट यनों के लिये पराभव नामक संवत्सर के आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि में जब की सूर्य नारायण अस्त हो रहे थे यहा इस मथुरापुरी में इस विज्ञप्ति की व्यवस्था दी गई ।<br />
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क्या माथुर चतुर्वेदी ब्रह्मण पंचद्राविणों के अन्तर्गत हैं !<br /><br />
श्री माथुर चतुर्वेदियों का श्रेष्ठ ब्राह्मणत्व!<br /><br />
===कृतर्कवादियों का मान मर्दन===<br />
क्या ये माथुर चतुर्वेद दश ब्राह्मणों के अन्तभूर्त हैं या इनसे बाहिर किसी अन्य जाति में अन्तर्भूत होते हैं या कोई अन्य स्वतन्त्र ब्राह्मण हैं इस प्रकार स्वयं इनके विषय में जिज्ञासा पैदा हो जाती है, यद्यपि-'समुख-तस्त्रिवृतं निरमीत, गायत्र्या ब्राह्मणम् । ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् । चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुण कर्म विभागश :- <br />
इत्यादिक श्रुति स्मृतियों में उनके स्वरूप का परिचय कराया है इससे उसके आवान्तर भेदों से भिन्न किसी स्थान के कारण से बिलक्षण जातीयता तो नहीं पाई जाती । तथापि-'आन्ध्र द्रविड़ कर्नाटा महाराष्ट्रश्च गुर्जरा: पञ्चैते द्रविड: ख्याता विन्ध्य दक्षिण वासिन: । सारस्वता: कान्यकुब्जा गौड़ा उत्कल मैथिला: पञ्च गौड़ा इति ख्याजा विन्ध्यस्योत्तर वासिन: ।। इन कूर्म पुराण के वाक्यों के तात्पर्य को सोचने से जो श्रति स्मृति में सामान्य रीित से कही है दश प्रकार से ब्राह्मण पाये जाते हैं । कदाचित् यहाँ पर यह शंका की जाय कि-उक्त बचनों में-'आन्ध्र बगैरह देशों के नाम लेकर और वहाँ के ब्राह्मणों का प्रतिपादन कर जो कि मूल बचन से पाया जाता है सिर्फ ये ही दश ब्राह्मण हैं और कोई नहीं हैं' – यह बात तो अनुकूल नहीं प्रतीत होती । इसके उत्तर में इतना ही कहना पर्याप्त है कि ये कूर्म पुराण के बचन प्रामाणिक ही मानने चाहिये यदि ये कहा जाय कि-' सर्वे द्विजा कान्यकुब्जा: माथुर मागधं बिना' इत्यादि बचन से माथुर मागध आदि ब्राह्मणावांतर भेद पाया जाता है सो यह बात नहीं है क्यों कि इस वचनों का कोई पोषक प्रमाण नहीं पाया जाता है । <br />
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'''उक्त वचन''' न कूर्म पुराण में तथा न किसी अन्य पुराण में पाया जाता है और न किसी मयूखादि ग्रन्थों के संग्रहकार ने इस बचन को उद्धृत किया है और न हमारी जानकारी में ही है । किंतु इसी पूर्वाद्ध के आगे कहे गये कान्य कुब्जा द्विजा श्रेष्ठा, कूर्म एवहि केवलम् इस वाक्य विशेष के समझने से तथा विद्वानों के विचारों से उक्त वचन की निर्मूलता ही प्रती होती है और यह वचन केवल कान्य कुब्ज ब्राह्मणों की प्रशंसा परक है यदि मागध और माथुरों से अतिरिक्त सब वर्गों के ब्राह्मण कान्य कुव्ज ही कहाते हों तो हम (आगमो ऽभ्यधि को भोगद्विजा पूर्वक्रमागतात्) इस याज्ञ वल्क्य स्मृति के कहे हुए न्याय के अनुसार यदि व्यवह्त होते उक्त वचन को हम प्रमाण मान सकते हैं ? किंतु विचार करने से पता चलता है कान्य कुब्जों को छोड़ कर और कोई ब्राह्मण अब तक इस दुनियाँ में न कान्य कुब्ज कहायें और न हैं ही । किंतु जो हैं वे उसी नाम से संसार में व्यवह्त होते हैं उक्त स्मृति के उतरार्ध इस वाक्य से कि-(आगमेऽपि बलं नैव भुक्ति: स्तोकाऽपि यत्रनो) 'सर्वे द्विजा' यह बचन संदिग्ध होता ही बाधित समझना चाहिये क्यों कि सबका कान्य कुब्ज-त्वेन व्यवहार नहीं पाया जाता कान्य कुब्ज ब्राह्मण तो व्यावर्तक भूत अपने नाम से ही युक्त पहिचाने जाते हैं और ब्राह्मणों के खासकर कुलादिक धर्मों से इनका कोई संबन्ध भी नहीं रहता है । माथुर और मागधों के कान्यकुब्जत्व के अभाव की तरह कभी किसी की बुद्धि में यह तो आही नहीं सकता कि ये ब्राह्मण नहीं हैं क्योंकि 'सर्वेसैं द्विजा: कान्य कुब्जा' इस बचन के बल से समरत ब्राह्मण जाति के कान्य कुब्ज कहने से कान्य कुब्ज वर्ग की घटितता से उद्देश किये गये माथुर मागधों को कान्य कुब्जत्व होते हुए भी किसी प्रकार कान्य कुब्ज ब्राह्मणों से माथुर मागधों को पृथग् धर्मता से (युक्त) किया गया है । केवल पृथग धर्म दिखाने से ही इन दोनों में ब्राह्मण त्वा ऽभाव शंकित नहीं करना चाहिये क्यों कि इनके ब्राह्मणत्वाभाव सूचक पद उसमें कोई नहीं दीखता है इसमें कारण स्पष्ट ही है कि बिना सम्वादक वचन के संवाध्य की प्रतीति अर्थवती नहीं होती । यदि अपनी परम्परा से माथुर ब्राह्मण कुश्ती कसरत करने वो भांग पीने वाले अनाप सनाप वकने वाले जब ये हैं तब फिर कैसे इनकी ब्राह्मण जाति में गणना की जाय इस विचार में यह कहा जात सकता है कि अपने रस वीर्य ताकत बढ़ाने के वास्ते भले ही परम्परा से अभ्यास की हुई ये मल्ल कला इनके दूषण के लिये नहीं अपितु भूषण के लिये ही हैं क्यों कि स्वरूप के अनुरूप् रक्षा करने के लिये ये मल्ल किया सबके लिये ही अभीष्ट है ।<br />
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'''कृष्ण''', बलदेव, भीमसेन प्रभृति की व ऐसे ही अन्य शिष्ट पुरूषों की भी मल्लकला का चातुर्य पुराणेतिहासों में अच्छी तरह बताया गया है । तब से लेकर ब्रज भूमि की राजधानी मथुरापुरी में रहने वाले ब्राह्मणों में भी ये मल्ल कला प्रचलित है । इससे कोई ब्राह्मणत्वाऽभाव सूचक दोष नहीं लगता । दोष तो, ‘शंखचक्राद्यंकनं व गीतनृत्यादिकं तथा एक जाते रयं धर्मों न जातु स्याद् द्विजमन:' अर्थात् शंखचक्र से चिन्हित होना, गाना नाचना इत्यादि धर्म एक जातिका है' द्विजातिका नहीं, इस स्मृति कार के निन्दा जैसे इन हीनाचार क्यों होने की कही गई है ऐसे ही जो केवल जीविका के लिये ही मल्ल विद्या धारण करते हैं उनके लिये वास्तव में ब्राह्मण त्वा भाव सूचक है ही । इनका भाँग पीना भी सहसा उस अब्राह्मणता का सूचक नहीं मानना चाहिये क्योंकि व्यसनियों का व्यसन अपनी जातिका खंडक नहीं माना जाता है । जैसे यद्यपि श्रुति में लिखा है ' न कलञ्जं भक्षयेत्' अर्थात् कलञ्ज भक्षण न करे भगवान् विद्यारण्य मुनिने कलंज शब्द का अर्थ उन्मार्ग जनक: पर्ण चूर्ण विशेष किया है । निषेध से भाग का निषेध पाया जाता ही है क्योंकि भाँग पीने से कुछ चित्त की विभ्रान्ति होती है तो भी प्रकीर्णका दिसा धारण दोषों में यह दोष आही माना है किंतु इससे ब्राह्मणता का अपहरण किसी तरह नहीं होता । वस्तुत: ऐसी कोई भी वस्तु जिससे कि मन वाणी शरीर का कुमार्ग में ले जाना जिसका नतीजा होता हो वह सभी निषिद्ध जाननी चाहिये, ऐसे ही ऐसी नशा आदि की चीजों से बचना भी तपस्या रूप होने से अच्छा फल वाला माना जाता है । <br />
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'''जैसा''' कि मनुजी ने कहा है- 'व्यसन और मौत के बीच में व्यसन बहुत दु:ख दायक होता है क्योंकि व्यसनी हमेशा नीचे से नीचे की तरफ गिरता रहता है अब्यसनी मरा हुआ स्वर्ग जाता है अस्तु' । यदि यह शंका की जाय कि 'मागधों माथुरश्वैव कापट: कीट कानजौ, पञ्चविप्रा न पूज्यन्ते बृहस्पति समा यदि' इस अत्रि स्मृति के बचन से माथुरों की अपूज्यता ही प्राप्त होती है तो इसका उत्तर यह दिया जाता है कि- यहाँ पर मथुरा में जो यात्री आते हैं वह सब इनको अपनी परम्परा से पुरोहित पदवी के होने के कारण पूज्य ही मानते हैं । जबकि ये किन्ही कारणों से (भंगादि दोषों से) अपूज्य होने लगे तब से ही अत्रि स्मृति का प्रकीर्णक श्लोक इनके प्रति प्रवृत्त हुआ मालुम पड़ता है यह श्लोक सदा के लिये नहीं है । इसी वजह से 'पूज्यन्ते' इस पद में लकार का प्रयोग किया गया है यह लट् का प्रयोग तत्काल में वर्तमान ब्राह्मणों के संनिधान में समस्त रूप में तत्कालीन माथुर ब्राह्मणों की अमान्यता का सूचक नहीं है क्योंकि लट् लकार का प्रयोग त्रैकालिक अर्थ को व्यक्त न करता हुआ केवल वर्तमान कालिक अर्थ को ही प्रतिपादित करता है । और यह भी नहीं कहा जा सकता है कि स्मृति बचन के समय में मौजूद रहते हुए ये अपूज्य माने जाते तथा भविष्य में इनकी सन्तान भी अपूज्य मानी जाय क्योंकि ऐसा देखा गया है कि कभी किसी नदी, तालाब, बृक्ष आदि में कोई विकार पैदा हो जाता है तो वह दोष कालान्तर में फिर दूर हो जाता है , इसीसे इस स्मृति में अन्यान्य ब्राह्मणों की पूज्यता के समान भाव वाला विशेष पद अपूज्यता को बताता हुआ पूज्यता को प्रतिपादन करने वाले माथुरों में भी ऐसे युक्त संगत हो जाता है जैसे, 'यह अब्राह्मण है जो खड़ा हो पेशाब करता है' और 'यह अब्राह्मण है जो खड़ा खड़ा खाता है' अर्थात् इन क्रियाओं से उसकी अपूज्यता है न कि जातिगत अमान्यता । क्यों कि कहा भी है- ब्राह्मण होते हुए भी जिन्होंने वेदाध्ययन, व्रत, नियम सामान्य रीति से छोड़ दिया है और स्वच्छन्द भीख मांगते फिरते हैं, वे नामधारी ही विप्र, दंड पाने के योग्य हैं' । <br />
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'''इस''' प्रकार पद 2 पर बड़े लोगों के कहे हुए-कल्याणकारी अर्थ से आजकल के माथुरों को कभी भी प्रमाद न करना चाहिये और न उससे होने वाले तिरस्कार को भी भूलना चाहिये , क्योंकि कहा भी है- 'काठ का हाथी चमड़े का मृग तथा वे पढ़ा ब्राह्मण ये तीनों केवल नाम धारी हैं । भगवान वसिष्ठ ने तो यहां तक कहा है कि जिस गांव में बिना पढ़े लिखे तथा ब्रत न करने वाले और कोरी भीख मांगने वाले ब्राह्मण रहते हों उन ब्राह्मणों को राजा को चाहिये कि दंड दे क्योंकि वह गाँव चोरों का मददगार है ।' श्रुति में लिखा है, तप, शास्त्र, योने ये तीनों ब्राह्मणत्व के संपादक है, जो तप और शास्त्र से हीन होता है वह केवल ब्राह्मण जाति वाला तो है ही इस श्रुति से इनके ब्राह्मणत्व में तो कोई दोष नहीं आता, केवल तप और शास्त्र के न होने के कारण ही उस समय में इनकी अपूज्यता स्मृति में बता दी गई है । यदि इनकी सन्तान परम्परा से ही इनकी अमान्यता होती चली आती तो उन्हीं ब्राह्मणों की सन्तान के मूलभूत आद्य शंकराचार्य जी अपने दिग्विजय के समय में छोटे बड़े वर्णाश्रमों के श्रेणी विभाग के प्रबन्ध करने वाले केरलीय, ब्राह्मणों की तरह इस माथुर ब्राह्मणों का बहिष्कार कर दिया गया होता जो कि अब भी पाया जाता है किन्तु दिग्विजय के वर्णन में यह बात स्पष्ट भी नहीं की गई है । इसलिये इस बेतुकी बात को हम आगे नहीं बढ़ाते । लेकिन जो स्मृति में 'बृहस्पति समा यदि' इनकी मान्यता का निषेध स्पष्ट दीख रहा है वह भी इनके भांग पान, बुरा बोलना आदि छुपाये न जा सकने वाले दोषों के कारण ही दीखता है । ऋषि का केवल आवेश के वश से या उपहास के लिये यह वचन मालूम नहीं पड़ता है । इस लिये आजकल के माथुरों को इस जाने हुए दोषों के दूर करने का उपाय करना चाहिये । <br />
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'''अब''' इनके ब्राह्मणत्व की और इनकी पूज्यता का समाधान हो जाने पर ये विचार उत्पन्न होता है कि ये द्राविणों में गिने जांय या गौड़ों में इसमें हमारी सम्मति से द्राविणों में ही गणना की जाय क्योंकि वैदिक निबन्धों से और परम्परा से श्रेष्ठ जो आश्वलायनी और राणापनी ऋग्वेद, सामवेद की शाखाओं का द्वधिणादि दाक्षिणात्य देशों में हैं जैसे तैसे हो यहां पर भी माथुरों में यथामति अपनी प्रणाली से प्रचार पाया जाता है । अगर ये गुर्जर या गौड़ों में अन्तर्गत माने जाते हैं तो शांखायनी और कौथमी शाखा की प्रवृत्ति होनी चाहिये थी । इनमें यजुर्वेदियों के न होने से तैत्तीरीय शाखा की प्रवृत्ति तो बिलकुल ही प्रतीत नहीं होती । रूद्राऽभिषेक आदि में तो ग्राह्म शत रूद्रियाऽवर्तन के प्रसंग होने पर तैत्तिरीय शाखा के विधान से ही यथा योग्य उसका आवर्तन करना पाया जाता है । सुहृद होकर बाजसनेयी शाखा वाले रहते भी हैं लेकिन उनकी शाखा में शतरूद्रिया-वर्तन का पता आज तक किसी याक्षिक को नहीं लग सका है और परम्परा से इन माथुरों का इन शाखाओं से कोई संसर्ग नहीं हैं । इनके लड़कों का 11 साल के पहिले ही अत्यन्त श्रद्धा सेकिया गया उपनयन विधान आज तक देखा जाता है और इतनी ही अवस्था में लड़कियों के विवाह भी इन लोगों में पाये जाते हैं । बाकी के भी संस्कार गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त उसी तरीका के प्राय: शास्त्रीय विधि की रक्षा के लिये स्थान पाये हुए हैं । <br />
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'''पहिले''' किसी समय में यक्ष के वक्त बनावटी भूख से भोजन मांगते हुए भगवान् कृष्ण से इन माथुरों ने इस कारण से निषेध कर दिया था कि अपने को यज्ञ के बीच में ही उनके उच्छिष्ट हो जाने का डर था । इस उदाहरण से स्पष्ट है कि माथुरों में बड़े 2 वैदिक विद्वान पहिले ही से होते रहे हैं । यदि यह शंका की जाय कि मथुरा में जो रहते हैं वे माथुर होते हैं तो चौबों से अतिरिक्त वैश्य, कायस्थ आदि को का नाम भी माथुर पड़ता है और इससे भी अधिक जो वस्तु मात्र मथुरा में होगी वह सब सेन्धव शब्द की तरह माथुर ही कही जायेगी फिर चौबों का ही नाम माथुर हो इसमें क्या विशेष युक्ति है इसके उत्तर में यह कहना है कि- किन्हीं 2 कारणों से वैश्यादिकों में भी उपलक्षणों से माथुर शब्द का व्यवहार किया भी जाता है तो भी मुख्य बृत्ति से चौबे ही माथुर पद से चिन्हित सुने जाते हैं जैसे कि महाभारत के सभापर्व, भागवत का दशमस्कन्ध, वाल्मीकि रामायण का उत्तराकाण्ड तथा बाराह पुराण में लिखा हुआ है और यह न्याय भी है कि 'पुरोहित के गोत्र वाले क्षत्रिय आदि होते हैं- ' इसलिये मथुरा में रहने वालों के माथुर ब्राह्मण पुरोहित हो सकते हैं । इसलिये वैश्य, कायस्थादिकों में भी माथुर पद का व्यवहार प्रतीत होता है । यह कह नहीं सकते कि आज कल ये माथुर ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थादिकों के पुरोहित होते ही नहीं , क्योंकि पहिली और पिछली प्रतीति को कायम रखने वाली (निर्वाहक) मथुरापुरी की मर्यादा ही इनके पुरोहित्व की संपादन करने वाली होती है ।<br />
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'माथुरों मागधा' इस स्मृति में आया हुआ माथुर पद भी इसी (ब्रह्मणत्व) अर्थ के साधकता में हम सब लोगों के सामने स्पष्ट झलकता है । जैसा कि सैन्धव पद के सुनने से नौन या घोड़े आदि की प्रतीति हो जाती है इसी तरह माथुर पद से माथुर ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की प्रतीति नहीं होती हैं । अप्रतीति होने से हम अनुमान भी नहीं कर सकते क्योंकि इसमें कोई साधक लिंग नहीं पाया जाता और जब कि अनुगत प्रतीति ही नहीं है तो फिर किसी प्रकार की संभावना भी नहीं हो सकती । यही मान्य बंधा है । इस लिये ब्रह्मत्व, पूज्यत्व, पुरोहितत्व आदि धर्म होने से माथुर ब्राह्मण भी अन्य ब्राह्मणों के समान ही माने जाने चाहिये । अगर इनकी मूलोपपत्ति के विषय में विचार किया जाय तो द्वारकानिवासी जैसे गुग्गुली ब्राह्मणों की भगवान् बालखिल्य की सन्तानभूत बहुत सी शाखाओं में श्रेष्ठ होने से और उन्हीं में से किसी अन्यतम शाखा वाले गुग्गुली ब्राह्मण होते हैं, इसी तरह मथुरा में अतीत अनन्त काल से रहने वाले माथुर ब्राह्मणों के आविर्भाव का मूल भी पद्म पुराणदिकों से पाया जाता है । इससे अधिक कार्य क्या । यह लेख भगवत्पूज्यपाद जगद्गुरू शंकराचार्य के अवतार सूचक शक 2365 विक्रम शक- 1951 पौष वदी 13 चंद्रवार की लिखा गया है । क्योंकि उस समय मथुरा में आपकी स्थिति थी ।<br />
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'''श्री जगद् गुरू महाराज''' ने माथुरों को पंचद्राविणों के अंतर्गत माना है जो वर्तमान स्थिति पर आधारित है । आप श्री ने इस ओर ध्यान नहीं किया कि मूलत: दक्षिण भारत के तीर्थ दक्षिण मथुरा, दक्षिण काशी, दक्षिण मायापुरी, (हरिद्वार) दक्षिण अयोध्या (औंध सितारा) प्रयाग द्वारिका से पूर्व के उत्तर भारत के तीर्थ हैं । आश्वलायनऋषि उत्तर के ब्रह्मर्षिदेश के थे रामायण वेदव्यास के सामशिष्य कृष्णगंगा मथुरा के निवासी थे मथुरा की एक शाखा मथुरा क्षेत्र में द्वादश वाषिय महादुभिक्ष (विश्वामित्र) के साथ में दक्षिण गयी और वहाँ अपने वंश दक्षिण (द्रविणोदा) के नाम से ज्ञात रही । उविणों में मुथुस्वामी मुझखिया अभी होते हैं किन्तु माथुरों में दिर्खाणया, दाखेड. से कहलाते । यजु को माथुरों ने वैशेयम्पायन याशवल्क की ब्रह्मवह के कारण तथा अथर्व के आसुर वेद होने के कारण स्वीकार नहीं किया ।<br />
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'''श्री जगद्गुरू शंकराचार्य''' महाराज यात्रा में माथुर कुल रत्न श्री डिव्वारामजी चौबे की आयोजित व्यवस्था में मथुरा पुरी में तीर्थबास करते हुए विराजे थे । उन्होंने उत्तम पांडेजी को अपना तीर्थ पुरोहित निर्धारियत कर तीर्थ विधि दर्शन यात्रा की थी तथा लेख लिखा था यह उनके एक पत्र से जो उन्होंने 1951 भाद्रा शुक्ल 2 के अपने पर्यटन शिविर हाथरस नगर से लिखा है, और जिसमें श्री डिव्वारामजी को पूर्ण सम्मानितरूप में भक्तिभाव के साथ संबोधित किया है ज्ञात होता है । ये मूल आलेख उनके पौत्र श्री कुंजबिहारीलाल पांडे के पास थे । यह माथुर चतुर्वेद ब्राह्मण समाज की अमूल्य धरोहर हैं जो अनुवाद सहित 16 पृष्ठों में हैं । इसका समग्र रूप में प्रकाशन अत्यंत आवश्यक है ।<br />
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'''कल्किदेव''' की धर्म स्थापना के बाद बौड़मत का भारत से अंत हो गया, तथा वेद यज्ञमय सनातन धर्म के प्रवाह में राजकेन्द्रों में अश्वमेद्य यज्ञ होने लगे । शुंगों के प्रथम सम्राट पुष्यमित्र ने 1274 वि0पू0 से अपने 34 वर्ष के राज्यकाल में अयोध्या मथुरा पाटलिपुत्र आदि में कई अश्वमेघ कर यज्ञों की परंपरा चालू की जिसको कण्वों, आंध्रभृत्य सातवाहनों, राष्द्रकूटों, मालवों, वाकाटकों शकों, नागों और गुप्तों ने निरन्तर प्रगति प्रदान की । माथुर मागध सम्पर्क का एक अति महत्वपूर्ण प्रतिफल यह सामने आया कि मगध के विशाल साम्राज्य से क्षत्रिय सत्ता का क्षय होकर ब्राह्मणों के हाथ में महान शासन की बागडोर आयी, खास कर ये ब्राह्मणवंश ब्रजमंडल मूल के थे और माथुरों से विशेष संपर्क युक्त थे ।<br />
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<poem>शुंग भारद्वाज गोत्रिय ब्राह्मणों का केन्द्र सैंगरपुरा मथुरा था, सोगरिया ।<br />
सैंगवार माथुर इस वर्ग में थे, कण्व सौश्रवस गोत्र के प्रवरी ।।</poem><br />
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देवराट् के पुत्र थे, यदुवंश के पुरोहित होने से ब्रज के कण्वाश्रम (कनवारौ) में सुन्हैश पर्वत के समीप निवास करते थे, घोर काष्व कृष्ण के ब्रह्मविद्या गुरू थे, शुनक व्यास शिष्य शौनक के पिता थे जो शौनकपुर (सौंख खेड़ा) में गोवर्धन के समीप के निवासी थे । शिशुनाग मथुरा के अनंत शेष तीर्थ के अधिपति, मौर्य ब्रज के मयूरबन मोरा गाँव के प्राचीन निवासी, तथा सातवाहन आंध्र दक्षिणी ब्राह्मण थे । श्री शंकराचार्य काल में मथुरा के ब्राह्मण कितने विश्व व्यापी ज्ञान और यश के अधिकारी बन चुके थे इसकी जानकारी एक उद्धरण से ज्ञातव्य है । पारसी संप्रदाय के मान्यग्रंथ 'शातीर' में जो 413 वि0पू0 का है लिखा है- जब फारस में जरथुस्त नाम का धर्म प्रचारक अपना मत प्रचार करने लगा तब वलख के लोगों ने उससे शास्त्रार्थ करने को हिन्दुस्तान से एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण बुलाया । ग्रंथ का यथावत उद्धरण इस प्रकार है- 'एकन् विरेमने व्यास नाम अजहिन्द, दानाकिइल्मोहुनरमंद चुना अस्त, चूँव्यास हिन्दी-वलख आमद, गश्ताश्प जरस्तरख रव्वा नन्द'- अर्थात् एक ब्राह्मण व्यास नाम वाला यहाँ हिन्द देश से आया है, वह बड़ा ज्ञान और बुद्धि का समुद्र है, क्योंकि यह महात्मा व्यास हिन्द देश से वलख में आया है-फारस के बादशाह गश्तास्प ने तब अपने प्रधान पण्डित जरथुस्त को उसके सामने बुलाया । व्यास ने जरथुस्त से कहा -'मन मरदे अम हिन्दी निजाद' मैं हिन्दू देश का उत्पत्र हुआ पुरूष हिन्दू हूँ । शास्त्रार्थ लंबा चला और महात्मा व्यास देव जरथुस्त को परास्त कर हिन्दुस्तान लौट आये । अखिल विश्व में ख्याति प्राप्त ये महात्मा मथुरा के महर्षि वेद व्यास के आश्रम (प्रघान व्यास पीठ) के (वशिष्ठ गोत्रिय माथुर) प्रधान पीठाधीश ही हो सकते हैं । उस समय के मथुरा के यमुना तट वासी ब्राह्मणों की जीवन चर्या भी ध्यान देने योग्य है-'यव भोजी भूमिशायी पत्रभुक् जितमानस: ब्रह्मचारी मौनव्रती <br />
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सौमारि कहते हैं- ये ब्राह्मण, जौ का सत्तू खाने वाले, धरती पर सोने वाले, शाक पत्र दूर्वा शमी पर निर्वाह करने वाले, ब्रह्मचारी मौनव्रत धारी, और अपने मन को पूरी तरह वश में रखने वाले हैं ।<br />
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1069 वि0 में सौराष्ट्र के पाटण राज्य के नरेश मूलराज के आयोजित यज्ञ में समस्त भारत से श्रेष्ठतम ब्राह्मण बुलाये गये, इन 1037 चुनिंदा ब्राह्मणों में 100 सामवेदी सरयूतट अयोध्या के, 200 यजुर्वेदी कान्यकुला देश के, 100 यजुर्वेदी काशी के, 100 यजुर्वेदी कुरूक्षेत्र के, 100 ऋग्वेदी हरिद्वार के, 100 ऋगवेदी नैमिषारण्य के, 105 यजुर्वेदी प्रयाग के, 100सामवेदी यमुना तट च्यवना श्रम (चूनाकंकड़) मथुरा के तथा 132 ऋग्वेदी पुष्कर तीर्थ के थे जिन्हें- 'मूलदेव नृपति: समदात्स, ग्रामदान मति श्रेष्ठ जनेभ्य: राजा मूलदेव ने इन्हैं परम पूज्य पण्डित मानकर 500 ग्राम दान में दिये ।<br />
माथुरों की वेद विद्या का चमत्कार- 964 वि0 में भट्ट दिबाकर (ब्राह्मण) नाम के एक विद्वान ने माथुरों से विद्या पढ़कर समुद्र पार कर काम्बोज देश(कम्पूचिया) की यात्रा की । वहां पहुंच कर उसने हजारों शिष्य बनाये और वहाँ की रानी से विवाह करके अपनी सन्तति को वहाँ के राजशासन का अधिकारी बनाया । कम्पूचिया के एक प्राचीन शिलालेख से यह ज्ञात हुआ है- वे ही दिवाकर भट्ट अपनी 'मथुरा वर्णन' रचता में लिखते हैं-' जहाँ सुन्दर कलिंदी (यमुना) प्रवाहित होती है, छत्तीस हजार माथुर ब्राह्मणों द्वारा तीनों काल गायें जाने वाले ऋक यजु साम की मन्त्र ध्वनियों से जहाँ की सारी भूमि प्रतिध्वनि होती रहती है, जहां कृष्ण ने कालियानाग का मर्दन किया, दैत्यों को मारा और बचपन में मनोरम बाल क्रीड़ायें कीं उसी मथुरा में मैं भट्ट दिवाकर पैदा हुआ हूँ ।<br />
<br />
1074 वि. में गजनी के महमूद ने अपने नौवें हमले का मथुरा को शिकार बनाया । हमला भयानक था माथुरों ने इसे 'बड़ौ साकौ' कहा है । मुसलमानी इतिहास लेखकों ने जो लुटेरों हत्यारों और भारत शत्रुओं के टुकड़ों पर पलते थे, अपने मालिकों को खुश करने और बहुत सा इनाम पाने के लिए इस हमले को बहुत बढ़ा चढ़ कर लिखा है और कूटनीतिज्ञ गोरे इतिहास कारों तथा उनके चेलों ने इन्हीं को इतिहास क्षेत्र में प्रचारित कर भारत के राष्ट्रीय गौरव मनोबल और शौर्य को कुचलने का प्रयास किया है । भारत के प्रत्येक देशी राज्य और राजवंश के पास अपने अपने इतिहास हैं किन्तु इन्हैं खुशामदे इतिहास कह कर उपेक्षित कर दिया गया है जबकि भारतीय मनोबल और राष्ट्र गौरव को नीचे गिराने वाले विदेशी लेखकों के दुर्भावना लिप्त वर्णनों को हम सही प्रमाण मानते आ रहे हैं यह महान आश्चर्य की बात है ।<br />
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गजनवी के हमले को 'बड़ौ साकौ' के रूप में चम्पति कवि का लिखा हुआ प्राचीन पत्र हमें प्राप्त हुआ है । इस साके को श्रीबाराहदेव मन्दिर में कार्तिकमास के अत्र कूट के अवसर पर प्रसाद पाने के एकत्रित माथुर मण्डली के आग्रह पर मदनदादा नाम को एक वयोवृद्ध बड़े उत्साह और गम्भीर स्वर में सुनाते थे जो इस प्रकार है-<br />
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दोहा- गजनी बारौ महमदा, दल बादल सौ छाइ ।<br />
रावल तक डायौं कटक, मथुरा घेरी सो आइ ।।<br />
जै रतनेसुर नगरपति, जै महाविद्या माइ ।<br />
चौबेन मौ साकौ कहौं, सब सुनियो ध्यान लगाइ ।।<br />
छन्द- आयौ महमदा अर्राती, होरी की झर सौ झर्रातौ ।<br />
मन्दिर देव किये औंधे, चौबे बनिया सब रौंधे ।<br />
महल हवेली ठाड़े रोवें, घाट वाट मरघटा में सौंमें ।<br />
चौबे गूजर जादों अहीर, मूँड लिपेटैं कफ्फन चीर ।<br />
लाठी सोटा फरसा बल्लम, जो पायौ सो लियौ अगल्लम ।<br />
मार मार की परी पुकार, मच्यौ पुरी में हाहाकार ।<br />
बेर छौंकरा हींस उपारे, लै लै चले जौम के मारे ।<br />
भठ्ठिन तेल के चढ़े कढ़ाउ, पानी को खलबल खदकाउ ।<br />
भाटा ईंट धरे असमानं, बज्र गिरैं नभ भौकी खानं ।<br />
तीर चढ़ावत लिए कमण्ठा, बाज्यौ काल बली कौ घंटा ।<br />
ज्वाला लोचन भैरौ रूप, फरकल अंग उछंग अनूप ।<br />
कोउ पाइ न पांछै धरियौ, नीच मलेछल छाती छरियो ।<br />
मथुरा मैया प्रान हमारी, याके काजैं सरबस बारी ।<br />
ए आये ए आये हल्ला, पानी उतरे पार मुसल्ला ।<br />
चमकाउत नंगी तरबारा, टोप मुंड घोड़न असवारा ।<br />
घोड़ा झपटत शीश उतारें, हू अल्ला अल्ला डुंकारैं ।<br />
पैलोई मन्दिर तिंडुक ईस, तड़ तड़ तौर्यो खल रजनीस ।<br />
बरसन लगे गनन ते भाटा , ताकी मार जवन दल फाटा ।<br />
झार झूकटे म्हौड़ेन परे, लोऊ लुहार गिरे घुड़चढ़े ।<br />
हवसी कसविन मंद्र गिरायौ, ठाकुर पूजा कौ धन पायौ ।<br />
चूनाँ कंकर चढ़े लुटेरे, महल हवेली लूट विखेरे ।<br />
अवला रोमें बालक विलखैं, अधम भेड़िया कूदैं किलकैं ।<br />
पुर गोपाल बड़ों देवालौ, सोतौ सात देवन संग घालौ ।<br />
खार बजार कूद कैं आये, नगर भूतिया कटक घंसाये ।<br />
चौबेन औ गढ जोधन खेरौ, तहाँ गजनीदल विप्रन घेरौ ।<br />
लट्ठन फोरीं घोरन टाँगैं, फरसन कटै पनाही मांगे ।<br />
जोड़िनु फोरे चपटासीस, भालय छेदे उदर खबीस ।<br />
भादों की झर पथरा परैं, औधे म्हौंडेन गिरगिर परैं ।<br />
गैंल गिरारे नलोथन टीले, माथुर मल्ल परैं नहीं ढीले ।<br />
चौवच्चा पुर चढि नहीं पाऐ, वीरभद्र घटिया पै खाए ।<br />
परिगई संझा अथयौ भान, मुठी प्रान लौटे खसियान ।<br />
तेल उबलतौ खदकत पानी, धार परत गज सुन्ड समानी ।<br />
पैने तीर परत बौछार, होत जिरह बखतर के पार ।<br />
कूतड़ सूकर मूसा बिल्ली, छप छप छपक गिरत छपकिल्ली ।<br />
धूर राख गोवर पुनि कूरौ, बरसै धुंधूकाल भभूरौ ।<br />
लैंड़ा मूत गिरैं सिर आइ, लत पत भए गऐ घबराइ ।<br />
दोहा- हाल देख सुलतान हूँ, भौं पाथर कौ खम्भ।<br />
ये जौहर बामनन में, मुझ को बड़ा अचम्भ ।<br />
काल तुमहु बरछान सम्हारौ, काफर कोट नबूद कर डारौ ।<br />
दूजे द्यौस परौ फिर हल्ला, दोऊ ओर जूझे रन मल्ला ।<br />
पदम नाथ देवालै ढायौ, जवन कटक तहाँ बहोत कटायौ ।<br />
चौबे कटे हजारन रून्डा, लुढकत घरनी अगनित मुन्डा ।<br />
मनि कंचन बटोर खल लीने, और साज बिखरे तजि दीने ।<br />
खारी कूआ धन धन्नो माता, दोऊ कर खरग डटी खल घाता ।<br />
रनचन्डी बीजुरी समाना, खरग घात काटे जु पठाना ।<br />
कट कट काटि बिछाए मुसल्ले, चरनन तरतफ घाइल कल्ले ।<br />
एकु न आगैं वढवे पाई, खाप्पर भरै चामुन्डा माई ।<br />
परौ मुसल्ला दल में हल्ला, या रहीम या अल्ला अल्ला ।<br />
एक नीच पाछे ते आई, दियौ पीठ में खरग घुसाई ।<br />
तोऊ न गिरी लौट खल मारौ, महिसासुर को सीस उतारौ ।<br />
जै मथुरा देवी मेरी मैया, राखियो लाज विप्र कुल रैया ।<br />
बजी दुन्दुभी भेरी जानी, धनियाँ घन्न विमान बिराजीं ।<br />
घन्ना मन्ना खंगू गदना, माथुर वीर डुंकारौ मदना ।<br />
माथुरवीर जमन ललकारे, सहस सहस्त्र रौंद महि डारे ।<br />
पकरि मुंडते मुंड बजाये, टांग टांग धरि चीर गिराये ।<br />
मथुरादेवी घेरा पार्यों, अन्ध मलेच्छ नहीं परत निहार्यो ।<br />
चढे दीर्घ विस्नू पै हरे, केसौपुर केसौ ललकारे ।<br />
फाटिक तोर देव दोऊ खंड़े, जादौं गूजर बीर उमंडे ।<br />
मारे मरे महाबल बीरा, जूझे जोभ महा रनधीरा ।<br />
कटे पुजारी छोड़ न भाजे, मन्दिर सीस कुठारा बाजे ।<br />
दोहा- त्राहि त्राहि महिदेव मुनि, इत हू करौ सहाइ ।<br />
सब धन लेहु जु इत धयौ, केसौं लेउ बचाइ ।।<br />
धन पै धूर प्रानन की परी, अपुनौ घर राखन की घरी ।<br />
जो हीरि रची सो अदबद होई, याकौं मैटि सकै नहीं कोई ।<br />
तब काबुलियन मन्दिर ढायौ, टीड़ी दल सौ दल उमड़ायौ ।<br />
मन्दिर द्वहारे कोठ खजाने, सब तोरे लूटे मन माने ।<br />
बारै दिवस कठिन दिन राती, कीनी तोर असुर उतपाती ।<br />
बस्ती एक मजूर न पायौ, तब गुलाम दल काम लगायौ ।<br />
मन्दिर ढाइ कसाई राखे, मांस बजार कियौ मद छाके ।<br />
याही बीच असुरं की सेना, बहु देवनतौ रे मद ऐनां ।<br />
नारी एक नगर नहिं पाई, प्रजा सतोहा बन पहुंचाई ।<br />
बौला बन बन खन्डी भारी, तहाँ माथुर कुल रिच्छापारी ।<br />
मुखरारी कौंनई जसौंदी, कुसमां कानन टौड़ बसौंधी ।<br />
तोरे देवल गिनियो नामां, विचलित कर मन करत न कामा ।<br />
देव गतसरम अठभुज माया, जादौं राइ जनम थल छाया ।<br />
गरूड़ केसौ बारहाइ मुरारी, देव स्वयंभू गिरबर धारी ।<br />
अंग्ब चर्चिका देवी वारैं, लांगुर पिपला देवनि हारैं ।<br />
वज्रनाभ कौ महल विशाल, जमुना तट धन कोस निहाल ।<br />
सोमेस्वर सिव अन्नपूरना, कार्पिलेसुर सिव व्यास उरनां ।<br />
सिव गोकरन कौ मंद्र बिसाला, अस्वमेघ बामन मखसाला ।<br />
अंवरीस कौ ऊँचौ मन्दिर, धन ते भरौ विंदुसर कदर ।<br />
लिखौं कहाँ लौं लिख्यौ न जाई, बानी बुद्धि गती चकराई । <br />
पत्ता टूकन पढि सुनि गाई, चंपत माथुर जोर बनाई ।<br />
सुनौ मिहारी सब सरदारा, जै जै होत उछाह अपारा ।<br />
येह साकौ माथुर कुल केरौ,जुग जुग पावै मान घनेरौ ।<br />
नर कौ मौल हाड़ नहीं मांसा, साहस धीर धरम बिसवासा ।<br />
खरग धार जिन धरमुन त्यागौ, प्रानन मोहन मन अनुरागौ ।<br />
वे जन घन्न अमर पुरबासी, कादर जीवत मरे दुरासी ।<br />
कछू कुल कादर गरव जिहीने, जीव रखान पलाइनु कीने ।।<br />
नहीं बगदे गांमन में छाए, मिठ बोला मीठे कहवाये ।<br />
करूऔ पीतों करूए रहे, कुलमरजादा मधुपुरी गहे ।<br />
मथुरा रही अमर सुख छाई, यमुना मैया सदा सहाई ।</poem><br />
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माथुरों का यह साका एतिहासिक है । इस समय मथुरा में भदृ दिवाकर के कथन से छत्तीस हजार माथुरों की बस्ती थी । कहते हैं इनमें से दो हजार माथुर कटे मरे, बीस हजार नर नारी दूर भाग गये ? मथुरा में छै हजार पुरूष और आठ हजार नारी वर्ग कुल चौदह हजार जन बल शेष रह गया। <br />
सोने चाँदी की मूर्ति नहीं थीं ? शैलमयी मूर्तियों की सेवा और उत्सव श्रृंगार का अपार साज सामान स्वर्ण और रत्न मय था । मथुरा नगर की बस्ती गूजर जाटों अहीर, वैश्य कारीगर सब मिलाकर 60-70 हजार रही होगी । इनमें से भी बहुत लोग कटे मरे और भागे । गजनबी का गुलाम बनकर कोई नहीं गया जो पकड़े गये उनने पत्थरों से सिर पीटकर अन्न जल त्याग कर और अचल आसन जमाकर प्राण त्याग कर दिये ।<br />
<br />
इस समय का महावन का कूलचन्द राजा धारानगरी के परमार राजा भोज का सेनापति था जिसने कई बड़े युद्ध जीते थे तथा संभवत: महावन में किला बनाकर मथुरा पर राज कर रहा था ।<br /><br />
महमूद को मथुरा में रसद मिलना खतम हो गया सिफाही भूखे मरने लगे और 21 वे दिन वह भाग गया । धन कितना मिला मालुम नहीं होता- गौंडल के इतिहास के अनुसार उसने 100 ऊँट लूट के माल से लादे थे । गजनवी 1087 वि0 में गजनजी में मरा और 1097 वि0 में तातारी सलजौक कबीला उसका सारा धन लूट ले गया । यह धन 10 वर्ष भी उसके पास न रहा ।<br />
<br />
===कुषाण कनिष्क===<br />
150 वि0 के लगभग मथुरा में शक कुषाणों का राज्य आया । कुषाण शिव के कूष्मांड गण थे । कनिष्क 182 -205 वि0 इस वंश का महान प्रतापी सम्राट था । उसने अपने विशाल राज्य में पटना से मथुरा पेशावर खोतन काशगर होकर चीन तक का राजमार्ग निकाला । मथुरा इस मार्ग के बीच में साम्राज्य की राजधानी थी । इस मार्ग में भारत एशिया के बीच अरवों रूपयों का व्यापार होता था जिससे मथुरा के घरों में सौने जवाहरात के अंडग लग गये । मथुरा में अपार सम्पत्ति का संचय हुआ और यहाँ के भवनों के विशाल शिखर सुवर्न कलशों से दमदमाते थे ।<br />
कनिष्क माथुरों का भक्त था उसके कृपा पात्र माथुर कनिसवारे या नसवारे कहे जाने लगे ।<br />
<br />
257 वि0 में यहाँ नागों की भारशिव शाखा का राज जमा । मथुरा और ब्रज में जितने भी शिव दुर्गा भैरव और गणेश मन्दिर हैं प्राय: सभी इस काल में बने ।<br /><br />
नागों ने यमुना सरस्वती संगम पर 10 अश्व एक साथ छोड़कर महाविशाल दशाश्वमेघ यज्ञ मथुरा में किया । नागों का वंश नागर और नागरावार तथा केन्द्र नगरापाइसा नाग टीला आदि स्थानों पर था ।<br /><br />
कुषाण वाशिष्क (159-163) द्वारा चलाये गये अपने राज्य संवत 24 वे वर्ष 183 वि0 में हुविष्क (163-195 वि0) के राज्य प्राप्ति के 10 वे वर्ष में ईशानपुर मथुरा मंल माथुर द्रोड़ल ने सामवेदी आग्निष्टोभ यज्ञ किया । जिसका लेख युक्त स्तंभ मथुरा संग्रहालय में है देखा परिशिष्ट सं01<br />
<br />
हुविष्क ने एक बड़ी धनराशि अक्षयनिधि के रूप में जमाकर प्रति मास 100 माथुर ब्राह्मणों को उसके नाम से ब्राह्मण भोजन कराने का स्थायी प्रबन्ध किया था । कुषाण वासुदेव (195 वि0) का वासुदेव चतुशाल मन्दिर और कूप मथुरा छावनी मैं था ।<br />
गुप्त काल- 395 वि0 में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजयों के उपलक्ष में चतु समुद्र कूप और सरत समुद्र कूपों पर विशाल यज्ञ किये जिनमें नाग वंशी राजाओं की बलि दी गई । यहाँ नागवलि का विधान श्राद्ध रूप में अभी भी किया जाता है ।<br />
435 वि0 के द्वितीय चन्द्रगुप्त की रानी कुवेरानागा ने कंकाली टीले पर जैन रत्न जटिल स्तूप बनवाया, केशव मन्दिर बनाया तथा रंगेश्वर पर कपिलेश्वर शिव की स्थापना की ।<br /><br />
522 वि0 स्कंदगुप्त के समय का एक तामपत्र मिला है जिसमें देव विष्णु नाम के चतुर्वेदी (माथुर) ब्राह्मण द्वारा इन्द्रपुर के सूर्य मन्दिर में दीपक जलाने के लिये अक्षय निधि के रूप में धन राशि दान का उल्लेख है ।<br /><br />
<br />
'''हूण आक्रमण- 600 वि0 के लगभग हूणों ने मथुरा पर आक्रमण किया ।'''<br />
<br />
इस समय मथुरा और माथुर बहुत समृद्ध थे । हूणों ने अपार धन लूटा मन्दिर तोड़े स्तूप संघारामों को बर्वाद किया । माथुरों ने मित्र बनकर हूणों को गोपाचल ग्वालियर और मध्य प्रदेश की ओर अग्रसर कर दिया ।<br />
विदेशी आक्रमण- भारत पर उत्तर पश्चिम की असुर जातियों की दृष्टि हमेशा से लगी रहती थी, उनका लक्ष मथुरा की अपार सम्पत्ति को लूटने का रहता था । इनकी रोक के लिए भारतीय वीरों के प्रयासों को 'निरोध' कहा गया है । प्राप्त लेखों के अनुसार पहिला पारसीक धवन कुरूष 493 वि0 पू0 का है । दर्यी बहू ने सिंध पर कब्जा किया था । और वहाँ से सोने के टुकड़ों के कई हजार थैले प्रतिवर्ष फारस जाते थे । 588 वि0 में नौशेरवां ने अपनी लड़की राणा वंश के राजकुमार को दी थी । पीछे यूनानी बारव्त्री शक पलजव अरब लगातार आते रहे ।<br />
कुषाणों के सम्बन्ध में बड़ा भ्रम फैलाया गया है । भारतीय ग्रन्थों के अनुसार स्वायंम्मनु काल में 'कूष्मांडैर्वापि जुहुयात' अर्थात् झूठा गवाह कूष्मांड देवों के मन्त्रों से सरस्वती का हवन कर पाप के छूटे । पंच ब्राह्मण के कुतस्ताद के पुत्र अरिमेजय के भाई ने नागों का राज विस्तार करने को नाग विजय सत्र किया । कुषंढ नाग उस दल का यज्ञाधिकारी था । शक कुषाणों के शाक द्वीप को स्वायंमू मनु पुत्र प्रिय व्रत ने सप्तद्वीप विभाजन के समय बसाया था ।<br />
धारापति मोज और माथुर- 1075 वि0 में मथुरा और महावन पर विद्वानों के गुणग्राही धारा नरेश भोज का राज्य था । उसका सेनापति महमूद गजनवी से लड़ा था । मथुरा के प्रसिद्ध विद्वान मालोजी की (वनमाली) चौबे भोज की विद्वान सभ के सदस्य थे । इनने हनुमन्नाटक पर ससुंन्दर टीका की है । जो हमने स्वयं श्री बिदुरजी पाठक के पास देखी थी । इसी समय 1,10 वि0 में मथुरा के श्री कृष्ण के वंश में यादवों की प्रधान शाखा ने करौली राज्य बसाया । इनमें विजयपालदेव, हरपालदेव, गोपालपाल आदि प्रतापी पुरूष हुए हैं । वीर हरपाल ने मथुरा पर चढ़ाई को आते महमूद गजनवी की सेना के सारे घोड़े छीन कर तवनगढ़ में बन्द कर लिये इससे गजनवी घबड़ा गया माँफी मांगी मिन्नतें कीं तब घोड़े लौटा दिये । इनके साथ मथुरा से 500 घर चौबों के करौली जाकर बसे जो राजसम्मान के साथ अभी भी वहीं बसे हैं ।<br />
===चौहान प्रृथ्वीराज और गोरी===<br />
1240 वि0 में चौहान राजा पृथ्वीराज को अपने नाना अनंगपाल तोमर की राजधानी दिल्ली मिली थी । वह मथुरा में चाहमानपुर (गजीचाह) में आकर माथुरों की सेवा करता था- मोक्ष शास्त्र सुनता था । पृथ्वीराज ने मथुरा में गोकर्णशिव तथा पद्मासनस्थ चन्डी (चर्चिका) की पूजा की जो चौबों की 64 अल्लों की पजूनीय थी ।<br />
<br />
चन्द कवि ने लिख है-<br />
<br />
<poem>पदम्मासनं पुष्टि चंडी प्रचंडी, चवंवेद आमोद 'चौसट्'ट चंडी ।<br />
इहं पुप्पलानाथ थानं अपूव्वं, तिनन्नं उपासं निराहार षट्क-<br />
बहुं दिव्व मानिक्क मुक्तादि दृट्टम्'<br />
सहस्सं गव्व मगाइ सच्छिय, दिन्न दिव्वय लै अच्छिछय अच्यि ।</poem><br />
<br />
====पृथ्वीराज रासौ छन्द 407====<br />
चौहान नरेश ने चंडी चर्चिका और पप्पलेश्वर शिव की बड़े समारोह से पूजा कर 6 दिन निराहार ब्रत करके बहुत सा सोना जवाहारात द्रव्य तथा एक सहस्त्र सवत्सा गौंऐ रत्न कंचन से सजाकर माथुर ब्राह्मणों को दान करके दी इन पृथ्वीराज के गुरू हृषीकेश मिश्र छिरौरा थे- जो नामी वैद्य थे । इनके ही पुत्र जजीदत्त माथुर राजा के अंग रक्षक और पुरोहित थे । 1250 वि0 में यवन मुहम्मद गोरी ने छल से पृथ्वीराज को बन्दी बना लिया और गजनी लेजाकर उनकी हत्या की । 1248 वि0 पृथ्वीराज ने इसी गोरी को कैद किया था और मिन्नतें दीनता दिखाने पर छोड़ दिया ।<br />
शत्रु पर दया की राजनैतिक भूल के कारण चौहान का विशाल राज्य नष्ट हो गया ।<br /><br />
माथुर चीतौड़ गये- महाकवि चंद वरदाई के रासो ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज की बहिन पृथावाई के संरक्षक होने के कारण चौवे रिषीकेश मिश्र को पृथ्वीराज ने पृथावाई के साथ उसके ससुराल चितौड़ रावल समरसिंह के यहाँ भेज दिये तभी से 1242 वि0 से माथुर वंश चित्तौड़ में जाकर बसा । वेणीदत्त माथुर तो अन्त तक चौहान के साथ रहे । वे पृथ्वीराज के साथ कैद होकर गजनी गये और वहीं मारे गये । मुहम्मद गोरी को दिल्ली से बहुत ज्यादा धन हाथ नहीं लगा- पृथ्वीराज अपने शूर सामंतों को पहिले ही अपार धन दे चुके थे । गोरी ने दिल्ली तख्त पर राज करने के लिये अपना एक तुर्क गुलाम कुतुबुद्दीन गजनी से भेजा ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_14&diff=56306चतुर्वेदी इतिहास 142010-04-23T12:57:59Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}} <br />
==माथुर धर्म विवेक==<br />
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श्रीमान् परम हंस संन्यासियों के श्रेष्ठ आचार्य, व्याकरण न्याय आदि शास्त्रों के पारंगत विद्वान, यम, नियम आसन, प्राणायम, प्रत्यौहार धारणा, ध्यान, समाधि आदि आठ अंगों वाले योग के धारण से निष्ठायुक्त तपश्चर्या के करने वाले चक्रवर्ती सम्राट, अनादि काल से निरन्तर चली आने वाली गुरू परंपरा से प्राप्त हुए ये मतों का सिद्धान्तों की स्थापना के आचार्य, तीन सांख्य शास्त्रों के प्रतिपादक वैदिक मार्ग के प्रवर्तक, समस्त वेद शास्त्रों के सारयुक्त ह्दय वाले श्रीमान् सुधन्वा के साम्राज्य को सथापित करने वाले आचार्य, श्रीमान् राजाधिराजों के गुरू, भूमण्डल के आचार्य, चारों वर्णों के शिक्षक, गोमती के तीर पर बसी हुई श्रीमती द्वारिकापुरी के अधीश्वर, पश्चिम में गुरू परम्परा से प्राप्त संप्रदाय से युक्त श्रीमान् शारदापीठ के अधीश्वर ब्रह्मज्ञानोपदेश श्री मान् केशवाश्रम स्वामी के कर कमलों से स्थापित हुए श्री शारदापीठ के अधीश्वर श्रीमान् राज राजेश्वर श्री शंकराश्रम स्वामी के द्वारा शिष्य कोटि में प्रविष्ट हुए अनेक प्रकार की कलाओं के विलास भवन समस्त देशीय ब्राह्मणों को, तथा श्रीमान् महाराज पुरूषों को निर्विरोध ईश्वर के ऐक्यानुसंधान से निश्चित, नारायण के स्मरण से भली भाँति सूचित आशीर्वाद प्राप्त हो ।<br />
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जगद्गुरू, भगवान महेश्वर के अन्य अवतार, पूज्यपाद श्रीमान् भगवान् शंकराचार्य के आदिम एकान्त के स्थान द्वारिकास्थ श्रीमान् शारदापीठ से सम्बन्ध रखने वाली भक्ति ही इस समय मानव के असीम कल्याण की कारण है, इस बात को सभी जानते हैं ।<br /><br />
अनन्तर इस समय मनोहर मधुपुरी(मथुरा) में निवास करने वाले, "चौबे" इस दूसरे पर्याय वाचक नाम से प्रवहन्त माथुरों की जाति पर इधर उधर से होने वाली सामयिक अनेक शंकाओं के स्वरूप पर धर्मालोचन या विचार करने से उसके निर्णय विशेष को ग्रहण करने की इच्छा के कारण प्रसस्त प्रार्थना वाले, वहां के ब्रह्मज्ञानोपदेश आचार्य के पद से अंकित श्रीमान् वासुदेव एवं रज्जु शर्मा के लिये ता अन्य शिष्ट यनों के लिये पराभव नामक संवत्सर के आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि में जब की सूर्य नारायण अस्त हो रहे थे यहा इस मथुरापुरी में इस विज्ञप्ति की व्यवस्था दी गई ।<br />
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क्या माथुर चतुर्वेदी ब्रह्मण पंचद्राविणों के अन्तर्गत हैं !<br /><br />
श्री माथुर चतुर्वेदियों का श्रेष्ठ ब्राह्मणत्व!<br /><br />
===कृतर्कवादियों का मान मर्दन===<br />
क्या ये माथुर चतुर्वेद दश ब्राह्मणों के अन्तभूर्त हैं या इनसे बाहिर किसी अन्य जाति में अन्तर्भूत होते हैं या कोई अन्य स्वतन्त्र ब्राह्मण हैं इस प्रकार स्वयं इनके विषय में जिज्ञासा पैदा हो जाती है, यद्यपि-'समुख-तस्त्रिवृतं निरमीत, गायत्र्या ब्राह्मणम् । ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् । चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुण कर्म विभागश :- <br />
इत्यादिक श्रुति स्मृतियों में उनके स्वरूप का परिचय कराया है इससे उसके आवान्तर भेदों से भिन्न किसी स्थान के कारण से बिलक्षण जातीयता तो नहीं पाई जाती । तथापि-'आन्ध्र द्रविड़ कर्नाटा महाराष्ट्रश्च गुर्जरा: पञ्चैते द्रविड: ख्याता विन्ध्य दक्षिण वासिन: । सारस्वता: कान्यकुब्जा गौड़ा उत्कल मैथिला: पञ्च गौड़ा इति ख्याजा विन्ध्यस्योत्तर वासिन: ।। इन कूर्म पुराण के वाक्यों के तात्पर्य को सोचने से जो श्रति स्मृति में सामान्य रीित से कही है दश प्रकार से ब्राह्मण पाये जाते हैं । कदाचित् यहाँ पर यह शंका की जाय कि-उक्त बचनों में-'आन्ध्र बगैरह देशों के नाम लेकर और वहाँ के ब्राह्मणों का प्रतिपादन कर जो कि मूल बचन से पाया जाता है सिर्फ ये ही दश ब्राह्मण हैं और कोई नहीं हैं' – यह बात तो अनुकूल नहीं प्रतीत होती । इसके उत्तर में इतना ही कहना पर्याप्त है कि ये कूर्म पुराण के बचन प्रामाणिक ही मानने चाहिये यदि ये कहा जाय कि-' सर्वे द्विजा कान्यकुब्जा: माथुर मागधं बिना' इत्यादि बचन से माथुर मागध आदि ब्राह्मणावांतर भेद पाया जाता है सो यह बात नहीं है क्यों कि इस वचनों का कोई पोषक प्रमाण नहीं पाया जाता है । <br />
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उक्त वचन न कूर्म पुराण में तथा न किसी अन्य पुराण में पाया जाता है और न किसी मयूखादि ग्रन्थों के संग्रहकार ने इस बचन को उद्धृत किया है और न हमारी जानकारी में ही है । किंतु इसी पूर्वाद्ध के आगे कहे गये कान्य कुब्जा द्विजा श्रेष्ठा, कूर्म एवहि केवलम् इस वाक्य विशेष के समझने से तथा विद्वानों के विचारों से उक्त वचन की निर्मूलता ही प्रती होती है और यह वचन केवल कान्य कुब्ज ब्राह्मणों की प्रशंसा परक है यदि मागध और माथुरों से अतिरिक्त सब वर्गों के ब्राह्मण कान्य कुव्ज ही कहाते हों तो हम (आगमो ऽभ्यधि को भोगद्विजा पूर्वक्रमागतात्) इस याज्ञ वल्क्य स्मृति के कहे हुए न्याय के अनुसार यदि व्यवह्त होते उक्त वचन को हम प्रमाण मान सकते हैं ? किंतु विचार करने से पता चलता है कान्य कुब्जों को छोड़ कर और कोई ब्राह्मण अब तक इस दुनियाँ में न कान्य कुब्ज कहायें और न हैं ही । किंतु जो हैं वे उसी नाम से संसार में व्यवह्त होते हैं उक्त स्मृति के उतरार्ध इस वाक्य से कि-(आगमेऽपि बलं नैव भुक्ति: स्तोकाऽपि यत्रनो) 'सर्वे द्विजा' यह बचन संदिग्ध होता ही बाधित समझना चाहिये क्यों कि सबका कान्य कुब्ज-त्वेन व्यवहार नहीं पाया जाता कान्य कुब्ज ब्राह्मण तो व्यावर्तक भूत अपने नाम से ही युक्त पहिचाने जाते हैं और ब्राह्मणों के खासकर कुलादिक धर्मों से इनका कोई संबन्ध भी नहीं रहता है । माथुर और मागधों के कान्यकुब्जत्व के अभाव की तरह कभी किसी की बुद्धि में यह तो आही नहीं सकता कि ये ब्राह्मण नहीं हैं क्योंकि 'सर्वेसैं द्विजा: कान्य कुब्जा' इस बचन के बल से समरत ब्राह्मण जाति के कान्य कुब्ज कहने से कान्य कुब्ज वर्ग की घटितता से उद्देश किये गये माथुर मागधों को कान्य कुब्जत्व होते हुए भी किसी प्रकार कान्य कुब्ज ब्राह्मणों से माथुर मागधों को पृथग् धर्मता से (युक्त) किया गया है । केवल पृथग धर्म दिखाने से ही इन दोनों में ब्राह्मण त्वा ऽभाव शंकित नहीं करना चाहिये क्यों कि इनके ब्राह्मणत्वाभाव सूचक पद उसमें कोई नहीं दीखता है इसमें कारण स्पष्ट ही है कि बिना सम्वादक वचन के संवाध्य की प्रतीति अर्थवती नहीं होती । यदि अपनी परम्परा से माथुर ब्राह्मण कुश्ती कसरत करने वो भांग पीने वाले अनाप सनाप वकने वाले जब ये हैं तब फिर कैसे इनकी ब्राह्मण जाति में गणना की जाय इस विचार में यह कहा जात सकता है कि अपने रस वीर्य ताकत बढ़ाने के वास्ते भले ही परम्परा से अभ्यास की हुई ये मल्ल कला इनके दूषण के लिये नहीं अपितु भूषण के लिये ही हैं क्यों कि स्वरूप के अनुरूप् रक्षा करने के लिये ये मल्ल किया सबके लिये ही अभीष्ट है ।<br />
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कृष्ण, बलदेव, भीमसेन प्रभृति की व ऐसे ही अन्य शिष्ट पुरूषों की भी मल्लकला का चातुर्य पुराणेतिहासों में अच्छी तरह बताया गया है । तब से लेकर ब्रज भूमि की राजधानी मथुरापुरी में रहने वाले ब्राह्मणों में भी ये मल्ल कला प्रचलित है । इससे कोई ब्राह्मणत्वाऽभाव सूचक दोष नहीं लगता । दोष तो, ‘शंखचक्राद्यंकनं व गीतनृत्यादिकं तथा एक जाते रयं धर्मों न जातु स्याद् द्विजमन:' अर्थात् शंखचक्र से चिन्हित होना, गाना नाचना इत्यादि धर्म एक जातिका है' द्विजातिका नहीं, इस स्मृति कार के निन्दा जैसे इन हीनाचार क्यों होने की कही गई है ऐसे ही जो केवल जीविका के लिये ही मल्ल विद्या धारण करते हैं उनके लिये वास्तव में ब्राह्मण त्वा भाव सूचक है ही । इनका भाँग पीना भी सहसा उस अब्राह्मणता का सूचक नहीं मानना चाहिये क्योंकि व्यसनियों का व्यसन अपनी जातिका खंडक नहीं माना जाता है । जैसे यद्यपि श्रुति में लिखा है ' न कलञ्जं भक्षयेत्' अर्थात् कलञ्ज भक्षण न करे भगवान् विद्यारण्य मुनिने कलंज शब्द का अर्थ उन्मार्ग जनक: पर्ण चूर्ण विशेष किया है । निषेध से भाग का निषेध पाया जाता ही है क्योंकि भाँग पीने से कुछ चित्त की विभ्रान्ति होती है तो भी प्रकीर्णका दिसा धारण दोषों में यह दोष आही माना है किंतु इससे ब्राह्मणता का अपहरण किसी तरह नहीं होता । वस्तुत: ऐसी कोई भी वस्तु जिससे कि मन वाणी शरीर का कुमार्ग में ले जाना जिसका नतीजा होता हो वह सभी निषिद्ध जाननी चाहिये, ऐसे ही ऐसी नशा आदि की चीजों से बचना भी तपस्या रूप होने से अच्छा फल वाला माना जाता है । <br />
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जैसा कि मनुजी ने कहा है- 'व्यसन और मौत के बीच में व्यसन बहुत दु:ख दायक होता है क्योंकि व्यसनी हमेशा नीचे से नीचे की तरफ गिरता रहता है अब्यसनी मरा हुआ स्वर्ग जाता है अस्तु' । यदि यह शंका की जाय कि 'मागधों माथुरश्वैव कापट: कीट कानजौ, पञ्चविप्रा न पूज्यन्ते बृहस्पति समा यदि' इस अत्रि स्मृति के बचन से माथुरों की अपूज्यता ही प्राप्त होती है तो इसका उत्तर यह दिया जाता है कि- यहाँ पर मथुरा में जो यात्री आते हैं वह सब इनको अपनी परम्परा से पुरोहित पदवी के होने के कारण पूज्य ही मानते हैं । जबकि ये किन्ही कारणों से (भंगादि दोषों से) अपूज्य होने लगे तब से ही अत्रि स्मृति का प्रकीर्णक श्लोक इनके प्रति प्रवृत्त हुआ मालुम पड़ता है यह श्लोक सदा के लिये नहीं है । इसी वजह से 'पूज्यन्ते' इस पद में लकार का प्रयोग किया गया है यह लट् का प्रयोग तत्काल में वर्तमान ब्राह्मणों के संनिधान में समस्त रूप में तत्कालीन माथुर ब्राह्मणों की अमान्यता का सूचक नहीं है क्योंकि लट् लकार का प्रयोग त्रैकालिक अर्थ को व्यक्त न करता हुआ केवल वर्तमान कालिक अर्थ को ही प्रतिपादित करता है । और यह भी नहीं कहा जा सकता है कि स्मृति बचन के समय में मौजूद रहते हुए ये अपूज्य माने जाते तथा भविष्य में इनकी सन्तान भी अपूज्य मानी जाय क्योंकि ऐसा देखा गया है कि कभी किसी नदी, तालाब, बृक्ष आदि में कोई विकार पैदा हो जाता है तो वह दोष कालान्तर में फिर दूर हो जाता है , इसीसे इस स्मृति में अन्यान्य ब्राह्मणों की पूज्यता के समान भाव वाला विशेष पद अपूज्यता को बताता हुआ पूज्यता को प्रतिपादन करने वाले माथुरों में भी ऐसे युक्त संगत हो जाता है जैसे, 'यह अब्राह्मण है जो खड़ा हो पेशाब करता है' और 'यह अब्राह्मण है जो खड़ा खड़ा खाता है' अर्थात् इन क्रियाओं से उसकी अपूज्यता है न कि जातिगत अमान्यता । क्यों कि कहा भी है- ब्राह्मण होते हुए भी जिन्होंने वेदाध्ययन, व्रत, नियम सामान्य रीति से छोड़ दिया है और स्वच्छन्द भीख मांगते फिरते हैं, वे नामधारी ही विप्र, दंड पाने के योग्य हैं' । <br />
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इस प्रकार पद 2 पर बड़े लोगों के कहे हुए-कल्याणकारी अर्थ से आजकल के माथुरों को कभी भी प्रमाद न करना चाहिये और न उससे होने वाले तिरस्कार को भी भूलना चाहिये , क्योंकि कहा भी है- 'काठ का हाथी चमड़े का मृग तथा वे पढ़ा ब्राह्मण ये तीनों केवल नाम धारी हैं । भगवान वसिष्ठ ने तो यहां तक कहा है कि जिस गांव में बिना पढ़े लिखे तथा ब्रत न करने वाले और कोरी भीख मांगने वाले ब्राह्मण रहते हों उन ब्राह्मणों को राजा को चाहिये कि दंड दे क्योंकि वह गाँव चोरों का मददगार है ।' श्रुति में लिखा है, तप, शास्त्र, योने ये तीनों ब्राह्मणत्व के संपादक है, जो तप और शास्त्र से हीन होता है वह केवल ब्राह्मण जाति वाला तो है ही इस श्रुति से इनके ब्राह्मणत्व में तो कोई दोष नहीं आता, केवल तप और शास्त्र के न होने के कारण ही उस समय में इनकी अपूज्यता स्मृति में बता दी गई है । यदि इनकी सन्तान परम्परा से ही इनकी अमान्यता होती चली आती तो उन्हीं ब्राह्मणों की सन्तान के मूलभूत आद्य शंकराचार्य जी अपने दिग्विजय के समय में छोटे बड़े वर्णाश्रमों के श्रेणी विभाग के प्रबन्ध करने वाले केरलीय, ब्राह्मणों की तरह इस माथुर ब्राह्मणों का बहिष्कार कर दिया गया होता जो कि अब भी पाया जाता है किन्तु दिग्विजय के वर्णन में यह बात स्पष्ट भी नहीं की गई है । इसलिये इस बेतुकी बात को हम आगे नहीं बढ़ाते । लेकिन जो स्मृति में 'बृहस्पति समा यदि' इनकी मान्यता का निषेध स्पष्ट दीख रहा है वह भी इनके भांग पान, बुरा बोलना आदि छुपाये न जा सकने वाले दोषों के कारण ही दीखता है । ऋषि का केवल आवेश के वश से या उपहास के लिये यह वचन मालूम नहीं पड़ता है । इस लिये आजकल के माथुरों को इस जाने हुए दोषों के दूर करने का उपाय करना चाहिये । <br />
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अब इनके ब्राह्मणत्व की और इनकी पूज्यता का समाधान हो जाने पर ये विचार उत्पन्न होता है कि ये द्राविणों में गिने जांय या गौड़ों में इसमें हमारी सम्मति से द्राविणों में ही गणना की जाय क्योंकि वैदिक निबन्धों से और परम्परा से श्रेष्ठ जो आश्वलायनी और राणापनी ऋग्वेद, सामवेद की शाखाओं का द्वधिणादि दाक्षिणात्य देशों में हैं जैसे तैसे हो यहां पर भी माथुरों में यथामति अपनी प्रणाली से प्रचार पाया जाता है । अगर ये गुर्जर या गौड़ों में अन्तर्गत माने जाते हैं तो शांखायनी और कौथमी शाखा की प्रवृत्ति होनी चाहिये थी । इनमें यजुर्वेदियों के न होने से तैत्तीरीय शाखा की प्रवृत्ति तो बिलकुल ही प्रतीत नहीं होती । रूद्राऽभिषेक आदि में तो ग्राह्म शत रूद्रियाऽवर्तन के प्रसंग होने पर तैत्तिरीय शाखा के विधान से ही यथा योग्य उसका आवर्तन करना पाया जाता है । सुहृद होकर बाजसनेयी शाखा वाले रहते भी हैं लेकिन उनकी शाखा में शतरूद्रिया-वर्तन का पता आज तक किसी याक्षिक को नहीं लग सका है और परम्परा से इन माथुरों का इन शाखाओं से कोई संसर्ग नहीं हैं । इनके लड़कों का 11 साल के पहिले ही अत्यन्त श्रद्धा सेकिया गया उपनयन विधान आज तक देखा जाता है और इतनी ही अवस्था में लड़कियों के विवाह भी इन लोगों में पाये जाते हैं । बाकी के भी संस्कार गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त उसी तरीका के प्राय: शास्त्रीय विधि की रक्षा के लिये स्थान पाये हुए हैं । <br />
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पहिले किसी समय में यक्ष के वक्त बनावटी भूख से भोजन मांगते हुए भगवान् कृष्ण से इन माथुरों ने इस कारण से निषेध कर दिया था कि अपने को यज्ञ के बीच में ही उनके उच्छिष्ट हो जाने का डर था । इस उदाहरण से स्पष्ट है कि माथुरों में बड़े 2 वैदिक विद्वान पहिले ही से होते रहे हैं । यदि यह शंका की जाय कि मथुरा में जो रहते हैं वे माथुर होते हैं तो चौबों से अतिरिक्त वैश्य, कायस्थ आदि को का नाम भी माथुर पड़ता है और इससे भी अधिक जो वस्तु मात्र मथुरा में होगी वह सब सेन्धव शब्द की तरह माथुर ही कही जायेगी फिर चौबों का ही नाम माथुर हो इसमें क्या विशेष युक्ति है इसके उत्तर में यह कहना है कि- किन्हीं 2 कारणों से वैश्यादिकों में भी उपलक्षणों से माथुर शब्द का व्यवहार किया भी जाता है तो भी मुख्य बृत्ति से चौबे ही माथुर पद से चिन्हित सुने जाते हैं जैसे कि महाभारत के सभापर्व, भागवत का दशमस्कन्ध, वाल्मीकि रामायण का उत्तराकाण्ड तथा बाराह पुराण में लिखा हुआ है और यह न्याय भी है कि 'पुरोहित के गोत्र वाले क्षत्रिय आदि होते हैं- ' इसलिये मथुरा में रहने वालों के माथुर ब्राह्मण पुरोहित हो सकते हैं । इसलिये वैश्य, कायस्थादिकों में भी माथुर पद का व्यवहार प्रतीत होता है । यह कह नहीं सकते कि आज कल ये माथुर ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थादिकों के पुरोहित होते ही नहीं , क्योंकि पहिली और पिछली प्रतीति को कायम रखने वाली (निर्वाहक) मथुरापुरी की मर्यादा ही इनके पुरोहित्व की संपादन करने वाली होती है ।<br />
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'माथुरों मागधा' इस स्मृति में आया हुआ माथुर पद भी इसी (ब्रह्मणत्व) अर्थ के साधकता में हम सब लोगों के सामने स्पष्ट झलकता है । जैसा कि सैन्धव पद के सुनने से नौन या घोड़े आदि की प्रतीति हो जाती है इसी तरह माथुर पद से माथुर ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की प्रतीति नहीं होती हैं । अप्रतीति होने से हम अनुमान भी नहीं कर सकते क्योंकि इसमें कोई साधक लिंग नहीं पाया जाता और जब कि अनुगत प्रतीति ही नहीं है तो फिर किसी प्रकार की संभावना भी नहीं हो सकती । यही मान्य बंधा है । इस लिये ब्रह्मत्व, पूज्यत्व, पुरोहितत्व आदि धर्म होने से माथुर ब्राह्मण भी अन्य ब्राह्मणों के समान ही माने जाने चाहिये । अगर इनकी मूलोपपत्ति के विषय में विचार किया जाय तो द्वारकानिवासी जैसे गुग्गुली ब्राह्मणों की भगवान् बालखिल्य की सन्तानभूत बहुत सी शाखाओं में श्रेष्ठ होने से और उन्हीं में से किसी अन्यतम शाखा वाले गुग्गुली ब्राह्मण होते हैं, इसी तरह मथुरा में अतीत अनन्त काल से रहने वाले माथुर ब्राह्मणों के आविर्भाव का मूल भी पद्म पुराणदिकों से पाया जाता है । इससे अधिक कार्य क्या । यह लेख भगवत्पूज्यपाद जगद्गुरू शंकराचार्य के अवतार सूचक शक 2365 विक्रम शक- 1951 पौष वदी 13 चंद्रवार की लिखा गया है । क्योंकि उस समय मथुरा में आपकी स्थिति थी ।<br />
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श्री जगद् गुरू महाराज ने माथुरों को पंचद्राविणों के अंतर्गत माना है जो वर्तमान स्थिति पर आधारित है । आप श्री ने इस ओर ध्यान नहीं किया कि मूलत: दक्षिण भारत के तीर्थ दक्षिण मथुरा, दक्षिण काशी, दक्षिण मायापुरी, (हरिद्वार) दक्षिण अयोध्या (औंध सितारा) प्रयाग द्वारिका से पूर्व के उत्तर भारत के तीर्थ हैं । आश्वलायनऋषि उत्तर के ब्रह्मर्षिदेश के थे रामायण वेदव्यास के सामशिष्य कृष्णगंगा मथुरा के निवासी थे मथुरा की एक शाखा मथुरा क्षेत्र में द्वादश वाषिय महादुभिक्ष (विश्वामित्र) के साथ में दक्षिण गयी और वहाँ अपने वंश दक्षिण (द्रविणोदा) के नाम से ज्ञात रही । उविणों में मुथुस्वामी मुझखिया अभी होते हैं किन्तु माथुरों में दिर्खाणया, दाखेड. से कहलाते । यजु को माथुरों ने वैशेयम्पायन याशवल्क की ब्रह्मवह के कारण तथा अथर्व के आसुर वेद होने के कारण स्वीकार नहीं किया ।<br />
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श्री जगद्गुरू शंकराचार्य महाराज यात्रा में माथुर कुल रत्न श्री डिव्वारामजी चौबे की आयोजित व्यवस्था में मथुरा पुरी में तीर्थबास करते हुए विराजे थे । उन्होंने उत्तम पांडेजी को अपना तीर्थ पुरोहित निर्धारियत कर तीर्थ विधि दर्शन यात्रा की थी तथा लेख लिखा था यह उनके एक पत्र से जो उन्होंने 1951 भाद्रा शुक्ल 2 के अपने पर्यटन शिविर हाथरस नगर से लिखा है, और जिसमें श्री डिव्वारामजी को पूर्ण सम्मानितरूप में भक्तिभाव के साथ संबोधित किया है ज्ञात होता है । ये मूल आलेख उनके पौत्र श्री कुंजबिहारीलाल पांडे के पास थे । यह माथुर चतुर्वेद ब्राह्मण समाज की अमूल्य धरोहर हैं जो अनुवाद सहित 16 पृष्ठों में हैं । इसका समग्र रूप में प्रकाशन अत्यंत आवश्यक है ।<br />
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कल्किदेव की धर्म स्थापना के बाद बौड़मत का भारत से अंत हो गया, तथा वेद यज्ञमय सनातन धर्म के प्रवाह में राजकेन्द्रों में अश्वमेद्य यज्ञ होने लगे । शुंगों के प्रथम सम्राट पुष्यमित्र ने 1274 वि0पू0 से अपने 34 वर्ष के राज्यकाल में अयोध्या मथुरा पाटलिपुत्र आदि में कई अश्वमेघ कर यज्ञों की परंपरा चालू की जिसको कण्वों, आंध्रभृत्य सातवाहनों, राष्द्रकूटों, मालवों, वाकाटकों शकों, नागों और गुप्तों ने निरन्तर प्रगति प्रदान की । माथुर मागध सम्पर्क का एक अति महत्वपूर्ण प्रतिफल यह सामने आया कि मगध के विशाल साम्राज्य से क्षत्रिय सत्ता का क्षय होकर ब्राह्मणों के हाथ में महान शासन की बागडोर आयी, खास कर ये ब्राह्मणवंश ब्रजमंडल मूल के थे और माथुरों से विशेष संपर्क युक्त थे ।<br />
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<poem>शुंग भारद्वाज गोत्रिय ब्राह्मणों का केन्द्र सैंगरपुरा मथुरा था, सोगरिया ।<br />
सैंगवार माथुर इस वर्ग में थे, कण्व सौश्रवस गोत्र के प्रवरी ।।</poem><br />
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देवराट् के पुत्र थे, यदुवंश के पुरोहित होने से ब्रज के कण्वाश्रम (कनवारौ) में सुन्हैश पर्वत के समीप निवास करते थे, घोर काष्व कृष्ण के ब्रह्मविद्या गुरू थे, शुनक व्यास शिष्य शौनक के पिता थे जो शौनकपुर (सौंख खेड़ा) में गोवर्धन के समीप के निवासी थे । शिशुनाग मथुरा के अनंत शेष तीर्थ के अधिपति, मौर्य ब्रज के मयूरबन मोरा गाँव के प्राचीन निवासी, तथा सातवाहन आंध्र दक्षिणी ब्राह्मण थे । श्री शंकराचार्य काल में मथुरा के ब्राह्मण कितने विश्व व्यापी ज्ञान और यश के अधिकारी बन चुके थे इसकी जानकारी एक उद्धरण से ज्ञातव्य है । पारसी संप्रदाय के मान्यग्रंथ 'शातीर' में जो 413 वि0पू0 का है लिखा है- जब फारस में जरथुस्त नाम का धर्म प्रचारक अपना मत प्रचार करने लगा तब वलख के लोगों ने उससे शास्त्रार्थ करने को हिन्दुस्तान से एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण बुलाया । ग्रंथ का यथावत उद्धरण इस प्रकार है- 'एकन् विरेमने व्यास नाम अजहिन्द, दानाकिइल्मोहुनरमंद चुना अस्त, चूँव्यास हिन्दी-वलख आमद, गश्ताश्प जरस्तरख रव्वा नन्द'- अर्थात् एक ब्राह्मण व्यास नाम वाला यहाँ हिन्द देश से आया है, वह बड़ा ज्ञान और बुद्धि का समुद्र है, क्योंकि यह महात्मा व्यास हिन्द देश से वलख में आया है-फारस के बादशाह गश्तास्प ने तब अपने प्रधान पण्डित जरथुस्त को उसके सामने बुलाया । व्यास ने जरथुस्त से कहा -'मन मरदे अम हिन्दी निजाद' मैं हिन्दू देश का उत्पत्र हुआ पुरूष हिन्दू हूँ । शास्त्रार्थ लंबा चला और महात्मा व्यास देव जरथुस्त को परास्त कर हिन्दुस्तान लौट आये । अखिल विश्व में ख्याति प्राप्त ये महात्मा मथुरा के महर्षि वेद व्यास के आश्रम (प्रघान व्यास पीठ) के (वशिष्ठ गोत्रिय माथुर) प्रधान पीठाधीश ही हो सकते हैं । उस समय के मथुरा के यमुना तट वासी ब्राह्मणों की जीवन चर्या भी ध्यान देने योग्य है-'यव भोजी भूमिशायी पत्रभुक् जितमानस: ब्रह्मचारी मौनव्रती <br />
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सौमारि कहते हैं- ये ब्राह्मण, जौ का सत्तू खाने वाले, धरती पर सोने वाले, शाक पत्र दूर्वा शमी पर निर्वाह करने वाले, ब्रह्मचारी मौनव्रत धारी, और अपने मन को पूरी तरह वश में रखने वाले हैं ।<br />
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1069 वि0 में सौराष्ट्र के पाटण राज्य के नरेश मूलराज के आयोजित यज्ञ में समस्त भारत से श्रेष्ठतम ब्राह्मण बुलाये गये, इन 1037 चुनिंदा ब्राह्मणों में 100 सामवेदी सरयूतट अयोध्या के, 200 यजुर्वेदी कान्यकुला देश के, 100 यजुर्वेदी काशी के, 100 यजुर्वेदी कुरूक्षेत्र के, 100 ऋग्वेदी हरिद्वार के, 100 ऋगवेदी नैमिषारण्य के, 105 यजुर्वेदी प्रयाग के, 100सामवेदी यमुना तट च्यवना श्रम (चूनाकंकड़) मथुरा के तथा 132 ऋग्वेदी पुष्कर तीर्थ के थे जिन्हें- 'मूलदेव नृपति: समदात्स, ग्रामदान मति श्रेष्ठ जनेभ्य: राजा मूलदेव ने इन्हैं परम पूज्य पण्डित मानकर 500 ग्राम दान में दिये ।<br />
माथुरों की वेद विद्या का चमत्कार- 964 वि0 में भट्ट दिबाकर (ब्राह्मण) नाम के एक विद्वान ने माथुरों से विद्या पढ़कर समुद्र पार कर काम्बोज देश(कम्पूचिया) की यात्रा की । वहां पहुंच कर उसने हजारों शिष्य बनाये और वहाँ की रानी से विवाह करके अपनी सन्तति को वहाँ के राजशासन का अधिकारी बनाया । कम्पूचिया के एक प्राचीन शिलालेख से यह ज्ञात हुआ है- वे ही दिवाकर भट्ट अपनी 'मथुरा वर्णन' रचता में लिखते हैं-' जहाँ सुन्दर कलिंदी (यमुना) प्रवाहित होती है, छत्तीस हजार माथुर ब्राह्मणों द्वारा तीनों काल गायें जाने वाले ऋक यजु साम की मन्त्र ध्वनियों से जहाँ की सारी भूमि प्रतिध्वनि होती रहती है, जहां कृष्ण ने कालियानाग का मर्दन किया, दैत्यों को मारा और बचपन में मनोरम बाल क्रीड़ायें कीं उसी मथुरा में मैं भट्ट दिवाकर पैदा हुआ हूँ ।<br />
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1074 वि. में गजनी के महमूद ने अपने नौवें हमले का मथुरा को शिकार बनाया । हमला भयानक था माथुरों ने इसे 'बड़ौ साकौ' कहा है । मुसलमानी इतिहास लेखकों ने जो लुटेरों हत्यारों और भारत शत्रुओं के टुकड़ों पर पलते थे, अपने मालिकों को खुश करने और बहुत सा इनाम पाने के लिए इस हमले को बहुत बढ़ा चढ़ कर लिखा है और कूटनीतिज्ञ गोरे इतिहास कारों तथा उनके चेलों ने इन्हीं को इतिहास क्षेत्र में प्रचारित कर भारत के राष्ट्रीय गौरव मनोबल और शौर्य को कुचलने का प्रयास किया है । भारत के प्रत्येक देशी राज्य और राजवंश के पास अपने अपने इतिहास हैं किन्तु इन्हैं खुशामदे इतिहास कह कर उपेक्षित कर दिया गया है जबकि भारतीय मनोबल और राष्ट्र गौरव को नीचे गिराने वाले विदेशी लेखकों के दुर्भावना लिप्त वर्णनों को हम सही प्रमाण मानते आ रहे हैं यह महान आश्चर्य की बात है ।<br />
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गजनवी के हमले को 'बड़ौ साकौ' के रूप में चम्पति कवि का लिखा हुआ प्राचीन पत्र हमें प्राप्त हुआ है । इस साके को श्रीबाराहदेव मन्दिर में कार्तिकमास के अत्र कूट के अवसर पर प्रसाद पाने के एकत्रित माथुर मण्डली के आग्रह पर मदनदादा नाम को एक वयोवृद्ध बड़े उत्साह और गम्भीर स्वर में सुनाते थे जो इस प्रकार है-<br />
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दोहा- गजनी बारौ महमदा, दल बादल सौ छाइ ।<br />
रावल तक डायौं कटक, मथुरा घेरी सो आइ ।।<br />
जै रतनेसुर नगरपति, जै महाविद्या माइ ।<br />
चौबेन मौ साकौ कहौं, सब सुनियो ध्यान लगाइ ।।<br />
छन्द- आयौ महमदा अर्राती, होरी की झर सौ झर्रातौ ।<br />
मन्दिर देव किये औंधे, चौबे बनिया सब रौंधे ।<br />
महल हवेली ठाड़े रोवें, घाट वाट मरघटा में सौंमें ।<br />
चौबे गूजर जादों अहीर, मूँड लिपेटैं कफ्फन चीर ।<br />
लाठी सोटा फरसा बल्लम, जो पायौ सो लियौ अगल्लम ।<br />
मार मार की परी पुकार, मच्यौ पुरी में हाहाकार ।<br />
बेर छौंकरा हींस उपारे, लै लै चले जौम के मारे ।<br />
भठ्ठिन तेल के चढ़े कढ़ाउ, पानी को खलबल खदकाउ ।<br />
भाटा ईंट धरे असमानं, बज्र गिरैं नभ भौकी खानं ।<br />
तीर चढ़ावत लिए कमण्ठा, बाज्यौ काल बली कौ घंटा ।<br />
ज्वाला लोचन भैरौ रूप, फरकल अंग उछंग अनूप ।<br />
कोउ पाइ न पांछै धरियौ, नीच मलेछल छाती छरियो ।<br />
मथुरा मैया प्रान हमारी, याके काजैं सरबस बारी ।<br />
ए आये ए आये हल्ला, पानी उतरे पार मुसल्ला ।<br />
चमकाउत नंगी तरबारा, टोप मुंड घोड़न असवारा ।<br />
घोड़ा झपटत शीश उतारें, हू अल्ला अल्ला डुंकारैं ।<br />
पैलोई मन्दिर तिंडुक ईस, तड़ तड़ तौर्यो खल रजनीस ।<br />
बरसन लगे गनन ते भाटा , ताकी मार जवन दल फाटा ।<br />
झार झूकटे म्हौड़ेन परे, लोऊ लुहार गिरे घुड़चढ़े ।<br />
हवसी कसविन मंद्र गिरायौ, ठाकुर पूजा कौ धन पायौ ।<br />
चूनाँ कंकर चढ़े लुटेरे, महल हवेली लूट विखेरे ।<br />
अवला रोमें बालक विलखैं, अधम भेड़िया कूदैं किलकैं ।<br />
पुर गोपाल बड़ों देवालौ, सोतौ सात देवन संग घालौ ।<br />
खार बजार कूद कैं आये, नगर भूतिया कटक घंसाये ।<br />
चौबेन औ गढ जोधन खेरौ, तहाँ गजनीदल विप्रन घेरौ ।<br />
लट्ठन फोरीं घोरन टाँगैं, फरसन कटै पनाही मांगे ।<br />
जोड़िनु फोरे चपटासीस, भालय छेदे उदर खबीस ।<br />
भादों की झर पथरा परैं, औधे म्हौंडेन गिरगिर परैं ।<br />
गैंल गिरारे नलोथन टीले, माथुर मल्ल परैं नहीं ढीले ।<br />
चौवच्चा पुर चढि नहीं पाऐ, वीरभद्र घटिया पै खाए ।<br />
परिगई संझा अथयौ भान, मुठी प्रान लौटे खसियान ।<br />
तेल उबलतौ खदकत पानी, धार परत गज सुन्ड समानी ।<br />
पैने तीर परत बौछार, होत जिरह बखतर के पार ।<br />
कूतड़ सूकर मूसा बिल्ली, छप छप छपक गिरत छपकिल्ली ।<br />
धूर राख गोवर पुनि कूरौ, बरसै धुंधूकाल भभूरौ ।<br />
लैंड़ा मूत गिरैं सिर आइ, लत पत भए गऐ घबराइ ।<br />
दोहा- हाल देख सुलतान हूँ, भौं पाथर कौ खम्भ।<br />
ये जौहर बामनन में, मुझ को बड़ा अचम्भ ।<br />
काल तुमहु बरछान सम्हारौ, काफर कोट नबूद कर डारौ ।<br />
दूजे द्यौस परौ फिर हल्ला, दोऊ ओर जूझे रन मल्ला ।<br />
पदम नाथ देवालै ढायौ, जवन कटक तहाँ बहोत कटायौ ।<br />
चौबे कटे हजारन रून्डा, लुढकत घरनी अगनित मुन्डा ।<br />
मनि कंचन बटोर खल लीने, और साज बिखरे तजि दीने ।<br />
खारी कूआ धन धन्नो माता, दोऊ कर खरग डटी खल घाता ।<br />
रनचन्डी बीजुरी समाना, खरग घात काटे जु पठाना ।<br />
कट कट काटि बिछाए मुसल्ले, चरनन तरतफ घाइल कल्ले ।<br />
एकु न आगैं वढवे पाई, खाप्पर भरै चामुन्डा माई ।<br />
परौ मुसल्ला दल में हल्ला, या रहीम या अल्ला अल्ला ।<br />
एक नीच पाछे ते आई, दियौ पीठ में खरग घुसाई ।<br />
तोऊ न गिरी लौट खल मारौ, महिसासुर को सीस उतारौ ।<br />
जै मथुरा देवी मेरी मैया, राखियो लाज विप्र कुल रैया ।<br />
बजी दुन्दुभी भेरी जानी, धनियाँ घन्न विमान बिराजीं ।<br />
घन्ना मन्ना खंगू गदना, माथुर वीर डुंकारौ मदना ।<br />
माथुरवीर जमन ललकारे, सहस सहस्त्र रौंद महि डारे ।<br />
पकरि मुंडते मुंड बजाये, टांग टांग धरि चीर गिराये ।<br />
मथुरादेवी घेरा पार्यों, अन्ध मलेच्छ नहीं परत निहार्यो ।<br />
चढे दीर्घ विस्नू पै हरे, केसौपुर केसौ ललकारे ।<br />
फाटिक तोर देव दोऊ खंड़े, जादौं गूजर बीर उमंडे ।<br />
मारे मरे महाबल बीरा, जूझे जोभ महा रनधीरा ।<br />
कटे पुजारी छोड़ न भाजे, मन्दिर सीस कुठारा बाजे ।<br />
दोहा- त्राहि त्राहि महिदेव मुनि, इत हू करौ सहाइ ।<br />
सब धन लेहु जु इत धयौ, केसौं लेउ बचाइ ।।<br />
धन पै धूर प्रानन की परी, अपुनौ घर राखन की घरी ।<br />
जो हीरि रची सो अदबद होई, याकौं मैटि सकै नहीं कोई ।<br />
तब काबुलियन मन्दिर ढायौ, टीड़ी दल सौ दल उमड़ायौ ।<br />
मन्दिर द्वहारे कोठ खजाने, सब तोरे लूटे मन माने ।<br />
बारै दिवस कठिन दिन राती, कीनी तोर असुर उतपाती ।<br />
बस्ती एक मजूर न पायौ, तब गुलाम दल काम लगायौ ।<br />
मन्दिर ढाइ कसाई राखे, मांस बजार कियौ मद छाके ।<br />
याही बीच असुरं की सेना, बहु देवनतौ रे मद ऐनां ।<br />
नारी एक नगर नहिं पाई, प्रजा सतोहा बन पहुंचाई ।<br />
बौला बन बन खन्डी भारी, तहाँ माथुर कुल रिच्छापारी ।<br />
मुखरारी कौंनई जसौंदी, कुसमां कानन टौड़ बसौंधी ।<br />
तोरे देवल गिनियो नामां, विचलित कर मन करत न कामा ।<br />
देव गतसरम अठभुज माया, जादौं राइ जनम थल छाया ।<br />
गरूड़ केसौ बारहाइ मुरारी, देव स्वयंभू गिरबर धारी ।<br />
अंग्ब चर्चिका देवी वारैं, लांगुर पिपला देवनि हारैं ।<br />
वज्रनाभ कौ महल विशाल, जमुना तट धन कोस निहाल ।<br />
सोमेस्वर सिव अन्नपूरना, कार्पिलेसुर सिव व्यास उरनां ।<br />
सिव गोकरन कौ मंद्र बिसाला, अस्वमेघ बामन मखसाला ।<br />
अंवरीस कौ ऊँचौ मन्दिर, धन ते भरौ विंदुसर कदर ।<br />
लिखौं कहाँ लौं लिख्यौ न जाई, बानी बुद्धि गती चकराई । <br />
पत्ता टूकन पढि सुनि गाई, चंपत माथुर जोर बनाई ।<br />
सुनौ मिहारी सब सरदारा, जै जै होत उछाह अपारा ।<br />
येह साकौ माथुर कुल केरौ,जुग जुग पावै मान घनेरौ ।<br />
नर कौ मौल हाड़ नहीं मांसा, साहस धीर धरम बिसवासा ।<br />
खरग धार जिन धरमुन त्यागौ, प्रानन मोहन मन अनुरागौ ।<br />
वे जन घन्न अमर पुरबासी, कादर जीवत मरे दुरासी ।<br />
कछू कुल कादर गरव जिहीने, जीव रखान पलाइनु कीने ।।<br />
नहीं बगदे गांमन में छाए, मिठ बोला मीठे कहवाये ।<br />
करूऔ पीतों करूए रहे, कुलमरजादा मधुपुरी गहे ।<br />
मथुरा रही अमर सुख छाई, यमुना मैया सदा सहाई ।</poem><br />
<br />
माथुरों का यह साका एतिहासिक है । इस समय मथुरा में भदृ दिवाकर के कथन से छत्तीस हजार माथुरों की बस्ती थी । कहते हैं इनमें से दो हजार माथुर कटे मरे, बीस हजार नर नारी दूर भाग गये ? मथुरा में छै हजार पुरूष और आठ हजार नारी वर्ग कुल चौदह हजार जन बल शेष रह गया। <br />
सोने चाँदी की मूर्ति नहीं थीं ? शैलमयी मूर्तियों की सेवा और उत्सव श्रृंगार का अपार साज सामान स्वर्ण और रत्न मय था । मथुरा नगर की बस्ती गूजर जाटों अहीर, वैश्य कारीगर सब मिलाकर 60-70 हजार रही होगी । इनमें से भी बहुत लोग कटे मरे और भागे । गजनबी का गुलाम बनकर कोई नहीं गया जो पकड़े गये उनने पत्थरों से सिर पीटकर अन्न जल त्याग कर और अचल आसन जमाकर प्राण त्याग कर दिये ।<br />
<br />
इस समय का महावन का कूलचन्द राजा धारानगरी के परमार राजा भोज का सेनापति था जिसने कई बड़े युद्ध जीते थे तथा संभवत: महावन में किला बनाकर मथुरा पर राज कर रहा था ।<br /><br />
महमूद को मथुरा में रसद मिलना खतम हो गया सिफाही भूखे मरने लगे और 21 वे दिन वह भाग गया । धन कितना मिला मालुम नहीं होता- गौंडल के इतिहास के अनुसार उसने 100 ऊँट लूट के माल से लादे थे । गजनवी 1087 वि0 में गजनजी में मरा और 1097 वि0 में तातारी सलजौक कबीला उसका सारा धन लूट ले गया । यह धन 10 वर्ष भी उसके पास न रहा ।<br />
<br />
===कुषाण कनिष्क===<br />
150 वि0 के लगभग मथुरा में शक कुषाणों का राज्य आया । कुषाण शिव के कूष्मांड गण थे । कनिष्क 182 -205 वि0 इस वंश का महान प्रतापी सम्राट था । उसने अपने विशाल राज्य में पटना से मथुरा पेशावर खोतन काशगर होकर चीन तक का राजमार्ग निकाला । मथुरा इस मार्ग के बीच में साम्राज्य की राजधानी थी । इस मार्ग में भारत एशिया के बीच अरवों रूपयों का व्यापार होता था जिससे मथुरा के घरों में सौने जवाहरात के अंडग लग गये । मथुरा में अपार सम्पत्ति का संचय हुआ और यहाँ के भवनों के विशाल शिखर सुवर्न कलशों से दमदमाते थे ।<br />
कनिष्क माथुरों का भक्त था उसके कृपा पात्र माथुर कनिसवारे या नसवारे कहे जाने लगे ।<br />
<br />
257 वि0 में यहाँ नागों की भारशिव शाखा का राज जमा । मथुरा और ब्रज में जितने भी शिव दुर्गा भैरव और गणेश मन्दिर हैं प्राय: सभी इस काल में बने ।<br /><br />
नागों ने यमुना सरस्वती संगम पर 10 अश्व एक साथ छोड़कर महाविशाल दशाश्वमेघ यज्ञ मथुरा में किया । नागों का वंश नागर और नागरावार तथा केन्द्र नगरापाइसा नाग टीला आदि स्थानों पर था ।<br /><br />
कुषाण वाशिष्क (159-163) द्वारा चलाये गये अपने राज्य संवत 24 वे वर्ष 183 वि0 में हुविष्क (163-195 वि0) के राज्य प्राप्ति के 10 वे वर्ष में ईशानपुर मथुरा मंल माथुर द्रोड़ल ने सामवेदी आग्निष्टोभ यज्ञ किया । जिसका लेख युक्त स्तंभ मथुरा संग्रहालय में है देखा परिशिष्ट सं01<br />
<br />
हुविष्क ने एक बड़ी धनराशि अक्षयनिधि के रूप में जमाकर प्रति मास 100 माथुर ब्राह्मणों को उसके नाम से ब्राह्मण भोजन कराने का स्थायी प्रबन्ध किया था । कुषाण वासुदेव (195 वि0) का वासुदेव चतुशाल मन्दिर और कूप मथुरा छावनी मैं था ।<br />
गुप्त काल- 395 वि0 में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजयों के उपलक्ष में चतु समुद्र कूप और सरत समुद्र कूपों पर विशाल यज्ञ किये जिनमें नाग वंशी राजाओं की बलि दी गई । यहाँ नागवलि का विधान श्राद्ध रूप में अभी भी किया जाता है ।<br />
435 वि0 के द्वितीय चन्द्रगुप्त की रानी कुवेरानागा ने कंकाली टीले पर जैन रत्न जटिल स्तूप बनवाया, केशव मन्दिर बनाया तथा रंगेश्वर पर कपिलेश्वर शिव की स्थापना की ।<br /><br />
522 वि0 स्कंदगुप्त के समय का एक तामपत्र मिला है जिसमें देव विष्णु नाम के चतुर्वेदी (माथुर) ब्राह्मण द्वारा इन्द्रपुर के सूर्य मन्दिर में दीपक जलाने के लिये अक्षय निधि के रूप में धन राशि दान का उल्लेख है ।<br /><br />
<br />
'''हूण आक्रमण- 600 वि0 के लगभग हूणों ने मथुरा पर आक्रमण किया ।'''<br />
<br />
इस समय मथुरा और माथुर बहुत समृद्ध थे । हूणों ने अपार धन लूटा मन्दिर तोड़े स्तूप संघारामों को बर्वाद किया । माथुरों ने मित्र बनकर हूणों को गोपाचल ग्वालियर और मध्य प्रदेश की ओर अग्रसर कर दिया ।<br />
विदेशी आक्रमण- भारत पर उत्तर पश्चिम की असुर जातियों की दृष्टि हमेशा से लगी रहती थी, उनका लक्ष मथुरा की अपार सम्पत्ति को लूटने का रहता था । इनकी रोक के लिए भारतीय वीरों के प्रयासों को 'निरोध' कहा गया है । प्राप्त लेखों के अनुसार पहिला पारसीक धवन कुरूष 493 वि0 पू0 का है । दर्यी बहू ने सिंध पर कब्जा किया था । और वहाँ से सोने के टुकड़ों के कई हजार थैले प्रतिवर्ष फारस जाते थे । 588 वि0 में नौशेरवां ने अपनी लड़की राणा वंश के राजकुमार को दी थी । पीछे यूनानी बारव्त्री शक पलजव अरब लगातार आते रहे ।<br />
कुषाणों के सम्बन्ध में बड़ा भ्रम फैलाया गया है । भारतीय ग्रन्थों के अनुसार स्वायंम्मनु काल में 'कूष्मांडैर्वापि जुहुयात' अर्थात् झूठा गवाह कूष्मांड देवों के मन्त्रों से सरस्वती का हवन कर पाप के छूटे । पंच ब्राह्मण के कुतस्ताद के पुत्र अरिमेजय के भाई ने नागों का राज विस्तार करने को नाग विजय सत्र किया । कुषंढ नाग उस दल का यज्ञाधिकारी था । शक कुषाणों के शाक द्वीप को स्वायंमू मनु पुत्र प्रिय व्रत ने सप्तद्वीप विभाजन के समय बसाया था ।<br />
धारापति मोज और माथुर- 1075 वि0 में मथुरा और महावन पर विद्वानों के गुणग्राही धारा नरेश भोज का राज्य था । उसका सेनापति महमूद गजनवी से लड़ा था । मथुरा के प्रसिद्ध विद्वान मालोजी की (वनमाली) चौबे भोज की विद्वान सभ के सदस्य थे । इनने हनुमन्नाटक पर ससुंन्दर टीका की है । जो हमने स्वयं श्री बिदुरजी पाठक के पास देखी थी । इसी समय 1,10 वि0 में मथुरा के श्री कृष्ण के वंश में यादवों की प्रधान शाखा ने करौली राज्य बसाया । इनमें विजयपालदेव, हरपालदेव, गोपालपाल आदि प्रतापी पुरूष हुए हैं । वीर हरपाल ने मथुरा पर चढ़ाई को आते महमूद गजनवी की सेना के सारे घोड़े छीन कर तवनगढ़ में बन्द कर लिये इससे गजनवी घबड़ा गया माँफी मांगी मिन्नतें कीं तब घोड़े लौटा दिये । इनके साथ मथुरा से 500 घर चौबों के करौली जाकर बसे जो राजसम्मान के साथ अभी भी वहीं बसे हैं ।<br />
===चौहान प्रृथ्वीराज और गोरी===<br />
1240 वि0 में चौहान राजा पृथ्वीराज को अपने नाना अनंगपाल तोमर की राजधानी दिल्ली मिली थी । वह मथुरा में चाहमानपुर (गजीचाह) में आकर माथुरों की सेवा करता था- मोक्ष शास्त्र सुनता था । पृथ्वीराज ने मथुरा में गोकर्णशिव तथा पद्मासनस्थ चन्डी (चर्चिका) की पूजा की जो चौबों की 64 अल्लों की पजूनीय थी ।<br />
<br />
चन्द कवि ने लिख है-<br />
<br />
<poem>पदम्मासनं पुष्टि चंडी प्रचंडी, चवंवेद आमोद 'चौसट्'ट चंडी ।<br />
इहं पुप्पलानाथ थानं अपूव्वं, तिनन्नं उपासं निराहार षट्क-<br />
बहुं दिव्व मानिक्क मुक्तादि दृट्टम्'<br />
सहस्सं गव्व मगाइ सच्छिय, दिन्न दिव्वय लै अच्छिछय अच्यि ।</poem><br />
<br />
====पृथ्वीराज रासौ छन्द 407====<br />
चौहान नरेश ने चंडी चर्चिका और पप्पलेश्वर शिव की बड़े समारोह से पूजा कर 6 दिन निराहार ब्रत करके बहुत सा सोना जवाहारात द्रव्य तथा एक सहस्त्र सवत्सा गौंऐ रत्न कंचन से सजाकर माथुर ब्राह्मणों को दान करके दी इन पृथ्वीराज के गुरू हृषीकेश मिश्र छिरौरा थे- जो नामी वैद्य थे । इनके ही पुत्र जजीदत्त माथुर राजा के अंग रक्षक और पुरोहित थे । 1250 वि0 में यवन मुहम्मद गोरी ने छल से पृथ्वीराज को बन्दी बना लिया और गजनी लेजाकर उनकी हत्या की । 1248 वि0 पृथ्वीराज ने इसी गोरी को कैद किया था और मिन्नतें दीनता दिखाने पर छोड़ दिया ।<br />
शत्रु पर दया की राजनैतिक भूल के कारण चौहान का विशाल राज्य नष्ट हो गया ।<br /><br />
माथुर चीतौड़ गये- महाकवि चंद वरदाई के रासो ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज की बहिन पृथावाई के संरक्षक होने के कारण चौवे रिषीकेश मिश्र को पृथ्वीराज ने पृथावाई के साथ उसके ससुराल चितौड़ रावल समरसिंह के यहाँ भेज दिये तभी से 1242 वि0 से माथुर वंश चित्तौड़ में जाकर बसा । वेणीदत्त माथुर तो अन्त तक चौहान के साथ रहे । वे पृथ्वीराज के साथ कैद होकर गजनी गये और वहीं मारे गये । मुहम्मद गोरी को दिल्ली से बहुत ज्यादा धन हाथ नहीं लगा- पृथ्वीराज अपने शूर सामंतों को पहिले ही अपार धन दे चुके थे । गोरी ने दिल्ली तख्त पर राज करने के लिये अपना एक तुर्क गुलाम कुतुबुद्दीन गजनी से भेजा ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_13&diff=56303चतुर्वेदी इतिहास 132010-04-23T12:44:56Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==धौम्य गोत्र के आस्पद(अल्लैं)==<br />
<br />
1. लायसे- ये आश्वलायन ऋषि के वंशज 2986 वि0पू0 हैं । ऋग्वेद की आश्वलायन शाखा के कुछ लोग मध्य प्रदेश के रायसेन तथा सबलानों स्थानों में जाकर रहे थे । आश्वलायन जन्मेजय के नागसत्र में सदस्य थे ।<br />
<br />
2. भरतवार- ये भरद्वाज के पिता भरत चक्रवर्ती के आश्रय प्राप्त 4882 वि0पू0 सम्मानित सभासद थे । इनने भारत वर्ष देश के अन्तर्गत अपना भरत खंड राज्य स्थापित किया था ।<br />
<br />
3. घरवारी- ये गार्हपत्य नामक अग्नि कुल के देव पुरूष थे । वेद में इन्हें"अग्निर्गृपतिर्युवा" कहा है । ऋग्वेद के अनुसार ये सहस्त्रशीर्ष विराज पुरूष के पुत्र थे । वैसांधर अल्ल के माथुर वैश्वानर अग्नि वंशी भी इसी शाखा में थे । वैश्वानर अग्नि ने सरस्वतीतट मथुरा से पुष्कर राजस्थान तक तथा पांचाल देश पीलीभीत व बरैली अल्मौड़ा नैनीताल तक की भूमि में फैले गहन वनों को जलाकर पवित्र देश पांचाल मत्स्य सूरसेन जनपदों के स्वायंभू मनु के प्रदेश ब्रह्मर्षि देश(9200 वि0पू0)<br />
को प्रकट किया । गृहपति अग्नि ने पुरूरवा के यज्ञ में मंथु अग्नि पुरगटकर किभाबसु अग्नि प्रगटर की ओर उसके तीन भाग करके (आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षियाणाड्नि) तीनों के तीन यज्ञ कुण्डों में स्थापित कर यज्ञ कराया था । 'तस्य निर्मथाज्जातो जातवेदा विभावसु' । इस यज्ञ से 6241 वि0पू0 में प्रतिष्ठान पुर ब्रज के पैठा स्थान में पुत्रेष्टियाग के फलरूप आयु नहुष ययाति पुत्र चन्द्र वन्श की वृद्धि कर्त्ता उत्पत्र हुए थे । विराट प्रजापति (दीर्घविष्णु) 7 के पुत्र थे जो आदि मानव प्रजा के पितर कहे गये हैं । इनमें चार वेद ज्ञाता चतुर्वेद तथा पत्निगृह (पाकशाला) में प्रयुक्त गार्हपत्य अग्नि कर्म के प्राशिक्षक गार्हपत्य अग्नि (9200 वि.पू.) घरवारी प्रधान थे । ये 7 आध पित-1. अग्निष्वात 2. सोमप (वर्हिषद) 3. बैराज 4. गार्हपत्य, 5. चतुर्वेथ, 6. एक श्रंग, 7कुल के नाम के थे । मत्स्य के अनुसार ये सभी महायोगी थे । योग भंग होने पर पृथ्वी पर जन्मे । श्रेष्ठ ब्रह्मवादी होने और पूर्वजन्म के ज्ञान से ये योगाभ्यास में मग्न रहकर प्रजाओं का कल्याण करते थे । इनकी मानसी कन्या मैनां (मैनांगढ़ टीला मथुरा) में उत्पत्र हुई थी जिसके वन्शधर मैनां या मीणां जाति के लोग यहाँ रहते थे जो प्रजा विस्तार होने पर मैनाक पर्वत तथा समस्त राजस्थान और ब्रज क्षेत्र में फैल गये । मैनका अप्सरायें इसी वंश में थी । मैना ब्रज के हिमवन्त मेवात के पर्वतीय राजा हिमवन्त को ब्याही थी और उससे हेमवती पार्वती उमां गौरी आदि अनेक नामों वाली पुत्री हुई जो सतीदहन के बाद तप करके भगवान शिव की पत्नी बनी और उससे विनायक गणेश (गणेश टीला) तथा स्कंधस्वामी (खंडवेल तीर्थ मथुरा) वासी विश्व विजयी देवता (स्कैंडेनेविया सिकन्दरिया बन्दरगाह नाम प्रदाता तथा सिकन्दर यूनानी विश्व विजयी को प्रभावशाली नामकरण प्रदाता) पुत्र हुए । ये सातौ आद्यपितर परम कृपालु परोपकारी स्नेहमय स्वभाव के तथा पितृ स्नेह से समस्त प्रजाओं का संरक्षण और संवर्धन करने के कारण ही मानव पितर माने गये ।<br />
<br />
4. तिलमने- ये यज्ञ साकल्य हेतु श्यामातिल (कालेतिल) उत्पत्र करने वाले क्षेत्र तिलपत के निवासी तिलमटे लोगों के प्रोहित होने से तिलमने कहलाये । तिलपत का गौकुला जाट बड़ी सेना लेकर औरंगजेब के समय ब्रज में हुए विद्रोह का नेतृत्व करने आया था ।<br />
दलित मत्तिल नाम के दो यक्षों के सरोवर भी कामबन में दतीला मतीला कुन्ड नाम से थे । ये दत्तिल संगीत शास्त्र ग्रन्थ का प्रमुख आचार्य था तथा उसका दत्तिलम, नाम वाला संगीत ग्रन्थ प्रसिद्ध है । तिलोत्तमा अप्सरायें अतिसुन्दर और नृत्य करने वाली इस वन्श में प्रख्यात रही हैं । इस वन्श के तैलंग जनों ने दक्षिण महाराष्ट्र में तिलंगाना प्रदेश बसाया तथा तेल निकालने की कला विस्तार किया । यमराज के नर्कों में कोल्हू यन्त्र में पापियों को पेरने या बैलों की जगह जोतने का उल्लेख पुराणों में मिलता है ।<br />
<br />
5. शुक्ल- याज्ञवल्क्य के शुक्ल यजु प्रयोगों के अनुयायी शुक्ल कहलाये । शुक्ल वस्त्रधारी 'शुक्लांवर धर विष्णु' भगवान विष्णु देवी सरस्वती, वेदमाता गायत्री- तथा इनके भक्त माथुर ब्राह्मण शुक्त प्रसिद्ध हुए ।<br />
<br />
6. व्रह्मपुरि- मथुरा में ब्रह्मलोक तीर्थ के ब्रह्मोपासक ब्रह्मसभा के सदस्य मालाधारी ब्रह्मपुर्या जिस स्थान में रहते थे वह पद्मनाम तीर्थ पद्मावती सरस्वती के तट पर था उसे अभी भी मालावारी चौवे को शिवाजी महाराज द्वारादिया गया हाथी उनके द्वार पर झूमता था जिससे इसे हाथीवारी गली कहते हैं । राव मरहठों में सरदार को तथा राजस्थान में राजा की बांदियों के पुत्र होते हैं । मानाराव को राव की पदवी शिवाजी ने ही प्रदान की तथा जियाजीराव, दौलतराव, सयाजीराव आदि रावों ने अपनी समता का राव पद देकर पचीसियों गांव भेंट कर अपना पूज्य पुरोहित बनाया था । इसी क्षेत्र में पांडे माथुरों का प्राचीन निवास है ।<br />
<br />
7. आत्मोती- आत्मा को आत्मतत्व में लीन कर उसके परम गूढ प्रकाश का अनुभव अरने और कराने वाले आत्माहुति ब्रह्मज्ञान विद्या के साधक सिद्ध पुरूष आलोवि प्रसिद्ध थे । भगवान श्री कृष्ण ने गीता में आत्म ज्ञान कहा है ।<br />
<br />
8. मौरे- ये मयूरगणों की प्रजा मार्यवन्श केप्रे हित होने से मौरे कहे गये । मौर्यवंश में ही मुरदैत्य प्रजाओं के प्राचीन आवास मोरा मयूरवन, मुरसान, मुरार, मौरैड़, मोरवी मयूरकूट पर्वत (मोरकुटी) हैं तथा मुरदैत्यों का संहार करने के कारण श्री कृष्ण को मुरारी कहा जाता है ।<br />
<br />
9. चंदपेरखी- चंद्रवंशी यादवों के मनोरंजन हेतु यादवों की रंगशाला प्रेक्षागृह का निर्माण और उसकी रंगमंचीय व्यवस्था सम्भालने वाले माथुर चन्द्रप्रेक्षी या चैदपेखी थे । माथुरी भाषा में श्रंगार युक्त नारी को पेखने की पूतरी' कहा जाता है । पाणिनि के अनुसार यादव कंस वध का अभिनय (उत्प्रेक्ष दर्शन पेखनां) बड़े उत्साह के साथ आयोजित करते थे ।<br />
<br />
10. जोजले- देवों के यजन पूजा आराधना स्तुति पाठ कीर्तन भजन आदि प्रहलाद द्वारा प्रतिपादित नवधा भक्ति के आचार्य 'याजक' संयोजक झूंझर आक्रोश के साथ भक्ति उन्माद में आत्म विस्मृत जुझारून रूवभाव के लोग जोजले कहे जाने लगे ।<br />
<br />
11. सोती- यह बड़ी अल्ल है । श्रौत स्मार्त धर्म के उपदेशक सोती थे । श्रौतधर्म में मूलवैदिक संहिताओं के अतिरिक्त वेदांग, उपवेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, परिशिष्ट, निरूद्य, सूत्र, उपनिषद, सहितायें, इतिहास पुराण, आदि अनेक आधार हैं । सूत पुत्र सौति वन्श के जिन्हें वेदाधिकार नहीं था उन शूद्र वर्ण रथकारों को वेदातिरिक्त पुराण विद्या तथा संहितादि अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय प्रदान करते रहने को महर्षि वेद व्यास ने इन्हैं सूतों शौनकों के धर्मोपदेशक के रूप में नियुक्त किया था ।<br />
सोती प्रवासी माथरों के साथ भदावर आदि क्षेत्रों में जाकर बस गये थे ।<br />
<br />
12. सोगरे- सोगर गाँव के सोगरिया जाटों के पुरोहित सोगरे हैं ।<br />
<br />
13. चौपरे चौपरे या चौपौरिया इनके 4 घर(पौरी) मूल में एक स्थान पर स्थिति थे । एक कथन से चौपड़ का खेल जो कौरव पांडवों के समय में बहुप्रचलित था उसमें ये परम परांगत पासा डालने की मन्त्र विद्या इन्हें सिद्ध थी तथा बड़ी बड़ी राज सभाओं में द्यूत निर्णय के लिए बुलाये और सम्मानित किये जाते थे । शकुनी इनका गांधारी (अफगान) शिष्य था ।<br />
<br />
===प्रकीर्ण परवर्ती आस्पद===<br />
<br />
इनके अतिरिक्त परवर्तीकाल में माथुरों के कुछ अन्यान्द आस्पद आख्या या ख्यात समयानुसार बनते गये जिनमें से कुछ के नाम हैं –<br />
छौंका, भारवारे, तिवारे, नौसैनावासी, तखतवारे, महलवारे, नारेनाग, सकनां, होरीवारे, भरौच, चीबौड़ा, उचाड़ा, भदौरियाद्व, घाट्या, नगरावार, दक्ख, मानाराव, टोपीदास के, देवमन मंसाराम के, लाल चौवे के, गहनियाँ के, पंडिता के, भारवाले, आरतीवारे, नौघर वारे, करमफोर के, कोबीराम के, काहौ, स्वामी, मुकद्दम, चौधरी, पटवारी, निधाये के, हथरौसिया, मुरसानियाँ, करौर्या आदि ।<br />
<br />
===माथुर चतुर्वेद विरूदावली===<br />
<br />
माथुरों की वंश वैभव युक्त विरूदावली लल्लू गोपालजी द्वारा प्रस्तुत यहाँ दी जा रही है-<br />
<br />
==माथुर परिचय- ==<br />
===चौसठ अल्लैं===<br />
'''136 से 138'''<br />
<br />
====माथुर चतुर्वेदियों की माता-श्री यमुना मैया====<br />
<br />
श्री यमुना महारानी माथुरों की परम वात्सल्यमयी कुल प्रतिपालिनी मैया हैं । श्री यमुना विश्व की सबसे पुरातन प्रजा संरक्षिणी देवी हैं । आसुरी सर्ग युग् 12600 वि0पू0 में वे यमयमी के रूप में भाई बहिन सूर्य देव सूरसेन देश में उत्पत्र हुए, और अंतरिक्ष में बिहार करने की कामना से आकाश मंडल (आक्सस नदी, आकाश गंगा और आक्साई चीन आकाशिय उदीचीना प्रदेश) में ऊँचे पर्वतों पर वीणां बजाते हुए बिहार करने को चले गये । वहां यमी ने आसुरी धर्म से प्रभावित होकर अपने भाई की धर्म नीति की परीक्षा हेतु उससे संयोग की याचना की जिसे यमदेव ने द्दठता से ठुकराकर चरित्र श्रेष्ठता का परिचय दिया । इत पवित्र आचरण से नतमस्त होकर असुरों ने उन्हैं जमशेद (यम सिद्ध), जमरूद (यमरूद्र), जुम्मा, जुमेरात जमालू, जमाउल अव्वल, आदि रूपों में पूजित माना । मार्कण्डेय आश्रम (मक्का) में अश्वत्थ लिंग (संग असवद) के मन्दिर में इनका यमुना यम सरोवर आवेजमजम के नाम से पवित्र माना जाता है ।<br />
9370 वि.पू. में ब्रह्मदेव की मानसी सृष्टि में ये पुन: कश्यपवंश में माता अदिति के गर्भ से उत्पत्र द्वादश सूर्यों में ज्येष्ठ आदित्य विवस्वान देव के यहाँ संज्ञा माता के गर्भ से मथुरा देव पुरी के प्राजापत्यययाग प्रयाग तीर्थ में अवतरित हुए । यहाँ दिवाकर देव ने पुत्र यमराज को दक्षिण दिशा में यमलोक बसाकर पापी जनों को दण्ड देकर धर्म और सदाचार की मर्यादा बनाये रखने का धर्मराज पद पितामह ब्रह्मा से दिलाया, और सूरसेन (सूर्य सेनाओं का देश) देवलोक का अनुग्रह युक्त शानक अपनी प्रिय पुत्री यमुना को प्रदान किया ।<br />
आनी बहिन तपती देवी के शाप से जलधारा नदी रूप बनी श्री यमुना भागीरथी गंगा से बहुत युगों प्राचीन हैं । श्रीयमुना की उत्पत्ति 9,320 वि0पू0 है और प्रभु बारादेव ने बसुन्धरा देवी से श्री यमुना का महात्म कहा है । भक्त प्रहलाद ने भी 9254 वि0पू0 में अपनी तीर्थ यात्रा में यमुना तट के तीर्थों की यात्रा की है ।<br />
<br />
माथुरों के यमुना पुत्र होने का चरित्र ब्रज रहस्य महोदधि श्री उद्ववाचार्य देव जू ने अपने ब्रज यात्रा ग्रन्थ में कथन किया है जो माथुरों के लिए प्रमाणप है-<br />
<br />
<poem>एकदा ब्रह्म सदने कश्यपस्य कृतेऽच्वरे ।<br />
समेता सुप्रजा सर्वा कश्यपस्यच औरसा ।।1।।<br />
भक्तिनम्रा धावयन्ता: कर्मान् सम्पादयन्ति ते ।<br />
तान्द्दष्ट्वा भानुतनया मनोभवं मनोदधे ।।2।।<br />
एमाद्दषी प्रजा धन्या मद्गृहेपि भवेदिति ।<br />
तानहं पालयिष्यामि बात्सल्य रस निर्भरा: ।।3।।<br />
पुत्रेष्वेव गृहं धन्यं शोभाढ़यं गृहमेधिनाम् ।<br />
पुत्रका यत्र क्रीडन्ति तदेव सुकृतं गृहम् ।।4।।</poem><br />
<br />
एक दिवस शुभ मुहूर्त में ब्रह्मलोक तीर्थ मथुरा में कश्यप महर्षि के आयोजित महासत्र में समस्त देव प्रजा और कश्यप वंशज ब्राह्मण सम्मिलित हुए । ये महर्षि गण अपने पुत्र पौत्रों और पत्नियों पिरवारों सहित भक्ति से विनम्र होकर दौड़ दौड़कर यज्ञ कार्यों को बड़े उत्साह से सम्पादन कर रहे थे इन्हैं इस आनन्दमय रूप से देखकर सूर्य पुत्री श्री यमुना महारानी जी ने अपने मन में यह भावना स्थापित की- इस प्रकार की सुन्दर ह्दय को आकर्षित करने वाली प्रजा धन्य है तथा ऐसी प्रजा मेरे भवन में भी स्थापित होनी चाहिए । मैं उनका सनेह मय अन्त: करण से लालन पालन करूँगी और सदा वात्सल्य रस में आनन्द निमग्न रहूँगी ।<br />
<br />
<poem>आहूता बालका सर्वे सप्तर्षि कुल संभवा: ।<br />
माथुरान् गृह्म उत्संगे पयपानं मुद्रा ददु: ।।5।।<br />
स्नेह निर्झरितं वक्षं तानलिंग्य त्वरान्विता ।<br />
मुहुर्महु मुखं द्दष्ट्वा परमानन्द प्राप्नुयु: ।।6।।<br />
एतानि विप्र जातानि अग्निवंश समुद्भवान् ।<br />
विद्या विनय सम्पत्रान् सदाचार समन्वितान् ।।7।।<br />
माथुरेस्मिन्पुण्यक्षेत्रे पुत्रत्वेन व्रतानि मे ।<br />
अद्यत: मम पुत्रावै लोके ख्याति लभंतिहि ।।8।।<br />
दत्वा बहुगुणं प्रीतिं हैरण्यं भवनानि च ।<br />
स्वगेहे स्थापिता: सर्वे माथुरा मुनि पुंगवा ।।9।।<br />
कदाचिदपि मद्धामं न त्यजेयु: मुनीश्वरा: ।<br />
ममाश्रये द्दढी भूत्वा दुर्गमान् संतरिष्यत: ।।10।।<br />
</poem><br />
तब माताजी ने हेला देकर सपत ऋषियों के दल को बुलाया एवं उन माथुर मुनि बालकों को गोद में उठाकर उन्हैं स्नेह से झरते हुए अपने स्तनों का पयपान कराया ।।5।। प्रेम से झरते हुए वक्ष स्थल से उन्हैं अति आतुर होकर अलिंगन किया तथा उनके मुख बारम्बार निहारकार परम आनन्द का अनुभव किया ।।6।। माता ने कहा- ये श्रेष्ठ ब्राह्मणों के कुल अग्निवंश में उत्पत्र हैं तथा विद्या विनय और सदाचार से युक्त हैं ।।7।। इस परम पुण्यमय मथुरा क्षेत्र में मैंने इन्हैं पुत्र पद पर वरण किया है अत: आज से लोग में मेरे पुत्र अर्थात् यमुना पुत्र नाम की ख्याति प्राप्त करेंगे ।।8।। इतना महान पद देकर माता ने उन माथुर पुत्रों को बहुत श्रेष्ठ अपना अपार प्यार बहुत सा सोना और अनेक उत्तम देवोपम भवन दिए और उन माथुर मुनि पुगवों के पुत्रों को अपने निज भवन में स्थापित किया ।।9।। उनसे कहा – हे पुत्रो कभी भी कैसे घोर संकट में भी मेरे इस धाम को त्याग मत करना यहाँ रहकर मेरे आश्रय की दृढ़ता को गृहण किए हुए तुम सब दुर्गम संकटों से निश्चय पूर्वक पार हो जाओगे ।।10।। माता ने अपने पुत्रों को यह उदार बर दिया और इसे पाकर महर्षि अंगिरा ने वेदोक्त 'श्री यमुना सूक्त' का सरस्वर भक्ति और स्नेह के साथ गान किया जिसे सुनकर माता ने अपार हर्ष का अनुभव किया । यह अति दुर्लभ सद्य फल प्रद कृपा का सहज साधन सूक्त महर्षि अंगिरा ने 9300 वि.पू. में जगज्जनिनी मातु श्री के चरणों में बैठकर सिद्ध किया तथा श्रीमद् उद्धवाचार्य देववर्य इसको धारण कर परम सिद्ध पुरूष बन गये । इसके द्वारा यमुना उपासना भक्त प्रहलाद, प्रभु वामन देव, हिरण्यकशि पुदैत्यराज, स्वायंभूमनु देव, अंवरीष राजा, शत्रुघ्न, यपरशुराम मुनीन्द्र, वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, दक्ष, उशनाभृंगु, पुरन्दर इन्द्र, वायुदेव ने की तथा महर्षि वेद व्यास के काल में इसकी उपासना से चन्द्रवन्शी यादवों पौरवों आनवों ने विशेषकर नहुष ययाति, यदु, बसुदेव, श्री कृष्ण बलराम, महर्षि वेद व्यास ने माता कालिदी की आराधना करके वेद विभाजन, 18 पुराण प्रतिपादन, महाभारत, श्रीमद् भागवत ब्रह्मसूत्र आदि अनेकानेक शास्त्रों की रचना की । यह सर्वप्राचीन, वेदसत्रिहित, सर्व सिद्धित्रद माथुरों का मातृस्तवन सूक्त है जो यहाँ दिया जा रहा है-<br />
<br />
<poem><br />
हरि: ओउम्- आदित्यासो जायमानां सहस्त्रभारस्वद्रोचिषम् ।<br />
श्यामारूणां वैवस्वतिं श्री यमुनां भजमाहे ।।1।।<br />
संज्ञात्मजां यमस्वसां विश्रयन्ति भृमृतावृधे ।<br />
देवयन्तिं देवगणानाम् वरदां संवृणीमहे ।।2।।<br />
आवाह्मामि श्रीयमुने कालिंदी संशितवृते ।<br />
एह्मेहि विरजे सत्ये राष्ट्र मे शर्म यच्छताम् ।।3।।<br />
कूर्मासनां मणिपृष्ठां वेणु पद्मां भुजद्वयाम् ।<br />
केयूर मेखलांन्वितां महामणि किरीटिनीम् ।।4।।<br />
संमे सन्तु सिद्धि दात्रिं श्री मधुपुर्याधीश्वरिम् ।<br />
धान्यं धनं प्रजां राज्यं विभवं देहि मे जयम् ।।5।।<br />
वर्धयन्तिं महैश्वर्य प्रियं नो अस्तु मातर: ।<br />
नित्यं संसेवनं धेहि पादार्चनं गृणीमहे ।।6।।<br />
वरेण्यां ब्रजाधिष्ठात्रिं वासल्यां सुप्रसादिनीं ।<br />
संरक्षिणी प्रवर्धिनी अकानुकूल्यं बावृधस्व ।।7।।<br />
वैराज धारिणीं विरजां गभस्ति कोटि मास्वतिम् ।<br />
सौरसेनिं गोष्ठ शतिं सोमं क्रतुमयच्छतु ।।8।।<br />
मधु कैट दिनं निघ्नां कौमारीं संपयस्त्रविम् ।<br />
तां माधवीं उपव्हये आर्विभव हिरण्ययी ।।9।।<br />
कालिंदी सरस्वतीत यमुना तिस्त्रो पदेशु भ्राजिता: ।<br />
अरंकृर्ति मधुमर्ति सौर्या गव्यं गृणीमसि: ।।10।।<br />
आयाहि शर्म यच्छति प्रथमं विश्व सृजे ।<br />
अर्यन्त प्रार्चन्त देवा: साँजलि र्नतकन्धरा: ।।11।।<br />
जिधांसति यमकौर्य शरण्यं ईरयति शर्मम् ।<br />
मूर्त्या मांगल्यमये संसीदस्व कुले मम ।।12।।<br />
तपस्विनीं स्वयं सिद्धां वरेण्यां भर्ग भास्करिम् ।<br />
संगोप्त्रि अक्षयनिधिं गोपशी स्वस्तिरस्तुन: ।।13।।<br />
उपैतु मां महाराज्ञी कीर्ति प्रज्ञां स्थैर्य सह ।<br />
अभिरक्षतु मां नित्यं कालिन्दी माथुरेश्वरी ।।14।।<br />
संकृणुध्वं पदानुगं आत्मानं भर्ग आभर ।<br />
नित्योत्सवा वैजयन्ति अनन्या भीति शन्तमे ।।15।।<br />
यज्ञेश्वरी मन्त्रेश्वरी भक्तानुग्रह तत्परा: ।<br />
कौवेरं निधिं साम्राज्यं महैश्वर्य दधातु मे ।।16।।<br />
तुरीयस्था योग प्रभा सहस्त्रदल मीरिता: ।<br />
आत्मतत्वा परतत्वा महाविद्या पात्वंहस ।।17।।<br />
गोवर्धनं वर्धयन्तिं गवि गोष्ठान्यकरन्महत् ।<br />
मनश्चिन्तां जिघन्वतिं अभिष्टय: सम्प्रमोषि: ।।18।।<br />
त्रिसप्त धामं त्रिदिवं त्रयो त्रिशदभ्यर्चितम् ।<br />
यक्षस्वधामं द्युमन्तं ध्रुवस्यांगिरसस्यहि ।।19।।<br />
प्रहल्लादो उरूक्रमणों हिरप्यकशिपु बलिं: ।<br />
स्वायंभुवश्चांवरीषो अरिघ्नो भार्गवोत्तम: ।।20।।<br />
वशिष्ठो कश्यपश्चात्रि: दक्षो औशनसो भृगु: ।<br />
पुरन्दरस्य वायोश्च विधेहि से महत्पदम् ।।21।।<br />
ब्रह्मविद्या राजविद्या ब्रह्मपारगा: छान्दोगा: ।<br />
सहस्त्रदल संस्थिता: दधातु मेऽजरा मरम् ।।22।।<br />
नारायणीं महत्पदां नमोमि पुत्र वत्सलाम् ।<br />
संवर्धयति सौभाग्यं शं मे सन्तु सुवर्चसा: ।।23।।<br />
यज्ञेश्वरी विस्फुलिंगा आयाहि जातवेदसे ।<br />
प्रियगंधा: प्रियरसा: धियंनो धार्यतां ध्रुवम् ।।24।।<br />
</poem><br />
<br />
व्यासोवाच-चतुविंशतिकं सूक्तं श्री यमुनाया: प्रमीरितम् ।<br />
<br />
<poem><br />
जय कामो यशस्कामो श्रेयस्कामो विधारयेत् ।।1।।<br />
शुचिर्भूत्वा ऽनन्यामना जुहुयाच्च साज्यं मधुम् ।<br />
सर्वान्कामान वाप्नोति पदं वैश्रवणोपमम् ।।2।।<br />
यावल्लीलां न पश्येत तावच्छेवा व्रतं चरेत् ।<br />
प्रणतिं दर्शनं जाप्यं सर्व सिद्धि करं मतम् ।।3।।<br />
जयं राज्यं धनं धान्यं आरोग्यं सुप्रजां सुखम् ।<br />
सर्वाधिपत्यं यशसं संसिद्धि जयते ध्रुवम् ।।4।।<br />
दर्शयोद् विग्रहं पुण्यं कैंकर्यत्वं समाचरेत् ।<br />
गुरा: सेवा समायुक्तो सर्व सिद्धि प्रजायते ।।5।।<br />
इत्यंगिरा प्रकथितं श्री यमुना सूक्त मुत्तमम् ।<br />
भक्तिं मुक्तिं रसोद्भांव लीला प्रत्यक्ष कारकम् ।।6।।<br />
आरार्धितं चन्द्रवंशेन नहुषेन ययातिना ।<br />
यदोश्च श्रीकृष्णश्च बलरामेण धारितम् ।।7।।<br />
वेदव्यासमिदं जप्त्वा ध्यात्वा श्री रविरात्मजाम् ।<br />
कृतवानसर्व शास्त्राणि वेदांश्चापि प्रयणदिता ।।8।।<br />
तस्मात्सर्व प्रयत्नेन गोपयेत्परमं धनम् ।<br />
अस्याराधनया वत्स सर्व सिद्धि प्रजायते ।।9।।<br />
हरि:ओऽम् तत्सत् नमोनम: ।<br />
</poem><br />
<br />
महर्षि अंगिरा द्वारा सम्पूर्ण माथुर मुनि पुत्रों के साथ गान किये इस सूक्त से माता श्री यमुना अति आनंदित हुई । उन्होंने पुन: कहा- <br />
<br />
<poem>यो यूयं मम पुत्रान्वै अर्चयिष्यन्ति श्रद्या ।<br />
तेन मे परमातुष्टि भवेदिति न संशय: ।।11।।<br />
माथुरा मम रूपाहि माथुरा मम वल्लभा ।<br />
माथुरे परि तुष्टे वै तुष्टोऽहं नात्र संशय ।।22।।<br />
</poem><br />
हे प्रिय पुत्रो ! जो धर्म निष्ठ प्राणी उदार विनय युक्त मन से मेरे तुम पुत्रों माथुरों की अर्चना करेगा तुम्हें सन्तुष्ट करेगा उससे मैं परम सन्तुष्टि प्राप्त करूँगी इसमें सन्देह नहीं है ।।11।। <br /><br />
माथुर मेरे ही रूप हैं, माथुर मुझे प्राणों से ज्यादा प्यारे हैं, माथुर के सन्तुष्ट होने से मैं आप स्वयं आनन्द के साथ सन्तुष्ट होती हूँ यह निश्चित अटल सत्य है ।।22।।<br /><br />
इस सन्दर्भ में श्री उद्धाचार्य देवजू के सुपुत्र श्री भगवान मिहारी के कुछ सुन्दर छन्द भी प्राप्त हैं-<br />
<br />
कवित्त- <br />
<br />
<poem>चाह करी मन में रविनं दिनी ।<br />
सप्त ऋषीन के बालकटेरे ।<br />
पुत्र बिना घर सून्यों अमंगल,<br />
वाल विनोद आनन्द घनेरे ।।<br />
'भगवन्त जू' याविधि पायि सनेह,<br />
कहै सब जै जै महासुख हेरे ।।<br />
माथुर बाल लगाये हियेते,<br />
सो आजु ते पूत भये तुम मेरे ।।1।।<br />
मो मथुरा करियो सदा बास,<br />
औ कीजो सदां पयपान सुखारी ।<br />
उत्तम भोजन कंचन वैभव, <br />
पाऔ सदा मुद मंगलकारी ।।<br />
भगवंतजू पूजियो मोहि सनेह सौ,<br />
जो नहीं पूजै सो होई भिखारी<br />
पूत सपूत बने रहोगे तो मैं-<br />
रच्छा करौं सब काल तिहारी ।2।</poem><br />
<br />
यमूना पूत्र कर्त्तव्य<br />
<br />
<poem>द्वारपै नाम जो मेरौ लिखै, घर भीतर सेवा मेरी पघरावै ।<br />
मन्त्र जपै नित, ध्यान धरै, सिर सादर नायि मेरे गुन गावै ।।<br />
भगवंत प्रसादी बिना नहीं भोजन, पर्थ पै उच्छव हर्ख मनावै ।<br />
या मति मेरौ आधार गहैं रहैं, एसौ सपूत मेरे मन भावै ।।3।।</poem><br />
<br />
कृपा प्रभाव प्रत्यक्ष<br />
<br />
<poem>राजा नवै, महाराजा गहै पद, मातु कृपा कौ प्रतापु है भारी ।<br />
संत महंत आचार्ज घनाधिप, आसन दैंई दै मान अपारौ ।।<br />
'भगवंत' ज वैभव ठाठ लगे रहैं, भाव अभाव न हो दुखारी ।<br />
एसी उदार अपार कृपा, रविनंदनि की महिमां कछु न्यारी ।।</poem><br />
<br />
माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की परम स्नेहमयी इन मातु श्री का स्तवन प्राय: प्रत्येक संप्रदाय के आचार्य ने किया है । अपने आराधित इष्ट देव की सिद्धि का साक्षात्कार बिना श्री यमुना मैया की कृपा के होना असंभव मानकर श्री आद्यशंकराचार्य ने श्री यमुना स्तबन-"जययमुने जय भीतिनिवारिणि संकट नाशिनि पाबय माम्", श्री कालिन्दी माता का स्तबन-" धुनोतु मे मनोमलं कलिंदनंदिनी सदा" किया है श्री गर्गाचार्य मुनि की गर्ग संहिता माधुर्य खंड में महर्षि सौमरि का राजा मांधाता को उपदिष्ट श्री यमुना पंचांग(यमुना स्तोत्र, कवच, पटल, अर्चन, सहस्त्रनाम) श्री प्रभु उद्धवाचार्यदेव का यमुना शरणागति स्तोत्र, श्रीमद् बल्लभाचार्य का यमुना अष्टक, श्री गो0 विद्वल नाथजी, श्री हरिराय जी, हरिबल्लभ, माधव, हरिदास, रमेश भट्ट गोकुलेश आदि वैष्णव भक्तों के स्तोत्र, श्री हित हरिवंश (राधा बल्लभी आचार्य) श्री रूप (सनातन) गौड़ीय आचार्य, सम्राट दीक्षित पंडितराज, कविवर ग्वाल, कविवर श्री मुदित मुकुन्द की यमुना लहरी आदि प्रभूत साहित्य हैं, जिसे वेदपाठी श्री बिहारीलाल जी की यमुना पूजन पद्धति में देखा जा सकता हैं ।<br />
<br />
श्री मथुरा पुरी में महर्षि अंगिरा द्वारा आराधित श्री यमुना मैया की यह पुरातन देव विग्रह प्रतिमा अनंदमयी मुद्रा में वैदिक सूत्र के अनुसार- "कूर्मासनां मणि पृष्ठां वेणु पद्मां भुज द्वयाम्" छवि को धारण किये हुए यमुना तट पर अपने निजधाम श्री यमुना निकुंज देवस्थान सूर्य गोलपुर (गोल पारा) प्रयाग घाट पर विराजमान हैं । यह माथुरों की परम पूज्य मैया और श्री सिद्धि स्वरूपा हैं । आश्चर्य है कि माथुर मुनीश अपनी परमाराधनीय इस माता की सेवा आराधना करने में निपट उदासीन तणा बहिर्मुख हैं । यहीं श्री उद्धवाचार्य देवजू का प्राचीन ब्रजयात्रा ग्रंथ उनकी छवि जी तथा पादुका जी विराजमान हैं जो सेवा करने पर कृपा सिद्धि प्रदायक हैं ।<br />
<br />
===वृम्हरात्रि का अधर्म वृद्धि युग===<br />
<br />
3000 वि.पू. के बाद कलियुग ने अपना पैर जमाया । महाभारत के पश्चात मगध का राजवंश चक्रवर्ती सम्राट बना परिक्षित को कलिप्रेरित प्रयास से ब्राह्मण शाप द्वारा तक्षक नाग ने समाप्त कर दिया । यादव स्वयं ही कलह की अग्नि में कूद गये । द्वारिका की जल प्रलय ने दूर दूर तक समुद्र तटवर्ती देशों को ध्वस्त किया । जनमेजय को नागों की शक्ति के सामने पराभव देखना पड़ा । वैशम्पायन और याज्ञवल्क्य की कलह में यजुर्वेद के कारे गोरे दो टुकड़े हो गये । जरासंध ने मथुरा शूरसेन देश पर 17 आक्रमण किये जिनमें 41 राज्यों के सत्ताधारी सहायक थे । इधर श्री कृष्ण बलराम के साथ मात्र केवल 18 यादव नरेश ही थे । बड़ी सेना के दबाव से वे 32 वर्ष की आयु में अंधक वृष्णि संघ के साथ सुदूर पश्चिम के जल दुर्ग द्वारिका में चले गये ।<br />
<br />
जरासंध यादवों का शत्रु था । द्रोपदी स्वयंवर में बृहद्रथ में धनुष उठाते समय घुटने फूट जाने पर उसका पलायन और श्री कृष्ण के समर्थन से अर्जुन का द्रोपदी से विवाह, महर्षि धौम्य की पांडव पौरोहित्य प्रतिष्ठा, कंस का वध और उग्रसेन का राज्यारोहण इसके उत्तेजक हेतु थे । उधर सूत मागध शौनकशूद्र प्राय माने जाते थे । इन्होंने माथुर महामुनीष महर्षि वेद व्यास की सेवा में अपने को समर्पित किया और कृपालु मुनि ने सूतों को पुराणाचार्य पद, शौनक को अथर्वा वेदाचार्य तथा मागधों को माथुरों की मैत्री के साथ गया तीर्थ का पौरोहित्य और वंदीजनों को ब्रह्ममट्ट राय भाट जागा के रूप में वंशावली संरक्षण् के कार्यों में नियुक्त किया । "माथुरों मागधश्चैव" एक मैत्री बनी और माथुरों को उस समय की अपनी उदार नीति के कारण अनेक प्रहार और अपवाद सहन करने पड़े , परिणामत: मथुरा पर अधिकार के बाद जरासँध ने मथुरा को लूटा जलाया या विनष्ट किया हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता ।<br />
<br />
जरासंध की शत्रुता यादवों से थी । उसने 86 यादव नरेश और उनकी अविवाहित राजकन्याओं को अपने कारागार में डाल रखीं थीं महाभारत के बाद योद्धाओं की शक्ति समाप्त नहीं हुई थी । मगध साम्राज्य का शौर्य और विस्तार बढ़ रहा था ।<br />
किन्तु मगध विदेशयी जातीय गांधारी (कंधारी पठान) वंश के उपरिचर बसु की सन्तान होने से वैदिक यज्ञों धर्म और देव पद्यति के प्रति निष्ठावान न थे । उनके ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज में उच्चता समानता युक्त सम्मान भी प्राप्त न था फिर भी उन्होंने 3233 से 2011 वि0पू0 तक 1222 बर्ष भारत पर अपना एक छत्र राज्य जमाये रक्खा । इसी अवधि में 1800 वि0 पू0 में ब्रह्म दिवस के कलियुग का अवसान हुआ ।<br />
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===व्रम्हरात्रि का द्वितिय कलयुग- शौनकसत्र===<br />
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ब्रहद्रथ वंश के राजा रिपुंजय के बाद शुनक वंशी व्यासशिष्य शौनकों का वंश शासनारूढ़ हुआ । वृहद्रथ वंश ने अपने लंबे राज्यकाल में कोई उल्लेखनीय धर्म कार्य किया हो एसा ज्ञात नहीं होता, किन्तु शुनक वंशियों ने सूतों को पुराणों के क्षेत्र में महान प्रतिष्ठा देकर नैमिषारण्य मिश्रिक आदि नव तीर्थों की स्थापना करके लंबे काल के कथा सत्र आयोजित किये । इन कथा महा सम्मेलनों में 88 हजार ऋषि महर्षि, लक्षाबधि प्रजाजन, तथा दानी मानी राजपुरूषों ने भक्ति के साथ 18 पुराणों का कथारस पान किया ं पुराणों का बहुविधि विकास विस्तार और जनसम्मान इसी युग में माथुर वेदव्यास शिष्यों के द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित हुआ । माथुर ऋषि महर्षि इन सत्रों के प्रथम कोटि के निर्देशन और सहायक थे । इन सत्रों में श्री कृष्ण की महिमा, उनके रसप्लावित चरित्र, ब्रजभूमि, मथुरा, और माथुर चतुर्वेद ब्रह्मणों की कीर्ति का महान प्रचार हुआ । 5 पीढ़ी राजकर 1873 वि0पू0 में महाराज वंशजों ब्रज औ काशी के नागों का अधिकार मगध साम्राज्य पर आया ।<br />
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भाग ब्रज की प्राचीन जाति थी । इस वंश में विंवसार(1727-1689 वि0पू0) अजात शत्रु (1627-1662 वि0पू0) उदायी डदितोदय मथुरा का राजा(1627-1594 वि0पू0), नंदिवर्धन(1594-1554 वि0पू0) तथा महामंदी कालाशोक (1554-1511 वि0पू0) आदि 10 राजा हुए । यह द्वितीय कलि (1800-600 वि0पू0) का समय इतिहास में बहुत क्रान्तिकारी समय हैं । एतिहासिक शंसोधन के अनुसार इस युग में जैन धर्म आचार्य महावीर स्वामी का जन्म 1797 वि0पू0 मेंतथा बुद्धि धर्म प्रवर्तक बुद्धदेव का जन्म 1760 वि0पू0 में हुआ ।<br />
इन दोनों मतों ने प्राचीन वैदिक धर्म को झकझोर डाला और रात्रि कलियुग का झंझावात खड़ा कर दिया । उदायी या ऊदितोदय के मथुरा पर सासनारूढ़ रहने के उल्लेख बौद्ध साहित्य में है, और उसके समय मथुरा धर्म प्रचार का प्रधान केन्द्र था तथा माथुर अपनी स्वधर्म निष्ठा पर दृढ़ तथा सम्मानित थे ।<br />
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'''महापद्म नंद वंश'''<br />
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1511 वि0पू0 में महापद्मनंद के वंश का महा साम्राज्य स्थापित हुआ । महापद्मनंद एक महान प्रतापी सम्राट था उसके राज्य में माथुरा और मथुरों के वैभव और श्रेष्ठता का महान विस्तार हुआ । सुमाल्य आदि इसके 9 पुत्रों ने मथुरा की वैभव वृद्धि में स्नेहयुक्त योगदान दिया ।<br />
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'''मौर्य वंश'''<br />
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1411 वि0पू0 में कटैलिया जाटों के पुरोहित कौटिल्य चांड़क्य की कूटनीति योजना से परम प्रतापी चंद्रगुप्तमौर्य द्वारा मौर्य वंश के साम्राज्य की नींव पड़ी । मौर्य मूलत: ब्रज के मयूर ग्राम(मोरा गाँव) के निवासी मयूर गण थे । ब्रज की तेजस्विता के फलस्वरूप वे अनेक खंडों में फैलकर स्व्च्छंद और महावलशाली बन कर मुरदैत्य तथा मूर मुराई मुरशद कहे जाने लगे । मुरसान, मुरार, मोरवी, मुरैना मोरावां आदि अनेक क्षेत्रों में इनका वंश फैंल चुका था । चंद्रगुप्त के उत्तर भारतीय साम्राज्य में मथुरा एक प्रमुख केन्द्र था, तथा इस वंश के वैभवशाली राजपुरोहित मौरे अल्ल धारी माथुरों के अनेक परिवार अभी भी मथुरा नगर में बसे हुए हैं । मौर्य काल में बौद्ध मत सारे भारत तथा विदेशों में भी खूब फैला । विंदुसार पुत्र सम्राट अशोक इस वंश का सबसे अधिक प्रतापी सम्राट था । इसने मथुरा में अनेक बौद्धस्तूप विहार और सनातन धर्म के देवालय निर्माण कराये, जिनकी वैभव संपति तथा अर्चना विधि के संचालक माथुर ब्राह्मण थे ।<br />
इस वंश के सम्राट शालिशूक (इंद्रपालित) 1300 वि.पू. के समय बौद्धधर्म बहुत विकृतियों से युक्त हो गया था । बौद्ध राजाओं का आरय पाकर बौद्धभिक्षुओं की संख्या इतनी बढ़ी कि वह भूमि का भार बन गयी ।<br />
<br />
कुछ इतिहास ज्ञों के मत से बौद्ध भिक्षु बल पूर्वक ग्रहस्थों के घरों से भिक्षा बसूल करने लगे । वे किसान का अनाज, ग्वालों का दूध घी, कुम्हारों के वर्तन, बजाज, दर्जी, माली, तेली, नाई, वाहन, चालकों के उत्पादनों और साधनों का बिना मूल्य अपहरण करने लगे । किसान, कारीगर, मजदूर, व्ययसायी, विद्वज्जन सभी वस्त्र रंगकर बौद्ध विहारों में भिक्षु बनकर मुफ्त के माल उड़ाने लगे । राजाओं की सेना सैनिक निशस्त्र भिक्षु बनकर चैन की नींद लेते हुए शौर्य हीन हो गये । राजदंड में क्षमा और दया का प्रवेश होने से चोरी लूट व्यभिचार आदि अपराध बढ़ गये । बौद्ध भिक्षुव्यसनी विलासी और तंत्र मंत्र नग्नासनों सिद्धियों के प्रयोंक्ता बन गये । सारा देश अकर्मण्य दुर्वल, कायर, शौर्यहीन और निस्तेज हो गया । इस अवसर का लाभ उठाने को उत्तर पश्चिम के आसुर क्रूर लोग भारत की दबोच कर अपने आधीन करने के प्रयास करने लगे । देश का धर्म और सुरक्षा महान संकट में पड़ गये ।<br />
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===भगवान काल्कि का प्रादुर्भाव===<br />
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ऐसे समय गीता में अपनी धर्म घोषणा के प्रतिपालनार्थ प्रभु ने भगवान काल्कि के रूप् में अवतार धारण किया । प्रभु काल्कि का आविर्भाव संमल ग्राम में विष्णुयशा पराशर बशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण के यहाँ मौर्य शालिशूक राज के राज्यकाल में 1338 वि0पू0 में हुआ । विष्णुयश को अपने गुरू याज्ञवल्क्य वंशज तपस्वी ब्राह्मण से कृपारूप् आशीर्वाद प्राप्त था । कल्कि ने सिंहल द्वीप में पद्मावती नाम की राजकन्या से विवाह किया और फिर वहाँ से देवदत्त अश्व पर सवार होकर कराल खग्ङ धारण कर वैदिक धर्म के विरोधियों के संहार की घोषणा की । प्रथम उन्होंने विन्ध्येश्वरी नंदपुत्री योगमाया भगवती की आराधना की और फिर आकर मगध देश में ही विशाल धर्म सेना तैयार कर विधर्मियों का दमन आरंभ किया । इस समय बुद्ध धर्म को 450 वर्ष तथा उसके 25 बुद्ध हो चुके थे ।<br />
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देश में नास्तिक अधर्मवादी संप्रदायों का जोर था । इनमें चावकि निरीश्वरवादी, अजितकेशी, उच्छेवादी, गोशालमंखली, आजोवकी, गोष्ठा माहिल, अनीश्वरवादी, पक्थ काच्चायन अशाश्वत वादी, पूरण काश्यप, सांजय वेल्हीपुत्र विक्षेप वादी आडार कालम अकिर्चिन्नायन बाद (संसार में कहीं कुछ नहीं है), आम्रपालिगणिका उपलि नापित का जात पांत निर्मूलन प्रयास, आदि प्रमुख थे । ये दान धर्म यज्ञ पाप पुण्य स्वर्ग नर्क कुछ नहीं हैं, हत्या चोरी व्यभिचार से पाप नहीं लगता तथा तीर्थ दान पूजा से पुण्य नहीं होता ऐसा घर घर प्रचार करते थे । जैनों के 363 पंथ तथा बौद्धों के अनगिनती थे । मगध, लिच्छवी, शाल्व, बुलि, कोल्लिय, मत्म्त्मे, कौशल आदि अनेकों राजा इन संघों के भक्त थे ।<br />
<br />
प्रभु काल्कि ने इन सबका प्रतारण किया । अधिक रक्त पात न करके उन्होंने यज्ञों द्वारा प्रजा को आकर्षित करके और सेना भय से नरेशों को कुमार्ग से विरत करके सारे देश में शाश्वत वैदिक श्रौत स्मार्त पौराणिक धर्म की ध्वजा समग्र भारत वर्ष में फरहादी । लोग लाखों की संख्या में भगवान काल्कि के दर्शनों, यज्ञ महोत्सवों और अपने प्राचीन धर्म को पुन: अंगीकर करने की आने लगे । कहीं कहीं कुछ गर्वित नरेशों ने युद्ध भी किया परन्तु वे पूर्णत: ध्वस्त हुए । फिर उन्होंने सीमा पर आक्रमण की तैयारी करते हुए यवन म्लेच्छ खश, काम्बोज, शवर, बर्वर, भूतवासी सारमेयी, काक, उलूक, चीन, पुर्लिद, श्वपच पिशाच, मल्लार देशों को विजय कर उन्हें धर्मानुकूल बनाया ।<br />
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इस धर्म विजय के पश्चात अयोध्या तथा फिर "मथुरा मागमन्मही" 'तस्या, भूपंसूर्यकेतु' मभिषिच्य महाप्रभु' वे मथुरा पधारे यहाँ विशाल यज्ञ आयोजित किया प्रधान ब्राह्मण माथुरों की अर्चना की तया समस्त जीती हुई भूमि ब्राह्मणों को दान करके देदी । माथुरा के बाद गाँव में इस यज्ञ का आयोजन करके प्रभु काल्कि ने मथुरों को वेदवाद प्रचार के लिये संयोजित किया । इस प्रकार अपना अवतार कार्य परिपूर्ण करके वे 1296 वि0पू0 में हिमालय में प्रवेश करके स्वधाम को प्रयाण कर गये ।<br />
भगवान काल्कि का स्नेह माथुर ब्राह्मणों पर विशेष रूप से था पिंडारक तीर्थ पर जब माथुर महर्षि गण अत्नि वशिष्ठ मृगु पराशर दुर्वासा अंगिरा उनके समीप पहुँचे तो उन्होंने कहा –<br />
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<poem>मथुरायामहं स्थित्वा हरिष्यामितु वो भयम् ।।26।।<br />
युवां शस्त्रास्त्र कुशलौ सेनागण परिच्छदौ ।<br />
भूत्वा महारथौ लोके मया सह चरिष्यथ: ।।28।।</poem><br />
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भगवान कल्कि का चरित्र दिव्य महान और विस्तार युक्त है । कल्कि पुराण में इसका पूर्ण वर्णन हुआ है । यह पुराण भारत धर्म महामंडल काशी द्वारा 1962 वि0 में निगमागम पुस्तक भंडार बांस का फाटक बाराणसी से प्रकाशित हुआ है तथा बैंकटेश्वर प्रेस बंबई एवं खेमराज श्री कृष्णदास बंबई से भी इसके प्रकाशन हुए हैं । अमरीका की पेन्सिलवेनियाँ विश्वविद्यालय तथा ब्रुकलिन कालेज न्यूया्रक में कल्कि अवतार पर शोधकार्य हुआ है पुराणों में स्कंद पुराण माहेश्वर कल्प के कुमारिकाखंड में तथा महाभारत के बन पर्व 188 तथा 190,191 में भी इस अवतार का कथन है फिर न जाने किस कारण से विद्वद्वर्ग ने ऐसे महान अवतार को अंथकार के गर्त में डाल रक्खा है ।<br />
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===जगद्गुरू श्री शंकराचार्य और कुमारिल स्वामी===<br />
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600 वि0पू0 से 1800 विक्रम संवत तक ब्रह्मरात्रि का द्वापर युग प्रवर्तित हुआ । इस काल में आंध्रमृत्यु, वाकाटक, सात वाहन, भारशिवनाग, गुप्तवंश, चालुक्य, पल्लव, पांड्य चोल, बल्लभी, मौखरी आदि अनेक वंश उठे और गिरे/हूणों के आक्रमण का ताँता लगा । युग धर्म के अनुसार जो पांखंड मत काल्कि विजय में भेष बदल कर लुप्त हो गये वे पुन: सिर उठाने लगे । अत: धर्मवीज के अंकुर की रक्षा के लिए भगवद अन्श से और दो महापुरूषों ने जन्म धारण किया । इनमें प्रथम श्री कुमारिलभट्ट स्वामी थे जो श्री शंकराचार्य से 57 वर्ष बड़े थे । श्री पी0 एन0 ओक की शोध के अनुसार इनका जन्म लगभग 509 वि0पू0 का है । इन्होंने 97 वर्ष आयु प्राप्त करके आसेतु हिमालय वेदमार्ग की घ्वजा फहरा कर बौद्धों तथा अन्य बचे खुचे पाखन्ड मतों को उन्मूजन किया । श्री शंकराचार्य के बौद्ध मत खन्डन पत्रक में इनका विशेष उल्लेख है । इन्होंने कार्तकिेय स्वामी का अवतार होने से स्वामी पद धारण किया था । मगध विहार के नालंदा विश्व विद्यालय में जबसे बौद्ध आचार्य से न्याय दर्शन पढ़ रहे थे तब गुरू के चरण दबाते समय वेद निन्दा सुनकर अनके नेत्रों से आँसू टपक कर आचार्य के चरणों में गिरे । यह देख बौद्धों ने यह तो वेद वादी है । वे उन्हैं धनवाद के राजा सुघन्वा के सामने ले गये और वहाँ उन्हैं ताड़ना देकर ऊँचे पर्वत से गिराया गया किन्तू वेद सत्य है तो मेरी रक्षा होगी' एसे निश्चय से इनकी रक्षा हुई । तब इन्होंने समस्त भारत वर्ष में वेद धर्म के प्रचार की प्रतिज्ञा ली । मथुरा के वेदपाठी चतुर्वेदी माथुर ब्राम्हाणों के महत्व को अनुभव कर उन्होंने अपना वेद धर्म आन्दोलन यहीं से श्रीगणेश किया । उन्होंने वेदपाठी चतुर्वेदी ब्राह्मणों का एक वेद प्रचार वर्ग बनाया और उसका केन्द्र जिस स्थान पर रक्खा वह वेदवाद तीर्थ बाद गाँव नाम से अभी भी मथुरा में है तथा इस समूह के वेद वादी माथुरों की भारद्धाज गोत्रिय शाखा कुमारिली या रिली कही जाती है विद्वानों ने इस शाखा को अनअल मनमानी कहा है जबकि उनने इस प्राचीन शाखा के गौरव को जाना ही नहीं । इसके बाद बाद गाँव को आगे चलकर भक्त महात्मा श्री हित हरि वंश जी की जन्म भूमि होने का भी महत्व प्राप्त हुआ है ।<br />
<br />
एक बार कुमपरिल स्वामी राजा सुघन्वा के राज महल के नीचे से जा रहे थे । उन्हैं देख राजा की राजकुमारी ने छत पर से व्याथित स्वर में पुकार की 'कि करोमि क्व गच्छामि, को नुइरिष्ययति ।' उन्होंने ऊपर देखा और उत्तर दिया 'मा चितय बरारोहे भट्टाचार्योस्ति भूतले ।।' बौद्धमतानुयामी सुघन्वा राजा ने इन्हैं अनेक कष्ट दिये किन्तु अन्त में पराजित होकर वह इनका शिष्य हो गया और सारे देश में दुन्दुभी घोष करा दिया-<br />
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<poem>व्यादाथाज्ञां ततो राजा बधाय श्रुति विद्विषां । <br />
आसेतो रातुषाराद्रे, बौद्धानां वृद्धिं घातकम् <br />
नहनिष्यतिय: स हन्तव्य. भृत्यानित्यन्वशानृप ।<br />
इस राजाज्ञा से सारा बौद्ध समाज निरस्त हो गया । विद्यारण्य स्वामी लिखते हैं- <br />
बौद्धादि नास्तिकाध्वस्त वेदमार्ग पुरा किल ।<br />
भट्टाचार्य: कुमाररांश: स्थापयामास भूतले ।।4।।</poem><br />
<br />
जगदगुरू श्री आद्यशकराचार्य महाराज- इस समय में 452 वि0पू0 में केरल में शंकर भगवान के अवतार श्री आद्य शंकराचार्य सवामी का प्रादुर्भाव हुआ । वे केवल 32 वर्ष ही भूलव पर विराजे किन्तु इतने समय में ही उन्होंने सन्यास ग्रहण कर भारत वर्ष के समस्त धरा मण्डल का परिभ्रमण कर वैदिक समातन धर्म की अखन्ड ध्वजा फहरा दी । उन्होंने देश की चारों सीमाओं पर उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में श्रृंगेरीमट, पूर्व में गोवर्धन मठ और पश्चिम में शारदा मठ के प्रबल धर्म केन्द्र स्थापित किये । वे मथुरा पुरी भी पधारे और माथुरों का मानकर श्री यमुना महारानी के परम भक्ति पूर्ण दो यमुनाष्टक रचकर गान किये । इनमें से एक में "धुनोतु में मनोमलं कलिंदनदिनी सदा" कहकर महर्षि वेद व्यास के कृष्ण गंगा आश्रम पर विराजमान कलिंदी माता जी तथा दूसरे में जय यमुने जय भीति निवारिणि शंकट नाशिनि पावय माम्" कहकर मधुवन चारिणि भास्कर वाहिनि अर्थात् सूर्य सेन पुरी मथुरा के सूर्य सांव तीर्थ से मधुवन में बहने वाली एतिहासिक यमुना धारा की वन्दनात्मक सूचना दी है । इन स्तोत्रों में श्री महाराज ने 'तटाँतवास दास हँस ता" "ब्रजपुरवासि जनार्जित पातक हारिणि तथा तव पद पंकज आश्रित मानव कहकर यमुना पुत्र माथुरों की ओर संकेत किया है । इसी महान परम्परा के द्वारिका पीठ के श्री शंकराचार्य स्वामी वर्य ने यहाँ माथुरों पर होता आक्षेप सुनकर एक अति महत्वपूर्ण धर्म व्यवस्था माथुरों को स्नेहाई होकर प्रदान की जो इस प्रकार हैं- <br />
<br />
श्री शारदा पीठ द्वारिका के पीठाधीश्वर जगद् गुरू श्री शंकराचार्य स्वामी द्वारा घोषित<br />
<br />
<poem>उपलब्ध कर्ता- बालमुकुन्द चतुर्वेदी विद्या वारिधे ।<br />
भाषान्तरकार- साहित्याचार्य रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी ।<br />
</poem><br />
श्री मथुरापुरी के रहने वाले श्री माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण चौवे नामधारी जाति के विषय में इधर कुछ शंकायें हो रही हैं, उनके विषय में यथार्थ निर्णय करने के लिये-श्री वासुदेव जी महाराज तथा श्री रज्जुदेव जी महाराज एवं अन्य भी समागत चतुर्वेदियों के आग्रह को स्वीकार करके श्री द्वारिका पीठस्थ श्री जगद्गुरू शंशकराचार्य महाराज ने मथुरा पुरी में विक्रम संवत 1951 के पौप कृष्ण 13 चंडवार को यह धर्म निर्णय घोषणा आलेखित की है पेस का आशय इस प्रकार है-</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_13&diff=56302चतुर्वेदी इतिहास 132010-04-23T12:39:55Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==धौम्य गोत्र के आस्पद(अल्लैं)==<br />
<br />
1. लायसे- ये आश्वलायन ऋषि के वंशज 2986 वि0पू0 हैं । ऋग्वेद की आश्वलायन शाखा के कुछ लोग मध्य प्रदेश के रायसेन तथा सबलानों स्थानों में जाकर रहे थे । आश्वलायन जन्मेजय के नागसत्र में सदस्य थे ।<br />
<br />
2. भरतवार- ये भरद्वाज के पिता भरत चक्रवर्ती के आश्रय प्राप्त 4882 वि0पू0 सम्मानित सभासद थे । इनने भारत वर्ष देश के अन्तर्गत अपना भरत खंड राज्य स्थापित किया था ।<br />
<br />
3. घरवारी- ये गार्हपत्य नामक अग्नि कुल के देव पुरूष थे । वेद में इन्हें"अग्निर्गृपतिर्युवा" कहा है । ऋग्वेद के अनुसार ये सहस्त्रशीर्ष विराज पुरूष के पुत्र थे । वैसांधर अल्ल के माथुर वैश्वानर अग्नि वंशी भी इसी शाखा में थे । वैश्वानर अग्नि ने सरस्वतीतट मथुरा से पुष्कर राजस्थान तक तथा पांचाल देश पीलीभीत व बरैली अल्मौड़ा नैनीताल तक की भूमि में फैले गहन वनों को जलाकर पवित्र देश पांचाल मत्स्य सूरसेन जनपदों के स्वायंभू मनु के प्रदेश ब्रह्मर्षि देश(9200 वि0पू0)<br />
को प्रकट किया । गृहपति अग्नि ने पुरूरवा के यज्ञ में मंथु अग्नि पुरगटकर किभाबसु अग्नि प्रगटर की ओर उसके तीन भाग करके (आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षियाणाड्नि) तीनों के तीन यज्ञ कुण्डों में स्थापित कर यज्ञ कराया था । 'तस्य निर्मथाज्जातो जातवेदा विभावसु' । इस यज्ञ से 6241 वि0पू0 में प्रतिष्ठान पुर ब्रज के पैठा स्थान में पुत्रेष्टियाग के फलरूप आयु नहुष ययाति पुत्र चन्द्र वन्श की वृद्धि कर्त्ता उत्पत्र हुए थे । विराट प्रजापति (दीर्घविष्णु) 7 के पुत्र थे जो आदि मानव प्रजा के पितर कहे गये हैं । इनमें चार वेद ज्ञाता चतुर्वेद तथा पत्निगृह (पाकशाला) में प्रयुक्त गार्हपत्य अग्नि कर्म के प्राशिक्षक गार्हपत्य अग्नि (9200 वि.पू.) घरवारी प्रधान थे । ये 7 आध पित-1. अग्निष्वात 2. सोमप (वर्हिषद) 3. बैराज 4. गार्हपत्य, 5. चतुर्वेथ, 6. एक श्रंग, 7कुल के नाम के थे । मत्स्य के अनुसार ये सभी महायोगी थे । योग भंग होने पर पृथ्वी पर जन्मे । श्रेष्ठ ब्रह्मवादी होने और पूर्वजन्म के ज्ञान से ये योगाभ्यास में मग्न रहकर प्रजाओं का कल्याण करते थे । इनकी मानसी कन्या मैनां (मैनांगढ़ टीला मथुरा) में उत्पत्र हुई थी जिसके वन्शधर मैनां या मीणां जाति के लोग यहाँ रहते थे जो प्रजा विस्तार होने पर मैनाक पर्वत तथा समस्त राजस्थान और ब्रज क्षेत्र में फैल गये । मैनका अप्सरायें इसी वंश में थी । मैना ब्रज के हिमवन्त मेवात के पर्वतीय राजा हिमवन्त को ब्याही थी और उससे हेमवती पार्वती उमां गौरी आदि अनेक नामों वाली पुत्री हुई जो सतीदहन के बाद तप करके भगवान शिव की पत्नी बनी और उससे विनायक गणेश (गणेश टीला) तथा स्कंधस्वामी (खंडवेल तीर्थ मथुरा) वासी विश्व विजयी देवता (स्कैंडेनेविया सिकन्दरिया बन्दरगाह नाम प्रदाता तथा सिकन्दर यूनानी विश्व विजयी को प्रभावशाली नामकरण प्रदाता) पुत्र हुए । ये सातौ आद्यपितर परम कृपालु परोपकारी स्नेहमय स्वभाव के तथा पितृ स्नेह से समस्त प्रजाओं का संरक्षण और संवर्धन करने के कारण ही मानव पितर माने गये ।<br />
<br />
4. तिलमने- ये यज्ञ साकल्य हेतु श्यामातिल (कालेतिल) उत्पत्र करने वाले क्षेत्र तिलपत के निवासी तिलमटे लोगों के प्रोहित होने से तिलमने कहलाये । तिलपत का गौकुला जाट बड़ी सेना लेकर औरंगजेब के समय ब्रज में हुए विद्रोह का नेतृत्व करने आया था ।<br />
दलित मत्तिल नाम के दो यक्षों के सरोवर भी कामबन में दतीला मतीला कुन्ड नाम से थे । ये दत्तिल संगीत शास्त्र ग्रन्थ का प्रमुख आचार्य था तथा उसका दत्तिलम, नाम वाला संगीत ग्रन्थ प्रसिद्ध है । तिलोत्तमा अप्सरायें अतिसुन्दर और नृत्य करने वाली इस वन्श में प्रख्यात रही हैं । इस वन्श के तैलंग जनों ने दक्षिण महाराष्ट्र में तिलंगाना प्रदेश बसाया तथा तेल निकालने की कला विस्तार किया । यमराज के नर्कों में कोल्हू यन्त्र में पापियों को पेरने या बैलों की जगह जोतने का उल्लेख पुराणों में मिलता है ।<br />
<br />
5. शुक्ल- याज्ञवल्क्य के शुक्ल यजु प्रयोगों के अनुयायी शुक्ल कहलाये । शुक्ल वस्त्रधारी 'शुक्लांवर धर विष्णु' भगवान विष्णु देवी सरस्वती, वेदमाता गायत्री- तथा इनके भक्त माथुर ब्राह्मण शुक्त प्रसिद्ध हुए ।<br />
<br />
6. व्रह्मपुरि- मथुरा में ब्रह्मलोक तीर्थ के ब्रह्मोपासक ब्रह्मसभा के सदस्य मालाधारी ब्रह्मपुर्या जिस स्थान में रहते थे वह पद्मनाम तीर्थ पद्मावती सरस्वती के तट पर था उसे अभी भी मालावारी चौवे को शिवाजी महाराज द्वारादिया गया हाथी उनके द्वार पर झूमता था जिससे इसे हाथीवारी गली कहते हैं । राव मरहठों में सरदार को तथा राजस्थान में राजा की बांदियों के पुत्र होते हैं । मानाराव को राव की पदवी शिवाजी ने ही प्रदान की तथा जियाजीराव, दौलतराव, सयाजीराव आदि रावों ने अपनी समता का राव पद देकर पचीसियों गांव भेंट कर अपना पूज्य पुरोहित बनाया था । इसी क्षेत्र में पांडे माथुरों का प्राचीन निवास है ।<br />
<br />
7. आत्मोती- आत्मा को आत्मतत्व में लीन कर उसके परम गूढ प्रकाश का अनुभव अरने और कराने वाले आत्माहुति ब्रह्मज्ञान विद्या के साधक सिद्ध पुरूष आलोवि प्रसिद्ध थे । भगवान श्री कृष्ण ने गीता में आत्म ज्ञान कहा है ।<br />
<br />
8. मौरे- ये मयूरगणों की प्रजा मार्यवन्श केप्रे हित होने से मौरे कहे गये । मौर्यवंश में ही मुरदैत्य प्रजाओं के प्राचीन आवास मोरा मयूरवन, मुरसान, मुरार, मौरैड़, मोरवी मयूरकूट पर्वत (मोरकुटी) हैं तथा मुरदैत्यों का संहार करने के कारण श्री कृष्ण को मुरारी कहा जाता है ।<br />
<br />
9. चंदपेरखी- चंद्रवंशी यादवों के मनोरंजन हेतु यादवों की रंगशाला प्रेक्षागृह का निर्माण और उसकी रंगमंचीय व्यवस्था सम्भालने वाले माथुर चन्द्रप्रेक्षी या चैदपेखी थे । माथुरी भाषा में श्रंगार युक्त नारी को पेखने की पूतरी' कहा जाता है । पाणिनि के अनुसार यादव कंस वध का अभिनय (उत्प्रेक्ष दर्शन पेखनां) बड़े उत्साह के साथ आयोजित करते थे ।<br />
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10. जोजले- देवों के यजन पूजा आराधना स्तुति पाठ कीर्तन भजन आदि प्रहलाद द्वारा प्रतिपादित नवधा भक्ति के आचार्य 'याजक' संयोजक झूंझर आक्रोश के साथ भक्ति उन्माद में आत्म विस्मृत जुझारून रूवभाव के लोग जोजले कहे जाने लगे ।<br />
<br />
11. सोती- यह बड़ी अल्ल है । श्रौत स्मार्त धर्म के उपदेशक सोती थे । श्रौतधर्म में मूलवैदिक संहिताओं के अतिरिक्त वेदांग, उपवेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, परिशिष्ट, निरूद्य, सूत्र, उपनिषद, सहितायें, इतिहास पुराण, आदि अनेक आधार हैं । सूत पुत्र सौति वन्श के जिन्हें वेदाधिकार नहीं था उन शूद्र वर्ण रथकारों को वेदातिरिक्त पुराण विद्या तथा संहितादि अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय प्रदान करते रहने को महर्षि वेद व्यास ने इन्हैं सूतों शौनकों के धर्मोपदेशक के रूप में नियुक्त किया था ।<br />
सोती प्रवासी माथरों के साथ भदावर आदि क्षेत्रों में जाकर बस गये थे ।<br />
<br />
12. सोगरे- सोगर गाँव के सोगरिया जाटों के पुरोहित सोगरे हैं ।<br />
<br />
13. चौपरे चौपरे या चौपौरिया इनके 4 घर(पौरी) मूल में एक स्थान पर स्थिति थे । एक कथन से चौपड़ का खेल जो कौरव पांडवों के समय में बहुप्रचलित था उसमें ये परम परांगत पासा डालने की मन्त्र विद्या इन्हें सिद्ध थी तथा बड़ी बड़ी राज सभाओं में द्यूत निर्णय के लिए बुलाये और सम्मानित किये जाते थे । शकुनी इनका गांधारी (अफगान) शिष्य था ।<br />
<br />
===प्रकीर्ण परवर्ती आस्पद===<br />
<br />
इनके अतिरिक्त परवर्तीकाल में माथुरों के कुछ अन्यान्द आस्पद आख्या या ख्यात समयानुसार बनते गये जिनमें से कुछ के नाम हैं –<br />
छौंका, भारवारे, तिवारे, नौसैनावासी, तखतवारे, महलवारे, नारेनाग, सकनां, होरीवारे, भरौच, चीबौड़ा, उचाड़ा, भदौरियाद्व, घाट्या, नगरावार, दक्ख, मानाराव, टोपीदास के, देवमन मंसाराम के, लाल चौवे के, गहनियाँ के, पंडिता के, भारवाले, आरतीवारे, नौघर वारे, करमफोर के, कोबीराम के, काहौ, स्वामी, मुकद्दम, चौधरी, पटवारी, निधाये के, हथरौसिया, मुरसानियाँ, करौर्या आदि ।<br />
<br />
===माथुर चतुर्वेद विरूदावली===<br />
<br />
माथुरों की वंश वैभव युक्त विरूदावली लल्लू गोपालजी द्वारा प्रस्तुत यहाँ दी जा रही है-<br />
<br />
==माथुर परिचय- ==<br />
===चौसठ अल्लैं===<br />
'''136 से 138'''<br />
<br />
====माथुर चतुर्वेदियों की माता-श्री यमुना मैया====<br />
<br />
श्री यमुना महारानी माथुरों की परम वात्सल्यमयी कुल प्रतिपालिनी मैया हैं । श्री यमुना विश्व की सबसे पुरातन प्रजा संरक्षिणी देवी हैं । आसुरी सर्ग युग् 12600 वि0पू0 में वे यमयमी के रूप में भाई बहिन सूर्य देव सूरसेन देश में उत्पत्र हुए, और अंतरिक्ष में बिहार करने की कामना से आकाश मंडल (आक्सस नदी, आकाश गंगा और आक्साई चीन आकाशिय उदीचीना प्रदेश) में ऊँचे पर्वतों पर वीणां बजाते हुए बिहार करने को चले गये । वहां यमी ने आसुरी धर्म से प्रभावित होकर अपने भाई की धर्म नीति की परीक्षा हेतु उससे संयोग की याचना की जिसे यमदेव ने द्दठता से ठुकराकर चरित्र श्रेष्ठता का परिचय दिया । इत पवित्र आचरण से नतमस्त होकर असुरों ने उन्हैं जमशेद (यम सिद्ध), जमरूद (यमरूद्र), जुम्मा, जुमेरात जमालू, जमाउल अव्वल, आदि रूपों में पूजित माना । मार्कण्डेय आश्रम (मक्का) में अश्वत्थ लिंग (संग असवद) के मन्दिर में इनका यमुना यम सरोवर आवेजमजम के नाम से पवित्र माना जाता है ।<br />
9370 वि.पू. में ब्रह्मदेव की मानसी सृष्टि में ये पुन: कश्यपवंश में माता अदिति के गर्भ से उत्पत्र द्वादश सूर्यों में ज्येष्ठ आदित्य विवस्वान देव के यहाँ संज्ञा माता के गर्भ से मथुरा देव पुरी के प्राजापत्यययाग प्रयाग तीर्थ में अवतरित हुए । यहाँ दिवाकर देव ने पुत्र यमराज को दक्षिण दिशा में यमलोक बसाकर पापी जनों को दण्ड देकर धर्म और सदाचार की मर्यादा बनाये रखने का धर्मराज पद पितामह ब्रह्मा से दिलाया, और सूरसेन (सूर्य सेनाओं का देश) देवलोक का अनुग्रह युक्त शानक अपनी प्रिय पुत्री यमुना को प्रदान किया ।<br />
आनी बहिन तपती देवी के शाप से जलधारा नदी रूप बनी श्री यमुना भागीरथी गंगा से बहुत युगों प्राचीन हैं । श्रीयमुना की उत्पत्ति 9,320 वि0पू0 है और प्रभु बारादेव ने बसुन्धरा देवी से श्री यमुना का महात्म कहा है । भक्त प्रहलाद ने भी 9254 वि0पू0 में अपनी तीर्थ यात्रा में यमुना तट के तीर्थों की यात्रा की है ।<br />
<br />
माथुरों के यमुना पुत्र होने का चरित्र ब्रज रहस्य महोदधि श्री उद्ववाचार्य देव जू ने अपने ब्रज यात्रा ग्रन्थ में कथन किया है जो माथुरों के लिए प्रमाणप है-<br />
<br />
<poem>एकदा ब्रह्म सदने कश्यपस्य कृतेऽच्वरे ।<br />
समेता सुप्रजा सर्वा कश्यपस्यच औरसा ।।1।।<br />
भक्तिनम्रा धावयन्ता: कर्मान् सम्पादयन्ति ते ।<br />
तान्द्दष्ट्वा भानुतनया मनोभवं मनोदधे ।।2।।<br />
एमाद्दषी प्रजा धन्या मद्गृहेपि भवेदिति ।<br />
तानहं पालयिष्यामि बात्सल्य रस निर्भरा: ।।3।।<br />
पुत्रेष्वेव गृहं धन्यं शोभाढ़यं गृहमेधिनाम् ।<br />
पुत्रका यत्र क्रीडन्ति तदेव सुकृतं गृहम् ।।4।।</poem><br />
<br />
एक दिवस शुभ मुहूर्त में ब्रह्मलोक तीर्थ मथुरा में कश्यप महर्षि के आयोजित महासत्र में समस्त देव प्रजा और कश्यप वंशज ब्राह्मण सम्मिलित हुए । ये महर्षि गण अपने पुत्र पौत्रों और पत्नियों पिरवारों सहित भक्ति से विनम्र होकर दौड़ दौड़कर यज्ञ कार्यों को बड़े उत्साह से सम्पादन कर रहे थे इन्हैं इस आनन्दमय रूप से देखकर सूर्य पुत्री श्री यमुना महारानी जी ने अपने मन में यह भावना स्थापित की- इस प्रकार की सुन्दर ह्दय को आकर्षित करने वाली प्रजा धन्य है तथा ऐसी प्रजा मेरे भवन में भी स्थापित होनी चाहिए । मैं उनका सनेह मय अन्त: करण से लालन पालन करूँगी और सदा वात्सल्य रस में आनन्द निमग्न रहूँगी ।<br />
<br />
<poem>आहूता बालका सर्वे सप्तर्षि कुल संभवा: ।<br />
माथुरान् गृह्म उत्संगे पयपानं मुद्रा ददु: ।।5।।<br />
स्नेह निर्झरितं वक्षं तानलिंग्य त्वरान्विता ।<br />
मुहुर्महु मुखं द्दष्ट्वा परमानन्द प्राप्नुयु: ।।6।।<br />
एतानि विप्र जातानि अग्निवंश समुद्भवान् ।<br />
विद्या विनय सम्पत्रान् सदाचार समन्वितान् ।।7।।<br />
माथुरेस्मिन्पुण्यक्षेत्रे पुत्रत्वेन व्रतानि मे ।<br />
अद्यत: मम पुत्रावै लोके ख्याति लभंतिहि ।।8।।<br />
दत्वा बहुगुणं प्रीतिं हैरण्यं भवनानि च ।<br />
स्वगेहे स्थापिता: सर्वे माथुरा मुनि पुंगवा ।।9।।<br />
कदाचिदपि मद्धामं न त्यजेयु: मुनीश्वरा: ।<br />
ममाश्रये द्दढी भूत्वा दुर्गमान् संतरिष्यत: ।।10।।<br />
</poem><br />
तब माताजी ने हेला देकर सपत ऋषियों के दल को बुलाया एवं उन माथुर मुनि बालकों को गोद में उठाकर उन्हैं स्नेह से झरते हुए अपने स्तनों का पयपान कराया ।।5।। प्रेम से झरते हुए वक्ष स्थल से उन्हैं अति आतुर होकर अलिंगन किया तथा उनके मुख बारम्बार निहारकार परम आनन्द का अनुभव किया ।।6।। माता ने कहा- ये श्रेष्ठ ब्राह्मणों के कुल अग्निवंश में उत्पत्र हैं तथा विद्या विनय और सदाचार से युक्त हैं ।।7।। इस परम पुण्यमय मथुरा क्षेत्र में मैंने इन्हैं पुत्र पद पर वरण किया है अत: आज से लोग में मेरे पुत्र अर्थात् यमुना पुत्र नाम की ख्याति प्राप्त करेंगे ।।8।। इतना महान पद देकर माता ने उन माथुर पुत्रों को बहुत श्रेष्ठ अपना अपार प्यार बहुत सा सोना और अनेक उत्तम देवोपम भवन दिए और उन माथुर मुनि पुगवों के पुत्रों को अपने निज भवन में स्थापित किया ।।9।। उनसे कहा – हे पुत्रो कभी भी कैसे घोर संकट में भी मेरे इस धाम को त्याग मत करना यहाँ रहकर मेरे आश्रय की दृढ़ता को गृहण किए हुए तुम सब दुर्गम संकटों से निश्चय पूर्वक पार हो जाओगे ।।10।। माता ने अपने पुत्रों को यह उदार बर दिया और इसे पाकर महर्षि अंगिरा ने वेदोक्त 'श्री यमुना सूक्त' का सरस्वर भक्ति और स्नेह के साथ गान किया जिसे सुनकर माता ने अपार हर्ष का अनुभव किया । यह अति दुर्लभ सद्य फल प्रद कृपा का सहज साधन सूक्त महर्षि अंगिरा ने 9300 वि.पू. में जगज्जनिनी मातु श्री के चरणों में बैठकर सिद्ध किया तथा श्रीमद् उद्धवाचार्य देववर्य इसको धारण कर परम सिद्ध पुरूष बन गये । इसके द्वारा यमुना उपासना भक्त प्रहलाद, प्रभु वामन देव, हिरण्यकशि पुदैत्यराज, स्वायंभूमनु देव, अंवरीष राजा, शत्रुघ्न, यपरशुराम मुनीन्द्र, वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, दक्ष, उशनाभृंगु, पुरन्दर इन्द्र, वायुदेव ने की तथा महर्षि वेद व्यास के काल में इसकी उपासना से चन्द्रवन्शी यादवों पौरवों आनवों ने विशेषकर नहुष ययाति, यदु, बसुदेव, श्री कृष्ण बलराम, महर्षि वेद व्यास ने माता कालिदी की आराधना करके वेद विभाजन, 18 पुराण प्रतिपादन, महाभारत, श्रीमद् भागवत ब्रह्मसूत्र आदि अनेकानेक शास्त्रों की रचना की । यह सर्वप्राचीन, वेदसत्रिहित, सर्व सिद्धित्रद माथुरों का मातृस्तवन सूक्त है जो यहाँ दिया जा रहा है-<br />
<br />
<poem><br />
हरि: ओउम्- आदित्यासो जायमानां सहस्त्रभारस्वद्रोचिषम् ।<br />
श्यामारूणां वैवस्वतिं श्री यमुनां भजमाहे ।।1।।<br />
संज्ञात्मजां यमस्वसां विश्रयन्ति भृमृतावृधे ।<br />
देवयन्तिं देवगणानाम् वरदां संवृणीमहे ।।2।।<br />
आवाह्मामि श्रीयमुने कालिंदी संशितवृते ।<br />
एह्मेहि विरजे सत्ये राष्ट्र मे शर्म यच्छताम् ।।3।।<br />
कूर्मासनां मणिपृष्ठां वेणु पद्मां भुजद्वयाम् ।<br />
केयूर मेखलांन्वितां महामणि किरीटिनीम् ।।4।।<br />
संमे सन्तु सिद्धि दात्रिं श्री मधुपुर्याधीश्वरिम् ।<br />
धान्यं धनं प्रजां राज्यं विभवं देहि मे जयम् ।।5।।<br />
वर्धयन्तिं महैश्वर्य प्रियं नो अस्तु मातर: ।<br />
नित्यं संसेवनं धेहि पादार्चनं गृणीमहे ।।6।।<br />
वरेण्यां ब्रजाधिष्ठात्रिं वासल्यां सुप्रसादिनीं ।<br />
संरक्षिणी प्रवर्धिनी अकानुकूल्यं बावृधस्व ।।7।।<br />
वैराज धारिणीं विरजां गभस्ति कोटि मास्वतिम् ।<br />
सौरसेनिं गोष्ठ शतिं सोमं क्रतुमयच्छतु ।।8।।<br />
मधु कैट दिनं निघ्नां कौमारीं संपयस्त्रविम् ।<br />
तां माधवीं उपव्हये आर्विभव हिरण्ययी ।।9।।<br />
कालिंदी सरस्वतीत यमुना तिस्त्रो पदेशु भ्राजिता: ।<br />
अरंकृर्ति मधुमर्ति सौर्या गव्यं गृणीमसि: ।।10।।<br />
आयाहि शर्म यच्छति प्रथमं विश्व सृजे ।<br />
अर्यन्त प्रार्चन्त देवा: साँजलि र्नतकन्धरा: ।।11।।<br />
जिधांसति यमकौर्य शरण्यं ईरयति शर्मम् ।<br />
मूर्त्या मांगल्यमये संसीदस्व कुले मम ।।12।।<br />
तपस्विनीं स्वयं सिद्धां वरेण्यां भर्ग भास्करिम् ।<br />
संगोप्त्रि अक्षयनिधिं गोपशी स्वस्तिरस्तुन: ।।13।।<br />
उपैतु मां महाराज्ञी कीर्ति प्रज्ञां स्थैर्य सह ।<br />
अभिरक्षतु मां नित्यं कालिन्दी माथुरेश्वरी ।।14।।<br />
संकृणुध्वं पदानुगं आत्मानं भर्ग आभर ।<br />
नित्योत्सवा वैजयन्ति अनन्या भीति शन्तमे ।।15।।<br />
यज्ञेश्वरी मन्त्रेश्वरी भक्तानुग्रह तत्परा: ।<br />
कौवेरं निधिं साम्राज्यं महैश्वर्य दधातु मे ।।16।।<br />
तुरीयस्था योग प्रभा सहस्त्रदल मीरिता: ।<br />
आत्मतत्वा परतत्वा महाविद्या पात्वंहस ।।17।।<br />
गोवर्धनं वर्धयन्तिं गवि गोष्ठान्यकरन्महत् ।<br />
मनश्चिन्तां जिघन्वतिं अभिष्टय: सम्प्रमोषि: ।।18।।<br />
त्रिसप्त धामं त्रिदिवं त्रयो त्रिशदभ्यर्चितम् ।<br />
यक्षस्वधामं द्युमन्तं ध्रुवस्यांगिरसस्यहि ।।19।।<br />
प्रहल्लादो उरूक्रमणों हिरप्यकशिपु बलिं: ।<br />
स्वायंभुवश्चांवरीषो अरिघ्नो भार्गवोत्तम: ।।20।।<br />
वशिष्ठो कश्यपश्चात्रि: दक्षो औशनसो भृगु: ।<br />
पुरन्दरस्य वायोश्च विधेहि से महत्पदम् ।।21।।<br />
ब्रह्मविद्या राजविद्या ब्रह्मपारगा: छान्दोगा: ।<br />
सहस्त्रदल संस्थिता: दधातु मेऽजरा मरम् ।।22।।<br />
नारायणीं महत्पदां नमोमि पुत्र वत्सलाम् ।<br />
संवर्धयति सौभाग्यं शं मे सन्तु सुवर्चसा: ।।23।।<br />
यज्ञेश्वरी विस्फुलिंगा आयाहि जातवेदसे ।<br />
प्रियगंधा: प्रियरसा: धियंनो धार्यतां ध्रुवम् ।।24।।<br />
</poem><br />
<br />
व्यासोवाच-चतुविंशतिकं सूक्तं श्री यमुनाया: प्रमीरितम् ।<br />
<br />
<poem><br />
जय कामो यशस्कामो श्रेयस्कामो विधारयेत् ।।1।।<br />
शुचिर्भूत्वा ऽनन्यामना जुहुयाच्च साज्यं मधुम् ।<br />
सर्वान्कामान वाप्नोति पदं वैश्रवणोपमम् ।।2।।<br />
यावल्लीलां न पश्येत तावच्छेवा व्रतं चरेत् ।<br />
प्रणतिं दर्शनं जाप्यं सर्व सिद्धि करं मतम् ।।3।।<br />
जयं राज्यं धनं धान्यं आरोग्यं सुप्रजां सुखम् ।<br />
सर्वाधिपत्यं यशसं संसिद्धि जयते ध्रुवम् ।।4।।<br />
दर्शयोद् विग्रहं पुण्यं कैंकर्यत्वं समाचरेत् ।<br />
गुरा: सेवा समायुक्तो सर्व सिद्धि प्रजायते ।।5।।<br />
इत्यंगिरा प्रकथितं श्री यमुना सूक्त मुत्तमम् ।<br />
भक्तिं मुक्तिं रसोद्भांव लीला प्रत्यक्ष कारकम् ।।6।।<br />
आरार्धितं चन्द्रवंशेन नहुषेन ययातिना ।<br />
यदोश्च श्रीकृष्णश्च बलरामेण धारितम् ।।7।।<br />
वेदव्यासमिदं जप्त्वा ध्यात्वा श्री रविरात्मजाम् ।<br />
कृतवानसर्व शास्त्राणि वेदांश्चापि प्रयणदिता ।।8।।<br />
तस्मात्सर्व प्रयत्नेन गोपयेत्परमं धनम् ।<br />
अस्याराधनया वत्स सर्व सिद्धि प्रजायते ।।9।।<br />
हरि:ओऽम् तत्सत् नमोनम: ।<br />
</poem><br />
<br />
महर्षि अंगिरा द्वारा सम्पूर्ण माथुर मुनि पुत्रों के साथ गान किये इस सूक्त से माता श्री यमुना अति आनंदित हुई । उन्होंने पुन: कहा- <br />
<br />
<poem>यो यूयं मम पुत्रान्वै अर्चयिष्यन्ति श्रद्या ।<br />
तेन मे परमातुष्टि भवेदिति न संशय: ।।11।।<br />
माथुरा मम रूपाहि माथुरा मम वल्लभा ।<br />
माथुरे परि तुष्टे वै तुष्टोऽहं नात्र संशय ।।22।।<br />
</poem><br />
हे प्रिय पुत्रो ! जो धर्म निष्ठ प्राणी उदार विनय युक्त मन से मेरे तुम पुत्रों माथुरों की अर्चना करेगा तुम्हें सन्तुष्ट करेगा उससे मैं परम सन्तुष्टि प्राप्त करूँगी इसमें सन्देह नहीं है ।।11।। <br /><br />
माथुर मेरे ही रूप हैं, माथुर मुझे प्राणों से ज्यादा प्यारे हैं, माथुर के सन्तुष्ट होने से मैं आप स्वयं आनन्द के साथ सन्तुष्ट होती हूँ यह निश्चित अटल सत्य है ।।22।।<br /><br />
इस सन्दर्भ में श्री उद्धाचार्य देवजू के सुपुत्र श्री भगवान मिहारी के कुछ सुन्दर छन्द भी प्राप्त हैं-<br />
<br />
कवित्त- <br />
<br />
<poem>चाह करी मन में रविनं दिनी ।<br />
सप्त ऋषीन के बालकटेरे ।<br />
पुत्र बिना घर सून्यों अमंगल,<br />
वाल विनोद आनन्द घनेरे ।।<br />
'भगवन्त जू' याविधि पायि सनेह,<br />
कहै सब जै जै महासुख हेरे ।।<br />
माथुर बाल लगाये हियेते,<br />
सो आजु ते पूत भये तुम मेरे ।।1।।<br />
मो मथुरा करियो सदा बास,<br />
औ कीजो सदां पयपान सुखारी ।<br />
उत्तम भोजन कंचन वैभव, <br />
पाऔ सदा मुद मंगलकारी ।।<br />
भगवंतजू पूजियो मोहि सनेह सौ,<br />
जो नहीं पूजै सो होई भिखारी<br />
पूत सपूत बने रहोगे तो मैं-<br />
रच्छा करौं सब काल तिहारी ।2।</poem><br />
<br />
यमूना पूत्र कर्त्तव्य<br />
<br />
<poem>द्वारपै नाम जो मेरौ लिखै, घर भीतर सेवा मेरी पघरावै ।<br />
मन्त्र जपै नित, ध्यान धरै, सिर सादर नायि मेरे गुन गावै ।।<br />
भगवंत प्रसादी बिना नहीं भोजन, पर्थ पै उच्छव हर्ख मनावै ।<br />
या मति मेरौ आधार गहैं रहैं, एसौ सपूत मेरे मन भावै ।।3।।</poem><br />
<br />
कृपा प्रभाव प्रत्यक्ष<br />
<br />
<poem>राजा नवै, महाराजा गहै पद, मातु कृपा कौ प्रतापु है भारी ।<br />
संत महंत आचार्ज घनाधिप, आसन दैंई दै मान अपारौ ।।<br />
'भगवंत' ज वैभव ठाठ लगे रहैं, भाव अभाव न हो दुखारी ।<br />
एसी उदार अपार कृपा, रविनंदनि की महिमां कछु न्यारी ।।</poem><br />
<br />
माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की परम स्नेहमयी इन मातु श्री का स्तवन प्राय: प्रत्येक संप्रदाय के आचार्य ने किया है । अपने आराधित इष्ट देव की सिद्धि का साक्षात्कार बिना श्री यमुना मैया की कृपा के होना असंभव मानकर श्री आद्यशंकराचार्य ने श्री यमुना स्तबन-"जययमुने जय भीतिनिवारिणि संकट नाशिनि पाबय माम्", श्री कालिन्दी माता का स्तबन-" धुनोतु मे मनोमलं कलिंदनंदिनी सदा" किया है श्री गर्गाचार्य मुनि की गर्ग संहिता माधुर्य खंड में महर्षि सौमरि का राजा मांधाता को उपदिष्ट श्री यमुना पंचांग(यमुना स्तोत्र, कवच, पटल, अर्चन, सहस्त्रनाम) श्री प्रभु उद्धवाचार्यदेव का यमुना शरणागति स्तोत्र, श्रीमद् बल्लभाचार्य का यमुना अष्टक, श्री गो0 विद्वल नाथजी, श्री हरिराय जी, हरिबल्लभ, माधव, हरिदास, रमेश भट्ट गोकुलेश आदि वैष्णव भक्तों के स्तोत्र, श्री हित हरिवंश (राधा बल्लभी आचार्य) श्री रूप (सनातन) गौड़ीय आचार्य, सम्राट दीक्षित पंडितराज, कविवर ग्वाल, कविवर श्री मुदित मुकुन्द की यमुना लहरी आदि प्रभूत साहित्य हैं, जिसे वेदपाठी श्री बिहारीलाल जी की यमुना पूजन पद्धति में देखा जा सकता हैं ।<br />
<br />
श्री मथुरा पुरी में महर्षि अंगिरा द्वारा आराधित श्री यमुना मैया की यह पुरातन देव विग्रह प्रतिमा अनंदमयी मुद्रा में वैदिक सूत्र के अनुसार- "कूर्मासनां मणि पृष्ठां वेणु पद्मां भुज द्वयाम्" छवि को धारण किये हुए यमुना तट पर अपने निजधाम श्री यमुना निकुंज देवस्थान सूर्य गोलपुर (गोल पारा) प्रयाग घाट पर विराजमान हैं । यह माथुरों की परम पूज्य मैया और श्री सिद्धि स्वरूपा हैं । आश्चर्य है कि माथुर मुनीश अपनी परमाराधनीय इस माता की सेवा आराधना करने में निपट उदासीन तणा बहिर्मुख हैं । यहीं श्री उद्धवाचार्य देवजू का प्राचीन ब्रजयात्रा ग्रंथ उनकी छवि जी तथा पादुका जी विराजमान हैं जो सेवा करने पर कृपा सिद्धि प्रदायक हैं ।<br />
<br />
===वृम्हरात्रि का अधर्म वृद्धि युग===<br />
<br />
3000 वि.पू. के बाद कलियुग ने अपना पैर जमाया । महाभारत के पश्चात मगध का राजवंश चक्रवर्ती सम्राट बना परिक्षित को कलिप्रेरित प्रयास से ब्राह्मण शाप द्वारा तक्षक नाग ने समाप्त कर दिया । यादव स्वयं ही कलह की अग्नि में कूद गये । द्वारिका की जल प्रलय ने दूर दूर तक समुद्र तटवर्ती देशों को ध्वस्त किया । जनमेजय को नागों की शक्ति के सामने पराभव देखना पड़ा । वैशम्पायन और याज्ञवल्क्य की कलह में यजुर्वेद के कारे गोरे दो टुकड़े हो गये । जरासंध ने मथुरा शूरसेन देश पर 17 आक्रमण किये जिनमें 41 राज्यों के सत्ताधारी सहायक थे । इधर श्री कृष्ण बलराम के साथ मात्र केवल 18 यादव नरेश ही थे । बड़ी सेना के दबाव से वे 32 वर्ष की आयु में अंधक वृष्णि संघ के साथ सुदूर पश्चिम के जल दुर्ग द्वारिका में चले गये ।<br />
<br />
जरासंध यादवों का शत्रु था । द्रोपदी स्वयंवर में बृहद्रथ में धनुष उठाते समय घुटने फूट जाने पर उसका पलायन और श्री कृष्ण के समर्थन से अर्जुन का द्रोपदी से विवाह, महर्षि धौम्य की पांडव पौरोहित्य प्रतिष्ठा, कंस का वध और उग्रसेन का राज्यारोहण इसके उत्तेजक हेतु थे । उधर सूत मागध शौनकशूद्र प्राय माने जाते थे । इन्होंने माथुर महामुनीष महर्षि वेद व्यास की सेवा में अपने को समर्पित किया और कृपालु मुनि ने सूतों को पुराणाचार्य पद, शौनक को अथर्वा वेदाचार्य तथा मागधों को माथुरों की मैत्री के साथ गया तीर्थ का पौरोहित्य और वंदीजनों को ब्रह्ममट्ट राय भाट जागा के रूप में वंशावली संरक्षण् के कार्यों में नियुक्त किया । "माथुरों मागधश्चैव" एक मैत्री बनी और माथुरों को उस समय की अपनी उदार नीति के कारण अनेक प्रहार और अपवाद सहन करने पड़े , परिणामत: मथुरा पर अधिकार के बाद जरासँध ने मथुरा को लूटा जलाया या विनष्ट किया हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता ।<br />
<br />
जरासंध की शत्रुता यादवों से थी । उसने 86 यादव नरेश और उनकी अविवाहित राजकन्याओं को अपने कारागार में डाल रखीं थीं महाभारत के बाद योद्धाओं की शक्ति समाप्त नहीं हुई थी । मगध साम्राज्य का शौर्य और विस्तार बढ़ रहा था ।<br />
किन्तु मगध विदेशयी जातीय गांधारी (कंधारी पठान) वंश के उपरिचर बसु की सन्तान होने से वैदिक यज्ञों धर्म और देव पद्यति के प्रति निष्ठावान न थे । उनके ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज में उच्चता समानता युक्त सम्मान भी प्राप्त न था फिर भी उन्होंने 3233 से 2011 वि0पू0 तक 1222 बर्ष भारत पर अपना एक छत्र राज्य जमाये रक्खा । इसी अवधि में 1800 वि0 पू0 में ब्रह्म दिवस के कलियुग का अवसान हुआ ।<br />
<br />
===व्रम्हरात्रि का द्वितिय कलयुग- शौनकसत्र===<br />
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ब्रहद्रथ वंश के राजा रिपुंजय के बाद शुनक वंशी व्यासशिष्य शौनकों का वंश शासनारूढ़ हुआ । वृहद्रथ वंश ने अपने लंबे राज्यकाल में कोई उल्लेखनीय धर्म कार्य किया हो एसा ज्ञात नहीं होता, किन्तु शुनक वंशियों ने सूतों को पुराणों के क्षेत्र में महान प्रतिष्ठा देकर नैमिषारण्य मिश्रिक आदि नव तीर्थों की स्थापना करके लंबे काल के कथा सत्र आयोजित किये । इन कथा महा सम्मेलनों में 88 हजार ऋषि महर्षि, लक्षाबधि प्रजाजन, तथा दानी मानी राजपुरूषों ने भक्ति के साथ 18 पुराणों का कथारस पान किया ं पुराणों का बहुविधि विकास विस्तार और जनसम्मान इसी युग में माथुर वेदव्यास शिष्यों के द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित हुआ । माथुर ऋषि महर्षि इन सत्रों के प्रथम कोटि के निर्देशन और सहायक थे । इन सत्रों में श्री कृष्ण की महिमा, उनके रसप्लावित चरित्र, ब्रजभूमि, मथुरा, और माथुर चतुर्वेद ब्रह्मणों की कीर्ति का महान प्रचार हुआ । 5 पीढ़ी राजकर 1873 वि0पू0 में महाराज वंशजों ब्रज औ काशी के नागों का अधिकार मगध साम्राज्य पर आया ।<br />
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भाग ब्रज की प्राचीन जाति थी । इस वंश में विंवसार(1727-1689 वि0पू0) अजात शत्रु (1627-1662 वि0पू0) उदायी डदितोदय मथुरा का राजा(1627-1594 वि0पू0), नंदिवर्धन(1594-1554 वि0पू0) तथा महामंदी कालाशोक (1554-1511 वि0पू0) आदि 10 राजा हुए । यह द्वितीय कलि (1800-600 वि0पू0) का समय इतिहास में बहुत क्रान्तिकारी समय हैं । एतिहासिक शंसोधन के अनुसार इस युग में जैन धर्म आचार्य महावीर स्वामी का जन्म 1797 वि0पू0 मेंतथा बुद्धि धर्म प्रवर्तक बुद्धदेव का जन्म 1760 वि0पू0 में हुआ ।<br />
इन दोनों मतों ने प्राचीन वैदिक धर्म को झकझोर डाला और रात्रि कलियुग का झंझावात खड़ा कर दिया । उदायी या ऊदितोदय के मथुरा पर सासनारूढ़ रहने के उल्लेख बौद्ध साहित्य में है, और उसके समय मथुरा धर्म प्रचार का प्रधान केन्द्र था तथा माथुर अपनी स्वधर्म निष्ठा पर दृढ़ तथा सम्मानित थे ।<br />
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'''महापद्म नंद वंश'''<br />
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1511 वि0पू0 में महापद्मनंद के वंश का महा साम्राज्य स्थापित हुआ । महापद्मनंद एक महान प्रतापी सम्राट था उसके राज्य में माथुरा और मथुरों के वैभव और श्रेष्ठता का महान विस्तार हुआ । सुमाल्य आदि इसके 9 पुत्रों ने मथुरा की वैभव वृद्धि में स्नेहयुक्त योगदान दिया ।<br />
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'''मौर्य वंश'''<br />
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1411 वि0पू0 में कटैलिया जाटों के पुरोहित कौटिल्य चांड़क्य की कूटनीति योजना से परम प्रतापी चंद्रगुप्तमौर्य द्वारा मौर्य वंश के साम्राज्य की नींव पड़ी । मौर्य मूलत: ब्रज के मयूर ग्राम(मोरा गाँव) के निवासी मयूर गण थे । ब्रज की तेजस्विता के फलस्वरूप वे अनेक खंडों में फैलकर स्व्च्छंद और महावलशाली बन कर मुरदैत्य तथा मूर मुराई मुरशद कहे जाने लगे । मुरसान, मुरार, मोरवी, मुरैना मोरावां आदि अनेक क्षेत्रों में इनका वंश फैंल चुका था । चंद्रगुप्त के उत्तर भारतीय साम्राज्य में मथुरा एक प्रमुख केन्द्र था, तथा इस वंश के वैभवशाली राजपुरोहित मौरे अल्ल धारी माथुरों के अनेक परिवार अभी भी मथुरा नगर में बसे हुए हैं । मौर्य काल में बौद्ध मत सारे भारत तथा विदेशों में भी खूब फैला । विंदुसार पुत्र सम्राट अशोक इस वंश का सबसे अधिक प्रतापी सम्राट था । इसने मथुरा में अनेक बौद्धस्तूप विहार और सनातन धर्म के देवालय निर्माण कराये, जिनकी वैभव संपति तथा अर्चना विधि के संचालक माथुर ब्राह्मण थे ।<br />
इस वंश के सम्राट शालिशूक (इंद्रपालित) 1300 वि.पू. के समय बौद्धधर्म बहुत विकृतियों से युक्त हो गया था । बौद्ध राजाओं का आरय पाकर बौद्धभिक्षुओं की संख्या इतनी बढ़ी कि वह भूमि का भार बन गयी ।<br />
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कुछ इतिहास ज्ञों के मत से बौद्ध भिक्षु बल पूर्वक ग्रहस्थों के घरों से भिक्षा बसूल करने लगे । वे किसान का अनाज, ग्वालों का दूध घी, कुम्हारों के वर्तन, बजाज, दर्जी, माली, तेली, नाई, वाहन, चालकों के उत्पादनों और साधनों का बिना मूल्य अपहरण करने लगे । किसान, कारीगर, मजदूर, व्ययसायी, विद्वज्जन सभी वस्त्र रंगकर बौद्ध विहारों में भिक्षु बनकर मुफ्त के माल उड़ाने लगे । राजाओं की सेना सैनिक निशस्त्र भिक्षु बनकर चैन की नींद लेते हुए शौर्य हीन हो गये । राजदंड में क्षमा और दया का प्रवेश होने से चोरी लूट व्यभिचार आदि अपराध बढ़ गये । बौद्ध भिक्षुव्यसनी विलासी और तंत्र मंत्र नग्नासनों सिद्धियों के प्रयोंक्ता बन गये । सारा देश अकर्मण्य दुर्वल, कायर, शौर्यहीन और निस्तेज हो गया । इस अवसर का लाभ उठाने को उत्तर पश्चिम के आसुर क्रूर लोग भारत की दबोच कर अपने आधीन करने के प्रयास करने लगे । देश का धर्म और सुरक्षा महान संकट में पड़ गये ।<br />
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===भगवान काल्क का प्रादुर्भाव===<br />
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ऐसे समय गीता में अपनी धर्म घोषणा के प्रतिपालनार्थ प्रभु ने भगवान काल्कि के रूप् में अवतार धारण किया । प्रभु काल्कि का आविर्भाव संमल ग्राम में विष्णुयशा पराशर बशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण के यहाँ मौर्य शालिशूक राज के राज्यकाल में 1338 वि0पू0 में हुआ । विष्णुयश को अपने गुरू याज्ञवल्क्य वंशज तपस्वी ब्राह्मण से कृपारूप् आशीर्वाद प्राप्त था । कल्कि ने सिंहल द्वीप में पद्मावती नाम की राजकन्या से विवाह किया और फिर वहाँ से देवदत्त अश्व पर सवार होकर कराल खग्ङ धारण कर वैदिक धर्म के विरोधियों के संहार की घोषणा की । प्रथम उन्होंने विन्ध्येश्वरी नंदपुत्री योगमाया भगवती की आराधना की और फिर आकर मगध देश में ही विशाल धर्म सेना तैयार कर विधर्मियों का दमन आरंभ किया । इस समय बुद्ध धर्म को 450 वर्ष तथा उसके 25 बुद्ध हो चुके थे ।<br />
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देश में नास्तिक अधर्मवादी संप्रदायों का जोर था । इनमें चावकि निरीश्वरवादी, अजितकेशी, उच्छेवादी, गोशालमंखली, आजोवकी, गोष्ठा माहिल, अनीश्वरवादी, पक्थ काच्चायन अशाश्वत वादी, पूरण काश्यप, सांजय वेल्हीपुत्र विक्षेप वादी आडार कालम अकिर्चिन्नायन बाद (संसार में कहीं कुछ नहीं है), आम्रपालिगणिका उपलि नापित का जात पांत निर्मूलन प्रयास, आदि प्रमुख थे । ये दान धर्म यज्ञ पाप पुण्य स्वर्ग नर्क कुछ नहीं हैं, हत्या चोरी व्यभिचार से पाप नहीं लगता तथा तीर्थ दान पूजा से पुण्य नहीं होता ऐसा घर घर प्रचार करते थे । जैनों के 363 पंथ तथा बौद्धों के अनगिनती थे । मगध, लिच्छवी, शाल्व, बुलि, कोल्लिय, मत्म्त्मे, कौशल आदि अनेकों राजा इन संघों के भक्त थे ।<br />
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प्रभु काल्कि ने इन सबका प्रतारण किया । अधिक रक्त पात न करके उन्होंने यज्ञों द्वारा प्रजा को आकर्षित करके और सेना भय से नरेशों को कुमार्ग से विरत करके सारे देश में शाश्वत वैदिक श्रौत स्मार्त पौराणिक धर्म की ध्वजा समग्र भारत वर्ष में फरहादी । लोग लाखों की संख्या में भगवान काल्कि के दर्शनों, यज्ञ महोत्सवों और अपने प्राचीन धर्म को पुन: अंगीकर करने की आने लगे । कहीं कहीं कुछ गर्वित नरेशों ने युद्ध भी किया परन्तु वे पूर्णत: ध्वस्त हुए । फिर उन्होंने सीमा पर आक्रमण की तैयारी करते हुए यवन म्लेच्छ खश, काम्बोज, शवर, बर्वर, भूतवासी सारमेयी, काक, उलूक, चीन, पुर्लिद, श्वपच पिशाच, मल्लार देशों को विजय कर उन्हें धर्मानुकूल बनाया ।<br />
इस धर्म विजय के पश्चात अयोध्या तथा फिर "मथुरा मागमन्मही" 'तस्या, भूपंसूर्यकेतु' मभिषिच्य महाप्रभु' वे मथुरा पधारे यहाँ विशाल यज्ञ आयोजित किया प्रधान ब्राह्मण माथुरों की अर्चना की तया समस्त जीती हुई भूमि ब्राह्मणों को दान करके देदी । माथुरा के बाद गाँव में इस यज्ञ का आयोजन करके प्रभु काल्कि ने मथुरों को वेदवाद प्रचार के लिये संयोजित किया । इस प्रकार अपना अवतार कार्य परिपूर्ण करके वे 1296 वि0पू0 में हिमालय में प्रवेश करके स्वधाम को प्रयाण कर गये ।<br />
भगवान काल्कि का स्नेह माथुर ब्राह्मणों पर विशेष रूप से था पिंडारक तीर्थ पर जब माथुर महर्षि गण अत्नि वशिष्ठ मृगु पराशर दुर्वासा अंगिरा उनके समीप पहुँचे तो उन्होंने कहा – <br />
मथुरायामहं स्थित्वा हरिष्यामितु वो भयम् ।।26।।<br />
युवां शस्त्रास्त्र कुशलौ सेनागण परिच्छदौ ।<br />
भूत्वा महारथौ लोके मया सह चरिष्यथ: ।।28।।<br />
भगवान कल्कि का चरित्र दिव्य महान और विस्तार युक्त है । कल्कि पुराण में इसका पूर्ण वर्णन हुआ है । यह पुराण भारत धर्म महामंडल काशी द्वारा 1962 वि0 में निगमागम पुस्तक भंडार बांस का फाटक बाराणसी से प्रकाशित हुआ है तथा बैंकटेश्वर प्रेस बंबई एवं खेमराज श्री कृष्णदास बंबई से भी इसके प्रकाशन हुए हैं । अमरीका की पेन्सिलवेनियाँ विश्वविद्यालय तथा ब्रुकलिन कालेज न्यूया्रक में कल्कि अवतार पर शोधकार्य हुआ है पुराणों में स्कंद पुराण माहेश्वर कल्प के कुमारिकाखंड में तथा महाभारत के बन पर्व 188 तथा 190,191 में भी इस अवतार का कथन है फिर न जाने किस कारण से विद्वद्वर्ग ने ऐसे महान अवतार को अंथकार के गर्त में डाल रक्खा है ।<br />
जगद्गुरू श्री शंकराचार्य और कुमारिल स्वामी<br />
600 वि0पू0 से 1800 विक्रम संवत तक ब्रह्मरात्रि का द्वापर युग प्रवर्तित हुआ । इस काल में आंध्रमृत्यु, वाकाटक, सात वाहन, भारशिवनाग, गुप्तवंश, चालुक्य, पल्लव, पांड्य चोल, बल्लभी, मौखरी आदि अनेक वंश उठे और गिरे/हूणों के आक्रमण का ताँता लगा । युग धर्म के अनुसार जो पांखंड मत काल्कि विजय में भेष बदल कर लुप्त हो गये वे पुन: सिर उठाने लगे । अत: धर्मवीज के अंकुर की रक्षा के लिए भगवद अन्श से और दो महापुरूषों ने जन्म धारण किया । इनमें प्रथम श्री कुमारिलभट्ट स्वामी थे जो श्री शंकराचार्य से 57 वर्ष बड़े थे । श्री पी0 एन0 ओक की शोध के अनुसार इनका जन्म लगभग 509 वि0पू0 का है । इन्होंने 97 वर्ष आयु प्राप्त करके आसेतु हिमालय वेदमार्ग की घ्वजा फहरा कर बौद्धों तथा अन्य बचे खुचे पाखन्ड मतों को उन्मूजन किया । श्री शंकराचार्य के बौद्ध मत खन्डन पत्रक में इनका विशेष उल्लेख है । इन्होंने कार्तकिेय स्वामी का अवतार होने से स्वामी पद धारण किया था । मगध विहार के नालंदा विश्व विद्यालय में जबसे बौद्ध आचार्य से न्याय दर्शन पढ़ रहे थे तब गुरू के चरण दबाते समय वेद निन्दा सुनकर अनके नेत्रों से आँसू टपक कर आचार्य के चरणों में गिरे । यह देख बौद्धों ने यह तो वेद वादी है । वे उन्हैं धनवाद के राजा सुघन्वा के सामने ले गये और वहाँ उन्हैं ताड़ना देकर ऊँचे पर्वत से गिराया गया किन्तू वेद सत्य है तो मेरी रक्षा होगी' एसे निश्चय से इनकी रक्षा हुई । तब इन्होंने समस्त भारत वर्ष में वेद धर्म के प्रचार की प्रतिज्ञा ली । मथुरा के वेदपाठी चतुर्वेदी माथुर ब्राम्हाणों के महत्व को अनुभव कर उन्होंने अपना वेद धर्म आन्दोलन यहीं से श्रीगणेश किया । उन्होंने वेदपाठी चतुर्वेदी ब्राह्मणों का एक वेद प्रचार वर्ग बनाया और उसका केन्द्र जिस स्थान पर रक्खा वह वेदवाद तीर्थ बाद गाँव नाम से अभी भी मथुरा में है तथा इस समूह के वेद वादी माथुरों की भारद्धाज गोत्रिय शाखा कुमारिली या रिली कही जाती है विद्वानों ने इस शाखा को अनअल मनमानी कहा है जबकि उनने इस प्राचीन शाखा के गौरव को जाना ही नहीं । इसके बाद बाद गाँव को आगे चलकर भक्त महात्मा श्री हित हरि वंश जी की जन्म भूमि होने का भी महत्व प्राप्त हुआ है ।<br />
एक बार कुमपरिल स्वामी राजा सुघन्वा के राज महल के नीचे से जा रहे थे । उन्हैं देख राजा की राजकुमारी ने छत पर से व्याथित स्वर में पुकार की 'कि करोमि क्व गच्छामि, को नुइरिष्ययति ।' उन्होंने ऊपर देखा और उत्तर दिया 'मा चितय बरारोहे भट्टाचार्योस्ति भूतले ।।' बौद्धमतानुयामी सुघन्वा राजा ने इन्हैं अनेक कष्ट दिये किन्तु अन्त में पराजित होकर वह इनका शिष्य हो गया और सारे देश में दुन्दुभी घोष करा दिया- <br />
व्यादाथाज्ञां ततो राजा बधाय श्रुति विद्विषां । <br />
आसेतो रातुषाराद्रे, बौद्धानां वृद्धिं घातकम् <br />
नहनिष्यतिय: स हन्तव्य. भृत्यानित्यन्वशानृप ।<br />
इस राजाज्ञा से सारा बौद्ध समाज निरस्त हो गया । विद्यारण्य स्वामी लिखते हैं- <br />
बौद्धादि नास्तिकाध्वस्त वेदमार्ग पुरा किल ।<br />
भट्टाचार्य: कुमाररांश: स्थापयामास भूतले ।।4।।<br />
जगदगुरू श्री आद्यशकराचार्य महाराज- इस समय में 452 वि0पू0 में केरल में शंकर भगवान के अवतार श्री आद्य शंकराचार्य सवामी का प्रादुर्भाव हुआ । वे केवल 32 वर्ष ही भूलव पर विराजे किन्तु इतने समय में ही उन्होंने सन्यास ग्रहण कर भारत वर्ष के समस्त धरा मण्डल का परिभ्रमण कर वैदिक समातन धर्म की अखन्ड ध्वजा फहरा दी । उन्होंने देश की चारों सीमाओं पर उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में श्रृंगेरीमट, पूर्व में गोवर्धन मठ और पश्चिम में शारदा मठ के प्रबल धर्म केन्द्र स्थापित किये । वे मथुरा पुरी भी पधारे और माथुरों का मानकर श्री यमुना महारानी के परम भक्ति पूर्ण दो यमुनाष्टक रचकर गान किये । इनमें से एक में "धुनोतु में मनोमलं कलिंदनदिनी सदा" कहकर महर्षि वेद व्यास के कृष्ण गंगा आश्रम पर विराजमान कलिंदी माता जी तथा दूसरे में जय यमुने जय भीति निवारिणि शंकट नाशिनि पावय माम्" कहकर मधुवन चारिणि भास्कर वाहिनि अर्थात् सूर्य सेन पुरी मथुरा के सूर्य सांव तीर्थ से मधुवन में बहने वाली एतिहासिक यमुना धारा की वन्दनात्मक सूचना दी है । इन स्तोत्रों में श्री महाराज ने 'तटाँतवास दास हँस ता" "ब्रजपुरवासि जनार्जित पातक हारिणि तथा तव पद पंकज आश्रित मानव कहकर यमुना पुत्र माथुरों की ओर संकेत किया है । इसी महान परम्परा के द्वारिका पीठ के श्री शंकराचार्य स्वामी वर्य ने यहाँ माथुरों पर होता आक्षेप सुनकर एक अति महत्वपूर्ण धर्म व्यवस्था माथुरों को स्नेहाई होकर प्रदान की जो इस प्रकार हैं- <br />
श्री शारदा पीठ द्वारिका के पीठाधीश्वर जगद् गुरू श्री शंकराचार्य स्वामी द्वारा घोषित<br />
उपलब्ध कर्ता- बालमुकुन्द चतुर्वेदी विद्या वारिधे ।<br />
भाषान्तरकार- साहित्याचार्य रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी ।<br />
श्री मथुरापुरी के रहने वाले श्री माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण चौवे नामधारी जाति के विषय में इधर कुछ शंकायें हो रही हैं, उनके विषय में यथार्थ निर्णय करने के लिये-श्री वासुदेव जी महाराज तथा श्री रज्जुदेव जी महाराज एवं अन्य भी समागत चतुर्वेदियों के आग्रह को स्वीकार करके श्री द्वारिका पीठस्थ श्री जगद्गुरू शंशकराचार्य महाराज ने मथुरा पुरी में विक्रम संवत 1951 के पौप कृष्ण 13 चंडवार को यह धर्म निर्णय घोषणा आलेखित की है पेस का आशय इस प्रकार है-</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_13&diff=56300चतुर्वेदी इतिहास 132010-04-23T12:27:53Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==धौम्य गोत्र के आस्पद(अल्लैं)==<br />
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1. लायसे- ये आश्वलायन ऋषि के वंशज 2986 वि0पू0 हैं । ऋग्वेद की आश्वलायन शाखा के कुछ लोग मध्य प्रदेश के रायसेन तथा सबलानों स्थानों में जाकर रहे थे । आश्वलायन जन्मेजय के नागसत्र में सदस्य थे ।<br />
<br />
2. भरतवार- ये भरद्वाज के पिता भरत चक्रवर्ती के आश्रय प्राप्त 4882 वि0पू0 सम्मानित सभासद थे । इनने भारत वर्ष देश के अन्तर्गत अपना भरत खंड राज्य स्थापित किया था ।<br />
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3. घरवारी- ये गार्हपत्य नामक अग्नि कुल के देव पुरूष थे । वेद में इन्हें"अग्निर्गृपतिर्युवा" कहा है । ऋग्वेद के अनुसार ये सहस्त्रशीर्ष विराज पुरूष के पुत्र थे । वैसांधर अल्ल के माथुर वैश्वानर अग्नि वंशी भी इसी शाखा में थे । वैश्वानर अग्नि ने सरस्वतीतट मथुरा से पुष्कर राजस्थान तक तथा पांचाल देश पीलीभीत व बरैली अल्मौड़ा नैनीताल तक की भूमि में फैले गहन वनों को जलाकर पवित्र देश पांचाल मत्स्य सूरसेन जनपदों के स्वायंभू मनु के प्रदेश ब्रह्मर्षि देश(9200 वि0पू0)<br />
को प्रकट किया । गृहपति अग्नि ने पुरूरवा के यज्ञ में मंथु अग्नि पुरगटकर किभाबसु अग्नि प्रगटर की ओर उसके तीन भाग करके (आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षियाणाड्नि) तीनों के तीन यज्ञ कुण्डों में स्थापित कर यज्ञ कराया था । 'तस्य निर्मथाज्जातो जातवेदा विभावसु' । इस यज्ञ से 6241 वि0पू0 में प्रतिष्ठान पुर ब्रज के पैठा स्थान में पुत्रेष्टियाग के फलरूप आयु नहुष ययाति पुत्र चन्द्र वन्श की वृद्धि कर्त्ता उत्पत्र हुए थे । विराट प्रजापति (दीर्घविष्णु) 7 के पुत्र थे जो आदि मानव प्रजा के पितर कहे गये हैं । इनमें चार वेद ज्ञाता चतुर्वेद तथा पत्निगृह (पाकशाला) में प्रयुक्त गार्हपत्य अग्नि कर्म के प्राशिक्षक गार्हपत्य अग्नि (9200 वि.पू.) घरवारी प्रधान थे । ये 7 आध पित-1. अग्निष्वात 2. सोमप (वर्हिषद) 3. बैराज 4. गार्हपत्य, 5. चतुर्वेथ, 6. एक श्रंग, 7कुल के नाम के थे । मत्स्य के अनुसार ये सभी महायोगी थे । योग भंग होने पर पृथ्वी पर जन्मे । श्रेष्ठ ब्रह्मवादी होने और पूर्वजन्म के ज्ञान से ये योगाभ्यास में मग्न रहकर प्रजाओं का कल्याण करते थे । इनकी मानसी कन्या मैनां (मैनांगढ़ टीला मथुरा) में उत्पत्र हुई थी जिसके वन्शधर मैनां या मीणां जाति के लोग यहाँ रहते थे जो प्रजा विस्तार होने पर मैनाक पर्वत तथा समस्त राजस्थान और ब्रज क्षेत्र में फैल गये । मैनका अप्सरायें इसी वंश में थी । मैना ब्रज के हिमवन्त मेवात के पर्वतीय राजा हिमवन्त को ब्याही थी और उससे हेमवती पार्वती उमां गौरी आदि अनेक नामों वाली पुत्री हुई जो सतीदहन के बाद तप करके भगवान शिव की पत्नी बनी और उससे विनायक गणेश (गणेश टीला) तथा स्कंधस्वामी (खंडवेल तीर्थ मथुरा) वासी विश्व विजयी देवता (स्कैंडेनेविया सिकन्दरिया बन्दरगाह नाम प्रदाता तथा सिकन्दर यूनानी विश्व विजयी को प्रभावशाली नामकरण प्रदाता) पुत्र हुए । ये सातौ आद्यपितर परम कृपालु परोपकारी स्नेहमय स्वभाव के तथा पितृ स्नेह से समस्त प्रजाओं का संरक्षण और संवर्धन करने के कारण ही मानव पितर माने गये ।<br />
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4. तिलमने- ये यज्ञ साकल्य हेतु श्यामातिल (कालेतिल) उत्पत्र करने वाले क्षेत्र तिलपत के निवासी तिलमटे लोगों के प्रोहित होने से तिलमने कहलाये । तिलपत का गौकुला जाट बड़ी सेना लेकर औरंगजेब के समय ब्रज में हुए विद्रोह का नेतृत्व करने आया था ।<br />
दलित मत्तिल नाम के दो यक्षों के सरोवर भी कामबन में दतीला मतीला कुन्ड नाम से थे । ये दत्तिल संगीत शास्त्र ग्रन्थ का प्रमुख आचार्य था तथा उसका दत्तिलम, नाम वाला संगीत ग्रन्थ प्रसिद्ध है । तिलोत्तमा अप्सरायें अतिसुन्दर और नृत्य करने वाली इस वन्श में प्रख्यात रही हैं । इस वन्श के तैलंग जनों ने दक्षिण महाराष्ट्र में तिलंगाना प्रदेश बसाया तथा तेल निकालने की कला विस्तार किया । यमराज के नर्कों में कोल्हू यन्त्र में पापियों को पेरने या बैलों की जगह जोतने का उल्लेख पुराणों में मिलता है ।<br />
<br />
5. शुक्ल- याज्ञवल्क्य के शुक्ल यजु प्रयोगों के अनुयायी शुक्ल कहलाये । शुक्ल वस्त्रधारी 'शुक्लांवर धर विष्णु' भगवान विष्णु देवी सरस्वती, वेदमाता गायत्री- तथा इनके भक्त माथुर ब्राह्मण शुक्त प्रसिद्ध हुए ।<br />
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6. व्रह्मपुरि- मथुरा में ब्रह्मलोक तीर्थ के ब्रह्मोपासक ब्रह्मसभा के सदस्य मालाधारी ब्रह्मपुर्या जिस स्थान में रहते थे वह पद्मनाम तीर्थ पद्मावती सरस्वती के तट पर था उसे अभी भी मालावारी चौवे को शिवाजी महाराज द्वारादिया गया हाथी उनके द्वार पर झूमता था जिससे इसे हाथीवारी गली कहते हैं । राव मरहठों में सरदार को तथा राजस्थान में राजा की बांदियों के पुत्र होते हैं । मानाराव को राव की पदवी शिवाजी ने ही प्रदान की तथा जियाजीराव, दौलतराव, सयाजीराव आदि रावों ने अपनी समता का राव पद देकर पचीसियों गांव भेंट कर अपना पूज्य पुरोहित बनाया था । इसी क्षेत्र में पांडे माथुरों का प्राचीन निवास है ।<br />
<br />
7. आत्मोती- आत्मा को आत्मतत्व में लीन कर उसके परम गूढ प्रकाश का अनुभव अरने और कराने वाले आत्माहुति ब्रह्मज्ञान विद्या के साधक सिद्ध पुरूष आलोवि प्रसिद्ध थे । भगवान श्री कृष्ण ने गीता में आत्म ज्ञान कहा है ।<br />
<br />
8. मौरे- ये मयूरगणों की प्रजा मार्यवन्श केप्रे हित होने से मौरे कहे गये । मौर्यवंश में ही मुरदैत्य प्रजाओं के प्राचीन आवास मोरा मयूरवन, मुरसान, मुरार, मौरैड़, मोरवी मयूरकूट पर्वत (मोरकुटी) हैं तथा मुरदैत्यों का संहार करने के कारण श्री कृष्ण को मुरारी कहा जाता है ।<br />
<br />
9. चंदपेरखी- चंद्रवंशी यादवों के मनोरंजन हेतु यादवों की रंगशाला प्रेक्षागृह का निर्माण और उसकी रंगमंचीय व्यवस्था सम्भालने वाले माथुर चन्द्रप्रेक्षी या चैदपेखी थे । माथुरी भाषा में श्रंगार युक्त नारी को पेखने की पूतरी' कहा जाता है । पाणिनि के अनुसार यादव कंस वध का अभिनय (उत्प्रेक्ष दर्शन पेखनां) बड़े उत्साह के साथ आयोजित करते थे ।<br />
<br />
10. जोजले- देवों के यजन पूजा आराधना स्तुति पाठ कीर्तन भजन आदि प्रहलाद द्वारा प्रतिपादित नवधा भक्ति के आचार्य 'याजक' संयोजक झूंझर आक्रोश के साथ भक्ति उन्माद में आत्म विस्मृत जुझारून रूवभाव के लोग जोजले कहे जाने लगे ।<br />
<br />
11. सोती- यह बड़ी अल्ल है । श्रौत स्मार्त धर्म के उपदेशक सोती थे । श्रौतधर्म में मूलवैदिक संहिताओं के अतिरिक्त वेदांग, उपवेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, परिशिष्ट, निरूद्य, सूत्र, उपनिषद, सहितायें, इतिहास पुराण, आदि अनेक आधार हैं । सूत पुत्र सौति वन्श के जिन्हें वेदाधिकार नहीं था उन शूद्र वर्ण रथकारों को वेदातिरिक्त पुराण विद्या तथा संहितादि अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय प्रदान करते रहने को महर्षि वेद व्यास ने इन्हैं सूतों शौनकों के धर्मोपदेशक के रूप में नियुक्त किया था ।<br />
सोती प्रवासी माथरों के साथ भदावर आदि क्षेत्रों में जाकर बस गये थे ।<br />
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12. सोगरे- सोगर गाँव के सोगरिया जाटों के पुरोहित सोगरे हैं ।<br />
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13. चौपरे चौपरे या चौपौरिया इनके 4 घर(पौरी) मूल में एक स्थान पर स्थिति थे । एक कथन से चौपड़ का खेल जो कौरव पांडवों के समय में बहुप्रचलित था उसमें ये परम परांगत पासा डालने की मन्त्र विद्या इन्हें सिद्ध थी तथा बड़ी बड़ी राज सभाओं में द्यूत निर्णय के लिए बुलाये और सम्मानित किये जाते थे । शकुनी इनका गांधारी (अफगान) शिष्य था ।<br />
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===प्रकीर्ण परवर्ती आस्पद===<br />
<br />
इनके अतिरिक्त परवर्तीकाल में माथुरों के कुछ अन्यान्द आस्पद आख्या या ख्यात समयानुसार बनते गये जिनमें से कुछ के नाम हैं –<br />
छौंका, भारवारे, तिवारे, नौसैनावासी, तखतवारे, महलवारे, नारेनाग, सकनां, होरीवारे, भरौच, चीबौड़ा, उचाड़ा, भदौरियाद्व, घाट्या, नगरावार, दक्ख, मानाराव, टोपीदास के, देवमन मंसाराम के, लाल चौवे के, गहनियाँ के, पंडिता के, भारवाले, आरतीवारे, नौघर वारे, करमफोर के, कोबीराम के, काहौ, स्वामी, मुकद्दम, चौधरी, पटवारी, निधाये के, हथरौसिया, मुरसानियाँ, करौर्या आदि ।<br />
<br />
===माथुर चतुर्वेद विरूदावली===<br />
<br />
माथुरों की वंश वैभव युक्त विरूदावली लल्लू गोपालजी द्वारा प्रस्तुत यहाँ दी जा रही है-<br />
<br />
==माथुर परिचय- ==<br />
===चौसठ अल्लैं===<br />
'''136 से 138'''<br />
<br />
====माथुर चतुर्वेदियों की माता-श्री यमुना मैया====<br />
<br />
श्री यमुना महारानी माथुरों की परम वात्सल्यमयी कुल प्रतिपालिनी मैया हैं । श्री यमुना विश्व की सबसे पुरातन प्रजा संरक्षिणी देवी हैं । आसुरी सर्ग युग् 12600 वि0पू0 में वे यमयमी के रूप में भाई बहिन सूर्य देव सूरसेन देश में उत्पत्र हुए, और अंतरिक्ष में बिहार करने की कामना से आकाश मंडल (आक्सस नदी, आकाश गंगा और आक्साई चीन आकाशिय उदीचीना प्रदेश) में ऊँचे पर्वतों पर वीणां बजाते हुए बिहार करने को चले गये । वहां यमी ने आसुरी धर्म से प्रभावित होकर अपने भाई की धर्म नीति की परीक्षा हेतु उससे संयोग की याचना की जिसे यमदेव ने द्दठता से ठुकराकर चरित्र श्रेष्ठता का परिचय दिया । इत पवित्र आचरण से नतमस्त होकर असुरों ने उन्हैं जमशेद (यम सिद्ध), जमरूद (यमरूद्र), जुम्मा, जुमेरात जमालू, जमाउल अव्वल, आदि रूपों में पूजित माना । मार्कण्डेय आश्रम (मक्का) में अश्वत्थ लिंग (संग असवद) के मन्दिर में इनका यमुना यम सरोवर आवेजमजम के नाम से पवित्र माना जाता है ।<br />
9370 वि.पू. में ब्रह्मदेव की मानसी सृष्टि में ये पुन: कश्यपवंश में माता अदिति के गर्भ से उत्पत्र द्वादश सूर्यों में ज्येष्ठ आदित्य विवस्वान देव के यहाँ संज्ञा माता के गर्भ से मथुरा देव पुरी के प्राजापत्यययाग प्रयाग तीर्थ में अवतरित हुए । यहाँ दिवाकर देव ने पुत्र यमराज को दक्षिण दिशा में यमलोक बसाकर पापी जनों को दण्ड देकर धर्म और सदाचार की मर्यादा बनाये रखने का धर्मराज पद पितामह ब्रह्मा से दिलाया, और सूरसेन (सूर्य सेनाओं का देश) देवलोक का अनुग्रह युक्त शानक अपनी प्रिय पुत्री यमुना को प्रदान किया ।<br />
आनी बहिन तपती देवी के शाप से जलधारा नदी रूप बनी श्री यमुना भागीरथी गंगा से बहुत युगों प्राचीन हैं । श्रीयमुना की उत्पत्ति 9,320 वि0पू0 है और प्रभु बारादेव ने बसुन्धरा देवी से श्री यमुना का महात्म कहा है । भक्त प्रहलाद ने भी 9254 वि0पू0 में अपनी तीर्थ यात्रा में यमुना तट के तीर्थों की यात्रा की है ।<br />
<br />
माथुरों के यमुना पुत्र होने का चरित्र ब्रज रहस्य महोदधि श्री उद्ववाचार्य देव जू ने अपने ब्रज यात्रा ग्रन्थ में कथन किया है जो माथुरों के लिए प्रमाणप है-<br />
<br />
<poem>एकदा ब्रह्म सदने कश्यपस्य कृतेऽच्वरे ।<br />
समेता सुप्रजा सर्वा कश्यपस्यच औरसा ।।1।।<br />
भक्तिनम्रा धावयन्ता: कर्मान् सम्पादयन्ति ते ।<br />
तान्द्दष्ट्वा भानुतनया मनोभवं मनोदधे ।।2।।<br />
एमाद्दषी प्रजा धन्या मद्गृहेपि भवेदिति ।<br />
तानहं पालयिष्यामि बात्सल्य रस निर्भरा: ।।3।।<br />
पुत्रेष्वेव गृहं धन्यं शोभाढ़यं गृहमेधिनाम् ।<br />
पुत्रका यत्र क्रीडन्ति तदेव सुकृतं गृहम् ।।4।।</poem><br />
<br />
एक दिवस शुभ मुहूर्त में ब्रह्मलोक तीर्थ मथुरा में कश्यप महर्षि के आयोजित महासत्र में समस्त देव प्रजा और कश्यप वंशज ब्राह्मण सम्मिलित हुए । ये महर्षि गण अपने पुत्र पौत्रों और पत्नियों पिरवारों सहित भक्ति से विनम्र होकर दौड़ दौड़कर यज्ञ कार्यों को बड़े उत्साह से सम्पादन कर रहे थे इन्हैं इस आनन्दमय रूप से देखकर सूर्य पुत्री श्री यमुना महारानी जी ने अपने मन में यह भावना स्थापित की- इस प्रकार की सुन्दर ह्दय को आकर्षित करने वाली प्रजा धन्य है तथा ऐसी प्रजा मेरे भवन में भी स्थापित होनी चाहिए । मैं उनका सनेह मय अन्त: करण से लालन पालन करूँगी और सदा वात्सल्य रस में आनन्द निमग्न रहूँगी ।<br />
<br />
<poem>आहूता बालका सर्वे सप्तर्षि कुल संभवा: ।<br />
माथुरान् गृह्म उत्संगे पयपानं मुद्रा ददु: ।।5।।<br />
स्नेह निर्झरितं वक्षं तानलिंग्य त्वरान्विता ।<br />
मुहुर्महु मुखं द्दष्ट्वा परमानन्द प्राप्नुयु: ।।6।।<br />
एतानि विप्र जातानि अग्निवंश समुद्भवान् ।<br />
विद्या विनय सम्पत्रान् सदाचार समन्वितान् ।।7।।<br />
माथुरेस्मिन्पुण्यक्षेत्रे पुत्रत्वेन व्रतानि मे ।<br />
अद्यत: मम पुत्रावै लोके ख्याति लभंतिहि ।।8।।<br />
दत्वा बहुगुणं प्रीतिं हैरण्यं भवनानि च ।<br />
स्वगेहे स्थापिता: सर्वे माथुरा मुनि पुंगवा ।।9।।<br />
कदाचिदपि मद्धामं न त्यजेयु: मुनीश्वरा: ।<br />
ममाश्रये द्दढी भूत्वा दुर्गमान् संतरिष्यत: ।।10।।<br />
</poem><br />
तब माताजी ने हेला देकर सपत ऋषियों के दल को बुलाया एवं उन माथुर मुनि बालकों को गोद में उठाकर उन्हैं स्नेह से झरते हुए अपने स्तनों का पयपान कराया ।।5।। प्रेम से झरते हुए वक्ष स्थल से उन्हैं अति आतुर होकर अलिंगन किया तथा उनके मुख बारम्बार निहारकार परम आनन्द का अनुभव किया ।।6।। माता ने कहा- ये श्रेष्ठ ब्राह्मणों के कुल अग्निवंश में उत्पत्र हैं तथा विद्या विनय और सदाचार से युक्त हैं ।।7।। इस परम पुण्यमय मथुरा क्षेत्र में मैंने इन्हैं पुत्र पद पर वरण किया है अत: आज से लोग में मेरे पुत्र अर्थात् यमुना पुत्र नाम की ख्याति प्राप्त करेंगे ।।8।। इतना महान पद देकर माता ने उन माथुर पुत्रों को बहुत श्रेष्ठ अपना अपार प्यार बहुत सा सोना और अनेक उत्तम देवोपम भवन दिए और उन माथुर मुनि पुगवों के पुत्रों को अपने निज भवन में स्थापित किया ।।9।। उनसे कहा – हे पुत्रो कभी भी कैसे घोर संकट में भी मेरे इस धाम को त्याग मत करना यहाँ रहकर मेरे आश्रय की दृढ़ता को गृहण किए हुए तुम सब दुर्गम संकटों से निश्चय पूर्वक पार हो जाओगे ।।10।। माता ने अपने पुत्रों को यह उदार बर दिया और इसे पाकर महर्षि अंगिरा ने वेदोक्त 'श्री यमुना सूक्त' का सरस्वर भक्ति और स्नेह के साथ गान किया जिसे सुनकर माता ने अपार हर्ष का अनुभव किया । यह अति दुर्लभ सद्य फल प्रद कृपा का सहज साधन सूक्त महर्षि अंगिरा ने 9300 वि.पू. में जगज्जनिनी मातु श्री के चरणों में बैठकर सिद्ध किया तथा श्रीमद् उद्धवाचार्य देववर्य इसको धारण कर परम सिद्ध पुरूष बन गये । इसके द्वारा यमुना उपासना भक्त प्रहलाद, प्रभु वामन देव, हिरण्यकशि पुदैत्यराज, स्वायंभूमनु देव, अंवरीष राजा, शत्रुघ्न, यपरशुराम मुनीन्द्र, वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, दक्ष, उशनाभृंगु, पुरन्दर इन्द्र, वायुदेव ने की तथा महर्षि वेद व्यास के काल में इसकी उपासना से चन्द्रवन्शी यादवों पौरवों आनवों ने विशेषकर नहुष ययाति, यदु, बसुदेव, श्री कृष्ण बलराम, महर्षि वेद व्यास ने माता कालिदी की आराधना करके वेद विभाजन, 18 पुराण प्रतिपादन, महाभारत, श्रीमद् भागवत ब्रह्मसूत्र आदि अनेकानेक शास्त्रों की रचना की । यह सर्वप्राचीन, वेदसत्रिहित, सर्व सिद्धित्रद माथुरों का मातृस्तवन सूक्त है जो यहाँ दिया जा रहा है-<br />
<br />
हरि: ओउम्- आदित्यासो जायमानां सहस्त्रभारस्वद्रोचिषम् ।<br />
श्यामारूणां वैवस्वतिं श्री यमुनां भजमाहे ।।1।।<br />
संज्ञात्मजां यमस्वसां विश्रयन्ति भृमृतावृधे ।<br />
देवयन्तिं देवगणानाम् वरदां संवृणीमहे ।।2।।<br />
आवाह्मामि श्रीयमुने कालिंदी संशितवृते ।<br />
एह्मेहि विरजे सत्ये राष्ट्र मे शर्म यच्छताम् ।।3।।<br />
कूर्मासनां मणिपृष्ठां वेणु पद्मां भुजद्वयाम् ।<br />
केयूर मेखलांन्वितां महामणि किरीटिनीम् ।।4।।<br />
संमे सन्तु सिद्धि दात्रिं श्री मधुपुर्याधीश्वरिम् ।<br />
धान्यं धनं प्रजां राज्यं विभवं देहि मे जयम् ।।5।।<br />
वर्धयन्तिं महैश्वर्य प्रियं नो अस्तु मातर: ।<br />
नित्यं संसेवनं धेहि पादार्चनं गृणीमहे ।।6।।<br />
वरेण्यां ब्रजाधिष्ठात्रिं वासल्यां सुप्रसादिनीं ।<br />
संरक्षिणी प्रवर्धिनी अकानुकूल्यं बावृधस्व ।।7।।<br />
वैराज धारिणीं विरजां गभस्ति कोटि मास्वतिम् ।<br />
सौरसेनिं गोष्ठ शतिं सोमं क्रतुमयच्छतु ।।8।।<br />
मधु कैट दिनं निघ्नां कौमारीं संपयस्त्रविम् ।<br />
तां माधवीं उपव्हये आर्विभव हिरण्ययी ।।9।।<br />
कालिंदी सरस्वतीत यमुना तिस्त्रो पदेशु भ्राजिता: ।<br />
अरंकृर्ति मधुमर्ति सौर्या गव्यं गृणीमसि: ।।10।।<br />
आयाहि शर्म यच्छति प्रथमं विश्व सृजे ।<br />
अर्यन्त प्रार्चन्त देवा: साँजलि र्नतकन्धरा: ।।11।।<br />
जिधांसति यमकौर्य शरण्यं ईरयति शर्मम् ।<br />
मूर्त्या मांगल्यमये संसीदस्व कुले मम ।।12।।<br />
तपस्विनीं स्वयं सिद्धां वरेण्यां भर्ग भास्करिम् ।<br />
संगोप्त्रि अक्षयनिधिं गोपशी स्वस्तिरस्तुन: ।।13।।<br />
उपैतु मां महाराज्ञी कीर्ति प्रज्ञां स्थैर्य सह ।<br />
अभिरक्षतु मां नित्यं कालिन्दी माथुरेश्वरी ।।14।।<br />
संकृणुध्वं पदानुगं आत्मानं भर्ग आभर ।<br />
नित्योत्सवा वैजयन्ति अनन्या भीति शन्तमे ।।15।।<br />
यज्ञेश्वरी मन्त्रेश्वरी भक्तानुग्रह तत्परा: ।<br />
कौवेरं निधिं साम्राज्यं महैश्वर्य दधातु मे ।।16।।<br />
तुरीयस्था योग प्रभा सहस्त्रदल मीरिता: ।<br />
आत्मतत्वा परतत्वा महाविद्या पात्वंहस ।।17।।<br />
गोवर्धनं वर्धयन्तिं गवि गोष्ठान्यकरन्महत् ।<br />
मनश्चिन्तां जिघन्वतिं अभिष्टय: सम्प्रमोषि: ।।18।।<br />
त्रिसप्त धामं त्रिदिवं त्रयो त्रिशदभ्यर्चितम् ।<br />
यक्षस्वधामं द्युमन्तं ध्रुवस्यांगिरसस्यहि ।।19।।<br />
प्रहल्लादो उरूक्रमणों हिरप्यकशिपु बलिं: ।<br />
स्वायंभुवश्चांवरीषो अरिघ्नो भार्गवोत्तम: ।।20।।<br />
वशिष्ठो कश्यपश्चात्रि: दक्षो औशनसो भृगु: ।<br />
पुरन्दरस्य वायोश्च विधेहि से महत्पदम् ।।21।।<br />
ब्रह्मविद्या राजविद्या ब्रह्मपारगा: छान्दोगा: ।<br />
सहस्त्रदल संस्थिता: दधातु मेऽजरा मरम् ।।22।।<br />
नारायणीं महत्पदां नमोमि पुत्र वत्सलाम् ।<br />
संवर्धयति सौभाग्यं शं मे सन्तु सुवर्चसा: ।।23।।<br />
यज्ञेश्वरी विस्फुलिंगा आयाहि जातवेदसे ।<br />
प्रियगंधा: प्रियरसा: धियंनो धार्यतां ध्रुवम् ।।24।।<br />
व्यासोवाच-चतुविंशतिकं सूक्तं श्री यमुनाया: प्रमीरितम् ।<br />
जय कामो यशस्कामो श्रेयस्कामो विधारयेत् ।।1।।<br />
शुचिर्भूत्वा ऽनन्यामना जुहुयाच्च साज्यं मधुम् ।<br />
सर्वान्कामान वाप्नोति पदं वैश्रवणोपमम् ।।2।।<br />
यावल्लीलां न पश्येत तावच्छेवा व्रतं चरेत् ।<br />
प्रणतिं दर्शनं जाप्यं सर्व सिद्धि करं मतम् ।।3।।<br />
जयं राज्यं धनं धान्यं आरोग्यं सुप्रजां सुखम् ।<br />
सर्वाधिपत्यं यशसं संसिद्धि जयते ध्रुवम् ।।4।।<br />
दर्शयोद् विग्रहं पुण्यं कैंकर्यत्वं समाचरेत् ।<br />
गुरा: सेवा समायुक्तो सर्व सिद्धि प्रजायते ।।5।।<br />
इत्यंगिरा प्रकथितं श्री यमुना सूक्त मुत्तमम् ।<br />
भक्तिं मुक्तिं रसोद्भांव लीला प्रत्यक्ष कारकम् ।।6।।<br />
आरार्धितं चन्द्रवंशेन नहुषेन ययातिना ।<br />
यदोश्च श्रीकृष्णश्च बलरामेण धारितम् ।।7।।<br />
वेदव्यासमिदं जप्त्वा ध्यात्वा श्री रविरात्मजाम् ।<br />
कृतवानसर्व शास्त्राणि वेदांश्चापि प्रयणदिता ।।8।।<br />
तस्मात्सर्व प्रयत्नेन गोपयेत्परमं धनम् ।<br />
अस्याराधनया वत्स सर्व सिद्धि प्रजायते ।।9।।<br />
हरि:ओऽम् तत्सत् नमोनम: ।<br />
महर्षि अंगिरा द्वारा सम्पूर्ण माथुर मुनि पुत्रों के साथ गान किये इस सूक्त से माता श्री यमुना अति आनंदित हुई । उन्होंने पुन: कहा- <br />
यो यूयं मम पुत्रान्वै अर्चयिष्यन्ति श्रद्या ।<br />
तेन मे परमातुष्टि भवेदिति न संशय: ।।11।।<br />
माथुरा मम रूपाहि माथुरा मम वल्लभा ।<br />
माथुरे परि तुष्टे वै तुष्टोऽहं नात्र संशय ।।22।।<br />
हे प्रिय पुत्रो ! जो धर्म निष्ठ प्राणी उदार विनय युक्त मन से मेरे तुम पुत्रों माथुरों की अर्चना करेगा तुम्हें सन्तुष्ट करेगा उससे मैं परम सन्तुष्टि प्राप्त करूँगी इसमें सन्देह नहीं है ।।11।। गाथुर मेरे ही रूप हैं, माथुर मुझे प्राणों से ज्यादा प्यारे हैं, माथुर के सन्तुष्ट होने से मैं आप स्वयं आनन्द के साथ सन्तुष्ट होती हूँ यह निश्चित अटल सत्य है ।।22।।<br />
इस सन्दर्भ में श्री उद्धाचार्य देवजू के सुपुत्र श्री भगवान मिहारी के कुछ सुन्दर छन्द भी प्राप्त हैं-<br />
कवित्त- चाह करी मन में रविनं दिनी ।<br />
सप्त ऋषीन के बालकटेरे ।<br />
पुत्र बिना घर सून्यों अमंगल,<br />
वाल विनोद आनन्द घनेरे ।।<br />
'भगवन्त जू' याविधि पायि सनेह,<br />
कहै सब जै जै महासुख हेरे ।।<br />
माथुर बाल लगाये हियेते,<br />
सो आजु ते पूत भये तुम मेरे ।।1।।<br />
मो मथुरा करियो सदा बास,<br />
औ कीजो सदां पयपान सुखारी ।<br />
उत्तम भोजन कंचन वैभव, <br />
पाऔ सदा मुद मंगलकारी ।।<br />
भगवंतजू पूजियो मोहि सनेह सौ,<br />
जो नहीं पूजै सो होई भिखारी<br />
पूत सपूत बने रहोगे तो मैं-<br />
रच्छा करौं सब काल तिहारी ।2।<br />
यमूना पूत्र कर्त्तव्य<br />
द्वारपै नाम जो मेरौ लिखै, घर भीतर सेवा मेरी पघरावै ।<br />
मन्त्र जपै नित, ध्यान धरै, सिर सादर नायि मेरे गुन गावै ।।<br />
भगवंत प्रसादी बिना नहीं भोजन, पर्थ पै उच्छव हर्ख मनावै ।<br />
या मति मेरौ आधार गहैं रहैं, एसौ सपूत मेरे मन भावै ।।3।।<br />
कृपा प्रभाव प्रत्यक्ष<br />
राजा नवै, महाराजा गहै पद, मातु कृपा कौ प्रतापु है भारी ।<br />
संत महंत आचार्ज घनाधिप, आसन दैंई दै मान अपारौ ।।<br />
'भगवंत' ज वैभव ठाठ लगे रहैं, भाव अभाव न हो दुखारी ।<br />
एसी उदार अपार कृपा, रविनंदनि की महिमां कछु न्यारी ।।<br />
माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की परम स्नेहमयी इन मातु श्री का स्तवन प्राय: प्रत्येक संप्रदाय के आचार्य ने किया है । अपने आराधित इष्ट देव की सिद्धि का साक्षात्कार बिना श्री यमुना मैया की कृपा के होना असंभव मानकर श्री आद्यशंकराचार्य ने श्री यमुना स्तबन-"जययमुने जय भीतिनिवारिणि संकट नाशिनि पाबय माम्", श्री कालिन्दी माता का स्तबन-" धुनोतु मे मनोमलं कलिंदनंदिनी सदा" किया है श्री गर्गाचार्य मुनि की गर्ग संहिता माधुर्य खंड में महर्षि सौमरि का राजा मांधाता को उपदिष्ट श्री यमुना पंचांग(यमुना स्तोत्र, कवच, पटल, अर्चन, सहस्त्रनाम) श्री प्रभु उद्धवाचार्यदेव का यमुना शरणागति स्तोत्र, श्रीमद् बल्लभाचार्य का यमुना अष्टक, श्री गो0 विद्वल नाथजी, श्री हरिराय जी, हरिबल्लभ, माधव, हरिदास, रमेश भट्ट गोकुलेश आदि वैष्णव भक्तों के स्तोत्र, श्री हित हरिवंश (राधा बल्लभी आचार्य) श्री रूप (सनातन) गौड़ीय आचार्य, सम्राट दीक्षित पंडितराज, कविवर ग्वाल, कविवर श्री मुदित मुकुन्द की यमुना लहरी आदि प्रभूत साहित्य हैं, जिसे वेदपाठी श्री बिहारीलाल जी की यमुना पूजन पद्धति में देखा जा सकता हैं ।<br />
श्री मथुरा पुरी में महर्षि अंगिरा द्वारा आराधित श्री यमुना मैया की यह पुरातन देव विग्रह प्रतिमा अनंदमयी मुद्रा में वैदिक सूत्र के अनुसार- "कूर्मासनां मणि पृष्ठां वेणु पद्मां भुज द्वयाम्" छवि को धारण किये हुए यमुना तट पर अपने निजधाम श्री यमुना निकुंज देवस्थान सूर्य गोलपुर (गोल पारा) प्रयाग घाट पर विराजमान हैं । यह माथुरों की परम पूज्य मैया और श्री सिद्धि स्वरूपा हैं । आश्चर्य है कि माथुर मुनीश अपनी परमाराधनीय इस माता की सेवा आराधना करने में निपट उदासीन तणा बहिर्मुख हैं । यहीं श्री उद्धवाचार्य देवजू का प्राचीन ब्रजयात्रा ग्रंथ उनकी छवि जी तथा पादुका जी विराजमान हैं जो सेवा करने पर कृपा सिद्धि प्रदायक हैं ।<br />
वृम्हरात्रि का अधर्म वृद्धि युग<br />
3000 वि.पू. के बाद कलियुग ने अपना पैर जमाया । महाभारत के पश्चात मगध का राजवंश चक्रवर्ती सम्राट बना परिक्षित को कलिप्रेरित प्रयास से ब्राह्मण शाप द्वारा तक्षक नाग ने समाप्त कर दिया । यादव स्वयं ही कलह की अग्नि में कूद गये । द्वारिका की जल प्रलय ने दूर दूर तक समुद्र तटवर्ती देशों को ध्वस्त किया । जनमेजय को नागों की शक्ति के सामने पराभव देखना पड़ा । वैशम्पायन और याज्ञवल्क्य की कलह में यजुर्वेद के कारे गोरे दो टुकड़े हो गये । जरासंध ने मथुरा शूरसेन देश पर 17 आक्रमण किये जिनमें 41 राज्यों के सत्ताधारी सहायक थे । इधर श्री कृष्ण बलराम के साथ मात्र केवल 18 यादव नरेश ही थे । बड़ी सेना के दबाव से वे 32 वर्ष की आयु में अंधक वृष्णि संघ के साथ सुदूर पश्चिम के जल दुर्ग द्वारिका में चले गये ।<br />
जरासंध यादवों का शत्रु था । द्रोपदी स्वयंवर में बृहद्रथ में धनुष उठाते समय घुटने फूट जाने पर उसका पलायन और श्री कृष्ण के समर्थन से अर्जुन का द्रोपदी से विवाह, महर्षि धौम्य की पांडव पौरोहित्य प्रतिष्ठा, कंस का वध और उग्रसेन का राज्यारोहण इसके उत्तेजक हेतु थे । उधर सूत मागध शौनकशूद्र प्राय माने जाते थे । इन्होंने माथुर महामुनीष महर्षि वेद व्यास की सेवा में अपने को समर्पित किया और कृपालु मुनि ने सूतों को पुराणाचार्य पद, शौनक को अथर्वा वेदाचार्य तथा मागधों को माथुरों की मैत्री के साथ गया तीर्थ का पौरोहित्य और वंदीजनों को ब्रह्ममट्ट राय भाट जागा के रूप में वंशावली संरक्षण् के कार्यों में नियुक्त किया । "माथुरों मागधश्चैव" एक मैत्री बनी और माथुरों को उस समय की अपनी उदार नीति के कारण अनेक प्रहार और अपवाद सहन करने पड़े , परिणामत: मथुरा पर अधिकार के बाद जरासँध ने मथुरा को लूटा जलाया या विनष्ट किया हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता । <br />
जरासंध की शत्रुता यादवों से थी । उसने 86 यादव नरेश और उनकी अविवाहित राजकन्याओं को अपने कारागार में डाल रखीं थीं महाभारत के बाद योद्धाओं की शक्ति समाप्त नहीं हुई थी । मगध साम्राज्य का शौर्य और विस्तार बढ़ रहा था ।<br />
किन्तु मगध विदेशयी जातीय गांधारी (कंधारी पठान) वंश के उपरिचर बसु की सन्तान होने से वैदिक यज्ञों धर्म और देव पद्यति के प्रति निष्ठावान न थे । उनके ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज में उच्चता समानता युक्त सम्मान भी प्राप्त न था फिर भी उन्होंने 3233 से 2011 वि0पू0 तक 1222 बर्ष भारत पर अपना एक छत्र राज्य जमाये रक्खा । इसी अवधि में 1800 वि0 पू0 में ब्रह्म दिवस के कलियुग का अवसान हुआ ।<br />
व्रम्हरात्रि का द्वितिय कलयुग- शौनकसत्र<br />
ब्रहद्रथ वंश के राजा रिपुंजय के बाद शुनक वंशी व्यासशिष्य शौनकों का वंश शासनारूढ़ हुआ । वृहद्रथ वंश ने अपने लंबे राज्यकाल में कोई उल्लेखनीय धर्म कार्य किया हो एसा ज्ञात नहीं होता, किन्तु शुनक वंशियों ने सूतों को पुराणों के क्षेत्र में महान प्रतिष्ठा देकर नैमिषारण्य मिश्रिक आदि नव तीर्थों की स्थापना करके लंबे काल के कथा सत्र आयोजित किये । इन कथा महा सम्मेलनों में 88 हजार ऋषि महर्षि, लक्षाबधि प्रजाजन, तथा दानी मानी राजपुरूषों ने भक्ति के साथ 18 पुराणों का कथारस पान किया ं पुराणों का बहुविधि विकास विस्तार और जनसम्मान इसी युग में माथुर वेदव्यास शिष्यों के द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित हुआ । माथुर ऋषि महर्षि इन सत्रों के प्रथम कोटि के निर्देशन और सहायक थे । इन सत्रों में श्री कृष्ण की महिमा, उनके रसप्लावित चरित्र, ब्रजभूमि, मथुरा, और माथुर चतुर्वेद ब्रह्मणों की कीर्ति का महान प्रचार हुआ । 5 पीढ़ी राजकर 1873 वि0पू0 में महाराज वंशजों ब्रज औ काशी के नागों का अधिकार मगध साम्राज्य पर आया ।<br />
भाग ब्रज की प्राचीन जाति थी । इस वंश में विंवसार(1727-1689 वि0पू0) अजात शत्रु (1627-1662 वि0पू0) उदायी डदितोदय मथुरा का राजा(1627-1594 वि0पू0), नंदिवर्धन(1594-1554 वि0पू0) तथा महामंदी कालाशोक (1554-1511 वि0पू0) आदि 10 राजा हुए । यह द्वितीय कलि (1800-600 वि0पू0) का समय इतिहास में बहुत क्रान्तिकारी समय हैं । एतिहासिक शंसोधन के अनुसार इस युग में जैन धर्म आचार्य महावीर स्वामी का जन्म 1797 वि0पू0 मेंतथा बुद्धि धर्म प्रवर्तक बुद्धदेव का जन्म 1760 वि0पू0 में हुआ ।<br />
इन दोनों मतों ने प्राचीन वैदिक धर्म को झकझोर डाला और रात्रि कलियुग का झंझावात खड़ा कर दिया । उदायी या ऊदितोदय के मथुरा पर सासनारूढ़ रहने के उल्लेख बौद्ध साहित्य में है, और उसके समय मथुरा धर्म प्रचार का प्रधान केन्द्र था तथा माथुर अपनी स्वधर्म निष्ठा पर दृढ़ तथा सम्मानित थे ।<br />
महापद्म नंद वंश <br />
1511 वि0पू0 में महापद्मनंद के वंश का महा साम्राज्य स्थापित हुआ । महापद्मनंद एक महान प्रतापी सम्राट था उसके राज्य में माथुरा और मथुरों के वैभव और श्रेष्ठता का महान विस्तार हुआ । सुमाल्य आदि इसके 9 पुत्रों ने मथुरा की वैभव वृद्धि में स्नेहयुक्त योगदान दिया ।<br />
मौर्य वंश<br />
1411 वि0पू0 में कटैलिया जाटों के पुरोहित कौटिल्य चांड़क्य की कूटनीति योजना से परम प्रतापी चंद्रगुप्तमौर्य द्वारा मौर्य वंश के साम्राज्य की नींव पड़ी । मौर्य मूलत: ब्रज के मयूर ग्राम(मोरा गाँव) के निवासी मयूर गण थे । ब्रज की तेजस्विता के फलस्वरूप वे अनेक खंडों में फैलकर स्व्च्छंद और महावलशाली बन कर मुरदैत्य तथा मूर मुराई मुरशद कहे जाने लगे । मुरसान, मुरार, मोरवी, मुरैना मोरावां आदि अनेक क्षेत्रों में इनका वंश फैंल चुका था । चंद्रगुप्त के उत्तर भारतीय साम्राज्य में मथुरा एक प्रमुख केन्द्र था, तथा इस वंश के वैभवशाली राजपुरोहित मौरे अल्ल धारी माथुरों के अनेक परिवार अभी भी मथुरा नगर में बसे हुए हैं । मौर्य काल में बौद्ध मत सारे भारत तथा विदेशों में भी खूब फैला । विंदुसार पुत्र सम्राट अशोक इस वंश का सबसे अधिक प्रतापी सम्राट था । इसने मथुरा में अनेक बौद्धस्तूप विहार और सनातन धर्म के देवालय निर्माण कराये, जिनकी वैभव संपति तथा अर्चना विधि के संचालक माथुर ब्राह्मण थे ।<br />
इस वंश के सम्राट शालिशूक (इंद्रपालित) 1300 वि.पू. के समय बौद्धधर्म बहुत विकृतियों से युक्त हो गया था । बौद्ध राजाओं का आरय पाकर बौद्धभिक्षुओं की संख्या इतनी बढ़ी कि वह भूमि का भार बन गयी ।<br />
कुछ इतिहास ज्ञों के मत से बौद्ध भिक्षु बल पूर्वक ग्रहस्थों के घरों से भिक्षा बसूल करने लगे । वे किसान का अनाज, ग्वालों का दूध घी, कुम्हारों के वर्तन, बजाज, दर्जी, माली, तेली, नाई, वाहन, चालकों के उत्पादनों और साधनों का बिना मूल्य अपहरण करने लगे । किसान, कारीगर, मजदूर, व्ययसायी, विद्वज्जन सभी वस्त्र रंगकर बौद्ध विहारों में भिक्षु बनकर मुफ्त के माल उड़ाने लगे । राजाओं की सेना सैनिक निशस्त्र भिक्षु बनकर चैन की नींद लेते हुए शौर्य हीन हो गये । राजदंड में क्षमा और दया का प्रवेश होने से चोरी लूट व्यभिचार आदि अपराध बढ़ गये । बौद्ध भिक्षुव्यसनी विलासी और तंत्र मंत्र नग्नासनों सिद्धियों के प्रयोंक्ता बन गये । सारा देश अकर्मण्य दुर्वल, कायर, शौर्यहीन और निस्तेज हो गया । इस अवसर का लाभ उठाने को उत्तर पश्चिम के आसुर क्रूर लोग भारत की दबोच कर अपने आधीन करने के प्रयास करने लगे । देश का धर्म और सुरक्षा महान संकट में पड़ गये ।<br />
भगवान काल्क का प्रादुर्भाव<br />
ऐसे समय गीता में अपनी धर्म घोषणा के प्रतिपालनार्थ प्रभु ने भगवान काल्कि के रूप् में अवतार धारण किया । प्रभु काल्कि का आविर्भाव संमल ग्राम में विष्णुयशा पराशर बशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण के यहाँ मौर्य शालिशूक राज के राज्यकाल में 1338 वि0पू0 में हुआ । विष्णुयश को अपने गुरू याज्ञवल्क्य वंशज तपस्वी ब्राह्मण से कृपारूप् आशीर्वाद प्राप्त था । कल्कि ने सिंहल द्वीप में पद्मावती नाम की राजकन्या से विवाह किया और फिर वहाँ से देवदत्त अश्व पर सवार होकर कराल खग्ङ धारण कर वैदिक धर्म के विरोधियों के संहार की घोषणा की । प्रथम उन्होंने विन्ध्येश्वरी नंदपुत्री योगमाया भगवती की आराधना की और फिर आकर मगध देश में ही विशाल धर्म सेना तैयार कर विधर्मियों का दमन आरंभ किया । इस समय बुद्ध धर्म को 450 वर्ष तथा उसके 25 बुद्ध हो चुके थे ।<br />
देश में नास्तिक अधर्मवादी संप्रदायों का जोर था । इनमें चावकि निरीश्वरवादी, अजितकेशी, उच्छेवादी, गोशालमंखली, आजोवकी, गोष्ठा माहिल, अनीश्वरवादी, पक्थ काच्चायन अशाश्वत वादी, पूरण काश्यप, सांजय वेल्हीपुत्र विक्षेप वादी आडार कालम अकिर्चिन्नायन बाद (संसार में कहीं कुछ नहीं है), आम्रपालिगणिका उपलि नापित का जात पांत निर्मूलन प्रयास, आदि प्रमुख थे । ये दान धर्म यज्ञ पाप पुण्य स्वर्ग नर्क कुछ नहीं हैं, हत्या चोरी व्यभिचार से पाप नहीं लगता तथा तीर्थ दान पूजा से पुण्य नहीं होता ऐसा घर घर प्रचार करते थे । जैनों के 363 पंथ तथा बौद्धों के अनगिनती थे । मगध, लिच्छवी, शाल्व, बुलि, कोल्लिय, मत्म्त्मे, कौशल आदि अनेकों राजा इन संघों के भक्त थे ।<br />
प्रभु काल्कि ने इन सबका प्रतारण किया । अधिक रक्त पात न करके उन्होंने यज्ञों द्वारा प्रजा को आकर्षित करके और सेना भय से नरेशों को कुमार्ग से विरत करके सारे देश में शाश्वत वैदिक श्रौत स्मार्त पौराणिक धर्म की ध्वजा समग्र भारत वर्ष में फरहादी । लोग लाखों की संख्या में भगवान काल्कि के दर्शनों, यज्ञ महोत्सवों और अपने प्राचीन धर्म को पुन: अंगीकर करने की आने लगे । कहीं कहीं कुछ गर्वित नरेशों ने युद्ध भी किया परन्तु वे पूर्णत: ध्वस्त हुए । फिर उन्होंने सीमा पर आक्रमण की तैयारी करते हुए यवन म्लेच्छ खश, काम्बोज, शवर, बर्वर, भूतवासी सारमेयी, काक, उलूक, चीन, पुर्लिद, श्वपच पिशाच, मल्लार देशों को विजय कर उन्हें धर्मानुकूल बनाया ।<br />
इस धर्म विजय के पश्चात अयोध्या तथा फिर "मथुरा मागमन्मही" 'तस्या, भूपंसूर्यकेतु' मभिषिच्य महाप्रभु' वे मथुरा पधारे यहाँ विशाल यज्ञ आयोजित किया प्रधान ब्राह्मण माथुरों की अर्चना की तया समस्त जीती हुई भूमि ब्राह्मणों को दान करके देदी । माथुरा के बाद गाँव में इस यज्ञ का आयोजन करके प्रभु काल्कि ने मथुरों को वेदवाद प्रचार के लिये संयोजित किया । इस प्रकार अपना अवतार कार्य परिपूर्ण करके वे 1296 वि0पू0 में हिमालय में प्रवेश करके स्वधाम को प्रयाण कर गये ।<br />
भगवान काल्कि का स्नेह माथुर ब्राह्मणों पर विशेष रूप से था पिंडारक तीर्थ पर जब माथुर महर्षि गण अत्नि वशिष्ठ मृगु पराशर दुर्वासा अंगिरा उनके समीप पहुँचे तो उन्होंने कहा – <br />
मथुरायामहं स्थित्वा हरिष्यामितु वो भयम् ।।26।।<br />
युवां शस्त्रास्त्र कुशलौ सेनागण परिच्छदौ ।<br />
भूत्वा महारथौ लोके मया सह चरिष्यथ: ।।28।।<br />
भगवान कल्कि का चरित्र दिव्य महान और विस्तार युक्त है । कल्कि पुराण में इसका पूर्ण वर्णन हुआ है । यह पुराण भारत धर्म महामंडल काशी द्वारा 1962 वि0 में निगमागम पुस्तक भंडार बांस का फाटक बाराणसी से प्रकाशित हुआ है तथा बैंकटेश्वर प्रेस बंबई एवं खेमराज श्री कृष्णदास बंबई से भी इसके प्रकाशन हुए हैं । अमरीका की पेन्सिलवेनियाँ विश्वविद्यालय तथा ब्रुकलिन कालेज न्यूया्रक में कल्कि अवतार पर शोधकार्य हुआ है पुराणों में स्कंद पुराण माहेश्वर कल्प के कुमारिकाखंड में तथा महाभारत के बन पर्व 188 तथा 190,191 में भी इस अवतार का कथन है फिर न जाने किस कारण से विद्वद्वर्ग ने ऐसे महान अवतार को अंथकार के गर्त में डाल रक्खा है ।<br />
जगद्गुरू श्री शंकराचार्य और कुमारिल स्वामी<br />
600 वि0पू0 से 1800 विक्रम संवत तक ब्रह्मरात्रि का द्वापर युग प्रवर्तित हुआ । इस काल में आंध्रमृत्यु, वाकाटक, सात वाहन, भारशिवनाग, गुप्तवंश, चालुक्य, पल्लव, पांड्य चोल, बल्लभी, मौखरी आदि अनेक वंश उठे और गिरे/हूणों के आक्रमण का ताँता लगा । युग धर्म के अनुसार जो पांखंड मत काल्कि विजय में भेष बदल कर लुप्त हो गये वे पुन: सिर उठाने लगे । अत: धर्मवीज के अंकुर की रक्षा के लिए भगवद अन्श से और दो महापुरूषों ने जन्म धारण किया । इनमें प्रथम श्री कुमारिलभट्ट स्वामी थे जो श्री शंकराचार्य से 57 वर्ष बड़े थे । श्री पी0 एन0 ओक की शोध के अनुसार इनका जन्म लगभग 509 वि0पू0 का है । इन्होंने 97 वर्ष आयु प्राप्त करके आसेतु हिमालय वेदमार्ग की घ्वजा फहरा कर बौद्धों तथा अन्य बचे खुचे पाखन्ड मतों को उन्मूजन किया । श्री शंकराचार्य के बौद्ध मत खन्डन पत्रक में इनका विशेष उल्लेख है । इन्होंने कार्तकिेय स्वामी का अवतार होने से स्वामी पद धारण किया था । मगध विहार के नालंदा विश्व विद्यालय में जबसे बौद्ध आचार्य से न्याय दर्शन पढ़ रहे थे तब गुरू के चरण दबाते समय वेद निन्दा सुनकर अनके नेत्रों से आँसू टपक कर आचार्य के चरणों में गिरे । यह देख बौद्धों ने यह तो वेद वादी है । वे उन्हैं धनवाद के राजा सुघन्वा के सामने ले गये और वहाँ उन्हैं ताड़ना देकर ऊँचे पर्वत से गिराया गया किन्तू वेद सत्य है तो मेरी रक्षा होगी' एसे निश्चय से इनकी रक्षा हुई । तब इन्होंने समस्त भारत वर्ष में वेद धर्म के प्रचार की प्रतिज्ञा ली । मथुरा के वेदपाठी चतुर्वेदी माथुर ब्राम्हाणों के महत्व को अनुभव कर उन्होंने अपना वेद धर्म आन्दोलन यहीं से श्रीगणेश किया । उन्होंने वेदपाठी चतुर्वेदी ब्राह्मणों का एक वेद प्रचार वर्ग बनाया और उसका केन्द्र जिस स्थान पर रक्खा वह वेदवाद तीर्थ बाद गाँव नाम से अभी भी मथुरा में है तथा इस समूह के वेद वादी माथुरों की भारद्धाज गोत्रिय शाखा कुमारिली या रिली कही जाती है विद्वानों ने इस शाखा को अनअल मनमानी कहा है जबकि उनने इस प्राचीन शाखा के गौरव को जाना ही नहीं । इसके बाद बाद गाँव को आगे चलकर भक्त महात्मा श्री हित हरि वंश जी की जन्म भूमि होने का भी महत्व प्राप्त हुआ है ।<br />
एक बार कुमपरिल स्वामी राजा सुघन्वा के राज महल के नीचे से जा रहे थे । उन्हैं देख राजा की राजकुमारी ने छत पर से व्याथित स्वर में पुकार की 'कि करोमि क्व गच्छामि, को नुइरिष्ययति ।' उन्होंने ऊपर देखा और उत्तर दिया 'मा चितय बरारोहे भट्टाचार्योस्ति भूतले ।।' बौद्धमतानुयामी सुघन्वा राजा ने इन्हैं अनेक कष्ट दिये किन्तु अन्त में पराजित होकर वह इनका शिष्य हो गया और सारे देश में दुन्दुभी घोष करा दिया- <br />
व्यादाथाज्ञां ततो राजा बधाय श्रुति विद्विषां । <br />
आसेतो रातुषाराद्रे, बौद्धानां वृद्धिं घातकम् <br />
नहनिष्यतिय: स हन्तव्य. भृत्यानित्यन्वशानृप ।<br />
इस राजाज्ञा से सारा बौद्ध समाज निरस्त हो गया । विद्यारण्य स्वामी लिखते हैं- <br />
बौद्धादि नास्तिकाध्वस्त वेदमार्ग पुरा किल ।<br />
भट्टाचार्य: कुमाररांश: स्थापयामास भूतले ।।4।।<br />
जगदगुरू श्री आद्यशकराचार्य महाराज- इस समय में 452 वि0पू0 में केरल में शंकर भगवान के अवतार श्री आद्य शंकराचार्य सवामी का प्रादुर्भाव हुआ । वे केवल 32 वर्ष ही भूलव पर विराजे किन्तु इतने समय में ही उन्होंने सन्यास ग्रहण कर भारत वर्ष के समस्त धरा मण्डल का परिभ्रमण कर वैदिक समातन धर्म की अखन्ड ध्वजा फहरा दी । उन्होंने देश की चारों सीमाओं पर उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में श्रृंगेरीमट, पूर्व में गोवर्धन मठ और पश्चिम में शारदा मठ के प्रबल धर्म केन्द्र स्थापित किये । वे मथुरा पुरी भी पधारे और माथुरों का मानकर श्री यमुना महारानी के परम भक्ति पूर्ण दो यमुनाष्टक रचकर गान किये । इनमें से एक में "धुनोतु में मनोमलं कलिंदनदिनी सदा" कहकर महर्षि वेद व्यास के कृष्ण गंगा आश्रम पर विराजमान कलिंदी माता जी तथा दूसरे में जय यमुने जय भीति निवारिणि शंकट नाशिनि पावय माम्" कहकर मधुवन चारिणि भास्कर वाहिनि अर्थात् सूर्य सेन पुरी मथुरा के सूर्य सांव तीर्थ से मधुवन में बहने वाली एतिहासिक यमुना धारा की वन्दनात्मक सूचना दी है । इन स्तोत्रों में श्री महाराज ने 'तटाँतवास दास हँस ता" "ब्रजपुरवासि जनार्जित पातक हारिणि तथा तव पद पंकज आश्रित मानव कहकर यमुना पुत्र माथुरों की ओर संकेत किया है । इसी महान परम्परा के द्वारिका पीठ के श्री शंकराचार्य स्वामी वर्य ने यहाँ माथुरों पर होता आक्षेप सुनकर एक अति महत्वपूर्ण धर्म व्यवस्था माथुरों को स्नेहाई होकर प्रदान की जो इस प्रकार हैं- <br />
श्री शारदा पीठ द्वारिका के पीठाधीश्वर जगद् गुरू श्री शंकराचार्य स्वामी द्वारा घोषित<br />
उपलब्ध कर्ता- बालमुकुन्द चतुर्वेदी विद्या वारिधे ।<br />
भाषान्तरकार- साहित्याचार्य रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी ।<br />
श्री मथुरापुरी के रहने वाले श्री माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण चौवे नामधारी जाति के विषय में इधर कुछ शंकायें हो रही हैं, उनके विषय में यथार्थ निर्णय करने के लिये-श्री वासुदेव जी महाराज तथा श्री रज्जुदेव जी महाराज एवं अन्य भी समागत चतुर्वेदियों के आग्रह को स्वीकार करके श्री द्वारिका पीठस्थ श्री जगद्गुरू शंशकराचार्य महाराज ने मथुरा पुरी में विक्रम संवत 1951 के पौप कृष्ण 13 चंडवार को यह धर्म निर्णय घोषणा आलेखित की है पेस का आशय इस प्रकार है-</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_12&diff=56299चतुर्वेदी इतिहास 122010-04-23T12:03:11Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==भारद्वाज के गोत्र प्रवर==<br />
भारद्वाज गोत्र के तीन प्रवर हैं- आंगिरस बार्हस्पत्य भारद्वाज ।<br />
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'''1. आंगिरस'''- ये अंगिरावंशी देवताओं के गुरू बृहस्पति हैं । इनके दो भाई उतथ्य और संवर्त ऋषि तथा अथर्वा जो अथर्व वेद के कर्त्ता हैं ये भी आंगिरस हैं । ये ऋषि कोटि में पहँचे थे । ये मनुष्य जाति के प्रथम आदि पुरूष हैं जिन्होंने अग्नि उत्पत्र की भाषा और छन्द विद्या का आविष्कार किया ऋग्वेद के नवम मण्डल के मन्त्रों के द्दष्टा अपने वंशधरों को एक मण्डल में स्थापित किया, ब्रह्मदेव से ब्रह्मविद्या प्राप्त कर समस्त ऋषियों को ब्रह्माज्ञान का तत्व दर्शन उपदेश किया । अथर्ववेद का एक कल्प आंगिरस कल्प है । आत्मोपनिषद में इनकी ब्रह्मज्ञान विद्या का निर्देशन है । इन्होंने आदित्यों से स्वर्ग में पहले कौन पहुचे ऐसी शर्त लगाई और स्वर्गकाम यज्ञ किया किन्तु आदित्य स्वयं तेजधारी होने से पहिले पहुंचे तथा ये उनसे 60 बर्ष पश्चात स्वर्ग की गौ (कामधेनु) दी । ये सर्वप्रथम गोस्वामी बने परन्तु इन्हें गौ दोहन नहीं आता था जिसे इन्होंने अर्यमा सूर्य से प्राप्त किया । ये समस्त भूमण्डल में भ्रमण करने वाले पृथ्वी पर्यटक थे । जिन्होंने विश्व की सभी मानव जातियों को जो महामुनि कश्यप से उत्पत्र थे यथा स्थान बसाया तथा 9400 वि0पू0 में उन्हें मानव जीवन के लिए उपयोगी अनेक विद्याओं का प्रशिक्षण दिया । ये अपने समय के समस्त भूमण्डल में स्थापित तीर्थों के ज्ञाता थे । जिनकी बहिर्मडल यात्रायें इन्होंने प्रहलाद बलि जामवन्त हनुमान सुग्रीव को करायी थी ।<br />
<br />
आंगिरसों के कुल में अनेक प्रतापी यशस्वी पुरूष हुए हैं, जिनमें से कुछ के यनाम इस प्रकार हैं- देवगुरू बृहस्पति, अथर्वेवेद कर्ता अथर्वागिरस, महामान्यकुत्स, श्री कृष्ण के ब्रह्माविद्या गुरू घोर आंगिरस मुनि । भर ताग्नि नाम का अग्निदेव, पितीश्वरगण, गौत्तम, बामदेव, गाविष्ठर, कौशलपति कौशल्य(श्रीराम के नाना), पर्शियाका आदि पार्थिव राज, वैशाली का राजा विशाल, आश्वलायन (शाखाप्रवर्तक), आग्निवेश(वैद्य) पैल मुनि पिल्हौरे माथुर(इन्हें वेदव्यास ने ऋग्वेद प्रदान किया), गाधिराज, गार्ग्यमुनि, मधुरावह(मथुरा वासी मुनि), श्यामायनि राधाजी के संगीत गुरू, कारीरथ (विमान शिल्पी) कुसीदकि (ब्याज खाने वाले ) दाक्षि (पाणिनि व्याकरण कर्त्ता के पिता), पतंजलि(पाणिनि अष्टाध्यायी के भाष्कार), बिंदु (स्वायंम् मनु के बिंदु सरोवर के निर्माता), भूयसि( ब्रह्माणों को भूयसि दक्षिणा बाँटने की परम्परा के प्रवर्तक), महर्षिगालव (जैपुर गल्ता तीर्थ के संस्थापक), गौरवीति(गौरहे ठाकुरो के आदि पुरूष), तन्डी (शिव के सामने तांडव नृत्य कर्ता रूद्रगण), तैलक (तैलंगदेश तथा तैलंग ब्रह्मणों के आदि पुरूष), नारायणि (नारनौलखन्ड वसाने वाले), स्वायंभूमनु(ब्रहषि देश ब्रह्मावर्त के सम्राट मनुस्मृति के आदि मानव धर्म के समाज रचना नियमों के प्रवर्तक), पिंगलनाग(वैदिक छन्दशास्त्र प्रवर्तक), माद्रि (मद्रदेश मदनिवाणा के सावित्री (जव्यवान) के तथा पांडु पाली माद्री के पिता अश्वघोषरामा बात्स्यायन (स्याजानी औराद दक्षिण देश के काम सूत्र कर्ता), हंडिदास (कुवेर के अनुचर ऋण बसूल करने वाले हुँडीय यक्ष हूड़ों के पूर्वज), बृहदुक्थ (वेदों की उक्थ भाषा के विस्तारक भाषा विज्ञानी), वादेव (जनक के राज पुरोहित), कर्तण (सूत कातने वाले), जत्टण (बुनने वाले जुलाहे) बिष्णु सिद्ध (खाद्यात्र (काटि) कोठारों के सुरक्षाधिकारी), मुद्गल मुदगर बड़ी गदा) धारी, आग्नि जिव्ह (अग्नि मन्त्रों को जिव्हाग्र रखने वाले ) देव जिव्ह (इन्द्र के मन्त्रों को जिव्हाग्र धार), हंसजिव्ह (प्रजापति ब्रह्मा के मन्त्रों के जिव्हाग्र धारक). मत्स्य दग्ध (मछली भूनने वाले), मृकंडु मार्कडेय, तित्तिरि तीतर धर्म से याज्ञवल्क्य मुनि के वमन किये कृष्ण्यजु मन्त्रों को ग्रहण करने वाले तैतरेय शाखा के ब्राह्मण), ऋक्ष जामवंत, शौंग(शुंगवन्शीतथा माथुर सैगंवार ब्राह्मण) दीर्घतमा ऋषि (दीर्घपुर डीगपुर ब्रज के बदरीवन में तप करने वाले) हविष्णु (हवसान अफ्रीका देश की हवशी प्रजाओं के आदि पुरूष) अयास्य मुनि ( अयस्क लोह धातु के अविष्कर्ता) कितव (संदेशवाहक पत्र लेखक किताब पुस्तकें तैयार करने वाले देवदूत) कण्व ऋषि(ब्रज कनवारौ क्षेत्र के तथा सौराष्ट्र के कणवी जाति के पुरूष) आदि अनेक महानुभावों ने आंगिरस कुल में जन्म लेकर अथवा इनका शिष्यत्व रूप अंग बनकर भारतीय धर्म और संस्कृति को विश्व विख्यात गौरव माथुरी गरिमा के अनुरूप् प्रदान किया है। बृहस्पति का जन्म स्थान द्युलोक के शीर्ष स्थल घौसेरस में है ।<br />
<br />
'''2. बार्हस्पत्य'''- बृहस्पति तारा से उत्पत्र 7 आग्नि देव पुत्र तथा प्रधान पुत्र कच(कछपुरा तथा कुचामन राजस्थान) ही वार्हस्पत्य हैं । तारा के पुत्र भुगु निश्च्यवन विश्वभुज विश्वजित बड़वाग्नि जातवेदा (स्पिष्ट कृत) हैं । ये सभी वेदों में वर्णित और यज्ञों में पूजित हैं । बच ने देवयानी शुक्र कन्या से प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर शुक्राचार्य की मृत संजीवनी विद्या मरू देश में वृषपर्वादानव (फरवासी) के राज्य में कचारण्य (कुचामन) में रह कर प्राप्त की तथा दैत्य दानवों द्वारा अनेक बार इसका घात करने पर भी यह इस से विद्या जीवित हो उठे । यह देवों से पूज्य यज्ञ भाग प्राप्त कर्त्ता ऋषियों में परम आदरणीय हुए हैं । देवयानी पीछे शर्मिष्ठा के साथ ब्रज में ययाति के पुर(जतीपुरा) में आकर शर्मिष्ठा के उपवन(श्याम ढाक) में आकर रही और ययाति 6033 वि0पू0 से देवयानी बन(जान अजानक बन) में यदु तुर्वसु पुरू जिनका वर्णन ऋग्वेद में है । अपने पुत्रों के साथ रहे । <br />
शर्मिष्ठा से (श्यामढाक बन) दुह्मु अनु(आन्यौर) और पुरू हुए । ययातिने सुरभी गौ नाम की अप्सरा से सुरभी बन पर (अप्सराकुन्ड) अलका से अलकापुरी अलवर में, विश्वाची अप्सरा से अप्सरा सरोवर वन में विहार किया । बृहस्पति की एक पत्नि जुहू(जौहरा) भी थी जिससे जौहर करने वाले जुहार शब्द से अभिवादन करने वाले यहूदी वंश तथा जौहरी कायस्थ तथा युद्ध में आगे लड़ने वाला हरावल दस्ता जुझाइऊ वीर उत्पत्र हुए । ये सब बार्हस्पत्य थे ।<br />
भारद्वाज वंशजों मत्स्य पुराण में कुलीन वंश कहा गया है ।<br />
<br />
==भारद्वाज की अल्लैं==<br />
<br />
भारद्वाज गोत्र में सर्वाधिक अल्ल या अड़कैं हैं ।<br />
<br />
'''1. पाँडे'''- ये सर्वाधिक प्रभाव और प्रतापशाली तेजस्वी और सम्मान प्राप्त थे । मथुरा में इनका निवास स्थान हाथी वारी गली तथा गोपाचल में शंकरपुर है । पांडे शिक्षा कर्म के आचार्य सुप्रसिद्ध व्याकरण कर्त्ता पाणिनि अष्टाधारी ग्रन्थ रचयिता के वंशज हैं । विद्यार्थियों को आरम्भ से ही भाषा शास्त्र का अध्ययन कराने के कारण ये पांडे नाम से प्रतिष्ठित हुए हैं । पांड़े(अध्यापक) और चट्टा (विद्यार्थी) जो चट या चटाई पर बैठकर गुरू के चरणों में श्रद्धा रखकर विद्या ग्रहण करता है यह दोनों शब्द माथुरी संस्कृति में लोक प्रसिद्ध हैं । पांड़ेजी की पाठशाला चट सार कहलाती रही है, जो माथुरें के मुहल्लों में प्राय: अथाइयों (अस्थाचल सूर्य काल की बैठकों ) में उनके आस-पास के देव मन्दिरों में स्थापित होती थीं । झम्मा पांड़े रघुनाथ पांड़ गणेशीलाल चौधरी दौलतराम पाँडे़ आदि अनेक अध्यापक पाँड़े कर्म में विख्यात रहे हैं । पौराणिक प्राचीन साहित्य के अनुसार सबसे प्राचीन व्यारणकार भारद्वाज के भारद्वाजीय व्याकरण ग्रन्थों के आधार पर पाणिनि ने अपना अष्टध्यायी व्याकरण ग्रन्थ तथा भाषा उच्चारण का ग्रन्थ पाणिनि शिक्षा की रचना की थी । शिक्षकों को पांड़े पाणियां, राजस्थान आदि प्रान्तों में भी कहा जाता है । पाणिनी मथुरा के निवासी पांड़े अख्याधारी थे । भारतीय प्राचीन साहित्य के अनुसार इन्होंने ऋग् प्रतिशाख्य भारद्वाजीय व्याकरण आदि ग्रन्थों के आधार पर अपना अष्टाध्यायी ग्रंथ रचा था । ये मौर्य शासन काल में वर्तमान थे । इनका छोटा भाई पिगंल छन्द शास्त्र कर्त्ता ग था) व्याडि नाम का व्याकरण विद्वान भी इनका सहाध्यायी था । व्याडि(बाढ़ा उझानी) दक्ष गोत्री दाक्षायण थे और इनके मामा थे तथा इनकी माता दाक्षी होने से इन्हें 'दाक्षीपुत्रो पाणिनेय:' पिंगलनाग कहा गया है । पाणिनि का ग्राम पानी कौ इनके गाँव तथा शालातुरी परिवार का क्षेत्र यमुना तट का 'स्यारये कौ घाट' मथुरा अंचल में है । पिंगल का पिगोरा भी इसी क्षेत्र में है । घोर आश्चर्य है कि इतने पुष्ट आधारों के होते हुए आधुनिक विद्वान पाणिनी को तक्षशिला तथा पेशावर का निवासी अफगान पठान बिना किसी प्राचीन प्रमाण के लिखते चले जा रहे हैं । पठानों में कोई पाणिन वन्श पांडी पांडुल्ला पाडुनुद्दीन नहीं है तथा पाणिनी ने पुश्तों अरबी फारसी का कोई ग्रन्थ नहीं रचा है । यदि वे पठान वंशी होते तो पैशाची पुश्तों का व्याकरण रचते और उनकी अफगानी अरबी फारसी ईरानी तुर्की के विद्वानों में गणना अवश्य ही होती । केवल तथा शिला में शिक्षा की कल्पना से वे कंधारी पेशावरी नहीं हो सकते । पाणिनी ने अपने पूर्वाचार्यों में कौत्स शिष्य मांडव्य, पाराशर्य, शिलालि, कश्यप, गर्ग, गालब, भारद्वाज, चक्रवर्म (चकेरी), शाकटायन, स्फोटायन सेनुक आदि के नाम लिखे हैं जिनमें कोई भी अफगान या पठान नहीं था ।<br />
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पाणिनि का दक्ष दौहित्र होना उन्हें प्रबल रूप से मथुरा का माथुरा ब्रह्मण होना सिद्ध करता है क्योंकि दक्ष गोत्र माथुरों के अतिरिक्त और किसी ब्रह्मण वर्ग में नहीं है तथा इनके मामा व्याड़ि को स्पष्ट ही "तत्र भवान् दाक्षायणा: दाक्षिर्वा" कहा गया है । मत्स्य पुराण में दाक्षी ऋषि को अंगिरा वंश में स्थापित किया गया है । सम्राट समुद्र गुप्त की प्रशन्ति में व्याडि को रसाचार्य कवि और शब्द ब्रह्म व्याकरणज्ञाता पुन: भी कहा है-<br />
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रसाचार्य: कविर्व्याडि: शब्द ब्रह्मैकवाड् मुनि: ।<br />
दाक्षी पुत्र वचो व्याख्या पटुमिंमांसाग्रणी ।।<br />
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शोध तथ्यों के अनुसार पाणिनी ने कृष्ण चरित्र तथा व्याडि ने बलराम चरित्र काव्यों की रचना भी की थी ं पाणिनि ने अष्टाध्यायी में नलंदिव नाम के स्थान का उल्लेख किया है जो मथुरा नगर का प्राचीन टीला 'नकती टेकरा' ही है । अष्टाध्यायी पर माथुरी वृत्ति भी है । पाणिनि के भाष्यकार परम विदुष महर्षि पतंजलि धौम्य गोत्रिय श्रोत्रिय (सोती) माथुरा वंश विभूषण थे । वे पुष्यमित्र शुंग (भारद्वाज गोत्री सौगरे) के द्वारा आयोजित अश्वमेध यज्ञ के आचार्य थे । नागवंशी होने से ये कारेनाग तिवारी शाखा में थे । ये अंगिरा कुल कुत्स गोत्रियों के शिष्य थे । पातंजलि शुंगकाल से चन्द्रगुप्तमौर्य काल तक थे तथा इनके समय उत्तर भारत पर यवनों के आक्रमण होने लगे थे । पातंजलि सामवेदी कौथुम शाखा के थे तथा इनका निवास गोनन्द गिरि नदवई ब्रज में था । पांड़े वंश की यह कितनी महान ऐतिहासिक परम्परा है । पांड़े वंश की प्रशाखाओं में खैलावंश, घरवारी, कुइया, बुचईबन्श, मारियाँ, डुगहा, काजीमार, होली पांडे़, शंकर गढ़ के पांड़े आदि उल्लेखनीय हैं । कारेनाग, दियोचाट (सद्योजात वामदेव रूद्रत्रण), चौपौरिया, जैमिनी वंश भी इनके प्राचनी वंश हैं । <br />
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जैमिनी महर्षिवेदव्यास के सामवेदाध्यायी शिष्य थे ये कौत्स के वंशज थे । ये युधिष्ठ के राजसूय में तथा जनमेजय के सर्पसव में व्यास शिष्य वैशम्पायन के साथ सम्मिलित थे । इनने मथुरा में व्यास आश्रम कृष्ण गंगा पर निवास कर साम वेद उपलब्ध किया था जैमन, जैमाचूठी जौंनार इनके प्रिय संस्कृति सूत्र हैं । इनके सहाध्यायी महर्षि पैल थे जिन्हैं वेदव्यास ने ऋग्वेद दिया था । और आज थे पिल्हौरे माथुर कहे जाते हैं ।<br />
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'''पाठक-''' ये वैदिक संहिताओं के यज्ञ समारोहों में ससवर पाठ करने वाले वैदिक महर्षि थे । ब्रह्मण ग्रन्थों में पाठसक भाग इन्हीं के अनुभव के संकलन हैं । यह भी प्रभावशाली वर्ग है । <br />
अन्य अल्लौं में रावत (पारावत) मावले (महामल्ल), अझुमिया (अजमीढ यादव प्रोहित, यज्ञ में अग्न्याधाम होने पर प्रथम आज्य की आहुतियाँ डालकर अग्नि देव को चैतन्य करते थे), कोहरे (कहोल वंशज), चौपौलिया (चौपालों पर बैठकर माथुर आवासों की चौंकसी और रक्षा करने वाले), रिली कुमारिल मट्ट के वेदौद्धारक प्रयासों के प्रबल सहायक (आरिल्ल नाम के वीर रस के छन्दों के अग्रगायक), वीसा (विश्वासवसुगंधर्वराज के प्रोहित), सद्द (धर्मनिर्णायक परिषदों के संचालक), तिबारी (त्रिवेदी), लौहरे (लोहबन के निवासी), नसवारे(कनिष्क कंसासुरवंश के याजक, नशेबाज), सिकरौलिया (सिकरौल वासी ), मैंसरे (महिष वंश भौसले भुसावल महिसाना, मैंसूर, मस्कत, मसूरी आदि क्षेत्रों की प्रजाओं के प्रोहित, उचाड़े (उचाड़वासी), गुनारे (फाल्गुनी यज्ञ होलीकोत्सव के आयोजक, मिश्र (वेद और तन्त्र दोनों की मिश्रित विद्याओं से यज्ञ कराने वाले, जनुष्ठी (जन्हु यादव के पुरोहित (जुनसुटी निवासी) चतुर (युक्तिचतुर), डुंडवारिया(गंगडुंवारा के ) पैठवाल पैठागाँव वाले) दरर(विधाधरों के ) पूरबे (पुरूरवा के) हलहरे (हालराज के) मारौठिया (मारौठवासी) जिखनियाँ (जिखन गाँव के) अगरैंया, (आगरा के), दुसाध (दुसाध निषादों के सहवासी) सुमेरधनी (सुमेरू युक्त बड़ी सुमिरनी माला पर जाप करने वाले) आदि इनमें कुछ बहुत एतिहासिक महत्व की सूचनायें देने वाली भी अल्लैं हैं जैसे- बाबले (बाबर के सेवाश्रमी) बहरामदे (अकबर के फूफा बैरम खां के आश्रर्यजीवी) दाहरे (सिंध के धार्मिक राजा दाहर के सभासद 769 वि0 में यह यवन खलीफा के सेनापति इव्नफासिम के आक्रमण से पराजित होकर ब्रह्मर्षि देशों में भाग आया था और धर्मचर्या तथा त्याग रूप जीवन में उपराम लिया था, दारे (शाहजहां का वेद वेदांत धर्म चिन्तक शाजजादा दारा के सहायक, दारा को शाहजहां ने पंजाब और दिल्ली मथुरा का इलाका दिया था, वह केशवनारायन श्री यमुनाजी और माथुर ब्रह्मणों का परम भक्त था । औरंगजेब के हाथों छत्रसाल के पिता चंपतराय के द्वारा इसका धौलपुर के युद्ध में परामव और वध हुआ), साजने (शाहजहां बादशाह के राजकर्म चारी गण) जहांगीर बादशाह के (जहांगीरपुर गाँव के निवासी) आदि ।<br />
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सौश्रवस गोत्र<br />
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ये विश्वामित्र के बंशज हैं । इनका समय 2857 वि0पू0 है । ये मथुरा के क्षेत्र में सौश्रबस आश्रम (सौंसा साहिपुरा) में रहने थे । इनके तीन प्रवर विश्वामित्र देबराट् औदले हैं । सौश्रबस सुश्रबा महर्षि के पुत्र थे । इनका कथन अनेक प्राचनी ग्रन्थों में है । पंचबिश ब्राह्मण 14-6-8 के अनुसार ये और्व राजर्षि के पुरोहित थे । अपने पिता सुश्रवा की अवमानना करने पर सुश्रवा के निर्देश पर और्व ने इनका सिरच्छेद कर दिया जिसे विप्र भक्ति से प्रभावित इन्द्र ने पुन: संधाधित किया ।<br />
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'''1. विश्वामित्र'''- इनके प्रथम प्रतापी प्रबर पुरूष थे जिनका परिचय पर्याप्त रूप में हो चुका है । इनका समय 5408 वि0पू0 तथा स्थान मथुरा में कुशिकपुर (कुशकगली) था ।<br />
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'''2. देवराट'''- ये विश्वामित्र के उपेक्षित पुत्र थे । मूलत: इनका नाम शुन:शेष (कुत्ते की पूँछ) था । ये अपने पिता के उपेक्षित पुत्र थे । अयोध्यापति महाराज हरिचन्द ने जब बरूण देवता की मान्यता करके भी अपना पुत्र रोहिताश्व उसे बलि नही दिया तब बरूण ने उसके उदर में जलरोग (जलोदर) उत्पत्र किया । इस संकट से मुक्त होने को ऋषियों ने राजा को किसी अन्य कुमार को अपने पुत्र के प्रतिनिधि रूप में बलि अर्पित करने की सलाह दी ।<br />
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प्रयत्नों के बाद ब्राह्मणकुमार शुन: शेष को उसका पिता द्रव्य के बदले देने को राजी हो गया । जब ब्राह्मणकुमार बलि हेतु यज्ञ यूप से बांधा गयां तो वक भयार्त होकर रूदन करने लगा, इस पर विश्वामित्र को करूणा उत्पत्र हुई और उनने शुन: शेष के समीप जाकर उसे वरूण स्तुति के कुछ अति प्रभावोत्पादक दीनता सूचक मन्त्र बताकर पाठ करवाये । वरूण देव इन मन्त्रों से दयाद्रवित हो गये और शुन:शेष को बलि मुक्त कर दिया । विश्वामित्र ने तब चरणों में लिपटे बित्रकुमार को छाती से लगाया और उसका शुन:शेष (कुत्ते की पूँछ) जैसे हीन नाम से देवराट् (देवों का राजा इन्द्र) जैसा नाम दिया तथा अपने 100 पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ मानकर सबको उसका मान करने की आज्ञा दी । विश्वामित्र ने वेद विद्या पढ़ाकर देवराट को वैदिक ऋषियों में स्थान दिलाया । उसके मन्त्र ऋग्वेद में हैं । यह शुन:शेष देवराट् माथरों के उत्तम ब्राह्मण बन्श में प्रविष्ठ हुआ और सौश्रवसों का प्रवरीजन स्वीकृत हुआ ।<br />
इसका समय हरिश्चन्द्र काल 5262 वि0पू0 है ।<br />
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औदले-यह महर्षि उछालक के पुत्र थे । इनका मूलनाम आरूणी पांचाल था ता मथुरा निवासी धौम्य आचार्य (आपोद धौम्य) के शिष्य थे । इनकी गुरू भक्ति की कथा सर्वोपरि है । एक बार अपने मथुरा के धौस्य आश्रय (धामला बाग) में समीप के खेत पर वर्षा के पानी को रोकने हेतु गुरू ने इन्हैं भेजा । पानी किसी भी प्रकार न रूकने पर आरूणी ने जल धारा के बीच लेटकर पानी बन्द किया काफी रात गये गुरूजी आरूणी को खोजने निकले तो आवाज लगाने पर उसे जल प्रवाह के बीच लेटा हुआ पापा(इस महान गुरूभक्ति से प्रभावित होकर उन्होंने उसे ह्दय से लगा लिया तथा सभी वेद, ब्रह्म विद्यायें उसे प्रदान कीं तथा उसका आरूणी के स्थान पर उद्दालक नाम रखा ।<br />
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आगे चलकर यह महान ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी हुआ । इसका महर्षि याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या पर संवाद हुआ । इसने अपनी आध्यात्म विद्या परम्परा वेदगर्भ ब्रह्म से आरम्भ की तथा इनद्रद्युम्न, सत्ययज्ञ, जनक, तक दी है । वुडिल इससे ब्रह्म ज्ञान पाने को आये थे । इसने कुशिक वंश की कन्या से विवाह किया जिससे इसे श्वेत केतु नचिकेता (नासिकेत) तथा सुजाता पुत्री हुई । यह सुजाता कहोल ऋषि(काहौ माथुर वंश) को व्याही जिससे अष्टावक्र पुत्र हुआ । श्वेतकेतु ने जनक सभा में याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ किया । इसके पिता उद्दालक ने इसे'तत्वम' नाम की विद्या का उपदेश किया । श्वेतकेतु माथुर ने कुरू पांचाल (काख पचावर) में निवास कर जावली गाँव के राना प्रवाहल जैविली से ब्रह्म विद्या आगे सीखी । यह परमाणु विद्या का भी महान ज्ञाता था । श्वेत केतु को समाज व्यवस्थापक सामाजिक नियमों की स्थापत्र, विवाह संस्था, यज्ञ संस्था, ब्राह्मण को मद्यपान निषेध परस्त्रीगमन, विवाह के बाद कर्त्तव्य पालन, राज्यभिषेक के नियमों का कठोर विधान करने से इसे भारतवर्ष का सर्वप्रथम समाज सुधारक माना जाता है ।<br />
उद्दालक पुत्र नचिकेता – पिता की भर्त्सना पर संदेह जीवित यमपुर गये और यमलोक दर्शन कर यमदेव से संवाद कर लौटकर आये तथा यमपुरी सारी व्यवस्था मनि मण्डल को सुनाई । इनका यात्रा वृत्तांत नसिकेत पुराण में विस्तार से वर्णित है । अष्टा वक्रने जनक की सभा विजय कर पिता का बदला लिया, तथा सब पराजित पंडित मुक्त किये ।<br />
==सौश्रवसों की अल्लैं==<br />
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इनकी अल्लैं 14 हैं जो इस प्रकार हैं-<br />
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'''1.मिश्र'''- ये मिश्र देश के मग (मगोर्रा) और शाकल दीमी ब्राह्मणों में से है जो नेदिषाण्य और मिश्रिक मासध तीर्थों में ब्रह्मा के चक्र की नेमि (धुरा) टूटने के सीमा स्थान पर आयोजित यज्ञ में स्वीकृत किये गये । श्रीकृष्ण पुत्र सांख ने शाकद्वीप शक प्रदेश के कहोलपुर काहिरा में जब विशाल सूर्य मदिंर की स्थापना की तो वहां सूर्य पूजा के लिए मग ब्राह्मणों के बुलाकर नियुक्त किया जो मिश्र या मिश्री ब्राह्मण हैं । मिश्रों में छ: भेद हैं –<br /><br />
1. छिरौरा- अप्सरापुर (कोटा, छिरोरा गाँव मथुरा) के निवासी । <br /><br />
2. गोरावार- गजनी गोर नगर के यवनों का पुर गोराओं राजस्थान के गौरी वंश के यवनों के अधिष्ठाता ।<br /> <br />
3. परिदान- फारस पर्शिया तथा पेरिस( फ्रांस) की परियों की में रहने तथा परी कथायें सुनानेवाले। मुगलों में इस वंश की फरीदवेगम, फरीदकोट, शेख फरोदू, फरीदाबाद प्रसिद्ध हुए तथा पारसियों बोहराओं की बड़ी संख्या इस्लामी अत्याचारों से त्रस्त्र भारत में आकर बसी हुई है । ये सूर्य और अग्नि के उपासक हैं । <br />4. डवरैया- उवरा(ग्वालियर) के निवासी । <br /><br />
5. चौथैया- पेशवाओं ने मुगलबादशाह मुहम्मदशाह से 1765 वि0 में सारे मुगल साम्राज्य में लगे बादशाही भूमिकर में से चौथाई कर अपने लिए वसूल करने की सनद लेली और सारे देश में सर्वत्र चौथ जबरन बसूल करने लगे इस काल में उनके सहायक होने से वे माथुर चौथैया कहलाये ।<br /> <br />
6. मथुरा तथा ब्रज में तीर्थ यात्रियों के दान में से तिहाब (तृतिया भाग) बसूल करने वाले "तिहाब के" या तिहैया कहे जाने लगे ।<br /><br />
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'''2. प्रोहित'''- पौरोहित्य कर्म, कुल पुरोहित, तीर्थ पुरोहित, यज्ञ पुरोहित आदि में सर्वत्र सम्मान प्राप्त यह वर्ग प्रोहित है ।<br /> <br />
'''3. जनुष्ठी'''- जन्दु राना यादव को यज्ञ इष्ठि कराकर उनके नाम से ब्रज में जान्हवी गंगा प्रसिद्ध करने वाले जन्हु क्षेत्र आनूऔ जनूथर जूनसुटी के निवासी ।<br /><br />
'''4. चन्दबारिया'''- चन्दवार के निवासी ।<br /><br />
'''5. वैसांधर'''-वैश्वान अग्नि जिसने समस्त विश्व में भ्रमण कर विश्व के जंगली(यूरोपियन,एशियन, अफ्रीकी अमरीकी अष्टेरियन), लोगों को आग्नि का उत्पादन संरक्षण और पाक विद्या में प्रयोग सिखाया ।<br /><br />
'''6. धोरमई'''- ध्रुवपुर धौरेरा के निवासी ।<br /><br />
'''7. चकेरी'''- श्रीकृष्ण की चक्र सेना के योद्धा ।<br /><br />
'''8. सुमावलौ'''- सोमनाथ शिव मथुरा के भक्त सोमराजा जो उत्तर दिशा से सोमबूटी मूंजबान पर्वत काश्मीर से मगवाकर सोमयज्ञ सम्पत्र कराने वाले थे । उनके प्रोहित ।<br /><br />
'''9. साध- निषाद''' जाति को उपनिषद विद्या प्रदान करने वाले तथा राजानल के निष्धदेश के प्रोहित ।<br /><br />
'''10. चौपौलिया''' – चार द्वारोंकर की पौरी चौपरा युक्त भवन बनवाकर रहने वाले ।<br /><br />
'''11. बुदौआ'''- बौद्धों के स्पूपों मठों बिहारों के निर्देशक बौद्धों को बौद्ध स्मारकों की तीर्थ यात्रा कराने वाले ।<br /><br />
'''12. तोपजाने'''- ये स्तूप ज्ञानी हैं जो जैनों बौद्धों को उनके स्तूपों चैत्यों बिहारों के दर्शन कराकर उनका महत्व और इतिहास बतलाकर नका पौरो दिव्य कर्म संवादन करते थे ।<br /><br />
'''13. चातुर'''- राजकाज में चतुर लोगों का वर्ग ।<br /><br />
'''14. छिरौरा'''- कहीं छिरौराओं को मिश्रों से अलग स्वतन्त्र अल्ल गिना जाता है ।<br /><br />
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सौश्रवसो की शाखा आश्वलायनी वेद ऋग्वेद है ।<br />
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==धौम्य गोत्र==<br />
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ये महर्षि कश्यप के वंश में महा प्रतापी हुए हैं । पांडवों के रक्षक और पुरोहित होने से पांडवकुल में परम सज्मानित थे तथा महाभारत में सर्वत्र इनकी श्रेष्ठता वर्म निष्ठा और तेजस्विता का वर्णन है । इनका समय 3080 वि0पू0 तथा निवास स्थान मथुरा में धौम्य आश्रम धामला कूप और गोपाल बाग सूर्य क्षेत्र हैं । गोपाल बाग में ही श्री यमुना महारानी जी की बहिन सूर्यपुत्री तपतीदेवी (तत्तीमाता) विराजमान हैं तथा कार्वित शुक्ल गोपाष्ठमी को श्रीकृष्ण बलराम गौचारन का उत्सव (मेला) मनाते, सत्राजित को स्यमंतक मणि एवं पांडव पत्नि द्रोपदी को अक्षय पात्र प्रदाता, महाराज शान्तुन को भी ष्मपुत्र तथा सिद्ध मन्त्रायुर्वेद विधा प्रदाता भगवान सूर्य की सेवा में पधारते हैं । धौम्य कूप(धामला) का पानी बहुत शुद्ध और गुणकारी माना जाता है और उसे अनेक माथुर (चतुर्वेदी पहलवान) लोग स्वस्थ वृद्धि के लिए पीते है। <br />
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धौम्य के कश्यप वंश में 3 प्रतापी प्रवरजन हुए हैं जो <br />
1. कश्यप- प्राचीन बर्हिवन्श 5222 वि0पू0 ।<br />
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2. आवत्सार कश्यप पुत्र 5154, वि0पू02. नैध्रुव आवत्मार पुत्र 5018 वि0पू0 हैं धौम्य का पूरा नाम आपोद धौम्य था । इनके वंश का बहुत महत्वपूर्ण बिस्तार रहा है । जिसमें कश्यप यजमान ऋते युराजा 5222 वि.पु. आसेत 5153 वि.पू. देवल 5016 वि.पू. सांडिल्य प्राचीन 5014 वि.पू. रैम्य 5017 वि.पू. कश्यपपुत्री ब्रह्मा की मानसी सृष्टि तथा नागपुरा की संरक्षिका मनसा देवी मानसी गंगातट गोवर्धन 5200 वि.पू. । महाभारत के अनुसार इसी वन्श में व्याघ्रपाद के पुत्र महर्षि और धौम्य हुए हैं ।<br />
<br />
3. नैध्रुव- ये आवत्सार के पुत्र हैं । इनका समय 5018 वि.पू. है । ये ऋग्वेद के मन्त्रद्दष्टा(9-63) हैं ।<br />
च्यवन भार्गव की कन्या सुमेधा इन को व्याही थी । ये प्राचीनकाल के 6 ब्रह्म वादियों <br />
1.कश्यप <br /><br />
2 अवत्सार <br /><br />
3 नैध्रुव <br /><br />
4 रैम्य <br /><br />
5 आसित<br /><br />
6 देबल में से प्रसिद्ध ब्रह्मबिद्या के आचार्य थे ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_12&diff=56298चतुर्वेदी इतिहास 122010-04-23T11:57:33Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==भारद्वाज के गोत्र प्रवर==<br />
भारद्वाज गोत्र के तीन प्रवर हैं- आंगिरस बार्हस्पत्य भारद्वाज ।<br />
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'''1. आंगिरस'''- ये अंगिरावंशी देवताओं के गुरू बृहस्पति हैं । इनके दो भाई उतथ्य और संवर्त ऋषि तथा अथर्वा जो अथर्व वेद के कर्त्ता हैं ये भी आंगिरस हैं । ये ऋषि कोटि में पहँचे थे । ये मनुष्य जाति के प्रथम आदि पुरूष हैं जिन्होंने अग्नि उत्पत्र की भाषा और छन्द विद्या का आविष्कार किया ऋग्वेद के नवम मण्डल के मन्त्रों के द्दष्टा अपने वंशधरों को एक मण्डल में स्थापित किया, ब्रह्मदेव से ब्रह्मविद्या प्राप्त कर समस्त ऋषियों को ब्रह्माज्ञान का तत्व दर्शन उपदेश किया । अथर्ववेद का एक कल्प आंगिरस कल्प है । आत्मोपनिषद में इनकी ब्रह्मज्ञान विद्या का निर्देशन है । इन्होंने आदित्यों से स्वर्ग में पहले कौन पहुचे ऐसी शर्त लगाई और स्वर्गकाम यज्ञ किया किन्तु आदित्य स्वयं तेजधारी होने से पहिले पहुंचे तथा ये उनसे 60 बर्ष पश्चात स्वर्ग की गौ (कामधेनु) दी । ये सर्वप्रथम गोस्वामी बने परन्तु इन्हें गौ दोहन नहीं आता था जिसे इन्होंने अर्यमा सूर्य से प्राप्त किया । ये समस्त भूमण्डल में भ्रमण करने वाले पृथ्वी पर्यटक थे । जिन्होंने विश्व की सभी मानव जातियों को जो महामुनि कश्यप से उत्पत्र थे यथा स्थान बसाया तथा 9400 वि0पू0 में उन्हें मानव जीवन के लिए उपयोगी अनेक विद्याओं का प्रशिक्षण दिया । ये अपने समय के समस्त भूमण्डल में स्थापित तीर्थों के ज्ञाता थे । जिनकी बहिर्मडल यात्रायें इन्होंने प्रहलाद बलि जामवन्त हनुमान सुग्रीव को करायी थी ।<br />
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आंगिरसों के कुल में अनेक प्रतापी यशस्वी पुरूष हुए हैं, जिनमें से कुछ के यनाम इस प्रकार हैं- देवगुरू बृहस्पति, अथर्वेवेद कर्ता अथर्वागिरस, महामान्यकुत्स, श्री कृष्ण के ब्रह्माविद्या गुरू घोर आंगिरस मुनि । भर ताग्नि नाम का अग्निदेव, पितीश्वरगण, गौत्तम, बामदेव, गाविष्ठर, कौशलपति कौशल्य(श्रीराम के नाना), पर्शियाका आदि पार्थिव राज, वैशाली का राजा विशाल, आश्वलायन (शाखाप्रवर्तक), आग्निवेश(वैद्य) पैल मुनि पिल्हौरे माथुर(इन्हें वेदव्यास ने ऋग्वेद प्रदान किया), गाधिराज, गार्ग्यमुनि, मधुरावह(मथुरा वासी मुनि), श्यामायनि राधाजी के संगीत गुरू, कारीरथ (विमान शिल्पी) कुसीदकि (ब्याज खाने वाले ) दाक्षि (पाणिनि व्याकरण कर्त्ता के पिता), पतंजलि(पाणिनि अष्टाध्यायी के भाष्कार), बिंदु (स्वायंम् मनु के बिंदु सरोवर के निर्माता), भूयसि( ब्रह्माणों को भूयसि दक्षिणा बाँटने की परम्परा के प्रवर्तक), महर्षिगालव (जैपुर गल्ता तीर्थ के संस्थापक), गौरवीति(गौरहे ठाकुरो के आदि पुरूष), तन्डी (शिव के सामने तांडव नृत्य कर्ता रूद्रगण), तैलक (तैलंगदेश तथा तैलंग ब्रह्मणों के आदि पुरूष), नारायणि (नारनौलखन्ड वसाने वाले), स्वायंभूमनु(ब्रहषि देश ब्रह्मावर्त के सम्राट मनुस्मृति के आदि मानव धर्म के समाज रचना नियमों के प्रवर्तक), पिंगलनाग(वैदिक छन्दशास्त्र प्रवर्तक), माद्रि (मद्रदेश मदनिवाणा के सावित्री (जव्यवान) के तथा पांडु पाली माद्री के पिता अश्वघोषरामा बात्स्यायन (स्याजानी औराद दक्षिण देश के काम सूत्र कर्ता), हंडिदास (कुवेर के अनुचर ऋण बसूल करने वाले हुँडीय यक्ष हूड़ों के पूर्वज), बृहदुक्थ (वेदों की उक्थ भाषा के विस्तारक भाषा विज्ञानी), वादेव (जनक के राज पुरोहित), कर्तण (सूत कातने वाले), जत्टण (बुनने वाले जुलाहे) बिष्णु सिद्ध (खाद्यात्र (काटि) कोठारों के सुरक्षाधिकारी), मुद्गल मुदगर बड़ी गदा) धारी, आग्नि जिव्ह (अग्नि मन्त्रों को जिव्हाग्र रखने वाले ) देव जिव्ह (इन्द्र के मन्त्रों को जिव्हाग्र धार), हंसजिव्ह (प्रजापति ब्रह्मा के मन्त्रों के जिव्हाग्र धारक). मत्स्य दग्ध (मछली भूनने वाले), मृकंडु मार्कडेय, तित्तिरि तीतर धर्म से याज्ञवल्क्य मुनि के वमन किये कृष्ण्यजु मन्त्रों को ग्रहण करने वाले तैतरेय शाखा के ब्राह्मण), ऋक्ष जामवंत, शौंग(शुंगवन्शीतथा माथुर सैगंवार ब्राह्मण) दीर्घतमा ऋषि (दीर्घपुर डीगपुर ब्रज के बदरीवन में तप करने वाले) हविष्णु (हवसान अफ्रीका देश की हवशी प्रजाओं के आदि पुरूष) अयास्य मुनि ( अयस्क लोह धातु के अविष्कर्ता) कितव (संदेशवाहक पत्र लेखक किताब पुस्तकें तैयार करने वाले देवदूत) कण्व ऋषि(ब्रज कनवारौ क्षेत्र के तथा सौराष्ट्र के कणवी जाति के पुरूष) आदि अनेक महानुभावों ने आंगिरस कुल में जन्म लेकर अथवा इनका शिष्यत्व रूप अंग बनकर भारतीय धर्म और संस्कृति को विश्व विख्यात गौरव माथुरी गरिमा के अनुरूप् प्रदान किया है। बृहस्पति का जन्म स्थान द्युलोक के शीर्ष स्थल घौसेरस में है ।<br />
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'''2. बार्हस्पत्य'''- बृहस्पति तारा से उत्पत्र 7 आग्नि देव पुत्र तथा प्रधान पुत्र कच(कछपुरा तथा कुचामन राजस्थान) ही वार्हस्पत्य हैं । तारा के पुत्र भुगु निश्च्यवन विश्वभुज विश्वजित बड़वाग्नि जातवेदा (स्पिष्ट कृत) हैं । ये सभी वेदों में वर्णित और यज्ञों में पूजित हैं । बच ने देवयानी शुक्र कन्या से प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर शुक्राचार्य की मृत संजीवनी विद्या मरू देश में वृषपर्वादानव (फरवासी) के राज्य में कचारण्य (कुचामन) में रह कर प्राप्त की तथा दैत्य दानवों द्वारा अनेक बार इसका घात करने पर भी यह इस से विद्या जीवित हो उठे । यह देवों से पूज्य यज्ञ भाग प्राप्त कर्त्ता ऋषियों में परम आदरणीय हुए हैं । देवयानी पीछे शर्मिष्ठा के साथ ब्रज में ययाति के पुर(जतीपुरा) में आकर शर्मिष्ठा के उपवन(श्याम ढाक) में आकर रही और ययाति 6033 वि0पू0 से देवयानी बन(जान अजानक बन) में यदु तुर्वसु पुरू जिनका वर्णन ऋग्वेद में है । अपने पुत्रों के साथ रहे । <br />
शर्मिष्ठा से (श्यामढाक बन) दुह्मु अनु(आन्यौर) और पुरू हुए । ययातिने सुरभी गौ नाम की अप्सरा से सुरभी बन पर (अप्सराकुन्ड) अलका से अलकापुरी अलवर में, विश्वाची अप्सरा से अप्सरा सरोवर वन में विहार किया । बृहस्पति की एक पत्नि जुहू(जौहरा) भी थी जिससे जौहर करने वाले जुहार शब्द से अभिवादन करने वाले यहूदी वंश तथा जौहरी कायस्थ तथा युद्ध में आगे लड़ने वाला हरावल दस्ता जुझाइऊ वीर उत्पत्र हुए । ये सब बार्हस्पत्य थे ।<br />
भारद्वाज वंशजों मत्स्य पुराण में कुलीन वंश कहा गया है ।<br />
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==भारद्वाज की अल्लैं==<br />
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भारद्वाज गोत्र में सर्वाधिक अल्ल या अड़कैं हैं ।<br />
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'''1. पाँडे'''- ये सर्वाधिक प्रभाव और प्रतापशाली तेजस्वी और सम्मान प्राप्त थे । मथुरा में इनका निवास स्थान हाथी वारी गली तथा गोपाचल में शंकरपुर है । पांडे शिक्षा कर्म के आचार्य सुप्रसिद्ध व्याकरण कर्त्ता पाणिनि अष्टाधारी ग्रन्थ रचयिता के वंशज हैं । विद्यार्थियों को आरम्भ से ही भाषा शास्त्र का अध्ययन कराने के कारण ये पांडे नाम से प्रतिष्ठित हुए हैं । पांड़े(अध्यापक) और चट्टा (विद्यार्थी) जो चट या चटाई पर बैठकर गुरू के चरणों में श्रद्धा रखकर विद्या ग्रहण करता है यह दोनों शब्द माथुरी संस्कृति में लोक प्रसिद्ध हैं । पांड़ेजी की पाठशाला चट सार कहलाती रही है, जो माथुरें के मुहल्लों में प्राय: अथाइयों (अस्थाचल सूर्य काल की बैठकों ) में उनके आस-पास के देव मन्दिरों में स्थापित होती थीं । झम्मा पांड़े रघुनाथ पांड़ गणेशीलाल चौधरी दौलतराम पाँडे़ आदि अनेक अध्यापक पाँड़े कर्म में विख्यात रहे हैं । पौराणिक प्राचीन साहित्य के अनुसार सबसे प्राचीन व्यारणकार भारद्वाज के भारद्वाजीय व्याकरण ग्रन्थों के आधार पर पाणिनि ने अपना अष्टध्यायी व्याकरण ग्रन्थ तथा भाषा उच्चारण का ग्रन्थ पाणिनि शिक्षा की रचना की थी । शिक्षकों को पांड़े पाणियां, राजस्थान आदि प्रान्तों में भी कहा जाता है । पाणिनी मथुरा के निवासी पांड़े अख्याधारी थे । भारतीय प्राचीन साहित्य के अनुसार इन्होंने ऋग् प्रतिशाख्य भारद्वाजीय व्याकरण आदि ग्रन्थों के आधार पर अपना अष्टाध्यायी ग्रंथ रचा था । ये मौर्य शासन काल में वर्तमान थे । इनका छोटा भाई पिगंल छन्द शास्त्र कर्त्ता ग था) व्याडि नाम का व्याकरण विद्वान भी इनका सहाध्यायी था । व्याडि(बाढ़ा उझानी) दक्ष गोत्री दाक्षायण थे और इनके मामा थे तथा इनकी माता दाक्षी होने से इन्हें 'दाक्षीपुत्रो पाणिनेय:' पिंगलनाग कहा गया है । पाणिनि का ग्राम पानी कौ इनके गाँव तथा शालातुरी परिवार का क्षेत्र यमुना तट का 'स्यारये कौ घाट' मथुरा अंचल में है । पिंगल का पिगोरा भी इसी क्षेत्र में है । घोर आश्चर्य है कि इतने पुष्ट आधारों के होते हुए आधुनिक विद्वान पाणिनी को तक्षशिला तथा पेशावर का निवासी अफगान पठान बिना किसी प्राचीन प्रमाण के लिखते चले जा रहे हैं । पठानों में कोई पाणिन वन्श पांडी पांडुल्ला पाडुनुद्दीन नहीं है तथा पाणिनी ने पुश्तों अरबी फारसी का कोई ग्रन्थ नहीं रचा है । यदि वे पठान वंशी होते तो पैशाची पुश्तों का व्याकरण रचते और उनकी अफगानी अरबी फारसी ईरानी तुर्की के विद्वानों में गणना अवश्य ही होती । केवल तथा शिला में शिक्षा की कल्पना से वे कंधारी पेशावरी नहीं हो सकते । पाणिनी ने अपने पूर्वाचार्यों में कौत्स शिष्य मांडव्य, पाराशर्य, शिलालि, कश्यप, गर्ग, गालब, भारद्वाज, चक्रवर्म (चकेरी), शाकटायन, स्फोटायन सेनुक आदि के नाम लिखे हैं जिनमें कोई भी अफगान या पठान नहीं था ।<br />
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पाणिनि का दक्ष दौहित्र होना उन्हें प्रबल रूप से मथुरा का माथुरा ब्रह्मण होना सिद्ध करता है क्योंकि दक्ष गोत्र माथुरों के अतिरिक्त और किसी ब्रह्मण वर्ग में नहीं है तथा इनके मामा व्याड़ि को स्पष्ट ही "तत्र भवान् दाक्षायणा: दाक्षिर्वा" कहा गया है । मत्स्य पुराण में दाक्षी ऋषि को अंगिरा वंश में स्थापित किया गया है । सम्राट समुद्र गुप्त की प्रशन्ति में व्याडि को रसाचार्य कवि और शब्द ब्रह्म व्याकरणज्ञाता पुन: भी कहा है-<br />
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रसाचार्य: कविर्व्याडि: शब्द ब्रह्मैकवाड् मुनि: ।<br />
दाक्षी पुत्र वचो व्याख्या पटुमिंमांसाग्रणी ।।<br />
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शोध तथ्यों के अनुसार पाणिनी ने कृष्ण चरित्र तथा व्याडि ने बलराम चरित्र काव्यों की रचना भी की थी ं पाणिनि ने अष्टाध्यायी में नलंदिव नाम के स्थान का उल्लेख किया है जो मथुरा नगर का प्राचीन टीला 'नकती टेकरा' ही है । अष्टाध्यायी पर माथुरी वृत्ति भी है । पाणिनि के भाष्यकार परम विदुष महर्षि पतंजलि धौम्य गोत्रिय श्रोत्रिय (सोती) माथुरा वंश विभूषण थे । वे पुष्यमित्र शुंग (भारद्वाज गोत्री सौगरे) के द्वारा आयोजित अश्वमेध यज्ञ के आचार्य थे । नागवंशी होने से ये कारेनाग तिवारी शाखा में थे । ये अंगिरा कुल कुत्स गोत्रियों के शिष्य थे । पातंजलि शुंगकाल से चन्द्रगुप्तमौर्य काल तक थे तथा इनके समय उत्तर भारत पर यवनों के आक्रमण होने लगे थे । पातंजलि सामवेदी कौथुम शाखा के थे तथा इनका निवास गोनन्द गिरि नदवई ब्रज में था । पांड़े वंश की यह कितनी महान ऐतिहासिक परम्परा है । पांड़े वंश की प्रशाखाओं में खैलावंश, घरवारी, कुइया, बुचईबन्श, मारियाँ, डुगहा, काजीमार, होली पांडे़, शंकर गढ़ के पांड़े आदि उल्लेखनीय हैं । कारेनाग, दियोचाट (सद्योजात वामदेव रूद्रत्रण), चौपौरिया, जैमिनी वंश भी इनके प्राचनी वंश हैं । <br />
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जैमिनी महर्षिवेदव्यास के सामवेदाध्यायी शिष्य थे ये कौत्स के वंशज थे । ये युधिष्ठ के राजसूय में तथा जनमेजय के सर्पसव में व्यास शिष्य वैशम्पायन के साथ सम्मिलित थे । इनने मथुरा में व्यास आश्रम कृष्ण गंगा पर निवास कर साम वेद उपलब्ध किया था जैमन, जैमाचूठी जौंनार इनके प्रिय संस्कृति सूत्र हैं । इनके सहाध्यायी महर्षि पैल थे जिन्हैं वेदव्यास ने ऋग्वेद दिया था । और आज थे पिल्हौरे माथुर कहे जाते हैं ।<br />
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'''पाठक-''' ये वैदिक संहिताओं के यज्ञ समारोहों में ससवर पाठ करने वाले वैदिक महर्षि थे । ब्रह्मण ग्रन्थों में पाठसक भाग इन्हीं के अनुभव के संकलन हैं । यह भी प्रभावशाली वर्ग है । <br />
अन्य अल्लौं में रावत (पारावत) मावले (महामल्ल), अझुमिया (अजमीढ यादव प्रोहित, यज्ञ में अग्न्याधाम होने पर प्रथम आज्य की आहुतियाँ डालकर अग्नि देव को चैतन्य करते थे), कोहरे (कहोल वंशज), चौपौलिया (चौपालों पर बैठकर माथुर आवासों की चौंकसी और रक्षा करने वाले), रिली कुमारिल मट्ट के वेदौद्धारक प्रयासों के प्रबल सहायक (आरिल्ल नाम के वीर रस के छन्दों के अग्रगायक), वीसा (विश्वासवसुगंधर्वराज के प्रोहित), सद्द (धर्मनिर्णायक परिषदों के संचालक), तिबारी (त्रिवेदी), लौहरे (लोहबन के निवासी), नसवारे(कनिष्क कंसासुरवंश के याजक, नशेबाज), सिकरौलिया (सिकरौल वासी ), मैंसरे (महिष वंश भौसले भुसावल महिसाना, मैंसूर, मस्कत, मसूरी आदि क्षेत्रों की प्रजाओं के प्रोहित, उचाड़े (उचाड़वासी), गुनारे (फाल्गुनी यज्ञ होलीकोत्सव के आयोजक, मिश्र (वेद और तन्त्र दोनों की मिश्रित विद्याओं से यज्ञ कराने वाले, जनुष्ठी (जन्हु यादव के पुरोहित (जुनसुटी निवासी) चतुर (युक्तिचतुर), डुंडवारिया(गंगडुंवारा के ) पैठवाल पैठागाँव वाले) दरर(विधाधरों के ) पूरबे (पुरूरवा के) हलहरे (हालराज के) मारौठिया (मारौठवासी) जिखनियाँ (जिखन गाँव के) अगरैंया, (आगरा के), दुसाध (दुसाध निषादों के सहवासी) सुमेरधनी (सुमेरू युक्त बड़ी सुमिरनी माला पर जाप करने वाले) आदि इनमें कुछ बहुत एतिहासिक महत्व की सूचनायें देने वाली भी अल्लैं हैं जैसे- बाबले (बाबर के सेवाश्रमी) बहरामदे (अकबर के फूफा बैरम खां के आश्रर्यजीवी) दाहरे (सिंध के धार्मिक राजा दाहर के सभासद 769 वि0 में यह यवन खलीफा के सेनापति इव्नफासिम के आक्रमण से पराजित होकर ब्रह्मर्षि देशों में भाग आया था और धर्मचर्या तथा त्याग रूप जीवन में उपराम लिया था, दारे (शाहजहां का वेद वेदांत धर्म चिन्तक शाजजादा दारा के सहायक, दारा को शाहजहां ने पंजाब और दिल्ली मथुरा का इलाका दिया था, वह केशवनारायन श्री यमुनाजी और माथुर ब्रह्मणों का परम भक्त था । औरंगजेब के हाथों छत्रसाल के पिता चंपतराय के द्वारा इसका धौलपुर के युद्ध में परामव और वध हुआ), साजने (शाहजहां बादशाह के राजकर्म चारी गण) जहांगीर बादशाह के (जहांगीरपुर गाँव के निवासी) आदि ।<br />
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सौश्रवस गोत्र<br />
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ये विश्वामित्र के बंशज हैं । इनका समय 2857 वि0पू0 है । ये मथुरा के क्षेत्र में सौश्रबस आश्रम (सौंसा साहिपुरा) में रहने थे । इनके तीन प्रवर विश्वामित्र देबराट् औदले हैं । सौश्रबस सुश्रबा महर्षि के पुत्र थे । इनका कथन अनेक प्राचनी ग्रन्थों में है । पंचबिश ब्राह्मण 14-6-8 के अनुसार ये और्व राजर्षि के पुरोहित थे । अपने पिता सुश्रवा की अवमानना करने पर सुश्रवा के निर्देश पर और्व ने इनका सिरच्छेद कर दिया जिसे विप्र भक्ति से प्रभावित इन्द्र ने पुन: संधाधित किया ।<br />
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'''1. विश्वामित्र'''- इनके प्रथम प्रतापी प्रबर पुरूष थे जिनका परिचय पर्याप्त रूप में हो चुका है । इनका समय 5408 वि0पू0 तथा स्थान मथुरा में कुशिकपुर (कुशकगली) था ।<br />
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'''2. देवराट'''- ये विश्वामित्र के उपेक्षित पुत्र थे । मूलत: इनका नाम शुन:शेष (कुत्ते की पूँछ) था । ये अपने पिता के उपेक्षित पुत्र थे । अयोध्यापति महाराज हरिचन्द ने जब बरूण देवता की मान्यता करके भी अपना पुत्र रोहिताश्व उसे बलि नही दिया तब बरूण ने उसके उदर में जलरोग (जलोदर) उत्पत्र किया । इस संकट से मुक्त होने को ऋषियों ने राजा को किसी अन्य कुमार को अपने पुत्र के प्रतिनिधि रूप में बलि अर्पित करने की सलाह दी ।<br />
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प्रयत्नों के बाद ब्राह्मणकुमार शुन: शेष को उसका पिता द्रव्य के बदले देने को राजी हो गया । जब ब्राह्मणकुमार बलि हेतु यज्ञ यूप से बांधा गयां तो वक भयार्त होकर रूदन करने लगा, इस पर विश्वामित्र को करूणा उत्पत्र हुई और उनने शुन: शेष के समीप जाकर उसे वरूण स्तुति के कुछ अति प्रभावोत्पादक दीनता सूचक मन्त्र बताकर पाठ करवाये । वरूण देव इन मन्त्रों से दयाद्रवित हो गये और शुन:शेष को बलि मुक्त कर दिया । विश्वामित्र ने तब चरणों में लिपटे बित्रकुमार को छाती से लगाया और उसका शुन:शेष (कुत्ते की पूँछ) जैसे हीन नाम से देवराट् (देवों का राजा इन्द्र) जैसा नाम दिया तथा अपने 100 पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ मानकर सबको उसका मान करने की आज्ञा दी । विश्वामित्र ने वेद विद्या पढ़ाकर देवराट को वैदिक ऋषियों में स्थान दिलाया । उसके मन्त्र ऋग्वेद में हैं । यह शुन:शेष देवराट् माथरों के उत्तम ब्राह्मण बन्श में प्रविष्ठ हुआ और सौश्रवसों का प्रवरीजन स्वीकृत हुआ ।<br />
इसका समय हरिश्चन्द्र काल 5262 वि0पू0 है ।<br />
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औदले-यह महर्षि उछालक के पुत्र थे । इनका मूलनाम आरूणी पांचाल था ता मथुरा निवासी धौम्य आचार्य (आपोद धौम्य) के शिष्य थे । इनकी गुरू भक्ति की कथा सर्वोपरि है । एक बार अपने मथुरा के धौस्य आश्रय (धामला बाग) में समीप के खेत पर वर्षा के पानी को रोकने हेतु गुरू ने इन्हैं भेजा । पानी किसी भी प्रकार न रूकने पर आरूणी ने जल धारा के बीच लेटकर पानी बन्द किया काफी रात गये गुरूजी आरूणी को खोजने निकले तो आवाज लगाने पर उसे जल प्रवाह के बीच लेटा हुआ पापा(इस महान गुरूभक्ति से प्रभावित होकर उन्होंने उसे ह्दय से लगा लिया तथा सभी वेद, ब्रह्म विद्यायें उसे प्रदान कीं तथा उसका आरूणी के स्थान पर उद्दालक नाम रखा ।<br />
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आगे चलकर यह महान ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी हुआ । इसका महर्षि याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या पर संवाद हुआ । इसने अपनी आध्यात्म विद्या परम्परा वेदगर्भ ब्रह्म से आरम्भ की तथा इनद्रद्युम्न, सत्ययज्ञ, जनक, तक दी है । वुडिल इससे ब्रह्म ज्ञान पाने को आये थे । इसने कुशिक वंश की कन्या से विवाह किया जिससे इसे श्वेत केतु नचिकेता (नासिकेत) तथा सुजाता पुत्री हुई । यह सुजाता कहोल ऋषि(काहौ माथुर वंश) को व्याही जिससे अष्टावक्र पुत्र हुआ । श्वेतकेतु ने जनक सभा में याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ किया । इसके पिता उद्दालक ने इसे'तत्वम' नाम की विद्या का उपदेश किया । श्वेतकेतु माथुर ने कुरू पांचाल (काख पचावर) में निवास कर जावली गाँव के राना प्रवाहल जैविली से ब्रह्म विद्या आगे सीखी । यह परमाणु विद्या का भी महान ज्ञाता था । श्वेत केतु को समाज व्यवस्थापक सामाजिक नियमों की स्थापत्र, विवाह संस्था, यज्ञ संस्था, ब्राह्मण को मद्यपान निषेध परस्त्रीगमन, विवाह के बाद कर्त्तव्य पालन, राज्यभिषेक के नियमों का कठोर विधान करने से इसे भारतवर्ष का सर्वप्रथम समाज सुधारक माना जाता है ।<br />
उद्दालक पुत्र नचिकेता – पिता की भर्त्सना पर संदेह जीवित यमपुर गये और यमलोक दर्शन कर यमदेव से संवाद कर लौटकर आये तथा यमपुरी सारी व्यवस्था मनि मण्डल को सुनाई । इनका यात्रा वृत्तांत नसिकेत पुराण में विस्तार से वर्णित है । अष्टा वक्रने जनक की सभा विजय कर पिता का बदला लिया, तथा सब पराजित पंडित मुक्त किये ।<br />
==सौश्रवसों की अल्लैं==<br />
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इनकी अल्लैं 14 हैं जो इस प्रकार हैं-<br />
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'''1.मिश्र'''- ये मिश्र देश के मग (मगोर्रा) और शाकल दीमी ब्राह्मणों में से है जो नेदिषाण्य और मिश्रिक मासध तीर्थों में ब्रह्मा के चक्र की नेमि (धुरा) टूटने के सीमा स्थान पर आयोजित यज्ञ में स्वीकृत किये गये । श्रीकृष्ण पुत्र सांख ने शाकद्वीप शक प्रदेश के कहोलपुर काहिरा में जब विशाल सूर्य मदिंर की स्थापना की तो वहां सूर्य पूजा के लिए मग ब्राह्मणों के बुलाकर नियुक्त किया जो मिश्र या मिश्री ब्राह्मण हैं । मिश्रों में छ: भेद हैं –<br />
1. छिरौरा- अप्सरापुर (कोटा, छिरोरा गाँव मथुरा) के निवासी । <br />
2. गोरावार- गजनी गोर नगर के यवनों का पुर गोराओं राजस्थान के गौरी वंश के यवनों के अधिष्ठाता । <br />
3. परिदान- फारस पर्शिया तथा पेरिस( फ्रांस) की परियों की में रहने तथा परी कथायें सुनानेवाले। मुगलों में इस वंश की फरीदवेगम, फरीदकोट, शेख फरोदू, फरीदाबाद प्रसिद्ध हुए तथा पारसियों बोहराओं की बड़ी संख्या इस्लामी अत्याचारों से त्रस्त्र भारत में आकर बसी हुई है । ये सूर्य और अग्नि के उपासक हैं । 4. डवरैया- उवरा(ग्वालियर) के निवासी । <br />
5. चौथैया- पेशवाओं ने मुगलबादशाह मुहम्मदशाह से 1765 वि0 में सारे मुगल साम्राज्य में लगे बादशाही भूमिकर में से चौथाई कर अपने लिए वसूल करने की सनद लेली और सारे देश में सर्वत्र चौथ जबरन बसूल करने लगे इस काल में उनके सहायक होने से वे माथुर चौथैया कहलाये । <br />
6. मथुरा तथा ब्रज में तीर्थ यात्रियों के दान में से तिहाब (तृतिया भाग) बसूल करने वाले "तिहाब के" या तिहैया कहे जाने लगे ।<br />
<br />
'''2. प्रोहित'''- पौरोहित्य कर्म, कुल पुरोहित, तीर्थ पुरोहित, यज्ञ पुरोहित आदि में सर्वत्र सम्मान प्राप्त यह वर्ग प्रोहित है । <br />
'''3. जनुष्ठी'''- जन्दु राना यादव को यज्ञ इष्ठि कराकर उनके नाम से ब्रज में जान्हवी गंगा प्रसिद्ध करने वाले जन्हु क्षेत्र आनूऔ जनूथर जूनसुटी के निवासी ।<br />
'''4. चन्दबारिया'''- चन्दवार के निवासी ।<br />
'''5. वैसांधर'''-वैश्वान अग्नि जिसने समस्त विश्व में भ्रमण कर विश्व के जंगली(यूरोपियन,एशियन, अफ्रीकी अमरीकी अष्टेरियन), लोगों को आग्नि का उत्पादन संरक्षण और पाक विद्या में प्रयोग सिखाया ।<br />
'''6. धोरमई'''- ध्रुवपुर धौरेरा के निवासी ।<br />
'''7. चकेरी'''- श्रीकृष्ण की चक्र सेना के योद्धा ।<br />
'''8. सुमावलौ'''- सोमनाथ शिव मथुरा के भक्त सोमराजा जो उत्तर दिशा से सोमबूटी मूंजबान पर्वत काश्मीर से मगवाकर सोमयज्ञ सम्पत्र कराने वाले थे । उनके प्रोहित ।<br />
'''9. साध- निषाद''' जाति को उपनिषद विद्या प्रदान करने वाले तथा राजानल के निष्धदेश के प्रोहित ।<br />
'''10. चौपौलिया''' – चार द्वारोंकर की पौरी चौपरा युक्त भवन बनवाकर रहने वाले ।<br />
'''11. बुदौआ'''- बौद्धों के स्पूपों मठों बिहारों के निर्देशक बौद्धों को बौद्ध स्मारकों की तीर्थ यात्रा कराने वाले ।<br />
'''12. तोपजाने'''- ये स्तूप ज्ञानी हैं जो जैनों बौद्धों को उनके स्तूपों चैत्यों बिहारों के दर्शन कराकर उनका महत्व और इतिहास बतलाकर नका पौरो दिव्य कर्म संवादन करते थे ।<br />
'''13. चातुर'''- राजकाज में चतुर लोगों का वर्ग ।<br />
'''14. छिरौरा'''- कहीं छिरौराओं को मिश्रों से अलग स्वतन्त्र अल्ल गिना जाता है ।<br />
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सौश्रवसो की शाखा आश्वलायनी वेद ऋग्वेद है ।<br />
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==धौम्य गोत्र==<br />
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ये महर्षि कश्यप के वंश में महा प्रतापी हुए हैं । पांडवों के रक्षक और पुरोहित होने से पांडवकुल में परम सज्मानित थे तथा महाभारत में सर्वत्र इनकी श्रेष्ठता वर्म निष्ठा और तेजस्विता का वर्णन है । इनका समय 3080 वि0पू0 तथा निवास स्थान मथुरा में धौम्य आश्रम धामला कूप और गोपाल बाग सूर्य क्षेत्र हैं । गोपाल बाग में ही श्री यमुना महारानी जी की बहिन सूर्यपुत्री तपतीदेवी (तत्तीमाता) विराजमान हैं तथा कार्वित शुक्ल गोपाष्ठमी को श्रीकृष्ण बलराम गौचारन का उत्सव (मेला) मनाते, सत्राजित को स्यमंतक मणि एवं पांडव पत्नि द्रोपदी को अक्षय पात्र प्रदाता, महाराज शान्तुन को भी ष्मपुत्र तथा सिद्ध मन्त्रायुर्वेद विधा प्रदाता भगवान सूर्य की सेवा में पधारते हैं । धौम्य कूप(धामला) का पानी बहुत शुद्ध और गुणकारी माना जाता है और उसे अनेक माथुर (चतुर्वेदी पहलवान) लोग स्वस्थ वृद्धि के लिए पीते है। <br />
<br />
धौम्य के कश्यप वंश में 3 प्रतापी प्रवरजन हुए हैं जो <br />
1. कश्यप- प्राचीन बर्हिवन्श 5222 वि0पू0 ।<br />
<br />
2. आवत्सार कश्यप पुत्र 5154, वि0पू02. नैध्रुव आवत्मार पुत्र 5018 वि0पू0 हैं धौम्य का पूरा नाम आपोद धौम्य था । इनके वंश का बहुत महत्वपूर्ण बिस्तार रहा है । जिसमें कश्यप यजमान ऋते युराजा 5222 वि.पु. आसेत 5153 वि.पू. देवल 5016 वि.पू. सांडिल्य प्राचीन 5014 वि.पू. रैम्य 5017 वि.पू. कश्यपपुत्री ब्रह्मा की मानसी सृष्टि तथा नागपुरा की संरक्षिका मनसा देवी मानसी गंगातट गोवर्धन 5200 वि.पू. । महाभारत के अनुसार इसी वन्श में व्याघ्रपाद के पुत्र महर्षि और धौम्य हुए हैं ।<br />
<br />
3. नैध्रुव- ये आवत्सार के पुत्र हैं । इनका समय 5018 वि.पू. है । ये ऋग्वेद के मन्त्रद्दष्टा(9-63) हैं ।<br />
च्यवन भार्गव की कन्या सुमेधा इन को व्याही थी । ये प्राचीनकाल के 6 ब्रह्म वादियों <br />
1.कश्यप <br /><br />
2 अवत्सार <br /><br />
3 नैध्रुव <br /><br />
4 रैम्य <br /><br />
5 आसित<br /><br />
6 देबल में से प्रसिद्ध ब्रह्मबिद्या के आचार्य थे ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_10&diff=56292चतुर्वेदी इतिहास 102010-04-23T11:33:58Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==वशिष्ठ गोत्र==<br />
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<blockquote>'''ब्रह्मदेव''' के 10 मानस पुत्रों में 9400 वि0पू0 से यह गोत्र प्रवर्तित हुआ। स्वायंभुव मन्वंतर के सप्त ऋषियों में ये स्थापित थे। इनकी बड़ी शालीन परंपरा है। ये ब्रह्मदेव के प्राणतत्व से अर्थात् प्राणसमान प्रियभाव से उत्पन्न हुए थे। प्रजापति दक्ष ने अपनी उर्जा (वाढा उझानी क्षेत्र स्वामिनी ब्रज में) पुत्री उन्हें दी थी तथा इस बड़े वंश के नाते यह शंकर भगवान के साढू तथा सतीदेवी के वहनोई थे। ब्रज के सांख्या चार्य कपिलदेव जी की वहिन कर्दम ऋषि (कुमदवन) की पुत्री अरून्धती भी इनकी यज्ञ ज्ञाता पत्नी थी। अरून्धती की शाखा में ही पीछे बाद में वशिष्ठ शक्ति पराशर और वेदव्यास शुकमुनि आदि हुए है। शुक पुत्र भूरिश्रवा, प्रभु, शंभु कृष्ण-गौर (गौरहेठाकुर) हुए तथा वंशिष्ठ जी को घृतात्री अप्सरा से महात्मा अपमन्यु हुए जिनका आश्रम वेदव्यास आश्रम कृष्ण गंगा के निकट सोमतीर्थ पर था जहाँ पुत्र प्राप्ति के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारिका से आकर पाशुपत दीक्षा लेकर कठोर बतचर्या युक्त तप करके सांव पुत्र पाया था तथा यहीं वेद व्यास ने अपना आश्रम स्थापित किया। श्राद्वदेव वैवस्वत मनु 6379 वि0पू0 के सत्र में पुत्र कामना के विपर्यय से श्रद्धा पत्नी की इच्छानुसार इला कन्या प्रगट हुई जिसे माता पिता दोनों को संतुष्ट रखने को महाशक्तिशाली वशिष्ठ देव ने पुत्र रूप में सुद्युम्न और कन्या रूप में इला दोनों देह दिये। सुद्युम्न (दोमन ब्रज) के राजा बने इनके पुत्र गय का गयाकुण्ड तथा विमल का विमलकुण्ड इन्द्र के स्वर्गलोक आदि बृन्दावन कामवन में अभी यथास्थान हैं।</blockquote> <br />
<br />
'''तालजंघ''' और हैहयों ने जब अयोध्या नरेश बाहु को भारत से बाहर के मलेच्छों की सहायता लेकर मरवाया तब वशिष्ठ के शिष्य सगर ने उन पर चढाई कर पारद (रूद्र पार्षद पारसीक) गंधारी, कंवोडियन (कम्वोज) , (यूनानी अरवी विलोची) यवन और पल्लव (पहलवियों) का निर्मूल करना चाहा तब महाकृपालु वशिष्ठ ने इन्हें केवल अपरूप बनाकर शिखा हीन दाढी युक्त करके क्षमा कर दिया, तभी से वे वशिष्ठ मुनि के शिष्य हो गये और विश्वमित्र के वशिष्ठ आश्रम (वहुलावन) से उनकी कामधेनु कुल की नंदिनी गौ को बलपूर्वक हरण करने का प्रयास करने पर योनिमार्ग (जौनसार भावर) से आकर नंदिनी की रक्षा की और विश्वामित्र का दर्प चूर्ण कर दिया। यह असुरों द्वारा गुरूभक्ति का प्रभाव देख विश्वामित्र आहैं भरने लगे-"धिग्वलं क्षत्रिय वलं, ब्रह्मतेजो वलम् वलम्" विश्वामित्र ने वशिष्ठ के 100 पुत्रों सहित शक्ति का वध किया, आड़ी (उड़िया) और बक (बंगाली) सेनायें लड़वायी और अंत में वे वशिष्ठ के चरणों में गिरे और क्षमाशील मुनि ने उन्हें क्षमा कर ब्रह्मर्षि का पद दे दिया। नंदिनी की रक्षा हेतु भी ये ही पारद यवन काम्वोज शक पल्लव आदि मलेच्छ ही भारत में आये थे और यहीं बस कर भारतीय प्रजाओं में मिल गये। <br />
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<blockquote>'''वशिष्ठ गोत्र''' के प्रवर शक्ति पाराशर ही माथुर हैं। इन वशिष्ठ देव का समय 3317 वि0पू0 , शक्ति देव 3256 वि0पू0 पाराशर मुनि 3185 वि0पू0 तथा वेदव्यास देव का 3114 वि0पू0 है। वशिष्ठ का आश्रम वाशिष्ठी वन (वाटी वहुलावन), शक्ति का सकीटरा (गोवर्धन) पराशर का पराशर स्थली (पारासौली गेवर्धन) वेदव्यास का कृष्ण गंगा आश्रम तथा किशन टीला मथुरा के ही परम पुण्य स्थान हैं। वशिष्ठ के पुत्र चित्रकेतु (चित्राल के चिश्ती) गंधर्वराज थे जो आरम्भ में मथुरा शूरसेन जनपद पर शासक थे। इनके पुत्र को इनकी सौतेली माताओं ने विष देकर मार डाला, तब अति शोकाकुल मर्हिष अंगिरा (कुत्सगोत्र प्रवरी) ने योगविद्या द्वारा चैतन्य कर संवाद कराया और राजा को आत्मतत्व का मार्ग उपदेश किया। इस चित्रकेतु राजा का समय 9332 वि0पू0 हैं। वशिष्ठ की व्याघ्री पत्नि से मन्यु आदि क्रोध के पुंज देवता जो सूर्य सेनाओं के अधिपति थे। (सूर्यमन्युमन्यु पति रात्रयों देवता) थे जिनका क्षेत्र ब्रज में नूह नोहर नोहवाल जाट नौहरे आदि था। वशिष्ठ वंशियों ने राजा मुचुकुंद, रंतिदेव, श्राद्धदेव मनु आदि को यज्ञ कराये थे। ये सारस्वतों के आदि पुरूष सारस्वत ऋषि के भी गुरू थे।</blockquote> <br />
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'''वशिष्ठ और विश्वामित्र''' का कलह प्रसिद्ध है। सूर्यवंश की पुरोहिताई, देवों और ऋषियों में सन्मान, नंदिनी कुल का गोवंश आदि कई कारणों को लेकर यह संघर्ष चला । वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ विश्वमित्र के 50 पुत्र तालजंघों की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ (यूनानी पारसी मिश्री अफगान अरब) हो गये तब हार मान कर विश्वामित्र इनके शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमा दान देकर उदारता से ब्रह्मर्षि रूप से स्वीकार कर लिया। वशिष्ठ ने श्राद्ध देव मनु 6379 वि0पू0 को परामर्ष देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बटवाकर दिलाया। ये सभी शूरसेन देश मथुरा के माथुरों के शिष्य थे। इक्ष्वाकु ने 100 रात्रि का कठोर तप करके सूर्य देवता की सिद्धि प्राप्त थी की और वशिष्ठ को गुरू बनाकर उनके उपदेश से अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्या (आयुधधारी संघ जिससे युद्ध करने का कोई साहस न करे) ऐसी पुरी स्थिपित करायी और वे प्राय: वहीं रहने लगे। वशिष्ठ मुनि की दूसरी पत्नि अरूंधती स्वायंभूमनु के जामात्ट कर्दम मुनि 8932 वि0पू0 (कुमुदवन आश्रम) की पुत्री तथा सांख्य शास्त्र सर्व प्रथम मानव वंश के तत्वज्ञान दर्शनशास्त्र के आविष्कार महर्षि कपिल (8867 वि0पू0) की वहिन थीं। इन्हीं से माथुर गोत्र प्रवर वशिष्ठ शक्ति पाराशर तथा महामहर्षि वेद व्यास शुकमुनि आदि उत्पन्न हुए। माथुर वशिष्ठ आरम्भ से सूर्यवंश के सम्राटों , वैवस्वतमनु 6379 वि0पू0 इक्ष्वाकु 6310 वि0पू0 , नृग 6369 वि0पू0, शर्याति 6307 वि0पू0 नभग 6305 वि0पू0 तथा इला बुध वंश 6369 वि0पू0 का चंद्रवंश के परम सन्मानित राजपुरोहित पद पर प्रतित्ठित रहे। रघु 4181 वि0पू0 , अज 4126 वि0पू0 दशरथ 4086 वि0पू0 तथा श्रीराम भगवान 4024 वि0पू0 के भी पुरोहित रहे। उनने दशरथ को पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया, श्री रामजी को जातकर्म चौल, यज्ञोपवीत विवाह कराया और राम की राज्याभिषेक की पूरी व्यवस्था इन्ही के द्वारा हुई। ये इक्ष्वाकुवंशी कुवलयाश्व धुंधमार 5946 वि0पू0 धमार गायन के आदि प्रवर्तक के, युवनाश्व 5612 वि0पू0, मांधाता त्रसदस्युयौवनाश्व 5576 वि0पू0 हरिश्चंद 5262 वि0पू0 सगर 4925 वि0पू0 दिलीप 4811 वि0पू0 भागीरथ 4771 वि0पू0, सिन्धु द्वीप 4670 वि0पू0 , दाशराज्ञ युद्ध के विजेता वेद वणित सम्राट सुदास 4475 वि0पू0 , आदि सभी के कुल परम्परा पुज्य राज पुरोहित रहे। वशिष्ठ ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा 9400 वि0पू0 के यज्ञ के आचार्य रहे और तप के प्रभाव से पुष्कर सरोवर से प्रगट कर सप्त स्त्रोता नंदा सरस्वती को अपने मथुरा क्षेत्र में लाये और उसका यमुना में संगम कराया। <br />
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<blockquote>'''वैदिक काल''' की देव नदी सरस्वती की 7 धारायें थी इनमें से प्रथम कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर वशिष्इ ने 100 पुत्र पाये थे, राजस्थान की सरस्वती (मरूत्वती घघ्घर) मुनि दुर्वासा के शाप से बालुका समुद्र में लुप्त हो गई, द्वारिका की प्रत्यक् सरस्वती अभी भी अपने स्थान पर अपने नदी चिन्ह के रूप में हैं और वर्षा ऋतु में प्रगट प्रवाहित होकर अपने आस्तित्व की साक्षी देती है। इसी सरस्वती के प्राचीन जल प्रपात महासरोवर बहुलावन में महर्षि वशिष्ठ अपनी ब्रह्मदेव से प्राप्त वहुलावंश (वहुत सुस्वाद अमृतमय दुग्ध प्रदा) की गायों को लेकर रहते थे। वशिष्ठ अयोध्या में शरण्यू शतयूपिका (सरयू) के ब्रज में आदि नंदा सरस्वती के, मरूस्थल में मरूतवती सरस्वती के तथा अपने बहुलावन में बहुला सरस्वती, मधुवन में मधुमती कुमुदवन में कुमुद्वती, गोवर्धन में मानसी, कामवन में कामगा, चरणपर्वत बन में चरणगंगा आदि नदियों के प्रगटकर्ता थे तथा इन ही की ही सिद्ध भूसिंचन विद्या , पुण्यतीर्थो की प्रेतोद्धार क्षमता के शिल्प कौशल से प्रेरणा पाकर राजा भगीरथ ने भागीरथी गंगा का अवतरण 4448 वि0पू0 में किया जो आज भी भारतवर्ष की सबसे बढ़ी पुण्यप्रद और जल सिंचन आधार बनी राष्ट्र संवर्धक महान नदी है। इस प्रकार वशिष्ठ कृषि सिंचन प्रणाली के तो आदि प्रवर्तक थे ही वे गोपालन औरं गोवशं संवर्धन और गोवशं विकास और गोमहिमां तथा गो पूजन के वेद शास्त्रों में श्रेष्ठ महत्व दिये जाने की संस्कृति के भी प्रथम आचार्य थे। उन्होंने गोसंवर्धन क्षेत्र गोवर्धन पर्वत के अनेकों बनों से युक्त आदि ब्रन्दावन जो भागवत के मत से विपुल जल तृण वृक्ष फल पुष्पों से परम ससृद्ध था उसमें गोवंश के विकास के कार्य में सभी देवों को प्रेरित करगो भक्त बनाया तथा उनके द्वारा विकसित वंश की बहुला कामधेनु नंदिनी सुरभी कपिला श्यामा धवला आदि गायों में सर्वक्षेष्ठ नंदिनी के वंश की गौ को प्राप्त करने के लिये देव असुर मुनि सभी अति आतुर रहते थे।</blockquote> <br />
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'''इस हेतु''' को लेकर ही उनका विश्वामित्र , सहस्त्राबाहु आदि से कलह हुआ तथा इसी वंश की गोमाता की सेवा और गोपय प्राशन व्रत का अनुष्ठान कराकर उन्होंने महाराजा दिलीप 4811 वि0पू0 को भगीरथ जैसा यशस्वी तेजस्वी पुत्र दिया। अन्य क्षेत्रों की सरस्वती धारायें लुप्त हो जाने पर इनने मथुरा के सरस्वती संगम तीर्थ पर सप्त सारस्वत तीर्थ की स्थापना कर धार्मिक श्रद्धालु प्रजा को सातों सरस्वतियों के स्नान दान का फल प्राप्त करने की सुविधा दी । इसी सिंचन विद्या से इनने संवरण राजा के राज में वारबार अकाल पड़ने पर (सावर काँठा में) सावर मती माही तपती नर्मदा आदि नदियों का प्रवाह संयत कर सिंचन व्यवस्था से उस देश को वृक्षों खेतों लता पत्रों फलो पुष्पों शाक धान्य से परिपूर्ण कर जन संरक्षण का महान प्रयास किया। वशिष्ठ वंश (गोत्र) की महिमा का बहुत विस्तार है जो सभी यहाँ देना सम्भव नहीं है। <br />
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'''वशिष्ठ''' वंशी धीर वीर ज्ञानी शांत क्षमाशील सर्वोपरि ब्रह्मज्ञानी योगी, तपस्वी, लोक कल्याण संवर्धक , विश्व पूज्य तथा ब्रह्मर्षि प्रवर पद प्राप्त थे। वशिष्ठ वंश के रचित अनेक ग्रन्थ अभी उपलब्ध हैं जो लोक शिक्षा और दुर्लभ विद्याओं के आकर ग्रन्थ हैं। वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र , वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति , वशिष्ठ श्राद्ध कल्प, आदि इनमें प्रमुख हैं। वेद वक्ताओं में वशिष्ठ ऋग्वेद के 7 वे मण्डल के प्रणेता हैं तथा 9 वें मंडल में भी इनके वंशधरों के अनेक मंत्र हैं। इनके विरोधी और बाद में कृपा पुष्ट विश्वामित्र के भी वशिष्ठ द्वेषी मंत्र ऋग्वेद में हैं। विश्वामित्र द्वारा शक्ति का वध , सौदास कल्माषपाद का पौरोहित्य, के मंत्र भी ऋग्वेद में हैं। <br />
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'''प्रवर'''- तीन प्रवरों में प्रथम वशिष्ठ पदस्थ (तिलकायत) वशिष्ठों का वर्णन हो चुका अब इस परम्परा में उन वशिष्ठ 3339 वि0पू0 के प्रवरों का जो माथुरों के गोत्र संस्थापक थे उनके वंश की विस्तृति इस प्रकार हैं-<br />
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'''शक्ति''' - ये वेदव्यास के तीन पीढी पूर्व के वशिष्ठ के पुत्र थे। इनका समय 3296 वि0पू0 है। इनने अपने पिता से प्राप्त विद्या और प्रताप से विश्वमित्र को शास्त्रवाद में परास्त किया जिससे क्षुब्ध होकर विश्वामित्र ने अपने क्रूर शिष्य सौदास कल्याषपाद द्वारा इनका 100 भाइयों सहित बध करा डाला। जिससे वशिष्ठ अति शोकातुर होकर प्राण त्याग उद्यत होकर विपाशा तट के क्षेत्र में गये जहां पाशवद्ध होकर नदी में कूदने पर भी वे पाशमुक्त हुए। शक्ति की मृत्यु के समय उनकी पत्नि गर्भवती थी। गर्भशिशु ने गर्भ के भीतर से ही इन्हें वेदपाठ सुना कर आशन्वित किया कि मैं आपके तेज को धारण किये हुए हूं। लम्बे समय के बाद उस गर्भ से मुनिवर पाराशर का जन्म हुआ। शक्ति वध कल्माषपद (कलमा पढ़ने वाले) राक्षस समूह की मैत्री से राक्षस बने राजा और उसकी राक्षस सेना द्वारा हुआ , इस घटना का वर्णन ऋग्वेद में हैं। इस राजा के कारण ही राक्षसों म्लेच्छों यवनादिकों का प्रवेश भारत के राजवंशों में हुआ। शक्ति का आश्रम ब्रज का सकीटरा गांव है। <br />
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<blockquote>'''पराशर''' - ये वेद व्यास के पिता मथुरा के माथुर थे। ये 3240 वि0पू0 में वशिष्ठश्रम (बाटी गांव बहुलावन) में जन्में तथा गोवर्धन पर्वत के निकट अपना आश्रम वनाकर रहे। ये महा तपस्वी तेजस्वी और अनेक विद्याओं के पारंगत थे और अनेक शास्त्रों के रचयिता रहे। गर्भ में से ही इनने वेद मंत्रों का पाठ अपने दादा वशिष्ठ जी को सुनाकर निराश जीवन में आशा का संचार देकर उन्हें आनंदित किया। वशिष्ठ इनकी अदृश्यन्ती माता के उदर के समीप कान लगाकर सुनते और अति आनंदित होते थे। इनने तीर्थयात्रा के मार्ग में मथुरा की यमुना धार के मध्य अपना तपोतेज मत्स्य कन्या काली (उपरिचरवसु कन्या) में स्थापित कर बालक वेदव्यास को जन्म दिया जो मथुरापुरी के प्रमुख क्षेत्र माथुरों के आवास स्थल यमुनाद्वीप या कृष्णादीप में माथुरी माताओं द्वारा पाले पोसे जाकर तथा माथुर महामहर्षियों द्वारा वेदादि समग्र विद्याओं और ग्रन्थों को प्राप्तकर सहासमर्थ विश्व के संस्कृति और साहित्य के सर्वश्रेष्ठ मूर्धन्य शास्त्र प्रवर्तक बन गये। पराशर ने अपने पिता के वध का बदला लेने को अपने आश्रम में राक्षस मेध सत्र किया जिसमें भारत से राक्षस वंश को मंत्रो द्वारा हवन कुंडों में भस्म कर देश को राक्षसों के आतंक से मुक्त करने का सराहनीय संकल्प था पराशर के इस महाबिकट प्रचंड आयोजन से राक्षस और उनके पूर्वपुरूष पुलस्त्य पुलह कृतु महाकृतु और उनके पुरोहित अत्रि चंद्रदेव (चंद्रसरोवर) भयभीत हो उठे। वे अपने बन्धु वशिष्ठ के पास आये और अपने वंश की रक्षा के लिए याचना करने लगे। वशिष्ठ के साथ वे राक्षस सत्र में पहुंचे जहां रज्जूबद्ध असुर राक्षस दैत्य दानव बंधे खड़े थे। उनने पराशर से प्रार्थना की वे उन राक्षस प्रमुखों को मुक्त करें क्योंकि वे मूलत: तो ब्राह्मण पुत्र ऋषियों के वंशज ही हैं। पुत्र पराशर तुम यह तो ध्यान करो कि इनमें प्रहलाद वलि वृषपर्ती आदि जैसे देवभक्त भी हुए है। वशिष्ठ ने भी पराशर को ब्राह्मण के क्षमाधन की महता और क्रोध भाव के अधर्म से मुक्त होने की शालीनता का उपदेश किया और गुरूजनों के आग्रह से यह सत्र बीच में ही भंग हुआ। पराशर ने इस यज्ञ की अभिचार अग्नि को तब हिमालय पार के अरवस्थान , सहारा, अफगान, विलोच तातार, साइवेरिया आदि देशों के विशाल प्रदेशों में उत्सर्जित कर दी जो महा ज्वाला समूम वायु, मिट्टी का तेल, बारूद के खेल (आतिशबाजी) बन कर उन देशों को जलहीन रेतीला और परस्पर घात प्रतिघात से अपने ही कुलों को नष्ट करने वाला रूप धारण कर अपना काम पूरा कर रही है। पराशर भारतवर्ष के अद्वितिय प्रतिभा सम्पन्न महर्षि थे। उनके रचे ग्रन्थों की संख्या बहुत बड़ी है, इनमें ज्योतिष ग्रंथ पराशर संहिता, पराशर होराशास्त्र , आयुर्वेद ग्रंथ, पराशर-तंत्र, वृद्धपराशर तंत्र, हस्त्यायुर्वेद, गवायुर्वेद , बृक्षायुर्वेद , पाराशर कल्प, विमान विद्या पर पाराशर विमान तंत्र महाग्रंथ पाराशर स्मृति बृहत पाराशर संहिता, पाराशर सिद्धांत , विष्णु पुराण, पाराशर नीतिशास्त्र , पाराशर वास्तुशास्त्र पाराशर गीता (भीष्म ने युधिष्ठर से कही) आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं पराशर वेद मंत्र कर्ताओं में भी श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किये हुए थे। ये विष्णु देवता नारायण के उपासक थे जिन की भक्ति का प्रितपादन इन्होंने अपने पुत्र वेदव्यास के आग्रह से 18 पुराणों की संख्या के अंतर्गत 'विष्णुपुराण' की रचना करके किया था। महाभारत की सूचना से ये रूद्र देव के (भूतेश्वर चक्रेश्व कामेश्वर) रूपों के भी भक्त थे। पुष्कर तीर्थ में भी इनने कुछकाल बास किया था और वहां के शिष्यों को ब्रह्मदेव की उपसना प्रदान कर उन्हें पाराशर ब्राह्मण संज्ञा देकर अपने प्रिय शिष्य स्वीकार किया था। इनके ही तेजस्वी वंश में शुकमुनि (परमंहस) तथा ब्रह्मदत्त योगी, आदि हुए। व्यास परम्परा आज भी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ पदवी युक्त मानी जाती है। </blockquote> <br />
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अल्लैं- इगके आस्पद (अल्ल) इस प्रकार हैं----<br />
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1. काहौ– ये कहो़ड ऋषी के वंशज हैं । कहोड ने नवीन धान्य से यज्ञ हेतु अग्नि स्थापन विधि का प्रवर्तन किया । ये याज्ञवल्क्य 2929 वि0 पू0 के समकालीन थे । ये उद्दालक के शिष्य थे तथा जनक सभाविजेता अष्टावक्र ऋषि इसके पुत्र थे ।<br />
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2.बट्ठिया – स्वायंभूमनु 9000 वि0 पू0 के शासित प्रदेश ब्रह्रावर्त में निवास करने के कारण ये ब्रह्रावर्तिया बठ्ठिया संज्ञा से प्रसिद्ध हुए हैं ।<br />
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3. दारे- श्री कृष्ण के प्रिय ब्रन्दारण्य (वैदोखर नंदगांव) में 3107 वि0 पू0 में श्री कृष्ण रक्षक बन कर जाकर रहने वाले माथुर ब्राह्राण व्रंदारक वृंदारे या दारे हैं ।<br />
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4. खोखावत- ये व्यास कालीन कोकामुख तीर्थ पर तप करने से कोकावत से खोखावत हुए हैं ।<br />
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5. सात- सप्तसारस्वत तीर्थ सरस्वती संगम मथुरा कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर तपोनिष्ठ स्वायंभूमनु के सप्तऋषियों के यश परिचारक । सात्वतों के गुरू । <br />
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6. निनौलिया – नारायण नेत्रवासिनी आदि योगमाया नैनादेवी के नैनसरोवर शम्याप्राश व्यास बन (सेऊ ब्रज) में शमी भक्षण करके नैनादेवी के उपासक, अथवा ब्रज के नमक वितरण केन्द्र नौनेरा गांव (नमक की मंडी) लवणासुरपुर के निवासी ।<br />
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7. डुंडबार- भक्त प्रहलाद 8874 वि0 पू0 को होली में लेकर बैठने वाली ढूढार देश(कोटा बूंदी जैपुर) की ढुंढा राक्षसी(ढांडनियां) के प्रजाजनों के प्रोहित । <br />
चंदरासो में पृथ्वीराज और चौहान वंश को ढुंढा (देवी) का वंश चंद कवि ने मान्य किया है ।<br />
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8. उटौलिया- ऊंट पर बैठैकरफिरने वाले । मरूवन्य देश (राजस्थान) में भ्रमण करने वाले । ऊटालर गाँव के निवासी ।<br />
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9. जौनमाने- यवन मान्य । मनु और कृष्ण कालीन प्राचीन कालयवनादि वंशो की परम्परा में आने वाले सिकन्दर सैलूष (सैल्यूक्स) तथा उनके भारत दर्शन को आने वाले यूनानी यात्रियों विद्वानों को मथुरा का प्राचीन वैभव दिखलाने बतलाने जैन स्तूपों बिहारों मठों संघारामों सनातन धर्म के देव मन्दिरों घाटों तीर्थों वन उपवनों की यात्रा कराके उनकी भाषा में उन्हें भारत ज्ञान देने बाते उनसे तीर्थगुरू का सन्मान प्राप्त करने वाले ।<br />
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मीठे चौवों में कुछ पृथक अल्लै<br />
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10. पैंठवार – पुरूरवा की राजधानी ब्रज की प्रतिष्ठान पुरी(पैठोगांव) में जाकर बसने वाले ।<br />
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11. किंझरे- कंजाक्ष( कज्जाकस्तानी कंजर) तथा हिमालय किन्नौर क्षेत्र के किंन्नरगण (वैदिक किंपुरूष) जो ब्रज में कंझौली क्षेत्र में बसे थे । उनके सहवासी जन । किंन्नर नृत्य गान कुशल उपदेव थे जिनका राग कान्हडा माथुरी नारियों द्वारा 'कनहरी' के नाम से मंगल कार्यों के आरम्भ में बडे समारोह के साथ मिठाई आदि वितरण के साथ सम्पन्न होता है । प्रधान कन्हरीगानकर्त्री वयोवृद्धा को वस्त्र पात्र रूपया मिष्ठान आदि देकर सम्मानित किया जाता है । श्री कृष्ण का किन्नरोपम मधुर मोहक गान के कारण ही कान्हा कन्हैया नाम हुआ । बंबई को अंचल में माथेरान और कन्हैरी गुफायें माथुरों के समुद्र तट तक अपने उपनिवेश स्थापन करने के संकेत देते हैं । <br />
<br />
12. बहरामदे- ये अबकर बादशाह के संरक्षक मुगल सरदार बैहराम खां (वैरम खां) के आश्रयवर्ती रहे थे । 1613 वि0 में जब हुमांयू की मृत्यु हुई और अकबर गद्दी पर बैठा उस समय उसकी 13 वर्ष की आयु के समय बालक बादशाह की राज्य व्यवस्था सभालने में बहराम खां का खास संरक्षण था । अकबर अपने शाहजादाकाल में पंजाब का जगीरदार था । जहां वैरमखां ही उसका सरपरस्त मीर जुमला बड़ा हाकिम था । अकबर के आगरा राजधानी में आने और आगरा समृद्धि और वैभव विस्तार में वैरमखां का योगदान सर्वोपरि था ।<br />
<br />
13. तेहरिया- व्यास कालीन भागवत में प्रस्तुत विदुर मैत्रेय संवाद के ब्रह्राज्ञान तत्ववेत्ता मैत्रेय जिनवा आश्रम व्रन्दावन के क्षेत्र में तेहरा गांव तथा पांडवों के इन्द्रप्रस्थ महानगर में तिहाड था तथा जिनके वंशधर बाद में बौद्ध धर्म के अर्हत हो गये थे । पुराणों के अनुसार मैत्रेय पांचाल देश के राजा दिवोदास पुत्र मित्रेयु का पुत्र था । प्रथम यह आंगिरसारें का शिष्य था पीछे भृगु वंशियों में सम्मिलित हो गया । इसका वेदव्यास से धर्मतत्व संवाद "व्यास मैत्रेय संवाद" तथा श्रीकृष्ण का उद्धव को प्रदत्त सर्वोपरि ज्ञान संवाद जो इसने विदुर को उपदेश किया भागवत में हैं । मैत्रेय की बौद्धकालीन विशाल प्रतिमा मथुरा संग्रहालय में दर्मनीय हैं ।<br />
<br />
14. मोरेसरिया- मथुरा जनपद में मौर्य सम्राटों का राज्य केन्द्र मौर्यश्री मुडेसी गांव में इनका निवास होने से मौर्यश्रीय ही मौरेसरिया प्रसिद्ध हुए । <br />
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15. मैंठिया- अवष्ठ नरेशों की राजधानी अमैंठी अंवष्ठपुरी के निवासी होने से अमैठिया मेठिया नाम से प्रसिद्ध हुए ।<br />
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16. सिहोरिया- ब्रज के सिंहोरा (नृसिंह वंशी सिंहों का पुर) के वास से प्रसिद्ध । <br />
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17. जुनसुटिया- यदुओं की जनुष्ठी शाखा के परिवर्तित नाम से विख्यात ये ब्रज के अजमीढ यादव वंशी जन्हु 4268 वि0 पू0 के जिनके जानूऔ जनूथर जुनसुटी जुन्हौती जान्हवी गंगा का प्राचीन प्रदेश, जन्हुकूप शान्तनुकुंड हैं उस वंश के प्रोहित जनुष्ठी तथा जुनसुटी में जाकर बसने वाले झुनसुटिया कहलाये । जन्हुऋषि बन गये थे ।<br />
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18. रिसिनियां- अंवरीष टीला(प्राचीन अंवरीषपुर) के माथुर चतुर्वेद पुर( टीला चौवियान) जहां पहिले चौवो के पूर्वज रहते थे तथा जिसके निकट ही माथुरों की आंगिरस यज्ञ स्थली थी उसके निवासी । यह स्थान टीला चौबियान के नाम से अभी भी उल्लिखित हैं जो उस टीले का ही रूप मात्र है ।<br />
<br />
19. जैतिया – ब्रज के अजित शेषनाग के तपोवन जैतगांव में बसे माथुर जैत में प्राचीन नाग मूर्ति सरोवर तट पर हैं जो कितनी गहरी है यह खोदने पर ज्ञात नहीं हो सका है । <br />
मीठे चौवों की इन अल्लों से प्राचीनता के साथ इनका ब्रज के इन गांवों में जाकर बस जाना भी इतिहास पुष्ट है । आश्चर्य तो यह है कि अल्लों पर विचार करने वारले महानुभावों ने इनके मूल तथ्यों पर न पहुंच कर इन्हें मनमानी अंधकार युगीन तथा निरर्थक कह दिया है ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_10&diff=56290चतुर्वेदी इतिहास 102010-04-23T11:33:06Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==वशिष्ठ गोत्र==<br />
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<blockquote>'''ब्रह्मदेव''' के 10 मानस पुत्रों में 9400 वि0पू0 से यह गोत्र प्रवर्तित हुआ। स्वायंभुव मन्वंतर के सप्त ऋषियों में ये स्थापित थे। इनकी बड़ी शालीन परंपरा है। ये ब्रह्मदेव के प्राणतत्व से अर्थात् प्राणसमान प्रियभाव से उत्पन्न हुए थे। प्रजापति दक्ष ने अपनी उर्जा (वाढा उझानी क्षेत्र स्वामिनी ब्रज में) पुत्री उन्हें दी थी तथा इस बड़े वंश के नाते यह शंकर भगवान के साढू तथा सतीदेवी के वहनोई थे। ब्रज के सांख्या चार्य कपिलदेव जी की वहिन कर्दम ऋषि (कुमदवन) की पुत्री अरून्धती भी इनकी यज्ञ ज्ञाता पत्नी थी। अरून्धती की शाखा में ही पीछे बाद में वशिष्ठ शक्ति पराशर और वेदव्यास शुकमुनि आदि हुए है। शुक पुत्र भूरिश्रवा, प्रभु, शंभु कृष्ण-गौर (गौरहेठाकुर) हुए तथा वंशिष्ठ जी को घृतात्री अप्सरा से महात्मा अपमन्यु हुए जिनका आश्रम वेदव्यास आश्रम कृष्ण गंगा के निकट सोमतीर्थ पर था जहाँ पुत्र प्राप्ति के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारिका से आकर पाशुपत दीक्षा लेकर कठोर बतचर्या युक्त तप करके सांव पुत्र पाया था तथा यहीं वेद व्यास ने अपना आश्रम स्थापित किया। श्राद्वदेव वैवस्वत मनु 6379 वि0पू0 के सत्र में पुत्र कामना के विपर्यय से श्रद्धा पत्नी की इच्छानुसार इला कन्या प्रगट हुई जिसे माता पिता दोनों को संतुष्ट रखने को महाशक्तिशाली वशिष्ठ देव ने पुत्र रूप में सुद्युम्न और कन्या रूप में इला दोनों देह दिये। सुद्युम्न (दोमन ब्रज) के राजा बने इनके पुत्र गय का गयाकुण्ड तथा विमल का विमलकुण्ड इन्द्र के स्वर्गलोक आदि बृन्दावन कामवन में अभी यथास्थान हैं।</blockquote> <br />
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'''तालजंघ''' और हैहयों ने जब अयोध्या नरेश बाहु को भारत से बाहर के मलेच्छों की सहायता लेकर मरवाया तब वशिष्ठ के शिष्य सगर ने उन पर चढाई कर पारद (रूद्र पार्षद पारसीक) गंधारी, कंवोडियन (कम्वोज) , (यूनानी अरवी विलोची) यवन और पल्लव (पहलवियों) का निर्मूल करना चाहा तब महाकृपालु वशिष्ठ ने इन्हें केवल अपरूप बनाकर शिखा हीन दाढी युक्त करके क्षमा कर दिया, तभी से वे वशिष्ठ मुनि के शिष्य हो गये और विश्वमित्र के वशिष्ठ आश्रम (वहुलावन) से उनकी कामधेनु कुल की नंदिनी गौ को बलपूर्वक हरण करने का प्रयास करने पर योनिमार्ग (जौनसार भावर) से आकर नंदिनी की रक्षा की और विश्वामित्र का दर्प चूर्ण कर दिया। यह असुरों द्वारा गुरूभक्ति का प्रभाव देख विश्वामित्र आहैं भरने लगे-"धिग्वलं क्षत्रिय वलं, ब्रह्मतेजो वलम् वलम्" विश्वामित्र ने वशिष्ठ के 100 पुत्रों सहित शक्ति का वध किया, आड़ी (उड़िया) और बक (बंगाली) सेनायें लड़वायी और अंत में वे वशिष्ठ के चरणों में गिरे और क्षमाशील मुनि ने उन्हें क्षमा कर ब्रह्मर्षि का पद दे दिया। नंदिनी की रक्षा हेतु भी ये ही पारद यवन काम्वोज शक पल्लव आदि मलेच्छ ही भारत में आये थे और यहीं बस कर भारतीय प्रजाओं में मिल गये। <br />
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'''वशिष्ठ गोत्र''' के प्रवर शक्ति पाराशर ही माथुर हैं। इन वशिष्ठ देव का समय 3317 वि0पू0 , शक्ति देव 3256 वि0पू0 पाराशर मुनि 3185 वि0पू0 तथा वेदव्यास देव का 3114 वि0पू0 है। वशिष्ठ का आश्रम वाशिष्ठी वन (वाटी वहुलावन), शक्ति का सकीटरा (गोवर्धन) पराशर का पराशर स्थली (पारासौली गेवर्धन) वेदव्यास का कृष्ण गंगा आश्रम तथा किशन टीला मथुरा के ही परम पुण्य स्थान हैं। वशिष्ठ के पुत्र चित्रकेतु (चित्राल के चिश्ती) गंधर्वराज थे जो आरम्भ में मथुरा शूरसेन जनपद पर शासक थे। इनके पुत्र को इनकी सौतेली माताओं ने विष देकर मार डाला, तब अति शोकाकुल मर्हिष अंगिरा (कुत्सगोत्र प्रवरी) ने योगविद्या द्वारा चैतन्य कर संवाद कराया और राजा को आत्मतत्व का मार्ग उपदेश किया। इस चित्रकेतु राजा का समय 9332 वि0पू0 हैं। वशिष्ठ की व्याघ्री पत्नि से मन्यु आदि क्रोध के पुंज देवता जो सूर्य सेनाओं के अधिपति थे। (सूर्यमन्युमन्यु पति रात्रयों देवता) थे जिनका क्षेत्र ब्रज में नूह नोहर नोहवाल जाट नौहरे आदि था। वशिष्ठ वंशियों ने राजा मुचुकुंद, रंतिदेव, श्राद्धदेव मनु आदि को यज्ञ कराये थे। ये सारस्वतों के आदि पुरूष सारस्वत ऋषि के भी गुरू थे। <br />
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'''वशिष्ठ और विश्वामित्र''' का कलह प्रसिद्ध है। सूर्यवंश की पुरोहिताई, देवों और ऋषियों में सन्मान, नंदिनी कुल का गोवंश आदि कई कारणों को लेकर यह संघर्ष चला । वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ विश्वमित्र के 50 पुत्र तालजंघों की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ (यूनानी पारसी मिश्री अफगान अरब) हो गये तब हार मान कर विश्वामित्र इनके शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमा दान देकर उदारता से ब्रह्मर्षि रूप से स्वीकार कर लिया। वशिष्ठ ने श्राद्ध देव मनु 6379 वि0पू0 को परामर्ष देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बटवाकर दिलाया। ये सभी शूरसेन देश मथुरा के माथुरों के शिष्य थे। इक्ष्वाकु ने 100 रात्रि का कठोर तप करके सूर्य देवता की सिद्धि प्राप्त थी की और वशिष्ठ को गुरू बनाकर उनके उपदेश से अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्या (आयुधधारी संघ जिससे युद्ध करने का कोई साहस न करे) ऐसी पुरी स्थिपित करायी और वे प्राय: वहीं रहने लगे। वशिष्ठ मुनि की दूसरी पत्नि अरूंधती स्वायंभूमनु के जामात्ट कर्दम मुनि 8932 वि0पू0 (कुमुदवन आश्रम) की पुत्री तथा सांख्य शास्त्र सर्व प्रथम मानव वंश के तत्वज्ञान दर्शनशास्त्र के आविष्कार महर्षि कपिल (8867 वि0पू0) की वहिन थीं। इन्हीं से माथुर गोत्र प्रवर वशिष्ठ शक्ति पाराशर तथा महामहर्षि वेद व्यास शुकमुनि आदि उत्पन्न हुए। माथुर वशिष्ठ आरम्भ से सूर्यवंश के सम्राटों , वैवस्वतमनु 6379 वि0पू0 इक्ष्वाकु 6310 वि0पू0 , नृग 6369 वि0पू0, शर्याति 6307 वि0पू0 नभग 6305 वि0पू0 तथा इला बुध वंश 6369 वि0पू0 का चंद्रवंश के परम सन्मानित राजपुरोहित पद पर प्रतित्ठित रहे। रघु 4181 वि0पू0 , अज 4126 वि0पू0 दशरथ 4086 वि0पू0 तथा श्रीराम भगवान 4024 वि0पू0 के भी पुरोहित रहे। उनने दशरथ को पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया, श्री रामजी को जातकर्म चौल, यज्ञोपवीत विवाह कराया और राम की राज्याभिषेक की पूरी व्यवस्था इन्ही के द्वारा हुई। ये इक्ष्वाकुवंशी कुवलयाश्व धुंधमार 5946 वि0पू0 धमार गायन के आदि प्रवर्तक के, युवनाश्व 5612 वि0पू0, मांधाता त्रसदस्युयौवनाश्व 5576 वि0पू0 हरिश्चंद 5262 वि0पू0 सगर 4925 वि0पू0 दिलीप 4811 वि0पू0 भागीरथ 4771 वि0पू0, सिन्धु द्वीप 4670 वि0पू0 , दाशराज्ञ युद्ध के विजेता वेद वणित सम्राट सुदास 4475 वि0पू0 , आदि सभी के कुल परम्परा पुज्य राज पुरोहित रहे। वशिष्ठ ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा 9400 वि0पू0 के यज्ञ के आचार्य रहे और तप के प्रभाव से पुष्कर सरोवर से प्रगट कर सप्त स्त्रोता नंदा सरस्वती को अपने मथुरा क्षेत्र में लाये और उसका यमुना में संगम कराया। <br />
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'''वैदिक काल''' की देव नदी सरस्वती की 7 धारायें थी इनमें से प्रथम कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर वशिष्इ ने 100 पुत्र पाये थे, राजस्थान की सरस्वती (मरूत्वती घघ्घर) मुनि दुर्वासा के शाप से बालुका समुद्र में लुप्त हो गई, द्वारिका की प्रत्यक् सरस्वती अभी भी अपने स्थान पर अपने नदी चिन्ह के रूप में हैं और वर्षा ऋतु में प्रगट प्रवाहित होकर अपने आस्तित्व की साक्षी देती है। इसी सरस्वती के प्राचीन जल प्रपात महासरोवर बहुलावन में महर्षि वशिष्ठ अपनी ब्रह्मदेव से प्राप्त वहुलावंश (वहुत सुस्वाद अमृतमय दुग्ध प्रदा) की गायों को लेकर रहते थे। वशिष्ठ अयोध्या में शरण्यू शतयूपिका (सरयू) के ब्रज में आदि नंदा सरस्वती के, मरूस्थल में मरूतवती सरस्वती के तथा अपने बहुलावन में बहुला सरस्वती, मधुवन में मधुमती कुमुदवन में कुमुद्वती, गोवर्धन में मानसी, कामवन में कामगा, चरणपर्वत बन में चरणगंगा आदि नदियों के प्रगटकर्ता थे तथा इन ही की ही सिद्ध भूसिंचन विद्या , पुण्यतीर्थो की प्रेतोद्धार क्षमता के शिल्प कौशल से प्रेरणा पाकर राजा भगीरथ ने भागीरथी गंगा का अवतरण 4448 वि0पू0 में किया जो आज भी भारतवर्ष की सबसे बढ़ी पुण्यप्रद और जल सिंचन आधार बनी राष्ट्र संवर्धक महान नदी है। इस प्रकार वशिष्ठ कृषि सिंचन प्रणाली के तो आदि प्रवर्तक थे ही वे गोपालन औरं गोवशं संवर्धन और गोवशं विकास और गोमहिमां तथा गो पूजन के वेद शास्त्रों में श्रेष्ठ महत्व दिये जाने की संस्कृति के भी प्रथम आचार्य थे। उन्होंने गोसंवर्धन क्षेत्र गोवर्धन पर्वत के अनेकों बनों से युक्त आदि ब्रन्दावन जो भागवत के मत से विपुल जल तृण वृक्ष फल पुष्पों से परम ससृद्ध था उसमें गोवंश के विकास के कार्य में सभी देवों को प्रेरित करगो भक्त बनाया तथा उनके द्वारा विकसित वंश की बहुला कामधेनु नंदिनी सुरभी कपिला श्यामा धवला आदि गायों में सर्वक्षेष्ठ नंदिनी के वंश की गौ को प्राप्त करने के लिये देव असुर मुनि सभी अति आतुर रहते थे। <br />
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'''इस हेतु''' को लेकर ही उनका विश्वामित्र , सहस्त्राबाहु आदि से कलह हुआ तथा इसी वंश की गोमाता की सेवा और गोपय प्राशन व्रत का अनुष्ठान कराकर उन्होंने महाराजा दिलीप 4811 वि0पू0 को भगीरथ जैसा यशस्वी तेजस्वी पुत्र दिया। अन्य क्षेत्रों की सरस्वती धारायें लुप्त हो जाने पर इनने मथुरा के सरस्वती संगम तीर्थ पर सप्त सारस्वत तीर्थ की स्थापना कर धार्मिक श्रद्धालु प्रजा को सातों सरस्वतियों के स्नान दान का फल प्राप्त करने की सुविधा दी । इसी सिंचन विद्या से इनने संवरण राजा के राज में वारबार अकाल पड़ने पर (सावर काँठा में) सावर मती माही तपती नर्मदा आदि नदियों का प्रवाह संयत कर सिंचन व्यवस्था से उस देश को वृक्षों खेतों लता पत्रों फलो पुष्पों शाक धान्य से परिपूर्ण कर जन संरक्षण का महान प्रयास किया। वशिष्ठ वंश (गोत्र) की महिमा का बहुत विस्तार है जो सभी यहाँ देना सम्भव नहीं है। <br />
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'''वशिष्ठ''' वंशी धीर वीर ज्ञानी शांत क्षमाशील सर्वोपरि ब्रह्मज्ञानी योगी, तपस्वी, लोक कल्याण संवर्धक , विश्व पूज्य तथा ब्रह्मर्षि प्रवर पद प्राप्त थे। वशिष्ठ वंश के रचित अनेक ग्रन्थ अभी उपलब्ध हैं जो लोक शिक्षा और दुर्लभ विद्याओं के आकर ग्रन्थ हैं। वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र , वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति , वशिष्ठ श्राद्ध कल्प, आदि इनमें प्रमुख हैं। वेद वक्ताओं में वशिष्ठ ऋग्वेद के 7 वे मण्डल के प्रणेता हैं तथा 9 वें मंडल में भी इनके वंशधरों के अनेक मंत्र हैं। इनके विरोधी और बाद में कृपा पुष्ट विश्वामित्र के भी वशिष्ठ द्वेषी मंत्र ऋग्वेद में हैं। विश्वामित्र द्वारा शक्ति का वध , सौदास कल्माषपाद का पौरोहित्य, के मंत्र भी ऋग्वेद में हैं। <br />
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'''प्रवर'''- तीन प्रवरों में प्रथम वशिष्ठ पदस्थ (तिलकायत) वशिष्ठों का वर्णन हो चुका अब इस परम्परा में उन वशिष्ठ 3339 वि0पू0 के प्रवरों का जो माथुरों के गोत्र संस्थापक थे उनके वंश की विस्तृति इस प्रकार हैं-<br />
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'''शक्ति''' - ये वेदव्यास के तीन पीढी पूर्व के वशिष्ठ के पुत्र थे। इनका समय 3296 वि0पू0 है। इनने अपने पिता से प्राप्त विद्या और प्रताप से विश्वमित्र को शास्त्रवाद में परास्त किया जिससे क्षुब्ध होकर विश्वामित्र ने अपने क्रूर शिष्य सौदास कल्याषपाद द्वारा इनका 100 भाइयों सहित बध करा डाला। जिससे वशिष्ठ अति शोकातुर होकर प्राण त्याग उद्यत होकर विपाशा तट के क्षेत्र में गये जहां पाशवद्ध होकर नदी में कूदने पर भी वे पाशमुक्त हुए। शक्ति की मृत्यु के समय उनकी पत्नि गर्भवती थी। गर्भशिशु ने गर्भ के भीतर से ही इन्हें वेदपाठ सुना कर आशन्वित किया कि मैं आपके तेज को धारण किये हुए हूं। लम्बे समय के बाद उस गर्भ से मुनिवर पाराशर का जन्म हुआ। शक्ति वध कल्माषपद (कलमा पढ़ने वाले) राक्षस समूह की मैत्री से राक्षस बने राजा और उसकी राक्षस सेना द्वारा हुआ , इस घटना का वर्णन ऋग्वेद में हैं। इस राजा के कारण ही राक्षसों म्लेच्छों यवनादिकों का प्रवेश भारत के राजवंशों में हुआ। शक्ति का आश्रम ब्रज का सकीटरा गांव है। <br />
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'''पराशर''' - ये वेद व्यास के पिता मथुरा के माथुर थे। ये 3240 वि0पू0 में वशिष्ठश्रम (बाटी गांव बहुलावन) में जन्में तथा गोवर्धन पर्वत के निकट अपना आश्रम वनाकर रहे। ये महा तपस्वी तेजस्वी और अनेक विद्याओं के पारंगत थे और अनेक शास्त्रों के रचयिता रहे। गर्भ में से ही इनने वेद मंत्रों का पाठ अपने दादा वशिष्ठ जी को सुनाकर निराश जीवन में आशा का संचार देकर उन्हें आनंदित किया। वशिष्ठ इनकी अदृश्यन्ती माता के उदर के समीप कान लगाकर सुनते और अति आनंदित होते थे। इनने तीर्थयात्रा के मार्ग में मथुरा की यमुना धार के मध्य अपना तपोतेज मत्स्य कन्या काली (उपरिचरवसु कन्या) में स्थापित कर बालक वेदव्यास को जन्म दिया जो मथुरापुरी के प्रमुख क्षेत्र माथुरों के आवास स्थल यमुनाद्वीप या कृष्णादीप में माथुरी माताओं द्वारा पाले पोसे जाकर तथा माथुर महामहर्षियों द्वारा वेदादि समग्र विद्याओं और ग्रन्थों को प्राप्तकर सहासमर्थ विश्व के संस्कृति और साहित्य के सर्वश्रेष्ठ मूर्धन्य शास्त्र प्रवर्तक बन गये। पराशर ने अपने पिता के वध का बदला लेने को अपने आश्रम में राक्षस मेध सत्र किया जिसमें भारत से राक्षस वंश को मंत्रो द्वारा हवन कुंडों में भस्म कर देश को राक्षसों के आतंक से मुक्त करने का सराहनीय संकल्प था पराशर के इस महाबिकट प्रचंड आयोजन से राक्षस और उनके पूर्वपुरूष पुलस्त्य पुलह कृतु महाकृतु और उनके पुरोहित अत्रि चंद्रदेव (चंद्रसरोवर) भयभीत हो उठे। वे अपने बन्धु वशिष्ठ के पास आये और अपने वंश की रक्षा के लिए याचना करने लगे। वशिष्ठ के साथ वे राक्षस सत्र में पहुंचे जहां रज्जूबद्ध असुर राक्षस दैत्य दानव बंधे खड़े थे। उनने पराशर से प्रार्थना की वे उन राक्षस प्रमुखों को मुक्त करें क्योंकि वे मूलत: तो ब्राह्मण पुत्र ऋषियों के वंशज ही हैं। पुत्र पराशर तुम यह तो ध्यान करो कि इनमें प्रहलाद वलि वृषपर्ती आदि जैसे देवभक्त भी हुए है। वशिष्ठ ने भी पराशर को ब्राह्मण के क्षमाधन की महता और क्रोध भाव के अधर्म से मुक्त होने की शालीनता का उपदेश किया और गुरूजनों के आग्रह से यह सत्र बीच में ही भंग हुआ। पराशर ने इस यज्ञ की अभिचार अग्नि को तब हिमालय पार के अरवस्थान , सहारा, अफगान, विलोच तातार, साइवेरिया आदि देशों के विशाल प्रदेशों में उत्सर्जित कर दी जो महा ज्वाला समूम वायु, मिट्टी का तेल, बारूद के खेल (आतिशबाजी) बन कर उन देशों को जलहीन रेतीला और परस्पर घात प्रतिघात से अपने ही कुलों को नष्ट करने वाला रूप धारण कर अपना काम पूरा कर रही है। पराशर भारतवर्ष के अद्वितिय प्रतिभा सम्पन्न महर्षि थे। उनके रचे ग्रन्थों की संख्या बहुत बड़ी है, इनमें ज्योतिष ग्रंथ पराशर संहिता, पराशर होराशास्त्र , आयुर्वेद ग्रंथ, पराशर-तंत्र, वृद्धपराशर तंत्र, हस्त्यायुर्वेद, गवायुर्वेद , बृक्षायुर्वेद , पाराशर कल्प, विमान विद्या पर पाराशर विमान तंत्र महाग्रंथ पाराशर स्मृति बृहत पाराशर संहिता, पाराशर सिद्धांत , विष्णु पुराण, पाराशर नीतिशास्त्र , पाराशर वास्तुशास्त्र पाराशर गीता (भीष्म ने युधिष्ठर से कही) आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं पराशर वेद मंत्र कर्ताओं में भी श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किये हुए थे। ये विष्णु देवता नारायण के उपासक थे जिन की भक्ति का प्रितपादन इन्होंने अपने पुत्र वेदव्यास के आग्रह से 18 पुराणों की संख्या के अंतर्गत 'विष्णुपुराण' की रचना करके किया था। महाभारत की सूचना से ये रूद्र देव के (भूतेश्वर चक्रेश्व कामेश्वर) रूपों के भी भक्त थे। पुष्कर तीर्थ में भी इनने कुछकाल बास किया था और वहां के शिष्यों को ब्रह्मदेव की उपसना प्रदान कर उन्हें पाराशर ब्राह्मण संज्ञा देकर अपने प्रिय शिष्य स्वीकार किया था। इनके ही तेजस्वी वंश में शुकमुनि (परमंहस) तथा ब्रह्मदत्त योगी, आदि हुए। व्यास परम्परा आज भी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ पदवी युक्त मानी जाती है। <br />
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अल्लैं- इगके आस्पद (अल्ल) इस प्रकार हैं----<br />
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1. काहौ– ये कहो़ड ऋषी के वंशज हैं । कहोड ने नवीन धान्य से यज्ञ हेतु अग्नि स्थापन विधि का प्रवर्तन किया । ये याज्ञवल्क्य 2929 वि0 पू0 के समकालीन थे । ये उद्दालक के शिष्य थे तथा जनक सभाविजेता अष्टावक्र ऋषि इसके पुत्र थे ।<br />
<br />
2.बट्ठिया – स्वायंभूमनु 9000 वि0 पू0 के शासित प्रदेश ब्रह्रावर्त में निवास करने के कारण ये ब्रह्रावर्तिया बठ्ठिया संज्ञा से प्रसिद्ध हुए हैं ।<br />
<br />
3. दारे- श्री कृष्ण के प्रिय ब्रन्दारण्य (वैदोखर नंदगांव) में 3107 वि0 पू0 में श्री कृष्ण रक्षक बन कर जाकर रहने वाले माथुर ब्राह्राण व्रंदारक वृंदारे या दारे हैं ।<br />
<br />
4. खोखावत- ये व्यास कालीन कोकामुख तीर्थ पर तप करने से कोकावत से खोखावत हुए हैं ।<br />
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5. सात- सप्तसारस्वत तीर्थ सरस्वती संगम मथुरा कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर तपोनिष्ठ स्वायंभूमनु के सप्तऋषियों के यश परिचारक । सात्वतों के गुरू । <br />
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6. निनौलिया – नारायण नेत्रवासिनी आदि योगमाया नैनादेवी के नैनसरोवर शम्याप्राश व्यास बन (सेऊ ब्रज) में शमी भक्षण करके नैनादेवी के उपासक, अथवा ब्रज के नमक वितरण केन्द्र नौनेरा गांव (नमक की मंडी) लवणासुरपुर के निवासी ।<br />
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7. डुंडबार- भक्त प्रहलाद 8874 वि0 पू0 को होली में लेकर बैठने वाली ढूढार देश(कोटा बूंदी जैपुर) की ढुंढा राक्षसी(ढांडनियां) के प्रजाजनों के प्रोहित । <br />
चंदरासो में पृथ्वीराज और चौहान वंश को ढुंढा (देवी) का वंश चंद कवि ने मान्य किया है ।<br />
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8. उटौलिया- ऊंट पर बैठैकरफिरने वाले । मरूवन्य देश (राजस्थान) में भ्रमण करने वाले । ऊटालर गाँव के निवासी ।<br />
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9. जौनमाने- यवन मान्य । मनु और कृष्ण कालीन प्राचीन कालयवनादि वंशो की परम्परा में आने वाले सिकन्दर सैलूष (सैल्यूक्स) तथा उनके भारत दर्शन को आने वाले यूनानी यात्रियों विद्वानों को मथुरा का प्राचीन वैभव दिखलाने बतलाने जैन स्तूपों बिहारों मठों संघारामों सनातन धर्म के देव मन्दिरों घाटों तीर्थों वन उपवनों की यात्रा कराके उनकी भाषा में उन्हें भारत ज्ञान देने बाते उनसे तीर्थगुरू का सन्मान प्राप्त करने वाले ।<br />
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मीठे चौवों में कुछ पृथक अल्लै<br />
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10. पैंठवार – पुरूरवा की राजधानी ब्रज की प्रतिष्ठान पुरी(पैठोगांव) में जाकर बसने वाले ।<br />
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11. किंझरे- कंजाक्ष( कज्जाकस्तानी कंजर) तथा हिमालय किन्नौर क्षेत्र के किंन्नरगण (वैदिक किंपुरूष) जो ब्रज में कंझौली क्षेत्र में बसे थे । उनके सहवासी जन । किंन्नर नृत्य गान कुशल उपदेव थे जिनका राग कान्हडा माथुरी नारियों द्वारा 'कनहरी' के नाम से मंगल कार्यों के आरम्भ में बडे समारोह के साथ मिठाई आदि वितरण के साथ सम्पन्न होता है । प्रधान कन्हरीगानकर्त्री वयोवृद्धा को वस्त्र पात्र रूपया मिष्ठान आदि देकर सम्मानित किया जाता है । श्री कृष्ण का किन्नरोपम मधुर मोहक गान के कारण ही कान्हा कन्हैया नाम हुआ । बंबई को अंचल में माथेरान और कन्हैरी गुफायें माथुरों के समुद्र तट तक अपने उपनिवेश स्थापन करने के संकेत देते हैं । <br />
<br />
12. बहरामदे- ये अबकर बादशाह के संरक्षक मुगल सरदार बैहराम खां (वैरम खां) के आश्रयवर्ती रहे थे । 1613 वि0 में जब हुमांयू की मृत्यु हुई और अकबर गद्दी पर बैठा उस समय उसकी 13 वर्ष की आयु के समय बालक बादशाह की राज्य व्यवस्था सभालने में बहराम खां का खास संरक्षण था । अकबर अपने शाहजादाकाल में पंजाब का जगीरदार था । जहां वैरमखां ही उसका सरपरस्त मीर जुमला बड़ा हाकिम था । अकबर के आगरा राजधानी में आने और आगरा समृद्धि और वैभव विस्तार में वैरमखां का योगदान सर्वोपरि था ।<br />
<br />
13. तेहरिया- व्यास कालीन भागवत में प्रस्तुत विदुर मैत्रेय संवाद के ब्रह्राज्ञान तत्ववेत्ता मैत्रेय जिनवा आश्रम व्रन्दावन के क्षेत्र में तेहरा गांव तथा पांडवों के इन्द्रप्रस्थ महानगर में तिहाड था तथा जिनके वंशधर बाद में बौद्ध धर्म के अर्हत हो गये थे । पुराणों के अनुसार मैत्रेय पांचाल देश के राजा दिवोदास पुत्र मित्रेयु का पुत्र था । प्रथम यह आंगिरसारें का शिष्य था पीछे भृगु वंशियों में सम्मिलित हो गया । इसका वेदव्यास से धर्मतत्व संवाद "व्यास मैत्रेय संवाद" तथा श्रीकृष्ण का उद्धव को प्रदत्त सर्वोपरि ज्ञान संवाद जो इसने विदुर को उपदेश किया भागवत में हैं । मैत्रेय की बौद्धकालीन विशाल प्रतिमा मथुरा संग्रहालय में दर्मनीय हैं ।<br />
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14. मोरेसरिया- मथुरा जनपद में मौर्य सम्राटों का राज्य केन्द्र मौर्यश्री मुडेसी गांव में इनका निवास होने से मौर्यश्रीय ही मौरेसरिया प्रसिद्ध हुए । <br />
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15. मैंठिया- अवष्ठ नरेशों की राजधानी अमैंठी अंवष्ठपुरी के निवासी होने से अमैठिया मेठिया नाम से प्रसिद्ध हुए ।<br />
<br />
16. सिहोरिया- ब्रज के सिंहोरा (नृसिंह वंशी सिंहों का पुर) के वास से प्रसिद्ध । <br />
<br />
17. जुनसुटिया- यदुओं की जनुष्ठी शाखा के परिवर्तित नाम से विख्यात ये ब्रज के अजमीढ यादव वंशी जन्हु 4268 वि0 पू0 के जिनके जानूऔ जनूथर जुनसुटी जुन्हौती जान्हवी गंगा का प्राचीन प्रदेश, जन्हुकूप शान्तनुकुंड हैं उस वंश के प्रोहित जनुष्ठी तथा जुनसुटी में जाकर बसने वाले झुनसुटिया कहलाये । जन्हुऋषि बन गये थे ।<br />
<br />
18. रिसिनियां- अंवरीष टीला(प्राचीन अंवरीषपुर) के माथुर चतुर्वेद पुर( टीला चौवियान) जहां पहिले चौवो के पूर्वज रहते थे तथा जिसके निकट ही माथुरों की आंगिरस यज्ञ स्थली थी उसके निवासी । यह स्थान टीला चौबियान के नाम से अभी भी उल्लिखित हैं जो उस टीले का ही रूप मात्र है ।<br />
<br />
19. जैतिया – ब्रज के अजित शेषनाग के तपोवन जैतगांव में बसे माथुर जैत में प्राचीन नाग मूर्ति सरोवर तट पर हैं जो कितनी गहरी है यह खोदने पर ज्ञात नहीं हो सका है । <br />
मीठे चौवों की इन अल्लों से प्राचीनता के साथ इनका ब्रज के इन गांवों में जाकर बस जाना भी इतिहास पुष्ट है । आश्चर्य तो यह है कि अल्लों पर विचार करने वारले महानुभावों ने इनके मूल तथ्यों पर न पहुंच कर इन्हें मनमानी अंधकार युगीन तथा निरर्थक कह दिया है ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_11&diff=56264चतुर्वेदी इतिहास 112010-04-23T07:36:23Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==भार्गव गोत्र==<br />
भार्गव गोत्रिय माथुर चौवे भृगुवंशी हैं । भृगुसतयुग कालीन 9400 वि0पू0 के ब्रह्रा द्वारा उत्पन्न 10 ब्रह्रा पुत्रों में से हैं । भागवत के अनुसार वरूणदेव की चार्षिणी पत्नी से 9153 वि0पू0 में भृगु बाल्मीकि अगस्त्य की उत्पत्ति हैं । भृगु परम तेजस्वी क्रोधी और आसुरी विद्याओं के आचार्य थे । भृगु को हिरण्यकश्यप की पुत्री पुलोमा से 7 पूत्र उत्पन्न हुए जिनमें च्ववन उशना शुक्राचार्य (हुषैना) बजी(वजीरी) और्व आदि प्रमुख थे । च्यवन के पुत्र आप्नुवाल तथा दधीच थे । दधीच के सरस्वती पत्नी से सारस्वत पत्नी से सारस्वत एवं आप्नुवान के ऋ़चीक इनके इमदग्नि इनके परशुराम आदि पुत्र हुए । शुक्राचार्य के पुत्र शंडामर्का भक्तराज प्रहलाद के विद्यागुरू थे । तथा वरूचि पत्नी ने त्वष्टा वृत्रासुर के पिता उत्पन्न हुए । भक्त प्रहलाद को फाल्गुनी के नर मेघ यज्ञ में होलिका अग्नि पुंज में लेकर ब्रज के फालैन गांव में बैठी जहां होली की महाज्वाला में पंडा अभी प्रवेश करता है जिसे देखने आश्चर्य चकित हजारों दर्शक अभी भी आते हैं । प्रहलाद को साथुर भृगुवंशी तीर्थ पुरोहितों ने विश्वतीर्थाटन के साथ ब्रज और मथुरापुरी की भी तीर्थ यात्रा करायी जिससे वे गजाह्वय तीर्थ(गजापाइसा), वामनतीर्थ (सरस्वती संगम मथुरा), देवदेवेश आदि नारायण तीर्थ(प्राचीन गतश्रम विश्रान्त तीर्थ), त्रिविक्रम का गुह्रा तीर्थ(सतीघाट) यामुनतीर्थ (कंस किले के नीचे) आदि तीर्थों में वे तीर्थयात्री बनकर फिरे तथा मथुरा के यमुनातट के तीर्थों( घाटों) पर स्नान कर दान किये इनमें विश्रान्त का दान प्रमुख था । <br />
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भृगुवंशी अग्नि पूजक असुरपुरोहित थे । उनने अंगिराओं के सदृश ही सर्वप्रथम (मंथन से) अग्नि प्रगट की । वे मातरिश्वा वायुदेव के राष्ट्र वायुरूप (यूरोप) से अभिचार अग्नि भारत में लाये । भार्गव सोमपान के प्रेमी थे । मेधनाम के यज्ञों में बलिकर्म के लिये ये बुलाये जाते थे । ब्रह्राणों की सताने वालों के ये का थे, जो गुण पूर्ण प्रभाव के साथ परशुराम अवतार में प्रगट हुआ । ये स्वायंभूमनु 9000 वि0पू0 के दामाद, शंकर जी के साढू, शिव विरोधी दक्ष के पक्षधर तथा दक्ष यज्ञ के होताओं में थे । इनने शिवगण नंदी को शाप दिया जिसमें शंकर भक्तों की हीनता कही, तथा उसे यज्ञ से भगा दिया तब ही वीरभद्र ने इनकी दाड़ी उखाड़ कर इन्हें अग्नि में डाल दिया । तब दग्ध होकर वीरभद्र की स्तुति की और बकरे समान छोटी आसूरी (मुशलधारियों जैसी) दाढी रखने की इन्हें स्वीकृति मिली ।<br />
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स्वायंभूमनु के यज्ञ में 9000 वि0पू0 में इनने देव श्रेष्ठता की परीक्षा हेतु विष्णु के ह्दय पर पादइ प्रहार किया विष्णु देव को 10 अवतार धारण का शाप दिया तथा प्रभु आदिनारयण (गतश्रम नारायण) विष्णु की विनय से प्रभावित होकर ऋषियों भृगुओं के यजमान ब्रहा ,शिवलिंग मूर्ति को अपूज्य घोषित किया । आदि आसुरी लक्ष्मी 'श्री देवी' (श्री कुंड ब्रज) इनकी ही पूत्री थी जो देक्ष की पूत्री "ख्याति" से उत्पन्न थी । इसी श्री नाम की आसुरी लक्ष्मी से वल उन्माद धाता विधाता पुत्र हुए तथा इसी वंश में मुनिवर मार्कडेय मृत्यु विजयी हुए । भृगु ने ही इन्द्रासन आरूढ नहुष को सर्पयोनि प्राप्त होने का शाप अगस्त की जटा में से (सिर पर बैठकर) दिया । भार्गव वंशी आसुरों को यज्ञ कराते थे । इन यज्ञों में इन्द्रदेव के न जाने पर इनने देवों से बैर बढ़ाया । बली के इन्द्रासन निर्णायक सौवें यज्ञ (चरण पहाड़ी ब्रज में) में ये शुक्राचार्य प्रधान आचार्य (काजीमुल्ला) थे और वामन विष्णु के दान में भाँजी मारने पर आँख फुड़वाई तथा यज्ञ भंग होने पर गौड़ देश (वंगालय) में जाकर बसे । भुगुवंशी त्वष्टार से ही त्रिशिरा व्रत्तासुर विश्वरूप प्रोहित और विश्वकर्मा यमुना जी केवे नाना (मातामह) उत्पन्न हुए । इसी वंश में दधीच ने असुरों को अथर्ववेद विद्या देकर इन्द्र द्वारा अपनी अस्थि (मेफुदंड) गंवाकर इन्द्र का वज्र बनाये जाने का श्रेय प्राप्त किया । दधीच (दाहिमां) का पुत्र सारस्वत भी असुर पौरोहित्य के कारण श्वेतद्वीप (स्विटजरलैड स्बीडेन) स्वात कलात हिमाखय शीर्ष, पंजाब (पंचनद) मे, राजस्थान मरूधन्य ब्रह्रार्षि देश से जाकर बसे । इसी वंश में अधर्मी बेन राजा, परमधार्मिक प्रतापी पृथु महाराज दीर्ध कथा सत्रों के आयोजक शौनक (सौनकपर सीखटीला तथा विहार में सोनभद्र तट वासी) चाणक्य कौटिल्यय हुए हैं । माथुर चतुर्वेदी समूह की आश्वलायन शाखा के प्रवर्तक महर्षि आश्वलायन इस शौनक के ही शिष्य थे जिनके आश्वलायन गृह्रा सूत्र में यज्ञविधान के भेदाभेद, दर्शपौर्ण मास, अग्न्याधान, पुनराधान, आग्रहायण, कामेष्टि , पशुभाग, चातुर्मास, सौत्रमणि, अग्निष्ठोम, सप्तसोम, अश्वमेध, राजसूय, आदि की दुर्लभ कर्मकाँड विद्या का विवेचन हैं, तथा सत्र याग सवन होम होत्र एवं श्राद्ध तर्पण आदि का ब्राह्मण कर्म का सभ्यक् निर्देशन है । तर्पण विधान में ऋगवेद मंडलक्रम से ऋषियों की नामावलि भी इनने दी हैं ।<br />
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भृगु महर्षि के रचित ग्रंथ भृगु संहिता (ज्योतिष), भृगु गीता(तत्वज्ञान), भृगुवल्ली(कर्मकांड) भृगु सिद्धांत, भृगु वास्तु शास्त्र आदि हैं । आंगिरस अथर्वा के अथर्वण वेद का ये आसुर यज्ञों में प्रयोग करते थे परन्तु भृग्वांगिरस के एकीकरण सिद्धांतानुसार ये अपने कुल परम्परा प्रयोगों में माथुरों में स्वीकृति पाने हेतु उनके प्रधानवेद ऋगवेद को ही प्रयोग में लाकर ये स्वयं ऋग्वेदी बन गये थे । भार्गव माथुर पंच प्रवरी हैं । भार्गव च्यवन आप्नुवान और्व जामदान्य इनके पांच प्रवर हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- <br />
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'''1. भार्गव'''- भृगु महर्षि के ज्येष्ठ पद के अधिकारी । इनका वंश अन्य ब्राह्मणों में भी है जो माथुर समूह से दूर जाकर परशुराम के समय भृगुकक्ष भड़ौच आदि में नर्मदा तट जाकर बस गये थे । भरौच शाखा माथुरों में है, तथा भरूची गो0 गोकुलनाथ के पंथ में भी एक शाखा के रूप हैं । मथुरा जनपद में भृगुओं का आश्रम भृगुतंग पर्वत गिरिराज गोवर्धन के एक भाग में भगौंसा भृगुओं भृगुस्थल के नाम से प्रसिद्ध है ।<br />
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'''2. च्यवन'''- यह भृगु पत्नी पुलोमा से 6285 वि0पू0 में पुलोमा को जब गर्भ था उसे पुलोमन (पुलिंद पोलैड वासी) हरण कर ले गया उसके घर च्यवन उत्पन्न हुए और उनने अपने तेज से पुलोमन को भस्म कर दिया, तब पुलोमा फिर लौटकर भृगु के घर आयी । च्यवन महातपस्वी थे, जब से च्यवन वन ( काबुल चमन का बाग) में तपकर रहे थे तब उनके शरीर पर मिट्टी का टभ्ला जम गया केवल दो नेत्रों की ज्वाला के 2 छिद्र उसमें थे । देवयोग से सरैया गुजरात के सम्राट यर्थाति 6307 वि0पू0 की पुत्री सुकन्या वहां वन विचरण करती हुई अपने पिता की सेना शिबिर से चल कर वहाँ पहुंची और विस्मय से मिट्टी के उस टीले में चमकते दो छिद्रों में कुशतृण से बेधन किया जिससे रक्त की धारा निकली और ऋषि अंधे हो गये । भयभीत शर्याति इनसे क्षमा याचना को आया और अपनी कन्या सुकन्या इन्हें दे दी । सूर्य उपासना से इनके नेत्र अश्विनी कुमारों (अस्पिन स्पेनिशों) ने ठीक किये । सुकन्या अपनेबृद्ध पति की जो अधिक उच्च स्वरों में बेदपाठ करने के कारण कास क्षय रोग से ग्रस्त होकर अकाल बृद्ध हो गये थे, उनकी सेवा कर रही थी । उसके रूप को देख अश्विनी कुमार मोहित हुए, तब उन्हें अनेक च्यवनों के रूप सर्वत्र दिखलाकर इस कार्य से विरत और प्रभावित किया । अश्विनी कुमारों ने तब च्यवसप्राश सेवन कराकर च्यवन को पुन: तरूण बना दिया ।<br />
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च्यवन ने इस उपकार के बदले अपने श्वसुर शर्याति से एक विशाल यज्ञ कराया और उसमें अश्विनी कुमारों( इस्पहान से आये) वैद्यों ( दास्त्र दसौरे वैश्य तथा नासत्य सतिये जर्राहों) को यज्ञ भाग देकर यज्ञ में देवों के साथ भागीदार बनाने की तैयारी की । इसे देख इन्द्र ने इन पर बज्र चलाने को उठाया तभी च्यवन ने उसकी वज्र सहित भुजा स्तंभित कर दी । च्यवन ने इन्द्र पराजय को मददैत्य (मैं शराब अतितीनिर्मामा) उत्पन्न किये जिनसे इन्द्रहतप्रभ होकर शरण में आया और अश्विनों को तब यज्ञ भाग दिया गया । च्यवन तब अपने जन्म स्थान मथुरा में च्यवनाश्रम चूनाकंकड पर रहे थे तथा अश्विनों को संज्ञा माता से जन्म लेने का स्थान अश्विकुंड ( असिकुंड तीर्थ) यहीं था, जहां यज्ञ भाग पाकर वे देवकोटि में प्रविष्ट हुए ।<br />
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विश्वामित्र के पितामह कुशिक की कठिन सेवा परिक्षा लेकर उसे उसके कुल में महापराक्रमी क्षत्रिय धर्मा वंशज(परशुराम) के उत्पन्न होने पर वर दिया । च्यवन के धर्मशास्त्र च्यवन स्मृति में गोदान का महात्म तथा श्वान, चांडाल मृतशव प्रेत, चिताधूम, मद्यपान, मद्यपात्र के स्पर्श होने पर प्रायश्चि का विधान है । गोवध के प्रायश्चित कर्म से देह शुद्धि का विधान इनका प्रवर्तित है । इन्होंने भास्कर संहिता में सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त "जीवदान तंत्र" भी रचा है । हे माद्री और माधव ने धर्म निर्णय में इनके उद्धरण लिये हैं ।<br />
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'''3. आप्नुवान'''- ये च्यवन के सुकन्या से उत्पन्न पुत्र थे । इनका समय 6228 वि0पू0 है । दधीच इनहीं के भाई थे जो सारस्वत वंश के आदि जनक थे । इनका दूसरा नाम आत्मवान भी कहा गया है । इनकी नाहुषी से और्व हुए थे । इनका नाम और्म या अर्म भी था जिनसे अरमीनियन, आर्मी, ऊमर वैश्य तथा ऊमरी रामपुर ब्रज, उल्मां आदि से इनका पैतृक संम्बन्ध सूचित होता है । ये परम तेजस्वी प्रजा संवर्धक लोकधर्म विस्तारक ज्ञानी पुरूष थे ।<br />
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'''4. और्व'''- ये आप्नुवान वंशज भार्गव की नाहुषी पत्नी से उत्पन्न पुत्र थे । समय 5817 वि0पू0 है । ये महाउग्रकर्मा थे । ब्रज में माथुरों के विस्तारकाल में इनका आश्रम ओवौ बलराम घाट पर था । उदई जालौन में इनके ज्वालाग्नि प्रयोग का आविष्कार क्षेत्र और्वाग्निपुर उरई और ज्वालादहनपुर जालौन अभी भी अपने बारूदी और आतिशबाजी को कुशलता के लिये विख्यात है । ओरा प्रकाश के दीप्तिमंढ़ल का भी नाम है । लोकमान्य तिलक ने अपने आयों के मूल देश के निधरिण के ग्रंथ को "औरायन" ही नाम दिया है तथा पश्चिम में पूर्व की भारत विद्या को "ओरीयेन्ट" ही कहते हैं, जो और्व माथुर द्वारा स्थापित भारत की गरिमा का विश्वव्यापी मानदंड है । और्वकुल का वर्णन ब्राह्माण ग्रंथों में ऋग्वेद में 8-10-2-4 पर, तैत्तरेय संहिता 7-1-8-1, पंच ब्रह्माण 21-10-6, विष्णुधर्म 1-32 तथा महाभारत अनु0 56 आदि में प्राप्त है । हैहयों 5763 वि0पू0 के ये भार्गव कुल प्रोहित थे तथा कृतवीर्य ने इन्हें यज्ञों में बहुत सा धन दिया । समय पड़ने पर जब हैहयों ने इनसे द्वेष मान इन्हें बहुत त्रास दिया । भार्गवों ने इन्हैं नष्ट कर कुल संहार किया तब ये उत्पन्न और्वा कहलाये । और्व के तेज से सभी हैहय नेत्र हीन हो गये और इस चमत्कार से आर्त होकर उन्होंने बालक और्व की स्तुति की तब उनकी दृष्टि उन्हें प्राप्त हुई । इनने हैहयों का संहार करने की शक्ति प्राप्त करने को तप किया तो इनके पितरों ने इन्हें बताया कि हमारे पूर्व कर्मों से हमारा संहार ईश्वर के न्याय विधान से हुआ है अत: तुम क्रोध धारण कर ब्रह्मतेज का क्षय मत करो, तब इनने अपनी क्रोध अग्नि समुद्र में डाल दी जो बड़वानल(समुद्री मिट्टी का तेल) बन गयी । इनके आश्रम (ओवौ ब्रज) में सगर का जन्म हुआ जिसे इनने अस्त्र शस्त्रों की उच्चकोटि की शिक्षा के साथ भगवान राम का वह अग्न्यास्त्र भी दिया । जिससे उनने समुद्र को सुखाने के लिये धनुष पर चढाया था और समुद्र भयभीत हो शरणागत हुआ था । अयोध्या के राज्यअभिषेक के बाद इनने सगर को विश्व विजय के लिये खास कर हैहय संहार के लिये अश्वमेघ यज्ञ कराया । सगर के साथ पृथ्वी विजय के कारण इनके नाम पर पृथ्वी का नाम उर्वी, हुआ तथा अर्व अरबदेश, अरवली पर्वत, अल्बर, अड़बड़ राजस्थान, अल्वानियां, उर्वशी अप्सरा खंड उजेवकस्तान (और्वक) ओमान, उराव जनजाति, आदि ख्याति में आये । और्व को महातेजस्वी विष्णु का अवतार तथा प्रलयकर्ता विष्णु की मुखज्बाला, शंकर का तृतीय नेत्र में इसका सदा निवास कहा गया है । और्व की पुत्री धौम्य के पुत्र मंदार को व्याही गयी जो भुशुंडी शिवगण का उपहास करने पर पति पत्नी मंदार और शमी वृक्ष बने तथा और्व द्वारा मंदार मूल (आक की जड़) से गणेश मूर्ति बना कर उसकीं पूजा से पुन: अपने रूप में आये ।<br />
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'''5. जामदग्न्य'''-ये जमदग्नि के पुत्र परशुराम हैं । इनका जन्म समय 5142 वि0पू0 वैशाख शुक्ल 3 है । भृगुवंशी होने के कारण अपने वंशनुगत गुण क्रोधमूर्ति व्यक्तित्व के ये साक्षात रूप थे । और्बाग्नि तथा पिता यमदाहक अग्नि यमदग्नि के पुत्र होने से ये भी हैहयादिं क्षत्रियों के लिये कालाग्नि ही थे । इनने 21 आक्रमणों में ब्रह्मणद्वेषी हैहयों और तालजंघ आदि उनके गण समूहों को भारत से लेकर एशिया तक ध्वस्त किया । एशिया में पर्शयन पर्शुधारी गणों का, मुशलघारी मुसलिमों का, शूलधारी सुलतानों सुलेमानों का, वज्रधारी वजीरियों का, पाशधर पाशाओं का, तालजंघ टार्जनों का तथा भारत में पंच तालजंघ वीतिहोत्र (वितिया बिहार)शर्यात आनर्त (सरैया आणद डाकौर के डांकी डाकिन), भोज (भोजपुरी भाषा क्षेत्र के भेजक तथा भुज्ज कच्छ के कच्छी लुहाणा), अवंती के (उज्जैन मालवा के परमार, गुहिल, गर्दभिल्ल, रतलाम, आदि) तुंडिकेर (केरल, कर्नाटक, महिषासुर मैसूर, माहिष्मंती नर्मदा तट के, कोलपुर कोलापुर, आदि) देव द्विषों को दंडित किया । इन सबका पराभव करने के लिये परशुराम ने अपने 5 भाइयों तथा समस्त भृगुवंशी जनों को साथ लेकर नर्मदा के समुद्र समीप के प्रदेश में ब्रज से जाकर भृगुकच्छ भरौंच नगर की स्थापना की तथा वहां के आसपास के क्षत्रियों को यजमान बनाकर उनके सहयोग से विशाल भार्गवी परशुधारी सेना का संगठन कर सभी कार्तवीर्य अर्जुन पक्षियों का क्रूरदमन किया । भार्गव ब्राह्मण अभी गुजरात सौराष्ट्र क्षेत्र में अधिक संख्या में बसे हैं । परशुराम शूलपाणि रूद्र के उपासक थे जिनसे इन्हें धनुर्वेद, अनेक अस्त्र शस्त्रों की विद्या मंत्रायुध विद्यायें प्राप्त थीं । इनने पितृभक्त का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करने को पिता की आज्ञा से अपनी की आज्ञा से अपनी ही माता रेणुका का वध किया जिसे फिर जीवित कर दिया गया । जमदानि का आश्रम ब्रज में जगदग्नि क्षेत्र दघेंटा गांव है तथा परशुराम का मूल स्थान परसौं, सहस्त्रावाहु का पुर सीह, रेणुका क्षेत्र रूनकी, कार्तवीर्य अर्जुन की पुरी झुनकी रूनकी आस पास ही हैं ।<br />
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परशुराम को 41 दिव्यास्त्र शिव से तथा अगस्त्य जी से प्राप्त थे जिनकी नामावलि है-<br />
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1.ब्रह्माशस्त्र<br /><br />
2.वैष्णवास्त्र<br /><br />
3.रौद्रास्त्र<br /><br />
4. आग्नेयाग्त्र<br /><br />
5. वायव्यास्त्र<br /><br />
6. नेऋत<br /><br />
7. याम्य<br /><br />
8. कौवेर<br /><br />
9. वारूण<br /><br />
10. वासव<br /><br />
11. सौम्य<br /><br />
12. सौर<br /><br />
13. पार्वत<br /><br />
14. चक्र<br /><br />
15. वज्र<br /><br />
16. पाश<br /><br />
17. सर्प<br /><br />
18. गांधर्व<br /><br />
19. स्वापन<br /><br />
20. रोधन<br /><br />
21. पाशुपत<br /><br />
22. इषीक<br /><br />
23. तर्जन<br /><br />
24.प्राश<br /><br />
25. गारूड़<br /><br />
26. नर्तन<br /><br />
27. रोधन<br /><br />
28. आदित्य<br /><br />
29. रैवत<br /><br />
30. मानव<br /><br />
31. अक्षि संतर्जन<br /><br />
32. भीम<br /><br />
33. ज्त्रंभण<br /><br />
34. पर्शुघात<br /><br />
35. सौपर्ण<br /><br />
36. पर्जन्य<br /><br />
37. राक्षस<br /><br />
38. मोहन<br /><br />
39. कालास्त्र<br /><br />
40. दानव<br /><br />
41. ब्रह्मशिरा ।<br />
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और्व पुत्र ऋचीक को ह्दयों से अपार धन दान में मिला था जिसे उनने अपने पर चिकसौली वरसाना तथा चिकसौनी ब्रज में जमीन में गाढ़ दिया और ह्दयों के माँगने पर साफ निषेध कर दिया तथा दण्डित होने पर वे महोदय पुर कान्यकुब्ज देश में जा बसे । वहाँ उनने वहाँ के राजा जगाधि की पुत्री सत्यवती से विवाह कर ह्दयों से बदला लेने की योजना बनायी । फिर अपने पुत्र जमदग्नि का विवाह अयोध्या नरेश रेणुक की कन्या रेणुका से किया । लक्ष्य के अनुसार दोनों राज्यों की सहायता से ह्दयों बदला लेने की तैयारी करने लगे ।<br />
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ह्दयों को यह मालुम हुआ तो सहस्त्राबाहु इन्हें दबाने कोज मदग्नि के आश्रम(दघैंटा) में आया और उनकी दुर्लभ नस्ल की अनमोल गौ कामधेनु को युद्ध का कारण बनाने के लिए बलपूर्वक अपहरण करने लगा । इस समय भी वशिष्ठ की गौकी तरह परशुराम जमदानि के शिष्यों गुरूभक्त यवनों (यूनानी पारसी यहूदी पठानों अरबों ) ने सहस्त्राबाहु की सेना से डटकर प्रतिरोध किया और उसे भगा दिया किन्तु भागते हुए भी वह आश्रम को जलाकर (घर फोड़ नीति) से जमदानि का सिर काटकर कामधेनु को भगदड़ में भगाकर ले गया । परशुराम जब तपस्या करके लौटकर आये तो यह सब देख आग बबूला हो गये और सहस्त्रबाहु ह्दय वंशियों और ह्दय पक्षधर राजाओं को निर्मूल करने की कठोर प्रतिज्ञा की । उनने मथुरा में सरसवती तट पर सप्तसारस्वत (सरस्वती कुण्ड) पर तप करके भूतेश्वरशिव तथा महर्षि अगस्त्य से अजेय दिव्य 41 आयुध दिव्य रथ अमन्त्रित शंख प्राप्त किये । इस जबरदस्त तैयारी के बाद परशुराम ने भरौंच से भार्गव सैन्य लेकर ह्दयों के नगर नर्मदातट की मर्हिष्मती नगरी को घेर लिया उसे जीतकर जलाकर ध्वस्त कर वे ह्दयों के पूर्व कथित अनेक देशों के मित्र प्रजाओं पर आक्रमण कर उन्हें विनष्ट करने लगे । अपने 21 अभियानों में इनने क्षत्रियों के ह्दय पक्षी 64 राजवंशों का विध्धंश किया, इनमें 14 राजवंश तो पूर्ण अवैदिक नास्तिक और ब्रह्मद्वेषी थे ।<br />
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परशुराम का अधर्मनृपसंहार आदर्शवादी और लोकतंत्र विशोधक था । क्रूर दुष्ट दमन के हेतु से दण्ड नीति का व्यापक लोकभ्य स्थापित करने के लिए उनने क्रूर प्रयोग किए और धर्म से विचलित न होने की अविचल निष्ठा की स्थापना की । पुराणों के अनुसार उनने मूसलों के कूटकर, तलवारों से काटकर, वृक्षों पर लटकाकर फाँसी देकर, तल में डुबाकर, हाथ पैर दाँत नाक कान काटकर मिर्चों की धूनी में तड़पाकर, रस्सियों से बाँधकर, ऊँचे से गिराकर, धर्म शत्रुओं का संहार किया । प्राप्त सूची से ज्ञान होता है कि उस समय आसुरी प्रभाव से प्रजाओं में अधर्म का आचरण बहुत ज्यादा बढ़ गया था । गुणावती (गुलावटी बुलंदशहर) के उत्तर में, खांडव प्रस्थ (खानवा का मैदान कुरूक्षेत्र) के दक्षिण में वर्तमान दिल्ली श्री तथा, पांचाल रूहेल खण्ड रामपुरा तराई-मैनसार, पीलीभीत वरेली, हलद्वानी काठगोदाम मेरठ मुजफ्फर नगर की पहाड़ियों में इनका घनघोर युद्ध हुआ तथा 10 हजार रूहेले मेवाड़ी मयवंशी नागवंशी बावरी और गंधारी सरदार सेनाओं सहित मारे गये । इस धर्म विजय में काश्मीर, दरद (दर्दिस्तान), कंतित मिर्जापुर) क्षुद्रक (कुर्दिस्तान), मालव (मालवा), अंग (बिहार) बंग (बंगाल) कलिंग (उड़ीसा कालिपौंग) विदेह (मिथला) ताम्रलिप्त (तामलुक उड़ीसा) रक्षोवाह (खासिया पहाड़ी रक्सौज), वीतहोत्र (लिर्हुत), त्रिगर्त (असम), मार्तकावत (टिकारी), शिवि (सौदीर सिंध) आदि के बड़ी संख्या में राजाओं को निग्रहकर विध्वस्त कर दिया । इस महासमर में गणनानुसार परशुराम की सेनाओं ने 12 हजार मूर्धाभिषिक्त राजाओं के सिरच्छेद किये । इसके बाद फिर बचे छोटे लुके छिपे नरेशों नरपतियों को पकड़वाकर वे कुरूक्षेत्र ले गये । वहाँ 5 बड़े कुन्ड खुदवाकर उन्हें इन राजाओं के रूधिर से भरा तथा उनमें विजय स्नान किया जो परशुराम ह्द और स्यमंत पंचक कहलाये तथा नर मुंडों के पर्वत बनाक उन पर विजय ध्वजायें फहराई । इसके बाद परशुराम ने गया के चन्द्रपाद तीर्थ में पितरों पिंड के किए तब पिंतरों ने प्रकट हो उसे नर संहार का दोषी कहा और प्रायश्चित की आज्ञा दी । प्रायश्चित को तब परशुराम सिद्ध बन (सिधौली) गये, वहाँ सारे दिव्यायुध परशुअस्त्रशस्त्र भंडार रथ ध्वजा आदि को सरोवर में विसर्जित कर विशुद्ध सात्विक ब्रह्मा धर्म शिरोधार्य किया । फिर तीन बार समस्त भूण्डल का पृथ्वी प्रदक्षियायें की और महेन्द्र पर्वत मेंहदीपुर बालाजी) पर निवास कर नारायण मंत्र का जाप करते रहे । इस काल में उनने सारी जीती हुई पृथ्वी कश्यप वंशी धौम्य आदि तपस्वी माथुर बन्धुओं को दान कर दी । इस दान आयोजन को उन्होंने एक महाविशाल अश्वमेघ यज्ञ कररके सम्पत्र किया । भूमि दान करके वे दान की धरती जाकर तप करने लगे । यह आश्चर्य की बात है माथुर मुनीशोने अपने ऐसे महान अवतारी पराक्रमी विश्व विजयी पूर्वज को उपेक्षित करके अपने कुल गौरव की महान अवमानना की है । अभी भी समय है । इस त्रुटि को सुधारकर प्रभु परशुधर को अपना पूर्वज निर्धारित करना चाहिए ।<br />
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==भार्गवों की अल्लैं==<br />
भार्गव व माथुरों के आस्पद या अल्लैं 16 इस प्रकार है- <br />
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====1. सकना- ====<br />
ये शाक द्वीप से आये शक कुषाणों के जिनमें कनिष्क महाप्रतापी सम्राट राजा हुआ हैं कुल प्रोहित थे, उन्हें यज्ञयागादिक कराते थे । कुषाणों के सिक्कों पर उन्हें यज्ञकुण्ड में आहुति देते हुए दिखाया गया है । हूणों की तरह शक भी मूलत: भारतवासी शिव के कूष्मांड गण थे । उनका यज्ञ विधान में अपने स्थापन और यज्ञ उपकरणों का मन्त्रों द्वारा संस्थापन कर्म कुशांडी कहा जाता है । माढूगढ मांढा विजैपुर, माढ़लिया, मंडोवरा तथा कच्छ मांडवी इनके पूर्व और परवर्ती जनस्थान थे । कुषाणों का समय विक्रम संवत 57 से 257 विक्रम संवत तक है । ये प्राचीन रूद्र प्रजा विस्तार के कार्य में बाल्हीक (बलख याज्ञावल्वयपुर) से भारत में आये थे । कुजुल (कुशल) कैडफीसिस (स्कंधप्रिय) के बाद इनका विमतक्षम (भीम तक्षक) नाम का सर्दार चक्रवर्ती सम्राट था । 97 वि0 के इसके सोने के सिक्कों पर खरोष्टी में इसे महाराजस् राजाधिराजस् सर्वलोक ईश्वरस, माहेश्वरस् अंकित किया गया है । तथा शिव मूर्ति अंकित होने तथा महोश्वरम् पदवी से माहेश्वर रूद्र संप्रदाय का अनुयायी होना निश्चित होता है । माहेश्वरपुरी महेसर नर्मदा के तट पर ओंकारजी तीर्थ के समीप है । महेश्वरी वैश्य जाति भी अपने को महेश्वर शिव की सन्तान मानते हैं । ये अपने पूर्वजों को देव या पितादेव (पित्रीश्वर) कहते थे और उनकी पाषाण मूर्तियाँ बनवाकर देव कुल नाम के मन्दिरों में उनकी पूजा करते थे । ऐसे दो देवकुल मथुरा गोकर्ण शिव क्षेत्र में तथा ब्रज के मांट गाँव में इनने बनाये थे जिनकी मूर्तियाँ मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में है एवं मथुरा गौकर्ण टीले के गौकर्ण शिव की विशाल मूर्ति भी किसी कुषाण राजा की हीं मानी जाती है । हमारी राय में यह राजा की मूर्ति न होकर कुषाणों के इष्टदेव माहेश्वर रूद्र की मूर्ति है जो कुषाण शैली में उनके परमपूज्य देवता के रूप में स्थापित हुई थी । मथुरा के इटोकरी टीले से भी विम की विशालकाय सिंहासनारूढ मूर्ति मिली है । इसके उत्तरी साम्राज्य की राजधानी तुशारदेव तुखार बरवंशी थे तथा दक्षिणी साम्राज्य की राजधानी मथुरा में थी । इसके समय भारत से बहुमूल्य रत्नों, मसाले, मजीठ आदि के रंग, भारतीय वस्त्रों का व्यापार रोम देश तक होता था तथा वहाँ से स्वर्ण के रोमन सिक्के जो मथुरा के आस पास बड़े ढ़ेरों में मिले आते थे । तुषार खन्ड को इन्द्र ने असुरों से विजय किया था ऐसा भारतीय ग्रन्य बतलाते हैं ।<br />
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'''कुषाण कनिष्क सम्राट''' - 135-158 वि0 विम के बाद यह मथुरा का महाप्रतापी सम्राट था । इसने अश्वमेघ यज्ञ करके अपना संवत चलाया जो शलिवाहन शक के नाम से अभी भारत का राष्ट्रीय संवत है । संभवत: शालिवाहन इसी की उपाधि थी । पेशावर ( पिशाचपुर) तथा मथुरा इसकी राजधानी थी । इसका राज्यविस्तार शैलदेश (काशगर) कोकदेश (याश्कन्द) उत्तर कुरू स्थान (खोलन), विश्वकर्म कल्मद (थ्यानशान पर्वत), यरूक भृगु स्थल (तुर्फान) कूर्चखंड कारूषदेश (कूचार) तया अग्निदेश (करासर कलात) तक था । माथुरों और मथुरा वासियों का व्यापार भू मार्ग से रोम और इन सब देशों तक था जिसके बदले में अपार स्वर्ण मुद्रा राशि मथुरा में जमा हो गयी थी और यही सोने की मथुरा के रूप में प्रसिद्धि पाकर गजनवी आदि लुटेरों का विनाश लक्षबनी कनिष्क पर यद्यपि बौद्ध प्रभाव था । परन्तु उस काल में मथुरा में मथुरा शिल्प के विकास में बुद्ध की उत्कृष्ट मूर्तियाँ धर्म की मर्ति पूजा पद्धति में बनने और पुजने लगीं । वैदिक पौराणिक श्रौत स्मातं भारतीय धर्म के बड़े बड़े मंदिर तथा देव प्रतिमायें सुवर्णरजत औ पाषाण की बनाई गयीं जिनमें से चतुर्भुज विष्णु नारायण, शिवा दुर्गा, सूर्य, कार्ति केय आदि की पुरातन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । कुषाण् सकना माथुरों की शिष्यता में इन सब की पूजा करते थे । तथा राज्य से भूमि सम्पत्तियों तथा बहुमूल्य रत्न सुवर्ण आदि भेंट में बड़ी मात्रा में इन्हैं मिले थे ।<br />
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ब्रज इतिहास के लेखक श्री कृष्णदत्त वाजपेयी ने लिखा है- " इस समय राजनैतिक केन्द्र के साथ मथुरा धर्म कला साहित्य व्यापारिक भी महानतम केन्द्र बन गई थी । मथुरा के अधिपति माथुर दे उस समय सभी देव स्थानों में उनकी स्वर्ण राशियों सम्पत्तियों और भवनों के स्वामी थे । तथा अपार वैभवों से युक्त बौद्ध जैन स्तूपों विहारों संधारामों मठों देव कुलों बुद्ध जैन प्रतिमाओं के पूजा स्थानों भिक्षुओं यतियों के संरक्षक निर्देशक थे । माथुर महादेव के द्वारा महायान के सभी पूजा स्थानों पर इनका बर्चस्व था । और बुद्ध महायान धर्म को समस्त एशिया में फैलाने के प्रयासों में माथुरों का प्रधान योगदान था । कनिष्क की राजसभा के सभासद विद्वान पार्श्य चरक नागार्जुन संघरण आदि मथुरा आते रहे और माथुरों की पूजा अर्चना करते रहे । मथुरा दर्शन के लिये इस समय एक बहुत बड़ राजमार्ग (सड़क) पाटिलपुत्र (पटना) से सारनाथ् कौशांवी श्रावस्ती मथुरा और फिर यहाँ से पेशावर खोतान काशगर और चीन तक बनाया गया जिससे तीर्थयात्री और व्यापारी आते जाते थे ।<br />
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कनिष्क का मथुरा में शासन केन्द्र मंडी रामदास और धैरागपुरा के बीच के ऊँचे टीले पर था जहाँ मथुरा वासियों के स्वभाव के कारण उनके नाम कंस गली ककंस कौ बाग कंस कौ किलौ कंसलगोत्र नसवारे आदि बन गये । कनिष्क के उत्तराधिकारी वासिष्क वशिष्ठ समय 159 वि0 में मथुरा के भारद्वाज गोत्री समावेदी माथुर रूद्रल पुत्र द्रोणल से द्वादश रात्र सत्र मथुरा के समीप यमुना पार के ईशान रूद्रपुर (ईसावास्योपनिषद के रचना स्थापर) किया जो कुषाणों की शिव भक्ति का वैदिक संयोग ही था और अग्नि देव (माथुर कुलअग्नि उत्पादक देव0) की प्रीति से कुषाण राज्य की कल्याण कामना हेतु किया गया था ।<br />
इसके उत्तराधिकारी हुविष्क (हविष्ठ) ने भी माथुर ब्राह्माणों के भोजनार्थ अक्षयकोष राजवृत्ति का निर्धारण किया था । कुषांण वासुदेव 195 वि0 ने मथुरा के वर्तमान छामनी (केन्टुमेंट) क्षेत्र में जिलाधीश की वर्तमान कोठी के समीप प्राचनी वसुदेव तीर्थ पर वासुदेव कूप तथा चतुशाल तोरण युक्त देव मंडप (खुलामंदिर) का निर्माण कराया जो माथुरों द्वारा बगीची (देव उपवन) के रूप में मथुरा परिक्रमा के अन्तर्गत एक प्रमुख तीर्थ था और उसका उल्लेख प्राचीन वाराहपुराण के अन्तर्गत "मथुरा महात्म्य" में हुआ हैं । माथुरों के इस तीर्थ का जो आदि नारायण वासुदेव संकर्षण का स्थान था उसके कूप के एक अभिलिखित शिलापट्ट को केशव स्थान से जोड़ कर कृष्ण जन्म भूमि का लेख कह कर शिष्टोत्पादित भ्रान्ति का आधार बनाया गया है । सकना माथुरी अल्ल का परिज्ञान इस प्रकार महान गरिमामय रूप में इतिहास में उपलब्ध है ।<br />
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शकदेश शाकद्वीप को मनुपुत्र प्रियब्रत ने 8893 वि0 पू0 में पृथ्वी को सात द्वीपों में विभाजित कर अपने पुत्र मेधातिथि को दिया था । शाकद्वीप बहुत विस्तृत समस्त एशिया को घेरे है । सकना इस क्षेत्र की समस्त प्रजाओं के पुरोहित थे । <br />
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====2 गुगौलिया – ====<br />
ये भगवान श्री कृष्ण के साथ द्वारिका चले गये । वहाँ अभी भी इनका वंश मोजूद है । गोपाल सहस्त्रनाम में श्री कृष्ण को "गुग्गुली मार की शाखी बट: पिप्पलक: कृति:" कहा गया है । अर्थात् वे गूगल मरूआ साखृ वड और पीपल के बन लगाने वाले थे । गूगल राजस्थान की वनस्पति है गूगल के फल गूगली धूंधली कहे जाते हैं गोगा भगत, ओढने की धूधी घूंघटा राजस्थान की घघ्घर तट की संस्कृति है । ब्रज में गोव से गूगली गोलाकार पिंड जैसी बनाकर उनके बीच में छिद्र बना कर होली में मालायें बना कर होम की जाती है जिससे आसुरी फाल्गुनी यज्ञ में गूगल के फलों की हवि देना तथा उस समय भी प्रजा का गूगल के फलों की माला धारण करने की श्रग्डा र परिपाटी ज्ञात होती है । ये गूगली अनाज को कीड़ों से बचा कर उसकी सुरक्षा के लिये अन्न के कोठों में रक्खी जाती है । गूगल के प्रयोग आयुर्वेद में योगराज गूगल आदि के रूप में अनेक रूपों में हैं । इससे ज्ञात होता है कि गूगली माथुर ब्राह्माण भृगु आसुरी पुरोहितों के रूप में अभिचार कर्मों में नरबलि के साथ गूगली फलों का होम नर मांस जलने की दुर्गध से वायुमंडल को अदूषित रखने के लिये किया करते थे, तथा वे गूगल फलों की माला धारण करने के कारण गूगली कहे जो लगे । माथुरों में पुंसवन कर्म में गूलरिया की माला गांभणी को पहनाई जाती है । मालाधारी माथुरों की शाखा भी है । गूलर पीपल बट आम्र निंव पंच पल्लव पवित्र वृक्ष हैं जो देवों पितरों की प्रसन्नता के लिये लगाये जाते है । <br />
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====3. तरं- ====<br />
नक्षत्र विद्या के ज्ञाता अथर्वणगण रात्रियों में जिन कृतुयज्ञों का आयोजन करते थे वे " नक्त" कहे जाते थे । जो अब जागरण के यप में दुर्गा उपासना में हैं । असुरों के शवरात(शिवरात्रि) मुहर्रम, रोजे, आदि रात्रि के ही समारोह हैं । मथुरा में नक्तीटेकरा नाम की एक प्राचीन बस्ती है जो कभी रात्रि देवों का आवास रहा होगा और भृगुवंशी वहाँ अपने यजमानों को नक्त याग कराकर हूर गिलमा जित्र फरिश्तों को प्रसत्र करने के प्रयासों के कारण नख्तर नक्षत्र विद् कहलाये होंगे ।<br />
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====4. धिरैरी- ====<br />
मथुरा के समीप धौरैरा भक्त ध्रुव की राजधानी का स्थान है तथा यहीं अटल्ला चौकी अटलबन उनके विहार का उपवन है । इस ध्रुवपुरी के वासी ही धिरैरी या धुरैरीया माथुर है । धौलेडा पर्वत नन्द गाँव के समीप तथा धौर्रा पत्थर की श्वेत पाषाण की खानैं आगरा भरतपुर के मध्य के पर्वतों में हैं ।<br />
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====5. सोतिया –====<br />
वैदिक श्रुतियों का सरस्वर पाठ और गान करने वाले वेदजश्रौतधर्मा ब्राह्मण श्रोतिय सोतिया या सोती कहे गये हैं । हमारा सनातन भारतीय धर्म श्रुति स्मृति पुराण प्रतिपादक हैं । उसमें श्रौतसंम्प्रदाय सोती, स्मृतिधर्मा स्मातं और पुराण धर्मा पौराणिक व्यास संज्ञाओं से प्रतिष्ठित हैं ।<br />
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====6. गहवारिया- ====<br />
ये वर्तमान में घरवारी भी कहे जाते हैं । वैदिक अग्निवंश का एक कुल गार्हपत्य अग्नि है । यज्ञ मण्डपों की पाकशाला में पत्ति शाला की ऋषि पत्नियाँ जो पाक विधान से चरू और पुरोडाशों का निर्माण करती थीं उनको कुशलता का निदेशन और प्रशिक्षण देने वाला अग्नि देवता गृहपति कहा जाता था । बरसाने का गहवर बन गहरवार क्षत्रिय गहलोत कायस्थ, घेबरपाक, इस देव की प्रजा परम्परायें है । <br />
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====7. मकना- ====<br />
मकनपुर ब्रज के निवासी मकना नाम धारी हैं । मकना हाथी मकना भैंसा ब्रज में नाटे आकर वाले जीव को कहा जाता है । मक्खन या लौनी नवनीत का संग्रह कर उससे आज्य घृत तैयार कर यज्ञ कर्मों हेतु उसकी आपूर्ति करने वाले मखनियाँ मकनियाँ का मखन मकनाँ वहे जाते थे ।<br />
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====8. कन्हैरे- ====<br />
कित्ररगान कान्हड़ा कन्हरी गायक कित्रर कित्रौर प्रदेश के पुरोहित कन्हैरे माथुर हैं । विश्व व्याप्त कित्रर संस्कृति के स्थान कन्हैरी की गुफा ये बंवर्ह में, कन्हैर गाँव महाराष्ट्र में, कत्रड़ प्रदेश कत्रड़ी भाषा दक्षिण भारत में,कनाड़ा कैनेडी, कानौड़ राजस्थान में हैं जो कित्रर गणों के लोकप्रिय कलादक्ष और महाविस्तार के सूचक हैं । माथुरों में मंगल कार्यों में 'कन्हरी' नाम के प्राचीन गीतों के साथ शुभ कार्यों का आरम्भ होता है तथा गान कुशल सुरीले कन्ठ युक्त होने से श्री कृष्ण को कान्हा कन्हैया कानूड़ा कहा गया है । वे इसी कान्हणार के गायक व्यूह के सरस संगीत निर्देशक लोकमान्य गायक थे ।<br />
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====9. दीक्षित- ====<br />
देव यज्ञों में मंत्रदीक्षा से युक्त गुरू परम्परा प्रतिपादित श्रेष्ठ ब्राह्मण ही विशेष समादर पाते थे । भगवान नील बाराहने सर्व प्रथम अपने यज्ञ में "नाना दीक्षायुत" अनेक देव मन्त्रों की उपासना दीक्षा प्रदान कर उन्हें दीक्षित पद दिया था ।<br />
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====10. सांडिल्य-====<br />
ये सांडिल्य भक्ति सूत्र ग्रंथ के कर्ता महर्षिशांडिल्य के वंशधर हैं । ये नन्द परिवार के गोपवंश के पूज्य पुरोहित होने से श्रीकृष्ण बलराम नन्द यशोदा वृषभान राधा सुदामा श्री दामा तोष आदि कृष्ण सखाओं ललिता विशाखा गोपियों के वंश के पुरोहित रहे थे । ब्रज के गोप गोपी गोपाल परिवारों की कुशल कल्याण कामना के लिए विष्णु की नारायणी भक्ति के ये मन्त्रदाता आचार्य थे । ब्रज में सांडरा शिखर पर्वत पर इनका निवास था । अग्नि देव का अपना गोत्र सांडिल्य गौत्र है जो इनके देव पूजित और पुरातन कालीन होने का निर्धारण है । सांड़िया नाम के बड़े बैलों पर तथा वलिष्ट ऊँटों पर सबारी करके घूमने वाले ये मरूधन्व देश के पुरोहित भी थे । जोधपुर नगर में सांडा की पौर नाम से एक मुहल्ला है । सांडू महाराष्ट्र में हैं । सैंडों पहलवान संदल चन्दन, शंढनपुंसकों के नाम भी हैं । शांडिल्य आत्मा परमात्मा तत्व दर्शन के महान द्दष्टा थे । शांडिल्य भारद्वाज ऋषि के मुख थे । शांडिल्य ने बैलगाड़ी शकटी के दान को तथा सुवर्णदान को श्रेष्ठ दान कहा है । इनके रचे ग्रन्थ शांडिल्य गृह्म सूत्र, शांडिल्य धर्म सूत्र, शांडिल्य दीपिका शांडिल्य गृह्म सूत्र हैं । शांडिल्य वैदिक यज्ञों में 'अग्नि चयन विद्या के आचार्य थे यज्ञ के आरम्भ में अग्नि उत्पादन और उसका स्थापन करते थे । ये कौशिक विश्वामित्र तथा गौतम के शिष्य होने से प्राचीन ऋषि थे किन्तु माथुर इनके संपर्क में श्री कृष्णकाल 3000 वि0 में आये और शांडिल्य के वंशजों के रूप में नन्दादि गोपों के पुरोहित रहे और भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार किया । सांडरा पर्वत शिखर का वन वरसाने की पर्वत माला में हैं । विद्वज्जन देखें कि इस प्रकार के शोध विमर्ष से माथुरों की अल्ल(आस्पद) कितनी महत्वपूर्ण और पुरातन हैं ।<br />
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====11. मरौठिया(मंढौरिया)- ====<br />
आदति पुत्र इन्द्र के भाई 49 मरूत्तों के राष्ट्र मरूधन्व(मारवाड़) में उनकी राजधानी मारौठ वासी मरूत प्रजा राठौर राठी दक्षिण के मराठ वाड़ा के मारूती मरैठों के प्रोहित होने से ये मारूतीय मरौठिया कहलाये । रामभक्त हनुमान मरूत वायु पुत्र थे । मारौठिया रूइटिया माहेश्वरी वैश्वयों में भी हैं । मथुरा में मारूगली मारूओं का महल, नृसिंह लीला का मारू बाजा और राग मारू माथुरों से ही सम्बिन्धित हैं । मरूद्गण दक्ष यज्ञ के समय 9358 वि0पू0 में यज्ञ रक्षा हेतु आये थे । मंडोर का किला प्रसिद्ध है मंढौरिया मंडोरिया संभव है भंडोर के किसी राजा से सम्मानित होकर वहाँ भी रहे हैं । मीठे वर्ग में कुछ इनसे पृथक अल्लैं है जो स्थान वाचक बहुत परवर्ती काल की मथुरा से जाने के बाद की हैं ये हैं –<br />
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1. गुदौआ- लीला गुदना गोदने वाले लिलहारों के गांव गढूमरा ब्रज में निवास ।<br /><br />
2. कोटा- कोटा छिरौरा ब्रज के निवासी ।<br /><br />
3. रीढा- नन्द गाँव के समीप अरिष्टपुर रीठौरा अथवा रीढ़ा दाऊजी स्थानों के निवासी ।<br /><br />
4. गुड़वा- गरूड़ा ह्रय क्षेत्र गिड़ोह के निवासी ।<br /><br />
5. च्यौल्या(चावला)-चंबल नदी तट के चेंवरी सुरभी सुरैगायों के पालक सुरभी गौर इन्द्र के गोष्ठ में थीं तथा श्री कृष्ण को सुरभी कौ पय पान अति प्रिय था, सुरभी की पूँछ से देवों के चँवर बनाये जाते थे । इस चर्मणवती क्षेत्र पर प्राचीन काल में 4523 विपू में पुरूवंशी महादानी महाराज रंतिदेव का राज्य था, जो मथुरा में आश्रम तथा नगर (रती कौ नगरा) बसाकर विष्णु भक्ति में तल्लीन रहते थे । चँवर विक्रेता चावला पंजाब में भी एक जाति हैं ।<br /><br />
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==भारद्वाज गोत्र==<br />
भारद्वाज सामवेदी हैं । इनका समय 4814 वि0 है । भारद्वाज वेदमंत्र कर्त्ता ऋषि हैं । ऋग्वेद का छटा मंडल इनके तथा इनके वंशज ऋषियों के मन्त्रों से युक्त है । भारद्वाज ब्राह्मण से क्षत्रिय तथा ऋषि बने । कुत्स परिवारी आंगिरस बृहस्पति देवों के गुरू ने अपने बड़े भाई उतथ्य की पत्नि ममता में इन्हें उत्पन्न किया तब यह विवाद उठा इनका पालन कौन करे तथा ये किस के वंश में रहैं तब यह निश्चय हुआ कि बालक बृहस्पति के कुल में रहेगा तथा इसका पालन दोनों भाई मिलकर करैंगे तथा इसका नाम भी भारद्वाज (भरित द्वाज दोनों द्वारा भरण पोषण् प्राप्त) रहेंगा । साझेदारी की सम्पत्ति होने के बालक के पालन में झमेला देख वैशाली के चक्रवर्ती नरेश मरूत चक्रवर्ती ने इसे अपने संरक्षण् में रक्खा । इसी समय पाँचाल सम्राट दुष्यंत शकुन्तला(4950 वि0पू0) के पुत्र भरतखंड सम्राट महाराज भरत(4882 वि0) के द्दढ निश्चय स्वरूप उनके सभी पुत्र उनकी रानियों द्वारा मार डाले गये थे । राजा ने यह निश्चय किया था कि जो पुत्र मेरे और मेरे पितादि पूर्वजों के गुणों से सम्पन्न महाप्रतापी नहीं होगा उसे मैं अपने घर में नहीं रक्खूँगा । राजा भरत इस प्रकार पुत्र शून्य था । यह देख सम्राट मरूत चक्रवर्ती ने बृहस्पति के देवकुल आचार्य से उत्पन्न विवाद ग्रस्त बालक भरद्वाज को सर्व विद्या और तेजस्विता सम्पन्न होनहार यशस्वी बालक था अग्डीकार करने का परामर्श देकर बालक भारद्वाज को उन्हैं दे दिया और तब भरद्वाज पुरूवंशी सम्राट बने । भारद्वाज ने भरतवंश की प्रतिष्ठा खूब अच्छी तरह बढ़ायी । पूर्व ऋषम पुत्र भरत के भरतवर्ष में इनने अपना क्षेत्र भरतखंड नाम युक्त किया और उसे बल विद्या ऐश्वर्य यज्ञादि से तथा शास्त्र समृद्धि से सम्पन्न और विश्व विख्यात बनाया ।<br />
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भरद्वाज राम भक्त थे । वे महर्षि बाल्मीकि के शिष्य थे । ये प्रयाग के निकट अपने श्वसुर गृह के समीप ही एक आश्रम बनाकर रामोपासना करते थे । इनकी पत्नि पैठीनसी प्रयाग के पीहन नगर के पिहानी वंश की पुत्री थीं । इस पीहनपुर को पुरातत्वाभिमानी भ्रान्त विद्वज्जनों ने पुरूरबा की प्रतिष्ठानपुरी मानकर महाभ्रान्ति का एक तानाबाना बुना है ।<br />
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पैठीनस आग्निदेव की एक शाखा का भी गोत्र है । महर्षि प्राचेतस(चटर्जी) बाल्मीकि ने अपना रामायण ग्रन्थ बनाकर सर्व प्रथम प्रयाग में ही भारद्वाज पत्नि पैठीनसी को श्रवण कराया था । क्रौचवध की घटना के समय भी भारद्वाज बाल्मीकि के समीप थे । इनने महर्षि याज्ञवल्क्य से भी विद्या अध्ययन की थी और याज्ञवल्क्य के वलख बुखारा में आश्रम बना कर म्लेच्छ (विलोम उल्टी बामगति वाली भाषा अरबी फारसी पुश्तो भाषा) पढ़ाने की शिक्षा पद्धति का नि:संकोच होकर विरोध किया ।<br />
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भारद्वाज मुनि ने दंडकारण्य जाते समय भगवान राम का सत्कार किया भरत जब रामजी को लौटाने गये तब उनको भी रामजी का पता दिया तथा जब श्रीराम प्रभु लंका विजय कर लौटे तब उन्होंने सीता को भारद्वाज आश्रम दिखाया और मुनि के दर्शन को आये । भरद्वाज सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये देवराजम इन्द्र से बहुत लंबी आयु मांगी । इन्द्र ने इन्है। 100-100 वर्षों की आयु तीन वार प्रदान की परन्तु वेदध्ययन पूरा न हुआ । इन्द्र से इनने 100 वर्ष का एक और आयु का मांगा, वे परिश्रम से जर्जर और रोग ग्रस्त हो गये थे तब इन्द्र ने इन्हैं वेदविद्या ग्रन्थों के तीन बड़े भाग दिखलाये जो प्रत्येक महाविशाल पर्वताकार थे उनमें से 1 कण उठाकर इन्द्र ने कहा- 'महामान्य ! आपने तीन जन्म श्रम करके इतना ही ज्ञान प्राप्त कर सकोगे, मेरी बात मानो मेरी शरण में आओ मेरे उपदेशानुसार 'सावित्र्याग्नि चयन कर गायत्री होम' करो तब स्वर्ग की सहज प्राप्तिकर सकोगे' भरद्वाज ने यही किया और स्वर्ग की प्राप्ति की । आग्रहायण काल में उत्तराण आरंभकाल में आग्नि स्थापना द्वारा यह 'सावित्र्याग्नि चयन' यज्ञ किया जाता है ।<br />
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भारद्वाज ने काशी के राजा दिवोदास को पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे उसे प्रतर्दन नाम का प्रतापी पुत्र हुआ जिसने तालजंघ और हैह्यों से अपने पूर्वजों की पराजय का बदला लिया ।<br />
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ऋग्वेद के कथन से ज्ञात होता है कि भारद्वाज पुरू ने पंथ नाम के पर्वतीय नरेश के राज पुरोहित रह कर उसे यज्ञ कराया था । पंत हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र के ब्राह्मण होते हैं । इनमें गोविंदवल्लभपंत भारत सरकार के राज प्रतिष्ठित मन्त्री रहे हैं । पन्त अभी भी मथुरा के माथुरों के यजमान हैं । <br />
महाभारतकालीन भारद्वाज के घृताची नाम की अप्सरा से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था जो भारद्वाज के मित्र पृषत नरेश के मित्र थे । पृषत के पुत्र महाराज द्रुपद से आचार्य द्रोण की घनिष्ठ मित्रता थी जो बाद में घोर शत्रुता में बदल गयी और अर्जुन द्वारा द्रुपद राज्य पुचाल देश का आधा भाग दक्षिण पांचाल जीत कर इन्हें प्रदान किया गया । भारद्वाज अनेक विद्याओं के महान ज्ञाता वेदकर्ता और ग्रन्थों के प्रणेता थे । ऋग्वेद के छठे मण्डल के ये द्दष्टा हैं । इसमें इनके अग्नि देव की आराधना के मन्त्र हैं । ये व्याकरणशास्त्र के प्राचीन आचार्यों में से थे तथा इनके 'भारद्वाजीय व्याकरण' ग्रन्थ के आधार पर बनाकर व्याकरणकार पणिनिने अपने व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यात्री की रचना की थी । ऋक प्रतिशाख्य में इन्हैं व्याकरण विद्या का महान आचार्य कहा गया है । जिन्होंने इन्द्रदेवता को गुरू बनाकर इससे यह विद्या पायी थी । ये सामवेद के महा गायक(महार्चिक) होने से सामवेदौ परम्परा के आचार्य माने जाते थे । यह विद्या इन्हें पाराशर के शिष्य पारार्श्य कौथुम से प्राप्त थी जो इनके वंशजों की वेद शाखा प्रसिद्ध है । भगवान श्री कृष्ण ने भी इसी माथुर वंश से साम गान की दीक्षा प्राप्त कर 'सामगान परायण्' विरूद पाया था तथा स्वयं अपनी गीता में अर्जुन से 'वेदानां साम वेदोस्मि' कहकर गान विद्या का मान बढ़ाया था । भारद्वाज श्रौत सूत्र, भारद्वाज धर्म सूत्र, भारद्वाज स्मृति, भारद्वाजीय व्याकर, भारद्वाज व्यवहार, शास्त्र(विवाद मुकदमों का निर्णय), आदि इनके ग्रन्थ हैं किन्तु सबसे महान इनका 'भारद्वाज शिल्प शास्त्र' हैं जिसके 'वैमानिक तंत्र' नाम के अधिकरण में विमान विद्या(हवाई जहाज रचना और संचालन) का वर्णन हैं ।इस विलक्षण ग्रन्थ में आज से 6856 वर्ष अर्थात् 4814 विक्रम संवत पूर्व की देव विमानविद्या वायुयानों का निर्माण, यन्त्र रचना, उनकी उड़ानों की गतियों के भेद आकाश में वायु के विभिन्न स्तरों में उनके प्रवेश और विचरण आदि की दुर्लभ जानकारी दी गई है जो आज के युग की वायु सेवाओं को भी पूर्णत: उपलब्ध नहीं है । भारद्वाज चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत भरत के उत्तराधिकारी प्रतापी सम्राट थे ।<br />
<br />
भारद्वाजों के अनेक आश्रम थे- मथुरा में भारद्वाजपुर(भारगली) भारद्वाज नगर(बाजनौं गाँव), भारद्वाज तीर्थ मथुरा परिक्रमा में, हैं ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_10&diff=56263चतुर्वेदी इतिहास 102010-04-23T07:36:00Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==वशिष्ठ गोत्र==<br />
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'''ब्रह्मदेव''' के 10 मानस पुत्रों में 9400 वि0पू0 से यह गोत्र प्रवर्तित हुआ। स्वायंभुव मन्वंतर के सप्त ऋषियों में ये स्थापित थे। इनकी बड़ी शालीन परंपरा है। ये ब्रह्मदेव के प्राणतत्व से अर्थात् प्राणसमान प्रियभाव से उत्पन्न हुए थे। प्रजापति दक्ष ने अपनी उर्जा (वाढा उझानी क्षेत्र स्वामिनी ब्रज में) पुत्री उन्हें दी थी तथा इस बड़े वंश के नाते यह शंकर भगवान के साढू तथा सतीदेवी के वहनोई थे। ब्रज के सांख्या चार्य कपिलदेव जी की वहिन कर्दम ऋषि (कुमदवन) की पुत्री अरून्धती भी इनकी यज्ञ ज्ञाता पत्नी थी। अरून्धती की शाखा में ही पीछे बाद में वशिष्ठ शक्ति पराशर और वेदव्यास शुकमुनि आदि हुए है। शुक पुत्र भूरिश्रवा, प्रभु, शंभु कृष्ण-गौर (गौरहेठाकुर) हुए तथा वंशिष्ठ जी को घृतात्री अप्सरा से महात्मा अपमन्यु हुए जिनका आश्रम वेदव्यास आश्रम कृष्ण गंगा के निकट सोमतीर्थ पर था जहाँ पुत्र प्राप्ति के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारिका से आकर पाशुपत दीक्षा लेकर कठोर बतचर्या युक्त तप करके सांव पुत्र पाया था तथा यहीं वेद व्यास ने अपना आश्रम स्थापित किया। श्राद्वदेव वैवस्वत मनु 6379 वि0पू0 के सत्र में पुत्र कामना के विपर्यय से श्रद्धा पत्नी की इच्छानुसार इला कन्या प्रगट हुई जिसे माता पिता दोनों को संतुष्ट रखने को महाशक्तिशाली वशिष्ठ देव ने पुत्र रूप में सुद्युम्न और कन्या रूप में इला दोनों देह दिये। सुद्युम्न (दोमन ब्रज) के राजा बने इनके पुत्र गय का गयाकुण्ड तथा विमल का विमलकुण्ड इन्द्र के स्वर्गलोक आदि बृन्दावन कामवन में अभी यथास्थान हैं। <br />
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'''तालजंघ''' और हैहयों ने जब अयोध्या नरेश बाहु को भारत से बाहर के मलेच्छों की सहायता लेकर मरवाया तब वशिष्ठ के शिष्य सगर ने उन पर चढाई कर पारद (रूद्र पार्षद पारसीक) गंधारी, कंवोडियन (कम्वोज) , (यूनानी अरवी विलोची) यवन और पल्लव (पहलवियों) का निर्मूल करना चाहा तब महाकृपालु वशिष्ठ ने इन्हें केवल अपरूप बनाकर शिखा हीन दाढी युक्त करके क्षमा कर दिया, तभी से वे वशिष्ठ मुनि के शिष्य हो गये और विश्वमित्र के वशिष्ठ आश्रम (वहुलावन) से उनकी कामधेनु कुल की नंदिनी गौ को बलपूर्वक हरण करने का प्रयास करने पर योनिमार्ग (जौनसार भावर) से आकर नंदिनी की रक्षा की और विश्वामित्र का दर्प चूर्ण कर दिया। यह असुरों द्वारा गुरूभक्ति का प्रभाव देख विश्वामित्र आहैं भरने लगे-"धिग्वलं क्षत्रिय वलं, ब्रह्मतेजो वलम् वलम्" विश्वामित्र ने वशिष्ठ के 100 पुत्रों सहित शक्ति का वध किया, आड़ी (उड़िया) और बक (बंगाली) सेनायें लड़वायी और अंत में वे वशिष्ठ के चरणों में गिरे और क्षमाशील मुनि ने उन्हें क्षमा कर ब्रह्मर्षि का पद दे दिया। नंदिनी की रक्षा हेतु भी ये ही पारद यवन काम्वोज शक पल्लव आदि मलेच्छ ही भारत में आये थे और यहीं बस कर भारतीय प्रजाओं में मिल गये। <br />
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'''वशिष्ठ गोत्र''' के प्रवर शक्ति पाराशर ही माथुर हैं। इन वशिष्ठ देव का समय 3317 वि0पू0 , शक्ति देव 3256 वि0पू0 पाराशर मुनि 3185 वि0पू0 तथा वेदव्यास देव का 3114 वि0पू0 है। वशिष्ठ का आश्रम वाशिष्ठी वन (वाटी वहुलावन), शक्ति का सकीटरा (गोवर्धन) पराशर का पराशर स्थली (पारासौली गेवर्धन) वेदव्यास का कृष्ण गंगा आश्रम तथा किशन टीला मथुरा के ही परम पुण्य स्थान हैं। वशिष्ठ के पुत्र चित्रकेतु (चित्राल के चिश्ती) गंधर्वराज थे जो आरम्भ में मथुरा शूरसेन जनपद पर शासक थे। इनके पुत्र को इनकी सौतेली माताओं ने विष देकर मार डाला, तब अति शोकाकुल मर्हिष अंगिरा (कुत्सगोत्र प्रवरी) ने योगविद्या द्वारा चैतन्य कर संवाद कराया और राजा को आत्मतत्व का मार्ग उपदेश किया। इस चित्रकेतु राजा का समय 9332 वि0पू0 हैं। वशिष्ठ की व्याघ्री पत्नि से मन्यु आदि क्रोध के पुंज देवता जो सूर्य सेनाओं के अधिपति थे। (सूर्यमन्युमन्यु पति रात्रयों देवता) थे जिनका क्षेत्र ब्रज में नूह नोहर नोहवाल जाट नौहरे आदि था। वशिष्ठ वंशियों ने राजा मुचुकुंद, रंतिदेव, श्राद्धदेव मनु आदि को यज्ञ कराये थे। ये सारस्वतों के आदि पुरूष सारस्वत ऋषि के भी गुरू थे। <br />
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'''वशिष्ठ और विश्वामित्र''' का कलह प्रसिद्ध है। सूर्यवंश की पुरोहिताई, देवों और ऋषियों में सन्मान, नंदिनी कुल का गोवंश आदि कई कारणों को लेकर यह संघर्ष चला । वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ विश्वमित्र के 50 पुत्र तालजंघों की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ (यूनानी पारसी मिश्री अफगान अरब) हो गये तब हार मान कर विश्वामित्र इनके शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमा दान देकर उदारता से ब्रह्मर्षि रूप से स्वीकार कर लिया। वशिष्ठ ने श्राद्ध देव मनु 6379 वि0पू0 को परामर्ष देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बटवाकर दिलाया। ये सभी शूरसेन देश मथुरा के माथुरों के शिष्य थे। इक्ष्वाकु ने 100 रात्रि का कठोर तप करके सूर्य देवता की सिद्धि प्राप्त थी की और वशिष्ठ को गुरू बनाकर उनके उपदेश से अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्या (आयुधधारी संघ जिससे युद्ध करने का कोई साहस न करे) ऐसी पुरी स्थिपित करायी और वे प्राय: वहीं रहने लगे। वशिष्ठ मुनि की दूसरी पत्नि अरूंधती स्वायंभूमनु के जामात्ट कर्दम मुनि 8932 वि0पू0 (कुमुदवन आश्रम) की पुत्री तथा सांख्य शास्त्र सर्व प्रथम मानव वंश के तत्वज्ञान दर्शनशास्त्र के आविष्कार महर्षि कपिल (8867 वि0पू0) की वहिन थीं। इन्हीं से माथुर गोत्र प्रवर वशिष्ठ शक्ति पाराशर तथा महामहर्षि वेद व्यास शुकमुनि आदि उत्पन्न हुए। माथुर वशिष्ठ आरम्भ से सूर्यवंश के सम्राटों , वैवस्वतमनु 6379 वि0पू0 इक्ष्वाकु 6310 वि0पू0 , नृग 6369 वि0पू0, शर्याति 6307 वि0पू0 नभग 6305 वि0पू0 तथा इला बुध वंश 6369 वि0पू0 का चंद्रवंश के परम सन्मानित राजपुरोहित पद पर प्रतित्ठित रहे। रघु 4181 वि0पू0 , अज 4126 वि0पू0 दशरथ 4086 वि0पू0 तथा श्रीराम भगवान 4024 वि0पू0 के भी पुरोहित रहे। उनने दशरथ को पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया, श्री रामजी को जातकर्म चौल, यज्ञोपवीत विवाह कराया और राम की राज्याभिषेक की पूरी व्यवस्था इन्ही के द्वारा हुई। ये इक्ष्वाकुवंशी कुवलयाश्व धुंधमार 5946 वि0पू0 धमार गायन के आदि प्रवर्तक के, युवनाश्व 5612 वि0पू0, मांधाता त्रसदस्युयौवनाश्व 5576 वि0पू0 हरिश्चंद 5262 वि0पू0 सगर 4925 वि0पू0 दिलीप 4811 वि0पू0 भागीरथ 4771 वि0पू0, सिन्धु द्वीप 4670 वि0पू0 , दाशराज्ञ युद्ध के विजेता वेद वणित सम्राट सुदास 4475 वि0पू0 , आदि सभी के कुल परम्परा पुज्य राज पुरोहित रहे। वशिष्ठ ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा 9400 वि0पू0 के यज्ञ के आचार्य रहे और तप के प्रभाव से पुष्कर सरोवर से प्रगट कर सप्त स्त्रोता नंदा सरस्वती को अपने मथुरा क्षेत्र में लाये और उसका यमुना में संगम कराया। <br />
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'''वैदिक काल''' की देव नदी सरस्वती की 7 धारायें थी इनमें से प्रथम कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर वशिष्इ ने 100 पुत्र पाये थे, राजस्थान की सरस्वती (मरूत्वती घघ्घर) मुनि दुर्वासा के शाप से बालुका समुद्र में लुप्त हो गई, द्वारिका की प्रत्यक् सरस्वती अभी भी अपने स्थान पर अपने नदी चिन्ह के रूप में हैं और वर्षा ऋतु में प्रगट प्रवाहित होकर अपने आस्तित्व की साक्षी देती है। इसी सरस्वती के प्राचीन जल प्रपात महासरोवर बहुलावन में महर्षि वशिष्ठ अपनी ब्रह्मदेव से प्राप्त वहुलावंश (वहुत सुस्वाद अमृतमय दुग्ध प्रदा) की गायों को लेकर रहते थे। वशिष्ठ अयोध्या में शरण्यू शतयूपिका (सरयू) के ब्रज में आदि नंदा सरस्वती के, मरूस्थल में मरूतवती सरस्वती के तथा अपने बहुलावन में बहुला सरस्वती, मधुवन में मधुमती कुमुदवन में कुमुद्वती, गोवर्धन में मानसी, कामवन में कामगा, चरणपर्वत बन में चरणगंगा आदि नदियों के प्रगटकर्ता थे तथा इन ही की ही सिद्ध भूसिंचन विद्या , पुण्यतीर्थो की प्रेतोद्धार क्षमता के शिल्प कौशल से प्रेरणा पाकर राजा भगीरथ ने भागीरथी गंगा का अवतरण 4448 वि0पू0 में किया जो आज भी भारतवर्ष की सबसे बढ़ी पुण्यप्रद और जल सिंचन आधार बनी राष्ट्र संवर्धक महान नदी है। इस प्रकार वशिष्ठ कृषि सिंचन प्रणाली के तो आदि प्रवर्तक थे ही वे गोपालन औरं गोवशं संवर्धन और गोवशं विकास और गोमहिमां तथा गो पूजन के वेद शास्त्रों में श्रेष्ठ महत्व दिये जाने की संस्कृति के भी प्रथम आचार्य थे। उन्होंने गोसंवर्धन क्षेत्र गोवर्धन पर्वत के अनेकों बनों से युक्त आदि ब्रन्दावन जो भागवत के मत से विपुल जल तृण वृक्ष फल पुष्पों से परम ससृद्ध था उसमें गोवंश के विकास के कार्य में सभी देवों को प्रेरित करगो भक्त बनाया तथा उनके द्वारा विकसित वंश की बहुला कामधेनु नंदिनी सुरभी कपिला श्यामा धवला आदि गायों में सर्वक्षेष्ठ नंदिनी के वंश की गौ को प्राप्त करने के लिये देव असुर मुनि सभी अति आतुर रहते थे। <br />
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'''इस हेतु''' को लेकर ही उनका विश्वामित्र , सहस्त्राबाहु आदि से कलह हुआ तथा इसी वंश की गोमाता की सेवा और गोपय प्राशन व्रत का अनुष्ठान कराकर उन्होंने महाराजा दिलीप 4811 वि0पू0 को भगीरथ जैसा यशस्वी तेजस्वी पुत्र दिया। अन्य क्षेत्रों की सरस्वती धारायें लुप्त हो जाने पर इनने मथुरा के सरस्वती संगम तीर्थ पर सप्त सारस्वत तीर्थ की स्थापना कर धार्मिक श्रद्धालु प्रजा को सातों सरस्वतियों के स्नान दान का फल प्राप्त करने की सुविधा दी । इसी सिंचन विद्या से इनने संवरण राजा के राज में वारबार अकाल पड़ने पर (सावर काँठा में) सावर मती माही तपती नर्मदा आदि नदियों का प्रवाह संयत कर सिंचन व्यवस्था से उस देश को वृक्षों खेतों लता पत्रों फलो पुष्पों शाक धान्य से परिपूर्ण कर जन संरक्षण का महान प्रयास किया। वशिष्ठ वंश (गोत्र) की महिमा का बहुत विस्तार है जो सभी यहाँ देना सम्भव नहीं है। <br />
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'''वशिष्ठ''' वंशी धीर वीर ज्ञानी शांत क्षमाशील सर्वोपरि ब्रह्मज्ञानी योगी, तपस्वी, लोक कल्याण संवर्धक , विश्व पूज्य तथा ब्रह्मर्षि प्रवर पद प्राप्त थे। वशिष्ठ वंश के रचित अनेक ग्रन्थ अभी उपलब्ध हैं जो लोक शिक्षा और दुर्लभ विद्याओं के आकर ग्रन्थ हैं। वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र , वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति , वशिष्ठ श्राद्ध कल्प, आदि इनमें प्रमुख हैं। वेद वक्ताओं में वशिष्ठ ऋग्वेद के 7 वे मण्डल के प्रणेता हैं तथा 9 वें मंडल में भी इनके वंशधरों के अनेक मंत्र हैं। इनके विरोधी और बाद में कृपा पुष्ट विश्वामित्र के भी वशिष्ठ द्वेषी मंत्र ऋग्वेद में हैं। विश्वामित्र द्वारा शक्ति का वध , सौदास कल्माषपाद का पौरोहित्य, के मंत्र भी ऋग्वेद में हैं। <br />
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'''प्रवर'''- तीन प्रवरों में प्रथम वशिष्ठ पदस्थ (तिलकायत) वशिष्ठों का वर्णन हो चुका अब इस परम्परा में उन वशिष्ठ 3339 वि0पू0 के प्रवरों का जो माथुरों के गोत्र संस्थापक थे उनके वंश की विस्तृति इस प्रकार हैं-<br />
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'''शक्ति''' - ये वेदव्यास के तीन पीढी पूर्व के वशिष्ठ के पुत्र थे। इनका समय 3296 वि0पू0 है। इनने अपने पिता से प्राप्त विद्या और प्रताप से विश्वमित्र को शास्त्रवाद में परास्त किया जिससे क्षुब्ध होकर विश्वामित्र ने अपने क्रूर शिष्य सौदास कल्याषपाद द्वारा इनका 100 भाइयों सहित बध करा डाला। जिससे वशिष्ठ अति शोकातुर होकर प्राण त्याग उद्यत होकर विपाशा तट के क्षेत्र में गये जहां पाशवद्ध होकर नदी में कूदने पर भी वे पाशमुक्त हुए। शक्ति की मृत्यु के समय उनकी पत्नि गर्भवती थी। गर्भशिशु ने गर्भ के भीतर से ही इन्हें वेदपाठ सुना कर आशन्वित किया कि मैं आपके तेज को धारण किये हुए हूं। लम्बे समय के बाद उस गर्भ से मुनिवर पाराशर का जन्म हुआ। शक्ति वध कल्माषपद (कलमा पढ़ने वाले) राक्षस समूह की मैत्री से राक्षस बने राजा और उसकी राक्षस सेना द्वारा हुआ , इस घटना का वर्णन ऋग्वेद में हैं। इस राजा के कारण ही राक्षसों म्लेच्छों यवनादिकों का प्रवेश भारत के राजवंशों में हुआ। शक्ति का आश्रम ब्रज का सकीटरा गांव है। <br />
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'''पराशर''' - ये वेद व्यास के पिता मथुरा के माथुर थे। ये 3240 वि0पू0 में वशिष्ठश्रम (बाटी गांव बहुलावन) में जन्में तथा गोवर्धन पर्वत के निकट अपना आश्रम वनाकर रहे। ये महा तपस्वी तेजस्वी और अनेक विद्याओं के पारंगत थे और अनेक शास्त्रों के रचयिता रहे। गर्भ में से ही इनने वेद मंत्रों का पाठ अपने दादा वशिष्ठ जी को सुनाकर निराश जीवन में आशा का संचार देकर उन्हें आनंदित किया। वशिष्ठ इनकी अदृश्यन्ती माता के उदर के समीप कान लगाकर सुनते और अति आनंदित होते थे। इनने तीर्थयात्रा के मार्ग में मथुरा की यमुना धार के मध्य अपना तपोतेज मत्स्य कन्या काली (उपरिचरवसु कन्या) में स्थापित कर बालक वेदव्यास को जन्म दिया जो मथुरापुरी के प्रमुख क्षेत्र माथुरों के आवास स्थल यमुनाद्वीप या कृष्णादीप में माथुरी माताओं द्वारा पाले पोसे जाकर तथा माथुर महामहर्षियों द्वारा वेदादि समग्र विद्याओं और ग्रन्थों को प्राप्तकर सहासमर्थ विश्व के संस्कृति और साहित्य के सर्वश्रेष्ठ मूर्धन्य शास्त्र प्रवर्तक बन गये। पराशर ने अपने पिता के वध का बदला लेने को अपने आश्रम में राक्षस मेध सत्र किया जिसमें भारत से राक्षस वंश को मंत्रो द्वारा हवन कुंडों में भस्म कर देश को राक्षसों के आतंक से मुक्त करने का सराहनीय संकल्प था पराशर के इस महाबिकट प्रचंड आयोजन से राक्षस और उनके पूर्वपुरूष पुलस्त्य पुलह कृतु महाकृतु और उनके पुरोहित अत्रि चंद्रदेव (चंद्रसरोवर) भयभीत हो उठे। वे अपने बन्धु वशिष्ठ के पास आये और अपने वंश की रक्षा के लिए याचना करने लगे। वशिष्ठ के साथ वे राक्षस सत्र में पहुंचे जहां रज्जूबद्ध असुर राक्षस दैत्य दानव बंधे खड़े थे। उनने पराशर से प्रार्थना की वे उन राक्षस प्रमुखों को मुक्त करें क्योंकि वे मूलत: तो ब्राह्मण पुत्र ऋषियों के वंशज ही हैं। पुत्र पराशर तुम यह तो ध्यान करो कि इनमें प्रहलाद वलि वृषपर्ती आदि जैसे देवभक्त भी हुए है। वशिष्ठ ने भी पराशर को ब्राह्मण के क्षमाधन की महता और क्रोध भाव के अधर्म से मुक्त होने की शालीनता का उपदेश किया और गुरूजनों के आग्रह से यह सत्र बीच में ही भंग हुआ। पराशर ने इस यज्ञ की अभिचार अग्नि को तब हिमालय पार के अरवस्थान , सहारा, अफगान, विलोच तातार, साइवेरिया आदि देशों के विशाल प्रदेशों में उत्सर्जित कर दी जो महा ज्वाला समूम वायु, मिट्टी का तेल, बारूद के खेल (आतिशबाजी) बन कर उन देशों को जलहीन रेतीला और परस्पर घात प्रतिघात से अपने ही कुलों को नष्ट करने वाला रूप धारण कर अपना काम पूरा कर रही है। पराशर भारतवर्ष के अद्वितिय प्रतिभा सम्पन्न महर्षि थे। उनके रचे ग्रन्थों की संख्या बहुत बड़ी है, इनमें ज्योतिष ग्रंथ पराशर संहिता, पराशर होराशास्त्र , आयुर्वेद ग्रंथ, पराशर-तंत्र, वृद्धपराशर तंत्र, हस्त्यायुर्वेद, गवायुर्वेद , बृक्षायुर्वेद , पाराशर कल्प, विमान विद्या पर पाराशर विमान तंत्र महाग्रंथ पाराशर स्मृति बृहत पाराशर संहिता, पाराशर सिद्धांत , विष्णु पुराण, पाराशर नीतिशास्त्र , पाराशर वास्तुशास्त्र पाराशर गीता (भीष्म ने युधिष्ठर से कही) आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं पराशर वेद मंत्र कर्ताओं में भी श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किये हुए थे। ये विष्णु देवता नारायण के उपासक थे जिन की भक्ति का प्रितपादन इन्होंने अपने पुत्र वेदव्यास के आग्रह से 18 पुराणों की संख्या के अंतर्गत 'विष्णुपुराण' की रचना करके किया था। महाभारत की सूचना से ये रूद्र देव के (भूतेश्वर चक्रेश्व कामेश्वर) रूपों के भी भक्त थे। पुष्कर तीर्थ में भी इनने कुछकाल बास किया था और वहां के शिष्यों को ब्रह्मदेव की उपसना प्रदान कर उन्हें पाराशर ब्राह्मण संज्ञा देकर अपने प्रिय शिष्य स्वीकार किया था। इनके ही तेजस्वी वंश में शुकमुनि (परमंहस) तथा ब्रह्मदत्त योगी, आदि हुए। व्यास परम्परा आज भी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ पदवी युक्त मानी जाती है। <br />
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अल्लैं- इगके आस्पद (अल्ल) इस प्रकार हैं----<br />
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1. काहौ– ये कहो़ड ऋषी के वंशज हैं । कहोड ने नवीन धान्य से यज्ञ हेतु अग्नि स्थापन विधि का प्रवर्तन किया । ये याज्ञवल्क्य 2929 वि0 पू0 के समकालीन थे । ये उद्दालक के शिष्य थे तथा जनक सभाविजेता अष्टावक्र ऋषि इसके पुत्र थे ।<br />
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2.बट्ठिया – स्वायंभूमनु 9000 वि0 पू0 के शासित प्रदेश ब्रह्रावर्त में निवास करने के कारण ये ब्रह्रावर्तिया बठ्ठिया संज्ञा से प्रसिद्ध हुए हैं ।<br />
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3. दारे- श्री कृष्ण के प्रिय ब्रन्दारण्य (वैदोखर नंदगांव) में 3107 वि0 पू0 में श्री कृष्ण रक्षक बन कर जाकर रहने वाले माथुर ब्राह्राण व्रंदारक वृंदारे या दारे हैं ।<br />
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4. खोखावत- ये व्यास कालीन कोकामुख तीर्थ पर तप करने से कोकावत से खोखावत हुए हैं ।<br />
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5. सात- सप्तसारस्वत तीर्थ सरस्वती संगम मथुरा कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर तपोनिष्ठ स्वायंभूमनु के सप्तऋषियों के यश परिचारक । सात्वतों के गुरू । <br />
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6. निनौलिया – नारायण नेत्रवासिनी आदि योगमाया नैनादेवी के नैनसरोवर शम्याप्राश व्यास बन (सेऊ ब्रज) में शमी भक्षण करके नैनादेवी के उपासक, अथवा ब्रज के नमक वितरण केन्द्र नौनेरा गांव (नमक की मंडी) लवणासुरपुर के निवासी ।<br />
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7. डुंडबार- भक्त प्रहलाद 8874 वि0 पू0 को होली में लेकर बैठने वाली ढूढार देश(कोटा बूंदी जैपुर) की ढुंढा राक्षसी(ढांडनियां) के प्रजाजनों के प्रोहित । <br />
चंदरासो में पृथ्वीराज और चौहान वंश को ढुंढा (देवी) का वंश चंद कवि ने मान्य किया है ।<br />
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8. उटौलिया- ऊंट पर बैठैकरफिरने वाले । मरूवन्य देश (राजस्थान) में भ्रमण करने वाले । ऊटालर गाँव के निवासी ।<br />
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9. जौनमाने- यवन मान्य । मनु और कृष्ण कालीन प्राचीन कालयवनादि वंशो की परम्परा में आने वाले सिकन्दर सैलूष (सैल्यूक्स) तथा उनके भारत दर्शन को आने वाले यूनानी यात्रियों विद्वानों को मथुरा का प्राचीन वैभव दिखलाने बतलाने जैन स्तूपों बिहारों मठों संघारामों सनातन धर्म के देव मन्दिरों घाटों तीर्थों वन उपवनों की यात्रा कराके उनकी भाषा में उन्हें भारत ज्ञान देने बाते उनसे तीर्थगुरू का सन्मान प्राप्त करने वाले ।<br />
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मीठे चौवों में कुछ पृथक अल्लै<br />
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10. पैंठवार – पुरूरवा की राजधानी ब्रज की प्रतिष्ठान पुरी(पैठोगांव) में जाकर बसने वाले ।<br />
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11. किंझरे- कंजाक्ष( कज्जाकस्तानी कंजर) तथा हिमालय किन्नौर क्षेत्र के किंन्नरगण (वैदिक किंपुरूष) जो ब्रज में कंझौली क्षेत्र में बसे थे । उनके सहवासी जन । किंन्नर नृत्य गान कुशल उपदेव थे जिनका राग कान्हडा माथुरी नारियों द्वारा 'कनहरी' के नाम से मंगल कार्यों के आरम्भ में बडे समारोह के साथ मिठाई आदि वितरण के साथ सम्पन्न होता है । प्रधान कन्हरीगानकर्त्री वयोवृद्धा को वस्त्र पात्र रूपया मिष्ठान आदि देकर सम्मानित किया जाता है । श्री कृष्ण का किन्नरोपम मधुर मोहक गान के कारण ही कान्हा कन्हैया नाम हुआ । बंबई को अंचल में माथेरान और कन्हैरी गुफायें माथुरों के समुद्र तट तक अपने उपनिवेश स्थापन करने के संकेत देते हैं । <br />
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12. बहरामदे- ये अबकर बादशाह के संरक्षक मुगल सरदार बैहराम खां (वैरम खां) के आश्रयवर्ती रहे थे । 1613 वि0 में जब हुमांयू की मृत्यु हुई और अकबर गद्दी पर बैठा उस समय उसकी 13 वर्ष की आयु के समय बालक बादशाह की राज्य व्यवस्था सभालने में बहराम खां का खास संरक्षण था । अकबर अपने शाहजादाकाल में पंजाब का जगीरदार था । जहां वैरमखां ही उसका सरपरस्त मीर जुमला बड़ा हाकिम था । अकबर के आगरा राजधानी में आने और आगरा समृद्धि और वैभव विस्तार में वैरमखां का योगदान सर्वोपरि था ।<br />
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13. तेहरिया- व्यास कालीन भागवत में प्रस्तुत विदुर मैत्रेय संवाद के ब्रह्राज्ञान तत्ववेत्ता मैत्रेय जिनवा आश्रम व्रन्दावन के क्षेत्र में तेहरा गांव तथा पांडवों के इन्द्रप्रस्थ महानगर में तिहाड था तथा जिनके वंशधर बाद में बौद्ध धर्म के अर्हत हो गये थे । पुराणों के अनुसार मैत्रेय पांचाल देश के राजा दिवोदास पुत्र मित्रेयु का पुत्र था । प्रथम यह आंगिरसारें का शिष्य था पीछे भृगु वंशियों में सम्मिलित हो गया । इसका वेदव्यास से धर्मतत्व संवाद "व्यास मैत्रेय संवाद" तथा श्रीकृष्ण का उद्धव को प्रदत्त सर्वोपरि ज्ञान संवाद जो इसने विदुर को उपदेश किया भागवत में हैं । मैत्रेय की बौद्धकालीन विशाल प्रतिमा मथुरा संग्रहालय में दर्मनीय हैं ।<br />
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14. मोरेसरिया- मथुरा जनपद में मौर्य सम्राटों का राज्य केन्द्र मौर्यश्री मुडेसी गांव में इनका निवास होने से मौर्यश्रीय ही मौरेसरिया प्रसिद्ध हुए । <br />
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15. मैंठिया- अवष्ठ नरेशों की राजधानी अमैंठी अंवष्ठपुरी के निवासी होने से अमैठिया मेठिया नाम से प्रसिद्ध हुए ।<br />
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16. सिहोरिया- ब्रज के सिंहोरा (नृसिंह वंशी सिंहों का पुर) के वास से प्रसिद्ध । <br />
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17. जुनसुटिया- यदुओं की जनुष्ठी शाखा के परिवर्तित नाम से विख्यात ये ब्रज के अजमीढ यादव वंशी जन्हु 4268 वि0 पू0 के जिनके जानूऔ जनूथर जुनसुटी जुन्हौती जान्हवी गंगा का प्राचीन प्रदेश, जन्हुकूप शान्तनुकुंड हैं उस वंश के प्रोहित जनुष्ठी तथा जुनसुटी में जाकर बसने वाले झुनसुटिया कहलाये । जन्हुऋषि बन गये थे ।<br />
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18. रिसिनियां- अंवरीष टीला(प्राचीन अंवरीषपुर) के माथुर चतुर्वेद पुर( टीला चौवियान) जहां पहिले चौवो के पूर्वज रहते थे तथा जिसके निकट ही माथुरों की आंगिरस यज्ञ स्थली थी उसके निवासी । यह स्थान टीला चौबियान के नाम से अभी भी उल्लिखित हैं जो उस टीले का ही रूप मात्र है ।<br />
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19. जैतिया – ब्रज के अजित शेषनाग के तपोवन जैतगांव में बसे माथुर जैत में प्राचीन नाग मूर्ति सरोवर तट पर हैं जो कितनी गहरी है यह खोदने पर ज्ञात नहीं हो सका है । <br />
मीठे चौवों की इन अल्लों से प्राचीनता के साथ इनका ब्रज के इन गांवों में जाकर बस जाना भी इतिहास पुष्ट है । आश्चर्य तो यह है कि अल्लों पर विचार करने वारले महानुभावों ने इनके मूल तथ्यों पर न पहुंच कर इन्हें मनमानी अंधकार युगीन तथा निरर्थक कह दिया है ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_11&diff=56262चतुर्वेदी इतिहास 112010-04-23T07:34:32Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
स्वायंभूमनु के यज्ञ में 9000 वि0पू0 में इनने देव श्रेष्ठता की परीक्षा हेतु विष्णु के ह्दय पर पादइ प्रहार किया विष्णु देव को 10 अवतार धारण का शाप दिया तथा प्रभु आदिनारयण (गतश्रम नारायण) विष्णु की विनय से प्रभावित होकर ऋषियों भृगुओं के यजमान ब्रहा ,शिवलिंग मूर्ति को अपूज्य घोषित किया । आदि आसुरी लक्ष्मी 'श्री देवी' (श्री कुंड ब्रज) इनकी ही पूत्री थी जो देक्ष की पूत्री "ख्याति" से उत्पन्न थी । इसी श्री नाम की आसुरी लक्ष्मी से वल उन्माद धाता विधाता पुत्र हुए तथा इसी वंश में मुनिवर मार्कडेय मृत्यु विजयी हुए । भृगु ने ही इन्द्रासन आरूढ नहुष को सर्पयोनि प्राप्त होने का शाप अगस्त की जटा में से (सिर पर बैठकर) दिया । भार्गव वंशी आसुरों को यज्ञ कराते थे । इन यज्ञों में इन्द्रदेव के न जाने पर इनने देवों से बैर बढ़ाया । बली के इन्द्रासन निर्णायक सौवें यज्ञ (चरण पहाड़ी ब्रज में) में ये शुक्राचार्य प्रधान आचार्य (काजीमुल्ला) थे और वामन विष्णु के दान में भाँजी मारने पर आँख फुड़वाई तथा यज्ञ भंग होने पर गौड़ देश (वंगालय) में जाकर बसे । भुगुवंशी त्वष्टार से ही त्रिशिरा व्रत्तासुर विश्वरूप प्रोहित और विश्वकर्मा यमुना जी केवे नाना (मातामह) उत्पन्न हुए । इसी वंश में दधीच ने असुरों को अथर्ववेद विद्या देकर इन्द्र द्वारा अपनी अस्थि (मेफुदंड) गंवाकर इन्द्र का वज्र बनाये जाने का श्रेय प्राप्त किया । दधीच (दाहिमां) का पुत्र सारस्वत भी असुर पौरोहित्य के कारण श्वेतद्वीप (स्विटजरलैड स्बीडेन) स्वात कलात हिमाखय शीर्ष, पंजाब (पंचनद) मे, राजस्थान मरूधन्य ब्रह्रार्षि देश से जाकर बसे । इसी वंश में अधर्मी बेन राजा, परमधार्मिक प्रतापी पृथु महाराज दीर्ध कथा सत्रों के आयोजक शौनक (सौनकपर सीखटीला तथा विहार में सोनभद्र तट वासी) चाणक्य कौटिल्यय हुए हैं । माथुर चतुर्वेदी समूह की आश्वलायन शाखा के प्रवर्तक महर्षि आश्वलायन इस शौनक के ही शिष्य थे जिनके आश्वलायन गृह्रा सूत्र में यज्ञविधान के भेदाभेद, दर्शपौर्ण मास, अग्न्याधान, पुनराधान, आग्रहायण, कामेष्टि , पशुभाग, चातुर्मास, सौत्रमणि, अग्निष्ठोम, सप्तसोम, अश्वमेध, राजसूय, आदि की दुर्लभ कर्मकाँड विद्या का विवेचन हैं, तथा सत्र याग सवन होम होत्र एवं श्राद्ध तर्पण आदि का ब्राह्मण कर्म का सभ्यक् निर्देशन है । तर्पण विधान में ऋगवेद मंडलक्रम से ऋषियों की नामावलि भी इनने दी हैं ।<br />
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भृगु महर्षि के रचित ग्रंथ भृगु संहिता (ज्योतिष), भृगु गीता(तत्वज्ञान), भृगुवल्ली(कर्मकांड) भृगु सिद्धांत, भृगु वास्तु शास्त्र आदि हैं । आंगिरस अथर्वा के अथर्वण वेद का ये आसुर यज्ञों में प्रयोग करते थे परन्तु भृग्वांगिरस के एकीकरण सिद्धांतानुसार ये अपने कुल परम्परा प्रयोगों में माथुरों में स्वीकृति पाने हेतु उनके प्रधानवेद ऋगवेद को ही प्रयोग में लाकर ये स्वयं ऋग्वेदी बन गये थे । भार्गव माथुर पंच प्रवरी हैं । भार्गव च्यवन आप्नुवान और्व जामदान्य इनके पांच प्रवर हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- <br />
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'''1. भार्गव'''- भृगु महर्षि के ज्येष्ठ पद के अधिकारी । इनका वंश अन्य ब्राह्मणों में भी है जो माथुर समूह से दूर जाकर परशुराम के समय भृगुकक्ष भड़ौच आदि में नर्मदा तट जाकर बस गये थे । भरौच शाखा माथुरों में है, तथा भरूची गो0 गोकुलनाथ के पंथ में भी एक शाखा के रूप हैं । मथुरा जनपद में भृगुओं का आश्रम भृगुतंग पर्वत गिरिराज गोवर्धन के एक भाग में भगौंसा भृगुओं भृगुस्थल के नाम से प्रसिद्ध है ।<br />
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'''2. च्यवन'''- यह भृगु पत्नी पुलोमा से 6285 वि0पू0 में पुलोमा को जब गर्भ था उसे पुलोमन (पुलिंद पोलैड वासी) हरण कर ले गया उसके घर च्यवन उत्पन्न हुए और उनने अपने तेज से पुलोमन को भस्म कर दिया, तब पुलोमा फिर लौटकर भृगु के घर आयी । च्यवन महातपस्वी थे, जब से च्यवन वन ( काबुल चमन का बाग) में तपकर रहे थे तब उनके शरीर पर मिट्टी का टभ्ला जम गया केवल दो नेत्रों की ज्वाला के 2 छिद्र उसमें थे । देवयोग से सरैया गुजरात के सम्राट यर्थाति 6307 वि0पू0 की पुत्री सुकन्या वहां वन विचरण करती हुई अपने पिता की सेना शिबिर से चल कर वहाँ पहुंची और विस्मय से मिट्टी के उस टीले में चमकते दो छिद्रों में कुशतृण से बेधन किया जिससे रक्त की धारा निकली और ऋषि अंधे हो गये । भयभीत शर्याति इनसे क्षमा याचना को आया और अपनी कन्या सुकन्या इन्हें दे दी । सूर्य उपासना से इनके नेत्र अश्विनी कुमारों (अस्पिन स्पेनिशों) ने ठीक किये । सुकन्या अपनेबृद्ध पति की जो अधिक उच्च स्वरों में बेदपाठ करने के कारण कास क्षय रोग से ग्रस्त होकर अकाल बृद्ध हो गये थे, उनकी सेवा कर रही थी । उसके रूप को देख अश्विनी कुमार मोहित हुए, तब उन्हें अनेक च्यवनों के रूप सर्वत्र दिखलाकर इस कार्य से विरत और प्रभावित किया । अश्विनी कुमारों ने तब च्यवसप्राश सेवन कराकर च्यवन को पुन: तरूण बना दिया ।<br />
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च्यवन ने इस उपकार के बदले अपने श्वसुर शर्याति से एक विशाल यज्ञ कराया और उसमें अश्विनी कुमारों( इस्पहान से आये) वैद्यों ( दास्त्र दसौरे वैश्य तथा नासत्य सतिये जर्राहों) को यज्ञ भाग देकर यज्ञ में देवों के साथ भागीदार बनाने की तैयारी की । इसे देख इन्द्र ने इन पर बज्र चलाने को उठाया तभी च्यवन ने उसकी वज्र सहित भुजा स्तंभित कर दी । च्यवन ने इन्द्र पराजय को मददैत्य (मैं शराब अतितीनिर्मामा) उत्पन्न किये जिनसे इन्द्रहतप्रभ होकर शरण में आया और अश्विनों को तब यज्ञ भाग दिया गया । च्यवन तब अपने जन्म स्थान मथुरा में च्यवनाश्रम चूनाकंकड पर रहे थे तथा अश्विनों को संज्ञा माता से जन्म लेने का स्थान अश्विकुंड ( असिकुंड तीर्थ) यहीं था, जहां यज्ञ भाग पाकर वे देवकोटि में प्रविष्ट हुए ।<br />
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विश्वामित्र के पितामह कुशिक की कठिन सेवा परिक्षा लेकर उसे उसके कुल में महापराक्रमी क्षत्रिय धर्मा वंशज(परशुराम) के उत्पन्न होने पर वर दिया । च्यवन के धर्मशास्त्र च्यवन स्मृति में गोदान का महात्म तथा श्वान, चांडाल मृतशव प्रेत, चिताधूम, मद्यपान, मद्यपात्र के स्पर्श होने पर प्रायश्चि का विधान है । गोवध के प्रायश्चित कर्म से देह शुद्धि का विधान इनका प्रवर्तित है । इन्होंने भास्कर संहिता में सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त "जीवदान तंत्र" भी रचा है । हे माद्री और माधव ने धर्म निर्णय में इनके उद्धरण लिये हैं ।<br />
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'''3. आप्नुवान'''- ये च्यवन के सुकन्या से उत्पन्न पुत्र थे । इनका समय 6228 वि0पू0 है । दधीच इनहीं के भाई थे जो सारस्वत वंश के आदि जनक थे । इनका दूसरा नाम आत्मवान भी कहा गया है । इनकी नाहुषी से और्व हुए थे । इनका नाम और्म या अर्म भी था जिनसे अरमीनियन, आर्मी, ऊमर वैश्य तथा ऊमरी रामपुर ब्रज, उल्मां आदि से इनका पैतृक संम्बन्ध सूचित होता है । ये परम तेजस्वी प्रजा संवर्धक लोकधर्म विस्तारक ज्ञानी पुरूष थे ।<br />
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'''4. और्व'''- ये आप्नुवान वंशज भार्गव की नाहुषी पत्नी से उत्पन्न पुत्र थे । समय 5817 वि0पू0 है । ये महाउग्रकर्मा थे । ब्रज में माथुरों के विस्तारकाल में इनका आश्रम ओवौ बलराम घाट पर था । उदई जालौन में इनके ज्वालाग्नि प्रयोग का आविष्कार क्षेत्र और्वाग्निपुर उरई और ज्वालादहनपुर जालौन अभी भी अपने बारूदी और आतिशबाजी को कुशलता के लिये विख्यात है । ओरा प्रकाश के दीप्तिमंढ़ल का भी नाम है । लोकमान्य तिलक ने अपने आयों के मूल देश के निधरिण के ग्रंथ को "औरायन" ही नाम दिया है तथा पश्चिम में पूर्व की भारत विद्या को "ओरीयेन्ट" ही कहते हैं, जो और्व माथुर द्वारा स्थापित भारत की गरिमा का विश्वव्यापी मानदंड है । और्वकुल का वर्णन ब्राह्माण ग्रंथों में ऋग्वेद में 8-10-2-4 पर, तैत्तरेय संहिता 7-1-8-1, पंच ब्रह्माण 21-10-6, विष्णुधर्म 1-32 तथा महाभारत अनु0 56 आदि में प्राप्त है । हैहयों 5763 वि0पू0 के ये भार्गव कुल प्रोहित थे तथा कृतवीर्य ने इन्हें यज्ञों में बहुत सा धन दिया । समय पड़ने पर जब हैहयों ने इनसे द्वेष मान इन्हें बहुत त्रास दिया । भार्गवों ने इन्हैं नष्ट कर कुल संहार किया तब ये उत्पन्न और्वा कहलाये । और्व के तेज से सभी हैहय नेत्र हीन हो गये और इस चमत्कार से आर्त होकर उन्होंने बालक और्व की स्तुति की तब उनकी दृष्टि उन्हें प्राप्त हुई । इनने हैहयों का संहार करने की शक्ति प्राप्त करने को तप किया तो इनके पितरों ने इन्हें बताया कि हमारे पूर्व कर्मों से हमारा संहार ईश्वर के न्याय विधान से हुआ है अत: तुम क्रोध धारण कर ब्रह्मतेज का क्षय मत करो, तब इनने अपनी क्रोध अग्नि समुद्र में डाल दी जो बड़वानल(समुद्री मिट्टी का तेल) बन गयी । इनके आश्रम (ओवौ ब्रज) में सगर का जन्म हुआ जिसे इनने अस्त्र शस्त्रों की उच्चकोटि की शिक्षा के साथ भगवान राम का वह अग्न्यास्त्र भी दिया । जिससे उनने समुद्र को सुखाने के लिये धनुष पर चढाया था और समुद्र भयभीत हो शरणागत हुआ था । अयोध्या के राज्यअभिषेक के बाद इनने सगर को विश्व विजय के लिये खास कर हैहय संहार के लिये अश्वमेघ यज्ञ कराया । सगर के साथ पृथ्वी विजय के कारण इनके नाम पर पृथ्वी का नाम उर्वी, हुआ तथा अर्व अरबदेश, अरवली पर्वत, अल्बर, अड़बड़ राजस्थान, अल्वानियां, उर्वशी अप्सरा खंड उजेवकस्तान (और्वक) ओमान, उराव जनजाति, आदि ख्याति में आये । और्व को महातेजस्वी विष्णु का अवतार तथा प्रलयकर्ता विष्णु की मुखज्बाला, शंकर का तृतीय नेत्र में इसका सदा निवास कहा गया है । और्व की पुत्री धौम्य के पुत्र मंदार को व्याही गयी जो भुशुंडी शिवगण का उपहास करने पर पति पत्नी मंदार और शमी वृक्ष बने तथा और्व द्वारा मंदार मूल (आक की जड़) से गणेश मूर्ति बना कर उसकीं पूजा से पुन: अपने रूप में आये ।<br />
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'''5. जामदग्न्य'''-ये जमदग्नि के पुत्र परशुराम हैं । इनका जन्म समय 5142 वि0पू0 वैशाख शुक्ल 3 है । भृगुवंशी होने के कारण अपने वंशनुगत गुण क्रोधमूर्ति व्यक्तित्व के ये साक्षात रूप थे । और्बाग्नि तथा पिता यमदाहक अग्नि यमदग्नि के पुत्र होने से ये भी हैहयादिं क्षत्रियों के लिये कालाग्नि ही थे । इनने 21 आक्रमणों में ब्रह्मणद्वेषी हैहयों और तालजंघ आदि उनके गण समूहों को भारत से लेकर एशिया तक ध्वस्त किया । एशिया में पर्शयन पर्शुधारी गणों का, मुशलघारी मुसलिमों का, शूलधारी सुलतानों सुलेमानों का, वज्रधारी वजीरियों का, पाशधर पाशाओं का, तालजंघ टार्जनों का तथा भारत में पंच तालजंघ वीतिहोत्र (वितिया बिहार)शर्यात आनर्त (सरैया आणद डाकौर के डांकी डाकिन), भोज (भोजपुरी भाषा क्षेत्र के भेजक तथा भुज्ज कच्छ के कच्छी लुहाणा), अवंती के (उज्जैन मालवा के परमार, गुहिल, गर्दभिल्ल, रतलाम, आदि) तुंडिकेर (केरल, कर्नाटक, महिषासुर मैसूर, माहिष्मंती नर्मदा तट के, कोलपुर कोलापुर, आदि) देव द्विषों को दंडित किया । इन सबका पराभव करने के लिये परशुराम ने अपने 5 भाइयों तथा समस्त भृगुवंशी जनों को साथ लेकर नर्मदा के समुद्र समीप के प्रदेश में ब्रज से जाकर भृगुकच्छ भरौंच नगर की स्थापना की तथा वहां के आसपास के क्षत्रियों को यजमान बनाकर उनके सहयोग से विशाल भार्गवी परशुधारी सेना का संगठन कर सभी कार्तवीर्य अर्जुन पक्षियों का क्रूरदमन किया । भार्गव ब्राह्मण अभी गुजरात सौराष्ट्र क्षेत्र में अधिक संख्या में बसे हैं । परशुराम शूलपाणि रूद्र के उपासक थे जिनसे इन्हें धनुर्वेद, अनेक अस्त्र शस्त्रों की विद्या मंत्रायुध विद्यायें प्राप्त थीं । इनने पितृभक्त का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करने को पिता की आज्ञा से अपनी की आज्ञा से अपनी ही माता रेणुका का वध किया जिसे फिर जीवित कर दिया गया । जमदानि का आश्रम ब्रज में जगदग्नि क्षेत्र दघेंटा गांव है तथा परशुराम का मूल स्थान परसौं, सहस्त्रावाहु का पुर सीह, रेणुका क्षेत्र रूनकी, कार्तवीर्य अर्जुन की पुरी झुनकी रूनकी आस पास ही हैं ।<br />
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परशुराम को 41 दिव्यास्त्र शिव से तथा अगस्त्य जी से प्राप्त थे जिनकी नामावलि है-<br />
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1.ब्रह्माशस्त्र<br /><br />
2.वैष्णवास्त्र<br /><br />
3.रौद्रास्त्र<br /><br />
4. आग्नेयाग्त्र<br /><br />
5. वायव्यास्त्र<br /><br />
6. नेऋत<br /><br />
7. याम्य<br /><br />
8. कौवेर<br /><br />
9. वारूण<br /><br />
10. वासव<br /><br />
11. सौम्य<br /><br />
12. सौर<br /><br />
13. पार्वत<br /><br />
14. चक्र<br /><br />
15. वज्र<br /><br />
16. पाश<br /><br />
17. सर्प<br /><br />
18. गांधर्व<br /><br />
19. स्वापन<br /><br />
20. रोधन<br /><br />
21. पाशुपत<br /><br />
22. इषीक<br /><br />
23. तर्जन<br /><br />
24.प्राश<br /><br />
25. गारूड़<br /><br />
26. नर्तन<br /><br />
27. रोधन<br /><br />
28. आदित्य<br /><br />
29. रैवत<br /><br />
30. मानव<br /><br />
31. अक्षि संतर्जन<br /><br />
32. भीम<br /><br />
33. ज्त्रंभण<br /><br />
34. पर्शुघात<br /><br />
35. सौपर्ण<br /><br />
36. पर्जन्य<br /><br />
37. राक्षस<br /><br />
38. मोहन<br /><br />
39. कालास्त्र<br /><br />
40. दानव<br /><br />
41. ब्रह्मशिरा ।<br />
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और्व पुत्र ऋचीक को ह्दयों से अपार धन दान में मिला था जिसे उनने अपने पर चिकसौली वरसाना तथा चिकसौनी ब्रज में जमीन में गाढ़ दिया और ह्दयों के माँगने पर साफ निषेध कर दिया तथा दण्डित होने पर वे महोदय पुर कान्यकुब्ज देश में जा बसे । वहाँ उनने वहाँ के राजा जगाधि की पुत्री सत्यवती से विवाह कर ह्दयों से बदला लेने की योजना बनायी । फिर अपने पुत्र जमदग्नि का विवाह अयोध्या नरेश रेणुक की कन्या रेणुका से किया । लक्ष्य के अनुसार दोनों राज्यों की सहायता से ह्दयों बदला लेने की तैयारी करने लगे ।<br />
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ह्दयों को यह मालुम हुआ तो सहस्त्राबाहु इन्हें दबाने कोज मदग्नि के आश्रम(दघैंटा) में आया और उनकी दुर्लभ नस्ल की अनमोल गौ कामधेनु को युद्ध का कारण बनाने के लिए बलपूर्वक अपहरण करने लगा । इस समय भी वशिष्ठ की गौकी तरह परशुराम जमदानि के शिष्यों गुरूभक्त यवनों (यूनानी पारसी यहूदी पठानों अरबों ) ने सहस्त्राबाहु की सेना से डटकर प्रतिरोध किया और उसे भगा दिया किन्तु भागते हुए भी वह आश्रम को जलाकर (घर फोड़ नीति) से जमदानि का सिर काटकर कामधेनु को भगदड़ में भगाकर ले गया । परशुराम जब तपस्या करके लौटकर आये तो यह सब देख आग बबूला हो गये और सहस्त्रबाहु ह्दय वंशियों और ह्दय पक्षधर राजाओं को निर्मूल करने की कठोर प्रतिज्ञा की । उनने मथुरा में सरसवती तट पर सप्तसारस्वत (सरस्वती कुण्ड) पर तप करके भूतेश्वरशिव तथा महर्षि अगस्त्य से अजेय दिव्य 41 आयुध दिव्य रथ अमन्त्रित शंख प्राप्त किये । इस जबरदस्त तैयारी के बाद परशुराम ने भरौंच से भार्गव सैन्य लेकर ह्दयों के नगर नर्मदातट की मर्हिष्मती नगरी को घेर लिया उसे जीतकर जलाकर ध्वस्त कर वे ह्दयों के पूर्व कथित अनेक देशों के मित्र प्रजाओं पर आक्रमण कर उन्हें विनष्ट करने लगे । अपने 21 अभियानों में इनने क्षत्रियों के ह्दय पक्षी 64 राजवंशों का विध्धंश किया, इनमें 14 राजवंश तो पूर्ण अवैदिक नास्तिक और ब्रह्मद्वेषी थे ।<br />
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परशुराम का अधर्मनृपसंहार आदर्शवादी और लोकतंत्र विशोधक था । क्रूर दुष्ट दमन के हेतु से दण्ड नीति का व्यापक लोकभ्य स्थापित करने के लिए उनने क्रूर प्रयोग किए और धर्म से विचलित न होने की अविचल निष्ठा की स्थापना की । पुराणों के अनुसार उनने मूसलों के कूटकर, तलवारों से काटकर, वृक्षों पर लटकाकर फाँसी देकर, तल में डुबाकर, हाथ पैर दाँत नाक कान काटकर मिर्चों की धूनी में तड़पाकर, रस्सियों से बाँधकर, ऊँचे से गिराकर, धर्म शत्रुओं का संहार किया । प्राप्त सूची से ज्ञान होता है कि उस समय आसुरी प्रभाव से प्रजाओं में अधर्म का आचरण बहुत ज्यादा बढ़ गया था । गुणावती (गुलावटी बुलंदशहर) के उत्तर में, खांडव प्रस्थ (खानवा का मैदान कुरूक्षेत्र) के दक्षिण में वर्तमान दिल्ली श्री तथा, पांचाल रूहेल खण्ड रामपुरा तराई-मैनसार, पीलीभीत वरेली, हलद्वानी काठगोदाम मेरठ मुजफ्फर नगर की पहाड़ियों में इनका घनघोर युद्ध हुआ तथा 10 हजार रूहेले मेवाड़ी मयवंशी नागवंशी बावरी और गंधारी सरदार सेनाओं सहित मारे गये । इस धर्म विजय में काश्मीर, दरद (दर्दिस्तान), कंतित मिर्जापुर) क्षुद्रक (कुर्दिस्तान), मालव (मालवा), अंग (बिहार) बंग (बंगाल) कलिंग (उड़ीसा कालिपौंग) विदेह (मिथला) ताम्रलिप्त (तामलुक उड़ीसा) रक्षोवाह (खासिया पहाड़ी रक्सौज), वीतहोत्र (लिर्हुत), त्रिगर्त (असम), मार्तकावत (टिकारी), शिवि (सौदीर सिंध) आदि के बड़ी संख्या में राजाओं को निग्रहकर विध्वस्त कर दिया । इस महासमर में गणनानुसार परशुराम की सेनाओं ने 12 हजार मूर्धाभिषिक्त राजाओं के सिरच्छेद किये । इसके बाद फिर बचे छोटे लुके छिपे नरेशों नरपतियों को पकड़वाकर वे कुरूक्षेत्र ले गये । वहाँ 5 बड़े कुन्ड खुदवाकर उन्हें इन राजाओं के रूधिर से भरा तथा उनमें विजय स्नान किया जो परशुराम ह्द और स्यमंत पंचक कहलाये तथा नर मुंडों के पर्वत बनाक उन पर विजय ध्वजायें फहराई । इसके बाद परशुराम ने गया के चन्द्रपाद तीर्थ में पितरों पिंड के किए तब पिंतरों ने प्रकट हो उसे नर संहार का दोषी कहा और प्रायश्चित की आज्ञा दी । प्रायश्चित को तब परशुराम सिद्ध बन (सिधौली) गये, वहाँ सारे दिव्यायुध परशुअस्त्रशस्त्र भंडार रथ ध्वजा आदि को सरोवर में विसर्जित कर विशुद्ध सात्विक ब्रह्मा धर्म शिरोधार्य किया । फिर तीन बार समस्त भूण्डल का पृथ्वी प्रदक्षियायें की और महेन्द्र पर्वत मेंहदीपुर बालाजी) पर निवास कर नारायण मंत्र का जाप करते रहे । इस काल में उनने सारी जीती हुई पृथ्वी कश्यप वंशी धौम्य आदि तपस्वी माथुर बन्धुओं को दान कर दी । इस दान आयोजन को उन्होंने एक महाविशाल अश्वमेघ यज्ञ कररके सम्पत्र किया । भूमि दान करके वे दान की धरती जाकर तप करने लगे । यह आश्चर्य की बात है माथुर मुनीशोने अपने ऐसे महान अवतारी पराक्रमी विश्व विजयी पूर्वज को उपेक्षित करके अपने कुल गौरव की महान अवमानना की है । अभी भी समय है । इस त्रुटि को सुधारकर प्रभु परशुधर को अपना पूर्वज निर्धारित करना चाहिए ।<br />
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==भार्गवों की अल्लैं==<br />
भार्गव व माथुरों के आस्पद या अल्लैं 16 इस प्रकार है- <br />
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====1. सकना- ====<br />
ये शाक द्वीप से आये शक कुषाणों के जिनमें कनिष्क महाप्रतापी सम्राट राजा हुआ हैं कुल प्रोहित थे, उन्हें यज्ञयागादिक कराते थे । कुषाणों के सिक्कों पर उन्हें यज्ञकुण्ड में आहुति देते हुए दिखाया गया है । हूणों की तरह शक भी मूलत: भारतवासी शिव के कूष्मांड गण थे । उनका यज्ञ विधान में अपने स्थापन और यज्ञ उपकरणों का मन्त्रों द्वारा संस्थापन कर्म कुशांडी कहा जाता है । माढूगढ मांढा विजैपुर, माढ़लिया, मंडोवरा तथा कच्छ मांडवी इनके पूर्व और परवर्ती जनस्थान थे । कुषाणों का समय विक्रम संवत 57 से 257 विक्रम संवत तक है । ये प्राचीन रूद्र प्रजा विस्तार के कार्य में बाल्हीक (बलख याज्ञावल्वयपुर) से भारत में आये थे । कुजुल (कुशल) कैडफीसिस (स्कंधप्रिय) के बाद इनका विमतक्षम (भीम तक्षक) नाम का सर्दार चक्रवर्ती सम्राट था । 97 वि0 के इसके सोने के सिक्कों पर खरोष्टी में इसे महाराजस् राजाधिराजस् सर्वलोक ईश्वरस, माहेश्वरस् अंकित किया गया है । तथा शिव मूर्ति अंकित होने तथा महोश्वरम् पदवी से माहेश्वर रूद्र संप्रदाय का अनुयायी होना निश्चित होता है । माहेश्वरपुरी महेसर नर्मदा के तट पर ओंकारजी तीर्थ के समीप है । महेश्वरी वैश्य जाति भी अपने को महेश्वर शिव की सन्तान मानते हैं । ये अपने पूर्वजों को देव या पितादेव (पित्रीश्वर) कहते थे और उनकी पाषाण मूर्तियाँ बनवाकर देव कुल नाम के मन्दिरों में उनकी पूजा करते थे । ऐसे दो देवकुल मथुरा गोकर्ण शिव क्षेत्र में तथा ब्रज के मांट गाँव में इनने बनाये थे जिनकी मूर्तियाँ मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में है एवं मथुरा गौकर्ण टीले के गौकर्ण शिव की विशाल मूर्ति भी किसी कुषाण राजा की हीं मानी जाती है । हमारी राय में यह राजा की मूर्ति न होकर कुषाणों के इष्टदेव माहेश्वर रूद्र की मूर्ति है जो कुषाण शैली में उनके परमपूज्य देवता के रूप में स्थापित हुई थी । मथुरा के इटोकरी टीले से भी विम की विशालकाय सिंहासनारूढ मूर्ति मिली है । इसके उत्तरी साम्राज्य की राजधानी तुशारदेव तुखार बरवंशी थे तथा दक्षिणी साम्राज्य की राजधानी मथुरा में थी । इसके समय भारत से बहुमूल्य रत्नों, मसाले, मजीठ आदि के रंग, भारतीय वस्त्रों का व्यापार रोम देश तक होता था तथा वहाँ से स्वर्ण के रोमन सिक्के जो मथुरा के आस पास बड़े ढ़ेरों में मिले आते थे । तुषार खन्ड को इन्द्र ने असुरों से विजय किया था ऐसा भारतीय ग्रन्य बतलाते हैं ।<br />
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'''कुषाण कनिष्क सम्राट''' - 135-158 वि0 विम के बाद यह मथुरा का महाप्रतापी सम्राट था । इसने अश्वमेघ यज्ञ करके अपना संवत चलाया जो शलिवाहन शक के नाम से अभी भारत का राष्ट्रीय संवत है । संभवत: शालिवाहन इसी की उपाधि थी । पेशावर ( पिशाचपुर) तथा मथुरा इसकी राजधानी थी । इसका राज्यविस्तार शैलदेश (काशगर) कोकदेश (याश्कन्द) उत्तर कुरू स्थान (खोलन), विश्वकर्म कल्मद (थ्यानशान पर्वत), यरूक भृगु स्थल (तुर्फान) कूर्चखंड कारूषदेश (कूचार) तया अग्निदेश (करासर कलात) तक था । माथुरों और मथुरा वासियों का व्यापार भू मार्ग से रोम और इन सब देशों तक था जिसके बदले में अपार स्वर्ण मुद्रा राशि मथुरा में जमा हो गयी थी और यही सोने की मथुरा के रूप में प्रसिद्धि पाकर गजनवी आदि लुटेरों का विनाश लक्षबनी कनिष्क पर यद्यपि बौद्ध प्रभाव था । परन्तु उस काल में मथुरा में मथुरा शिल्प के विकास में बुद्ध की उत्कृष्ट मूर्तियाँ धर्म की मर्ति पूजा पद्धति में बनने और पुजने लगीं । वैदिक पौराणिक श्रौत स्मातं भारतीय धर्म के बड़े बड़े मंदिर तथा देव प्रतिमायें सुवर्णरजत औ पाषाण की बनाई गयीं जिनमें से चतुर्भुज विष्णु नारायण, शिवा दुर्गा, सूर्य, कार्ति केय आदि की पुरातन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । कुषाण् सकना माथुरों की शिष्यता में इन सब की पूजा करते थे । तथा राज्य से भूमि सम्पत्तियों तथा बहुमूल्य रत्न सुवर्ण आदि भेंट में बड़ी मात्रा में इन्हैं मिले थे ।<br />
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ब्रज इतिहास के लेखक श्री कृष्णदत्त वाजपेयी ने लिखा है- " इस समय राजनैतिक केन्द्र के साथ मथुरा धर्म कला साहित्य व्यापारिक भी महानतम केन्द्र बन गई थी । मथुरा के अधिपति माथुर दे उस समय सभी देव स्थानों में उनकी स्वर्ण राशियों सम्पत्तियों और भवनों के स्वामी थे । तथा अपार वैभवों से युक्त बौद्ध जैन स्तूपों विहारों संधारामों मठों देव कुलों बुद्ध जैन प्रतिमाओं के पूजा स्थानों भिक्षुओं यतियों के संरक्षक निर्देशक थे । माथुर महादेव के द्वारा महायान के सभी पूजा स्थानों पर इनका बर्चस्व था । और बुद्ध महायान धर्म को समस्त एशिया में फैलाने के प्रयासों में माथुरों का प्रधान योगदान था । कनिष्क की राजसभा के सभासद विद्वान पार्श्य चरक नागार्जुन संघरण आदि मथुरा आते रहे और माथुरों की पूजा अर्चना करते रहे । मथुरा दर्शन के लिये इस समय एक बहुत बड़ राजमार्ग (सड़क) पाटिलपुत्र (पटना) से सारनाथ् कौशांवी श्रावस्ती मथुरा और फिर यहाँ से पेशावर खोतान काशगर और चीन तक बनाया गया जिससे तीर्थयात्री और व्यापारी आते जाते थे ।<br />
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कनिष्क का मथुरा में शासन केन्द्र मंडी रामदास और धैरागपुरा के बीच के ऊँचे टीले पर था जहाँ मथुरा वासियों के स्वभाव के कारण उनके नाम कंस गली ककंस कौ बाग कंस कौ किलौ कंसलगोत्र नसवारे आदि बन गये । कनिष्क के उत्तराधिकारी वासिष्क वशिष्ठ समय 159 वि0 में मथुरा के भारद्वाज गोत्री समावेदी माथुर रूद्रल पुत्र द्रोणल से द्वादश रात्र सत्र मथुरा के समीप यमुना पार के ईशान रूद्रपुर (ईसावास्योपनिषद के रचना स्थापर) किया जो कुषाणों की शिव भक्ति का वैदिक संयोग ही था और अग्नि देव (माथुर कुलअग्नि उत्पादक देव0) की प्रीति से कुषाण राज्य की कल्याण कामना हेतु किया गया था ।<br />
इसके उत्तराधिकारी हुविष्क (हविष्ठ) ने भी माथुर ब्राह्माणों के भोजनार्थ अक्षयकोष राजवृत्ति का निर्धारण किया था । कुषांण वासुदेव 195 वि0 ने मथुरा के वर्तमान छामनी (केन्टुमेंट) क्षेत्र में जिलाधीश की वर्तमान कोठी के समीप प्राचनी वसुदेव तीर्थ पर वासुदेव कूप तथा चतुशाल तोरण युक्त देव मंडप (खुलामंदिर) का निर्माण कराया जो माथुरों द्वारा बगीची (देव उपवन) के रूप में मथुरा परिक्रमा के अन्तर्गत एक प्रमुख तीर्थ था और उसका उल्लेख प्राचीन वाराहपुराण के अन्तर्गत "मथुरा महात्म्य" में हुआ हैं । माथुरों के इस तीर्थ का जो आदि नारायण वासुदेव संकर्षण का स्थान था उसके कूप के एक अभिलिखित शिलापट्ट को केशव स्थान से जोड़ कर कृष्ण जन्म भूमि का लेख कह कर शिष्टोत्पादित भ्रान्ति का आधार बनाया गया है । सकना माथुरी अल्ल का परिज्ञान इस प्रकार महान गरिमामय रूप में इतिहास में उपलब्ध है ।<br />
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शकदेश शाकद्वीप को मनुपुत्र प्रियब्रत ने 8893 वि0 पू0 में पृथ्वी को सात द्वीपों में विभाजित कर अपने पुत्र मेधातिथि को दिया था । शाकद्वीप बहुत विस्तृत समस्त एशिया को घेरे है । सकना इस क्षेत्र की समस्त प्रजाओं के पुरोहित थे । <br />
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====2 गुगौलिया – ====<br />
ये भगवान श्री कृष्ण के साथ द्वारिका चले गये । वहाँ अभी भी इनका वंश मोजूद है । गोपाल सहस्त्रनाम में श्री कृष्ण को "गुग्गुली मार की शाखी बट: पिप्पलक: कृति:" कहा गया है । अर्थात् वे गूगल मरूआ साखृ वड और पीपल के बन लगाने वाले थे । गूगल राजस्थान की वनस्पति है गूगल के फल गूगली धूंधली कहे जाते हैं गोगा भगत, ओढने की धूधी घूंघटा राजस्थान की घघ्घर तट की संस्कृति है । ब्रज में गोव से गूगली गोलाकार पिंड जैसी बनाकर उनके बीच में छिद्र बना कर होली में मालायें बना कर होम की जाती है जिससे आसुरी फाल्गुनी यज्ञ में गूगल के फलों की हवि देना तथा उस समय भी प्रजा का गूगल के फलों की माला धारण करने की श्रग्डा र परिपाटी ज्ञात होती है । ये गूगली अनाज को कीड़ों से बचा कर उसकी सुरक्षा के लिये अन्न के कोठों में रक्खी जाती है । गूगल के प्रयोग आयुर्वेद में योगराज गूगल आदि के रूप में अनेक रूपों में हैं । इससे ज्ञात होता है कि गूगली माथुर ब्राह्माण भृगु आसुरी पुरोहितों के रूप में अभिचार कर्मों में नरबलि के साथ गूगली फलों का होम नर मांस जलने की दुर्गध से वायुमंडल को अदूषित रखने के लिये किया करते थे, तथा वे गूगल फलों की माला धारण करने के कारण गूगली कहे जो लगे । माथुरों में पुंसवन कर्म में गूलरिया की माला गांभणी को पहनाई जाती है । मालाधारी माथुरों की शाखा भी है । गूलर पीपल बट आम्र निंव पंच पल्लव पवित्र वृक्ष हैं जो देवों पितरों की प्रसन्नता के लिये लगाये जाते है । <br />
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====3. तरं- ====<br />
नक्षत्र विद्या के ज्ञाता अथर्वणगण रात्रियों में जिन कृतुयज्ञों का आयोजन करते थे वे " नक्त" कहे जाते थे । जो अब जागरण के यप में दुर्गा उपासना में हैं । असुरों के शवरात(शिवरात्रि) मुहर्रम, रोजे, आदि रात्रि के ही समारोह हैं । मथुरा में नक्तीटेकरा नाम की एक प्राचीन बस्ती है जो कभी रात्रि देवों का आवास रहा होगा और भृगुवंशी वहाँ अपने यजमानों को नक्त याग कराकर हूर गिलमा जित्र फरिश्तों को प्रसत्र करने के प्रयासों के कारण नख्तर नक्षत्र विद् कहलाये होंगे ।<br />
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====4. धिरैरी- ====<br />
मथुरा के समीप धौरैरा भक्त ध्रुव की राजधानी का स्थान है तथा यहीं अटल्ला चौकी अटलबन उनके विहार का उपवन है । इस ध्रुवपुरी के वासी ही धिरैरी या धुरैरीया माथुर है । धौलेडा पर्वत नन्द गाँव के समीप तथा धौर्रा पत्थर की श्वेत पाषाण की खानैं आगरा भरतपुर के मध्य के पर्वतों में हैं ।<br />
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====5. सोतिया –====<br />
वैदिक श्रुतियों का सरस्वर पाठ और गान करने वाले वेदजश्रौतधर्मा ब्राह्मण श्रोतिय सोतिया या सोती कहे गये हैं । हमारा सनातन भारतीय धर्म श्रुति स्मृति पुराण प्रतिपादक हैं । उसमें श्रौतसंम्प्रदाय सोती, स्मृतिधर्मा स्मातं और पुराण धर्मा पौराणिक व्यास संज्ञाओं से प्रतिष्ठित हैं ।<br />
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====6. गहवारिया- ====<br />
ये वर्तमान में घरवारी भी कहे जाते हैं । वैदिक अग्निवंश का एक कुल गार्हपत्य अग्नि है । यज्ञ मण्डपों की पाकशाला में पत्ति शाला की ऋषि पत्नियाँ जो पाक विधान से चरू और पुरोडाशों का निर्माण करती थीं उनको कुशलता का निदेशन और प्रशिक्षण देने वाला अग्नि देवता गृहपति कहा जाता था । बरसाने का गहवर बन गहरवार क्षत्रिय गहलोत कायस्थ, घेबरपाक, इस देव की प्रजा परम्परायें है । <br />
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====7. मकना- ====<br />
मकनपुर ब्रज के निवासी मकना नाम धारी हैं । मकना हाथी मकना भैंसा ब्रज में नाटे आकर वाले जीव को कहा जाता है । मक्खन या लौनी नवनीत का संग्रह कर उससे आज्य घृत तैयार कर यज्ञ कर्मों हेतु उसकी आपूर्ति करने वाले मखनियाँ मकनियाँ का मखन मकनाँ वहे जाते थे ।<br />
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====8. कन्हैरे- ====<br />
कित्ररगान कान्हड़ा कन्हरी गायक कित्रर कित्रौर प्रदेश के पुरोहित कन्हैरे माथुर हैं । विश्व व्याप्त कित्रर संस्कृति के स्थान कन्हैरी की गुफा ये बंवर्ह में, कन्हैर गाँव महाराष्ट्र में, कत्रड़ प्रदेश कत्रड़ी भाषा दक्षिण भारत में,कनाड़ा कैनेडी, कानौड़ राजस्थान में हैं जो कित्रर गणों के लोकप्रिय कलादक्ष और महाविस्तार के सूचक हैं । माथुरों में मंगल कार्यों में 'कन्हरी' नाम के प्राचीन गीतों के साथ शुभ कार्यों का आरम्भ होता है तथा गान कुशल सुरीले कन्ठ युक्त होने से श्री कृष्ण को कान्हा कन्हैया कानूड़ा कहा गया है । वे इसी कान्हणार के गायक व्यूह के सरस संगीत निर्देशक लोकमान्य गायक थे ।<br />
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====9. दीक्षित- ====<br />
देव यज्ञों में मंत्रदीक्षा से युक्त गुरू परम्परा प्रतिपादित श्रेष्ठ ब्राह्मण ही विशेष समादर पाते थे । भगवान नील बाराहने सर्व प्रथम अपने यज्ञ में "नाना दीक्षायुत" अनेक देव मन्त्रों की उपासना दीक्षा प्रदान कर उन्हें दीक्षित पद दिया था ।<br />
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====10. सांडिल्य-====<br />
ये सांडिल्य भक्ति सूत्र ग्रंथ के कर्ता महर्षिशांडिल्य के वंशधर हैं । ये नन्द परिवार के गोपवंश के पूज्य पुरोहित होने से श्रीकृष्ण बलराम नन्द यशोदा वृषभान राधा सुदामा श्री दामा तोष आदि कृष्ण सखाओं ललिता विशाखा गोपियों के वंश के पुरोहित रहे थे । ब्रज के गोप गोपी गोपाल परिवारों की कुशल कल्याण कामना के लिए विष्णु की नारायणी भक्ति के ये मन्त्रदाता आचार्य थे । ब्रज में सांडरा शिखर पर्वत पर इनका निवास था । अग्नि देव का अपना गोत्र सांडिल्य गौत्र है जो इनके देव पूजित और पुरातन कालीन होने का निर्धारण है । सांड़िया नाम के बड़े बैलों पर तथा वलिष्ट ऊँटों पर सबारी करके घूमने वाले ये मरूधन्व देश के पुरोहित भी थे । जोधपुर नगर में सांडा की पौर नाम से एक मुहल्ला है । सांडू महाराष्ट्र में हैं । सैंडों पहलवान संदल चन्दन, शंढनपुंसकों के नाम भी हैं । शांडिल्य आत्मा परमात्मा तत्व दर्शन के महान द्दष्टा थे । शांडिल्य भारद्वाज ऋषि के मुख थे । शांडिल्य ने बैलगाड़ी शकटी के दान को तथा सुवर्णदान को श्रेष्ठ दान कहा है । इनके रचे ग्रन्थ शांडिल्य गृह्म सूत्र, शांडिल्य धर्म सूत्र, शांडिल्य दीपिका शांडिल्य गृह्म सूत्र हैं । शांडिल्य वैदिक यज्ञों में 'अग्नि चयन विद्या के आचार्य थे यज्ञ के आरम्भ में अग्नि उत्पादन और उसका स्थापन करते थे । ये कौशिक विश्वामित्र तथा गौतम के शिष्य होने से प्राचीन ऋषि थे किन्तु माथुर इनके संपर्क में श्री कृष्णकाल 3000 वि0 में आये और शांडिल्य के वंशजों के रूप में नन्दादि गोपों के पुरोहित रहे और भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार किया । सांडरा पर्वत शिखर का वन वरसाने की पर्वत माला में हैं । विद्वज्जन देखें कि इस प्रकार के शोध विमर्ष से माथुरों की अल्ल(आस्पद) कितनी महत्वपूर्ण और पुरातन हैं ।<br />
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====11. मरौठिया(मंढौरिया)- ====<br />
आदति पुत्र इन्द्र के भाई 49 मरूत्तों के राष्ट्र मरूधन्व(मारवाड़) में उनकी राजधानी मारौठ वासी मरूत प्रजा राठौर राठी दक्षिण के मराठ वाड़ा के मारूती मरैठों के प्रोहित होने से ये मारूतीय मरौठिया कहलाये । रामभक्त हनुमान मरूत वायु पुत्र थे । मारौठिया रूइटिया माहेश्वरी वैश्वयों में भी हैं । मथुरा में मारूगली मारूओं का महल, नृसिंह लीला का मारू बाजा और राग मारू माथुरों से ही सम्बिन्धित हैं । मरूद्गण दक्ष यज्ञ के समय 9358 वि0पू0 में यज्ञ रक्षा हेतु आये थे । मंडोर का किला प्रसिद्ध है मंढौरिया मंडोरिया संभव है भंडोर के किसी राजा से सम्मानित होकर वहाँ भी रहे हैं । मीठे वर्ग में कुछ इनसे पृथक अल्लैं है जो स्थान वाचक बहुत परवर्ती काल की मथुरा से जाने के बाद की हैं ये हैं –<br />
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1. गुदौआ- लीला गुदना गोदने वाले लिलहारों के गांव गढूमरा ब्रज में निवास ।<br /><br />
2. कोटा- कोटा छिरौरा ब्रज के निवासी ।<br /><br />
3. रीढा- नन्द गाँव के समीप अरिष्टपुर रीठौरा अथवा रीढ़ा दाऊजी स्थानों के निवासी ।<br /><br />
4. गुड़वा- गरूड़ा ह्रय क्षेत्र गिड़ोह के निवासी ।<br /><br />
5. च्यौल्या(चावला)-चंबल नदी तट के चेंवरी सुरभी सुरैगायों के पालक सुरभी गौर इन्द्र के गोष्ठ में थीं तथा श्री कृष्ण को सुरभी कौ पय पान अति प्रिय था, सुरभी की पूँछ से देवों के चँवर बनाये जाते थे । इस चर्मणवती क्षेत्र पर प्राचीन काल में 4523 विपू में पुरूवंशी महादानी महाराज रंतिदेव का राज्य था, जो मथुरा में आश्रम तथा नगर (रती कौ नगरा) बसाकर विष्णु भक्ति में तल्लीन रहते थे । चँवर विक्रेता चावला पंजाब में भी एक जाति हैं ।<br /><br />
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==भारद्वाज गोत्र==<br />
भारद्वाज सामवेदी हैं । इनका समय 4814 वि0 है । भारद्वाज वेदमंत्र कर्त्ता ऋषि हैं । ऋग्वेद का छटा मंडल इनके तथा इनके वंशज ऋषियों के मन्त्रों से युक्त है । भारद्वाज ब्राह्मण से क्षत्रिय तथा ऋषि बने । कुत्स परिवारी आंगिरस बृहस्पति देवों के गुरू ने अपने बड़े भाई उतथ्य की पत्नि ममता में इन्हें उत्पन्न किया तब यह विवाद उठा इनका पालन कौन करे तथा ये किस के वंश में रहैं तब यह निश्चय हुआ कि बालक बृहस्पति के कुल में रहेगा तथा इसका पालन दोनों भाई मिलकर करैंगे तथा इसका नाम भी भारद्वाज (भरित द्वाज दोनों द्वारा भरण पोषण् प्राप्त) रहेंगा । साझेदारी की सम्पत्ति होने के बालक के पालन में झमेला देख वैशाली के चक्रवर्ती नरेश मरूत चक्रवर्ती ने इसे अपने संरक्षण् में रक्खा । इसी समय पाँचाल सम्राट दुष्यंत शकुन्तला(4950 वि0पू0) के पुत्र भरतखंड सम्राट महाराज भरत(4882 वि0) के द्दढ निश्चय स्वरूप उनके सभी पुत्र उनकी रानियों द्वारा मार डाले गये थे । राजा ने यह निश्चय किया था कि जो पुत्र मेरे और मेरे पितादि पूर्वजों के गुणों से सम्पन्न महाप्रतापी नहीं होगा उसे मैं अपने घर में नहीं रक्खूँगा । राजा भरत इस प्रकार पुत्र शून्य था । यह देख सम्राट मरूत चक्रवर्ती ने बृहस्पति के देवकुल आचार्य से उत्पन्न विवाद ग्रस्त बालक भरद्वाज को सर्व विद्या और तेजस्विता सम्पन्न होनहार यशस्वी बालक था अग्डीकार करने का परामर्श देकर बालक भारद्वाज को उन्हैं दे दिया और तब भरद्वाज पुरूवंशी सम्राट बने । भारद्वाज ने भरतवंश की प्रतिष्ठा खूब अच्छी तरह बढ़ायी । पूर्व ऋषम पुत्र भरत के भरतवर्ष में इनने अपना क्षेत्र भरतखंड नाम युक्त किया और उसे बल विद्या ऐश्वर्य यज्ञादि से तथा शास्त्र समृद्धि से सम्पन्न और विश्व विख्यात बनाया ।<br />
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भरद्वाज राम भक्त थे । वे महर्षि बाल्मीकि के शिष्य थे । ये प्रयाग के निकट अपने श्वसुर गृह के समीप ही एक आश्रम बनाकर रामोपासना करते थे । इनकी पत्नि पैठीनसी प्रयाग के पीहन नगर के पिहानी वंश की पुत्री थीं । इस पीहनपुर को पुरातत्वाभिमानी भ्रान्त विद्वज्जनों ने पुरूरबा की प्रतिष्ठानपुरी मानकर महाभ्रान्ति का एक तानाबाना बुना है ।<br />
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पैठीनस आग्निदेव की एक शाखा का भी गोत्र है । महर्षि प्राचेतस(चटर्जी) बाल्मीकि ने अपना रामायण ग्रन्थ बनाकर सर्व प्रथम प्रयाग में ही भारद्वाज पत्नि पैठीनसी को श्रवण कराया था । क्रौचवध की घटना के समय भी भारद्वाज बाल्मीकि के समीप थे । इनने महर्षि याज्ञवल्क्य से भी विद्या अध्ययन की थी और याज्ञवल्क्य के वलख बुखारा में आश्रम बना कर म्लेच्छ (विलोम उल्टी बामगति वाली भाषा अरबी फारसी पुश्तो भाषा) पढ़ाने की शिक्षा पद्धति का नि:संकोच होकर विरोध किया ।<br />
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भारद्वाज मुनि ने दंडकारण्य जाते समय भगवान राम का सत्कार किया भरत जब रामजी को लौटाने गये तब उनको भी रामजी का पता दिया तथा जब श्रीराम प्रभु लंका विजय कर लौटे तब उन्होंने सीता को भारद्वाज आश्रम दिखाया और मुनि के दर्शन को आये । भरद्वाज सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये देवराजम इन्द्र से बहुत लंबी आयु मांगी । इन्द्र ने इन्है। 100-100 वर्षों की आयु तीन वार प्रदान की परन्तु वेदध्ययन पूरा न हुआ । इन्द्र से इनने 100 वर्ष का एक और आयु का मांगा, वे परिश्रम से जर्जर और रोग ग्रस्त हो गये थे तब इन्द्र ने इन्हैं वेदविद्या ग्रन्थों के तीन बड़े भाग दिखलाये जो प्रत्येक महाविशाल पर्वताकार थे उनमें से 1 कण उठाकर इन्द्र ने कहा- 'महामान्य ! आपने तीन जन्म श्रम करके इतना ही ज्ञान प्राप्त कर सकोगे, मेरी बात मानो मेरी शरण में आओ मेरे उपदेशानुसार 'सावित्र्याग्नि चयन कर गायत्री होम' करो तब स्वर्ग की सहज प्राप्तिकर सकोगे' भरद्वाज ने यही किया और स्वर्ग की प्राप्ति की । आग्रहायण काल में उत्तराण आरंभकाल में आग्नि स्थापना द्वारा यह 'सावित्र्याग्नि चयन' यज्ञ किया जाता है ।<br />
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भारद्वाज ने काशी के राजा दिवोदास को पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे उसे प्रतर्दन नाम का प्रतापी पुत्र हुआ जिसने तालजंघ और हैह्यों से अपने पूर्वजों की पराजय का बदला लिया ।<br />
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ऋग्वेद के कथन से ज्ञात होता है कि भारद्वाज पुरू ने पंथ नाम के पर्वतीय नरेश के राज पुरोहित रह कर उसे यज्ञ कराया था । पंत हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र के ब्राह्मण होते हैं । इनमें गोविंदवल्लभपंत भारत सरकार के राज प्रतिष्ठित मन्त्री रहे हैं । पन्त अभी भी मथुरा के माथुरों के यजमान हैं । <br />
महाभारतकालीन भारद्वाज के घृताची नाम की अप्सरा से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था जो भारद्वाज के मित्र पृषत नरेश के मित्र थे । पृषत के पुत्र महाराज द्रुपद से आचार्य द्रोण की घनिष्ठ मित्रता थी जो बाद में घोर शत्रुता में बदल गयी और अर्जुन द्वारा द्रुपद राज्य पुचाल देश का आधा भाग दक्षिण पांचाल जीत कर इन्हें प्रदान किया गया । भारद्वाज अनेक विद्याओं के महान ज्ञाता वेदकर्ता और ग्रन्थों के प्रणेता थे । ऋग्वेद के छठे मण्डल के ये द्दष्टा हैं । इसमें इनके अग्नि देव की आराधना के मन्त्र हैं । ये व्याकरणशास्त्र के प्राचीन आचार्यों में से थे तथा इनके 'भारद्वाजीय व्याकरण' ग्रन्थ के आधार पर बनाकर व्याकरणकार पणिनिने अपने व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यात्री की रचना की थी । ऋक प्रतिशाख्य में इन्हैं व्याकरण विद्या का महान आचार्य कहा गया है । जिन्होंने इन्द्रदेवता को गुरू बनाकर इससे यह विद्या पायी थी । ये सामवेद के महा गायक(महार्चिक) होने से सामवेदौ परम्परा के आचार्य माने जाते थे । यह विद्या इन्हें पाराशर के शिष्य पारार्श्य कौथुम से प्राप्त थी जो इनके वंशजों की वेद शाखा प्रसिद्ध है । भगवान श्री कृष्ण ने भी इसी माथुर वंश से साम गान की दीक्षा प्राप्त कर 'सामगान परायण्' विरूद पाया था तथा स्वयं अपनी गीता में अर्जुन से 'वेदानां साम वेदोस्मि' कहकर गान विद्या का मान बढ़ाया था । भारद्वाज श्रौत सूत्र, भारद्वाज धर्म सूत्र, भारद्वाज स्मृति, भारद्वाजीय व्याकर, भारद्वाज व्यवहार, शास्त्र(विवाद मुकदमों का निर्णय), आदि इनके ग्रन्थ हैं किन्तु सबसे महान इनका 'भारद्वाज शिल्प शास्त्र' हैं जिसके 'वैमानिक तंत्र' नाम के अधिकरण में विमान विद्या(हवाई जहाज रचना और संचालन) का वर्णन हैं ।इस विलक्षण ग्रन्थ में आज से 6856 वर्ष अर्थात् 4814 विक्रम संवत पूर्व की देव विमानविद्या वायुयानों का निर्माण, यन्त्र रचना, उनकी उड़ानों की गतियों के भेद आकाश में वायु के विभिन्न स्तरों में उनके प्रवेश और विचरण आदि की दुर्लभ जानकारी दी गई है जो आज के युग की वायु सेवाओं को भी पूर्णत: उपलब्ध नहीं है । भारद्वाज चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत भरत के उत्तराधिकारी प्रतापी सम्राट थे ।<br />
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भारद्वाजों के अनेक आश्रम थे- मथुरा में भारद्वाजपुर(भारगली) भारद्वाज नगर(बाजनौं गाँव), भारद्वाज तीर्थ मथुरा परिक्रमा में, हैं ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_11&diff=56255चतुर्वेदी इतिहास 112010-04-23T07:18:58Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
स्वायंभूमनु के यज्ञ में 9000 वि0पू0 में इनने देव श्रेष्ठता की परीक्षा हेतु विष्णु के ह्दय पर पादइ प्रहार किया विष्णु देव को 10 अवतार धारण का शाप दिया तथा प्रभु आदिनारयण (गतश्रम नारायण) विष्णु की विनय से प्रभावित होकर ऋषियों भृगुओं के यजमान ब्रहा ,शिवलिंग मूर्ति को अपूज्य घोषित किया । आदि आसुरी लक्ष्मी 'श्री देवी' (श्री कुंड ब्रज) इनकी ही पूत्री थी जो देक्ष की पूत्री "ख्याति" से उत्पन्न थी । इसी श्री नाम की आसुरी लक्ष्मी से वल उन्माद धाता विधाता पुत्र हुए तथा इसी वंश में मुनिवर मार्कडेय मृत्यु विजयी हुए । भृगु ने ही इन्द्रासन आरूढ नहुष को सर्पयोनि प्राप्त होने का शाप अगस्त की जटा में से (सिर पर बैठकर) दिया । भार्गव वंशी आसुरों को यज्ञ कराते थे । इन यज्ञों में इन्द्रदेव के न जाने पर इनने देवों से बैर बढ़ाया । बली के इन्द्रासन निर्णायक सौवें यज्ञ (चरण पहाड़ी ब्रज में) में ये शुक्राचार्य प्रधान आचार्य (काजीमुल्ला) थे और वामन विष्णु के दान में भाँजी मारने पर आँख फुड़वाई तथा यज्ञ भंग होने पर गौड़ देश (वंगालय) में जाकर बसे । भुगुवंशी त्वष्टार से ही त्रिशिरा व्रत्तासुर विश्वरूप प्रोहित और विश्वकर्मा यमुना जी केवे नाना (मातामह) उत्पन्न हुए । इसी वंश में दधीच ने असुरों को अथर्ववेद विद्या देकर इन्द्र द्वारा अपनी अस्थि (मेफुदंड) गंवाकर इन्द्र का वज्र बनाये जाने का श्रेय प्राप्त किया । दधीच (दाहिमां) का पुत्र सारस्वत भी असुर पौरोहित्य के कारण श्वेतद्वीप (स्विटजरलैड स्बीडेन) स्वात कलात हिमाखय शीर्ष, पंजाब (पंचनद) मे, राजस्थान मरूधन्य ब्रह्रार्षि देश से जाकर बसे । इसी वंश में अधर्मी बेन राजा, परमधार्मिक प्रतापी पृथु महाराज दीर्ध कथा सत्रों के आयोजक शौनक (सौनकपर सीखटीला तथा विहार में सोनभद्र तट वासी) चाणक्य कौटिल्यय हुए हैं । माथुर चतुर्वेदी समूह की आश्वलायन शाखा के प्रवर्तक महर्षि आश्वलायन इस शौनक के ही शिष्य थे जिनके आश्वलायन गृह्रा सूत्र में यज्ञविधान के भेदाभेद, दर्शपौर्ण मास, अग्न्याधान, पुनराधान, आग्रहायण, कामेष्टि , पशुभाग, चातुर्मास, सौत्रमणि, अग्निष्ठोम, सप्तसोम, अश्वमेध, राजसूय, आदि की दुर्लभ कर्मकाँड विद्या का विवेचन हैं, तथा सत्र याग सवन होम होत्र एवं श्राद्ध तर्पण आदि का ब्राह्मण कर्म का सभ्यक् निर्देशन है । तर्पण विधान में ऋगवेद मंडलक्रम से ऋषियों की नामावलि भी इनने दी हैं ।<br />
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भृगु महर्षि के रचित ग्रंथ भृगु संहिता (ज्योतिष), भृगु गीता(तत्वज्ञान), भृगुवल्ली(कर्मकांड) भृगु सिद्धांत, भृगु वास्तु शास्त्र आदि हैं । आंगिरस अथर्वा के अथर्वण वेद का ये आसुर यज्ञों में प्रयोग करते थे परन्तु भृग्वांगिरस के एकीकरण सिद्धांतानुसार ये अपने कुल परम्परा प्रयोगों में माथुरों में स्वीकृति पाने हेतु उनके प्रधानवेद ऋगवेद को ही प्रयोग में लाकर ये स्वयं ऋग्वेदी बन गये थे । भार्गव माथुर पंच प्रवरी हैं । भार्गव च्यवन आप्नुवान और्व जामदान्य इनके पांच प्रवर हैं जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- <br />
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'''1. भार्गव'''- भृगु महर्षि के ज्येष्ठ पद के अधिकारी । इनका वंश अन्य ब्राह्मणों में भी है जो माथुर समूह से दूर जाकर परशुराम के समय भृगुकक्ष भड़ौच आदि में नर्मदा तट जाकर बस गये थे । भरौच शाखा माथुरों में है, तथा भरूची गो0 गोकुलनाथ के पंथ में भी एक शाखा के रूप हैं । मथुरा जनपद में भृगुओं का आश्रम भृगुतंग पर्वत गिरिराज गोवर्धन के एक भाग में भगौंसा भृगुओं भृगुस्थल के नाम से प्रसिद्ध है ।<br />
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'''2. च्यवन'''- यह भृगु पत्नी पुलोमा से 6285 वि0पू0 में पुलोमा को जब गर्भ था उसे पुलोमन (पुलिंद पोलैड वासी) हरण कर ले गया उसके घर च्यवन उत्पन्न हुए और उनने अपने तेज से पुलोमन को भस्म कर दिया, तब पुलोमा फिर लौटकर भृगु के घर आयी । च्यवन महातपस्वी थे, जब से च्यवन वन ( काबुल चमन का बाग) में तपकर रहे थे तब उनके शरीर पर मिट्टी का टभ्ला जम गया केवल दो नेत्रों की ज्वाला के 2 छिद्र उसमें थे । देवयोग से सरैया गुजरात के सम्राट यर्थाति 6307 वि0पू0 की पुत्री सुकन्या वहां वन विचरण करती हुई अपने पिता की सेना शिबिर से चल कर वहाँ पहुंची और विस्मय से मिट्टी के उस टीले में चमकते दो छिद्रों में कुशतृण से बेधन किया जिससे रक्त की धारा निकली और ऋषि अंधे हो गये । भयभीत शर्याति इनसे क्षमा याचना को आया और अपनी कन्या सुकन्या इन्हें दे दी । सूर्य उपासना से इनके नेत्र अश्विनी कुमारों (अस्पिन स्पेनिशों) ने ठीक किये । सुकन्या अपनेबृद्ध पति की जो अधिक उच्च स्वरों में बेदपाठ करने के कारण कास क्षय रोग से ग्रस्त होकर अकाल बृद्ध हो गये थे, उनकी सेवा कर रही थी । उसके रूप को देख अश्विनी कुमार मोहित हुए, तब उन्हें अनेक च्यवनों के रूप सर्वत्र दिखलाकर इस कार्य से विरत और प्रभावित किया । अश्विनी कुमारों ने तब च्यवसप्राश सेवन कराकर च्यवन को पुन: तरूण बना दिया ।<br />
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च्यवन ने इस उपकार के बदले अपने श्वसुर शर्याति से एक विशाल यज्ञ कराया और उसमें अश्विनी कुमारों( इस्पहान से आये) वैद्यों ( दास्त्र दसौरे वैश्य तथा नासत्य सतिये जर्राहों) को यज्ञ भाग देकर यज्ञ में देवों के साथ भागीदार बनाने की तैयारी की । इसे देख इन्द्र ने इन पर बज्र चलाने को उठाया तभी च्यवन ने उसकी वज्र सहित भुजा स्तंभित कर दी । च्यवन ने इन्द्र पराजय को मददैत्य (मैं शराब अतितीनिर्मामा) उत्पन्न किये जिनसे इन्द्रहतप्रभ होकर शरण में आया और अश्विनों को तब यज्ञ भाग दिया गया । च्यवन तब अपने जन्म स्थान मथुरा में च्यवनाश्रम चूनाकंकड पर रहे थे तथा अश्विनों को संज्ञा माता से जन्म लेने का स्थान अश्विकुंड ( असिकुंड तीर्थ) यहीं था, जहां यज्ञ भाग पाकर वे देवकोटि में प्रविष्ट हुए ।<br />
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विश्वामित्र के पितामह कुशिक की कठिन सेवा परिक्षा लेकर उसे उसके कुल में महापराक्रमी क्षत्रिय धर्मा वंशज(परशुराम) के उत्पन्न होने पर वर दिया । च्यवन के धर्मशास्त्र च्यवन स्मृति में गोदान का महात्म तथा श्वान, चांडाल मृतशव प्रेत, चिताधूम, मद्यपान, मद्यपात्र के स्पर्श होने पर प्रायश्चि का विधान है । गोवध के प्रायश्चित कर्म से देह शुद्धि का विधान इनका प्रवर्तित है । इन्होंने भास्कर संहिता में सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त "जीवदान तंत्र" भी रचा है । हे माद्री और माधव ने धर्म निर्णय में इनके उद्धरण लिये हैं ।<br />
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'''3. आप्नुवान'''- ये च्यवन के सुकन्या से उत्पन्न पुत्र थे । इनका समय 6228 वि0पू0 है । दधीच इनहीं के भाई थे जो सारस्वत वंश के आदि जनक थे । इनका दूसरा नाम आत्मवान भी कहा गया है । इनकी नाहुषी से और्व हुए थे । इनका नाम और्म या अर्म भी था जिनसे अरमीनियन, आर्मी, ऊमर वैश्य तथा ऊमरी रामपुर ब्रज, उल्मां आदि से इनका पैतृक संम्बन्ध सूचित होता है । ये परम तेजस्वी प्रजा संवर्धक लोकधर्म विस्तारक ज्ञानी पुरूष थे ।<br />
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'''4. और्व'''- ये आप्नुवान वंशज भार्गव की नाहुषी पत्नी से उत्पन्न पुत्र थे । समय 5817 वि0पू0 है । ये महाउग्रकर्मा थे । ब्रज में माथुरों के विस्तारकाल में इनका आश्रम ओवौ बलराम घाट पर था । उदई जालौन में इनके ज्वालाग्नि प्रयोग का आविष्कार क्षेत्र और्वाग्निपुर उरई और ज्वालादहनपुर जालौन अभी भी अपने बारूदी और आतिशबाजी को कुशलता के लिये विख्यात है । ओरा प्रकाश के दीप्तिमंढ़ल का भी नाम है । लोकमान्य तिलक ने अपने आयों के मूल देश के निधरिण के ग्रंथ को "औरायन" ही नाम दिया है तथा पश्चिम में पूर्व की भारत विद्या को "ओरीयेन्ट" ही कहते हैं, जो और्व माथुर द्वारा स्थापित भारत की गरिमा का विश्वव्यापी मानदंड है । और्वकुल का वर्णन ब्राह्माण ग्रंथों में ऋग्वेद में 8-10-2-4 पर, तैत्तरेय संहिता 7-1-8-1, पंच ब्रह्माण 21-10-6, विष्णुधर्म 1-32 तथा महाभारत अनु0 56 आदि में प्राप्त है । हैहयों 5763 वि0पू0 के ये भार्गव कुल प्रोहित थे तथा कृतवीर्य ने इन्हें यज्ञों में बहुत सा धन दिया । समय पड़ने पर जब हैहयों ने इनसे द्वेष मान इन्हें बहुत त्रास दिया । भार्गवों ने इन्हैं नष्ट कर कुल संहार किया तब ये उत्पन्न और्वा कहलाये । और्व के तेज से सभी हैहय नेत्र हीन हो गये और इस चमत्कार से आर्त होकर उन्होंने बालक और्व की स्तुति की तब उनकी दृष्टि उन्हें प्राप्त हुई । इनने हैहयों का संहार करने की शक्ति प्राप्त करने को तप किया तो इनके पितरों ने इन्हें बताया कि हमारे पूर्व कर्मों से हमारा संहार ईश्वर के न्याय विधान से हुआ है अत: तुम क्रोध धारण कर ब्रह्मतेज का क्षय मत करो, तब इनने अपनी क्रोध अग्नि समुद्र में डाल दी जो बड़वानल(समुद्री मिट्टी का तेल) बन गयी । इनके आश्रम (ओवौ ब्रज) में सगर का जन्म हुआ जिसे इनने अस्त्र शस्त्रों की उच्चकोटि की शिक्षा के साथ भगवान राम का वह अग्न्यास्त्र भी दिया । जिससे उनने समुद्र को सुखाने के लिये धनुष पर चढाया था और समुद्र भयभीत हो शरणागत हुआ था । अयोध्या के राज्यअभिषेक के बाद इनने सगर को विश्व विजय के लिये खास कर हैहय संहार के लिये अश्वमेघ यज्ञ कराया । सगर के साथ पृथ्वी विजय के कारण इनके नाम पर पृथ्वी का नाम उर्वी, हुआ तथा अर्व अरबदेश, अरवली पर्वत, अल्बर, अड़बड़ राजस्थान, अल्वानियां, उर्वशी अप्सरा खंड उजेवकस्तान (और्वक) ओमान, उराव जनजाति, आदि ख्याति में आये । और्व को महातेजस्वी विष्णु का अवतार तथा प्रलयकर्ता विष्णु की मुखज्बाला, शंकर का तृतीय नेत्र में इसका सदा निवास कहा गया है । और्व की पुत्री धौम्य के पुत्र मंदार को व्याही गयी जो भुशुंडी शिवगण का उपहास करने पर पति पत्नी मंदार और शमी वृक्ष बने तथा और्व द्वारा मंदार मूल (आक की जड़) से गणेश मूर्ति बना कर उसकीं पूजा से पुन: अपने रूप में आये ।<br />
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'''5. जामदग्न्य'''-ये जमदग्नि के पुत्र परशुराम हैं । इनका जन्म समय 5142 वि0पू0 वैशाख शुक्ल 3 है । भृगुवंशी होने के कारण अपने वंशनुगत गुण क्रोधमूर्ति व्यक्तित्व के ये साक्षात रूप थे । और्बाग्नि तथा पिता यमदाहक अग्नि यमदग्नि के पुत्र होने से ये भी हैहयादिं क्षत्रियों के लिये कालाग्नि ही थे । इनने 21 आक्रमणों में ब्रह्मणद्वेषी हैहयों और तालजंघ आदि उनके गण समूहों को भारत से लेकर एशिया तक ध्वस्त किया । एशिया में पर्शयन पर्शुधारी गणों का, मुशलघारी मुसलिमों का, शूलधारी सुलतानों सुलेमानों का, वज्रधारी वजीरियों का, पाशधर पाशाओं का, तालजंघ टार्जनों का तथा भारत में पंच तालजंघ वीतिहोत्र (वितिया बिहार)शर्यात आनर्त (सरैया आणद डाकौर के डांकी डाकिन), भोज (भोजपुरी भाषा क्षेत्र के भेजक तथा भुज्ज कच्छ के कच्छी लुहाणा), अवंती के (उज्जैन मालवा के परमार, गुहिल, गर्दभिल्ल, रतलाम, आदि) तुंडिकेर (केरल, कर्नाटक, महिषासुर मैसूर, माहिष्मंती नर्मदा तट के, कोलपुर कोलापुर, आदि) देव द्विषों को दंडित किया । इन सबका पराभव करने के लिये परशुराम ने अपने 5 भाइयों तथा समस्त भृगुवंशी जनों को साथ लेकर नर्मदा के समुद्र समीप के प्रदेश में ब्रज से जाकर भृगुकच्छ भरौंच नगर की स्थापना की तथा वहां के आसपास के क्षत्रियों को यजमान बनाकर उनके सहयोग से विशाल भार्गवी परशुधारी सेना का संगठन कर सभी कार्तवीर्य अर्जुन पक्षियों का क्रूरदमन किया । भार्गव ब्राह्मण अभी गुजरात सौराष्ट्र क्षेत्र में अधिक संख्या में बसे हैं । परशुराम शूलपाणि रूद्र के उपासक थे जिनसे इन्हें धनुर्वेद, अनेक अस्त्र शस्त्रों की विद्या मंत्रायुध विद्यायें प्राप्त थीं । इनने पितृभक्त का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करने को पिता की आज्ञा से अपनी की आज्ञा से अपनी ही माता रेणुका का वध किया जिसे फिर जीवित कर दिया गया । जमदानि का आश्रम ब्रज में जगदग्नि क्षेत्र दघेंटा गांव है तथा परशुराम का मूल स्थान परसौं, सहस्त्रावाहु का पुर सीह, रेणुका क्षेत्र रूनकी, कार्तवीर्य अर्जुन की पुरी झुनकी रूनकी आस पास ही हैं ।<br />
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परशुराम को 41 दिव्यास्त्र शिव से तथा अगस्त्य जी से प्राप्त थे जिनकी नामावलि है-<br />
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1.ब्रह्माशस्त्र, <br />
2.वैष्णवास्त्र, <br />
3.रौद्रास्त्र, <br />
4. आग्नेयाग्त्र, <br />
5. वायव्यास्त्र, <br />
6. नेऋत, <br />
7. याम्य, <br />
8. कौवेर, <br />
9. वारूण, <br />
10. वासव, <br />
11. सौम्य, <br />
12. सौर, <br />
13. पार्वत, <br />
14. चक्र, <br />
15. वज्र, <br />
16. पाश, <br />
17. सर्प, <br />
18. गांधर्व, <br />
19. स्वापन, <br />
20. रोधन, <br />
21. पाशुपत, <br />
22. इषीक, <br />
23. तर्जन, <br />
24.प्राश, <br />
25. गारूड़, <br />
26. नर्तन, <br />
27. रोधन, <br />
28. आदित्य, <br />
29. रैवत, <br />
30. मानव, <br />
31. अक्षि संतर्जन, <br />
32. भीम, <br />
33. ज्त्रंभण, <br />
34. पर्शुघात, <br />
35. सौपर्ण, <br />
36. पर्जन्य, <br />
37. राक्षस, <br />
38. मोहन, <br />
39. कालास्त्र, <br />
40. दानव, <br />
41. ब्रह्मशिरा ।<br />
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और्व पुत्र ऋचीक को ह्दयों से अपार धन दान में मिला था जिसे उनने अपने पर चिकसौली वरसाना तथा चिकसौनी ब्रज में जमीन में गाढ़ दिया और ह्दयों के माँगने पर साफ निषेध कर दिया तथा दण्डित होने पर वे महोदय पुर कान्यकुब्ज देश में जा बसे । वहाँ उनने वहाँ के राजा जगाधि की पुत्री सत्यवती से विवाह कर ह्दयों से बदला लेने की योजना बनायी । फिर अपने पुत्र जमदग्नि का विवाह अयोध्या नरेश रेणुक की कन्या रेणुका से किया । लक्ष्य के अनुसार दोनों राज्यों की सहायता से ह्दयों बदला लेने की तैयारी करने लगे । <br />
ह्दयों को यह मालुम हुआ तो सहस्त्राबाहु इन्हें दबाने कोज मदग्नि के आश्रम(दघैंटा) में आया और उनकी दुर्लभ नस्ल की अनमोल गौ कामधेनु को युद्ध का कारण बनाने के लिए बलपूर्वक अपहरण करने लगा । इस समय भी वशिष्ठ की गौकी तरह परशुराम जमदानि के शिष्यों गुरूभक्त यवनों (यूनानी पारसी यहूदी पठानों अरबों ) ने सहस्त्राबाहु की सेना से डटकर प्रतिरोध किया और उसे भगा दिया किन्तु भागते हुए भी वह आश्रम को जलाकर (घर फोड़ नीति) से जमदानि का सिर काटकर कामधेनु को भगदड़ में भगाकर ले गया । परशुराम जब तपस्या करके लौटकर आये तो यह सब देख आग बबूला हो गये और सहस्त्रबाहु ह्दय वंशियों और ह्दय पक्षधर राजाओं को निर्मूल करने की कठोर प्रतिज्ञा की । उनने मथुरा में सरसवती तट पर सप्तसारस्वत (सरस्वती कुण्ड) पर तप करके भूतेश्वरशिव तथा महर्षि अगस्त्य से अजेय दिव्य 41 आयुध दिव्य रथ अमन्त्रित शंख प्राप्त किये । इस जबरदस्त तैयारी के बाद परशुराम ने भरौंच से भार्गव सैन्य लेकर ह्दयों के नगर नर्मदातट की मर्हिष्मती नगरी को घेर लिया उसे जीतकर जलाकर ध्वस्त कर वे ह्दयों के पूर्व कथित अनेक देशों के मित्र प्रजाओं पर आक्रमण कर उन्हें विनष्ट करने लगे । अपने 21 अभियानों में इनने क्षत्रियों के ह्दय पक्षी 64 राजवंशों का विध्धंश किया, इनमें 14 राजवंश तो पूर्ण अवैदिक नास्तिक और ब्रह्मद्वेषी थे ।<br />
परशुराम का अधर्मनृपसंहार आदर्शवादी और लोकतंत्र विशोधक था । क्रूर दुष्ट दमन के हेतु से दण्ड नीति का व्यापक लोकभ्य स्थापित करने के लिए उनने क्रूर प्रयोग किए और धर्म से विचलित न होने की अविचल निष्ठा की स्थापना की । पुराणों के अनुसार उनने मूसलों के कूटकर, तलवारों से काटकर, वृक्षों पर लटकाकर फाँसी देकर, तल में डुबाकर, हाथ पैर दाँत नाक कान काटकर मिर्चों की धूनी में तड़पाकर, रस्सियों से बाँधकर, ऊँचे से गिराकर, धर्म शत्रुओं का संहार किया । प्राप्त सूची से ज्ञान होता है कि उस समय आसुरी प्रभाव से प्रजाओं में अधर्म का आचरण बहुत ज्यादा बढ़ गया था । गुणावती (गुलावटी बुलंदशहर) के उत्तर में, खांडव प्रस्थ (खानवा का मैदान कुरूक्षेत्र) के दक्षिण में वर्तमान दिल्ली श्री तथा, पांचाल रूहेल खण्ड रामपुरा तराई-मैनसार, पीलीभीत वरेली, हलद्वानी काठगोदाम मेरठ मुजफ्फर नगर की पहाड़ियों में इनका घनघोर युद्ध हुआ तथा 10 हजार रूहेले मेवाड़ी मयवंशी नागवंशी बावरी और गंधारी सरदार सेनाओं सहित मारे गये । इस धर्म विजय में काश्मीर, दरद (दर्दिस्तान), कंतित मिर्जापुर) क्षुद्रक (कुर्दिस्तान), मालव (मालवा), अंग (बिहार) बंग (बंगाल) कलिंग (उड़ीसा कालिपौंग) विदेह (मिथला) ताम्रलिप्त (तामलुक उड़ीसा) रक्षोवाह (खासिया पहाड़ी रक्सौज), वीतहोत्र (लिर्हुत), त्रिगर्त (असम), मार्तकावत (टिकारी), शिवि (सौदीर सिंध) आदि के बड़ी संख्या में राजाओं को निग्रहकर विध्वस्त कर दिया । इस महासमर में गणनानुसार परशुराम की सेनाओं ने 12 हजार मूर्धाभिषिक्त राजाओं के सिरच्छेद किये । इसके बाद फिर बचे छोटे लुके छिपे नरेशों नरपतियों को पकड़वाकर वे कुरूक्षेत्र ले गये । वहाँ 5 बड़े कुन्ड खुदवाकर उन्हें इन राजाओं के रूधिर से भरा तथा उनमें विजय स्नान किया जो परशुराम ह्द और स्यमंत पंचक कहलाये तथा नर मुंडों के पर्वत बनाक उन पर विजय ध्वजायें फहराई । इसके बाद परशुराम ने गया के चन्द्रपाद तीर्थ में पितरों पिंड के किए तब पिंतरों ने प्रकट हो उसे नर संहार का दोषी कहा और प्रायश्चित की आज्ञा दी । प्रायश्चित को तब परशुराम सिद्ध बन (सिधौली) गये, वहाँ सारे दिव्यायुध परशुअस्त्रशस्त्र भंडार रथ ध्वजा आदि को सरोवर में विसर्जित कर विशुद्ध सात्विक ब्रह्मा धर्म शिरोधार्य किया । फिर तीन बार समस्त भूण्डल का पृथ्वी प्रदक्षियायें की और महेन्द्र पर्वत मेंहदीपुर बालाजी) पर निवास कर नारायण मंत्र का जाप करते रहे । इस काल में उनने सारी जीती हुई पृथ्वी कश्यप वंशी धौम्य आदि तपस्वी माथुर बन्धुओं को दान कर दी । इस दान आयोजन को उन्होंने एक महाविशाल अश्वमेघ यज्ञ कररके सम्पत्र किया । भूमि दान करके वे दान की धरती जाकर तप करने लगे । यह आश्चर्य की बात है माथुर मुनीशोने अपने ऐसे महान अवतारी पराक्रमी विश्व विजयी पूर्वज को उपेक्षित करके अपने कुल गौरव की महान अवमानना की है । अभी भी समय है । इस त्रुटि को सुधारकर प्रभु परशुधर को अपना पूर्वज निर्धारित करना चाहिए ।<br />
भार्गवों की अल्लैं<br />
भार्गव व माथुरों के आस्पद या अल्लैं 16 इस प्रकार है- <br />
1. सकना- ये शाक द्वीप से आये शक कुषाणों के जिनमें कनिष्क महाप्रतापी सम्राट राजा हुआ हैं कुल प्रोहित थे, उन्हें यज्ञयागादिक कराते थे । कुषाणों के सिक्कों पर उन्हें यज्ञकुण्ड में आहुति देते हुए दिखाया गया है । हूणों की तरह शक भी मूलत: भारतवासी शिव के कूष्मांड गण थे । उनका यज्ञ विधान में अपने स्थापन और यज्ञ उपकरणों का मन्त्रों द्वारा संस्थापन कर्म कुशांडी कहा जाता है । माढूगढ मांढा विजैपुर, माढ़लिया, मंडोवरा तथा कच्छ मांडवी इनके पूर्व और परवर्ती जनस्थान थे । कुषाणों का समय विक्रम संवत 57 से 257 विक्रम संवत तक है । ये प्राचीन रूद्र प्रजा विस्तार के कार्य में बाल्हीक (बलख याज्ञावल्वयपुर) से भारत में आये थे । कुजुल (कुशल) कैडफीसिस (स्कंधप्रिय) के बाद इनका विमतक्षम (भीम तक्षक) नाम का सर्दार चक्रवर्ती सम्राट था । 97 वि0 के इसके सोने के सिक्कों पर खरोष्टी में इसे महाराजस् राजाधिराजस् सर्वलोक ईश्वरस, माहेश्वरस् अंकित किया गया है । तथा शिव मूर्ति अंकित होने तथा महोश्वरम् पदवी से माहेश्वर रूद्र संप्रदाय का अनुयायी होना निश्चित होता है । माहेश्वरपुरी महेसर नर्मदा के तट पर ओंकारजी तीर्थ के समीप है । महेश्वरी वैश्य जाति भी अपने को महेश्वर शिव की सन्तान मानते हैं । ये अपने पूर्वजों को देव या पितादेव (पित्रीश्वर) कहते थे और उनकी पाषाण मूर्तियाँ बनवाकर देव कुल नाम के मन्दिरों में उनकी पूजा करते थे । ऐसे दो देवकुल मथुरा गोकर्ण शिव क्षेत्र में तथा ब्रज के मांट गाँव में इनने बनाये थे जिनकी मूर्तियाँ मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में है एवं मथुरा गौकर्ण टीले के गौकर्ण शिव की विशाल मूर्ति भी किसी कुषाण राजा की हीं मानी जाती है । हमारी राय में यह राजा की मूर्ति न होकर कुषाणों के इष्टदेव माहेश्वर रूद्र की मूर्ति है जो कुषाण शैली में उनके परमपूज्य देवता के रूप में स्थापित हुई थी । मथुरा के इटोकरी टीले से भी विम की विशालकाय सिंहासनारूढ मूर्ति मिली है । इसके उत्तरी साम्राज्य की राजधानी तुशारदेव तुखार बरवंशी थे तथा दक्षिणी साम्राज्य की राजधानी मथुरा में थी । इसके समय भारत से बहुमूल्य रत्नों, मसाले, मजीठ आदि के रंग, भारतीय वस्त्रों का व्यापार रोम देश तक होता था तथा वहाँ से स्वर्ण के रोमन सिक्के जो मथुरा के आस पास बड़े ढ़ेरों में मिले आते थे । तुषार खन्ड को इन्द्र ने असुरों से विजय किया था ऐसा भारतीय ग्रन्य बतलाते हैं ।<br />
कुषाण कनिष्क सम्राट - 135-158 वि0 विम के बाद यह मथुरा का महाप्रतापी सम्राट था । इसने अश्वमेघ यज्ञ करके अपना संवत चलाया जो शलिवाहन शक के नाम से अभी भारत का राष्ट्रीय संवत है । संभवत: शालिवाहन इसी की उपाधि थी । पेशावर ( पिशाचपुर) तथा मथुरा इसकी राजधानी थी । इसका राज्यविस्तार शैलदेश (काशगर) कोकदेश (याश्कन्द) उत्तर कुरू स्थान (खोलन), विश्वकर्म कल्मद (थ्यानशान पर्वत), यरूक भृगु स्थल (तुर्फान) कूर्चखंड कारूषदेश (कूचार) तया अग्निदेश (करासर कलात) तक था । माथुरों और मथुरा वासियों का व्यापार भू मार्ग से रोम और इन सब देशों तक था जिसके बदले में अपार स्वर्ण मुद्रा राशि मथुरा में जमा हो गयी थी और यही सोने की मथुरा के रूप में प्रसिद्धि पाकर गजनवी आदि लुटेरों का विनाश लक्षबनी कनिष्क पर यद्यपि बौद्ध प्रभाव था । परन्तु उस काल में मथुरा में मथुरा शिल्प के विकास में बुद्ध की उत्कृष्ट मूर्तियाँ धर्म की मर्ति पूजा पद्धति में बनने और पुजने लगीं । वैदिक पौराणिक श्रौत स्मातं भारतीय धर्म के बड़े बड़े मंदिर तथा देव प्रतिमायें सुवर्णरजत औ पाषाण की बनाई गयीं जिनमें से चतुर्भुज विष्णु नारायण, शिवा दुर्गा, सूर्य, कार्ति केय आदि की पुरातन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । कुषाण् सकना माथुरों की शिष्यता में इन सब की पूजा करते थे । तथा राज्य से भूमि सम्पत्तियों तथा बहुमूल्य रत्न सुवर्ण आदि भेंट में बड़ी मात्रा में इन्हैं मिले थे । <br />
ब्रज इतिहास के लेखक श्री कृष्णदत्त वाजपेयी ने लिखा है- " इस समय राजनैतिक केन्द्र के साथ मथुरा धर्म कला साहित्य व्यापारिक भी महानतम केन्द्र बन गई थी । मथुरा के अधिपति माथुर दे उस समय सभी देव स्थानों में उनकी स्वर्ण राशियों सम्पत्तियों और भवनों के स्वामी थे । तथा अपार वैभवों से युक्त बौद्ध जैन स्तूपों विहारों संधारामों मठों देव कुलों बुद्ध जैन प्रतिमाओं के पूजा स्थानों भिक्षुओं यतियों के संरक्षक निर्देशक थे । माथुर महादेव के द्वारा महायान के सभी पूजा स्थानों पर इनका बर्चस्व था । और बुद्ध महायान धर्म को समस्त एशिया में फैलाने के प्रयासों में माथुरों का प्रधान योगदान था । कनिष्क की राजसभा के सभासद विद्वान पार्श्य चरक नागार्जुन संघरण आदि मथुरा आते रहे और माथुरों की पूजा अर्चना करते रहे । मथुरा दर्शन के लिये इस समय एक बहुत बड़ राजमार्ग (सड़क) पाटिलपुत्र (पटना) से सारनाथ् कौशांवी श्रावस्ती मथुरा और फिर यहाँ से पेशावर खोतान काशगर और चीन तक बनाया गया जिससे तीर्थयात्री और व्यापारी आते जाते थे ।<br />
कनिष्क का मथुरा में शासन केन्द्र मंडी रामदास और धैरागपुरा के बीच के ऊँचे टीले पर था जहाँ मथुरा वासियों के स्वभाव के कारण उनके नाम कंस गली ककंस कौ बाग कंस कौ किलौ कंसलगोत्र नसवारे आदि बन गये । कनिष्क के उत्तराधिकारी वासिष्क वशिष्ठ समय 159 वि0 में मथुरा के भारद्वाज गोत्री समावेदी माथुर रूद्रल पुत्र द्रोणल से द्वादश रात्र सत्र मथुरा के समीप यमुना पार के ईशान रूद्रपुर (ईसावास्योपनिषद के रचना स्थापर) किया जो कुषाणों की शिव भक्ति का वैदिक संयोग ही था और अग्नि देव (माथुर कुलअग्नि उत्पादक देव0) की प्रीति से कुषाण राज्य की कल्याण कामना हेतु किया गया था ।<br />
इसके उत्तराधिकारी हुविष्क (हविष्ठ) ने भी माथुर ब्राह्माणों के भोजनार्थ अक्षयकोष राजवृत्ति का निर्धारण किया था । कुषांण वासुदेव 195 वि0 ने मथुरा के वर्तमान छामनी (केन्टुमेंट) क्षेत्र में जिलाधीश की वर्तमान कोठी के समीप प्राचनी वसुदेव तीर्थ पर वासुदेव कूप तथा चतुशाल तोरण युक्त देव मंडप (खुलामंदिर) का निर्माण कराया जो माथुरों द्वारा बगीची (देव उपवन) के रूप में मथुरा परिक्रमा के अन्तर्गत एक प्रमुख तीर्थ था और उसका उल्लेख प्राचीन वाराहपुराण के अन्तर्गत "मथुरा महात्म्य" में हुआ हैं । माथुरों के इस तीर्थ का जो आदि नारायण वासुदेव संकर्षण का स्थान था उसके कूप के एक अभिलिखित शिलापट्ट को केशव स्थान से जोड़ कर कृष्ण जन्म भूमि का लेख कह कर शिष्टोत्पादित भ्रान्ति का आधार बनाया गया है । सकना माथुरी अल्ल का परिज्ञान इस प्रकार महान गरिमामय रूप में इतिहास में उपलब्ध है ।<br />
शकदेश शाकद्वीप को मनुपुत्र प्रियब्रत ने 8893 वि0 पू0 में पृथ्वी को सात द्वीपों में विभाजित कर अपने पुत्र मेधातिथि को दिया था । शाकद्वीप बहुत विस्तृत समस्त एशिया को घेरे है । सकना इस क्षेत्र की समस्त प्रजाओं के पुरोहित थे । <br />
2 गुगौलिया – ये भगवान श्री कृष्ण के साथ द्वारिका चले गये । वहाँ अभी भी इनका वंश मोजूद है । गोपाल सहस्त्रनाम में श्री कृष्ण को "गुग्गुली मार की शाखी बट: पिप्पलक: कृति:" कहा गया है । अर्थात् वे गूगल मरूआ साखृ वड और पीपल के बन लगाने वाले थे । गूगल राजस्थान की वनस्पति है गूगल के फल गूगली धूंधली कहे जाते हैं गोगा भगत, ओढने की धूधी घूंघटा राजस्थान की घघ्घर तट की संस्कृति है । ब्रज में गोव से गूगली गोलाकार पिंड जैसी बनाकर उनके बीच में छिद्र बना कर होली में मालायें बना कर होम की जाती है जिससे आसुरी फाल्गुनी यज्ञ में गूगल के फलों की हवि देना तथा उस समय भी प्रजा का गूगल के फलों की माला धारण करने की श्रग्डा र परिपाटी ज्ञात होती है । ये गूगली अनाज को कीड़ों से बचा कर उसकी सुरक्षा के लिये अन्न के कोठों में रक्खी जाती है । गूगल के प्रयोग आयुर्वेद में योगराज गूगल आदि के रूप में अनेक रूपों में हैं । इससे ज्ञात होता है कि गूगली माथुर ब्राह्माण भृगु आसुरी पुरोहितों के रूप में अभिचार कर्मों में नरबलि के साथ गूगली फलों का होम नर मांस जलने की दुर्गध से वायुमंडल को अदूषित रखने के लिये किया करते थे, तथा वे गूगल फलों की माला धारण करने के कारण गूगली कहे जो लगे । माथुरों में पुंसवन कर्म में गूलरिया की माला गांभणी को पहनाई जाती है । मालाधारी माथुरों की शाखा भी है । गूलर पीपल बट आम्र निंव पंच पल्लव पवित्र वृक्ष हैं जो देवों पितरों की प्रसन्नता के लिये लगाये जाते है । <br />
3. तरं- नक्षत्र विद्या के ज्ञाता अथर्वणगण रात्रियों में जिन कृतुयज्ञों का आयोजन करते थे वे " नक्त" कहे जाते थे । जो अब जागरण के यप में दुर्गा उपासना में हैं । असुरों के शवरात(शिवरात्रि) मुहर्रम, रोजे, आदि रात्रि के ही समारोह हैं । मथुरा में नक्तीटेकरा नाम की एक प्राचीन बस्ती है जो कभी रात्रि देवों का आवास रहा होगा और भृगुवंशी वहाँ अपने यजमानों को नक्त याग कराकर हूर गिलमा जित्र फरिश्तों को प्रसत्र करने के प्रयासों के कारण नख्तर नक्षत्र विद् कहलाये होंगे ।<br />
4. धिरैरी- मथुरा के समीप धौरैरा भक्त ध्रुव की राजधानी का स्थान है तथा यहीं अटल्ला चौकी अटलबन उनके विहार का उपवन है । इस ध्रुवपुरी के वासी ही धिरैरी या धुरैरीया माथुर है । धौलेडा पर्वत नन्द गाँव के समीप तथा धौर्रा पत्थर की श्वेत पाषाण की खानैं आगरा भरतपुर के मध्य के पर्वतों में हैं ।<br />
5. सोतिया – वैदिक श्रुतियों का सरस्वर पाठ और गान करने वाले वेदजश्रौतधर्मा ब्राह्मण श्रोतिय सोतिया या सोती कहे गये हैं । हमारा सनातन भारतीय धर्म श्रुति स्मृति पुराण प्रतिपादक हैं । उसमें श्रौतसंम्प्रदाय सोती, स्मृतिधर्मा स्मातं और पुराण धर्मा पौराणिक व्यास संज्ञाओं से प्रतिष्ठित हैं ।<br />
6. गहवारिया- ये वर्तमान में घरवारी भी कहे जाते हैं । वैदिक अग्निवंश का एक कुल गार्हपत्य अग्नि है । यज्ञ मण्डपों की पाकशाला में पत्ति शाला की ऋषि पत्नियाँ जो पाक विधान से चरू और पुरोडाशों का निर्माण करती थीं उनको कुशलता का निदेशन और प्रशिक्षण देने वाला अग्नि देवता गृहपति कहा जाता था । बरसाने का गहवर बन गहरवार क्षत्रिय गहलोत कायस्थ, घेबरपाक, इस देव की प्रजा परम्परायें है । <br />
7. मकना- मकनपुर ब्रज के निवासी मकना नाम धारी हैं । मकना हाथी मकना भैंसा ब्रज में नाटे आकर वाले जीव को कहा जाता है । मक्खन या लौनी नवनीत का संग्रह कर उससे आज्य घृत तैयार कर यज्ञ कर्मों हेतु उसकी आपूर्ति करने वाले मखनियाँ मकनियाँ का मखन मकनाँ वहे जाते थे ।<br />
8. कन्हैरे- कित्ररगान कान्हड़ा कन्हरी गायक कित्रर कित्रौर प्रदेश के पुरोहित कन्हैरे माथुर हैं । विश्व व्याप्त कित्रर संस्कृति के स्थान कन्हैरी की गुफा ये बंवर्ह में, कन्हैर गाँव महाराष्ट्र में, कत्रड़ प्रदेश कत्रड़ी भाषा दक्षिण भारत में,कनाड़ा कैनेडी, कानौड़ राजस्थान में हैं जो कित्रर गणों के लोकप्रिय कलादक्ष और महाविस्तार के सूचक हैं । माथुरों में मंगल कार्यों में 'कन्हरी' नाम के प्राचीन गीतों के साथ शुभ कार्यों का आरम्भ होता है तथा गान कुशल सुरीले कन्ठ युक्त होने से श्री कृष्ण को कान्हा कन्हैया कानूड़ा कहा गया है । वे इसी कान्हणार के गायक व्यूह के सरस संगीत निर्देशक लोकमान्य गायक थे ।<br />
9. दीक्षित- देव यज्ञों में मंत्रदीक्षा से युक्त गुरू परम्परा प्रतिपादित श्रेष्ठ ब्राह्मण ही विशेष समादर पाते थे । भगवान नील बाराहने सर्व प्रथम अपने यज्ञ में "नाना दीक्षायुत" अनेक देव मन्त्रों की उपासना दीक्षा प्रदान कर उन्हें दीक्षित पद दिया था ।<br />
10. सांडिल्य- ये सांडिल्य भक्ति सूत्र ग्रंथ के कर्ता महर्षिशांडिल्य के वंशधर हैं । ये नन्द परिवार के गोपवंश के पूज्य पुरोहित होने से श्रीकृष्ण बलराम नन्द यशोदा वृषभान राधा सुदामा श्री दामा तोष आदि कृष्ण सखाओं ललिता विशाखा गोपियों के वंश के पुरोहित रहे थे । ब्रज के गोप गोपी गोपाल परिवारों की कुशल कल्याण कामना के लिए विष्णु की नारायणी भक्ति के ये मन्त्रदाता आचार्य थे । ब्रज में सांडरा शिखर पर्वत पर इनका निवास था । अग्नि देव का अपना गोत्र सांडिल्य गौत्र है जो इनके देव पूजित और पुरातन कालीन होने का निर्धारण है । सांड़िया नाम के बड़े बैलों पर तथा वलिष्ट ऊँटों पर सबारी करके घूमने वाले ये मरूधन्व देश के पुरोहित भी थे । जोधपुर नगर में सांडा की पौर नाम से एक मुहल्ला है । सांडू महाराष्ट्र में हैं । सैंडों पहलवान संदल चन्दन, शंढनपुंसकों के नाम भी हैं । शांडिल्य आत्मा परमात्मा तत्व दर्शन के महान द्दष्टा थे । शांडिल्य भारद्वाज ऋषि के मुख थे । शांडिल्य ने बैलगाड़ी शकटी के दान को तथा सुवर्णदान को श्रेष्ठ दान कहा है । इनके रचे ग्रन्थ शांडिल्य गृह्म सूत्र, शांडिल्य धर्म सूत्र, शांडिल्य दीपिका शांडिल्य गृह्म सूत्र हैं । शांडिल्य वैदिक यज्ञों में 'अग्नि चयन विद्या के आचार्य थे यज्ञ के आरम्भ में अग्नि उत्पादन और उसका स्थापन करते थे । ये कौशिक विश्वामित्र तथा गौतम के शिष्य होने से प्राचीन ऋषि थे किन्तु माथुर इनके संपर्क में श्री कृष्णकाल 3000 वि0 में आये और शांडिल्य के वंशजों के रूप में नन्दादि गोपों के पुरोहित रहे और भक्ति सम्प्रदाय का प्रचार किया । सांडरा पर्वत शिखर का वन वरसाने की पर्वत माला में हैं । विद्वज्जन देखें कि इस प्रकार के शोध विमर्ष से माथुरों की अल्ल(आस्पद) कितनी महत्वपूर्ण और पुरातन हैं ।<br />
11. मरौठिया(मंढौरिया)- आदति पुत्र इन्द्र के भाई 49 मरूत्तों के राष्ट्र मरूधन्व(मारवाड़) में उनकी राजधानी मारौठ वासी मरूत प्रजा राठौर राठी दक्षिण के मराठ वाड़ा के मारूती मरैठों के प्रोहित होने से ये मारूतीय मरौठिया कहलाये । रामभक्त हनुमान मरूत वायु पुत्र थे । मारौठिया रूइटिया माहेश्वरी वैश्वयों में भी हैं । मथुरा में मारूगली मारूओं का महल, नृसिंह लीला का मारू बाजा और राग मारू माथुरों से ही सम्बिन्धित हैं । मरूद्गण दक्ष यज्ञ के समय 9358 वि0पू0 में यज्ञ रक्षा हेतु आये थे । मंडोर का किला प्रसिद्ध है मंढौरिया मंडोरिया संभव है भंडोर के किसी राजा से सम्मानित होकर वहाँ भी रहे हैं । मीठे वर्ग में कुछ इनसे पृथक अल्लैं है जो स्थान वाचक बहुत परवर्ती काल की मथुरा से जाने के बाद की हैं ये हैं –<br />
1. गुदौआ- लीला गुदना गोदने वाले लिलहारों के गांव गढूमरा ब्रज में निवास ।<br />
2. कोटा- कोटा छिरौरा ब्रज के निवासी ।<br />
3. रीढा- नन्द गाँव के समीप अरिष्टपुर रीठौरा अथवा रीढ़ा दाऊजी स्थानों के निवासी ।<br />
4. गुड़वा- गरूड़ा ह्रय क्षेत्र गिड़ोह के निवासी ।<br />
5. च्यौल्या(चावला)-चंबल नदी तट के चेंवरी सुरभी सुरैगायों के पालक सुरभी गौर इन्द्र के गोष्ठ में थीं तथा श्री कृष्ण को सुरभी कौ पय पान अति प्रिय था, सुरभी की पूँछ से देवों के चँवर बनाये जाते थे । इस चर्मणवती क्षेत्र पर प्राचीन काल में 4523 विपू में पुरूवंशी महादानी महाराज रंतिदेव का राज्य था, जो मथुरा में आश्रम तथा नगर (रती कौ नगरा) बसाकर विष्णु भक्ति में तल्लीन रहते थे । चँवर विक्रेता चावला पंजाब में भी एक जाति हैं ।<br />
भारद्वाज गोत्र<br />
भारद्वाज सामवेदी हैं । इनका समय 4814 वि0 है । भारद्वाज वेदमंत्र कर्त्ता ऋषि हैं । ऋग्वेद का छटा मंडल इनके तथा इनके वंशज ऋषियों के मन्त्रों से युक्त है । भारद्वाज ब्राह्मण से क्षत्रिय तथा ऋषि बने । कुत्स परिवारी आंगिरस बृहस्पति देवों के गुरू ने अपने बड़े भाई उतथ्य की पत्नि ममता में इन्हें उत्पन्न किया तब यह विवाद उठा इनका पालन कौन करे तथा ये किस के वंश में रहैं तब यह निश्चय हुआ कि बालक बृहस्पति के कुल में रहेगा तथा इसका पालन दोनों भाई मिलकर करैंगे तथा इसका नाम भी भारद्वाज (भरित द्वाज दोनों द्वारा भरण पोषण् प्राप्त) रहेंगा । साझेदारी की सम्पत्ति होने के बालक के पालन में झमेला देख वैशाली के चक्रवर्ती नरेश मरूत चक्रवर्ती ने इसे अपने संरक्षण् में रक्खा । इसी समय पाँचाल सम्राट दुष्यंत शकुन्तला(4950 वि0पू0) के पुत्र भरतखंड सम्राट महाराज भरत(4882 वि0) के द्दढ निश्चय स्वरूप उनके सभी पुत्र उनकी रानियों द्वारा मार डाले गये थे । राजा ने यह निश्चय किया था कि जो पुत्र मेरे और मेरे पितादि पूर्वजों के गुणों से सम्पन्न महाप्रतापी नहीं होगा उसे मैं अपने घर में नहीं रक्खूँगा । राजा भरत इस प्रकार पुत्र शून्य था । यह देख सम्राट मरूत चक्रवर्ती ने बृहस्पति के देवकुल आचार्य से उत्पन्न विवाद ग्रस्त बालक भरद्वाज को सर्व विद्या और तेजस्विता सम्पन्न होनहार यशस्वी बालक था अग्डीकार करने का परामर्श देकर बालक भारद्वाज को उन्हैं दे दिया और तब भरद्वाज पुरूवंशी सम्राट बने । भारद्वाज ने भरतवंश की प्रतिष्ठा खूब अच्छी तरह बढ़ायी । पूर्व ऋषम पुत्र भरत के भरतवर्ष में इनने अपना क्षेत्र भरतखंड नाम युक्त किया और उसे बल विद्या ऐश्वर्य यज्ञादि से तथा शास्त्र समृद्धि से सम्पन्न और विश्व विख्यात बनाया ।<br />
भरद्वाज राम भक्त थे । वे महर्षि बाल्मीकि के शिष्य थे । ये प्रयाग के निकट अपने श्वसुर गृह के समीप ही एक आश्रम बनाकर रामोपासना करते थे । इनकी पत्नि पैठीनसी प्रयाग के पीहन नगर के पिहानी वंश की पुत्री थीं । इस पीहनपुर को पुरातत्वाभिमानी भ्रान्त विद्वज्जनों ने पुरूरबा की प्रतिष्ठानपुरी मानकर महाभ्रान्ति का एक तानाबाना बुना है ।<br />
पैठीनस आग्निदेव की एक शाखा का भी गोत्र है । महर्षि प्राचेतस(चटर्जी) बाल्मीकि ने अपना रामायण ग्रन्थ बनाकर सर्व प्रथम प्रयाग में ही भारद्वाज पत्नि पैठीनसी को श्रवण कराया था । क्रौचवध की घटना के समय भी भारद्वाज बाल्मीकि के समीप थे । इनने महर्षि याज्ञवल्क्य से भी विद्या अध्ययन की थी और याज्ञवल्क्य के वलख बुखारा में आश्रम बना कर म्लेच्छ (विलोम उल्टी बामगति वाली भाषा अरबी फारसी पुश्तो भाषा) पढ़ाने की शिक्षा पद्धति का नि:संकोच होकर विरोध किया । <br />
भारद्वाज मुनि ने दंडकारण्य जाते समय भगवान राम का सत्कार किया भरत जब रामजी को लौटाने गये तब उनको भी रामजी का पता दिया तथा जब श्रीराम प्रभु लंका विजय कर लौटे तब उन्होंने सीता को भारद्वाज आश्रम दिखाया और मुनि के दर्शन को आये । भरद्वाज सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये देवराजम इन्द्र से बहुत लंबी आयु मांगी । इन्द्र ने इन्है। 100-100 वर्षों की आयु तीन वार प्रदान की परन्तु वेदध्ययन पूरा न हुआ । इन्द्र से इनने 100 वर्ष का एक और आयु का मांगा, वे परिश्रम से जर्जर और रोग ग्रस्त हो गये थे तब इन्द्र ने इन्हैं वेदविद्या ग्रन्थों के तीन बड़े भाग दिखलाये जो प्रत्येक महाविशाल पर्वताकार थे उनमें से 1 कण उठाकर इन्द्र ने कहा- 'महामान्य ! आपने तीन जन्म श्रम करके इतना ही ज्ञान प्राप्त कर सकोगे, मेरी बात मानो मेरी शरण में आओ मेरे उपदेशानुसार 'सावित्र्याग्नि चयन कर गायत्री होम' करो तब स्वर्ग की सहज प्राप्तिकर सकोगे' भरद्वाज ने यही किया और स्वर्ग की प्राप्ति की । आग्रहायण काल में उत्तराण आरंभकाल में आग्नि स्थापना द्वारा यह 'सावित्र्याग्नि चयन' यज्ञ किया जाता है ।<br />
भारद्वाज ने काशी के राजा दिवोदास को पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे उसे प्रतर्दन नाम का प्रतापी पुत्र हुआ जिसने तालजंघ और हैह्यों से अपने पूर्वजों की पराजय का बदला लिया ।<br />
ऋग्वेद के कथन से ज्ञात होता है कि भारद्वाज पुरू ने पंथ नाम के पर्वतीय नरेश के राज पुरोहित रह कर उसे यज्ञ कराया था । पंत हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र के ब्राह्मण होते हैं । इनमें गोविंदवल्लभपंत भारत सरकार के राज प्रतिष्ठित मन्त्री रहे हैं । पन्त अभी भी मथुरा के माथुरों के यजमान हैं । <br />
महाभारतकालीन भारद्वाज के घृताची नाम की अप्सरा से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ था जो भारद्वाज के मित्र पृषत नरेश के मित्र थे । पृषत के पुत्र महाराज द्रुपद से आचार्य द्रोण की घनिष्ठ मित्रता थी जो बाद में घोर शत्रुता में बदल गयी और अर्जुन द्वारा द्रुपद राज्य पुचाल देश का आधा भाग दक्षिण पांचाल जीत कर इन्हें प्रदान किया गया । भारद्वाज अनेक विद्याओं के महान ज्ञाता वेदकर्ता और ग्रन्थों के प्रणेता थे । ऋग्वेद के छठे मण्डल के ये द्दष्टा हैं । इसमें इनके अग्नि देव की आराधना के मन्त्र हैं । ये व्याकरणशास्त्र के प्राचीन आचार्यों में से थे तथा इनके 'भारद्वाजीय व्याकरण' ग्रन्थ के आधार पर बनाकर व्याकरणकार पणिनिने अपने व्याकरण ग्रन्थ अष्टाध्यात्री की रचना की थी । ऋक प्रतिशाख्य में इन्हैं व्याकरण विद्या का महान आचार्य कहा गया है । जिन्होंने इन्द्रदेवता को गुरू बनाकर इससे यह विद्या पायी थी । ये सामवेद के महा गायक(महार्चिक) होने से सामवेदौ परम्परा के आचार्य माने जाते थे । यह विद्या इन्हें पाराशर के शिष्य पारार्श्य कौथुम से प्राप्त थी जो इनके वंशजों की वेद शाखा प्रसिद्ध है । भगवान श्री कृष्ण ने भी इसी माथुर वंश से साम गान की दीक्षा प्राप्त कर 'सामगान परायण्' विरूद पाया था तथा स्वयं अपनी गीता में अर्जुन से 'वेदानां साम वेदोस्मि' कहकर गान विद्या का मान बढ़ाया था । भारद्वाज श्रौत सूत्र, भारद्वाज धर्म सूत्र, भारद्वाज स्मृति, भारद्वाजीय व्याकर, भारद्वाज व्यवहार, शास्त्र(विवाद मुकदमों का निर्णय), आदि इनके ग्रन्थ हैं किन्तु सबसे महान इनका 'भारद्वाज शिल्प शास्त्र' हैं जिसके 'वैमानिक तंत्र' नाम के अधिकरण में विमान विद्या(हवाई जहाज रचना और संचालन) का वर्णन हैं ।इस विलक्षण ग्रन्थ में आज से 6856 वर्ष अर्थात् 4814 विक्रम संवत पूर्व की देव विमानविद्या वायुयानों का निर्माण, यन्त्र रचना, उनकी उड़ानों की गतियों के भेद आकाश में वायु के विभिन्न स्तरों में उनके प्रवेश और विचरण आदि की दुर्लभ जानकारी दी गई है जो आज के युग की वायु सेवाओं को भी पूर्णत: उपलब्ध नहीं है । भारद्वाज चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत भरत के उत्तराधिकारी प्रतापी सम्राट थे ।<br />
भारद्वाजों के अनेक आश्रम थे- मथुरा में भारद्वाजपुर(भारगली) भारद्वाज नगर(बाजनौं गाँव), भारद्वाज तीर्थ मथुरा परिक्रमा में, हैं ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_10&diff=56243चतुर्वेदी इतिहास 102010-04-23T07:06:28Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==वशिष्ठ गोत्र==<br />
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'''ब्रह्मदेव''' के 10 मानस पुत्रों में 9400 वि0पू0 से यह गोत्र प्रवर्तित हुआ। स्वायंभुव मन्वंतर के सप्त ऋषियों में ये स्थापित थे। इनकी बड़ी शालीन परंपरा है। ये ब्रह्मदेव के प्राणतत्व से अर्थात् प्राणसमान प्रियभाव से उत्पन्न हुए थे। प्रजापति दक्ष ने अपनी उर्जा (वाढा उझानी क्षेत्र स्वामिनी ब्रज में) पुत्री उन्हें दी थी तथा इस बड़े वंश के नाते यह शंकर भगवान के साढू तथा सतीदेवी के वहनोई थे। ब्रज के सांख्या चार्य कपिलदेव जी की वहिन कर्दम ऋषि (कुमदवन) की पुत्री अरून्धती भी इनकी यज्ञ ज्ञाता पत्नी थी। अरून्धती की शाखा में ही पीछे बाद में वशिष्ठ शक्ति पराशर और वेदव्यास शुकमुनि आदि हुए है। शुक पुत्र भूरिश्रवा, प्रभु, शंभु कृष्ण-गौर (गौरहेठाकुर) हुए तथा वंशिष्ठ जी को घृतात्री अप्सरा से महात्मा अपमन्यु हुए जिनका आश्रम वेदव्यास आश्रम कृष्ण गंगा के निकट सोमतीर्थ पर था जहाँ पुत्र प्राप्ति के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारिका से आकर पाशुपत दीक्षा लेकर कठोर बतचर्या युक्त तप करके सांव पुत्र पाया था तथा यहीं वेद व्यास ने अपना आश्रम स्थापित किया। श्राद्वदेव वैवस्वत मनु 6379 वि0पू0 के सत्र में पुत्र कामना के विपर्यय से श्रद्धा पत्नी की इच्छानुसार इला कन्या प्रगट हुई जिसे माता पिता दोनों को संतुष्ट रखने को महाशक्तिशाली वशिष्ठ देव ने पुत्र रूप में सुद्युम्न और कन्या रूप में इला दोनों देह दिये। सुद्युम्न (दोमन ब्रज) के राजा बने इनके पुत्र गय का गयाकुण्ड तथा विमल का विमलकुण्ड इन्द्र के स्वर्गलोक आदि बृन्दावन कामवन में अभी यथास्थान हैं। <br />
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'''तालजंघ''' और हैहयों ने जब अयोध्या नरेश बाहु को भारत से बाहर के मलेच्छों की सहायता लेकर मरवाया तब वशिष्ठ के शिष्य सगर ने उन पर चढाई कर पारद (रूद्र पार्षद पारसीक) गंधारी, कंवोडियन (कम्वोज) , (यूनानी अरवी विलोची) यवन और पल्लव (पहलवियों) का निर्मूल करना चाहा तब महाकृपालु वशिष्ठ ने इन्हें केवल अपरूप बनाकर शिखा हीन दाढी युक्त करके क्षमा कर दिया, तभी से वे वशिष्ठ मुनि के शिष्य हो गये और विश्वमित्र के वशिष्ठ आश्रम (वहुलावन) से उनकी कामधेनु कुल की नंदिनी गौ को बलपूर्वक हरण करने का प्रयास करने पर योनिमार्ग (जौनसार भावर) से आकर नंदिनी की रक्षा की और विश्वामित्र का दर्प चूर्ण कर दिया। यह असुरों द्वारा गुरूभक्ति का प्रभाव देख विश्वामित्र आहैं भरने लगे-"धिग्वलं क्षत्रिय वलं, ब्रह्मतेजो वलम् वलम्" विश्वामित्र ने वशिष्ठ के 100 पुत्रों सहित शक्ति का वध किया, आड़ी (उड़िया) और बक (बंगाली) सेनायें लड़वायी और अंत में वे वशिष्ठ के चरणों में गिरे और क्षमाशील मुनि ने उन्हें क्षमा कर ब्रह्मर्षि का पद दे दिया। नंदिनी की रक्षा हेतु भी ये ही पारद यवन काम्वोज शक पल्लव आदि मलेच्छ ही भारत में आये थे और यहीं बस कर भारतीय प्रजाओं में मिल गये। <br />
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'''वशिष्ठ गोत्र''' के प्रवर शक्ति पाराशर ही माथुर हैं। इन वशिष्ठ देव का समय 3317 वि0पू0 , शक्ति देव 3256 वि0पू0 पाराशर मुनि 3185 वि0पू0 तथा वेदव्यास देव का 3114 वि0पू0 है। वशिष्ठ का आश्रम वाशिष्ठी वन (वाटी वहुलावन), शक्ति का सकीटरा (गोवर्धन) पराशर का पराशर स्थली (पारासौली गेवर्धन) वेदव्यास का कृष्ण गंगा आश्रम तथा किशन टीला मथुरा के ही परम पुण्य स्थान हैं। वशिष्ठ के पुत्र चित्रकेतु (चित्राल के चिश्ती) गंधर्वराज थे जो आरम्भ में मथुरा शूरसेन जनपद पर शासक थे। इनके पुत्र को इनकी सौतेली माताओं ने विष देकर मार डाला, तब अति शोकाकुल मर्हिष अंगिरा (कुत्सगोत्र प्रवरी) ने योगविद्या द्वारा चैतन्य कर संवाद कराया और राजा को आत्मतत्व का मार्ग उपदेश किया। इस चित्रकेतु राजा का समय 9332 वि0पू0 हैं। वशिष्ठ की व्याघ्री पत्नि से मन्यु आदि क्रोध के पुंज देवता जो सूर्य सेनाओं के अधिपति थे। (सूर्यमन्युमन्यु पति रात्रयों देवता) थे जिनका क्षेत्र ब्रज में नूह नोहर नोहवाल जाट नौहरे आदि था। वशिष्ठ वंशियों ने राजा मुचुकुंद, रंतिदेव, श्राद्धदेव मनु आदि को यज्ञ कराये थे। ये सारस्वतों के आदि पुरूष सारस्वत ऋषि के भी गुरू थे। <br />
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'''वशिष्ठ और विश्वामित्र''' का कलह प्रसिद्ध है। सूर्यवंश की पुरोहिताई, देवों और ऋषियों में सन्मान, नंदिनी कुल का गोवंश आदि कई कारणों को लेकर यह संघर्ष चला । वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ विश्वमित्र के 50 पुत्र तालजंघों की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ (यूनानी पारसी मिश्री अफगान अरब) हो गये तब हार मान कर विश्वामित्र इनके शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमा दान देकर उदारता से ब्रह्मर्षि रूप से स्वीकार कर लिया। वशिष्ठ ने श्राद्ध देव मनु 6379 वि0पू0 को परामर्ष देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बटवाकर दिलाया। ये सभी शूरसेन देश मथुरा के माथुरों के शिष्य थे। इक्ष्वाकु ने 100 रात्रि का कठोर तप करके सूर्य देवता की सिद्धि प्राप्त थी की और वशिष्ठ को गुरू बनाकर उनके उपदेश से अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्या (आयुधधारी संघ जिससे युद्ध करने का कोई साहस न करे) ऐसी पुरी स्थिपित करायी और वे प्राय: वहीं रहने लगे। वशिष्ठ मुनि की दूसरी पत्नि अरूंधती स्वायंभूमनु के जामात्ट कर्दम मुनि 8932 वि0पू0 (कुमुदवन आश्रम) की पुत्री तथा सांख्य शास्त्र सर्व प्रथम मानव वंश के तत्वज्ञान दर्शनशास्त्र के आविष्कार महर्षि कपिल (8867 वि0पू0) की वहिन थीं। इन्हीं से माथुर गोत्र प्रवर वशिष्ठ शक्ति पाराशर तथा महामहर्षि वेद व्यास शुकमुनि आदि उत्पन्न हुए। माथुर वशिष्ठ आरम्भ से सूर्यवंश के सम्राटों , वैवस्वतमनु 6379 वि0पू0 इक्ष्वाकु 6310 वि0पू0 , नृग 6369 वि0पू0, शर्याति 6307 वि0पू0 नभग 6305 वि0पू0 तथा इला बुध वंश 6369 वि0पू0 का चंद्रवंश के परम सन्मानित राजपुरोहित पद पर प्रतित्ठित रहे। रघु 4181 वि0पू0 , अज 4126 वि0पू0 दशरथ 4086 वि0पू0 तथा श्रीराम भगवान 4024 वि0पू0 के भी पुरोहित रहे। उनने दशरथ को पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया, श्री रामजी को जातकर्म चौल, यज्ञोपवीत विवाह कराया और राम की राज्याभिषेक की पूरी व्यवस्था इन्ही के द्वारा हुई। ये इक्ष्वाकुवंशी कुवलयाश्व धुंधमार 5946 वि0पू0 धमार गायन के आदि प्रवर्तक के, युवनाश्व 5612 वि0पू0, मांधाता त्रसदस्युयौवनाश्व 5576 वि0पू0 हरिश्चंद 5262 वि0पू0 सगर 4925 वि0पू0 दिलीप 4811 वि0पू0 भागीरथ 4771 वि0पू0, सिन्धु द्वीप 4670 वि0पू0 , दाशराज्ञ युद्ध के विजेता वेद वणित सम्राट सुदास 4475 वि0पू0 , आदि सभी के कुल परम्परा पुज्य राज पुरोहित रहे। वशिष्ठ ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा 9400 वि0पू0 के यज्ञ के आचार्य रहे और तप के प्रभाव से पुष्कर सरोवर से प्रगट कर सप्त स्त्रोता नंदा सरस्वती को अपने मथुरा क्षेत्र में लाये और उसका यमुना में संगम कराया। <br />
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'''वैदिक काल''' की देव नदी सरस्वती की 7 धारायें थी इनमें से प्रथम कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर वशिष्इ ने 100 पुत्र पाये थे, राजस्थान की सरस्वती (मरूत्वती घघ्घर) मुनि दुर्वासा के शाप से बालुका समुद्र में लुप्त हो गई, द्वारिका की प्रत्यक् सरस्वती अभी भी अपने स्थान पर अपने नदी चिन्ह के रूप में हैं और वर्षा ऋतु में प्रगट प्रवाहित होकर अपने आस्तित्व की साक्षी देती है। इसी सरस्वती के प्राचीन जल प्रपात महासरोवर बहुलावन में महर्षि वशिष्ठ अपनी ब्रह्मदेव से प्राप्त वहुलावंश (वहुत सुस्वाद अमृतमय दुग्ध प्रदा) की गायों को लेकर रहते थे। वशिष्ठ अयोध्या में शरण्यू शतयूपिका (सरयू) के ब्रज में आदि नंदा सरस्वती के, मरूस्थल में मरूतवती सरस्वती के तथा अपने बहुलावन में बहुला सरस्वती, मधुवन में मधुमती कुमुदवन में कुमुद्वती, गोवर्धन में मानसी, कामवन में कामगा, चरणपर्वत बन में चरणगंगा आदि नदियों के प्रगटकर्ता थे तथा इन ही की ही सिद्ध भूसिंचन विद्या , पुण्यतीर्थो की प्रेतोद्धार क्षमता के शिल्प कौशल से प्रेरणा पाकर राजा भगीरथ ने भागीरथी गंगा का अवतरण 4448 वि0पू0 में किया जो आज भी भारतवर्ष की सबसे बढ़ी पुण्यप्रद और जल सिंचन आधार बनी राष्ट्र संवर्धक महान नदी है। इस प्रकार वशिष्ठ कृषि सिंचन प्रणाली के तो आदि प्रवर्तक थे ही वे गोपालन औरं गोवशं संवर्धन और गोवशं विकास और गोमहिमां तथा गो पूजन के वेद शास्त्रों में श्रेष्ठ महत्व दिये जाने की संस्कृति के भी प्रथम आचार्य थे। उन्होंने गोसंवर्धन क्षेत्र गोवर्धन पर्वत के अनेकों बनों से युक्त आदि ब्रन्दावन जो भागवत के मत से विपुल जल तृण वृक्ष फल पुष्पों से परम ससृद्ध था उसमें गोवंश के विकास के कार्य में सभी देवों को प्रेरित करगो भक्त बनाया तथा उनके द्वारा विकसित वंश की बहुला कामधेनु नंदिनी सुरभी कपिला श्यामा धवला आदि गायों में सर्वक्षेष्ठ नंदिनी के वंश की गौ को प्राप्त करने के लिये देव असुर मुनि सभी अति आतुर रहते थे। <br />
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'''इस हेतु''' को लेकर ही उनका विश्वामित्र , सहस्त्राबाहु आदि से कलह हुआ तथा इसी वंश की गोमाता की सेवा और गोपय प्राशन व्रत का अनुष्ठान कराकर उन्होंने महाराजा दिलीप 4811 वि0पू0 को भगीरथ जैसा यशस्वी तेजस्वी पुत्र दिया। अन्य क्षेत्रों की सरस्वती धारायें लुप्त हो जाने पर इनने मथुरा के सरस्वती संगम तीर्थ पर सप्त सारस्वत तीर्थ की स्थापना कर धार्मिक श्रद्धालु प्रजा को सातों सरस्वतियों के स्नान दान का फल प्राप्त करने की सुविधा दी । इसी सिंचन विद्या से इनने संवरण राजा के राज में वारबार अकाल पड़ने पर (सावर काँठा में) सावर मती माही तपती नर्मदा आदि नदियों का प्रवाह संयत कर सिंचन व्यवस्था से उस देश को वृक्षों खेतों लता पत्रों फलो पुष्पों शाक धान्य से परिपूर्ण कर जन संरक्षण का महान प्रयास किया। वशिष्ठ वंश (गोत्र) की महिमा का बहुत विस्तार है जो सभी यहाँ देना सम्भव नहीं है। <br />
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'''वशिष्ठ''' वंशी धीर वीर ज्ञानी शांत क्षमाशील सर्वोपरि ब्रह्मज्ञानी योगी, तपस्वी, लोक कल्याण संवर्धक , विश्व पूज्य तथा ब्रह्मर्षि प्रवर पद प्राप्त थे। वशिष्ठ वंश के रचित अनेक ग्रन्थ अभी उपलब्ध हैं जो लोक शिक्षा और दुर्लभ विद्याओं के आकर ग्रन्थ हैं। वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र , वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति , वशिष्ठ श्राद्ध कल्प, आदि इनमें प्रमुख हैं। वेद वक्ताओं में वशिष्ठ ऋग्वेद के 7 वे मण्डल के प्रणेता हैं तथा 9 वें मंडल में भी इनके वंशधरों के अनेक मंत्र हैं। इनके विरोधी और बाद में कृपा पुष्ट विश्वामित्र के भी वशिष्ठ द्वेषी मंत्र ऋग्वेद में हैं। विश्वामित्र द्वारा शक्ति का वध , सौदास कल्माषपाद का पौरोहित्य, के मंत्र भी ऋग्वेद में हैं। <br />
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'''प्रवर'''- तीन प्रवरों में प्रथम वशिष्ठ पदस्थ (तिलकायत) वशिष्ठों का वर्णन हो चुका अब इस परम्परा में उन वशिष्ठ 3339 वि0पू0 के प्रवरों का जो माथुरों के गोत्र संस्थापक थे उनके वंश की विस्तृति इस प्रकार हैं-<br />
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'''शक्ति''' - ये वेदव्यास के तीन पीढी पूर्व के वशिष्ठ के पुत्र थे। इनका समय 3296 वि0पू0 है। इनने अपने पिता से प्राप्त विद्या और प्रताप से विश्वमित्र को शास्त्रवाद में परास्त किया जिससे क्षुब्ध होकर विश्वामित्र ने अपने क्रूर शिष्य सौदास कल्याषपाद द्वारा इनका 100 भाइयों सहित बध करा डाला। जिससे वशिष्ठ अति शोकातुर होकर प्राण त्याग उद्यत होकर विपाशा तट के क्षेत्र में गये जहां पाशवद्ध होकर नदी में कूदने पर भी वे पाशमुक्त हुए। शक्ति की मृत्यु के समय उनकी पत्नि गर्भवती थी। गर्भशिशु ने गर्भ के भीतर से ही इन्हें वेदपाठ सुना कर आशन्वित किया कि मैं आपके तेज को धारण किये हुए हूं। लम्बे समय के बाद उस गर्भ से मुनिवर पाराशर का जन्म हुआ। शक्ति वध कल्माषपद (कलमा पढ़ने वाले) राक्षस समूह की मैत्री से राक्षस बने राजा और उसकी राक्षस सेना द्वारा हुआ , इस घटना का वर्णन ऋग्वेद में हैं। इस राजा के कारण ही राक्षसों म्लेच्छों यवनादिकों का प्रवेश भारत के राजवंशों में हुआ। शक्ति का आश्रम ब्रज का सकीटरा गांव है। <br />
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'''पराशर''' - ये वेद व्यास के पिता मथुरा के माथुर थे। ये 3240 वि0पू0 में वशिष्ठश्रम (बाटी गांव बहुलावन) में जन्में तथा गोवर्धन पर्वत के निकट अपना आश्रम वनाकर रहे। ये महा तपस्वी तेजस्वी और अनेक विद्याओं के पारंगत थे और अनेक शास्त्रों के रचयिता रहे। गर्भ में से ही इनने वेद मंत्रों का पाठ अपने दादा वशिष्ठ जी को सुनाकर निराश जीवन में आशा का संचार देकर उन्हें आनंदित किया। वशिष्ठ इनकी अदृश्यन्ती माता के उदर के समीप कान लगाकर सुनते और अति आनंदित होते थे। इनने तीर्थयात्रा के मार्ग में मथुरा की यमुना धार के मध्य अपना तपोतेज मत्स्य कन्या काली (उपरिचरवसु कन्या) में स्थापित कर बालक वेदव्यास को जन्म दिया जो मथुरापुरी के प्रमुख क्षेत्र माथुरों के आवास स्थल यमुनाद्वीप या कृष्णादीप में माथुरी माताओं द्वारा पाले पोसे जाकर तथा माथुर महामहर्षियों द्वारा वेदादि समग्र विद्याओं और ग्रन्थों को प्राप्तकर सहासमर्थ विश्व के संस्कृति और साहित्य के सर्वश्रेष्ठ मूर्धन्य शास्त्र प्रवर्तक बन गये। पराशर ने अपने पिता के वध का बदला लेने को अपने आश्रम में राक्षस मेध सत्र किया जिसमें भारत से राक्षस वंश को मंत्रो द्वारा हवन कुंडों में भस्म कर देश को राक्षसों के आतंक से मुक्त करने का सराहनीय संकल्प था पराशर के इस महाबिकट प्रचंड आयोजन से राक्षस और उनके पूर्वपुरूष पुलस्त्य पुलह कृतु महाकृतु और उनके पुरोहित अत्रि चंद्रदेव (चंद्रसरोवर) भयभीत हो उठे। वे अपने बन्धु वशिष्ठ के पास आये और अपने वंश की रक्षा के लिए याचना करने लगे। वशिष्ठ के साथ वे राक्षस सत्र में पहुंचे जहां रज्जूबद्ध असुर राक्षस दैत्य दानव बंधे खड़े थे। उनने पराशर से प्रार्थना की वे उन राक्षस प्रमुखों को मुक्त करें क्योंकि वे मूलत: तो ब्राह्मण पुत्र ऋषियों के वंशज ही हैं। पुत्र पराशर तुम यह तो ध्यान करो कि इनमें प्रहलाद वलि वृषपर्ती आदि जैसे देवभक्त भी हुए है। वशिष्ठ ने भी पराशर को ब्राह्मण के क्षमाधन की महता और क्रोध भाव के अधर्म से मुक्त होने की शालीनता का उपदेश किया और गुरूजनों के आग्रह से यह सत्र बीच में ही भंग हुआ। पराशर ने इस यज्ञ की अभिचार अग्नि को तब हिमालय पार के अरवस्थान , सहारा, अफगान, विलोच तातार, साइवेरिया आदि देशों के विशाल प्रदेशों में उत्सर्जित कर दी जो महा ज्वाला समूम वायु, मिट्टी का तेल, बारूद के खेल (आतिशबाजी) बन कर उन देशों को जलहीन रेतीला और परस्पर घात प्रतिघात से अपने ही कुलों को नष्ट करने वाला रूप धारण कर अपना काम पूरा कर रही है। पराशर भारतवर्ष के अद्वितिय प्रतिभा सम्पन्न महर्षि थे। उनके रचे ग्रन्थों की संख्या बहुत बड़ी है, इनमें ज्योतिष ग्रंथ पराशर संहिता, पराशर होराशास्त्र , आयुर्वेद ग्रंथ, पराशर-तंत्र, वृद्धपराशर तंत्र, हस्त्यायुर्वेद, गवायुर्वेद , बृक्षायुर्वेद , पाराशर कल्प, विमान विद्या पर पाराशर विमान तंत्र महाग्रंथ पाराशर स्मृति बृहत पाराशर संहिता, पाराशर सिद्धांत , विष्णु पुराण, पाराशर नीतिशास्त्र , पाराशर वास्तुशास्त्र पाराशर गीता (भीष्म ने युधिष्ठर से कही) आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं पराशर वेद मंत्र कर्ताओं में भी श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किये हुए थे। ये विष्णु देवता नारायण के उपासक थे जिन की भक्ति का प्रितपादन इन्होंने अपने पुत्र वेदव्यास के आग्रह से 18 पुराणों की संख्या के अंतर्गत 'विष्णुपुराण' की रचना करके किया था। महाभारत की सूचना से ये रूद्र देव के (भूतेश्वर चक्रेश्व कामेश्वर) रूपों के भी भक्त थे। पुष्कर तीर्थ में भी इनने कुछकाल बास किया था और वहां के शिष्यों को ब्रह्मदेव की उपसना प्रदान कर उन्हें पाराशर ब्राह्मण संज्ञा देकर अपने प्रिय शिष्य स्वीकार किया था। इनके ही तेजस्वी वंश में शुकमुनि (परमंहस) तथा ब्रह्मदत्त योगी, आदि हुए। व्यास परम्परा आज भी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ पदवी युक्त मानी जाती है। <br />
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अल्लैं- इगके आस्पद (अल्ल) इस प्रकार हैं----<br />
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1. काहौ– ये कहो़ड ऋषी के वंशज हैं । कहोड ने नवीन धान्य से यज्ञ हेतु अग्नि स्थापन विधि का प्रवर्तन किया । ये याज्ञवल्क्य 2929 वि0 पू0 के समकालीन थे । ये उद्दालक के शिष्य थे तथा जनक सभाविजेता अष्टावक्र ऋषि इसके पुत्र थे ।<br />
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2.बट्ठिया – स्वायंभूमनु 9000 वि0 पू0 के शासित प्रदेश ब्रह्रावर्त में निवास करने के कारण ये ब्रह्रावर्तिया बठ्ठिया संज्ञा से प्रसिद्ध हुए हैं ।<br />
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3. दारे- श्री कृष्ण के प्रिय ब्रन्दारण्य (वैदोखर नंदगांव) में 3107 वि0 पू0 में श्री कृष्ण रक्षक बन कर जाकर रहने वाले माथुर ब्राह्राण व्रंदारक वृंदारे या दारे हैं ।<br />
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4. खोखावत- ये व्यास कालीन कोकामुख तीर्थ पर तप करने से कोकावत से खोखावत हुए हैं ।<br />
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5. सात- सप्तसारस्वत तीर्थ सरस्वती संगम मथुरा कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर तपोनिष्ठ स्वायंभूमनु के सप्तऋषियों के यश परिचारक । सात्वतों के गुरू । <br />
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6. निनौलिया – नारायण नेत्रवासिनी आदि योगमाया नैनादेवी के नैनसरोवर शम्याप्राश व्यास बन (सेऊ ब्रज) में शमी भक्षण करके नैनादेवी के उपासक, अथवा ब्रज के नमक वितरण केन्द्र नौनेरा गांव (नमक की मंडी) लवणासुरपुर के निवासी ।<br />
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7. डुंडबार- भक्त प्रहलाद 8874 वि0 पू0 को होली में लेकर बैठने वाली ढूढार देश(कोटा बूंदी जैपुर) की ढुंढा राक्षसी(ढांडनियां) के प्रजाजनों के प्रोहित । <br />
चंदरासो में पृथ्वीराज और चौहान वंश को ढुंढा (देवी) का वंश चंद कवि ने मान्य किया है ।<br />
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8. उटौलिया- ऊंट पर बैठैकरफिरने वाले । मरूवन्य देश (राजस्थान) में भ्रमण करने वाले । ऊटालर गाँव के निवासी ।<br />
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9. जौनमाने- यवन मान्य । मनु और कृष्ण कालीन प्राचीन कालयवनादि वंशो की परम्परा में आने वाले सिकन्दर सैलूष (सैल्यूक्स) तथा उनके भारत दर्शन को आने वाले यूनानी यात्रियों विद्वानों को मथुरा का प्राचीन वैभव दिखलाने बतलाने जैन स्तूपों बिहारों मठों संघारामों सनातन धर्म के देव मन्दिरों घाटों तीर्थों वन उपवनों की यात्रा कराके उनकी भाषा में उन्हें भारत ज्ञान देने बाते उनसे तीर्थगुरू का सन्मान प्राप्त करने वाले ।<br />
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मीठे चौवों में कुछ पृथक अल्लै<br />
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10. पैंठवार – पुरूरवा की राजधानी ब्रज की प्रतिष्ठान पुरी(पैठोगांव) में जाकर बसने वाले ।<br />
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11. किंझरे- कंजाक्ष( कज्जाकस्तानी कंजर) तथा हिमालय किन्नौर क्षेत्र के किंन्नरगण (वैदिक किंपुरूष) जो ब्रज में कंझौली क्षेत्र में बसे थे । उनके सहवासी जन । किंन्नर नृत्य गान कुशल उपदेव थे जिनका राग कान्हडा माथुरी नारियों द्वारा 'कनहरी' के नाम से मंगल कार्यों के आरम्भ में बडे समारोह के साथ मिठाई आदि वितरण के साथ सम्पन्न होता है । प्रधान कन्हरीगानकर्त्री वयोवृद्धा को वस्त्र पात्र रूपया मिष्ठान आदि देकर सम्मानित किया जाता है । श्री कृष्ण का किन्नरोपम मधुर मोहक गान के कारण ही कान्हा कन्हैया नाम हुआ । बंबई को अंचल में माथेरान और कन्हैरी गुफायें माथुरों के समुद्र तट तक अपने उपनिवेश स्थापन करने के संकेत देते हैं । <br />
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12. बहरामदे- ये अबकर बादशाह के संरक्षक मुगल सरदार बैहराम खां (वैरम खां) के आश्रयवर्ती रहे थे । 1613 वि0 में जब हुमांयू की मृत्यु हुई और अकबर गद्दी पर बैठा उस समय उसकी 13 वर्ष की आयु के समय बालक बादशाह की राज्य व्यवस्था सभालने में बहराम खां का खास संरक्षण था । अकबर अपने शाहजादाकाल में पंजाब का जगीरदार था । जहां वैरमखां ही उसका सरपरस्त मीर जुमला बड़ा हाकिम था । अकबर के आगरा राजधानी में आने और आगरा समृद्धि और वैभव विस्तार में वैरमखां का योगदान सर्वोपरि था ।<br />
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13. तेहरिया- व्यास कालीन भागवत में प्रस्तुत विदुर मैत्रेय संवाद के ब्रह्राज्ञान तत्ववेत्ता मैत्रेय जिनवा आश्रम व्रन्दावन के क्षेत्र में तेहरा गांव तथा पांडवों के इन्द्रप्रस्थ महानगर में तिहाड था तथा जिनके वंशधर बाद में बौद्ध धर्म के अर्हत हो गये थे । पुराणों के अनुसार मैत्रेय पांचाल देश के राजा दिवोदास पुत्र मित्रेयु का पुत्र था । प्रथम यह आंगिरसारें का शिष्य था पीछे भृगु वंशियों में सम्मिलित हो गया । इसका वेदव्यास से धर्मतत्व संवाद "व्यास मैत्रेय संवाद" तथा श्रीकृष्ण का उद्धव को प्रदत्त सर्वोपरि ज्ञान संवाद जो इसने विदुर को उपदेश किया भागवत में हैं । मैत्रेय की बौद्धकालीन विशाल प्रतिमा मथुरा संग्रहालय में दर्मनीय हैं ।<br />
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14. मोरेसरिया- मथुरा जनपद में मौर्य सम्राटों का राज्य केन्द्र मौर्यश्री मुडेसी गांव में इनका निवास होने से मौर्यश्रीय ही मौरेसरिया प्रसिद्ध हुए । <br />
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15. मैंठिया- अवष्ठ नरेशों की राजधानी अमैंठी अंवष्ठपुरी के निवासी होने से अमैठिया मेठिया नाम से प्रसिद्ध हुए ।<br />
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16. सिहोरिया- ब्रज के सिंहोरा (नृसिंह वंशी सिंहों का पुर) के वास से प्रसिद्ध । <br />
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17. जुनसुटिया- यदुओं की जनुष्ठी शाखा के परिवर्तित नाम से विख्यात ये ब्रज के अजमीढ यादव वंशी जन्हु 4268 वि0 पू0 के जिनके जानूऔ जनूथर जुनसुटी जुन्हौती जान्हवी गंगा का प्राचीन प्रदेश, जन्हुकूप शान्तनुकुंड हैं उस वंश के प्रोहित जनुष्ठी तथा जुनसुटी में जाकर बसने वाले झुनसुटिया कहलाये । जन्हुऋषि बन गये थे ।<br />
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18. रिसिनियां- अंवरीष टीला(प्राचीन अंवरीषपुर) के माथुर चतुर्वेद पुर( टीला चौवियान) जहां पहिले चौवो के पूर्वज रहते थे तथा जिसके निकट ही माथुरों की आंगिरस यज्ञ स्थली थी उसके निवासी । यह स्थान टीला चौबियान के नाम से अभी भी उल्लिखित हैं जो उस टीले का ही रूप मात्र है ।<br />
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19. जैतिया – ब्रज के अजित शेषनाग के तपोवन जैतगांव में बसे माथुर जैत में प्राचीन नाग मूर्ति सरोवर तट पर हैं जो कितनी गहरी है यह खोदने पर ज्ञात नहीं हो सका है । <br />
मीठे चौवों की इन अल्लों से प्राचीनता के साथ इनका ब्रज के इन गांवों में जाकर बस जाना भी इतिहास पुष्ट है । आश्चर्य तो यह है कि अल्लों पर विचार करने वारले महानुभावों ने इनके मूल तथ्यों पर न पहुंच कर इन्हें मनमानी अंधकार युगीन तथा निरर्थक कह दिया है ।<br />
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==भार्गव गोत्र==<br />
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भार्गव गोत्रिय माथुर चौवे भृगुवंशी हैं । भृगुसतयुग कालीन 9400 वि0पू0 के ब्रह्रा द्वारा उत्पन्न 10 ब्रह्रा पुत्रों में से हैं । भागवत के अनुसार वरूणदेव की चार्षिणी पत्नी से 9153 वि0पू0 में भृगु बाल्मीकि अगस्त्य की उत्पत्ति हैं । भृगु परम तेजस्वी क्रोधी और आसुरी विद्याओं के आचार्य थे । भृगु को हिरण्यकश्यप की पुत्री पुलोमा से 7 पूत्र उत्पन्न हुए जिनमें च्ववन उशना शुक्राचार्य (हुषैना) बजी(वजीरी) और्व आदि प्रमुख थे । च्यवन के पुत्र आप्नुवाल तथा दधीच थे । दधीच के सरस्वती पत्नी से सारस्वत पत्नी से सारस्वत एवं आप्नुवान के ऋ़चीक इनके इमदग्नि इनके परशुराम आदि पुत्र हुए । शुक्राचार्य के पुत्र शंडामर्का भक्तराज प्रहलाद के विद्यागुरू थे । तथा वरूचि पत्नी ने त्वष्टा वृत्रासुर के पिता उत्पन्न हुए । भक्त प्रहलाद को फाल्गुनी के नर मेघ यज्ञ में होलिका अग्नि पुंज में लेकर ब्रज के फालैन गांव में बैठी जहां होली की महाज्वाला में पंडा अभी प्रवेश करता है जिसे देखने आश्चर्य चकित हजारों दर्शक अभी भी आते हैं । प्रहलाद को साथुर भृगुवंशी तीर्थ पुरोहितों ने विश्वतीर्थाटन के साथ ब्रज और मथुरापुरी की भी तीर्थ यात्रा करायी जिससे वे गजाह्वय तीर्थ(गजापाइसा), वामनतीर्थ (सरस्वती संगम मथुरा), देवदेवेश आदि नारायण तीर्थ(प्राचीन गतश्रम विश्रान्त तीर्थ), त्रिविक्रम का गुह्रा तीर्थ(सतीघाट) यामुनतीर्थ (कंस किले के नीचे) आदि तीर्थों में वे तीर्थयात्री बनकर फिरे तथा मथुरा के यमुनातट के तीर्थों( घाटों) पर स्नान कर दान किये इनमें विश्रान्त का दान प्रमुख था । <br />
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भृगुवंशी अग्नि पूजक असुरपुरोहित थे । उनने अंगिराओं के सदृश ही सर्वप्रथम (मंथन से) अग्नि प्रगट की । वे मातरिश्वा वायुदेव के राष्ट्र वायुरूप (यूरोप) से अभिचार अग्नि भारत में लाये । भार्गव सोमपान के प्रेमी थे । मेधनाम के यज्ञों में बलिकर्म के लिये ये बुलाये जाते थे । ब्रह्राणों की सताने वालों के ये का थे, जो गुण पूर्ण प्रभाव के साथ परशुराम अवतार में प्रगट हुआ । ये स्वायंभूमनु 9000 वि0पू0 के दामाद, शंकर जी के साढू, शिव विरोधी दक्ष के पक्षधर तथा दक्ष यज्ञ के होताओं में थे । इनने शिवगण नंदी को शाप दिया जिसमें शंकर भक्तों की हीनता कही, तथा उसे यज्ञ से भगा दिया तब ही वीरभद्र ने इनकी दाड़ी उखाड़ कर इन्हें अग्नि में डाल दिया । तब दग्ध होकर वीरभद्र की स्तुति की और बकरे समान छोटी आसूरी (मुशलधारियों जैसी) दाढी रखने की इन्हें स्वीकृति मिली ।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_9&diff=56238चतुर्वेदी इतिहास 92010-04-23T06:57:53Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==गोत्रों का ऐतिहासिक परिचय==<br />
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माथुर ब्राह्मणों के गोत्र 7 हैं। ये प्राचीन सप्त ऋषियों की प्रतिष्ठा में उन्हीं के द्वारा स्थापित हुए थे। इनकी ऐतिहासिकता संदेह से परे है। इन सात गोत्रों के गोत्रकार ऋषियों की परम्परा में नाम इस प्रकार हैं। <br />
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# दक्ष गोत्र<br />
# कुत्स गोत्र <br />
# वशिष्ठ गोत्र<br />
# भार्गव गोत्र<br />
# भारद्वाज गोत्र<br />
# धौम्य गोत्र<br />
# सौश्रवस गोत्र<br />
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===दक्ष गोत्र परिचय=== <br />
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दक्ष गोत्र प्रजापति ब्रह्मा के 10 मानस पुत्रों में सर्व प्रतिष्ठित प्रजापतियों के पति (10 ब्रह्मपुत्रों की धर्म परिषद के अध्यक्ष) रूप में सर्वोपरि सम्मानित थे। 9400 वि0पू0 की ब्रह्मदेव की मानसी सृष्टि के केन्द्र ब्रह्मपुर्या माथुर महर्षियों के क्षेत्र मालाधारी गली ब्रह्मपुरी पद्मनाभ स्थल के ये अधिष्ठाता थे। आदि प्रयागतीर्थ मथुरा के उत्तरगोल सूर्यपुर में प्रजापत्य याज्ञ करके प्रजापति विभु स्वयंभू ब्रह्मदेव ने इन्हें समष्ट वेद-वेदज्ञ यज्ञ कर्मकर्ता प्रजापितयों का अधिष्ठाता नियुक्त किया था। ऋग्वेद में इनके मन्त्र हैं। देवों से पूजित होने और बड़े-बड़े यज्ञों, संस्कारों, धार्मिक कृत्यों के सर्बश्रेष्ठ नियन्ता होने के कारण ये अपार विद्याओं के समुद्र तथा अपार द्रव्य राशि के स्वामी थे। इनका अपना विशाल आश्रम मथुरा के सुयार्श्व गिरि पर था ऐसी हरिवंश पुराण से ज्ञात होता है। इन्होंने अपने दक्षपुर (छौंका पाइसा) में महासत्र का आयोजन करके माथुर महर्षियों की ब्रह्मविद्या से अर्चना करके समस्त सुपार्श्व गिरि को सुवर्ण से आच्छादित कर उसकी शिखरों को रत्नों से देदीप्यमान कर उस समय (9400 वि0पू0) एक मात्र कर्मनिष्ठ लोकवंद्य देवपूजित माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों को दान में अर्पित कीं और उन्हें यह निर्देश दिया कि वे अनकी प्रदत्त पुण्य भूमि को खण्ड-खण्ड करके कभी विभाजित न करें उसका सम्मिलित रूप से उपभोग करते रहें। उनके इस निर्देश पर भी उन ब्राह्मणों के वंशजों ने लोभ वश स्वर्ण बटोरकर उस शोभायमान पर्वत की श्री हीन करके कई खण्डों में विभाजित कर डाला। इस अनैतिक आचरण से खिन्न और कुपित होकर महामान्य दक्ष ने उन्हें शाप दिया कि वे लालची, कलही, भिक्षुक और कुल मान्यता से शून्य प्रतिष्ठा हीन हो जायेगें। महापुण्य दक्ष के सुपाश्व के विभिन्न शिखिर खण्ड मथुरा में आज भी पाइसा नामों से (गजा पाइसा, नगला पाइसा, शीतला पाइसा, कुत्स पाइसा, छौंका पाइसा) नामों से प्रसिद्ध हैं ध्यान देने की बात हे कि पाइसा शब्द का प्रयोग भारत के और किसी भी स्थान में कही भी प्रयुक्त नहीं है। <br />
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दक्ष यज्ञ- प्रजापति दक्ष ने अनेक बहु दक्षिणा युक्त यज्ञ किये। इनमें वह यज्ञ सर्वाधिक विख्यात है जिसमें इनका कन्या सती ने यज्ञ कुण्ड में कूदकर प्राणों की आहुति दी तथा भगवान यछ्र के गण रूप से वीरभद्र द्वारा देवों और ऋषियों का महाप्रतारण हुआ। पुराणों के अनुसार महात्मा दक्ष के प्रसूति नाम की पत्नी से 16 कन्यायें हुई थीं। इनमें से 13 उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा को दी अत: वे ब्रह्मदेव के श्वसुर होने से महान गौरव पद को प्राप्त हुए। उन्होनें स्वाहा पुत्री अग्निदेव प्रमथ माथुर को दी जिससे वे माथुरों के गोत्रकार बनकर मातामह बने। उन्होंने स्वधा नाम की पुत्री पितगों को दौं अत: पितृगण भी उनकी जामाता बनकर श्राद्धों में आदर पाते रहे। उनको उबसे छोटी स्नेहमयी लाडली पुत्री सती थी जो त्र्यंवक रूद्रदेव को ब्याही गयी। इतने प्रधान देवों का पितृ तुल्य श्वसुर पदधारी होने से दक्ष को महाअभियान हो गया। एक वार ब्रह्माजी की सभा (ब्रह्म कुण्ड गोवर्धन शिखर) पर उनके पहुँचने पर सभी देवों ने उन्हें नमन और अभ्युत्थान दिया परन्तु भगवान रूद्र गम्भीर मुद्रा में बैठे रहे इससे उन्होंने रूद्र द्वारा अपना अपमान किया जाना अनुभव किया और प्रतिकार रूप में एक विशाल यज्ञमूर्ति प्रभविष्णु की अर्चना युक्त जो अष्टभुज धारी महाविष्णु थे एक यज्ञ का आयोजन मथुरा में यमुना तट पर कनखल तीर्थ में आयोजन किया। इस यज्ञ में दक्ष प्रजापति ने अहंकारवश रूद्र को आमन्त्रित नही करते हुए यज्ञवेदी पर उनका देव आसन भी नहीं स्थापित किया। देवी सती यज्ञ में बिना बुलाये ही माता पिता के स्नेह से आतुर होकर पधारीं और यज्ञ मण्डप में भगवान रूद्र का आसग न देख महाक्षुब्ध होकर यज्ञाग्नि के विशाल कुण्ड में दलांग लगाकर आत्माहुति दे दी। तब रूद्र भगवान की भृकुटी भंग से उनके गण वीरभद्र (भील सरदार) ने भूत सेना लेकर यज्ञ का विध्वंश किया जिसमें पूषा, भग, भृगु आदि सभासद ताड़ित और दण्डित हुए और अन्त में शिरच्छेद के बाद अजामुख दक्ष भगवान रूद्र कों शरणागत हुआ। भगवान रूद्र की यह एतिहासिक घटना 9358 वि0पू0 की है तथा ब्रह्मर्षि देश के मथुरा सूरसेनपुर में घटित हुई । विद्वान मूल तथ्यों से भटक जाने के कारण हरिद्वार इसे या अन्यत्र कहीं खोजते-फिरते हैं जबकि हरिद्वार (गंगाद्वार) भगीरथ के गंगावतरण के समय 4771 वि0पू0 में स्थापित हुआ। <br />
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मथुरा में यमुना के तठ पर अभी भी कनखस तीर्थ एक अति पुरत्तन पुराण वर्णित तीर्थ मौजूद है, यही समीप में भगवान रूद्र का त्र्यंवक (तिंदुक) तीर्थ तथा वीरभद्र गणों और मरूतों के युद्ध का स्थल मरूत क्षेत्र (मारू गली) सती मांता का पुरातन मठ (दाऊजी मन्दिर जहाँ क्षुरधारी मरूत ढाल बरवार वारे हनुमान के नाम से स्थित हैं। मथुरा में ही भूतनगर (नगला भूतिया) वीरभद्रेश्वरूद्रदेव , दक्षपुरी छौंका पाइसा तथा उसके निवासी दक्ष गोत्रिय माथुर छौंका वंश (महाक्रोधी , अभिमानी) अभी स्थित हैं। दक्ष की कथा विस्तार से भागवत आदि अनेक पुराणों में वर्णन की गयी है।<br />
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दक्ष वेद-प्रशस्त देव सम्मानित राजर्षि थें। इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग्0 1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरूण किये जाने का कथन ऋग्0 10-143-1 में है। वे दक्ष स्मृति नाम के धर्मशास्त्र के कर्ता है जिसमें आश्रम धर्म , आचार धर्म , आशीच , श्राद्ध, संस्कारों, व्यवहार धर्म तथा सुवर्ण दान के महान्म के प्रकरण कहे गये हैं।<br />
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===मन्वन्तरों में समयों में सप्तऋषियों में आद्य स्थापना===<br />
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मानव वंशों को "स्वस्वं चरित्र शिक्षेरेन पृथिव्यां सर्वमानवा:" का निर्णायक उद्घघोष प्रवर्तित करने वाले स्वायंभू मनुदेव के समय के सप्तऋषियों की धर्मपरिषद में माथुरों के आदि महापुरूषों में दक्ष आदि का प्रमाण है। <br />
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'''1- स्वायंभूमनु का मन्वन्तर काल 9000 वि0पू0 चैत्र शुक्ल 3 के समय उनके सप्तऋषि मण्डल में''' <br />
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1. आँगिरस, <br />
2. अत्रि, <br />
3. क्रतु, <br />
4. पुलस्त्य, <br />
5. पुलह,<br />
6. मरोचि, <br />
7. वशिष्ठ समाहित थे। <br />
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इनमें से ब्रतु, पुलस्त्य , पुलह के वंश आसुरी सम्पर्क में आकर ब्रह्मर्षि देश से बाहर उत्तर, पश्चिम भूखण्डों एशिया यूरोप सुदूर दक्षिण आदि में चले गये। आँगिरस (कुत्स) , दक्ष (आत्रेय वंश) मरोचि (कश्यप धौम्यवंश) वशिष्ठ (वेदव्यास वंश) मुरा मण्डल में अनु राजधानी में रहे तथापि देव, दानव, आसुर पोरोहिव्यधारी इन वहिर्गत महर्षियों को भी विश्व संगठन प्रवर्तक मान मनु महाराज ने इन्हें मण्डल बाह्य नहीं किया।<br />
<br />
2- स्वारोर्चिष मन्वतर- 9962 वि0पू0 भाद्र पद कृष्ण 3 के प्रवर्तन समय के सप्त ऋषियों में माथुर वंश के भार्गव गोत्रिय और्व तथा आंगिरस वंशज वृहस्पति देव, आत्रेय पुत्र निश्च्यवन अन्य 4 महर्षियों के मण्डल में स्थापित हुए। <br /><br />
3- उत्तम मन्वर - (8530 वि0पू0 पाल्गुन कृष्ण 3 को स्थापित) मन्वतन्र के सप्तऋषि मण्डल के वशिष्ठ वंशों माथुर महर्षि ऊध्ववाहु शुक सदन सुतया आदि सम्मानित हुए थे। <br /><br />
4- तामस मनु क मन्वंतर - (8360 वि0पू0 पौष शुक्ल 1 में) माथुरों का अग्नि (प्रमथ) वंश चैत्र ज्योर्तिधीम धात् आदि सदस्यों के रूप में स्थापित था। <br /><br />
5- रैवत मन्वंतर - (8186 वि0पू0 आषाढ़ शुक्ल 10) स्थापित में सप्तर्षि मण्डल में माथुर महामुमि वशिष्ठ के वंशज सत्यनेत्र, अर्ध्वबाहु, वेदबाहु, वेदशिरा आदि धर्म प्रवर्तक थे। <br /><br />
6- चाक्षुष मन्वंतर - (7428 वि0पू0 माघ शुक्ल 7) प्रवर्तित के सप्तर्षि मण्डल में भगवान आदि नारायण (गताश्रम नारायण) के अशंभूत्त विराट मत्स्यपति ब्रजमण्डल संस्थापक भगवान विराज, श्रीयमुना जी के पिता विवस्वान सूर्य परिवार के विवस्वंतदेव, सहिणु सुधामा, सुमेधा आदि माथुर मुनीन्द्र लोकधर्म प्रतिपालक रहे। इस मन्वन्तर में ही बैकुण्ठलोक के स्थापक भगवान बैकुण्ठनाथ (बैकुण्ठतीर्थ मथुरा) तथा विरजरूप में प्रभु दीर्घ विस्णु के लोक संस्थापक अवतार हुए। <br /><br />
7- वेवस्वत मन्वंतर - (6379 वि0पू0 श्रावण कृष्ण 8) प्रवर्तित के महाविश्व विस्तृत सप्तऋषि मण्डल में माथुर ब्राह्माणों के पूजनीय पुर्व पुरूष अत्रि (दक्ष गोत्र) , कश्यप (धौम्य पूर्वज) , यमदंग्नि (भार्गव गोत्र) परशुराम अवतार के पिता वशिष्ठ (महर्षि वेदव्यास के पूर्वज ) विश्वामित्र सौश्रवस गोत्र पूर्व पुरूष ) देवपूजित विश्वधर्म के संचालक थे। केवल गौतम महर्षि जो गौतम आश्रम (गोकर्ण) टीला कैलाश) पर रहते थे आंगिरसों से विरोध उत्पन्म हो जाने के कारण भगवान माहेश्वर रूद्र की अनुज्ञा से मथुरा त्याग कर कुवेरबन (वर्तमान वृन्दावन) में (गौतमपारा) बसाकर जाकर रह गये। इनके वंशज गौतम ब्राह्मण अभी भी इस स्थान पर बसते हैं। इन ऋषियों के वंशधर बाद के व्यतीत मन्वन्तरों में सप्तर्षि मण्डलों में भी स्थापिय रहे। <br />
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यह भी प्रमाणित तथ्य है कि इन सभी मन्वन्तरों की स्थापना आद्य मनु की पुरी मथुरा सूरसेनपुरी में ही परम्पराबद्ध रूप से होती रहीं और ये ब्रह्मर्षि देश के पवित्र देवक्षेत्र में जहाँ-तहाँ स्थापित हो धर्म प्रशासन चलाते रहे। इस प्रकार परम सुनिश्चित सुपुष्ठ इतिहास परम्परा और शास्त्र प्रमाण से माथुर ब्राह्मणों की प्राचीनता और पदगरिमा की प्रशस्त स्थिति स्पष्ट है। <br />
अनेक युगों में ऋषियों की उपस्थिति<br />
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प्राय: यह शंका उठाई जाती है कि देव और ऋषि एक ही रूप में प्राय: प्रत्येक काल और युग में उपस्थित दीखते हैं जिससे उनकी आयु और जीवन स्थिति में अति असंवद्धता प्रगट होती है। इस सन्दर्भ में शास्त्र पद्धति की एक महत्वपूर्ण बात हमें जान लेनी चाहिये। भारतीय परम्परा के संस्थापकों ने देवों ब्रह्मपुत्र ऋषियों के लिये अजरामर रूप में बने रहने के लिये अमरत्व की एक विशेष प्रक्रिया स्थपित की थी जिसके अनुसार जिन देवों और ऋषि-महार्षियों को त्रिकाल व्याप्त पदों पर प्रितष्ठित किये गये थे उनके वे पद पीठ आसन या गादी नाम से स्थिर थे। ब्रह्मा, इन्द्र , अग्नि, वरूण , कुवेर, यम, सूर्य , चन्द, आदि देव कोई एक व्यक्ति नहीं अपितु ये प्रतिष्ठा सपद थे। इन पदों पर एक व्यक्ति के पद मुक्त होने से तत्काल पूर्व ही दूसरे पदधारी की प्रतिष्ठा कर दी जाती थी जिससे साधारण प्रजा को यह ज्ञात ही नहीं हो पाता था कि कौन पदधारी कब बदला। ब्रह्मा, इन्द्र, आदि अनेक हुए हैं इसी प्रकार कश्यप , अत्रि , वशिष्ठ, अंगिरा , नारद, भृगु, दक्ष आदि बहुत से हुए हैं वे सभी अपने पदों पर आसनारूढ या पदारूढ होते रहे हैं। इसी कारण से वेदों-पुराणों में किसी देवता या महर्षि का बृद्धता से लाठी टेककर चलना या उनकी मृत्यु होने का कथन नहीं है। वे प्राय: सामर्थ्यशाली दशा में ही पद मुक्त होकर उत्तर ध्रुव के महाप्रयाण लोक को प्रस्थान कर जाते थे। इस तथ्य का आधुनिक काल में प्रमाण जगद्गुरू शंकराचार्य की पाद पीट है जहां शंकराचार्य देव आदि स्थापना से अभी तक अजर-अमर बने विराजमान हैं। देवों, ऋषियों का प्रत्येक युग में एक उसी नाम से वर्तमान रहने का यही गूढातिगूढ रहस्य है जिसे हमें समझ लेना चाहिये। <br />
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'''दक्ष गोत्र के प्रवर''' - गोत्रकार ऋषि के गोत्र में आगे या पीछे जो विशिष्ट सन्मानित या यशस्वी पुरूष होते हैं वे प्रवरीजन कहे जाते हैं और उन्हीं से पूर्वजों को मान्यता यह बतलाती है कि इस गोत्र के में गोत्रकार के अतिरकित और भी प्रवर्ग्य साधक महानुभाव हुए है। दक्ष गोत्र के तीन प्रवर हैं। 1. आत्रेये 2. गाविष्ठर 3. पूर्वातिथि। <br />
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'''1. आत्रेय''' - महर्षि अत्रि के पुत्र थे। ये चन्द्र पुत्र अत्रि के छोटे पुत्र थे। महर्षि दक्ष के पुत्र न होने से इन्हें मानस पुत्र बनाया था तथा चन्द्रमा दत्तात्नेय के माह होने पर भी दक्ष वंश में चले जाने से इन्हें अत्रिवंश में नहीं गिना गया। ये वेदज्ञ विपुल यज्ञ कर्ता थे। मंटी ऋषि के के ये शिष्य थे तथा इनने वैत्तरेय संहिता का पद पाठ निर्धारण किया था। इनकी शास्त्रीय रचना आत्नेयी शिक्षा तथा आत्नेयी संहिता है।<br /> <br />
'''2. गाविष्ठर''' - ये यज्ञ और वेद विद्या के महान आचार्य थे। समाइगय राजेश्वर वभ्रु के यज्ञों को इनने गृत्समद ऋषि के सा सम्पन्न कराये थे। <br /><br />
'''3. पूर्वातिथि''' - ये अत्रि कुल के महान आचार्य थे। इनका समय 8758 वि0पू0 है। भारतीय इतिहास काल में दक्ष दो हुए हैं। पहले दक्ष प्रजापति पुत्र दक्ष दूसरे प्राचेतस दक्ष। माथुरों के गोत्रकार प्रथम दक्ष है। दक्षों का वेद ऋग्वेद है। शाखा आश्वलायनी है तथा कुलदेवी महाविद्या देवी है। इनकी 4 अल्ल हैं 1. दक्ष, 2. ककोर, 3. पूरवे, 4. साजने। अल्ल उपजाति या आस्पद को कहते है। मनु ने इसे 'विख्याति' नाम दिया हे। आस्पद का अर्थ है आदर्शपद जो कुल के आदर्श कर्म या स्थान को संकेत करता है। जिस संज्ञा से समूह की लोक के ख्याति होती है उसे आख्यात या आख्या कहा जाता है। अलंकृति सूचक कुल नाम को अल्ह या अल्ल कहते है। <br />
दक्ष - ये दक्ष प्रजापति के पदासीन ज्येष्ठ (टीकैत) पुत्रों का वर्ग है। ये अधिक तर द्विजातियों के यज्ञोपवीत, विवाह , यज्ञ, अनुष्ठान आदि संस्कार कराते है। दक्ष ये मूल अल्ल है। <br />
2. ककोर - ये यादवों की कुकुर शाखा के कुलाचार्य थे। इनका पुरा मथुरा में कुकुरपुरी , घाटी ककोरन के नाम से स्थित है। ये यादवों के पुरोहित होने से बड़े समृद्ध और सम्पत्तियों के स्वामी थे। कौंकेरा, ककोरी, कक्कु, कांकरौली, कांकरवार, ककोड़ा इनके विस्तार क्षेत्र थे। <br />
इस वंश में महापूजय श्री उजागरदेव जी वामन राजाओं के पुरोहित बड़े चौबेजी थे जो बादशाह अकबर के दरबार में सम्मान पाते थे। <br />
3. पूरवे - ये सम्राट पुरूरवा च्रन्द्रवंशी के पुरोहित कुल में से हैं। <br />
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'''4. साजने या फैंचरे''' - ये साध्यजनों के पति गन्धर्वराज उपरिचर वसु (फैंचरी ब्रज) के पुरोहित थे। उपरिचर वसु बहुत शक्तिशाली सम्राट था। जिस इन्द्रदेव ने अपना ध्वज (झण्डा) देकर इन्द्र ध्वज पूजन की उत्सव विधि का उपदेश किया था। जिसे गंधारी केतुओं ने सद्दे और अलम के रूप में पूजना और उत्सव में प्रयुक्त तथा रण में फहराना सीखा। उपरिचय मगध देश के जरासंध परिवार का पूर्व पुरूष था तथा मत्स्य देश के राजा सम्स्या और वेद व्यास माता मत्स्यगन्धा सत्यवती भी इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। उसका राज्य गोपाचल क्षेत्र (ग्वालियर) में पिछोर पचाड़ गांग क्षेत्र में था। <br /><br />
5.सोखिया - मीठे वर्ग में यह अल्ल है जो सौंख खेड़ा में शौनक क्षेत्र में बसने से प्रख्यात हुई है। <br /><br />
'''6. जुनारिया''' - यह अल्ल अब देखने में नहीं आती है जान्हवी गंगा के प्रवर्तक जन्हु ऋषि (राजा) के प्रशासन क्षेत्र पुण्य क्षेत्र तीर्थों के केन्द्र में निवास करने से यह नाम प्रसिद्ध था जो जान्हवी के लोप होने के साथ ही अलक्ष हो गया है। <br />
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दक्ष का बहुत बड़ा परिवार था। प्रथम दक्ष (9400 वि0पू0) की 16 कन्याओं से प्रजापति ब्रह्मा, ऋग्वेद प्रतिष्ठापक अग्निदेव , पितृदेव तथा सती के पतिदेव रूद्र से प्राय: सभी देवों और ऋषियों के परिवार बढ़े और फंले। दूसरे प्रचेतरा दक्ष (7822 वि0पू0) में इसकी 60 कन्याओं में से ऋषि कश्यप आदि द्वारा सारे विश्व (यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका) के मानव वंश विश्व में विस्तारित हुए। अत: माथुरों का दक्ष वंश सारे संसार की जातियों और भूखण्डों का आद्य जनक और संस्कृति शिक्षक है ऐसा सिद्ध होता है। <br />
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===कुत्स गोत्र===<br />
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दक्ष के बाद कुत्स गोत्र सर्वाधिक व्यापक महान और पूजनीय सिद्ध होता है। कुत्स वंश के आद्य पुरूष महर्षि अंगिरा थे। जिनका वेदों पुराणों में सर्वाधिक वर्णन है। अंगिरा और भृगु आद्य अग्नि उत्पादक यज्ञ प्रवर्तक थे, तथा अग्निदेव (प्रमथो) के साथ समस्त विश्व में पर्यटन कर जंगली प्रजाओं को अग्नि का प्रयोग बताकर उन्हें सभ्यता के पथ में आगे बढ़ाने का इनने प्रयास किया था। <br />
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'''कुत्स महर्षि''' - आंगिरसों के कुल में उत्पन्न हुए थे। कुत्स का समय (6103 वि0पू0) है, तथा इनका मथुरा में आश्रम कुत्स सुपार्श्व श्रंग (कुत्स पाइसा या अपभ्रंश में कुत्ता पाइसा) कहा जाता है। कुत्स आचार शिथिल लोगों की कठोर शब्दों में भर्त्सना (कुत्सा) करते थे।, जो उनकी धर्म दृढ़ता और सावधान मनस्थिति का द्योतक था। इसी से आतंकित होकर प्रताड़ित जन उनके नाम को कुत्स कसे कुत्ता बनाने लगे। महर्षि कुत्स का एक और आश्रम गुजरात में भी था जिसे कुत्सारण्य की जगह ऐसे ही लोग 'कुतियाना गाँव' कहने लगे। कुत्स बड़े स्वरूप वान थे एक बार इन्द्र के महल में सजधज कर जाने पर इन्द्रानी इन्दे पहिचान न सकी क्योंकि ये वज्र धारथ कर इन्द्र के साथ संग्रामों में जाते थे। इन्द्र से इनकी ऐसी मित्रता थी कि एक बार सूर्य देव से इनका विरोध होने पर इन्द्र ने सूर्य के रथ का एक पहिया निकाल लिया तथा दूसरा भी निकाल कर इन्हें दे दिया 2। एक बार घर आने पर कहना न मानकर घर जाने को तैयार इन्द्र को इनने रस्सियों से बाँध लिया।3।। इनके वंशधर कौत्स ने अयोध्या सम्राट रघु (4181 वि0पू0) से अपने गुरू विश्वामित्र के शिष्य बरतन्तु (तेतूरा गाँव मथुरा) को गुरूदक्षिणा देने को 14 करोड़ स्वर्ण मुद्रा माँगी। रघु उस समय महान विश्वजित यज्ञ में सारा कोष दान कर चुके थे। कोषगारपति की सूचना से उद्विन्न हो रघु न कुवेर पर चढ़ाई करने का निश्चय किया। सायंकाल रथ आयुधों से सजवाया, प्रात: ही चढ़ाई करने वाले थे, तभी रात्रि में कुबेर ने स्वर्ण वृष्टि कर राज्य का पूरा कोष स्वर्ग से भर गया है। रघु ने हर्षित होकर कौत्स मुनि से सम्पूर्ण कोष का सुवर्ण ले जाने की प्रार्थना की परन्तु कौत्स ने कहा- "राजन् मैं 14 कोटि से एक कौड़ी भी ज्यादा नहीं लूंगा। इतना ही तों मुझे गुरूदक्षिणा में देना है" राजा चंकित रह गया और आज्ञानुसार द्रव्य बरतन्तु मुनि के आश्रम में ऊँटों-गाड़ी , बैलों से पहुँचाया। माथुरों का 6000 वर्ष पूर्व असाधारण त्याग का वह एक सर्व पुरातन महान प्रमाण है। <br />
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कौत्स मान्धाता के गुरू थे। इनको भगीरथ ने अपनी कन्या दी थी ये बेद मंत्र कर्ता बड़े परिवार के स्वामी थे अत: इनके परिवार के 70 ऋषियों के नाम ऋग्वेद मण्डल में मंडल 1 3,5,810 में उपलब्ध है। इनके पुत्र अंगिरा के अग्नि, इन्द्र, विश्वेदेव, अश्विनौ, उषा , सूर्य रूद्र, रात्रि, सोम, भृगुगण आदि की स्तुति के मन्त्र ऋग्वेद मंडल 1 में है। इससे इनका इन सभी वैदिक देवों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध अनेक यज्ञों में उपस्थित होना तथा इन देवों से इन्हें प्रभूत दक्षिणा गो, स्वर्ण मिलने का संकेत मिलता है। कुत्स के 12 शिष्यों के मन्त्र ऋग् 5-31 में हैं। वेद वर्णन से ज्ञात होता है कि दस्युभज इनके इन्द्रादि द्वारा सम्मान से कुपित थे, अत: इनके परम मित्र इन्द्र ने इनकी रक्षा के लिये शुष्ण (सुसनेर) कुयव (जावरा) (सापर बड़ौद) वासी दस्युओं को मारकर उनके दुर्ग ध्वस्त किये थे। शत्रुओं द्वारा कूप में डाले गये इनका इन्द्र ने उद्धार किया 3। इन्द्र ने प्रसन्न होकर कुत्स को वेतसु (तस्सोखर) तुग्र (ताल गाँव) , मधैम (दियानौ मथुरा) नाम के क्षेत्र अर्पण किये थे। <br />
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'''आंगिरस''' - आंगिरस वंश से इनकी परम्परा निरन्तर चलती है। इनका समय 9400 वि0पू0 चलता है। इनका आश्रम मथुरा में अम्बरीष टीले के सामने स्यायंभूमनु के सरस्वती तटवर्ती विन्दुसरोवर के यमुना तट समीप है जिसे प्राचीन बाराह पुराण के मथुरा महात्म में "आंगिरस तीर्थ लिखा है। प्राचीन ऋषियों में आंगिरसों का महत्व सर्वाधिक है। ये इतने गौरवशाली थे कि सवय नामक इन्द्र स्वयं आकर इन्हें पिता बनाकर इनका पुत्र बनकर इनके घर में रहा था। "अभूदिन्द्र: स्वयं तस्यं तनय: सव्य नामक:। अंगिरावंश वेदों के स्तोत्र पढ़ने में अद्वितीय परिगत थे। इनके स्तोत्र द्वारस्तंभों की तरह स्थिरता युक्त और अचल है। इन्द्र ने अंगिराओं ने (इंगलैड के ब्रात्य ब्रिटिशों के शिक्षकों के ) साथ पणियों (फिनशियनों) द्वारा चुराई गायें (पिनियन पर्वत) पर पायीं। इन्द्र से यह प्रार्थना भी की गयी है। कि - 'हे सर्वशक्तिशाली देव जिन्होंने नौमहीना (नवम्बर) में यज्ञ समाप्त किया है तथा दस महीना (दिसम्बर) में यज्ञ की पूर्ति की हैं, ऐसे सप्त संख्याओं वाले सद्गति पात्र महा मेधावी के सुखकर स्तोत्रों से तुम स्तुत किये गये हो । अंगिराओं ने मन्त्रों द्वारा अग्निदेव (माथुर देव) की स्तुति करके महावली और दृढ अंगों वाले (पानीपत वासी) पणि असुर को मन्त्र वल से नष्ट कर दिया था तथा हम अन्य ऋषियों के लिये द्युलोक (ब्रहमण्डल द्यौसरेस द्यौतानौ) देव क्षेत्र का मार्ग खोल दिया था। अंगिरसों ने इन्द्र के लिये अन्न अर्पित कर, अग्नि ज्वालाओं द्वारा इन्द्र का पूजन और हविदान कर यज्ञ कर्म के प्रधान पुरूषों के रूप अशव गौ तथा बहुत सा द्रव्य प्राप्त किया। अंगिरावंशी अंगिरसों ने मथुरा के भांडीरबन में "आंगिरससत्र" किया जिसमें विष्णु से कल्याण कामना का संकल्प था। इसी सत्र में श्रीकृष्ण बल राम ने अपने सखा भेज कर यज्ञान्न (मधुयुवत पुरोडाश) की याचना की और यज्ञ पत्नियों द्वारा सत्कृत और पूर्ण तृप्त होकर माथुरों की कर्म श्रेष्ठता का बंदन करते हुए इन्हें सदैव घृत पूर्णित और उत्तम भोजनों से सर्वत्र सब युगो में आदरित होने का वरदान दिया। <br />
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माथुर ब्राह्मणों के उच्चतिउच्च सदाचार और ज्ञान गौरव के आगे नत मस्तक होकर देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने आंगिरस प्रवरी घोर अंगिरस महर्षि से उपनिषदों का अध्ययन करके दुर्लभ ब्रह्मा विद्या भी प्राप्ति की जिसका उपयोग उन्होंने "श्री मद् भागवद गीता" में करके विश्व को सर्वोच्च दार्शसिक तत्व चिंतन के पथ पर चलने का दर्शन शास्त्र दिया। आंगिरसों की वैदिक वाणी से उत्पन्न आसुरी वैकृत भाषायें ग्रीस देश की ग्रीक, इगलेंड की आंगिरसी इंगलिश तथा अंगोला की महाबृषो "हवशियों" की भाषा अंगोलियन हैं , जो आंगिरसी शिक्षा के लिये कभी समर्पित थीं। आंगिरसों ने धर्म शास्त्र ग्रन्थ समृतियों का भी प्रवर्तन किया है। आंगिरा ने मथुरा के चित्रकेतु राजा वि0पू0 9332 के मृत पुत्र को जीवितकर ज्ञानोपदेश कराया । आंगरिसों ने स्वर्ग जाने में आदित्यों से स्पर्धा की तब आदित्य पहिले स्वर्ग पहुंच गय आंगिरा 60 वर्ष यज्ञ करने के बाद स्वर्ग पहंचे। आंगिरस पहिले ब्राह्मण थे जिनने सर्व प्रथम वाणी (भाषा) और छंद रचना ज्ञान देवों से प्राप्त दिया। आंगिरसों के परिवारों में गौत्र प्रवर्तक ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं-बृहस्पति भारद्वाज , आश्वलायन, गालव, पैल, कात्यायन, वामदेव, मुद्गल , मार्कड, तैतरेय, शौंग, (शुंग) , पतंजल्लि, दीर्घतमा, शुक्ल, मांधाता , यौवनाश्व , अंवरीष आदि । <br />
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'''यौवनाश्व प्रवर''' – कुत्स गोत्र का यौवनाश्व प्रवर युवनाश्व पुत्र चक्रवर्ती सम्राट मांधाता के आत्म समर्पण का द्योतक है। मान्धाता यौवनाश्व का समय 5576 वि0पू0 है। भागवत के कथन से यौवनाश्व मांधाता पुत्र अंवरीष का पुत्र था जो अंगिराओं के शिष्यत्व से क्षातियोपेत ब्राह्मण बने। मांधाता यौवनाश्व चक्रवर्ती सूर्यवंशी सम्राट था और इसका साम्राज्य पश्चिम समुद्र तट कच्छ करांची (दांता राज्य) से पूर्व में जापान द्वीप तक था जो सूर्य उदय और सूर्य अस्त का क्षेत्र था। मथुरा के नमक व्यापार पर एकाधिकार के लिये लवणासुर ने इसका राज्य छीन लिया। यह मथुरा माथुर ब्राह्मणों और माथुरों के आराध्य वाराह देव का परम भक्त था तथा वाराह देव की पूजा इसने सारे भारत वर्ष में फैलायी थी। भरना मथुरा के क्षेत्र वासी महर्षि सौभरि से इसने श्री यमुना महारानी का पंचाग उपासना मार्ग ग्रहण किया और उन्हें अपनी 50 कन्यायें देकर उनका राजवैभव विस्तृत किया। ऋग्वेद में इनका मन्त्र 10-134 पर है। <br />
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कुत्स गोत्र का वेद ऋग्वेद शाखा आशवलायनी तथा कुल देवी महाविद्या जी है। कुत्स गोत्र के आस्पद भी बहुत महत्व पूर्ण हैं जो अपनी प्रमाणिक श्रेष्ठता के विस्तार को प्रतिपादित करते हैं। <br />
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1. मिहारी - ये सबसे अधिक ज्ञानी गुणी लोक सम्मानित और समाज के सरदार शीर्ष वर्ग में से हैं। यही एक ऐसा वर्ग है जो अपने महा महिमा मंडित आद्य पूर्वज श्री ज्ञान तपो मूर्ति उद्धवाचार्य देव के गुणों का गर्व करता हुआ एक ही उनके 200 से भी अधिक परिवारों में माथुर पुरी के प्रधान केन्द्र स्थान मिहार पुरा में अवस्थित हैं प्रलय में भी नष्ट न होने वाले ब्रज द्युलोक महालोक (महजन तप) महारानौ महरौली के आद्यक्षेत्र से वाराह यज्ञ में उतर कर मथुरापुरी में आकर पूजित होकर स्थापित हुए। नन्द जशोदा तथा ब्रज के गो संस्कृति के अधिष्ठाता गोपों घोषपालों देवों के गोष्ठ रक्षकजनों को नंद मैहैर, मैहेर जसोध, मैहर गोपेशनंद आदि अपने शिष्यतत्व पद देकर तथा प्रख्यात ज्योतिर्बिद विक्रम के नवरत्न शिरोमणि बाराह मिहिर को भी बाद की प्रतिष्ठा से प्ररित किया। महलोंक के ये महामहर्षि प्रजापति दक्ष के पड़ौस में बसकर भी अपना कोई पाइसा न बनाकर दक्ष के कोप से मुक्त तथा दक्ष की प्रतिष्ठा युक्त मेत्री से विभूषित रहे। <br />
इन्होने गोप प्रजाओं को सादा पौष्टिक आहार महेरी खाने की सरल "सादाजीवन उच्च विचार मयी" पद्धति देकर सहज स्वाभिमानी बनाया। कहते हैं नंदराय गोपपति ने इन्हीं की सेवा कर आशीर्वाद साधना से पूर्ण पुरूषोत्तम श्री कृष्ण और धीर गंभीर लोक नमरकृत श्री बलराम देव जैसे पुत्र प्राप्त किये थे प्रमाण रूप पुरातन "कंस मेला" में दौनों भाई कंस विजय कर इनकहीं की गोद में विराजते विश्राम आरती अंगीकार करते हैं । इनके पुर के समीप वेश्रवण कुवेर का पुर (सरवन पुरा) है तथा रत्न सरोवर तथा स्वर्ण कलशधारी रत्नेश्वर शिव का देवस्थान है। जिसे "सोने का कलसा" वाला देव अभी भी कहा जाता है। <br />
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2. शांडिल्य- ये नंद गोपकुल के पुरोहित थे। इनका शाँडिल्य भक्तिसूत्र नारद भक्तिसूत्र के बाद भक्ति सम्प्रदाय का मान्य ग्रन्थ है। श्रीकृष्ण बलराम की रक्षा हेतु सदा प्रयत्नशील रहते थे। इनका वंश प्राचीन है। कर्मपुराण के अनुसार थे असित (देवल) के पुत्र 5014 वि0पू0 में विद्यमान थे। महाभारत से इनकी संशगत उपस्थिति 4814 वि0पू0 में विद्यमान थे । महाभारत से इनकी वंशगत उपस्थिति 4814 वि0पू0 में भी थी। कृष्णकाल में इनका समय 3107 वि0पू0 है। इनका धर्मशास्त्र 'सांडिल्य स्मृति' हैं।<br />
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3. अकोर - यह अल्ल प्राय: विलुप्त है। मथुरा के समीप अर्कस्थ अकोस गांव में ये रहते थे। जो अर्क सूर्य का स्थल प्राचीन मथुरा के पंच स्थलों में से था। <br />
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4. धोरमई - ये मथुरा के निकट ध्रुवपुरी घौरैरा के वासी थे। धोरवई ध्रुव का अटल पद (अटल्ला चौकी) वर्तमान ब्रन्दावन के निकट है। धुरवा, धुरैरा (रज के ) धुर्रा , धुरपद, गाढी का धुरा, धुरंथर, ध्रुव काल के माथुरी भाषा के शब्द हैं।<br />
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5. गुनारे - मथुरा के मधुवन के समीप फाल्गुनतीर्थ पालीखेड़ा तथा फालैन में इनका निवास था। ब्रज के फाल्गुनी यज्ञ (होली) के महीना में ही अर्जुन का जन्म होने पर इन्होंने फाल्गुनी बालक के जन्म का महोत्सव किया था। गुना क्षेत्र ग्वालियर गोपाचल में भी हैं। इनका समय 3110 वि0पू0 के लगभग है। <br />
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6. खलहरे - ये यज्ञ कर्म में ब्रीहि यव धान्य उलूखलों मे कूटकर यज्ञहवि प्रस्तुत करते थे। ऐसे उलूखलनंदराय के भी गोकुल में थे जिनमें से एक ऊखल से श्री कृष्ण को माता यशोदा ने बाँधा था तभी से उनका नाम दामोदर पड़ा । महावन में ऊखल बंधन का स्थान अभी है। यहीं यमलार्जुन तीर्थ भी है। <br />
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7. मारोठिया - 49 मरूतगणों का प्रदेश मरूधन्व (मारवाड़) प्रसिद्ध है। मरूतों की पुरी मारौठ तथा मरूदगण वंशी (आंधी तूफान के देवता) मारौठिया, मराठा, राठौर प्रसिद्ध हैं ये दक्ष यज्ञ के समय अपने मरूत क्षेत्र (मारू गली) में दक्ष और देव पक्ष की रक्षा हेतु वीरभद्र की भूतसेना से लड़े थे। मारूगली में भी मारू राजा का महल मारू देवता, मारूगण, तीरभद्र वीर प्रतिमां अभी मथुरा में है। <br />
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8. सनौरे - ये 12 अदित्यों में पूषन सूर्य के वंशधर हैं। उशीनर देश के राजा शिवि महादानी के ये पुरोहित थे। ब्रज में अपने क्षेत्र चौमां में ये सन (पटसन फुलसन अलसी) कुटवा कर ऋषियां और ब्रह्मचारियों के लिये क्षौममेखला और क्षौमपट कारीगरों से बनवाकर प्रस्तुत करते थे। <br />
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9. सौनियां - ये ब्रजसीमा सोनहद के वासी थे। गंधारी शकुनी को शकुन शाऊत्र सगुनौती विद्या सिखाने से तथा सगुन चिरैया द्वारा प्रश्नोत्तर देने से "शाकुने तु बृहस्पति" के प्रमाण से अंगिराओं की विद्या के आचार्य थे सगुनियों से सौनियां नाम पाया । ये मीठों में ही हैं। <br />
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10. सद्द - ये सद्द देवों की देवसद या ऋषियों की धर्म परिषद के धर्म निर्णायक सदस्य 'सद्द' हैं। इनकी परिषद् परम्परा मौर्य गुप्तकाल तक स्थापित थी सद्दू पांड़े की वैठक श्री नाथ जी के समय की जतीपुरा में है। वर्हिषद प्रियब्रत वंशी सम्राट की पुरी वहेड़ी उत्तर पाँचाल में अभी वर्तमान है। यहीं प्रियब्रत पुरी पीलीभीत तथा हविर्धान की हविर्धानी हल्द्वानी है इनका ही अपभ्रंश नाम सद्द है। <br />
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11. कुसकिया - ये विश्वामित्र के दादा कुशिक के पुर कुशकगली मथुरा के प्राचीन निवासी हैं। ये मीठों में है। कुशिकापुर के लोग पीछे मुसलिम बना लिये गये तथा कुशिकपुर पर मसजिद बना कर कब्जा कर लिया गया। कुशिक के पुत्र गाधि का गाधीपुरा (नया गोकुल के निकट) तथा विश्वामित्र तीर्थ स्वामीघाट मथुरा ही में हैं। <br />
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12. सिरोहिया - ये सिरोही राज्य में जाकर आश्रय पाने से सिरोहिया कहे गये। ये भी मीठे वर्ग में हैं। किसी समय सिरोही की तलवारें बहुत नामी होती थीं। असुर असिलोमा के अश्वारोही सैनिक दल की यह प्राचीन पुरी थी।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_8&diff=56236चतुर्वेदी इतिहास 82010-04-23T06:39:11Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==युगों का सांस्कृतिक पर्यवेक्षण==<br />
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बाराह कल्प के युगों की मानव जीवन विकास की ऐतिहासिक विस्तृति इस प्रकार है---<br />
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'''1. दिवा सतयुग 13,800 वि0पू0 से 9,000 वि0पू0 काल ---'''<br />
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भगवान नील बाराह का अवतार , यज्ञ वेद की आदि स्थापना , हेति प्रहेति, मधुकैटम आदि अज्ञान गर्वित प्रबल असुरों की उत्पत्ति, प्रभुनारायण केशव माधव, पद्मनाभ ब्रह्मा नारायणी नरप्रजा, अग्नि वायु इन्द्र तीन देवों की प्रथम उत्पत्ति , विराट महाविष्णु की उत्पत्ति , विश्व नियंत्रण असुरकर्मा तपोगुणी अपहर्ता प्रचायें, देवसर्ग पृथ्वी जल तेज वायु आकाश के कर्माधिष्ठात्रि देवता, अग्नकिर्मा प्रमथ देवों (माथुरों) की प्रतिष्ठा, ब्रह्मा के 10 पुत्र मरीचि (कश्यप) , अत्रि , अंगिरा, पुलस्त्य , पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद की उत्पत्ति, ब्रह्म वंशों ऋषि गोत्रों की स्थापना, कश्यप वंश का विश्व विस्तृत प्रसारण कश्यप सुरभी से एकादश रूद्र सर्ग (1 वैवस्वान, 2 अर्यमा, 3 पूषा, 4 त्वष्टा, 6 सविता, 7 मित्र , 8 वरूण, 9 अंशुमान, 10 भग, 11 अति तेजा) रूद्रों का सद्योजात रूप में अल्प कालिक विस्तार शतरूद्र, सहस्त्ररूद्र, कोटिरूद्र आदि, रूद्र प्रजासृष्टि भूत प्रेत पिशाच यक्ष राक्षस गंधर्व किन्नर, यातुधान, प्रेत, कूष्मांड भैरव बेताल आदि की उत्पत्ति , रूद्र कार्तिकेय और विनायक सेना में प्रमथों का प्रथम वर्चस्व। <br />
हिरण्यकशिपु हिरण्याक्ष, वाराह नृसिंह प्रहलाद वंश, वामन अवतार नाग कूर्म कमठ कोल आदि जातियोंका उद्भव, बलि का दक्षिण देश पर विशाल साम्राज्य , दैत्य दानवों का वेद विरूद्ध हिंसा प्रधान विषयासक्त समाज विस्तार, माथुर ऋषि दक्ष, अंगिरा, वशिष्ठ, अत्रि, चन्द्रमा, भृगु, बृहस्पति , भारद्वाज आदि की इन्द्रादि देवों द्वारा रक्षा और दान सम्मान अर्चना।<br />
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'''2. दिवा त्रेता 9,000 से 5,400 वि0पू0 काल ।'''<br />
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स्वायंभूमनु वंश, उत्तानपाद ध्रुव का साम्राज्य ब्रह्मर्षि देश । प्रधान देव क्षेत्र द्युलोक सूरसेन जनपद, माथुरों का सन्मान और स्वांयंभूमनु द्वारा इस प्रदेश के माथुर ब्राह्मणों द्वारा विश्व को सदाचार शिक्षा के गुरू मानने की घोषणा। प्रियव्रत का विश्व महाद्वीप विभाजन, सप्त समुद्रों और सप्त द्वीपों की साम्राज्य इकाइयाँ निर्धारित कर अपने पुत्रों को बाँटना । अग्नीधु को जभ्बू द्वीप हिम वर्ष नाभि वर्ष या अगनाभ वर्ष का सम्राट पद। अग्नीध्र का माथुरों के शिष्यत्व में माथुर क्षेत्र में अग्निध्र आश्रम अड़ींग बन में तप कर जीवन्मुक्त पद प्राप्त करना। वैवस्वत मनु का विश्व प्रजा पालन, देव संस्कृति का महान विस्तार, युवनाश्व वंशी त्रसदस्यु मांधाता का विश्व दस्यु दलन, मथुर में बाराह तीर्थ और विग्रह की स्थापना ता माथुर कुलपुत्र बनकर कुत्स गोत्र का प्रवर पद ग्रहण करना, यह महायुग दिष्ट वंशी मरूत चक्रवर्ती, निमिवंशी प्रतीपक तक चला तथा चन्द्रवंशी संयाति पर इसका अन्त हो गया।<br />
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'''3. दिवा द्वापर (5400 से 3000 वि0पू0 काल)'''<br />
मरूत चक्रवर्ती के बाद इस दिवा कालीन द्वापर का पदार्पण हुआ। इसमें सगर वंश– हेहय, हरिश्चन्द्र, भगीरथ (गंगा अवतरण) त्रिशंकु का कर्म नाशा प्रवर्तन, सुदास का दाशराज युद्ध, देवासुर संग्राम, रघुवंश दशरथ श्रीराम अवतार आदि प्रमुख घटनायें घटी। यह महायुग रामवंशी बृहद्वल , निमिवंशी शुनक ययाति वंशी यदु अनु रूदु दुह्यु वर्तसु पर समाप्त हुआ। इस युग में माथुरों की महिमा देवों, सम्राटों, धर्मपुरूषों , ऋषि वंशों तथा लोक प्रजाओं में सर्वाधिक श्रेष्ठता से वृद्धि को प्राप्त हुई । <br />
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'''4. दिवा कलियुग (3,000 से 1,800 वि0पू0) काल।'''<br />
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इस महायुग में सूर्यवंशी सुमित्र तक शाक्य वंश चलता रहा जिसमें आगे बृद्ध, महावीर जैन, भगवान कल्कि आदि धर्म प्रवर्तक पुरूष हुए। इस युग में मगध के विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई जो बृहद्रथ (जरासंध) वंश के रूप में 3233 वि0पू0 से रिंपुजय तक 2011 वि0पू0 तक चला, स्त्रुंजय के समय श्रीकृष्ण वंशी बज्रनाम का राज्य भंग हुआ तथा यादवों के वंश मिथिला, मगध, विदर्भ , गौंडल, जैसरमेल, करौली, काठियावाड, सतारा, दक्षिण मथुरा पांड्यदेश , पल्लव आदि विभिन्न खंडों में बिखर गये। शुनक वंशी प्रद्योत और उसके पांचवे वशंधर नंदिवर्धन (1873 वि0पू0) तक चलकर यह महायुग समाप्त हुआ।<br />
दिवा साथ ही वाराह कल्प का दिवस काल भी समाप्त हो गया। इन पूरे चारों महायुगों की नवीन शोधपूर्ण वंशावलियाँ अनुक्रम रूप से हमारे पास तैयार हो चुकी हैं और इनके ही आधार से हम "भारतवर्ष का प्राचीनतम अपना इतिहास" प्रस्तुत करने का हमारा अगला प्रयास है। इससे भारतीय इतिहास की अब तक की सभी भ्रान्तियाँ और आक्षेप की निराधार सभी प्रबृतियाँ समाप्त हो जायेंगी।<br />
दिवा कल्प के इस विवरण को यहीं थोड़ा विराम देकर अब हम अगले रात्रि कल्प के इतिहासिक काल को आगे आरम्भ करेंगे। इससे पूर्व इस पुरातन प्रसंग में हम माथुर ब्राह्मणों की उत्पत्ति, उनके गोत्र प्रवर शाखायें, श्री यमुना माता से इनका पुत्र सम्बन्ध आदि पर प्रकाश डाला जाना आवश्यक अनुभव करते हैं।<br />
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==माथुर ब्राह्मणों की उत्पत्ति==<br />
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माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों का वंश अग्निवंश है। अग्निदेव, देवता, ब्राह्मण पुरोहित और इन्द्रयज्ञ के अध्वर्यु ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में ही "अग्निमीड़े पुरोहितम्, देवस्य यज्ञ ऋत्विजम्" की उदघोषणा करके मधुच्छंदा ऋषि (छांदेरी निवासी) ने अग्निदेव को प्रम पूज्य और प्रथम उत्पन्न देव निर्धारित किया है। इस मंत्र से माथुरों की आदि उत्पत्ति और पौरोहित्यकर्म की अति प्राचीनता का भी निर्धारण होता है। <br />
<br />
ऋग्वेद के मंडल 10 सूत्र 90 में मथुरा आदिनारायण क्षेत्र या ब्रह्मभुवन के अधिष्ठाता प्रभु गतश्रमनारायण के द्वारा प्रणीत प्ररूष सूक्त के 13 वें मंत्र में विराज पुरूष महाविष्णु (दीर्घविष्णु) के प्राण से वायुदेव तथा मुख (मुखराई) से "मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च" के रूप में इन्द्र और अग्निदेव की उत्पत्ति हुई । इस प्रकार इन्द्र अग्नि और वायुदेव विश्व के आदि पुरूष और सहोदर भाई सिद्ध होते हैं। यही बात भागवत 3-6-30 से भी कही गई है। ये तीनों देव "ब्राह्मणा: प्रथमं प्रादुर्भूता: ब्राह्मणेभ्यश्च शेषावर्णा: प्रादुर्भूता:, (महाभा0 शान्ति0 342-21) के प्रमाण से ब्राह्मण जाति के प्रथम मूल पुरूष थे। यह निर्मथ अग्निदेव "मंथन कर्म से यज्ञाग्नि का उत्पन्न कर्ता प्रमथ संज्ञायुक्त, वेद और यज्ञों का मूल तथा देव आवाहन (देवहूति विद्या) का मूल अविष्कर्ता था। सं जायसे मथ्यमान; (साम उत्तराचिंक 3-1-2), 'गोपवनी अंगिरा जनिष्ठ दग्ने अंगिर:' (साम 29) के अरणिमंथन से उत्पन्न अग्नि अंगिरावंशी (कुत्सगोत्रिय) प्रमथ या माथुर कुलोद्भव था। यही बात ऋग्वेद के 4-1-14,4-11-5,5-8-4, 8-23-10, 4-1-14, 4-3-11, आदि अनेक मंत्रों में कही गयी हैं यह आग्निदेव इन्द्रवायु बृहस्पति आदित्यों के साथ यज्ञ में देवभाग लेने को बैठता था (ऋम् 1-14-3) । सामवेद मन्त्र 1617, 1618, 1619, में इसे देवाधिदेव, सहस्त्रगणों से युक्त शाश्वततनु, विश्वपति , होता और वरेण्य कहा गया है। यह सहस्त्रों पूत्रों वाला (ऋग् 2-7-6) तथा 'ऋषीण्यंपुत्रों आधिराज एष:' (भैत्रेय संहिता 1-2-6) अर्थात ऋषि पुत्रों का अधिप्ठाता अधिराज था। यह 'सविद्वां आच पिप्रो यक्षि चिकित्व अनुषक्' (ऋग् 2-6-8) के प्रमाणानुसार परम विद्वान् , प्रियकर्मा , दानी तथा आरोग्यकर्ता था। <br />
<blockquote>यह माथुरों का मूल पुरूष अग्निदेव अध्वर नाम के यज्ञों का प्रधान संयोजक था। 'विशामग्निं स्वध्वरं' (ऋग् 6-16-40) के प्रमाण से यह अपने आयोजित अध्वरों में देवों का समादरकर्ता था। सामवेद में इसे 'अध्वरेण प्रणीयते' (साम 1478) अध्वरों में समादर प्राप्त तथा 'धियांजक्रे वरेण्यों' बृद्धिमानों के मंडल में परमश्रेष्ठ तथा 'भूतानां गर्भ मादधे' (साम 1479) प्राणियों को जन्म धारण कराने वाला कहा है।</blockquote> <br />
<br />
'''प्रमथों का क्षेत्र मथुरा'''<br />
<br />
मथुरा क्षेत्र को इस देवता का निवास क्षेत्र स्पष्ट कहा गया है-<br />
<blockquote><poem><br />
माथुराणां परं क्षेत्र प्रमथानां पर बलम्।<br />
देवानां तत्वविज्ञानं तदेव मथुरा स्मृता ।।16।।<br />
-योग वंत्र 4-16</poem></blockquote><br />
और भी कहा है-<br />
<br />
<blockquote><poem> देवो प्रमथराड् यत्र अध्वर्येषु समाहिता।<br />
तदेव मथुरा प्रोक्ता सर्व सत्व समन्विता:।।24।।<br />
<br />
अग्नि मंथं आद्यकर्म ये प्रवर्तन्ति माथुरा:।<br />
ते देव यज्ञ वेदानां लोकानां जनका स्मृता ।।25।।<br />
<br />
जहाँ प्रमथराज नाम का देवता अग्नि मंथन कर्ता बनकर अध्वरों में स्थित रहता है वही स्थान मथुरा है जो समस्त देव सत्वों में समन्वित है।।24।।<br />
अग्नि मंथन आदि सभ्यता का उद्भव कर्म है इसे जो प्रवर्तन करते हैं वे ब्रह्मपुत्र ही माथुर ब्राह्मण हैं तथा वे ही देवों और लोक धर्म धारण करने वाली मानव प्रजाओं के आद्यजनक हैं।।25।।<br />
<br />
मथ्नाति सर्व पापानि ददाति परमं पदम्।<br />
उत्तमों हि नरो यत्र तेन सा मथुरा स्मृता: ।।<br />
-गौत्तमीय तन्त्र<br />
यह पुरी समस्त पापों का मथन करके भगवत् परम पद दायिनी है और यहाँ उत्तम कोटि के नरदेवता निवास करते हैं, इसी से इसे मथुरा धाम कहा गया है। <br />
मंथु वें माथुरा: प्रोक्ता यज्ञानां ये प्रवर्तका: ।<br />
प्रमाथिनो महावीर्या अग्नि वंश समुद्भवा: ।।<br />
<br />
तेषां स्थानं परं पुर्ण्य माथुरेति निगद्यते ।<br />
कलिद्यायास्तटे रम्ये देव क्रीड़ी मयोहि स ।।<br />
-कदर्मसंहिता प्राचीन पत्रक<br />
<br />
माथुर ही जो आदि यज्ञों के प्रवर्तक 'मंथु कहे गये हैं, ये यज्ञ अग्नि मंथनकर्ता , महा बलवान और अग्नि वंश में उत्पन्न हैं। इनका परम पुण्यमय स्थान मथुरापुर बर्णित हुआ हैं, जो कालिंदी के सुरम्य तट पर बसा है और देवों की क्रीड़ाओं से युक्त है। <br />
<br />
मथ्यतेतु अजत्संर्व ब्रह्ज्ञानेन वै पुरा।<br />
तत्सारभूतं यद्यत्स्यात् मथुरा सा निगद्यते ।।63।।<br />
<br />
प्राचीन युगों में जब समस्त जगत की विद्याओं को ब्रह्मज्ञान की रहई द्वारा मथा गया था, तब जो उसमें से सार भूत मक्खन निकला वह मथुरा का क्षेत्र ही था।।63।।<br />
<br />
'स जायसे मथ्यमान:' (साम उत्तरर्चिक 3-1-2) माथुरों के अरणी मंथन कर्म से गौरवयुक्त होने से मथुरा क्षेत्र की उत्पत्ति हुई।<br />
<br />
मंथु प्रवर्तिता यत्र प्रमथै: वेदपारगै:<br />
तं स्थंलं माथुर दृष्टवा देवामुद मवापह ।।5।। <br />
माथुरेभ्यस्तुमथुरा नहि मथुरात्तु माथुरा: ।<br />
गोंभ्य: आज्य प्रभवति आज्याद् गावोन संभव: ।।2।।<br />
-मथुरा मेरू</poem></blockquote><br />
<br />
जहाँ वेद पारंगत प्रमथ देवों ने मंथन कर्म का प्रवर्तन किया उस माथुर स्थल को देखकर इन्द्रादि देवों को परम आनन्द प्राप्त हुआ। ।।5।। मथुरा माथुरों से उत्पन्न हुई (स्थापित्त की गई), मथुरा वास से माथुर ब्राह्मणों की माथुर संज्ञा हुई ऐसा कहना सत्य नहीं है, क्योंकि गौओं से घृत उत्पन्न होता है, धृत से गायें उत्पन्न नहीं होतीं। अन्य सब ब्राह्मण उन देशों में बंसने से नामांकित हुए, वे परवर्ती वंशों की शाखांये हैं किन्तु एक माथुर ब्राह्मणों की ऐसे ब्राह्मण हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र को आप स्वयं ही उत्पन्न किया और उसमें देवों को बसाया। <br />
अग्नि देवता माथुर ही क्यों<br />
<br />
वेद प्रमाणों से सिद्ध अग्नि माथुर ही हैं इसके अन्य भी अनेक परम्पराबद्ध प्रमाण हैं । ऋग्वेद के मंडल 7-104-2 में अग्नि को 'चरूरग्निवान्' कह कर उसे यरू प्रिय कहा है। चरू का हविष्य पदार्थ (दूधभात) है। माथुरों की सामाजिक जीवन धारा में चरूआ चरूई चरूली चरू चरी आदि वेदिक शब्दों की स्थिति अभी भी वर्तमान है। ये शब्द हमारे किसी अन्य समाज से उधार लिये हुए नहीं हैं।<br />
<br />
अग्निवंश के अनेक शाखा भेद वेदों शास्त्रों में हैं, जिनमें से कुछ प्रमाणतत्व माथुरों में अद्यापि प्रचलित हैं। इनसे भरताग्नि 'अमंथिष्टा भारतारेवदग्नि' (ऋग् 3-23-2) की शाखा भरतवार माथुर, वैश्वानर अग्नि (ऋग् 3-2-2) के वंशज वैसांध्र माथुर, गार्हपत्य अग्नि (ऋग्0 8-502-5) 'गृहपतियुवा' के वंशज घरवारी माथुर , सद्योजात अग्नि (ऋग्0 3-5-7) के सद्द और दियोचाट माथुर , अग्नि के गोत्रकार 'सांडिल्य माथुर', तनूनपात अग्नि (ऋग्0 5-577-2) के नुनौलिया निनावले हैं। प्रमथों के अध्वर (अधिवास वस्तुदान) का रूप अधूर्त (दात) हमारे यहां वर्तमान है। प्रमथ संस्कृति की धर्मनीति (धर्मरहस्य) महाभारत अनु0 535 में विस्तार से वर्णित है। प्रमथ संस्कृति के प्रयुक्त प्राचीन शब्द , परामठे, परमटा (वस्त्र) परमत होनों , मट्ठें, मठामठरी मठियाँ , मथनियाँ, मट्ठ, मठमटी, प्रमाथिनी (मथुरादेवी) मांट, भटकना, मांठापती, गुम्ममथान, मालभत्ता आदि हमारे यहाँ अभी भी सब प्रचलित है।<br />
<br />
माथुरों का पुरातन निवास स्थान <br />
<br />
<blockquote><poem>वेद निरूक्तकार यास्क के मतानुसार अग्निदेव का स्थान 'द्युलोक' है। द्युलोक या देवलोक मथुरा मन्डल ही है जिसकी स्थिति इस प्रकार कही गयी है-<br />
यमुना पुष्करयोर्मध्ये इन्द्रप्रस्थाद् गवालयन्।<br />
सूर्याणां देवतानां च द्युलोकं वेद सम्मितम् ।। --- कपिल संहिता<br />
यमुना नदी और पुष्कर सरोवर तथा इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) और गोपालपुर गवालियर के बीच सूर्यदेवों और इन्द्रदिदेवों का द्युलोक है यह वेद सम्मत है। यह द्युलोक दिवलोक शूरसेन जनपद, ब्रह्मलोक 'ब्रह्मर्षिदेश' नारायण क्षेत्र , मधुपुरी और मथुरा आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध रहा है। <br />
स्वायंभूमनु महाराज (9000 वि0पू0) ने मनुस्मृति में इसका विवरण दिया है— <br />
अहं प्रजा सिसृक्षस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।<br />
पतीन् प्रजानामसृजं महर्षिनादितो दश ।।34।।<br />
मरीचिमत्र्यांगिरसो पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।<br />
प्रचेतसं वशिष्ठश्चभृगं नारद मेव च ।।35।।<br />
एते मनूंस्तु सप्तान्यानसृजन्भूरिरेतस: ।<br />
देवान्देवनिकायांश्च महर्षिश्वमितौजस: ।।36।।<br />
- मनुस्मृति 5-34-36 <br />
सूरसेनपुरी मथुरा स्वायंभूमनु की राजधानी थी, जो बाद में उत्तानपाद तथा ध्रुव की राज्यस्थली रही। मनु के स्थापित सप्तऋषि तथा अन्य देव स्थल (देव निकाय) मथुरा में वर्तमान हैं। यही ऋषि माथुरों के मूलगोत्र प्रवर्तक हैं। <br />
इन ऋषियों का वर्णन (अथर्व वेद 18-3-20, 18-4-8), तथा ऋग्वेद 3-4-5 में भी है। ऋग्वेद 4-1-12 के प्रमाण से इन्होंने मथुरा में अग्नि तीर्थ पर अग्नि उत्पन्न कर यज्ञ धर्म की स्थापना की थी। अग्नि तीर्थ में अग्निं का नित्य निवास था, जिसे अब मोक्षातीर्थ माना जाता है। <br />
इस अग्नि सृजेता अग्निदेव का रूप अति उग्र था –<br />
<br />
अग्नये रक्तनेत्राय ज्वालमाला चितथि वै।<br />
शक्ति हस्ताय ताभ्राय नमो वै कृष्ण वर्त्मने ।।<br />
- भविष्य पुराण ।। 145 ।।</poem></blockquote><br />
<br />
इस निर्मथ अग्नि का गण (समूह) सूर्य सेनाओं के साथ रहकर महा शक्ति शाली शूरवीर हो गया- महाभारत शान्ति0 अ0 101 के अनुसार ये लोग महा क्रोधी, उग्र मुख, प्रवाद क्रुद्ध, द्वन्द प्रिय, उग्र स्वर, मन्युमंत, महायोधी, कोलाहली , रौद्र रूपा बनकर देवाधिदेव भूतेश्वर की सेना में 'पुरस्कार्या सदा सैन्ये' के रूप में अग्रवर्ती हो गये थे। माथुरों के शिवाराधन की यह पुरातन भूमिका है। स्कंद पुराण के माहेश्वर खंड में अ0 29 में इन्हें 'कपर्दिनो बृषाकश्च गणास्तेति प्रहारिण:, त्रिशूल धारिण: सर्वे सर्वे सर्पागंभूषणा: कहा है। <br />
<br />
==इतिहास परंपरा में माथुर==<br />
<br />
पौराणिक इतिहास की विश्वसंनीय परम्परा में माथुर ब्राह्मण स्वायंभूमनु द्वारा 9,000 वि0पू0 में उत्पन्न हुए (ऋग् 1-45-1) तथा मनु भगवान ने ही इन्हें बसुओं रूद्रों और आदित्यों की साक्षी में वेद प्रदान किये । वामन पुराण अ0 24 के कथनानुसार जब वामन भगवान ने तीन लोक प्राप्त कर लिये तब ब्रह्मलोक (मथुरा) में समस्त देवगण विमानों पर चढ़ कर बलि राजा की पराजय देखने आये तब ब्रह्मा की पुरी मथुरा में देवों ने ब्रह्मर्षिगणों के ब्रह्मपुर्या समूह में दक्ष, भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, संवर्त आदि ऋषि बैठे देखे- ये सभी माथुरों के गोत्र प्रवरकर्ता हैं। भगवान वामन ने भारद्वाज ह्रषि को जो अपने निवास के पुण्य स्थान गिनाये है। (9,080 वि0पू0) उनमें सधुवन का उल्लेख है (वामन पु0अ0 90) । बलि राजा ने मथुरा क्षेत्र में जो अपना सौवां अश्वेध यज्ञ किया और वहाँ वामनप्रभु ने तीन लोक भाप कर लिये, तब कुपित हो दैत्यगण देवों से युद्धोद्यत हुए (महा भ्ा0सभा0 38) तब देवों की वामन रक्षित प्रमथ सेना ने दैत्यो को 'प्रमथ्य सर्व दैतेयान् जहाराशु स मेदिनी, मद मथित कर पृथ्वी छीन ली । (वायु पुराण 33) में इन्हें करंज पर्वत (कालंजेश्वर टीला) कृष्ण गंगा के निवासी कहा गया है। (महाभारत शान्ति0 101) में मथुरा की प्रमाथी प्रजा को शूरसेनका: सर्बे शूरा प्रमाथिन: सूर्य सेना के महाप्रबल महारथी कहा गया है। शान्ति पर्व में शूरसेनक प्रमथों की पराक्रम शीलता का विस्तृत वर्णन है। ये प्रमथ देव (स्कंन्द पुराण माहेश्वर खंड अ0 4) के प्रमाण से (कोटिरूद्र तीर्थ) की रूद्र सेना में सबसे आगे सेनामुख रहते थे। ये प्रजापति दक्ष के यज्ञ में (9,376 वि0पू0) चाप, नाराच, परशु , शूल, खग्ड, मुद्गर लेकर चढ़ गये थे। (स्कंद पु0 माहे0 4-16) और वहाँ इन्द्र की सेना के महायौद्धा मरूद्गणों के साथ (मारू गली) मारूत् क्षेत्र में इनका युद्ध हुआ था। ये सेनायें व्यूह बना कर जम कर लड़ी थीं और वहाँ प्रमथों ने मरूतों को पराजित कर भगा दिया था (स्कंद0 4-49) । प्रमथों का 'मधु:" चक्रसेना के 'मूर्ध्त पदस्थ ' (सरदार) नाम ऋग् 1-30-19 में स्पष्ट है, जो माथुर शब्द का मूल रूप है। लिंग पुराण में इन्हें 'प्रमथा प्रीति वर्धना' स्नेही स्वभाव वाले मिठ बोला कहा है। भविष्य पुराण अष्टमी कल्प में जिन शिव पूजक देवों ऋषियों और नागों के नाम दिये हैं, उनमें माथुरों के पूर्व पुरूष वशिष्ठ अंगिरा भृगु आदि के नाम उपलब्ध है। ऋग् 3-27-10 के अनुसार इन पर दक्ष पुत्री (इड़ा) उमा सती का अति स्नेह था और वे अग्नि के अंक (यज्ञ कुन्ड) में ही योग समाहित हुई थीं। रूद्र और देवों के आदरणीय सहायक होने के साथ ही ये (वायु पु0 72-50 ) आगे चल कर सम्मान पूर्वक स्वामि कार्तिकेय की सेना के भी सेनामुख पद् पर स्थापित हुए तथा त्रिपुर युद्ध में महापराक्रम स्थापित कर रूद्रदेव को त्रिपुरांतक नाम दिलाया। इनके शौर्य से प्रभावित होने के कारण भगवान विनायक गणेश ने भी इन्हें अपनी सेना का प्रमुख पद प्रदान किया और अपना नाम 'प्रमथाधिप' घोषित किया (बाराही संहिता अ0 58) वार्हस्पत्य भारद्वाज (4814 वि0पू0) के समय (साम0 609) यज्ञ सदस्यगण चरुपाक बनाकर इन अग्नि पुत्रों को हवि समर्पित करते थे। साम 1374 के कथन से उस समय में ये 'दक्षाय्यो ' दक्ष गोत्रीय पूजित जन थे।<br />
<br />
===माथुरो की मंथन विद्या का विस्तार===<br />
<br />
माथुरों ने केवल मंथन विज्ञान का ही आविष्कार नहीं किया, अपितुं मंथन के अनेकों क्षेत्र भी अन्होंनें खोले। अग्नि मंथन विद्या का विस्तार से वर्णन (अथर्व वेद 11) अग्नि मंथन सूक्तों में है। इसमें मंथन यंत्र का प्रधान अंग 'प्रमन्थ' 'अष्टांगुलं प्रमन्थ: स्यात्' तथा चात्र ओविली नेत्र (नेती) अदिकों का विवरण है। अथर्व के अग्नि मंथन सूत्र में अग्नि देव, सप्त ऋषियों और विश्वे देवों की प्रशस्तियाँ हैं। अग्नि मंथन यंत्र को अरिणी मंथन कहते हैं। अरणी मथुरा मंडल का बृक्ष विशेष है, जो प्राय; ब्रज ब्रह्मर्षि देश में ही होता है। अरणी बृक्षों की प्रधानता के कारण ही ब्रज के बन अरण्य, आरण्यक, द्वादशारण्य, ब्रहदारण्य, महारण्य , ब्रन्दारण्य आदि नामों में विख्यात हुए हैं। <br />
<br />
मंथु विद्या का आध्यात्म क्षेत्र छांदोग्य उप0 6-6 में तथा गोपाल तापिनी उप0 96 में वर्णित हैं। मधु विद्या का वर्णन ब्रहदराण्यक उप0 2-4 में है । दधि मंथन (मधुपर्क) विद्या का वर्णन छांदोग्य उप0 5-2-4 में है। अग्निदेव का वंश विस्तार वायु पुराण अ0 29 में है। अग्निदेव के 16 कुल 16 नदियों के तटों पर निवास करते थे, इनमें आहवनीय पवमान गार्हपत्य नाम का श्रेष्ठ वंश यमुना तट पर निवास करता था (वायु पु0अ0 29) ।<br />
<br />
मधु मंथन विज्ञान से ही चारों वेद, इतिहास पुराण, देव विद्या, पितृ विद्या, निधि विद्या, भूत विद्या,<br />
क्षत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, पशु पक्षी अन्न वनस्पति विज्ञान , धर्म अधर्म विज्ञान, अजरामर विज्ञान प्राप्त होते हैं इस प्रकार माथुरों की 'आद्य मंथन विद्या' ने जो विश्वव्यापी विकास उपलब्ध किया उससे ही समन्वित होकर समस्त विश्व सभ्यता के पथ पर अग्रसर हुआ और ज्ञान विज्ञान की मूल प्रेरणायें प्राप्त कीं। माथुर ब्राह्मणों का विश्व मानव पर इतना बड़ा ऋण है कि उससे मानव जाति कभी उऋण हो ही नहीं सकती । <br />
<br />
===माथुरों के गोत्र प्रवर शाखा===<br />
<br />
गोत्र मानव वंशों की प्राचीनतम प्रमुख पहिचान है। ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य सभी के अपने-अपने गोत्र होते हैं। गोत्र संस्थापक ऋषि उस वंश का मूल पुरूष होता है। उसी के नाम से उसका पुत्र पौत्रादि परिवार बहु विस्तृत होने तथा अन्यत्र कहीं भी बस जाने पर भी अपना अस्तित्व उसी गोत्रकार ऋषि के साथ सम्बन्धित बनाये रखता है। गोत्र से उस वंश का गौरव और प्राचीनता का इतिहास सुरक्षित रहता है। गोत्र का सर्वाधिक प्रमुख उपयोग विवाह सम्बन्ध निर्धारण में किया जाता है। 'नृवंश विज्ञान' के आधार से हमारे प्राचीन ऋषियों ने यह निर्धारित किया था और हजारों वर्ष के लम्बे अनुभव ने यह सुनिश्चित सिद्ध कर दिया है कि मानव परिवार अपने जितने नकिट के वर्ग में सन्तान उत्पत्ति सम्बन्ध स्थापित करेगा उतनी ही अधम चरित्रहीन निस्तेज दुर्गुणग्राही वणंशंकर उसकी भांबी पीढ़ी होती जायगी । यही कारण है कि आद्य स्मृतिकार स्वायंभू मनु ने ब्रह्म वंश की तेजस्विता के संवर्धन के लिये स्पष्ट निर्धारित किया है-<br />
<br />
<blockquote><poem>असपिंडा तु या मातु असगोत्रा च या पितु: ।<br />
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ।।5।।1</poem></blockquote><br />
<br />
जो माता के (ननसाल कुल में) 7 पीढ़ी तक न मिलता हो तथा पिता के गोत्र से संयुक्त (संगोत्र) न हो, वही कन्या उत्तम विवाह में पत्नी रूप से अंगीकार करने योग्य है। पिता के कुल में सगोत्र तथा माता के कुल में सात पीढ़ी तक सपिड और सगोत्र विवाह की सन्तानें अधमगोत्र शंकर और हीन चरित्र भी होती हैं। मनु ने 7 विवाहों में 1- ब्राह्म (शास्त्रानुसार निर्धारित वर को धर्म विधि से कन्या अर्पण करना)। 2- देव विवाह (ज्योतिष्ठोम आदि यज्ञों में सत्पात्र वर को कन्या दान रूप में देना)। 3- आर्ष (कुल मर्यादा से कुल सम्मत वर को 1 गौ के बदले कन्या अर्पण करना ) श्रेष्ठ विवाह कहे हैं, तथा 4- गंधर्व (कन्या की पसन्द से अफगान पठानों के आसुरी गंधर्व प्रचलन के अनुसार कन्या द्वारा अर्थ लोभ से पुरूष को मोहित कर उसे संभोग के हेतु अपना यौवन समर्पित करना )। 5- आसुर (कन्या का वलात अपहरण करना जैसा असीरियन असुरों में प्रचलन है) । 6- पिशाच । 7- राक्षस । <br />
<br />
ये विवाह अधम तथा कुल विध्वंसक कहे हैं। ऐसे विवाहों के परिणाम भी सर्व विदित स्पष्ट हैं। ऐसे विवाह जहाँ असीरियनों, कंधारियों , अफगानों , तुर्कों , मंगोलो , चीनियों, खसियो, तातारों यूरोप के दैत्य (डचों) दानव डेन्यूव तटवासियों, ब्रात्यों (ब्रिटिशों) जारजों (जार्ज, जार जार्जियावासियों, में होते हैं उनकी सन्ताने सुरापान, मांसाहार, द्यूत, व्यभिचार , स्वच्छंद, संभोग सत्य, दान , दया, नीति, सदाचार से रहित स्वार्थी , लंपट , अत्याचारी और कुटिलकर्मा होते हैं। भारत में भी स्वेच्छा विवाह और प्रेम विवाहों के परिणाम रूप जो नयी पीढ़ी का चरित्र दीख रहा है वह इसी मर्यादा भंग का परिणाम है। मनु जी ने आज से 11,000 वर्ष पूर्व ही ऐसी सन्तानों के विषय में स्पष्अ लिखा है ऐसी कुल शंकर या वर्ण शंकर सन्तानें क्रूरकर्मा , मिथ्यावादी, कपटी, स्वार्थलोलुप और इन्द्रिय सुख आतुर तथा पतनोन्मुख होती हैं तथा उत्तम विवाह की प्रजायें ज्ञानी, सदाचारी, मातृ-पितृ भक्त गुरूजन सेवी, देव आराधक, तपस्यी, योगी संयम नियम व्रतधारी, सत्यवादी, जितेन्द्रिय विद्वान, सौम्य उदार और तेज से युक्त होती हैं।<br />
<br />
गोत्रों का उपयोग- गोत्र प्रवर शाखा आदि का प्रयोग यज्ञ में, दान में, संध्या के गुरू अभिवादन मंत्रों विधान के संकल्पों में, जपों ब्रतों, अनुष्ठानों के संकल्पों में तथा यज्ञोपवीत धारण के मंत्रों में सर्वत्र होता हैं जो यह सिद्ध करता है कि परवर्ती क्षेत्रिय जाति व्यवस्था से पूर्व सतयुग त्रेता द्वापर युगों में वर्ण स्थापित प्रजाओं के कुल की पहिचार उनके गोत्र प्रवर शाखाओं के कथन द्वारा ही होती थी। गोत्र विवाह के निर्धारण में प्रमुख सावधानी के स्त्रोत माने जाते थे। विवाह के आवाहित साक्षी समूह आत्मीय और गुरूजनों के समक्ष में उत्सव समारोह में "शाखोच्चार " नाम की एक प्रथा का महत्वपूर्ण आयोजन होता है, इसमें समस्त माननीय विशिष्ट सम्बन्धियों और गुरूजनों सरदारों की साक्षी में पुत्र और कन्या शाखा वेद कुल देवी ख्याति (अल्प) पिता पितामह प्रपितामह आदि के नामों का सस्वर सार्वजनिक उद्घोष होता है, जिससे विवाह की पूर्ण निर्दोषता या सदोषता का स्पष्ट परिज्ञान होता है। प्राचीन समय में इसमें कुछ भी व्यतिरेक या मर्यादा उलंघन प्रतीत होने पर गुरूजन उस सम्बन्ध का खुलकर विरोध करते थे तथा निर्भय लोग प्रतिवाद के साथ समारोह त्याग करते तथा दब्बू लोग चुपचाप शाखोच्चार कक्ष से बहिर्गमन कर जाते थे। छल-कपट या चातुरी से मातृ पक्ष (नन साल) का गोत्र उच्चारण कराने वालों का भी यह रूप देखकर कि यथार्थ में विवाहार्थी ननसार का दाय अधिकारी है या नहीं, वे प्रतारणा और तिरस्कार के साथ समारोह का त्याग कर देते थे जिसका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता था। इस प्रकार हमारे ये गोत्र प्रवर प्राचीनता की गरिमा के साथ ही हमारे तेजस्वी कुलों को वर्ण शंकरता और हीन कुल शंकरता से बचाकर उनकी विशुद्ध रक्त प्रणाली की भी उल्लेखनीय सुरक्षा करते थे।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_7&diff=56234चतुर्वेदी इतिहास 72010-04-23T06:03:55Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==चतुर्वेदी : चौबेजी नाम प्रसिद्धि==<br />
<blockquote>इस उद्धरव से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि 1370 वि0 के पूर्व काल प्राकृत भाषा विस्तार युग से ही माथुर ब्राह्मण चतुर्वेदी के अपभ्रंश रूप में साधारण जनता में " चड विज्ज" या "चौबेजी" कहे जाने लगे थे। चौबे शब्द का प्राचीन ऐतिहासिक यह प्रमाण सिद्ध करता है कि चतुर्वेदियों का चौवेजी संशोधन बहुत प्राचीन और एतिहासिक है। तथा यह प्रधान रूप से मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के समस्त सामूहिक वर्ग को संवोधन करने के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। खासकर उस काल में जब दूसरे ब्राह्मण दुवे तिवाड़ी , भट्ट मिस्सर, पानी पांड़े आदि ख्यातियों से युक्त थे तथा द्विवेदी तिवाड़ी उनकी एक एक शाखा मात्र थी। <br />
</blockquote><br />
==यक्षों का प्रभाव काल==<br />
<br />
इस समय मथुरा में यक्ष पूजा जोरों पर थी। जिनप्रभु सूरि के अनुसार इस समय मथुरा नगर में भूतयक्ष, हुंडिय यक्ष , चोर जीव के देवालय थे। हुंढिय यक्ष की पूजा भांडीरवन में भी की जाती थी। यह हुंडिय यक्ष बड़ा प्रभावशाली और धनेश्वर था। इसके नाम पर ही लेन देन के काम में जिस अभिलेख का प्रयोग होता था उसका नाम "हुंडी" रक्खा गया। तथा उनका स्वर्ण सिक्का "हुन्न" था हुण इसी की शाखा के थे जो हुन्नान चीन में बसे थे।<br />
<br />
इसी समय महावन में भी एक महायक्ष की पूजा होती थी। शजो यक्षेश्वर या जखैया के नाम से विख्यात हुआ। इस महाचक्ष की विशाल काय प्रतिमा मथुरा पुरातत्व संग्रहालय में देखी जा सकती । <br />
<br />
मथुरा में यक्ष परम्परा अति प्राचीन है। यक्ष राक्षसो की उत्पत्ति कश्यप सृष्टिकाल से है। भक्त ध्रुव के भाई उत्तम को यक्षों ने मार दिया था। कृष्ण के समय यमलार्जुन (नलकूवर मणिग्रीव) मक्ष थे। ब्रज में भंडीर यक्ष का स्थान भांडीर वन, सुभद्रयक्ष का भद्रवन थे। कुवेर के अनुचरों में भंडीर यक्ष धन (ऋण) के वितरण कर्ता तथा हुंडीय यक्ष (हूंड़) क्रूरता से धन के वसूल करने वाले थे। महाराज युधिष्ठर के गुप्त वास के समय उनका यक्षेब्द्रपुरी (जिखिनगांव) के यक्षेन्द्रराज से तत्व ज्ञान युक्त धर्म संवाद हुआ था जो महाभारत में यक्ष प्रश्न के नाम से संस्थापित है। यह यक्ष महाशक्तिशाली ब्रह्म रूप कहा जाने वाला ब्रह्म ज्ञानी था। यक्षों यक्षिणिनियों की लोक पूजा भी होती थी। महावन की यक्षराज जखैया देवता के नाम से अभी भी पुत्रों की प्राण रक्षा के लिये पूजा जाता है तथा उसकी विशाल मूर्ति परखम यक्ष के नाम से पुरातत्व संग्रहालय में हैं। ब्रज में इस काल में यक्ष जाति की विशाल जन संख्या थी जो बौद्ध होने के बाद जिखिन गाँव के खिनवार जाट, यक्ष पुरी छहिरी के छांहर या चाहर नाम पाकर इस जाति में विलय हो गये। कुवेर वैश्रवण की पुरी सरवणपुरा के वैश्रवण पूज्य सरवन माथुरों से यक्षों का पौरोहित्य सम्पर्क था। माथुर अपने यज्ञ यक्षों की रक्षा में ही करते थे। कृष्णकाल का माथुर आंगिरसों का आगिरस सत्र भंडीर यक्ष के भांडीर बन में हुआ था। मथुरा नगर के नगर रक्षक भी यक्ष और यक्षिणियां ही थे।<br />
<br />
==कलियुग का पदापर्ण और समाप्ति ==<br />
3000 वि0पू0 में बाराह कल्प के दिवस भाग का कलियुग आरम्भ हुआ। इसके आरम्भ में महाभारतयुद्ध यादव संहार श्री कृष्ण अवतार और मगध प्रदेश में बृहद्रथ (जरासंध) वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ। इस कलियुग का व्याप्तिकाल (1200 वर्ष) 1800 वि0पू0 तक हरहा। इस कालावधि में रिपुजंय (2037-2011 वि0पू0) तक मगध का बृहद्रथ जरासंघ वंश तथा फिर प्रद्योतवंशी शुनक (2018-1983 वि0पू0) से नंदिवर्धन (1899-1873 वि0पू0) तक भारत के सम्राट पदों पर रहे। मथुरा मगध राज्य में प्रमुखता तो नहीं प्राप्त कर सकीं परन्तु मागधों से घनिष्टता स्थापित कर "माथुरो मागधश्चैव" के समन्वय के साथ राजनैतिक दुष्चक्रों से दूर अपने धार्मिक स्वरूप और प्रतिष्ठा को बनाये रही। मगध के प्रमुख तीर्थ गया से भी ऊपर ध्रुव तीर्थ "आदिगया ध्रुवक्षेत्र" का मान स्थापित हुआ तथा कामबन आदि ब्रन्दावन में काशी प्रयाग और गया तीर्थ गदाधर भगवान की श्रेष्ठ मान्यता रही। ब्रज के फालैन (फल्गुनी यज्ञ) तीर्थ की भी प्रहलाद कालीन तीर्थ परम्परा गया में फल्गुनदी के रूप में प्रतिष्ठित हुई माथुरा ब्राह्मणों की महती प्रतिष्ठा और पद श्रेष्ठता को देखते हुए देसरे ब्राह्मणवर्ग अपनी स्थिति को सम्हालने के लिये अनेकानेक याक्य गढने लगे और उन्हें पुराण पाठों में यत्र तत्र प्रबिष्ट कर माथुरों के प्रति शंकास्पद वातावरण बनाने में प्रयत्नशील होने लगे। इन कल्पित अनर्गल और तथ्य शूल्य वचनों से प्रभावित होकर हमारे समूह के भी कुछ लोग गौंड़ों या कान्यकुन्जों की किसी शाखा प्रशाखा के रूप में अपने को समझने की भ्रान्ति प्रचारित करने लगे। मनगंढत भृगुराम संहिता के किसी लेखक ने लिखा-<br />
<br />
<poem>सर्वें द्विजा कान्य कुब्जा माथुरं मागधं विना।<br />
पृथग्भावेन तिष्ठन्ति विप्रत्वं श्रेय कांक्षिण:।।<br />
बाराहस्य तु यज्ञेन माथुरी जायते पुरा।<br />
मागधो ब्राह्मण: पूर्व कथितों द्विज एव च ।। 1<br />
</poem><br />
यह प्राचीनतम माथुरा से अन्य नवस्थपित ब्राह्मण वगों के दूर हठने के समय की स्थिति बतलाते है- वे कहते हैं माथुर और मागधों को छोड़कर सभी कान्य कुब्ज ब्राह्मण (अपने समकालीन अन्य ब्राह्मणों सहित) सद्यपि इन दोनों प्राचीन वर्गों से पृथक भाव में स्थित होते जा रहे हैं किन्तु मूलत: वे इन दोनों विप्रकुलों के समाश्रित ही हैं क्योंकि माथुर श्रेष्ठ विप्र आदि अवतारी देव आदि बाराह प्रभु के यज्ञ की हुताग्नि से दिव्य देह धारण कर प्रगट हुए हैं। वे सतयुग की देव सृष्टि के समय के सर्वमान्य ऋषि महर्षि हैं, तथा मागधों को ब्रह्मदेव ने गजासुर वध काल में द्वापर के प्राचीन समय में द्विज मान्य कहा है। अत: इनसे दूर हटने पर भी अन्य सभी ब्राह्मण इनका आश्रय ग्रहण करके ही अपने को लोक प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। ब्राह्मण मार्तण्ड कर्ता ने लिखा-<br />
<br />
<poem>उदीच्याऋषय: सर्वे न म्होड़ा न च नागरा: ।<br />
कान्यकुब्जा द्विजा सर्वे, माथुरं मागधं बिना।।</poem><br />
<br />
सभी ऋषिगण उदीची दिशाबासी होने से उदीज्य (औदीज्य) हैं; वे न तो (मौटैराके) मोढ हैं न (नागरखंड के ) नागर, इसी प्रकार कान्यकुब्ज देशाधिपति सम्राट हर्ष के उदार राष्ट्र कान्यकु ब्ज देश के आश्रित होने से (माथुरों और मागधों को छोड़कर) अन्य सभी ब्राह्मण कान्यकुब्ज वर्गीय ही हैं। इससे स्पष्ट है कि जब अन्य पंचपात्र विप्र 1- सारस्वत, 2- कान्यकुब्ज, 3- गौड़, उत्कली, 5- मैथिली कान्यकुब्जों के (पंच गौड़ यूनियम) में सम्मिलित हो गये, तब माथुर और उनके साथीं मागध ही ऐसे स्वाभिमानी और स्वक्षेत्र गौरवधारी उच्च पदस्थ ब्राह्मण थे। जिन्होंने कान्यकुब्जों के दस समदस्यीय नब गठित मंडल का सदस्य बनकर उनका अनुगत होना ठुकरा दिया, और अपनी उच्च आचार विचार कुल की प्रतिष्ठा के अनुरूप अपना सर्वोपरि स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रक्खा। इस प्रकार अनेक परवर्ती ब्राह्मण समूहों ने जी तोड़ प्रयास करके माथुर ब्राह्मणों को अपने अंतर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर ब्राह्मणों को अपने अतंर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर किसी से झुके नहीं और खान पान आचार में सबसे उत्कृष्ट रहकर अपनी पृथकता की पहिचार निराली बना कर रक्खी कान्यकुब्ज चौबे बने, गोड़ मथुरिया (घटवारे) बने परन्तु माथुर कनौजिये या गौड़ नहीं बन पायें। चौबें शब्द की उपाधि धारण के वादरयाणन्याथ से अन्य कोई समूह माथुरों में प्रविष्ठ न हो सका। इस प्रकार माथुरी के साथ ब्रह्म दिवस का कलियुग अपनी दिवा ज्योति के साथ अवसान को प्राप्त हुआ और तभी 1800 वि0पू0 से ब्रह्मरात्रि का निशांधकारमय अधर्म स्वेच्छाचार और रत्रिधर्म विस्तारक तमोमय काल असुरों तमीचरों को प्रिय पुष्टि प्रदाता बनकर सामने आया।<br />
<br />
==भारतीय प्राचीन इतिहास का प्रवेश द्वार==<br />
हमारे अनेक पाश्चात्य शिक्षा के निष्णात वंधु यह सब पढकर त्रस्त परेशान क्रोधित और क्षुब्ध हो उठेगें कि यह सब हम क्या पढ़ रहे हैं। पाश्चात्य शिक्षा में लिपटे आज के इतिहास ने हमें ऐसा कस कर जकड़ा है कि हमें अपने ही शास्त्रों पुराणों ग्रन्थों पर विश्वास नहीं होता । आर्य बाहर से आये, वे मध्य एशिया में अपजे थे। वे अनार्यों को खा गये, भारत के पास अपना कोई प्राचीन इतिहास है ही नहीं, पुराण मिथों (मिथ्याओं) और अस्त व्यस्त कहानियों के पिटारे हैं, राम-कृष्ण , वामन, परशुराम, सगर, दिलीप , सूर्यवंश, चन्द्रवंश कल्पना हैं, जो भक्तों का पोषण पाकर विकवित होते गये हैं।<br />
<br />
भारत का सच्चा इतिहास पाषण के ढेलों में, फूटे ठीकरों में टूटी मूर्तियों में या पत्थर खंडों पर लिखे लेखों में है। जबकि पुराणों में वर्णित इतिहास युगों के क्रम से वंशावलियों में, राज्य और साम्राज्य संस्थानों में दिग्विजयों में, राजसूय और अश्वमेघ यज्ञों में, देवासुर संग्रामों दान, यज्ञ तप लोक संरक्षण और प्रजासंवर्धन प्रयासों से भरा पड़ा है। कुछ महत्वपूर्ण निजी विद्याओं को गोपनीय रखने के लिए पुराणों में कूटग्राम, कूटमान, समाधिभाषा रूपकों और लक्षण व्यंजना आदि कथन विशेष की शैलियां थी उन्हें न जान पाने के कारण भी पुराणों पर वाण वर्षा की जा रही है। इसमें पाश्चात्यों द्वारा भारत के गौरव को विनष्ट करने के हेतु से किये गये राजनेतिक कूट प्रहारिक प्रयास भी योग दे रहे हैं जिनके कारण स्वाधीन भारत के इतिहास में भी भारत के कीर्ति रत्न श्रीराम, श्रीकृष्ण , विक्रमादित्य, वेदव्यास, बाल्मीकि , आदि को वर्तमान इतिहास से अलक्षित रक्खा जा रहा है।<br />
<br />अस्तु इस राष्ट्र घातक से त्राण पाने के लिये हमें अपने शास्त्रों पुराणों की भ्रान्ति मुक्त सत्यमयी छवि की शरण में जाना होगा। मेरे किशोर मानस में 15 वर्ष आयु से ही इस दिशा में गहन चिन्तन की आतुरता जाग उठी थी। और 60 वर्षों तक निरन्तर चिन्तन मनन अध्यवसाय और अनुसंधान मय शोध प्रयासों के फलस्वरूप "भारतीय मूल इतिहास" की जो यथार्थ तथ्यमयी दिशादर्शन की दृष्टि प्राप्त हुई उसके आधार पर यह विश्वास और दृढ़ता पूर्वक कहा जा सकता है कि "भारत का अति प्राचीन पौराणिक इतिहास" सारे विश्व के इतिहास से प्राचीनतम युक्तियुक्त विश्वस्त और वैज्ञानिक है। उसमें जैसा कि कहा जाता है, वैसी कोई भी असंवद्धता असंभवता, निराधार प्रस्तुति या अवैज्ञानिक स्थापना नहीं है। जब तक अन्धकार है तभी तक निशा प्रेरक जीव जंतुओं के कर्कश क्रूर प्रहारात्मक अशुभ स्वर सुनाई पड़ रहे है।<br />
<br />
इतिहास के इस अंधकार को विदीर्ण कर प्रभात के सूर्योदय का दर्शन कराना ब्राह्मण जाति का अनिवार्य कर्तव्य है। हम माथुर सर्वज्ञान के प्रतिष्ठाता है। हमारा ही यह सर्वप्रथम दायित्व होना चाहिये कि हम इस दिशा में भ्रान्तियों के परिमार्जन का शंखनाद करै और भटके भूले मोह ग्रस्त राष्ट्र को यह दिखाये कि हमारा शास्त्र भंडार मानव को दृष्टि दर्शन देने वाले समर्थ इतिहास से परिपूर्ण है। अपने उत्साही पाठकीं की ज्ञान चेतना को जाग्रत करने और भारतीय प्राचीन इतिहास के वर्षो से अवरूद्ध प्रवेश मार्ग को अनाबृत करने के लिये कुछ मूल तथ्य यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूं। इसे समझ लेने पर विज्ञजनों को इस इतिहास में स्थापित कालाब्धियों और संभवताओं को जान लेने में बहुत कुछ सहायता मिलेगी।<br />
==प्राचीन भारतीय काल निर्धारण पद्धति== <br />
पुराणों ज्योतिष ग्रन्थों और ऋषि वाक्यों के अनुसार हमारे इस भू मंडल की सृष्टि का काल विभाजन विराट पुरूष परब्रह्म (जिसे सृष्टकिर्ता ब्रह्मा भी घोषित किया गया है), उस महाविभूति पुरूष के 100 वर्ष के जीवन काल का विस्तार है। यह 100 वर्ष का ब्रह्मा का जीवन काल ही हमारे इस विश्वब्रह्माण्ड के अस्तित्व का काल है जिसमें हमारी यह पृथ्वी उत्पन्न हुई और विकसित हुई है। इसके उत्पन्न होने और अब तक विकसित होने तथा यह कब तक जीवित रहेगी (आत्यतिक प्रलय) यह किसी भी धर्म या विज्ञान में निर्धारित नहीं हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास पद्धति के विषय में अनेक विभिन्न मत हैं किन्तु वे अधिकतर आधारशून्य कल्पनाओं पर आधारित तथा अतिअविश्वल्त है। हमारे यहाँ के पंडितों ने भी धार्मिक महात्मा वृद्धि की दौड़ में हमारी पुराणों में वर्णित युग कल्प गणना को शास्त्रों के मूल कथनों का अति दीर्ध अर्थ लगाकर उन्हें सत्य से दूर खड़ा कर दिया। इधर पाश्चात्य आधुनिकता वादियों ने अपने धार्मिक दुराग्रह के कारण इस अवधि को ईसा के आसपास अति समीप लाने की चेष्टा की है। इस खीचतान में इन दोनों समयान्तरों में एक बहुत बड़ा अंतराल बन गया है। आधुनिक तथा कथित विज्ञान भी अभी कोई बात स्थिर रूप से सुनिश्चित करने में समर्थ नहीं है- वह विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न स्थानों पर मिलने के परिक्षणों से उनके विभिन्न निष्कर्ष प्रगट करता ही रहता है। उसका यह भी निश्चय नहीं कि आज जो कहा जा रहा है कल कोई दूसरा सूत्र हाथ आ जाने पर वह कब अविश्वस्त मान लिया जायगा। हमारे शास्त्रीय निर्धारणों का अर्थ विस्तार करने वालों ने अपने मत को सर्व पुरातन प्रगट करने का गौरव तो स्थापित किया किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि हमारी यह अति विस्तारवादी नीति भविष्य में हमार ेही हपुरातन सत्य इतिहास को संसार के समाने अनर्गल और अविश्वस्त बना देगी और लोग तर्कों के कुठार से छिन्न भिन्न कर इतिहास के महत्वपूर्ण क्षेत्र से इसे वहिष्कृत कर देंगे।<br />
<br />
हमारे अपने 60 वर्षो के चिन्तन मनन और अनुसंधान के आधार पर अपने शास्त्रीय इतिहास की प्रमुख विज्ञान सम्मत काल पद्धति का पता लगाया है, जिसे हम यहाँ दे रहे हैं। यह याद रखने की बात है कि हमारे वेद व्यास के परवर्ती महानुभावों ने पौराणिक गणना के एक दिन का देवताओं का दिन अर्थात 360 दिन या एक मानव वर्ष का समय मानकर पुराणों के मूल वर्षों को 360 से गुणा कर 1200 वर्ष कौ 4,32,00 वर्ष कर लिया इसी , भेद से वेदों में वर्णित 100 वर्ष आयु को 36,000 वर्ष तथा इससे भी अधिक बढ़ा लिया। शोधित गणित से वेदों और पुराणों का भेद दूर हो जाता है। "ब्राह्मणान् वेद गुप्तये" के अनुसार ऋषियों ने शास्त्रों में अपसे समय की लेखन पद्धति के अनुसार कुछ और भी वर्णन पद्धतियाँ कूटमान समाधिभाषा लाक्षणिक संकेत आदिकों का प्रयोग किया हे जिसे न समझ पाने के कारण हम शास्त्रों को असंवद्ध कहने का डंका पीट डालते हैं। वे अपने अज्ञान के मद में यह नहीं सोचते कि - "कोत्र दोषोसहस्त्राँशो यदुलुकं न पश्यति" यदि पक्षी विशेष को दिन में सूर्य के कारण दिखालई नहीं पड़ता तो इसमें सूर्य का क्या दोष हैं यह तो उस पक्षी की दृष्टि की ही त्रृटि हैं जिसे दूर कर सकने पर उसे सम्भबत: सारा यथार्थ संसार दीख सकता है।<br />
<br />
यहां हम उस परिशोधित पद्धति को विद्वज्जनों की जानकारों के लिये उपस्थित कर रहें है। यह पद्धति "माथुरी पद्धति" है और इसे पूर्व प्राचीन काल मेकं हमारे ही पूर्वजों भगवान विवस्वान सुर्य (सूर्य सिद्धांत महर्षि, वशिष्ठ (वशिष्ठ सिद्धांत) पवराशर (पराशर सिद्धाँत) आदि ने ही स्थापित किया है।<br />
<br />
<blockquote><poem>अनुसंधान युक्त प्राचीन भारतीय इतिहास पद्धति <br />
युग= द्वादशवर्ष । युग शतब्दि – 1200 वर्ष। युग सहस्त्राव्द = 12000 वर्ष।<br />
अहोरात्र युग सहस्त्राव्द = 24000 वर्ष (एक कल्प या ब्राह्म दिवस) <br />
कलियुग (एकल युग शताव्द) = 1,200 वर्ष।<br />
द्वापरयुग (द्विगुण युग शताब्द) 2400 वर्ष।<br />
त्रेता (त्रिगुण युग शताब्द) 3600 वर्ष ।<br />
कृतुयुग (चतुर्गुण युग शताब्द ) 48000 वर्ष ।<br />
दशगुण युग शहस्त्राब्द या कल्प दिवस = 12000 वर्ष ।<br />
पुन: दश गुण युग शताब्द या कल्प रात्रि = 12000 वर्ष ।<br />
पूर्ण एक कल्प का मान (अहोरात्रयुक्त)<br />
ब्रह्मा का एक दिवस = 24000 वर्ष ।<br />
ब्राह्म मास (30 दिवस) = 7,20,000 वर्ष ।<br />
ब्राह्म वर्ष (12 मास) = 86,40,000 वर्ष ।<br />
ब्रह्म या ब्रह्माण्ड शतायु काल = 86,40,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु 12।। वर्ष एक ब्रह्माण्ड अवस्था = 10,80,00.000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु पूर्वार्ध काल 4 अवस्था (50वर्ष) = 43,20,00,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु परार्ध काल (51 से 60 वर्ष=4 अवस्थायें) 43,20,00,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म पूर्वार्ध आयु के पश्चात व्यतीत काल (पाँचवे बाराह कल्प के 2042 विक्रम संवत तक)= 15,886 वर्ष।<br />
2042 विक्रम संवत तक ब्रह्म आयु व्यतीत काल = 4,32,015,886 वर्ष।<br />
ब्रह्म सृष्टि आरंभ से पूर्व ब्रह्माण्ड गर्भ स्थिति काल (10 मास) 72,00,000 वर्ष।<br />
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आयु काल = 87,12,00,000 वर्ष।<br />
2042 वि0 वाद विश्व ब्रह्माण्ड का भविष्य (शेष भोग्य) जीवन काल = 43,91,84,114 वर्ष।<br />
इस काल की समाप्ति पर इस ब्रह्माण्ड की आत्यतिंक (महाप्रणय) होनी है। इसके मध्य में भी कल्पों के अन्त में या युग स्त्रहस्त्राब्दों की संधि में खंडप्रलय या अंशप्रलय होती रहती है।</poem></blockquote><br />
<br />
===ब्रह्माण्ड सृष्टि का क्रम विकास और क्षय===<br />
<br />
<blockquote><poem>इस पद्धति से विश्व ब्रह्माण्ड का क्रम विकास इस प्रकार हुआ है-<br />
ब्रह्म जन्म, सृष्टि उत्पत्ति, जीव उद्भव काल – 4,32,15,886 वर्ष पूर्व।<br />
1- शैशव काल - (12 ।। वर्ष) 43,20,15,886 से 2,40,15,886 वर्ष पूर्व तक, अम्दिज , अंडज , जरायुज सरीसृप (रेंगने वाले) केवल मुख और वायु युक्त जीव।<br />
2- कुमार काल- 3,20,15,886 से 21,60,15,886 वर्ष पूर्व तक पत्र ऋण कीटभक्षी हस्त पाद नेत्र श्रवणेन्द्रियों युक्त जीवों की उत्पत्ति।<br />
3- किशोर अवस्था (तृतीय सर्ग) 216013,886 से 1080,15886 वर्ष पूर्व तक भ्रमणशील, आखेटक, वन्य सम्पदा भक्षी , गुहावासी, जिज्ञासु अल्पबुद्धि <br />
4- युवा अवस्था (चतुर्थ संर्ग्र) 1380,15,886 से (2042 विक्रम काल) कृषि, गोपालन, प्रशासन, समाज संगठन की प्रया 14,886 वर्ष पूर्व तक <br />
5- प्रौढ़ अवस्था (पंचम सर्ग) 17,886 (2042 वि0) से 10,80,15,886 वर्ष पूर्व तक अतिविलासी, क्रूर, चारत्रहीन, लौलुप,यंत्राधीन प्राणी<br />
6- वृद्ध आयु (षष्ठ सर्ग) 100,0,15,006 से 21,60,15,006 वर्ष आगे तक साधनभ्रष्ट , त्रस्त , नीरास, निरूजमी, दुखी जीव।<br />
7- जीर्ण अवस्था (सप्तम सर्ग) 21,60,15,006 से 32,40,15,600 वर्ष आगे तक अन्न जल वायु ताप सबका अभाव क्षीण विश्व।<br />
8- उपराम अवस्था (अष्टम सर्ग) 32,40,15,006 से 43,20,15,600 वर्ष आगे तक ऋतु अनियमित , सूर्य , चन्द्र, मेघ विलुप्त भूमि ज्वालामयी अकाल प्रकृति कोप के वाद ब्रह्माण्ड की आत्यंतिक प्रलय।</poem></blockquote><br />
<br />
===कल्प स्थिति=== <br />
<br />
इस लम्बी काल गणना में हमारा वर्तमान बाराह कल्प ब्रह्मदेव के चतुर्थसर्ग युवाकाल में आता है। ब्रह्मदेव के वर्ष में 0 कल्प या ब्राह्मदिवस होते हैं, तथा चतुर्थ सर्ग पूर्वार्ध आयु काल तक 18000 कल्प व्यतीत हो जाते हैं। इतनें कल्पों का लेखा जोखा समग्र उपलब्ध नहीं है। महर्षि वेवव्यास ने अपनी महती शोध के वाद 5 कल्पों को ज्ञात कल्प माना है। महतकल्प से पूर्व का विश्व का इतिहास लुप्त प्राय है। ऐसा प्रतीत होता है कि महत कल्प से पूर्व जो कल्पांत प्रलय हुई वह सर्वाधिक विनाशकारी थी जिसमें पूर्व कल्पों के सारे विवरण अवशेष और ज्ञातव्य परम्परायें विनष्ट हो गई। यह भी तथ्य विचारणीय है कि हमारी मूल पृथ्वी वर्तमान धरातल से बहुत नीचे दब चुकी है। उस पर बहुत मोटी पर्ते चढ़ने के कारण वह अब बहुत स्थूल और वोझिल हो चुकी हैं। पृथ्वी की चुंवकीय (गुरूत्वाकर्थण) शक्ति के कारण आकाश से (धूलिपातसिर्द्धांत) के प्रभाव से हमारे ब्रह्माण्ड पर धूलि कणों की वर्षा निरन्तर होती रहती हैं। इसकी मोटी तह के नीचे प्राचीन पूल पृथ्वी विलुप्त हो चुकी है तथा भूगर्भ के चुंवकीय विद्युत केन्द्र के उद्दहन कक्ष में समाकर वह ज्वालामुखियों के लावा के रूप में प्रवाहित होती रहती है। अत: कल्पों के स्थूल अवशेथ मिलना असम्भव है। यह भी विचारणीय है कि उन कल्पों की सम्यता प्राय: शपात्र काष्ठ वनस्पति प्रयोगी थी जो कुछ काल में ही विनष्ट होगयी। कोयला और तेल उसी के कुछ अवशेष हैं।<br />
<br />
===परवर्ती ज्ञात कल्प===<br />
ज्ञात कल्पों का संकेत या विवरण हमें महामहर्षि वेद व्यास के पुराण साहित्य से इस प्रकार उपलब्ध होता है—<br />
<br />
====1- महत कल्प – 109,800 से 85,000 वि0पू0 तक==== <br />
इस कल्प का विशेष विवरण नहीं मिलता। "प्रथमोमहत: सर्ग: विज्ञेय महतस्तु सं" केवल इतना ही संकेत मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि इस कल्प में महत् तत्व वाले प्राणी और वृक्ष वनस्पति आदि थे। इस कल्प की प्रजाओं का मूल स्थान सूरसेन और मस्यदेश थे। हतकौली, हतकाँत, हतवास, हतौरा, हतीन , हातियौं, इसके साँकेतिक परम्परा स्थल तथा हट्ट, हाट हटिया, हटड़ा हटरी, हठी स्वभाव, हटकना, हातेवंदी संस्कृति परिचायक हैं। महद्ब्रह्म, महाविष्पु, महतत्व महारूद्र देवता तथा मेहता, महत्तों प्रजायें थीं।<br />
====2- हिरण्य गर्भ कल्प – 85,000 से 61,800 वि0पू0 तक ।====<br />
इस कल्प में पृथ्वी "हिरण्य" नामकी मिश्रित पीली धातु से आच्छातिद थी । पाँचाल देश का हिरन गौ क्षेत्र तथा क्रुरू क्षेत्र की रणभूमि, शूरसेन का रनवारी क्षेत्र इसके संकेत स्थल है। प्राचीन जांबूनद के तटों पर "जंबू सुवर्ण" विखरा हुआ था। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ , हिरण्यवर्णा लक्ष्मी, देवता थे, रैगड़ , रैना, रैनवाल, प्रजायें तथा हिरप्यानी रैडी (अरंडी) वृक्ष वनस्पति एवं हिरण ही सर्वोपयोगी पशु था। पीली मिट्टी की भूमि शूरसेन कुरूक्षेत्र, पांचाल, मत्स्य इसके धरावशेष हैं।<br />
====3- ब्राह्मकल्प – 61,800 से 37,800 वि0पू0 तक ।====<br />
ज्ञात कल्पों में महर्षि वेद व्यास ने इसे प्राथमिकता दी है। ब्रह्मपुराण , ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में इसके ऐतिहासिक विवरण संकलित किये है। ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर, रामपुर, रामगंगा केन्द्र स्थल के ब्राह्मी प्रजायें परब्रह्म देवता ब्रह्मवाद उपासना थी। <br />
इस कल्प के मध्य काल में गोलोक व्याप्त गोपालन संस्कृति का उदय हुआ। गोलोक खंड वर्तमान बुन्देलखंड है जो गोपाचल ग्वालपुर (ग्वालियर) से आरम्भ होकर (कत्यायनपुरी) कटनी, (बींणावादिनी प्रजाओं की पुरी) बीनां, (वायव्यपुर) जबलपुर, (गोलोक स्वामिनी त्रिपुर सुन्दरी की पुरी) त्रिपुरी तथा (गोलोक पति गोबिंद का वन) गोविन्दवनरींवां, नर्मदात्री नर्मदा का तट आदि से युक्त है। इस गोलोक बुन्देलखंड की प्रजायें गोपाल भक्ति में पूर्ण भावुक हैं तथा वे गोपालन का नैष्ठिक ब्रत्र लेकर वनों में गाय चराते तथा मोरपंख संचय करते हैं, जिन्हें वे कार्तिक मास में मथुरा में आकर श्री यमुना महारानी में विसर्जित करके दान पुण्य कर इस गोपालन ब्रत की पूर्णाहुति करते हैं, इस कल्प की ब्राह्मी प्रजायें (ब्रह्मदेश) वर्मा तथा (ब्रह्म पुत्रिका नदी) ब्रह्म पुत्रा तक फैली थीं।<br />
====4- पाद्मकल्प – 37,800 से 13800 वि0पू0 तक ।==== <br />
इस कल्प का विवरण महर्षि वेद व्यास ने पद्मपुराण में संकलित किया है। यह कल्प विश्व विस्तृत था। शोडष दल पद्म की कल्पना के रूप में 16 समुद्र के द्वीपों में इसकी स्थिति थी। पद्मावती पुरी के नाग वंशों के पूर्वज नाग जाति के लोग विश्व के सामुद्रिक यातायात के विज्ञाता थे। समुद्र मंथन अभियान में अनंत नाग वासुकी नाग ने प्रमुख योगदान दिया था। शेष नाग का साम्राज्य महा पाताल अमरीका तक था। कोल, कमठ, बानर (बंजारे) किरात, प्रजायें तथा कमल पत्र पुष्पों का बहु विध प्रयोग होता था। पद्मावती देवी आराधित थे। सिंहल द्वीप की नारियाँ पद्मिनी प्रजायें थीं।<br />
====5- बाराहकल्प- 13,800 वि0पू0 से अभी चालू है। ====<br />
बाराह अवतार और बाराह पुराण में व्यास देव ने इसकी विस्तृति और संस्कृति का विवरण दिया है। वाराह देव और उनकी बाराही प्रजाओं का देश भी ब्रह्मर्षि देश खास कर सूरसेन देश मथुरा ही है। ये माथुरों के परम पूजक थे। कुछ प्राचीन ग्रन्थों में इनके यज्ञ की अग्निशिखा से माथुर ब्राह्मणों की उत्पत्ति भी की गयी है। इस कल्प का अधिक विवरण हम आगे दे रहे हैं।<br />
<br />
===बाराह कल्प में 10 अवतार===<br />
{|class=brajtable border=1 cellpadding=5<br />
|1. बाराह अवतार (हिरण्याक्ष वध) <br />
|9380 वि0पू0 चैत्र शु0 6 ।<br />
|-<br />
|2. नृसिंह अवतार (हिरण्यकशिपु वध) <br />
|9355 वि0पू0 वैशाख शु0 14 ।<br />
|-<br />
|3. वामन अवतार (वलि वंधन) <br />
|9020 वि0पू0 जन्म भाद्रपद शु0 12।<br />
|-<br />
|4. कच्छप अवतार (समुद्र मंथन) <br />
|6540 वि0पू0 जन्म वैशाख कु0 1।<br />
|-<br />
|5. मत्स्य अवतार (बैदस्वत मनु काल) <br />
|6382 वि0पू0 जन्म वैशाख कृ01।<br />
|-<br />
|6. परशुराम अवतार (सहस्त्रवाहु वध) <br />
|5092 वि0पू0 , जन्म 5142 वि0पू0 वैशाख शु0 3।<br />
|-<br />
|7. श्री राम अवतार – जन्म <br />
|4055 वि0पू0 चैत्र शु0 9, रावण वध 4042 वि0पू0 आश्विन शु0 10।<br />
|-<br />
|8. श्री कृष्ण अवतार- जन्म <br />
|3114 वि0पू0 भाद्रपद कृ0 8, द्वारिका गमन 3082 वि0पू0 चैत्र शु0 10।<br />
|-<br />
|9. बुद्ध अवतार- जन्म <br />
|1760 वि0पू0 आश्विन शु0 10, निर्वाण 1680 वि0पू0।<br />
|-<br />
|10. कल्कि अवतार- <br />
|1338 वि0पू0 श्रावण शु0 9, स्वधाम 1296 वि0पू0।<br />
|}<br />
<br />
===12. देवासुर महा संग्राम===<br />
देवाडसुराणां संग्रामा दाचार्थ द्वादशाडभवन्- अग्नि पुराण अ0 276 <br />
{|class=brajtable border=1 cellpadding=5<br />
|1. वाराह हिरण्याक्ष <br />
|9 9,380 वि0पू0<br />
|-<br />
|2. नृसिंह हिरण्यकशिपु <br />
|9,355 "<br />
|-<br />
|3. वामन बलि<br />
|9,020 "<br />
|-<br />
|4. इन्द्र बलि (समुद्र मंथन)<br />
|6,378 "<br />
|-<br />
|5. स्कंध कार्तिकेय ताड़क (विरोचन वध) <br />
|9,176 "<br />
|-<br />
|6. हररूद्र अन्धक (बृकासुर वध) <br />
|9,247 "<br />
|-<br />
|7. शिव त्रिपुर <br />
|8,756 "<br />
|-<br />
|8. इन्द्र ब्रत्र (दस्युओं का ध्वंस) <br />
|8,684 "<br />
|-<br />
|9. वशिष्ठ विश्वामित्र (आडी बक युद्ध)<br />
|5,357 "<br />
|-<br />
|10. परशुराम कार्तवीर्य (हैहय विनाश)<br />
|5,132 "<br />
|-<br />
|11. राम रावण (हलाहली)<br />
|4,024 "<br />
|-<br />
|12. लक्ष्मी कोलासुर (स्वर्ण क्षेत्र विजय)<br />
|6,354 "<br />
|}<br />
<br />
इसके अतिरिक्त दानी पुरूषों की दान स्तुतियाँ (ऋग्वेद दशम मंडल में) , तपस्वी नरेन्दा्रें की सूची (महाभातर बन पर्व 3-11 में ), सत्वगुणी राजाओं चक्रवर्तियों , कुलपांसन नरेशों की सूचियां भी पुराणों में हैं। <br />
<br />
===14. मन्वन्तरों का काल===<br />
1. स्वायंभू मनु ब्रह्मा से 2 पीढी , मन्वंतर काल 238 वर्ष 9,000 से 8,762 वि0पू0।<br /><br />
2. स्वारोचिष ध्रुव पीढी 4: काल 32 वर्ष – 8762 से 8730 वि0पू0।<br /><br />
3. उत्तम ध्रुव का भाई पीढी 4: काल 70 वर्ष – 8730 से 8660 वि0पू0 ।<br /><br />
4. वामन मनु पीढी 6: काल 174 वर्ष – 8660 से 8486 वि0पू0।<br /><br />
5. रैवत मनु पीढी 13: काल 658 वर्ष – 8486 से 7828 वि0पू0।<br /><br />
6. बैवस्वत मनु पीढी 13 : काल 1449 वर्ष – 7828 से 6379 वि0पू0।<br /><br />
7. वैवस्वत मनु पीढी 33 : काल 649 वर्ष : 6379 से 5730 वि0पू0।<br /><br />
8. सावर्णि मनु पीढी 41 , काल 374 वर्ष : 5730 से 5356 वि0पू0।<br /><br />
<br />
'''उपेक्षित परवर्ती मन्वंतर- अल्प प्रभावी''' <br />
<br />
9. दक्ष सावर्णि पीढी 49 , काल 286 वर्ष : 5356 से 4070 वि0पू0 <br />
(अनुवंशी शिवि का भाई) <br /><br />
10. ब्रह्म सावर्णि पीढी 52 काल 256 वर्ष : 5070 से 4814 वि0पू0।<br />
(रंभवंशी ब्रह्मदेव)<br /><br />
11. धर्म सावर्णि पीढी 56, काल 272 वर्ष : 4814 से 4542 वि0पू0।<br />
(अनुवंशी धर्मरथ)<br /><br />
12. रूद्रसावर्णि पीढी 61 , काल 340 वर्ष : 4542 से 4202 वि0पू0।<br /><br />
13. देव सावर्णि पीढी 66, काल 1270 वर्ष : 4202 से 2932 वि0पू0।<br />
(मधु यादव का पिता देवराट)<br /><br />
14. इन्द्र सावर्णि पीढी 86, काल 1132 वर्ष : 2932 से 1800 वि0पू0।<br />
(अगस्त्य वंशी इहमवाह)<br /><br />
<br />
यह क्रम सिद्ध करता है कि महर्षि वेद व्यास के पश्चात् ऐसा कोई सार्वदेशिक अधिकारी शास्त्रकर्ता नहीं हुआ जो उस परम्परा को आगे तक चलाता। इसी कमी से व्यास पश्चात के इतिहास क्षेत्र में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो गयीं , जिनका समाधान अति आवश्यक था। उदाहरण रूप- हमारे धार्मिक संकल्प में "वैवस्वत मन्वंतरे" का कथन, कलियुग का प्रथम चरण अति लम्बा, बौद्ध धर्म के उन्मूलक कल्कि भगवान का स्मरण न किया जाना जिन्होंने पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध प्रभाव से पृथक कर अश्वमेध यज्ञों की पुन: परम्परा स्थापित की । भगवान कल्कि संवत् भी केरल में चालू है किन्तु आगे के विद्वानों ने उधर से पूर्ण उपेक्षा की दृष्टि ही रक्खी। शायद वे परवर्ती किसी रचनाकार को महर्षि वेद व्यास की समता में नहीं रखना चाहते थे। इस उपेक्षा ने धार्मिक साहित्य को सत्य से दूर इतिहासकारों के विचारों से असम्बद्ध तथा अन्धकार के अन्तराल में निक्षेप कर दिया। आश्चर्य है कि आज के मनीषी विद्वान आज भी इधर प्रयास न करके पुरानी भ्रान्ति मूलक विचार शून्य परम्परा को ही पकड़े हुए हैं।<br />
<br />
'''बाराह कल्प का काल विभाजन'''<br />
<blockquote><poem><br />
बाराह कल्प की मूल स्थापना – यह गणना पुराणों के मूल पाठ के अनुसार है जिसमें-<br />
चत्वार्याहु सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगन्।<br />
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथा विधम्।।<br />
इतरेषु स संध्येषु संध्यांशेषु ततस्त्रिषु।<br />
एक पादेन हृीयन्ते सहस्त्राणि शतानि च ।। 1 <br />
--- महा भा0 शान्ति 231</poem></blockquote> <br />
<br />
<br />
इसमें सतयुग 4000 वर्ष , त्रेता 3000 वर्ष, द्वापर 2000 वर्ष तथा कलि 1000 वर्ष का कहा है ता इनसे दुगुने सैकड़ों में 800, 600, 400, 200 वर्षों के इनके संध्यांश कहे गये हैं। इनके साथ कहीं-कहीं ’दिव्य’ शब्द का प्रयोग है जो चार प्रकार की संवत्सर पद्धतियों- सौर (दिव्य) , चांद्र (सौम्य), नाक्षत्र और अयन वर्ष में सौर गणना की मान्यता का निर्णायक है। इसे देवों का वर्ष बताकर इस वैज्ञानिक इतिहास स्वीकरणीय पद्धति को अवैज्ञानिक और अविश्वस्त बनाया गया है। इस आधार से यह कल्प विभाजन इस प्रकार है।<br />
बाराह कल्प दिवा भाग—<br />
<br />
{|class=brajtable border=1 cellpadding=5<br />
| सतयुग <br />
|4800 <br />
|13,800 से 9,000 वि0पू0 तक।<br />
|-<br />
| त्रेता<br />
|3600 <br />
|9,000 से 5,400 वि0पू0 तक।<br />
|-<br />
|द्वापर<br />
|2400 <br />
|5,400 से 3,000 वि0पू0 तक।<br />
|-<br />
|कलि<br />
|1200 <br />
|3,000 से 1,800 वि0पू0 तक।<br />
|}<br />
<br />
<br />
1800 वि0पू0 में दिवा कलियुग समाप्ति है तथा रात्रि भाग का आरम्भ है। यह ब्रह्म रात्रि विलोम क्रम से प्रवर्तित होती है क्योंकि रात्रि का धर्म अन्धकार दिवाधर्म प्रकाश के पूर्णत: विपरीत है। रात्रि धर्म के प्रवर्तन से इस काल में चोरी, सुरापान, डाके, अपहरण, व्यभिचार , हत्या, षडयंत्र, अनैतिकता, विलासिता आदि की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भौतिक आसुरी विज्ञान अनुक्रम से बृद्धि की ओर अग्रसर है आगे की स्थिति से यह स्पष्ट है---<br />
बाराह कल्प रात्रि भाग ---<br />
<br />
{|class=brajtable border=1 cellpadding=5<br />
| कलियुग<br />
|1200 <br />
|1800 से 600 वि0पू0।<br />
|-<br />
| द्वापर<br />
|2400 <br />
|9,000 से 5,400 वि0पू0 तक।<br />
|-<br />
| त्रेता<br />
|3600 <br />
|1800 विक्रमी से 5400 वि0 तक।<br />
|-<br />
|सतयुग<br />
|4800<br />
|5400 विक्रमी से 10200 विक्रमी तक ।<br />
|}<br />
<br />
इतिहास क्रम से भी यह बात पूर्णत: विश्वस्त सिद्ध होती है । शतायु मानव जीवन की यह यथार्थ स्थिति है।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_7&diff=56217चतुर्वेदी इतिहास 72010-04-22T15:26:56Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==चतुर्वेदी : चौबेजी नाम प्रसिद्धि==<br />
<blockquote>इस उद्धरव से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि 1370 वि0 के पूर्व काल प्राकृत भाषा विस्तार युग से ही माथुर ब्राह्मण चतुर्वेदी के अपभ्रंश रूप में साधारण जनता में " चड विज्ज" या "चौबेजी" कहे जाने लगे थे। चौबे शब्द का प्राचीन ऐतिहासिक यह प्रमाण सिद्ध करता है कि चतुर्वेदियों का चौवेजी संशोधन बहुत प्राचीन और एतिहासिक है। तथा यह प्रधान रूप से मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के समस्त सामूहिक वर्ग को संवोधन करने के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। खासकर उस काल में जब दूसरे ब्राह्मण दुवे तिवाड़ी , भट्ट मिस्सर, पानी पांड़े आदि ख्यातियों से युक्त थे तथा द्विवेदी तिवाड़ी उनकी एक एक शाखा मात्र थी। <br />
</blockquote><br />
==यक्षों का प्रभाव काल==<br />
<br />
इस समय मथुरा में यक्ष पूजा जोरों पर थी। जिनप्रभु सूरि के अनुसार इस समय मथुरा नगर में भूतयक्ष, हुंडिय यक्ष , चोर जीव के देवालय थे। हुंढिय यक्ष की पूजा भांडीरवन में भी की जाती थी। यह हुंडिय यक्ष बड़ा प्रभावशाली और धनेश्वर था। इसके नाम पर ही लेन देन के काम में जिस अभिलेख का प्रयोग होता था उसका नाम "हुंडी" रक्खा गया। तथा उनका स्वर्ण सिक्का "हुन्न" था हुण इसी की शाखा के थे जो हुन्नान चीन में बसे थे।<br />
<br />
इसी समय महावन में भी एक महायक्ष की पूजा होती थी। शजो यक्षेश्वर या जखैया के नाम से विख्यात हुआ। इस महाचक्ष की विशाल काय प्रतिमा मथुरा पुरातत्व संग्रहालय में देखी जा सकती । <br />
<br />
मथुरा में यक्ष परम्परा अति प्राचीन है। यक्ष राक्षसो की उत्पत्ति कश्यप सृष्टिकाल से है। भक्त ध्रुव के भाई उत्तम को यक्षों ने मार दिया था। कृष्ण के समय यमलार्जुन (नलकूवर मणिग्रीव) मक्ष थे। ब्रज में भंडीर यक्ष का स्थान भांडीर वन, सुभद्रयक्ष का भद्रवन थे। कुवेर के अनुचरों में भंडीर यक्ष धन (ऋण) के वितरण कर्ता तथा हुंडीय यक्ष (हूंड़) क्रूरता से धन के वसूल करने वाले थे। महाराज युधिष्ठर के गुप्त वास के समय उनका यक्षेब्द्रपुरी (जिखिनगांव) के यक्षेन्द्रराज से तत्व ज्ञान युक्त धर्म संवाद हुआ था जो महाभारत में यक्ष प्रश्न के नाम से संस्थापित है। यह यक्ष महाशक्तिशाली ब्रह्म रूप कहा जाने वाला ब्रह्म ज्ञानी था। यक्षों यक्षिणिनियों की लोक पूजा भी होती थी। महावन की यक्षराज जखैया देवता के नाम से अभी भी पुत्रों की प्राण रक्षा के लिये पूजा जाता है तथा उसकी विशाल मूर्ति परखम यक्ष के नाम से पुरातत्व संग्रहालय में हैं। ब्रज में इस काल में यक्ष जाति की विशाल जन संख्या थी जो बौद्ध होने के बाद जिखिन गाँव के खिनवार जाट, यक्ष पुरी छहिरी के छांहर या चाहर नाम पाकर इस जाति में विलय हो गये। कुवेर वैश्रवण की पुरी सरवणपुरा के वैश्रवण पूज्य सरवन माथुरों से यक्षों का पौरोहित्य सम्पर्क था। माथुर अपने यज्ञ यक्षों की रक्षा में ही करते थे। कृष्णकाल का माथुर आंगिरसों का आगिरस सत्र भंडीर यक्ष के भांडीर बन में हुआ था। मथुरा नगर के नगर रक्षक भी यक्ष और यक्षिणियां ही थे।<br />
<br />
==कलियुग का पदापर्ण और समाप्ति ==<br />
3000 वि0पू0 में बाराह कल्प के दिवस भाग का कलियुग आरम्भ हुआ। इसके आरम्भ में महाभारतयुद्ध यादव संहार श्री कृष्ण अवतार और मगध प्रदेश में बृहद्रथ (जरासंध) वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ। इस कलियुग का व्याप्तिकाल (1200 वर्ष) 1800 वि0पू0 तक हरहा। इस कालावधि में रिपुजंय (2037-2011 वि0पू0) तक मगध का बृहद्रथ जरासंघ वंश तथा फिर प्रद्योतवंशी शुनक (2018-1983 वि0पू0) से नंदिवर्धन (1899-1873 वि0पू0) तक भारत के सम्राट पदों पर रहे। मथुरा मगध राज्य में प्रमुखता तो नहीं प्राप्त कर सकीं परन्तु मागधों से घनिष्टता स्थापित कर "माथुरो मागधश्चैव" के समन्वय के साथ राजनैतिक दुष्चक्रों से दूर अपने धार्मिक स्वरूप और प्रतिष्ठा को बनाये रही। मगध के प्रमुख तीर्थ गया से भी ऊपर ध्रुव तीर्थ "आदिगया ध्रुवक्षेत्र" का मान स्थापित हुआ तथा कामबन आदि ब्रन्दावन में काशी प्रयाग और गया तीर्थ गदाधर भगवान की श्रेष्ठ मान्यता रही। ब्रज के फालैन (फल्गुनी यज्ञ) तीर्थ की भी प्रहलाद कालीन तीर्थ परम्परा गया में फल्गुनदी के रूप में प्रतिष्ठित हुई माथुरा ब्राह्मणों की महती प्रतिष्ठा और पद श्रेष्ठता को देखते हुए देसरे ब्राह्मणवर्ग अपनी स्थिति को सम्हालने के लिये अनेकानेक याक्य गढने लगे और उन्हें पुराण पाठों में यत्र तत्र प्रबिष्ट कर माथुरों के प्रति शंकास्पद वातावरण बनाने में प्रयत्नशील होने लगे। इन कल्पित अनर्गल और तथ्य शूल्य वचनों से प्रभावित होकर हमारे समूह के भी कुछ लोग गौंड़ों या कान्यकुन्जों की किसी शाखा प्रशाखा के रूप में अपने को समझने की भ्रान्ति प्रचारित करने लगे। मनगंढत भृगुराम संहिता के किसी लेखक ने लिखा-<br />
<br />
<poem>सर्वें द्विजा कान्य कुब्जा माथुरं मागधं विना।<br />
पृथग्भावेन तिष्ठन्ति विप्रत्वं श्रेय कांक्षिण:।।<br />
बाराहस्य तु यज्ञेन माथुरी जायते पुरा।<br />
मागधो ब्राह्मण: पूर्व कथितों द्विज एव च ।। 1<br />
</poem><br />
यह प्राचीनतम माथुरा से अन्य नवस्थपित ब्राह्मण वगों के दूर हठने के समय की स्थिति बतलाते है- वे कहते हैं माथुर और मागधों को छोड़कर सभी कान्य कुब्ज ब्राह्मण (अपने समकालीन अन्य ब्राह्मणों सहित) सद्यपि इन दोनों प्राचीन वर्गों से पृथक भाव में स्थित होते जा रहे हैं किन्तु मूलत: वे इन दोनों विप्रकुलों के समाश्रित ही हैं क्योंकि माथुर श्रेष्ठ विप्र आदि अवतारी देव आदि बाराह प्रभु के यज्ञ की हुताग्नि से दिव्य देह धारण कर प्रगट हुए हैं। वे सतयुग की देव सृष्टि के समय के सर्वमान्य ऋषि महर्षि हैं, तथा मागधों को ब्रह्मदेव ने गजासुर वध काल में द्वापर के प्राचीन समय में द्विज मान्य कहा है। अत: इनसे दूर हटने पर भी अन्य सभी ब्राह्मण इनका आश्रय ग्रहण करके ही अपने को लोक प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। ब्राह्मण मार्तण्ड कर्ता ने लिखा-<br />
<br />
<poem>उदीच्याऋषय: सर्वे न म्होड़ा न च नागरा: ।<br />
कान्यकुब्जा द्विजा सर्वे, माथुरं मागधं बिना।।</poem><br />
<br />
सभी ऋषिगण उदीची दिशाबासी होने से उदीज्य (औदीज्य) हैं; वे न तो (मौटैराके) मोढ हैं न (नागरखंड के ) नागर, इसी प्रकार कान्यकुब्ज देशाधिपति सम्राट हर्ष के उदार राष्ट्र कान्यकु ब्ज देश के आश्रित होने से (माथुरों और मागधों को छोड़कर) अन्य सभी ब्राह्मण कान्यकुब्ज वर्गीय ही हैं। इससे स्पष्ट है कि जब अन्य पंचपात्र विप्र 1- सारस्वत, 2- कान्यकुब्ज, 3- गौड़, उत्कली, 5- मैथिली कान्यकुब्जों के (पंच गौड़ यूनियम) में सम्मिलित हो गये, तब माथुर और उनके साथीं मागध ही ऐसे स्वाभिमानी और स्वक्षेत्र गौरवधारी उच्च पदस्थ ब्राह्मण थे। जिन्होंने कान्यकुब्जों के दस समदस्यीय नब गठित मंडल का सदस्य बनकर उनका अनुगत होना ठुकरा दिया, और अपनी उच्च आचार विचार कुल की प्रतिष्ठा के अनुरूप अपना सर्वोपरि स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रक्खा। इस प्रकार अनेक परवर्ती ब्राह्मण समूहों ने जी तोड़ प्रयास करके माथुर ब्राह्मणों को अपने अंतर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर ब्राह्मणों को अपने अतंर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर किसी से झुके नहीं और खान पान आचार में सबसे उत्कृष्ट रहकर अपनी पृथकता की पहिचार निराली बना कर रक्खी कान्यकुब्ज चौबे बने, गोड़ मथुरिया (घटवारे) बने परन्तु माथुर कनौजिये या गौड़ नहीं बन पायें। चौबें शब्द की उपाधि धारण के वादरयाणन्याथ से अन्य कोई समूह माथुरों में प्रविष्ठ न हो सका। इस प्रकार माथुरी के साथ ब्रह्म दिवस का कलियुग अपनी दिवा ज्योति के साथ अवसान को प्राप्त हुआ और तभी 1800 वि0पू0 से ब्रह्मरात्रि का निशांधकारमय अधर्म स्वेच्छाचार और रत्रिधर्म विस्तारक तमोमय काल असुरों तमीचरों को प्रिय पुष्टि प्रदाता बनकर सामने आया।<br />
<br />
==भारतीय प्राचीन इतिहास का प्रवेश द्वार==<br />
हमारे अनेक पाश्चात्य शिक्षा के निष्णात वंधु यह सब पढकर त्रस्त परेशान क्रोधित और क्षुब्ध हो उठेगें कि यह सब हम क्या पढ़ रहे हैं। पाश्चात्य शिक्षा में लिपटे आज के इतिहास ने हमें ऐसा कस कर जकड़ा है कि हमें अपने ही शास्त्रों पुराणों ग्रन्थों पर विश्वास नहीं होता । आर्य बाहर से आये, वे मध्य एशिया में अपजे थे। वे अनार्यों को खा गये, भारत के पास अपना कोई प्राचीन इतिहास है ही नहीं, पुराण मिथों (मिथ्याओं) और अस्त व्यस्त कहानियों के पिटारे हैं, राम-कृष्ण , वामन, परशुराम, सगर, दिलीप , सूर्यवंश, चन्द्रवंश कल्पना हैं, जो भक्तों का पोषण पाकर विकवित होते गये हैं।<br />
<br />
भारत का सच्चा इतिहास पाषण के ढेलों में, फूटे ठीकरों में टूटी मूर्तियों में या पत्थर खंडों पर लिखे लेखों में है। जबकि पुराणों में वर्णित इतिहास युगों के क्रम से वंशावलियों में, राज्य और साम्राज्य संस्थानों में दिग्विजयों में, राजसूय और अश्वमेघ यज्ञों में, देवासुर संग्रामों दान, यज्ञ तप लोक संरक्षण और प्रजासंवर्धन प्रयासों से भरा पड़ा है। कुछ महत्वपूर्ण निजी विद्याओं को गोपनीय रखने के लिए पुराणों में कूटग्राम, कूटमान, समाधिभाषा रूपकों और लक्षण व्यंजना आदि कथन विशेष की शैलियां थी उन्हें न जान पाने के कारण भी पुराणों पर वाण वर्षा की जा रही है। इसमें पाश्चात्यों द्वारा भारत के गौरव को विनष्ट करने के हेतु से किये गये राजनेतिक कूट प्रहारिक प्रयास भी योग दे रहे हैं जिनके कारण स्वाधीन भारत के इतिहास में भी भारत के कीर्ति रत्न श्रीराम, श्रीकृष्ण , विक्रमादित्य, वेदव्यास, बाल्मीकि , आदि को वर्तमान इतिहास से अलक्षित रक्खा जा रहा है।<br />
<br />अस्तु इस राष्ट्र घातक से त्राण पाने के लिये हमें अपने शास्त्रों पुराणों की भ्रान्ति मुक्त सत्यमयी छवि की शरण में जाना होगा। मेरे किशोर मानस में 15 वर्ष आयु से ही इस दिशा में गहन चिन्तन की आतुरता जाग उठी थी। और 60 वर्षों तक निरन्तर चिन्तन मनन अध्यवसाय और अनुसंधान मय शोध प्रयासों के फलस्वरूप "भारतीय मूल इतिहास" की जो यथार्थ तथ्यमयी दिशादर्शन की दृष्टि प्राप्त हुई उसके आधार पर यह विश्वास और दृढ़ता पूर्वक कहा जा सकता है कि "भारत का अति प्राचीन पौराणिक इतिहास" सारे विश्व के इतिहास से प्राचीनतम युक्तियुक्त विश्वस्त और वैज्ञानिक है। उसमें जैसा कि कहा जाता है, वैसी कोई भी असंवद्धता असंभवता, निराधार प्रस्तुति या अवैज्ञानिक स्थापना नहीं है। जब तक अन्धकार है तभी तक निशा प्रेरक जीव जंतुओं के कर्कश क्रूर प्रहारात्मक अशुभ स्वर सुनाई पड़ रहे है।<br />
<br />
इतिहास के इस अंधकार को विदीर्ण कर प्रभात के सूर्योदय का दर्शन कराना ब्राह्मण जाति का अनिवार्य कर्तव्य है। हम माथुर सर्वज्ञान के प्रतिष्ठाता है। हमारा ही यह सर्वप्रथम दायित्व होना चाहिये कि हम इस दिशा में भ्रान्तियों के परिमार्जन का शंखनाद करै और भटके भूले मोह ग्रस्त राष्ट्र को यह दिखाये कि हमारा शास्त्र भंडार मानव को दृष्टि दर्शन देने वाले समर्थ इतिहास से परिपूर्ण है। अपने उत्साही पाठकीं की ज्ञान चेतना को जाग्रत करने और भारतीय प्राचीन इतिहास के वर्षो से अवरूद्ध प्रवेश मार्ग को अनाबृत करने के लिये कुछ मूल तथ्य यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूं। इसे समझ लेने पर विज्ञजनों को इस इतिहास में स्थापित कालाब्धियों और संभवताओं को जान लेने में बहुत कुछ सहायता मिलेगी।<br />
==प्राचीन भारतीय काल निर्धारण पद्धति== <br />
पुराणों ज्योतिष ग्रन्थों और ऋषि वाक्यों के अनुसार हमारे इस भू मंडल की सृष्टि का काल विभाजन विराट पुरूष परब्रह्म (जिसे सृष्टकिर्ता ब्रह्मा भी घोषित किया गया है), उस महाविभूति पुरूष के 100 वर्ष के जीवन काल का विस्तार है। यह 100 वर्ष का ब्रह्मा का जीवन काल ही हमारे इस विश्वब्रह्माण्ड के अस्तित्व का काल है जिसमें हमारी यह पृथ्वी उत्पन्न हुई और विकसित हुई है। इसके उत्पन्न होने और अब तक विकसित होने तथा यह कब तक जीवित रहेगी (आत्यतिक प्रलय) यह किसी भी धर्म या विज्ञान में निर्धारित नहीं हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास पद्धति के विषय में अनेक विभिन्न मत हैं किन्तु वे अधिकतर आधारशून्य कल्पनाओं पर आधारित तथा अतिअविश्वल्त है। हमारे यहाँ के पंडितों ने भी धार्मिक महात्मा वृद्धि की दौड़ में हमारी पुराणों में वर्णित युग कल्प गणना को शास्त्रों के मूल कथनों का अति दीर्ध अर्थ लगाकर उन्हें सत्य से दूर खड़ा कर दिया। इधर पाश्चात्य आधुनिकता वादियों ने अपने धार्मिक दुराग्रह के कारण इस अवधि को ईसा के आसपास अति समीप लाने की चेष्टा की है। इस खीचतान में इन दोनों समयान्तरों में एक बहुत बड़ा अंतराल बन गया है। आधुनिक तथा कथित विज्ञान भी अभी कोई बात स्थिर रूप से सुनिश्चित करने में समर्थ नहीं है- वह विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न स्थानों पर मिलने के परिक्षणों से उनके विभिन्न निष्कर्ष प्रगट करता ही रहता है। उसका यह भी निश्चय नहीं कि आज जो कहा जा रहा है कल कोई दूसरा सूत्र हाथ आ जाने पर वह कब अविश्वस्त मान लिया जायगा। हमारे शास्त्रीय निर्धारणों का अर्थ विस्तार करने वालों ने अपने मत को सर्व पुरातन प्रगट करने का गौरव तो स्थापित किया किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि हमारी यह अति विस्तारवादी नीति भविष्य में हमार ेही हपुरातन सत्य इतिहास को संसार के समाने अनर्गल और अविश्वस्त बना देगी और लोग तर्कों के कुठार से छिन्न भिन्न कर इतिहास के महत्वपूर्ण क्षेत्र से इसे वहिष्कृत कर देंगे।<br />
<br />
हमारे अपने 60 वर्षो के चिन्तन मनन और अनुसंधान के आधार पर अपने शास्त्रीय इतिहास की प्रमुख विज्ञान सम्मत काल पद्धति का पता लगाया है, जिसे हम यहाँ दे रहे हैं। यह याद रखने की बात है कि हमारे वेद व्यास के परवर्ती महानुभावों ने पौराणिक गणना के एक दिन का देवताओं का दिन अर्थात 360 दिन या एक मानव वर्ष का समय मानकर पुराणों के मूल वर्षों को 360 से गुणा कर 1200 वर्ष कौ 4,32,00 वर्ष कर लिया इसी , भेद से वेदों में वर्णित 100 वर्ष आयु को 36,000 वर्ष तथा इससे भी अधिक बढ़ा लिया। शोधित गणित से वेदों और पुराणों का भेद दूर हो जाता है। "ब्राह्मणान् वेद गुप्तये" के अनुसार ऋषियों ने शास्त्रों में अपसे समय की लेखन पद्धति के अनुसार कुछ और भी वर्णन पद्धतियाँ कूटमान समाधिभाषा लाक्षणिक संकेत आदिकों का प्रयोग किया हे जिसे न समझ पाने के कारण हम शास्त्रों को असंवद्ध कहने का डंका पीट डालते हैं। वे अपने अज्ञान के मद में यह नहीं सोचते कि - "कोत्र दोषोसहस्त्राँशो यदुलुकं न पश्यति" यदि पक्षी विशेष को दिन में सूर्य के कारण दिखालई नहीं पड़ता तो इसमें सूर्य का क्या दोष हैं यह तो उस पक्षी की दृष्टि की ही त्रृटि हैं जिसे दूर कर सकने पर उसे सम्भबत: सारा यथार्थ संसार दीख सकता है।<br />
<br />
यहां हम उस परिशोधित पद्धति को विद्वज्जनों की जानकारों के लिये उपस्थित कर रहें है। यह पद्धति "माथुरी पद्धति" है और इसे पूर्व प्राचीन काल मेकं हमारे ही पूर्वजों भगवान विवस्वान सुर्य (सूर्य सिद्धांत महर्षि, वशिष्ठ (वशिष्ठ सिद्धांत) पवराशर (पराशर सिद्धाँत) आदि ने ही स्थापित किया है।<br />
<br />
<blockquote><poem>अनुसंधान युक्त प्राचीन भारतीय इतिहास पद्धति <br />
युग= द्वादशवर्ष । युग शतब्दि – 1200 वर्ष। युग सहस्त्राव्द = 12000 वर्ष।<br />
अहोरात्र युग सहस्त्राव्द = 24000 वर्ष (एक कल्प या ब्राह्म दिवस) <br />
कलियुग (एकल युग शताव्द) = 1,200 वर्ष।<br />
द्वापरयुग (द्विगुण युग शताब्द) 2400 वर्ष।<br />
त्रेता (त्रिगुण युग शताब्द) 3600 वर्ष ।<br />
कृतुयुग (चतुर्गुण युग शताब्द ) 48000 वर्ष ।<br />
दशगुण युग शहस्त्राब्द या कल्प दिवस = 12000 वर्ष ।<br />
पुन: दश गुण युग शताब्द या कल्प रात्रि = 12000 वर्ष ।<br />
पूर्ण एक कल्प का मान (अहोरात्रयुक्त)<br />
ब्रह्मा का एक दिवस = 24000 वर्ष ।<br />
ब्राह्म मास (30 दिवस) = 7,20,000 वर्ष ।<br />
ब्राह्म वर्ष (12 मास) = 86,40,000 वर्ष ।<br />
ब्रह्म या ब्रह्माण्ड शतायु काल = 86,40,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु 12।। वर्ष एक ब्रह्माण्ड अवस्था = 10,80,00.000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु पूर्वार्ध काल 4 अवस्था (50वर्ष) = 43,20,00,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु परार्ध काल (51 से 60 वर्ष=4 अवस्थायें) 43,20,00,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म पूर्वार्ध आयु के पश्चात व्यतीत काल (पाँचवे बाराह कल्प के 2042 विक्रम संवत तक)= 15,886 वर्ष।<br />
2042 विक्रम संवत तक ब्रह्म आयु व्यतीत काल = 4,32,015,886 वर्ष।<br />
ब्रह्म सृष्टि आरंभ से पूर्व ब्रह्माण्ड गर्भ स्थिति काल (10 मास) 72,00,000 वर्ष।<br />
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आयु काल = 87,12,00,000 वर्ष।<br />
2042 वि0 वाद विश्व ब्रह्माण्ड का भविष्य (शेष भोग्य) जीवन काल = 43,91,84,114 वर्ष।<br />
इस काल की समाप्ति पर इस ब्रह्माण्ड की आत्यतिंक (महाप्रणय) होनी है। इसके मध्य में भी कल्पों के अन्त में या युग स्त्रहस्त्राब्दों की संधि में खंडप्रलय या अंशप्रलय होती रहती है।</poem></blockquote><br />
<br />
===ब्रह्माण्ड सृष्टि का क्रम विकास और क्षय===<br />
<br />
<blockquote><poem>इस पद्धति से विश्व ब्रह्माण्ड का क्रम विकास इस प्रकार हुआ है-<br />
ब्रह्म जन्म, सृष्टि उत्पत्ति, जीव उद्भव काल – 4,32,15,886 वर्ष पूर्व।<br />
1- शैशव काल - (12 ।। वर्ष) 43,20,15,886 से 2,40,15,886 वर्ष पूर्व तक, अम्दिज , अंडज , जरायुज सरीसृप (रेंगने वाले) केवल मुख और वायु युक्त जीव।<br />
2- कुमार काल- 3,20,15,886 से 21,60,15,886 वर्ष पूर्व तक पत्र ऋण कीटभक्षी हस्त पाद नेत्र श्रवणेन्द्रियों युक्त जीवों की उत्पत्ति।<br />
3- किशोर अवस्था (तृतीय सर्ग) 216013,886 से 1080,15886 वर्ष पूर्व तक भ्रमणशील, आखेटक, वन्य सम्पदा भक्षी , गुहावासी, जिज्ञासु अल्पबुद्धि <br />
4- युवा अवस्था (चतुर्थ संर्ग्र) 1380,15,886 से (2042 विक्रम काल) कृषि, गोपालन, प्रशासन, समाज संगठन की प्रया 14,886 वर्ष पूर्व तक <br />
5- प्रौढ़ अवस्था (पंचम सर्ग) 17,886 (2042 वि0) से 10,80,15,886 वर्ष पूर्व तक अतिविलासी, क्रूर, चारत्रहीन, लौलुप,यंत्राधीन प्राणी<br />
6- वृद्ध आयु (षष्ठ सर्ग) 100,0,15,006 से 21,60,15,006 वर्ष आगे तक साधनभ्रष्ट , त्रस्त , नीरास, निरूजमी, दुखी जीव।<br />
7- जीर्ण अवस्था (सप्तम सर्ग) 21,60,15,006 से 32,40,15,600 वर्ष आगे तक अन्न जल वायु ताप सबका अभाव क्षीण विश्व।<br />
8- उपराम अवस्था (अष्टम सर्ग) 32,40,15,006 से 43,20,15,600 वर्ष आगे तक ऋतु अनियमित , सूर्य , चन्द्र, मेघ विलुप्त भूमि ज्वालामयी अकाल प्रकृति कोप के वाद ब्रह्माण्ड की आत्यंतिक प्रलय।</poem></blockquote><br />
<br />
===कल्प स्थिति=== <br />
<br />
इस लम्बी काल गणना में हमारा वर्तमान बाराह कल्प ब्रह्मदेव के चतुर्थसर्ग युवाकाल में आता है। ब्रह्मदेव के वर्ष में 0 कल्प या ब्राह्मदिवस होते हैं, तथा चतुर्थ सर्ग पूर्वार्ध आयु काल तक 18000 कल्प व्यतीत हो जाते हैं। इतनें कल्पों का लेखा जोखा समग्र उपलब्ध नहीं है। महर्षि वेवव्यास ने अपनी महती शोध के वाद 5 कल्पों को ज्ञात कल्प माना है। महतकल्प से पूर्व का विश्व का इतिहास लुप्त प्राय है। ऐसा प्रतीत होता है कि महत कल्प से पूर्व जो कल्पांत प्रलय हुई वह सर्वाधिक विनाशकारी थी जिसमें पूर्व कल्पों के सारे विवरण अवशेष और ज्ञातव्य परम्परायें विनष्ट हो गई। यह भी तथ्य विचारणीय है कि हमारी मूल पृथ्वी वर्तमान धरातल से बहुत नीचे दब चुकी है। उस पर बहुत मोटी पर्ते चढ़ने के कारण वह अब बहुत स्थूल और वोझिल हो चुकी हैं। पृथ्वी की चुंवकीय (गुरूत्वाकर्थण) शक्ति के कारण आकाश से (धूलिपातसिर्द्धांत) के प्रभाव से हमारे ब्रह्माण्ड पर धूलि कणों की वर्षा निरन्तर होती रहती हैं। इसकी मोटी तह के नीचे प्राचीन पूल पृथ्वी विलुप्त हो चुकी है तथा भूगर्भ के चुंवकीय विद्युत केन्द्र के उद्दहन कक्ष में समाकर वह ज्वालामुखियों के लावा के रूप में प्रवाहित होती रहती है। अत: कल्पों के स्थूल अवशेथ मिलना असम्भव है। यह भी विचारणीय है कि उन कल्पों की सम्यता प्राय: शपात्र काष्ठ वनस्पति प्रयोगी थी जो कुछ काल में ही विनष्ट होगयी। कोयला और तेल उसी के कुछ अवशेष हैं।<br />
<br />
===परवर्ती ज्ञात कल्प===<br />
ज्ञात कल्पों का संकेत या विवरण हमें महामहर्षि वेद व्यास के पुराण साहित्य से इस प्रकार उपलब्ध होता है—<br />
<br />
====1- महत कल्प – 109,800 से 85,000 वि0पू0 तक==== <br />
इस कल्प का विशेष विवरण नहीं मिलता। "प्रथमोमहत: सर्ग: विज्ञेय महतस्तु सं" केवल इतना ही संकेत मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि इस कल्प में महत् तत्व वाले प्राणी और वृक्ष वनस्पति आदि थे। इस कल्प की प्रजाओं का मूल स्थान सूरसेन और मस्यदेश थे। हतकौली, हतकाँत, हतवास, हतौरा, हतीन , हातियौं, इसके साँकेतिक परम्परा स्थल तथा हट्ट, हाट हटिया, हटड़ा हटरी, हठी स्वभाव, हटकना, हातेवंदी संस्कृति परिचायक हैं। महद्ब्रह्म, महाविष्पु, महतत्व महारूद्र देवता तथा मेहता, महत्तों प्रजायें थीं।<br />
====2- हिरण्य गर्भ कल्प – 85,000 से 61,800 वि0पू0 तक ।====<br />
इस कल्प में पृथ्वी "हिरण्य" नामकी मिश्रित पीली धातु से आच्छातिद थी । पाँचाल देश का हिरन गौ क्षेत्र तथा क्रुरू क्षेत्र की रणभूमि, शूरसेन का रनवारी क्षेत्र इसके संकेत स्थल है। प्राचीन जांबूनद के तटों पर "जंबू सुवर्ण" विखरा हुआ था। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ , हिरण्यवर्णा लक्ष्मी, देवता थे, रैगड़ , रैना, रैनवाल, प्रजायें तथा हिरप्यानी रैडी (अरंडी) वृक्ष वनस्पति एवं हिरण ही सर्वोपयोगी पशु था। पीली मिट्टी की भूमि शूरसेन कुरूक्षेत्र, पांचाल, मत्स्य इसके धरावशेष हैं।<br />
====3- ब्राह्मकल्प – 61,800 से 37,800 वि0पू0 तक ।====<br />
ज्ञात कल्पों में महर्षि वेद व्यास ने इसे प्राथमिकता दी है। ब्रह्मपुराण , ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में इसके ऐतिहासिक विवरण संकलित किये है। ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर, रामपुर, रामगंगा केन्द्र स्थल के ब्राह्मी प्रजायें परब्रह्म देवता ब्रह्मवाद उपासना थी। <br />
इस कल्प के मध्य काल में गोलोक व्याप्त गोपालन संस्कृति का उदय हुआ। गोलोक खंड वर्तमान बुन्देलखंड है जो गोपाचल ग्वालपुर (ग्वालियर) से आरम्भ होकर (कत्यायनपुरी) कटनी, (बींणावादिनी प्रजाओं की पुरी) बीनां, (वायव्यपुर) जबलपुर, (गोलोक स्वामिनी त्रिपुर सुन्दरी की पुरी) त्रिपुरी तथा (गोलोक पति गोबिंद का वन) गोविन्दवनरींवां, नर्मदात्री नर्मदा का तट आदि से युक्त है। इस गोलोक बुन्देलखंड की प्रजायें गोपाल भक्ति में पूर्ण भावुक हैं तथा वे गोपालन का नैष्ठिक ब्रत्र लेकर वनों में गाय चराते तथा मोरपंख संचय करते हैं, जिन्हें वे कार्तिक मास में मथुरा में आकर श्री यमुना महारानी में विसर्जित करके दान पुण्य कर इस गोपालन ब्रत की पूर्णाहुति करते हैं, इस कल्प की ब्राह्मी प्रजायें (ब्रह्मदेश) वर्मा तथा (ब्रह्म पुत्रिका नदी) ब्रह्म पुत्रा तक फैली थीं।<br />
====4- पाद्मकल्प – 37,800 से 13800 वि0पू0 तक ।==== <br />
इस कल्प का विवरण महर्षि वेद व्यास ने पद्मपुराण में संकलित किया है। यह कल्प विश्व विस्तृत था। शोडष दल पद्म की कल्पना के रूप में 16 समुद्र के द्वीपों में इसकी स्थिति थी। पद्मावती पुरी के नाग वंशों के पूर्वज नाग जाति के लोग विश्व के सामुद्रिक यातायात के विज्ञाता थे। समुद्र मंथन अभियान में अनंत नाग वासुकी नाग ने प्रमुख योगदान दिया था। शेष नाग का साम्राज्य महा पाताल अमरीका तक था। कोल, कमठ, बानर (बंजारे) किरात, प्रजायें तथा कमल पत्र पुष्पों का बहु विध प्रयोग होता था। पद्मावती देवी आराधित थे। सिंहल द्वीप की नारियाँ पद्मिनी प्रजायें थीं।<br />
====5- बाराहकल्प- 13,800 वि0पू0 से अभी चालू है। ====<br />
बाराह अवतार और बाराह पुराण में व्यास देव ने इसकी विस्तृति और संस्कृति का विवरण दिया है। वाराह देव और उनकी बाराही प्रजाओं का देश भी ब्रह्मर्षि देश खास कर सूरसेन देश मथुरा ही है। ये माथुरों के परम पूजक थे। कुछ प्राचीन ग्रन्थों में इनके यज्ञ की अग्निशिखा से माथुर ब्राह्मणों की उत्पत्ति भी की गयी है। इस कल्प का अधिक विवरण हम आगे दे रहे हैं।<br />
<br />
===बाराह कल्प में 10 अवतार===<br />
{|class=brajtable border=1 cellpadding=5<br />
|1. बाराह अवतार (हिरण्याक्ष वध) <br />
|9380 वि0पू0 चैत्र शु0 6 ।<br />
|-<br />
|2. नृसिंह अवतार (हिरण्यकशिपु वध) <br />
|9355 वि0पू0 वैशाख शु0 14 ।<br />
|-<br />
|3. वामन अवतार (वलि वंधन) <br />
|9020 वि0पू0 जन्म भाद्रपद शु0 12।<br />
|-<br />
|4. कच्छप अवतार (समुद्र मंथन) <br />
|6540 वि0पू0 जन्म वैशाख कु0 1।<br />
|-<br />
|5. मत्स्य अवतार (बैदस्वत मनु काल) <br />
|6382 वि0पू0 जन्म वैशाख कृ01।<br />
|-<br />
|6. परशुराम अवतार (सहस्त्रवाहु वध) <br />
|5092 वि0पू0 , जन्म 5142 वि0पू0 वैशाख शु0 3।<br />
|-<br />
|7. श्री राम अवतार – जन्म <br />
|4055 वि0पू0 चैत्र शु0 9, रावण वध 4042 वि0पू0 आश्विन शु0 10।<br />
|-<br />
|8. श्री कृष्ण अवतार- जन्म <br />
|3114 वि0पू0 भाद्रपद कृ0 8, द्वारिका गमन 3082 वि0पू0 चैत्र शु0 10।<br />
|-<br />
|9. बुद्ध अवतार- जन्म <br />
|1760 वि0पू0 आश्विन शु0 10, निर्वाण 1680 वि0पू0।<br />
|-<br />
|10. कल्कि अवतार- <br />
|1338 वि0पू0 श्रावण शु0 9, स्वधाम 1296 वि0पू0।<br />
|}<br />
<br />
===12. देवासुर महा संग्राम===<br />
देवाडसुराणां संग्रामा दाचार्थ द्वादशाडभवन्- अग्नि पुराण अ0 276 <br />
{|class=brajtable border=1 cellpadding=5<br />
|1. वाराह हिरण्याक्ष <br />
|9 9,380 वि0पू0<br />
|-<br />
|2. नृसिंह हिरण्यकशिपु <br />
|9,355 "<br />
|-<br />
|3. वामन बलि<br />
|9,020 "<br />
|-<br />
|4. इन्द्र बलि (समुद्र मंथन)<br />
|6,378 "<br />
|-<br />
|5. स्कंध कार्तिकेय ताड़क (विरोचन वध) <br />
|9,176 "<br />
|-<br />
|6. हररूद्र अन्धक (बृकासुर वध) <br />
|9,247 "<br />
|-<br />
|7. शिव त्रिपुर <br />
|8,756 "<br />
|-<br />
|8. इन्द्र ब्रत्र (दस्युओं का ध्वंस) <br />
|8,684 "<br />
|-<br />
|9. वशिष्ठ विश्वामित्र (आडी बक युद्ध)<br />
|5,357 "<br />
|-<br />
|10. परशुराम कार्तवीर्य (हैहय विनाश)<br />
|5,132 "<br />
|-<br />
|11. राम रावण (हलाहली)<br />
|4,024 "<br />
|-<br />
|12. लक्ष्मी कोलासुर (स्वर्ण क्षेत्र विजय)<br />
|6,354 "<br />
|}<br />
<br />
इसके अतिरिक्त दानी पुरूषों की दान स्तुतियाँ (ऋग्वेद दशम मंडल में) , तपस्वी नरेन्दा्रें की सूची (महाभातर बन पर्व 3-11 में ), सत्वगुणी राजाओं चक्रवर्तियों , कुलपांसन नरेशों की सूचियां भी पुराणों में हैं। <br />
<br />
===14. मन्वन्तरों का काल===<br />
1. स्वायंभू मनु ब्रह्मा से 2 पीढी , मन्वंतर काल 238 वर्ष 9,000 से 8,762 वि0पू0।<br /><br />
2. स्वारोचिष ध्रुव पीढी 4: काल 32 वर्ष – 8762 से 8730 वि0पू0।<br /><br />
3. उत्तम ध्रुव का भाई पीढी 4: काल 70 वर्ष – 8730 से 8660 वि0पू0 ।<br /><br />
4. वामन मनु पीढी 6: काल 174 वर्ष – 8660 से 8486 वि0पू0।<br /><br />
5. रैवत मनु पीढी 13: काल 658 वर्ष – 8486 से 7828 वि0पू0।<br /><br />
6. बैवस्वत मनु पीढी 13 : काल 1449 वर्ष – 7828 से 6379 वि0पू0।<br /><br />
7. वैवस्वत मनु पीढी 33 : काल 649 वर्ष : 6379 से 5730 वि0पू0।<br /><br />
8. सावर्णि मनु पीढी 41 , काल 374 वर्ष : 5730 से 5356 वि0पू0।<br /><br />
<br />
'''उपेक्षित परवर्ती मन्वंतर- अल्प प्रभावी''' <br />
<br />
9. दक्ष सावर्णि पीढी 49 , काल 286 वर्ष : 5356 से 4070 वि0पू0 <br />
(अनुवंशी शिवि का भाई) <br /><br />
10. ब्रह्म सावर्णि पीढी 52 काल 256 वर्ष : 5070 से 4814 वि0पू0।<br />
(रंभवंशी ब्रह्मदेव)<br /><br />
11. धर्म सावर्णि पीढी 56, काल 272 वर्ष : 4814 से 4542 वि0पू0।<br />
(अनुवंशी धर्मरथ)<br /><br />
12. रूद्रसावर्णि पीढी 61 , काल 340 वर्ष : 4542 से 4202 वि0पू0।<br /><br />
13. देव सावर्णि पीढी 66, काल 1270 वर्ष : 4202 से 2932 वि0पू0।<br />
(मधु यादव का पिता देवराट)<br /><br />
14. इन्द्र सावर्णि पीढी 86, काल 1132 वर्ष : 2932 से 1800 वि0पू0।<br />
(अगस्त्य वंशी इहमवाह)<br /><br />
<br />
यह क्रम सिद्ध करता है कि महर्षि वेद व्यास के पश्चात् ऐसा कोई सार्वदेशिक अधिकारी शास्त्रकर्ता नहीं हुआ जो उस परम्परा को आगे तक चलाता। इसी कमी से व्यास पश्चात के इतिहास क्षेत्र में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो गयीं , जिनका समाधान अति आवश्यक था। उदाहरण रूप- हमारे धार्मिक संकल्प में "वैवस्वत मन्वंतरे" का कथन, कलियुग का प्रथम चरण अति लम्बा, बौद्ध धर्म के उन्मूलक कल्कि भगवान का स्मरण न किया जाना जिन्होंने पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध प्रभाव से पृथक कर अश्वमेध यज्ञों की पुन: परम्परा स्थापित की । भगवान कल्कि संवत् भी केरल में चालू है किन्तु आगे के विद्वानों ने उधर से पूर्ण उपेक्षा की दृष्टि ही रक्खी। शायद वे परवर्ती किसी रचनाकार को महर्षि वेद व्यास की समता में नहीं रखना चाहते थे। इस उपेक्षा ने धार्मिक साहित्य को सत्य से दूर इतिहासकारों के विचारों से असम्बद्ध तथा अन्धकार के अन्तराल में निक्षेप कर दिया। आश्चर्य है कि आज के मनीषी विद्वान आज भी इधर प्रयास न करके पुरानी भ्रान्ति मूलक विचार शून्य परम्परा को ही पकड़े हुए हैं।<br />
<br />
'''बाराह कल्प का काल विभाजन'''<br />
<blockquote><poem><br />
बाराह कल्प की मूल स्थापना – यह गणना पुराणों के मूल पाठ के अनुसार है जिसमें-<br />
चत्वार्याहु सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगन्।<br />
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथा विधम्।।<br />
इतरेषु स संध्येषु संध्यांशेषु ततस्त्रिषु।<br />
एक पादेन हृीयन्ते सहस्त्राणि शतानि च ।। 1 <br />
--- महा भा0 शान्ति 231</poem></blockquote> <br />
<br />
<br />
इसमें सतयुग 4000 वर्ष , त्रेता 3000 वर्ष, द्वापर 2000 वर्ष तथा कलि 1000 वर्ष का कहा है ता इनसे दुगुने सैकड़ों में 800, 600, 400, 200 वर्षों के इनके संध्यांश कहे गये हैं। इनके साथ कहीं-कहीं ’दिव्य’ शब्द का प्रयोग है जो चार प्रकार की संवत्सर पद्धतियों- सौर (दिव्य) , चांद्र (सौम्य), नाक्षत्र और अयन वर्ष में सौर गणना की मान्यता का निर्णायक है। इसे देवों का वर्ष बताकर इस वैज्ञानिक इतिहास स्वीकरणीय पद्धति को अवैज्ञानिक और अविश्वस्त बनाया गया है। इस आधार से यह कल्प विभाजन इस प्रकार है।<br />
बाराह कल्प दिवा भाग—<br />
<br />
{|class=brajtable border=1 cellpadding=5<br />
| सतयुग <br />
|4800 <br />
|13,800 से 9,000 वि0पू0 तक।<br />
|-<br />
| त्रेता<br />
|3600 <br />
|9,000 से 5,400 वि0पू0 तक।<br />
|-<br />
|द्वापर<br />
|2400 <br />
|5,400 से 3,000 वि0पू0 तक।<br />
|-<br />
|कलि<br />
|1200 <br />
|3,000 से 1,800 वि0पू0 तक।<br />
|}<br />
<br />
<br />
1800 वि0पू0 में दिवा कलियुग समाप्ति है तथा रात्रि भाग का आरम्भ है। यह ब्रह्म रात्रि विलोम क्रम से प्रवर्तित होती है क्योंकि रात्रि का धर्म अन्धकार दिवाधर्म प्रकाश के पूर्णत: विपरीत है। रात्रि धर्म के प्रवर्तन से इस काल में चोरी, सुरापान, डाके, अपहरण, व्यभिचार , हत्या, षडयंत्र, अनैतिकता, विलासिता आदि की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भौतिक आसुरी विज्ञान अनुक्रम से बृद्धि की ओर अग्रसर है आगे की स्थिति से यह स्पष्ट है---<br />
बाराह कल्प रात्रि भाग ---<br />
<br />
{|class=brajtable border=1 cellpadding=5<br />
| कलियुग<br />
|1200 <br />
|1800 से 600 वि0पू0।<br />
|-<br />
| द्वापर<br />
|2400 <br />
|9,000 से 5,400 वि0पू0 तक।<br />
|-<br />
| त्रेता<br />
|3600 <br />
|1800 विक्रमी से 5400 वि0 तक।<br />
|-<br />
|सतयुग<br />
|4800<br />
|5400 विक्रमी से 10200 विक्रमी तक ।<br />
|}<br />
<br />
इतिहास क्रम से भी यह बात पूर्णत: विश्वस्त सिद्ध होती है । शतायु मानव जीवन की यह यथार्थ स्थिति है।<br />
<br />
युगों का सांस्कृतिक पर्यवेक्षण<br />
बाराह कल्प के युगों की मानव जीवन विकास की ऐतिहासिक विस्तृति इस प्रकार है---<br />
<br />
'''1. दिवा सतयुग 13,800 वि0पू0 से 9,000 वि0पू0 काल ---'''<br />
<br />
भगवान नील बाराह का अवतार , यज्ञ वेद की आदि स्थापना , हेति प्रहेति, मधुकैटम आदि अज्ञान गर्वित प्रबल असुरों की उत्पत्ति, प्रभुनारायण केशव माधव, पद्मनाभ ब्रह्मा नारायणी नरप्रजा, अग्नि वायु इन्द्र तीन देवों की प्रथम उत्पत्ति , विराट महाविष्णु की उत्पत्ति , विश्व नियंत्रण असुरकर्मा तपोगुणी अपहर्ता प्रचायें, देवसर्ग पृथ्वी जल तेज वायु आकाश के कर्माधिष्ठात्रि देवता, अग्नकिर्मा प्रमथ देवों (माथुरों) की प्रतिष्ठा, ब्रह्मा के 10 पुत्र मरीचि (कश्यप) , अत्रि , अंगिरा, पुलस्त्य , पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद की उत्पत्ति, ब्रह्म वंशों ऋषि गोत्रों की स्थापना, कश्यप वंश का विश्व विस्तृत प्रसारण कश्यप सुरभी से एकादश रूद्र सर्ग (1 वैवस्वान, 2 अर्यमा, 3 पूषा, 4 त्वष्टा, 6 सविता, 7 मित्र , 8 वरूण, 9 अंशुमान, 10 भग, 11 अति तेजा) रूद्रों का सद्योजात रूप में अल्प कालिक विस्तार शतरूद्र, सहस्त्ररूद्र, कोटिरूद्र आदि, रूद्र प्रजासृष्टि भूत प्रेत पिशाच यक्ष राक्षस गंधर्व किन्नर, यातुधान, प्रेत, कूष्मांड भैरव बेताल आदि की उत्पत्ति , रूद्र कार्तिकेय और विनायक सेना में प्रमथों का प्रथम वर्चस्व। <br />
हिरण्यकशिपु हिरण्याक्ष, वाराह नृसिंह प्रहलाद वंश, वामन अवतार नाग कूर्म कमठ कोल आदि जातियोंका उद्भव, बलि का दक्षिण देश पर विशाल साम्राज्य , दैत्य दानवों का वेद विरूद्ध हिंसा प्रधान विषयासक्त समाज विस्तार, माथुर ऋषि दक्ष, अंगिरा, वशिष्ठ, अत्रि, चन्द्रमा, भृगु, बृहस्पति , भारद्वाज आदि की इन्द्रादि देवों द्वारा रक्षा और दान सम्मान अर्चना।<br />
<br />
'''2. दिवा त्रेता 9,000 से 5,400 वि0पू0 काल ।'''<br />
<br />
स्वायंभूमनु वंश, उत्तानपाद ध्रुव का साम्राज्य ब्रह्मर्षि देश । प्रधान देव क्षेत्र द्युलोक सूरसेन जनपद, माथुरों का सन्मान और स्वांयंभूमनु द्वारा इस प्रदेश के माथुर ब्राह्मणों द्वारा विश्व को सदाचार शिक्षा के गुरू मानने की घोषणा। प्रियव्रत का विश्व महाद्वीप विभाजन, सप्त समुद्रों और सप्त द्वीपों की साम्राज्य इकाइयाँ निर्धारित कर अपने पुत्रों को बाँटना । अग्नीधु को जभ्बू द्वीप हिम वर्ष नाभि वर्ष या अगनाभ वर्ष का सम्राट पद। अग्नीध्र का माथुरों के शिष्यत्व में माथुर क्षेत्र में अग्निध्र आश्रम अड़ींग बन में तप कर जीवन्मुक्त पद प्राप्त करना। वैवस्वत मनु का विश्व प्रजा पालन, देव संस्कृति का महान विस्तार, युवनाश्व वंशी त्रसदस्यु मांधाता का विश्व दस्यु दलन, मथुर में बाराह तीर्थ और विग्रह की स्थापना ता माथुर कुलपुत्र बनकर कुत्स गोत्र का प्रवर पद ग्रहण करना, यह महायुग दिष्ट वंशी मरूत चक्रवर्ती, निमिवंशी प्रतीपक तक चला तथा चन्द्रवंशी संयाति पर इसका अन्त हो गया।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_7&diff=56213चतुर्वेदी इतिहास 72010-04-22T14:58:05Z<p>जन्मेजय: /* बाराह कल्प में 10 अवतार */</p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==चतुर्वेदी : चौबेजी नाम प्रसिद्धि==<br />
<blockquote>इस उद्धरव से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि 1370 वि0 के पूर्व काल प्राकृत भाषा विस्तार युग से ही माथुर ब्राह्मण चतुर्वेदी के अपभ्रंश रूप में साधारण जनता में " चड विज्ज" या "चौबेजी" कहे जाने लगे थे। चौबे शब्द का प्राचीन ऐतिहासिक यह प्रमाण सिद्ध करता है कि चतुर्वेदियों का चौवेजी संशोधन बहुत प्राचीन और एतिहासिक है। तथा यह प्रधान रूप से मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के समस्त सामूहिक वर्ग को संवोधन करने के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। खासकर उस काल में जब दूसरे ब्राह्मण दुवे तिवाड़ी , भट्ट मिस्सर, पानी पांड़े आदि ख्यातियों से युक्त थे तथा द्विवेदी तिवाड़ी उनकी एक एक शाखा मात्र थी। <br />
</blockquote><br />
==यक्षों का प्रभाव काल==<br />
<br />
इस समय मथुरा में यक्ष पूजा जोरों पर थी। जिनप्रभु सूरि के अनुसार इस समय मथुरा नगर में भूतयक्ष, हुंडिय यक्ष , चोर जीव के देवालय थे। हुंढिय यक्ष की पूजा भांडीरवन में भी की जाती थी। यह हुंडिय यक्ष बड़ा प्रभावशाली और धनेश्वर था। इसके नाम पर ही लेन देन के काम में जिस अभिलेख का प्रयोग होता था उसका नाम "हुंडी" रक्खा गया। तथा उनका स्वर्ण सिक्का "हुन्न" था हुण इसी की शाखा के थे जो हुन्नान चीन में बसे थे।<br />
<br />
इसी समय महावन में भी एक महायक्ष की पूजा होती थी। शजो यक्षेश्वर या जखैया के नाम से विख्यात हुआ। इस महाचक्ष की विशाल काय प्रतिमा मथुरा पुरातत्व संग्रहालय में देखी जा सकती । <br />
<br />
मथुरा में यक्ष परम्परा अति प्राचीन है। यक्ष राक्षसो की उत्पत्ति कश्यप सृष्टिकाल से है। भक्त ध्रुव के भाई उत्तम को यक्षों ने मार दिया था। कृष्ण के समय यमलार्जुन (नलकूवर मणिग्रीव) मक्ष थे। ब्रज में भंडीर यक्ष का स्थान भांडीर वन, सुभद्रयक्ष का भद्रवन थे। कुवेर के अनुचरों में भंडीर यक्ष धन (ऋण) के वितरण कर्ता तथा हुंडीय यक्ष (हूंड़) क्रूरता से धन के वसूल करने वाले थे। महाराज युधिष्ठर के गुप्त वास के समय उनका यक्षेब्द्रपुरी (जिखिनगांव) के यक्षेन्द्रराज से तत्व ज्ञान युक्त धर्म संवाद हुआ था जो महाभारत में यक्ष प्रश्न के नाम से संस्थापित है। यह यक्ष महाशक्तिशाली ब्रह्म रूप कहा जाने वाला ब्रह्म ज्ञानी था। यक्षों यक्षिणिनियों की लोक पूजा भी होती थी। महावन की यक्षराज जखैया देवता के नाम से अभी भी पुत्रों की प्राण रक्षा के लिये पूजा जाता है तथा उसकी विशाल मूर्ति परखम यक्ष के नाम से पुरातत्व संग्रहालय में हैं। ब्रज में इस काल में यक्ष जाति की विशाल जन संख्या थी जो बौद्ध होने के बाद जिखिन गाँव के खिनवार जाट, यक्ष पुरी छहिरी के छांहर या चाहर नाम पाकर इस जाति में विलय हो गये। कुवेर वैश्रवण की पुरी सरवणपुरा के वैश्रवण पूज्य सरवन माथुरों से यक्षों का पौरोहित्य सम्पर्क था। माथुर अपने यज्ञ यक्षों की रक्षा में ही करते थे। कृष्णकाल का माथुर आंगिरसों का आगिरस सत्र भंडीर यक्ष के भांडीर बन में हुआ था। मथुरा नगर के नगर रक्षक भी यक्ष और यक्षिणियां ही थे।<br />
<br />
==कलियुग का पदापर्ण और समाप्ति ==<br />
3000 वि0पू0 में बाराह कल्प के दिवस भाग का कलियुग आरम्भ हुआ। इसके आरम्भ में महाभारतयुद्ध यादव संहार श्री कृष्ण अवतार और मगध प्रदेश में बृहद्रथ (जरासंध) वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ। इस कलियुग का व्याप्तिकाल (1200 वर्ष) 1800 वि0पू0 तक हरहा। इस कालावधि में रिपुजंय (2037-2011 वि0पू0) तक मगध का बृहद्रथ जरासंघ वंश तथा फिर प्रद्योतवंशी शुनक (2018-1983 वि0पू0) से नंदिवर्धन (1899-1873 वि0पू0) तक भारत के सम्राट पदों पर रहे। मथुरा मगध राज्य में प्रमुखता तो नहीं प्राप्त कर सकीं परन्तु मागधों से घनिष्टता स्थापित कर "माथुरो मागधश्चैव" के समन्वय के साथ राजनैतिक दुष्चक्रों से दूर अपने धार्मिक स्वरूप और प्रतिष्ठा को बनाये रही। मगध के प्रमुख तीर्थ गया से भी ऊपर ध्रुव तीर्थ "आदिगया ध्रुवक्षेत्र" का मान स्थापित हुआ तथा कामबन आदि ब्रन्दावन में काशी प्रयाग और गया तीर्थ गदाधर भगवान की श्रेष्ठ मान्यता रही। ब्रज के फालैन (फल्गुनी यज्ञ) तीर्थ की भी प्रहलाद कालीन तीर्थ परम्परा गया में फल्गुनदी के रूप में प्रतिष्ठित हुई माथुरा ब्राह्मणों की महती प्रतिष्ठा और पद श्रेष्ठता को देखते हुए देसरे ब्राह्मणवर्ग अपनी स्थिति को सम्हालने के लिये अनेकानेक याक्य गढने लगे और उन्हें पुराण पाठों में यत्र तत्र प्रबिष्ट कर माथुरों के प्रति शंकास्पद वातावरण बनाने में प्रयत्नशील होने लगे। इन कल्पित अनर्गल और तथ्य शूल्य वचनों से प्रभावित होकर हमारे समूह के भी कुछ लोग गौंड़ों या कान्यकुन्जों की किसी शाखा प्रशाखा के रूप में अपने को समझने की भ्रान्ति प्रचारित करने लगे। मनगंढत भृगुराम संहिता के किसी लेखक ने लिखा-<br />
<br />
<poem>सर्वें द्विजा कान्य कुब्जा माथुरं मागधं विना।<br />
पृथग्भावेन तिष्ठन्ति विप्रत्वं श्रेय कांक्षिण:।।<br />
बाराहस्य तु यज्ञेन माथुरी जायते पुरा।<br />
मागधो ब्राह्मण: पूर्व कथितों द्विज एव च ।। 1<br />
</poem><br />
यह प्राचीनतम माथुरा से अन्य नवस्थपित ब्राह्मण वगों के दूर हठने के समय की स्थिति बतलाते है- वे कहते हैं माथुर और मागधों को छोड़कर सभी कान्य कुब्ज ब्राह्मण (अपने समकालीन अन्य ब्राह्मणों सहित) सद्यपि इन दोनों प्राचीन वर्गों से पृथक भाव में स्थित होते जा रहे हैं किन्तु मूलत: वे इन दोनों विप्रकुलों के समाश्रित ही हैं क्योंकि माथुर श्रेष्ठ विप्र आदि अवतारी देव आदि बाराह प्रभु के यज्ञ की हुताग्नि से दिव्य देह धारण कर प्रगट हुए हैं। वे सतयुग की देव सृष्टि के समय के सर्वमान्य ऋषि महर्षि हैं, तथा मागधों को ब्रह्मदेव ने गजासुर वध काल में द्वापर के प्राचीन समय में द्विज मान्य कहा है। अत: इनसे दूर हटने पर भी अन्य सभी ब्राह्मण इनका आश्रय ग्रहण करके ही अपने को लोक प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। ब्राह्मण मार्तण्ड कर्ता ने लिखा-<br />
<br />
<poem>उदीच्याऋषय: सर्वे न म्होड़ा न च नागरा: ।<br />
कान्यकुब्जा द्विजा सर्वे, माथुरं मागधं बिना।।</poem><br />
<br />
सभी ऋषिगण उदीची दिशाबासी होने से उदीज्य (औदीज्य) हैं; वे न तो (मौटैराके) मोढ हैं न (नागरखंड के ) नागर, इसी प्रकार कान्यकुब्ज देशाधिपति सम्राट हर्ष के उदार राष्ट्र कान्यकु ब्ज देश के आश्रित होने से (माथुरों और मागधों को छोड़कर) अन्य सभी ब्राह्मण कान्यकुब्ज वर्गीय ही हैं। इससे स्पष्ट है कि जब अन्य पंचपात्र विप्र 1- सारस्वत, 2- कान्यकुब्ज, 3- गौड़, उत्कली, 5- मैथिली कान्यकुब्जों के (पंच गौड़ यूनियम) में सम्मिलित हो गये, तब माथुर और उनके साथीं मागध ही ऐसे स्वाभिमानी और स्वक्षेत्र गौरवधारी उच्च पदस्थ ब्राह्मण थे। जिन्होंने कान्यकुब्जों के दस समदस्यीय नब गठित मंडल का सदस्य बनकर उनका अनुगत होना ठुकरा दिया, और अपनी उच्च आचार विचार कुल की प्रतिष्ठा के अनुरूप अपना सर्वोपरि स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रक्खा। इस प्रकार अनेक परवर्ती ब्राह्मण समूहों ने जी तोड़ प्रयास करके माथुर ब्राह्मणों को अपने अंतर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर ब्राह्मणों को अपने अतंर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर किसी से झुके नहीं और खान पान आचार में सबसे उत्कृष्ट रहकर अपनी पृथकता की पहिचार निराली बना कर रक्खी कान्यकुब्ज चौबे बने, गोड़ मथुरिया (घटवारे) बने परन्तु माथुर कनौजिये या गौड़ नहीं बन पायें। चौबें शब्द की उपाधि धारण के वादरयाणन्याथ से अन्य कोई समूह माथुरों में प्रविष्ठ न हो सका। इस प्रकार माथुरी के साथ ब्रह्म दिवस का कलियुग अपनी दिवा ज्योति के साथ अवसान को प्राप्त हुआ और तभी 1800 वि0पू0 से ब्रह्मरात्रि का निशांधकारमय अधर्म स्वेच्छाचार और रत्रिधर्म विस्तारक तमोमय काल असुरों तमीचरों को प्रिय पुष्टि प्रदाता बनकर सामने आया।<br />
<br />
==भारतीय प्राचीन इतिहास का प्रवेश द्वार==<br />
हमारे अनेक पाश्चात्य शिक्षा के निष्णात वंधु यह सब पढकर त्रस्त परेशान क्रोधित और क्षुब्ध हो उठेगें कि यह सब हम क्या पढ़ रहे हैं। पाश्चात्य शिक्षा में लिपटे आज के इतिहास ने हमें ऐसा कस कर जकड़ा है कि हमें अपने ही शास्त्रों पुराणों ग्रन्थों पर विश्वास नहीं होता । आर्य बाहर से आये, वे मध्य एशिया में अपजे थे। वे अनार्यों को खा गये, भारत के पास अपना कोई प्राचीन इतिहास है ही नहीं, पुराण मिथों (मिथ्याओं) और अस्त व्यस्त कहानियों के पिटारे हैं, राम-कृष्ण , वामन, परशुराम, सगर, दिलीप , सूर्यवंश, चन्द्रवंश कल्पना हैं, जो भक्तों का पोषण पाकर विकवित होते गये हैं।<br />
<br />
भारत का सच्चा इतिहास पाषण के ढेलों में, फूटे ठीकरों में टूटी मूर्तियों में या पत्थर खंडों पर लिखे लेखों में है। जबकि पुराणों में वर्णित इतिहास युगों के क्रम से वंशावलियों में, राज्य और साम्राज्य संस्थानों में दिग्विजयों में, राजसूय और अश्वमेघ यज्ञों में, देवासुर संग्रामों दान, यज्ञ तप लोक संरक्षण और प्रजासंवर्धन प्रयासों से भरा पड़ा है। कुछ महत्वपूर्ण निजी विद्याओं को गोपनीय रखने के लिए पुराणों में कूटग्राम, कूटमान, समाधिभाषा रूपकों और लक्षण व्यंजना आदि कथन विशेष की शैलियां थी उन्हें न जान पाने के कारण भी पुराणों पर वाण वर्षा की जा रही है। इसमें पाश्चात्यों द्वारा भारत के गौरव को विनष्ट करने के हेतु से किये गये राजनेतिक कूट प्रहारिक प्रयास भी योग दे रहे हैं जिनके कारण स्वाधीन भारत के इतिहास में भी भारत के कीर्ति रत्न श्रीराम, श्रीकृष्ण , विक्रमादित्य, वेदव्यास, बाल्मीकि , आदि को वर्तमान इतिहास से अलक्षित रक्खा जा रहा है।<br />
<br />अस्तु इस राष्ट्र घातक से त्राण पाने के लिये हमें अपने शास्त्रों पुराणों की भ्रान्ति मुक्त सत्यमयी छवि की शरण में जाना होगा। मेरे किशोर मानस में 15 वर्ष आयु से ही इस दिशा में गहन चिन्तन की आतुरता जाग उठी थी। और 60 वर्षों तक निरन्तर चिन्तन मनन अध्यवसाय और अनुसंधान मय शोध प्रयासों के फलस्वरूप "भारतीय मूल इतिहास" की जो यथार्थ तथ्यमयी दिशादर्शन की दृष्टि प्राप्त हुई उसके आधार पर यह विश्वास और दृढ़ता पूर्वक कहा जा सकता है कि "भारत का अति प्राचीन पौराणिक इतिहास" सारे विश्व के इतिहास से प्राचीनतम युक्तियुक्त विश्वस्त और वैज्ञानिक है। उसमें जैसा कि कहा जाता है, वैसी कोई भी असंवद्धता असंभवता, निराधार प्रस्तुति या अवैज्ञानिक स्थापना नहीं है। जब तक अन्धकार है तभी तक निशा प्रेरक जीव जंतुओं के कर्कश क्रूर प्रहारात्मक अशुभ स्वर सुनाई पड़ रहे है।<br />
<br />
इतिहास के इस अंधकार को विदीर्ण कर प्रभात के सूर्योदय का दर्शन कराना ब्राह्मण जाति का अनिवार्य कर्तव्य है। हम माथुर सर्वज्ञान के प्रतिष्ठाता है। हमारा ही यह सर्वप्रथम दायित्व होना चाहिये कि हम इस दिशा में भ्रान्तियों के परिमार्जन का शंखनाद करै और भटके भूले मोह ग्रस्त राष्ट्र को यह दिखाये कि हमारा शास्त्र भंडार मानव को दृष्टि दर्शन देने वाले समर्थ इतिहास से परिपूर्ण है। अपने उत्साही पाठकीं की ज्ञान चेतना को जाग्रत करने और भारतीय प्राचीन इतिहास के वर्षो से अवरूद्ध प्रवेश मार्ग को अनाबृत करने के लिये कुछ मूल तथ्य यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूं। इसे समझ लेने पर विज्ञजनों को इस इतिहास में स्थापित कालाब्धियों और संभवताओं को जान लेने में बहुत कुछ सहायता मिलेगी।<br />
==प्राचीन भारतीय काल निर्धारण पद्धति== <br />
पुराणों ज्योतिष ग्रन्थों और ऋषि वाक्यों के अनुसार हमारे इस भू मंडल की सृष्टि का काल विभाजन विराट पुरूष परब्रह्म (जिसे सृष्टकिर्ता ब्रह्मा भी घोषित किया गया है), उस महाविभूति पुरूष के 100 वर्ष के जीवन काल का विस्तार है। यह 100 वर्ष का ब्रह्मा का जीवन काल ही हमारे इस विश्वब्रह्माण्ड के अस्तित्व का काल है जिसमें हमारी यह पृथ्वी उत्पन्न हुई और विकसित हुई है। इसके उत्पन्न होने और अब तक विकसित होने तथा यह कब तक जीवित रहेगी (आत्यतिक प्रलय) यह किसी भी धर्म या विज्ञान में निर्धारित नहीं हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास पद्धति के विषय में अनेक विभिन्न मत हैं किन्तु वे अधिकतर आधारशून्य कल्पनाओं पर आधारित तथा अतिअविश्वल्त है। हमारे यहाँ के पंडितों ने भी धार्मिक महात्मा वृद्धि की दौड़ में हमारी पुराणों में वर्णित युग कल्प गणना को शास्त्रों के मूल कथनों का अति दीर्ध अर्थ लगाकर उन्हें सत्य से दूर खड़ा कर दिया। इधर पाश्चात्य आधुनिकता वादियों ने अपने धार्मिक दुराग्रह के कारण इस अवधि को ईसा के आसपास अति समीप लाने की चेष्टा की है। इस खीचतान में इन दोनों समयान्तरों में एक बहुत बड़ा अंतराल बन गया है। आधुनिक तथा कथित विज्ञान भी अभी कोई बात स्थिर रूप से सुनिश्चित करने में समर्थ नहीं है- वह विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न स्थानों पर मिलने के परिक्षणों से उनके विभिन्न निष्कर्ष प्रगट करता ही रहता है। उसका यह भी निश्चय नहीं कि आज जो कहा जा रहा है कल कोई दूसरा सूत्र हाथ आ जाने पर वह कब अविश्वस्त मान लिया जायगा। हमारे शास्त्रीय निर्धारणों का अर्थ विस्तार करने वालों ने अपने मत को सर्व पुरातन प्रगट करने का गौरव तो स्थापित किया किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि हमारी यह अति विस्तारवादी नीति भविष्य में हमार ेही हपुरातन सत्य इतिहास को संसार के समाने अनर्गल और अविश्वस्त बना देगी और लोग तर्कों के कुठार से छिन्न भिन्न कर इतिहास के महत्वपूर्ण क्षेत्र से इसे वहिष्कृत कर देंगे।<br />
<br />
हमारे अपने 60 वर्षो के चिन्तन मनन और अनुसंधान के आधार पर अपने शास्त्रीय इतिहास की प्रमुख विज्ञान सम्मत काल पद्धति का पता लगाया है, जिसे हम यहाँ दे रहे हैं। यह याद रखने की बात है कि हमारे वेद व्यास के परवर्ती महानुभावों ने पौराणिक गणना के एक दिन का देवताओं का दिन अर्थात 360 दिन या एक मानव वर्ष का समय मानकर पुराणों के मूल वर्षों को 360 से गुणा कर 1200 वर्ष कौ 4,32,00 वर्ष कर लिया इसी , भेद से वेदों में वर्णित 100 वर्ष आयु को 36,000 वर्ष तथा इससे भी अधिक बढ़ा लिया। शोधित गणित से वेदों और पुराणों का भेद दूर हो जाता है। "ब्राह्मणान् वेद गुप्तये" के अनुसार ऋषियों ने शास्त्रों में अपसे समय की लेखन पद्धति के अनुसार कुछ और भी वर्णन पद्धतियाँ कूटमान समाधिभाषा लाक्षणिक संकेत आदिकों का प्रयोग किया हे जिसे न समझ पाने के कारण हम शास्त्रों को असंवद्ध कहने का डंका पीट डालते हैं। वे अपने अज्ञान के मद में यह नहीं सोचते कि - "कोत्र दोषोसहस्त्राँशो यदुलुकं न पश्यति" यदि पक्षी विशेष को दिन में सूर्य के कारण दिखालई नहीं पड़ता तो इसमें सूर्य का क्या दोष हैं यह तो उस पक्षी की दृष्टि की ही त्रृटि हैं जिसे दूर कर सकने पर उसे सम्भबत: सारा यथार्थ संसार दीख सकता है।<br />
<br />
यहां हम उस परिशोधित पद्धति को विद्वज्जनों की जानकारों के लिये उपस्थित कर रहें है। यह पद्धति "माथुरी पद्धति" है और इसे पूर्व प्राचीन काल मेकं हमारे ही पूर्वजों भगवान विवस्वान सुर्य (सूर्य सिद्धांत महर्षि, वशिष्ठ (वशिष्ठ सिद्धांत) पवराशर (पराशर सिद्धाँत) आदि ने ही स्थापित किया है।<br />
<br />
<blockquote><poem>अनुसंधान युक्त प्राचीन भारतीय इतिहास पद्धति <br />
युग= द्वादशवर्ष । युग शतब्दि – 1200 वर्ष। युग सहस्त्राव्द = 12000 वर्ष।<br />
अहोरात्र युग सहस्त्राव्द = 24000 वर्ष (एक कल्प या ब्राह्म दिवस) <br />
कलियुग (एकल युग शताव्द) = 1,200 वर्ष।<br />
द्वापरयुग (द्विगुण युग शताब्द) 2400 वर्ष।<br />
त्रेता (त्रिगुण युग शताब्द) 3600 वर्ष ।<br />
कृतुयुग (चतुर्गुण युग शताब्द ) 48000 वर्ष ।<br />
दशगुण युग शहस्त्राब्द या कल्प दिवस = 12000 वर्ष ।<br />
पुन: दश गुण युग शताब्द या कल्प रात्रि = 12000 वर्ष ।<br />
पूर्ण एक कल्प का मान (अहोरात्रयुक्त)<br />
ब्रह्मा का एक दिवस = 24000 वर्ष ।<br />
ब्राह्म मास (30 दिवस) = 7,20,000 वर्ष ।<br />
ब्राह्म वर्ष (12 मास) = 86,40,000 वर्ष ।<br />
ब्रह्म या ब्रह्माण्ड शतायु काल = 86,40,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु 12।। वर्ष एक ब्रह्माण्ड अवस्था = 10,80,00.000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु पूर्वार्ध काल 4 अवस्था (50वर्ष) = 43,20,00,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु परार्ध काल (51 से 60 वर्ष=4 अवस्थायें) 43,20,00,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म पूर्वार्ध आयु के पश्चात व्यतीत काल (पाँचवे बाराह कल्प के 2042 विक्रम संवत तक)= 15,886 वर्ष।<br />
2042 विक्रम संवत तक ब्रह्म आयु व्यतीत काल = 4,32,015,886 वर्ष।<br />
ब्रह्म सृष्टि आरंभ से पूर्व ब्रह्माण्ड गर्भ स्थिति काल (10 मास) 72,00,000 वर्ष।<br />
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आयु काल = 87,12,00,000 वर्ष।<br />
2042 वि0 वाद विश्व ब्रह्माण्ड का भविष्य (शेष भोग्य) जीवन काल = 43,91,84,114 वर्ष।<br />
इस काल की समाप्ति पर इस ब्रह्माण्ड की आत्यतिंक (महाप्रणय) होनी है। इसके मध्य में भी कल्पों के अन्त में या युग स्त्रहस्त्राब्दों की संधि में खंडप्रलय या अंशप्रलय होती रहती है।</poem></blockquote><br />
<br />
===ब्रह्माण्ड सृष्टि का क्रम विकास और क्षय===<br />
<br />
<blockquote><poem>इस पद्धति से विश्व ब्रह्माण्ड का क्रम विकास इस प्रकार हुआ है-<br />
ब्रह्म जन्म, सृष्टि उत्पत्ति, जीव उद्भव काल – 4,32,15,886 वर्ष पूर्व।<br />
1- शैशव काल - (12 ।। वर्ष) 43,20,15,886 से 2,40,15,886 वर्ष पूर्व तक, अम्दिज , अंडज , जरायुज सरीसृप (रेंगने वाले) केवल मुख और वायु युक्त जीव।<br />
2- कुमार काल- 3,20,15,886 से 21,60,15,886 वर्ष पूर्व तक पत्र ऋण कीटभक्षी हस्त पाद नेत्र श्रवणेन्द्रियों युक्त जीवों की उत्पत्ति।<br />
3- किशोर अवस्था (तृतीय सर्ग) 216013,886 से 1080,15886 वर्ष पूर्व तक भ्रमणशील, आखेटक, वन्य सम्पदा भक्षी , गुहावासी, जिज्ञासु अल्पबुद्धि <br />
4- युवा अवस्था (चतुर्थ संर्ग्र) 1380,15,886 से (2042 विक्रम काल) कृषि, गोपालन, प्रशासन, समाज संगठन की प्रया 14,886 वर्ष पूर्व तक <br />
5- प्रौढ़ अवस्था (पंचम सर्ग) 17,886 (2042 वि0) से 10,80,15,886 वर्ष पूर्व तक अतिविलासी, क्रूर, चारत्रहीन, लौलुप,यंत्राधीन प्राणी<br />
6- वृद्ध आयु (षष्ठ सर्ग) 100,0,15,006 से 21,60,15,006 वर्ष आगे तक साधनभ्रष्ट , त्रस्त , नीरास, निरूजमी, दुखी जीव।<br />
7- जीर्ण अवस्था (सप्तम सर्ग) 21,60,15,006 से 32,40,15,600 वर्ष आगे तक अन्न जल वायु ताप सबका अभाव क्षीण विश्व।<br />
8- उपराम अवस्था (अष्टम सर्ग) 32,40,15,006 से 43,20,15,600 वर्ष आगे तक ऋतु अनियमित , सूर्य , चन्द्र, मेघ विलुप्त भूमि ज्वालामयी अकाल प्रकृति कोप के वाद ब्रह्माण्ड की आत्यंतिक प्रलय।</poem></blockquote><br />
<br />
===कल्प स्थिति=== <br />
<br />
इस लम्बी काल गणना में हमारा वर्तमान बाराह कल्प ब्रह्मदेव के चतुर्थसर्ग युवाकाल में आता है। ब्रह्मदेव के वर्ष में 0 कल्प या ब्राह्मदिवस होते हैं, तथा चतुर्थ सर्ग पूर्वार्ध आयु काल तक 18000 कल्प व्यतीत हो जाते हैं। इतनें कल्पों का लेखा जोखा समग्र उपलब्ध नहीं है। महर्षि वेवव्यास ने अपनी महती शोध के वाद 5 कल्पों को ज्ञात कल्प माना है। महतकल्प से पूर्व का विश्व का इतिहास लुप्त प्राय है। ऐसा प्रतीत होता है कि महत कल्प से पूर्व जो कल्पांत प्रलय हुई वह सर्वाधिक विनाशकारी थी जिसमें पूर्व कल्पों के सारे विवरण अवशेष और ज्ञातव्य परम्परायें विनष्ट हो गई। यह भी तथ्य विचारणीय है कि हमारी मूल पृथ्वी वर्तमान धरातल से बहुत नीचे दब चुकी है। उस पर बहुत मोटी पर्ते चढ़ने के कारण वह अब बहुत स्थूल और वोझिल हो चुकी हैं। पृथ्वी की चुंवकीय (गुरूत्वाकर्थण) शक्ति के कारण आकाश से (धूलिपातसिर्द्धांत) के प्रभाव से हमारे ब्रह्माण्ड पर धूलि कणों की वर्षा निरन्तर होती रहती हैं। इसकी मोटी तह के नीचे प्राचीन पूल पृथ्वी विलुप्त हो चुकी है तथा भूगर्भ के चुंवकीय विद्युत केन्द्र के उद्दहन कक्ष में समाकर वह ज्वालामुखियों के लावा के रूप में प्रवाहित होती रहती है। अत: कल्पों के स्थूल अवशेथ मिलना असम्भव है। यह भी विचारणीय है कि उन कल्पों की सम्यता प्राय: शपात्र काष्ठ वनस्पति प्रयोगी थी जो कुछ काल में ही विनष्ट होगयी। कोयला और तेल उसी के कुछ अवशेष हैं।<br />
<br />
===परवर्ती ज्ञात कल्प===<br />
ज्ञात कल्पों का संकेत या विवरण हमें महामहर्षि वेद व्यास के पुराण साहित्य से इस प्रकार उपलब्ध होता है—<br />
<br />
====1- महत कल्प – 109,800 से 85,000 वि0पू0 तक==== <br />
इस कल्प का विशेष विवरण नहीं मिलता। "प्रथमोमहत: सर्ग: विज्ञेय महतस्तु सं" केवल इतना ही संकेत मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि इस कल्प में महत् तत्व वाले प्राणी और वृक्ष वनस्पति आदि थे। इस कल्प की प्रजाओं का मूल स्थान सूरसेन और मस्यदेश थे। हतकौली, हतकाँत, हतवास, हतौरा, हतीन , हातियौं, इसके साँकेतिक परम्परा स्थल तथा हट्ट, हाट हटिया, हटड़ा हटरी, हठी स्वभाव, हटकना, हातेवंदी संस्कृति परिचायक हैं। महद्ब्रह्म, महाविष्पु, महतत्व महारूद्र देवता तथा मेहता, महत्तों प्रजायें थीं।<br />
====2- हिरण्य गर्भ कल्प – 85,000 से 61,800 वि0पू0 तक ।====<br />
इस कल्प में पृथ्वी "हिरण्य" नामकी मिश्रित पीली धातु से आच्छातिद थी । पाँचाल देश का हिरन गौ क्षेत्र तथा क्रुरू क्षेत्र की रणभूमि, शूरसेन का रनवारी क्षेत्र इसके संकेत स्थल है। प्राचीन जांबूनद के तटों पर "जंबू सुवर्ण" विखरा हुआ था। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ , हिरण्यवर्णा लक्ष्मी, देवता थे, रैगड़ , रैना, रैनवाल, प्रजायें तथा हिरप्यानी रैडी (अरंडी) वृक्ष वनस्पति एवं हिरण ही सर्वोपयोगी पशु था। पीली मिट्टी की भूमि शूरसेन कुरूक्षेत्र, पांचाल, मत्स्य इसके धरावशेष हैं।<br />
====3- ब्राह्मकल्प – 61,800 से 37,800 वि0पू0 तक ।====<br />
ज्ञात कल्पों में महर्षि वेद व्यास ने इसे प्राथमिकता दी है। ब्रह्मपुराण , ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में इसके ऐतिहासिक विवरण संकलित किये है। ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर, रामपुर, रामगंगा केन्द्र स्थल के ब्राह्मी प्रजायें परब्रह्म देवता ब्रह्मवाद उपासना थी। <br />
इस कल्प के मध्य काल में गोलोक व्याप्त गोपालन संस्कृति का उदय हुआ। गोलोक खंड वर्तमान बुन्देलखंड है जो गोपाचल ग्वालपुर (ग्वालियर) से आरम्भ होकर (कत्यायनपुरी) कटनी, (बींणावादिनी प्रजाओं की पुरी) बीनां, (वायव्यपुर) जबलपुर, (गोलोक स्वामिनी त्रिपुर सुन्दरी की पुरी) त्रिपुरी तथा (गोलोक पति गोबिंद का वन) गोविन्दवनरींवां, नर्मदात्री नर्मदा का तट आदि से युक्त है। इस गोलोक बुन्देलखंड की प्रजायें गोपाल भक्ति में पूर्ण भावुक हैं तथा वे गोपालन का नैष्ठिक ब्रत्र लेकर वनों में गाय चराते तथा मोरपंख संचय करते हैं, जिन्हें वे कार्तिक मास में मथुरा में आकर श्री यमुना महारानी में विसर्जित करके दान पुण्य कर इस गोपालन ब्रत की पूर्णाहुति करते हैं, इस कल्प की ब्राह्मी प्रजायें (ब्रह्मदेश) वर्मा तथा (ब्रह्म पुत्रिका नदी) ब्रह्म पुत्रा तक फैली थीं।<br />
====4- पाद्मकल्प – 37,800 से 13800 वि0पू0 तक ।==== <br />
इस कल्प का विवरण महर्षि वेद व्यास ने पद्मपुराण में संकलित किया है। यह कल्प विश्व विस्तृत था। शोडष दल पद्म की कल्पना के रूप में 16 समुद्र के द्वीपों में इसकी स्थिति थी। पद्मावती पुरी के नाग वंशों के पूर्वज नाग जाति के लोग विश्व के सामुद्रिक यातायात के विज्ञाता थे। समुद्र मंथन अभियान में अनंत नाग वासुकी नाग ने प्रमुख योगदान दिया था। शेष नाग का साम्राज्य महा पाताल अमरीका तक था। कोल, कमठ, बानर (बंजारे) किरात, प्रजायें तथा कमल पत्र पुष्पों का बहु विध प्रयोग होता था। पद्मावती देवी आराधित थे। सिंहल द्वीप की नारियाँ पद्मिनी प्रजायें थीं।<br />
====5- बाराहकल्प- 13,800 वि0पू0 से अभी चालू है। ====<br />
बाराह अवतार और बाराह पुराण में व्यास देव ने इसकी विस्तृति और संस्कृति का विवरण दिया है। वाराह देव और उनकी बाराही प्रजाओं का देश भी ब्रह्मर्षि देश खास कर सूरसेन देश मथुरा ही है। ये माथुरों के परम पूजक थे। कुछ प्राचीन ग्रन्थों में इनके यज्ञ की अग्निशिखा से माथुर ब्राह्मणों की उत्पत्ति भी की गयी है। इस कल्प का अधिक विवरण हम आगे दे रहे हैं।<br />
<br />
===बाराह कल्प में 10 अवतार===<br />
{|class=brajtable border=1 cellpadding=5<br />
|1. बाराह अवतार (हिरण्याक्ष वध) <br />
<br />
|9380 वि0पू0 चैत्र शु0 6 ।<br />
|-<br />
|2. नृसिंह अवतार (हिरण्यकशिपु वध) <br />
<br />
|9355 वि0पू0 वैशाख शु0 14 ।<br />
|-<br />
|3. वामन अवतार (वलि वंधन) <br />
<br />
|9020 वि0पू0 जन्म भाद्रपद शु0 12।<br />
|-<br />
|4. कच्छप अवतार (समुद्र मंथन) <br />
<br />
|6540 वि0पू0 जन्म वैशाख कु0 1।<br />
|-<br />
|5. मत्स्य अवतार (बैदस्वत मनु काल)<br />
<br />
|6382 वि0पू0 जन्म वैशाख कृ01।<br />
|-<br />
|6. परशुराम अवतार (सहस्त्रवाहु वध) <br />
<br />
|5092 वि0पू0 , जन्म 5142 वि0पू0 वैशाख शु0 3।<br />
|-<br />
|7. श्री राम अवतार – जन्म <br />
<br />
|4055 वि0पू0 चैत्र शु0 9, रावण वध 4042 वि0पू0 आश्विन शु0 10।<br />
|-<br />
|8. श्री कृष्ण अवतार- जन्म <br />
<br />
|3114 वि0पू0 भाद्रपद कृ0 8, द्वारिका गमन 3082 वि0पू0 चैत्र शु0 10।<br />
|-<br />
|9. बुद्ध अवतार- जन्म <br />
<br />
|1760 वि0पू0 आश्विन शु0 10, निर्वाण 1680 वि0पू0।<br />
|-<br />
|10. कल्कि अवतार- <br />
<br />
|1338 वि0पू0 श्रावण शु0 9, स्वधाम 1296 वि0पू0।<br />
|}<br />
<br />
===12. देवासुर महा संग्राम===<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
देवाडसुराणां संग्रामा दाचार्थ द्वादशाडभवन्- अग्नि पुराण अ0 276 <br />
<br />
1. वाराह हिरण्याक्ष 9,380 वि0पू0<br />
2. नृसिंह हिरण्यकशिपु 9,355 "<br />
3. वामन बलि 9,020 "<br />
4. इन्द्र बलि (समुद्र मंथन) 6,378 "<br />
5. स्कंध कार्तिकेय ताड़क (विरोचन वध) 9,176 "<br />
6. हररूद्र अन्धक (बृकासुर वध) 9,247 "<br />
7 शिव त्रिपुर 8,756 "<br />
8. इन्द्र ब्रत्र (दस्युओं का ध्वंस) 8,684 "<br />
9. वशिष्ठ विश्वामित्र (आडी बक युद्ध) 5,357 "<br />
10. परशुराम कार्तवीर्य (हैहय विनाश) 5,132 "<br />
11. राम रावण (हलाहली) 4,024 "<br />
12. लक्ष्मी कोलासुर (स्वर्ण क्षेत्र विजय) 6,354 "<br />
<br />
इसके अतिरिक्त दानी पुरूषों की दान स्तुतियाँ (ऋग्वेद दशम मंडल में) , तपस्वी नरेन्दा्रें की सूची (महाभातर बन पर्व 3-11 में ), सत्वगुणी राजाओं चक्रवर्तियों , कुलपांसन नरेशों की सूचियां भी पुराणों में हैं। <br />
<br />
===14. मन्वन्तरों का काल===<br />
<br />
1. स्वायंभू मनु ब्रह्मा से 2 पीढी , मन्वंतर काल 238 वर्ष 9,000 से 8,762 वि0पू0।<br />
2. स्वारोचिष ध्रुव पीढी 4: काल 32 वर्ष – 8762 से 8730 वि0पू0।<br />
3. उत्तम ध्रुव का भाई पीढी 4: काल 70 वर्ष – 8730 से 8660 वि0पू0 ।<br />
4. वामन मनु पीढी 6: काल 174 वर्ष – 8660 से 8486 वि0पू0।<br />
5. रैवत मनु पीढी 13: काल 658 वर्ष – 8486 से 7828 वि0पू0।<br />
6. बैवस्वत मनु पीढी 13 : काल 1449 वर्ष – 7828 से 6379 वि0पू0।<br />
7. वैवस्वत मनु पीढी 33 : काल 649 वर्ष : 6379 से 5730 वि0पू0।<br />
8. सावर्णि मनु पीढी 41 , काल 374 वर्ष : 5730 से 5356 वि0पू0।<br />
<br />
उपेक्षित परवर्ती मन्वंतर- अल्प प्रभावी <br />
9. दक्ष सावर्णि पीढी 49 , काल 286 वर्ष : 5356 से 4070 वि0पू0 <br />
(अनुवंशी शिवि का भाई) <br />
10. ब्रह्म सावर्णि पीढी 52 काल 256 वर्ष : 5070 से 4814 वि0पू0।<br />
(रंभवंशी ब्रह्मदेव)<br />
11. धर्म सावर्णि पीढी 56, काल 272 वर्ष : 4814 से 4542 वि0पू0।<br />
(अनुवंशी धर्मरथ)<br />
12. रूद्रसावर्णि पीढी 61 , काल 340 वर्ष : 4542 से 4202 वि0पू0।<br />
13. देव सावर्णि पीढी 66, काल 1270 वर्ष : 4202 से 2932 वि0पू0।<br />
(मधु यादव का पिता देवराट)<br />
14. इन्द्र सावर्णि पीढी 86, काल 1132 वर्ष : 2932 से 1800 वि0पू0।<br />
(अगस्त्य वंशी इहमवाह)<br />
यह क्रम सिद्ध करता है कि महर्षि वेद व्यास के पश्चात् ऐसा कोई सार्वदेशिक अधिकारी शास्त्रकर्ता नहीं हुआ जो उस परम्परा को आगे तक चलाता। इसी कमी से व्यास पश्चात के इतिहास क्षेत्र में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो गयीं , जिनका समाधान अति आवश्यक था। उदाहरण रूप- हमारे धार्मिक संकल्प में "वैवस्वत मन्वंतरे" का कथन, कलियुग का प्रथम चरण अति लम्बा, बौद्ध धर्म के उन्मूलक कल्कि भगवान का स्मरण न किया जाना जिन्होंने पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध प्रभाव से पृथक कर अश्वमेध यज्ञों की पुन: परम्परा स्थापित की । भगवान कल्कि संवत् भी केरल में चालू है किन्तु आगे के विद्वानों ने उधर से पूर्ण उपेक्षा की दृष्टि ही रक्खी। शायद वे परवर्ती किसी रचनाकार को महर्षि वेद व्यास की समता में नहीं रखना चाहते थे। इस उपेक्षा ने धार्मिक साहित्य को सत्य से दूर इतिहासकारों के विचारों से असम्बद्ध तथा अन्धकार के अन्तराल में निक्षेप कर दिया। आश्चर्य है कि आज के मनीषी विद्वान आज भी इधर प्रयास न करके पुरानी भ्रान्ति मूलक विचार शून्य परम्परा को ही पकड़े हुए हैं।<br />
<br />
बाराह कल्प का काल विभाजन<br />
बाराह कल्प की मूल स्थापना – यह गणना पुराणों के मूल पाठ के अनुसार है जिसमें-<br />
चत्वार्याहु सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगन्।<br />
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथा विधम्।।<br />
इतरेषु स संध्येषु संध्यांशेषु ततस्त्रिषु।<br />
एक पादेन हृीयन्ते सहस्त्राणि शतानि च ।। 1 <br />
--- महा भा0 शान्ति 231 <br />
<br />
इसमें सतयुग 4000 वर्ष , त्रेता 3000 वर्ष, द्वापर 2000 वर्ष तथा कलि 1000 वर्ष का कहा है ता इनसे दुगुने सैकड़ों में 800, 600, 400, 200 वर्षों के इनके संध्यांश कहे गये हैं। इनके साथ कहीं-कहीं ’दिव्य’ शब्द का प्रयोग है जो चार प्रकार की संवत्सर पद्धतियों- सौर (दिव्य) , चांद्र (सौम्य), नाक्षत्र और अयन वर्ष में सौर गणना की मान्यता का निर्णायक है। इसे देवों का वर्ष बताकर इस वैज्ञानिक इतिहास स्वीकरणीय पद्धति को अवैज्ञानिक और अविश्वस्त बनाया गया है। इस आधार से यह कल्प विभाजन इस प्रकार है।<br />
बाराह कल्प दिवा भाग—<br />
1. सतयुग 4800 13,800 से 9,000 वि0पू0 तक।<br />
2. त्रेता 3600 9,000 से 5,400 वि0पू0 तक।<br />
3. द्वापर 2400 5,400 से 3,000 वि0पू0 तक।<br />
4. कलि 1200 3,000 से 1,800 वि0पू0 तक।<br />
<br />
1800 वि0पू0 में दिवा कलियुग समाप्ति है तथा रात्रि भाग का आरम्भ है। यह ब्रह्म रात्रि विलोम क्रम से प्रवर्तित होती है क्योंकि रात्रि का धर्म अन्धकार दिवाधर्म प्रकाश के पूर्णत: विपरीत है। रात्रि धर्म के प्रवर्तन से इस काल में चोरी, सुरापान, डाके, अपहरण, व्यभिचार , हत्या, षडयंत्र, अनैतिकता, विलासिता आदि की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भौतिक आसुरी विज्ञान अनुक्रम से बृद्धि की ओर अग्रसर है आगे की स्थिति से यह स्पष्ट है---<br />
बाराह कल्प रात्रि भाग ---<br />
1. कलियुग 1200 1800 से 600 वि0पू0।<br />
2. द्वापर 2400 600 वि0पू0 से 1800 विक्रम संवत तक।<br />
3. त्रेता 3600 1800 विक्रमी से 5400 वि0 तक।<br />
4. सतयुग 4800 5400 विक्रमी से 10200 विक्रमी तक ।<br />
इतिहास क्रम से भी यह बात पूर्णत: विश्वस्त सिद्ध होती है । शतायु मानव जीवन की यह यथार्थ स्थिति है।<br />
<br />
युगों का सांस्कृतिक पर्यवेक्षण<br />
बाराह कल्प के युगों की मानव जीवन विकास की ऐतिहासिक विस्तृति इस प्रकार है---<br />
1. दिवा सतयुग 13,800 वि0पू0 से 9,000 वि0पू0 काल ---<br />
<br />
भगवान नील बाराह का अवतार , यज्ञ वेद की आदि स्थापना , हेति प्रहेति, मधुकैटम आदि अज्ञान गर्वित प्रबल असुरों की उत्पत्ति, प्रभुनारायण केशव माधव, पद्मनाभ ब्रह्मा नारायणी नरप्रजा, अग्नि वायु इन्द्र तीन देवों की प्रथम उत्पत्ति , विराट महाविष्णु की उत्पत्ति , विश्व नियंत्रण असुरकर्मा तपोगुणी अपहर्ता प्रचायें, देवसर्ग पृथ्वी जल तेज वायु आकाश के कर्माधिष्ठात्रि देवता, अग्नकिर्मा प्रमथ देवों (माथुरों) की प्रतिष्ठा, ब्रह्मा के 10 पुत्र मरीचि (कश्यप) , अत्रि , अंगिरा, पुलस्त्य , पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद की उत्पत्ति, ब्रह्म वंशों ऋषि गोत्रों की स्थापना, कश्यप वंश का विश्व विस्तृत प्रसारण कश्यप सुरभी से एकादश रूद्र सर्ग (1 वैवस्वान, 2 अर्यमा, 3 पूषा, 4 त्वष्टा, 6 सविता, 7 मित्र , 8 वरूण, 9 अंशुमान, 10 भग, 11 अति तेजा) रूद्रों का सद्योजात रूप में अल्प कालिक विस्तार शतरूद्र, सहस्त्ररूद्र, कोटिरूद्र आदि, रूद्र प्रजासृष्टि भूत प्रेत पिशाच यक्ष राक्षस गंधर्व किन्नर, यातुधान, प्रेत, कूष्मांड भैरव बेताल आदि की उत्पत्ति , रूद्र कार्तिकेय और विनायक सेना में प्रमथों का प्रथम वर्चस्व। <br />
हिरण्यकशिपु हिरण्याक्ष, वाराह नृसिंह प्रहलाद वंश, वामन अवतार नाग कूर्म कमठ कोल आदि जातियोंका उद्भव, बलि का दक्षिण देश पर विशाल साम्राज्य , दैत्य दानवों का वेद विरूद्ध हिंसा प्रधान विषयासक्त समाज विस्तार, माथुर ऋषि दक्ष, अंगिरा, वशिष्ठ, अत्रि, चन्द्रमा, भृगु, बृहस्पति , भारद्वाज आदि की इन्द्रादि देवों द्वारा रक्षा और दान सम्मान अर्चना।<br />
<br />
2. दिवा त्रेता 9,000 से 5,400 वि0पू0 काल ।<br />
स्वायंभूमनु वंश, उत्तानपाद ध्रुव का साम्राज्य ब्रह्मर्षि देश । प्रधान देव क्षेत्र द्युलोक सूरसेन जनपद, माथुरों का सन्मान और स्वांयंभूमनु द्वारा इस प्रदेश के माथुर ब्राह्मणों द्वारा विश्व को सदाचार शिक्षा के गुरू मानने की घोषणा। प्रियव्रत का विश्व महाद्वीप विभाजन, सप्त समुद्रों और सप्त द्वीपों की साम्राज्य इकाइयाँ निर्धारित कर अपने पुत्रों को बाँटना । अग्नीधु को जभ्बू द्वीप हिम वर्ष नाभि वर्ष या अगनाभ वर्ष का सम्राट पद। अग्नीध्र का माथुरों के शिष्यत्व में माथुर क्षेत्र में अग्निध्र आश्रम अड़ींग बन में तप कर जीवन्मुक्त पद प्राप्त करना। वैवस्वत मनु का विश्व प्रजा पालन, देव संस्कृति का महान विस्तार, युवनाश्व वंशी त्रसदस्यु मांधाता का विश्व दस्यु दलन, मथुर में बाराह तीर्थ और विग्रह की स्थापना ता माथुर कुलपुत्र बनकर कुत्स गोत्र का प्रवर पद ग्रहण करना, यह महायुग दिष्ट वंशी मरूत चक्रवर्ती, निमिवंशी प्रतीपक तक चला तथा चन्द्रवंशी संयाति पर इसका अन्त हो गया।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_7&diff=56205चतुर्वेदी इतिहास 72010-04-22T14:40:33Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{चतुर्वेदी}}<br />
==चतुर्वेदी : चौबेजी नाम प्रसिद्धि==<br />
<blockquote>इस उद्धरव से यह भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि 1370 वि0 के पूर्व काल प्राकृत भाषा विस्तार युग से ही माथुर ब्राह्मण चतुर्वेदी के अपभ्रंश रूप में साधारण जनता में " चड विज्ज" या "चौबेजी" कहे जाने लगे थे। चौबे शब्द का प्राचीन ऐतिहासिक यह प्रमाण सिद्ध करता है कि चतुर्वेदियों का चौवेजी संशोधन बहुत प्राचीन और एतिहासिक है। तथा यह प्रधान रूप से मथुरा के माथुर ब्राह्मणों के समस्त सामूहिक वर्ग को संवोधन करने के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। खासकर उस काल में जब दूसरे ब्राह्मण दुवे तिवाड़ी , भट्ट मिस्सर, पानी पांड़े आदि ख्यातियों से युक्त थे तथा द्विवेदी तिवाड़ी उनकी एक एक शाखा मात्र थी। <br />
</blockquote><br />
==यक्षों का प्रभाव काल==<br />
<br />
इस समय मथुरा में यक्ष पूजा जोरों पर थी। जिनप्रभु सूरि के अनुसार इस समय मथुरा नगर में भूतयक्ष, हुंडिय यक्ष , चोर जीव के देवालय थे। हुंढिय यक्ष की पूजा भांडीरवन में भी की जाती थी। यह हुंडिय यक्ष बड़ा प्रभावशाली और धनेश्वर था। इसके नाम पर ही लेन देन के काम में जिस अभिलेख का प्रयोग होता था उसका नाम "हुंडी" रक्खा गया। तथा उनका स्वर्ण सिक्का "हुन्न" था हुण इसी की शाखा के थे जो हुन्नान चीन में बसे थे।<br />
<br />
इसी समय महावन में भी एक महायक्ष की पूजा होती थी। शजो यक्षेश्वर या जखैया के नाम से विख्यात हुआ। इस महाचक्ष की विशाल काय प्रतिमा मथुरा पुरातत्व संग्रहालय में देखी जा सकती । <br />
<br />
मथुरा में यक्ष परम्परा अति प्राचीन है। यक्ष राक्षसो की उत्पत्ति कश्यप सृष्टिकाल से है। भक्त ध्रुव के भाई उत्तम को यक्षों ने मार दिया था। कृष्ण के समय यमलार्जुन (नलकूवर मणिग्रीव) मक्ष थे। ब्रज में भंडीर यक्ष का स्थान भांडीर वन, सुभद्रयक्ष का भद्रवन थे। कुवेर के अनुचरों में भंडीर यक्ष धन (ऋण) के वितरण कर्ता तथा हुंडीय यक्ष (हूंड़) क्रूरता से धन के वसूल करने वाले थे। महाराज युधिष्ठर के गुप्त वास के समय उनका यक्षेब्द्रपुरी (जिखिनगांव) के यक्षेन्द्रराज से तत्व ज्ञान युक्त धर्म संवाद हुआ था जो महाभारत में यक्ष प्रश्न के नाम से संस्थापित है। यह यक्ष महाशक्तिशाली ब्रह्म रूप कहा जाने वाला ब्रह्म ज्ञानी था। यक्षों यक्षिणिनियों की लोक पूजा भी होती थी। महावन की यक्षराज जखैया देवता के नाम से अभी भी पुत्रों की प्राण रक्षा के लिये पूजा जाता है तथा उसकी विशाल मूर्ति परखम यक्ष के नाम से पुरातत्व संग्रहालय में हैं। ब्रज में इस काल में यक्ष जाति की विशाल जन संख्या थी जो बौद्ध होने के बाद जिखिन गाँव के खिनवार जाट, यक्ष पुरी छहिरी के छांहर या चाहर नाम पाकर इस जाति में विलय हो गये। कुवेर वैश्रवण की पुरी सरवणपुरा के वैश्रवण पूज्य सरवन माथुरों से यक्षों का पौरोहित्य सम्पर्क था। माथुर अपने यज्ञ यक्षों की रक्षा में ही करते थे। कृष्णकाल का माथुर आंगिरसों का आगिरस सत्र भंडीर यक्ष के भांडीर बन में हुआ था। मथुरा नगर के नगर रक्षक भी यक्ष और यक्षिणियां ही थे।<br />
<br />
==कलियुग का पदापर्ण और समाप्ति ==<br />
3000 वि0पू0 में बाराह कल्प के दिवस भाग का कलियुग आरम्भ हुआ। इसके आरम्भ में महाभारतयुद्ध यादव संहार श्री कृष्ण अवतार और मगध प्रदेश में बृहद्रथ (जरासंध) वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ। इस कलियुग का व्याप्तिकाल (1200 वर्ष) 1800 वि0पू0 तक हरहा। इस कालावधि में रिपुजंय (2037-2011 वि0पू0) तक मगध का बृहद्रथ जरासंघ वंश तथा फिर प्रद्योतवंशी शुनक (2018-1983 वि0पू0) से नंदिवर्धन (1899-1873 वि0पू0) तक भारत के सम्राट पदों पर रहे। मथुरा मगध राज्य में प्रमुखता तो नहीं प्राप्त कर सकीं परन्तु मागधों से घनिष्टता स्थापित कर "माथुरो मागधश्चैव" के समन्वय के साथ राजनैतिक दुष्चक्रों से दूर अपने धार्मिक स्वरूप और प्रतिष्ठा को बनाये रही। मगध के प्रमुख तीर्थ गया से भी ऊपर ध्रुव तीर्थ "आदिगया ध्रुवक्षेत्र" का मान स्थापित हुआ तथा कामबन आदि ब्रन्दावन में काशी प्रयाग और गया तीर्थ गदाधर भगवान की श्रेष्ठ मान्यता रही। ब्रज के फालैन (फल्गुनी यज्ञ) तीर्थ की भी प्रहलाद कालीन तीर्थ परम्परा गया में फल्गुनदी के रूप में प्रतिष्ठित हुई माथुरा ब्राह्मणों की महती प्रतिष्ठा और पद श्रेष्ठता को देखते हुए देसरे ब्राह्मणवर्ग अपनी स्थिति को सम्हालने के लिये अनेकानेक याक्य गढने लगे और उन्हें पुराण पाठों में यत्र तत्र प्रबिष्ट कर माथुरों के प्रति शंकास्पद वातावरण बनाने में प्रयत्नशील होने लगे। इन कल्पित अनर्गल और तथ्य शूल्य वचनों से प्रभावित होकर हमारे समूह के भी कुछ लोग गौंड़ों या कान्यकुन्जों की किसी शाखा प्रशाखा के रूप में अपने को समझने की भ्रान्ति प्रचारित करने लगे। मनगंढत भृगुराम संहिता के किसी लेखक ने लिखा-<br />
<br />
<poem>सर्वें द्विजा कान्य कुब्जा माथुरं मागधं विना।<br />
पृथग्भावेन तिष्ठन्ति विप्रत्वं श्रेय कांक्षिण:।।<br />
बाराहस्य तु यज्ञेन माथुरी जायते पुरा।<br />
मागधो ब्राह्मण: पूर्व कथितों द्विज एव च ।। 1<br />
</poem><br />
यह प्राचीनतम माथुरा से अन्य नवस्थपित ब्राह्मण वगों के दूर हठने के समय की स्थिति बतलाते है- वे कहते हैं माथुर और मागधों को छोड़कर सभी कान्य कुब्ज ब्राह्मण (अपने समकालीन अन्य ब्राह्मणों सहित) सद्यपि इन दोनों प्राचीन वर्गों से पृथक भाव में स्थित होते जा रहे हैं किन्तु मूलत: वे इन दोनों विप्रकुलों के समाश्रित ही हैं क्योंकि माथुर श्रेष्ठ विप्र आदि अवतारी देव आदि बाराह प्रभु के यज्ञ की हुताग्नि से दिव्य देह धारण कर प्रगट हुए हैं। वे सतयुग की देव सृष्टि के समय के सर्वमान्य ऋषि महर्षि हैं, तथा मागधों को ब्रह्मदेव ने गजासुर वध काल में द्वापर के प्राचीन समय में द्विज मान्य कहा है। अत: इनसे दूर हटने पर भी अन्य सभी ब्राह्मण इनका आश्रय ग्रहण करके ही अपने को लोक प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। ब्राह्मण मार्तण्ड कर्ता ने लिखा-<br />
<br />
<poem>उदीच्याऋषय: सर्वे न म्होड़ा न च नागरा: ।<br />
कान्यकुब्जा द्विजा सर्वे, माथुरं मागधं बिना।।</poem><br />
<br />
सभी ऋषिगण उदीची दिशाबासी होने से उदीज्य (औदीज्य) हैं; वे न तो (मौटैराके) मोढ हैं न (नागरखंड के ) नागर, इसी प्रकार कान्यकुब्ज देशाधिपति सम्राट हर्ष के उदार राष्ट्र कान्यकु ब्ज देश के आश्रित होने से (माथुरों और मागधों को छोड़कर) अन्य सभी ब्राह्मण कान्यकुब्ज वर्गीय ही हैं। इससे स्पष्ट है कि जब अन्य पंचपात्र विप्र 1- सारस्वत, 2- कान्यकुब्ज, 3- गौड़, उत्कली, 5- मैथिली कान्यकुब्जों के (पंच गौड़ यूनियम) में सम्मिलित हो गये, तब माथुर और उनके साथीं मागध ही ऐसे स्वाभिमानी और स्वक्षेत्र गौरवधारी उच्च पदस्थ ब्राह्मण थे। जिन्होंने कान्यकुब्जों के दस समदस्यीय नब गठित मंडल का सदस्य बनकर उनका अनुगत होना ठुकरा दिया, और अपनी उच्च आचार विचार कुल की प्रतिष्ठा के अनुरूप अपना सर्वोपरि स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रक्खा। इस प्रकार अनेक परवर्ती ब्राह्मण समूहों ने जी तोड़ प्रयास करके माथुर ब्राह्मणों को अपने अंतर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर ब्राह्मणों को अपने अतंर्गत लाने के प्रयास किये परन्तु वे सभी विफल रहे। माथुर किसी से झुके नहीं और खान पान आचार में सबसे उत्कृष्ट रहकर अपनी पृथकता की पहिचार निराली बना कर रक्खी कान्यकुब्ज चौबे बने, गोड़ मथुरिया (घटवारे) बने परन्तु माथुर कनौजिये या गौड़ नहीं बन पायें। चौबें शब्द की उपाधि धारण के वादरयाणन्याथ से अन्य कोई समूह माथुरों में प्रविष्ठ न हो सका। इस प्रकार माथुरी के साथ ब्रह्म दिवस का कलियुग अपनी दिवा ज्योति के साथ अवसान को प्राप्त हुआ और तभी 1800 वि0पू0 से ब्रह्मरात्रि का निशांधकारमय अधर्म स्वेच्छाचार और रत्रिधर्म विस्तारक तमोमय काल असुरों तमीचरों को प्रिय पुष्टि प्रदाता बनकर सामने आया।<br />
<br />
==भारतीय प्राचीन इतिहास का प्रवेश द्वार==<br />
हमारे अनेक पाश्चात्य शिक्षा के निष्णात वंधु यह सब पढकर त्रस्त परेशान क्रोधित और क्षुब्ध हो उठेगें कि यह सब हम क्या पढ़ रहे हैं। पाश्चात्य शिक्षा में लिपटे आज के इतिहास ने हमें ऐसा कस कर जकड़ा है कि हमें अपने ही शास्त्रों पुराणों ग्रन्थों पर विश्वास नहीं होता । आर्य बाहर से आये, वे मध्य एशिया में अपजे थे। वे अनार्यों को खा गये, भारत के पास अपना कोई प्राचीन इतिहास है ही नहीं, पुराण मिथों (मिथ्याओं) और अस्त व्यस्त कहानियों के पिटारे हैं, राम-कृष्ण , वामन, परशुराम, सगर, दिलीप , सूर्यवंश, चन्द्रवंश कल्पना हैं, जो भक्तों का पोषण पाकर विकवित होते गये हैं।<br />
<br />
भारत का सच्चा इतिहास पाषण के ढेलों में, फूटे ठीकरों में टूटी मूर्तियों में या पत्थर खंडों पर लिखे लेखों में है। जबकि पुराणों में वर्णित इतिहास युगों के क्रम से वंशावलियों में, राज्य और साम्राज्य संस्थानों में दिग्विजयों में, राजसूय और अश्वमेघ यज्ञों में, देवासुर संग्रामों दान, यज्ञ तप लोक संरक्षण और प्रजासंवर्धन प्रयासों से भरा पड़ा है। कुछ महत्वपूर्ण निजी विद्याओं को गोपनीय रखने के लिए पुराणों में कूटग्राम, कूटमान, समाधिभाषा रूपकों और लक्षण व्यंजना आदि कथन विशेष की शैलियां थी उन्हें न जान पाने के कारण भी पुराणों पर वाण वर्षा की जा रही है। इसमें पाश्चात्यों द्वारा भारत के गौरव को विनष्ट करने के हेतु से किये गये राजनेतिक कूट प्रहारिक प्रयास भी योग दे रहे हैं जिनके कारण स्वाधीन भारत के इतिहास में भी भारत के कीर्ति रत्न श्रीराम, श्रीकृष्ण , विक्रमादित्य, वेदव्यास, बाल्मीकि , आदि को वर्तमान इतिहास से अलक्षित रक्खा जा रहा है।<br />
<br />अस्तु इस राष्ट्र घातक से त्राण पाने के लिये हमें अपने शास्त्रों पुराणों की भ्रान्ति मुक्त सत्यमयी छवि की शरण में जाना होगा। मेरे किशोर मानस में 15 वर्ष आयु से ही इस दिशा में गहन चिन्तन की आतुरता जाग उठी थी। और 60 वर्षों तक निरन्तर चिन्तन मनन अध्यवसाय और अनुसंधान मय शोध प्रयासों के फलस्वरूप "भारतीय मूल इतिहास" की जो यथार्थ तथ्यमयी दिशादर्शन की दृष्टि प्राप्त हुई उसके आधार पर यह विश्वास और दृढ़ता पूर्वक कहा जा सकता है कि "भारत का अति प्राचीन पौराणिक इतिहास" सारे विश्व के इतिहास से प्राचीनतम युक्तियुक्त विश्वस्त और वैज्ञानिक है। उसमें जैसा कि कहा जाता है, वैसी कोई भी असंवद्धता असंभवता, निराधार प्रस्तुति या अवैज्ञानिक स्थापना नहीं है। जब तक अन्धकार है तभी तक निशा प्रेरक जीव जंतुओं के कर्कश क्रूर प्रहारात्मक अशुभ स्वर सुनाई पड़ रहे है।<br />
<br />
इतिहास के इस अंधकार को विदीर्ण कर प्रभात के सूर्योदय का दर्शन कराना ब्राह्मण जाति का अनिवार्य कर्तव्य है। हम माथुर सर्वज्ञान के प्रतिष्ठाता है। हमारा ही यह सर्वप्रथम दायित्व होना चाहिये कि हम इस दिशा में भ्रान्तियों के परिमार्जन का शंखनाद करै और भटके भूले मोह ग्रस्त राष्ट्र को यह दिखाये कि हमारा शास्त्र भंडार मानव को दृष्टि दर्शन देने वाले समर्थ इतिहास से परिपूर्ण है। अपने उत्साही पाठकीं की ज्ञान चेतना को जाग्रत करने और भारतीय प्राचीन इतिहास के वर्षो से अवरूद्ध प्रवेश मार्ग को अनाबृत करने के लिये कुछ मूल तथ्य यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूं। इसे समझ लेने पर विज्ञजनों को इस इतिहास में स्थापित कालाब्धियों और संभवताओं को जान लेने में बहुत कुछ सहायता मिलेगी।<br />
==प्राचीन भारतीय काल निर्धारण पद्धति== <br />
पुराणों ज्योतिष ग्रन्थों और ऋषि वाक्यों के अनुसार हमारे इस भू मंडल की सृष्टि का काल विभाजन विराट पुरूष परब्रह्म (जिसे सृष्टकिर्ता ब्रह्मा भी घोषित किया गया है), उस महाविभूति पुरूष के 100 वर्ष के जीवन काल का विस्तार है। यह 100 वर्ष का ब्रह्मा का जीवन काल ही हमारे इस विश्वब्रह्माण्ड के अस्तित्व का काल है जिसमें हमारी यह पृथ्वी उत्पन्न हुई और विकसित हुई है। इसके उत्पन्न होने और अब तक विकसित होने तथा यह कब तक जीवित रहेगी (आत्यतिक प्रलय) यह किसी भी धर्म या विज्ञान में निर्धारित नहीं हैं। पृथ्वी की उत्पत्ति और विकास पद्धति के विषय में अनेक विभिन्न मत हैं किन्तु वे अधिकतर आधारशून्य कल्पनाओं पर आधारित तथा अतिअविश्वल्त है। हमारे यहाँ के पंडितों ने भी धार्मिक महात्मा वृद्धि की दौड़ में हमारी पुराणों में वर्णित युग कल्प गणना को शास्त्रों के मूल कथनों का अति दीर्ध अर्थ लगाकर उन्हें सत्य से दूर खड़ा कर दिया। इधर पाश्चात्य आधुनिकता वादियों ने अपने धार्मिक दुराग्रह के कारण इस अवधि को ईसा के आसपास अति समीप लाने की चेष्टा की है। इस खीचतान में इन दोनों समयान्तरों में एक बहुत बड़ा अंतराल बन गया है। आधुनिक तथा कथित विज्ञान भी अभी कोई बात स्थिर रूप से सुनिश्चित करने में समर्थ नहीं है- वह विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न स्थानों पर मिलने के परिक्षणों से उनके विभिन्न निष्कर्ष प्रगट करता ही रहता है। उसका यह भी निश्चय नहीं कि आज जो कहा जा रहा है कल कोई दूसरा सूत्र हाथ आ जाने पर वह कब अविश्वस्त मान लिया जायगा। हमारे शास्त्रीय निर्धारणों का अर्थ विस्तार करने वालों ने अपने मत को सर्व पुरातन प्रगट करने का गौरव तो स्थापित किया किन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि हमारी यह अति विस्तारवादी नीति भविष्य में हमार ेही हपुरातन सत्य इतिहास को संसार के समाने अनर्गल और अविश्वस्त बना देगी और लोग तर्कों के कुठार से छिन्न भिन्न कर इतिहास के महत्वपूर्ण क्षेत्र से इसे वहिष्कृत कर देंगे।<br />
<br />
हमारे अपने 60 वर्षो के चिन्तन मनन और अनुसंधान के आधार पर अपने शास्त्रीय इतिहास की प्रमुख विज्ञान सम्मत काल पद्धति का पता लगाया है, जिसे हम यहाँ दे रहे हैं। यह याद रखने की बात है कि हमारे वेद व्यास के परवर्ती महानुभावों ने पौराणिक गणना के एक दिन का देवताओं का दिन अर्थात 360 दिन या एक मानव वर्ष का समय मानकर पुराणों के मूल वर्षों को 360 से गुणा कर 1200 वर्ष कौ 4,32,00 वर्ष कर लिया इसी , भेद से वेदों में वर्णित 100 वर्ष आयु को 36,000 वर्ष तथा इससे भी अधिक बढ़ा लिया। शोधित गणित से वेदों और पुराणों का भेद दूर हो जाता है। "ब्राह्मणान् वेद गुप्तये" के अनुसार ऋषियों ने शास्त्रों में अपसे समय की लेखन पद्धति के अनुसार कुछ और भी वर्णन पद्धतियाँ कूटमान समाधिभाषा लाक्षणिक संकेत आदिकों का प्रयोग किया हे जिसे न समझ पाने के कारण हम शास्त्रों को असंवद्ध कहने का डंका पीट डालते हैं। वे अपने अज्ञान के मद में यह नहीं सोचते कि - "कोत्र दोषोसहस्त्राँशो यदुलुकं न पश्यति" यदि पक्षी विशेष को दिन में सूर्य के कारण दिखालई नहीं पड़ता तो इसमें सूर्य का क्या दोष हैं यह तो उस पक्षी की दृष्टि की ही त्रृटि हैं जिसे दूर कर सकने पर उसे सम्भबत: सारा यथार्थ संसार दीख सकता है।<br />
<br />
यहां हम उस परिशोधित पद्धति को विद्वज्जनों की जानकारों के लिये उपस्थित कर रहें है। यह पद्धति "माथुरी पद्धति" है और इसे पूर्व प्राचीन काल मेकं हमारे ही पूर्वजों भगवान विवस्वान सुर्य (सूर्य सिद्धांत महर्षि, वशिष्ठ (वशिष्ठ सिद्धांत) पवराशर (पराशर सिद्धाँत) आदि ने ही स्थापित किया है।<br />
<br />
<blockquote><poem>अनुसंधान युक्त प्राचीन भारतीय इतिहास पद्धति <br />
युग= द्वादशवर्ष । युग शतब्दि – 1200 वर्ष। युग सहस्त्राव्द = 12000 वर्ष।<br />
अहोरात्र युग सहस्त्राव्द = 24000 वर्ष (एक कल्प या ब्राह्म दिवस) <br />
कलियुग (एकल युग शताव्द) = 1,200 वर्ष।<br />
द्वापरयुग (द्विगुण युग शताब्द) 2400 वर्ष।<br />
त्रेता (त्रिगुण युग शताब्द) 3600 वर्ष ।<br />
कृतुयुग (चतुर्गुण युग शताब्द ) 48000 वर्ष ।<br />
दशगुण युग शहस्त्राब्द या कल्प दिवस = 12000 वर्ष ।<br />
पुन: दश गुण युग शताब्द या कल्प रात्रि = 12000 वर्ष ।<br />
पूर्ण एक कल्प का मान (अहोरात्रयुक्त)<br />
ब्रह्मा का एक दिवस = 24000 वर्ष ।<br />
ब्राह्म मास (30 दिवस) = 7,20,000 वर्ष ।<br />
ब्राह्म वर्ष (12 मास) = 86,40,000 वर्ष ।<br />
ब्रह्म या ब्रह्माण्ड शतायु काल = 86,40,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु 12।। वर्ष एक ब्रह्माण्ड अवस्था = 10,80,00.000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु पूर्वार्ध काल 4 अवस्था (50वर्ष) = 43,20,00,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म आयु परार्ध काल (51 से 60 वर्ष=4 अवस्थायें) 43,20,00,000 वर्ष।<br />
ब्रह्म पूर्वार्ध आयु के पश्चात व्यतीत काल (पाँचवे बाराह कल्प के 2042 विक्रम संवत तक)= 15,886 वर्ष।<br />
2042 विक्रम संवत तक ब्रह्म आयु व्यतीत काल = 4,32,015,886 वर्ष।<br />
ब्रह्म सृष्टि आरंभ से पूर्व ब्रह्माण्ड गर्भ स्थिति काल (10 मास) 72,00,000 वर्ष।<br />
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आयु काल = 87,12,00,000 वर्ष।<br />
2042 वि0 वाद विश्व ब्रह्माण्ड का भविष्य (शेष भोग्य) जीवन काल = 43,91,84,114 वर्ष।<br />
इस काल की समाप्ति पर इस ब्रह्माण्ड की आत्यतिंक (महाप्रणय) होनी है। इसके मध्य में भी कल्पों के अन्त में या युग स्त्रहस्त्राब्दों की संधि में खंडप्रलय या अंशप्रलय होती रहती है।</poem></blockquote><br />
<br />
===ब्रह्माण्ड सृष्टि का क्रम विकास और क्षय===<br />
<br />
<blockquote><poem>इस पद्धति से विश्व ब्रह्माण्ड का क्रम विकास इस प्रकार हुआ है-<br />
ब्रह्म जन्म, सृष्टि उत्पत्ति, जीव उद्भव काल – 4,32,15,886 वर्ष पूर्व।<br />
1- शैशव काल - (12 ।। वर्ष) 43,20,15,886 से 2,40,15,886 वर्ष पूर्व तक, अम्दिज , अंडज , जरायुज सरीसृप (रेंगने वाले) केवल मुख और वायु युक्त जीव।<br />
2- कुमार काल- 3,20,15,886 से 21,60,15,886 वर्ष पूर्व तक पत्र ऋण कीटभक्षी हस्त पाद नेत्र श्रवणेन्द्रियों युक्त जीवों की उत्पत्ति।<br />
3- किशोर अवस्था (तृतीय सर्ग) 216013,886 से 1080,15886 वर्ष पूर्व तक भ्रमणशील, आखेटक, वन्य सम्पदा भक्षी , गुहावासी, जिज्ञासु अल्पबुद्धि <br />
4- युवा अवस्था (चतुर्थ संर्ग्र) 1380,15,886 से (2042 विक्रम काल) कृषि, गोपालन, प्रशासन, समाज संगठन की प्रया 14,886 वर्ष पूर्व तक <br />
5- प्रौढ़ अवस्था (पंचम सर्ग) 17,886 (2042 वि0) से 10,80,15,886 वर्ष पूर्व तक अतिविलासी, क्रूर, चारत्रहीन, लौलुप,यंत्राधीन प्राणी<br />
6- वृद्ध आयु (षष्ठ सर्ग) 100,0,15,006 से 21,60,15,006 वर्ष आगे तक साधनभ्रष्ट , त्रस्त , नीरास, निरूजमी, दुखी जीव।<br />
7- जीर्ण अवस्था (सप्तम सर्ग) 21,60,15,006 से 32,40,15,600 वर्ष आगे तक अन्न जल वायु ताप सबका अभाव क्षीण विश्व।<br />
8- उपराम अवस्था (अष्टम सर्ग) 32,40,15,006 से 43,20,15,600 वर्ष आगे तक ऋतु अनियमित , सूर्य , चन्द्र, मेघ विलुप्त भूमि ज्वालामयी अकाल प्रकृति कोप के वाद ब्रह्माण्ड की आत्यंतिक प्रलय।</poem></blockquote><br />
<br />
===कल्प स्थिति=== <br />
<br />
इस लम्बी काल गणना में हमारा वर्तमान बाराह कल्प ब्रह्मदेव के चतुर्थसर्ग युवाकाल में आता है। ब्रह्मदेव के वर्ष में 0 कल्प या ब्राह्मदिवस होते हैं, तथा चतुर्थ सर्ग पूर्वार्ध आयु काल तक 18000 कल्प व्यतीत हो जाते हैं। इतनें कल्पों का लेखा जोखा समग्र उपलब्ध नहीं है। महर्षि वेवव्यास ने अपनी महती शोध के वाद 5 कल्पों को ज्ञात कल्प माना है। महतकल्प से पूर्व का विश्व का इतिहास लुप्त प्राय है। ऐसा प्रतीत होता है कि महत कल्प से पूर्व जो कल्पांत प्रलय हुई वह सर्वाधिक विनाशकारी थी जिसमें पूर्व कल्पों के सारे विवरण अवशेष और ज्ञातव्य परम्परायें विनष्ट हो गई। यह भी तथ्य विचारणीय है कि हमारी मूल पृथ्वी वर्तमान धरातल से बहुत नीचे दब चुकी है। उस पर बहुत मोटी पर्ते चढ़ने के कारण वह अब बहुत स्थूल और वोझिल हो चुकी हैं। पृथ्वी की चुंवकीय (गुरूत्वाकर्थण) शक्ति के कारण आकाश से (धूलिपातसिर्द्धांत) के प्रभाव से हमारे ब्रह्माण्ड पर धूलि कणों की वर्षा निरन्तर होती रहती हैं। इसकी मोटी तह के नीचे प्राचीन पूल पृथ्वी विलुप्त हो चुकी है तथा भूगर्भ के चुंवकीय विद्युत केन्द्र के उद्दहन कक्ष में समाकर वह ज्वालामुखियों के लावा के रूप में प्रवाहित होती रहती है। अत: कल्पों के स्थूल अवशेथ मिलना असम्भव है। यह भी विचारणीय है कि उन कल्पों की सम्यता प्राय: शपात्र काष्ठ वनस्पति प्रयोगी थी जो कुछ काल में ही विनष्ट होगयी। कोयला और तेल उसी के कुछ अवशेष हैं।<br />
<br />
===परवर्ती ज्ञात कल्प===<br />
ज्ञात कल्पों का संकेत या विवरण हमें महामहर्षि वेद व्यास के पुराण साहित्य से इस प्रकार उपलब्ध होता है—<br />
<br />
====1- महत कल्प – 109,800 से 85,000 वि0पू0 तक==== <br />
इस कल्प का विशेष विवरण नहीं मिलता। "प्रथमोमहत: सर्ग: विज्ञेय महतस्तु सं" केवल इतना ही संकेत मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि इस कल्प में महत् तत्व वाले प्राणी और वृक्ष वनस्पति आदि थे। इस कल्प की प्रजाओं का मूल स्थान सूरसेन और मस्यदेश थे। हतकौली, हतकाँत, हतवास, हतौरा, हतीन , हातियौं, इसके साँकेतिक परम्परा स्थल तथा हट्ट, हाट हटिया, हटड़ा हटरी, हठी स्वभाव, हटकना, हातेवंदी संस्कृति परिचायक हैं। महद्ब्रह्म, महाविष्पु, महतत्व महारूद्र देवता तथा मेहता, महत्तों प्रजायें थीं।<br />
====2- हिरण्य गर्भ कल्प – 85,000 से 61,800 वि0पू0 तक ।====<br />
इस कल्प में पृथ्वी "हिरण्य" नामकी मिश्रित पीली धातु से आच्छातिद थी । पाँचाल देश का हिरन गौ क्षेत्र तथा क्रुरू क्षेत्र की रणभूमि, शूरसेन का रनवारी क्षेत्र इसके संकेत स्थल है। प्राचीन जांबूनद के तटों पर "जंबू सुवर्ण" विखरा हुआ था। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ , हिरण्यवर्णा लक्ष्मी, देवता थे, रैगड़ , रैना, रैनवाल, प्रजायें तथा हिरप्यानी रैडी (अरंडी) वृक्ष वनस्पति एवं हिरण ही सर्वोपयोगी पशु था। पीली मिट्टी की भूमि शूरसेन कुरूक्षेत्र, पांचाल, मत्स्य इसके धरावशेष हैं।<br />
====3- ब्राह्मकल्प – 61,800 से 37,800 वि0पू0 तक ।====<br />
ज्ञात कल्पों में महर्षि वेद व्यास ने इसे प्राथमिकता दी है। ब्रह्मपुराण , ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में इसके ऐतिहासिक विवरण संकलित किये है। ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर, रामपुर, रामगंगा केन्द्र स्थल के ब्राह्मी प्रजायें परब्रह्म देवता ब्रह्मवाद उपासना थी। <br />
इस कल्प के मध्य काल में गोलोक व्याप्त गोपालन संस्कृति का उदय हुआ। गोलोक खंड वर्तमान बुन्देलखंड है जो गोपाचल ग्वालपुर (ग्वालियर) से आरम्भ होकर (कत्यायनपुरी) कटनी, (बींणावादिनी प्रजाओं की पुरी) बीनां, (वायव्यपुर) जबलपुर, (गोलोक स्वामिनी त्रिपुर सुन्दरी की पुरी) त्रिपुरी तथा (गोलोक पति गोबिंद का वन) गोविन्दवनरींवां, नर्मदात्री नर्मदा का तट आदि से युक्त है। इस गोलोक बुन्देलखंड की प्रजायें गोपाल भक्ति में पूर्ण भावुक हैं तथा वे गोपालन का नैष्ठिक ब्रत्र लेकर वनों में गाय चराते तथा मोरपंख संचय करते हैं, जिन्हें वे कार्तिक मास में मथुरा में आकर श्री यमुना महारानी में विसर्जित करके दान पुण्य कर इस गोपालन ब्रत की पूर्णाहुति करते हैं, इस कल्प की ब्राह्मी प्रजायें (ब्रह्मदेश) वर्मा तथा (ब्रह्म पुत्रिका नदी) ब्रह्म पुत्रा तक फैली थीं।<br />
====4- पाद्मकल्प – 37,800 से 13800 वि0पू0 तक ।==== <br />
इस कल्प का विवरण महर्षि वेद व्यास ने पद्मपुराण में संकलित किया है। यह कल्प विश्व विस्तृत था। शोडष दल पद्म की कल्पना के रूप में 16 समुद्र के द्वीपों में इसकी स्थिति थी। पद्मावती पुरी के नाग वंशों के पूर्वज नाग जाति के लोग विश्व के सामुद्रिक यातायात के विज्ञाता थे। समुद्र मंथन अभियान में अनंत नाग वासुकी नाग ने प्रमुख योगदान दिया था। शेष नाग का साम्राज्य महा पाताल अमरीका तक था। कोल, कमठ, बानर (बंजारे) किरात, प्रजायें तथा कमल पत्र पुष्पों का बहु विध प्रयोग होता था। पद्मावती देवी आराधित थे। सिंहल द्वीप की नारियाँ पद्मिनी प्रजायें थीं।<br />
====5- बाराहकल्प- 13,800 वि0पू0 से अभी चालू है। ====<br />
बाराह अवतार और बाराह पुराण में व्यास देव ने इसकी विस्तृति और संस्कृति का विवरण दिया है। वाराह देव और उनकी बाराही प्रजाओं का देश भी ब्रह्मर्षि देश खास कर सूरसेन देश मथुरा ही है। ये माथुरों के परम पूजक थे। कुछ प्राचीन ग्रन्थों में इनके यज्ञ की अग्निशिखा से माथुर ब्राह्मणों की उत्पत्ति भी की गयी है। इस कल्प का अधिक विवरण हम आगे दे रहे हैं।<br />
<br />
===बाराह कल्प में 10 अवतार===<br />
<br />
#बाराह अवतार (हिरण्याक्ष वध) 9380 वि0पू0 चैत्र शु0 6 ।<br />
#नृसिंह अवतार (हिरण्यकशिपु वध) 9355 वि0पू0 वैशाख शु0 14 ।<br />
#वामन अवतार (वलि वंधन) 9020 वि0पू0 जन्म भाद्रपद शु0 12।<br />
#कच्छप अवतार (समुद्र मंथन) 6540 वि0पू0 जन्म वैशाख कु0 1।<br />
#मत्स्य अवतार (बैदस्वत मनु काल) 6382 वि0पू0 जन्म वैशाख कृ01।<br />
#परशुराम अवतार (सहस्त्रवाहु वध) 5092 वि0पू0 , जन्म 5142 वि0पू0 वैशाख शु0 3।<br />
#श्री राम अवतार – जन्म 4055 वि0पू0 चैत्र शु0 9, रावण वध 4042 वि0पू0 आश्विन शु0 10।<br />
#श्री कृष्ण अवतार- जन्म 3114 वि0पू0 भाद्रपद कृ0 8, द्वारिका गमन 3082 वि0पू0 चैत्र शु0 10।<br />
#बुद्ध अवतार- जन्म 1760 वि0पू0 आश्विन शु0 10, निर्वाण 1680 वि0पू0।<br />
#कल्कि अवतार- 1338 वि0पू0 श्रावण शु0 9, स्वधाम 1296 वि0पू0।<br />
<br />
===12. देवासुर महा संग्राम===<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
देवाडसुराणां संग्रामा दाचार्थ द्वादशाडभवन्- अग्नि पुराण अ0 276 <br />
<br />
1. वाराह हिरण्याक्ष 9,380 वि0पू0<br />
2. नृसिंह हिरण्यकशिपु 9,355 "<br />
3. वामन बलि 9,020 "<br />
4. इन्द्र बलि (समुद्र मंथन) 6,378 "<br />
5. स्कंध कार्तिकेय ताड़क (विरोचन वध) 9,176 "<br />
6. हररूद्र अन्धक (बृकासुर वध) 9,247 "<br />
7 शिव त्रिपुर 8,756 "<br />
8. इन्द्र ब्रत्र (दस्युओं का ध्वंस) 8,684 "<br />
9. वशिष्ठ विश्वामित्र (आडी बक युद्ध) 5,357 "<br />
10. परशुराम कार्तवीर्य (हैहय विनाश) 5,132 "<br />
11. राम रावण (हलाहली) 4,024 "<br />
12. लक्ष्मी कोलासुर (स्वर्ण क्षेत्र विजय) 6,354 "<br />
<br />
इसके अतिरिक्त दानी पुरूषों की दान स्तुतियाँ (ऋग्वेद दशम मंडल में) , तपस्वी नरेन्दा्रें की सूची (महाभातर बन पर्व 3-11 में ), सत्वगुणी राजाओं चक्रवर्तियों , कुलपांसन नरेशों की सूचियां भी पुराणों में हैं। <br />
<br />
===14. मन्वन्तरों का काल===<br />
<br />
1. स्वायंभू मनु ब्रह्मा से 2 पीढी , मन्वंतर काल 238 वर्ष 9,000 से 8,762 वि0पू0।<br />
2. स्वारोचिष ध्रुव पीढी 4: काल 32 वर्ष – 8762 से 8730 वि0पू0।<br />
3. उत्तम ध्रुव का भाई पीढी 4: काल 70 वर्ष – 8730 से 8660 वि0पू0 ।<br />
4. वामन मनु पीढी 6: काल 174 वर्ष – 8660 से 8486 वि0पू0।<br />
5. रैवत मनु पीढी 13: काल 658 वर्ष – 8486 से 7828 वि0पू0।<br />
6. बैवस्वत मनु पीढी 13 : काल 1449 वर्ष – 7828 से 6379 वि0पू0।<br />
7. वैवस्वत मनु पीढी 33 : काल 649 वर्ष : 6379 से 5730 वि0पू0।<br />
8. सावर्णि मनु पीढी 41 , काल 374 वर्ष : 5730 से 5356 वि0पू0।<br />
<br />
उपेक्षित परवर्ती मन्वंतर- अल्प प्रभावी <br />
9. दक्ष सावर्णि पीढी 49 , काल 286 वर्ष : 5356 से 4070 वि0पू0 <br />
(अनुवंशी शिवि का भाई) <br />
10. ब्रह्म सावर्णि पीढी 52 काल 256 वर्ष : 5070 से 4814 वि0पू0।<br />
(रंभवंशी ब्रह्मदेव)<br />
11. धर्म सावर्णि पीढी 56, काल 272 वर्ष : 4814 से 4542 वि0पू0।<br />
(अनुवंशी धर्मरथ)<br />
12. रूद्रसावर्णि पीढी 61 , काल 340 वर्ष : 4542 से 4202 वि0पू0।<br />
13. देव सावर्णि पीढी 66, काल 1270 वर्ष : 4202 से 2932 वि0पू0।<br />
(मधु यादव का पिता देवराट)<br />
14. इन्द्र सावर्णि पीढी 86, काल 1132 वर्ष : 2932 से 1800 वि0पू0।<br />
(अगस्त्य वंशी इहमवाह)<br />
यह क्रम सिद्ध करता है कि महर्षि वेद व्यास के पश्चात् ऐसा कोई सार्वदेशिक अधिकारी शास्त्रकर्ता नहीं हुआ जो उस परम्परा को आगे तक चलाता। इसी कमी से व्यास पश्चात के इतिहास क्षेत्र में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो गयीं , जिनका समाधान अति आवश्यक था। उदाहरण रूप- हमारे धार्मिक संकल्प में "वैवस्वत मन्वंतरे" का कथन, कलियुग का प्रथम चरण अति लम्बा, बौद्ध धर्म के उन्मूलक कल्कि भगवान का स्मरण न किया जाना जिन्होंने पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध प्रभाव से पृथक कर अश्वमेध यज्ञों की पुन: परम्परा स्थापित की । भगवान कल्कि संवत् भी केरल में चालू है किन्तु आगे के विद्वानों ने उधर से पूर्ण उपेक्षा की दृष्टि ही रक्खी। शायद वे परवर्ती किसी रचनाकार को महर्षि वेद व्यास की समता में नहीं रखना चाहते थे। इस उपेक्षा ने धार्मिक साहित्य को सत्य से दूर इतिहासकारों के विचारों से असम्बद्ध तथा अन्धकार के अन्तराल में निक्षेप कर दिया। आश्चर्य है कि आज के मनीषी विद्वान आज भी इधर प्रयास न करके पुरानी भ्रान्ति मूलक विचार शून्य परम्परा को ही पकड़े हुए हैं।<br />
<br />
बाराह कल्प का काल विभाजन<br />
बाराह कल्प की मूल स्थापना – यह गणना पुराणों के मूल पाठ के अनुसार है जिसमें-<br />
चत्वार्याहु सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगन्।<br />
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथा विधम्।।<br />
इतरेषु स संध्येषु संध्यांशेषु ततस्त्रिषु।<br />
एक पादेन हृीयन्ते सहस्त्राणि शतानि च ।। 1 <br />
--- महा भा0 शान्ति 231 <br />
<br />
इसमें सतयुग 4000 वर्ष , त्रेता 3000 वर्ष, द्वापर 2000 वर्ष तथा कलि 1000 वर्ष का कहा है ता इनसे दुगुने सैकड़ों में 800, 600, 400, 200 वर्षों के इनके संध्यांश कहे गये हैं। इनके साथ कहीं-कहीं ’दिव्य’ शब्द का प्रयोग है जो चार प्रकार की संवत्सर पद्धतियों- सौर (दिव्य) , चांद्र (सौम्य), नाक्षत्र और अयन वर्ष में सौर गणना की मान्यता का निर्णायक है। इसे देवों का वर्ष बताकर इस वैज्ञानिक इतिहास स्वीकरणीय पद्धति को अवैज्ञानिक और अविश्वस्त बनाया गया है। इस आधार से यह कल्प विभाजन इस प्रकार है।<br />
बाराह कल्प दिवा भाग—<br />
1. सतयुग 4800 13,800 से 9,000 वि0पू0 तक।<br />
2. त्रेता 3600 9,000 से 5,400 वि0पू0 तक।<br />
3. द्वापर 2400 5,400 से 3,000 वि0पू0 तक।<br />
4. कलि 1200 3,000 से 1,800 वि0पू0 तक।<br />
<br />
1800 वि0पू0 में दिवा कलियुग समाप्ति है तथा रात्रि भाग का आरम्भ है। यह ब्रह्म रात्रि विलोम क्रम से प्रवर्तित होती है क्योंकि रात्रि का धर्म अन्धकार दिवाधर्म प्रकाश के पूर्णत: विपरीत है। रात्रि धर्म के प्रवर्तन से इस काल में चोरी, सुरापान, डाके, अपहरण, व्यभिचार , हत्या, षडयंत्र, अनैतिकता, विलासिता आदि की प्रवृत्ति बढ़ रही है। भौतिक आसुरी विज्ञान अनुक्रम से बृद्धि की ओर अग्रसर है आगे की स्थिति से यह स्पष्ट है---<br />
बाराह कल्प रात्रि भाग ---<br />
1. कलियुग 1200 1800 से 600 वि0पू0।<br />
2. द्वापर 2400 600 वि0पू0 से 1800 विक्रम संवत तक।<br />
3. त्रेता 3600 1800 विक्रमी से 5400 वि0 तक।<br />
4. सतयुग 4800 5400 विक्रमी से 10200 विक्रमी तक ।<br />
इतिहास क्रम से भी यह बात पूर्णत: विश्वस्त सिद्ध होती है । शतायु मानव जीवन की यह यथार्थ स्थिति है।<br />
<br />
युगों का सांस्कृतिक पर्यवेक्षण<br />
बाराह कल्प के युगों की मानव जीवन विकास की ऐतिहासिक विस्तृति इस प्रकार है---<br />
1. दिवा सतयुग 13,800 वि0पू0 से 9,000 वि0पू0 काल ---<br />
<br />
भगवान नील बाराह का अवतार , यज्ञ वेद की आदि स्थापना , हेति प्रहेति, मधुकैटम आदि अज्ञान गर्वित प्रबल असुरों की उत्पत्ति, प्रभुनारायण केशव माधव, पद्मनाभ ब्रह्मा नारायणी नरप्रजा, अग्नि वायु इन्द्र तीन देवों की प्रथम उत्पत्ति , विराट महाविष्णु की उत्पत्ति , विश्व नियंत्रण असुरकर्मा तपोगुणी अपहर्ता प्रचायें, देवसर्ग पृथ्वी जल तेज वायु आकाश के कर्माधिष्ठात्रि देवता, अग्नकिर्मा प्रमथ देवों (माथुरों) की प्रतिष्ठा, ब्रह्मा के 10 पुत्र मरीचि (कश्यप) , अत्रि , अंगिरा, पुलस्त्य , पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद की उत्पत्ति, ब्रह्म वंशों ऋषि गोत्रों की स्थापना, कश्यप वंश का विश्व विस्तृत प्रसारण कश्यप सुरभी से एकादश रूद्र सर्ग (1 वैवस्वान, 2 अर्यमा, 3 पूषा, 4 त्वष्टा, 6 सविता, 7 मित्र , 8 वरूण, 9 अंशुमान, 10 भग, 11 अति तेजा) रूद्रों का सद्योजात रूप में अल्प कालिक विस्तार शतरूद्र, सहस्त्ररूद्र, कोटिरूद्र आदि, रूद्र प्रजासृष्टि भूत प्रेत पिशाच यक्ष राक्षस गंधर्व किन्नर, यातुधान, प्रेत, कूष्मांड भैरव बेताल आदि की उत्पत्ति , रूद्र कार्तिकेय और विनायक सेना में प्रमथों का प्रथम वर्चस्व। <br />
हिरण्यकशिपु हिरण्याक्ष, वाराह नृसिंह प्रहलाद वंश, वामन अवतार नाग कूर्म कमठ कोल आदि जातियोंका उद्भव, बलि का दक्षिण देश पर विशाल साम्राज्य , दैत्य दानवों का वेद विरूद्ध हिंसा प्रधान विषयासक्त समाज विस्तार, माथुर ऋषि दक्ष, अंगिरा, वशिष्ठ, अत्रि, चन्द्रमा, भृगु, बृहस्पति , भारद्वाज आदि की इन्द्रादि देवों द्वारा रक्षा और दान सम्मान अर्चना।<br />
<br />
2. दिवा त्रेता 9,000 से 5,400 वि0पू0 काल ।<br />
स्वायंभूमनु वंश, उत्तानपाद ध्रुव का साम्राज्य ब्रह्मर्षि देश । प्रधान देव क्षेत्र द्युलोक सूरसेन जनपद, माथुरों का सन्मान और स्वांयंभूमनु द्वारा इस प्रदेश के माथुर ब्राह्मणों द्वारा विश्व को सदाचार शिक्षा के गुरू मानने की घोषणा। प्रियव्रत का विश्व महाद्वीप विभाजन, सप्त समुद्रों और सप्त द्वीपों की साम्राज्य इकाइयाँ निर्धारित कर अपने पुत्रों को बाँटना । अग्नीधु को जभ्बू द्वीप हिम वर्ष नाभि वर्ष या अगनाभ वर्ष का सम्राट पद। अग्नीध्र का माथुरों के शिष्यत्व में माथुर क्षेत्र में अग्निध्र आश्रम अड़ींग बन में तप कर जीवन्मुक्त पद प्राप्त करना। वैवस्वत मनु का विश्व प्रजा पालन, देव संस्कृति का महान विस्तार, युवनाश्व वंशी त्रसदस्यु मांधाता का विश्व दस्यु दलन, मथुर में बाराह तीर्थ और विग्रह की स्थापना ता माथुर कुलपुत्र बनकर कुत्स गोत्र का प्रवर पद ग्रहण करना, यह महायुग दिष्ट वंशी मरूत चक्रवर्ती, निमिवंशी प्रतीपक तक चला तथा चन्द्रवंशी संयाति पर इसका अन्त हो गया।</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=Mathura_A_District_Memoir_Chapter-1&diff=56196Mathura A District Memoir Chapter-12010-04-22T13:59:48Z<p>जन्मेजय: नया पन्ना: "THE MODERN DISTRICT; ITS CONFORMATION, EXTENT AND DIVISIONS AT DIFFERENT PERIODS. THE CHARACTER OF THE PEOPLE AND THEIR LANGUAGE. THE PREDOMINANT CASTES; THE JATS AND THE…</p>
<hr />
<div>"THE MODERN DISTRICT; ITS CONFORMATION, EXTENT AND DIVISIONS AT DIFFERENT PERIODS. THE CHARACTER OF THE PEOPLE AND THEIR LANGUAGE. THE PREDOMINANT CASTES; THE JATS AND THEIR ORIGIN; THE CHAUBES; THE AHIVASIS; THE GAURUA THAKURS. THE JAINIS AND THEIR TEMPLES. THE PRINCIPAL FAMILIES; THE SETH; THE RAJA F HATHRAS; THE RAIS OF SADABAD. AGRICULTURAL CLASSIFICATION OF LAND; CANALS; FAMINES; THE DELHI ROAD AND ITS SARAES.<br />
<br />
The modern district of Mathura is one of the five which together make up the Agra Division of the North West Provinces. It has an area of 1,453 square miles, with a population of 671,690, the vast majority of whom,viz., 611,626, are Hindus.<br />
In the year 1803, when its area was first included in British territory, part of it was administered from Agra and part from Sadabad. This arrangement continued till 1832, when the city of Mathura was recognized as the most fitting centre of local government and, superseding the village of Sadabad, gave its name to a new district, comprising eight tahsilis, viz., Aring, Sahar, and Kosi, on the right bank of the Jamuna; and on the left, Mat, Noh-jhil, Mahaban, Sadabad, and Jalesar. In 1860, Mat and Noh-jhil were united, with the former as the head-quarters of the Tahsildar; and in 1868 the revenue offices at Aring were transferred to Mathura, but the general boundaries remained unchanged.<br />
<br />
The district, however, as thus constituted, was of a most inconvenient shape. Its outline was that of a carpenter's square, of which the two parallelograms were nearly equal in extent; the upper one lying due north and south, while the other at right angles to it stretched due eastward below. The capital, situated at the interior angle of junction, was more accessible from the contiguous district of Aligarh and the independent State of Bharat-pur than from the greater part of its own territory. The Jalesar pargana was the most remote of all ; its two chief towns, Awa and Jalesar, being respectively 55 and 43 miles from the local Courts, a greater distance than separated them from the capitals of four other districts.<br />
<br />
This, under any conditions, would have been justly considered an inconvenience, and there were peculiar circumstances which rendered it exceptionally so. The transfer of a very large proportion of the land from the old proprietary village communities to wealthy strangers had created a wide-spread feeling of restlessness and impatience, which was certainly intensified by the remoteness of the Courts and the consequent unwillingness to have recourse to them for the settlement of a dispute in its incipient stages. Hence the frequent occurrence of serious outrages, such as burglaries and highway robberies, which were often carried out with more or less impunity, notwithstanding the number of people that must have been privy to their commission. However willing the authorities of the different districts were to act in concert, investigation on the part of the police was greatly hampered by the readiness with which the criminals could escape across the border and disperse themselves through the five districts of Mathura, Agra, Mainpuri, Eta, and Aligarh. Thus, though a local administrator is naturally jealous of any change calculated to diminish the importance of his charge, and Jalesar was unquestionably the richest portion of the district, still it was generally admitted by each successive Magistrate and Collector that its exchange for a tract of country with much fewer natural advantages would be a most politic and beneficial measure.(read note 1)<br />
<br />
The matter, which had often before been under the consideration of Government, was at last settled towards the close of the year 1874, when Jalesar was finally struck off from Mathura. At first it was attached to Agra; but six years later it was again transferred and joined on to Eta, which was then raised to the rank of a full district. No other territory had been given in compensation till 1879, when 84 villages, constituting the pargana of Farrah, were taken from Agra and added on to the Mathura tahsili. The district has thus been rendered much more manageable and compact. It is now in the shape of an imperfect crescent, with its convex side to the south-west and its horns and hollow centre on the left bank of the river looking upwards to the north-east. The eastern portion is a fair specimen of the land ordinarily found in the Doab. It is abundantly watered, both by wells and rivers, and is carefully cultivated. Its luxuriant crops and fine orchards indicate the fertility of the soil and render the landscape not unpleasing to the eye; but though far the more valuable part of the district for the purposes of the farmer and the economist, it possesses few historical associations to detain the antiquary. On the other hand, the western side of the district, though comparatively poor in natural products, is rich in mythological legend, and contains in the towns of Mathura and Brinda-ban a series of the master-pieces of modern Hindu architecture. Its still greater wealth in earlier times is attested by the extraordinary merit of the few specimens which have survived the torrent of Muhammadan barbarism and the more slowly corroding lapse of time.<br />
<br />
Yet, widely as the two tracts of country differ in character, there is reason to believe that their first union dates from a very early period. Thus, Varaha Mihira, writing in the latter half of the fifth century of the Christian era, seems to speak of Mathura as consisting at that time also of two very dissimilar portions For, in the 16th section of the Brihat Sanhita, he includes its eastern half, with all river lands (such as is the Doab), under the protection of the planet Budha—that is, Mercury ; and the western half, with the Bharatas and Purohits and other managers of religious ceremonies (classes which still to the present day form the mass of the population of western Mathura, and more particularly so if the Bharatas are taken to mean the Bharat-pur Jats) under the tutelage of Jiva--that is, Jupiter. The Chinese pilgrim, Hwen Thsang, may also be adduced as a witness to the same effect. He visited India in the. seventh century after Christ, and describes the circumference of the kingdom of Mathura as 5,000 li i.e., 950 miles, taking the Chinese li as not quite one-fifth of an English mile. The people, he says, are of a soft and easy nature and delight to perform meritorious works with a view to a future life. The soil is rich and fertile and specially adapted to the cultivation of grain. Cotton staffs of fine texture are also here obtainable and gold; while the mango trees (read note 2) are so abundant that they form complete forests-the fruit being of two varieties, a smaller kind, which turns yellow as it ripens, and a larger, which remains always green. From this description it would appear that the then kingdom of Mathura extended east of the capital along the Doab in the direction of Mainpuri; for there the mango flourishes most luxuriantly and almost every village boasts a fine grove; whereas in Western Mathura it will scarcely grow at all except under the most careful treatment. In support of this inference it may be observed that, notwithstanding the number of monasteries and stupas mentioned by the Buddhist pilgrims as existing in the kingdom of Mathura, comparatively few traces of any such buildings have been discovered in the modern district, except in the immediate neighbourhood of the capital. In Mainpuri, on the contrary, and more especially on the side where it is nearest to Mathura, fragments of Buddhist sculpture may be seen lying in almost every village. In all probability the territory of Mathura at the time of Hwen -Thsang's visit, included not only the eastern half of the modem district, but also some small part of Agra and the whole of the Shikohabad and Mustafabad parganas of Mainpuri; while the remainder of the present Mainpuri district formed a portion of the kingdom of Sankasya, which extended to the borders of Kanauj. But all local recollection of this exceptional period has absolutely perished, and the mutilated effigies of Buddha and Maya are replaced on their pedestals and adored as Brahma and Devi by the ignorant villagers, whose forefathers, after long struggles, had triumphed in their overthrow.<br />
<br />
In the time of the Emperor Akbar the land now included in the Mathura district formed parts of three different Sarkars, or Divisions—viz., Agra, Kol, and Sahar.<br />
<br />
The Agra Sarkar comprised 33 mahals, four of which were Mathura, Maholi, Mangotla, and Maha-ban. Of these, the second, Maholi, (the Madhupuri of Sanskrit literature) is now quite an insignificant village and is so close to the city as almost to form one of its suburbs. The third, Mangotla or Magora, has disappeared altogether from the revenue-roll, having been divided into four pattis or shares, which are now accounted so many distinct villages. The fourth, Maha-ban, in addition to its present area, included some ten villages of what is now the Sadabad pargana and the whole of Mat; while Noh –jhil, lately united with Mat was at that time the centre of pargana Noh (read note 3) which was included in the Kol Sarkar.The Sadabad (read note 4) pargana had no independent existence till the reign of Shahjahan, when his famous minister, Sadullah Khan, founded the town which still bears his name, and subordinated to it all the surrounding country, including part of Khandauli, which is now in the Agra district.<br />
<br />
The Sahar Sarkar consisted of seven mahals, or parganas, and included the territory of Bharat-pur. Its home pargana comprised a large portion of the modern Mathura district, extending from Kosi and Shergarh on the north to Aring on the south. It was not till after the dissolution of the Muhammadan power that Kosi was formed by the Jats into a separate pargana ; as also was the case with Shahpur, near the Gurganw border, which is now merged again in Kosi. About the same unsettled period a separate pargana was formed of Gobardhan. Subsequently, Sahar dropped out of the list of Sarkars, altogether; great part of it, including its principal town, was subject to Bharat-pur, while the remainder came under the head of Mathura then called Islampur or Islamabad. Since the mutiny, Sahar has ceased to give a name even to a pargana ; as the head-quarters of the Tahsildar were at that time removed, for greater safety, to the large fort-like sarae at Chhata.<br />
<br />
As might be expected from the almost total absence of the Muhammadan element in the population, the language of the people, as distinct from that of the official classes, is purely Hindi. In ordinary speech 'water' is jal ; ' land' is dharti; 'a father,' pita; ‘grandson,' nati (from the Sanskrit naptri),and 'time' is often ‘samay’.Generally speaking, the conventional Persian phrases of compliment are represented by Hindi equivalents, as for instance, ikbal by pratap and tashrlf lana by kripa krana . The number of words absolutely peculiar to the district is probably very small; for Braj Bhasha (and Western Mathura is coterminous with Braj), is the typical form of Hindi, to which other local varieties are assimilated as far as possible. A short list of some expression that might strike a stranger as unusual has been prepared and will be found in the Appendix. In village reckonings, the Hindustani numerals, which are of singularly irregular formation and therefore difficult to remember, seldom employed in their integrity, and any sum above 20, except round numbers, is expressed by a periphrasis—thus, 75 it not pachhattar, but panch ghat assi, i.e., 80—5 ; and 97 is not suttanawe but tin ghat eau, i.e., 100-3. In pronunciation there are some noticeable deviations from established usage; thus, let s is substituted for sh, as in samil for shamil ; sumar for shumar : 2nd, ch takes the place of s as in Chita for Sita, and occasionally vice versa; as in charsa for church: and 3rd, in the vowels there is little or no distinction between a and i, thus we have Lakshmin for Lakshman The prevalence of this latter vulgarism explains the fact of the word Brahman being ordinarily spelt in English as Brahmin. It is still more noticeable in the adjoining district of Mainpuri; where, too, a generally becomes 0, as chalo gayo, “he went," for chala gaya-a provincialism equally common in the mouths of the Mathura peasants. It may also, as a grammatical peculiarity, be remarked that kari, the older form of the past participle of the verb karna, 'to do,' is much more popular than its modern abbreviation, ki; ne, which is now generally recognized as the sign of the agent, is sometimes used in a very perplexing way, for what it originally was, viz., the sign of the dative; and the demonstrative pronouns with the open vowel terminations, ta and wa, are always preferred to the sibilant Urdu forms is and us. As for Muhammadan proper names, they have as foreign a sound and are as much corrupted as English; for example, Wazir-ud-din, Hidayat-ullah and Taj Muhammad would be known in their own village only as Waju, Hatu and Taju, and would themselves be rather shy about claiming the longer title; while Mauja, which stands for the Arabic Mauj-ud-din, is transformed so completely that it is no longer recognized as a specially Muhammadan name and is often given to Hindus.</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=Mathura_A_District_Memoir&diff=56195Mathura A District Memoir2010-04-22T13:51:08Z<p>जन्मेजय: नया पन्ना: MATHURA A DISTRICT MEMOIR AUTHOR - F.S.GROWSE</p>
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<div>MATHURA<br />
<br />
A<br />
<br />
DISTRICT MEMOIR<br />
<br />
AUTHOR - F.S.GROWSE</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%82&diff=56192पुस्तकें2010-04-22T13:42:23Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div><div><br />
== पुस्तकें / Books ==<br />
<br />
{| class="books" width="100%" cellpadding="5" cellspacing="10"<br />
|-<br />
| <big>'''[[गीता|श्रीमद् भागवत् गीता / Shreemadbhagwat Gita]]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Gita-1.jpg|center|300px|link=गीता]]<br />
|-<br />
| <big>'''[http://books.braj.org/growse/grouse-intro.html Mathura - A District Memoir by -F.S. Growse]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Growse.jpg|center|link=http://books.braj.org/growse/grouse-intro.html]]<br />
|-<br />
| <big>'''[http://books.braj.org/brockman_book/brmn_gen_fr1.html MATHURA A GAZETTEER by - D.L. Drake - Brockman]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Gazetteer.jpg|center|link=http://books.braj.org/brockman_book/brmn_gen_fr1.html]]<br />
|-<br />
| <big>'''[[चतुर्वेदी इतिहास 1|चतुर्वेदी इतिहास लेखक - बालमुकुन्द चतुर्वेदी 'विद्यावारिध]]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Chaturvedi.jpg|center|link=चतुर्वेदी इतिहास 1]]<br />
|-<br />
| <big>'''[http://books.braj.org/jai-keshav-book/jai_keshav_hi1.html जय केशव लेखक - सत्येन्दु याज्ञवल्क्य]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Jai-keshav.jpg|center|link=http://books.braj.org/jai-keshav-book/jai_keshav_hi1.html]]<br />
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<div><div><br />
== पुस्तकें / Books ==<br />
<br />
{| class="books" width="100%" cellpadding="5" cellspacing="10"<br />
|-<br />
| <big>'''[[गीता|श्रीमद् भागवत् गीता / Shreemadbhagwat Gita]]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Gita-1.jpg|center|300px|link=गीता]]<br />
|-<br />
| <big>'''[http://books.braj.org/growse/grouse-intro.html Mathura - A District Memoir by -F.S. Growse]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Growse.jpg|center|link=http://books.braj.org/growse/grouse-intro.html]]<br />
|-<br />
| <big>'''[http://books.braj.org/brockman_book/brmn_gen_fr1.html MATHURA A GAZETTEER by - D.L. Drake - Brockman]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Gazetteer.jpg|center|link=http://books.braj.org/brockman_book/brmn_gen_fr1.html]]<br />
|-<br />
| <big>'''[http://books.braj.org/chaturvedi-history/chaturvedi-history-hi1.html चतुर्वेदी इतिहास लेखक - बालमुकुन्द चतुर्वेदी 'विद्यावारिध]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Chaturvedi.jpg|center|link=चतुर्वेदी इतिहास 1]]<br />
|-<br />
| <big>'''[http://books.braj.org/jai-keshav-book/jai_keshav_hi1.html जय केशव लेखक - सत्येन्दु याज्ञवल्क्य]'''</big> <br />
| <br />
| [[Image:Jai-keshav.jpg|center|link=http://books.braj.org/jai-keshav-book/jai_keshav_hi1.html]]<br />
|}<br />
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<div></div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%96%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B5-%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7&diff=35408रसखान का भाव-पक्ष2010-01-19T00:37:58Z<p>जन्मेजय: </p>
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<div>{{Menu}}<br />
{{रसखान}}<br />
<br />
==रसखान का भाव-पक्ष==<br />
<br />
'''रस'''<br />
<br />
सहृदयों के हृदय में वासना या मनोविकार के रूप में वर्तमान रति आदि स्थायी भाव ही विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के द्वारा व्यक्त होकर रस बन जाते हैं।<ref>विभावेनानुभावेन व्यक्त: संचारिणा तथा रसतामैति इत्यादि स्थायीभाव: सचेतसाम्॥ साहित्य दर्पण, पृ0 99</ref> दूसरे शब्दों में विभाव-आलंबन विभाव, उद्दीपन विभाव, अनुभाव और संचारी भाव और स्थायी भाव ही रस के अंग हैं। रसखान के काव्य में भावपक्ष के अंतर्गत आलम्बन-निरूपण,नायिका-भेद, संचारी भाव, उद्दीपन विभाव आदि का वर्णन है<br />
==आलम्बन निरूपण==<br />
आलंबन विभाव का अभिप्राय काव्य-नाट्य-वर्णित नायक-नायिका आदि से है क्योंकि उन्हीं के सहारे सामाजिकों के हृदय में रस का संचार हुआ करता है। रसखान के काव्य में आलंबन श्री [[कृष्ण]], [[गोपी|गोपियां]] एवं [[राधा]] हैं। 'प्रेम वाटिका' में यद्यपि प्रेम सम्बन्धी दोहे हैं, किन्तु रसखान ने उसके माली कृष्ण और मालिन राधा ही को चरितार्थ किया है। रसखान आलम्बन-निरूपण में पूर्ण सफल हुए हैं। वे गोपियों का वर्णन भी उसी तन्मयता के साथ करते हैं जिस तन्मयता के साथ कृष्ण का। संपूर्ण 'सुजान रसखान' में गोपियों एवं राधा को आलंबन (कृष्ण) के स्वरूप से प्रभावित दिखाया है। <br />
<br />
==नायक==<br />
भारतीय काव्य-शास्त्र के अनुसार काव्यलंबन नायक वह माना गया है जो त्याग भावना से भरा हो, महान कार्यों का कर्ता हो, कुल का महान हो, बुद्धि-वैभव से संपन्न हो, रूप-यौवन और उत्साह की संपदाओं से संपन्न हो, निरन्तर उद्योगशील रहने वाला हो, जनता का स्नेहभाजन हो और तेजस्विता, चतुरता किंवा सुशीलता का निदर्शक हो। रसखान के काव्य के नायक श्रीकृष्ण हैं, जो महान कार्यों के कर्ता, उच्च कुल में उत्पन्न बुद्धि, वैभव से संपन्न, रूप यौवन उत्साह की संपदाओं से सुशोभित, गोपियों के स्नेहभाजन, तेजस्वी और सुशील हैं। रसखान के नायक में नायकोचित लगभग सभी गुण मिलते हैं। नायक के महान कार्यों की चर्चा मिलती है। [[द्रौपदी]], गणिका, गज, गीध, [[अजामिल]] का रसखान के नायक ने उद्धार किया। [[अहिल्या]] को [[तारा]], [[प्रह्लाद]] के संकटों का नाश किया।<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon> केवल यही नहीं, उन्होंने उत्साहपूर्वक [[कालिय नाग|कालिय दमन]] तथा [[कुवलयापीड़|कुवलया वध]] भी किया।<balloon title="सुजान रसखान, 200, 201, 202" style=color:blue>*</balloon> रसखान ने अपने नायक के महान कार्यों के साथ-साथ उनके रूप यौवन की भी चर्चा की है। गोपियों ने उनके रूप से प्रभावित होकर लोकमर्यादा तक को त्याग दिया। कृष्ण के रूप यौवन का प्रभाव असाधारण है। गोपी बेबस होकर लोक मर्यादा त्यागने पर विवश हो जाती हैं-<br /><br />
अति लोक की लाज समूह मैं छोरि कै राखि थकी बहुसंकट सों।<br /> <br />
पल में कुलकानि की मेड़ नखी नहिं रोकी रुकी पल के पट सों॥<br /><br />
रसखानि सु केतो उचाटि रही उचटी न संकोच की औचट सों।<br /><br />
अलि कोटि कियौ हटकी न रही अटकी अंखियां लटकी लट सों।<balloon title="सुजान रसखान, 175" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
रसखान ने अपने नायक के रूप-यौवन की चर्चा अनेक पदों में की है। रूप यौबन के अतिरिक्त उनकी चेष्टाएं, मधुर मुस्कान भी मन को हर लेती हैं।<br /><br />
मैन मनोहर बैन बजै सुसजे तन सोहत पीत पटा है।<br /> <br />
यौं दमकै चमकै झमकै दुति दामिनि की मनो स्याम घटा है।<br /><br />
ए सजनी ब्रजराजकुमार अटा चढ़ि फेरत लाल बटा है।<br /><br />
रसखानि महामधुरी मुख की मुसकानि करै कुलकानि कटा है।<balloon title="सुजान रसखान, 172" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
रसखान ने कृष्ण के प्रेममय रूप का निरूपण अनेक पदों में किया है। उन्हें राधा के पैर दबाते हुए दिखाया है<balloon title="सुजान रसखान, 17" style=color:blue>*</balloon> तथा गोपियों के आग्रह पर छछिया भरी छाछ पर भी नाचते हुए दिखाया है। सर्वसमर्थ होकर भी कृष्ण अपनी प्रेयसी गोपियों के आनंद के लिए इस प्रकार का व्यवहार करते हैं। जिससे सिद्ध होता है कि वे प्रेम के वशवर्ती हैं। अत: रसखान द्वारा निरूपित नायक में लगभग उन सब विशेषताओं का सन्निवेश है जो भारतीय काव्यशास्त्र के अंतर्गत गिनाई गई हैं। उनमें शौर्य, रूप, यौवन और उत्साह है। <br />
==नायिका==<br />
नायिका से अभिप्राय उस स्त्री से है जो यौवन, रूप, कुल, प्रेम, शील, गुण, वैभव और भूषण से सम्पन्न हो। रसखान प्रेमोन्मत्त भक्त कवि थे। उन्होंने अपनी स्वच्छंद भावना के अनुकूल कृष्ण प्रेम का चित्रण अपने काव्य में किया। इसीलिए रसखान का नायिका-भेद वर्णन न तो शास्त्रीय विधि के अनुरूप ही है और न ही किसी क्रम का उसमें ध्यान रखा गया है। कृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम-वर्णन में नायिका-भेद का चित्रण स्वाभाविक रूप से हो गया है।<br /><br />
'''नायिका भेद'''<br /><br />
नायिका भेद की परंपरा के दर्शन [[संस्कृत]]-साहित्य तथा संस्कृत-काव्य-शास्त्र में होते हैं। नायिकाएं तीन प्रकार की बताई हैं- <br />
#स्वकीया, <br />
#परकीया एवं <br />
#सामान्य। <br />
इसके अतिरिक्त भी नायिका के जाति, धर्म, दशा एवं अवस्थानुसार अनेक भेद किए गए हैं।<ref><br />
*जाति के अनुसार नायिका के चार भेद किए गए हैं- <br />
#पदमिनी, <br />
#चित्रिणी, <br />
#शंखिनी, <br />
#हस्तिनी। <br />
*धर्म के अनुसार तीन प्रकार की नायिकाएँ मानी गई हैं- <br />
#गर्विता, <br />
#अन्यसंभोगदु:खिता, <br />
#मानवती। <br />
*अवस्था के अनुसार नायिका के दस भेद किए गए हैं- <br />
#स्वाधीनपतिका, <br />
#वासकसज्जा, <br />
#उत्कंठिता, <br />
#अभिसारिका, <br />
#विप्रलब्धा, <br />
#खंडिता, <br />
#कलहांतरिता, <br />
#प्रवत्स्यत्प्रेयसी, <br />
#प्रोषितपतिका, <br />
#आगतपतिका। - ब्रजभाषा साहित्य में नायिका भेद, पृ0 219</ref> प्रेमोमंग के कवि से नायिका भेद के सागर में गोते लगाकर समस्त भेदोपभेद निरूपण की आशा करना निरर्थक ही होगा, क्योंकि इन्होंने गोपियों के स्वरूप को अधिक महत्त्व न देकर उनकी भावनाओं को ही अधिक महत्त्व दिया है। फिर भी गोपियों के निरूपण में कहीं-कहीं नायिका भेद के दर्शन हो जाते हैं।<br /> <br />
'''परकीया नायिका'''<br /><br />
जो नायिका पर पुरुष से प्रीति करे, उसे परकीया कहते हैं। रसखान के काव्य में निरूपित गोपियां पर स्त्री हैं। पर पुरुष कृष्ण प्रेम के कारण वे परकीया नायिका कहलाएंगी। रसखान ने अनेक पदों में<balloon title="सुजान रसखान, 203, 139, 178, 74, 81, 126" style=color:blue>*</balloon> उनका सुंदर निरूपण किया है। उन्होंने परकीया नायिका के चित्रण में नायिकाओं की लोक लाज तथा अपने कुटुंबियों के भय से उनकी वेदनामयी स्थिति और प्रेमोन्माद का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रण किया है-<br /><br />
काल्हि भट् मुरली-धुनि में रसखानि लियो कहुं नाम हमारौ।<br /> <br />
ता छिन तैं भई बैरिनि सास कितौ कियौ झांकत देति न द्वारौ।<br /> <br />
होत चवाव बलाइ सों आली री जौ भरि आँखिन भेंटियै प्यारो।<br /><br />
बाट परी अबहीं ठिठक्यौ हियरे अटक्यौ पियरे पटवारी॥<balloon title="सुजान रसखान, 99" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
'''परकीया नायिका के भेद'''<br /><br />
परकीया नायिका के दो भेद माने गए है<balloon title="साहित्य-दर्पण पृ0 166" style=color:blue>*</balloon>- <br />
#अनूठा और <br />
#ऊढ़ा। <br />
रसखान ने ऊढ़ा नायिका का वर्णन किया है। परकीया के अवस्थानुसार छ: भेद होते हैं- <br />
#मुदिता, <br />
#विदग्धा, <br />
#अनुशयना, <br />
#गुप्ता, <br />
#लक्षिता, <br />
#कुलटा। <br />
इनमें से रसखान ने ऊढ़ा मुदिता और विदग्धा का ही चित्रण किया है।<br /> <br />
'''ऊढ़ा'''<br /><br />
ऊढ़ा वह नायिका है जो अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष से प्रेम करे रसखान ने इस पद में ऊढ़ा का वर्णन किया है—<br /><br />
'औचक दृष्टि परे कहूँ कान्ह जू तासों कहै ननदी अनुरागी।<br /> <br />
सौ सुनि सास रही मुख मोरि, जिठानी फिरै जिय मैं रिस पागी।<br /><br />
नीके निहारि कै देखै न आँखिन, हों कबहूँ भरि नैन न जागी।<br /> <br />
मा पछितावो यहै जु सखी कि कलंक लग्यौ पर अंक न 'लागी।<balloon title="सुजान रसखान, 138" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
'''मुदिता'''<br /><br />
यह परकीया के अवस्थानुसार भेदों में से एक है। पर-पुरुष-मिलन-विषयक मनोभिलाषा की अकस्मात पूर्ति होते देखकर जो नायिका मुदित होती है उसे मुदिता कहते हैं। रसखान ने भी नायिका की मोदावस्था का सुंदर चित्रण किया है—<br /><br />
'जात हुती जमना जल कौं मनमोहन घेरि लयौ मग आइ कै।<br /><br />
मोद भरयौ लपटाइ लयौ, पट घूंघट टारि दयौ चित चाइ कै।<br /><br />
और कहा रसखानि कहौं मुख चूमत घातन बात बनाइ कै।<br /> <br />
कैसें निभै कुलकानि रही हिये साँवरी मूरति की छबि छाइ।<balloon title="सुजान रसखान, 36" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
'''विदग्धा'''<br /><br />
चतुरतापूर्वक पर पुरुषानुराग का संकेत करने वाली नायिका को विदग्धा कहते हैं। विदग्धा के दो भेद होते हैं-<br /> <br />
#वचनविदग्धा और <br />
#क्रियाविदग्धा।<br /> <br />
'''वचनविदग्धा नायिका'''<br /><br />
जो नायिका वचनां की चतुरता से पर पुरुषानुराग विषयक कार्य को संपन्न करना चाहे उसे 'वचनविदग्धा' कहते हैं। रसखान की गोपियाँ अनेक स्थानों पर वचन चातुर्य से काम लेती हैं-<br /><br />
छीर जौ चाहत चीर गहें अजू लेउ न केतिक छीर अचैहौ।<br /> <br />
चाखन के मिस माखन माँगत खाउ न माखन केतिक खैहौ।<br /><br />
जानति हौं जिय की रसखानि सु काहे कौं एतिक बात बढ़ैहौ।<br /> <br />
गोरस के मिस जो रस चाहत सो रस कान्हजू नेकु न पैहौ।<balloon title="सुजान रसखान, 42" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
यहां गोपियों ने वचनविदग्धता द्वारा अपनी इच्छा का स्पष्टीकरण कर दिया है।<br /> <br />
'''क्रियाविदग्धा'''<br /><br />
जो नायिका क्रिया की चतुरता से पर-पुरुषानुराग विषयक कार्य को सम्पन्न करना चाहे, उसे क्रियाविदग्धा कहते हैं। रसखान ने निम्नलिखित पद में क्रिया विदग्धा नायिका का सुंदर चित्रण किया है-<br /><br />
खेलै अलीजन के गन मैं उत प्रीतम प्यारे सौं नेह नवीनो।<br /> <br />
बैननि बोध करै इत कौं, उत सैननि मोहन को मन लीनो।<br /><br />
नैननि की चलिबी कछु जानि सखी रसखानि चितैवे कों कीनो।<br /><br />
जा लखि पाइ जँभाई गई चुटकी चटकाइ बिदा करि दीनो।<balloon title="सुजान रसखान, 116" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
'''दशानुसार नायिकाएँ'''<br /><br />
नायिका के दशानुसार तीन भेदों- <br />
#गर्विता <br />
#अन्य संभोग दु:खिता एवं <br />
#मानवती में से रसखान के काव्य में अन्य संभोग दु:खिता तथा मानवती नायिका का चित्रण मिलता है।<br /> <br />
'''अन्य संभोग दु:खिता'''<br /><br />
अन्य स्त्री के तन पर अपने प्रियतम के प्रीति-चिह्न देख कर दु:खित होने वाली नायिका को 'अन्य संभोग दु:खित' कहते हैं रसखान ने भी अन्य संभोग दु:खिता नारी का चित्रण किया है।<br /><br />
काह कहूँ सजनी सँग की रजनी नित बीतै मुकुंद कों हेरी।<br /> <br />
आवन रोज कहैं मनभावन आवन की न कबौं करी फेरी।<br /> <br />
सौतिन-भाग बढ्यौ ब्रज मैं जिन लूटत हैं निसि रंग घनेरी।<br /> <br />
मो रसखानि लिखी बिधना मन मारि कै आपु बनी हौं अँहेरी॥<balloon title="सुजान रसखान, 106" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
'''मानवती'''<br /><br />
अपने प्रियतम को अन्य स्त्री की ओर आकर्षित जानकर ईर्ष्यापूर्वक मान करने वाली नायिका ''मानवती'' कहलाती है। रसखान ने मानिनी नायिका का चित्रण तीन पदों में किया है। दूती नायिका को समझा रही है कि मेरे कहने से तू मान को त्याग दे। तुझे बसंत में मान करना किसने सिखा दिया।<balloon title="सुजान रसखान, 113" style=color:blue>*</balloon> अगले पद्य में वह कृष्ण की सुंदरता एवं गुणों का बखान करके अंत में कहती है कि तुझे कुछ नहीं लगता। न जाने किसने तेरी मति छीनी है।<balloon title="सुजान रसखान, 114" style=color:blue>*</balloon> पुन: नायिका को समझाती हुई कहती है कि मान की अवधि तो आधी घड़ी है, तू मान त्याग दे-<br /><br />
मान की औधि है आधि घरी अरी जौ रसखानि डरै हित के डर,<br /> <br />
कै हित छोड़ियै पारियै पाइनि ऐसे कटाछनहीं हियरा-हर। <br /><br />
मोहनलाल कों हाल बिलोकियै नेकु कछू किनि छूबेकर सौं कर,<br /> <br />
नां करिबे पर वारे हैं प्रान कहा करिहैं अब हां करिबे पर।<balloon title="सुजान रसखान, 115" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
रसखान ने मानिनी नायिका के मान का स्वाभाविक चित्रण किया है। नायिका को समझाया जा रहा है कि तू किसी प्रकार मान त्याग दे। <br /><br />
'''अवस्थानुसार नायिकाएं'''<br /> <br />
अवस्थानुसार नायिका के दस भेद माने गए हैं जिनमें से दो की चर्चा रसखान ने की है- <br />
#आगतपतिका तथा <br />
#प्रोषितपतिका।<br /> <br />
'''आगतपतिका'''<br /><br />
अपने प्रियतम के आगमन पर प्रसन्न होने वाली नायिका 'आगतपतिका' कहलाती है। रसखान ने आगतपतिका नायिका का चित्रण बहुत ही सुंदर तथा भावपूर्ण ढंग से किया है-<br /><br />
नाह-बियोग बढ्यौ रसखानि मलीन महा दुति देह तिया की।<br /> <br />
पंकज सों मुख गौ मुरझाई लगीं लपटैं बरि स्वांस हिया की।<br /> <br />
ऐसे में आवत कान्ह सुने हुलसैं तरकीं जु तनी अंगिया की। <br /><br />
यौ जगाजोति उठी अंग की उसकाइ दई मनौ बाती दिया की।<balloon title="सुजान रसखान, 117" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
नायिका विरह-पीड़ित है किन्तु कृष्ण के आगमन से उसकी पीड़ा समाप्त हो जाती है और उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता। जैसे दीपक की बत्ती बढ़ाने से प्रकाश बढ़ जाता है वैसे ही प्रिय के आगमन से नायिका का शरीर प्रफुल्लित हो उठता है।<br /> <br />
'''प्रोषितपतिका'''<br /><br />
प्रियतम के वियोग से दु:खित विरहिणी नायिका को प्रोषितपतिका कहते हैं। रसखान के काव्य में प्रोषितपतिका नायिका के अनेक उदाहरण मिलते हैं-<br /><br />
उनहीं के सनेहन सानी रहैं उनहीं के जु नेह दिवानी रहैं।<br /> <br />
उनहीं की सुनैं न औ बैन त्यौं सैन सों चैन अनेकन ठानी रहैं।<br /> <br />
उनहीं सँग डोलन मैं रसखानि सबै सुख सिंधु अघानी रहैं।<br /> <br />
उनहीं बिन ज्यौं जलहीन ह्वै मीन सी आँखि मेरी अँसुवानी रहैं।<balloon title="सुजान रसखान, 74" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
निम्न पद में परकीया मध्या प्रोषितपतिका का चित्रण किया गया है—<br /><br />
औचक दृष्टि परे कहूँ कान्ह जू तासों कहै ननदी अनुरागी।<br /> <br />
सो सुनि सास रही मुख मोरि, जिठानी फिरै जिय मैं रिस पागी।<br /> <br />
नीकें निहारि कै देखे न आंखिन, हों कबहूँ भरि नैन न जागी।<br /> <br />
मो पछितावो यहै जु सखी कि कलंक लग्यौ पर अंक न लागी॥<balloon title="सुजान रसखान, 138" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
रसखान के काव्य में प्रोषितपतिका नायिका का निरूपण कई स्थानों पर मिलता है।<br /> <br />
'''वय:क्रम से नायिका'''<br /> <br />
वय:क्रम से नायिका के तीन भेद माने गए हैं- <br />
#मुग्धा, <br />
#मध्या, <br />
#प्रौढ़ा। <br />
रसखान ने मुग्धा नायिका का वर्णन किया है।<br /> <br />
'''मुग्धा'''<br /><br />
जिसके शरीर पर नव यौवन का संचार हो रहा हो, ऐसी लज्जाशीला किशोरी को 'मुग्धा नायिका' कहते हैं। रसखान ने मुग्धा नायिका की वय:संधि अवस्था का सुंदर चित्र खींचा है-<br />
बांकी मरोर गही भृकुटीन लगीं अँखियाँ तिरछानि तिया की।<br /> <br />
टांक सी लांक भई रसखानि सुदामिनि ते दुति दूनी हिया की।<br /> <br />
सोहैं तरंग अनंग की अंगनि ओप उरोज उठी छतिया की।<br /> <br />
जोबन-जोति सु यौं दमकै उसकाई दई मनो बाती दिया की।<balloon title="सुजान रसखान, 51" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
जिस प्रकार कृष्ण काव्य में परकीया नायिकाओं को विशेष गौरव दिया गया है, उसी प्रकार रसखान ने भी परकीया वर्णन को महत्त्व दिया। इसके तीन प्रधान की सफलता के लिए भावों का मार्मिक चित्रण आवश्यक है।<br />
#रति भाव की जितनी अधिक मार्मिकता और तल्लीनता परकीया प्रेम में संभव है उतनी स्वकीया प्रेम में नहीं। <br />
#दूसरा कारण यह है कि परकीया प्रेम का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। उसमें प्रेम के विभिन्न रूपों और परिस्थितियों के वर्णन का अवकाश रहता है। इस प्रकार कवि को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का असीम अवसर मिलता है। <br />
#तीसरा कारण है लीलावतारी कृष्ण का मधुर रूप। कृष्ण परब्रह्म परमेश्वर है और गोपियां जीवात्माएं हैं। अनंत जीवात्माओं के प्रतीक रूप में अनंत गोपियों का चित्रण अनिवार्य था। अतएव कृष्ण भक्त श्रृंगारी कवियों ने सभी गोपियों के प्रति कृष्ण (भगवान) के स्नेह की और कृष्ण के प्रति सभी गोपियों के उत्कट अनुराग की व्यंजना के लिए परकीया-प्रेम का विधान किया। यहां तक कि उनके काव्य में स्वकीया का कहीं भी चित्रण नहीं हुआ। परकीया नायिका निरूपण के अंतर्गत रसखान ने ऊढ़ा मुदिता, क्रियाविदग्धा, वचनविदग्धा अन्यसंभोगदु:खिता, मानवती, आगतपतिका, प्रोषितपतिका एवं मुग्धा आदि नायिकाओं का चित्रण किया है। रसखान का उद्देश्य नायिका-भेद निरूपण करना नहीं था अतएव उन्होंने गोपियों के संबंध से कृष्ण का वर्णन करते हुए प्रसंगानुसार नायिकाओं के बाह्य रूप एवं उनकी अंतर्वृत्तियों का चित्रण किया है। <br />
==उद्दीपन विभाव==<br />
जो रति आदि स्थायी भावों को उद्दीप्त करते हैं, उनकी आस्वाद योग्यता बढ़ाते हैं, वे 'उद्दीपन विभाव' कहलाते है। 'उद्दीपन विभाव' उन्हें कहते हैं जो किसी रस को उद्दीप्त करते हैं। उद्दीपन विभाव प्रत्येक रस के अपने होते हैं। श्रृंगार रस के उद्दीपन सखी, सखा, दूती, षड्ऋतु, वन उपवन, चंद्र, चांदनी, पुष्प, नदी , तट, चित्र आदि होते हैं। नायक-नायिका की चेष्टाएं भी रस को उद्दीप्त करती हैं। रसखान के काव्य में उद्दीपन विभाव प्रकृति का खुला प्रांगण हे। उनके नायक कृष्ण की समस्त लीलाएं प्रकृति के रमणीय क्षेत्र में हुईं। [[गोकुल]] के बाग, तड़ाग, कुंज-गली आदि उद्दीपन हैं। <br /><br />
'वन बाग तड़ागनि कुंजगली अँखियाँ सुख पाइहैं देखि दई। <br /><br />
अब गोकुल माँझ विलोकियैगी वह गोप सभाग सुभाय रई।<br /> <br />
मिलिहै हँसि गाइ कबै रसखानि कबै ब्रजबालनि प्रेममई।<br /> <br />
वह नील निचोल के घूँघट की छवि देखबी देखन लाजलई।<balloon title="सुजान रसखान, 88" style=color:blue>*</balloon><br />
कृष्ण की कामदेव के समान नवरंगी छवि, उनकी बातें बातें सब उद्दीपन कार्य कर रही हैं- भाल पगिया, सुगंधित वस्त्र, सुगंधित वस्त्र, अंगों में जड़ाऊ नगीने, मुक्तामाल ये सब गोपियों में श्रृंगार रस को उद्दीप्त करते हैं।<br /> <br />
लाल लसैं पगिया सबके, सब के पट कोटि सुगंधनि भीने।<br /> <br />
अँगनि अंग सजे सब ही रसखानि अनेक जराउ नवीने। <br /><br />
मुक्ता-गलमाल लसै सब के सब ग्वार कुमार सिंगार सो कीने।<br /> <br />
पै सिगरे ब्रज के हरि हीं हरि ही कै हरैं हियरा हरि लीने॥<balloon title="सुजान रसखान, 137" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
खंजन, मीन, सरोज के मद को हरने वाले बड़े-बड़े नयन, कुंजों में मुस्काते पान खाते अमृत वचन बोलते कृष्ण का स्वरूप एवं चेष्टाएं उद्दीपन-कार्य कर रही हैं।<balloon title="सुजान रसखान, 31" style=color:blue>*</balloon> रसखान के काव्य में उद्दीपन मुरलीवट का तट<balloon title="सुजान रसखान, 35" style=color:blue>*</balloon>, कुंजगली<balloon title="सुजान रसखान, 28" style=color:blue>*</balloon>, मुरली ध्वनि<balloon title="सुजान रसखान, 55" style=color:blue>*</balloon>, मधुर मुस्कान, मोरपंखा, पीतपटा, वन और कुंडल आदि हैं। रसखान का उद्देश्य कृष्ण-विषयक रागात्मिका वृत्ति की अभिव्यक्ति और कृष्ण का विविध रूपों में चित्रण करना था। विभिन्न वृत्तियों के हृदयस्पर्शी उपचय और लीलाओं की प्रभावशालिता के लिए उद्दीपनकारी वातावरण की सृष्टि अनिवार्य है। आलंबन के कारण जाग्रत भाव उद्दीपन विभावों के अभावों में रसात्मक नहीं हो सकता। कृष्ण के चित्रण को हृदयग्राही रूप देने के लिए उनकी चेष्टाओं, उनकी लीलाओं को सरस बनाने वाले वातावरण आदि का चित्रण अपेक्षित है। [[बांसुरी|वंशी]]वट का उनकी क्रीड़ाओं से महत्त्वपूर्ण संबंध है। यमुना तट उनका परंपरा प्रसिद्ध लीलास्थल है। मुरली की तान उनकी प्रेमिकाओं को विशेष रूप से आकृष्ट करती हैं। उनकी वेशभूषा और मुस्कान ने गोपियों के चित्त को लुभा लिया है। अतएव सहृदय कवि ने कृष्ण-विषयक रति भाव के परिपाक के लिए इन विभावों का स्थान-स्थान पर निदर्शन किया है। <br />
==संचारी भाव==<br />
संचारी भाव का दूसरा नाम 'व्यभिचारी' भाव भी है। व्यभिचारी शब्द में वि+अभि+चर (उपसर्ग तथा धातु) का योग है। 'वि' विविधता का, 'अभि' अभिमुख्य का और 'चर' संचरण का द्योतक है। अतएव वाक्, अंग तथा सत्वादि द्वारा विविध प्रकार के, रसानुकूल संचरण करने वाले भावों को व्यभिचारी अथवा संचारी भाव कहते हैं। यह स्थायी भाव के सहकारी कारण हैं यह सभी रसों में यथासंभव संचार करते हैं। इसी से इनकी संचारी या व्यभिचारी संज्ञा है। स्थायी भाव की तरह ये रस की सिद्धि तक स्थिर नहीं रहते। ये अवस्था विशेष में उत्पन्न होते हैं और अपना प्रयोजन पूरा हो जाने पर स्थायी भाव को उचित सहायता देकर लुप्त हो जाते हैं। इनकी संख्या इस प्रकार 33 है। निर्वैद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिंता, मोह, स्मृति, घृति, व्रीड़ा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, त्रास, वितर्क, मरण। रसखान के काव्य में रसानुकूल अनेक संचारी भावों की व्यंजना हुई है।<br /> <br />
'''कायिक अनुभाव'''<br /><br />
कटाक्ष आदि आंगिक चेष्टाओं को 'कायिक अनुभाव' कहते हैं। रसखान के काव्य में कायिक अनुभाव के सुन्दर नमूने मिलते हैं। उन्होंने भावानुकूल चेष्टाओं का सम्यक विधान किया हैं—<br /><br />
आली पगे रँगे जे रँग साँवरे मो पै ना आवत लालची नैना।<br /> <br />
धावत हैं उतहीं जित मोहन रोके रुकै नहिं घूँघट ऐसा।<br /> <br />
काननि कौं कल नाहिं परै सखी प्रेम सों भीजे सुने बिन बैना।<br /> <br />
रसखानि भई मधु की मखियाँ अब नेह को बंधन क्यों हूँ छूटैना।<balloon title="सुजान रसखान, 126" style=color:blue>*</balloon><br /> <br />
नायिका के नयनों की गति में वेग है जो घूंघट के आवरण को स्वीकार करने को तैयार नहीं। नयनों की चंचलता नायिका की प्रबल आकांक्षा को अभिव्यक्ति प्रदान करने में सहायक हुई है। विभिन्न अंगों की उत्सुकता एवं उत्कंठा का चित्रण कायिक अनुभावों द्वारा सजीवता के साथ हुआ है।<br /> <br />
नैन नचाइ चितै मुसकाइ सु ओट ह्वै जाइ अँगूठा दिखायौ।<balloon title="सुजान रसखान, 101" style=color:blue>*</balloon><br />
नैन नचाना, मुसकाना और ओट में जाकर अंगूठा दिखाना आदि अनेक कायिक भावों की एक साथ व्यंजना हुई है। यहां कवि ने नायिका की चतुरता एवं चंचलता की अनुभावों द्वारा चित्रात्मक ढंग से अभिव्यक्ति की है।<br /> <br />
आजु हौं निहारयौ बीर निपट कालिंदी तीर,<br /><br />
दोउन को दोउन सौं मुरि मुसकाइबौ।<br /><br />
दोऊ परैं पैयाँ दोऊ लेत हैं बलैयाँ उन्हें,<br /> <br />
भूलि गई गैयाँ इन्हें गागर उचाइबो॥<balloon title="सुजान रसखान, 100" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
इन पंक्तियों में एक दूसरे को देखना, मुड़-मुड़ कर मुस्काना। एक दूसरे के पैरों पर पड़ना, निछावर होना आदि अनेक कायिक अनुभावों की सुन्दर व्यंजना हुई है।<br /><br />
आजु ही बारक 'लेहु दही' कहि कै कछु नैनन में विहँसी है।<br /> <br />
बैरिनि वाहि भई मुसकानि जु वा रसखानि के प्रान बसी है।<balloon title="सुजान रसखान, 32" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
यहां नेत्रों में हंसने तथा मुसकान से प्रभावित होने के कारण कायिक अनुभाव चमत्कारपूर्ण हैं।<br /> <br />
फेरि फिरैं अँखियाँ ठहराति हैं कारे पितंबरवारे के ऊपर।<balloon title="सुजान रसखान, 34" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
नेत्रों की विवशता कायिक अनुभाव द्वारा चित्रित की गई है। यहां निर्निमेष देखने का भाव निहित है।<br /> <br />
अँखियाँ अँखियाँ सौं सकाइ मिलाइ हिलाइ रिझाइ हियो हरिबो।<br /><br />
बतियाँ चित चोरन चेटक सी रस चारु चरित्रन ऊचरिबो।<balloon title="सुजान रसखान, 120" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
यहां अंखियां मिलाना, रिझाना, बातें करना आदि कायिक अनुभावों द्वारा श्रृंगार रस की सफल व्यंजना हुई है।<br /> <br />
'''सात्विक भाव'''<br /><br />
सत्व के उद्रेक से उत्पन्न जो अनुभाव हैं उन्हीं को सात्विक भाव कहा गया है। रसखान के काव्य में सात्विक भावों की भी सुन्दर व्यंजना हुई है।<br /><br />
बंसी बजावत आनि कढ़ौ सो गली मैं अली कछु टोना सो डारै।<br /> <br />
हेरि, चितै, तिरछी करि दृष्टि चलौ गयौ मोहन मूठि सी मारै।<br /> <br />
ताही घरी सौं परी धरी सेज पै प्यारी न बोलति प्रानहूँ बारै।<br /> <br />
राधिका जी है तौ जीहैं सबै न तो पीहैं हलाहल नंद के द्वारै॥<balloon title="सुजान रसखान, 68" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
इस पद में कृष्ण का [[बांसुरी|वंशी]] बजाना और तिरछी दृष्टि से गोपियों को देखना उद्दीपन विभाव है। आलंबन कृष्ण और उनकी चितवन आदि उद्दीपनों से गोपी इतनी अधिक प्रभावित हैं कि उनकी वाणी भावावेग के कारण अवरुद्ध हो गई है। इस प्रकार सात्विक भाव 'स्तंभ' का चित्रण किया गया है। इस चित्रण में श्रृंगार रस की हृदयहारी व्यंजना की गई है-<br /><br />
पूरब पुन्यनि तैं चितई जिन ये अँखियाँ मुसकानि भरी जू।<br /> <br />
कोऊ रही पुतरी सी खरी, कोइर घाट डरी, कोउ बाट परी जू।<br /> <br />
जे अपने घरहीं रसखानि कहै अरु हौंसनि जाति मरी जू।<br /> <br />
लाल जे बाल बिहाल करी ते बिहाल करी न निहाल करी जू॥<balloon title="सुजान रसखान, 142" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
यहां गोपियां कृष्ण की मुस्कान भरी आंखों से प्रभावित हैं। कृष्ण आलंबन, उनकी मुसकान भरी आंखें उद्दीपन विभाव हैं। उनसे प्रभावित होकर गोपियों की चेष्टाएं पुतली के समान खड़ी रहना आदि स्तंभ नामक सात्विक भाव हैं। घाट पर गिरना, बेहाल होना 'मरी' जाना में 'प्रलय' नामक सात्विक भाव का मनोरम निरूपण हुआ है।<br /> <br />
मोहन रूप छकी बन डोलति घूमति री तजि लाज बिचारै।<br /> <br />
बंक बिलोकनि नैन बिसाल सु दंपति कोर कटाछन मारै।<br /> <br />
रंगभरी मुख की मुसकान लखें सखी कौन जु देह सम्हारै। <br /><br />
ज्यौं अरविंद हिम्मत-करी झकझोरि कै तोरि मरोरि कै डारै॥<balloon title="सुजान रसखान, 64" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
कृष्ण की उद्दीपक मुस्कान ने गोपी को आत्म-विस्मृत कर दिया है। कृष्ण के प्रेम में विभोर होने के कारण वह अपने रति भावना को छिपा नहीं पा रही है। वह विह्वल होकर वन में डोलती है और लज्जा त्यागकर स्वच्छंद रूप से घूमती है। उसका इस प्रकार डोलना और घूमना रति भाव व्यंजक होने के कारण कायिक अनुभाव है। कृष्ण की रंगभरी मुसकान के प्रभाव से अपनी देह को न संभाल पाना अर्थात निश्चेष्ट होना और अपने को भूल जाना आदि 'प्रलय' नामक सात्विक भाव हैं। रसखान के काव्य में सात्विक, मानसिक और कायिक अनुभावों की एक साथ अभिव्यक्ति हुई हैं-<br /><br />
आईं सबै ब्रज गोप लली ठिठकीं ह्वै गली जमुना-जल न्हाने।<br /> <br />
औचक आइ मिले रसखानि बजावत बैनु सुनावत ताने।<br /> <br />
हाहा करी सिसकी सिगरी मति मैन हरी हियरा हुलसाने।<br /> <br />
घूमैं दिवानी अमानी चकोर सों ओर सों दोऊ चलैं दृग बाने।<balloon title="सुजान रसखान,37" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
गोपियां [[यमुना]] में नहाने जाती हैं किन्तु अचानक [[कृष्ण]] की दृष्टि पड़ जाने पर वे ठिठक उठती हैं। इस ठिठकने में अनेक भाव भरे हैं। कुछ डर, कुछ लज्जा, कुछ आशंका, कुछ आश्चर्य, सभी बातें एक साथ आकाश में झिलमिलाते अनेक तारों की भांति प्रकट हो रही हैं। सिसकने में 'अश्रु' सात्विक भाव है। हुलसाने में हर्ष मानसिक अनुभाव है। घूमना 'दृगबान' चलाना आदि 'कायिक' अनुभाव हैं। 'कायिक तथा मानसिक अनुभावों का चित्र-रसखान ने रेखा द्वारा ही प्रस्तुत किया है। रेखाएं बड़ी उभरी हुई तथा सजीव हैं। चित्र-कल्पना का आदर्श रूप इन रेखा-चित्रों में प्राप्त होता है।'<br /><br />
रसखान अनुभाव-योजना में पूर्ण सफल हुई हैं। अनुभावों और चेष्टाओं की यह विभूति आगे चलकर रीतिकालीन कवियों में विशेष रूप से देखने को मिलती है। उनकी अनुभाव-योजना चित्रात्मकता, सजीवता और भाव-प्रवणता की दृष्टि से प्रशंसनीय है।<br /> <br />
'''स्थायी भाव रति'''<br /><br />
किसी अनुकूल विषय की ओर मन की प्रवृत्ति को 'रति' कहते हैं। विश्वनाथ ने भी प्रिय वस्तु के प्रति हृदय की उत्कट उन्मुखता (प्रेमार्द्रता) को 'रति' कहा है। स्थायी भाव जब सहायक सामग्री से पुष्ट होकर व्यंजित होता है तब रस का परिपाक होता है। जैसे श्रृंगार रस में रति स्थायी भाव होता है। परन्तु जहां परिपोषक सामग्री नहीं रहती वहां स्वतन्त्र रूप से स्थायी भाव ही ध्वनित होता है। रसखान के काव्य में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाते हैं—<br /><br />
कान्ह भए बस बाँसुरी के अब कौन सखी, हमकों चिह है।<br /> <br />
निसद्यौस रहै संग-साथ लगी यह सौतिन तापन क्यौं सहि है।<br /> <br />
जिन मोहि लियौ मनमोहन कों रसखानि सदा हमकों दहि है।<br /> <br />
मिलि आऔ सबै सखी, भागि चलैं अब तो ब्रज मैं बँसुरी रहि है॥<balloon title="सुजान रसखान,64" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
----<br />
जल की न घट भरैं मग की न पग धरैं,<br /> <br />
घर की न कछु करैं बैठी भरैं साँसु री।<br /> <br />
एकै सुनि लौट गईं एकै लोट-पोट भई,<br /><br />
एकनि के दृगनि निकसि आए आँसु री।<br /> <br />
कहैं रसखानि सो सबै ब्रज-बनिता बधि,<br /><br />
बधिक कहाय हाय भई कुलहाँसु री।<br /> <br />
करियै उपाय बाँस उरियै कटाय,<br /> <br />
नाहिं उपजैगौ बाँस नाहिं बाजै फेरि बाँसुरी॥<balloon title="सुजान रसखान, 54" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
'''वात्सल्य रति'''<br /><br />
पुत्र आदि के प्रति माता-पिता का जो वात्सल्य स्नेह होता है उसे वात्सल्य कहते हैं। यशोदा के इस कथन में वात्सल्य रति की झलक रही हैं-<br /><br />
आपनो सो ढोटा हम सबही को जानत हैं,<br /> <br />
दोऊ प्रानी सब ही के काज नित धावहीं।<br /> <br />
ते तौ रसखानि अब दूर तें तमासो देखैं,<br /> <br />
तरनि तनूजा के निकट नहिं आवहीं। <br /><br />
आन दिन बात अनहितुन सौं कहौं कहा,<br /> <br />
हितू जेऊ जाए ते ये लोचन दुरावहीं।<br /> <br />
कहा कहौं आली खाली देत सब ठाली पर,<br /> <br />
मेरे बनमाली कों न काली तें छुड़ावहीं।<balloon title="सुजान रसखान, 200" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
यहां माता [[यशोदा]] की अपने पुत्र के अनिष्ट की आशंका से उत्पन्न हृदय की उद्विग्नता का चित्रण किया गया है। वे अपने पुत्र की सुरक्षा कामना के लिए बहुत चिंतित हैं। यहां माता के हृदय की मंगलमयी स्नेह-भावना का सुंदर चित्रण है।<br /> <br />
'''भक्ति'''<br /><br />
ईश्वर के प्रति अनुराग को भक्ति कहते हैं। रसखान भक्त कवि हैं, उनका काव्य भक्ति भाव से भरपूर है। <br /><br />
वा लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।<br /> <br />
आठहु सिद्धि नवौं निधि को सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं।<br /> <br />
ए रसखानि जबै इन नैनन ते ब्रज के बन-बाग निहारौं।<br /> <br />
कोटिक यह कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर वारौं।<balloon title="सुजान रसखान, 3" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
यहां स्थायी भाव देव विषयक रति अपने पूर्ण वैभव के साथ विद्यमान है।<br /><br />
कंचन मंदिर ऊँचे बनाइ कै मानिक लाइ सदा झलकैयत।<br /> <br />
प्रात ही ते सगरी नगरी नग मोतिन ही की तुलानि तुलैयत।<br /> <br />
जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मधवा ललचैयत।<br /><br />
ऐसे भए तौ कहा रसखानि जो साँवरे ग्वार सौं नेह ने लैयत।<balloon title="सुजान रसखान, 6" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
यहां स्थायी भाव देव विषयक रति की व्यंजना हो रही है।<br /> <br />
'''निर्वेद या शम'''<br /><br />
तत्वज्ञान होने से सांसारिक विषयों में जो विराग-बुद्धि उत्पन्न होती है, उसे 'निर्वेद' कहते हैं। रसखान की 'प्रेम वाटिका' में स्थान-स्थान पर निर्वेद की निबंधना मिलती हैं-<br /><br />
प्रेम अगम अनुपम अमित, सागर सरिस बखान।<br /> <br />
जो आवत यहि ढिग बहुरि, जात नाहिं रसखान॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 3" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
आनँद-अनुभव होत नहिं, बिना प्रेम जग जान।<br /><br />
कै वह विषयानंद कै ब्रह्मानंद बखान॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 11" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
ज्ञान कर्म 'रु उपासना, सब अहमिति को मूल।<br /> <br />
दृढ़ निश्चय नहिं होत बिन, किये प्रेम अनुकूल॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 12" style=color:blue>*</balloon><br />
काम क्रोध मद मोह भय लोभ द्रोह मात्सर्य।<br /> <br />
इन सब ही तैं प्रेम है परे, कहते मुनिवर्य॥<balloon title="प्रेम वाटिका, 14" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
'''हास'''<br /><br />
हास का अभिप्राय वाणी आदि की विकृतियों के दर्शन अथवा चिंतन से संभूत चित्तविकास से है। दूसरे शब्दों में विकृत वचन, कार्य और रूप-रचना से सहृदय के मन में जो उल्लास उत्पन्न होता है उसे 'हास' कहते हैं। रसखान के काव्य में ऐसे एक-दो उदाहरण मिल जाते हैं—<br /><br />
केसरिया पट, केसरि खौर, बनौ गर गुंज को हार ढरारो।<br /> <br />
को हौ जू आपनी या छबि सों जु खरे अँगना प्रति डीठि न टारो।<br /> <br />
आनि बिकाऊ से होई रहे रसखानि कहै तुम्ह रोकि दुवारो।<br /> <br />
हैं तो बिकाऊँ जौ लेत बनै हँसबोल तिहारो है मोल हमारो॥<balloon title="सुजान रसखान, 163" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
यहां रस के परिपाक के अभाव में हास भाव की अभिव्यंजना है।<br /><br />
'''उत्साह'''<br /><br />
कार्य करने का अभिनिवेश, शौर्य, आदि प्रदर्शित करने की प्रबल इच्छा को 'उत्साह' कहते हैं। रसखान के काव्य में उत्साह स्थायी भाव के उदाहरण कम मिलते हैं। क्योंकि उनका उद्देश्य वीर काव्य की रचना करना नहीं था। निम्नलिखित पद में उत्साह की व्यंजना हुई है—<br /><br />
कंस के क्रोध की फैलि रही सिगरे ब्रज मंडल माँझ फुकार सी।<br /> <br />
आइ गए कछनी कछि कै तबहीं नट-नागर नंदकुमार सी।<br /><br />
द्वरद को रद खैचि लियौ रसखानि हिये गहि लाइ बिचार सी।<br /> <br />
लीनी कुठौर लगी लखि तौरि कलंक तमाल तें कीरति-डार सी॥<balloon title="सुजान रसखान, 202" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
----<br />
इस प्रकार रसखान के काव्य में छ: स्थायी भावों की निबंधना मिलती है- रति, निर्वेद, उत्साह, हास, वात्सल्य और भक्ति। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने परंपराप्रथिता चार स्थायी भावों को ही गौरव दिया है, जिनमें अन्यतम भाव रति का है। क्रोध, जुगुप्ता, विस्मय, शोक और भय की उपेक्षा का मूल कारण यह प्रतीत होता है कि इन भावों का रति से मेल नहीं है। रसखान प्रेमी जीव थे, अतएव उन्होंने अपनी कविता में तीन प्रकार के रति भावों की रति, वात्सल्य और भक्ति की व्यंजना की; जो भाव इनमें विशेष सहायक हो सकते थे उन्हें यथास्थान अभिव्यक्ति किया। दूसरा कारण यह भी है कि उनकी रचना मुक्तक है; अतएव प्रबनध काव्य की भांति उसमें सभी प्रकार के भावों का सन्निवेश आवश्यक भी नहीं है।<br />
==टीका टिप्प्णी==<br />
<references/><br />
<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:कवि]]<br />
__INDEX__</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%AA%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0&diff=31181मुख्य पृष्ठ2010-01-02T05:43:30Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{Menu}}<br> <br />
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<br />
*हम आपको एक ऐसी यात्रा का भागीदार बनाना चाहते हैं जिसका रिश्ता [[ब्रज]] के [[:श्रेणी:इतिहास-कोश|इतिहास]], संस्कृति, समाज, [[मूर्ति कला|पुरातत्व]], [[:category:कला|कला]], [[:category:धर्म-संप्रदाय|धर्म-संप्रदाय]], [[दर्शनीय स्थल|पर्यटन स्थल]], प्रतिभाओं, आदि से है ।<br />
<br />
*इसमें आपकी भी पूरी भागीदारी रहेगी । <br />
*यदि आपके पास ब्रज से संबंधित कोई महत्वपूर्ण फ़ोटो, लेख, किताब, तथ्य, संस्मरण, सांस्कृतिक [[विडियो]] क्लिप आदि है, तो आप ब्रज डिस्कवरी में जुड़वा सकते हैं । <br />
*ब्रज संस्कृति का जन्म और विकास का केन्द्र [[यमुना]] नदी है । बढ़ते प्रदूषण के कारण यदि यमुना सूख गयी तो ब्रज संस्कृति पर इसका क्या असर होगा वह हम [[सरस्वती]], [[सिन्धु|सिन्धु नदी]] और [[नील नदी]] के पास विकसित हुईं सभ्यताओं पतन के उदाहरण से समझ सकते हैं । <br />
*भूमंडलीकरण के दौर में हम-आप और हमारा ब्रज क्षेत्र, प्रगति के रास्ते पर अपना गौरव बनाये रखे यही प्रयास है...<br />
<br />
|-<br />
| style="background-color:#F8F8F8;border:1px solid #959595;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color: #A4A4A4;"><span style="color: rgb(255, 255, 255);">'''…भौगोलिक स्थिति'''</span></div> <br />
----<br />
<br />
*आज जिसे हम ब्रज क्षेत्र मानते हैं उसकी दिशाऐं, उत्तर दिशा में पलवल ([[हरियाणा]]), दक्षिण में [[ग्वालियर]] (मध्य प्रदेश), पश्चिम में [[भरतपुर]] (राजस्थान) और [[एटा]] ([[उत्तर प्रदेश]]) को छूती हैं।<br />
<br />
[[ब्रजभाषा|ब्रज भाषा]], रीति रिवाज़, पहनावा और ऐतिहासिक तथ्य इस सीमा का सहज आधार है।<br> <br />
<br />
*मथुरा-वृन्दावन ब्रज के केन्द्र हैं। <br />
*[[मथुरा]]-[[वृन्दावन]] की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार है- एशिया &gt; भारत &gt; उत्तर प्रदेश &gt; मथुरा<br />
<br />
- उत्तर- 27° 41' - पूर्व -77° 41' <br />
<br />
*मार्ग स्थिति - राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या -2<br />
<br />
[[दिल्ली]]-[[आगरा]] मार्ग पर दिल्ली से 146 किलो मीटर <br />
|-<br />
| style="background-color:#F7F7EE;border:1px solid #D0D09D;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color:#FFD9B3;"><span style="color: rgb(153, 51, 0);">'''सूक्ति और विचार'''</span></div> <br />
----<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|right|80px|कृष्ण अर्जुन को ज्ञान देते हुए]]<br />
* यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग करता है, वह उस-उस को ही प्राप्त होता हैं; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है । '''- श्रीमद्भागवत गीता'''<br />
* इतिहास याने अनादिकाल से अब तक का सारा जीवन । पुराण याने अनादि काल से अब तक टिका हुआ अनुभव का अमर अंश। '''-विनोबा भावे'''<br />
* संसार में एक कृष्ण ही हुआ जिसने दर्शन को गीत बनाया -'''डा॰ राम मनोहर लोहिया'''<br />
|-<br />
| style="background-color:#FFFFFF;border:1px solid #B6DADA;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color:#C4E1E1;"><span style="color: rgb(153, 51, 0);">'''ब्रज शब्द से अभिप्राय'''</span></div> <br />
----<br />
ब्रज शब्द से अभिप्राय सामान्यत: मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का क्षेत्र समझा जाता है। [[वेद|वैदिक साहित्य]] में ब्रज शब्द का प्रयोग प्राय: पशुओं के समूह, उनके चारागाह (चरने के स्थान) या<br />
उनके बाडे़ के अर्थ में है। [[रामायण]], [[महाभारत]] और समकालीन संस्कृत साहित्य में सामान्यत: यही अर्थ '[[ब्रज]]' का संदर्भ है। 'स्थान' के अर्थ में ब्रज शब्द का उपयोग [[पुराणों]] में गाहे-बगाहे आया है, विद्वान मानते हैं कि यह [[गोकुल]] के लिये प्रयुक्त है। 'ब्रज' शब्द का चलन भक्ति आंदोलन के दौरान पूरे चरम पर पहुँच गया। चौदहवीं शताब्दी की कृष्ण भक्ति की व्यापक लहर ने ब्रज शब्द की पवित्रता को जन-जन में पूर्ण रूप से प्रचारित कर दिया । [[सूर]], [[मीरां]] (मीरा), [[तुलसीदास]], [[रसखान]] के भजन तो जैसे आज भी ब्रज के वातावरण में गूंजते रहते हैं। <br />
<br />
कृष्ण भक्ति में ऐसा क्या है जिसने मीरां (मीरा) से राज-पाट छुड़वा दिया और सूर की रचनाओं की गहराई को जानकर विश्व भर में इस विषय पर ही शोध होता रहा कि सूर वास्तव में दृष्टिहीन थे भी या नहीं। संगीत विशेषज्ञ मानते हैं कि ब्रज में सोलह हज़ार राग रागनिंयों का निर्माण हुआ था। जिन्हें कृष्ण की रानियाँ भी कहा जाता है । ब्रज में ही [[स्वामी हरिदास]] का जीवन, 'एक ही वस्त्र और एक मिट्टी का करवा' नियम पालन में बीता और इनका गायन सुनने के लिए राजा महाराजा भी कुटिया के द्वार पर आसन जमाए घन्टों बैठे रहते थे। [[बैजूबावरा]], [[तानसेन]], [[नायक बख़्शू]] ([[ध्रुपद]]-[[धमार]]) जैसे अमर संगीतकारों ने संगीत की सेवा ब्रज में रहकर ही की थी। [[अष्टछाप]] कवियों के अलावा [[बिहारी]], [[अमीर ख़ुसरो]], [[भूषण]], [[घनानन्द]] आदि ब्रज भाषा के कवि, साहित्य में अमर हैं। ब्रज भाषा के साहित्यिक प्रयोग के उदाहरण महाराष्ट्र में तेरहवीं शती में मिलते हैं। बाद में उन्नीसवीं शती तक गुजरात, असम, मणिपुर, केरल तक भी साहित्यिक [[ब्रजभाषा]] का प्रयोग हुआ। ब्रज भाषा के प्रयोग के बिना शास्त्रीय गायन की कल्पना करना भी असंभव है। आज भी फ़िल्मों के गीतों में मधुरता लाने के लिए ब्रज भाषा का ही प्रयोग होता है। <br />
<br />
|-<br />
| style="background-color:#F7F7EE;border:1px solid #D0D09D;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color:#DEDEBC;"><span style="color: rgb(153, 51, 0);">'''ब्रज की मान्यता'''</span></div> <br />
----<br />
'''मथुरा की बेटी गोकुल की गाय। करम फूटै तौ अनत जाय।''' मथुरा (ब्रज-क्षेत्र) की बेटियों का विवाह ब्रज में ही होने की परम्परा थी और [[गोकुल]] की गायों गोकुल से बाहर भेजने की परम्परा नहीं थी । चूँकि कि पुत्री को 'दुहिता' कहा गया है अर्थात गाय दुहने और गऊ सेवा करने वाली। इसलिए बेटी गऊ की सेवा से वंचित हो जाती है और गायों की सेवा ब्रज जैसी होना बाहर कठिन है। वृद्ध होने पर गायों को कटवा भी दिया जाता था, जो ब्रज में संभव नहीं था। '''ब्रजहिं छोड़ बैकुंठउ न जइहों'''। ब्रज को छोड़ कर स्वर्ग के आनंद भोगने का मन भी नहीं होता। '''मानुस हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गाँव की ग्वारन।''' इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जो ब्रजको अद्भुत बनाते हैं। ब्रज के संतों ने और ब्रजवासियों ने तो कभी मोक्ष की कामना भी नहीं की क्योंकि ब्रज में इह लीला के समाप्त होने पर ब्रजवासी, ब्रज में ही वृक्ष का रूप धारण करता है अर्थात [[ब्रजवासी]] मृत्यु के पश्चात स्वर्गवासी न होकर ब्रजवासी ही रहता है और यह क्रम अनन्त काल से चल रहा है। ऐसी मान्यता है ब्रज की । <br />
<br />
|}<br />
<br />
{| width="48%" align="right" cellpadding="5" cellspacing="5"<br />
|-<br />
| style="background-color:#FCFDFE;border:1px solid #BBC6E1;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color:#D3D8EB;"><span style="color: rgb(153, 51, 0);">'''परिचय'''</span></div> <br />
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[[Image:Govind-dev-temple-6.jpg|center|80px|गोविन्द देव जी का मंदिर]] <br />
----<br />
[[ब्रज]] '''&#124;''' [[मथुरा एक झलक]] '''&#124;''' [[वृन्दावन]] '''&#124;''' [[गोवर्धन]] '''&#124;''' [[बरसाना]] '''&#124;''' [[महावन]] '''&#124;''' [[गोकुल]] '''&#124;''' [[बलदेव मन्दिर|बलदेव]] '''&#124;''' [[कृष्ण जन्मभूमि]] '''&#124;''' [[द्वारिकाधीश मन्दिर]] '''&#124;''' [[यमुना]] '''&#124;''' [[बांके बिहारी मन्दिर]] '''&#124;''' [[इस्कॉन मन्दिर]] '''&#124;''' [[रंग नाथ जी का मन्दिर]] '''&#124;''' [[गोविन्द देव जी का मंदिर]] <br />
<br />
| style="background-color:#FFFCF9;border:1px solid #FFD2A6;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color:#FFEFDF;"><span style="color: rgb(153, 51, 0);">'''इतिहास'''</span></div> <br />
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[[Image:Buddha-3.jpg|right|70px|बुद्ध]] [[पौराणिक इतिहास|पौराणिक इतिहास]] '''&#124;''' [[मौर्य काल]] '''&#124;''' [[शुंग काल]] '''&#124;''' [[शक-कुषाण काल]] '''&#124;''' [[गुप्त काल]] '''&#124;''' [[मध्य काल]] '''&#124;''' [[उत्तर मध्य काल]] '''&#124;''' [[मुग़ल काल]] '''&#124;''' [[जाट-मराठा काल]] '''&#124;''' [[स्वतंत्रता संग्राम 1857]] '''&#124;''' [[स्वतंत्रता संग्राम 1920-1947]] <br />
<br />
|-<br />
| style="background-color:#FDFDFF;border:1px solid #B0B0FF;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color: #E6E6FF;;"><span style="color: rgb(153, 0, 0);">'''…लेख, नज़रिया, कथा, कविता'''</span></div> <br />
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[[चित्र:Vishram-Ghat-11.jpg|100px|center|[[यम द्वितीया]], [[यमुना]] स्नान, [[मथुरा]]]]<br />
----<br />
[[रश्मिरथी तृतीय सर्ग]] '''&#124; '''[[कच देवयानी]] '''&#124;''' [[समुद्र मंथन]] '''&#124;''' [[गंगावतरण]] '''&#124;''' [[सावित्री सत्यवान]] '''&#124;''' [[ययाति]] '''&#124;''' [[शर्मिष्ठा]] <br />
<br />
| style="background-color:#F8FEEB;border:1px solid #DBFA9C;padding:10px;" | <div style="background-color: #EAFDC4">'''साहित्य और दर्शन'''</div> <br />
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[[चित्र:Kambojika-2.jpg|center|100px|महाराज्ञी कम्बोजिका]]<br />
[[वेद|वेद]] '''&#124;''' [[उपनिषद|उपनिषद]] '''&#124;''' [[रामायण|रामायण]] '''&#124;''' [[महाभारत|महाभारत]] '''&#124;''' [[गीता|गीता]] '''&#124;''' [[पुराण|पुराण]] '''&#124;''' [[कथा साहित्य|कथा साहित्य]] '''&#124;''' [[पुस्तकें|अन्य पुस्तकें]] '''&#124;''' [[मूर्ति कला|ब्रज की मूर्ति कला]] <br />
<br />
|-<br />
| style="background-color:#FFF2FF;border:1px solid #FF95FF;padding:10px;" | <div style="background-color: #FFD7FF">'''…इतिहास, कला, हम-ब्रजवासी'''</div> <br />
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[[चित्र:Raskhan-1.jpg|80px|center|रसखान समाधि]]<br />
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[[स्वतंत्रता सेनानी सूची]] '''&#124;''' [[सनातन गोस्वामी]] '''&#124;''' [[गोकुल सिंह]] '''&#124;''' [[सूरदास]] '''&#124;''' [[रसखान]] <br />
<br />
| style="border:1px solid #FFA6A6;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color: #FFBBBB">'''वीथिका (गैलरी)'''</div> <br />
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[[चित्र:Kusum-sarovar-01.jpg|center|80px|कुसुम सरोवर]]<br />
----<br />
[[विडियो|विडियो]] '''&#124; '''[[मथुरा चित्र वीथिका]] '''&#124;''' [[संग्रहालय मथुरा]] '''&#124;''' [[जैन संग्रहालय मथुरा]] <br />
<br />
|-<br />
| style="background-color:#FEFCE9;border:1px solid #FBE773;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color: #FDF2B5">'''…पर्व, उत्सव, त्यौहार'''</div> <br />
----<br />
[[Image:Kansa-Fair-2.jpg|center|90px|कंस मेला]]<br />
----<br />
[[विहार पंचमी]] '''&#124;''' [[आर्य समाज|आर्य समाज सम्मेलन]] '''&#124;''' [[कंस मेला]] '''&#124;''' [[देवोत्थान एकादशी]] '''&#124;''' [[अक्षय नवमी]] '''&#124;''' [[गोपाष्टमी]] '''&#124;''' [[गोवर्धन पूजा]] '''&#124;''' [[होली बरसाना विडियो 1|लठा मार-होली बरसाना के विडियो]] '''&#124;''' [[होली बल्देव विडियो 1|बल्देव होली के विडियो]] '''&#124;''' [[रथ यात्रा वृन्दावन|रथ-यात्रा के विडियो]] <br />
<br />
| style="border:1px solid #B7D9FF;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color: #E8F3FF"><span style="color: rgb(153, 51, 102);">'''...तथ्य-आस्था-मिथक'''</span></div> <br />
----<br />
[[Image:Krishn-title.jpg|center|100px|कृष्ण]]<br />
----<br />
[[अक्षौहिणी]] '''&#124;''' [[क्षत्रप]] '''&#124;''' [[कृष्ण]] '''&#124;''' [[यमुना के घाट]] '''&#124;''' [[अमीर ख़ुसरो]] '''&#124;''' [[ब्रजभाषा]] '''&#124;''' [[कृष्ण जन्मभूमि]] '''&#124;''' [[राधाकुण्ड]] '''&#124;''' [[कालिदास]] '''&#124;''' [[बलदेव मन्दिर]] '''&#124;''' [[तक्षशिला]] '''&#124;''' [[महाजनपद]] '''&#124;''' [[आर्यावर्त]] '''&#124;''' [[उद्धव]] '''&#124;''' [[क्लीसोबोरा]] '''&#124;''' [[छान्दोग्य उपनिषद]] <br />
<br />
|-<br />
| colspan="2" style="background-color:#F9FBE6;border:1px solid #BED327;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color:#DEEC8C;"><span style="color: rgb(0, 102, 0);">'''…प्रजातांत्रिक व्यवस्था'''</span></div> <br />
----<br />
<br />
*आश्चर्यजनक है कि कृष्ण के समय से पहले ही मथुरा में एक प्रकार की प्रजातांत्रिक व्यवस्था थी। <br />
*[[अंधक]] और वृष्णि, दो संघ परोक्ष मतदान प्रक्रिया से अपना मुखिया चुनते थे। <br />
*[[उग्रसेन]] अंधक संघ के मुखिया थे, जिनका पुत्र [[कंस]] एक निरंकुश शासक बनना चाहता था। <br />
*[[अक्रूर]] ने कृष्ण से कंस का वध करवा कर प्रजातंत्र की रक्षा करवाई। <br />
*[[वृष्णि संघ]] के होने के कारण [[द्वारका]] के राजा, कृष्ण बने। <br />
*दूसरे उदाहरण में [[बौद्ध]] [[अनुश्रुति]] के अनुसार [[बुद्ध]] ने मथुरा आगमन पर अपने शिष्य [[आनन्द]] से मथुरा के संबंध में कहा है कि "यह आदि राज्य है, जिसने अपने लिए राजा (महासम्मत) चुना था।"<br />
<br />
|-<br />
| colspan="2" style="background-color:#FCF8F8;border:1px solid #BE8383;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color: #F2E6E6;">'''…इतिहास क्रम'''</div> <br />
----<br />
<br />
*[[महाभारत]] काल, [[मौर्य काल|मौर्य]], [[शुंग]], [[शक]], [[गुप्त]], [[हूण]], [[हर्षवर्धन]], [[राजपूत]], [[ग़ुलाम वंश]], [[ख़िलजी]], [[तुग़लक]], [[लोदी वंश|लोदी]], [[शेरशाह]], [[हेमू]], [[मुग़ल]], [[जाट]] और अंग्रेज़ शासन काल में मथुरा अनेक स्थितियों में महत्वपूर्ण बना रहा । <br />
*शूरसेन नगरी, सौर्यपुर, मधुपुरी, मदुरा, आदि सब नाम मथुरा के ही लिए प्रयुक्त हुए । <br />
*विदेशी यात्रियों ने कभी 'मो-तु-लो' ( मोरों के नाचने का स्थान ) लिखा तो कभी मेथोरा। [[औरंगज़ेब]] ने मथुरा का नाम बदल कर इस्लामाबाद कर दिया तो अंग्रेजों ने मुट्रा। <br />
*[[ध्रुव]], [[गौतम बुद्ध]], [[तीर्थंकर पार्श्वनाथ]], [[महावीर]], [[शंकराचार्य]], [[चैतन्य महाप्रभु]], गुरू [[नानक]], [[सलीम चिश्ती]], [[रामकृष्ण परमहंस]], [[दयानंद सरस्वती]], गुरू [[समर्थ रामदास|रामदास]], [[वल्लभाचार्य]]... सभी ने यहाँ प्रवास किया अथवा सदैव के लिए रम गये । <br />
*आगे चलते जायेंगे और पढ़ने और देखने को मिलेगा, कुछ खोजने को भी!<br />
<br />
शुभ यात्रा... <br />
<br />
|-<br />
| colspan="2" style="background-color:#FCF8F8;border:1px solid #BE8383;padding:10px;" valign="top" | <div style="background-color: #F2E6E6;">'''…वर्णमाला क्रमानुसार पन्ने की खोज कर सकते हैं...'''</div> <br />
{{कोश2}} <br />
<br />
|}<br />
<br />
__NOTOC__ __NOEDITSECTION__ __INDEX__ <br />
<br />
[[Category:ब्रज]] [[en:Main Page|en:Main Page]]</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%80:%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80&diff=31153श्रेणी:ब्रजवासी2009-12-31T12:08:55Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>=== <span style="color: rgb(153, 51, 0); ">इस विभाग की अभी-अभी शुरूआत भर हुई है। प्रारम्भिक अवस्था ही है।</span> ===<br />
<br />
[[Category:ब्रज]]</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6_%E0%A4%9C%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C&diff=31152विद्यानंद जी महाराज2009-12-31T12:06:16Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{Menu}}<br /><br />
==स्वामी विद्यानंद जी महाराज / Swami Vidyanand ji Maharaj==<br />
'सन्त ह्रदय नवनीत समाना' गोस्वामी [[तुलसीदास]] जी ने [[रामायण]] में संतों का वर्णन करते समय उनके ह्रदय एवं उनके स्वभाव का वर्णन किया है कि संतों का ह्रदय मक्खन के समान कोमल होता है। योगीराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी जी के सुयोग्य शिष्य श्री केशवानंद ब्रह्मचारी जी ने स्वामी रामतीर्थ जी महाराज से गेरूआ वस्त्र तथा ब्रह्मचर्य दीक्षा ग्रहण कर कठोर साधना को प्राप्त किया। लाहिड़ी जी द्वारा योग क्रिया का अभ्यास कर [[हिमालय]] में समाधि द्वारा साधना की प्राप्ति तथा विभिन्न क्रियायोगों का अभ्यास किया। हिमालय में उन्होंने अनेक साधु संतों के दर्शन किये। वहां पर उन्हें कात्यायनी मां ने आदेश दिया। [[वृन्दावन]] में आकर आपने योगशक्ति द्वारा उस अज्ञात स्थान को प्राप्त किया जहां आज [[कात्यायनी पीठ|कात्यायनी देवी]] विराजमान हैं। स्वामी केशवानन्द जी महाराज ने सत्यानंद जी अपना शिष्य बनाया, परन्तु वह अधिक दिनों तक नहीं रह पाये और मां के चरणों में लीन हो गये। उस समय स्वामी नित्यानंद जी महाराज विद्यमान थे उन्होंने भी स्वामी केशवानंद जी महाराज से दीक्षा ग्रहण की। स्वामी नित्यानंद जी महाराज मां की सेवा अनन्य भक्ति से किया करते थे। स्वामी श्री केशवाननद जी महाराज के परम भक्त श्री विश्म्भर दयाल जी और उनकी पत्नी श्री रामप्यारी देवी जी जो प्रतिदिन महाराज जी के दर्शन करने आया करते थे, 'मां' की भक्ति के साथ-साथ गुरु महाराज स्वामी श्री केशवानंद जी के भी कृपा पात्र हो गये। श्री विश्म्भर दयाल जी के छ्ह पुत्र थे, इन छ्ह पुत्रों पर महाराज का आशीर्वाद सदा विद्यमान रहा। परन्तु चतुर्थ पुत्र पर उनकी कृपा दृष्टि अत्यधिक रही और 'विधुभूषण' नामक यह बालक आज स्वामी विद्यानंद जी महाराज के नाम से जाने जाते हैं। <br />
==जन्म== <br />
स्वामी विद्यानंद जी महाराज का जन्म 26 दिसम्बर 1935 को वृन्दावन में हुआ। बाल्यकाल में शिक्षा दीक्षा से ओत-प्रोत होकर स्वामी नित्यानंद जी महाराज द्वारा यज्ञोपवीत संस्कार कराया गया। इसके अनंतर उन्हें शिक्षा ग्रहण कराकर 'मां' का पूर्ण अधिकार सौंप दिया गया।<br />
==व्यक्तित्व==<br />
'मां' का दायित्व सन 1954 [[अक्षय तृतीया]] को एवं सम्पूर्ण आश्रम का दायित्व जब इनको सौंप दिया गया ये दत्तचित्त होकर मां की पूजा अर्चना करते रहे। स्वभाव से अत्यन्त सरल और कर्मशील माने जाते हैं। बालकों के साथ बालक हो जाना, यह उनका स्वभाव है। पण्डितों और विद्वानों का आदर करना एवं सम्माननीय लोगों का सम्मान करना इनका स्वभाव है। कैसा भी व्यक्ति क्यों ना आये वह इनके स्वभाव से नतमस्तक होकर जाता है। आखिर क्यों ना हो जिस पर गुरु कृपा एवं 'मां' की कृपा सदा विद्यमान है। आपके सरल स्वभाव को देखकर सभी लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। आपके सम्पर्क में जो भी व्यक्ति आता है वह उनके वात्सल्यमय व्यवहार को पाकर गदगद हो जाता है। यही अलौकिक स्थान का महत्व, गुरु महाराज की कृपा तथा 'मां' की कृपा का फल है। [[कात्यायनी पीठ|श्री श्री कात्यायनी पीठ]] का नाम सम्पूर्ण देश विदेश में व्याप्त हो रहा है। जो व्यक्ति एक बार 'मां' के दर्शन कर महाराज जी से आशीर्वाद ग्रहण करता है उसकी सभी मनोकामनाएं निश्चित ही पूर्ण होती हैं।<br />
<br />
[[en:Swami Vidyanand ji Maharaj]]<br />
[[श्रेणी: कोश]]<br />
[[category:संत]]<br />
__INDEX__</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%80:%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80&diff=31150श्रेणी:ब्रजवासी2009-12-31T12:05:02Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>===इस विभाग की अभी-अभी शुरूआत भर हुई है। प्रारम्भिक अवस्था ही है।===<br />
[[category:ब्रज]]</div>जन्मेजयhttp://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80&diff=31144गीतावली2009-12-31T10:22:49Z<p>जन्मेजय: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br /><br />
==गीतावली / [[:en:Geetavali|Geetavali]]==<br />
*यह [[तुलसीदास]] की एक प्रमुख रचना है इसमें गीतों में [[राम]]-कथा कही गयी है अथवा यों कहना चाहिए कि राम-कथा सम्बन्धी जो गीत तुलसीदास ने समय-समय पर रचे, वे इस ग्रन्थ में संग्रहित हुए हैं । सम्पूर्ण रचना सात खण्डों में विभक्त है । काण्डों में कथा का विभाजन प्राय: उसी प्रकार हुआ है , जिस प्रकार '[[रामचरितमानस]]' में हुआ है ,किन्तु न इसमें कथा की कोई प्रस्तावना या भूमिका है और न 'मानस ' की भाँति इसमें उत्तरकाण्ड में अध्यात्मविवेचन । बीच-बीच में भी 'मानस' की भाँति आध्यात्मिक विषयों का उपदेश करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है । सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है । मुद्रित संग्रह में 328 पद हैं । <br />
*इसका एक पूर्ववर्ती रूप भी प्राप्त हुआ है। जो इससे छोटा था। उसका नाम 'पदावली रामायण' था इसकी केवल एक प्रति प्राप्त हुई है और वह भी अत्यन्त खण्डित है । इसमें [[सुन्दर काण्ड वा॰ रा॰|सुन्दर]] और [[उत्तर काण्ड वा॰ रा॰|उत्तरकाण्डों]] के ही कुछ अंश बचे हैं और उत्तरकाण्ड का भी अन्तिम अंश न होने के कारण पुष्पिका नहीं रह गयी है । इस लिए प्रति की ठीक तिथि ज्ञात नहीं है <br />
यह संग्रह वर्तमान से छोटा रहा होगा। यह इससे प्रकट है कि प्राप्त अंशो में वर्तमान संग्रह के अनेक पद बीच-बीच में नहीं है । यदि यह कहा जाय कि यह वर्तमान का कोई चयन होगा, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कभी-कभी छन्दों का क्रम भिन्न मिलता है । इसके अतिरिक्त इसके साथ की ही एक प्रति 'विनय पत्रिका' की प्राप्त हुई है -जिसका प्रति में ही 'राम गीतावली' नाम दिया हुआ है । वह भी 'विनयपत्रिका' का वर्तमान से छोटा पाठ देती है । इसलिए यह प्रकट है कि 'पदावली रामायण' का वह पाठ जो प्रस्तुत एक मात्र प्रति में मिलता है, 'गीतावली' का ही कोई पूर्व रूप रहा होगा।<br />
*'गीतावली' में कुछ पद <ref>(गीतावली, [[बाल काण्ड वा॰ रा॰|बालकाण्ड]],23,24,28)</ref> ऐसे भी हैं, जो '[[सूरसागर]]' में मिलते हैं । प्राय: यह कहा जाता है कि ये पद उसमें 'सूरसागर' से गये होंगे । [[सूरदास]], तुलसीदास से कुछ ज्येष्ठ थे , इसलिए कुछ आलोचक तो यह भी कहने में नहीं हिचकते कि इन्हे तुलसीदास ने ही 'गीतावली' में रख लिया होगा और जो इस सीमा तक नहीं जाना चाहते, वे कहते हैं कि तुलसी दास के भक्तों ने उनकी रचना को और पूर्ण बनाने के लिए यह किया होगा किन्तु एक बात इस सम्बन्ध में विचारणीय है । <br />
*'गीतावली' की प्रतियाँ कई दर्जन संख्या में प्राप्त हुई है और वे सभी आकार-प्रकार में सर्वथा एक -सी हैं और उन सबों में ये छन्द पाये जाते हैं ।<br />
*'सूरसागर' की जितनी प्रतियाँ मिलती हैं उनमें आकार-प्रकार भेद अधिक है । कुछ में केवल कुछ सौ पद हैं तो कुछ में कुछ हजार पद हैं, उनमें क्रम आदि में भी परस्पर काफी वैभिन्न्य है और फिर 'सूरसागर' की सभी प्रतियों में ये पद पाये जाते हैं ,या नहीं, यह अभी तक देखा नहीं गया है । 'सूरसागर' के मुद्रित पाठ में अन्य अनेक ज्ञात कवियों-भक्तों के पद भी सम्मिलित मिलते हैं । ऐसी दशा में वास्तविकता तो उलटे यह ज्ञान पड़ती है कि ये पद तुलसीदास की ही 'गीतावली' के थे, जो अन्य कवियों-भक्तों की पदावली की भाँति 'सूरसागर' में सूरदास के प्रेमियों के द्वारा सम्मिलित कर लिये गये । तुलसीदास ने कुल लगभग सात सौ पदों की रचना की है और गीति शिल्प में वे किसी से पीछे नहीं हैं । ऐसी दशा में वे तीन पद 'गीतावली' में और तीन-चार पद 'कृष्ण गीतावली' में सूरदास या किसी अन्य कवि से लेकर क्यों रखते?<br />
*इसमें जो राम कथा आती है, वह प्राय: 'रामचरित मानस' के समान ही है, केवल कुछ विस्तारों में अन्तर है जो 'रामचरितमानस 'के पूर्व रचे ग्रन्थों में ही मिलते हैं,और कुछ ऐसे हैं जो कवि की किसी भी अन्य कृति में नहीं मिलते हैं । <br />
*प्रथम प्रकार के अन्तर निम्नलिखित हैं-<br />
#[[परशुराम]]-[[राम]]-मिलन [[मिथिला]] की स्वयंवर भूमि में न होकर बारात की वापसी में होता है और उसमें विवाद परशुराम-राम में ही होता है, [[लक्ष्मण]] से नहीं।<br />
#राम के राज्यारोहण के अनन्तर 'स्थान, यति, खग' के न्याय ,ब्राह्मण बालक के जीवन-दान, [[सीता]] के निर्वासन और [[लव कुश|लव-कुश]] जन्म की कथाएँ आती हैं इसी विस्तार में 'रामाज्ञा प्रश्न' भी है । <br />
*दूसरे प्रकार के अन्तर निम्नलिखित है-<br />
#स्वयंवर भूमि में जब [[विश्वामित्र]] राम को धनुष तोड़ने के लिए आज्ञा देते हैं, [[जनक]] राम के कृतकार्य होने के विषय में सन्देह प्रकट करते हैं इस प्रकार विश्वामित्र जनक के योग-वैराग्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि ऐसा वे राम के स्नेह के वश में होने के कारण समझते हैं और राम भी जनक के योग वैराग्य की उस सराहना का समर्थन करते हैं; जब इन सबके अनन्तर जनक की शंका का निवारण हो जाता है, 'गीतावली' में तब राम धनुष तोड़ने के लिए आगे बढ़ते हैं । <br />
#विश्वामित्र के साथ गये हुए राम-लक्ष्मण के विषय में माताएँ चिन्तित होती हैं। <br />
#वनवास की अवधि में [[कौशल्या|कौसल्या]] अनेक बार राम-विरह में व्यथित होती हैं । <br />
#राम [[जटायु]] के प्रति पितृ-स्नेह और [[शबरी]] के प्रति मातृ-स्नेह व्यक्त करते हैं । <br />
#[[रावण]] के द्वारा सीता के हरण की सूचना राम को देव-गण देते हैं । <br />
#[[हनुमान]] जब सीता को राम की मुद्रिका देते हैं और हनुमान से राम का कुशल पूछती हैं और मुद्रिका देती है । <br />
#रावण से अपमानित होकर [[विभीषण]] सीधे राम की शरण में नहीं जाता है। <br />
#युद्ध स्थल में लक्ष्मण के आहत होने का समाचार पाकर [[सुमित्रा]] हनुमान से अपने दूसरे पुत्र [[शत्रुघ्न]] को भी राम के राज्याभिषेक के अनन्तर दोलोत्सव, दीपमालिकोत्सव तथा बसन्तोत्सव आदि होते हैं, जिसमें अयोध्या का समस्त नर-नारी समाज निस्संकोच भाव से सम्मिलित होता है ।<br />
*'मानस' 'गीतावली' की तुलना में आकार-प्रकार से चौगुना है और प्रबन्धकाव्य हैं, फिर भी ये कथा-विस्तार से ज्ञात होता है कि 'गीतावली' के कुछ अंश 'मानस' के पूर्व की रचना अवश्य होंगे और इसी प्रकार उपर्युक्त दूसरे प्रकार के कथा-विस्तारों से ज्ञात होता है कि उसके अंश 'रामचरित मानस' के बाद की रचना होंगे । 'रामचरित मानस' के समान तो 'गीतावली' का अधिकांश है ही , जिसका यहाँ पर कोई, प्रमाण देना अनावश्यक होगा। इस प्रकार 'गीतावली' के पदों की रचना एक बहुत विस्तृत अवधि में हुई होगी । <br />
*'गीतावली' का तुलसीदास की रचनाओं में एक विशिष्ट स्थान है, जिस पर अभी तक यथेष्ट ध्यान नहीं दिया गया है । अनेक बातों में यह 'रामचरित मानस' के समान होते हुए भी गीतों के साँचे उसी की राम-कथा को ढाल देने का प्रयास मात्र नहीं है । यह एक प्रकार से 'मानस' का पूरक है । 'मानस' में जीवन के कोमल और मधुर-पक्षों को जैसे जान-बूझकर दबाया गया हो; 'मानस' में [[कौशल्या|कौसल्या]] [[राम]] को वन भेजकर केवल एक बार व्यथित दीख पड़ती है-वह है [[भरत]] के आगमन पर, किन्तु फिर पुत्र शोकातुरा कौसल्या के दर्शन नहीं होते। 'गीतावली' में तो अनेक बार वह राम विरह में धैर्य खोती चित्रित होती है; उसमें तो वह राम विरह में उन्माद-ग्रस्त हो चुकी हैं- <br /><br />
'कबहु प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सबारे।<br /> <br />
उठहु तात बलि मातृ बदन पर अनुज सखा सब द्वारे॥<br /> <br />
कबहुँ कहति यों बड़ी बार भई जाहु भूप पहं भैया।<br /> <br />
बन्धु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरी मैया॥ <ref>गीतावली(अयो॰52)</ref> आदि पदों में कौसल्या का जो चित्र अंकित किया गया है, वह 'मानस' में नहीं किया गया है और कदाचित जान-बूझकर नहीं किया गया है ।<br />
*[[सीता]] के साथ राम की जिस 'माधुरी-विलास-हाल ' का चित्रण [[चित्रकूट]] की दिनचर्या में 'गीतावली' <ref>(गीतावली, अयो॰ पद 44)</ref> में हुआ है अथवा, उसके उत्तरकाण्ड में भोर में 'प्रिय प्रेम रस पागे' अलसाये हुए राम का जो चित्रण हुआ है <ref>गीतावली, उत्तर॰2)</ref>, और विभिन्न प्रसंगों में [[अयोध्या]] के नारी-समाज द्वारा राम के जिस सौन्दर्य-पान का वर्णन किया गया है <ref>गीतावली(उत्तर॰18-19 तथा 21-22)</ref> उनका एक भी समतुल्य 'मानस' में नहीं है । <br />
*'मानस' की रचना तुलसीदास ने सम्पूर्ण समाज के लिए की थी: 'सुर सरि सम सब कहै हित होई' यह भावना उनकी रचना के सीमाओं का कहीं भी अतिक्रमण नहीं होने दिया, जब कि 'गीतावली' के अधिकतर पदों की रचना उन्होंने सम्भवत: केवल भक्त और रसिक समुदाय के लिए की ,इसलिए इसमें हमें 'मानस' के [[तुलसीदास]] की अपेक्षा एक अधिक वास्तविक और हाड़-मांस के तुलसीदास के दर्शन होते हैं ।<br />
<br />
==टीका-टिप्पणी==<br />
<references/><br />
[[en:Geetavali]]<br />
[[श्रेणी:कोश]]<br />
[[श्रेणी:पद्य रचनाएँ]]</div>जन्मेजय