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Brajdiscovery - सदस्य योगदान [hi]
2024-03-29T14:15:37Z
सदस्य योगदान
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शेषनाग
2012-04-09T07:57:22Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==शेषनाग / [[:en:Sheshnag|Sheshnag]]==<br />
{{tocright}}<br />
'''शेषनाग''' भगवान की सर्पवत् आकृतिविशेष होती है। सारी सृष्टि के विनाश के पश्चात् भी ये बचे रहते हैं, इसीलिए इनका नाम 'शेष' हैं। सर्पाकार होने से इनके नाम से 'नाग' विशेषण जुड़ा हुआ है। शेषनाग स्वर्ण पर्वत पर रहते हैं। शेष नाग के हज़ार मस्तक हैं। वे नील वस्त्र धारण करते हैं तथा समसत देवी-[[देवता|देवताओं]] से पूजित हैं। उस पर्वत पर तीन शाखाओं वाला सोने का एक ताल वृक्ष है जो महाप्रभु की ध्वजा का काम करता है।<ref>[[वाल्मीकि रामायण]], किष्किंधा कांड,40।50-53</ref> <br />
<br />
रात्रि के समय [[आकाश]] में जो वक्राकृति आकाशगंगा दिखाई पड़ती है और जो क्रमश: दिशा परिवर्तन करती रहती है, यह निखिल ब्रह्मांडों को अपने में समेटे हुए हैं। उसकी अनेक शाखाएँ दिखाई पड़ती हैं। वह सर्पाकृति होती है। इसी को शेषनाग कहा गया है। पुराणों तथा काव्यों में शेष का वर्ण श्वेत कहा गया है। आकाशगंगा श्वेत होती ही है। यहाँ 'ऊँ' की आकृति में विश्व ब्रह्मांड को घेरती है। 'ऊँ' को ब्रह्म कहा गया है। वही शेषनाग है।<br />
==पुराणों में उल्लेखित==<br />
इनका आख्यान विभिन्न [[पुराण|पुराणों]] में मिलता है। कालिका पुराण में कहा गया है कि प्रलयकाल आने पर जब सारी सृष्टि नष्ट हो जाती है तब [[विष्णु|भगवान विष्णु]] अपनी प्रिया [[लक्ष्मी]] के साथ इनके ऊपर शयन करते हैं और उनके ऊपर ये अपनी फणों की छाया किए रहते हैं। इनका पूर्ण फण कमल को ढके रहता है, उत्तर का फण भगवान के शिराभाग का और दक्षिण फण चरणों का आच्छादन किए रहता है। प्रतीची का फण भगवान विष्णु के लिए व्यंजन का कार्य करता है। इनके ईशान कोण का फण शंख, चक्र, नंद, खड्ग, [[गरुड़]] और युग तूणीर धारण करते हैं तथा आग्नेय कोण के फण गदा, पद्म आदि धारण करते हैं। <br />
<br />
पुराणों में इन्हें सहस्रशीर्ष या सौ फणवाला कहा गया है। इनके एक फण पर सारी वसुंधरा अवस्थित कही गई है। ये सारी [[पृथ्वी]] को धूलि के कर्ण की भाँति एक फण पर सरलतापूर्वक लिए रहते हैं। पृथ्वी का भार अत्याचारियों के कारण जब बहुत प्रवर्धित हो जाता है तब इन्हें अवतार भी धारण करना पउता है। [[लक्ष्मण]] और [[बलराम]] इनके अवतार कहे गए हैं। इनका कही अंत नहीं है इसीलिए इन्हें 'अनंत' भी कहा गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने लक्ष्मण की वंदना करते हुए उन्हें शेषावतार कहा है :<br />
<blockquote><poem>बंर्दौं लछिमन पद जलजाता। सीतल सुभग भगत सुखदात।।<br />
रघुपति कीरति बिमल पताका। द्वंड समान भयउ जस जाका।।<br />
सेष सहस्रसीस जगकारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।<ref>[[बाल काण्ड वा. रा.|बाल काण्ड]], १७।३,४</ref></poem></blockquote><br />
<br />
==कथा==<br />
कद्रू के बेटों में सबसे पराक्रमी शेष नाग था। उसने अपनी छली मां और भाइयों का साथ छोड़कर गंधमादन पर्वत पर तपस्या करनी आरंभ की। उसकी इच्छा थी कि वह इस शरीर का त्याग कर दे। भाइयों तथा मां का विमाता (विनता) तथा सौतेले भाइयों [[अरुण देवता|अरुण]] और [[गरुड़]] के प्रति द्वेष भाव ही उसकी सांसारिक विरक्ति का कारण था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर [[ब्रह्मा]] ने उसे वरदान दिया कि उसकी बुद्धि सदैव धर्म में लगी रहे। साथ ही ब्रह्मा ने उसे आदेश दिया कि वह [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] को अपने फन पर संभालकर धारण करे, जिससे कि वह हिलना बंद कर दे तथा स्थिर रह सके। शेष नाग ने इस आदेश का पालन किया। उसके पृथ्वी के नीचे जाते ही सर्पों ने उसके छोटे भाई, वासुकि का राज्यतिलक कर दिया।<ref>[[महाभारत]], [[आदि पर्व महाभारत|आदि पर्व]], अ0 35,36</ref> <br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
[[en:Sheshnag]]<br />
[[Category: कोश]]<br />
[[Category:भगवान-अवतार]]<br />
[[Category:पौराणिक इतिहास]]<br />
[[Category:पौराणिक कथा]]<br />
[[Category:हिन्दू भगवान अवतार]]<br />
__INDEX__</div>
फ़ौज़िया ख़ान
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साँचा:पर्व और त्योहार
2012-03-06T10:05:13Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
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फ़ौज़िया ख़ान
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नन्दोत्सव
2012-03-06T10:03:39Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{Menu}}<br />
[[चित्र:Banke-Bihari-Temple.jpg|[[बांके बिहारी मन्दिर वृन्दावन|बांके बिहारी जी मन्दिर]], [[वृन्दावन]]|thumb|200px]]<br />
मथुरा ज़िले में [[वृंदावन]] के विशाल [[रंग नाथ जी का मन्दिर|श्री रंगनाथ मंदिर]] में [[ब्रज]] के नायक भगवान श्री [[कृष्ण]] के जन्मोत्सव के दूसरे दिन नन्दोत्सव की धूम रहती है। नन्दोत्सव में सुप्रसिद्ध '[[लठ्ठा का मेला|लठ्ठे के मेले]]' का आयोजन किया जाता है।<br />
* [[गोकुल]] एवं [[नन्दगांव]] में भी नन्दोत्सव का विशेष आयोजन होता है।<br />
====उत्सव====<br />
अर्धरात्रि में श्री कृष्ण का जन्म कंस के कारागार में होने के वाद उनके पिता [[वसुदेव]] [[कंस]] के भय से बालक को रात्रि में ही [[यमुना नदी]] पार कर [[नन्द]] बाबा के यहाँ [[गोकुल]] में छोड़ आये थे। इसीलिए कृष्ण जन्म के दूसरे दिन गोकुल में 'नन्दोत्सव' मनाया जाता है। भाद्रपद नवमी के दिन समस्त [[ब्रज|ब्रजमंड़ल]] में नन्दोत्सव की धूम रहती है। <br />
[[चित्र:gokul-ghat.jpg|[[यमुना नदी|यमुना]], [[गोकुल]]|thumb|200px|left]]<br />
====दधिकांदों====<br />
यह उत्सव 'दधिकांदों' के रूप मनाया जाता है। 'दधिकांदो' का अर्थ है दही की कीच। हल्दी मिश्रित दही फेंकने की परम्परा आज भी निभाई जाती है। मंदिर के पुजारी नन्द बाबा और [[यशोदा|जसोदा]] के वेष में भगवान कृष्ण को पालने को झुलाते हैं। मिठाई, फल, मेवा व मिश्री लुटायी जाती है। श्रद्धालु इस प्रसाद को पाकर अपने आपको धन्य मानते हैं।<br />
====श्री रंगनाथ मंदिर में====<br />
[[चित्र:Rang-Ji-Temple-Vrindavan-Mathura.jpg|[[रंग नाथ जी का मन्दिर|रंग नाथ जी मन्दिर]], [[वृन्दावन]]|thumb|200px]]<br />
वृंदावन में विशाल उत्तर भारत के श्री रंगनाथ मंदिर में ब्रज के नायक भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव के दूसरे दिन नन्दोत्सव की धूम रहती है। नन्दोत्सव में सुप्रसिद्ध '[[लठ्ठा का मेला|लठ्ठे के मेले]]' का आयोजन किया जाता है। धार्मिक नगरी वृंदावन में [[कृष्ण जन्माष्टमी|श्री कृष्ण जन्माष्टमी]] जगह-जगह मनाई जाती है। उत्तर भारत के सबसे विशाल मंदिर में नन्दोत्सव की निराली छटा देखने को मिलती है। दक्षिण भारतीय शैली में बना प्रसिद्ध श्री रंगनाथ मंदिर में नन्दोत्सव के दिन श्रद्धालु लठ्ठा के मेला की एक झलक पाने को खड़े होकर देखते रहते हैं। जब भगवान 'रंगनाथ' रथ पर विराजमान होकर मंदिर के पश्चिमी द्वार पर आते हैं तो लठ्ठे पर चढ़ने वाले पहलवान भगवान रंगनाथ को दण्डवत कर विजयश्री का आर्शीवाद लेते हैं और लठ्ठे पर चढ़ना प्रारम्भ करते हैं। 35 फुट ऊंचे लठ्ठे पर जब पहलवान चढ़ना शुरू करते हैं उसी समय मचान के ऊपर से कई मन तेल और पानी की धार अन्य ग्वाल-वाल लठ्ठे पर गिराते हैं, जिससे पहलवान फिसलकर नीचे ज़मीन पर आ गिरते हैं। इसको देखकर श्रद्धालुओं में रोमांच की अनुभूति होती है। भगवान का आर्शीवाद लेकर ग्वाल-वाल पहलवान पुन: एक दूसरे को सहारा देकर लठ्ठे पर चढ़ने का प्रयास करते है और तेज़ पानी की धार और तेल की धार के बीच पूरे यत्न के साथ ऊपर की ओर चढ़ने लगते हैं। कई घंटे की मेहनत के बाद आख़िर ग्वाल-वालों को भगवान के आर्शीवाद से लठ्ठे पर चढ़कर जीत प्राप्त करने का अवसर मिलता है। इस रोमांचक मेले को देखकर देश-विदेश के श्रद्धालु श्रृद्धा से अभिभूत हो जाते हैं। ग्वाल-वाल खम्भे पर चढ़कर नारियल, लोटा, अमरूद, केला, फल मेवा व पैसे लूटने लगते हैं। इसी प्रकार वृंदावन में ही नहीं [[भारत]] के अन्य भागों में भी भगवान श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर नन्दोत्सव मनाया जाता है।<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{पर्व और त्योहार}}<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:पर्व और त्योहार]]<br />
[[Category:ब्रज]]<br />
__NOTOC__<br />
__INDEX__</div>
फ़ौज़िया ख़ान
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लठ्ठा का मेला
2012-03-06T10:03:19Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: '{{menu}} ==पन्ना शीर्षक / Page Heading== '''लठ्ठा का मेला''' उत्तर भारत क...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==पन्ना शीर्षक / Page Heading==<br />
'''लठ्ठा का मेला''' उत्तर भारत के विशाल [[ब्रज]] मंडल के [[रंग नाथ जी का मन्दिर|रंग नाथ जी मन्दिर]] में आयोजन होने वाला सुप्रसिद्ध मेला है। <br />
==मेले का आयोजन==<br />
वैष्णव संप्रदाय के प्रसिद्ध रंग मंदिर में वेद मंत्रों के साथ लठ्ठा मेले का आयोजन किया जाता है। पुराने विशाल चार खंभों के ऊपर आचार्यों के पास रखी माखन की मटकी को लेने के लिये 30 फुट ऊंचे खंभे पर चढ़कर [[वृन्दावन]] और आसपास के गांव के दर्जनों पहलवानों कई घंटे भरसक प्रयास करते है। आचार्यें पहलवानों के ऊपर कई टीन सरसों का तेल और पानी की बौछारें की करते है। इससे खंभे पर चढ़ने का प्रयास कर रहे पहलवान फिसलकर नीचे आ जाते है। दुसायत, जैंत, छटीकरा, राल गांव के ठाकुरों की पालों के पहलवानों में मटकी को पाने की होड़ मची रहती है। <br />
==श्रद्धालुओं की भीड़==<br />
मंदिर परिसर में कोतुहल से भरपूर इस मेले को देखने के लिए भक्तों का सैलाब उमता है। इस कोतुहल से भरे मटकी पाने के प्रयास को देखने के लिये हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी रहती है। भक्त नंद के आनंद भये जय कन्हैया लाल की के जयघोष करते है। इससे पूर्व गोदारंगमन्नार मंदिर के आचार्यों ने दक्षिण शैली में वेदमंत्रोच्चारों के साथ माखन से भरी मटकी को स्तंभ के ऊपर स्थापित किया जाता है। यहां पर अन्य मंदिरों से अलग पांचरात्र शास्त्र विधि से भगवान गोदारंगमन्नार की पूजा की जाती है। यहां नक्षत्रों की चाल के आधार पर आचार्य गणना करके तिथियों के आधार पर तीज त्यौहार मनाए जाते हैं। <br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{पर्व और त्योहार}}<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:पर्व और त्योहार]]<br />
[[Category:ब्रज]]<br />
__NOTOC__<br />
__INDEX__</div>
फ़ौज़िया ख़ान
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Hanuman-Ram-Laxman.jpg&diff=67135
चित्र:Hanuman-Ram-Laxman.jpg
2011-11-26T05:12:36Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div></div>
फ़ौज़िया ख़ान
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8&diff=67134
सांख्य दर्शन
2011-11-26T05:09:46Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{Menu}}<br />
==प्राचीनता और परम्परा==<br />
{{tocright}}<br />
[[महाभारत]]<balloon title="महाभारत शांति पर्व, अध्याय 301" style=color:blue>*</balloon> में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत सांख्य ज्ञान व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था। एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं। इसीलिए महाभारत में तत्त्वगणना, स्वरूप वर्णन आदि पर मतों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यदि इस विविधता के प्रति सावधानी न बरती जाय तो कोई भी व्यक्ति प्रैंकलिन एडगर्टन की तरह यही मान लेगा कि महाकाव्य में सांख्य संज्ञा किसी दर्शन विशेष के लिए नहीं वरन मोक्ष हेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।<balloon title="एन्सा. पृष्ठ 5 पर उद्धृत" style=color:blue>*</balloon> इस प्रकार की भ्रान्ति से बचने के लिए सांख्य दर्शन की विवेचना से पूर्व 'सांख्य' संज्ञा के अर्ध पर विचार करना अपेक्षित है। <br />
=='सांख्य' शब्द का अर्थ==<br />
सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'। संसार में प्राणिमात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे किस तरह सदा के लिए दूर किया जा सकता है- ये ही मनुष्य के लिए शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है। 'कपिल दर्शन' में प्रकृति-पुरुष-विवेक-ख्याति (ज्ञान) 'सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति' इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानवर्धक ख्याति ही 'संख्या' में निहित 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अर्ध में भी गृहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या निरूपण करने वाले दर्शन को सांख्य दर्शन कहा जाता है। <br />
*'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई विसंगति भी नहीं है। <br />
*डॉ॰ आद्याप्रसाद मिश्र लिखते हैं-'ऐसा प्रतीत होता है कि जब तत्त्वों की संख्या निश्चित नहीं हो पाई थी तब सांख्य ने सर्वप्रथम इस दृश्यमान भौतिक जगत की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास किया था जिसके फलस्वरूप उसके मूल में वर्तमान तत्त्वों की संख्या सामान्यत: चौबीस निर्धारित की गई।<balloon title="एन्सा. पृष्ठ 5 पर उद्धृत" style=color:blue>*</balloon>' लेकिन आचार्य 'उदयवीर शास्त्री' गणनार्थक निष्पत्ति को युक्तिसंगत नहीं मानते 'क्योंकि अन्य दर्शनों में भी पदार्थों की नियत गणना करके उनका विवेचन किया गया है। सांख्य पद का मूल ज्ञानार्थक 'संख्या' पद है गणनार्थक नहीं।<balloon title="सां. द.ऐ.प." style=color:blue>*</balloon>'हमारे विचार में गणनार्थक और ज्ञानार्थक- दोनो रूपों में सांख्य की सार्थकता है। उद्देश्य-प्राप्ति में विविध रूप में 'गणना' के अर्थ में 'सांख्य' को स्वीकार किया जा सकता है। शान्तिपर्व में दोनों ही अर्थ एक साथ स्वीकार किये गये हैं।<balloon title="सां. सि. पृष्ठ 20" style=color:blue>*</balloon><br />
<poem>संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते।<br />
तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:॥<balloon title="शांति पर्व 306/42-43" style=color:blue>*</balloon> <br />
*प्रकृति पुरुष के विवेक-ज्ञान का उपदेश देने, प्रकृति का प्रतिपादन करने तथा तत्त्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करने के कारण ये दार्शनिक 'सांख्य' कहे गये हैं। <br />
*'संख्या' का अर्थ समझाते हुए शांति पर्व में कहा गया है- <br />
दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागत:। <br />
कंचिदर्धममिप्रेत्य सा संख्येत्युपाधार्यताम्॥<balloon title="शांति पर्व 306/42-43" style=color:blue>*</balloon></poem> अर्थात जहाँ किसी विशेष अर्थ को अभीष्ट मानकर उसके दोषों और गुणों का प्रमाणयुक्त विभाजन (गणना) किया जाता है, उसे संख्या समझना चाहिए। स्पष्ट है कि तत्त्व-विभाजन या गणना भी प्रमाणपूर्वक ही होती है। अत: 'सांख्य' को गणनार्थक भी माना जाय तो उसमें ज्ञानार्थक भाव ही प्रधान होता है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि 'सांख्य' शब्द में संख्या ज्ञानार्थक और गणनार्थक दोनों ही है। अब प्रश्न उठता है कि [[संस्कृत]] वाङमय में 'सांख्य' शब्द किसी भी प्रकार के मोक्षोन्मुख ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है या [[कपिल]] प्रणीत सांख्य दर्शन के लिए प्रयुक्त हुआ है? इसके उत्तर के लिए कतिपय प्रसंगों पर चर्चा अपेक्षित है। <br />
*श्री पुलिन बिहारी चक्रवर्ती ने [[चरक संहिता]] के दो प्रसंगों को उद्धृत करते हुए उनके अर्थ के सम्बन्ध में अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया। वे उद्धरण हैं- <br />
<poem>सांख्यै: संख्यात-संख्येयै: सहासीनं पुनर्वसुम्।<br />
जगद्वितार्थ पप्रच्छ वह्निवंश: स्वसंशयम्॥<br />
यथा वा आदित्यप्रकाशकस्तथा सांख्यवचनं प्रकाशमिति<br />
अयनं पुनराख्यातमेतद् योगस्ययोगिभि:।<br />
संख्यातधर्मै: सांख्यैश्च मुक्तौर्मोक्षस्य चायनम्॥<br />
सर्वभावस्वभावज्ञो यथा भवति निस्पृह:। <br />
योगं यथा साधयते सांख्य सम्पद्यते यथा॥</poem><br />
*प्रथम प्रसंग में श्री चक्रवर्ती संख्या को सम्यक-ज्ञान व ज्ञाता के रूप में प्रयुक्त मानते हैं और <br />
*द्वितीय प्रसंग में स्पष्टत: सांख्य दर्शनबोधक। यहाँ यह विचारणीय है कि चरक संहिताकार के समय तक एक व्यवस्थित दर्शन के रूप में कपिलोक्त दर्शन सांख्य के 'प में सुप्रतिष्ठित था और चरक संहिताकार इस तथ्य से परिचित थे। तब प्रथम प्रसंग में 'सांख्य' शब्द के उपयोग के समय एक दर्शन सम्प्रदाय का ध्यान रखते हुए ही उक्त शब्द का उपयोग किया गया होगा। संभव है कपिलप्रोक्त दर्शन मूल में चिकित्सकीय शास्त्र में भी अपनी भूमिका निभाता रहा हो और उस दृष्टि से चिकित्सकीय शास्त्र को भी सांख्य कहा गया हो।<balloon title="ओडे सां/सि." style=color:blue>*</balloon> इससे तो सांख्य दर्शन की व्यापकता का ही संकेत मिलता है<balloon title="ओडे सां/सि." style=color:blue>*</balloon> अत: दोनों प्रसंगों में विद्वान, ज्ञान आदि शब्द 'सांख्य ज्ञान' के रूप में ग्राह्य हो सकता है।<br />
*अहिर्बुध्न्यसंहिता के बारहवें अध्याय में कहा गया है-<br />
<poem>सांख्यरूपेण संकल्पो वैष्णव: कपिलादृषे:। <br />
उदितो यादृश: पूर्वं तादृशं श्रृणु मेऽधुना॥18॥<br />
षष्टिभेदं स्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने:॥19॥</poem> यहाँ 'सांख्य' शब्द को सम्यक ज्ञान व कापिल दर्शन 'सांख्य' दोनों ही अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। सांख्य रूप में (सम्यक ज्ञान रूप में) पूर्व में कपिल द्वारा संकल्प जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है- 'मुझसे सुनो। महामुनि का साठ पदार्थों के विवेचन से युक्त शास्त्र 'सांख्य' नाम से कहा जाता है। 'सांख्यरूपेण' उसको सम्यक ज्ञान व 'सांख्य दर्शन' दोनों ही अर्थों में समझा जा सकता है। यहाँ महाभारत शांतिपर्व का यह कथन कि 'अमूर्त परमात्मा का आकार सांख्य शास्त्र है'- से पर्याप्त साम्य स्मरण हो आता है। <br />
*[[श्वेताश्वतरोपनिषद|श्वेताश्वतर उपनिषद]] में प्रयुक्त 'सांख्ययोगाधिगम्यम्<balloon title="श्वेताश्वतरोपनिषद (6/13)" style=color:blue>*</balloon>' की व्याख्या तत्स्थाने न कर शारीरक भाष्य<balloon title="(2/1/3)" style=color:blue>*</balloon> में शंकर ने 'सांख्य' शब्द को कपिलप्रोक्त शास्त्र से अन्यथा व्याख्यायित करने का प्रयास किया। शंकर कहते हैं- 'यत्तु दर्शनमुक्तं तत्कारणं सांख्य- योगाभिपन्नम् इति, वैदिकमेव तत्र ज्ञानम् ध्यानं च सांख्ययोगशब्दाभ्यामभिलप्यते' संभवत: यह स्वीकार कर लेने में कोई विसंगति नहीं होगी कि यहाँ सांख्य पद वैदिक ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है। लेकिन किस प्रकार के वैदिक ज्ञान का लक्ष्य किया गया है, यह विचारणीय है। श्वेताश्वतर उपनिषद में जिस दर्शन को प्रस्तुत किया गया है वह 'भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं' के त्रैत का दर्शन है। [[ॠग्वेद]] के 'द्वा सुपर्णा'- मन्त्रांश से भी त्रिविध अज तत्त्वों का दर्शन प्राप्त होता ही है। महाभारत में उपलब्ध सांख्य दर्शन भी प्रायश: त्रैतवादी ही है। <br />
*डॉ॰ आद्याप्रसाद मिश्र ने ठीक ही कहा है- 'त्रैत मौलिक सांख्य की अपनी विशिष्टता थी, इससे स्पष्ट होता है कि मौलिक सांख्य दर्शन के इसी त्रैतवाद की पृष्ठभूमि में श्वेताश्वतर की रचना हुई।<balloon title="सां. द. ऐ. प." style=color:blue>*</balloon>' अत: इस अर्थ में सांख्य शब्द 'वैदिकज्ञान' के अर्थ में ग्रहण किया जाये तब भी निष्कर्ष में इसका लक्ष्यार्थ कपिलोक्त दर्शन ही गृहीत होता है। <br />
*[[गीता|भगवद्गीता]] में सांख्य-योग शब्दों का प्रयोग भी विचारणीय है क्योंकि विद्वानों में यहाँ भी कुछ मतभेद है। द्वितीय अध्याय के उन्चालीसवें श्लोक में कहा गया है- 'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु'। <br />
*अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि यहाँ यह 'सांख्य' सत्य ज्ञान की प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता।<balloon title="इ.सा.धा." style=color:blue>*</balloon> जबकि आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े विस्तार से इसे कपिलप्रोक्त 'सांख्य' के अर्थ में निरूपित किया। उक्त श्लोक में श्री[[कृष्ण]] कह रहे हैं कि यह सब सांख्य बुद्धि (ज्ञान) कहा है अब योग बुद्धि (ज्ञान) सुनो। यहाँ विचारणीय यह है कि यदि 'सांख्य' शब्द ज्ञानर्थक है, सम्प्रदाय-विशेष नहीं, तव सांख्य 'बुद्धि' कहकर पुनरूक्ति की आवश्यकता क्या थी? बुद्धि शब्द से कथनीय 'ज्ञान' का भाव तो सांख्य के 'ख्याति' में आ ही जाता है। 'सांख्य' बुद्धि में यह ध्वनित होता है कि 'सांख्य' मानो कोई प्रणाली या मार्ग है, उसकी बुद्धि या 'ज्ञान' की बात कही गई है। वह चिन्तन की प्रणाली या मार्ग गीता में प्रस्तुत में ज्ञान या दर्शन ही होगा। गीता में जिस मुक्त भाव से सांख्य दर्शन के पारिभाषिक शब्दों या अवधारणाओं का प्रयोग किया गया है उससे यही स्पष्ट होता है कि वह 'सांख्य' ज्ञान ही है। अत: सांख्य शब्द को गीता का एक पारिभाषिक शब्द मान लेने पर भी उसका लक्ष्यार्थ कपिल का सांख्य शास्त्र ही निरूपित होता है। <br />
*भगवद्गीता के ही तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में 'सांख्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। कहा गया है-<br />
<poem>लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। <br />
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ गीता 3।3॥</poem> यहाँ भी दो प्रकार के मार्गों या निष्ठा की चर्चा की गई हैं- <br />
#ज्ञानमार्ग <br />
#कर्म-मार्ग। विचारणीय यह है कि जब 'कर्मयोगेन योगिनां' कहा जा सकता है तब 'ज्ञानयोगेन ज्ञानिना' न कहकर 'सांख्यानां' क्यों कहा गया? निश्चय ही 'ज्ञानयोगियों' के 'ज्ञान' के विशेष स्वरूप का उल्लेख अभीष्ट था। वह विशेष ज्ञान कपिलोक्त शास्त्र ही है, यह गीता तथा महाभारत के शान्ति पर्व से स्पष्ट हो जाता है। 'यदेव योगा: पश्यन्ति सांख्यैस्तदनुगम्यते<balloon title="महाभारत शांति पर्व, गीता" style=color:blue>*</balloon>' इसीलिए शान्ति पर्व में [[वसिष्ठ]] की ही तरह गीता में श्रीकृष्ण भी कहते हैं- 'सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।<balloon title="गीता" style=color:blue>*</balloon>' <br />
*शांतिपर्व तथा गीता में तो समान वाक्य से एक ही बात कही गई है- 'एकं साख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।<balloon title="शान्ति पर्व में 'सपश्यति' के स्थान पर 'स बुद्धिमान' है।" style=color:blue>*</balloon>'<br />
*गीता महाभारत का ही अंश है। अत: प्रचलित शब्दावली को समान रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित है। गीता में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द भी चाहे वह ज्ञानार्थक मात्र क्यों न प्रतीत होता हो, कपिलप्रोक्त शास्त्र के रूप में ग्रहण करना चाहिए। <br />
*महाभारत के शांतिपर्व में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द का लक्ष्यार्थ तो इतना स्पष्ट है कि उस पर कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं। इतना ही उल्लेखनीय है कि कपिल और सांख्य का सम्बन्ध, और सांख्य दर्शन की शब्दावली का पुरातन व्यापक प्रचार-प्रसार इस बात का द्योतक है कि यह एक अत्यन्त युक्तिसंगत दर्शन रहा है। ऐसे दर्शन की ओर विद्वानों का आकृष्ट होना, उस पर विचार करना और अपने विचारों को उक्त दर्शन से समर्थित या संयुक्त बताना बहुत स्वाभाविक है। जिस तरह वेदान्त दर्शन की प्रस्थानत्रयी में गीता का इतना महत्त्व है कि प्राय: सभी आचार्यों ने इस पर भाष्य रचे और अपने मत को गीतानुसार बताने का प्रयास किया। इसी तरह ज्ञान के विभिन्न पक्षों में रुचि रखने वाले विद्वानों ने अपने विचारों को सांख्य रूप ही दे दिया हो तो क्या आश्चर्य? ऐसे विकास की प्रक्रिया में मूल दर्शन के व्याख्या-भेद से अनेक सम्प्रदायों का जन्म भी हो जाना स्वाभाविक है। अपनी रुचि, उद्देश्य और आवश्यकता के अनुसार विद्वान विभिन्न पक्षों में से किसी को गौण, किसी को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और तदनुरूप ग्रन्थ रचना भी करते हैं। अत: किसी एक मत को मूल कहकर शेष को अन्यथा घोषित कर देना उचित प्रतीत नहीं होता। समस्त वैदिक साहित्य [[वेद|वेदों]] की महत्ता, उपयोगिता और आवश्यकतानुसार विभिन्न कालों में प्रस्तुति ही है। कभी कर्म यज्ञ आदि को महत्त्वपूर्ण मानकर तो कभी जीवन्त जिज्ञासा को महत्त्वपूर्ण मानकर वेदों की मूल भावना को प्रस्तुत किया गया। इससे किसी एक पक्ष को अवैदिक कहने का तो कोई औचित्य नहीं। परमर्षि कपिल ने भी वेदों को दार्शनिक ज्ञान को तर्क बुद्धि पर आधारित करके प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया। इसमें तर्कबुद्धि की पहुँच से परे किसी विषय को छोड़ दिया 'प्रतीत' हो तो इतने मात्र से कपिल दर्शन को अवैदिक नहीं कहा जा सकता। <br />
==सांख्य दर्शन की वेदमूलकता==<br />
*सांख्य दर्शन की वैदिकता पर विचार करने से पूर्व वैदिक का अभिप्राय स्पष्ट करना अभीष्ट है। एक अर्ध वैदिक कहने का तो यह है कि जो दर्शन वेदों में है वही सांख्य दर्शन में भी हो। वेदों में बताये गये मानवादर्श को स्वीकार करके उसे प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र रूप से विचार किया गया हो, तो यह भी वैदिक ही कहा जायेगा। अब वेदों में किस प्रकार का दर्शन है, इस विषय में मतभेद तो संभव है लेकिन परस्पर विरोधी मतवैभिन्न्य हो, तो निश्चय ही उनमें से अवैदिक दर्शन की खोज की जा सकती है। वेदों में सृष्टिकर्ता परमात्मा की स्वरूप चर्चा में, जगत जीव के साथ परमात्मा के सम्बन्धों के बारे में मतभेद है। तब भी ये सभी दर्शन वैदिक कहे जा सकते हैं, यदि वे वेदों को अपना दर्शन-मूल स्वीकार करते हों। लेकिन यदि कोई दर्शन परमात्मा की सत्ता को ही अस्वीकार करे तो उसे परमात्मा की सत्ता को न मानने वाले दर्शन के रूप में स्वीकार करके ही किया जाता है। इस मत में कितनी सत्यता या प्रामाणिकता है यह सांख्य दर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करने पर स्वत: स्पष्ट हो जावेगा।<br />
*महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि वेदों में, सांख्य में तथा योग शास्त्र में जो कुछ भी ज्ञान इस लोक में है वह सब सांख्य से ही आगत है। इसे अतिरंजित कथन भी माना जाये तो भी, इतना तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकार के अनुसार तब तक वेदों के अतिरिक्त सांख्य शास्त्र और योग शास्त्र भी प्रतिष्ठित हो चुके थे और उनमें विचार साम्य भी है। अत: इससे यह स्वीकार करने में सहायता तो मिलती ही है कि वेद और सांख्य परस्पर विरोधी नहीं हैं। <br />
*शान्ति पर्व में ही कपिल-स्यूमरश्मि का संवाद<balloon title="(अध्याय 268-270)" style=color:blue>*</balloon> प्राचीन इतिहास के रूप में [[भीष्म]] ने प्रस्तुत किया। इसमें कपिल को सत्त्वगुण में स्थित ज्ञानवान कहकर परिचित कराया गया। महाभारतकार ने कपिल का सांख्य-प्रवर्तक के रूप में उल्लेख किया, सांख्याचार्यों की सूची में भी एक ही कपिल का उल्लेख किया और 'स्यूमरश्मि-संवाद' में उल्लिखित कपिल का सांख्य-प्रणेता कपिल से पार्थक्य दिखाने का कोई संकेत नहीं दिया, तब यह मानने में कोई अनौचित्य नहीं है कि यह कपिल सांख्य-प्रणेता कपिल ही हैं।<ref>श्री पुलिन बिहारी चक्रवर्ती इस प्रसंग में कपिल को सांख्य-प्रणेता कपिल माने जाने की संभावना को तो स्वीकार करते हैं लेकिन वेदों तथा अन्य स्थानों पर कपिल के उल्लेख तथा सांख्य-प्रणेता कपिल से उनके सम्बन्ध के विषय पर स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में इसे प्रामाणिक नहीं मानते। (ओ.डे.सां.सि. पृष्ठ)</ref><br />
*उपर्युक्त संवाद में स्यूमरश्मि द्वारा कपिल पर वेदों की प्रामाणिकता पर संदेह का आक्षेप लगाने पर कपिल कहते हैं- 'नाहं वेदान् विनिन्दामि<balloon title="शान्ति पर्व. 268।12" style=color:blue>*</balloon>' <br />
*इसी संवाद क्रम में कपिल पुन: कहते हैं 'वेदा: प्रमाणं लोकानां न वेदा: पृष्ठत: कृता:<balloon title="शान्ति पर्व अध्याय 268-70" style=color:blue>*</balloon>' फिर वेदों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं।<balloon title="शान्ति पर्व अध्याय 268-70" style=color:blue>*</balloon><br />
<poem>वेदांश्च वेदितव्यं च विदित्वा च यथास्थितिम्।<br />
एवं वेद विदित्याहुरतोऽन्य वातरेचक:॥<br />
सर्वे विदुर्वेदविदो वेदे सर्वं प्रतिष्ठितम्।<br />
वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च॥</poem><br />
*उक्त विचारयुक्त कपिल को अवैदिक कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता। फिर, कपिल प्रणीत सूत्र द्वारा [[वेद]] के स्वत:प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है- 'निजशक्यभिव्यक्ते स्वत:प्रमाण्यम्<balloon title="(5/51)" style=color:blue>*</balloon>' इस सूत्र में अनिरुद्ध, विज्ञानभिक्षु आदि भाष्यकारों ने स्वत:प्रामाण्य को स्पष्ट किया है। <br />
<br />
*सांख्यकारिका में 'आप्तश्रुतिराप्तवचनम्<balloon title="(कारिका 5)" style=color:blue>*</balloon>' कहकर वेद प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। 5वीं कारिका के भाष्य में वाचस्पति मिश्र कहते हैं- 'तच्च स्वत:प्रामाण्यम्, अपौरुषेयवेदवाक्यजनितत्वेन सकलदोषाशंकाविनिर्मुत्वेन युक्तं भवति।' इतना ही नहीं, 'वेदमूलस्मृतीतिहासपुराणवाक्यजनितमपि ज्ञानं युक्तं भवति' कहा है। <br />
*वेदाश्रित स्मृति, इतिहास, [[पुराण]] वाक्य से उत्पन्न ज्ञान भी जब निर्दोष माना जाता है, तब [[वेद]] की तो बात ही क्या? इसी कारिका की वृत्ति में माठर कहते है- 'अत: ब्रह्मादय: आचार्या:, श्रुतिर्वेदस्तदेतदुभयमाप्तवचनम्।' इस तरह सांख्य शास्त्र के ग्रन्थों में वेदों का स्वत: प्रामाण्य स्वीकार करके उसे भी 'प्रमाण' रूप में स्वीकार करते हैं। तब सांख्य शास्त्र को अवैदिक या वेद विरुद्ध कहना कथमपि समीचीन नहीं जान पड़ता। <br />
*सांख्य दर्शन में प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली भी इसे वैदिक निरूपित करने में एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है। 'पुरुष' शब्द का उपयोग मनुष्य, आत्मा, चेतना आदि के अर्ध में वैदिक वाङमय में अनेक स्थलों पर उपलब्ध है। लेकिन 'पुरुष' शब्द का दर्शन शास्त्रीय प्रयोग करते ही जिस दर्शन का स्मरण तत्काल हो उठता है वह सांख्य दर्शन है। इसी तरह अव्यक्त, महत, तन्मात्र, त्रिगुण, सत्त्व, रजस्, तमस आदि शब्द भी सांख्य दर्शन में दर्शन की संरचना इन्हीं शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। अत: चाहे वैदिक साहित्य से ये शब्द सांख्य में आए हों या सांख्य परम्परा से इनमें गए हों, इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि सांख्य दर्शन वैदिक है। षड्दर्शन में सांख्य दर्शन को रखना और भारतीय दर्शन की सुदीर्ध परम्परा में इसे आस्तिक दर्शन मानना भी सांख्य की वैदिकता का स्पष्ट उद्घोष ही है।<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{दर्शन शास्त्र}}<br />
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[[Category:दर्शन]]<br />
__INDEX__<br />
[[Category:सांख्य_दर्शन]]</div>
फ़ौज़िया ख़ान
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF&diff=67133
महायान साहित्य
2011-11-26T05:04:37Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{Menu}}<br />
{{बौद्ध दर्शन}}<br />
==महायान साहित्य==<br />
<br />
==महायानसूत्र==<br />
{{tocright}}<br />
महयानसूत्र अनन्त हैं। उनमें कुछ उपलब्ध हैं, और कुछ मूल रूप में अनुपलब्ध हैं। भोट-भाषा, चीनी भाषा में अनेक सूत्रों के अनुवाद उपलब्ध हैं। कुछ सूत्र अवश्य ऐसे हैं, जिन का महायान बौद्ध परम्परा में अत्यधिक आदर है। ऐसे सूत्रों की संख्या 9 है। इन 9 सूत्रों को 'नव धर्म' भी कहते हैं तथा 'वैपुल्यसूत्र' भी कहते हैं। वे इस प्रकार है- <br />
#सद्धर्मपुण्डरीक, <br />
#ललितविस्तर, <br />
#लंकावतार, <br />
#सुवर्णप्रभास, <br />
#गण्डव्यूह, <br />
#तथागतगुह्यक, <br />
#समाधिराज, <br />
#दशभूमीश्वर एवं <br />
#अष्टसाहसिका आदि <br />
*प्रज्ञापारमितासूत्र भी इन सूत्रों से अलग एक मह्त्वपूर्ण सूत्र है जिसमें प्रमुखत: भगवान बुद्ध द्वारा गृध्रकूट पर्वत पर द्वितीय धर्मचक्र के काल में उपदिष्ट देशनाएं हैं।<br />
<br />
==सद्धर्मपुण्डरीक==<br />
*महायान वैपुल्यसूत्रों में यह अन्यतम एवं एक आदृत सूत्र है। 'पुण्डरीक' का अर्थ 'कमल' होता है। 'कमल' पवित्रता और पूर्णता का प्रतीक होता है। जैसे पंक (कीचड़) में उत्पन्न होने पर भी कमल उससे लिप्त नहीं होता, वैसे लोक में उत्पन्न होने पर भी बुद्ध लोक के दोषों से लिप्त नहीं होते। इसी अर्थ में सद्धर्मपुण्डरीक यह ग्रन्थ का सार्थक नाम है। <br />
*चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत आदि महायानी देशों में इसका बड़ा आदर है और यह सूत्र बहुत पवित्र माना जाता है। <br />
*चीनी भाषा में इसके छह अनुवाद हुए, जिसमें पहला अनुवाद ई. सन् 223 में हुआ। <br />
*धर्मरक्ष, कुमारजीव, ज्ञानगुप्त और धर्मगुप्त इन आचार्यों के अनुवाद भी प्राप्त होते हैं। <br />
*चीन और जापान में आचार्य कुमारजीव- कृत इसका अनुवाद अत्यन्त लोकप्रिय है। <br />
*ईस्वीय 615 वर्ष में जापान के एक राजपुत्र शी-तोकु-ताय-शि ने इस पर एक टीका लिखी, जो अत्यन्त आदर के साथ पढ़ी जाती है। <br />
*इस ग्रन्थ पर आचार्य वसुबन्धु ने 'सद्धर्म-पुण्डरीकशास्त्र' नामक टीका लिखी, जिसका बोधिरुचि और रत्नमति ने लगभग 508 ईस्वीय वर्ष में चीनी भाषा में अनुवाद किया था। इसका सम्पादन 1992 में प्रो. एच. कर्न एवं बुनियिउ नंजियों ने किया। <br />
*इस ग्रन्थ में कुल 27 अध्याय है, जिन्हें 'परिवर्त' कहा गया है। प्रथम निदान परिवर्त में इसमें उपदेश की पृष्ठभूमि और प्रयोजन की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह 'वैपुल्यसूत्रराज' है। इस परिच्छेद का मुख्य प्रतिपाद्य तो भगवान का यह कहना है कि 'तथागत नाना निरुक्ति और निदर्शनों (उदाहरणों) से, विविध उपायों से नाना अधिमुक्ति, रुचि और (बुद्धि की) क्षमता वाले सत्वों को सद्धर्म का प्रकाशन करते हैं। सद्धर्म कत्तई तर्कगोचर नहीं है। तथागत सत्त्वों को तत्त्वज्ञान का सम्यग् अवबोध कराने के लिए ही लोक में उत्पन्न हुआ करते हैं। तथागत यह महान कृत्य एक ही यान पर आधिष्ठित होकर करते हैं, वह एक यान है 'बुद्धयान' उससे अन्य कोई दूसरा और तीसरा यान नहीं है। वह बुद्धमय ही सर्वज्ञता को प्राप्त कराने वाला है। अतीत, अनागत और प्रत्युत्पन्न तीनों कालों के बुद्धों ने बुद्धयान को ही अपनाया है। वे बुद्धयान का ही तीन यानों (श्रावकयान, प्रत्येक बुद्धयान और बोधिसत्त्वयान) के रूप में निर्देश करते हैं। अत: बुद्धयान ही एकमात्र यान है। <br />
<poem>एकं हि यानं द्वितीयं न विद्यते<br />
तृतीयं हि नैवास्ति कदापि लोके।<balloon title="द्र.- सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र, 2:54, पृ. 31 (दरभङ्गा-संस्करण 1960" style=color:blue>*</balloon> </poem><br />
*द्वितीय उपायकौशल्यं परिवर्त में भगवान् ने शारिपुत्र के लिए व्याकरण किया कि वह अनागत काल में पद्मनाभ नाम के तथागत होंगे और सद्धर्म का प्रकाश करेंगे। शारिपुत्र के बारे में व्याकरण सुनकर जब वहाँ उपस्थित 12 हज़ार श्रावकों को विचिकित्सा उत्पन्न हुई तब उसे हटाते हुए भगवान ने तृतीय औपम्यपरिवर्त में एक उदाहरण देते हुए कहा कि किसी महाधनी पुरुष के कई बच्चे हैं, वे खिलौनों के शौकीन हैं। उसके घर में आग लग जाए, उसमें बच्चे घिर जाएं और निकलने का एक ही द्वार हो, तब पिता बच्चों को पुकार कर कहता है- आओ बच्चों, खिलौने ले लो, मेरे पास बहुत खिलौने हैं, जैसे- गोरथ, अश्वरथ, मृगरथ आदि। तब वे बच्चे खिलौन के लोभ में बाहर आ जाते हैं। तब शारिपुत्र, वह पुरुष उन सभी बच्चों को सर्वोत्कृष्ट गोरथ देता है। जो अश्वरथ और मृगरथ आदि हीन हैं, उन्हें नहीं देता। ऐसा क्यों? इसलिए कि वह महाधनी है और उसका कोष (खजाना) भरा हुआ है। भगवान कहते हैं कि उसी प्रकार ये सभी मेरे बच्चे हैं, मुझे चाहिए कि इन सबको समान मान कर उन्हें 'महायान' ही दूँ। क्या शारिपुत्र, उस पिता ने तीनों यानों को बताकर एक ही 'महायान' दिया, इसमें क्या उनका मृषावाद है? शारिपुत्र ने कहा नहीं भगवान तथागत महाकारुणिक हैं, वह सभी सत्वों के पिता हैं। वे दु:ख रूपी जलते हुए घर से बाहर लाने के लिए तीनों यानों की देशना करते हैं, किन्तु अन्त में सबकों बुद्धयान की ही देशना देते हैं। <br />
*व्याकरणपरिवर्त नामक षष्ठ (छठवें) परिच्छेद में श्रावकयान के अनेक स्थविरों के बारे में, जो महायन में प्रविष्ट हो चुके थे, व्याकरण किया गया है। बुद्ध कहते हैं कि महास्थविर महाकाश्यप भविष्य में 'रश्मिप्रभास' तथागत होंगे। स्थविर सुभूति, 'शशिकेतु', महाकात्यायन 'जाम्बूनदप्रभास' तथा महामौदलयायन 'तमालपत्र चन्द्रनगन्ध' नाम के तथागत होंगे। *पञ्चभिक्षुशतव्याकरण परिवर्त में पूर्ण मैत्रायणी पुत्र आदि अनेक भिक्षुओं के बुद्धत्व-प्राप्ति का व्याकरण किया गया है। <br />
*नवम परिवर्त में आयुष्मान आनन्द और राहुल आदि दो सहस्र श्रावकों के बारे में बुद्धत्व-प्राप्ति का व्याकरण है। <br />
*उस समय वहाँ महाप्रजापति गौतमी और भिक्षुणी राहुल माता यशोधरा आदि परिषद में दु:खी होकर इसलिए बैठी थीं कि भगवान ने हमारे बारे में बुद्धत्व का व्याकरण क्यों नहीं किया? भगवान् ने उनके चित्त का विचार जानकर कृपापूर्वक उनका भी व्याकरण किया। <br />
*सद्धर्मपुण्डरीक के इस संक्षिप्त पर्यालोचन से महायान बौद्ध-धर्म का हीनयान से सम्बन्ध स्पष्ट होता है। पालि-ग्रन्थों में दो प्रकार की धर्म देशना है। एक दानकथा, शीलकथा आदि उपाय धर्म देशना हैं ता दूसरी 'सामुक्कंसिका धम्मदेशना है', जिसमें चार आर्यसत्यों की देशना दी जाती है। इस सद्धर्मपुण्डरीक में चार आयसत्यों की देशना तथा सर्वज्ञताज्ञान पर्यवसायी दो देशनाएं हैं। यह सर्वज्ञताज्ञान प्राप्त कराने वाली देशना भगवान ने शारिपुत्र आदि को जो पहले नहीं दीं, यह उनका उपायकौशल्य है। यह द्वितीय देशना ही परमार्थ देशना है। इसमें शारिपुत्र आदि महास्थविरों और महाप्रजापति गौतमी आदि स्थविराओं को बुद्धत्व प्राप्ति का आश्वासन दिया गया है। हीनयान में उपदिष्ट धर्म भी बुद्ध का ही है। उसे एकान्तत: मिथ्या नहीं कहा गया है, किन्तु केवल उपायसत्य है, परमार्थसत्य तो बुद्धयान ही है। <br />
*सद्धर्मपुण्डरीक में बुद्धयान एवं तथागत की महिमा का वर्णन है, तथापि इस ग्रन्थ के कुछ अध्यायों में अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्त्वों की महिमा का भी पुष्कल वर्णन है। अवलोकितेश्वर बोधिसत्त्व करुणा की मूर्ति हैं। अवलोकितेश्वर ने यद्यपि बोधि की प्राप्ति की है, तथापि जब तक संसार में एक भी सत्त्व दु:खी और बद्ध रहेगा, तब तक निर्वाण प्राप्त नहीं करने का उनका संकल्प है। वे निर्वाण में प्रवेश नहीं करेंगे। वे सदा बोधिसत्व की साधना में निरत रहते हैं। इससे उनकी महिमा कम नहीं होती। बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर के नाम मात्र के उच्चारण में अनेक दु:खों और आपदाओं से रक्षण की शक्ति है। हम बोधिसत्त्वों की श्रद्धा के साथ उपासना का प्रारम्भ इस ग्रन्थ में देखते हैं। <br />
<br />
==ललितविस्तर==<br />
*वैपुल्यसूत्रों में यह एक अन्यतम और पवित्रतम महायानसूत्र माना जाता है। <br />
*इसमें सम्पूर्ण बुद्धचरित का वर्णन है। <br />
*बुद्ध ने [[पृथ्वी]] पर जो-जो क्रीड़ा (ललित) की, उनका वर्णन होने के कारण इसे 'ललितविस्तर' कहते हैं। इसे 'महाव्यूह' भी कहा जाता है। इसमें कुल 27 अध्याय हैं, जिन्हें 'परिवर्त' कहा जाता है। तिब्बती भाषा में इसका अनुवाद उपलब्ध है। समग्र मूल ग्रन्थ का सम्पादन डॉ॰ एस0 लेफमान ने किया था। <br />
*प्रथम अध्याय में रात्रि के व्यतीत होने पर ईश्वर, महेश्वर, देवपुत्र आदि जेतवन में पधारे और भगवान की पादवन्दना कर कहने लगे-'भगवन्, ललितविस्तर नामक धर्मपर्याय का व्याकरण करें। भगवान का तुषितलोक में निवास, गर्भावक्रान्ति, जन्म, कौमार्यचर्या, सर्व मारमण्डल का विध्वंसन इत्यादि का इस ग्रंथ में वर्णन है। पूर्व के तथागतों ने भी इस ग्रंथ का व्याकरण किया था।' भगवान ने देवपुत्रों की प्रार्थना स्वीकार की। तदनन्तर अविदूर निदान अर्थात तुषितलोक से च्युति से लेकर सम्यग ज्ञान की प्राप्ति तक की कथा से प्रारम्भ कर समग्र बुद्धचरित का वर्णन सुनाने लगे। <br />
*बोधिसत्त्व ने क्षत्रिय कुल में जन्म लेने का निर्णय किया। <br />
*भगवान ने बताया कि बोधिसत्त्व शुद्धोदन की महिषी मायादेवी के गर्भ में उत्पन्न होंगे। वही बोधिसत्त्व के लिए उपयुक्त माता है। जम्बूद्वीप में कोई दूसरी स्त्री नहीं है, जो बोधिसत्त्व के तुल्य महापुरुष का गर्भ धारण कर सके। बोधिसत्त्व ने महानाग अर्थात कुञ्जर के रूप में गर्भावक्रान्ति की। <br />
*मायादेवी पति की आज्ञा से लुम्बिनी वन गईं, जहाँ बोधिसत्त्व का जन्म हुआ। उसी समय पृथ्वी को भेदकर महापद्म उत्पन्न हुआ। नन्द, उपनन्द आदि नागराजाओं ने शीत और उष्ण जल की धारा से बोधिसत्त्व को स्नान कराया। बोधिसत्त्व ने महापद्म पर बैठकर चारों दिशाओं का अवलोकन किया। बोधिसत्त्व ने दिव्यचक्षु से समस्त, लोकधातु को देखा और जाना कि शील, समाधि और प्रज्ञा में मेरे तुल्य कोई अन्य सत्त्व नहीं है। पूर्वाभिमुख हो वे सात पग चले। जहाँ-जहाँ बोधिसत्त्व पैर रखते थे, वहाँ-वहाँ कमल प्रादुर्भूत हो जाता था। इसी तरह दक्षिण और पश्चिम की दिशा में चले। सातवें कदम पर सिंह की भांति निनाद किया और कहा कि मैं लोक में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ हूँ। यह मेरा अन्तिम जन्म है। मैं जाति, जरा और मरण दु:ख का अन्त करुँगा। उत्तराभिमुख हो बोधिसत्त्व ने कहा कि मैं सभी प्राणियों में अनुत्तर हूँ नीचे की ओर सात पग रखकर कहा कि मार को सेना सहित नष्ट करुँगा और नारकीय सत्त्वों पर महाधर्ममेघ की वृष्टि कर निरयाग्नि को शान्त करूँगा। ऊपर की ओर भी सात पग रखे और अन्तरिक्ष की ओर देखा। <br />
*सातवें परिवर्त में बुद्ध और आनन्द का संवाद है, जिसका सारांश है कि कुछ अभिमानी भिक्षु बोधिसत्त्व की परिशुद्ध गर्भावक्रान्ति पर विश्वास नहीं करेंगे, जिससे उनका घोर अनिष्ट होगा तथा जो इस सूत्रान्त को सुनकर तथागत में श्रद्धा का उत्पाद करेंगे, अनागत बुद्ध भी उनकी अभिलाषा पूर्ण करेंगे। जो मेरी शरण में आते हैं, वे मेरे मित्र हैं। मैं उनका कल्याण साधित करूँगा। इसलिए हे आनन्द, श्रद्धा के उत्पाद के लिए यत्न करना चाहिए। <br />
*बुद्ध की गर्भावक्रान्ति एवं जन्म की जो कथा ललितविस्तर में मिलती है, वह पालि ग्रंथों में वर्णित कथा से कहीं-कहीं पर भिन्न भी है। पालि ग्रंथों में विशेषत: संयुक्त निकाय, दीर्घ निकाय आदि में यद्यपि बुद्ध के अनेक अद्भुत धर्मों का वर्णन है, तथापि वे अद्भुत धर्मों से समन्वागत होते हुए भी अन्य मनुष्यों के समान जरा, मरण आदि दु:ख एवं दौर्मनस्य के अधीन थे। *पालि ग्रन्थों के अनुसार बुद्ध लोकोत्तर केवल इसी अर्थ में है कि उन्होंने मोक्ष के मार्ग का अन्वेषण किया था तथा उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करने से दूसरे लोग भी निर्वाण और अर्हप्व पद प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु महासांघिक लोकोत्तरवादी निकाय के लोग इसी अर्थ में लोकोत्तर शब्द का प्रयोग नहीं करते। इसीलिए लोकोत्तरता को लेकर उनमें वाद-विवाद था। <br />
*आगे का ललितविस्तर का वर्णन महावग्ग की कथा से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। जहाँ समानता है, वहाँ भी ललितविस्तर में कुछ बातें ऐसी हैं, जो अन्यत्र नहीं पाई जातीं। उदाहरणार्थ शाक्यों के कहने से जब शुद्धोदन कुमार को अपने देवकुल में ले गये तो सब प्रतिमाएं अपने-अपने स्वरूप में आकर कुमार के पैरों पर गिर पड़ी। इसी तरह कुमार जब शिक्षा के लिए लिपि शाला में ले जाये गये तो आचार्य, कुमार के तेज को सहन नहीं कर पाये और मूर्च्छित होकर गिर पड़े। तब बोधिसत्व ने आचार्य से कहा- आप मुझे किस लिपि की शिक्षा देंगे। तब कुमार ने ब्राह्मी, खरोष्ठी, पुष्करसारि, अंग, बंग, मगध आदि 64 लिपियाँ गिनाईं। आचार्य ने कुमार का कौशन देखकर उनका अभिवादन किया। <br />
*बुद्ध के जीवन की प्रधान घटनाएं हैं- निमित्त दर्शन, जिनसे बुद्ध ने जरा, व्याधि, मृत्यु एवं प्रव्रज्या का ज्ञान प्राप्त किया। इसके अतिरिक्त अभिनिष्क्रमण, बिम्बिसार के समीप गमन, दुष्करचर्या, मारधर्षण, अभिसंबोधि एवं धर्मचक्रप्रवर्तन आदि घटनाएं हैं। जहाँ तक इन घटनाओं का सम्बन्ध है, ललितविस्तर का वर्णन बहुत भिन्न नहीं है। किन्तु ललितविस्तर में कुछ अतिशयताएँ अवश्य हैं। 27वें परिवर्त में ग्रन्थ के माहात्म्य का वर्णन है। <br />
*यह निश्चित है कि जिन शिल्पियों ने जावा में स्थित बोरोबुदूर के मन्दिर को प्रतिमाओं से अलंकृत किया था, वे ललितविस्तर के किसी न किसी पाठ से अवश्य परिचित थे। शिल्प में बुद्ध का चरित इस प्रकार उत्कीर्ण है, मानों शिल्पी ललितविस्तर को हाथ में लेकर इस कार्य में प्रवृत्त हुए थे। जिन शिल्पियों ने उत्तर भारत में स्तूप आदि कलात्मक वस्तुओं को बुद्धचरित के दृश्यों से अलंकृत किया था, वे भी ललितविस्तर में वर्णित बुद्ध कथा से परिचित थे।<br />
<br />
==सुवर्णप्रभास==<br />
*महायान सूत्र साहित्य में सुवर्णप्रभास की महत्त्वपूर्ण सूत्रों में गणना की जाती है। चीन और जापान में इसके प्रति अतिशय श्रद्धा है। फलस्वरूप धर्मरक्ष ने 412-426 ईस्वी में, परमार्थ ने 548 ईस्वी में, यशोगुप्त ने 561-577 ईस्वी में, पाओक्की ने 597 ईस्वी में तथा इत्सिंग ने 703 ईस्वी में इसका चीनी भाषा में अनुवाद किया। <br />
*इसी तरह जापानी भाषा में भी तीन या चार अनुवाद हुए। तिब्बती भाषा में भी इसका अनुवाद उपलब्ध है। साथ ही उइगर (Uigur) और खोतन में भी इसका अनुवाद हुआ। इन अनुवादों से यह सिद्ध होता है कि इस सूत्र का आदर एवं लोकप्रियता व्यापक क्षेत्र में थी। इस सूत्र में दर्शन, नीति, तन्त्र एवं आचार का उपाख्यानों द्वारा सुस्पष्ट निरूपण किया गया है। इस तरह बौद्धों के महायान सिद्धान्तों का विस्तृत प्रतिपादन है। इसमें कुल 21 परिवर्त हैं। <br />
*प्रथम परिवर्त में सुवर्णप्रभास के श्रवण का माहात्म्य वर्णित है। <br />
*द्वितीय परिवर्त में जिस विषय की आलोचना की गई है, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बुद्ध ने दीर्षायु होने के दो कारण बताए हैं। प्रथम प्राणिवध से विरत होना तथा द्वितीय प्राणियों के अनुकूल भोजन प्रदान करना। बोधिसत्त्व रुचिरकेतु को सन्देह हुआ कि भगवान ने दीर्घायुष्कता के दोनों साधनों का आचरण किया, फिर भी अस्सी वर्ष में ही उनकी आयु समाप्त हो गई। अत: उनके वचन का कोई प्रामाण्य नहीं है। <br />
*इस शंका का समाधान करने के लिए चार बुद्ध अक्षोभ्य, रत्नकेतु, अमितायु और दुन्दुभिस्वर की कथा की तथा लिच्छिवि कुमार ब्राह्मण कोण्डिन्य की कथा की अवतारणा की गई। आशय यह है कि बुद्ध का शरीर पार्थिव नहीं है, अत: उसमें सर्षप (सरसों) के बराबर भी धातु नहीं है तथा उनका शरीर धर्ममय एवं नित्य है। अत: पूर्वोक्त शंका का कोई अवसर नहीं है। <br />
<poem>तथा हि: यदा शशविषाणेन नि:श्रेणी सुकृता भवेत्।<br />
स्वर्गस्यारोहणार्थाय तदा धातुर्भविष्यति॥<br />
अनस्थिरुधिरे काये कुतो धातुर्भविष्यति।<balloon title="द्र.- सुवर्णप्रभाससूत्र, तथागतायु: प्रमाणनिर्देशपरिवर्त, पृ0 8 (दरभङ्गा-संस्करण 1967)" style=color:blue>*</balloon><br />
अपि च, न बुद्ध: परिनिर्वाति न धर्म: परिहीयते। <br />
सत्त्वानां परिपाकाय परिनिर्वाणं निदर्श्यते॥<br />
अचिन्त्यो भगवान् बुद्धो नित्यकायस्तथागत:।<br />
देशेति विविधान व्यूहान् सत्त्वानां हितकारणात्।<balloon title="द्र.- सुवर्णप्रभाससूत्र, तथागतायु: प्रमाणनिर्देशपरिवर्त, पृ0 9 (दरभङ्गा-संस्करण 1967)" style=color:blue>*</balloon> </poem><br />
*तृतीय परिवर्त में रुचिरकेतु बोधिसत्त्व स्वप्न में एक ब्राह्मण को दुन्दुभि बजाते देखता है और दुन्दुभि से धर्म गाथाएं निकल रही हैं। जागने पर भी बोधिसत्त्व को गाथाएं याद रहती हैं और वह उन्हें भगवान के सामने निवेदित करता है। <br />
*चतुर्थ परिवर्त में महायान के मौलिक सिद्धान्तों का गाथाओं द्वारा उपपादन किया गया है। <br />
*पञ्चम परिवर्त में बुद्ध के स्तव हैं, जिनका सामूहिक नाम कमलाकर है। इनमें बुद्ध की महिमा का वर्णन है। <br />
*षष्ठ परिवर्त में वस्तुमात्र की शून्यता के परिशीलन का निर्देश है। <br />
*सप्तम में सुवर्णप्रभास के माहात्म्य का वर्णन है। <br />
*अष्टम परिवर्त में सरस्वती देवी बुद्ध के सम्मुख आविर्भूत हुई और सुवर्णप्रभास में प्रतिपादित धर्म का व्याख्यान करने वाले धर्मभाणक को बुद्ध की प्रतिभा से सम्पन्न करने की प्रतिज्ञा की। *नवम परिवर्त में महादेवी बुद्ध के सम्मुख प्रकट हुईं और घोषणा की कि मैं व्यावहारिक और आध्यात्मिक सम्पत्ति से धर्मभाणक को सम्पन्न करूँगी। <br />
*दशम परिवर्त में विभिन्न तथागतों एवं बोधिसत्त्वों के नामों का संकीर्तन किया गया है। <br />
*एकादश परिवर्त में दृढ़ा नामक पृथ्वी देवी भगवान के सम्मख उपस्थित हुईं और कहा कि धर्मभाणक के लिए जो उपवेशन-पीठ हे, वह यथासम्भव सुखप्रदायक होगा। साथ ही आग्रह किया कि धर्मभाणक के धर्मामृत से अपने को तृप्त करूँगी। <br />
*द्वादश परिवर्त में यक्ष सेनापति अपने अट्ठाइस सेनापतियों के साथ भगवान के पास आये और सुवर्णप्रभास के प्रचार के लिए अपने सहयोग का वचन दिया। साथ ही धर्मभाणकों की रक्षा का आश्वासन भी दिया। <br />
*त्रयोदश परिवर्त में राजशास्त्र सम्बन्धी विषयों का प्रतिपादन है। <br />
*चतुर्दश परिवर्त में सुसम्भव नामक राजा का वृत्तान्त है। <br />
*पंचदश परिवर्त में यक्षों और अन्य देवताओं ने सुवर्णप्रभास के श्रोताओं की रक्षा की प्रतिज्ञा की। <br />
*षोडश परिवर्त में भगवान ने दश सहस्र देवपुत्रों के बुद्धत्व लाभ की भविष्यवाणी की। <br />
*सप्तदश परिवर्त में व्याधियों के उपशमन करने का विवरण दिया गया है। <br />
*अष्टादश परिवर्त में जलवाहन द्वारा मत्स्यों को बौद्धधर्म में प्रवेश कराने के चर्चा है। <br />
*उन्नीसवें परिवर्त में भगवान ने बोधिसत्त्व अवस्था में एक व्याघ्री की भूख मिटाने के लिए अपने शरीर का परित्याग किया था, उसकी चर्चा है। <br />
*बीसवें परिवर्त में सुवर्णरत्नाकरछत्रकूट नामक तथागत की बोधिसत्त्वों द्वारा की गई गाथामय स्तुति प्रतिपादित है। <br />
*इक्कीसवें परिवर्त में बोधिसत्त्वसमुच्चया नामक कुल-देवता द्वारा व्यक्त सर्वशून्यताविषयक गाथाएं उल्लिखित हैं। <br />
==तथागतगुह्यक==<br />
*प्रारम्भिक तन्त्र महायानसूत्रों से बहुत मिलते-जुलते हैं। उदाहरणार्थ मञ्जुश्रीमूलकल्प अवतंसक के अन्तर्गत 'महावैपुल्यमहायानसूत्र', के रूप में प्रसिद्ध है। <br />
*विद्वानों की राय है कि तथागतगुह्य, गुह्यसमाजतन्त्र तथा अष्टादशपटल तीनों एक ही हैं। अर्थात ग्रन्थ में जो तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण मिलते हैं, वे गुह्यसमाज से भिन्न हैं। अत: तथागतगुह्यसूत्र एवं गुह्यसमाजतन्त्र का अभेद नहीं है अर्थात भिन्न-भिन्न हैं। <br />
*'अष्टादश' इस नाम से यह प्रकट होता है कि इस ग्रन्थ में अठारह अध्याय या परिच्छेद हैं। <br />
*तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार बोधिसत्त्व प्रणिधान करता है कि श्मशान में स्थित उसके मृत शरीर का तिर्यग योनि में उत्पन्न प्राणी यथेच्छ उपभोग करें और इस परिभोग की वजह से वे स्वर्ग से उत्पन्न हो। इतना ही नहीं, वह उनके परिनिर्वाण का भी हेतु हो।<ref>ये मे मृतस्य कालगतस्य मांसं परिभुञ्जीरन्, स एव तेषां हेतुर्भवेत् स्वर्गोपपत्तये यावत् परिनिर्वाणाय तस्य शीलवत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ0 89 (दरभङ्गा संस्करण, 1996)</ref><br />
*पुरश्च, तदनुसार बोधिसत्त्व धर्मकाय से प्रभावित होता है, इसलिए वह अपने दर्शन, श्रवण और स्पर्श से भी सत्त्वों का हित करता है।<ref>स धरृमकायप्रभावितो दर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति, श्रवणेनापि स्पर्शनेनापि सत्त्वानामर्थ करोति। द्र.- तथागतगुह्सूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 89 (दरभङ्गा संस्करण 1960)</ref> <br />
*उसी सूत्र में अन्यत्र उल्लिखित है कि जैसे शान्तमति, जो वृक्ष मूल से उखड़ गया हो, उसकी सभी शाखाएं डालियां और पत्ते सूख जाते हैं, उसी प्रकार सत्कायदृष्टि का नाश हो जाने से बोधिसत्त्व के सभी क्लेश शान्त हो जाते हैं।<ref>तद्यथापि नाम शान्तमते, वृक्षस्य मूलच्छिन्नस्य सर्वशाखापत्रपलाशा: शुष्यन्ति, एवमेव शान्तमते, सत्कायदृष्टयुपशमात् सर्वक्लेशा उपशाम्यन्तीति-द्र. तथागतगुह्य-सूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 130 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</ref> <br />
*अपि च, महायान में प्रस्थित बोधिसत्त्व के ये चार धर्म विशेष गमन के और अपरिहाणि के हेतु होते हैं। कौन चार? श्रद्धा, गौरव, निर्मानता (अनहंकार) एवं वीर्य।<ref>चत्वार इमे महाराज, धर्मा महायानसंम्प्रतिस्थितानां विशेषगामितायै संवर्तन्तेऽपरिहाणाय च। कतमे चत्वार:? श्रद्धा महाराज, विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय... गौरवं...निर्मानता...वीर्यं महाराज विशेषगामितायै संवर्ततेऽपरिहाणाय। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 168 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</ref> <br />
*पुनश्च, बोधिसत्तत्त्व सर्वदा अप्रमादी होता है और अप्रमाद का अर्थ है 'इन्द्रियसंवर'। वह न निमित्त का ग्रहण करता है और न अनुव्यजंन का। वह सभी धर्मों के आस्वाद, आदीनव और नि:सरण को ठीक-ठीक जानता है।<ref>तत्र कतामोऽप्रमाद:? यदिन्द्रियसंवर:। स चक्षुषा रूपाणि दृष्ट्वा न निमित्तग्राही भवति नानुव्यंजन-ग्राही।...सर्वधर्मेष्वास्वादं चादीनवं च नि:सरणं च यथाभूतं प्रजानाति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191।</ref> <br />
*अप्रमाद अपने चित्त का दमन करता है, दूसरों के चित्तों की रक्षा, क्लेश में अरति एवं धर्म में रति है।<ref>अप्रमादो यत् स्वचित्तस्य दमनम्, परचित्तस्य रक्षा, क्लेशरतेरपरकिर्मणा, धर्मरतेरनुवर्तनमृ, यावदयमुच्यतेऽप्रमाद। द्र.-तथागतगुह्यसूत्र, शिक्षासमुच्चय में उद्धृत, पृ. 191</ref> <br />
*योनिश: प्रयुक्त बोधिसत्त्व 'जो है' उसे अस्ति के रूप में और 'जो नहीं है' उसे नास्ति के रूप में जानता है।<ref>योनिश: प्रयुक्तो हि गुह्यकाधिपते, बोधिसत्त्वो यदस्ति तदस्तीति प्रजानाति, यन्नास्ति तन्नास्तीति प्रजानीति। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र शिक्षासमुच्चय में उद्ध्त पृ. 191 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</ref><br />
*तथागतगुह्यसूत्र के अनुसार जिस रात्रि में तथागत ने अभिसम्बोधि प्राप्त की तथा जिस रात्रि में परिनिर्वाण प्राप्त करेंगे, इस बीच में तथागत ने एक भी अक्षर न कहा और न कहेंगे। प्रश्न है कि तब समस्त सुर, असुर, मनुष्य, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, नाग आदि विनेयजनों को उन्होंने कैसे विविध प्रकार की देशना की? मात्र एक क्षण की ध्वनि के उच्चारण से वह विविधजनों के मानसिक अन्धकार का नाश करने वाली, उनके बुद्धिरूपी कमल को विकसित करने वाली, जरा, मरण आदि रूपी नदी और समुद्र का शोषण करने वाली तथा प्रलयकालानल को लज्जित करने वाली शरत्कालिक अरुण-प्रभा के समान थी। वस्तुत: जैसे तूरी नामक वाद्ययन्त्र [[वायु]] के झोकों से बजती है, वहां कोई बजाने वाला नहीं होता, फिर भी शब्द निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वों की वासना से प्रेरित होकर बुद्ध की वाणी भी नि:सृत होती है, जबकि उनमें किसी भी प्रकार की कल्पना नहीं होती।<ref><poem>यां च शान्तमते, रात्रिं तथागतोऽनुत्तरां सम्यक्संबोधिमभिसंबुद्ध:, यां च रात्रिमुपादाय परिनिर्वास्यति, अस्मिन्नन्तरे तथागतेन एकाक्षरमपि नोदाहृतं न प्रवराहृतं न प्रवराहरिष्यति। कथं तर्हि भगवता........<br />
विनेयजनेभ्यो विविधप्रकारेभ्यो धर्मदेशना देशिता? एकक्षणवागुदाहारेणैव तत्तज्जनमनस्तमोहरणी........<br />
शरदरुणमहाप्रभेति।<br />
तदेव सूत्रे:<br />
यथा यन्त्रकृतं तूर्यं वाद्यते पवनेरितम्।<br />
न चात्र वादक: कश्चिनिरन्त्यथ च स्वरा:॥<br />
एवं पूर्वसुशुद्धत्वात् सर्वसत्त्वाशयेरिता। <br />
वाग्निश्चरति बुद्धस्य न चास्यास्तीह कल्पना॥<br />
द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत पृ. 155 नाना (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</poem></ref> <br />
*नाना आशय वाले सत्त्व समझते हैं कि तथागत के मुख से वाणी निकल रही है। उन्हें ऐसा लगता है, मानों भगवान हमें धर्म की देशना कर रहे हैं और हम देशना सुन रहे हैं, किन्तु तथागत में कोई विकल्प नहीं होता, क्योंकि उन्होंने समस्त विकल्प जालों का प्रहाण कर दिया है।<ref><poem>अथ च चथाधिमुक्ता: सर्वसत्त्वा नानाधातवाशयास्तां तां विविधां तथागतवाचं निश्चरन्तीं संजानन्ति। तेषामिदं पृथक् भवति- अथ। भगवान अस्मभ्यमिमं धर्म देशयति, सयं च तथागतस्य धर्मदेशनां श्रुणुम:। तथागतो न कल्पयति न विकल्पयति सर्वविकल्पजालवासनाप्रपंचविगतो हि शान्तमते, तथागत:। द्र.- तथागतगुह्यसूत्र, प्रसन्नपदा में उद्धृत, पृ. 236 (दरभङ्गा संस्करण, 1960)</poem></ref> <br />
*इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य [[शान्तिदेव बौद्धाचार्य|शान्तिदेव]] के शिक्षासमुच्चय और चन्द्रकीर्ति की प्रसन्नपदा मूल माध्यमिक कारिका टीका में अनेक स्थलों पर तथागतगुह्यसूत्र के उद्धरण उपलब्ध हैं, जिनका हमने भी यथासम्भव पादटिप्पणी में उल्लेख किया है। यदि ये उद्धरण प्रकाशित वर्तमान गुह्यसमाज में उपलब्ध नहीं होते है- तो समझा जाना चाहिए कि तथागतगुह्यसूत्र और गुह्यसमाज अभिन्न नहीं है, जैसे कि कुछ विद्वानों की धारणा है। आचार्य शान्तिदेव और चन्द्रकीर्ति के काल में ये दोनों अवश्य भिन्न-भिन्न थे।<br />
<br />
==दशभूमीश्वर==<br />
*गण्डव्यूह की भाँति यह सूत्र भी अवतंसक का एक भाग माना जाता है। इसमें बोधिसत्त्व की दस आर्यभूमियों का विस्तृत वर्णन है, जिन भूमियों पर क्रमश: अधिरोहण करते हुए बुद्धत्व अवस्था तक साधक पहुँचता है। 'महावस्तु' में इस सिद्धान्त का पूर्वरूप उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में उक्त सिद्धान्त का परिपाक हुआ है। <br />
*महायान में इस सूत्र का अत्युच्च स्थान है। इसे दशभूमिक, दशभूमीश्वर एवं दशभूमक नाम से भी जाना जाता है। <br />
*आर्य [[असंग बौद्धाचार्य|असंग]] ने 'दशभूमक' शब्द का ही प्रयोग किया है। इसकी लोकप्रियता एवं प्रामाणिकता में यह प्रमाण है कि अत्यन्त प्राचीनकाल में ही इसके तिब्बती, चीनी, जापानी एव मंगोलियन अनुवाद हो गये थे। <br />
*श्री धर्मरक्ष ने इसका चीनी अनुवाद ई. सन 297 में कर दिया था। इसके प्रतिपादन की शैली में लम्बे-लम्बे समस्त पद एवं रूपकों की भरमार है। <br />
*मिथिला विद्यापीठ ने डॉ॰ जोनेस राठर के संस्करण के आधार पर इसका पुन: संस्करण किया है। <br />
*ज्ञात है कि महायान में दस आर्यभूमियाँ मानी जाती हैं, यथा- प्रमुदिता, विमला, प्रभाकरी, अर्चिष्मती, सुदर्जया, अभिमुखी, दूरङ्गमा, अचला, साधुमती एवं धर्ममेधा। <br />
*आर्यावस्था से पूर्व जो पृथग्जन भूमि होती है, उसे 'अधिमुक्तिचर्याभूमि' कहते हैं। महायान में पाँच मार्ग होते हैं- सम्भारमार्ग, प्रयोगमार्ग, दर्शनमार्ग, भावनामार्ग एवं अशैक्षमार्ग। दर्शनमार्ग प्राप्त होने पर बोधिसत्त्व 'आर्य' कहलाने लगता है। उपर्युक्त दस भूमियाँ आर्य की भूमियाँ हैं। दर्शन मार्ग की प्राप्ति से पूर्व बोधिसत्व पृथग्जन होता है। सम्भारमार्ग एवं प्रयोगमार्ग पृथग्जनमार्ग हैं और उनकी भूमि अधिमुक्तिचर्याभूमि कहलाती है। <br />
*महायान गोत्रीय व्यक्ति बोधिचित्त का उत्पाद कर महायान में प्रवेश करता है। पृथग्जन अवस्था में सम्भार मार्ग एवं प्रयोगमार्ग का अभ्यास कर दर्शन मार्ग प्राप्त करते ही आर्य होकर प्रथम प्रमुदिता भूमि को प्राप्त करता है। <br />
*पारमिताएं भी दस होती हैं, यथा-दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपायकौशल, प्रणिधान, बल एवं ज्ञान पारमिता। बोधिसत्त्व प्रत्येक भूमि में सामान्यत: इन सभी पारमिताओं का अभ्यास करता है, किन्तु प्रत्येक भूमि में किसी एक पारमिता का प्राधान्य हुआ करता है। ग्रन्थ में इन भूमियों के वैशिष्ट्य का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है- <br />
<br />
'''प्रमुदिता'''<br />
<br />
संबोधि को तथा सत्त्वहित की सिद्धि को आसन्न देखकर इस भूमि में प्रकृष्ट (तीव्र) मोद (हर्ष) उत्पन्न होता है, अत: इसे 'प्रमुदिता' भूमि कहते हैं। इस अवस्था में बोधिसत्त्व पांच भयों से मुक्त हो जाता है, यथा- जीविकाभय, निन्दभय, मृत्युभय, दुर्गतिभय एवं परिषद्शारद्य (लज्जा का) भय। जो बोधिसत्त्व प्रमुदिता भूमि में अधिष्ठित हो जाता है, वह जम्बूद्वीप पर आधिपत्य करने में समर्थ हो जाता है। इस भूमि में बोधिसत्त्व सामान्यत: दान, प्रियवचन, परहितसम्पादन (अर्थचर्या) एवं समानार्थता (सर्वधर्मसमता)- इन कृत्यों का सम्पादन करता है। विशेषत: इस भूमि में उसकी दानपारमिता की पूर्ति होती है। <br />
<br />
'''विमला'''<br />
<br />
दौ:शील्य एवं आभोग आदि सभी मलो से व्यपगत (रहित) होने के कारण यह भूमि 'विमला' कही जाती है। इस भूमि में बोधिसत्त्व शील में प्रतिष्ठित होकर दस प्रकार के कुशलकर्मो का सम्पादन करता है। इस भूमि में चार संग्रह वस्तुओं<ref>चार संग्रह ये हैं- दान, प्रियवादित्व, अर्थचर्या एवं समानार्थता।</ref> में प्रियवादिता एवं शीलपारमिता का प्राधान्य होता है। <br />
<br />
'''प्रभाकरी'''<br />
<br />
विशिष्ट (महान) धर्मों का अवभास कराने के कारण यह भूमि 'प्रभाकरी' कहलाती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व सभी [[संस्कार]] धर्मों को अनित्य, दु:ख, अनात्म एवं शून्य देखता है। सभी वस्तुएं उत्पन्न होकर विनष्ट हो जाती हैं। वे अतीत अवस्था में संक्रान्त नहीं होतीं, भविष्य में कहीं जाकर स्थित नहीं होतीं तथा वर्तमान में भी कहीं उनका अवस्थान नहीं होता। शरीर दु:खस्कन्धात्मक हैं- ऐसा बोधिसत्त्व अवधारण करता है। उसमें शान्ति, शम, औदार्य एवं प्रियवादिता आदि गुणों का उत्कर्ष होता है। इस भूमि में अवस्थित बोधिसत्त्व इन्द्र के समान बन जाते हैं। इस भूमि में सत्त्वहित चर्या बलवती होती है और शान्तिपरामिता का आधिक्य होता है तथा बोधिसत्व दूसरों में धर्म का अवभास करता है।<br />
<br />
'''अर्चिष्मती'''<br />
<br />
बोधिपाक्षिक प्रज्ञा इस भूमि में क्लेशावरण एवं ज्ञेयावरण का दहन करती है। बोधिपाक्षिक धर्म अर्चिष् (ज्वाला) के समान होते हैं। फलत: बोधिपाक्षिक धर्म और प्रज्ञा से युक्त होने के कारण यह भूमि 'अर्चिष्मती' कहलाती है। बोधिसत्त्व इस भूमि में दस प्रकार के धर्मालोक के साथ अधिरूढ होता है। बोधिपाक्षिक धर्म सैंतीस होते है।, यथा-चार स्मृत्युपस्थान, चार प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पाँच इन्द्रिय, पाँच बल, सात बोध्यङ्य और आठ आर्यमार्ग (आर्यअष्टाङ्गिक मार्ग) बोधिसत्त्व इन बोधिपाक्षिक धर्मों का इस भूमि में विशेष लाभ करता है। अन्य पारिमताओं की अपेक्षा इस भूमि में वीर्यपारमिता की प्रधानता होती है तथा संग्रह वस्तुओं में समानार्थता अधिक उत्कर्ष को प्राप्त होती है। <br />
<br />
'''सुदुर्जया'''<br />
<br />
बोधिसत्त्व इस भूमि में सत्त्वों का परिपाक और अपनी चित्त की विशेष रूप से रक्षा करता है। ये दोनों कार्य अत्यन्त दुष्कर हैं। इन पर जय प्राप्त करने के कारण यह भूमि 'सुदुर्जया' कहलाती है। बोधिसत्त्व इस भूमि में दस प्रकार की चित्तविशुद्धियों को प्राप्त करता है तथा चतुर्विध आर्यसत्व के यथार्थज्ञान का लाभ करता है। इस स्थिति में बोधिसत्त्व को यह उपलब्धि होती है कि सम्पूर्ण विश्व शून्य है। सभी प्राणियों के प्रति उसमें महाकरुणा का प्रादुर्भाव होता है तथा महामैत्री का आलोक उत्पन्न होता है। वह दान, प्रियवादिता एवं धर्मोपदेश आदि के द्वारा संसार में कल्याण के मार्ग का निर्देश करता है। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा ध्यानपारमिता की प्रधानता होती है। <br />
<br />
'''अभिमुखी'''<br />
<br />
इस भूमि में प्रज्ञा का प्राधान्य होता है। प्रज्ञापारमिता की वजह से संसार और निर्वाण दोनों में प्रतिष्ठित नहीं होने के कारण यह भूमि संसार और निर्वाण दोनों के अभिमुख होती है। इसलिए 'अभिमुखी' कहलाती है। इस भूमि में बोधिसत्व बोध्यङ्गों की निष्पत्ति का विशेष प्रयास करते हैं। इस भूमि में प्रज्ञापारमिता अन्य पारमिताओं की अपेक्षा अधिक प्रधान होती है। <br />
<br />
'''दूरङ्गमा'''<br />
<br />
संबोधि को प्राप्त कराने वाले एकायन मार्ग से अन्वित होने के कारण यह भूमि उपाय और प्रज्ञा के क्षेत्र में दूर तक प्रविष्ट है, क्योंकि बोधिसत्त्व अभ्यास की सीमा को पार कर गया है, इसलिए यह भूमि 'दूरङ्गमा' कहलाती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व शून्यता, अनिमित्त और अप्रणिहित इन त्रिविधि विमोक्ष या समाधियों का लाभ करता है। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा 'उपायकौशल पारमिता' अधिक बलवती होती है। <br />
<br />
'''अचला'''<br />
<br />
नाम से ही स्पष्ट है कि इस भूमि पर अधिरूढ होने पर बोधिसत्त्व की परावृत्ति (पीछे लौटने) की सम्भावना नहीं रहती। इस भूमि में वह अनुत्पत्तिक धर्मक्षान्ति से समन्वित होता है। निमित्ताभोगसंज्ञा और अनिमित्ताभोगसंज्ञा इन दोनों संज्ञाओं से विचलित नहीं होने के कारण यह भूमि 'अचला' कहलाती है। इस भूमि का लाभ करने पर बोधिसत्त्व निर्वाण की भी इच्छा नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने पर सभी दु:खी प्राणियों का कल्याण करने की उनकी जो प्रतिज्ञा है, उसके भङ्ग होने की आंशका होती है। वे लोक में ही अवस्थान करते हैं। इनका पूर्व प्रणिधान इस अवस्था में बलवान् होता है। जो बोधिसत्त्व इस भूमि में अवस्थान करते हैं, उनमें आयुर्वशिता, चेतोवशिता, कर्मवशिता आदि दश वशिताएं तथा अशयबल, अध्याशय बल, महाकरुणा आदि दश बल सम्पन्न होते हैं। इस भूमि में अन्य पारमिताओं की अपेक्षा 'प्रणिधान पारमिता' का आधिक्य रहता है। <br />
<br />
'''साधुमती'''<br />
<br />
चार प्रतिसंविद् (विशेष ज्ञान) होती हैं, यथा- धर्मप्रतिसंविद् अर्थप्रतिसंविद्, निरुक्तिप्रतिसंविद् एवं प्रतिभानप्रतिसंविद्। इस भूमि में बोधिसत्व इन चारों प्रतिसंविद् में प्रवीण (=साधु अर्थात कर्मण्य) हो जाता है, इसलिए यह भूमि 'साधुमती' कहलाती है। धर्मप्रतिसंविद् के द्वारा वह धर्मों के स्वलक्षण को जानता है। अर्थप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों के विभाग को जानता है। निरुक्तिप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों को अविभक्त देशना को जानता है तथा प्रतिभानप्रतिसंविद् के द्वारा धर्मों के अनुप्रबन्ध अर्थात् निरवच्छिन्नता को जानता है। इस अवस्थ् में बोधिसत्त्व कुशल और अकुशलों को निष्पत्ति के प्रकार को ठीक-ठीक जान लेता है। इस भूमि में पारमिताओं में 'बल पारमिता' का प्राधान्य होता है। <br />
<br />
'''धर्ममेघा'''<br />
<br />
धर्म रूपी आकाश विविध समाधि मुख और विविध धारणीमुख रूपी मेघों से इस भूमि में व्याप्त हो जाता है, अत: यह भूमि 'धर्ममेघा' कहलाती है। यह भूमि अभिषेक भूमि आदि नामों से भी परिचित है। इस भूमि में बोधिसत्त्व की 'सर्वज्ञानाभिषेक समाधि' निष्पन्न होती है। बोधिसत्तव जब इस समाधि का लाभ करते हैं तब वे 'महारत्नराजपद्म' नामक आसन पर उपविष्ट दिखलाई पड़ते हैं। वे अज्ञान से उत्पन्न क्लेश रूपी अग्नि का धर्ममेघ के वर्णन से उपशमन करते है। अर्थात् क्लेशरूपी अग्नि को बुझा देते हैं, इसलिए इस भूमि का नाम 'धर्ममेघा' है। इस भूमि में उनकी 'ज्ञानपारमिता' अन्य पारमिताओं की अपेक्षा प्राधान्य का लाभ करती है।<br />
<br />
==प्रज्ञापारमितासूत्र==<br />
*प्रज्ञापारमितासूत्र प्रमुखत: भगवान बुद्ध द्वारा गृध्रकूट पर्वत पर द्वितीय धर्मचक्र के काल में उपदिष्ट देशनाएं हैं। कालान्तर में ये सूत्र जम्बूद्वीप में विलुप्त हो गये। <br />
*आचार्य [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन]] ने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया और वे वहाँ से पुन: जम्बूद्वीप लाए। प्रज्ञापारमितासूत्रों के दो पक्ष हैं। <br />
#एक दर्शनपक्ष है, जिसे प्रज्ञापक्ष या शून्यतापक्ष भी कहा जाता है। <br />
#दूसरा है साधनापक्ष, जिसे उपायपक्ष या करुणापक्ष भी कहा जाता है। <br />
*नागार्जुन ने प्रज्ञापारमितासूत्रों के दर्शन पक्ष को अपनी कृतियों द्वारा प्रकाशित किया। प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने प्रमुखत: मूलमाध्यमिककारिका आदि ग्रन्थों में शून्यता-दर्शन को युक्तियों द्वारा प्रतिष्ठापित किया, जिसे आगे चलकर उनके अनुयायियों ने और अधिक विकसित किया। प्रज्ञापारमितासूत्रों के साधनापक्ष को आर्य असंग ने अपनी कृतियों द्वारा प्रकाशित किया। तदनन्तर उनके अनुयायियों ने उसे और अधिक पल्लवित एवं पुष्पित किया। शून्यता, अनुत्पाद, अनिरोध आदि पर्यायवाची शब्द हैं। सभी धर्मों की नि:स्वभावता प्रज्ञापारमितासूत्रों का मुख्य प्रतिपाद्य है। प्रज्ञापारमितासूत्रों की संख्या अत्यधिक है। शतसाहस्रिका (एक लाख श्लोकात्मक) प्रज्ञापारमिता से लेकर एकाक्षरी प्रज्ञापारमिता तक ये सूत्र पाये जाते हैं। महायानी वैपुल्यसूत्रों के दो प्रकार हैं। एक प्रकार के वे सूत्र हैं, जिनमें बुद्ध, बोधिसत्त्व, बुद्धयान आदि की महत्ता प्रदर्शित की गई है। ललितविस्तर, सद्धर्मपुण्डरीक आदि सूत्र इसी प्रकार के हैं। दूसरे प्रकार में वे सूत्र आते हैं, जिनमें शून्यता और प्रज्ञा की महत्ता प्रदर्शित है, ये सूत्र प्रज्ञापारमितासूत्र ही हैं। शून्यता और महाकरुणा- इन दोनों का समन्वय प्रज्ञापारमितासूत्रों में दृष्टिगोचर होता है। <br />
*महायान साहित्य में प्रज्ञापारमितासूत्रों का अत्यधिक महत्त्व है। अन्य सूत्रों में अधिकतर बुद्ध और बोधिसत्त्वों का संवाद दिखलाई देता है, जबकि प्रज्ञापारमितासूत्रों में बुद्ध सुभूति नामक स्थविर से प्रश्न करते हैं। सुभूति और शारिपुत्र इन दो स्थविरों का शून्यता के बारे में संवाद ही तात्त्विक एवं गम्भीर है। इन सूत्रों की प्राचीनता इसी से प्रमाणित है कि ई. सन 179 में प्रज्ञापारमितासूत्र का चीनी भाषा में रूपान्तर हो गया था। प्राय: सभी बौद्ध धर्मानुयायी देशों में इन सूत्रों का अत्यधिक समादर है। <br />
*नेपाली परम्परा के अनुसार मूल प्रज्ञापारमिता महायान सूत्र सवा लाख श्लोकात्मक है। पुन: एक लक्षात्मक, पच्चीस हज़ार, दस हज़ार और आठ हज़ार श्लोकात्मक प्रज्ञापारमितासूत्र भी प्रकाशित हैं। चीनी और तिब्बती परम्परा में इसके और भी अनेक प्रकार हैं। <br />
*संस्कृत में निम्नलिखित सूत्र अंशत: या पूर्णरूपेण उपलब्ध होते हैं- <br />
#शतसाहस्रिकाप्रज्ञापारमिता, <br />
#पञ्चविंशतिसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता, <br />
#अष्टसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता, <br />
#सार्धद्विसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता, <br />
#सप्तशतिका प्रज्ञापारमिता, <br />
#वज्रच्छेदिका (त्रिशतिका) प्रज्ञापारमिता, <br />
#अल्पाक्षरा प्रज्ञापारमिता, <br />
#भगवती प्रज्ञापारमितासूत्र आदि। <br />
*प्रज्ञापारमितासूत्रों को जननी सूत्र भी कहते हैं। प्रज्ञापारमिता के बिना बुद्धत्व का लाभ सम्भव नहीं है, अत: यह बुद्धत्व को उत्पन्न करने वाली है। इसी अर्थ में इसे जननी, बुद्धमाता आदि शब्दों से भी अभिहित करते हैं। इन्हें 'भगवती' भी कहते हैं, जो इनके प्रति अत्यधिक आदर का सूचक है। जननी सूत्रों का तीन में विभाजन भी किया जाता है, यथा- विस्तृत, मध्यम एवं संक्षिप्त जिनजननीसूत्र। <br />
*शतसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता विस्तृत जिनजननीसूत्र है, जिसका उपदेश भगवान ने मृदु-इन्द्रिय और विस्तृतरुचि विनेयजनों के लिए किया है। मध्येन्द्रिय और मध्यरुचि विनेयजनों के लिए मध्यम जिनजननी अर्थात पञ्चविंशति साहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का तथा तीक्ष्णेन्द्रिय और संक्षिप्त रुचि विनेयजनों के लिए संक्षिप्त जिनजननी अर्थात अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता का भगवान ने उपदेश किया है। इन सभी में अष्टसाहस्त्रिका पूर्णत: उपलब्ध है, अत: उसका यहाँ निरुपण किया जा रहा है।<br />
<br />
==अवदान साहित्य==<br />
*इस शब्द की व्युत्पत्ति अज्ञात है। पालि में इसके समकक्ष 'अपदान' शब्द है। सम्भवत: इसका प्रारम्भिक अर्थ असाधारण या अद्भुत कार्य है। <br />
*अवदान कथाएं कर्म-प्राबल्य को सिद्ध करती हैं। <br />
*आजकल अवदान का अर्थ कथामात्र रह गया है। महावस्तु को भी 'अवदान' कहते हैं। <br />
*अवदान कथाओं का प्राचीनतम संग्रह 'अवदानशतक' है। <br />
*तीसरी शताब्दी में इसका चीनी अनुवाद हो गया था। प्रत्येक कथा के अन्त में यह निष्कर्ष दिया जाता है कि शुक्ल कर्म का शुक्ल फल, कृष्ण कर्म का कृष्ण फल तथा व्यामिश्र का व्यामिश्र फल होता है। इनमें से अनेक में अतीत जन्म की कथा है। इसे हम जातक भी कह सकते हैं। क्योंकि जातक में बोधिसत्त्व के जन्म की कथा दी गयी है। किन्तु ऐसे भी अवदान हैं, जिनमें अतीत की कथा नहीं पाई जाती। कुछ अवदान 'व्याकरण' के रूप में हैं अर्थात इनमें प्रत्युत्पन्न कथा का वर्णन करके अनागत काल का व्याकरण किया गया है। तिब्बती भाषा में भी अवदान साहित्य अनूदित हुआ है। <br />
==अवदानशतक==<br />
*यह हीनयान का ग्रन्थ है- ऐसी मान्यता है। इसके चीनी अनुवादकों का ही नहीं, अपितु इसके अन्तरंग प्रमाण भी हैं। <br />
*सर्वास्तिवादी आगम के परिनिर्वाणसूत्र तथा अन्य सूत्रों के उद्धरण अवदानशतक में पाये जाते हैं। यद्यपि इसकी कथाओं में बुद्ध पूजा की प्रधानता है, तथापि बोधिसत्त्व का उल्लेख नहीं मिलता। अवदानशतक की कई कथाएं अवदान के अन्य संग्रहों में और कुछ पालि-अपदानों में भी आती हैं। <br />
==दिव्यावदान==<br />
*इस बौद्धिक ग्रन्थ में पुष्यमित्र को [[मौर्य काल|मौर्य]] वंश का अन्तिम शासक बतलाया गया है ।<br />
*इसमें महायान एवं हीनयान दोनों के अंश पाए जाते हैं। विश्वास है कि इसकी सामग्री बहुत कुछ मूल सर्वास्तिवादी विनय से प्राप्त हुई है। दिव्यावदान में दीर्घागम, उदान, स्थविरगाथा आदि के उद्धरण प्राय: मिलते हैं। कहीं-कहीं बौद्ध भिक्षुओं की चर्याओं के नियम भी दिये गये हैं, जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि दिव्यावदान मूलत: विनयप्रधान ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ गद्य-पद्यात्मक है। इसमें 'दीनार' शब्द का प्रयोग कई बार किया गया है। इसमें शुंगकाल के राजाओं का भी वर्णन है। <br />
*शार्दूलकर्णावदान का अनुवाद चीनी भाषा में 265 ई. में हुआ था। <br />
*दिव्यावदान में अशोकावदान एवं कुमारलात की कल्पनामण्डितिका के अनेक उद्धरण हैं। इसकी कथाएं अत्यन्त रोचक हैं। उपगुप्त और मार की कथा तथा कुणालावदान इसके अच्छे उदाहरण हैं। <br />
*अवदानशतक की सहायता से अनेक अवदानों की रचना हुई है, यथा- कल्पद्रुमावदानमाला, अशोकावदानमाला, द्वाविंशत्यवदानमाला भी अवदानशतक की ऋणी हैं। अवदानों के अन्य संग्रह भद्रकल्यावदान और विचित्रकर्णिकावदान हैं। इनमें से प्राय: सभी अप्रकाशित हैं। कुछ के तिब्बती और चीनी अनुवाद मिलते हैं। <br />
*क्षेमेन्द्र की अवदानकल्पलता का उल्लेख करना भी प्रसंग प्राप्त है। इस ग्रन्थ की समाप्ति 1052 ई. में हुई। तिब्बत में इस ग्रन्थ का अत्यधिक आदर है। इस संग्रह में 107 कथाएं हैं। <br />
*क्षेमेन्द्र के पुत्र सोमेन्द्र ने न केवल इस ग्रन्थ की भूमिका ही लिखी, अपितु अपनी ओर से एक कथा भी जोड़ी है। यह जीमूतवाहन अवदान है।<br />
<br />
==अश्वघोष साहित्य==<br />
*1892 ई. में सिलवां लेवी द्वारा बुद्धचरित के प्रथम सर्ग के प्रकाशन से पूर्व यूरोप में कोई नहीं जानता था कि अश्वघोष एक महान कवि हुए हैं। तिब्बती और चीनी आम्नाय के अनुसार अश्वघोष महाराज कनिष्क के समकालीन थे। जो प्रमाण उपलब्ध हैं, उनके अनुसार वे अश्वघोष के समकालीन या उससे कुछ पूर्ववर्ती थे। <br />
*चीनी आम्नाय के अनुसार अश्वघोष का सम्बन्ध विभाषा से भी था, किन्तु विद्वानों को इसमें सन्देह है। <br />
*अश्वघोष की काव्यशैली सिद्ध करती है कि वह कालिदास से कई शताब्दी पूर्व थे। <br />
*भास उनका अनुसरण करते हैं। शब्द प्रयोग से लगता है कि कौटिल्य के निकटवर्ती थे। <br />
*अश्वघोष अपने को 'साकेतक' कहते हैं और माता का नाम 'सुवर्णाक्षी' बताते हैं। <br />
*रामायण का उनके ग्रन्थों पर विशेष प्रभाव है। उनका कहना है कि शाक्य इक्ष्वाकुवंशीय थे। अश्वघोष ब्राह्मण थे, उसी प्रकार उनकी शिक्षा भी हुई थी। बाद में वे बौद्ध धर्म मे दीक्षित हुए। उनके ग्रन्थों से सिद्ध होता है कि वे बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अत्यन्त व्यस्त थे। तिब्बती विवरण के अनुसार वे एक अच्छे संगीतज्ञ भी थे और गायकों की मण्डली के साथ भ्रमण करते थे तथा बौद्ध धर्म का प्रचार वे गानों के माध्यम से करते थे। <br />
#बुद्धचरित, <br />
#सौन्दरनन्द और <br />
#शारिपुत्र प्रकरण- ये तीनों ग्रन्थ उनकी रचनाएं हैं। <br />
<br />
'''बुद्धचरित''' में बुद्ध की कथा वर्णित है। इसमें 28 वर्ग हैं। बुद्ध कथा भगवान के जन्म से प्रारम्भ होती है औ संवेगोत्पत्ति, अभिनिष्क्रमण, मारविजय, संबोधि धर्मचक्रप्रवर्तन, परिनिर्वाण आदि घटनाओं का वर्णन कर प्रथम संगीति और अशोक के राज्यकाल पर समाप्त होती है। <br />
<br />
'''सौन्दरनन्द''' में बुद्ध के भाई नन्द के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने की कथा है। इस ग्रन्थ में 18 सर्ग हैं। समग्र ग्रन्थ सुरक्षित है। <br />
<br />
'''शारिपुत्र प्रकरण''' यह नाटक ग्रन्थ है। इसमें 9 अंक हैं। इसमें शारिपुत्र औ मौद्गल्यायन के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने की कथा वर्णित है। यह खण्डित रूप में प्राप्य है। इसका उद्धार प्रोफेसर लुडर्स ने किया है। ये तीनों ग्रन्थ एक रचयिता द्वारा रचे हुए प्रतीत होते हैं। श्री जान्सटन ने बुद्धचरित का सम्पादन किया है। पूरा अविकल ग्रन्थ संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। प्रथम सर्ग और 14वें सर्ग का कुछ अंश खण्डित है। 2-13 सर्ग ठीक हैं। 15 सर्ग से आगे मूल संस्कृत में अनुपलब्ध है। <br />
*तिब्बती और चीनीपरम्परा अश्वघोष को अन्य ग्रन्थों का भी रचयिता मानती है। टामस ने उनकी सूची प्रकाशित की है, किन्तु वे संस्कृत में अप्राप्य हैं, इसलिए उनके बारे में कुछ कहना सम्भव नहीं है। प्रोफेसर लुडर्स को शारिपुत्रप्रकरण के साथ दो और नाटकों के अंश मिले हैं। एक के मात्र तीन पत्र मिले हैं, जिनमें बुद्ध के ऋदिबल का प्रदर्शन है। दूसरे में एक नवयुवक की कथा है, जिसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। किन्तु इनके अश्वघोष की रचना होने में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। <br />
*तीन और ग्रन्थ अश्वघोष के बताये जाते हैं- वज्रसूची, गण्डीस्तोत्र एवं सूत्रालङ्कार। चीनी अनुवादक सूत्रालंकार को अश्वघोष की कृति मानते हैं। बाद में प्रोफेसर लुडर्स को मध्य एशिया में इस ग्रन्थ के मूल संस्कृत में कुछ अंश मिले हैं, उन्होंने सिद्ध किया है कि वहाँ ग्रन्थकार का नाम कुमारलात है और ग्रन्थ का नाम कल्पनामण्डितिका है। सामान्यत: विद्वान् इन्हें अश्वघोष की रचना नहीं मानते। <br />
*अपनी रचनाओं में अश्वघोष ने श्रद्धा की महिमा का जोरदार वर्णन किया है। <br />
<poem>श्रद्धाङ्कुरमिमं तस्मात् संवर्धयितुमर्हसि।<br />
तद्वृद्धौ वर्धते धर्मों मूलवृद्धौ यथा द्रुम:॥ (सौन्दरनन्द 12:)</poem><br />
*विद्वानों का मानना है कि अश्वघोष बाहुश्रुतिक हैं। बाहुश्रुतिक महासांघिक की शाखा है। इसलिए ये महादेव की पांच वस्तुओं को स्वीकारते हैं। इनमें से चतुर्थ के अनुसार अर्हत परप्रत्यय से ज्ञान लाभ करते हैं। पर-प्रत्यय के लिए श्रद्धा आवश्यक है। <br />
*जान्सटन के अनुसार अश्वघोष बाहुश्रुतिक या कौक्कुटिक या कौक्कुलिक हैं। <br />
*तारानाथ के अनुसार मातृचेट अश्वघोष का दूसरा नाम है। मातृचेट का स्तोत्र अत्यन्त लोकप्रिय था। <br />
*जातकमाला के रचयिता आर्यशूर अश्वघोष के ऋणी हैं। जातकमाला में 34 जातककथाओं का संग्रह है, लगभग सभी कथांए पालि जातक में पाई जाती हैं।<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:दर्शन]]<br />
[[Category:बुद्ध]]<br />
[[Category:बौद्ध]]<br />
__INDEX__<br />
[[Category:बौद्ध दर्शन ]]</div>
फ़ौज़िया ख़ान
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A4%B5_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B8&diff=67132
जैन दर्शन का उद्भव और विकास
2011-11-26T04:59:58Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{Menu}}<br />
==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==<br />
{{tocright}}<br />
'''उद्भव'''<br />
<br />
जैनश्रुत के 12वें अंग दृष्टिवाद में जैन दर्शन और न्याय के उद्गम बीज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। <br />
*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम'<balloon title="भगवती 2-8, तित्थोगा0 801, सत्तरिसयठाण 327 तथा पं॰ दलसुख मालवणिया, आगमयुग का जैन दर्शन, पृ0 26, 27, सन्मति ज्ञानपीठ आ0 संस्क0 1966" style=color:blue>*</balloon> में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा<balloon title="भूतबलि-पुष्पदन्त, षट्खण्डागम 1/1/79, धव0 पु0 1, पृ0 219" style=color:blue>*</balloon>'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।<br />
*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं।<balloon title="भूतबलि-पुष्पदन्त, षट्खण्डागम, 1/2/50, धव0 पु0 3, पृ0 262" style=color:blue>*</balloon> 'सिय अत्थिणत्थि उहयं','जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है। <br />
*श्वेताम्बर परम्परा में मान्य<balloon title="भगवतीसूत्र 7, 2, 273 आदि" style=color:blue>*</balloon> आगमों में भी जैन दर्शन और जैन न्याय के बीज मिलते हैं। उनमें अनेक जगह '''से केणट्ठेणं भंते एवमुच्चई जीवाणं, भंते किं सासया असासया? गोयमा। जीवा सिय सासया सिय असासया। गोयमा। दव्वट्ठयाए सासया भवट्ठयाए असासया।''' जैसे तर्क गर्भ प्रश्नोत्तर प्राप्त होते हैं।<br />
*'सिया' या 'सिय' प्राकृत शब्द हैं, जो [[संस्कृत]] के 'स्यात्' शब्द के पर्यायवाची है। और कथंचिदर्थबोधक हैं तथा स्याद्वाददर्शन एवं स्याद्वादन्याय के प्रदर्शक हैं। द्वादशांग में अन्तिम दृष्टिवाद अंग का जो स्वरूप दिया गया है, उसमें बतलाया गया है।<balloon title="कुन्दकुन्द, पंचास्तिकाय, गा0 13, 14" style=color:blue>*</balloon> कि जिसमें विविध दृष्टियों-वादियों की मान्यताओं का प्ररूपण और उनकी समीक्षा है वह दृष्टिवाद है। यह समीक्षा हेतुओं एवं युक्तियों के बिना संभव नहीं है।<br />
*इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि जैन दर्शन और जैन न्याय का उदृगम दृष्टिवाद-अंगश्रुत से हुआ है। <br />
*जैन मनीषी [[यशोविजय]]<balloon title="अकलंक, त0 वा0, 1/20/12, पृ0 74, भा0ज्ञानपीठ संस्क0 1944" style=color:blue>*</balloon> ने भी लिखा है कि 'स्याद्वादार्थों दृष्टिवादार्णवोत्थ:' अर्थात् स्याद्वादार्थ-जैन दर्शन और जैन न्याय दृष्टिवादरूप अर्णव (समुद्र) से उत्पन्न हुए हैं। यहाँ यशोविजय ने दृष्टिवाद को अर्णव (समुद्र) बतलाकर उसकी विशालता, गंभीरता और महत्ता को प्रकट किया है तथा स्याद्वाद का उद्भव उससे प्रतिपादित किया है। यथार्थ में स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय ही जैन दर्शन एवं जैनन्याय हैं। <br />
*आचार्य [[समन्तभद्र]] ने सभी तीर्थंकरों को 'स्याद्वादी' कहकर उनके उपदेश को बहुत स्पष्ट रूप में स्याद्वाद-न्याय, जिसमें दर्शन भी अंतर्भूत है, बतलाया है।<balloon title="यशोविजय, अष्टसहस्रीटीका, पृ0 1" style=color:blue>*</balloon> उनके उत्तरवर्ती [[अकलंकदेव]]<balloon title="समन्तभद्र, स्वयम्भू, सम्भवजिनस्तोत्रश्लोक, 4(14), अरजिनस्तोत्र श्लोक 17(1.2) आप्तमी0 13" style=color:blue>*</balloon> तो कहते हैं कि ऋषभ से लेकर महावीर पर्यन्त सभी तीर्थंकर स्याद्वादी-स्याद्वाद के उपदेशक हैं। आचार्य समन्तभद्र, अकलंक, यशोविजय के सिवाय [[सिद्धसेन]]<balloon title="अकलंक, लघीय0, मंगलपद्य 1" style=color:blue>*</balloon>, [[विद्यानंद]]<balloon title="द्वात्रिंशका, 1-30, 4-15" style=color:blue>*</balloon> और [[हरिभद्र]] जैसे दार्शनिकों एवं तार्किकों ने भी स्याद्वाददर्शन और स्याद्वाद नयाय को जैन दर्शन और जैन न्याय प्रतिपादित किया है। यह संभव है कि वैदिक और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] एवं न्यायों का विकास जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास में प्रेरक हुआ हो तथा उनकी क्रमिक शास्त्र रचना जैन दर्शन और जैन न्याय की क्रमिक शास्त्ररचना में बलप्रद हुई हो। समकालीनों में ऐसा आदान-प्रदान या प्रेरणा-ग्रहण स्वाभाविक है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। <br />
<br />
'''विकास'''<br />
<br />
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-<br />
#आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई॰ 200 से ई॰ 650)। <br />
#मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई॰ 650 से ई॰ 1050)।<br />
#उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई॰ 1050 से 1700)।<br />
<br />
==आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल== <br />
*जैन दर्शन के विकास का आरम्भ यों तो आचार्य कुन्दकुन्द<balloon title="विद्यानन्द, अष्टसहस्री पृ0 238" style=color:blue>*</balloon> से उपलब्ध होने लगता है। उनके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आदि प्राकृत ग्रन्थों में दर्शन के बीज प्राप्त हैं। भगवती सूत्र<balloon title="भगवती सूत्र,5/3/191-192" style=color:blue>*</balloon>, स्थानांगसूत्र<balloon title="स्थानांगसूत्र,258" style=color:blue>*</balloon> आदि अनेक स्थल में भी दर्शन की चर्चायें मिलती<balloon title="कुन्दकुन्द, पंचास्ति0 गा0 9-10" style=color:blue>*</balloon> हैं। [[गृद्धपिच्छ]] के तत्त्वार्थसूत्र<balloon title="पं॰ दलसुख मालवणिया, आगमयुग का जैन दर्शन, पं॰ 136, 137" style=color:blue>*</balloon> में, जो जैन संस्कृत वाङमय का आद्यसूत्र ग्रन्थ है, सिद्धान्त के साथ दर्शन और न्याय का भी अच्छा प्ररूपण है। <br />
*आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने उस आरम्भ को आगे बढ़ाया और बहुत स्पष्ट किया है। उनकी उपलब्ध पांच कृतियों में चार कृतियाँ हैं सो तीर्थंकरों के स्तवनरूप में होने पर भी उनमें दर्शन और न्याय के प्रचुर उपकरण पाये जाते हैं, जो प्राय: उनसे पूर्व अप्राप्य हैं। उन्होंने इनमें एकान्तवादों का निराकरण करके अनेकान्त और स्याद्वाद की प्रस्थापना की है। उनकी वे चार कृतियाँ हैं- #आप्तमीमांसा (देवागम), <br />
#युक्त्यनुशासन, <br />
#स्वयम्भू और [[देवनन्दि पूज्यपाद]]<br />
#जिनशतक। <br />
*इनमें उन्होंने स्याद्वाद और सप्रभङ्गनय का सुन्दर एवं प्रौढ़ [[संस्कृत]] में प्रतिपादन किया है, जो उस प्राचीन जैन संस्कृत-वाङमय में पहली बार मिलता है। प्रतीत होता है कि समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक एवं तार्किक क्षेत्र में जैन दर्शन और जैन न्याय के युग प्रवर्तक का कार्य किया है। उनसे पूर्व जैन संस्कृति के प्राणभूत 'स्याद्वाद' को प्राय: आगम रूप ही प्राप्त था और उसका आगमिक विषयों के निरूपण में ही उपयोग किया जाता था तथा सीधी-सादी एवं सरल विवेचना की जाती थी। जैसा कि हम 'सिया', 'सिय' के सन्दर्भ में पहले देख आये हैं। उसके समर्थन में विशेष युक्तिवाद की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। परन्तु समन्तभद्र के काल में उसकी आवश्यकता बढ़ गई, क्योंकि ई॰ 2री, 3री शताब्दी का समय भारतवर्ष के दार्शनिक इतिहास में अपूर्व क्रांति का था। इस समय विभिन्न दर्शनों में अनेक प्रभावशाली दार्शनिक हुए हैं। <br />
*यद्यपि [[महावीर]] और [[बुद्ध]] के अहिंसापूर्ण उपदेशों से यज्ञप्रधान वैदिक परम्परा का प्रभाव बहुत क्षीण हो गया था और श्रमण- जैन तथा बौद्ध परम्परा का, जो अहिंसा, तप, त्याग और ध्यान पर बल देती थी, प्रभाव प्राय: सर्वत्र फैल गया था। किन्तु कुछ शताब्दियों के पश्चात वैदिक संस्कृति का पुन: प्रभाव बढ़ गया और वैदिक विद्वानों द्वारा श्रमण-परम्परा के उक्त अहिंसादि सिद्धांतों की आलोचना एवं खंडन आरंभ हो गया था। फलत: बौद्ध परम्परा में [[अश्वघोष]], मातृचेट , [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन]], बसुबिंदु आदि विद्वानों तथा जैन परम्परा में कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छ, प्रभृति मनीषियों का उद्भव हुआ। इन्होंने अपने सिद्धांतों का संपोषण, प्रतिष्ठापन करने के साथ ही वैदिक विद्वानों की आलोचनां का उत्तर भी दिया तथा उनके हिंसापूर्ण क्रियाकांड का खंडन किया। बाद को वैदिक परम्परा में [[कणाद]], [[जैमिनि]], अक्षपाद, वादरायण आदि महा-उद्योगी प्राज्ञ हुए और उन्होंने अपने सिद्धांतों का समर्थन तथा श्रमण विद्वानों के खंडन-मंडन का जवाब दिया। <br />
*यद्यपि वैदिक परम्परा [[वैशेषिक दर्शन|वैशेषिक]], [[मीमांसा दर्शन|मीमांसा]], [[न्याय दर्शन|न्याय]], [[वेदान्त]], [[सांख्य दर्शन|सांख्य]] आदि अनेक शाखाओं में विभाजित थी और उनके भी परस्पर खंडन-मंडन आलोचन-प्रत्यालोचन चलता था। किन्तु श्रमणों और श्रमण सिद्धान्तों के विरुद्ध (खण्डन में) सब एक थे और सभी अपने सिद्धान्तों का आधार प्राय: [[वेद]] को मानते थे। इसी दार्शनिक उठापटक में ईश्वर-[[कृष्ण]], विन्ध्यवासी, वात्स्यायन, असंग, वसुबन्धु आदि विद्वान दोनों परम्पराओं में आविर्भूत हुए और उन्होंने स्वपक्ष के समर्थन एवं परपक्ष के खंडन के लिए अनेक शास्त्रों की रचना की। इस तरह वह समय सभी दर्शनों का अखाड़ा बन गया था। सभी दार्शनिक एक दूसरे को परास्त करने में लगे थे। इस सबका आभास इस काल के रचे एवं उपलब्ध दार्शनिक साहित्य से होता है। <br />
<br />
'''दार्शनिक जगत को आचार्य समन्तभद्र का अवदान'''<br />
<br />
*इसी समय जैन परम्परा में दक्षिण भारत में महामनीषी समन्तभद्र का उदय हुआ, जो उनकी उपलब्ध कृतियों से प्रतिभाशाली और तेजस्वी पांडित्य से युक्त प्रतीत होते हैं। उन्होंने उक्त दार्शनिकों के संघर्ष को देखा और अनुभव किया कि परस्पर के आग्रह से वास्तविक तत्त्व लुप्त हो रहा है। सभी दार्शनिक अपने अपने पक्षाग्रह के अनुसार तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। कोई तत्त्व को मात्र भाव अस्तित्वरूप, कोई अभाव नास्तित्वरूप, कोई अद्वैत एकरूप, कोई द्वैत अनेकरूप, कोई अपृथक् अभेदरूप आदि मान रहा है। जो तत्व वस्तु का एक-एक अंश है, उसका समग्र नहीं है। इस सबकी झलक हमें उनकी 'आप्तमीमांसा' में मिलती है। उसमें उन्होंने इन सभी एकान्त मान्यताओं को प्रस्तुत कर स्याद्वाद से उनका समन्वय कर उन सभी को स्वीकार किया है। <br />
*भाव<balloon title="विधि" style=color:blue>*</balloon>वादी का मत था<balloon title="तत्त्वार्थसूत्र 1-6, 10,11, 12, 31, 32 तथा 10-5, 6, 7, 8" style=color:blue>*</balloon> कि तत्त्व<balloon title="समग्र-समूहवस्तु" style=color:blue>*</balloon>भावरूप ही है, अभावरूप नहीं- 'सर्वं सर्वत्र विद्यते'- सब सब जगह है। न प्रागभाव है, न प्रध्वंसाभाव है, न अन्योन्याभाव है, न अत्यंताभाव है। <br />
*इसके विपरीत<balloon title="शून्य" style=color:blue>*</balloon>वादी का कथन<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका 9, 10, 11" style=color:blue>*</balloon>था कि अभावरूप ही तत्त्व है। शून्य के सिवाय कुछ नहीं है। न प्रमाण है और न प्रमेय है। <br />
*अद्वैतवादी प्रतिपादन करता था<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका,12" style=color:blue>*</balloon> कि तत्त्व एक ही है, अनेक का प्रतिभास माया विजृम्भित अथवा अविद्योपकल्पित है। अद्वैतवादी भी एक नहीं थे, वे भिन्न भिन्न रूप में त व का प्ररूपण करते थे। कोई एक मात्र ब्रह्म का कथन करते थे। कोई मात्र ज्ञान का, कोई मात्र बाह्यार्थ का और कोई शब्दमात्र का निरूपण करते थे। <br />
*द्वैतवादी<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 24" style=color:blue>*</balloon> इसका विरोध करके तत्त्व को द्वैत (अनेक) बतलाते थे। वैशेषिक तत्त्व को सात पदार्थ (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव) रूप, नैयायिक 16 पदार्थ (प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह स्थान) रूप, सांख्य 25 (पुरुष, प्रकृति, महान, अहंकार, 16 का गण, 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय, 1 मत, 5 तन्मात्राएं तथा इन 5 तन्मात्राओं से उत्पन्न 5 भूत -1. [[आकाश]], 2. [[वायु]], 3. [[अग्नि]], 4. जल, 5. [[पृथ्वी]]) रूप कहते थे। <br />
*अनित्यवादी<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 28" style=color:blue>*</balloon> कहते थे कि वस्तु प्रति समय नष्ट हो रही है, कोई भी स्थिर नहीं है। अन्यथा जन्म, मरण, विनाश, अभाव, परिवर्तन आदि नहीं हो सकते, जो स्पष्ट दिखाई देते हैं और बतलाते हैं कि वस्तु अनित्य है, नित्य नहीं है। <br />
*नित्यवादी का कहना था<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 41" style=color:blue>*</balloon> कि यदि वस्तु अनित्य होता तो उसके नाश हो जाने पर यह संपूर्ण जगत और वस्तुएं फिर दिखाई नहीं देतीं। एक व्यक्ति, जो बाल्य, युवा और वार्धक्य में अन्वयरूप से विद्यमान रहता है, स्थायी नहीं रह सकता। अत: वस्तु नित्य है। <br />
*इस तरह भेद-अभेदवाद, अपेक्षा-अनपेक्षावाद, हेतु-अहेतुवाद, देव-पुरुषार्थवाद आदि एक-एक वाद (पक्ष) को माना जाता था और परस्पर में संघर्ष होता था।<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 37" style=color:blue>*</balloon><br />
*यद्यपि श्रमण और श्रमणेतरों के वादों की चर्चा जैन परम्परा के दृष्टिवाद एवं भगवती सूत्र<balloon title="भगवती सूत्र,1-9, 2-5, 59, 9-32 आदि उत्तराध्ययन (अध्ययन 23" style=color:blue>*</balloon> और सूत्रकृतांग<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 61, 69, 73, 76, 88, 89 आदि" style=color:blue>*</balloon> में तथा बौद्ध परम्परा के त्रिपिटकों<balloon title="आगमयुग का जैन दर्शन (वादविद्याखण्ड), पृ0 170, 171" style=color:blue>*</balloon> में भी उपलब्ध होती है। किन्तु वह उतने प्रबल रूप में नहीं हैं, जितने सशक्त रूप में समन्तभद्र के काल में वह उभरकर आई। इसी से समन्तभद्र ने इन प्रचलित वादों का स्पष्ट और कुछ विस्तार से कथन करते हुए उन वादों में दोष प्रदर्शित किये तथा उन सभी को स्याद्वाद द्वारा स्वीकार किया। उन्होंने किसी के पक्ष को मिथ्या बतलाकर तिरस्कृत नहीं किया। अपितु उन्हें वस्तु का अपना एक-एक अंश बताया, क्योंकि वस्तु अनंतधर्मा है।<balloon title="आगमयुग का जैन दर्शन (वादविद्याखण्ड), पृ0 170, 171" style=color:blue>*</balloon> जो उसके जिस धर्म को देखेगा वही धर्म उसे उस समय दिखाई देगा, ऐसी स्थिति में द्रष्टा को यह विवेक रखना आवश्यक है कि वह वस्तु को उतना ही न मान बैठे। विवक्षित धर्म की अपेक्षा उसका दर्शन और कथन सही होने पर भी अविवक्षित, किन्तु विद्यमान अन्य धर्मों की अस्वीकृति होने से वह मिथ्या है अत: एक-एक अंश को मिथ्या नहीं कहा जा सकता। मिथ्या तभी है जब वह इतर का तिरस्कार करता है<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 22।8. आप्तमीमांसा कारिका, 108" style=color:blue>*</balloon>। <br />
*आचार्य समन्तभद्र ने विपक्ष के सभी उक्त विरोधी पक्ष-युगनों में स्याद्वाद द्वारा सप्तभंगी (सप्तवाक्यनय) की विशद योजना करके उनके आपसी संघर्षों को जहाँ शमन करने की दृष्टि प्रदान की वहाँ उन्होंने को जहाँ शमन करने की दृष्टि प्रदान की वहाँ उन्होंने पक्षाग्रहशून्य विचार-सरणिकी समन्वयवादी दृष्टि भी प्रस्तुत की। यही दृष्टि स्याद्वाद है, जो परम्परा से उन्हें प्राप्त थी। स्याद्वाद में सभी पक्षों (वादों) का समादर एवं समावेश है। एकान्त दृष्टियों (एकान्तवादों) में अपनी-अपनी ही मान्यता का आग्रह होने से उनमें अन्य (विरोधी) पक्षों का न समादर है और न समावेश है। <br />
समन्तभद्र की यह अनोखी, किन्तु सही अहिंसक दृष्टि भारतीय दार्शनिकों, विशेषकर उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों के लिए मार्गदर्शन सिद्ध हुई। सिद्धसेन, [[श्रीदत्त]], [[पात्रस्वामी]], [[अकलंकदेव]], [[हरिभद्र]], [[विद्यानन्द]], [[वादीभसिंह]] आदि तार्किकों ने उनका पूरा अनुगमन किया है। सम्भवत: इसी कारण उन्हें इस [[कलि युग]] में स्याद्वादतीर्थप्रभावक<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 14, 23, 34, 56, 57, 59, 60, 71, 72, 75, 78, 83, 91, 96, 98" style=color:blue>*</balloon>, स्याद्वादाग्रणी<balloon title="अकलंक, अष्टशती, मंगलपद्य 2" style=color:blue>*</balloon> आदि रूप में स्मरण किया गया है और श्रद्धापूर्वक उनका गुणगान किया गया है। <br />
*समन्तभद्र से पूर्व आगमों में स्याद्वाद और सप्तभङगी का निर्देश अवश्य मिलता है। किन्तु वह बहुत कम और आगमिक विषयों के निरूपण में है। पर उन दोनों का जितना विशद, विस्तृत और व्यावहारिक प्रतिपादन समन्तभद्र की कृतियों में<balloon title="विद्यानन्द, अष्टस0 पृ0 295" style=color:blue>*</balloon> उपलब्ध है, उतना उनसे पूर्व नहीं है। समन्तभद्र ने स्याद्वाद द्वारा सप्तभंगनयों (सात उत्तर वाक्यों) से 44 अनेकान्तरूप वस्तु की व्यवस्था का विधान किया और उस विधान को व्यावहारिक भी बनाया।<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 104, युक्त्यनुशा0 का0 45, स्वयम्भू का0 101, 118 आदि" style=color:blue>*</balloon> उदाहरण के लिए हम उनके आप्तमीमांसागत भाववाद और अभाववाद के समन्वय को यहाँ प्रस्तुत करते हैं।<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 104, 23" style=color:blue>*</balloon> इन्हें सप्तभंगी नय व्यवस्था भी कहते हैं। यहाँ सप्तभंगी की दार्शिनक विवेचना प्रस्तुत है—<br />
<br />
'''स्यादस्ति'''<br /><br />
स्यात् (कथंचित्) वस्तु भावरूप ही है, क्योंकि वह स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से वैसी ही प्रतीत होती है। यदि उसे परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से भी भावरूप माना जाये, तो 'न' का व्यवहार अर्थात अभाव का व्यवहार कहीं भी नहीं हो सकेगा। फलत: प्रागभाव के अभाव हो जाने पर वस्तु अनादि (अनुत्पन्न) प्रध्वंसाभाव के अभाव में अनन्त (विनाशका अभावशाश्वत विद्यमान), अन्योन्याभाव के अभाव में सब सबरूप (परस्पर भेद का अभाव) और अत्यन्ताभाव के अभाव में स्वरूप रहित (अपने-अपने प्रातिस्विक् रूप की हानि) रूप हो जायेगी। जब कि वस्तु उत्पन्न होती है, नष्ट होती है, परस्पर भिन्न रहती है और अपने-अपने स्वरूप को लिए हुए है। अत: वस्तु स्वरूपचतुष्टय की अपेक्षा से भावरूप ही है।<br /> <br />
'''स्यात् नास्ति'''<br /><br />
स्यात् (कथंचित्) वस्तु अभावरूप ही है, क्योंकि वह परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से वैसा ही अवगत होती है। यदि उसे सर्वथा (स्व और पर दोनों से) अभावरूप ही स्वीकार किया जाये, तो विधि (सद्भाव) रूप में होनेवाले ज्ञान और वचन वे समस्त व्यवहार लुप्त हो जाएंगे और उस स्थिति में समस्त जगत् अन्ध (ज्ञान के अभाव में अज्ञानी) तथा मूक (वचन के अभाव में गूँगा) हो जायेगा, क्योंकि (शून्य) वाद में न ज्ञेय है, न उसे जानने वाला ज्ञान है, न अभिधेय है और न उसे कहने वाला वचन है। ये सभी (चारों) भाव (सद्भाव) रूप हैं। इस तरह वस्तु को सर्वथा अभाव (शून्य) मानने पर न ज्ञान-ज्ञेय का और न वाच्य-वाचक का व्यवहार हो सकेगा- कोई व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अत: वस्तु पर चतुष्टय से अभावरूप ही है।<br /> <br />
'''स्यादस्ति-नास्ति'''<br /><br />
वस्तु कथंचित् उभयरूप ही है, क्योंकि क्रमश: दोनों विवक्षाएं होती हैं। ये दोनों विवक्षाएं तभी संभव हैं जब वस्तु कथंचित दोनों रूप हो। अन्यथा वे दोनों विवक्षाएं क्रमश: भी संभव नहीं है। <br />
<br />
'''स्यात् अवक्तव्य'''<br /> <br />
वस्तु कथंचित् अवक्तव्य ही है, क्योंकि दोनों को एक साथ कहा नहीं जा सकता। एक बार में उच्चरित एक शब्द एक ही अर्थ (वस्तु धर्म-भाव या अभाव) का बोध कराता है, अत: एक साथ दोनों विवक्षाओं के होने पर वस्तु को कह न सकने से वह अवक्तव्य ही है। इन चार भंगों को दिखलाकर वचन की शक्यता और अशक्यता के आधार पर समन्तभद्र ने अपुनरुक्त तीन भंग और बतलाकर सप्तभंगी संयोजित की है। वे तीन भंग ये है<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 22" style=color:blue>*</balloon><br /><br />
'''स्यात् अस्ति अवक्तव्य''' अर्थात् वस्तु कथंचित् भाव और अवक्तव्य ही है।<br /> <br />
'''स्यात् नास्ति अवक्तव्य''' अर्थात् वस्तु कथंचित् अभाव और अवक्तव्य ही है।<br /> <br />
'''स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्य''' अर्थात् वस्तु कथंचित भाव, अभाव और अवक्तव्य ही है।<br /><br />
*इन 7 से ही वस्तु की सही-सही व्यवस्था होती है। वास्तव में ये सात भंग सात उत्तरवाक्य<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 20" style=color:blue>*</balloon> हैं। जो प्रश्नकर्ता के सात प्रश्नों के उत्तर हैं। उसके सात प्रश्नों का कारण उसकी सात जिज्ञासायें हैं, उन सात जिज्ञासाओं का कारण उसके सात संदेह हैं और उन सात संदेहों का भी कारण वस्तुनिष्ठ सात धर्म (1. सत्, 2. असत, 3. उभय, 4. अवक्तव्यत्व, 5. सत्वक्तव्यत्व, 6. असत्वक्तव्यत्व और 7. सत्वासत्वावक्तव्यत्व) हैं। ये सात धर्म वस्तु में स्वभावत: हैं, और स्वभाव में तर्क नही होता।<balloon title="(स्वभावोऽतर्कगोचर:)" style=color:blue>*</balloon> <br />
*इस तरह समन्तभद्र ने भाव और अभाव के पक्षों में होनेवाले आग्रह को समाप्त कर दोनों को सम्यक बतलाया तथा उन्हें वस्तु के अपने वास्तविक धर्म निरूपित किया। <br />
इसी प्रकार उन्होंने द्वैत-अद्वैत (एकानेक), नित्य-अनित्य भेद-अभेद-अपेक्षा-अनपेक्षा, हेतुवाद-अहेतुवाद, पुण्य-पाप आदि युगलों के एक-एक पक्ष को लेकर होने वाले वादियों के विवाद को समाप्त करते हुए दोनों को सत्य बतलाया। दोनों को ही वस्तुधर्म निरूपित किया। उन्होंने युक्तिपूर्वक कहा<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 16, अवक्तव्योत्तरा, शेषास्त्रयोभङ्गा स्वहेतुत:" style=color:blue>*</balloon> कि वस्तु को सर्वथा अद्वैत (एक) मानने पर क्रिया-कारक का भेद, पुण्य-पाप का भेद, लोक-परलोक का भेद, बंध-मोक्ष का भेद, स्त्री-पुरुष का भेद आदि लोक प्रसिद्ध अनेकत्व का व्यवहार नहीं बन सकेगा, जो यथार्थ है, मिथ्या नहीं है। इसी तरह वस्तु को सर्वथा अनेक स्वीकार करने पर कर्ता ही फल भोक्ता होता है और जिसे बंध होता है उसे ही मोक्ष (बंध से छूटना) होता है, आदि व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी। इसी प्रकार वस्तु को सर्वथा उभय, सर्वथा अवक्तव्य मानने पर भी लोक व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। अत: वस्तु कथंचित एक ही है क्योंकि उसका सभी गुणों और पर्यायों में अन्वय (एकत्व) पाया जाता है। वस्तु कथंचित् अनेक ही है क्योंकि वह उन गुणों और पर्यायों से अविष्कभूत है। आगे यहाँ भी भाव और अभाव की तरह अद्वैत और द्वैत में तीसरे आदि 5 भंगों की और योजना करके सप्तभंगनय से वस्तु को समन्तभद्र ने अनेकान्त सिद्ध किया है। <br />
*नित्य-अनित्य आदि एकान्त मान्यताओं में भी सप्तभंगी पद्धति से समन्वय किया है। उन सभी को वास्तविक बतलाकर वस्तु को नित्य अनित्य की अपेक्षा अनेकान्तात्मक प्रकट किया <br />
है।<balloon title="डा॰ दरबारी लाला कोठिया, जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परि0, पृ0 173" style=color:blue>*</balloon> उन्होंने सयुक्तिक प्रतिपादन किया है कि अपने विरोधी के निषेधक 'सर्वथा' (एकान्त) के आग्रह को छोड़कर उस (विरोधी) के संग्राहक 'स्यात्' (कथंचित) के वचन से तत्त्व का निरूपण करना चाहिए। इस प्रकार के निरूपण अथवा स्वीकार में वस्तु और उसके सभी धर्म सुरक्षित रहते हैं। एक-एक पक्ष तो सत्यांशों को ही निरूपित या स्वीकार करते हैं, संपूर्ण सत्य को नहीं। संपूर्ण सत्य का निरूपण तो तभी संभव है जब सभी पक्षों को आदर दिया जाए, उनका लोप, तिरस्कार, निषेध या उपेक्षा (अस्वीकार) न किया जाए। समन्तभद्र ने<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 24,25,26,27,28 से 36" style=color:blue>*</balloon> स्पष्ट घोषणा की कि 'निरपेक्ष इतर तिरस्कार पक्ष सम्यक नहीं है, सापेक्ष-इतर संग्राहक पक्ष ही सम्यक (सत्य प्रतिपादक) है। <br />
*श्रवणवेलगोला के शिलालेखों और उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों के समुल्लेखों आदि से अवगत होता है कि समन्तभिद्र ने अपने समय में प्रचलित एकांतवादों का स्याद्वाद द्वारा अपनी कृतियों में ही समन्वय नहीं किया, अपितु भारत के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर के सभी देशों तथा नगरों में पदयात्रा करके वादियों से शास्त्रार्थ भी किये और उन एकान्तवादों के विवाद भी स्याद्वाद से समाप्त किये। उदाहरण के लिए श्रवणवेलगोला का एक शिलालेख नं0 54 यहाँ दे रहे हैं<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 56, 57, 58, 59, 60" style=color:blue>*</balloon>:-<br />
<poem>पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता<br />
पश्चान्मालव-सिधु ठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे।<br />
प्राप्तोहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं<br />
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम्॥</poem><br />
इस पद्य मं समन्तभद्र अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि राजन्! मैंने सबसे पहले [[पाटलिपुत्र]] (पटना) नगर में भेरी बजाई, उसके बाद [[मालव]], सिन्धु ठक्क (पंजाब) देश, कांचीपुर (कांजीवरम) और वैदिश ([[विदिशा]]) में बाद के लिए वादियों का आहूत किया और अब करहाटक (कोल्हापुर) में, जहाँ विद्याभिमानी बहुत वादियों का गढ़ है, सिंह की तरह वाद के लिए विचरता हुआ आया हूँ।'<br />
*वादार्थी के अतिरिक्त वे एक अन्य पद्य में अपना और भी विशेष परिचय देते हुए कहते हैं<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका, 108" style=color:blue>*</balloon>:- <br />
<poem>आचार्योऽहं शृणु कविरहं वादिराट् पंडितोऽहं<br />
दैवज्ञोऽहं जिन भिषगहं मान्त्रिकस्तांत्रिकोऽहम्।<br />
राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया-<br />
माज्ञासिद्ध: किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम्॥</poem><br />
यह परिचय भी समन्तभद्र ने वाद के लिए आयोजित किसी राजसभा में दिया है और कहा है कि 'हे राजन्! मैं आचार्य हूँ, मैं कवि हूँ, मैं वादिराट् हूँ, मैं पंडित हूँ, मैं देवज्ञ हूँ, मैं भिषग् हूँ, मैं मांत्रिक हूँ, मैं तांत्रिक हूँ, और तो क्या मैं इस समुद्रवलया [[पृथ्वी]] पर आज्ञासिद्ध हूँ- जो आदेश दूँ वही होता है तथा सिद्ध सारस्वत भी हूँ- सरस्वती मुझे सिद्ध हैं।'<br />
*समन्तभद्र ने एकान्तवादों को तोड़ा नहीं, जोड़ा है और वस्तु को अनेकान्तस्वरूप सिद्ध किया है।<balloon title="पं॰ जुगल किशोर मुख्तार, स्वयम्भू॰ प्रस्तावना, पृ0 94" style=color:blue>*</balloon> साथ ही प्रमाण का लक्षण<balloon title="पं॰ जुगल किशोर मुख्तार, स्वयम्भू॰, प्रस्तावना, पृ0 103, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली, ई॰ 1951" style=color:blue>*</balloon>, उसके भेद, प्रमाण का विषय<balloon title="तत्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम् युक्त्यनुशा॰ का॰ 46" style=color:blue>*</balloon>, प्रमाण के फल की व्यवस्था<balloon title="स्वयम्भू0 का0 63, आप्तमी0 का0 101" style=color:blue>*</balloon>, नयलक्षण<balloon title="आप्तमी0 107, 102, 106, 23" style=color:blue>*</balloon> सप्तभंगी की समस्त वस्तुओं में योजना<balloon title="आप्तमी0 107, 102, 106, 23" style=color:blue>*</balloon>, अनेकान्त में भी अनेकान्त का प्रतिपादन<balloon title="आप्तमी0 107, 102, 106, 23" style=color:blue>*</balloon>, हेतुलक्षण<balloon title="आप्तमी0 107, 102, 106, 23।" style=color:blue>*</balloon> वस्तु का स्वरूप<balloon title="स्वयम्भू 103" style=color:blue>*</balloon>, स्याद्वाद की संस्थापना<balloon title="आप्तमी0 का0 106" style=color:blue>*</balloon>, सर्वज्ञ की सिद्धि<balloon title="वही, का0 107" style=color:blue>*</balloon> आदि जैन दर्शन एवं जैन न्याय के आवश्यक अंगों एवं विषयों का भी प्रतिपादन किया, जो उनके पूर्व प्राय: उपलब्ध नहीं होता अथवा बहुत कम प्राप्त होता है। अतएव यह काल जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास का आदिकाल है और इस काल को 'समन्तभद्रकाल' कहा जा सकता है, जैसा कि उपरिनिर्दिष्ट उनकी उपलब्धियों से अवगत होता है। नि:संदेह जैन दर्शन और जैन न्याय के लिए किया गया उनका यह महाप्रयास है। <br />
*समन्तभद्र के इस कार्य को उनके उत्तरवर्ती श्रीदत्त, पूज्यपाद देवनन्दि, सिद्धसेन, मल्लवादी, सुमति, पात्रस्वामी आदि दार्शनिकों एवं तार्किकों ने अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं द्वारा अग्रसारित किया। श्रीदत्त ने जो 63 वादियों के विजेता थे<balloon title="आप्तमी0 का0 1-4, 113" style=color:blue>*</balloon>, जल्प-निर्णय, पूज्यपाद देवनंदि ने<balloon title="आप्तमी0 का0 5" style=color:blue>*</balloon>, सार-संग्रह, सर्वार्थसिद्धि, सिद्धसेन ने सन्मति, मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र, सुमतिदेव ने सन्मतिटीका और पात्रस्वामी ने त्रिलक्षणकदर्शन जैसी तार्किक कृतियों को रचा है। दुर्भाग्य से जल्पनिर्णय, सारसंग्रह, सन्मति टीका और त्रिलक्षणकदर्शन आज उपलब्ध नहीं है, केवल उनके ग्रंथों में तथा शिलालेखों में उल्लेख पाए जाते हैं। सिद्धसेन का सन्मति तर्क और मल्लवादी का द्वादशारनयचक्र उपलब्ध हैं, जो समंतभद्र की कृतियों के आभारी हैं। <br />
*इस काल में और भी दर्शन एवं न्याय के ग्रंथ रचे गये होंगे, और जो आज हमें उपलब्ध नहीं हैं। बौद्ध, वैदिक और जैन शास्त्र भंडारों का अभी पूरी तरह अन्वेषण नहीं हुआ। अन्वेषण होने पर कोई ग्रंथ उनमें उपलब्ध हो जाए, यह संभव है। पहले अश्रुत एवं दुर्लभ 'सिद्धिविनिश्चय', 'प्रमाण-संग्रह', जैसे अनेक ग्रंथ कुछ दशक पूर्व प्राप्त हुए और अब वे भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुके हैं। जैन साधुओं में धर्म और दर्शन के ग्रंथों को रचने की प्रवृत्ति रहती थी। बौद्ध दार्शनिक शांतरक्षित<balloon title="ई॰ 7वीं, 8वीं शती" style=color:blue>*</balloon> और उनके साक्षात शिष्य कमलशील ने<balloon title="त्रिषष्ठेर्वादिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये तत्त्वार्थश्लोक, पृ0 28" style=color:blue>*</balloon> क्रमश: तत्वसंग्रह तथा उसकी टीका में जैन तार्किकों के तर्कग्रंथों के उद्धरण प्रस्तुत करके उनकी विस्तृत आलोचना की है। परन्तु वे ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं।<balloon title="इन्होंने समन्तभद्र के रत्नकरण्डक श्रावकाचार श्लोक 84, 85, 86 का आधार अपनी सर्वार्थसिद्धि 6-1 की व्याख्या में लिया है।" style=color:blue>*</balloon> इस तरह हम देखते हैं कि इस आदिकाल अथवा समंतभद्रकाल<balloon title="ई॰ 200 से ई॰ 650" style=color:blue>*</balloon> में जैन दर्शन और जैन न्याय की एक योग्य एवं उत्तम भूमिका बन चुकी थी।<br />
<br />
==मध्यकाल अथवा अकलंक-काल==<br />
यह काल ई॰ सन 650 से ई॰ सन् 1050 तक माना जाता है। इस काल के आरंभ में उक्त भूमिका पर जैन दर्शन और जैन न्याय का उत्तुंग एवं सर्वांगपूर्ण महान प्रासाद जिस कुशल एवं तीक्ष्णबुद्धि तार्किक-शिल्पी ने खड़ा किया वह है सूक्ष्म प्रज्ञ-अकलंकदेव। <br />
*अकलंकदेव के काल में भी आचार्य समंतभद्र से अधिक दार्शनिक मुठभेड़ थी। एक ओर शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि, प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल, न्यायनिष्णात नैयायिक उद्योतकर आदि वैदिक विद्वान जहाँ अपने-अपने पक्षों पर आरूढ़ थे, वहीं दूसरी ओर [[धर्मकीर्ति बौद्धाचार्य|धर्मकीर्ति]], उनके तर्कपटु शिष्य एवं समर्थ व्याख्याकार प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि जैसे बौद्ध मनीषी भी अपनी मान्यताओं पर आग्रहबद्ध थे। शास्त्रार्थों और शास्त्रों के निर्माण की पराकाष्ठा थी। प्रत्येक दार्शनिक का प्रयत्न था कि जिस किसी तरह वह अपने पक्ष को सिद्ध करे और परपक्ष का निराकरण कर अपनी विजय प्राप्त करे। इसके अतिरिक्त परपक्ष को असद्प्रकारों से तिरस्कृत एवं पराजित किया जाता है। विरोधी को 'पशु', 'अह्नीक', 'जड़मति' जैसे अभद्र शब्दों का प्रयोग तो सामान्य था। यह काल जहाँ तर्क के विकास का मध्याह्न माना जाता है वहाँ इस काल में दर्शन और न्याय का बड़ा उपहास भी हुआ है। तत्त्व के संरक्षण के लिए छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे असद साधनों का खुलकर प्रयोग करना और उन्हें स्वपक्षसिद्धि का साधन एवं शास्त्रार्थ का अंग मानना इस काल की देन बन गई थी।<balloon title="तत्त्वसंग्रह का0 1364 से 1379 तक 16 कारिकाएँ दृष्टव्य है" style=color:blue>*</balloon> क्षणिकवाद, नैरात्मवाद, शून्यवाद, शब्दाद्वैत-ब्रह्माद्वैत, विज्ञानाद्वैत आदि वादों का पुरजोर समर्थन इस काल में किया गया और कट्टरता से विपक्ष का निरास किया गया। सूक्ष्मदृष्टि अकलंक इस समग्र स्थिति का अध्ययन किया तथा सभी दर्शनों का गहरा एवं सूक्ष्म अभ्यास किया। तत्कालीन शिक्षा केन्द्रों- कांची, नालन्दा आदि विश्वविद्यालयों में प्रछन्न वेष में तत्त्वत्शास्त्रों का अध्ययन किया। <br />
*समन्तभद्र द्वारा पुन: स्थापित स्याद्वाद और अनेकान्त को ठीक तरह से न समझने के कारण दिङ्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध विद्वानों तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि वैदिक मनीषियों ने अपनी एकान्त दृष्टि का समर्थन करते हुए स्याद्वाद और अनेकान्त की समीक्षा की अकलंक ने उनका उत्तर देने के लिए महाप्रयास करके दो अपूर्व कार्य किए। <br />
#एक तो स्याद्वाद और अनेकान्त पर विपक्ष द्वारा किए गए आक्षेपों का सबल जवाब दिया।<balloon title="उदाहरण के लिए श्रवणवेलगोला के शिलालेख नं0 54/67 में सुमन्तिदेव के ''सुमतिसप्तक'' नाम के एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का उल्लेख है, पर वह अनुपलब्ध है।" style=color:blue>*</balloon> <br />
#दूसरा कार्य उन्होंने जैन दर्शन और जैन न्याय के चार महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सृजन किया, जिनमें उन्होंने न केवल अनेकान्त और स्याद्वाद पर किए गए आक्षेपों का उत्तर दिया, अपितु उन सभी एकान्तपक्षों में दूषण भी प्रदर्शित किए तथा उनका अनेकान्त दृष्टि से समन्वय भी किया। उनके वे दोनों कार्य इस प्रकार हैं-<br /> <br />
'''दूषणोद्धार'''<br /><br />
आप्तमीमांसा में समन्तभद्र ने आप्त की सर्वज्ञता और उनके उपदेश-स्याद्वाद (श्रुत) की सहेतुक सिद्धि की है।<balloon title="न्यायसूत्र 1/1/1, 4/2/50, 1/2/2,3,4 आदि का भाष्य व न्या0 वा0" style=color:blue>*</balloon> दोनों में साक्षात (प्रत्यक्ष) और असाक्षात (परोक्ष) का भेद बतलाते हुए उन्होंने दोनों को सर्वतत्त्वप्रकाशक कहा है<balloon title="न्यायविनिश्चय, का0 1, 412, 413, 372, 373, 374" style=color:blue>*</balloon>। आप्त (अरहंत) और उनके उपदेश (स्याद्वाद) दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनमें अन्तर इतना ही है कि जहाँ आप्त वक्ता है वहाँ स्याद्वाद उनका वचन है। यदि वक्ता प्रमाण है तो उसका वचन भी प्रमाण माना जाता है। आप्तमीमांसा में 'अर्हत्' को युक्तिपुरस्सर आज्ञा-सिद्ध किया है। वचन ही में से वह भी प्रमाण है। <br />
*मीमांसक कुमारिल को यह सह्य नहीं हुआ, क्योंकि वे किसी पुरुष को सर्वज्ञ स्वीकार नहीं करते। अतएव समन्तभद्र द्वारा मान्य 'अर्हत्' की सर्वज्ञता पर कुमारिल आपत्ति करते हुए कहते हैं<balloon title="आप्तमी0 का0 5, 113" style=color:blue>*</balloon>:- <br />
<poem>एवं यै: केवलज्ञानमिन्द्रियाधनपेक्षिण:। <br />
सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम्। <br />
नर्ते तदागमात्सिद्ध्येन्न च तेनागमो विना॥</poem><br />
'जो सूक्ष्म तथा अतीत आदि विषयक अतीन्द्रिय केवलज्ञान जीव (पुरुष) के माना जाता है। वह आगम के बिना सिद्ध नहीं होता और आगम उसके बिना संभव नहीं, इस प्रकार दोनों में अन्योन्याश्रय दोष होने से न अर्हत् सर्वज्ञ हो सकता है और न उनका आगम (स्याद्वाद) ही सिद्ध हो सकता है।' यह 'अर्हत्' की सर्वज्ञता और उनके स्याद्वाद पर कुमारिल का एक साथ आक्षेप है। समन्तभद्र के उत्तरवर्ती जैन तार्किक आचार्य अकलंक ने कुमारिल के इस आक्षेप का जवाब देते हुए कहा हैं<balloon title="आप्तमी0 का0, 105" style=color:blue>*</balloon>:-<br />
<poem>एवं यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम्।<br />
नर्ते तदागमात् सिद्ध्येन्न च तेन विनाऽऽगम:। <br />
सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मत:। <br />
प्रभव: पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धेऽनादिरिष्यते॥</poem><br />
*'यह सत्य है कि अनुमान द्वारा सिद्ध केवलज्ञान (सर्वज्ञता) आगम के बिना और आगम केवलज्ञान के बिना सिद्ध नहीं होता, तथापि उनमें अन्योन्याश्रय नहीं है, क्योंकि पुरुषातिशय (केवलज्ञान) को अर्थबल (प्रतीतिवश) से माना जाता है। दोनों (केवलज्ञान और आगम) का प्रबन्ध (प्रवाह) बीजांकुर प्रबन्ध की तरह अनादि माना गया है। अत: उनमें अन्योन्याश्रय है। अतएव 'अर्हत्' की सर्वज्ञता और उनका उपदेश स्याद्वाद दोनों ही युक्तसिद्ध हैं।'<br />
*समन्तभद्र ने जो अनुमान<balloon title="आप्तमीमांसा कारिका 4, 5, 6" style=color:blue>*</balloon> से सर्वज्ञता (केवलज्ञान) की सिद्धि की है और जिसका कुमारिल ने उक्त प्रकार से आपत्ति उठाकर खण्डन किया है, अकलंकदेव ने उसी का बहुत विशदता के साथ सहेतुक उत्तर दिया है तथा सर्वज्ञता (केवलज्ञान) और आगम (स्याद्वाद) में बीजांकुर सन्तति की तरह अनादि प्रवाह बतलाया है। <br />
*बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति ने भी स्याद्वाद पर निम्न प्रकार से आक्षेप किया है<balloon title="मीमांसाश्लोक0, श्लोक 87, 88" style=color:blue>*</balloon>:- <br />
<poem>एतेनैव यत्किंचिदयुक्तमश्लीलमाकुलम्।<br />
प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसम्भवात्॥</poem><br />
*'कपिल मत के खण्डन से ही अयुक्त, अश्लील और आकुल जो 'किंचित्' (स्यात्) का प्रलाप है वह खण्डित हो जाता है, क्योंकि वह भी एकान्त सम्भव है।' यहाँ धर्मकीर्ति ने स्पष्टतया समन्तभद्र के 'सर्वथा एकान्त के त्यागपूर्वक किंचित् के विधानरूप' स्याद्वाद लक्षण<balloon title="आप्तमी0 104" style=color:blue>*</balloon> का खण्डन किया है। समन्तभद्र से पूर्व जैन दर्शन में स्याद्वाद का इस प्रकार से लक्षण उपलब्ध नहीं होता। उनके पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द ने सप्तभंगों के नाम तो दिये हैं परन्तु स्याद्वाद की उन्होंने कोई परिभाषा अंकित नहीं की। यहाँ धर्मकीर्ति द्वारा खण्डन में प्रयुक्त 'तदप्येकान्त सम्भवात्' पद भी ध्यान देने योग्य है, जिससे ध्वनित होता है कि उनके समक्ष सर्वथा एकान्त के त्याग रूप स्याद्वाद की वह मान्यता रही है, जो 'किंचित्', 'कथाचित्' के विधान द्वारा व्यक्त की जाती थी, उसी का खण्डन धर्मकीर्ति ने 'तदप्येकान्तसम्भवात्'- वह भी एकान्त संभव है जैसे शब्दों द्वारा किया है। धर्मकीर्ति के इस आक्षेप का उत्तर समन्तभद्र के उत्तरवर्ती अकलंकदेव ने निम्न प्रकार दिया:-<br />
<poem>ज्ञात्वा विज्ञप्तिमात्रं परमपि च बहिर्भासिभावप्रवादं,<br />
चक्रे लोकानुरोधान् पुनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे। <br />
न ज्ञाता तस्य तस्मिन् न च फलमपरं ज्ञायते नापि किंचित्,<br />
इत्यश्लीलं प्रमत्त: प्रलपति जडधीराकुलं व्याकुलाप्त:॥</poem><br />
*'कोई बौद्ध विज्ञप्तिमात्र तत्त्वको<balloon title="न्यायविनिश्चय, का0 170" style=color:blue>*</balloon> मानते हैं, कोई बाह्य पदार्थ के सद्भाव को स्वीकार करते हैं तथा कोई इन दोनों को लोकदृष्टि से अंगीकार करते हैं और कोई कहते हैं कि न बाह्य तत्त्व है, न आभ्यन्तर तत्त्व है, न उनको जानने वाला है और न उसका अन्य फल है, ऐसा विरुद्ध प्रलाप करते हैं, उन्हें अश्लील, उन्मत्त, जड़बुद्धि, आकुल और आकुलताओं से व्याप्त कहा जाना चाहिए।' अकलंक ने स्याद्वाद पर किये गये धर्मकीर्ति के आक्षेप का 'सेर को सवा सेर' जैसा सबल उत्तर दिया है। <br />
*एक दूसरी जगह 'अनेकान्त' (स्याद्वाद के वाच्य) पर भी धर्मकीर्ति उपहास पूर्वक आक्षेप करते हैं<balloon title="अकलंकग्रन्थत्रय, न्यायवि0 का0 412, 413" style=color:blue>*</balloon>:-<br />
<poem>सर्वस्ययरूपत्वे तद्विशेषनिराकृते:। <br />
चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति॥</poem><br />
*'यदि सब पदार्थ उभय रूप – अनेकान्तात्मक हैं, तो उनमें कुछ भेद न होने से किसी को 'दही खा' कहने पर वह ऊँट को खाने के लिए क्यों नहीं दौड़ता।' यहाँ धर्मकीर्ति ने जिस उपहास एवं व्यंग्य के साथ अनेकान्त की खिल्ली उड़ाई है, अकलंकदेव ने भी उसी उपहास के साथ धर्मकीर्ति को उत्तर दिया है<balloon title="धर्मकीर्ति, प्रमाणवार्तिक 1-182, 183" style=color:blue>*</balloon>:- <br />
<poem>दध्युष्ट्रादेरभेदत्व- प्रसंगादेकचोदनम्। <br />
पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोपि विदूषक:॥<br />
सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगत: स्मृत:। <br />
तथापि सुगतो बन्द्यो मृग: खाद्यो यथेष्यते॥<br />
तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थिते:।<br />
चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति॥</poem><br />
*'दही और ऊँट को एक बतलाकर दोष' देना धर्मकीर्ति का पूर्वपक्ष (अनेकान्त) को न समझना है और वे दूषक (दूषण प्रदर्शक) होकर भी विदूषक-दूषक नहीं, उपहास के ही पात्र हैं, क्योंकि सुगत भी पूर्व पर्याय में मृग थे और वह मृग भी सुगत हुआ, फिर भी सुगत वंदनीय और मृग भक्षणीय कहा गया है और इस तरह सुगत एवं मृग में पर्यायभेद से जिस प्रकार क्रमश: वंदनीय एवं भक्षणीय की भेद-व्यवस्था तथा एकचित्तसंतान की अपेक्षा से उनमें अभेद व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार वस्तुबल (प्रतीतिवश) से सभी पदार्थों में भेद और अभेद दोनों की व्यवस्था है। अत: किसी को 'दही खा' कहने पर वह ऊँट को खाने के लिए क्यों दौड़ेगा, क्योंकि सत् सामान्य की अपेक्षा उसे उनमें अभेद होने पर भी पर्याय (पृथक्-पृथक् प्रत्यय के विषय) की अपेक्षा से उनमें स्पष्टतया भेद है। संज्ञा-भेद भी है। एक का नाम दही है और दूसरे का नाम ऊँट है, तब जिसे दही खाने को कहा वह दही ही खायेगा, ऊँट को नहीं, क्योंकि दही भक्षणीय है, ऊँट भक्षणीय नहीं। जैसे सुगत वन्दनीय एवं मृग भक्षणीय है। यही वस्तु-व्यवस्था है। भेदाभेद (अनेकान्त) तो वस्तु का स्वरूप है, उसका अपलाप नहीं किया जा सकता।<br />
*यहाँ अकलंक ने धर्मकीर्ति के आक्षेप का शालीन उपहासपूर्वक, किन्तु चुभने वाला करारा उत्तर दिया है। यह विदित है कि बौद्ध परम्परा में आप्त रूप से मान्य सुगत पूर्वजन्म में मृग थे, उस समय वे मांसभक्षियों के भक्ष्य थे। किन्तु जब वही पूर्ण पर्याय का मृग मरकर सुगत हुआ तो वह वंदनीय हो गया। इस प्रकार एकचित्त संतान की अपेक्षा उनमें अभेद है और मृग तथा सुगत इन दो पूर्वापर अवस्थाओं की दृष्टि से उनमें भेद है। इसी तरह जगत की प्रत्येक वस्तु प्रत्यक्षदृष्ट भेदाभेद (अनेकान्त) को लिए हुए है। कोई वस्तु इस स्याद्वाद मुद्राकिंत अनेकान्त की अवहेलना नहीं कर सकती। इस तरह अकलंकदेव ने विभिन्न वादियों द्वारा स्याद्वाद और अनेकान्त पर आरोपित दूषणो का सयुक्तिक परिहार किया।<br />
<br />
==नव निर्माण==<br />
आचार्य अकलंकदेव का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि जैन दर्शन और जैन न्याय के जिन आवश्यक तत्त्वों का विकास और प्रतिष्ठा उनके समय तक नहीं हो सकी थी, उनका उन्होंने विकास एवं प्रतिष्ठा की। इसके हेतु उन्होंने दर्शन और न्याय के निम्न चार महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया<balloon title="न्यायविनिश्चय, का0 373, 374" style=color:blue>*</balloon>-<br />
#न्याय-विनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित)<br />
#सिद्धि-विनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित)<br />
#प्रमाण-संग्रह (स्वोपज्ञवृत्ति सहित)<br />
#लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञवृत्ति समन्वित)<br />
*बौद्ध परम्परा में धर्मकीर्ति ने बौद्धदर्शन और बौद्धन्याय को प्रमाणवार्तिक एवं प्रमाणविनिश्चय जैसे कारिकात्मक ग्रन्थों के रूप में निबद्ध किया है उसी तरह अकलंकदेव ने भी ये चारों ग्रन्थ कारिकात्मक रूप में रचे हैं। न्याय-विनिश्चय में 430, सिद्धिविनिश्चय में 367, प्रमाणसंग्रह में 87 और लघीयस्त्रय में 78 कारिकाएं हैं चारों ग्रंथों की कुल कारिकाएं 962 हैं। प्रत्येक कारिका सूत्रात्मक, बहर्थगर्भ और गम्भीर है। चारों ग्रन्थ अत्यन्त क्लिष्ट और दुरूह हैं। इन चारों पर उनकी स्वोपज्ञवृत्तियों के अलावा वैदुष्यपूर्ण व्याख्याएं भी लिखी गयी हैं। <br />
*न्यायविनिश्चय ग्रन्थ पर स्याद्वादविद्यापति आचार्य वादिराज<balloon title="ई॰ 1025" style=color:blue>*</balloon> ने न्यायविनिश्चयालंकार अपरनाम न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चय पर तार्किकशिरोमणि आचार्य बृहदनन्तवीर्य<balloon title="ई॰ 850" style=color:blue>*</balloon> ने सिद्धिविनिश्चयालंकार तथा इन्होंने ही प्रमाणसंग्रह पर प्रमाण संग्रहभाष्य और आचार्य माणिक्यनन्दि<balloon title="ई॰ 1028" style=color:blue>*</balloon> के शिष्य आचार्य प्रभाचन्द्र<balloon title="ई॰ 1043" style=color:blue>*</balloon> ने लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार अपरनाम न्यायकुमुदचन्द्र नाम की विस्तृत एवं प्रौढ़ टीकाएं लिखी हैं। इनमें प्रमाण संग्रहभाष्य अनुपलब्ध है। शेष तीनों टीकाएं उपलब्ध हैं और अपने मूल के साथ प्रकाशित हैं। प्रमाण संग्रहभाष्य का उल्लेख स्वयं अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चयालंकार में अनेक स्थलों पर किया है।<balloon title="कुमारनन्दिनश्चाहुर्वादन्यायविचक्षणा:- विद्यानन्द, ल0 श्लो0 पृ0 280, तथैवहि कुमारनन्दिभट्टारकेरपि स्ववादन्याये निगदित्वात्तदाह-विद्यानन्द, पत्र परीक्षा पृ0 5, जैन तर्क0 अनु0 पृ0 164 टि0" style=color:blue>*</balloon> इससे प्रतीत होता है कि वह अधिक विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण व्याख्या रही है। <br />
*अकलंकदेव ने इन चारों तर्क ग्रन्थों में अन्य दार्शनिकों की एकान्त मान्यताओं और सिद्धान्तों की कड़ी तथा मर्मस्पर्शी समीक्षा की है। जैन दर्शन में मान्य प्रमाण, नय और निक्षेप के स्वरूप, उनके भेद, विषय तथा प्रमाणफल का विवेचन इनमें विशदतया किया है। इसके अतिरिक्त जैन दृष्टि से किये गये प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदों, प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य- इन दो प्रकारों की प्रतिष्ठा, परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम- इन पांच भेदों में उपमान, अर्थापत्ति, संभव, अभाव आदि अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणों का अंतर्भाव, सर्वज्ञ की विविध युक्तियों से विशेष सिद्धि, अनुमान के साध्य-साधन अंगों के लक्षण और भेदों का विस्तृत निरूपण, कारण हेतु, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि अनिवार्य नये हेतओं की प्रतिष्ठा, अन्यथानुपपत्ति के अभाव से एक अकिंचित्कर हेत्वाभास का स्वीकार और उसके भेद रूप से असिद्धादि हेत्वाभासों का प्रतिपादन, जय-पराजय व्यवस्था, दृष्टान्त, धर्मी, वाद, जाति और निग्रहस्थान के स्वरूप आदि का कितना ही नया प्रतिष्ठापन करके जैन दर्शन और जैन न्याय को अकलंकदेव ने न केवल समृद्ध एवं परिपुष्ट किया, अपितु उन्हें भारतीय दर्शनों एवं न्यायों में वह प्रतिष्ठित एवं गौरवपूर्ण स्थान दिलाया, जो बौद्ध दर्शन और बौद्ध न्याय को धर्मकीर्ति ने दिलाया। अत: अकलंक को जैन दर्शन और जैन न्याय के मध्यकाल का प्रतिष्ठाता और इसीलिये उनके इस काल को 'अकलंककाल' कहा जा सकता है। <br />
*अकलंकदेव ने जैन दर्शन और जैन न्याय को जो दिशा दी और उनका जो निर्धारण किया उसी का अनुगमन उत्तरवर्ती प्राय: सभी जैन दार्शनिकों एवं नैयायिकों ने किया है। हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनंदि, विद्यानंद, अनंतवीर्यप्रथम, वादिराज, माणिक्यनंदि आदि मध्ययुगीन जैन तार्किकों ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया और उसे यशस्वी एवं प्रभावपूर्ण बनाया। उनके गंभीर एवं सूत्रात्मक निरूपण और चिंतन को इन तार्किकों ने अपने ग्रंथों में सुविस्तृत, सुपुष्ट और सुप्रसारित करके बहुत महत्त्व दिया। हरिभद्र की अनेकांतजयपताका, शास्त्रवार्तासमुच्चय, वीरसेन की सिद्धान्त एवं तर्कबहुला ध्वला-जय-धवलाटीकाएँ, वादन्यायविचक्षण, कुमारनंदि का वादन्याय<balloon title="इति चर्चितं प्रमाणसग्रहभाष्ये -'सिद्धि वि0 लिखित पृ0 12 इत्युक्तं प्रमाणसंग्रहालंकारे' वही, पृ0 19,जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र-परिशीलन, पृ0 250 का टिप्पणी, लेखक कृत" style=color:blue>*</balloon>, विद्यानंद के आचार्य विद्यानंद महोदय<ref>इसका उल्लेख विद्यानन्द ने त0श्लो0 वा0 पृ0 272, 385, अष्ट सं0 पृ0 289, 290 में किया है, जो वर्तमान में अनुपलब्ध है और जिसका उल्लेख विद्यानन्द से तीन-चार सौ वर्ष बाद होने वाले देवसूरि (13वीं शती) ने भी स्याद्धादरत्नाकर पृ0 249 में किया है।</ref>, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनालंकार, अनंतवीर्य प्रथम की सिद्धिविनिश्चय टीका व प्रमाणसंग्रहभाष्य, [[वादिराज]] के न्याय-विनिश्चय विवरण, प्रमाण-निर्णय और माणिक्यनंदि का परीक्षामुख (आद्य जैन न्यायसूत्र), अकलंक के वाङमय से पूर्णतया प्रभावित एवं उसके आभारी तथा उल्लेखनीय दार्शनिक एवं तार्किक रचनाएं हैं, जिन्हें अकलंककाल (मध्यकाल) की महत्त्वपूर्ण देन कहा जा सकता है।<br />
<br />
==अन्त्यकाल (मध्य-उत्तरवर्ती) अथवा प्रभाचन्द्रकाल==<br />
यह काल जैन दर्शन और जैन न्याय के विकास का अंतिम काल कहा जाता है। इस काल में मौलिक ग्रंन्थों के निर्माण की क्षमता कम हो गई और व्याख्या ग्रंथों का निर्माण मुख्यतया हुआ। यह काल तार्किक ग्रंथों के सफल और प्रभावशाली व्याख्याकार जैन-तार्किक प्रभाचन्द्र से आरंभ होता है। उन्होंने इस काल में अपने पूर्ववर्ती जैन दार्शनिकों एवं तार्किकों का अनुगमन करते हुए जैन दर्शन और जैन न्याय के ग्रंथों पर जो विशालकाय व्याख्या ग्रंथ लिखे हैं वे अतुलनीय हैं। उत्तरकाल में उन जैसे व्याख्या ग्रंथ नहीं लिखे गए। अतएव इस काल को प्रभाचन्द्रकाल कहा गया है। प्रभाचन्द्र ने अकलंकदेव के लघीयस्त्रय पर लघीयस्त्रयालंकार अपरनाम न्यायकुमुदचन्द्र व्याख्या लिखी है। <br />
*न्यायकुमुदचन्द्र वस्तुत: न्याय रूपी कुमुदों को विकसित करने वाला चन्द्र है। इसमें प्रभाचन्द्र ने अकलंक के लघीयस्त्रय की कारिकाओं और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति तथा उनके दुरूह पदवाक्यादिकों की विशद एवं विस्तृत व्याख्या तो की ही है, किन्तु प्रसंगोपात्त विविध तार्किक चर्चाओं द्वारा अनेक अनुद्घाटित तथ्यों एवं विषयों पर भी नया प्रकाश डाला था। इसी तरह उन्होंने अकलंक के वाङमय-मंथन से प्रसूत माणिक्यनंदि के आद्य जैन न्यायसूत्र परीक्षामुख पर, जिसे 'न्यायविद्यामृत' कहा गया है<balloon title="लघु अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला, श्लोक 2, 3" style=color:blue>*</balloon> परीक्षामुखालंकार अपरनाम प्रमेयकमलमार्तण्ड नाम की प्रमेयबहुला एवं तर्कगर्भा व्याख्या रची है। इसमें भी प्रमाचन्द्र ने अपनी तर्कपूर्ण प्रतिभा का पूरा उपयोग किया है। परीक्षामुख के प्रत्येक सूत्र का विस्तृत एवं विशद व्याख्यान किया है। इसके साथ ही अनेक शंकाओं का सयुक्तिक समाधान प्रस्तुत किया है। मनीषियों को यह व्याखा ग्रन्थ इतना प्रिय है कि वे जैन दर्शन और जैन न्याय संबधित प्रश्नों के समाधान के लिए इसे बड़ी रूचि से पढ़ते हैं और अपने समाधान प्राप्त कर लेते हैं। वस्तुत: प्रभाचन्द्र के ये दोनों व्याख्या ग्रन्थ मूल जैसे ही हैं, जो उनकी तर्कणा और यश को प्रसृत करते हैं।<balloon title="लघु अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला, श्लोक 2, 3" style=color:blue>*</balloon><br />
*आचार्य प्रभाचन्द्र के कुछ ही काल बाद [[अभयदेव]] ने [[सिद्धसेन]] के ''सन्मतिसूत्र'' पर विस्तृत सन्मतितर्क टीका लिखी है। यह टीका अनेकान्त और स्याद्वाद पर विशेष प्रकाश डालती है। [[देवसूरि]] का स्याद्वादरत्नाकर अपरनाम प्रमाण नयतत्त्वालोकालंकार टीका भी उल्लेखनीय है। ये दोनों व्याख्याएँ प्रभाचन्द्र की उपर्युक्त दोनों व्याख्याओं से प्रभावित एवं उनकी आभारी है। प्रभाचन्द्र की तर्कपद्धति और शैली इन दोनों में परिलक्षित है। <br />
*इन व्याख्याओं के सिवाय इस काल में लघु अनंतवीर्य ने परीक्षामुख पर मध्यम परिणाम की परीक्षामुखवृत्ति अपरनाम प्रमेयरत्नमाला की रचना की है। यह वृत्ति मूलसूत्रों का तो व्याख्यान करती ही है, सृष्टिकर्त्ता जैसे वादग्रस्त विषयों पर भी अच्छा एवं विशद प्रकाश डालती है। लघीयस्त्रय पर लिखी [[अभयचन्द्र]] की लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति, [[हेमचन्द्र]] की प्रमाणमीमांसा, मल्लिषण सूरि की स्याद्वादमंजरी, आशाधर का प्रमेयरत्नाकर, भावसेन का विश्वतत्त्वप्रकाश, [[अजितसेन]] की न्यायमणिदीपिका, अभिनव-धर्मभूषणयति की न्यायदीपिका, नरेन्द्रसेन की प्रमाणप्रमेयकलिका, [[विमलदास]] की सप्तभंगीतरंगिणी, चारुकीर्ति के अर्थप्रकाशिका तथा प्रमेयरत्नालंकार, यशोविजय के अष्टसहस्रीविवरण, जैनतर्कभाषा और ज्ञानबिन्दु इस काल के उल्लेखनीय दार्शनिक एवं तार्किक महान ग्रन्थ हैं। <br />
*अंतिम तीन तार्किकों ने अपनी रचनाओं में नव्यन्यायशैली को भी अपनाया है, जो गंगेश उपाध्याय<balloon title="12वीं शती" style=color:blue>*</balloon> से उद्भूत हुआ और पिछले तीन-चार दशक तक अध्ययन-अध्यापन में विद्यमान रहा। इसके बाद जैन दर्शन और जैन न्याय का कोई मौलिक या व्याख्या ग्रंथ लिखा गया हो, यह अज्ञात है। फलत: उत्तरकाल में जैन दर्शन और जैन न्याय का प्रवाह अवरुद्ध हो गया। यही स्थिति अन्य भारतीय दर्शनों एवं न्याय क्षेत्र की हुई है। उनके अध्ययन-अध्यापन और शास्त्रप्रणयन की जो प्राचीन परम्परा (पद्धति) थी क्रमश: ह्रास होता गया। किन्तु अब इन विधाओं का पुन: विकास आवश्यक है।<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{जैन धर्म}}<br />
<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:जैन]]<br />
[[Category:दर्शन]]<br />
__INDEX__</div>
फ़ौज़िया ख़ान
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जैन दर्शन और उसका उद्देश्य
2011-11-26T04:59:17Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{Menu}}<br />
==जैन दर्शन / Jain philosophy== <br />
*'कर्मारातीन् जयतीति जिन:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसने राग द्वेष आदि शत्रुओं को जीत लिया है वह 'जिन' है। <br />
*अर्हत, अरहन्त, जिनेन्द्र, वीतराग, परमेष्ठी, आप्त आदि उसी के पर्यायवाची नाम हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट दर्शन जैनदर्शन हैं। <br />
*आचार का नाम धर्म है और विचार का नाम दर्शन है तथा युक्ति-प्रतियुक्ति रूप हेतु आदि से उस विचार को सुदृढ़ करना न्याय है।<br />
* जैन दर्शन का निर्देश है कि आचार का अनुपालन विचारपूर्वक किया जाये। धर्म, दर्शन और न्याय-इन तीनों के सुमेल से ही व्यक्ति के आध्यात्मिक उन्नयन का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। *अत: जैन धर्म का जो 'आत्मोदय' के साथ 'सर्वोदय'- सबका कल्याण उद्दिष्ट है।<balloon title="सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव–समन्तभद्र युक्त्यनु. का. 61" style=color:blue>*</balloon> उसका समर्थन करना जैन दर्शन का लक्ष्य हैं जैन धर्म में अपना ही कल्याण नहीं चाहा गया है, अपितु सारे राष्ट्र, राष्ट्र की जनता और विश्व के जनसमूह, यहाँ तक कि प्राणीमात्र के सुख एवं कल्याण की कामना की गई है।<balloon title="क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल:<br />
काले वर्ष प्रदिशतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।<br />
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,<br />
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि॥" style=color:blue>*</balloon><br />
{{tocright}}<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख अंग==<br />
#द्रव्य-मीमांसा<br />
#तत्त्व-मीमांसा<br />
#पदार्थ-मीमांसा<br />
#पंचास्तिकाय-मीमांसा<br />
#अनेकान्त-विमर्श<br />
#स्याद्वाद विमर्श<br />
#सप्तभंगी विमर्श<br />
==द्रव्य-मीमांसा:==<br />
वैशेषिक, भाट्ट और प्रभाकर दर्शनों में द्रव्य और पदार्थ दोनों को स्वीकार कर उनका विवेचन किया गया है। तथा [[सांख्य दर्शन]] और [[बौद्ध दर्शन|बौद्ध दर्शनों]] में क्रमश: तत्त्व और आर्य सत्यों का कथन किया गया है, [[वेदान्त दर्शन]] में केवल ब्रह्म (आत्मतत्व) और [[चार्वाक दर्शन]] में भूत तत्त्वों को माना गया है, वहाँ जैन दर्शन में द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व, और अस्तिकाय को स्वीकार कर उन सबका पृथक्-पृथक् विस्तृत निरूपण किया गया है।<balloon title="त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्काय - लेश्या:,<br />
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत समिति-गति-ज्ञान- चारित्रभेदा:।<br />
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितै: प्रोक्तमर्हदिभरीशै:<br />
प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:॥ - स्तवनसंकलन।" style=color:blue>*</balloon> <br />
*जो ज्ञेय के रूप में वर्णित है और जिनमें हेय-उपादेय का विभाजन नहीं है पर तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जिनका जानना ज़रूरी है तथा गुण और पर्यायों वाले हैं एवं उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त हैं, वे द्रव्य हैं। <br />
*तत्त्व का अर्थ मतलब या प्रयोजन है। जो अपने हित का साधक है वह उपादेय है और जो आत्महित में बाधक है वह हेय है। उपादेय एवं हेय की दृष्टि से जिनका प्रतिपादन के उन्हें तत्त्व कहा गया है। <br />
*भाषा के पदों द्वारा जो अभिधेय है वे पदार्थ हैं। उन्हें पदार्थ कहने का एक अभिप्राय यह भी है कि 'अर्थ्यतेऽभिलष्यते मुमुक्षुभिरित्यर्थ:' मुमुक्षुओं के द्वारा उनकी अभिलाषा की जाती है, अत: उन्हें अर्थ या पदार्थ कहा गया है। <br />
*अस्तिकाय की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो 'अस्ति' और 'काय' दोनों है। 'अस्ति' का अर्थ 'है' है और 'काय' का अर्थ 'बहुप्रदेशी' है अर्थात जो द्रव्य है' होकर कायवाले- बहुप्रदेशी हैं, वे 'अस्तिकाय' हैं।<balloon title="पंचास्तिकाय, गा. 4-5 द्रव्य सं. गा. 24" style=color:blue>*</balloon> ऐसे पाँच द्रव्य हैं- <br />
#पुद्गल, <br />
#धर्म,<br />
#अधर्म, <br />
#आकाश और <br />
#जीव, <br />
#कालद्रव्य एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है।<br />
<br />
'''द्रव्य का स्वरूप'''<br />
<br />
आचार्य कुन्दकुन्द<balloon title="पंचास्तिकाय, गा. 10" style=color:blue>*</balloon> और [[गृद्धपिच्छ]]<balloon title=" तत्व सूत्र 5-29, 30" style=color:blue>*</balloon> ने द्रव्य का स्वरूप दो तरह से बतलाया है। एक है, जो सत है वह द्रव्य है और सत वह है जिसमें उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिति) ये तीनों पाये जाते हैं। विश्व की सारी वस्तुएँ इन तीन रूप हैं। उदाहरणार्थ एक स्वर्ण घट को लीजिए। जब उसे मिटाकर स्वर्णकार मुकुट बनाता है तो हमें घट का विनाश, मुकुट का उत्पाद और स्वर्ण के रूप में उसकी स्थिति तीनों दिखायी देते हैं। इसका सबसे बड़ा साक्ष्य (प्रमाण) यह है<balloon title=" घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। <br />
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्॥– समन्तभद्र, आप्तमी. का 59" style=color:blue>*</balloon> कि घट चाहने वाले को उसके मिटने पर शोक, मुकुट चाहने वाले को मुकुट बनने पर हर्ष और स्वर्ण चाहने वाले को उसके मिटने पर न शोक होता है और मुकुट बनने पर न हर्ष होता है किन्तु वह मध्यस्थ (शोक-हर्ष विहीन) रहता है, क्योंकि वह जानता है कि स्वर्ण दोनों अवस्थाओं में विद्यमान रहता है।<br />
<br />
'''द्रव्य के भेद'''<br />
<br />
मूलत: द्रव्य के दो भेद हैं<balloon title="द्रव्यसं. गा. 1, त.सू. 5-1, 2, 3" style=color:blue>*</balloon>- <br />
#जीव और <br />
#अजीव। <br />
*चेतन को जीव और अचेतना को अजीव द्रव्य कहा गया है। तात्पर्य यह कि जिसमें चेतना पायी जाती है वह जीव द्रव्य है और जिसमें चेतना नहीं है वह अजीव द्रव्य है। चेतना का अर्थ है जिसके द्वारा जाना और देखा जाए और इसलिए उसके दो भेद कहे हैं- <br />
#ज्ञान चेतना और <br />
#दर्शन चेतना। ज्ञान चेतना को ज्ञानोपयोग और दर्शनचेतना को दर्शनोपयोग भी कहते हैं। व्यवसायात्मक रूप से जो वस्तु का विशेष ग्रहण होता है वह ज्ञानचेतना अथवा ज्ञानोपयोग है और अव्यवसाय (विकल्परहित) रूप से जो पदार्थ का सामान्य ग्रहण होता है वह दर्शनचेतना अथवा दर्शनोपयोग है। पूज्यपाद-देवनंदि ने कहा है<balloon title="सर्वार्थसिद्धि 2-9" style=color:blue>*</balloon> 'साकारं ज्ञानं निराकारं दर्शनम्' आकार विकल्प सहित ग्रहण का नाम ज्ञान है और आकार रहित ग्रहण का नाम दर्शन है। <br />
<br />
'''जीवद्रव्य और उसके भेद'''<br />
<br />
जीवद्रव्य दो वर्गों में विभक्त है<balloon title="तत्व सूत्र 2-10, पंचास्तिकाय, गा. 109" style=color:blue>*</balloon>- <br />
#संसारी और <br />
#मुक्त। <br />
*संसारी जीव वे हैं, जो संसार में जन्म-मरण–व्याधि आदि के चक्र में फँसे हुए हैं। ये नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों गतियों में बार-बार पैदा होते और मरते हैं तथा जैसा उनका कर्मविपाक होता है तदनुसार वे वहाँ अच्छा-बुरा फल भोगते हैं। ये दो तरह के हैं<balloon title="तत्व सूत्र 2-12" style=color:blue>*</balloon>- <br />
#त्रस और <br />
#स्थावर।<br />
*दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय के भेद से जीव चार प्रकार के हैं।<balloon title="तत्व सूत्र 2-14" style=color:blue>*</balloon> दो इन्द्रिय आदि जीवों की भी अनेक जातियाँ हैं। उदाहरण के लिए पंचेन्द्रिय जीवों को लें। इनके दो भेद हैं<balloon title="तत्व सूत्र 2-11, 24" style=color:blue>*</balloon> <br />
#संज्ञी, <br />
#असंज्ञी। <br />
*जिनके मन पाया जाए वे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कहे जाते हैं। मनुष्य, देव, और नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव वे हैं जिनके मन न हो और जो सोच-विचार न कर सकते हों तथा न शिक्षा ग्रहण कर सकते हों। तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी, संज्ञी पंचेद्रिय सभी प्रकार के जीव होते हैं। <br />
*संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भी तीन भेद हैं- <br />
#जलचर- जल में रहने वाले मगर, मत्स्य आदि। <br />
#थलचर- ज़मीन पर चलने वाले गाय, भैंस, गदहा, शेर, हाथी आदि और <br />
#नभचर- आकाश में उड़ने वाले कौआ, कोयल, कबूतर, चिड़िया आदि पक्षी। <br />
*जिनके मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय, स्पर्श बोध कराने वाली इन्द्रिय पायी जाती है, वे स्थावर जीव हैं।<balloon title="तत्त्वार्थसूत्र 2-13, 22। द्रव्यसं. गा. 11" style=color:blue>*</balloon> ये पांच प्रकार के होते है।– <br />
#पृथ्वी-कायिक, <br />
#जलकायिक, <br />
#अग्निकायिक, <br />
#वायुकायिक और <br />
#वनस्पतिकायिक।<br />
*मुक्तजीव वे कहे गए हैं<balloon title=" द्रव्यसं., गा. त.सू. 10-1, 2, 3" style=color:blue>*</balloon> जो संसार के बंधनों और दु:खों से छूट मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। जैन दर्शन में ऐसे जीवों को 'परम-आत्मा' परमात्मा कहा गया है। ये दो प्रकार के होते हैं- <br />
#सकल परमात्मा (आप्त), और <br />
#निकल परमात्मा (सिद्ध)।<br />
*जिनका कुछ कल अवशेष है वे सकल परमात्मा, जीवन मुक्त ईश्वर हैं। जिनका वह कल, अघाति कर्ममल दूर हो जाता है वे नि: निर्गत:- निष्क्रान्त: कलोऽघातिचतुष्टयरूपो येषाम् ते, निकल परमात्मा, सिद्ध परमेष्ठी है। <br />
<br />
'''अजीवद्रव्य और उसके भेद'''<br />
<br />
चेतना-रहित द्रव्य अजीव द्रव्य है। इसे निर्जीव जड़, अचेतन आदि नामों से भी कहा जाता है। जैसे- काष्ठ, लोष्ठ आदि। इसके पांच भेद हैं<balloon title="तत्व सूत्र 5-1, 2, 4, द्रव्यसं. गा. 15" style=color:blue>*</balloon>-<br />
#पुद्गल, <br />
#धर्म, <br />
#अधर्म, <br />
#आकाश और <br />
#काल। इनमें पुद्गल तो सभी के नेत्र आदि पांचों इन्द्रियों द्वारा अनुभव में अहर्निश आता है। शेष चार द्रव्य अतीन्द्रिय हैं। जीव और पुद्गल की गति, स्थिति, आधार और परिणमन में अनिवार्य निमित्त (सहायक) होने से उनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता सिद्ध है। तथा युक्ति और आगम से भी वे सिद्ध हैं।<br />
*पुद्गल<balloon title="तत्व सूत्र 5-5, द्रव्यसं. गर. 15, 16" style=color:blue>*</balloon>- जो पूरण-गलन (बनने-मिटने) के स्वभाव को लिए हुए है, उसे पुद्गल कहा गया है। जैसे घड़ा, कपड़ा, चटाई मकान, वाहन आदि। यह सूक्ष्म और स्थूल अथवा अणु और स्कन्ध के रूप में समस्त लोक में पाया जाता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य और इन्द्रिय-अग्राह्य दोनों प्रकार का है। इसमें रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाये जाते हैं, जो उस के गुण हैं। <br />
#रूप पांच प्रकार का है- काला, पीला, नील, लाल और सफेद। इन्हें यथा योग्य मिलाकर और रूप भी बनाये जा सकते हैं। इनका ज्ञान चक्षु:इन्द्रिय से होता है। <br />
#रस भी पांच तरह का है- खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चर्परा। इनका ग्रहण रसना (जिह्वा) इन्द्रिय से होता है। <br />
#गन्ध दो प्रकार का है- सुगन्ध और दुर्गन्ध। इन दोनों गन्धों का ज्ञान घ्राण (नासिका) इन्द्रिय से होता है। <br />
#स्पर्श के आठ भेद हैं- कड़ा, नरम, हलका, भारी, ठंडा, गर्म, चिकना और रूखा। इन आठों स्पर्शों का ज्ञान स्पर्शन इन्द्रिय से होता है। ये रूपादि बीस गुण पुद्गल में ही पाये जाते हैं<balloon title="द्रव्यसं. गा. 15, त.सू. 5-23" style=color:blue>*</balloon>, अन्य द्रव्यों से नहीं। अत: पुद्गल को ही रूपी (मूर्तिक) और शेष द्रव्यों को अरूपी (अमूर्तिक) कहा गया है। <br />
*धर्म-द्रव्य- यह द्रव्य<balloon title="द्रव्य. सं. गा. 17, त.सू. 5-17, पंचास्ति. 85" style=color:blue>*</balloon> गमन करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन (सामान्य) सहायक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मछली की गति में जल, रेल के चलने में रेल की पटरी अथवा वृद्ध के गमन में लाठी। यह द्रव्य 'तिलेषु तैलम्' की तरह लोक में सर्वत्र व्याप्त है। इसके बिना कोई भी जीव या पुद्गल गति नहीं कर सकता। इसके कुम्हार के चाक की कीली आदि और उदाहरण दिये जा सकते हैं। <br />
*अधर्म द्रव्य- यह<balloon title="द्रव्यसंग्रह गा. 18, त.सू. 5-17 पंचास्ति गा. 86" style=color:blue>*</balloon> धर्म द्रव्यसे विपरीत है। यह जीवों और पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) मं सामान्य निमित्त है। जैसे वृक्ष की छाया पथिकको ठहरने में सहायक होती है अथवा यात्री को धर्मशाला या स्टेशन। ध्यातव्य है कि यह अधर्म द्रव्य और उपर्युक्त धर्मद्रव्य दोनों अप्रेरक निमित्त हैं<balloon title="पंचास्ति, गा. 88, 89, द्रव्यसं. गा. 17, 18" style=color:blue>*</balloon> और अतीन्द्रिय हैं तथा दोनों पुण्य एवं पापरूप धर्म-अधर्म नहीं है- उनसे ये दोनों पृथक् हैं। <br />
*आकाश-द्रव्य<balloon title="द्रव्यं सं. गा. 19, त.सू. 5-18, पंचास्ति. गा. 90" style=color:blue>*</balloon>- यह जीव आदि सभी (पांचों) द्रव्यों को अवकाश देता है। सभी द्रव्य इसी में अवस्थित हैं। अत: सबके अवस्थान में यह सामान्य निमित्त हैं यह दो भागों में विभक्त है<balloon title="पंचास्ति गा. 91, द्रव्यसं. गा. 20" style=color:blue>*</balloon> <br />
#लोकाकाश और <br />
#आलोकाकाश। <br />
जितने आकाश में, जो उसका असंख्यात वां भाग है, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और उसके चारों ओर केवल एक आकाश द्रव्य है और जो चारों ओर अनन्त-अनन्त है वह अलोकाकाश हे। यह इसकी अवगाहन शक्ति की विशेषता है कि असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त जीव, अनन्तानन्त पुद्गल, असंख्यात कालाणू, एक असंख्यात प्रदेशी धर्मद्रव्य और एक असंख्यात प्रदेशी अधर्म द्रव्य ये सब परस्पर के अविरोधपूर्वक अवस्थित हैं। अलोकाकाश में आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नहीं है। <br />
*कालद्रव्य- यह<balloon title="पंचास्ति गा. 100, द्रव्य सं. गा. 21, 22" style=color:blue>*</balloon>द्रव्यों की वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व (ज्येष्ठत्व) और अपरत्व (कनिष्ठत्व) के व्यवहार में सहायक (उदासीन-अप्रेरक निमित्त) होता है। यह द्रव्य न हो, तो जीवों में बाल्य, युवा, वार्धक्य और पुद्गलों में नवीनता, जीर्णता जैसा परिवर्तन, ऋतु-पलटन, दिन-रात पक्ष-मास-वर्ष आदि का विभाग, आयु की अपेक्षा ज्येष्ठ-कनिष्ठ आदि का व्यवहार सम्भव नहीं है। यह दो प्रकार का है- <br />
#निश्चय काल और <br />
#व्यवहारकाल। <br />
जो द्रव्यों की वर्त्तना (सत्ता) में निमित्त है वह निश्चय काल अथवा परमार्थ काल है तथा जो द्रव्यों के परिवर्तन आदि से जाना जाता है वह व्यवहार काल है।<br />
<br />
==तत्त्व मीमांसा==<br />
तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है<balloon title="श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥" style=color:blue>*</balloon>। जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।<balloon title=" कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7" style=color:blue>*</balloon> <br />
#बहिरात्मा, <br />
#अन्तरात्मा और <br />
#परमात्मा। <br />
*मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।<br />
*आचार्य गृद्धपिच्छ ने<balloon title="गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र.सं. गा. 28" style=color:blue>*</balloon> तत्त्वार्थसूत्र<balloon title="गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र. सं. गा. 28" style=color:blue>*</balloon> में, जो 'अर्हत् प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध है, लिखा है तत्त्वार्थ की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सही रूप में तभी देखा परखा जा सकता है जब तत्त्वार्थ की श्रद्धा हो। ये तत्त्वार्थ (तत्त्व) सात हैं<balloon title="द्र. सं. गा. 3, 4, 5; त. सू. 2-8, 9; पंचास्ति, गा. 40, 41, 42" style=color:blue>*</balloon>- <br />
#जीव, <br />
#अजीव, <br />
#आस्त्रव, <br />
#बंध, <br />
#संवर, <br />
#निर्जरा और <br />
#मोक्ष। <br />
*जीव तत्त्व— यह सर्वोपरि प्रतिष्ठित और शाश्वत तत्त्व है। यह चेतना लक्षण वाला है, ज्ञाता-दृष्टा है और अनंतगुणों से सम्पन्न है। चेतना वह प्रकाश है जिसमें चेतन-अचेतन सभी पदार्थों को प्रकाशित करने की शक्ति है। वह दो प्रकार की है- <br />
#ज्ञानचेतना (ज्ञानोपयोग) और <br />
#दर्शनचेतना (दर्शनोपयोग) विशेष-ग्रहण का नाम ज्ञान-चेतना है और पदार्थ के सामान्य-ग्रहण का नाम दर्शनचेतना है। <br />
*ज्ञान चेतना के आठ भेद हैं- 1. मति, 2. श्रुत, 3. अवधि-ये तीन ज्ञान सम्यक् दर्शन के साथ होने पर सम्यक् होते है। और मिथ्यादर्शन के साथ होने पर मिथ्या भी होते हैं। इस तरह 1. सम्यक् मतिज्ञान, 2. सम्यक् श्रुतवान, 3. सम्यक् अवधिज्ञान, 4. मिथ्यामतिज्ञान, 5. मिथ्याश्रुतज्ञान 6. मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगावधि), 7. मन:पर्ययज्ञान और 8 केवलज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। अंतिम दोनों ज्ञान सम्यक ही होते हैं, वे मिथ्या नहीं होते।<br />
*इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। और इस मतिज्ञानपूर्वक जो उत्तरकाल में चिन्तनात्मक ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। इन्द्रिय और मन निरपेक्ष एवं आत्मसापेक्ष जो मूर्तिक (पुद्गल) का सीमायुक्त ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ के अनंतवें भाग को जो ज्ञान जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों से संबंधित और तीनों लोकों में विद्यमान समग्र पदार्थों को युगपत् जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान जिसे हो जाता है वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा कहा जाता है। इन ज्ञानों के अवान्तर भेद भी जैनदर्शन में प्रतिपादित हैं, जो ज्ञातव्य हैं। <br />
*दर्शन चेतना के चार भेद हैं<balloon title="पंचास्ति गा. 42; स. सि. 2-9; द्रव्यसं. गा. 4" style=color:blue>*</balloon>- 1.चक्षुर्दर्शन, 2. अचक्षुर्दर्शन, 3. अवधिदर्शन और 4. केवलदर्शन। नेत्रों से होने वाला पदार्थ का सामान्य दर्शन चक्षुर्दर्शन है और शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य दर्शन अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह अवधिदर्शन है। केवल ज्ञान के साथ ही जो समस्त वस्तुओं का युगपत् दर्शन होता है वह केवलदर्शन है। यह जीवतत्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से तीन प्रकार का है<balloon title="कुन्दकुन्द, अष्टपा., मोक्ष प्रा. गा. 4, 5, 6, 7" style=color:blue>*</balloon> अर्थात इनके उत्थान की तीन श्रेणियां हैं। वे है- 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, और 3. परमात्मा। <br />
*[[गीता]] में सम्भवत: ऐसे ही अन्तरात्मा को 'स्थितप्रज्ञ' कहा गया है। यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकार है<balloon title="दौलतराम छह-ढाला 3-4, 5, 6" style=color:blue>*</balloon>(2)- 1. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्तम। मिथ्यात्व का त्याग कर जिसने सम्यक्त्य (स्वयरभेद श्रद्धा) को प्राप्त कर लिया है, पर त्याग के मार्ग में अभी प्रवृत्त नहीं हो सका वह जघन्य अन्तरात्मा है। इसे जैन परिभाषा में 'अविरत-सम्यग्दृष्टि' कहा जाता है। <br />
*आचार्य [[समन्तभद्र]] ने लिखा है कि तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है- 'ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।' यही उत्तम अन्तरात्मा तप और ध्यान द्वारा नवीन पुरातन कर्मों को निर्जीर्ण करके जब कर्मकलङ्क से मुक्त हो जाता है तो वह परमात्मा कहा जाता है। फिर उसे संसार परिभ्रमण नहीं करना पड़ता। अनन्त काल तक वह अपने अनन्त गुणों में लीन होकर शाश्वत सुख (नि:श्रेयस) का अनुभव करता है। जैन दर्शन में मुक्त जीवों की अवस्थिति लोक के अग्रभाग (सिद्धशिला) में मानी गयी है।<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं. गा. 14" style=color:blue>*</balloon><br />
*गुणस्थान- उल्लेखनीय है कि इस जीव तत्त्व के आध्यात्मिक विकास या उन्नयन की चौदह श्रेणियां जैन आगमों में निरूपित हैं।<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं.4, गा. 13" style=color:blue>*</balloon> जिन्हें 'गुणस्थान' (आत्मगुणों को विकसित करने के दर्जे) संज्ञा दी गयी है। वे हैं- <br />
#मिथ्यात्व, <br />
#सासादन, <br />
#मिश्र, <br />
#अविरत, <br />
#देशविरत, <br />
#सर्वविरत, <br />
#अप्रमत्तसंयत, <br />
#अपूर्वकरण, <br />
#अनिवृत्तिकरण, <br />
#सूक्ष्मसाम्पराय, <br />
#उपशान्त मोह, <br />
#क्षीण मोह, <br />
#सयोग केवली और <br />
#अयोग केवली। <br />
इन चौदह गुणस्थानों में बारहवें गुणस्थान तक जीव संसारी कहलाता है। किन्तु निश्चय ही वह तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करेगा और वहां तथा चौदहवें गुणस्थान में वह 'परमात्मा' संज्ञा को प्राप्त कर लेता है तथा कुछ ही क्षणों में गुणस्थानातीत होकर 'सिद्ध' हो जाता है।<br />
*अजीव तत्त्व- यों तो जीव के सिवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदि पांचों) अजीव हैं। उनमें किसी में भी चेतना न होने से अचेतन हैं। उनका विवेचन द्रव्य-मीमांसा में किया जा चुका है। पर यहाँ उस अजीव से मतलब है, जो जीव को अनादि से बन्धनबद्ध किये हुए है और जिससे ही वस्तुत: जीव को छुटकारा पाना है। वह है पुद्गल, और पुद्गलों में भी सभी पुद्गल नहीं क्योंकि वे तो छूटे हुए ही हैं। किन्तु कार्माणवर्गणा के जो कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध है और जो जीव के कषाय एवं योग के निमित्त से उससे बंधे है। तथा प्रतिसमय बंध रहे हैं। उन कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों की यहाँ अजीव तत्त्व से विवक्षा है, जिन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छ ने 'भेत्तारं कर्मभूभृताम्' पद के द्वारा 'कर्मभूभृत्' कहा है। इन्हें ही हेय ज्ञात कर आत्मा से दूर करना है। जैन दर्शनों में इन कर्मों को ज्ञानावरण आदि आठ भागों में विभक्त किया गया है। आत्मदर्शन, स्वरूपोपलब्धि सिद्धत्व आदि आत्मगुण उन्हीं के कारण अवरुद्ध रहते हैं। <br />
*आस्त्रव तत्त्व— जिनके द्वारा आत्मा में कर्मस्कन्धों का प्रवेश होता है उन्हें आस्त्रव कहा गया है। यह दो प्रकार का है<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 29, 30" style=color:blue>*</balloon><br />
#भावास्त्रव और <br />
#द्रव्यास्त्रव। <br />
आत्मा के जिन कलुषितभावों या मन, वचन और शरीर की क्रिया से कर्म आते हैं उन भावों तथा मन, वचन और शरीर की क्रिया को भावास्त्रव तथा कर्मागमन को द्रव्यास्त्रव प्रतिपादित किया गया है। भावास्त्रव के अनेक भेद हैं- 1. मिथ्यात्व 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5.योग। इनमें मिथ्यात्व के 5, अविरति के 5, प्रमाद के 15, कषाय के 4 और योग के 3 कुल 32 भेद हैं। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो कार्माणवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आते हैं उनमें कर्मरूप शक्ति होना द्रव्यास्त्रव है। इनके ज्ञानावरण आदि आठ मूलभेद हैं और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं। <br />
*बन्ध तत्त्व— आत्मा के जिन अशुद्ध भावों से कर्म आत्मा से बंधें वे अशुद्ध भाव (राग, द्वेष, छल-कपट, क्रोध मान आदि) भावबंध हैं ये अशुद्ध भाव कर्म व आत्मा को परस्पर चिपकाने (बांधने) में गोंद का कार्य करते हैं। कर्म पुद्गलों तथा आत्मा के प्रदेशों का जो अन्योन्य प्रवेश है। दूध-पानी की तरह उनका घुल-मिल जाना है वह द्रव्य बन्ध है। एक दूसरी तरह से भी बंध के भेद कहे गए हैं<balloon title="नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 32, 33" style=color:blue>*</balloon>। वे हैं- <br />
#प्रकृति, <br />
#स्थिति, <br />
#अनुभाग और <br />
#प्रदेश। <br />
इनमें प्रकृति और प्रदेश योगों (शरीर, वचन और मन की क्रियाओं) से होते हैं। स्थिति एवं अनुभाव कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निमित्त् से होते हैं। <br />
*संवरतत्त्व— आस्त्रव तत्त्व के कथन में जिन आस्त्रवों को (कर्म के आने के द्वारों को) कहा गया है उनको रोक देना संवर है।<balloon title="गृद्धपिच्छ, स.सू. 9-1; द्रव्यसं. गा. 34, 35" style=color:blue>*</balloon> कर्म के द्वार बन्द हो जाते हैं तब कर्म आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकते। जैसे- सछिद्र जलयान (नाव आदि) के छोटे-बड़े सब छिद्र बंद कर देने पर जलयान में जल का प्रवेश नहीं होता। संवर नये कर्मों का प्रवेश रोकता है। इसके कई प्रकार हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र- ये उसके भेद हैं, जो आगत कर्मों को आत्मा में आने नहीं देते।<br />
*निर्जरा तत्त्व— ज्ञात-अज्ञात में आये कर्मों को तप आदि के द्वारा बाहर निकालने का जो प्रयत्न है वही निर्जरा है। यह सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की है।<balloon title="द्रव्य सं. गा. 36; त.सू. 9-3, 19, 20" style=color:blue>*</balloon> जो कर्म अपना फल देकर चला जाता हे वह सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रति समय होती रहती है, पर इससे बंधन नहीं टूटता है। तप के द्वारा जो बंधन तोड़ा जाता है वह अविपाक निर्जरा है। जीव को अपने उद्धार के लिए यही निर्जरा सार्थक होती है। अर्थात उसी से शिवफल (मोक्ष) प्राप्त होता है। <br />
*मोक्ष तत्त्व— यह वह तत्त्व एवं तथ्य है जिसके लिए मुमुक्ष अनेक भवों से प्रयत्न करते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं। एक वे जो अतीतकाल से संबंध रखते हैं और अनादिकाल से बंधे चले आ रहे हैं तथा दूसरे वे हैं जो आगामी हैं। आगामी कर्मों का अभाव बंध हेतुओं (आस्त्रव) के अभाव (संवर) से होता है। अतीत संबंधी (पूर्वोपात्त) कर्मों का अभाव निर्जरा द्वारा होता है। इस प्रकार समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष है।<balloon title="तत्व सूत्र 10-2, 3, द्रव्य सं. गा. 37" style=color:blue>*</balloon> यही शुद्ध अवस्था जीव की वास्तविक अपनी अवस्था है, जो सादि होकर अनंत है। इसी को प्राप्त करने के लिए आत्मा बाह्य और आभ्यंतर तपों, उत्तम क्षमादि धर्मों एवं चारों शुक्लध्यानों को करता है और नाना उपसर्गों एवं परीषहों को सहनकर उन पर विजय पाता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म- इन तीनों प्रकार के कर्मों से रहित हो जाने पर आत्मा 'सिद्ध' हो जाता है।<br />
<br />
==पदार्थ मीमांसा==<br />
उक्त सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को सम्मिलित कर देने पर नौ पदार्थ कहे गए हैं।<balloon title="जीवा जीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं। संवर-णिज्जर बंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठ॥–पंचास्ति., गा. 108" style=color:blue>*</balloon> इन नौ पदार्थों का प्रतिपादन आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय (गाथा 108) में सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। उसके बाद नेमिचन्द्र सिद्धांतिदेव ने भी उनका अनुसरण किया है।<balloon title="द्रव्य सं. गा. 28 । 'इह पुण्यपापग्रहणं कर्त्तव्यम्, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वान्॥" style=color:blue>*</balloon> तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्दर्शन कहकर उन सात तत्त्वों की ही प्ररूपणा की है। नौ पदार्थों की उन्होंने चर्चा नहीं की<balloon title="तत्व सूत्र 1-4" style=color:blue>*</balloon> यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के अन्त में उन्होंने पुण्य और पाप दोनों का कथन किया है। किन्तु वहाँ उनका पदार्थ के रूप में निरूपण नहीं है। बल्कि बंधतत्त्व का वर्णन करने वाले इस अध्याय में समग्र कर्म प्रकृतियों को पुण्य और पाप दो भागों में विभक्तकर साता वेदनीय, शुभायु:, शुभनाम और शुभगोत्र को पुण्य तथा असातावेदनीय, अशुभायु:, अशुभनाम और अशुभगोत्र को पाप कहा है।<balloon title=" तत्व सूत्र 8-25, 26" style=color:blue>*</balloon> ध्यान रहे यह विभाजन अघातिप्रकृतियों की अपेक्षा है, घातिप्रकृतियों की अपेक्षा नहीं, क्योंकि वे सभी (47) पाप-प्रकृतियां ही हैं।)<br />
==पंचास्तिकाय मीमांसा==<br />
जैन दर्शन में उक्त द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ के अलावा अस्तिकायों का निरूपण किया गया है। कालद्रव्य को छोड़कर शेष पांचों द्रव्य (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकश और जीव) अस्तिकाय हैं<balloon title="द्रव्य सं. गा. 23, 24, 25" style=color:blue>*</balloon> क्योंकि ये 'हैं' इससे इन्हें 'अस्ति' ऐसी संज्ञा दी गई है और काय (शरीर) की तरह बहुत प्रदेशों वाले हैं, इसलिए ये 'काय' हैं। इस तरह ये पांचों द्रव्य 'अस्ति' और 'काय' दोनों होने से 'अस्तिकाय' कहे जाते हैं। पर कालद्रव्य 'अस्ति' सत्तावान होते हुए भी 'काय' (बहुत प्रदेशों वाला) नहीं है। उसके मात्र एक ही प्रदेश हैं। इसका कारण यह है कि उसे एक-एक अणुरूप माना गया है और वे अणुरूप काल द्रव्य असंख्यात हैं, क्योंकि वे लोकाकाश के, जो असंख्यात प्रदेशों वाला है, एक-एक प्रदेश पर एक-एक जुदे-जुदे रत्नों की राशि की तरह अवस्थित हैं। जब कालद्रव्य अणुरूप है तो उसका एक ही प्रदेश है इससे अधिक नहीं। अन्य पाँचों द्रव्यों में प्रदेश बाहुल्य है, इसी से उन्हें 'अस्तिकाय' कहा गया है और कालद्रव्य को अनस्तिकाय।<br />
==अनेकान्त विमर्श==<br />
'अनेकान्त' जैनदर्शन का उल्लेखनीय सिद्धान्त है। वह इतना व्यापक है कि वह लोक (लोगों) के सभी व्यवहारों में व्याप्त है। उसके बिना किसी का व्यवहार चल नहीं सकता। आचार्य [[सिद्धसेन]] ने कहा है<ref>जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ।<br /> तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमोऽणेयंत वायस्स॥ - सिद्धसेन। </ref> कि लोगों के उस आद्वितीय गुरु अनेकान्तवाद को हम नमस्कार करते हैं, जिसके बिना उनका व्यवहार किसी तरह भी नहीं चलता। अमृतचन्द्र उसके विषय में कहते है<ref>परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध- सिन्धुरविधानम्।<br /> सकल-नय-विलसितानां विरोधमथानं नमाम्यनेकान्तम्॥ -अमृतचन्द्र, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्लो. 1।</ref> कि अनेकान्त परमागम जैनागम का प्राण हे और वह वस्तु के विषय में उत्पन्न एकान्तवादियों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को उसी प्रकार दूर करता है जिस प्रकार हाथी को लेकर उत्पन्न जन्मान्धों के विवादों को सचक्षु: (नेत्रवाला) व्यक्ति दूर कर देता है। समन्तभद्र का कहना है<ref>एकान्त धर्माभिनिवेशमूला रागादयोऽहं कृतिजा जनानाम्।<br />एकान्तहानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च समं मनस्ते॥ - समन्तभद्र, युक्तयनुशासन कारिका 51</ref> कि वस्तु को अनेकान्त मानना क्यों आवश्यक है? वे कहते हैं कि एकान्त के आग्रह से एकान्त समझता है कि वस्तु उतनी ही है, अन्य रूप नहीं है, इससे उसे अहंकर आ जाता है और अहंकार से उसे राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं, जिससे उसे वस्तु का सही दर्शन नहीं होता। पर अनेकान्ती को एकानत का आग्रह न होने से उसे न अहंकार पैदा होता है और न राग, द्वेष आदि उत्पन्न होते हैं। फलत: उसे उस अनन्तधर्मात्मक अनेकान्त रूप वस्तु का सम्यक्दर्शन होता है, क्योंकि एकान्त का आग्रह न करना दूसरे धर्मों को भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि का स्वभाव है। और इस स्वभाव के कारण ही अनेकान्ती के मन में पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता, वह साम्य भाव को लिए रहता है। <br />
*अनेकान्त के भेद- यह अनेकान्त दो प्रकार का है- <br />
#सम्यगनेकान्त और <br />
#मिथ्या अनेकान्त। <br />
परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन करने वाला सम्यगनेकान्त है अथवा सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यगनेकान्त है<balloon title="समन्तभद्र, आप्तमी., का. 107" style=color:blue>*</balloon> निरपेक्ष नाना धर्मों का समूह मिथ्या अनेकान्त है। एकान्त भी दो प्रकार का है- <br />
#सम्यक एकान्त और <br />
#मिथ्या एकान्त। <br />
सापेक्ष एकान्त सम्यक एकान्त है। वह इतर धर्मों का संग्रहक है। अत: वह नय का विषय है और निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है, जो इतर धर्मों का तिरस्कारक है वह दुनर्य या नयाभास का विषय है। अनेकान्त के अन्य प्रकार से भी दो भेद कहे गये हैं।<balloon title="विद्यानन्द तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 5-38-2" style=color:blue>*</balloon> <br />
#सहानेकान्त और <br />
#क्रमानेकान्त। <br />
एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम में होने वाले धर्मों-पर्यायों के समुच्चय का नाम क्रमानेकान्त है। इन दो प्रकार के अनेकान्तों के उद्भावक जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानंद हैं। उनके समर्थक [[वादीभसिंह]] हैं। उन्होंने अपनी स्याद्वादसिद्धि में इन दोनों प्रकार के अनेकान्तों का दो परिच्छेदों में विस्तृत प्रतिपादन किया है। उन के नाम हैं- सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्त सिद्धि। अनेकान्त को मानने में कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए। जो हेतु<balloon title="एकस्य हेतो: साधक दूषकत्वाऽविसंवादवद्धा'- त.वा. 1-6-13" style=color:blue>*</balloon> स्वपक्ष का साधक होता है वही साथ में परपक्ष का दूषक भी होता है। इस प्रकार उसमें साधकत्व एवं दूषकत्व दोनों विरुद्ध धर्म एक साथ रूपरसादि की तरह विद्यमान हैं। <br />
सांख्यदर्शन, प्रकृति को सत्त्व, रज और तमोगुण रूप त्रयात्मक स्वीकार करता है और तीनों परस्पर विरुद्ध है तथा उनके प्रसाद-लाघव, शोषण-ताप, आवरण-सादन आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव हैं और सब प्रधान रूप हैं, उनमें कोई विरोध नहीं है।<ref>'केचित्तावदाहु:- सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रधानमिति, तेषां<br /> प्रसादलाघवशोषतापावरणासादनादिभिन्नस्वभावानां प्रधानात्मनां मिथश्च न विरोध:।'</ref> वैशेषिक द्रव्यगुण आदि को अनुवृत्ति-व्यावृत्ति प्रत्यय कराने के कारण सामान्य-विशेष रूप मानते हैं। पृथ्वी आदि में 'द्रव्यम्' इस प्रकार का अनुवृत्ति प्रत्यय होने से द्रव्य को सामान्य और 'द्रव्यम् न गुण:, न कर्म, आदि व्यावृत्ति प्रत्यय का कारण होने से उसे विशेष भी कहते हैं और इस प्रकार द्रव्य एक साथ परस्पर विरुद्ध सामान्य-विशेष रूप माना गया है।<ref>अपरे मन्यन्ते- अनुवृत्तिविनिवृत्तिबुद्धयभिधानलक्षण: सामान्यविशेष इति। तेषां च सामान्यमेव विशेष: सामान्यविशेष इति। एकस्यात्मन उभयात्मकत्वं न विरुध्यते। त.वा. 1-6-14 । 2. समन्तभद्र, आप्तमी. का 104</ref> चित्ररूप भी उन्होंने स्वीकार किया है, जो परस्पर विरुद्ध रूपों का समुदाय है। बौद्ध दर्शन में भी एक चित्रज्ञान स्वीकृत है, जो परस्परविरुद्ध नीलादि ज्ञानों का समूह है।<br />
<br />
==स्याद्वाद विमर्श==<br />
स्याद्वाद उसी प्रकार अनेकान्त का वाचक अथवा व्यवस्थापक है जिस प्रकार ज्ञान उस अनेकान्त का व्यापक अथवा व्यवस्थापक है। जब ज्ञान के द्वारा वह जाना जाता है तो दोनों में ज्ञान-ज्ञेय का संबंध होता है और जब वह स्याद्वाद के द्वारा कहा जाता है तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध होता है। ज्ञान का महत्त्व यह है कि वह ज्ञेय को जानकर उन ज्ञेयों की व्यवस्था बनाता है- उन्हें मिश्रित नहीं होने देता है। यह अमुक है, यह अमुक नहीं है इस प्रकार वह ज्ञाता को उस उस ज्ञेय की परिच्छित्ति कराता है। स्याद्वाद का भी वही महत्त्व है। वह वचनरूप होने से वाच्य को कहकर उसके अन्य धर्मों की मौन व्यवस्था करता है। ज्ञान और वचन में अंतर यही है कि ज्ञान एक साथ अनेक ज्ञेयों को जान सकता है पर वचन एक बार में एक ही वाच्य धर्म को कह सकता है, क्योंकि 'सकृदुच्चरित शब्द: एकमेवार्थ गमयति' इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया वचन एक ही अर्थ का बोध कराता है। <br />
*समन्तभद्र की 'आप्त-मीमांसा', जिसे 'स्याद्वाद-मीमांसा' कहा जा सकता है, ऐसी कृति है, जिसमें एक साथ स्याद्वाद, अनेकान्त और सप्तभंगी तीनों का विशद और विस्तृत विवेचन किया गया है। अकलंकदेव ने उस पर 'अष्टशती' (आप्त मीमांसा- विवृति) और [[विद्यानन्द]] ने उसी पर 'अष्टसहस्त्री' (आप्तमीमांसालंकृति) व्याख्या लिखकर जहाँ आप्तमीमांसा की कारिकाओं एवं उनके पद-वाक्यादिकों का विशद व्याख्यान किया है वहाँ इन तीनों का भी अद्वितीय विवेचन किया है।<br />
---- <br />
<br />
'''न्याय विद्या'''<br />
<br />
*'नीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन स न्याय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार न्याय वह विद्या है जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप निर्णीत किया जाए। इस व्युत्पत्ति के आधार पर कोई प्रमाण को, कोई लक्षण और प्रमाण को, कोई लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप को तथा कोई पंचावयव-वाक्य के प्रयोग को न्याय कहते हैं क्योंकि इनके द्वारा वस्तु-प्रतिपत्ति होती है। <br />
*न्यायदीपिकाकार अभिनव धर्मभूषण का मत है कि न्याय प्रमाण और नयरूप है। अपने इस मत का समर्थन वे आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्रगत उस सूत्र से करते हैं<balloon title="'प्रमाणनयैरधिगम:'- त.सू. 1-16" style=color:blue>*</balloon>, जिसमें कहा गया है कि वस्तु (जीवादि पदार्थों) का अधिगम प्रमाणों तथा नयों से होता है। प्रमाण और नय इन दो को ही अधिगम का उपाय सूत्रकार ने कहा है। उनका आशय है कि चूँकि प्रत्येक वस्तु अखंड (धर्मी) और सखंड (धर्म) दोनों रूप है। उसे अखंडरूप में ग्रहण करने वाला प्रमाण है और खंडरूप में जानने वाला नय है। अत: इन दो के सिवाय किसी तीसरे ज्ञापकोपाय की आवश्यकता नहीं है। <br />
*न्यायविद्या को 'अमृत' भी कहा गया है।<balloon title="'न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने।' –अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला पृ. 2,2 श्लो. 2" style=color:blue>*</balloon> इसका कारण यह कि जिस प्रकार 'अमृत' अमरत्व को प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या भी तत्त्वज्ञान प्राप्त कराकर आत्मा को अमर (मिथ्याज्ञानादि से मुक्त और सम्यग्ज्ञान से युक्त) बना देती है।<br />
<br />
'''आगमों में न्याय-विद्या'''<br />
<br />
*षट्खंडागम<balloon title="षट्ख. 5।5।51, शोलापुर संस्करण, 1965" style=color:blue>*</balloon> में श्रुत के पर्याय-नामों को गिनाते हुए एक नाम 'हेतुवाद' भी दिया गया है, जिसका अर्थ हेतुविद्या, न्यायविद्या, तर्क-शास्त्र और युक्ति-शास्त्र किया है। <br />
*स्थानांगसूत्र<ref>'अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा- पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे। अथवा हेऊ चउव्विहे पन्नत्ते। तं जहा-अत्थि तं अत्थि सो हेऊ, अत्थि तं णत्थि सो हेऊ, णत्थि तं अत्थि सो हेऊ णत्थि तं णत्थि सो हेऊ।' –स्थानांग स्.-पृ. 309-310, 338</ref> में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है, जिसके दो अर्थ किये गये हैं- <br />
*प्रमाण-सामान्य; इसके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-ये चार भेद हैं। अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र में भी इन चार का प्रतिपादन है। पर उन्होंने इन्हें प्रमाण के भेद कहे हैं। यद्यपि स्थानांगसूत्रकार को भी हेतुशब्द प्रमाण के अर्थ में ही यहाँ विवक्षित है। <br />
*हेतु शब्द का दूसरा अर्थ उन्होंने अनुमान का प्रमुख अंग हेतु (साधन) किया है। उसके निम्न चार भेद किये हैं-<br />
#विधि-विधि (साध्य और साधन दोनों सद्भव रूप)<br />
#विधि-निषेध (साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप)<br />
#निषेध-विधि (साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप)<br />
#निषेध-निषेध (साध्य और साधन दोनों निषेधरूप)<br />
इन्हें हम क्रमश: निम्न नामों से व्यवहृत कर सकते हैं-<br />
#विधिसाधक विधिरूप<balloon title="धर्मभूषण, न्यायदीपिका, पृ. 95-99 दिल्ली संस्करण" style=color:blue>*</balloon> अविरुद्धोपलब्धि<balloon title=" माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख 3/57-58" style=color:blue>*</balloon> <br />
#विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि<br />
#निषेधसाधक विधिरूप विरुद्धोपलब्धि<br />
#निषेधसाधक निषेधरूप अविरुद्धानुपलब्धि<balloon title="डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 24 का टिप्पणी नं. 3" style=color:blue>*</balloon> <br />
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं-<br />
#अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ साध्य और साधन दोनों विधि (सद्भाव) रूप हैं।<br />
#इस प्राणी में व्याधि विशेष है, क्योंकि स्वस्थचेष्टा नहीं है। साध्य विधिरूप है और साधन निषेधरूप है।<br />
#यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता है। यहाँ साध्य निषेधरूप व साधन विधिरूप है।<br />
#यहाँ धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है। यहाँ साध्य व साधन दोनों निषेधरूप है। <br />
अनुयोगसूत्र में<balloon title=")डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 25 व उसके टिप्पणी" style=color:blue>*</balloon> अनुमान और उसके भेदों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध है, जिससे ज्ञात होता है कि आगमों में न्यायविद्या एक महत्त्वपूर्ण विद्या के रूप में वर्णित है। आगमोत्तरवर्ती दार्शनिक साहित्य में तो वह उत्तरोत्तर विकसित होती गई है।<br /><br />
'''प्रमाण और नय'''<br /><br />
*तत्त्वमीमांसा में हेय और उपादेय के रूप में विभक्त जीव आदि सात तत्त्वों का विवेचन हैं। तत्त्व का दूसरा अर्थ वस्तु है।<balloon title="डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ. 58, 59" style=color:blue>*</balloon> यह वस्तुरूप तत्त्व दो प्रकार का है- 1. उपेय और 2. उपाय। उपेय के दो भेद हैं- एक ज्ञाप्य (ज्ञेय) और दूसरा कार्य। जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञाप्य अथवा ज्ञेय कहा जाता है और जो कारणों द्वारा निष्पाद्य या निष्पन्न होता है वह कार्य है।<br />
*उपाय तत्त्व दो तरह का है- <br />
#कारक, <br />
#ज्ञापक। <br />
*कारक वह है जो कार्य की उत्पत्ति करता है अर्थात कार्य के उत्पादक कारणों का नाम कारक है। कार्य की उत्पत्ति दो कारणों से होती है- <br />
#उपादान और <br />
#निमित्त (सहकारी)। <br />
*उपादान वह है जो स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त वह है जो उसमें सहायक होता है। उदाहरणार्थ घड़े की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड उपादान और दण्ड चक्र, चीवर, कुंभकार प्रभृति निमित्त हैं। <br />
*न्यायदर्शन में इन दो कारणो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण भी स्वीकृत है वह है असमवायि पर वह समवायि कारणगत रूपादि और संयोगरूप होने से उसे अन्य दर्शनों में उस से भिन्न नहीं माना। <br />
*ज्ञापकतत्त्व भी दो प्रकार का है-<br />
#प्रमाण<balloon title="डॉ. दरबारीलाल कोठिया, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार पृ. 58 का मूल व टिप्पणी 1; 'प्रमाणनयैरधिगम:'-त.सू. 1-6 'प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादय: पदार्थ: सम्यगधिगम्यन्ते।'- न्या.दी. पृ. 2, वीर सेवामंदिर, दिल्ली संस्करण" style=color:blue>*</balloon> और <br />
#नय<balloon title="'प्रमाणादर्थ संसिद्धिस्तदाभासासाद्विपर्यय:। 'परीक्षामु. श्लो. 1" style=color:blue>*</balloon> <br />
<br />
'''प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*[[वैशेषिक दर्शन]] के प्रणेता [[कणाद]] ने<balloon title=" वैशेषिक सूत्र 10/1/3" style=color:blue>*</balloon> प्रमाण के प्रत्यक्ष और लैंगिक- ये दो भेद स्वीकार किये हैं। उन्होंने इन दो के सिवाय न अन्य प्रमाणों की संभावना की है और न न्यायसूत्रकार अक्षपाद की तरह स्वीकृत प्रमाणों में अन्तर्भाव आदि की चर्चा ही की है। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदों की मान्यता प्राचीन है। इसके अतिरिक्त चार्वाक ने प्रत्यक्ष को माना और मात्र अनुमान की समीक्षा की है<balloon title="सर्वदर्शन सं., चार्वाकदर्शन, पृ. 3" style=color:blue>*</balloon>,अन्य उपमान, आगम आदि की नहीं। जबकि न्याय सूत्रकार ने<balloon title="न्यायसूत्र 2/2/1, 2" style=color:blue>*</balloon> *प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द)- इन चार प्रमाणों को स्वीकार किया है तथा ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव-इन चार का स्पष्ट रूप से उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणता की आलोचना की हें साथ ही शब्द में ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीनों का अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। <br />
*कणाद के व्याख्याकार प्रशस्तपाद ने<balloon title="प्रश. भा., पृ. 106-111" style=color:blue>*</balloon> अवश्य उनके मान्य प्रत्यक्ष और लैंगिक इन दो प्रमाणों का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्रमाणों का इन्हीं दो में समावेश किया है तथा चेष्टा, निर्णय, आर्ष (प्रातिभ) और सिद्ध दर्शन को भी इन्हीं दो के अन्तर्गत सिद्ध किया है। यदि वैशेषिक दर्शन से पूर्व न्यायदर्शन या अन्य दर्शन की प्रमाण भेद परम्परा होती, तो चार्वाक उसके प्रमाणों की अवश्य आलोचना करता। इससे विदित होता है कि वैशेषिक दर्शन की प्रमाण-द्वय की मान्यता सब से प्राचीन है। <br />
*वैशेषिकों की<balloon title="वैशे. सू. 10/1/3" style=color:blue>*</balloon>तरह बौद्धों ने<balloon title="दिग्नाग, प्रमाण समु.प्र.परि.का. 2, पृ. 4" style=color:blue>*</balloon> भी प्रत्यक्ष और अनुमान- इन दो प्रमाणों की स्वीकार किया है। <br />
*शब्द सहित तीनों को सांख्यों ने<balloon title="सांख्य का. 4" style=color:blue>*</balloon>, उपमान सहित चारों को नैयायिकों ने<balloon title="न्याय सू. 1/1/3" style=color:blue>*</balloon>और अर्थापत्ति तथा अभाव सहित छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमांसकों) ने<balloon title="शावरभा. 1/1/5" style=color:blue>*</balloon> मान्य किया है। कुछ काल बाद जैमिनीय दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गये- <br />
#भाट्ट (कुमारिल भट्ट के अनुगामी) और <br />
#प्राभाकर (प्रभाकर के अनुयायी)। <br />
भाट्टों ने छहों प्रमाणों को माना। पर प्राभाकरों ने अभाव प्रमाण को छोड़ दिया तथा शेष पाँच प्रमाणों को अंगीकार किया। इस तरह विभिन्न दर्शनों में प्रमाण-भेद की मान्यताएँ<balloon title="जैमिने: षट् प्रमाणानि चत्वारि न्यायवादिन:। सांख्यस्य त्रीणि वाच्यानि द्वे वैशेषिकबौद्धयो:॥ - प्रमेयर. 2/2 का टि." style=color:blue>*</balloon> दार्शनिक क्षेत्र में चर्चित हैं।<br /><br />
'''जैन न्याय में प्रमाण-भेद'''<br /><br />
*जैन न्याय में प्रमाण के श्वेताम्बर परम्परा में मान्य भगवती सूत्र<balloon title="भगवती सूत्र 5/3/191-192" style=color:blue>*</balloon> और स्थानांग सूत्र में<balloon title="स्थानांग सूत्र 338" style=color:blue>*</balloon> चार प्रमाणों का उल्लेख है- <br />
#प्रत्यक्ष, <br />
#अनुमान, <br />
#उपमान और <br />
#आगम। <br />
*स्थानांग सूत्र में<balloon title="स्थानांग सूत्र 185" style=color:blue>*</balloon> व्यवसाय के तीन भेदों द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का भी निर्देश है। <br />
*संभव है [[सिद्धसेन]]<balloon title="न्यायाव. का 8" style=color:blue>*</balloon> और [[हरिभद्र]] के<balloon title="अनेका.ज.प.टी. पृ. 142, 215" style=color:blue>*</balloon> तीन प्रमाणों की मान्यता का आधार यही स्थानांग सूत्र हो। <br />
*श्री पं. दलसुख मालवणिया का विचार है<balloon title="आगम युग का जैन दर्शन पृ. 136 से 138" style=color:blue>*</balloon> कि उपर्युक्त चार प्रमाणों की मान्यता नैयायिकादि सम्मत और तीन प्रमाणों का कन सांख्यादि स्वीकृत परम्परा मूलक हों तो आश्चर्य नहीं। यदि ऐसा हो तो भगवती सूत्र और स्थानांग सूत्र के क्रमश: चार और तीन प्रमाणों की मान्यता लोकानुसरण की सूचक होने से अर्वाचीन होना चाहिए। <br />
*दिगम्बर परम्परा के षड्खंडागम में<balloon title="भूतबली. पुष्पदन्त, षट्खण्डा. 1/1/15 तथा जैन तर्क शा.अनु.वि. पृ. 71 व इसका नं. 5 टिप्पणी" style=color:blue>*</balloon> मात्र तीन ज्ञानमीमांसा उपलब्ध होती है। वहाँ तीन प्रकार के मिथ्या ज्ञान और पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान को गिनाकर आठ ज्ञानों का निरूपण किया गया है। वहाँ प्रमाणाभास के रूप में ज्ञानों का विभाजन नहीं है और न प्रमाण तथा प्रमाणाभास शब्द ही वहाँ उपलब्ध होते हैं। <br />
*कुन्दकुन्द<balloon title="नियमसार गा. 10, 11, 12, प्रवचनसार प्रथम ज्ञानाधिकार" style=color:blue>*</balloon> के ग्रन्थों में भी ज्ञानमीमांसा की ही चर्चा है, प्रमाण मीमांसा की नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि उस प्राचीनकाल में सम्यक और मिथ्या मानकर तो ज्ञान का कथन किया जाता था, किन्तु प्रमाण और प्रमाणाभास मानकर नहीं, पर एक वर्ग के ज्ञानों को सम्यक और दूसरे वर्ग के ज्ञानों को मिथ्या प्रतिपादन करने से अवगत होता है कि जो ज्ञान सम्यक कहे गये हैं वे सम्यक परिच्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया है वे मिथ्या प्रतिपत्ति कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट है।<balloon title="यह उस समय की प्रतिपादन शैली थी। वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक कणाद ने भी इसी शैली से बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर अविद्या के संशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि चार भेद कहे हैं तथा दूषित ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) को अविद्या और निर्दोष ज्ञान को-सम्यग्ज्ञान का विद्या का लक्षण कहा है। - वैशे.सू. 9/2/7, 8, 10 से 13 तथा 10/1/3" style=color:blue>*</balloon> इसकी संपुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार<balloon title="त.सू. 1/9, 10" style=color:blue>*</balloon> के निम्न प्रतिपादन से भी होती है-<br />
<poem>मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानिज्ञानम्। <br />
तत्प्रमाणे'। 'मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। -तत्त्वार्थसूत्र 1-9, 10, 31 ।</poem><br />
इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, श्रुत, अवधि आदि पाँच भेदों की परम्परा आगम में उपलब्ध होती है, जो अत्यन्त प्राचीन है और जिस पर लोकानुसरण का कोई प्रभाव नहीं है। <br />
<br />
'''तर्कशास्त्र में परोक्ष के भेद'''<br />
<br />
तर्कशास्त्र में परोक्ष के पाँच भेद माने गये हैं<balloon title="माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10" style=color:blue>*</balloon>- <br />
#स्मृति, <br />
#प्रत्यभिज्ञान, <br />
#तर्क, <br />
#अनुमान और <br />
#आगम। यद्यपि आगम में आरम्भ के चार ज्ञानों को मतिज्ञान और आगम को श्रुतज्ञान कहकर दोनों को परोक्ष कहा है और इस तरह तर्कशास्त्र तथा आगम के निरूपणों में अन्तर नहीं है।<br />
<br />
'''स्मृति''' <br />
<br />
पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यथा 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान। यह ज्ञान अविसंवादि होता है, इसलिए प्रमाण है। यदि कदाचित् उसमें विसंवाद हो तो वह स्मृत्याभास है। इसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता, अन्यथा व्याप्ति स्मरणपूर्वक होने वाला अनुमान प्रमाण नहीं हो सकता और बिना व्याप्ति स्मरण के अनुमान संभव नहीं है। अत: स्मृति को प्रमाण मानना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।<balloon title="विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 36 व पृ. 42, वीर सेवा. ट्र., वाराणसी" style=color:blue>*</balloon><br />
<br />
'''प्रत्यभिज्ञान'''<br />
<br />
अनुभव तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है इसे प्रत्यभिज्ञा, प्रत्यवमर्श और संज्ञा भी कहते है। जैसे- 'यह वही देवदत्त हे, अथवा यह (गवय) गौ के समान है, यह (महिष) गौ से भिन्न है, आदि। पहला एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण है, दूसरा सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और तीसरा वैसा दृश्य प्रत्यभिज्ञान का है। संकलनात्मक जितने ज्ञान हैं वे इसी प्रत्यभिज्ञान में समाहित होते हैं। उपमान प्रमाण इसी के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होता है, अन्यथा वैसा दृश्य आदि प्रत्यभिज्ञान भी पृथक् प्रमाण मानना पड़ेंगे। यह भी प्रत्यक्षादि की तरह अविसंवादी होने से प्रमाण है, अप्रमाण नहीं। यदि कोई प्रत्यभिज्ञान विसंवाद (भ्रमादि) पैदा करता है तो उसे प्रत्यभिज्ञानाभास जानना चाहिए। <br />
<br />
'''तर्क'''<br />
जो ज्ञान अन्वय और व्यतिरेकपूर्वक व्याप्ति का निश्चय कराता है वह तर्क है। इसे ऊह, ऊहा और चिन्ता भी कहा जाता है। 'इसके होने पर ही यह होता है', यह अन्वय है और 'इसके न होने पर यह नहीं होता', यह व्यतिरेक है, इन दोनों पूर्वक यह ज्ञान साध्य के साथ साधन में व्याप्ति का निर्माण कराता है। इसका उदाहरण है- 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है, अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता' इस प्रकार अग्नि के साथ धूम की व्याप्ति का निश्चय कराना तर्क है। इससे सम्यक अनुमान का मार्ग प्रशस्त होता है। <br />
<br />
'''अनुमान'''<br />
<br />
निश्चित साध्याविनाभावी साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान कहलाता है।<balloon title="विद्यानन्द, प्रमाण परीक्षा, पृ. 45, 46, 47, 48, 49; वीर सेवा. ट्र., वाराणसी" style=color:blue>*</balloon> जैसे धूम से अग्नि का ज्ञान करना।<br />
<br />
'''अनुमान के अंग:- साध्य और साधन'''<br />
<br />
इस अनुमान के मुख्य घटक (अंग) दो हैं- <br />
#साध्य और <br />
#साधन। <br />
*साध्य तो वह है, जिसे सिद्ध किया जाता है और वह वही होता है जो शक्य (अबाधित), अभिप्रत (वादी द्वारा इष्ट) और असिद्ध (प्रतिवादी के लिए अमान्य) होता है तथा इससे जो विपरीत (बाधित, अनिष्ट और सिद्ध) होता है वह साध्याभास है, क्योंकि वह साधन द्वारा विषय (निश्चय) नहीं किया जाता। [[अकलंकदेव]] ने साध्य और साध्याभास का लक्षण करते हुए यही लिखा है-<br />
<poem>साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम्।<br />
साध्याभासं विरुद्धादि, साधनाविषयत्वत:॥ न्यायविनिश्चय 2-172</poem><br />
*साधन वह है जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित है- साध्य के होने पर ही होता है, उसके अभाव में नहीं होता। ऐसा साधन ही साध्य का गमक (अनुमापक) होता है। साधन को हेतु और लिङ्ग भी कहा जाता है। माणिक्यनन्दि साधन का लक्षण करते हुए कहते हैं-<br />
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु:।<balloon title="परीक्षामुखसूत्र 3-15" style=color:blue>*</balloon>' साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है। <br />
<br />
'''अविनाभाव-भेद'''<br />
<br />
अविनाभाव दो प्रकार का है<balloon title="माणिक्यनन्दि, प.मु. 3-16, 17, 18" style=color:blue>*</balloon>-<br />
#सहभाव नियम और <br />
#क्रमभाव नियम। <br />
*जो सहचारी और व्याप्य-व्यापक होते हैं उनमें सहभाव नियम अविनाभाव रहता है। जैसे रूप और रस दोनों सहचारी हैं- रूप के साथ रस और रस के साथ रूप नियम से रहता है। अत: दोनों सहचारी हैं और इसलिए उनमें सहभाव नियम अविनाभाव है तथा शिंशपात्व और वृक्षत्व इन दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव है। शिंशपात्व व्याप्य है और वृक्षत्व व्यापक है। शिंशपात्व होने पर वृक्षत्व अवश्य होता है। किन्तु वृक्षत्व के होने पर शिंशपात्व के होने का नियम नहीं है। अतएव सहचारियों और व्याप्य-व्यापक में सहभाव नियम अविनाभाव होता है, जिससे रूप से रस का और शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है। <br />
<br />
'''हेतु-भेद'''<br />
<br />
इन दोनों प्रकार के अविनाभाव से विशिष्ट हेतु के भेदों का कथन जैन न्यायशास्त्र में विस्तार से किया गया है, जिसे हमने 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार' ग्रन्थ में विशदतया दिया है। अत: उस सबकी पुनरावृत्ति न करके मात्र माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुख' के अनुसार उनका दिग्दर्शन किया जाता है।<balloon title="माणिक्यनन्दि, प. मु. 3-57 58, 59, 65 से 79 तक" style=color:blue>*</balloon><br />
*माणिक्यनन्दि ने अकलंकदेव की तरह आरम्भ में हेतु के मूल दो भेद बतलाये हैं-<br />
#उपलब्धि और <br />
#अनुपलब्धि। <br />
*तथा इन दोनों को विधि और प्रतिषेध उभय का साधक कहा है और इस तरह दोनों के उन्होंने दो-दो भेद कहे हैं। उपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धोपलब्धि और <br />
#विरुद्धोपलब्धि <br />
*अनुपलब्धि के- <br />
#अविरुद्धानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धानुपलब्धि <br />
*इनके प्रत्येक के भेद इस प्रकार प्रतिपादित किये हैं- <br />
*अविरुद्धोपलब्धि छह- <br />
#व्याप्त, <br />
#कार्य,<br />
#कारण, <br />
#पूर्वचर, <br />
#उत्तरचर और <br />
#सहचर।<br />
*विरुद्धोपलब्धि के भी अविरुद्धोपलब्धि की तरह छह भेद हैं- <br />
#विरुद्ध व्याप्य, <br />
#विरुद्ध कार्य, <br />
#विरुद्ध कारण, <br />
#विरुद्ध पूर्वचर, <br />
#विरुद्ध उत्तरचर और <br />
#विरुद्ध-सहचर। <br />
*अविरुद्धानुपलब्धि प्रतिषेध रूप साध्य को सिद्ध करने की अपेक्षा 7. प्रकार की कही है- <br />
#अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धव्यापकानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धकारणानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि, <br />
#अविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धि और <br />
#अविरुद्धसहचरानुपलब्धि। <br />
*विरुद्धानुपलब्धि विधि रूप साध्य को सिद्ध करने में तीन प्रकार की कही गयी है- <br />
#विरुद्धकार्यानुपलब्धि, <br />
#विरुद्धकारणानुपलब्धि और <br />
#विरुद्धस्वभावानुपलब्धि। <br />
*इस तरह माणिक्यनन्दि ने 6+6+7= 22 हेतुभेदों का सोदाहरण निरूपण किया है, परम्परा हेतुओं की भी उन्होंने संभावना करके उन्हें यथायोग्य उक्त हेतुओं में ही अन्तर्भाव करने का इंगित किया है। साथ ही उन्होंने अपने पूर्वज अकलंक की भांति कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर-इन नये हेतुओं को पृथक् मानने की आवश्यकता को भी सयुक्तिक बतलाया है।<br />
<br />
==आगम (श्रुत)==<br />
शब्द, संकेत, चेष्टा आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह आगम है। जैसे- 'मेरु आदिक है' शब्दों को सुनने के बाद सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है।<balloon title="परी.मु. 3-99, 100, 101" style=color:blue>*</balloon> शब्द श्रवणादि मतिज्ञान पूर्वक होने से यह ज्ञान (आगम) भी परोक्ष प्रमाण है। इस तरह से स्मृत्यादि पाँचों ज्ञान ज्ञानान्तरापेक्ष हैं। स्मरण में धारणा रूप अनुभव (मति), प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्ति स्मरण और आगम में शब्द, संकेतादि अपेक्षित हैं- उनके बिना उनकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अतएव ये और इस जाति के अन्य सापेक्ष ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं।<br />
==नय-विमर्श==<br />
नय-स्वरूप— अभिनव धर्मभूषण ने<balloon title="न्यायदीपिका, पृ. 5, संपादन डॉ. दरबारीलाल कोठिया, 1945" style=color:blue>*</balloon> न्याय का लक्षण करते हुए कहा है कि 'प्रमाण-नयात्मको न्याय:'- प्रमाण और नय न्याय हैं, क्योंकि इन दोनों के द्वारा पदार्थों का सम्यक् ज्ञान होता है। अपने इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आचार्य गृद्धपिच्छ के तत्त्वार्थसूत्र के, जिसे 'महाशास्त्र' कहा जाता है, उस सूत्र को प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रमाण और मय को जीवादि तत्त्वार्थों को जानने का उपाय बताया गया है और वह है- 'प्रमाणनयैरधिगम:<balloon title="तत्त्वार्थसूत्र, 1-6" style=color:blue>*</balloon>'। वस्तुत: जैन न्याय का भव्य प्रासाद इसी महत्त्वपूर्ण सूत्र के आधार पर निर्मित हुआ है। <br />
<br />
'''नय-भेद'''<br />
<br />
उपर्युक्त प्रकार से मूल नय दो हैं<balloon title="प्रमयरत्नमाला 6/74, पृ. 206, सं. 1928" style=color:blue>*</balloon>- <br />
#द्रव्यार्थिक और <br />
#पर्यायार्थिक। <br />
*इनमें द्रव्यार्थिक तीन प्रकार का हैं<balloon title=" प्रमयरत्नमाला, 6/74" style=color:blue>*</balloon>-<br />
#नैगम, <br />
#संग्रह, <br />
#व्यवहार। तथा <br />
*पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं<balloon title="प्रमयरत्नमाला, पृ. 207" style=color:blue>*</balloon>-<br />
#ऋजुसूत्र, <br />
#शब्द, <br />
#समभिरूढ़ और <br />
#एवम्भूत। <br />
<br />
'''नैगम नय'''<br />
जो धर्म और धर्मी में एक को प्रधान और एक को गौण करके प्ररूपण करता है वह नैगम नय है। जैसे जीव का गुण सुख है, ऐसा कहना। इसमें 'सुख' धर्म की प्रधानता और 'जीव' धर्मी की गौणता है अथवा यह सुखी जीव है, ऐसा कहना। इसमें 'जीव' धर्मी की प्रधानता है, क्योंकि वह विशेष्य है और 'सुख' धर्म गौण है, क्योंकि वह विशेषण है। इस नय का अन्य प्रकार से भी लक्षण किया गया है। जो भावी कार्य के संकल्प को बतलाता है वह नैगम नय है।<br />
<br />
'''संग्रह नय'''<br />
जो प्रतिपक्ष की अपेक्षा के साथ 'सन्मात्र' को ग्रहण करता है वह संग्रह नय है। जैसे 'सत्' कहने पर चेतन, अचेतन सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है, किन्तु सर्वथा 'सत्' कहने पर 'चेतन, अचेतन विशेषों का निषेध होने से वह संग्रहाभास है। विधिवाद इस कोटि में समाविष्ट होता है। <br />
<br />
'''व्यवहार नय'''<br />
संग्रहनय से ग्रहण किये 'सत्' में जो नय विधिपूर्वक यथायोग्य भेद करता है वह व्यवहारनय है। जैसे संग्रहनय से गृहीत 'सत्' द्रव्य हे या पर्याप्त है या गुण है। पर मात्र कल्पना से जो भेद करता है वह व्यवहारनयाभास है।<br />
<br />
'''ऋजुसूत्र नय''' <br />
भूत और भविष्यत पर्यायों को गौण कर केवल वर्तमान पर्याय को जो नय ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है। जैसे प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है। वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानना ऋजुसूत्रनय है, क्योंकि इसमें वस्तु में होने वाली भूत और भविष्यत की पर्यायों तथा उनके आधारभूत अन्वयी द्रव्य का लोप हो जाता है। <br />
<br />
'''शब्द नय''' <br />
<br />
जो काल, कारक और लिङ्ग के भेद से शब्द में कथं चित् अर्थभेद को बतलाता है वह शब्दनय है। जैसे 'नक्तं निशा' दोनों पर्यायावाची हैं, किन्तु दोनों में लिंग भेद होने के कथं चित् अर्थभेद है। 'नक्तं' शब्द नंपुसक लिंग है और 'निशा' शब्द स्त्रीलिंग है। 'शब्दभेदात् ध्रुवोऽर्थभेद:' यह नय कहता है। अर्थभेद को कथं चित् माने बिना शब्दों को सर्वथा नाना बतलाकर अर्थ भेद करना शब्दनयाभास हैं <br />
<br />
'''समभिरूढ़ नय'''<br />
<br />
जो पर्याय भेद पदार्थ का कथंचित् भेद निरूपित करता है वह समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्द पर्याय शब्द होने से उनके अर्थ में कथं चित् भेद बताना। पर्याय भेद माने बिना उनका स्वतंत्र रूप से कथन करना समभिरूढ नयाभास है।<balloon title="'तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्यम् श्रुतं पुन: स्वार्थं भवति परार्थं च। - सर्वार्थसिद्धि 1-6, भा. ज्ञा. संस्करण" style=color:blue>*</balloon>'<br />
<br />
'''एवंभूत नय'''<br />
<br />
जो क्रिया भेद से वस्तु के भेद का कथन करता है वह एवंभूत नय हैं जैसे पढ़ाते समय ही पाठक या अध्यापक अथवा पूजा करते समय ही पुजारी कहना। यह नय क्रिया पर निर्भर है। इसका विषय बहुत सूक्ष्म है। क्रिया की अपेक्षा न कर क्रिया वाचक शब्दों का कल्पनिक व्यवहार करना एवं भूतनयाभास है।<br />
==जैन दर्शन का उद्भव और विकास==<br />
'''उद्भव'''<br />
*आचार्य भूतबली और पुष्पदन्त द्वारा निबद्ध 'षट्खंडागम'* में, जो दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'अखंखेज्जा* 'जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तरी शैली को लिए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं।<br />
*'षट्खंडागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के 'पंचास्तिकाय', 'प्रवचनसार' आदि आर्ष ग्रन्थों में भी उनके कुछ और अधिक उद्गमबीज मिलते हैं।* 'सिय अत्थिणत्थि उहयं', 'जम्हा' जैसे युक्ति प्रवण वाक्यों एवं शब्द प्रयोगों द्वारा उनमें प्रश्नोत्तर पूर्वक विषयों को दृढ़ किया गया है। <br />
'''विकास'''<br />
<br />
काल की दृष्टि से उनके विकास को तीन कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है और उन कालखंडों के नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :-<br />
*आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल (ई॰ 200 से ई॰ 650)।<br />
*मध्यकाल अथवा अकलंक-काल (ई॰ 650 से ई॰ 1050)।<br />
*उत्तरमध्ययुग (अन्त्यकाल) अथवा प्रभाचन्द्र-काल (ई॰ 1050 से 1700)। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन का उद्भव और विकास]]<br />
==जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ==<br />
आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय<br />
*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। <br />
<br />
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ]]<br />
==जैन दर्शन में अध्यात्म==<br />
'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। यह इसका व्युत्पत्ति अर्थ हे। यह जगत जैन दर्शन के अनुसार छह द्रव्यों के समुदायात्मक है। वे छह द्रव्य हैं-<br />
*जीव,<br />
*पुद्गल,<br />
*धर्म,<br />
*अधर्म,<br />
*आकाश और<br />
*काल। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन दर्शन में अध्यात्म]]<br />
==जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ==<br />
'''बीसवीं शती के जैन तार्किक'''<br />
<br />
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित दर्शन और न्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं। सन्तप्रवर न्यायचार्य पं॰ गणेशप्रसाद वर्णी न्यायचार्य, पं॰ माणिकचन्द्र कौन्देय, पं॰ सुखलाल संघवी, डा॰ पं॰ महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पं॰ कैलाश चन्द्र शास्त्री, पं॰ दलसुख भाइर मालवणिया एवं इस लेख के लेखक डा॰ पं॰ दरबारी लाला कोठिया न्यायाचार्य आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[जैन तार्किक और उनके न्यायग्रन्थ]]<br />
==त्रिभंगी टीका==<br />
#आस्रवत्रिभंगी, <br />
#बंधत्रिभंगी, <br />
#उदयत्रिभंगी और <br />
#सत्त्वत्रिभंगी-इन 4 त्रिभंगियों को संकलित कर टीकाकार ने इन पर [[संस्कृत]] में टीका की है। <br />
*आस्रवत्रिभंगी 63 गाथा प्रमाण है। <br />
*इसके रचयिता श्रुतमुनि हैं। <br />
*बंधत्रिभंगी 44 गाथा प्रमाण है तथा उसके कर्ता नेमिचन्द शिष्य माधवचन्द्र हैं। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[त्रिभंगी टीका]]<br />
==पंचसंग्रह टीका==<br />
मूल पंचसंग्रह नामक यह मूलग्रन्थ [[प्राकृत]] भाषा में है। इस पर तीन [[संस्कृत]]-टीकाएँ हैं। <br />
#श्रीपालसुत डड्ढा विरचित पंचसंग्रह टीका, <br />
#आचार्य अमितगति रचित संस्कृत-पंचसंग्रह, <br />
#सुमतकीर्तिकृत संस्कृत-पंचसंग्रह। <br />
*पहली टीका दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत-अनुष्टुपों में परिवर्तित रूप है। इसकी श्लोक संख्या 1243 है। कहीं कहीं कुछ गद्यभाग भी पाया जाता है, जो लगभग 700 श्लोक प्रमाण है। इस तरह यह लगभग 2000 श्लोक प्रमाण है। यह 5 प्रकरणों का संग्रह है। वे 5 प्रकरण निम्न प्रकार हैं- <br />
#जीवसमास, <br />
#प्रकृतिसमुत्कीर्तन, <br />
#कर्मस्तव, <br />
#शतक और <br />
#सप्ततिका। <br />
*इसी तरह अन्य दोनों संस्कृत टीकाओं में भी समान वर्णन है। <br />
*विशेष यह है कि आचार्य अमितगति कृत पंचसंग्रह का परिमाण लगभग 2500 श्लोक प्रमाण है। तथा सुमतकीर्ति कृत पंचसंग्रह अति सरल व स्पष्ट है। <br />
*इस तरह ये तीनों टीकाएँ संस्कृत में लिखी गई हैं और समान होने पर भी उनमें अपनी अपनी विशेषताएँ पाई जाती हैं। <br />
*कर्म साहित्य के विशेषज्ञों को इन टीकाओं का भी अध्ययन करना चाहिए। आगे विस्तार में पढ़ें:- [[पंचसंग्रह टीका]]<br />
==मन्द्रप्रबोधिनी==<br />
*शौरसेनी [[प्राकृत|प्राकृत भाषा]] में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की [[संस्कृत भाषा]] में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है। <br />
*गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं- <br />
#एक जीवकाण्ड और <br />
#दूसरा कर्मकाण्ड। <br />
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं- <br />
#[[गोम्मट पंजिका]], <br />
#मन्दप्रबोधिनी, <br />
#कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका, <br />
#संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है। <br />
आगे विस्तार में पढ़ें:- [[मन्द्रप्रबोधिनी]]<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{दर्शन शास्त्र}}<br />
{{जैन धर्म}}<br />
<br />
[[en:jain Philosophy]]<br />
[[Category: कोश]]<br />
[[Category:दर्शन]]<br />
[[Category:जैन]] <br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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साँचा वार्ता:व्रत और उत्सव
2011-10-25T11:44:27Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: '{{वार्ता}}' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>{{वार्ता}}</div>
फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Ganesh.jpg
2011-10-24T07:15:25Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Kanishk.jpg
2011-10-24T06:45:24Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: &quot;चित्र:Kanishk.jpg&quot; का नया अवतरण अपलोड किया</p>
<hr />
<div>{{Image Info|[[शक-कुषाण काल|कुषाण]] सम्राट महाराज राजतिराज देवपुत्र [[कनिष्क]]<br />
Great Emperor Kanishka Greatest of the Kushana Monarchs||वर्ष - 2008<br /> Year - 2008||[[ब्रज डिस्कवरी:कॉपीराइट|© brajdiscovery.org]]||[[माँट]], [[मथुरा]]<br />Mat, Mathura|ई॰ प्रथती शती<br />C. 1st Cent. A.D.|[[संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]], मथुरा<br />Govt. Museum, Mathura||||.<br />
}}<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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विनायक चतुर्थी
2011-07-13T08:15:28Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
*भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित [[हिन्दू धर्म]] का एक व्रत संस्कार है। <br />
*यह व्रत [[चतुर्थी]] को करना चाहिए। <br />
*इस दिन कर्ता तिल का भोजन दान करता है और स्वयं रात्रि में तिल का जल ग्रहण करता है।<br />
*यह दो वर्षों तक करना चाहिए। <br />
*कृत्यकल्पतरु और हेमाद्रि<ref>कृत्यकल्पतरु(व्रतखण्ड 79, [[भविष्य पुराण]] 1|22|1-2 का उद्धरण); हेमाद्रि (व्रतखण्ड 1, 519-520)</ref> ने इसे [[गणेश चतुर्थी|गणपति चतुर्थी]] कहा है।<ref>धर्मशास्त्र खण्ड 4, गणेश चतुर्थी (गत अध्याय 8)</ref><br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पर्व और त्योहार}}<br />
{{व्रत और उत्सव}}<br />
[[Category:व्रत और उत्सव]]<br />
[[Category:पर्व और त्योहार]][[Category:कोश]]<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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विनायक चतुर्थी
2011-07-13T08:13:41Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: नया पन्ना: {{menu}} ==पन्ना शीर्षक / Page Heading== *भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प…</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==पन्ना शीर्षक / Page Heading==<br />
*भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित [[हिन्दू धर्म]] का एक व्रत संस्कार है। <br />
*यह व्रत [[चतुर्थी]] को करना चाहिए। <br />
*इस दिन कर्ता तिल का भोजन दान करता है और स्वयं रात्रि में तिल का जल ग्रहण करता है।<br />
*यह दो वर्षों तक करना चाहिए। <br />
*कृत्यकल्पतरु और हेमाद्रि<ref>कृत्यकल्पतरु(व्रतखण्ड 79, [[भविष्य पुराण]] 1|22|1-2 का उद्धरण); हेमाद्रि (व्रतखण्ड 1, 519-520)</ref> ने इसे [[गणेश चतुर्थी|गणपति चतुर्थी]] कहा है।<ref>धर्मशास्त्र खण्ड 4, गणेश चतुर्थी (गत अध्याय 8)</ref><br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पर्व और त्योहार}}<br />
{{व्रत और उत्सव}}<br />
[[Category:व्रत और उत्सव]]<br />
[[Category:पर्व और त्योहार]][[Category:कोश]]<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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राधा स्नेह बिहारी
2011-07-04T05:12:38Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==राधा स्नेह बिहारी मन्दिर / Radha Snehi Bihari Temple==<br />
[[चित्र:Radhasnehbihari.jpg|राधा स्नेह बिहारी मन्दिर, [[वृन्दावन]]|thumb]]<br />
*यह मंदिर [[वृन्दावन]] में हरिदास - सम्प्रदाय के अंतर्गत अपना विशिष्ट स्थान रखता है। <br />
*आज से लगभग ढाई सो वर्ष पूर्व इस स्थान पर एक छोटा सा मंदिर था जिसका निर्माण हरिदासीय - गृहस्थ परम्परा के आचार्य श्री स्नेही लाल जी गोस्वामी ने कराया था। <br />
*श्री स्नेही लाल जी श्री बांके बिहारी जी महाराज के शयनभोग सेवाधिकारी थे एवं स्वामी श्री [[हरिदास|हरिदासजी]] महाराज से दसवीं पीढ़ी पर विद्यमान थे। <br />
* आप श्री [[बांके बिहारी मन्दिर|बांके बिहारी जी]] महाराज के परम रसिक अनन्य भक्त थे। <br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
*[http://www.mridulgauravwani.in mridulgauravwani]<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{ब्रज के दर्शनीय स्थल}}<br />
[[Category:दर्शनीय-स्थल]]<br />
[[Category:प्राचीन मन्दिर]]<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:दर्शनीय-स्थल कोश]]<br />
<br />
__INDEX__<br />
[[en:Banke Bihari Temple]]</div>
फ़ौज़िया ख़ान
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Jetavana-Sravasti-1.jpg&diff=65848
चित्र:Jetavana-Sravasti-1.jpg
2011-04-22T10:12:02Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=जेतवन, [[श्रावस्ती]] <br />Jetavana, Sravasti<br />
|चित्रांकन=[http://www.flickr.com/people/bodhithaj/ Bo Jayatilaka]<br />
|दिनांक=<br />
|स्रोत=www.flickr.com<br />
|प्रयोग अनुमति=<br />
|चित्रकार=<br />
|उपलब्ध=[http://www.flickr.com/photos/bodhithaj/360590780/ Jetavana]<br />
|प्राप्ति स्थान=<br />
|समय-काल=<br />
|संग्रहालय क्रम संख्या=<br />
|आभार=[http://www.flickr.com/photos/bodhithaj/ bodhithaj's photostream]<br />
|आकार=<br />
|अन्य विवरण=भारत के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के गोंडा-बहराइच ज़िलों की सीमा पर यह [[बौद्ध]] तीर्थ स्थान है। गोंडा-बलरामपुर से 12 मील पश्चिम में आधुनिक सहेत-महेत गांव ही श्रावस्ती है। पहले यह [[कौशल]] देश की दूसरी राजधानी थी, भगवान [[राम]] के पुत्र [[लव कुश|लव]] ने इसे अपनी राजधानी बनाया था, श्रावस्ती बौद्ध [[जैन]] दोनों का तीर्थ स्थान है, [[बुद्ध|तथागत]] श्रावस्ती में रहे थे, यहाँ के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने भगवान [[गौतम बुद्ध|बुद्ध]] के लिये जेतवन बिहार बनवाया था, आजकल यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर है।<br />
}}<br />
<br />
{{CCL<br />
|Attribution={{Attribution}}<br />
|Noncommercial={{Noncommercial}}<br />
|Share Alike=<br />
|No Derivative Works= <br />
}}<br />
__INDEX__</div>
फ़ौज़िया ख़ान
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80&diff=65847
श्रावस्ती
2011-04-22T10:11:51Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==श्रावस्ती / Shravasti==<br />
[[चित्र:Jain-Temple-Sravasti.jpg|thumb|250px|प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष, श्रावस्ती]]<br />
भारत के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के गोंडा-बहराइच जिलों की सीमा पर यह [[बौद्ध]] तीर्थ स्थान है। गोंडा-बलरामपुर से 12 मील पश्चिम में आधुनिक सहेत-महेत गांव ही श्रावस्ती है। पहले यह [[कौशल]] देश की दूसरी राजधानी थी, भगवान [[राम]] के पुत्र [[लव]] ने इसे अपनी राजधानी बनाया था, श्रावस्ती बौद्ध [[जैन]] दोनों का तीर्थ स्थान है, [[बुद्ध|तथागत]] श्रावस्ती में रहे थे, यहाँ के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने भगवान [[गौतम बुद्ध|बुद्ध]] के लिये जेतवन बिहार बनवाया था, आजकल यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर है।<br />
<br />
==प्राचीन नगर==<br />
{{tocright}}<br />
यह [[कौशल|कोसल]]-जनपद का एक प्रमुख नगर था। वहाँ का दूसरा प्रसिद्ध नगर [[अयोध्या]] था। श्रावस्ती नगर अचिरावती नदी के तट पर बसा था, जिसकी पहचान आधुनिक राप्ती नदी से की जाती है। इस सरिता के तट पर स्थित आज का सहेट-महेट प्राचीन श्रावस्ती का प्रतिनिधि है। इस नगर का यह नाम क्यों पड़ा, इस संबन्ध में कई तरह के वर्णन मिलते हैं। [[बौद्ध धर्म]] -ग्रन्थों के अनुसार इस समृद्ध नगर में दैनिक जीवन मं काम आने वाली सभी छोटी-बड़ी चीजें बहुतायत में बड़ी सुविधा से मिल जाती थीं, अतएव इसका यह नाम पड़ गया था।<br />
[[चित्र:Jetavana-Sravasti.jpg|thumb|250px|left|जेतवन, श्रावस्ती<br />Jetavana, Sravasti]] <br />
==नाम की उत्पत्ति==<br />
बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर के नाम की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य उल्लेख भी मिलता है। इनके अनुसार सवत्थ (श्रावस्त) नामक एक ऋषि यहाँ पर रहते थे, जिनकी बड़ी ऊँची प्रतिष्ठा थी। इन्हीं के नाम के आधार पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पड़ गया था। [[पाणिनि]] ने, जिनका समय आज से नहीं कुछ तो चौबीस या पचीस सौ साल पहले था, अपने प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ '[[अष्टाध्यायी]]' में साफ लिखा है कि स्थानों के नाम वहाँ रहने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम के आधार पर पड़ जाते थे। [[महाभारत]] के अनुसार श्रावस्ती के नाम की उत्पत्ति का कारण कुछ दूसरा ही था। श्रावस्त नामक एक राजा हुये जो कि [[पृथु]] की छठीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये थे। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। [[पुराण|पुराणों]] में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामणिक मानना उचित बात होगी। बाद में चल कर कोसल की राजधानी, अयोध्या से हटाकर श्रावस्ती ला दी गई थी और यही नगर कोसल का सबसे प्रमुख नगर बन गया। एक [[बौद्ध]] ग्रन्थ के अनुसार वहाँ 57 हज़ार कुल रहते थे और कोसल-नरेशों की आमदनी सबसे ज़्यादा इसी नगर से हुआ करती थी। [[बुद्ध|गौतम बुद्ध]] के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना हुआ करती थी। यह चौड़ी और गहरी खाई से घिरा हुआ था। इसके अतिरिक्त इसके इर्द-गिर्द एक सुरक्षा-दीवाल भी थी, जिसमें हर दिशा में दरवाजे बने हुये थे। हमारी प्राचीन कला में श्रावस्ती के दरवाजों का अंकन हुआ है। उससे ज्ञात होता है कि वे काफ़ी चौड़े थे और उनसे कई बड़ी सवारियाँ एक ही साथ बाहर निकल सकती थीं। कोसल के नरेश बहुत सज-धज कर बड़ी हाथियों की पीठ पर कसे हुये चाँदी या सोने के हौदों में बैठ कर बड़े ही शान के साथ बाहर निकला करते थे। चीनी यात्री [[फ़ाह्यान|फाहियान]] और [[हुएन-सांग|हुयेनसांग]] ने भी श्रावस्ती के दरवाजों का उल्लेख किया है।<br />
==नगर का विकास== <br />
[[चित्र:Stupas-Jetavana.jpg|thumb|250px|स्तूप, जेतवन, श्रावस्ती]]<br />
हमारे कुछ पुराने ग्रन्थों के अनुसार कोसल का यह प्रधान नगर सर्वदा रमणीक, दर्शनीय, मनोरम और धनधान्य से संपन्न था। इसमें सभी तरह के उपकरण मौजूद थे। इसको देखने से लगता था, मानों देवपुरी अकलनन्दा ही साक्षात धरातल पर उतर आई हो। नगर की सड़कें चौड़ी थीं और इन पर बड़ी सवारियाँ भली भाँति आ सकती थीं नागरिक श्रृंगार-प्रेमी थे। वे हाथी, घोड़े और पालकी पर सवार होकर राजमार्गों पर निकला करते थे। इसमें राजकीय कोष्ठागार (कोठार) बने हुये थे जिनमें घी, तेल और खाने-पीने की चीजें प्रभूत मात्रा में एकत्र कर ली गई थीं। <br />
वहाँ के नागरिक गौतम [[बुद्ध]] के बहुत बड़े भक्त थे। 'मिलिन्दप्रश्न' नामक ग्रन्थ में चढ़ाव-बढ़ाव के साथ कहा गया है कि इसमें भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ थी। इसके अलावा वहाँ के तीन लाख सत्तावन हज़ार गृहस्थ बौद्ध धर्म को मानते थे। इस नगर में जेतवन नाम का एक उद्यान था जिसे वहाँ के जेत नामक राजकुमार ने आरोपित किया था। इस नगर का अनाथपिण्डिक नामक सेठ जो बुद्ध का प्रिय शिष्य था, इस उद्यान के शान्तिमय वातावरण से बड़ा प्रभावित था। उसने इसे ख़रीद कर बौद्ध संघ को दान कर दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में कथा आती है कि इस पूँजीपति ने जेतवन को उतनी ही मुद्राओं में ख़रीदी थीं जितनी की बिछाने पर इसकी पूरी फर्श को भली प्रकार ढक देती थीं। उसने इसके भीतर एक मठ भी बनवा दिया जो कि श्रावस्ती आने पर बुद्ध का विश्रामगृह हुआ करता था। इसे लोग 'कोसल मन्दिर' भी कहते थे। अनाथपिंडिक ने जेतवन के भीतर कुछ और भी मठ बनवा दिये जिनमें भिक्षु लोग रहते थे। इनमें प्रत्येक के निर्माण में एक लाख मुद्रायें ख़र्च हुई थीं। इसके अतिरिक्त उसने कूएँ, तालाब और चबूतरे आदि का भी वहाँ निर्माण करा दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि जेतवन में रहने वाले भिक्षु सुबह और शाम राप्ती नदी में नहाने के लिये आते थे। लगता है कि यह उद्यान इसके तट के समीप ही कहीं स्थित था। अनाथपिंडिक ने अपने जीवन की सारी कमाई बौद्ध संघ के हित में लगा दी थी। उसके घर पर श्रमणों को बहुसंख्या में प्रति दिन यथेष्ट भोजन कराया जाता था। गौतम बुद्ध के प्रति श्रद्धा के कारण श्रावस्ती नरेशों ने इस नगर में दानगृह बनवा रखा था, जहाँ पर भिक्षुओं को भोजन मिलता था। <br />
[[चित्र:Jetavana-Sravasti-2.jpg|thumb|250px|left|जेतवन, श्रावस्ती<br />Jetavana, Sravasti]]<br />
==अन्य प्रसिद्ध स्थान==<br />
इस नगर के अन्य प्रसिद्ध स्थानों में पूर्वाराम और मल्लिकाराम उल्लेखनीय हैं। पूर्वाराम का निर्माण नगर के धनिक सेठ मृगधर की पुत्रवधु विशाखा के द्वारा कराया गया था। यह नगर के पूर्वी दरवाजे के पास बना था। संभवत: इसीलिये इसका नाम पूर्वाराम (अर्थात पूरबी मठ) पड़ा। यह दो मंज़िला भवन था, जिसमें मजबूती लाने के लिये पत्थरों की चुनाई की गई थी। लगता है कि मल्लिकाराम इससे बड़ा विश्राम-भवन था, जिसमें ऊपर और नीचे कई कमरे थे। इसका निर्माण श्रावस्ती की मल्लिका नाम की साम्राज्ञी के द्वारा कराया गया था। नगरों में आने वाले बौद्ध परिब्राजक, निर्ग्रन्थ, [[जैन]] साधु-संन्यासी और नाना धर्मों के अनुयायियों के विश्राम तथा भोजन-वस्त्र की पूरी सुख-सुविधा थी। गौतम बुद्ध के प्रिय शिष्य [[आनन्द]], सारिपुत्र, मौद्गल्यायन तथा [[महाकाच्यायन|महाकाश्यप]] आदि ने भी वहाँ के नागरिकों को अपने सदुपदेशों से प्रभावित किया था। उनकी अस्थियों के ऊपर यहाँ स्तूप बने हुये थे। अशोक धर्म-यात्रा के प्रसंग में श्रावस्ती आया हुआ था। उसने इन स्तूपों पर भी पूजा चढ़ाई थी।<br />
==जैन धर्म== <br />
[[चित्र:Jetavana-Sravasti-1.jpg|thumb|250px|जेतवन, श्रावस्ती<br />Jetavana, Sravasti]]<br />
इस नगर में [[जैन]] मतावलंबी भी रहते थे। इस धर्म के प्रवर्तक [[महावीर]] स्वामी वहाँ कई बार आ चुके थे। नागरिकों ने उनका दिल खोल कर स्वागत किया और अनेक उनके अनुयायी बन गये। वहाँ पर ब्राह्मण मतावलंबी भी मौजूद थे। [[वेद|वेदों]] का पाठ और यज्ञों का अनुष्ठान आदि इस नगर में चलता रहता था। मल्लिकाराम में सैकड़ों ब्राह्मण साधु धार्मिक विषयों पर वादविवाद में संलग्न रहा करते थे। विशेषता यह थी कि वहाँ के विभिन्न धर्मानुयायियों में किसी तरह के सांप्रदायिक झगड़े नहीं थे।<br />
---- <br />
लगता है कि जैसे-जैसे कोसल-साम्राज्य का अध:पतन होने लगा, वैसे-वैसे श्रावस्ती की भी समृद्धि घटने लगी। जिस समय चीनी यात्री [[फ़ाह्यान|फाहियान]] वहाँ पहुँचा, उस समय वहाँ के नागरिकों की संख्या पहले की समता में कम रह गई थी। अब कुल मिला कर केवल दो सौ परिवार ही वहाँ रह गये थे। पूर्वाराम, मल्लिकाराम और जेतवन के मठ खंडहर को प्राप्त होने लगे थे। उनकी दशा को देखकर वह दुखी हो गया। उसने लिखा है कि श्रावस्ती में जो नागरिक रह गये थे, वे बड़े ही अतिथि-परायण और दानी थे। [[हुएन-सांग|हुयेनसांग]] के आगमन के समय यह नगर उजड़ चुका था। चारों ओर खंडहर ही दिखाई दे रहे थे। वह लिखता है कि यह नगर समृद्धिकाल में तीन मील के घेरे में बसा हुआ था। आज भी अगर आप को गोंडा ज़िले में स्थित सहेट-महेट जाने का अवसर मिले, तो वहाँ श्रावस्ती के विशाल खंडहरों को देख कर इसके पूर्वकालीन ऐश्वर्य का अनुमान आप लगा सकते हैं। <br />
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[[Category:कोश]] <br />
[[Category:पौराणिक स्थान]]<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Jetavana-Sravasti-1.jpg
2011-04-22T10:09:45Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Stupas-Jetavana.jpg
2011-04-22T10:08:55Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Stupas-Jetavana.jpg
2011-04-22T10:06:59Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Jain-Temple-Sravasti.jpg
2011-04-22T10:05:31Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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<div>{{चित्र सूचना<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Jetavana-Sravasti.jpg
2011-04-22T10:04:42Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Jetavana-Sravasti.jpg
2011-04-22T10:03:52Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Jetavana-Sravasti-2.jpg
2011-04-22T10:00:55Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
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|विवरण=जेतवन, [[श्रावस्ती]] <br />Jetavana, Sravasti<br />
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|अन्य विवरण=भारत के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के गोंडा-बहराइच ज़िलों की सीमा पर यह [[बौद्ध]] तीर्थ स्थान है। गोंडा-बलरामपुर से 12 मील पश्चिम में आधुनिक सहेत-महेत गांव ही श्रावस्ती है। पहले यह [[कौशल]] देश की दूसरी राजधानी थी, भगवान [[राम]] के पुत्र [[लव कुश|लव]] ने इसे अपनी राजधानी बनाया था, श्रावस्ती बौद्ध [[जैन]] दोनों का तीर्थ स्थान है, [[बुद्ध|तथागत]] श्रावस्ती में रहे थे, यहाँ के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने भगवान [[गौतम बुद्ध|बुद्ध]] के लिये जेतवन बिहार बनवाया था, आजकल यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर है।<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Jetavana-Sravasti-2.jpg
2011-04-22T09:53:39Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Jain-Temple-Sravasti.jpg
2011-04-21T09:50:04Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: "चित्र:Jain-Temple-Sravasti.jpg" का नया अवतरण अपलोड किया</p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Jain-Temple-Sravasti.jpg
2011-04-21T09:46:28Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: "चित्र:Jain-Temple-Sravasti.jpg" का नया अवतरण अपलोड किया</p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Jain-Temple-Sravasti.jpg
2011-04-21T09:38:42Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div></div>
फ़ौज़िया ख़ान
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कादम्बरी
2011-03-12T11:07:52Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{Menu}}<br />
==कादम्बरी / Kadambari==<br />
[[चित्र:Kadambari.jpg|thumb|कादम्बरी]]<br />
*'कादम्बरी' [[बाणभट्ट]] की अमर कृति है। <br />
*यह उनकी ही नहीं समस्त [[संस्कृत]] वाङमय की अनूठी गद्य-रचना है। <br />
*कादम्बरी की कथा एक जन्म से सम्बद्ध न होकर चन्द्रपीड तथा पुण्डीक के तीन जन्मों से सम्बद्ध है। <br />
*कादम्बरी की कथा दो भागों में विभक्त है- पूर्वभाग तथा उत्तरभाग। <br />
#पूर्वभाग बाणभट्ट की रचना है और <br />
#उत्तरभाग उनके पुत्र भूषणभट्ट (पुलिन्द भट्ट) की। <br />
*कादम्बरी 'कथा' है। बाण ने स्वयं प्रस्तावना के अन्त में-'धिया निवद्धेयमतिद्वयी कथा' कहकर इसे 'कथा' के रूप में स्पष्ट स्वीकार किया है। तीन जन्मों से सम्बद्ध कादम्बरी की कहानी रोचक शैली में लिखी गई है। <br />
*बाण को कादम्बरी-कथा लिखने की प्रेरणा गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' से प्राप्त हुई है। पैशाची भाषा में निबद्ध 'बृहत्कथा' का संस्कृत रूपान्तर 'कथा सरित्सागर' में आई हुई राजा सुमना की कथा और कादम्बरी की कथा में बहुत कुछ समानता मिलती है। अत: बाण ने कादम्बरी की मूल घटनाओं को बृहत्कथा से लिया हो और अपनी विलक्षण काव्य प्रतिभा से बृहत्कथा के निष्प्राण घटनाचक्रों और पात्रों में सजीवता लाकर उन्हें नवीन कलेवर दिया हो। कादम्बरी में बाण की सबसे अनूठी कल्पना जो प्रेम के अलौकिक स्वरूप और रहस्य का प्रतीक है- वह है नायिका द्वारा नायक की शरीर रक्षा करते हुए पुनर्मिलन की प्रतीक्षा करना। कादम्बरी कालिदास के आशाबन्ध और जननान्तर सौहृद के आदर्श की सजीव अवतारणा है। <br />
*कविक्रान्त द्रष्टा होता है। उसका काव्य मानव जीवन के परम लक्ष्य की ओर संकेत करता है। काव्य आत्मा रस है। रस स्वरूप आनन्द है। आनन्द की अनुभूति ही काव्य का परम प्रयोजन है। *बाणभट्ट 'कादम्बरी' के नायक और नायिका के प्रारंभिक लौकिक प्रेम को शापवश जन्मान्तर में समाप्त कर पुन: अलौकिक विशुद्ध प्रेमप्राप्ति द्वारा मानव के लिए आदर्श प्रेम का दिव्य संदेश देते हैं।<br />
[[en:Kadambari]]<br />
[[Category: कोश]]<br />
[[Category:विद्वान]]<br />
[[Category:साहित्य]]<br />
__INDEX__</div>
फ़ौज़िया ख़ान
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Kadambari.jpg&diff=65433
चित्र:Kadambari.jpg
2011-03-12T11:06:50Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[कादम्बरी]]<br />
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<br />
__INDEX__</div>
फ़ौज़िया ख़ान
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Kadambari.jpg&diff=65432
चित्र:Kadambari.jpg
2011-03-12T11:05:53Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div></div>
फ़ौज़िया ख़ान
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80&diff=65431
गीतावली
2011-03-12T10:30:25Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==गीतावली / [[:en:Geetavali|Geetavali]]==<br />
[[चित्र:Gitawali.jpg|thumb|गीतावली]]<br />
*गीतावली [[तुलसीदास]] की एक प्रमुख रचना है इसमें गीतों में [[राम]]-कथा कही गयी है अथवा यों कहना चाहिए कि राम-कथा सम्बन्धी जो गीत तुलसीदास ने समय-समय पर रचे, वे इस ग्रन्थ में संग्रहित हुए हैं । सम्पूर्ण रचना सात खण्डों में विभक्त है । काण्डों में कथा का विभाजन प्राय: उसी प्रकार हुआ है , जिस प्रकार '[[रामचरितमानस]]' में हुआ है ,किन्तु न इसमें कथा की कोई प्रस्तावना या भूमिका है और न 'मानस ' की भाँति इसमें उत्तरकाण्ड में अध्यात्मविवेचन । बीच-बीच में भी 'मानस' की भाँति आध्यात्मिक विषयों का उपदेश करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है । सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है । मुद्रित संग्रह में 328 पद हैं । <br />
*गीतावली का एक पूर्ववर्ती रूप भी प्राप्त हुआ है। जो इससे छोटा था। उसका नाम 'पदावली रामायण' था इसकी केवल एक प्रति प्राप्त हुई है और वह भी अत्यन्त खण्डित है । इसमें [[सुन्दर काण्ड वा॰ रा॰|सुन्दर]] और [[उत्तर काण्ड वा॰ रा॰|उत्तरकाण्डों]] के ही कुछ अंश बचे हैं और उत्तरकाण्ड का भी अन्तिम अंश न होने के कारण पुष्पिका नहीं रह गयी है । इस लिए प्रति की ठीक तिथि ज्ञात नहीं है <br />
*यह संग्रह वर्तमान से छोटा रहा होगा। यह इससे प्रकट है कि प्राप्त अंशो में वर्तमान संग्रह के अनेक पद बीच-बीच में नहीं है । यदि यह कहा जाय कि यह वर्तमान का कोई चयन होगा, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कभी-कभी छन्दों का क्रम भिन्न मिलता है । इसके अतिरिक्त इसके साथ की ही एक प्रति 'विनय पत्रिका' की प्राप्त हुई है -जिसका प्रति में ही 'राम गीतावली' नाम दिया हुआ है। वह भी 'विनयपत्रिका' का वर्तमान से छोटा पाठ देती है। इसलिए यह प्रकट है कि 'पदावली रामायण' का वह पाठ जो प्रस्तुत एक मात्र प्रति में मिलता है, 'गीतावली' का ही कोई पूर्व रूप रहा होगा।<br />
*'गीतावली' में कुछ पद <ref>(गीतावली, [[बाल काण्ड वा॰ रा॰|बालकाण्ड]],23,24,28)</ref> ऐसे भी हैं, जो '[[सूरसागर]]' में मिलते हैं । प्राय: यह कहा जाता है कि ये पद उसमें 'सूरसागर' से गये होंगे । [[सूरदास]], तुलसीदास से कुछ ज्येष्ठ थे , इसलिए कुछ आलोचक तो यह भी कहने में नहीं हिचकते कि इन्हे तुलसीदास ने ही 'गीतावली' में रख लिया होगा और जो इस सीमा तक नहीं जाना चाहते, वे कहते हैं कि तुलसी दास के भक्तों ने उनकी रचना को और पूर्ण बनाने के लिए यह किया होगा किन्तु एक बात इस सम्बन्ध में विचारणीय है । <br />
*'गीतावली' की प्रतियाँ कई दर्जन संख्या में प्राप्त हुई है और वे सभी आकार-प्रकार में सर्वथा एक -सी हैं और उन सबों में ये छन्द पाये जाते हैं ।<br />
*'सूरसागर' की जितनी प्रतियाँ मिलती हैं उनमें आकार-प्रकार भेद अधिक है । कुछ में केवल कुछ सौ पद हैं तो कुछ में कुछ हज़ार पद हैं, उनमें क्रम आदि में भी परस्पर काफ़ी वैभिन्न्य है और फिर 'सूरसागर' की सभी प्रतियों में ये पद पाये जाते हैं ,या नहीं, यह अभी तक देखा नहीं गया है । 'सूरसागर' के मुद्रित पाठ में अन्य अनेक ज्ञात कवियों-भक्तों के पद भी सम्मिलित मिलते हैं । ऐसी दशा में वास्तविकता तो उलटे यह ज्ञान पड़ती है कि ये पद तुलसीदास की ही 'गीतावली' के थे, जो अन्य कवियों-भक्तों की पदावली की भाँति 'सूरसागर' में सूरदास के प्रेमियों के द्वारा सम्मिलित कर लिये गये । तुलसीदास ने कुल लगभग सात सौ पदों की रचना की है और गीति शिल्प में वे किसी से पीछे नहीं हैं । ऐसी दशा में वे तीन पद 'गीतावली' में और तीन-चार पद 'कृष्ण गीतावली' में सूरदास या किसी अन्य कवि से लेकर क्यों रखते?<br />
*इसमें जो राम कथा आती है, वह प्राय: 'रामचरित मानस' के समान ही है, केवल कुछ विस्तारों में अन्तर है जो 'रामचरितमानस 'के पूर्व रचे ग्रन्थों में ही मिलते हैं,और कुछ ऐसे हैं जो कवि की किसी भी अन्य कृति में नहीं मिलते हैं । <br />
*प्रथम प्रकार के अन्तर निम्नलिखित हैं-<br />
#[[परशुराम]]-[[राम]]-मिलन [[मिथिला]] की स्वयंवर भूमि में न होकर बारात की वापसी में होता है और उसमें विवाद परशुराम-राम में ही होता है, [[लक्ष्मण]] से नहीं।<br />
#राम के राज्यारोहण के अनन्तर 'स्थान, यति, खग' के न्याय ,ब्राह्मण बालक के जीवन-दान, [[सीता]] के निर्वासन और [[लव कुश|लव-कुश]] जन्म की कथाएँ आती हैं इसी विस्तार में 'रामाज्ञा प्रश्न' भी है । <br />
*दूसरे प्रकार के अन्तर निम्नलिखित है-<br />
#स्वयंवर भूमि में जब [[विश्वामित्र]] राम को धनुष तोड़ने के लिए आज्ञा देते हैं, [[जनक]] राम के कृतकार्य होने के विषय में सन्देह प्रकट करते हैं इस प्रकार विश्वामित्र जनक के योग-वैराग्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि ऐसा वे राम के स्नेह के वश में होने के कारण समझते हैं और राम भी जनक के योग वैराग्य की उस सराहना का समर्थन करते हैं; जब इन सबके अनन्तर जनक की शंका का निवारण हो जाता है, 'गीतावली' में तब राम धनुष तोड़ने के लिए आगे बढ़ते हैं । <br />
#विश्वामित्र के साथ गये हुए राम-लक्ष्मण के विषय में माताएँ चिन्तित होती हैं। <br />
#वनवास की अवधि में [[कौशल्या|कौसल्या]] अनेक बार राम-विरह में व्यथित होती हैं । <br />
#राम [[जटायु]] के प्रति पितृ-स्नेह और [[शबरी]] के प्रति मातृ-स्नेह व्यक्त करते हैं । <br />
#[[रावण]] के द्वारा सीता के हरण की सूचना राम को देव-गण देते हैं । <br />
#[[हनुमान]] जब सीता को राम की मुद्रिका देते हैं और हनुमान से राम का कुशल पूछती हैं और मुद्रिका देती है । <br />
#रावण से अपमानित होकर [[विभीषण]] सीधे राम की शरण में नहीं जाता है। <br />
#युद्ध स्थल में लक्ष्मण के आहत होने का समाचार पाकर [[सुमित्रा]] हनुमान से अपने दूसरे पुत्र [[शत्रुघ्न]] को भी राम के राज्याभिषेक के अनन्तर दोलोत्सव, दीपमालिकोत्सव तथा बसन्तोत्सव आदि होते हैं, जिसमें अयोध्या का समस्त नर-नारी समाज निस्संकोच भाव से सम्मिलित होता है ।<br />
*'मानस' 'गीतावली' की तुलना में आकार-प्रकार से चौगुना है और प्रबन्धकाव्य हैं, फिर भी ये कथा-विस्तार से ज्ञात होता है कि 'गीतावली' के कुछ अंश 'मानस' के पूर्व की रचना अवश्य होंगे और इसी प्रकार उपर्युक्त दूसरे प्रकार के कथा-विस्तारों से ज्ञात होता है कि उसके अंश 'रामचरित मानस' के बाद की रचना होंगे । 'रामचरित मानस' के समान तो 'गीतावली' का अधिकांश है ही , जिसका यहाँ पर कोई, प्रमाण देना अनावश्यक होगा। इस प्रकार 'गीतावली' के पदों की रचना एक बहुत विस्तृत अवधि में हुई होगी । <br />
*'गीतावली' का तुलसीदास की रचनाओं में एक विशिष्ट स्थान है, जिस पर अभी तक यथेष्ट ध्यान नहीं दिया गया है । अनेक बातों में यह 'रामचरित मानस' के समान होते हुए भी गीतों के साँचे उसी की राम-कथा को ढाल देने का प्रयास मात्र नहीं है । यह एक प्रकार से 'मानस' का पूरक है । 'मानस' में जीवन के कोमल और मधुर-पक्षों को जैसे जान-बूझकर दबाया गया हो; 'मानस' में [[कौशल्या|कौसल्या]] [[राम]] को वन भेजकर केवल एक बार व्यथित दीख पड़ती है-वह है [[भरत]] के आगमन पर, किन्तु फिर पुत्र शोकातुरा कौसल्या के दर्शन नहीं होते। 'गीतावली' में तो अनेक बार वह राम विरह में धैर्य खोती चित्रित होती है; उसमें तो वह राम विरह में उन्माद-ग्रस्त हो चुकी हैं- <br /><br />
<blockquote>कबहु प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सबारे।<br /> <br />
उठहु तात बलि मातृ बदन पर अनुज सखा सब द्वारे॥<br /> <br />
कबहुँ कहति यों बड़ी बार भई जाहु भूप पहं भैया।<br /><br />
बन्धु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरी मैया॥<ref>गीतावली(अयो॰52)</ref></blockquote>आदि पदों में कौसल्या का जो चित्र अंकित किया गया है, वह 'मानस' में नहीं किया गया है और कदाचित जान-बूझकर नहीं किया गया है।<br />
*[[सीता]] के साथ राम की जिस 'माधुरी-विलास-हाल ' का चित्रण [[चित्रकूट]] की दिनचर्या में 'गीतावली' <ref>(गीतावली, अयो॰ पद 44)</ref> में हुआ है अथवा, उसके उत्तरकाण्ड में भोर में 'प्रिय प्रेम रस पागे' अलसाये हुए राम का जो चित्रण हुआ है <ref>गीतावली, उत्तर॰2)</ref>, और विभिन्न प्रसंगों में [[अयोध्या]] के नारी-समाज द्वारा राम के जिस सौन्दर्य-पान का वर्णन किया गया है <ref>गीतावली(उत्तर॰18-19 तथा 21-22)</ref> उनका एक भी समतुल्य 'मानस' में नहीं है । <br />
*'मानस' की रचना तुलसीदास ने सम्पूर्ण समाज के लिए की थी: 'सुर सरि सम सब कहै हित होई' यह भावना उनकी रचना के सीमाओं का कहीं भी अतिक्रमण नहीं होने दिया, जब कि 'गीतावली' के अधिकतर पदों की रचना उन्होंने सम्भवत: केवल भक्त और रसिक समुदाय के लिए की ,इसलिए इसमें हमें 'मानस' के [[तुलसीदास]] की अपेक्षा एक अधिक वास्तविक और हाड़-मांस के तुलसीदास के दर्शन होते हैं ।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
[[en:Geetavali]]<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:पद्य रचनाएँ]]<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Gitawali.jpg
2011-03-12T10:29:50Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[गीतावली]]<br />
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|प्राप्ति स्थान=<br />
|समय-काल=<br />
|संग्रहालय क्रम संख्या=<br />
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|आकार=<br />
|अन्य विवरण=गीतावली [[तुलसीदास]] की एक प्रमुख रचना है इसमें गीतों में [[राम]]-कथा कही गयी है अथवा यों कहना चाहिए कि राम-कथा सम्बन्धी जो गीत तुलसीदास ने समय-समय पर रचे, वे इस ग्रन्थ में संग्रहित हुए हैं । सम्पूर्ण रचना सात खण्डों में विभक्त है । काण्डों में कथा का विभाजन प्राय: उसी प्रकार हुआ है , जिस प्रकार '[[रामचरितमानस]]' में हुआ है ,किन्तु न इसमें कथा की कोई प्रस्तावना या भूमिका है और न 'मानस ' की भाँति इसमें उत्तरकाण्ड में अध्यात्मविवेचन । बीच-बीच में भी 'मानस' की भाँति आध्यात्मिक विषयों का उपदेश करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है । सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है । मुद्रित संग्रह में 328 पद हैं । <br />
}}<br />
{{nil}}<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Gitawali.jpg
2011-03-12T10:26:18Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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हर्षचरित
2011-03-12T10:11:36Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{Menu}}<br />
==हर्षचरित / Harshcharit== <br />
[[चित्र:Harshacharita.jpg|thumb|हर्षचरित]]<br />
*'हर्षचरित' [[बाणभट्ट]] का ऐतिहासिक महाकाव्य है। बाण ने इसे आख्यायिका कहा है<balloon title="'करोम्याख्यायिम्भोधौ जिह्वाप्लवनचापलम्''" style=color:blue>*</balloon>। <br />
*आठ उच्छवासों में विभक्त इस आख्यायिका में बाणभट्ट ने स्थाण्वीश्वर के महाराज [[हर्षवर्धन]] के जीवन-चरित का वर्णन किया है। <br />
*आरंभिक तीन उच्छवासों में बाण ने अपने वंश तथा अपने जीवनवृत्त सविस्तार वर्णित किया है। <br />
*हर्षचरित की वास्तविक कथा चतुर्थ उच्छवास से आरम्भ होती है। <br />
*इसमें हर्षवर्धन के वंश प्रवर्तक पुष्पभूति से लेकर सम्राट हर्षवर्धन के ऊर्जस्व चरित्र का उदात्त वर्णन किया गया है। <br />
*'हर्षचरित' में ऐतिहासिक विषय पर गद्यकाव्य लिखने का प्रथम प्रयास है। <br />
*इस ऐतिहासिक काव्य की भाषा पूर्णत: कवित्वमय है। <br />
*'हर्षचरित' शुष्क घटना प्रधान इतिहास नहीं, प्रत्युत विशुद्ध काव्यशैली में उपन्यस्त वर्णनप्रधान काव्य है। <br />
*बाण ने ओज गुण और अलंकारों का सन्निवेश कर एक प्रौढ़ गद्यकाव्य का स्वरूप प्रदान किया है। <br />
*इसमें वीररस ही प्रधान है। करुणरस का भी यथास्थान सन्निवेश किया गया है। <br />
*'हर्षचरित' तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों, सांस्कृतिक परिवेशों और धार्मिक मान्यताओं पर प्रकाश डालता है। <br />
*अत: ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह महनीय ग्रन्थरत्न काव्य सौन्दर्य, अद्भुत वर्णन चातुर्य के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध कृति है। <br />
<br />
<br />
[[en:Harshcharit]]<br />
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[[Category:विद्वान]]<br />
[[Category:साहित्य]]<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Harshacharita.jpg
2011-03-12T10:09:55Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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<div>{{चित्र सूचना<br />
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|संग्रहालय क्रम संख्या=<br />
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|आकार=<br />
|अन्य विवरण=सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में [[संस्कृत]] गद्य साहित्य के विद्धान सम्राट [[हर्षवर्धन|हर्ष]] के राजकवि [[बाणभट्ट]] द्वारा रचित इस ग्रंथ से हर्ष के जीवन एवं हर्ष के समय में [[भारत]] के इतिहास पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है। 'हर्षचरित' [[बाणभट्ट]] का ऐतिहासिक महाकाव्य है। <br />
}}<br />
{{nil}}<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Harshacharita.jpg
2011-03-12T10:08:28Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
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फ़ौज़िया ख़ान
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रघुवंश
2011-03-12T10:01:36Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==रघुवंश / Raghuvansh==<br />
[[चित्र:Raghuvansh.jpg|thumb|रघुवंश]]<br />
रघुवंश [[कालिदास]] रचित महाकाव्य है। इसमें उन्नीस सर्ग हैं जिनमें [[रघु वंश|रघुकुल]] के इतिहास का वर्णन किया गया है। महाराज रघु के प्रताप से उनके कुल का नाम रघुकुल पड़ा। रघुकुल में ही [[राम]] का जन्म हुआ था। रघुवंश के अनुसार दिलीप रघुकुल के प्रथम राजा थे जिनके पुत्र [[रघु]] द्वितीय राजा थे। उन्नीस सर्गों में कालिदास ने राजा दिलीप, उनके पुत्र रघु, रघु के पुत्र अज, अज के पुत्र [[दशरथ]], दशरथ के पुत्र राम तथा राम के पुत्र [[लव कुश|लव]] और [[लव कुश|कुश]] के चरित्रों का वर्णन किया है। कुमार सम्भव और अभिज्ञान शाकुन्तलम् कालिदास की अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं।<br />
<br />
[[Category: कोश]]<br />
[[Category: साहित्य]]<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Raghuvansh.jpg
2011-03-12T06:47:46Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Raghuvansh.jpg
2011-03-12T06:29:09Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 10.jpg
2011-03-03T13:10:33Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 1.jpg
2011-03-03T13:05:03Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
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}}<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 2.jpg
2011-03-03T13:04:55Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 3.jpg
2011-03-03T12:59:56Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 5.jpg
2011-03-03T12:59:47Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 6.jpg
2011-03-03T12:50:44Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 7.jpg
2011-03-03T12:50:33Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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चित्र:Krishna Janm Bhumi Holi Mathura 9.jpg
2011-03-03T12:41:54Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[होली]], [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]<br />Holi, Krishna Janm Bhumi, Mathura<br />
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ईद-उल-फ़ितर
2011-01-26T08:09:55Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==ईद-उल-फ़ितर / Eid ul-Fitr== <br />
[[चित्र:Eid-ul fitr.jpg|thumb|250px|ईद पर नमाज़ पढ़ते लोग]]<br />
*ईद-उल-फ़ितर मुसलमानों का पवित्र त्योहार है।<br />
*[[रमज़ान]] के पूरे महीने में मुसलमान रोज़े रखकर अर्थात भूखे-प्यासे रहकर पूरा महीना अल्लाह की इबादत में गुज़ार देते हैं। इस पूरे महीने को अल्लाह की इबादत में गुज़ार कर जब वे रोज़ों से फ़ारिग हो जाते हैं तो चांद की पहली तारीख़ अर्थात जिस दिन चांद दिखाई देता है, उस रोज़ को छोड़कर दूसरे दिन ईद का त्योहार अर्थात ‘बहुत ख़ुशी का दिन’ मनाया जाता है। इस ख़ुशी के दिन को ईद-उल-फ़ितर कहते हैं।<br />
*ईद का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन मुसलमान किसी पाक साफ़ जगह पर जिसे 'ईदगाह' कहते हैं, वहां इकट्ठे होकर दो रक्आत नमाज़ शुक्राने की अदा करते हैं। 'ए अल्लाह, आपका शुक्रिया कि आपने हमारी इबादत कबूल की।' इसके शुक्राने में हम दो रक्आत ईद की नमाज पढ़ रहे हैं। आप इसे क़बूल भी करें। ईद की नमाज़ का हुक्म भी अल्लाह तआला की तरफ से है।<br />
*ईदगाह में नमाज़ पढ़ने के लिए जाने से मुसलमान लोग 'फ़ितरा' अर्थात 'जान व माल का सदक़ा' जो हर मुसलमान पर फ़र्ज होता है, वह ग़रीबों में बांटा जाता है। सदक़ा अल्लाह ने ग़रीबों की इमदाद का एक तरीक़ा सिखा दिया है। ग़रीब आदमी भी इस इमदाद से साफ़ और नये कपड़े पहनकर और अपना मनपसन्द खाना खाकर अपनी ईद मना सकते हैं। अमीर-ग़रीब एक साथ मिलकर नमाज़ पढ़ सकते हैं।<br />
[[चित्र:Eid-ul fitr-2.jpg|thumb|ईद पर नमाज़ पढ़ते लोग]]<br />
[[चित्र:Fenni-mathura.jpg|thumb|left|220px|फ़ेनी बनती हुई]]<br />
'''रोज़ा क्या है?'''<br />
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क़ुरान शरीफ़ के शब्दों में 'ए ईमान वालो, हमने तुम पर रोज़े पाक कर दिये हैं, जैसा कि तुमने पिछली उम्मतों (अनुयायियों) पर फ़र्ज किए थे ताकि तुम मुत्तफ़िक़ अर्थात फ़रमाबरदार बन जाओ। यह गिनती के चन्द दिन हैं अगर तुम में से कोई मरीज़ है या सफ़र में है, तो उस वक़्त रोज़े छोड़कर ईद के बाद में अपने रोज़े पूरे कर सकता है। रमज़ान के पूरे महीने में मुसलमान भूखे-प्यासे रहकर और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखकर अल्लाह की इबादत करते हैं। वह [[शब-ए-बरात|शबे-क़द्र]] की रात को सारी रात जाग कर अल्लाह की इबादत करते हैं।<br />
<br />
'''रमज़ान क्या है?'''<br />
<br />
रमज़ान महीने का नाम है, जिस प्रकार हिन्दी महीने चैत, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, [[सावन]], भाद्र पद, आश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ, फाल्गुन होते हैं और अंग्रेज़ी महीने जनवरी, फ़रवरी, मार्च, अप्रेल, मई, जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर, अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर होते हैं । उसी प्रकार, मुस्लिम महीने, मोहर्रम, सफ़र, रबीउल अव्वल, रबीउलसानी, जुमादलऊला, जुमादल उख़्र, रजब, शाबान, रमज़ान, शव्वाल, द्हू अल-क़िदाह, द्हू अल-हिज्जाह ये बारह महीने आते हैं।<br />
<br />
रमज़ान के महीने में अल्लाह की तरफ़ से हज़रत मोहम्मद साहब सल्लहो अलहै व सल्लम पर क़ुरान शरीफ़ नाज़िल (उतरा) था। इस महीने की बरकत में अल्लाह ने बताया कि इसमें मेरे बंदे मेरी इबादत करें। इस महीने के आख़री दस दिनों में एक रात ऐसी है जिसे शबे-क़द्र कहते हैं। 21, 23, 25, 27, 29 वें में शबे-क़द्र को तलाश करते हैं। यह रात हज़ार महीने की इबादत करने से भी अधिक बेहतर होती है। शबे-क़द्र का अर्थ है, वह रात जिसकी क़द्र की जाए। यह रात जाग कर अल्लाह की इबादत में गुज़ार दी जाती है।<br />
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==सम्बंधित लिंक==<br />
{{साँचा:पर्व और त्योहार}}<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:पर्व और त्योहार]]<br />
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फ़ौज़िया ख़ान
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शब-ए-बरात
2011-01-26T08:09:30Z
<p>फ़ौज़िया ख़ान: </p>
<hr />
<div>[[चित्र:Woman-praying.jpg|thumb|250px|[[नमाज़]] पढ़ती महिला]]<br />
शब-ए-बरात (इस्लामिक कैलेंडर में आठवें माह 'शाबान' की 14 तारीख) यानी वह रात जब अपने उन नाते-रिश्तेदारों की रूह के सुकून के लिए दुआ माँगी जाती है जो इस दुनिया में नहीं है। शब-ए-बरात अरबी के दो शब्दों के मेल से बना है, शब अर्थात रात्रि और बरात अर्थात निजात। शब-ए-बरात का दूसरा नाम 'लैलतुल बरात' भी है, जिसका अर्थ भी मगफ़िरत यानी ग़ुनाहों से माफ़ी और निजात की रात है।<ref>{{cite web |url=http://www.mynews.in/merikhabar/News/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A4,_%E0%A4%86%E0%A4%9C_%E0%A4%B9%E0%A5%88_%27%E0%A4%B6%E0%A4%AC-%E0%A4%8F-%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A4%27_N10624.html |title=गुनाहों से निजात की रात, आज है 'शब-ए-बरात' |accessmonthday=26 जुलाई |accessyear=2010 |authorlink= |format=एचटीएमएल |publisher=मेरी ख़बर.कॉम |language=हिन्दी}}</ref> इसे [[इस्लाम]] के प्रवर्तक [[हज़रत मुहम्मद]] ने रहमत की रात बतलाया है। शब-ए-बरात की रात को सृष्टिकर्ता आनेवाले एक साल के लिए हर आदमी के वास्ते आयु, असबाब, यश-कीर्ति से लेकर सब कुछ तय करता है। इस रात सृष्टिकर्ता से जो जितना माँगता है, उतना पाता है। <br />
<br />
अपने नाते-रिश्तेदारों को जन्नत (स्वर्ग) नसीब हो इसलिए इस रात उनकी निजात (ग़ुनाहों से माफ़ी या मोक्ष) के लिए अल्लाह से गुज़ारिश की जाती है। इस दिन [[शिया]] और [[सुन्नी]] दोनों समुदाय क़ब्रिस्तान जाकर अपने-अपने पूर्वजों की क़ब्रों पर चरागा (रोशनी) करते हैं और फूल- मालाएँ चढ़ाते हैं। माना जाता है कि मृत लोग अपने परिजनों से यह आशा करते हैं कि वे उनके लिए अल्लाह की पाक किताब [[क़ुरआन]] की आयतें पढ़कर बख़्शें ताकि जन्नत में उनके लिए जगह हो सके। इसी नीयत से लोग रातभर जागकर नमाज़ पढ़ते हैं और क़ुरआन की आयतें पढ़कर अपने अज़ीज़ों को बख्शते हैं। इस दिन पूर्वजों के नाम से फ़ातिहा कराकर ग़रीबों को खाना खिलाने का भी चलन है ताकि ज़रूरतमंदों के दिल से निकली हुई दुआ से मरने वालों के गुनाह माफ़ हो सकें।<br />
==हज़रत मुहम्मद ने कहा==<br />
हदीस बुख़ारी में आख़िरी पैगंबर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने अपने सहाबा से कहा था कि क़ब्रिस्तान जाकर दुआ जरुर पढ़ो। यही तुम्हारी असली जगह है। यहाँ सभी को मरने के बाद आना ही है। इसलिए उस स्थान पर जाकर अपनी मौत को ज़रुर याद करो।<ref>{{cite web |url=http://in.jagran.yahoo.com/news/local/bihar/4_4_5689700.html |title=शब-ए-बरात : मस्जिदों में दुआ के लिए उठे हज़ारों हाथ |accessmonthday=26 जुलाई |accessyear=2010 |authorlink= |format=एचटीएमएल |publisher=जागरण याहू.कॉम |language=हिन्दी}}</ref><br />
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==कर्मों का लेखा-जोखा==<br />
{{इन्हें भी देखें |ईद-उल-फ़ितर}}<br />
पिछले साल किए गए कर्मों का लेखा-जोखा तैयार करने और आने वाले साल की तक़दीर तय करने वाली इस रात को शब-ए-बरात कहा जाता है। इस रात को पूरी तरह इबादत में गु्ज़ारने की परंपरा है। नमाज़, तिलावत-ए-क़ुरआन, क़ब्रिस्तान की ज़ियारत और हैसियत के मुताबिक ख़ैरात करना इस रात के अहम काम हैं। <br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
* [http://jadeedmarkaz.net/majhab_hindi.htm शाबान का महीना और शबे बरात]<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पर्व और त्योहार}}<br />
{{व्रत और उत्सव}}<br />
[[Category:पर्व और त्योहार]]<br />
[[Category:व्रत और उत्सव]]<br />
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फ़ौज़िया ख़ान