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Brajdiscovery - सदस्य योगदान [hi]
2024-03-28T21:17:22Z
सदस्य योगदान
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सदस्य वार्ता:लक्ष्मी गोस्वामी
2011-05-29T12:54:24Z
<p>शिल्पी: नया पन्ना: आपका पृष्ठ देख लिया गया है।~~~~</p>
<hr />
<div>आपका पृष्ठ देख लिया गया है।[[सदस्य:शिल्पी|&#91;&#91;चित्र:nib4.png&#124;35px&#124;top&#124;link=User:शिल्पी&#93;&#93;&lt;span class=&quot;sign&quot;&gt;&#91;&#91;User:शिल्पी&#124;शिल्पी&#93;&#93; . &lt;small&gt;&#91;&#91;सदस्य वार्ता:शिल्पी&#124;वार्ता&#93;&#93;&lt;/small&gt;&lt;/span&gt;]] 18:24, 29 मई 2011 (IST)</div>
शिल्पी
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सदस्य:शिल्पी
2011-05-29T12:27:52Z
<p>शिल्पी: नया पन्ना: शिल्पी गोयल *मेरा नाम शिल्पी गोयल है। *मैं उत्त…</p>
<hr />
<div>[[चित्र:Shilpi-goyal.jpg|thumb|250px|शिल्पी गोयल]]<br />
*मेरा नाम शिल्पी गोयल है।<br />
<br />
*मैं उत्तर प्रदेश राज्य में रहती हूँ। <br />
*मैं ब्रज डिस्कवरी पर प्रबन्धक हूँ। <br />
*जन्म तिथि- 17 जून<br />
*शिक्षा- एम. कॉम<br />
*ई मेल- shilpigoyal1788@gmail.com</div>
शिल्पी
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चित्र:Shilpi-goyal.jpg
2011-05-29T12:21:39Z
<p>शिल्पी: "चित्र:Shilpi-goyal.jpg" का नया अवतरण अपलोड किया</p>
<hr />
<div></div>
शिल्पी
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चित्र:Shilpi-goyal.jpg
2011-05-29T12:20:56Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div></div>
शिल्पी
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भूषण
2011-01-18T06:13:34Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==भूषण / [[:en:Bhushan|Bhushan]]== <br />
{{सूचना बक्सा साहित्यकार<br />
|चित्र=Blankimage.jpg<br />
|पूरा नाम=<br />
|अन्य नाम=पतिराम, मनिराम (किवदंती) <br />
|जन्म=1613<br />
|जन्म भूमि=तिकँवापुर गाँव, कानपुर<br />
|अविभावक=रत्नाकर त्रिपाठी<br />
|पति/पत्नी=<br />
|संतान=<br />
|कर्म भूमि=कानपुर<br />
|कर्म-क्षेत्र=कविता<br />
|मृत्यु=1715<br />
|मृत्यु स्थान=<br />
|मुख्य रचनाएँ=शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक<br />
|विषय=वीर रस कविता<br />
|भाषा=[[ब्रजभाषा]], अरबी, फारसी, तुर्की<br />
|विद्यालय=<br />
|शिक्षा=<br />
|पुरस्कार-उपाधि=भूषण<br />
|प्रसिद्धि=वीर-काव्य तथा वीर रस<br />
|विशेष योगदान=रीतिग्रंथ<br />
|नागरिकता=<br />
|संबंधित लेख=<br />
|शीर्षक 1=<br />
|पाठ 1=<br />
|शीर्षक 2=<br />
|पाठ 2=<br />
|अन्य जानकारी=<br />
|बाहरी कड़ियाँ=<br />
|अद्यतन=<br />
}}<br />
वीर रस के कवि भूषण का जन्म कानपुर ज़िले में [[यमुना]] किनारे तिकँवापुर गाँव में हुआ था। मिश्रबन्धुओं तथा रामचन्द्र शुक्ल ने भूषण का समय '''1613-1715''' ई. माना है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। भूषण 1627 ई. से 1680 ई. तक महाराजा [[शिवाजी]] के आश्रय में रहे। इनके छ्त्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने का भी उल्लेख मिलता है। 'शिवराज भूषण', 'शिवाबावनी', और 'छ्त्रसाल दशक' नामक तीन ग्रंथ ही इनके लिखे छः ग्रथों में से उपलब्ध हैं।<br />
==जीवन परिचय==<br />
भूषण [[हिन्दी]] [[रीति काल]] के अन्तर्गत, उसकी परम्परा का अनुसरण करते हुए वीर-काव्य तथा वीर-रस की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने '''शिवराज-भूषण''' में अपना परचिय देते हुए लिखा है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका गोत्र कश्यप था। ये रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र थे तथा [[यमुना नदी|यमुना]] के किनारे त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर) में रहते थे, जहाँ [[बीरबल]] का जन्म हुआ था और जहाँ विश्वेश्वर के तुल्य देव-बिहारीश्वर [[महादेव]] हैं। चित्रकूटपति हृदयराम के पुत्र रूद्र सुलंकी ने इन्हें 'भूषण' की उपाधि से विभूषित किया था।<ref>छन्द 25-28</ref> तिकवाँपुर कानपुर ज़िले की घाटमपुर तहसील में यमुना के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार भूषण [[शिवाजी]] के पौत्र साहू के दरबारी कवि थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन विद्वानों का यह मत भ्रान्तिपूर्ण है। वस्तुत: भूषण शिवाजी के ही समकालीन एवं आश्रित थे। <br />
====<u>परिवार</u>====<br />
भूषण के पिता कान्यकुब्ज ब्राह्मण रत्नाकर त्रिपाठी थे। कहा जाता है कि वे चार भाई थे- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ (उपनाम जटाशंकर)। भूषण के भ्रातृत्व के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इनके वास्तविक नाम '''पतिराम''' अथवा '''मनिराम''' होने की कल्पना की है पर यह कोरा अनुमान ही प्रतीत होता है। <br />
====<u>आश्रयदाता</u>====<br />
भूषण के प्रमुख आश्रयदाता महाराज [[शिवाजी]] (6 अप्रैल, 1627 - 3 अप्रैल, 1680 ई.) तथा छत्रसाल बुन्देला (1649-1731 ई.) थे। इनके नाम से कुछ ऐसे फुटकर छन्द मिलते हैं, जिनमें साहूजी, बाजीराव, सुलंकी, [[जयसिंह|महाराज जयसिंह]], महाराज रानसिंह, [[अनिरूद्ध]], राव बुद्ध, कुमाऊँ नरेश, गढ़वार-नरेश, [[औरंगजेब]], [[दाराशाह]] (दाराशुकोह) आदि की प्रशंसा की गयी है। ये सभी [[छन्द]] भूषण-रचित हैं। इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उक्त-सभी राजाओं क भूषण का आश्रयदाता नहीं माना जा सकता।<br />
==ग्रन्थ==<br />
भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ-<br />
* 'भूषणहजारा'<br />
* 'भूषणउल्लास' <br />
* 'दूषणउल्लास' यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। भूषण के शेष ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है: <br />
{{tocright}}<br />
====<u>शिवराजभूषण</u>====<br />
भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि [[ज्येष्ठ]] वदी [[त्रियोदशी]], [[रविवार]], संम्वत् 1730, [[29 अप्रैल]], 1673 ई. रविवार को दी है।<ref>छन्द 382</ref> शिवराज- भूषण में उल्लेखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है। साथ ही शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। 'शिवराज-भूषण' में '''384 छन्द''' हैं। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा [[कवित्त छन्द|कवित्त]] एवं [[सवैया छन्द|सवैया छन्दों]] में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है। <br />
====<u>शिवाबावनी</u>====<br />
शिवाबावनी में 52 छन्दों में शिवाजी की कीर्ति का वर्णन किया गया है।<br />
====<u>छत्रसालदशक</u>====<br />
छत्रसालदशक में दस छन्दों में छत्रसाल बुन्देला का यशोगान किया गया है। भूषण के नाम से प्राप्त फुटकर पद्यो में विविध व्यक्तियों के सम्बन्ध में कहे गये तथा कुछ श्रृंगारपरक पद्य संगृहीत हैं। <br />
==काव्यगत सौन्दर्य==<br />
भूषण की सारी रचनाएँ '''मुक्तक-पद्धति''' में लिखी गयी हैं। इन्होंने अपने चरित्र-नायकों के विशिष्ट चारित्र्य-गुणों और कार्य-कलापों को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। इनकी कविता वीररस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्धवीर की ही है। इन्होंने युद्धवीर के प्रसंग में चतुरंग चमू, वीरों की गर्वोक्तियाँ, योद्धाओं के पौरूष-पूर्ण कार्य तथा शस्त्रास्त्र आदि का सजीव चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त [[रौद्र रस|रौद्र]], [[भयानक रस|भयानक]], [[वीभत्स रस|वीभत्स]] आदि प्राय: समस्त [[रस|रसों]] के वर्णन इनकी रचना में मिलते हैं पर उसमें रसराजकता वीररस की ही है। वीर-रस के साथ रौद्र तथा भयानक रस का संयोग इनके काव्य में बहुत अच्छा बन पड़ा है।<br />
<br />
रीतिकार के रूप में भूषण को अधिक सफलता नहीं मिली है पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने प्रकृति-वर्णन उद्दीपन एवं अलंकार-पद्धति पर किया है। 'शिवराजभूषण' में रायगढ़ के प्रसंग में राजसी ठाठ-बाट, वृक्षों लताओं तथा पक्षियों के नाम गिनाने वाली परिपाटी का अनुकरण किया गया है।<br />
===<u>शैली</u>===<br />
सामान्यत: भूषण की शैली '''विवेचनात्मक''' एवं '''संश्लिष्ट''' है। इन्होंने विवरणत्मक-प्रणाली की बहुत कम प्रयोग किया है। इन्होंने युद्ध के बाहरी साधनों का ही वर्णन के अतिरिक्त सन्तोष नहीं कर लिया है, वरन मानव-हृदय में उमंग भरने वाली भावनाओं की ओर उनका सदैव लक्ष्य रहा है। शब्दों और भावों का सामंजस्य भूषण की रचना का विशेष गुण है।<br />
===<u>भाषा</u>===<br />
भूषण ने अपने समय में प्रचलित साहित्य की सामान्य काव्य-भाषा [[ब्रजभाषा]] का प्रयोग किया है। इन्होंने विदेशी शब्दों को अधिक उपयोग [[मुसलमान|मुसलमानों]] के ही प्रसंग में किया है। दरबार के प्रसंग में भाषा का खड़ा रूप भी दिखाई पड़ता है। इन्होंने '''अरबी''', '''फारसी''' और '''तुर्की''' के शब्द अधिक प्रयुक्त किये हैं। बुन्देलखण्डी, बैसवाड़ी एवं अन्तर्वेदी शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है। इस प्रकार भूषण की भाषा का रूप साहित्यिक दृष्टि से बुरा भी नहीं कहा जा सकता। इनकी कविता में '''ओज''' पर्याप्त मात्रा में है। प्रसाद का भी अभाव नहीं है। 'शिवराजभूषण' के आरम्भ के वर्णन और श्रृंगार के छन्दों में माधुर्य की प्रधानता है।<br />
==काव्य में स्थान==<br />
आचार्यत्व की दृष्टि से भूषण को विशिष्ट स्थान नहीं प्रदान किया जा सकता पर कवित्व के विचार से उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता कवि- कीर्तिसम्बन्धी एक अविचल सत्य का दृष्टान्त है। वे तत्कालीन स्वातन्यसंग्राम के प्रतिनिधि कवि हैं। भूषण वीरकाव्य-धारा के जगमगाते रत्न हैं। <br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
*[http://books.google.co.in/books?id=h-hhCMYUgYsC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false भूषण ग्रंथावली]<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कवि}}<br />
[[en:Bhushan]]<br />
[[Category:साहित्य]] [[Category:कोश]] [[Category: कवि]]<br />
__INDEX__</div>
शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A4&diff=64768
हेरात
2010-12-22T10:29:26Z
<p>शिल्पी: /* हेरात / Herat */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==हेरात / Herat==<br />
'''हेरात''', यह [[अफ़ग़ानिस्तान]] का एक प्रान्तीय नगर है। यह देश के पश्चिम में है और ऐतिहासिक महत्व का शहर है। यह खोरसन क्षेत्र का हिस्सा है। यह जिस प्रान्त की राजधानी था, उसे ग्रीक लोग '''एरिया''' कहते थे। यह एरिया हिन्दूकुश के ठीक पूर्व में है और सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उत्तर-पश्चिम में इसे भारतवर्ष की प्राकृतिक सीमा माना जाता है। ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में सेल्युकस ने यह प्रदेश [[चन्द्रगुप्त मौर्य]] को दे दिया और मौर्य साम्राज्य के पतन तक यह प्रदेश उसके अधीन रहा। इसके बाद ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में इस उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र पर [[यवन]] और पार्थियन राजाओं का राज्य हो गया। इसके बाद हेरात कभी भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत नहीं रहा। फ़ारस और अफ़ग़ानिस्तान के बीच इस प्रदेश के लिए बराबर लड़ाइयाँ होती रहीं। अन्त में 1863 ई. में दोस्त मुहम्मद ने इसे अपने राज्य में मिला लिया। अंग्रेज़ राजनीतिज्ञों और युद्ध विशारदों का अग्रसर नीति का पोषक दल शुरु से इस पक्ष में रहा कि इस भू-भाग को अपने अधिकार में कर लेना चाहिए। इसी उद्देश्य से पहला और दूसरा अफ़ग़ान युद्ध हुआ। परन्तु इस नीति में सफलता न मिल सकी। उत्तर-पश्चिम में प्राकृतिक सीमा की नीति के पोषकों का मनोरथ कभी पूरा नहीं हो सका।<br />
<br />
[[Category:विविध]]<br />
[[Category:कोश]]<br />
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शिल्पी
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हेरात
2010-12-22T09:51:53Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==हेरात / Herat==<br />
'''हेरात''', यह [[अफ़ग़ानिस्तान]] का एक प्रान्तीय नगर है। यह देश के पश्चिम में है और ऐतिहासिक महत्व का शहर है। यह खोरसन क्षेत्र का हिस्सा है। यह जिस प्रान्त की राजधानी था, उसे ग्रीक लोग '''एरिया''' कहते थे। यह एरिया हिन्दूकुश के ठीक पूर्व में है और सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उत्तर-पश्चिम में इसे भारतवर्ष की प्राकृतिक सीमा माना जाता है। ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में सेल्युकस ने यह प्रदेश [[चन्द्रगुप्त मौर्य]] को दे दिया और मौर्य साम्राज्य के पतन तक यह प्रदेश उसके अधीन रहा। इसके बाद ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में इस उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र पर [[यवन]] और पार्थियन राजाओं का राज्य हो गया। इसके बाद हेरात कभी भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत नहीं रहा। फ़ारस और अफ़ग़ानिस्तान के बीच इस प्रदेश के लिए बराबर लड़ाइयाँ होती रहीं। अन्त में 1863 ई. में [[दोस्त मुहम्मद]] ने इसे अपने राज्य में मिला लिया। अंग्रेज़ राजनीतिज्ञों और युद्ध विशारदों का अग्रसर नीति का पोषक दल शुरु से इस पक्ष में रहा कि इस भू-भाग को अपने अधिकार में कर लेना चाहिए। इसी उद्देश्य से पहला और दूसरा अफ़ग़ान युद्ध हुआ। परन्तु इस नीति में सफलता न मिल सकी। उत्तर-पश्चिम में प्राकृतिक सीमा की नीति के पोषकों का मनोरथ कभी पूरा नहीं हो सका।<br />
<br />
[[Category:विविध]]<br />
[[Category:कोश]]<br />
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शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%B8&diff=64766
शोडास
2010-12-22T09:41:08Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==शोडास / [[:en:Shodas|Shodas]]== <br />
शोडास (सोडास) (शासन-काल ई. पूर्व 80 से ई. पूर्व 57) [[राजुबुल]] (राजवुल) का पुत्र था। शोडास ने मथुरा पर लम्बे समय तक शासन किया। राजबुल के बाद उसका पुत्र शोडास (लगभग ई. पूर्व 80-57) शासनाधिकारी हुआ। 1869 ई. में मथुरा से पत्थर के एक 'सिंह-शीर्ष' के शिलालेख पर शोडास की उपाधि 'क्षत्रप' अंकित है, किन्तु [[मथुरा]] में ही मिले अन्य शिलालेखों में उसे 'महाक्षपत्र' कहा गया है। अनेक सिक्कों का मिलना इसका प्रमाण है। जिन पर “[[महाक्षत्रप]]” सम्बोधन है। कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त एक शिलापट्ट पर सं0 (?) 72 का ब्रह्मी लेख है, जिसके अनुसार 'स्वामी महाक्षत्रप' शोडास के शासनकाल में जैन भिक्षु की शिष्या [[अमोहिनी]] ने एक जैन विहार की स्थापना की ।<ref>देखिये- दिनेशचन्द्र सरकार-सेलेक्ट इंस्क्रिप्शन, जि.1,पृ. 118-19।</ref> राजुबुल की पत्नी [[कंबोजिका]] ने [[मथुरा]] में [[यमुना नदी]] के तट पर एक बौद्ध-बिहार निर्मित कराया था, जिसके लिए शोडास ने कुछ भूमि दान में दी थी । मथुरा के [[हीनयान]] मत वाले बौद्धों की 'सर्वास्तिवादिन्' नामक शाखा के भिक्षुओं के निर्वाह के लिए यह दान दिया गया था। सिंह-शीर्ष के इन खरोष्ठी लेखों से ज्ञात होता है कि शोडास के काल में मथुरा के बौद्धों में हीनयान तथा [[महायान]] (महासंधिक)-- मुख्यतः इन दोनों शाखाओं के अनुयायी थे और इनमें परस्पर वाद-विवाद भी होते थे। <br />
==शोडास के सिक्के==<br />
शोडास के सिक्के दो प्रकार के है, पहले वे है जिन पर सामने की तरफ खड़ी हुई [[लक्ष्मी]] की मूर्ति तथा दूसरी तरफ लक्ष्मी का अभिषेक चित्रित है। इन सिक्कों पर हिन्दी में 'राजुबुल पुतस खतपस शोडासस' लिखा हुआ है ।<ref>एलन-वही,पृ. 190-91 । कुछ सिक्कों पर 'राजुबुलपुतस' के स्थान पर 'महास्वतपस पुतस 'रहता है।</ref> दूसरे प्रकार के सिक्कों पर लेख में केवल 'महाक्षत्रप शोडासस' चित्रित है । इससे अनुमान होता है कि शोडास के पहले वाले सिक्के उस समय के होगें जब उसका पिता जीवित रहा होगा और दूसरे राजुबुल की मृत्यु के बाद, जब शोडास को राजा के पूरे अधिकार मिल चुके होगें । <ref> मथुरा के सिंह-शीर्ष लेख में शोडास के नाम के साथ 'क्षत्रप' ही मिलता है। संभवतःइस लेख के लगने के समय राजुबुल उस समय जीवित था और शोडस उस समय राजकुमार था। मथुरा प्रदेश पर राजुबुल का अधिकार उसकी वृद्धावस्था में हुआ प्रतीत होता है। शोडास के समय में उत्तर-पश्चिम का एक बडा़ भाग उसके हाथ से निकल गया, पर मथुरा उसके अधिकार में बना रहा। एलन ने सर रिचर्ड बर्न के संग्रह के एक सिक्के का उल्लेख किया है, जिस पर 'महास्वतपसपुतस तोरणदासस' लेख मिलता है। यह सिक्का शोडस के सिक्कों जैसा ही है। एलन का अनुमान है कि तोरणदास(?) संभवतः राजुबुल के दूसरे पुत्र का नाम होगा। मोरा के लेख में राजुबुल के दूसरे पुत्र का उल्लेख मिलता है। (एलन वही, पृष्ठ 112 )</ref> शोडास तथा राजुबुल के सिक्के हिंद -यूनानी शासक स्ट्रैटो तथा मथुरा के मित्र-शासकों के सिक्कों से बहुत मिलते-जुलते हैं । शोडास के अभिलेखों में सबसे महत्वपूर्ण वो लेख है जो एक सिरदल (धन्नी) पर उत्कीर्ण है। यह सिरदल मथुरा छावनी के एक कुएँ पर मिली थी, जो [[कटरा केशवदेव]] से लाई गई प्रतीत होती है। <br />
<br />
==शासन काल==<br />
महाक्षत्रप शोडास का शासन-काल ई. पूर्व 80 से ई. पूर्व 57 के बीच माना जाता है। यह सबसे पहला अभिलेख है जिसमें मथुरा में [[कृष्ण]]-मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है। शोडास का समकालीन [[तक्षशिला]] का शासक पतिक था। मथुरा के उक्त सिंह- शीर्ष पर खुदे हुए एक लेख में पतिक की उपाधि 'महाक्षत्रप' दी हुई है। तक्षशिला से प्राप्त सं078 में एक दूसरे शिलालेख में 'महादानपति' पतिक का नाम आया है। सम्भवतः ये दोनो पतिक एक ही है और जब शोडास मथुरा का [[क्षत्रप]] था उसी समय पतिक [[तक्षशिला]] में [[महाक्षत्रप]] था। मथुरा-लेख में पतिक के साथ मेवकि का नाम भी आता है। [[गणेशरा गाँव]] (जि0 मथुरा) से मिले एक लेख में क्षत्रप घटाक का नाम भी है।<ref>जर्नल आफ रायल एशियाटिक सोसाइटी, 1912,पृ. 121</ref> शोडास के साथ इन क्षत्रपों का क्या संबंध था, यह विवरण कहीं नहीं मिलता है। ई. पूर्व पहली शती का पूर्वार्द्ध पश्चिमोत्तर भारत के शकों के शासन का समय था । इस समय में [[तक्षशिला]] से लेकर उत्तरी महाराष्ट्र् तक शकों का ही एकछ्त्र राज्य हो गया था। <ref> कुछ विद्वानों का अनुमान है कि ये शासक पार्थियन (पह्ल्व) वशं के थे ठीक नहीं। राजुबुल, नहपान तथा उनके वंश के शासकों के जो चेहरे सिक्कों पर मिलते हैं उन्हें देखने से यह स्पष्ट पता चलता है कि पह्ल्वओं से उनकी नितान्त भिन्नता है।</ref><br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
<br />
[[en:Shodas]]<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:कुषाण काल]]<br />
[[Category:इतिहास-कोश]]<br />
__INDEX__<br />
__NOTOC__</div>
शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%B8&diff=64765
शोडास
2010-12-22T09:39:54Z
<p>शिल्पी: /* महाक्षत्रप शोडास का शासन */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==शोडास / [[:en:Shodas|Shodas]]== <br />
शोडास (सोडास) (शासन-काल ई. पूर्व 80 से ई. पूर्व 57) [[राजुबुल]] (राजवुल) का पुत्र था। शोडास ने मथुरा पर लम्बे समय तक शासन किया। राजबुल के बाद उसका पुत्र शोडास (लगभग ई. पूर्व 80-57) शासनाधिकारी हुआ। 1869 ई. में मथुरा से पत्थर के एक 'सिंह-शीर्ष' के शिलालेख पर शोडास की उपाधि 'क्षत्रप' अंकित है, किन्तु [[मथुरा]] में ही मिले अन्य शिलालेखों में उसे 'महाक्षपत्र' कहा गया है। अनेक सिक्कों का मिलना इसका प्रमाण है। जिन पर “[[महाक्षत्रप]]” सम्बोधन है। कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त एक शिलापट्ट पर सं0 (?) 72 का ब्रह्मी लेख है, जिसके अनुसार 'स्वामी महाक्षत्रप' शोडास के शासनकाल में जैन भिक्षु की शिष्या [[अमोहिनी]] ने एक जैन विहार की स्थापना की ।<ref>देखिये- दिनेशचन्द्र सरकार-सेलेक्ट इंस्क्रिप्शन, जि.1,पृ. 118-19।</ref> राजुबुल की पत्नी [[कंबोजिका]] ने [[मथुरा]] में [[यमुना नदी]] के तट पर एक बौद्ध-बिहार निर्मित कराया था, जिसके लिए शोडास ने कुछ भूमि दान में दी थी । मथुरा के [[हीनयान]] मत वाले बौद्धों की 'सर्वास्तिवादिन्' नामक शाखा के भिक्षुओं के निर्वाह के लिए यह दान दिया गया था। सिंह-शीर्ष के इन खरोष्ठी लेखों से ज्ञात होता है कि शोडास के काल में मथुरा के बौद्धों में हीनयान तथा [[महायान]] (महासंधिक)-- मुख्यतः इन दोनों शाखाओं के अनुयायी थे और इनमें परस्पर वाद-विवाद भी होते थे। <br />
==शोडास के सिक्के==<br />
शोडास के सिक्के दो प्रकार के है, पहले वे है जिन पर सामने की तरफ खड़ी हुई [[लक्ष्मी]] की मूर्ति तथा दूसरी तरफ लक्ष्मी का अभिषेक चित्रित है। इन सिक्कों पर हिन्दी में 'राजुबुल पुतस खतपस शोडासस' लिखा हुआ है ।<ref>एलन-वही,पृ. 190-91 । कुछ सिक्कों पर 'राजुबुलपुतस' के स्थान पर 'महास्वतपस पुतस 'रहता है।</ref> दूसरे प्रकार के सिक्कों पर लेख में केवल 'महाक्षत्रप शोडासस' चित्रित है । इससे अनुमान होता है कि शोडास के पहले वाले सिक्के उस समय के होगें जब उसका पिता जीवित रहा होगा और दूसरे राजुबुल की मृत्यु के बाद, जब शोडास को राजा के पूरे अधिकार मिल चुके होगें । <ref> मथुरा के सिंह-शीर्ष लेख में शोडास के नाम के साथ 'क्षत्रप' ही मिलता है। संभवतःइस लेख के लगने के समय राजुबुल उस समय जीवित था और शोडस उस समय राजकुमार था। मथुरा प्रदेश पर राजुबुल का अधिकार उसकी वृद्धावस्था में हुआ प्रतीत होता है। शोडास के समय में उत्तर-पश्चिम का एक बडा़ भाग उसके हाथ से निकल गया, पर मथुरा उसके अधिकार में बना रहा। एलन ने सर रिचर्ड बर्न के संग्रह के एक सिक्के का उल्लेख किया है, जिस पर 'महास्वतपसपुतस तोरणदासस' लेख मिलता है। यह सिक्का शोडस के सिक्कों जैसा ही है। एलन का अनुमान है कि तोरणदास(?) संभवतः राजुबुल के दूसरे पुत्र का नाम होगा। मोरा के लेख में राजुबुल के दूसरे पुत्र का उल्लेख मिलता है। (एलन वही, पृष्ठ 112 )</ref> शोडास तथा राजुबुल के सिक्के हिंद -यूनानी शासक स्ट्रैटो तथा मथुरा के मित्र-शासकों के सिक्कों से बहुत मिलते-जुलते हैं । शोडास के अभिलेखों में सबसे महत्वपूर्ण वो लेख है जो एक सिरदल (धन्नी) पर उत्कीर्ण है। यह सिरदल मथुरा छावनी के एक कुएँ पर मिली थी, जो [[कटरा केशवदेव]] से लाई गई प्रतीत होती है। <br />
<br />
==शासन काल==<br />
महाक्षत्रप शोडास का शासन-काल ई. पूर्व 80 से ई. पूर्व 57 के बीच माना जाता है। यह सबसे पहला अभिलेख है जिसमें मथुरा में [[कृष्ण]]-मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है। शोडास का समकालीन [[तक्षशिला]] का शासक पतिक था। मथुरा के उक्त सिंह- शीर्ष पर खुदे हुए एक लेख में पतिक की उपाधि 'महाक्षत्रप' दी हुई है। तक्षशिला से प्राप्त सं078 में एक दूसरे शिलालेख में 'महादानपति' पतिक का नाम आया है। सम्भवतः ये दोनो पतिक एक ही है और जब शोडास मथुरा का [[क्षत्रप]] था उसी समय पतिक [[तक्षशिला]] में [[महाक्षत्रप]] था। मथुरा-लेख में पतिक के साथ मेवकि का नाम भी आता है। [[गणेशरा गाँव]] (जि0 मथुरा) से मिले एक लेख में क्षत्रप घटाक का नाम भी है।<ref>जर्नल आफ रायल एशियाटिक सोसाइटी, 1912,पृ. 121</ref> शोडास के साथ इन क्षत्रपों का क्या संबंध था, यह विवरण कहीं नहीं मिलता है। ई. पूर्व पहली शती का पूर्वार्द्ध पश्चिमोत्तर भारत के शकों के शासन का समय था । इस समय में [[तक्षशिला]] से लेकर उत्तरी महाराष्ट्र् तक शकों का ही एकछ्त्र राज्य हो गया था। <ref> कुछ विद्वानों का अनुमान है कि ये शासक पार्थियन (पह्ल्व) वशं के थे ठीक नहीं। राजुबुल, नहपान तथा उनके वंश के शासकों के जो चेहरे सिक्कों पर मिलते हैं उन्हें देखने से यह स्पष्ट पता चलता है कि पह्ल्वओं से उनकी नितान्त भिन्नता है।</ref><br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
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[[en:Shodas]]<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:कुषाण काल]]<br />
[[Category:इतिहास-कोश]]<br />
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शिल्पी
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शोडास
2010-12-22T09:36:58Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==शोडास / [[:en:Shodas|Shodas]]== <br />
शोडास (सोडास) (शासन-काल ई. पूर्व 80 से ई. पूर्व 57) [[राजुबुल]] (राजवुल) का पुत्र था। शोडास ने मथुरा पर लम्बे समय तक शासन किया। राजबुल के बाद उसका पुत्र शोडास (लगभग ई. पूर्व 80-57) शासनाधिकारी हुआ। 1869 ई. में मथुरा से पत्थर के एक 'सिंह-शीर्ष' के शिलालेख पर शोडास की उपाधि 'क्षत्रप' अंकित है, किन्तु [[मथुरा]] में ही मिले अन्य शिलालेखों में उसे 'महाक्षपत्र' कहा गया है। अनेक सिक्कों का मिलना इसका प्रमाण है। जिन पर “[[महाक्षत्रप]]” सम्बोधन है। कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त एक शिलापट्ट पर सं0 (?) 72 का ब्रह्मी लेख है, जिसके अनुसार 'स्वामी महाक्षत्रप' शोडास के शासनकाल में जैन भिक्षु की शिष्या [[अमोहिनी]] ने एक जैन विहार की स्थापना की ।<ref>देखिये- दिनेशचन्द्र सरकार-सेलेक्ट इंस्क्रिप्शन, जि.1,पृ. 118-19।</ref> राजुबुल की पत्नी [[कंबोजिका]] ने [[मथुरा]] में [[यमुना नदी]] के तट पर एक बौद्ध-बिहार निर्मित कराया था, जिसके लिए शोडास ने कुछ भूमि दान में दी थी । मथुरा के [[हीनयान]] मत वाले बौद्धों की 'सर्वास्तिवादिन्' नामक शाखा के भिक्षुओं के निर्वाह के लिए यह दान दिया गया था। सिंह-शीर्ष के इन खरोष्ठी लेखों से ज्ञात होता है कि शोडास के काल में मथुरा के बौद्धों में हीनयान तथा [[महायान]] (महासंधिक)-- मुख्यतः इन दोनों शाखाओं के अनुयायी थे और इनमें परस्पर वाद-विवाद भी होते थे। <br />
==शोडास के सिक्के==<br />
शोडास के सिक्के दो प्रकार के है, पहले वे है जिन पर सामने की तरफ खड़ी हुई [[लक्ष्मी]] की मूर्ति तथा दूसरी तरफ लक्ष्मी का अभिषेक चित्रित है। इन सिक्कों पर हिन्दी में 'राजुबुल पुतस खतपस शोडासस' लिखा हुआ है ।<ref>एलन-वही,पृ. 190-91 । कुछ सिक्कों पर 'राजुबुलपुतस' के स्थान पर 'महास्वतपस पुतस 'रहता है।</ref> दूसरे प्रकार के सिक्कों पर लेख में केवल 'महाक्षत्रप शोडासस' चित्रित है । इससे अनुमान होता है कि शोडास के पहले वाले सिक्के उस समय के होगें जब उसका पिता जीवित रहा होगा और दूसरे राजुबुल की मृत्यु के बाद, जब शोडास को राजा के पूरे अधिकार मिल चुके होगें । <ref> मथुरा के सिंह-शीर्ष लेख में शोडास के नाम के साथ 'क्षत्रप' ही मिलता है। संभवतःइस लेख के लगने के समय राजुबुल उस समय जीवित था और शोडस उस समय राजकुमार था। मथुरा प्रदेश पर राजुबुल का अधिकार उसकी वृद्धावस्था में हुआ प्रतीत होता है। शोडास के समय में उत्तर-पश्चिम का एक बडा़ भाग उसके हाथ से निकल गया, पर मथुरा उसके अधिकार में बना रहा। एलन ने सर रिचर्ड बर्न के संग्रह के एक सिक्के का उल्लेख किया है, जिस पर 'महास्वतपसपुतस तोरणदासस' लेख मिलता है। यह सिक्का शोडस के सिक्कों जैसा ही है। एलन का अनुमान है कि तोरणदास(?) संभवतः राजुबुल के दूसरे पुत्र का नाम होगा। मोरा के लेख में राजुबुल के दूसरे पुत्र का उल्लेख मिलता है। (एलन वही, पृष्ठ 112 )</ref> शोडास तथा राजुबुल के सिक्के हिंद -यूनानी शासक स्ट्रैटो तथा मथुरा के मित्र-शासकों के सिक्कों से बहुत मिलते-जुलते हैं । शोडास के अभिलेखों में सबसे महत्वपूर्ण वो लेख है जो एक सिरदल (धन्नी) पर उत्कीर्ण है। यह सिरदल मथुरा छावनी के एक कुएँ पर मिली थी, जो [[कटरा केशवदेव]] से लाई गई प्रतीत होती है। <br />
<br />
==महाक्षत्रप शोडास का शासन==<br />
महाक्षत्रप शोडास का शासन-काल ई. पूर्व 80 से ई. पूर्व 57 के बीच माना जाता है। यह सबसे पहला अभिलेख है जिसमें मथुरा में [[कृष्ण]]-मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है। शोडास का समकालीन [[तक्षशिला]] का शासक पतिक था। मथुरा के उक्त सिंह- शीर्ष पर खुदे हुए एक लेख में पतिक की उपाधि 'महाक्षत्रप' दी हुई है। तक्षशिला से प्राप्त सं078 में एक दूसरे शिलालेख में 'महादानपति' पतिक का नाम आया है। सम्भवतः ये दोनो पतिक एक ही है और जब शोडास मथुरा का [[क्षत्रप]] था उसी समय पतिक [[तक्षशिला]] में [[महाक्षत्रप]] था। मथुरा-लेख में पतिक के साथ मेवकि का नाम भी आता है। [[गणेशरा गाँव]] (जि0 मथुरा) से मिले एक लेख में क्षत्रप घटाक का नाम भी है।<ref>जर्नल आफ रायल एशियाटिक सोसाइटी, 1912,पृ. 121</ref> शोडास के साथ इन क्षत्रपों का क्या संबंध था, यह विवरण कहीं नहीं मिलता है। ई. पूर्व पहली शती का पूर्वार्द्ध पश्चिमोत्तर भारत के शकों के शासन का समय था । इस समय में [[तक्षशिला]] से लेकर उत्तरी महाराष्ट्र् तक शकों का ही एकछ्त्र राज्य हो गया था। <ref> कुछ विद्वानों का अनुमान है कि ये शासक पार्थियन (पह्ल्व) वशं के थे ठीक नहीं। राजुबुल, नहपान तथा उनके वंश के शासकों के जो चेहरे सिक्कों पर मिलते हैं उन्हें देखने से यह स्पष्ट पता चलता है कि पह्ल्वओं से उनकी नितान्त भिन्नता है।</ref> <br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
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[[en:Shodas]]<br />
[[Category:कोश]]<br />
[[Category:कुषाण काल]]<br />
[[Category:इतिहास-कोश]]<br />
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शिल्पी
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मोहर्रम
2010-12-15T11:49:55Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
'''मोहर्रम / Muharram'''<br /><br />
[[चित्र:Muharram-Tazia.jpg|thumb|250px|ताज़िया, मोहर्रम, [[उत्तर प्रदेश]] <br />Tazia, Muharram, Uttar Pradesh]]<br />
*मोहर्रम हिजरी संवत का प्रथम मास है। पैग़म्बर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत की याद में मोहर्रम मनाया जाता है।<ref>{{cite web |url=http://josh18.in.com/hindi/yog-moneylife/556722/0 |title=इमाम हुसैन की शहादत पर मोहर्रम आज से शुरू |accessmonthday=6 दिसंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जोश |language=हिन्दी }}</ref> <br />
*मोहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम, हुसैन के शोक में मनाये जाते है। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिज़रत किया था। <br />
==इतिहास==<br />
रसूल मोहम्मद साहब की वफ़ात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार का समय आया जबकि सन 60 हिजरी में हमीद मावीय के पुत्र यजीद राज सिंहासन पर बैठे। उन्होंने सिंहासन पर बैठकर मदीना के राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा कि तुम इमाम हुसैन को बुलाकर कहो कि वह मेरी आज्ञाओं का पालन करें और इस्लाम धर्म के सिद्धांतों को ध्यान में न लायें। यदि वह यह फरमान न माने तो इमाम हुसैन का सिर काट कर मेरे पास भेजा जाये। वलीद पुत्र अतुवा (राज्यपाल) ने 25 या 26 रजब सन 60 हिजरी को रात्रि के समय हज़रत इमाम हुसैन को राजभवन में बुलाया और उनकों यजीद का फरमान सुनाया। इमाम हुसैन जो उस समय क़ुरान शरीफ और मोहम्मद साहिब की वीराम के वारिस थे, वह इस बात को कैसे सहन कर सकते थे कि अल्लाह के सिद्धांत और रसूल साहब का फरमान दुनिया से मिट जाये। उन्होंने वलीद से कहा कि मैं एक व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, दुष्ट विचारधारा वाले, अत्याचारी ख़ुदा रसूल को न मानने वाले, यजीद की आज्ञाओं का पालन नहीं कर सकता। तत्पश्चात इमाम हुसैन साहब मक्का शरीफ़ पहुँचे ताकि हज की पवित्र प्रथा को पूरा कर सकें किंतु वहाँ पर भी इमाम हुसैन साहब को किसी प्रकार चैन नहीं लेने दिया गया। शाम के बादशाह यजीद ने अपने सैनिकों को यात्रियों के भेष में भेजा ताकि वे हुसैन को कत्ल कर सकें। <br />
====उमरा====<br />
हज़रत इमाम हुसैन को पता चल गया कि यजीद ने गुप्त रुप से सैनिकों को मुझे कत्ल करने के लिए भेजा है। मक्का एक ऐसा पवित्र स्थान है कि जहाँ पर किसी भी प्रकार की हत्या हराम है। यह इस्लाम का एक सिद्धांत है। इसी बात को मद्दे-नजर रखते हुए कि मक्के में किसी प्रकार का खून-खराबा न हो, इमाम हुसैन ने हज की एक उप-प्रथा जिसको इस्लामिक रुप से '''उमरा''' कहते हैं, अदा किया हज़रत हुसैन उस बड़े हज को छोटा और अदा करके अपने परिवार सहित इराक की ओर चले गये। यहाँ पर यह व्याख्या करना बहुत आवश्यक है कि इमाम हुसैन ने अपने चचाजाद भाई मुस्लिम को इराक के हाल जानने के लिए अपना दूत बनाकर भेजा था। इसी यात्रा के दौरान इमाम हुसैन को पता चला कि इराक के अत्याचारी राज्यपाल इबनेज्याद ने उस दूत को कत्ल कर दिया। इमाम हुसैन को यह सुनकर बहुत सदमा हुआ। किंतु उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित नहीं की क्योंकि इस यात्रा का लक्ष्य केवल मानव धर्म अर्थात इस्लाम की रक्षा करना था। <br />
====इमाम हुसैन की कर्बला यात्रा====<br />
मोहर्रम मास की 2 तारीख सन 61 हिजरी को इमाम हुसैन अपने परिवार और मित्रों सहित कर्बला की भूमि पर पहुँचे और 9 तारीख तक यजीद की सेना को इस्लामिक सिद्धांतों को समझाया। उन्होंने कहा, "कि लोगों, मैं हज़रत मोहम्मद साहब का धेवता हूँ। रसूल ने मुझे अपने कन्धों पर बिठाया है। मैं अली का बेटा और बीबी फ़ातिमा का पुत्र हूँ। तुम लोग मेरे कत्ल पर क्यों आमादा हो। इस गुनाह से बाज आ जाओं, इंसान को इंसान समझों, किसी पर अत्याचार न करों क़ुरान शरीफ के सिद्धांतों का पालन करों, खुदा से डरो, यह संसार मानवता का संसार है। हर एक के साथ भला करो। और अच्छे-बुरे हर एक मसले में ख़ुदा निर्णायक है जो जैसा कर्म करेगा वह वैसा ही फल पायेगा।"<br />
'''आसुर की रात'''<br /><br />
[[चित्र:Muharram.jpg|thumb|250px|left|मोहर्रम, खंभात <br /> Muharram, Khambhat]]<br />
हज़रत इमाम हुसैन की इन बातों का यजीद की फ़ौज पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि वह सब अत्याचार और कपट से अन्धे हो चुके थे। जब वह किसी प्रकार भी नहीं माने तो हज़रत इमाम हुसैन ने कहा कि तुम मुझे एक रात की मोहलत दे दो ताकि मैं उस सर्व शक्तिमान ईश्वर की इबादत कर सकूं। यजीद की फ़ौजों ने किसी प्रकार इमाम हुसैन साहब को एक रात की मोहलत दे दी। उस रात को '''आसुर की रात''' कहा जाता है।<br />
हज़रत इमाम हुसैन साहब ने उस पूरी रात अपने परिवार वालों तथा साथियों के साथ अल्लाह की इबादत की। मोहर्रम की 10 तारीख को सुबह ही यजीद के सेनापति उमर बिल साद ने यह कहकर एक तीर छोड़ा कि गवाह रहे सबसे पहले तीर मैंने चलाया है। तत्पश्चात लड़ाई आरम्भ हो गई। सुबह नमाज से असर तक (लगभग चार-साढ़े चार बजे तक) इमाम हुसैन के सब साथी जंग में मारे गये। इमाम हुसैन मैदान में अकेले रह गये। उन्होंने तीन दिन तक भूखे-प्यासे रहकर आवाज लगाई कि मैं रसूल का नवासा कर्बला में आवाज दे रहा हूं कि कोई है जो इस्लाम की मदद करे। हज़रत इमाम हुसैन यह कह रहे थे। कि उनमें खेमे में शोर हुआ। इमाम साहब खेमे में गये तो क्या देखा कि उनका 6 महीने का बच्चा अली असगर प्यास से बेहाल है। हज़रत इमाम हुसैन ने ने अपने बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और मैदाने कर्बला में ले आये। <br />
<br />
हज़रत इमाम हुसैन साहिब ने यजीद की फ़ौजों से कहा कि बच्चे को थोड़ा-सा पानी पिला दो किंतु यजीद की फ़ौजों की तरफ से एक तीर आया और बच्चे के गले पर लगा और बच्चे ने बाप के हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। तत्पश्चात हज़रत इमाम हुसैन पर जो ज़ुल्म हुआ उसका किसी प्रकार भी शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता। उन्होंने तीन दिन से भूखे-प्यासे हज़रत इमाम हुसैन साहब को कत्ल कर दिया। उनको कत्ल करने के बाद उनके खेमे में आग लगा दी और हज़रत इमाम हुसैन के परिवार वालों तथा बच्चों को कैदी बना लिया। फिर उनकों इराक के राज्यपाल इब्नेजाद के पास ले जाया गया। दुष्ट, भष्ट और नास्तिक इब्नेजाद ने इस क़ाफिले को शाम के बादशाह यजीद के पास भेज दिया।<br />
====बादशाह यजीद====<br />
बादशाह यजीद जो इस्लाम का दुश्मन था और हज़रत मोहम्मद साहब का मजाक उड़ाता था वह इस क़ाफिले को इस हालत में देखकर बहुत खुश हुआ, किंतु कुछ दिनों के बाद ही अत्याचारी यजीद की बादशाहत खत्म हो गई और वह बुरी मौत मरा। हज़रत इनाम हुसैन ने इस्लाम पर तथा मानवता पर अपनी जान कुर्बान की जो अमर है। हुसैन साहब पर जुल्म करने वाले कोई गैर नहीं थे बल्कि वही थे जो अपने आपको मुसलमान समझते थे। इस्लाम आज भी जिंदा है, क़ुरान शरीफ़ आज भी बाकी है, रोजा, नुपाश अब भी ऐसी ही है और आगे भी रहेंगे। यह सब कुछ हुसैन साहब की कमाई है।<br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
* [http://hindi.webdunia.com/religion/religion/islam/0912/30/1091230022_1.htm लखनऊ का 'शाही मोहर्रम']<br />
* [http://hindi.webdunia.com/religion/religion/news/0901/03/1090103026_1.htm मोहर्रम पर ताजियों की जियारत]<br />
==संबंधित लेख==<br />
{{पर्व और त्योहार}}<br />
[[Category:पर्व और त्योहार]]<br />
[[Category:कोश]]<br />
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http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Yamuna-mathura-l10.jpg&diff=63704
चित्र:Yamuna-mathura-l10.jpg
2010-11-13T08:13:14Z
<p>शिल्पी: </p>
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<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[यमुना]] पार से मथुरा शहर का दृश्य<br />View of Mathura across the Yamuna River <br />
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शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Yamuna-Mathura-7.jpg&diff=63703
चित्र:Yamuna-Mathura-7.jpg
2010-11-13T08:10:21Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{Image Info|[[यमुना]] पार से [[मथुरा]] शहर का दृश्य<br />
View of Mathura across the Yamuna River||वर्ष - 2008<br /> Year - 2008||[[ब्रज डिस्कवरी:कॉपीराइट|© brajdiscovery.org]]||||||||मथुरा में [[यमुना]] के 24 घाट हैं जिन्हें तीर्थ भी कहा जाता है। [[ब्रज]] में यमुना का महत्व वही है जो शरीर में आत्मा का। यमुना के बिना ब्रज और ब्रज की संस्कृति का कोई महत्व ही नहीं है। .<br />
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शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Yamuna-Mathura-5.jpg&diff=63702
चित्र:Yamuna-Mathura-5.jpg
2010-11-13T08:06:34Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[यमुना]], [[मथुरा]]<br />Yamuna, Mathura<br />
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|दिनांक=वर्ष - 2010<br />
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चित्र:Yamuna-Chunri-Manorath-1.jpg
2010-11-13T07:42:35Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=चुनरी मनोरथ, [[यमुना नदी|यमुना]] , [[मथुरा]]<br />
|चित्रांकन=<br />
|दिनांक=वर्ष - 2009<br />
|स्रोत=<br />
|प्रयोग अनुमति=[[ब्रज डिस्कवरी:कॉपीराइट|ब्रज डिस्कवरी]]<br />
|चित्रकार=<br />
|उपलब्ध=<br />
|प्राप्ति स्थान=<br />
|समय-काल=<br />
|संग्रहालय क्रम संख्या=<br />
|आभार=<br />
|आकार=<br />
|अन्य विवरण=[[ब्रज]] में यमुना का महत्व वही है जो शरीर में आत्मा का, यमुना के बिना ब्रज और ब्रज की संस्कृति का कोई महत्व ही नहीं है।<br />
}}<br />
<br />
__INDEX__</div>
शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:View-Of-Maszid-Across-Yamuna.jpg&diff=63696
चित्र:View-Of-Maszid-Across-Yamuna.jpg
2010-11-13T07:34:09Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[यमुना]] पार से मस्जिद, [[मथुरा]]<br />Masjid view across the Yamuna, Mathura<br />
|चित्रांकन=<br />
|दिनांक=वर्ष - 2010<br />
|स्रोत=<br />
|प्रयोग अनुमति=[[ब्रज डिस्कवरी:कॉपीराइट|© brajdiscovery.org]]<br />
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|प्राप्ति स्थान=<br />
|समय-काल=<br />
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|अन्य विवरण=मथुरा में [[यमुना नदी|यमुना]] के 24 घाट हैं जिन्हें तीर्थ भी कहा जाता है। [[ब्रज]] में यमुना का महत्व वही है जो शरीर में आत्मा का, यमुना के बिना ब्रज और ब्रज की संस्कृति का कोई महत्व ही नहीं है। <br />
}}<br />
<br />
__INDEX__</div>
शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Ghats-Of-Yamuna-Mathura.jpg&diff=63695
चित्र:Ghats-Of-Yamuna-Mathura.jpg
2010-11-13T07:30:11Z
<p>शिल्पी: </p>
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<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[यमुना के घाट, मथुरा|यमुना के घाट]], [[मथुरा]]<br />Ghats of Yamuna, Mathura<br />
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शिल्पी
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चित्र:Kokilaben-Mathura-1.jpg
2010-11-13T07:29:59Z
<p>शिल्पी: </p>
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<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=कोकिला बेन द्वारा [[यमुना]] पूजन, [[मथुरा]]<br />
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|दिनांक=वर्ष - 2009<br />
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|अन्य विवरण=रिलांइस ग्रुप के संस्थापक श्री धीरूभाई अंबानी की पत्नी और श्री मुकेश अंबानी और श्री अनिल अंबानी की माता श्रीमती कोकिला बेन द्वारा यमुना पूजन,मथुरा<br />
}}<br />
__INDEX__</div>
शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Ghats-Of-Yamuna-Mathura.jpg&diff=63693
चित्र:Ghats-Of-Yamuna-Mathura.jpg
2010-11-13T06:23:09Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[यमुना के घाट]], [[मथुरा]]<br />Ghats of Yamuna, Mathura<br />
|चित्रांकन=<br />
|दिनांक=वर्ष - 2010<br />
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|प्रयोग अनुमति=[[ब्रज डिस्कवरी:कॉपीराइट|© brajdiscovery.org]]<br />
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|अन्य विवरण=मथुरा में [[यमुना]] के 24 घाट हैं जिन्हें तीर्थ भी कहा जाता है। [[ब्रज]] में यमुना का महत्व वही है जो शरीर में आत्मा का, यमुना के बिना ब्रज और ब्रज की संस्कृति का कोई महत्व ही नहीं है। <br />
}}<br />
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शिल्पी
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भूषण
2010-11-10T05:06:35Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==भूषण / [[:en:Bhushan|Bhushan]]== <br />
{{सूचना बक्सा साहित्यकार<br />
|चित्र=Blankimage.jpg<br />
|पूरा नाम=<br />
|अन्य नाम=पतिराम, मनिराम (किवदंती) <br />
|जन्म=1613<br />
|जन्म भूमि=तिकँवापुर गाँव, कानपुर<br />
|अविभावक=रत्नाकर त्रिपाठी<br />
|पति/पत्नी=<br />
|संतान=<br />
|कर्म भूमि=कानपुर<br />
|कर्म-क्षेत्र=कविता<br />
|मृत्यु=1715<br />
|मृत्यु स्थान=<br />
|मुख्य रचनाएँ=शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक<br />
|विषय=वीर रस कविता<br />
|भाषा=[[ब्रजभाषा]], अरबी, फारसी, तुर्की<br />
|विद्यालय=<br />
|शिक्षा=<br />
|पुरस्कार-उपाधि=भूषण<br />
|प्रसिद्धि=वीर-काव्य तथा [[वीर रस]]<br />
|विशेष योगदान=रीतिग्रंथ<br />
|नागरिकता=<br />
|संबंधित लेख=<br />
|शीर्षक 1=<br />
|पाठ 1=<br />
|शीर्षक 2=<br />
|पाठ 2=<br />
|अन्य जानकारी=<br />
|बाहरी कड़ियाँ=<br />
|अद्यतन=<br />
}}<br />
वीर रस के कवि भूषण का जन्म कानपुर ज़िले में [[यमुना]] किनारे तिकँवापुर गाँव में हुआ था। मिश्रबन्धुओं तथा रामचन्द्र शुक्ल ने भूषण का समय '''1613-1715''' ई. माना है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। भूषण 1627 ई. से 1680 ई. तक महाराजा [[शिवाजी]] के आश्रय में रहे। इनके छ्त्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने का भी उल्लेख मिलता है। 'शिवराज भूषण', 'शिवाबावनी', और 'छ्त्रसाल दशक' नामक तीन ग्रंथ ही इनके लिखे छः ग्रथों में से उपलब्ध हैं।<br />
==जीवन परिचय==<br />
भूषण [[हिन्दी]] [[रीति काल]] के अन्तर्गत, उसकी परम्परा का अनुसरण करते हुए वीर-काव्य तथा [[वीर रस|वीर-रस]] की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने '''शिवराज-भूषण''' में अपना परचिय देते हुए लिखा है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका गोत्र कश्यप था। ये रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र थे तथा [[यमुना नदी|यमुना]] के किनारे त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर) में रहते थे, जहाँ [[बीरबल]] का जन्म हुआ था और जहाँ विश्वेश्वर के तुल्य देव-बिहारीश्वर [[महादेव]] हैं। चित्रकूटपति हृदयराम के पुत्र रूद्र सुलंकी ने इन्हें 'भूषण' की उपाधि से विभूषित किया था।<ref>छन्द 25-28</ref> तिकवाँपुर कानपुर ज़िले की घाटमपुर तहसील में यमुना के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार भूषण [[शिवाजी]] के पौत्र साहू के दरबारी कवि थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन विद्वानों का यह मत भ्रान्तिपूर्ण है। वस्तुत: भूषण शिवाजी के ही समकालीन एवं आश्रित थे। <br />
====<u>परिवार</u>====<br />
भूषण के पिता कान्यकुब्ज ब्राह्मण रत्नाकर त्रिपाठी थे। कहा जाता है कि वे चार भाई थे- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ (उपनाम जटाशंकर)। भूषण के भ्रातृत्व के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इनके वास्तविक नाम '''पतिराम''' अथवा '''मनिराम''' होने की कल्पना की है पर यह कोरा अनुमान ही प्रतीत होता है। <br />
====<u>आश्रयदाता</u>====<br />
भूषण के प्रमुख आश्रयदाता महाराज [[शिवाजी]] ([[6 अप्रैल]], 1627 - [[3 अप्रैल]], 1680 ई.) तथा छत्रसाल बुन्देला (1649-1731 ई.) थे। इनके नाम से कुछ ऐसे फुटकर छन्द मिलते हैं, जिनमें [[साहूजी]], [[बाजीराव]], [[सुलंकी]], [[जयसिंह|महाराज जयसिंह]], [[महाराज रानसिंह]], [[अनिरूद्ध]], [[राव बुद्ध]], [[कुमाऊँ नरेश]], [[गढ़वार-नरेश]], [[औरंगजेब]], [[दाराशाह]] (दाराशुकोह) आदि की प्रशंसा की गयी है। ये सभी [[छन्द]] भूषण-रचित हैं। इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उक्त-सभी राजाओं क भूषण का आश्रयदाता नहीं माना जा सकता।<br />
==ग्रन्थ==<br />
भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ-<br />
* 'भूषणहजारा'<br />
* 'भूषणउल्लास' <br />
* 'दूषणउल्लास' यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। भूषण के शेष ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है: <br />
{{tocright}}<br />
====<u>शिवराजभूषण</u>====<br />
भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि [[ज्येष्ठ]] वदी [[त्रियोदशी]], [[रविवार]], संम्वत् 1730, [[29 अप्रैल]], 1673 ई. रविवार को दी है।<ref>छन्द 382</ref> शिवराज- भूषण में उल्लेखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है। साथ ही शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। 'शिवराज-भूषण' में '''384 छन्द''' हैं। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा [[कवित्त छन्द|कवित्त]] एवं [[सवैया छन्द|सवैया छन्दों]] में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है। <br />
====<u>शिवाबावनी</u>====<br />
शिवाबावनी में 52 छन्दों में शिवाजी की कीर्ति का वर्णन किया गया है।<br />
====<u>छत्रसालदशक</u>====<br />
छत्रसालदशक में दस छन्दों में छत्रसाल बुन्देला का यशोगान किया गया है। भूषण के नाम से प्राप्त फुटकर पद्यो में विविध व्यक्तियों के सम्बन्ध में कहे गये तथा कुछ श्रृंगारपरक पद्य संगृहीत हैं। <br />
==काव्यगत सौन्दर्य==<br />
भूषण की सारी रचनाएँ '''मुक्तक-पद्धति''' में लिखी गयी हैं। इन्होंने अपने चरित्र-नायकों के विशिष्ट चारित्र्य-गुणों और कार्य-कलापों को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। इनकी कविता वीररस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्धवीर की ही है। इन्होंने युद्धवीर के प्रसंग में चतुरंग चमू, वीरों की गर्वोक्तियाँ, योद्धाओं के पौरूष-पूर्ण कार्य तथा शस्त्रास्त्र आदि का सजीव चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त [[रौद्र रस|रौद्र]], [[भयानक रस|भयानक]], [[वीभत्स रस|वीभत्स]] आदि प्राय: समस्त [[रस|रसों]] के वर्णन इनकी रचना में मिलते हैं पर उसमें रसराजकता वीररस की ही है। वीर-रस के साथ रौद्र तथा भयानक रस का संयोग इनके काव्य में बहुत अच्छा बन पड़ा है।<br />
<br />
रीतिकार के रूप में भूषण को अधिक सफलता नहीं मिली है पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने प्रकृति-वर्णन उद्दीपन एवं अलंकार-पद्धति पर किया है। 'शिवराजभूषण' में रायगढ़ के प्रसंग में राजसी ठाठ-बाट, वृक्षों लताओं तथा पक्षियों के नाम गिनाने वाली परिपाटी का अनुकरण किया गया है।<br />
===<u>शैली</u>===<br />
सामान्यत: भूषण की शैली '''विवेचनात्मक''' एवं '''संश्लिष्ट''' है। इन्होंने विवरणत्मक-प्रणाली की बहुत कम प्रयोग किया है। इन्होंने युद्ध के बाहरी साधनों का ही वर्णन के अतिरिक्त सन्तोष नहीं कर लिया है, वरन मानव-हृदय में उमंग भरने वाली भावनाओं की ओर उनका सदैव लक्ष्य रहा है। शब्दों और भावों का सामंजस्य भूषण की रचना का विशेष गुण है।<br />
===<u>भाषा</u>===<br />
भूषण ने अपने समय में प्रचलित साहित्य की सामान्य काव्य-भाषा [[ब्रजभाषा]] का प्रयोग किया है। इन्होंने विदेशी शब्दों को अधिक उपयोग [[मुसलमान|मुसलमानों]] के ही प्रसंग में किया है। दरबार के प्रसंग में भाषा का खड़ा रूप भी दिखाई पड़ता है। इन्होंने '''अरबी''', '''फारसी''' और '''तुर्की''' के शब्द अधिक प्रयुक्त किये हैं। बुन्देलखण्डी, बैसवाड़ी एवं अन्तर्वेदी शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है। इस प्रकार भूषण की भाषा का रूप साहित्यिक दृष्टि से बुरा भी नहीं कहा जा सकता। इनकी कविता में '''ओज''' पर्याप्त मात्रा में है। प्रसाद का भी अभाव नहीं है। 'शिवराजभूषण' के आरम्भ के वर्णन और श्रृंगार के छन्दों में माधुर्य की प्रधानता है।<br />
==काव्य में स्थान==<br />
आचार्यत्व की दृष्टि से भूषण को विशिष्ट स्थान नहीं प्रदान किया जा सकता पर कवित्व के विचार से उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता कवि- कीर्तिसम्बन्धी एक अविचल सत्य का दृष्टान्त है। वे तत्कालीन स्वातन्यसंग्राम के प्रतिनिधि कवि हैं। भूषण वीरकाव्य-धारा के जगमगाते रत्न हैं। <br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
*[http://books.google.co.in/books?id=h-hhCMYUgYsC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false भूषण ग्रंथावली]<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कवि}}<br />
[[en:Bhushan]]<br />
[[Category:साहित्य]] [[Category:कोश]] [[Category: कवि]]<br />
__INDEX__</div>
शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B7%E0%A4%A3&diff=63660
भूषण
2010-11-10T05:05:46Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==भूषण / [[:en:Bhushan|Bhushan]]== <br />
{{सूचना बक्सा साहित्यकार<br />
|चित्र=Blankimage.jpg<br />
|पूरा नाम=<br />
|अन्य नाम=पतिराम, मनिराम (किवदंती) <br />
|जन्म=1613<br />
|जन्म भूमि=तिकँवापुर गाँव, [[कानपुर]] <br />
|अविभावक=रत्नाकर त्रिपाठी<br />
|पति/पत्नी=<br />
|संतान=<br />
|कर्म भूमि=कानपुर<br />
|कर्म-क्षेत्र=कविता<br />
|मृत्यु=1715<br />
|मृत्यु स्थान=<br />
|मुख्य रचनाएँ=शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक<br />
|विषय=वीर रस कविता<br />
|भाषा=[[ब्रजभाषा]], अरबी, फारसी, तुर्की<br />
|विद्यालय=<br />
|शिक्षा=<br />
|पुरस्कार-उपाधि=भूषण<br />
|प्रसिद्धि=वीर-काव्य तथा [[वीर रस]]<br />
|विशेष योगदान=रीतिग्रंथ<br />
|नागरिकता=<br />
|संबंधित लेख=<br />
|शीर्षक 1=<br />
|पाठ 1=<br />
|शीर्षक 2=<br />
|पाठ 2=<br />
|अन्य जानकारी=<br />
|बाहरी कड़ियाँ=<br />
|अद्यतन=<br />
}}<br />
वीर रस के कवि भूषण का जन्म कानपुर ज़िले में [[यमुना]] किनारे तिकँवापुर गाँव में हुआ था। मिश्रबन्धुओं तथा रामचन्द्र शुक्ल ने भूषण का समय '''1613-1715''' ई. माना है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। भूषण 1627 ई. से 1680 ई. तक महाराजा [[शिवाजी]] के आश्रय में रहे। इनके छ्त्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने का भी उल्लेख मिलता है। 'शिवराज भूषण', 'शिवाबावनी', और 'छ्त्रसाल दशक' नामक तीन ग्रंथ ही इनके लिखे छः ग्रथों में से उपलब्ध हैं।<br />
==जीवन परिचय==<br />
भूषण [[हिन्दी]] [[रीति काल]] के अन्तर्गत, उसकी परम्परा का अनुसरण करते हुए वीर-काव्य तथा [[वीर रस|वीर-रस]] की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने '''शिवराज-भूषण''' में अपना परचिय देते हुए लिखा है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका गोत्र कश्यप था। ये रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र थे तथा [[यमुना नदी|यमुना]] के किनारे त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर) में रहते थे, जहाँ [[बीरबल]] का जन्म हुआ था और जहाँ विश्वेश्वर के तुल्य देव-बिहारीश्वर [[महादेव]] हैं। चित्रकूटपति हृदयराम के पुत्र रूद्र सुलंकी ने इन्हें 'भूषण' की उपाधि से विभूषित किया था।<ref>छन्द 25-28</ref> तिकवाँपुर कानपुर ज़िले की घाटमपुर तहसील में यमुना के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार भूषण [[शिवाजी]] के पौत्र साहू के दरबारी कवि थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन विद्वानों का यह मत भ्रान्तिपूर्ण है। वस्तुत: भूषण शिवाजी के ही समकालीन एवं आश्रित थे। <br />
====<u>परिवार</u>====<br />
भूषण के पिता कान्यकुब्ज ब्राह्मण रत्नाकर त्रिपाठी थे। कहा जाता है कि वे चार भाई थे- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ (उपनाम जटाशंकर)। भूषण के भ्रातृत्व के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इनके वास्तविक नाम '''पतिराम''' अथवा '''मनिराम''' होने की कल्पना की है पर यह कोरा अनुमान ही प्रतीत होता है। <br />
====<u>आश्रयदाता</u>====<br />
भूषण के प्रमुख आश्रयदाता महाराज [[शिवाजी]] ([[6 अप्रैल]], 1627 - [[3 अप्रैल]], 1680 ई.) तथा छत्रसाल बुन्देला (1649-1731 ई.) थे। इनके नाम से कुछ ऐसे फुटकर छन्द मिलते हैं, जिनमें [[साहूजी]], [[बाजीराव]], [[सुलंकी]], [[जयसिंह|महाराज जयसिंह]], [[महाराज रानसिंह]], [[अनिरूद्ध]], [[राव बुद्ध]], [[कुमाऊँ नरेश]], [[गढ़वार-नरेश]], [[औरंगजेब]], [[दाराशाह]] (दाराशुकोह) आदि की प्रशंसा की गयी है। ये सभी [[छन्द]] भूषण-रचित हैं। इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उक्त-सभी राजाओं क भूषण का आश्रयदाता नहीं माना जा सकता।<br />
==ग्रन्थ==<br />
भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ-<br />
* 'भूषणहजारा'<br />
* 'भूषणउल्लास' <br />
* 'दूषणउल्लास' यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। भूषण के शेष ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है: <br />
{{tocright}}<br />
====<u>शिवराजभूषण</u>====<br />
भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि [[ज्येष्ठ]] वदी [[त्रियोदशी]], [[रविवार]], संम्वत् 1730, [[29 अप्रैल]], 1673 ई. रविवार को दी है।<ref>छन्द 382</ref> शिवराज- भूषण में उल्लेखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है। साथ ही शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। 'शिवराज-भूषण' में '''384 छन्द''' हैं। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा [[कवित्त छन्द|कवित्त]] एवं [[सवैया छन्द|सवैया छन्दों]] में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है। <br />
====<u>शिवाबावनी</u>====<br />
शिवाबावनी में 52 छन्दों में शिवाजी की कीर्ति का वर्णन किया गया है।<br />
====<u>छत्रसालदशक</u>====<br />
छत्रसालदशक में दस छन्दों में छत्रसाल बुन्देला का यशोगान किया गया है। भूषण के नाम से प्राप्त फुटकर पद्यो में विविध व्यक्तियों के सम्बन्ध में कहे गये तथा कुछ श्रृंगारपरक पद्य संगृहीत हैं। <br />
==काव्यगत सौन्दर्य==<br />
भूषण की सारी रचनाएँ '''मुक्तक-पद्धति''' में लिखी गयी हैं। इन्होंने अपने चरित्र-नायकों के विशिष्ट चारित्र्य-गुणों और कार्य-कलापों को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। इनकी कविता वीररस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्धवीर की ही है। इन्होंने युद्धवीर के प्रसंग में चतुरंग चमू, वीरों की गर्वोक्तियाँ, योद्धाओं के पौरूष-पूर्ण कार्य तथा शस्त्रास्त्र आदि का सजीव चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त [[रौद्र रस|रौद्र]], [[भयानक रस|भयानक]], [[वीभत्स रस|वीभत्स]] आदि प्राय: समस्त [[रस|रसों]] के वर्णन इनकी रचना में मिलते हैं पर उसमें रसराजकता वीररस की ही है। वीर-रस के साथ रौद्र तथा भयानक रस का संयोग इनके काव्य में बहुत अच्छा बन पड़ा है।<br />
<br />
रीतिकार के रूप में भूषण को अधिक सफलता नहीं मिली है पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने प्रकृति-वर्णन उद्दीपन एवं अलंकार-पद्धति पर किया है। 'शिवराजभूषण' में रायगढ़ के प्रसंग में राजसी ठाठ-बाट, वृक्षों लताओं तथा पक्षियों के नाम गिनाने वाली परिपाटी का अनुकरण किया गया है।<br />
===<u>शैली</u>===<br />
सामान्यत: भूषण की शैली '''विवेचनात्मक''' एवं '''संश्लिष्ट''' है। इन्होंने विवरणत्मक-प्रणाली की बहुत कम प्रयोग किया है। इन्होंने युद्ध के बाहरी साधनों का ही वर्णन के अतिरिक्त सन्तोष नहीं कर लिया है, वरन मानव-हृदय में उमंग भरने वाली भावनाओं की ओर उनका सदैव लक्ष्य रहा है। शब्दों और भावों का सामंजस्य भूषण की रचना का विशेष गुण है।<br />
===<u>भाषा</u>===<br />
भूषण ने अपने समय में प्रचलित साहित्य की सामान्य काव्य-भाषा [[ब्रजभाषा]] का प्रयोग किया है। इन्होंने विदेशी शब्दों को अधिक उपयोग [[मुसलमान|मुसलमानों]] के ही प्रसंग में किया है। दरबार के प्रसंग में भाषा का खड़ा रूप भी दिखाई पड़ता है। इन्होंने '''अरबी''', '''फारसी''' और '''तुर्की''' के शब्द अधिक प्रयुक्त किये हैं। बुन्देलखण्डी, बैसवाड़ी एवं अन्तर्वेदी शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है। इस प्रकार भूषण की भाषा का रूप साहित्यिक दृष्टि से बुरा भी नहीं कहा जा सकता। इनकी कविता में '''ओज''' पर्याप्त मात्रा में है। प्रसाद का भी अभाव नहीं है। 'शिवराजभूषण' के आरम्भ के वर्णन और श्रृंगार के छन्दों में माधुर्य की प्रधानता है।<br />
==काव्य में स्थान==<br />
आचार्यत्व की दृष्टि से भूषण को विशिष्ट स्थान नहीं प्रदान किया जा सकता पर कवित्व के विचार से उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता कवि- कीर्तिसम्बन्धी एक अविचल सत्य का दृष्टान्त है। वे तत्कालीन स्वातन्यसंग्राम के प्रतिनिधि कवि हैं। भूषण वीरकाव्य-धारा के जगमगाते रत्न हैं। <br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
*[http://books.google.co.in/books?id=h-hhCMYUgYsC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false भूषण ग्रंथावली]<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कवि}}<br />
[[en:Bhushan]]<br />
[[Category:साहित्य]] [[Category:कोश]] [[Category: कवि]]<br />
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शिल्पी
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भूषण
2010-11-10T04:53:15Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==भूषण / [[:en:Bhushan|Bhushan]]== <br />
{{सूचना बक्सा साहित्यकार<br />
|चित्र=<br />
|पूरा नाम=<br />
|अन्य नाम=पतिराम, मनिराम (किवदंती) <br />
|जन्म=1613<br />
|जन्म भूमि=तिकँवापुर गाँव, [[कानपुर]] <br />
|अविभावक=रत्नाकर त्रिपाठी<br />
|पति/पत्नी=<br />
|संतान=<br />
|कर्म भूमि=कानपुर<br />
|कर्म-क्षेत्र=कविता<br />
|मृत्यु=1715<br />
|मृत्यु स्थान=<br />
|मुख्य रचनाएँ=शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक<br />
|विषय=वीर रस कविता<br />
|भाषा=[[ब्रजभाषा|ब्रज]], अरबी, फारसी, तुर्की<br />
|विद्यालय=<br />
|शिक्षा=<br />
|पुरस्कार-उपाधि=भूषण<br />
|प्रसिद्धि=वीर-काव्य तथा [[वीर रस]]<br />
|विशेष योगदान=रीतिग्रंथ<br />
|नागरिकता=<br />
|संबंधित लेख=<br />
|शीर्षक 1=<br />
|पाठ 1=<br />
|शीर्षक 2=<br />
|पाठ 2=<br />
|अन्य जानकारी=<br />
|बाहरी कड़ियाँ=<br />
|अद्यतन=<br />
}}<br />
वीर रस के कवि भूषण का जन्म [[कानपुर]] ज़िले में [[यमुना नदी|यमुना]] किनारे तिकँवापुर गाँव में हुआ था। मिश्रबन्धुओं तथा [[रामचन्द्र शुक्ल]] ने भूषण का समय '''1613-1715''' ई. माना है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। भूषण 1627 ई. से 1680 ई. तक महाराजा [[शिवाजी]] के आश्रय में रहे। इनके छ्त्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने का भी उल्लेख मिलता है। 'शिवराज भूषण', 'शिवाबावनी', और 'छ्त्रसाल दशक' नामक तीन ग्रंथ ही इनके लिखे छः ग्रथों में से उपलब्ध हैं।<br />
==जीवन परिचय==<br />
भूषण [[हिन्दी]] [[रीति काल]] के अन्तर्गत, उसकी परम्परा का अनुसरण करते हुए वीर-काव्य तथा [[वीर रस|वीर-रस]] की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने '''शिवराज-भूषण''' में अपना परचिय देते हुए लिखा है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका गोत्र कश्यप था। ये रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र थे तथा [[यमुना नदी|यमुना]] के किनारे त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर) में रहते थे, जहाँ [[बीरबल]] का जन्म हुआ था और जहाँ विश्वेश्वर के तुल्य देव-बिहारीश्वर [[महादेव]] हैं। चित्रकूटपति हृदयराम के पुत्र रूद्र सुलंकी ने इन्हें 'भूषण' की उपाधि से विभूषित किया था।<ref>छन्द 25-28</ref> तिकवाँपुर कानपुर ज़िले की घाटमपुर तहसील में यमुना के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार भूषण [[शिवाजी]] के पौत्र साहू के दरबारी कवि थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन विद्वानों का यह मत भ्रान्तिपूर्ण है। वस्तुत: भूषण शिवाजी के ही समकालीन एवं आश्रित थे। <br />
====<u>परिवार</u>====<br />
{{tocright}}<br />
भूषण के पिता कान्यकुब्ज ब्राह्मण रत्नाकर त्रिपाठी थे। कहा जाता है कि वे चार भाई थे- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ (उपनाम जटाशंकर)। भूषण के भ्रातृत्व के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इनके वास्तविक नाम '''पतिराम''' अथवा '''मनिराम''' होने की कल्पना की है पर यह कोरा अनुमान ही प्रतीत होता है। <br />
====<u>आश्रयदाता</u>====<br />
भूषण के प्रमुख आश्रयदाता महाराज [[शिवाजी]] ([[6 अप्रैल]], 1627 - [[3 अप्रैल]], 1680 ई.) तथा छत्रसाल बुन्देला (1649-1731 ई.) थे। इनके नाम से कुछ ऐसे फुटकर छन्द मिलते हैं, जिनमें [[साहूजी]], [[बाजीराव]], [[सुलंकी]], [[जयसिंह|महाराज जयसिंह]], [[महाराज रानसिंह]], [[अनिरूद्ध]], [[राव बुद्ध]], [[कुमाऊँ नरेश]], [[गढ़वार-नरेश]], [[औरंगजेब]], [[दाराशाह]] (दाराशुकोह) आदि की प्रशंसा की गयी है। ये सभी [[छन्द]] भूषण-रचित हैं। इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उक्त-सभी राजाओं क भूषण का आश्रयदाता नहीं माना जा सकता।<br />
==ग्रन्थ==<br />
भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ-<br />
* 'भूषणहजारा'<br />
* 'भूषणउल्लास' <br />
* 'दूषणउल्लास' यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। भूषण के शेष ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है: <br />
<br />
====<u>शिवराजभूषण</u>====<br />
भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि [[ज्येष्ठ]] वदी [[त्रियोदशी]], [[रविवार]], संम्वत् 1730, [[29 अप्रैल]], 1673 ई. रविवार को दी है।<ref>छन्द 382</ref> शिवराज- भूषण में उल्लेखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है। साथ ही शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। 'शिवराज-भूषण' में '''384 छन्द''' हैं। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा [[कवित्त छन्द|कवित्त]] एवं [[सवैया छन्द|सवैया छन्दों]] में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है। <br />
====<u>शिवाबावनी</u>====<br />
शिवाबावनी में 52 छन्दों में शिवाजी की कीर्ति का वर्णन किया गया है।<br />
====<u>छत्रसालदशक</u>====<br />
छत्रसालदशक में दस छन्दों में छत्रसाल बुन्देला का यशोगान किया गया है। भूषण के नाम से प्राप्त फुटकर पद्यो में विविध व्यक्तियों के सम्बन्ध में कहे गये तथा कुछ श्रृंगारपरक पद्य संगृहीत हैं। <br />
==काव्यगत सौन्दर्य==<br />
भूषण की सारी रचनाएँ '''मुक्तक-पद्धति''' में लिखी गयी हैं। इन्होंने अपने चरित्र-नायकों के विशिष्ट चारित्र्य-गुणों और कार्य-कलापों को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। इनकी कविता वीररस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्धवीर की ही है। इन्होंने युद्धवीर के प्रसंग में चतुरंग चमू, वीरों की गर्वोक्तियाँ, योद्धाओं के पौरूष-पूर्ण कार्य तथा शस्त्रास्त्र आदि का सजीव चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त [[रौद्र रस|रौद्र]], [[भयानक रस|भयानक]], [[वीभत्स रस|वीभत्स]] आदि प्राय: समस्त [[रस|रसों]] के वर्णन इनकी रचना में मिलते हैं पर उसमें रसराजकता वीररस की ही है। वीर-रस के साथ रौद्र तथा भयानक रस का संयोग इनके काव्य में बहुत अच्छा बन पड़ा है।<br />
<br />
रीतिकार के रूप में भूषण को अधिक सफलता नहीं मिली है पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने प्रकृति-वर्णन उद्दीपन एवं अलंकार-पद्धति पर किया है। 'शिवराजभूषण' में रायगढ़ के प्रसंग में राजसी ठाठ-बाट, वृक्षों लताओं तथा पक्षियों के नाम गिनाने वाली परिपाटी का अनुकरण किया गया है।<br />
===<u>शैली</u>===<br />
सामान्यत: भूषण की शैली '''विवेचनात्मक''' एवं '''संश्लिष्ट''' है। इन्होंने विवरणत्मक-प्रणाली की बहुत कम प्रयोग किया है। इन्होंने युद्ध के बाहरी साधनों का ही वर्णन के अतिरिक्त सन्तोष नहीं कर लिया है, वरन मानव-हृदय में उमंग भरने वाली भावनाओं की ओर उनका सदैव लक्ष्य रहा है। शब्दों और भावों का सामंजस्य भूषण की रचना का विशेष गुण है।<br />
===<u>भाषा</u>===<br />
भूषण ने अपने समय में प्रचलित साहित्य की सामान्य काव्य-भाषा [[ब्रज भाषा|ब्रज]] का प्रयोग किया है। इन्होंने विदेशी शब्दों को अधिक उपयोग [[मुसलमान|मुसलमानों]] के ही प्रसंग में किया है। दरबार के प्रसंग में भाषा का खड़ा रूप भी दिखाई पड़ता है। इन्होंने '''अरबी''', '''फारसी''' और '''तुर्की''' के शब्द अधिक प्रयुक्त किये हैं। बुन्देलखण्डी, बैसवाड़ी एवं अन्तर्वेदी शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है। इस प्रकार भूषण की भाषा का रूप साहित्यिक दृष्टि से बुरा भी नहीं कहा जा सकता। इनकी कविता में '''ओज''' पर्याप्त मात्रा में है। प्रसाद का भी अभाव नहीं है। 'शिवराजभूषण' के आरम्भ के वर्णन और श्रृंगार के छन्दों में माधुर्य की प्रधानता है।<br />
==काव्य में स्थान==<br />
आचार्यत्व की दृष्टि से भूषण को विशिष्ट स्थान नहीं प्रदान किया जा सकता पर कवित्व के विचार से उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता कवि- कीर्तिसम्बन्धी एक अविचल सत्य का दृष्टान्त है। वे तत्कालीन स्वातन्यसंग्राम के प्रतिनिधि कवि हैं। भूषण वीरकाव्य-धारा के जगमगाते [[रत्न]] हैं। <br />
<br />
'''<u>सहायक ग्रन्थ</u>''' - हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी साहित्य: भूषण ग्रन्थावलियाँ की भूमिकाएँ आदि इनके सहायक ग्रंथ है। <br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कवि}}<br />
[[en:Bhushan]]<br />
[[Category:साहित्य]] [[Category:कोश]] [[Category: कवि]]<br />
__INDEX__</div>
शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B7%E0%A4%A3&diff=63655
भूषण
2010-11-10T04:50:10Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
{{Incomplete}}<br />
==भूषण / [[:en:Bhushan|Bhushan]]== <br />
{{सूचना बक्सा साहित्यकार<br />
|चित्र=Blankimage.gif<br />
|पूरा नाम=<br />
|अन्य नाम=पतिराम, मनिराम (किवदंती) <br />
|जन्म=1613<br />
|जन्म भूमि=तिकँवापुर गाँव, [[कानपुर]] <br />
|अविभावक=रत्नाकर त्रिपाठी<br />
|पति/पत्नी=<br />
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|कर्म भूमि=कानपुर<br />
|कर्म-क्षेत्र=कविता<br />
|मृत्यु=1715<br />
|मृत्यु स्थान=<br />
|मुख्य रचनाएँ=शिवराजभूषण, शिवाबावनी, छत्रसालदशक<br />
|विषय=वीर रस कविता<br />
|भाषा=[[ब्रज भाषा|ब्रज]], [[अरबी भाषा|अरबी]], [[फारसी भाषा|फारसी]], तुर्की<br />
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|शीर्षक 1=<br />
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|शीर्षक 2=<br />
|पाठ 2=<br />
|अन्य जानकारी=<br />
|बाहरी कड़ियाँ=<br />
|अद्यतन=<br />
}}<br />
वीर रस के कवि भूषण का जन्म [[कानपुर]] ज़िले में [[यमुना नदी|यमुना]] किनारे तिकँवापुर गाँव में हुआ था। मिश्रबन्धुओं तथा [[रामचन्द्र शुक्ल]] ने भूषण का समय '''1613-1715''' ई. माना है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। भूषण 1627 ई. से 1680 ई. तक महाराजा [[शिवाजी]] के आश्रय में रहे। इनके छ्त्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने का भी उल्लेख मिलता है। 'शिवराज भूषण', 'शिवाबावनी', और 'छ्त्रसाल दशक' नामक तीन ग्रंथ ही इनके लिखे छः ग्रथों में से उपलब्ध हैं।<br />
==जीवन परिचय==<br />
भूषण [[हिन्दी]] [[रीति काल]] के अन्तर्गत, उसकी परम्परा का अनुसरण करते हुए वीर-काव्य तथा [[वीर रस|वीर-रस]] की रचना करने वाले प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने '''शिवराज-भूषण''' में अपना परचिय देते हुए लिखा है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका गोत्र कश्यप था। ये रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र थे तथा [[यमुना नदी|यमुना]] के किनारे त्रिविक्रमपुर (तिकवाँपुर) में रहते थे, जहाँ [[बीरबल]] का जन्म हुआ था और जहाँ विश्वेश्वर के तुल्य देव-बिहारीश्वर [[महादेव]] हैं। चित्रकूटपति हृदयराम के पुत्र रूद्र सुलंकी ने इन्हें 'भूषण' की उपाधि से विभूषित किया था।<ref>छन्द 25-28</ref> तिकवाँपुर कानपुर ज़िले की घाटमपुर तहसील में यमुना के बाएँ किनारे पर अवस्थित है। शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. और ग्रियर्सन ने 1603 ई. लिखा है। कुछ विद्वानों के मतानुसार भूषण [[शिवाजी]] के पौत्र साहू के दरबारी कवि थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन विद्वानों का यह मत भ्रान्तिपूर्ण है। वस्तुत: भूषण शिवाजी के ही समकालीन एवं आश्रित थे। <br />
====<u>परिवार</u>====<br />
भूषण के पिता कान्यकुब्ज ब्राह्मण रत्नाकर त्रिपाठी थे। कहा जाता है कि वे चार भाई थे- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ (उपनाम जटाशंकर)। भूषण के भ्रातृत्व के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इनके वास्तविक नाम '''पतिराम''' अथवा '''मनिराम''' होने की कल्पना की है पर यह कोरा अनुमान ही प्रतीत होता है। <br />
====<u>आश्रयदाता</u>====<br />
भूषण के प्रमुख आश्रयदाता महाराज [[शिवाजी]] ([[6 अप्रैल]], 1627 - [[3 अप्रैल]], 1680 ई.) तथा छत्रसाल बुन्देला (1649-1731 ई.) थे। इनके नाम से कुछ ऐसे फुटकर छन्द मिलते हैं, जिनमें [[साहूजी]], [[बाजीराव]], [[सुलंकी]], [[जयसिंह|महाराज जयसिंह]], [[महाराज रानसिंह]], [[अनिरूद्ध]], [[राव बुद्ध]], [[कुमाऊँ नरेश]], [[गढ़वार-नरेश]], [[औरंगजेब]], [[दाराशाह]] (दाराशुकोह) आदि की प्रशंसा की गयी है। ये सभी [[छन्द]] भूषण-रचित हैं। इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उक्त-सभी राजाओं क भूषण का आश्रयदाता नहीं माना जा सकता।<br />
==ग्रन्थ==<br />
भूषणरचित छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। इनमें से ये तीन ग्रन्थ-<br />
* 'भूषणहजारा'<br />
* 'भूषणउल्लास' <br />
* 'दूषणउल्लास' यह ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं आये हैं। भूषण के शेष ग्रन्थों का परिचय इस प्रकार है: <br />
<br />
====<u>शिवराजभूषण</u>====<br />
भूषण ने अपनी इस कृति की रचना-तिथि [[ज्येष्ठ]] वदी [[त्रियोदशी]], [[रविवार]], संम्वत् 1730, [[29 अप्रैल]], 1673 ई. रविवार को दी है।<ref>छन्द 382</ref> शिवराज- भूषण में उल्लेखित शिवाजी विषयक ऐतिहासिक घटनाएँ 1673 ई. तक घटित हो चुकी थीं। इससे भी इस ग्रन्थ का उक्त रचनाकाल ठीक ठहरता है। साथ ही शिवाजी और भूषण की समसामयिकता भी सिद्ध हो जाती है। 'शिवराज-भूषण' में '''384 छन्द''' हैं। दोहों में अलंकारों की परिभाषा दी गयी है तथा [[कवित्त छन्द|कवित्त]] एवं [[सवैया छन्द|सवैया छन्दों]] में उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें शिवाजी के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है। <br />
====<u>शिवाबावनी</u>====<br />
शिवाबावनी में 52 छन्दों में शिवाजी की कीर्ति का वर्णन किया गया है।<br />
====<u>छत्रसालदशक</u>====<br />
छत्रसालदशक में दस छन्दों में छत्रसाल बुन्देला का यशोगान किया गया है। भूषण के नाम से प्राप्त फुटकर पद्यो में विविध व्यक्तियों के सम्बन्ध में कहे गये तथा कुछ श्रृंगारपरक पद्य संगृहीत हैं। <br />
==काव्यगत सौन्दर्य==<br />
भूषण की सारी रचनाएँ '''मुक्तक-पद्धति''' में लिखी गयी हैं। इन्होंने अपने चरित्र-नायकों के विशिष्ट चारित्र्य-गुणों और कार्य-कलापों को ही अपने काव्य का विषय बनाया है। इनकी कविता वीररस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्धवीर की ही है। इन्होंने युद्धवीर के प्रसंग में चतुरंग चमू, वीरों की गर्वोक्तियाँ, योद्धाओं के पौरूष-पूर्ण कार्य तथा शस्त्रास्त्र आदि का सजीव चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त [[रौद्र रस|रौद्र]], [[भयानक रस|भयानक]], [[वीभत्स रस|वीभत्स]] आदि प्राय: समस्त [[रस|रसों]] के वर्णन इनकी रचना में मिलते हैं पर उसमें रसराजकता वीररस की ही है। वीर-रस के साथ रौद्र तथा भयानक रस का संयोग इनके काव्य में बहुत अच्छा बन पड़ा है।<br />
<br />
रीतिकार के रूप में भूषण को अधिक सफलता नहीं मिली है पर शुद्ध कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है। इन्होंने प्रकृति-वर्णन उद्दीपन एवं अलंकार-पद्धति पर किया है। 'शिवराजभूषण' में रायगढ़ के प्रसंग में राजसी ठाठ-बाट, वृक्षों लताओं तथा पक्षियों के नाम गिनाने वाली परिपाटी का अनुकरण किया गया है।<br />
===<u>शैली</u>===<br />
सामान्यत: भूषण की शैली '''विवेचनात्मक''' एवं '''संश्लिष्ट''' है। इन्होंने विवरणत्मक-प्रणाली की बहुत कम प्रयोग किया है। इन्होंने युद्ध के बाहरी साधनों का ही वर्णन के अतिरिक्त सन्तोष नहीं कर लिया है, वरन मानव-हृदय में उमंग भरने वाली भावनाओं की ओर उनका सदैव लक्ष्य रहा है। शब्दों और भावों का सामंजस्य भूषण की रचना का विशेष गुण है।<br />
===<u>भाषा</u>===<br />
भूषण ने अपने समय में प्रचलित साहित्य की सामान्य काव्य-भाषा [[ब्रज भाषा|ब्रज]] का प्रयोग किया है। इन्होंने विदेशी शब्दों को अधिक उपयोग [[मुसलमान|मुसलमानों]] के ही प्रसंग में किया है। दरबार के प्रसंग में भाषा का खड़ा रूप भी दिखाई पड़ता है। इन्होंने '''अरबी''', '''फारसी''' और '''तुर्की''' के शब्द अधिक प्रयुक्त किये हैं। बुन्देलखण्डी, बैसवाड़ी एवं अन्तर्वेदी शब्दों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया गया है। इस प्रकार भूषण की भाषा का रूप साहित्यिक दृष्टि से बुरा भी नहीं कहा जा सकता। इनकी कविता में '''ओज''' पर्याप्त मात्रा में है। प्रसाद का भी अभाव नहीं है। 'शिवराजभूषण' के आरम्भ के वर्णन और श्रृंगार के छन्दों में माधुर्य की प्रधानता है।<br />
==काव्य में स्थान==<br />
आचार्यत्व की दृष्टि से भूषण को विशिष्ट स्थान नहीं प्रदान किया जा सकता पर कवित्व के विचार से उनका एक महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी कविता कवि- कीर्तिसम्बन्धी एक अविचल सत्य का दृष्टान्त है। वे तत्कालीन स्वातन्यसंग्राम के प्रतिनिधि कवि हैं। भूषण वीरकाव्य-धारा के जगमगाते [[रत्न]] हैं। <br />
<br />
'''<u>सहायक ग्रन्थ</u>''' - हिन्दी साहित्य का इतिहास, हिन्दी साहित्य: भूषण ग्रन्थावलियाँ की भूमिकाएँ आदि इनके सहायक ग्रंथ है। <br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कवि}}<br />
[[en:Bhushan]]<br />
[[Category:साहित्य]] [[Category:कोश]] [[Category: कवि]]<br />
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शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%9A%E0%A4%BE:%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF&diff=63654
साँचा:कवि
2010-11-10T04:50:03Z
<p>शिल्पी: </p>
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शिल्पी
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महाराजा अग्रसेन
2010-10-04T09:14:00Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==महाराजा अग्रसेन / Maharaja Agrasen==<br />
[[चित्र:Maharaja-Agrasen-6.jpg|thumb|250px|महाराजा अग्रसेन प्रतिमा<br />Maharaja Agrasen Statue]]<br />
*ऐसी मान्यता है कि महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। धार्मिक मान्यतानुसार इनका जन्म मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्री[[राम]] की चौंतीसवी पीढ़ी में [[सूर्यवंश|सूर्यवशीं]] क्षत्रिय कुल के महाराजा बल्लभ सेन के घर में [[द्वापर युग|द्वापर]] के अन्तिमकाल और [[कलियुग]] के प्रारम्भ में आज से 5000 वर्ष पूर्व हुआ था।<br />
*महाराजा अग्रसेन समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो '''सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखायः''' कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेगें।<ref>{{cite web |url=http://samajvikas.blogspot.com/2009/01/blog-post_11.html |title=समाजवाद के प्रणेता अग्र शिरोमणि महाराजा अग्रसेन |accessmonthday=29 सितम्बर |accessyear=2010 |last=बसंल |first=सुरेश कुमार |authorlink= |format=एच टी एम एल |publisher=म्हारो राजस्थान |language=हिन्दी }}</ref><br />
==जीवन परिचय==<br />
महाराजा अग्रसेनजी का जन्म [[अश्विन]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] [[प्रतिपदा]] को हुआ, जिसे अग्रसेन जयंती के रूप में मनाया जाता है। [[चित्र:Maharaja-Agrasen.jpg|thumb|महाराजा अग्रसेन<br />Maharaja Agrasen]] महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व प्रताप नगर के राजा वल्लभ के यहाँ सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ था। वर्तमान में [[राजस्थान]] व [[हरियाणा]] राज्य के बीच [[सरस्वती नदी]] के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और [[सूरसेन]] नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्ल्भ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ॠषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इस के राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हज़ारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा। <br />
====<u>माधवी का वरण</u>====<br />
महाराज अग्रसेन ने नाग लोक के राजा कुमद के यहाँ आयोजित स्वंयवर में राजकुमारी माधवी का वरण किया इस स्वंयवर में देव लोक से राजा [[इन्द्र|इंद्र]] भी राजकुमारी माधवी से विवाह की इच्छा से उपस्थित थे परन्तु माधवी दारा श्री अग्रसेन का वरण करने से इंद्र कुपित होकर स्वंयवर स्थल से चले गये इस विवाह से [[नाग]] एवं [[आर्य]] कुल का नया गठबधन हुआ।<br />
[[चित्र:Maharaja-Agrasen-2.gif|thumb|left|250px|महाराजा अग्रसेन<br />Maharaja Agrasen]]<br />
====<u>तपस्या</u>====<br />
कुपित इंद्र ने अपने अनुचरो से प्रताप नगर में वर्षा नहीं करने का आदेश दिया जिससे भयंकर आकाल पड़ा। चारों तरफ त्राहि त्राहि मच गई तब अग्रसेन और सूरसेन ने अपने दिव्य शस्त्रों का संधान कर इन्द्र से युद्ध कर प्रतापनगर को विपत्ति से बचाया। लेकिन यह समस्या का स्थायी समाधान नहीं था। तब अग्रसेन ने भगवान [[शंकर]] एवं [[महालक्ष्मी देवी|महालक्ष्मी]] माता की अराधना की, इन्द्र ने अग्रसेन की तपस्या में अनेक बाधाएँ उत्पन्न कीं परन्तु श्री अग्रसेन की अविचल तपस्या से महालक्ष्मी प्रकट हुई एवं वरदान दिया कि तुम्हारे सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। तुम्हारे द्वारा सबका मंगल होगा। माता को अग्रसेन ने इन्द्र की समस्या से अवगत कराया तो महालक्ष्मी ने कहा, इन्द्र को अनुभव प्राप्त है। आर्य एवं नागवंश की संधि और राजकुमारी माधवी के सौन्दर्य ने उसे दुखी कर दिया है, तुम्हें कूटनीति अपनानी होगी। कोलापुर के राजा भी नागवंशी है, यदि तुम उनकी पुत्री का वरण कर लेते हो तो कोलापुर नरेश महीरथ की शक्तियाँ तुम्हें प्राप्त हो जाएंगी, तब इन्द्र को तुम्हारे सामने आने के लिए अनेक बार सोचना पडेगा। तुम निडर होकर अपने नये राज्य की स्थापना करो। <br />
====<u>सुन्दरावती का वरण</u>====<br />
कोलापुर में नागराज महीरथ का शासन था। राजकुमारी सुन्दरावती के स्वयंवर में अनेक देशों के राजकुमार, वेश बदलकर अनेक [[गंधर्व]] व [[देवता]] उपस्थित थे, तब भगवान [[शंकर]] एवं माता लक्ष्मी की प्रेरणा से राजकुमारी ने श्री अग्रसेन को वरण किया। दो-दो नाग वंशों से संबंध स्थापित करने के बाद महाराजा वल्लभ के राज्य में अपार सुख समृद्धि व्याप्त हुई, इन्द्र भी श्री अग्रसेन से मैत्री के बाध्य हुये।<br />
[[चित्र:Maharaja-Agrasen-7.jpg|thumb|250px|महाराजा अग्रसेन प्रतिमा<br />Maharaja Agrasen Statue]]<br />
==अग्रोहा का निर्माण==<br />
महाराजा वल्लभ के निधन के बाद श्री अग्रसेन राजा हुए और राजा वल्लभ के आशीर्वाद से लोहागढ़ सीमा से निकल कर अग्रसेन ने सरस्वती और [[यमुना नदी]] के बीच एक वीर भूमि खोजकर वहाँ अपने नए राज्य अग्रोहा का निर्माण किया और अपने छोटे भाई सूरसेन को प्रतापनगर का राजपाट सौंप दिया। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण रखा गया जिसे अग्रोहा नाम से जाना जाता है।<br />
==अठारह यज्ञ==<br />
[[चित्र:Maharaja-Agrasen-3.jpg|thumb|250px|महाराजा अग्रसेन स्टाम्प<br />Maharaja Agrasen Stamp]]<br />
माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। राजकुमार विभु उनमें सबसे बड़े थे। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 पुत्र के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। माना जाता है कि [[यज्ञ|यज्ञों]] में बैठे 18 गुरुओं के नाम पर ही अग्रवंश (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई । यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने, राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ॠषि ने करवाया और द्वितीय पुत्र को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे। जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने क्षत्रिय धर्म को अपना लिया। अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया।<br />
<br />
ॠषियों द्वारा प्रदत्त अठारह गोत्रों को महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों के साथ महाराजा द्वारा बसायी 18 बस्तियों के निवासियों ने भी धारण कर लिया एक बस्ती के साथ प्रेम भाव बनाये रखने के लिए एक सर्वसम्मत निर्णय हुआ कि अपने पुत्र और पुत्री का विवाह अपनी बस्ती में नहीं दूसरी बस्ती में करेंगे। आगे चलकर यह व्यवस्था गोत्रों में बदल गई जो आज भी अग्रवाल समाज में प्रचलित है। <br />
==अठारह गोत्र==<br />
महाराज अग्रसेन के 18 पुत्र हुए, जिनके नाम पर वर्तमान में अग्रवालों के 18 गोत्र हैं। ये गोत्र निम्नलिखित हैं: - <br />
<center><br />
{| class="wikitable" border="1"<br />
|+गोत्रों के नाम<br />
|-<br />
|ऐरन<br />
|बंसल<br />
|बिंदल<br />
|भंदल<br />
|धारण<br />
|गर्ग<br />
|गोयल<br />
|गोयन <br />
|जिंदल<br />
|- <br />
|कंसल <br />
|कुच्छल <br />
|मधुकुल <br />
|मंगल <br />
|मित्तल <br />
|नागल <br />
|सिंघल<br />
|तायल <br />
|तिंगल<br />
|}<br />
</center><br />
[[चित्र:Maharaja-Agrasen-5.jpg|thumb|250px|महाराजा अग्रसेन प्रतिमा<br />Maharaja Agrasen Statue]]<br />
==समाजवाद का अग्रदूत==<br />
महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का अग्रदूत कहा जाता है। अपने क्षेत्र में सच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु उन्होंने नियम बनाया कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले व्यक्ति की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक निवासी उसे एक रुपया व एक ईंट देगा, जिससे आसानी से उसके लिए निवास स्थान व व्यापार का प्रबंध हो जाए। महाराजा अग्रसेन ने तंत्रीय शासन प्रणाली के प्रतिकार में एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया, उन्होने पुनः वैदिक सनातन आर्य सस्कृंति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य की पुनर्गठन में कृषि-व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया।<br />
<br />
महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। उन्होंने महाराज अग्रसेन जीवन मूल्यों को ग्रहण किया उनमें परंपरा एवं प्रयोग का संतुलित सामंजस्य दिखाई देता है। महाराज अग्रसेन ने एक ओर हिन्दू धर्म ग्रंथ में वैश्य वर्ण के लिए निर्देशित कर्म क्षेत्र को स्वीकार किया और दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/religion/religion/article/0909/18/1090918034_1.htm |title=अग्रवाल शिरोमणि महाराजा अग्रसेन |accessmonthday=29 सितम्बर |accessyear=2010 |last=पोद्दार |first=दीपिका |authorlink= |format=एच टी एम |publisher=वेबदुनिया हिन्दी |language=हिन्दी}}</ref> <br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==बाहरी कड़ियाँ==<br />
*[http://www.cgculture.in/SammanMaharajaagrasen.html महाराजा अग्रसेन]<br />
[[Category:नया पन्ना]]<br />
[[Category:कोश]]<br />
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शिल्पी
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द्वारका
2010-09-28T08:34:45Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==द्वारका / [[:en:Dwarka|Dwarka]]==<br />
[[चित्र:Dwarkadhish-Temple-Dwarka-Gujarat-1.jpg|thumb|[[द्वारिकाधीश मंदिर द्वारका|द्वारिकाधीश मन्दिर]], द्वारका, गुजरात]]<br />
यह भारत की सात पवित्र पुरियों में से एक हैं, जिनकी सूची निम्नांकित है:<br /><br />
<blockquote>[[अयोध्या]] [[मथुरा]] माया [[काशी]] काशी अवन्तिका।<br /><br />
पुरी द्वारवती जैव सप्तैता मोक्षदायिका:॥</blockquote><br />
गुजरात राज्य के पश्चिमी सिरे पर समुद्र के किनारे स्थित चार धामों में से एक धाम और सात पवित्र पुरियों में से एक पुरी है। वस्तुत: द्वारका दो हैं-<br />
*गोमती द्वारका, <br />
*बेट द्वारका, गोमती द्वारका धाम है, बेट द्वारका पुरी है। बेट द्वारका के लिए समुद्र मार्ग से जाना पड़ता है। मान्यता है कि द्वारका को श्री[[कृष्ण]] ने बसाया था और [[मथुरा]] से यदुवंशियों को लाकर इस संपन्न नगर को उनकी राजधानी बनाया था, किंतु उस वैभव के कोई चिह्न अब नहीं दिखाई देते। कहते हैं, यहाँ जो राज्य स्थापित किया गया उसका राज्यकाल मुख्य भूमि में स्थित द्वारका अर्थात गोमती द्वारका से चलता था। बेट द्वारका रहने का स्थान था। (यहाँ समुद्र में ज्वार के समय एक तालाब पानी से भर जाता है। उसे गोमती कहते हैं। इसी कारण द्वारका गोमती द्वारका भी कहलाती है)।<br />
==कुशस्थली==<br />
<br />
*द्वारका का प्राचीन नाम है। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर [[यज्ञ]] करने के कारण ही इस नगरी का नाम [[कुशस्थली, द्वारका|कुशस्थली]] हुआ था। बाद में त्रिविकम भगवान ने कुश नामक दानव का वध भी यहीं किया था। त्रिविक्रम का मंदिर द्वारका में रणछोड़जी के मंदिर के निकट है। ऐसा जान पड़ता है कि महाराज रैवतक (बलराम की पत्नी [[रेवती]] के पिता) ने प्रथम बार, समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकाल कर यह नगरी बसाई होगी। <br />
{{highright}}मान्यता है कि द्वारका को [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] ने बसाया था और [[मथुरा]] से यदुवंशियों को लाकर इस संपन्न नगर को उनकी राजधानी बनाया था, किंतु उस वैभव के कोई चिह्न अब नहीं दिखाई देते। {{highclose}} <br />
*[[हरिवंश पुराण]] <ref>हरिवंश पुराण 1,11,4</ref> के अनुसार [[कुशस्थली, द्वारका|कुशस्थली]] उस प्रदेश का नाम था जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी। <br />
*[[विष्णु पुराण]] के अनुसार,<ref>'आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रोजज्ञे योऽसावानर्तविषयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास' विष्णु पुराण 4,1,64.</ref> अर्थात् आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर [[आनर्त]] पर राज्य किया। विष्णु पुराण <ref>विष्णु पुराण 4,1,91</ref> से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी-'कुशस्थली या तव भूप रम्या पुरी पुराभूदमरावतीव, सा द्वारका संप्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा'।<br />
*कुशावती का अन्य नाम कुशावर्त भी है। एक प्राचीन किंवदंती में द्वारका का संबंध 'पुण्यजनों' से बताया गया है। ये 'पुण्यजन' वैदिक 'पणिक' या 'पणि' हो सकते हैं। अनेक विद्वानों का मत है कि पणिक या पणि प्राचीन ग्रीस के फिनीशियनों का ही भारतीय नाम था। ये लोग अपने को कुश की संतान मानते थे <ref>वेडल-मेकर्स आव सिविलीजेशन, पृ0 80</ref>। इस प्रकार कुशस्थली या कुशावर्त नाम बहुत प्राचीन सिद्ध होता है। [[पुराण|पुराणों]] के वंशवृत्त में शार्यातों के मूल पुरुष शर्याति की राजधानी भी कुशस्थली बताई गई है। <br />
*महाभारत, <ref>महाभारत सभा पर्व 14,50</ref> के अनुसार कुशस्थली रैवतक पर्वत से घिरी हुई थी-'कुशस्थली पुरी रम्या रैवतेनोपशोभितम्'। [[जरासंध]] के आक्रमण से बचने के लिए श्रीकृष्ण मथुरा से कुशस्थली आ गए थे और यहीं उन्होंने नई नगरी द्वारका बसाई थी। पुरी की रक्षा के लिए उन्होंने अभेद्य दुर्ग की रचना की थी जहां रह कर स्त्रियां भी युद्ध कर सकती थीं-'तथैव दुर्गसंस्कारं देवैरपि दुरासदम्, स्त्रियोऽपियस्यां युध्येयु: किमु वृष्णिमहारथा:'।<ref>महाभारत, सभा पर्व 14,51</ref><br />
----<br />
भगवान [[कृष्ण]] के जीवन से सम्बन्ध होने के कारण इसका विशेष महत्व है। [[महाभारत]] के वर्णनानुसार कृष्ण का जन्म [[मथुरा]] में [[कंस]] तथा दूसरे दैत्यों के वध के लिए हुआ। इस कार्य को पूरा करने के पश्चात वे द्वारका (काठियावाड़) चले गये। आज भी गुजरात में स्मार्त ढंग की कृष्णभक्ति प्रचलित है। यहाँ के दो प्रसिद्ध मन्दिर 'रणछोड़राय' के हैं, अर्थात् उस व्यक्ति से सम्बन्धित हैं जिसने ऋण (कर्ज) छुड़ा दिया। इसमें [[जरासंध]] से भय से कृष्ण द्वारा मथुरा छोड़कर द्वारका भाग जाने का अर्थ भी निहित है। किन्तु वास्तव में 'बोढाणा' भक्त की प्रीति से कृष्ण का द्वारका से डाकौर चुपके से चला आना और पंडों के प्रति भक्त का ऋण चुकाना- यह भाव संनिहित है। ये दोनों मन्दिर डाकौर (अहमदाबाद के समीप) तथा द्वारका में हैं। दोनों में वैदिक नियमानुसार ही यजनादि किये जाते हैं।<br />
----<br />
तीर्थयात्रा में यहाँ आकर गोपीचन्दन लगाना और चक्राक्डित होना विशेष महत्त्व का समझा जाता है। यह आगे चलकर कृष्ण के नेतृत्व में यादवों की राजधानी हो गयी थी। यह चारों धामों में एक धाम भी है। कृष्ण के अन्तर्धान होने के पश्चात प्राचीन द्वारकापुरी समुद्र में डूब गयी। केवल भगवान का मन्दिर समुद्र ने नहीं डुबाया। यह नगरी सौराष्ट्र (काठियावाड़) में पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित है।<br />
<br />
==मोक्ष तीर्थ==<br />
*हिन्दुओं के चार धामों में से एक गुजरात की द्वारिकापुरी मोक्ष तीर्थ के रूप में जानी जाती है । पूर्णावतार [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] के आदेश पर [[विश्वकर्मा]] ने इस नगरी का निर्माण किया था । श्रीकृष्ण ने मथुरा से सब यादवों को लाकर द्वारका में बसाया था। महाभारत में द्वारका का विस्तृत वर्णन है जिसका कुछ अंश इस प्रकार है-द्वारका के मुख्य द्वार का नाम वर्धमान था <ref>('वर्धमानपुरद्वारमाससाद पुरोत्तमम्' महाभारत सभा पर्व 38)</ref>। नगरी के सब ओर सुन्दर उद्यानों में रमणीय वृक्ष शोभायमान थे, जिनमें नाना प्रकार के फलफूल लगे थे। यहाँ के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान् तथा मेरू के समान उच्च थे। नगरी के चतुर्दिक चौड़ी खाइयां थीं जो [[गंगा नदी|गंगा]] और [[सिन्धु नदी|सिंधु]] के समान जान पड़ती थीं और जिनके जल में कमल के पुष्प खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे <ref>('पद्यषंडाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभि: गंगासिंधुप्रकाशाभि: परिखाभिरंलंकृता महाभारत सभा पर्व 38)</ref>। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला एक परकोटा नगरी को सुशोभित करता था जिससे वह श्वेत मेघों से घिरे हुए आकाश के समान दिखाई देती थी <ref>('प्राकारेणार्कवर्णेन पांडरेण विराजिता, वियन् मूर्घिनिविष्टेन द्योरिवाभ्रपरिच्छदा' महाभारत सभा पर्व 38)</ref>। रमणीय द्वारकापुरी की पूर्वदिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत (वर्तमान गिरनार) उसके आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित होता था <ref>('भाति रैवतक: शैलो रम्यसनुर्महाजिर:, पूर्वस्यां दिशिरम्यायां द्वारकायां विभूषणम्'महाभारत सभा पर्व 38)</ref>। नगरी के दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे और इन पर्वतों के चतुर्दिक् अनेक उद्यान थे। महानगरी द्वारका के पचास प्रवेश द्वार थे- <ref> ('महापुरी द्वारवतीं पंचाशद्भिर्मुखै र्युताम्' महाभारत सभा पर्व 38)</ref>। शायद इन्हीं बहुसंख्यक द्वारों के कारण पुरी का नाम द्वारका या द्वारवती था। पुरी चारों ओर गंभीर सागर से घिरी हुई थी। सुन्दर प्रासादों से भरी हुई द्वारका श्वेत अटारियों से सुशोभित थी। तीक्ष्ण यन्त्र, शतघ्नियां , अनेक यन्त्रजाल और लौहचक्र द्वारका की रक्षा करते थे-<ref>('तीक्ष्णयन्त्रशतघ्नीभिर्यन्त्रजालै: समन्वितां आयसैश्च महाचक्रैर्ददर्श। महाभारत सभा पर्व 38)</ref>। द्वारका की लम्बाई बारह योजना तथा चौड़ाई आठ योजन थी तथा उसका उपनिवेश (उपनगर) परिमाण में इसका द्विगुण था <ref>('अष्ट योजन विस्तीर्णामचलां द्वादशायताम् द्विगुणोपनिवेशांच ददर्श द्वारकांपुरीम्'महाभारत सभा पर्व 38)</ref>। द्वारका के आठ राजमार्ग और सोलह चौराहे थे जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था ('अष्टमार्गां महाकक्ष्यां महाषोडशचत्वराम् एव मार्गपरिक्षिप्तां साक्षादुशनसाकृताम्'महाभारत [[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]] 38) द्वारका के भवन मणि, स्वर्ण, वैदूर्य तथा संगमरमर आदि से निर्मित थे। श्रीकृष्ण का राजप्रासाद चार योजन लंबा-चौड़ा था, वह प्रासादों तथा क्रीड़ापर्वतों से संपन्न था। उसे साक्षात् विश्वकर्मा ने बनाया था <ref>('साक्षाद् भगवतों वेश्म विहिंत विश्वकर्मणा, ददृशुर्देवदेवस्य-चतुर्योजनमायतम्, तावदेव च विस्तीर्णमप्रेमयं महाधनै:, प्रासादवरसंपन्नं युक्तं जगति पर्वतै:')</ref>। श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के पश्चात समग्र द्वारका, श्रीकृष्ण का भवन छोड़कर समुद्रसात हो गयी थी जैसा कि [[विष्णु पुराण]] के इस उल्लेख से सिद्ध होता है-'प्लावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधि: वासुदेवगृहं त्वेकं न प्लावयति सागर:,<ref>विष्णु0 5,38,9</ref>।<br />
<br />
==रणछोड़ जी मंदिर==<br />
*कहा जाता है कृष्ण के भवन के स्थान पर ही रणछोड़ जी का मूल मंदिर है। यह परकोटे के अंदर घिरा हुआ है और सात-मंज़िला है। इसके उच्चशिखर पर संभवत: संसार की सबसे विशाल ध्वजा लहराती है। यह ध्वजा पूरे एक थान कपड़े से बनती है। द्वारकापुरी [[महाभारत]] के समय तक तीर्थों में परिगणित नहीं थी। <br />
*जैन सूत्र अंतकृतदशांग में द्वारवती के 12 योजन लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे कुबेर द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलका से की गई है। रैवतक पर्वत को नगर के उत्तरपूर्व में स्थित बताया गया है। पर्वत के शिखर पर नंदन-बन का उल्लेख है। <br />
*[[भागवत पुराण|श्रीमद् भागवत]] में भी द्वारका का महाभारत से मिलता जुलता वर्णन है। इसमें भी द्वारका को 12 योजन के परिमाण का कहा गया है तथा इसे यंत्रों द्वारा सुरक्षित तथा उद्यानों, विस्तीर्ण मार्गों एवं ऊंची अट्टालिकाओं से विभूषित बताया गया है,<ref> 'इति संमन्त्र्य भगवान दुर्ग द्वादशयोजनम्, अंत: समुद्रेनगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्। दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्प नैपुणम् , रथ्याचत्वरवीथीभियथावास्तु विनिर्मितम्। सुरद्रुमलतोद्यानविचत्रोपवनान्वितम्, हेमश्रृंगै र्दिविस्पृग्भि: स्फाटिकाट्टालगोपुरै:' श्रीमद्भागवत 10,50, 50-52</ref>। <br />
*माघ के [[शिशुपाल वध]] के तृतीय सर्ग में भी द्वारका का रमणीक वर्णन है। वर्तमान बेट द्वारका श्रीकृष्ण की विहार-स्थली यही कही जाती है।<br />
*यहाँ का [[द्वारिकाधीश मंदिर द्वारका|द्वारिकाधीश मंदिर]], [[रणछोड़ जी मंदिर, द्वारका|रणछोड़ जी मंदिर]] व त्रैलोक्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है । <br />
*[[शंकराचार्य|आदि शंकराचार्य]] द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक शारदा पीठ यहीं है । <br />
*द्वारिका हमारे देश के पश्चिम में समुन्द्र के किनारे पर बसी है । आज से हज़ारों साल पहले भगवान कॄष्ण ने इसे बसाया था । कृष्ण [[मथुरा]] में पैदा हुए, [[गोकुल]] में पले, पर राज उन्होंने द्वारका में ही किया । यहीं बैठकर उन्होंने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली । [[पांडव|पांडवों]] को सहारा दिया । धर्म की जीत कराई और, [[शिशुपाल]] और [[दुर्योधन]] जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया । द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं । बड़े-बड़े राजा यहाँ आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे ।<br />
<br />
==द्वारिकाधीश मंदिर==<br />
[[चित्र:Dwarkadhish-Temple-Dwarka-Gujarat-2.jpg|thumb|[[द्वारिकाधीश मंदिर द्वारका|द्वारिकाधीश मन्दिर]], द्वारका, गुजरात]]<br />
द्वारिकाधीश मंदिर कांकरोली में राजसमंद झील के किनारे पाल पर स्थित है । मेवाड के चार धाम में से एक द्वारिकाधीश मंदिर भी आता है, द्वारिकाधीश काफ़ी समय पूर्व संवत 1726-27 में यहाँ [[ब्रज]] से कांकरोली पधारे थे । मंदिर सात मंज़िला है। भीतर चांदी के सिंहासन पर काले पत्थर की श्रीकृष्ण की चतुर्भुजी मूर्ति है। कहते हैं, यह मूल मूर्ति नहीं है। मूल मूर्ति डाकोर में है। द्वारिकाधीश मंदिर से लगभग 2 किमी दूर एकांत में रुक्मिणी का मंदिर है। कहते हैं, दुर्वासा के शाप के कारण उन्हें एकांत में रहना पड़ा। कहा जाता है कि उस समय [[भारत]] में बाहर से आए आक्रमणकारियों का सर्वत्र भय व्याप्त था, क्योंकि वे आक्रमणकारी न सिर्फ मंदिरों कि अतुल धन संपदा को लूट लेते थे बल्कि उन भव्य मंदिरों व मुर्तियों को भी तोड कर नष्ट कर देते थे । तब मेवाड यहाँ के पराक्रमी व निर्भीक राजाओं के लिये प्रसिद्ध था । सर्वप्रथम प्रभु द्वारिकाधीश को आसोटिया के समीप देवल मंगरी पर एक छोटे मंदिर में स्थापित किया गया, तत्पश्चात उन्हें कांकरोली के ईस भव्य मंदिर में बड़े उत्साह पूर्वक लाया गया । आज भी द्वारका की महिमा है । यह चार धामों में एक है । सात पुरियों में एक पुरी है । इसकी सुन्दरता बखानी नहीं जाती । समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरें उठती है और इसके किनारों को इस तरह धोती है, जैसे इसके पैर पखार रही हों । पहले तो [[मथुरा]] ही कृष्ण की राजधानी थी । पर मथुरा उन्होंने छोड़ दी और द्वारका बसाई । द्वारका एक छोटा-सा-कस्बा है । कस्बे के एक हिस्से के चारों ओर चहारदीवारी खिंची है इसके भीतर ही सारे बड़े-बड़े मन्दिर है । द्वारका के दक्षिण में एक लम्बा ताल है । इसे गोमती तालाब कहते है । द्वारका में द्वारकाधीश मंदिर के निकट ही आदि शंकराचार्य द्वारा देश में स्थापित चार मठों में से एक मठ भी है।<br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== <br />
<references/> <br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
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[[en:Dwarka]]<br />
[[Category: कोश]]<br />
[[Category:पौराणिक स्थान]]<br />
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चित्र:Radha-Krishna-Janmbhumi-Mathura-1.jpg
2010-09-28T07:52:36Z
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चित्र:Radha-Krishna-Janmbhumi-Mathura-1.jpg
2010-09-28T07:50:49Z
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चित्र:Makhanchor.jpg
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चित्र:Dwarkadhish Temple Mathura 2.jpg
2010-09-28T07:44:12Z
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|अन्य विवरण=मथुरा नगर के असिकुण्डा बाज़ार में स्थित यह मन्दिर अपने सांस्कृतिक वैभव कला एवं सौन्दर्य के लिए अनुपम है। [[ग्वालियर]] राज के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुल दास पारीख ने इसका निर्माण 1814–15 में प्रारम्भ कराया।<br />
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चित्र:Dwarkadhish-Temple-Dwarka-Gujarat-2.jpg
2010-09-28T07:39:39Z
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चित्र:Radha-1.jpg
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चित्र:Krishna-Mandapam.jpg
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चित्र:Krishna-Balarama.jpg
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चित्र:Krishna-parents.jpg
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चित्र:Krishna-birth.jpg
2010-09-28T07:25:38Z
<p>शिल्पी: </p>
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चित्र:Krishna-birth.jpg
2010-09-28T07:02:25Z
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<div>{{चित्र सूचना<br />
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चित्र:Krishna-2.jpg
2010-09-28T06:58:42Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[बाँसुरी|बंसी]] बजाते हुए [[कृष्ण]]<br />
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चित्र:Krishna-Radha-1.jpg
2010-09-28T06:57:15Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{चित्र सूचना<br />
|विवरण=[[राधा]]-[[कृष्ण]] <br /> Radha-Krishna<br />
|चित्रांकन=<br />
|दिनांक=<br />
|स्रोत=www.flickr.com<br />
|प्रयोग अनुमति=<br />
|चित्रकार=<br />
|उपलब्ध=[http://www.flickr.com/photos/gaurangapada/383480225/ Swami Gaurangapada]<br />
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|अन्य विवरण=राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। राधा [[वृषभानु]] की पुत्री थी। <br />
}}<br />
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शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3_%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80&diff=63174
कृष्ण वंशावली
2010-09-28T06:54:13Z
<p>शिल्पी: /* वसुदेव-देवकी */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==कृष्ण वंशावली / [[:en:Krishna Ancestry|Krishna Ancestry]]==<br />
'''[[मत्स्य पुराण]]'''<br /><br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|250px|बंसी बजाते हुए [[कृष्ण]]]]<br />
ऋषियों! (अब) आप लोग राजर्षि क्रोष्टु के उस उत्तम बल-पौरूष से सम्पन्न वंश का वर्णन सुनिये, जिस वंश में वृष्णिवंशावतंस भगवान [[विष्णु]] ([[कृष्ण|श्रीकृष्ण]]) अवतीर्ण हुए थे। क्रोष्टु के पुत्र महारथी वृजिनीवान हुए। वृजिनीवान के स्वाह (पद्मपुराण में स्वाति) नामक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ। राजन्! वक्ताओं में श्रेष्ठ रूषंगु<ref>भागवत 9।23।31 तथा [[विष्णु पुराण]]4।12।2 में 'रूशंगु' एवं [[पद्म पुराण]] 1।13।4 में 'कुशंग' पाठ है।</ref> स्वाह के पुत्ररूप में पैदा हुए। रूषंगु ने संतान की इच्छा से सौम्य स्वभाव वाले पुत्र की कामना की। तब उनके सत्कर्मों से समन्वित एवं चित्र-विचित्र रथ से युक्त [[चित्ररथ]] नामक पुत्र हुआ। चित्ररथ के एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ जो [[शशबिन्दु]] नाम से विख्यात था। वह आगे चलकर [[चक्रवर्ती]] सम्राट हुआ। वह यज्ञों में प्रचुर दक्षिणा देने वाला था। पूर्वकाल में इस शशबिन्दु के विषय में वंशानुक्रमणिकारूप यह [[श्लोक]] गाया जाता रहा है कि शशबिन्दु के सौ पुत्र हुए। उनमें भी प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। वे सभी प्रचुर धन-सम्पत्ति एवं तेज से परिपूर्ण, सौन्दर्यशाली एवं बुद्धिमान थे। उन पुत्रों के नाम के अग्रभाग में 'पृथु' शब्द से संयुक्त छ: महाबली पुत्र हुए। उनके पूरे नाम इस प्रकार हैं- पृथुश्रवा, पृथुयशा, पृथुधर्मा, पृथुंजय, पृथुकीर्ति और पृथुमनां ये शशबिन्दु के वंश में उत्पन्न हुए राजा थे। [[पुराण|पुराणों]] के ज्ञाता विद्वान लोग इनमें सबसे ज्येष्ठ पृथुश्रवा की विशेष प्रशंसा करते हैं। उत्तम यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले पृथुश्रवाका पुत्र सुयज्ञ हुआ। सुयज्ञ का पुत्र [[उशना]] हुआ, जो सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा था। उसने इस पृथ्वी की रक्षा करते हुए सौ अश्वमेध-यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उशना का पुत्र [[तितिक्षु]]<ref>अन्यत्र शिमेयु, रूचक या शितपु पाठ भी मिलता है।</ref> हुआ जो शत्रुओं को संतप्त कर देने वाला था। राजर्षियों में सर्वश्रेष्ठ मरूत्त तितिक्षु के पुत्र हुए। [[मरूत्त]] का पुत्र [[वीरवर]] कम्बलवर्हिष था। कम्बलबर्हिष का पुत्र विद्वान रूक्मकवच हुआ। रूक्मकवच ने अपने अनेकों प्रकार के बाणों के प्रहार से धनुर्धारी एवं कवच से सुसज्जित शत्रुओं को मारकर इस [[पृथ्वी]] को प्राप्त किया था। शत्रुवीरों का संहार करने वाले राजा [[रूक्मकवच]] ने एक बार बड़े (भारी) [[अश्वमेध यज्ञ]] में ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणा प्रदान की थी ॥14-27॥<br />
<br />
इन (राजा रूक्मकवच)- के रूक्मेषु, पृथुरूक्म, ज्यामघ, परिघ और हरिनामक पाँच पुत्र हुए, जो महान पराक्रमी एवं श्रेष्ठ धनुर्धर थे। पिता रूक्मकवच ने इनमें से परिघ और हरि- इन दोनों को विदेह देश के राज-पद पर नियुक्त कर दिया। रूक्मेषु प्रधान राजा हुआ और पृथुरूक्म उसका आश्रित बन गया। उन लोगों ने ज्यामघ को राज्य से निकल दिया। वहाँ एकत्र ब्राह्मण द्वारा समझाये- बुझाये जाने पर वह प्रशान्त-चित्त होकर वानप्रस्थीरूप से आश्रमों में स्थिररूप से रहने लगा। कुछ दिनों के पश्चात वह (एक ब्राह्मण की शिक्षा से) ध्वजायुक्त रथ पर सवार हो हाथ में धनुष धारण कर दूसरे देश की ओर चल पड़ा। वह केवल जीविकोपार्जन की कामना से अकेले ही नर्मदातट पर जा पहुँचा। वहाँ दूसरों द्वारा उपभुक्त- ऋक्षवान् गिरि (शतपुरा पर्वत-श्रेणी)- पर जाकर निश्चितरूप से निवास करने लगा। ज्यामघकी सती-साध्वी पत्नी '''शैव्या''' प्रौढ़ा हो गयी थीं (उसके गर्भ से) कोई पुत्र न उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यद्यपि राजा ज्यामघ पुत्रहीन अवस्था में ही जीवनयापन कर रहे थे, तथापि उन्होंने दूसरी पत्नी नहीं स्वीकार की। एक बार किसी युद्ध में राजा ज्यामघ की विजय हुईं वहाँ उन्हें (विवाहार्थ) एक कन्या प्राप्त हुई। (पर) उसे लाकर पत्नी को देते हुए राजा ने उससे भयपूर्वक कहा- 'शुचिस्मिते! यह (मेरी स्त्री नहीं,) तुम्हारी स्नुषा (पुत्रबधू) है।' इस प्रकार कहे जाने पर उसने राजा से पूछा- 'यह किसकी स्नुषा है?'॥28-34॥<br />
<br />
===शैव्या===<br />
प्राय: अठारह पुराणों तथा उपपुराणों में एवं भागवतादि की टीकाओं में 'ज्यामघ' की पत्नी शैव्या ही कही गयी है। कुछ मत्स्यपुराण की प्रतियों में 'चैत्रा' नाम भी आया है, परंतु यह अनुकृति में भ्रान्तिका ही परिणाम है। <br />
तब राजा ने कहा-(प्रिये) तुम्हारे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसी की यह पत्नी होगी। (यह आश्चर्य देख-सुनकर वह कन्या तप करने लगी।) तत्पश्चात उस कन्या की उग्र तपस्या के परिणामस्वरूप वृद्धा प्राय: बूढ़ी होने पर भी शैव्याने (गर्भ धारण किया और) विदर्भ नामक एक पुत्र को जन्म दिया। उस विद्वान् विदर्भ ने स्त्रुषाभूता उस राजकुमारी के गर्भ से क्रथ, कैशिक तथा तीसरे परम धर्मात्मा लोमपाद नामक पुत्रों को उत्पन्न किया। ये सभी पुत्र शूरवीर एवं युद्धकुशल थे। इनमें लोमपाद से मनु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ तथा मनु का पुत्र ज्ञाति हुआ। कैशिक का पुत्र चिदि हुआ, उससे उत्पन्न हुए नरेश चैद्य नाम से प्रख्यात हुए। विदर्भ-पुत्र क्रथ के कुन्ति नामक पुत्र पैदा हुआ। कुन्ति से धृष्ट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो परम प्रतापी एवं रणविशारद था। धृष्टका पुत्र निर्वृति हुआ जो धर्मात्मा एवं शत्रु-वीरों का संहारक था। निर्वृति के एक ही पुत्र था जो विदूरथ नाम से प्रसिद्ध था। विदूरथ का पुत्र दशार्ह<ref>इन्हीं से श्रीकृष्ण आदि दाशार्हवंशीरूप में प्रसिद्ध हुए हैं।</ref> और दशार्ह का पुत्र व्योम बतलाया जाता है। दशार्हवंशी व्योम से पैदा हुए पुत्र को जीमूत नाम से कहा जाता है ॥35-40॥<br />
<br />
तत्पश्चात राजा देवावृध का जन्म हुआ, जो बन्धुओं के साथ सुदृढ़ मैत्री के प्रवर्धक थे। परंतु राजा (देवावृध) को कोई पुत्र न थां उन्होंने 'मुझे सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न पुत्र पैदा हो 'ऐसी अभिलाषा से युक्त हो अत्यन्त घोर तप किया। अन्त में उन्होंने मन्त्र को संयुक्त कर [[पर्णाशा]] <ref>[[भारत]] में पर्णाशा नाम की दो नदियाँ हैं ये दोनों [[राजस्थान]] की पूर्वी सीमापर स्थित हैं और पारियात्र पर्वत से निकली हैं। (द्रष्टव्य मत्स्य0 12।50 तथा वायुपुराण 38।176)</ref> नदी के जल का स्पर्श किया। इस प्रकार स्पर्श करने के कारण पर्णाशा नदी राजा का प्रिय करने का विचार करने लगी। वह श्रेष्ठ नदी उस राजा के कल्याण की चिन्ता से व्याकुल हो उठी। अन्त में वह इस निश्चय पर पहुँची कि मैं ऐसी किसी दूसरी स्त्री को नहीं देख पा रही हूँ, जिसके गर्भ से इस प्रकार का (राजा की अभिलाषा के अनुसार) पुत्र पैदा हो सके, इसलिये आज मैं स्वयं ही हज़ारों प्रकार का रूप धारण करूँगी। तत्पश्चात् पर्णाशा ने परम सुन्दर शरीर धारण करके कुमारी रूप में प्रकट होकर राजा को सूचित किया। तब महान व्रतशाली राजा ने उसे (पत्नीरूप से) स्वीकार कर लिया तदुपरान्त नदियों में श्रेष्ठ पर्णाशा ने राजा देवावृध के संयोग से नवें महीने में सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न बभ्रु नामक पुत्र को जन्म दिया। पुराणों के ज्ञाता विद्वान्लोग वंशानुकीर्तनप्रसंग में महात्मा देवावृध के गुणों का कीर्तन करते हुए ऐसी गाथा गाते हैं- उद्गार प्रकट करते हैं- 'इन (बभ्रु)- के विषय में हमलोग जैसा (दूर से) सुन रहे थे, उसी प्रकार (इन्हें) निकट आकर भी देख रहे हैं। बभ्रु तो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं और देवावृध (साक्षात्) देवताओं के समान हैं। राजन्! [[बभ्रु]] और [[देवावृध]] के प्रभाव से इनके छिहत्तर हज़ार पूर्वज अमरत्व को प्राप्त हो गयें राजा बभ्रु यज्ञानुष्ठानी, दानशील, शूरवीर, ब्राह्मणभक्त, सुदृढ़व्रती, सौन्दर्यशाली, महान तेजस्वी तथा विख्यात बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। तदनन्तर (बभ्रु के संयोग से) कंक की कन्या ने कुकुर, भजमान, शशि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्रों को जन्म दिया। कुकुर का पुत्र वृष्णि,<ref>अधिकांश अन्य पुराणसम्मत यहाँ 'धृष्णु' पाठ मानना चाहिये, या इन्हें द्वितीय वृष्णि मानना चाहिये।</ref> वृष्णि का पुत्र धृति, उसका पुत्र कपोतरोमा, उसका पुत्र तैत्तिरि, उसका पुत्र सर्प, उसका पुत्र विद्वान् नल था। नल का पुत्र दरदुन्दुभि<ref>पद्म0 1।13।40 में चन्दनोदकदुंदुभि नाम है।</ref> नाम से कहा जाता था ॥51-63॥ नरश्रेष्ठ दरदुन्दुभि पुत्रप्राप्ति के लिये अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे उस विशाल यज्ञ में पुनर्वसु नामक पुत्र प्रादुर्भूत हुआ। पुनर्वसु अतिरात्र के मध्य में सभा के बीच प्रकट हुआ था, इसलिये वह विदान्, शुभाशुभ कर्मों का ज्ञाता, यज्ञपरायण और दानी था।<br />
<br />
==वसुदेव-देवकी==<br />
बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजन्! पुनर्वसु के आहुक नामक पुत्र और आहुकी नाम की कन्या- ये जुड़वीं संतान पैदा हुई। इनमें आहुक अजेय और लोकप्रसिद्ध था। उन आहुक के प्रति विद्वान लोग इन श्लोकों को गाया करते हैं- 'राजा आहुक के पास दस हज़ार ऐसे रथ रहते थे, जिनमें सुदृढ़ उपासंग (कूबर) एवं अनुकर्ष (धूरे) लगे रहते थे, जिन पर ध्वजाएँ फहराती रहती थीं, जो कवच से सुसज्जित रहते थे तथा जिनसे मेघ की घरघराहट के सदृश शब्द निकलते थे। उस भोजवंश में ऐसा कोई राजा नहीं पैदा हुआ जो असत्यवादी, निस्तेज, यज्ञविमुख, सहस्त्रों की दक्षिणा देने में असमर्थ, अपवित्र और मूर्ख हो।' राजा आहुक से भरण-पोषण की वृत्ति पाने वाले लोग ऐसा कहा करते थे। आहुक ने अपनी बहन आहुकी को अवन्ती-नरेश को प्रदान किया था। आहुक के संयोग से काश्य की कन्या ने देवक और [[उग्रसेन]] नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। वे दोनों देव-पुत्रों के सदृश कान्तिमान एवं पराक्रमी चार शूरवीर पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम हैं- देववान, उपदेव, सुदेव और देवरक्षित। इनके सात बहनें भी थीं, जिन्हें देवक ने [[वसुदेव]] को समर्पित किया था। उनके नाम हैं- [[देवकी]], श्रुतदेवी, मित्रदेवी, यशोधरा, श्रीदेवी, सत्यदेवी और सातवीं सुतापी ॥64-73॥<br />
[[चित्र:Kans-Prison-1.jpg|[[कंस]] का कारागार, [[मथुरा]]|thumb|200px]]<br />
<br />
==कंस==<br />
[[उग्रसेन]] के नौ पुत्र थे, उनमें [[कंस]] ज्येष्ठ था। उनके नाम हैं- न्यग्रोध, सुनामा, कंक, शंकु अजभू, राष्ट्रपाल, युद्धमुष्टि और सुमुष्टिद। उनके कंसा, कंसवती, सतन्तू, राष्ट्रपाली और कंका नाम की पाँच बहनें थीं, जो परम सुन्दरी थीं। अपनी संतानों सहित उग्रसेन कुकुर-वंश में उत्पन्न हुए कहे जाते हैं भजमान का पुत्र महारथी विदूरथ और शूरवीर राजाधिदेव विदूरथ का पुत्र हुआ। राजाधिदेव के शोणाश्व और श्वेतवाहन नामक दो पुत्र हुए, जो देवों के सदृश कान्तिमान और नियम एवं व्रत के पालन में तत्पर रहने वाले थे। शोणाश्व के शमी, देवशर्मा, निकुन्त, शक्र और शत्रुजित नामक पाँच शूरवीर एवं युद्धनिपुण पुत्र हुए। शमी का पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र का पुत्र प्रतिक्षत्र, उसका पुत्र भोज और उसका पुत्र हृदीक हुआ। हृदीक के दस अनुपम पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें कृतवर्मा ज्येष्ठ और शतधन्वा मँझला था। शेष के नाम (इस प्रकार) हैं- देवार्ह, नाभ, धिषण, महाबल, अजात, वनजात, कनीयक और करम्भक। देवार्ह के कम्बलबर्हिष नामक विद्वान् पुत्र हुआ। उसका पुत्र असोमजा और असोमजा का पुत्र तमोजा हुआ। इसके बाद सुदंष्ट, सुनाभ और कृष्ण नाम के तीन राजा और हुए जो परम पराक्रमी और उत्तम कीर्तिवाले थे। इनके कोई संतान नहीं हुई। ये सभी अन्धकवंशी माने गये हैं। जो मनुष्य अन्धकों के इस वंश का नित्य कीर्तन करता है वह स्वयं पुत्रवान होकर अपने वंश की वृद्धि करता है। ॥74-85॥ <br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कृष्ण2}}<br />
{{कृष्ण}}<br />
[[en:Krishna Ancestry]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
[[Category:महाभारत]]<br />
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[[Category: कोश]]<br />
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शिल्पी
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कृष्ण संदर्भ
2010-09-28T06:51:40Z
<p>शिल्पी: /* प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==कृष्ण संदर्भ / [[:en:Krishna References|Krishna References]]==<br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए [[कृष्ण]]|250px]]<br />
==छान्दोग्य उपनिषद==<br />
कृष्ण- एक बार आंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र [[कृष्ण]] को यज्ञदर्शन सुनाया था। फलस्वरूप कृष्ण शेष समस्त विधाओं के प्रति तृष्णाहीन हो गये थे।(छा.उ., अध्याय 3,खंड 17, श्लोक 6)<br />
<br />
कृष्ण का मातृपरक नाम 'देवकीपुत्र' [[छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक|छान्दोग्य उप निषद् (3,17,6)]] में पाया जाता है।<br />
<br />
==विभिन्न प्रसंग== <br />
{{Tocright}} <br />
वे अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त ब्रह्म थे। मूलत: वे नारायण थे। वे स्वयंभू तथा संपूर्ण जगत के प्रपितामह थे। द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि, पृथ्वी रचण, [[अश्विनीकुमार]] नासिकास्थान, [[चंद्र देवता|चंद्र]] और [[सूर्य देवता|सूर्य]] नेत्र तथा विभिन्न [[देवता]] विभिन्न देहयष्टियां हैं। वे (ब्रह्म रूप) ही प्रलयकाल के अंत में [[ब्रह्मा]] के रूप में स्वयं प्रकट हुए तथा सृष्टि का विस्तार किया। [[रुद्र]] इत्यादि की सृष्टि करने के उपरांत वे लोकहित के लिए अनेक रूप धारण करके प्रकट होते रहे।<br />
<br />
श्रीकृष्ण के रूप में वही अव्यक्त नारायण व्यक्त रूप धारण करके अवतरित हुए। वे [[वसुदेव]] के पुत्र हुए। [[कंस]] के भय से वसुदेव उन्हें [[नंद]] गोप के यहाँ छोड़ आये। वहीं पलकर वे बड़े हुए। [[यशोदा]] (नंद की पत्नी) से उन्हें अद्भुत वात्सल्य की उपलब्धि हुई।<br /> <br />
(1) शिशुरूप में वे एक बार छकड़े नीचे सो रहे थे। यशोदा उन्हें वहां छोड़ यमुना तट गयी थी। बाल-लीला का प्रदर्शन करते हुए रोते हुए कृष्ण ने अपने पांव के अंगूठे से छकड़े को धक्का दिया तो वह उलट गया। उस पर रखे समस्त मटके चूर-चूर हो गये।<br /> <br />
(2) देवताओं के देखते-देखते उन्होंने [[पूतना-वध|पूतना]] को मार डाला।<br /> <br />
(3) वे अपने बड़े भाई संकर्षण ([[बलराम|बलदेव]]) के साथ खेलते-कूदते बड़े हुए। सात वर्ष की अवस्था में गोचारण के लिए जाया करते थे। एक बार मक्खन चुराकर खाने के दंडस्वरूप मां (यशोदा) ने उन्हें ऊखल में बांध दिया। कृष्ण ने उस ऊखल को [[यमल तथा अर्जुन]] नामक दो वृक्षों के बीच में फंसाकर इतने जोर से खींचा कि वे दोनों वृक्ष भूमिसात हो गये। इस प्रकार उन वृक्षो पर रहनेवाले दो राक्षसों को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(4) वे दोनों भाई ग्वालोचित वेशधारी वन में पिपिहरी तथा [[बांसुरी]] बजाकर आमोद-प्रमोद के साथ गायों को चराते थे। कृष्ण पीले और बलराम नीले वस्त्र धारण करते थे। वे पत्तों के मुकुट पहन लेते। कभी-कभी रस्सी का [[यज्ञोपवीत]] भी धारण कर लेते थे। वे गोप बालकों के आकर्षण का केंद्रबिंदु थे।<br /> <br />
(5) उन्होंने [[कदम्ब]]वन के पास हृद (कुण्ड) में रहने वाले [[कालिय नाग|कालिया नाग]] के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी तथा अन्यत्रा जाने का आदेश दिया था।<br /> <br />
(6) गोपाल बालकों द्वारा किये सर्वभूत स्त्रष्ट ईश्वर स्वरूप को प्रकट किया तथा [[गिरिराज]] को समर्पित होने वाली खीर वे स्वयं खा गये। तब से [[गोपगण]] उनकी पूजा करने लगे।<br /> <br />
(7) जब [[इन्द्र]] ने वर्षा की थी तब श्रीकृष्ण ने गौओं की रक्षा के निमित्त एक सप्ताह तक [[गोवर्धन]] पर्वत को अपने हाथ पर उठाए रखा था। इन्द्र ने प्रसन्न होकर उन्हें गोविंद नाम दिया।<br /> <br />
(8) श्रीकृष्ण ने पशुओं की हितकामना से वृक्ष रूप-धारी [[अरिष्ट]] नामक दैत्य का संहार किया।<br /> <br />
(9) ब्रजनिवासी [[केशी]] नामक दैत्य का संहार किया। उस दैत्य का शरीर घोड़े जैसा और बल दस हज़ार हाथियों के समान था।<br /> <br />
(10) [[कंस]] के दरबार में रहने वाले चाणूर नामक मल्ल को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(11) कंस के भाई तथा सेनापति शत्रुनाशक का भी उन्होंने नाश कर डाला।<br /><br />
(12) कंस के [[कुवलयापीड़]] नामक हाथी को भी उन्होंने मार गिराया।<br /><br />
(13) कंस को मारकर उन्होंने [[उग्रसेन]] का राज्याभिषेक कर दिया।<br /><br />
(14) [[उज्जयिनी]] में दोनों भाइयों ने वेद विद्याध्ययन किया। धनुर्विद्या सीखने वे सांदीपनि के पास गये। [[सांदीपनि]] ने गुरु-दक्षिणा में अपने पुत्र को वापस मांगा, जिसे कोई समुद्री जंतु खा गया था। श्रीकृष्ण ने समुद्र में रहने वाले उस दैत्य का संहार कर दिया तथा गुरुपुत्र को पुनर्जीवनदान दिया जो कि वर्षों पूर्व यमलोक में जा चुका था। कृष्ण के कृपाप्रसाद से उसने पूर्ववत् अपना शरीर धारण किया।<br /><br />
(15)श्रीकृष्ण ने [[नरकासुर]] (भौमासुर) को मार डाला।<br />
(16) श्रीकृष्ण ने [[उषा अनिरुद्ध]] का मिलन करवाया, [[बाणासुर]] को मारा।<br /><br />
(17) उन्होंने रूक्मी को पराजित करके [[रुक्मिणी]] का हरण किया।<br /><br />
(18) इन्द्र को परास्त करके [[परिजात वृक्ष]] का अपहरण किया।<br />
<br />
==महाभारत- उद्योगपर्व, द्रोणपर्व==<br />
<br />
स्वयंवर में गांधारराज की राजकुमारी को प्राप्त किया था। विवाहोपरांत उनके रथ में अच्छी नस्ल के घोड़ो की तरह से राजाओं को जोता गया था। द्यूतक्रीड़ा के उपरांत [[पांडव|पांडवों]] के वनवास काल में [[कौरव|कौरवों]]-पांडवों के [[महाभारत|युद्ध]] की संभावना देख श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए उनकी सभा में गये। कृष्ण के साथ [[धृतराष्ट्र]], [[गांधारी]], [[विदुर]], [[सात्यकि]] इत्यादि सभी इस मत के थे कि पांडवों का राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए तथा उनसे संधि कर, शांति स्थापित करनी चाहिए; किंतु [[दुर्योधन]] उसके लिए तैयार न था। उसने [[शकुनि]] तथा [[कर्ण]] से सलाह करके कृष्ण को बंदी बना लेने का निश्चय किया। सात्यकि को विदित हुआ तो उसने सभासदों के सम्मुख ही कृष्ण को इस तथ्य की सूचना दी। <br />
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]|left]]<br />
कृष्ण ने क्रुद्ध होकर अपना विश्व रूप (विराट् रूप) प्रदर्शित किया। कृष्ण की दाहिनी बांह पर [[अर्जुन]], वायीं बांह पर [[बलराम|हलधर]], वक्ष पर [[शिव]] तथा अंग-प्रत्यंग पर विभिन्न देवी-देवता साक्षात् दिखलायी दिए। कृष्ण के अट्टहास से भूमंडल कांप उठा। शरीर से ज्वाला प्रस्फुटित हुई तथा सब ओर अनेक देवता और योद्धाओं के दर्शन होने लगे। ऐसे रूप के दर्शन दे, कृष्ण ने वहां से प्रस्थान किया। [[महाभारत]] युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के सारथी का कार्यभार संभाला था। [[अभिमन्यु]] की मृत्यु के उपरांत कृष्ण ने अपने-आप स्वीकार किया कि अर्जुन (नर) नारायण (श्रीकृष्ण) का आधा शरीर है। युद्ध में पांडवों की विजय के उपरांत वे लोग कृष्ण सहित [[कुरुक्षेत्र]] में रहे। जब तक [[सूर्य देवता|सूर्य]] उत्तरायण नहीं हो गया, [[भीष्म]] पितामह नित्य ही उन्हें दान, धर्म, कर्तव्य का उपदेश देते रहे। उनके स्वर्गारोहण उपरांत पांडवों को [[हस्तिनापुर]] छोड़ते हुए कृष्ण अपने माता-पिता के दर्शन करने [[द्वारका|द्वारकापुरी]] चले गये।<br /><br />
(म0भा0, उद्योगपर्व, 130-131, [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]] 79)<br />
<br />
श्रीकृष्ण इस प्रकार क्रीड़ा करते हैं जैसे मनुष्य खिलौनें से क्रीड़ा करता है। संपूर्ण चराचर भूत नारायण से उद्भूत है। पानी के बुद्बुद्वत् उसी में लीन हो जाता है।<br /><br />
(म0भा0, सभापर्व, अध्याय 38)<br />
<br />
==हरिवंश पुराण==<br />
कृष्ण और बलराम ने अनुभव किया कि [[ब्रज]]भूमि की वनश्री बच्चों की क्रीड़ा , गोपों की फल-सब्जी बेचने के लिए उपज तथा गौओं के क्षारयुक्त मल इत्यादि से नष्ट हो गयी है। इस कारण से उन्होंने निश्चय किया कि [[गोवर्धन]] पर्वत से युक्त [[कदम्ब]] इत्यादि वृक्षों से अपूरित [[वृन्दावन]] में जाकर रहना चाहिए। कृष्ण ने अपने रोम-रोम से भयानक भेड़ियों को उत्पन्न किया। उनको देखकर गोप-[[गोपी|गोपांगनाएं]] तथा गायें अत्यंत त्रस्त होकर ब्रजभूमि छोड़ने के लिए तुरंत तैयार हो गये। लोग वृन्दावन में जा बसे।<br /> <br />
(हरिवंश [[पुराण]], विष्णुपर्व ।8-9)<br />
==श्रीमद भागवत==<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]]]<br />
कंस की कारागार में वसुदेव के यहाँ भगवान ने कृष्ण-रूप में अवतार लिया। दस वर्ष तक बलराम के साथ ऐसे रहे कि उनकी कीर्ति वृन्दावन से बाहर नहीं गयी। वे गाय चराते तथा बांसुरी बजाकर सबको रिझाते थे। खेल-खेल में उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया, कंस को उठाकर पटक दिया। कृष्ण ने अपनी शक्ति योगमाया से भौमासुर की लाई राजकन्याओं से एक ही मुहूर्त में अलग-अलग महलों में विधिवत् पाणिग्रहण संस्कार संपादित किया। एक बार नंद ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया तथा रात्रि में [[यमुना नदी|यमुना]] में स्नान करने लगे। वह असुरों की वेला थी। अत: एक असुर उन्हें पकड़कर वरुण के पास ले गया। कृष्ण वरुण के पास गये तथा नंद बाबा को वापस ले आये।<br />
<br />
नारद ने कंस को जाकर बताया कि कृष्ण वसुदेव का बेटा है तथा बलराम [[रोहिणी]] का। वे दोनों छिपाकर नंद के यहाँ रखे गये हैं। कंस ने कृष्ण को अपनी भावी मृत्यु का कारण मानकर वसुदेव तथा देवकी को पुन: कैद कर लिया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उन्हें कैद से छुड़ाया। [[यदु]]वंशियों को [[ययाति]] का शाप था कि वे कभी शासन नहीं कर पायेंगे। अत: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन से शासन ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण और बलराम ने नंद से कहा-"पिताजी, आपका वात्सल्य अपूर्व है। आपने तथा यशोदा ने अपने बालकों के समान ही हमें स्नेह दिया। आप ब्रज जाइए। हम लोग भी यहाँ का काम निपटाकर आपसे मिलने आयेंगे।" वे दोनों [[अवंती]]पुर (उज्जैन) निवासी गुरुवर संदीपनि के गुरुकुल में रहकर उनकी सेवा करने लगे। चौंसठ दिन में उन दोनों ने [[चौंसठ कलाएँ|चौंसठ कलाओं]] में निपुणता प्राप्त की तथा संदीपनि को गुरु-दक्षिणास्वरूप उसका मृत पुत्र पुन: लौटाकर वे दोनों मथुरा लौट गये।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 3।3।-,10।28।-,10।44।–)<br />
<br />
श्रीकृष्ण के अनेक विवाह हुए थे। (कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।) उनकी श्रुतकीर्ति नामक बूआ का विवाह केकय देश में हुआ था। उनकी कन्या का नाम था भद्रा जिसका विवाह उसके भाई सन्तर्दन आदि ने कृष्ण से कर दिया था। मद्र देश की राजकुमारी सुलक्षणा को कृष्ण ने स्वयंवर में हर लिया था। इनके अतिरिक्त [[भौमासुर]] को मारकर अनेक सुंदरियों को वे कैद से छुड़ा लाये थे।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 10।56, 57, 58)<br />
<br />
एक बार सूर्य-ग्रहण के अवसर पर भारत के विभिन्न प्रांतों की जनता कुरुक्षेत्र पहुंची। वहां वसुदेव, कृष्ण और बलराम से नंद, यशोदा, गोप-गोपियों आदि का सम्मिलन हुआ। कृष्ण ने [[गोपी|गोपियों]] आदि को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दियां उन्हीं दिनों वसुदेव के यज्ञोत्सव का आयोजन था। उस संदर्भ में नंद बाबा, यशोदा तथा पांडव-परिवार के अधिकांश सदस्य तीन माह तक द्वारका में ठहरे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0 10 । 82-84)<br />
<br />
एक बार कृष्ण अपने दो भक्तों पर विशेष प्रसन्न हुए। उनमें से एक तो मिथिला निवासी गृहस्थी ब्राह्मण श्रुतदेव था और दूसरा मिथिला का राजा बहुलाश्व था। श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण करके एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए तथा दोनों भक्तों ने भगवत्स्वरूप प्राप्त किया।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, ।10।86।13-)<br />
<br />
[[ब्रह्मा]] की प्रार्थना पर [[विष्णु]] ने हंस का रूप धारण करके सनकादि के चित्त तथा गुणों के अनैक्य के विषय में उपदेश दिया था। यदुवंशियों के संहार के उपरांत जरा नामक व्याध को निमिंत्त बनाकर श्रीकृष्ण ने स्वधाम में प्रवेश कियां उन्हें अपने धाम में प्रवेश करते कोई भी देवता देख नहीं पाया। श्रीकृष्ण की कृपा से उनके शरीर पर प्रहार करने वाला व्याध सदेह स्वर्ग चला गया। <br />
नश्वर शरीर के त्यागोपरांत वसुदेव, अर्जुन आदि बहुत दुखी हुए। सब उनकी अलौकिक लीलाओं को स्मरण करते रहे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, 11।13।15-42/- 11 । 30/-)<br />
<br />
==देवी भागवत==<br />
कृष्ण-कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से [[कामधेनु]] मांगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए। देवी भागवत में [[दिति]] और [[अदिति]] को [[दक्ष]] कन्या माना गया है। अदिति का पुत्र [[इन्द्र]] था जिसने मां की प्रेरणा से दिति के गर्भ के 49 भाग कर दिए थे जो मरूत हुए। अदिति से रुष्ट होकर दिति ने शाप दिया था-'जिस प्रकार गुप्त रूप से तूने मेरा गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करवाया है उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्म लेकर तू बार-बार मृतवत्सा होगी।' फलत: उसने [[देवकी]] के रूप में जन्म लिया।<br />
<br />
विष्णु ने देवताओं की रक्षा करने के निमित्त [[भृगु]] की पत्नी ([[शुकदेव|शुक]] की मां) का हनन किया था अत: भृगु के शापवश उन्होंने पृथ्वी पर बार-बार जन्म लिया। [[नर-नारायण]] अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। अप्सराएं राजकुमारियों के रूप में जन्मीं तथा कृष्ण की पत्नियां हुई।<br />
<br />
दैत्य [[मधु]] का पुत्र [[लवणासुर|लवण]] ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से पीड़ित कर रहा था। [[लक्ष्मण]] के भाई [[शत्रुघ्न]] ने उस दैत्य को मारकर [[मथुरा]] नामक नगरी की स्थापना की। कालांतर में [[सूर्यवंश]] क्षीण हो गया। [[ययाति]] कुलोत्पन्न यादवों ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। यादवराज [[शूरसेन]] के पुत्र का नाम वसुदेव था। वह वरुण के शाप तथा कश्यप के अंश से उत्पन्न हुआ था। शूरसेन की मृत्यु के उपरांत [[उग्रसेन]] को राज्य की प्राप्ति हुई। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। देवक राजा की कन्या का नाम [[देवकी]] था। उसका जन्म वरुण के शाप तथा अदिति के अंश से हुआ था। देवक ने उसका विवाह [[वसुदेव]] से कर दिया। विवाह होते ही आकाशवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान कंस को मार डालेगी। कंस ने देवकी के बाल पकड़कर उसे मारने के लिए खड्ग उठा लिया। वसुदेव के वीर साथियों से [[कंस]] का युद्ध होने लगा। यादवों ने कंस को समझा-बुझाकर शांत किया कि अपनी बहन पर हाथ उठाना उचित नहीं है। हो सकता है, किसी शत्रु ने ही यह आकाशवाणी रची हो। वसुदेव ने कहा कि वह अपनी प्रत्येक संतान कंस को अर्पित कर देगा। इस शर्त पर कंस ने उसे छोड़ दिया। <br />
<br />
वसुदेव देवकी को लेकर अपने घर चला गया। प्रथम पुत्र उत्पन्न होने पर वसुदेव पुत्र सहित कंस के पास पहुंचा। कंस ने 'प्रथम बालक से नहीं, अष्टम बालक से भय है' कहकर बालक उसे लौटा दिया, किंतु तभी [[नारद]] ने वहां पहुंचकर कंस को समझाया कि गिनती कहां से शुरू करके किस बालक को अष्टम माना जायेगा, नहीं कहा जा सकता। यह सुनकर कंस ने बालक को शिला पर पटककर मार डाला। इसी प्रकार देवकी के छह पुत्र मारे गये। वे छहों शापवश जन्मते ही नष्ट हो गये। पूर्वकाल में ब्रह्मा अपनी कन्या के प्रति कामुक हो उठे थे। रमण करते हुए ब्रह्मा को देख महर्षि मरीचि के (उर्णा नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न) छह पुत्रों ने उनका परिहास किया था। इससे रुष्ट होकर ब्रह्मा ने उन्हें असुर योनि में जन्म लेने का शाप दिया था। फलत: पहले वे [[कालनेमि]] के पुत्र हुए, फिर हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए। दूसरे जन्म में ज्ञान विच्युत न होने के कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा था कि हवे मनवांछित देवता अथवा [[गंधर्व]] हो जायें ! वर पाकर वे लोग तो प्रसन्न हुए। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्रों को ब्रह्मा का प्रिय जान क्रोधावेश में कहा-"तुम पाताल में जाकर निद्रा में पड़े रहोगे। पृथ्वी पर षड्गर्क नाम से प्रसिद्ध होगे। देवकी के गर्भ से जन्म लेकर कालनेमि के वंश से उत्पन्न कंस के हाथों मारे जाओगे।" देवकी के सातवें गर्भ में अनंत देव आये। योगमाया ने योग-बल से इस गर्भ का आकर्षण करके उसे [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थापित किया। भौतिक दृष्टि से देवकी का गर्भपात मान लिया गया। तदनंतर विष्णु के अंशावतार कृष्ण ने अष्टम् पुत्र के रूप में जन्म लिया। योगमाया ने स्वेच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया। अन्य पात्रों के जन्म के मूलांश की <br />
[[चित्र:Jarasandh1.jpg|[[भीम]]-जरासंध युद्ध|thumb|200px]]<br />
'''तालिका निम्नलिखित है:'''<br />
<br />
{| border="1" cellpadding="10"<br />
! मूलांश <br />
! कृष्ण-कथा के पात्र <br />
|-<br />
|[[हिरण्यकशिपु]]<br />
|[[शिशुपाल]]<br />
|-<br />
|विप्रचित्त <br />
|[[जरासंध]] <br />
|-<br />
|[[प्रह्लाद]] <br />
|[[शल्य]]<br />
|-<br />
|खर<br />
|[[लंबक तथा धेनुक]]<br />
|-<br />
|वाराह और किशोर<br />
|[[चाणूर और मुष्टिक]]<br />
|-<br />
|दिति पुत्र अरिष्ट<br />
|कुवलय नामक<br />कंस का हाथी<br />
|-<br />
|}<br />
<br />
[[युधिष्ठर|यम]], [[रुद्र]], काम और क्रोध-चारों के अंश से [[अश्वत्थामा]] <br />
<br />
भूमि का भार-हरण करने की प्रार्थना सुनकर हरि ने देवताओं को दो बाल दिये थे; एक काला-कृष्ण, दूसरा सफेद-[[बलराम]]।<br /><br />
(दे0 भा0, 4 । 20-25) <br />
<br />
श्रीकृष्ण परमात्मा है। उनके सोलहवें अंश का एक अंश, सौ करोड़ सूर्यों के प्रकाश से युक्त एक बालक होकर, मूलशक्ति प्रसूत डिंब में स्थापित था डिंब के दो भागों में विभक्त होने पर भूखा-प्यासा वह बालक रोने लगा। कालांतर में पूर्व संस्कार के बल से वह परम पुरुष श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न होकर हंसने लगा। श्रीकृष्ण उस बालक को आशीर्वाद देकर त्रैलोक्य चले गये। कृष्ण के आशीर्वाद से वह ज्ञानयुक्त हुआ। उसने विराट रूप धारण किया, उसी के नाभिकमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया तथा सृष्टि की रचना की। सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए। उस बालक के क्षुद्रांश से ही विष्णु ने उत्पन्न होकर सृष्टि का पालन किया । श्रीकृष्ण को चतुर्भुज नारायण से भिन्न माना गया है। कृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु , [[शिव|महेश]] के कारणभूत हैं। [[राधा]] सर्वशक्तिमति देवी हैं।<br /><br />
(दे0भा0, 8/3)<br />
<br />
==शिव पुराण==<br />
[[दुर्वासा]] कृष्ण की परीक्षा लेने गये। पर्याप्त आतिथ्य पाकर उन्होंने अपने रथ को कृष्ण तथा उनकी पत्नी [[रुक्मिणी]] से खिंचवाने की इच्छा प्रकट की। कृष्ण और रुक्मिणी के सहर्ष रथ खींचने से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कृष्ण को 'पायस' दी और कहा कि वे अपने बदन पर लगा लें। जहां-जहां यह लगेगी, वहां किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं लग पायेगा। कृष्ण ने वैसा ही किया।<br /> <br />
(शि0पु0, 44 ।7। 26) <br />
==महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण==<br />
===मंगलाचरण===<br />
[[महाभारत]] धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकों प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथारूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अन्धकारको विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रन्थके मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। इसलिये सम्पूर्ण महाभारत भगवान् वासुदेव के ही नाम, रूप लीला और धामका संकीर्तन है। नारायण के नाम से इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में व्यासजी ने सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण की ही वन्दना की है।<br />
===द्रौपदी स्वयंवर===<br />
महाभारत के [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]] में भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन [[द्रौपदी]]-स्वयंवर के अवसर पर होता है। अब [[अर्जुन]] के लक्ष्यवेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है। तब [[कौरव]]पक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिये युद्धकी योजना बनाते हैं उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि 'इन लोगों ने द्रौपदी को धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिये।' भगवान् श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शान्त हो गये और द्रौपदी के साथ [[पाण्डव]] सकुशल अपने निवास पर चले गये।<br />
[[चित्र:Bhishma1.jpg|[[महाभारत]] युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए|thumb|250px]]<br />
===प्रथम पूजनीय===<br />
धर्मराज [[युधिष्ठर]] के [[राजसूययज्ञ]] में जब यह प्रश्र उपस्थित हुआ कि यहाँ सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय तो उस समय महात्मा [[भीष्म]] ने कहा कि 'वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलयस्वरूप हैं और इस चराचर जगत् का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं।' भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निन्दा की और भीष्म पितामह को भी खरी-खोटी सुनायी। भगवान् श्री कृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरी रसे एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। इस अलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है। कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।<br />
===द्रौपदी===<br />
पाण्डवों के एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हीं की कृपा और युक्ति से ही [[भीम|भीमसेन]] के द्वारा जरासन्ध मारा गया और युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ सम्पन्न हुआ। राजसूय यज्ञ का दिव्य सभागार भी मय दानव ने भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से ही बनाया। द्यूत में पराजित हुए पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी जब भरी सभा में [[दु:शासन]] के द्वारा नग्न की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमाली ने वस्त्रावतार धारण किया। शाक का एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासा के कोप से पाण्डवों की रक्षा की।<br />
===शान्तिदूत===<br />
युद्ध को रोकने के लिये श्रीकृष्ण शान्तिदूत बने, किंतु [[दुर्योधन]] के अहंकार के कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूययज्ञके अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने। संग्राम भूमि में उन्होंने अर्जु नके माध्यम से विश्व को [[गीता]] रूपी दुर्लभ रत्न प्रदान किया। भीष्म, [[द्रोणाचार्य|द्रोण]], [[कर्ण]] और अश्वत्थामा-जैसे महारथियों के दिव्यास्त्रों से उन्होंने पाण्डवों की रक्षा की। युद्धका अन्त हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ। पाण्डवों का एकमात्र वंशधर उत्तरा का पुत्र [[परीक्षित]] अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से मृत उत्पन्न हुआ, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही उसे जीवनदान मिला। अन्त में [[गांधारी|गान्धारी]] के शाप को स्वीकार करके महाभारत के महानायक भगवान श्रीकृष्णने उद्दण्ड यादवकुल के परस्पर गृहयुद्ध में संहा रके साथ अपनी मानवी लीला का संवरण किया।<br />
<br />
==ऋग्वेद में कृष्ण==<br />
[[वेद|ऋग्वेद]] में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। कृष्ण सम्बन्धी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के ज़िलाने का श्रेय दिया गया है(ऋग्वेद 1।116।7,23)। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है (ऋग्वेद 8।86।1-5)। ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता [[अश्विनीकुमार|अश्विनीकुमारों]] से प्रार्थना की थी। <br />
<br />
कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का [[इन्द्र]] ने वध किया था (ऋग्वेद 1।101।1) ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। [[छान्दोग्य उपनिषद]] में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी थी जिसकी दक्षिणा, तप, दान, आर्जव, अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शान्त हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मण में भी मिलता है (30।9)। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है।<br />
<br />
==बौद्ध साहित्य==<br />
[[बौद्ध]] साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत [[जातक कथा|जातक]] में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है।<br />
==अनेक वृत्तान्त==<br />
===निपुण बलवान योद्धा=== <br />
महाभारत में कृष्ण सम्बन्धी अनेक वृत्तान्त मिलते हैं। भारत युद्ध में उनके पराक्रम, ऐश्वर्य और नीतिनैपुण्य के साथ उनके देवत्व का भी समन्वय पाया जाता है। सभापर्व में भीष्म द्वारा उनकी प्रशंसा समस्त [[वेद]]-[[वेदान्त]] के ज्ञाता तथा राजनीति में निपुण बलवान योद्धा के रूप में की गयी है। [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग पर्व]] में कहा गया है कि अर्जुन वज्रपाणि इन्द्र की अपेक्षा कृष्ण को अधिक पराक्रमी समझकर उन्हें युद्ध में अपनी ओर मिलाने में अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी स्थल पर कृष्ण के पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दस्युओं के संहार, दुर्धर्ष राजाओं के विनाश, रुक्मिणी के हरण, नगजित के पुत्रों की पराजय, सुदर्शनराजा की मुक्ति, पाण्डय के संहार, [[काशी]] नगरी के उद्धार, निषादों के राजा एकलव्य के वध, उग्रसेन के पुत्र सुनाम की मृत्यु आदि कार्यो का वर्णन किया गया है। देवताओं के द्वारा उन्हें अवध्यता का वरदान मिला था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही इन्द्र के घोड़े उच्चै:श्रवा के समान बली, [[यमुना नदी|यमुना]] के वन में रहने वाले हयराज को मार डाला था तथा वृष [[प्रलंब]], नरग, जृम्भ, मुर, [[कंस]] आदि का संहार किया था, जल देवता [[वरुण]] को पराजित किया था तथा पाताल वासी पंचजन को मारकर [[पान्चजन्य]] प्राप्त किया था। अपनी प्रिय पत्नी [[सत्यभामा]] की प्रसन्नता के लिए वे अमरावती से [[पारिजात]] लाये थे।<br />
<br />
===वासुदेव===<br />
महाभारत में प्राप्त कृष्ण सम्बन्धी इन सन्दर्भों से उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की सूचना मिलती है और ज्ञात होता है कि वे [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] वंशीय [[सात्वत]] जाति के पूज्य पुरुष थे। यह भी संकेत मिलता है कि महाभारत और पुराणों में वर्णित कृष्ण के चरित्र और किन्हीं ऐतिहासिक वासुदेव कृष्ण सम्बन्धी कथा में कुछ अन्तर अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाभारत और [[पुराण|पुराणों]] में अनेक स्थलों पर इस बात पर बल दिया गया है कि यही कृष्ण वास्तविक वासुदेव हैं, यही द्वितीय वासुदेव हैं। द्वितीय वासुदेव कहने का अभिप्राय यह था कि कुछ अन्य राजा भी अपने को द्वितीय वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध करने का यत्न करते थे। पौण्ड्र राजा पुरुषोत्तम और करवीरपुर के राजा श्रृगाल इसी प्रकार के व्यक्ति थे, जिन्हें मारकर कृष्ण ने सिद्ध किया कि उनका वासुदेवत्व मिथ्या है तथा वे ही स्चयं एकमात्र वासुदेव हैं।<br />
===पुराणों में कृष्ण===<br />
[[चित्र:Cover-Vishnu-Purana.jpg|thumb|[[विष्णु पुराण]], गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ]]<br />
[[महाभारत]], [[हरिवंश पुराण]] तथा [[विष्णु पुराण]], [[वायु पुराण]], [[वामन पुराण]], [[भागवत पुराण]] आदि पुराणों में कृष्ण की तुलना में इन्द्र की हीनता सिद्ध करने के लिए अनेक कथाएँ दी गयी हैं; परन्तु फिर भी [[गोवर्धन]] धारण के प्रसंग में उनके इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने और 'उपेन्द्र' नाम से स्वीकृत होने का उल्लेख हुआ है। पुराणों में विविध कथाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर कृष्ण की महत्ता और उसी अनुपात में इन्द्र की हीनता प्रमाणित की गयी है। महाभारत में कृष्ण के ऐश्वर्य और देवत्व का प्रचुर वर्णन है परन्तु उनके लालित्य और माधुर्य का कोई संकेत नहीं मिलता। महाभारत उनके गोप जीवन और [[गोपी]] प्रेम के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है। [[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]] के उस प्रसंग में भी, जिसे प्रक्षिप्त कहा जाता है और जिसमें शिशुपाल कृष्ण की निन्दा करते हुए उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वत्सासुर और कंस के वध तथा गोवर्द्धन धारण किये जाने का उल्लेख करता है, गोपियों से उनके प्रेम का कोई संकेत नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि गोपाल कृष्ण का ललित और मधुर चरित मूलत: महाभारत के कृष्ण के चरित से भिन्न था। पुराणों में वर्णित कृष्ण सम्बन्धी ललित कथाएँ उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गयी हैं। उदाहरण के लिए हरिवंश में जिसे 'वास्तव में महाभारत का परिशिष्ट कहा जाता है, उनके गोपाल रूप सम्बन्धी सन्दर्भ अतयन्त संक्षिप्त है। उनकी तुलना में उनके ऐश्वर्य रूप की भोग-विलास सम्बन्धी अनेक कथाएँ कहीं अधिक विस्तार से वर्णित हैं। विष्णु पुराण में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। किन्तु भागवत, [[पद्म पुराण]] , [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] तथा कुछ अन्य पुराणों में, जिन्हें परवर्ती कहा जा सकता है, गोपालकृष्ण सम्बन्धी कथन अधिक विस्तृत होने लगे हैं। पुराणों के भोग-ऐश्वर्य सम्बन्धी आख्यानों और गोप-गोपी लीला सम्बन्धी मधुर कथाओं में वातावरण का बहुत अन्तर पाया जाता है। यदि एक में घोर भौतिकता, विलासिता और नग्न ऐन्द्रियता है तो दूसरे में भावात्मक कोमलता, हार्दिक उत्फुल्लता, सूक्ष्म अनुभूति और अलौकिकता की ओर उन्मुख उदात्तता है।<br />
<br />
===शूरसेन प्रदेश===<br />
[[चित्र:Shursen-Map.jpg|thumb|300px|[[शूरसेन]] महाजनपद<br /> Shursen Great Realm]]<br />
अनुमान है कि गोपाल कृष्ण मूलत: [[शूरसेन]] प्रदेश के सात्वत वृष्णिवंशी पशुपालक क्षत्रियों के कुल देवता थे और उनके क्रीड़ा कौतुक की मनोरंजक कथाएँ मौखिक रूप में लोक-प्रचलित थीं। इन कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण कुछ पाषाण मूर्तियों और शिलापट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों में मिले है। मथुरा में प्राप्त एक खण्डित शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को एक सूप में सिर पर रखकर यमुना पार करते हुए दिखाये गये हैं। 5वीं शताब्दी ईसवी के एक दूसरे खण्डित शिलापट्ट में [[कालिय नाग|कालिय-दमन]] का दृश्य दिखाया गया है। यह छठी शताब्दी ईस्वी की अनुमान की गयी है। बंगाल के पहाड़पुर नामक स्थान में छठी शताब्दी की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें [[धेनुकासुर वध]], [[यमलार्जुन उद्धार]] तथा [[मृष्टिक चाणूर]] के साथ मल्ल-युद्ध के दृश्य दिखाये गये हैं। यहीं पर एक अन्य मूर्ति मिली है जिसमें कृष्ण को किसी गोपी के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। अनुमान किया गया है कि यह गोपी सम्भवत: [[राधा]] का सबसे प्राचीन मूर्तिगत प्रमाण प्रस्तुत करती है। राजस्थान के मण्डोर तथा बीकानेर के पास सूरतगढ़ में क्रमश: द्वारपाटों पर उत्कीर्ण गोवर्द्धन –धारण, नवनीत-चौर्य, [[शकटभंजन]] और कालिय-दमन के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं तथा गोवर्द्धन-धारण और दान-लीला का दृश्यांकन प्रस्तुत करने वाले कुछ सुन्दर मिट्टी के खिलौने प्राप्त हुए हैं। मण्डोर के चित्र चौथी-पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अनुमान किये गये हैं। दक्षिण भारत के बादामी के पहाड़ी क़िले पर कृष्ण-जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, कंस-वध आदि के अनेक दृश्य गुफ़ाओं में उत्कीर्ण मिले हैं। जो छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं<ref>(दे0 आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट 1926-27, 1905-6 तथा 1928-29 ई.)</ref>।<br />
==काव्य में कृष्ण==<br />
काव्य में गोपाल कृष्ण की लीला का पहला सन्दर्भ प्रथम शताब्दी ईसवी में रचित [[अश्वघोष]] के बुद्धिचरित' (1-5) में मिलता है। अनुमानत: प्रथम शताब्दी ईस्वी में हाल [[सातवाहन]] द्वारा संगृहीत 'गाहासत्तसई' (गाथा सप्तशती) में कई गाथाएँ कृष्ण, राधा, गोपी, [[यशोदा]] आदि से सम्बद्ध मिलती हैं <ref>(दे0 'गाहासत्तसई' 1।29, 5।47, 2।12, 2।14)</ref>। इन गाथाओं में कृष्ण द्वारा नारियों के गौरवहरण, मुखमारूत से राधिका के गोरज के अपनयन आदि के उल्लेख हुए हैं। इन उल्लेखों से सूचित होता है कि कृष्ण के गोपी-प्रेमसम्बन्धी प्रसंग कम से कम पहली शताब्दी ईस्वी के पहले से ही लोक-प्रचलित थे। यह अवश्य द्रष्टव्य है कि'गाहासत्तसई' में भक्ति भावना का कोई संकेत नहीं मिलता, उसका वातावरण सर्वथा लौकिक श्रृंगार का ही है परन्तु इससे भिन्न दक्षिण के आलवार सन्तों द्वारा रचित गीत पूर्णतया भक्ति भावना से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। इन सन्तों का समय पाँचवीं से नवीं शताब्दी ईसवी अनुमान किया गया है। आलवार सन्तों के इन गीतों में विष्णु , नारायण अथवा वासुदेव तथा उनके अवतारों-[[राम]] और कृष्ण के प्रति अपूर्व भक्ति –भाव प्रकट किया गया है। इनमें गोपाल-कृष्ण की ललित लीला के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जो उत्तर भारत के मध्यकालीन कृष्ण भक्ति- काव्य के प्रिय विषय रहे हैं। इन गीतों में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से सम्बद्ध एक नाप्पित्राय नामक गोपी का प्रमुख रूप समें वर्णन है। उसे कृष्ण की प्रियतमा और विष्णु की अर्द्धागिनी [[लक्ष्मी]] का अवतार कहा गया है। अनुमान है कि यह गोपी उत्तर भारत की कृष्णकथा में प्रयुक्त राधा ही है। राधाकृष्ण कथा की प्राचीनता की दृष्टि से तमिल साहित्य का यह प्रमाण महत्त्वपूर्ण है।<br />
===राधा के प्रेम सन्दर्भ===<br />
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|250px|[[राधा]]-[[कृष्ण]]]]<br />
आठवीं शंताब्दी में रचित भट्टानारायण के 'वेणीसंहार' नामक-नाटक में नांदीश्लोक में तथा वाकपति राज द्वारा लिखित प्राकृत महाकाव्य 'गउडवहो' के मंगलाचरण में कृष्ण की स्तुति उनके राधा और गोपी-प्रेम तथा यशोदा के वात्सल्यभाजन होने की स्पष्ट सूचना देती है। 'गउडवहो' में उन्हें 'विष्णुस्वरूप' और 'लक्ष्मीपति' भी कहा गया है। नवीं शताब्दी ईसवी के 'ध्वन्यालोक' में उद्धृत दो [[श्लोक|श्लोकों]] में कृष्ण और राधा के मधुर प्रेम के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दसवीं शताब्दी के त्रिविक्रम भट्ट रचित 'नलचम्पू' के एक श्लोक में परम पुरुष कृष्ण के साथ राधा के अनुराग का संकेत प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी की ही बल्लभदेव द्वारा रचित 'शिशुपालवध' की टीका तथा सोमदेवपूरि के 'यशस्यतिलकचम्पू' में भी राधा के प्रिय कृष्ण का जिस रूप में उल्लेख मिलता है उससे कृष्ण के गोपीवल्लभ रूप की सूचना प्राप्त होती है। <br />
===प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ===<br />
'कवीन्द्रवचन समुच्चय' नामक कवितासंग्रह भी दसवीं शताब्दी का माना गया है। इसमें संकलित अनेक श्लोकों में कृष्ण की गोपी और राधा सम्बन्धी प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ मिलता है जिनसे कृष्ण के यशोदा के वात्सल्य-भाजन, गोपियों के कान्त, गोपों के सृहृद् तथा राधा के अनन्य प्रेमभाजन व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। इन सभी सन्दर्भो में कृष्ण के दक्षिण और धृष्ट नायकत्व के भी स्पष्ट संकेत हैं। दशवीं शताब्दी तक राधा और कृष्ण के प्रति पूज्यभाव भी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण मालवाधीश वाक्पति मुंजपरमार के एक अभिलेख से भी मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका विष्णु रूप में वर्णन है और साथ ही उन्हे राधा के विरह में पीड़ित कहा गया है। दशवीं शताब्दी के आसपास रचित श्रीमद्भागवत में कृष्णचरित का व्यापक वर्णन है इसमें उनके सभी स्वरूपों का वर्णन और संकेत है।<br />
<br />
कृष्ण के व्यक्तित्व के लालित्य और माधुर्य के साथ उनके दैवत रूप की प्रतिष्ठा 12 वीं शताब्दी तक और अधिक दृढ़ता के साथ हो गयी थी। इसका प्रमाण लीलाशुक द्वारा रचित 'कृष्णकर्णामृतस्तोत्र' ईश्वरपुरी द्वारा रचित 'श्रीकृष्णलीलामृत ' का श्रृगांर रस निश्चित रूप से माधुर्य भक्ति है। इसी प्रकार 'गीतगोविन्द' में राधा-माधव के जिस उद्दाम श्रृंगार का वर्णन किया गया है, उसकी मूल प्रेरणा भी धार्मिक है। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस प्रकार जिस लोकरंजनकारी लालित्य का उदात्तीकरण वैष्णव भक्ति के विकास में होता गया उसी की चरम परिणति हम परवर्ती साहित्य में पाते हैं।<br />
<br />
===असंख्य कथा प्रसंग===<br />
बारहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-काव्य मृक्तकों के अतिरिक्त प्रबन्धों के रूप में भी प्राप्त होता है। 'सदुक्तिकर्णामृत' नामक एक मुक्तक संग्रह 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ का हैं। जिसमें गोपाल कृष्ण की लीला से सम्बद्ध साठ श्लोक हैं। इन श्लोकों में गोपाल कृष्ण के शैशव, कैशोर और यौवन की ललित लीलाओं का ही वर्णन मिलता है। 13वी-14वी शताब्दी में रचित बोपदेव की 'हरिलीला' तथा वेदान्तदेशिककी 'यादवाभ्युदय' नामक रचनाएँ तथा पन्द्रहवीं शताब्दी की 'ब्रजबिहारी' (श्रीधरस्वामी), 'गोपलीला' (रामचन्द्र भट्ट), ' हरिचरित'-काव्य (चतुर्भुज), 'हरिविलास'-काव्य (ब्रजलोलिम्बराज), 'गोपालचरित' (पद्मनाभ), 'मुरारिविजय'- नाटक (कृष्ण भट्ट) और 'कंस-निधन' महाकाव्य (श्रीराम) आदि अनेक काव्य और नाटक गोपालकृष्ण के मधुर, ललित और पूज्य चरित का चित्रण करते हैं। 16वीं शताब्दी से कृष्णभक्ति आन्दोलन सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्याप्त हो गया और कृष्ण-काव्य आधुनिक भाषाओं में रचा जाने लगा। इस काव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत था, परन्तु साथ ही कवियों ने लोक में प्रचलित कृष्णसम्बन्धी उन असंख्य कथा प्रसंगों का भरपूर उपयोग किया जिनमें कृष्ण का चरित वात्सल्य, सख्य और माधुर्यव्यंजक लीलाओं से समन्वित रहा है।<br />
<br />
==सूरदास==<br />
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|[[सूरदास]], सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]|thumb|300px]]<br />
हिन्दी का कृष्ण-भक्ति काव्य यद्यपि [[सूरदास]] से प्रारम्भ होता है परन्तु इससे पहले 15वीं शताब्दी में [[विद्यापति]] ने अपने पदों में कृष्ण के श्रृंगारी रूप का जो वर्णन किया था उसकी प्रकृति भले ही लौकिक श्रृंगार की रही हो, उसका उपयोग भक्तों ने माधुर्य भक्ति के सन्दर्भों में ही किया। विद्यापति और हिन्दी के रीतिकालीन राधाकृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार –काव्य के बीच हिन्दी भक्तिकाव्य का एक लम्बा व्यवधान है जिसमें कृष्ण का व्यक्तित्व कवियों ने अत्यन्त कुशलता के साथ् मानव और अतिमानव के परस्पर विरोधी तत्त्वों से निर्मित कर चित्रित किया है। कृष्ण के इस चरित-चित्रण में बड़ी विलक्षणता है। एक ओर उन्हें विष्णु का अवतार, ब्रह्मा-विष्णु और महेश से परे तथा साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा गया है, तो दूसरी ओर उनकी शैशव, बाल्य और किशोरकाल की अत्यन्त मानवीय और स्वाभाविक लीला का मनोहर वर्णन किया गया है। हिन्दी कृष्ण-काव्य के रचयिताओं में कृष्ण का सम्यक् चरित्र-चित्रण वास्तव में सूरदास ने ही किया किन्तु सूरदास का चरित्र-चित्रण वस्तुत: भावांत्मक है। प्रधान रूप से उन्होंने कृष्ण को वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का आलम्बन बनाया है और इन भावों का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण करते हुए दैन्य और विस्मय के भावों के सहारे उनके प्रति पूज्य भावना व्यक्त की है।<br />
<br />
कृष्ण के चरित्र-चित्रण में सूर की अन्य विशेषता यह है कि यद्यपि वे नन्द-यशोदा, गोप-गोपी, आदि के साथ राग-रंग में आचूल मग्न रहते हैं, फिर भी उनके व्यवहार से व्यंजित होता है कि वास्तव में वे भावातीत और वीतराग हैं। कृष्ण के मथुरा और द्वारका-प्रवास तथा उनके प्रति ब्रजवासियों और विशेषकर गोपियों के विरह-भाव का वर्णन करते हुए सूरदास ने कृष्ण के इस विलक्षण व्यक्तित्व का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है। इसके द्वारा हमें गीता के योगिराज कृष्ण की अनासक्ति का व्यावहारिक परिचय मिलता है।<br />
<br />
सूरदास के अतिरिक्त अन्य कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के सम्पूर्ण चरित का चित्रण नहीं किया। बहुत थोड़े से कवियों ने कृष्ण के बाल्य और किशोरकाल के जीवन का परिचय दिया। अधिकांश कवि उनके माधुर्यपूर्ण चरित की ओर ही झुके और राधा और गोपियों के साथ उनके प्रेम सम्बन्धों के चित्रण में ही निमग्न रहें कृष्ण के प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों रूपों के चित्रण में अनेक कवियों ने तन्मयता प्रदर्शित की, परन्तु सूरदास ने उनमें वीतरागत्व और अनासक्ति के संकेतों तथा अन्य उपायों द्वारा जिस आध्यात्मिकता की उच्च काव्यमयी व्यंजना की थी, वह कोई अन्य कवि नहीं कर सका। सूरदास ने कृष्ण के असुर-संहारी रूप का भी विशद वर्णन किया था। यद्यपि उनके वर्णन में कृष्ण की वीरता और पराक्रम के स्थान पर उनके विस्मयकारी क्रीडा-कौतक की ही प्रधानता है, परन्तु उनका उद्देश्य जिस अलौकिक की व्यंजना करना था उसे परवर्ती कवि नहीं समझ सके। इस कारण उन्होंने कृष्ण-चरित के इस पक्ष की प्राय: उपेक्षा ही की। <br />
<br />
श्रीकृष्ण के सहज मानवीय श्रृंगारी रूप को सूरदास ने उनके प्रति दैन्य भावना व्यक्त करके तथा उनके अलौकिक कृत्यों के वर्णयन द्वारा विस्मय की व्यंजना करके उनके चरित में जिस उदात्तता का सन्निवेश किया था, परवर्ती कवियों ने उसे विस्मृत कर दिया और श्रीकृष्ण का चरित लगभग पूर्ण रूप में इहलौकिक हो गया और उसमें मानव व्यक्तित्व की संकुचित एकांगिता ही शेष रह गयी। फलत: जीवन की व्याख्या की कसौटी पर कसने पर वह अत्यन्त कल्पित और अयथार्थ लगता है, जैसे राग-रंग और आनन्द-विहार में लिप्त जीवन का कोई उद्देश्य ही न हो। वास्तव में तथ्य यही है कि कृष्ण-चरित जीवन के वास्तविक चित्रण अथवा आदर्श चित्रण के रूप में रचा ही नहीं गया, उनका चरित वास्तव में परब्रह्म की लीलामात्र हैं जिसका प्रयोजन लीलानन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। उसका उद्देश्य अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की व्यंजना करना ही हैं भक्त कवियों ने उस आनन्द का रूप स्त्री-आनन्द रूप में परम पुरुष हैं और उनकी परा शक्ति रूप प्रकृति स्वरूपा राधा हैं जिनके संयोग से ही परम आनंद की परिपूर्णता सिद्ध होती है।<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कृष्ण2}}<br />
{{कृष्ण}}<br />
[[en:Krishna References]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
[[Category:महाभारत]]<br />
[[Category:भगवान-अवतार]] <br />
[[Category: कोश]]<br />
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शिल्पी
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lab:Shilpi
2010-09-28T05:59:22Z
<p>शिल्पी: </p>
<hr />
<div>{{tocright}}<br />
<br />
कामधेनु का वर्णन [[पुराण|पौराणिक]] गाथाओं में एक ऐसी चमत्कारी गाय के रूप में मिलता है जिसमें दैवीय शक्तियाँ थी और जिसके दर्शन मात्र से ही लोगो के दुःख व पीड़ा दूर हो जाती थी यह कामधेनु जिसके पास होती थी उसे हर तरह से चमत्कारिक लाभ होता था। उसका दूध अमृत के समान था।<br />
<br />
[[कृष्ण]] कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से कामधेनु माँगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए।<br />
<br />
जैसे देवताओं में भगवान [[विष्णु]], सरोवरों में समुद्र, नदियों में [[गंगा नदी|गंगा]], पर्वतों मे [[हिमालय]], भक्तों में [[नारद]], सभी पुरियों में [[कैलाश पर्वत|कैलाश]], सम्पूर्ण क्षेत्रों में केदार क्षेत्र श्रेष्ठ है, वैसे ही गऊओं में कामधेनु सर्वश्रेष्ठ है।<br />
<br />
'''कामधेनु''' सबका पालन करने वाली है। माता स्वरूपिणी हैं- सब इच्छाएँ पूर्ण करने वाली है। <br />
<br />
जब भगवान विष्णु स्वयं कच्छपरूप धारण करके मन्दराचल के आधार बनें। इस प्रकार मन्थन करने पर क्षीरसागर से क्रमश: कालकूट विष, कामधेनु, उच्चैश्रवा नामक अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ्रमणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएँ, लक्ष्मी, वारूणी, चन्द्रमा, शंख, शांर्ग धनुष धनवन्तरि और अमृत प्रकट हुए। <br />
<br />
==क्षीर-समुद्र का मन्थन==<br />
मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आवाज उठ रही थी। इस बार के मन्थन से देवकार्यों की सिद्धि के लिये साक्षात् सुरभि कामधेनु प्रकट हुईं। उन्हें काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएँ घेरे हुए थीं। उस समय ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिये याचना की और कहा- 'आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्रवाले ब्राह्मणों को कामधेनु सहित इन सम्पूर्ण गौओं का दान अवश्य करें।' ऋषियों के याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिये वे सब गौएँ दान कर दीं तथा यज्ञ कर्मों में भली-भाँति मन को लगाने वाले उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन गौओं का दान स्वीकार किया। तत्पश्चात सब लोग बड़े जोश में आकर क्षीरसागर को मथने लगे। तब समुद्र से कल्पवृक्ष, पारिजात, आम का वृक्ष और सन्तान- ये चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।<br />
<br />
<br />
==कथा: शिव द्वारा दिव्यास्त्र==<br />
बड़े होने पर परशुराम ने शिवाराधन किया। उस नियम का पालन करते हुए उन्होंने शिव को प्रसन्न कर लिया। शिव ने उन्हें दैत्यों का हनन करने की आज्ञा दी। परशुराम ने शत्रुओं से युद्ध किया तथा उनका वध किया। किंतु इस प्रक्रिया में परशुराम का शरीर क्षत-विक्षत हो गया। [[शिव]] ने प्रसन्न होकर कहा कि शरीर पर जितने प्रहार हुए हैं, उतना ही अधिक देवदत्व उन्हें प्राप्त होगा। वे मानवेतर होते जायेंगे। तदुपरान्त शिव ने परशुराम को अनेक दिव्यास्त्र प्रदान किये, जिनमें से परशुराम ने [[कर्ण]] पर प्रसन्न होकर उसे दिव्य धनुर्वेद प्रदान किया। <br />
<br />
जमदग्नि ऋषि ने रेणुका के गर्भ से अनेक पुत्र प्राप्त किए। उनमें सबसे छोटे परशुराम थे। उन दिनों हैहयवंश का अधिपति अर्जुन था। उसने विष्णु के अंशावतार दत्तात्रेय के वरदान से एक सहस्र भुजाएँ प्राप्त की थीं। एक बार [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] में स्नान करते हुए मदोन्मत्त हैहयराज ने अपनी बाँहों से नदी का वेग रोक लिया, फलतः उसकी धारा उल्टी बहने लगी, जिससे [[रावण]] का शिविर पानी में डूबने लगा। दशानन ने अर्जुन के पास जाकर उसे भला-बुरा कहा तो उसने रावण को पकड़कर कैद कर लिया। [[पुलस्त्य]] के कहने पर उसने रावण को मुक्त कर दिया। एक बार वह वन में जमदग्नि के आश्रम पर पहुँचा। जमदग्नि के पास कामधेनु थी। अतः वे अपरिमित वैभव क भोक्ता थे। ऐसा देखकर हैहयराज सहस्र बाहु अर्जुन ने कामधेनु का अपहरण कर लिया। परशुराम ने फरसा उठाकर उसका पीछा किया तथा युद्ध में उसकी समस्त भुजाएँ तथा सिर काट डाले। उसके दस हज़ार पुत्र भयभीत होकर भाग गये। कामधेनु सहित आश्रम लौटने पर पिता ने उन्हें तीर्थाटन कर अपने पाप धोने के लिए आज्ञा दी क्योंकि उनकी मति में ब्राह्मण का धर्म क्षमादान है। परशुराम ने वैसा ही किया।<br />
<br />
दिलीप अंशुमान के पुत्र और [[अयोध्या]] के राजा थे। दिलीप बड़े पराक्रमी थे यहाँ तक के देवराज [[इन्द्र]] की भी सहायता करने जाते थे। इन्होंने देवासुर संग्राम में भाग लिया था। वहाँ से विजयोल्लास से भरे राजा लौट रहे थे। रास्ते में कामधेनु खड़ी मिली लेकिन उसे दिलीप ने प्रणाम नहीं किया तब कामधेनु ने श्राप दे दिया कि तुम पुत्रहीन रहोगे। यदि मेरी सन्तान तुम्हारे ऊपर कृपा कर देगी तो भले ही सन्तान हो सकती है। श्री [[वसिष्ठ]] जी की कृपा से उन्होंने नन्दिनी गौ की सेवा करके पुत्र श्री रघु जी को प्राप्त किया।<br />
<br />
==वसिष्ठ का आतिथ्य ग्रहण==<br />
महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री [[विश्वामित्र]] उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्व ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।</div>
शिल्पी
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कृष्ण संदर्भ
2010-09-28T05:53:43Z
<p>शिल्पी: /* श्रीमद भागवत */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==कृष्ण संदर्भ / [[:en:Krishna References|Krishna References]]==<br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए [[कृष्ण]]|250px]]<br />
==छान्दोग्य उपनिषद==<br />
कृष्ण- एक बार आंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र [[कृष्ण]] को यज्ञदर्शन सुनाया था। फलस्वरूप कृष्ण शेष समस्त विधाओं के प्रति तृष्णाहीन हो गये थे।(छा.उ., अध्याय 3,खंड 17, श्लोक 6)<br />
<br />
कृष्ण का मातृपरक नाम 'देवकीपुत्र' [[छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक|छान्दोग्य उप निषद् (3,17,6)]] में पाया जाता है।<br />
<br />
==विभिन्न प्रसंग== <br />
{{Tocright}} <br />
वे अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त ब्रह्म थे। मूलत: वे नारायण थे। वे स्वयंभू तथा संपूर्ण जगत के प्रपितामह थे। द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि, पृथ्वी रचण, [[अश्विनीकुमार]] नासिकास्थान, [[चंद्र देवता|चंद्र]] और [[सूर्य देवता|सूर्य]] नेत्र तथा विभिन्न [[देवता]] विभिन्न देहयष्टियां हैं। वे (ब्रह्म रूप) ही प्रलयकाल के अंत में [[ब्रह्मा]] के रूप में स्वयं प्रकट हुए तथा सृष्टि का विस्तार किया। [[रुद्र]] इत्यादि की सृष्टि करने के उपरांत वे लोकहित के लिए अनेक रूप धारण करके प्रकट होते रहे।<br />
<br />
श्रीकृष्ण के रूप में वही अव्यक्त नारायण व्यक्त रूप धारण करके अवतरित हुए। वे [[वसुदेव]] के पुत्र हुए। [[कंस]] के भय से वसुदेव उन्हें [[नंद]] गोप के यहाँ छोड़ आये। वहीं पलकर वे बड़े हुए। [[यशोदा]] (नंद की पत्नी) से उन्हें अद्भुत वात्सल्य की उपलब्धि हुई।<br /> <br />
(1) शिशुरूप में वे एक बार छकड़े नीचे सो रहे थे। यशोदा उन्हें वहां छोड़ यमुना तट गयी थी। बाल-लीला का प्रदर्शन करते हुए रोते हुए कृष्ण ने अपने पांव के अंगूठे से छकड़े को धक्का दिया तो वह उलट गया। उस पर रखे समस्त मटके चूर-चूर हो गये।<br /> <br />
(2) देवताओं के देखते-देखते उन्होंने [[पूतना-वध|पूतना]] को मार डाला।<br /> <br />
(3) वे अपने बड़े भाई संकर्षण ([[बलराम|बलदेव]]) के साथ खेलते-कूदते बड़े हुए। सात वर्ष की अवस्था में गोचारण के लिए जाया करते थे। एक बार मक्खन चुराकर खाने के दंडस्वरूप मां (यशोदा) ने उन्हें ऊखल में बांध दिया। कृष्ण ने उस ऊखल को [[यमल तथा अर्जुन]] नामक दो वृक्षों के बीच में फंसाकर इतने जोर से खींचा कि वे दोनों वृक्ष भूमिसात हो गये। इस प्रकार उन वृक्षो पर रहनेवाले दो राक्षसों को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(4) वे दोनों भाई ग्वालोचित वेशधारी वन में पिपिहरी तथा [[बांसुरी]] बजाकर आमोद-प्रमोद के साथ गायों को चराते थे। कृष्ण पीले और बलराम नीले वस्त्र धारण करते थे। वे पत्तों के मुकुट पहन लेते। कभी-कभी रस्सी का [[यज्ञोपवीत]] भी धारण कर लेते थे। वे गोप बालकों के आकर्षण का केंद्रबिंदु थे।<br /> <br />
(5) उन्होंने [[कदम्ब]]वन के पास हृद (कुण्ड) में रहने वाले [[कालिय नाग|कालिया नाग]] के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी तथा अन्यत्रा जाने का आदेश दिया था।<br /> <br />
(6) गोपाल बालकों द्वारा किये सर्वभूत स्त्रष्ट ईश्वर स्वरूप को प्रकट किया तथा [[गिरिराज]] को समर्पित होने वाली खीर वे स्वयं खा गये। तब से [[गोपगण]] उनकी पूजा करने लगे।<br /> <br />
(7) जब [[इन्द्र]] ने वर्षा की थी तब श्रीकृष्ण ने गौओं की रक्षा के निमित्त एक सप्ताह तक [[गोवर्धन]] पर्वत को अपने हाथ पर उठाए रखा था। इन्द्र ने प्रसन्न होकर उन्हें गोविंद नाम दिया।<br /> <br />
(8) श्रीकृष्ण ने पशुओं की हितकामना से वृक्ष रूप-धारी [[अरिष्ट]] नामक दैत्य का संहार किया।<br /> <br />
(9) ब्रजनिवासी [[केशी]] नामक दैत्य का संहार किया। उस दैत्य का शरीर घोड़े जैसा और बल दस हज़ार हाथियों के समान था।<br /> <br />
(10) [[कंस]] के दरबार में रहने वाले चाणूर नामक मल्ल को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(11) कंस के भाई तथा सेनापति शत्रुनाशक का भी उन्होंने नाश कर डाला।<br /><br />
(12) कंस के [[कुवलयापीड़]] नामक हाथी को भी उन्होंने मार गिराया।<br /><br />
(13) कंस को मारकर उन्होंने [[उग्रसेन]] का राज्याभिषेक कर दिया।<br /><br />
(14) [[उज्जयिनी]] में दोनों भाइयों ने वेद विद्याध्ययन किया। धनुर्विद्या सीखने वे सांदीपनि के पास गये। [[सांदीपनि]] ने गुरु-दक्षिणा में अपने पुत्र को वापस मांगा, जिसे कोई समुद्री जंतु खा गया था। श्रीकृष्ण ने समुद्र में रहने वाले उस दैत्य का संहार कर दिया तथा गुरुपुत्र को पुनर्जीवनदान दिया जो कि वर्षों पूर्व यमलोक में जा चुका था। कृष्ण के कृपाप्रसाद से उसने पूर्ववत् अपना शरीर धारण किया।<br /><br />
(15)श्रीकृष्ण ने [[नरकासुर]] (भौमासुर) को मार डाला।<br />
(16) श्रीकृष्ण ने [[उषा अनिरुद्ध]] का मिलन करवाया, [[बाणासुर]] को मारा।<br /><br />
(17) उन्होंने रूक्मी को पराजित करके [[रुक्मिणी]] का हरण किया।<br /><br />
(18) इन्द्र को परास्त करके [[परिजात वृक्ष]] का अपहरण किया।<br />
<br />
==महाभारत- उद्योगपर्व, द्रोणपर्व==<br />
<br />
स्वयंवर में गांधारराज की राजकुमारी को प्राप्त किया था। विवाहोपरांत उनके रथ में अच्छी नस्ल के घोड़ो की तरह से राजाओं को जोता गया था। द्यूतक्रीड़ा के उपरांत [[पांडव|पांडवों]] के वनवास काल में [[कौरव|कौरवों]]-पांडवों के [[महाभारत|युद्ध]] की संभावना देख श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए उनकी सभा में गये। कृष्ण के साथ [[धृतराष्ट्र]], [[गांधारी]], [[विदुर]], [[सात्यकि]] इत्यादि सभी इस मत के थे कि पांडवों का राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए तथा उनसे संधि कर, शांति स्थापित करनी चाहिए; किंतु [[दुर्योधन]] उसके लिए तैयार न था। उसने [[शकुनि]] तथा [[कर्ण]] से सलाह करके कृष्ण को बंदी बना लेने का निश्चय किया। सात्यकि को विदित हुआ तो उसने सभासदों के सम्मुख ही कृष्ण को इस तथ्य की सूचना दी। <br />
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]|left]]<br />
कृष्ण ने क्रुद्ध होकर अपना विश्व रूप (विराट् रूप) प्रदर्शित किया। कृष्ण की दाहिनी बांह पर [[अर्जुन]], वायीं बांह पर [[बलराम|हलधर]], वक्ष पर [[शिव]] तथा अंग-प्रत्यंग पर विभिन्न देवी-देवता साक्षात् दिखलायी दिए। कृष्ण के अट्टहास से भूमंडल कांप उठा। शरीर से ज्वाला प्रस्फुटित हुई तथा सब ओर अनेक देवता और योद्धाओं के दर्शन होने लगे। ऐसे रूप के दर्शन दे, कृष्ण ने वहां से प्रस्थान किया। [[महाभारत]] युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के सारथी का कार्यभार संभाला था। [[अभिमन्यु]] की मृत्यु के उपरांत कृष्ण ने अपने-आप स्वीकार किया कि अर्जुन (नर) नारायण (श्रीकृष्ण) का आधा शरीर है। युद्ध में पांडवों की विजय के उपरांत वे लोग कृष्ण सहित [[कुरुक्षेत्र]] में रहे। जब तक [[सूर्य देवता|सूर्य]] उत्तरायण नहीं हो गया, [[भीष्म]] पितामह नित्य ही उन्हें दान, धर्म, कर्तव्य का उपदेश देते रहे। उनके स्वर्गारोहण उपरांत पांडवों को [[हस्तिनापुर]] छोड़ते हुए कृष्ण अपने माता-पिता के दर्शन करने [[द्वारका|द्वारकापुरी]] चले गये।<br /><br />
(म0भा0, उद्योगपर्व, 130-131, [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]] 79)<br />
<br />
श्रीकृष्ण इस प्रकार क्रीड़ा करते हैं जैसे मनुष्य खिलौनें से क्रीड़ा करता है। संपूर्ण चराचर भूत नारायण से उद्भूत है। पानी के बुद्बुद्वत् उसी में लीन हो जाता है।<br /><br />
(म0भा0, सभापर्व, अध्याय 38)<br />
<br />
==हरिवंश पुराण==<br />
कृष्ण और बलराम ने अनुभव किया कि [[ब्रज]]भूमि की वनश्री बच्चों की क्रीड़ा , गोपों की फल-सब्जी बेचने के लिए उपज तथा गौओं के क्षारयुक्त मल इत्यादि से नष्ट हो गयी है। इस कारण से उन्होंने निश्चय किया कि [[गोवर्धन]] पर्वत से युक्त [[कदम्ब]] इत्यादि वृक्षों से अपूरित [[वृन्दावन]] में जाकर रहना चाहिए। कृष्ण ने अपने रोम-रोम से भयानक भेड़ियों को उत्पन्न किया। उनको देखकर गोप-[[गोपी|गोपांगनाएं]] तथा गायें अत्यंत त्रस्त होकर ब्रजभूमि छोड़ने के लिए तुरंत तैयार हो गये। लोग वृन्दावन में जा बसे।<br /> <br />
(हरिवंश [[पुराण]], विष्णुपर्व ।8-9)<br />
==श्रीमद भागवत==<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]]]<br />
कंस की कारागार में वसुदेव के यहाँ भगवान ने कृष्ण-रूप में अवतार लिया। दस वर्ष तक बलराम के साथ ऐसे रहे कि उनकी कीर्ति वृन्दावन से बाहर नहीं गयी। वे गाय चराते तथा बांसुरी बजाकर सबको रिझाते थे। खेल-खेल में उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया, कंस को उठाकर पटक दिया। कृष्ण ने अपनी शक्ति योगमाया से भौमासुर की लाई राजकन्याओं से एक ही मुहूर्त में अलग-अलग महलों में विधिवत् पाणिग्रहण संस्कार संपादित किया। एक बार नंद ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया तथा रात्रि में [[यमुना नदी|यमुना]] में स्नान करने लगे। वह असुरों की वेला थी। अत: एक असुर उन्हें पकड़कर वरुण के पास ले गया। कृष्ण वरुण के पास गये तथा नंद बाबा को वापस ले आये।<br />
<br />
नारद ने कंस को जाकर बताया कि कृष्ण वसुदेव का बेटा है तथा बलराम [[रोहिणी]] का। वे दोनों छिपाकर नंद के यहाँ रखे गये हैं। कंस ने कृष्ण को अपनी भावी मृत्यु का कारण मानकर वसुदेव तथा देवकी को पुन: कैद कर लिया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उन्हें कैद से छुड़ाया। [[यदु]]वंशियों को [[ययाति]] का शाप था कि वे कभी शासन नहीं कर पायेंगे। अत: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन से शासन ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण और बलराम ने नंद से कहा-"पिताजी, आपका वात्सल्य अपूर्व है। आपने तथा यशोदा ने अपने बालकों के समान ही हमें स्नेह दिया। आप ब्रज जाइए। हम लोग भी यहाँ का काम निपटाकर आपसे मिलने आयेंगे।" वे दोनों [[अवंती]]पुर (उज्जैन) निवासी गुरुवर संदीपनि के गुरुकुल में रहकर उनकी सेवा करने लगे। चौंसठ दिन में उन दोनों ने [[चौंसठ कलाएँ|चौंसठ कलाओं]] में निपुणता प्राप्त की तथा संदीपनि को गुरु-दक्षिणास्वरूप उसका मृत पुत्र पुन: लौटाकर वे दोनों मथुरा लौट गये।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 3।3।-,10।28।-,10।44।–)<br />
<br />
श्रीकृष्ण के अनेक विवाह हुए थे। (कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।) उनकी श्रुतकीर्ति नामक बूआ का विवाह केकय देश में हुआ था। उनकी कन्या का नाम था भद्रा जिसका विवाह उसके भाई सन्तर्दन आदि ने कृष्ण से कर दिया था। मद्र देश की राजकुमारी सुलक्षणा को कृष्ण ने स्वयंवर में हर लिया था। इनके अतिरिक्त [[भौमासुर]] को मारकर अनेक सुंदरियों को वे कैद से छुड़ा लाये थे।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 10।56, 57, 58)<br />
<br />
एक बार सूर्य-ग्रहण के अवसर पर भारत के विभिन्न प्रांतों की जनता कुरुक्षेत्र पहुंची। वहां वसुदेव, कृष्ण और बलराम से नंद, यशोदा, गोप-गोपियों आदि का सम्मिलन हुआ। कृष्ण ने [[गोपी|गोपियों]] आदि को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दियां उन्हीं दिनों वसुदेव के यज्ञोत्सव का आयोजन था। उस संदर्भ में नंद बाबा, यशोदा तथा पांडव-परिवार के अधिकांश सदस्य तीन माह तक द्वारका में ठहरे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0 10 । 82-84)<br />
<br />
एक बार कृष्ण अपने दो भक्तों पर विशेष प्रसन्न हुए। उनमें से एक तो मिथिला निवासी गृहस्थी ब्राह्मण श्रुतदेव था और दूसरा मिथिला का राजा बहुलाश्व था। श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण करके एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए तथा दोनों भक्तों ने भगवत्स्वरूप प्राप्त किया।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, ।10।86।13-)<br />
<br />
[[ब्रह्मा]] की प्रार्थना पर [[विष्णु]] ने हंस का रूप धारण करके सनकादि के चित्त तथा गुणों के अनैक्य के विषय में उपदेश दिया था। यदुवंशियों के संहार के उपरांत जरा नामक व्याध को निमिंत्त बनाकर श्रीकृष्ण ने स्वधाम में प्रवेश कियां उन्हें अपने धाम में प्रवेश करते कोई भी देवता देख नहीं पाया। श्रीकृष्ण की कृपा से उनके शरीर पर प्रहार करने वाला व्याध सदेह स्वर्ग चला गया। <br />
नश्वर शरीर के त्यागोपरांत वसुदेव, अर्जुन आदि बहुत दुखी हुए। सब उनकी अलौकिक लीलाओं को स्मरण करते रहे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, 11।13।15-42/- 11 । 30/-)<br />
<br />
==देवी भागवत==<br />
कृष्ण-कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से [[कामधेनु]] मांगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए। देवी भागवत में [[दिति]] और [[अदिति]] को [[दक्ष]] कन्या माना गया है। अदिति का पुत्र [[इन्द्र]] था जिसने मां की प्रेरणा से दिति के गर्भ के 49 भाग कर दिए थे जो मरूत हुए। अदिति से रुष्ट होकर दिति ने शाप दिया था-'जिस प्रकार गुप्त रूप से तूने मेरा गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करवाया है उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्म लेकर तू बार-बार मृतवत्सा होगी।' फलत: उसने [[देवकी]] के रूप में जन्म लिया।<br />
<br />
विष्णु ने देवताओं की रक्षा करने के निमित्त [[भृगु]] की पत्नी ([[शुकदेव|शुक]] की मां) का हनन किया था अत: भृगु के शापवश उन्होंने पृथ्वी पर बार-बार जन्म लिया। [[नर-नारायण]] अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। अप्सराएं राजकुमारियों के रूप में जन्मीं तथा कृष्ण की पत्नियां हुई।<br />
<br />
दैत्य [[मधु]] का पुत्र [[लवणासुर|लवण]] ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से पीड़ित कर रहा था। [[लक्ष्मण]] के भाई [[शत्रुघ्न]] ने उस दैत्य को मारकर [[मथुरा]] नामक नगरी की स्थापना की। कालांतर में [[सूर्यवंश]] क्षीण हो गया। [[ययाति]] कुलोत्पन्न यादवों ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। यादवराज [[शूरसेन]] के पुत्र का नाम वसुदेव था। वह वरुण के शाप तथा कश्यप के अंश से उत्पन्न हुआ था। शूरसेन की मृत्यु के उपरांत [[उग्रसेन]] को राज्य की प्राप्ति हुई। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। देवक राजा की कन्या का नाम [[देवकी]] था। उसका जन्म वरुण के शाप तथा अदिति के अंश से हुआ था। देवक ने उसका विवाह [[वसुदेव]] से कर दिया। विवाह होते ही आकाशवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान कंस को मार डालेगी। कंस ने देवकी के बाल पकड़कर उसे मारने के लिए खड्ग उठा लिया। वसुदेव के वीर साथियों से [[कंस]] का युद्ध होने लगा। यादवों ने कंस को समझा-बुझाकर शांत किया कि अपनी बहन पर हाथ उठाना उचित नहीं है। हो सकता है, किसी शत्रु ने ही यह आकाशवाणी रची हो। वसुदेव ने कहा कि वह अपनी प्रत्येक संतान कंस को अर्पित कर देगा। इस शर्त पर कंस ने उसे छोड़ दिया। <br />
<br />
वसुदेव देवकी को लेकर अपने घर चला गया। प्रथम पुत्र उत्पन्न होने पर वसुदेव पुत्र सहित कंस के पास पहुंचा। कंस ने 'प्रथम बालक से नहीं, अष्टम बालक से भय है' कहकर बालक उसे लौटा दिया, किंतु तभी [[नारद]] ने वहां पहुंचकर कंस को समझाया कि गिनती कहां से शुरू करके किस बालक को अष्टम माना जायेगा, नहीं कहा जा सकता। यह सुनकर कंस ने बालक को शिला पर पटककर मार डाला। इसी प्रकार देवकी के छह पुत्र मारे गये। वे छहों शापवश जन्मते ही नष्ट हो गये। पूर्वकाल में ब्रह्मा अपनी कन्या के प्रति कामुक हो उठे थे। रमण करते हुए ब्रह्मा को देख महर्षि मरीचि के (उर्णा नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न) छह पुत्रों ने उनका परिहास किया था। इससे रुष्ट होकर ब्रह्मा ने उन्हें असुर योनि में जन्म लेने का शाप दिया था। फलत: पहले वे [[कालनेमि]] के पुत्र हुए, फिर हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए। दूसरे जन्म में ज्ञान विच्युत न होने के कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा था कि हवे मनवांछित देवता अथवा [[गंधर्व]] हो जायें ! वर पाकर वे लोग तो प्रसन्न हुए। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्रों को ब्रह्मा का प्रिय जान क्रोधावेश में कहा-"तुम पाताल में जाकर निद्रा में पड़े रहोगे। पृथ्वी पर षड्गर्क नाम से प्रसिद्ध होगे। देवकी के गर्भ से जन्म लेकर कालनेमि के वंश से उत्पन्न कंस के हाथों मारे जाओगे।" देवकी के सातवें गर्भ में अनंत देव आये। योगमाया ने योग-बल से इस गर्भ का आकर्षण करके उसे [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थापित किया। भौतिक दृष्टि से देवकी का गर्भपात मान लिया गया। तदनंतर विष्णु के अंशावतार कृष्ण ने अष्टम् पुत्र के रूप में जन्म लिया। योगमाया ने स्वेच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया। अन्य पात्रों के जन्म के मूलांश की <br />
[[चित्र:Jarasandh1.jpg|[[भीम]]-जरासंध युद्ध|thumb|200px]]<br />
'''तालिका निम्नलिखित है:'''<br />
<br />
{| border="1" cellpadding="10"<br />
! मूलांश <br />
! कृष्ण-कथा के पात्र <br />
|-<br />
|[[हिरण्यकशिपु]]<br />
|[[शिशुपाल]]<br />
|-<br />
|विप्रचित्त <br />
|[[जरासंध]] <br />
|-<br />
|[[प्रह्लाद]] <br />
|[[शल्य]]<br />
|-<br />
|खर<br />
|[[लंबक तथा धेनुक]]<br />
|-<br />
|वाराह और किशोर<br />
|[[चाणूर और मुष्टिक]]<br />
|-<br />
|दिति पुत्र अरिष्ट<br />
|कुवलय नामक<br />कंस का हाथी<br />
|-<br />
|}<br />
<br />
[[युधिष्ठर|यम]], [[रुद्र]], काम और क्रोध-चारों के अंश से [[अश्वत्थामा]] <br />
<br />
भूमि का भार-हरण करने की प्रार्थना सुनकर हरि ने देवताओं को दो बाल दिये थे; एक काला-कृष्ण, दूसरा सफेद-[[बलराम]]।<br /><br />
(दे0 भा0, 4 । 20-25) <br />
<br />
श्रीकृष्ण परमात्मा है। उनके सोलहवें अंश का एक अंश, सौ करोड़ सूर्यों के प्रकाश से युक्त एक बालक होकर, मूलशक्ति प्रसूत डिंब में स्थापित था डिंब के दो भागों में विभक्त होने पर भूखा-प्यासा वह बालक रोने लगा। कालांतर में पूर्व संस्कार के बल से वह परम पुरुष श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न होकर हंसने लगा। श्रीकृष्ण उस बालक को आशीर्वाद देकर त्रैलोक्य चले गये। कृष्ण के आशीर्वाद से वह ज्ञानयुक्त हुआ। उसने विराट रूप धारण किया, उसी के नाभिकमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया तथा सृष्टि की रचना की। सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए। उस बालक के क्षुद्रांश से ही विष्णु ने उत्पन्न होकर सृष्टि का पालन किया । श्रीकृष्ण को चतुर्भुज नारायण से भिन्न माना गया है। कृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु , [[शिव|महेश]] के कारणभूत हैं। [[राधा]] सर्वशक्तिमति देवी हैं।<br /><br />
(दे0भा0, 8/3)<br />
<br />
==शिव पुराण==<br />
[[दुर्वासा]] कृष्ण की परीक्षा लेने गये। पर्याप्त आतिथ्य पाकर उन्होंने अपने रथ को कृष्ण तथा उनकी पत्नी [[रुक्मिणी]] से खिंचवाने की इच्छा प्रकट की। कृष्ण और रुक्मिणी के सहर्ष रथ खींचने से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कृष्ण को 'पायस' दी और कहा कि वे अपने बदन पर लगा लें। जहां-जहां यह लगेगी, वहां किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं लग पायेगा। कृष्ण ने वैसा ही किया।<br /> <br />
(शि0पु0, 44 ।7। 26) <br />
==महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण==<br />
===मंगलाचरण===<br />
[[महाभारत]] धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकों प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथारूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अन्धकारको विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रन्थके मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। इसलिये सम्पूर्ण महाभारत भगवान् वासुदेव के ही नाम, रूप लीला और धामका संकीर्तन है। नारायण के नाम से इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में व्यासजी ने सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण की ही वन्दना की है।<br />
===द्रौपदी स्वयंवर===<br />
महाभारत के [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]] में भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन [[द्रौपदी]]-स्वयंवर के अवसर पर होता है। अब [[अर्जुन]] के लक्ष्यवेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है। तब [[कौरव]]पक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिये युद्धकी योजना बनाते हैं उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि 'इन लोगों ने द्रौपदी को धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिये।' भगवान् श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शान्त हो गये और द्रौपदी के साथ [[पाण्डव]] सकुशल अपने निवास पर चले गये।<br />
[[चित्र:Bhishma1.jpg|[[महाभारत]] युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए|thumb|250px]]<br />
===प्रथम पूजनीय===<br />
धर्मराज [[युधिष्ठर]] के [[राजसूययज्ञ]] में जब यह प्रश्र उपस्थित हुआ कि यहाँ सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय तो उस समय महात्मा [[भीष्म]] ने कहा कि 'वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलयस्वरूप हैं और इस चराचर जगत् का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं।' भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निन्दा की और भीष्म पितामह को भी खरी-खोटी सुनायी। भगवान् श्री कृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरी रसे एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। इस अलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है। कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।<br />
===द्रौपदी===<br />
पाण्डवों के एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हीं की कृपा और युक्ति से ही [[भीम|भीमसेन]] के द्वारा जरासन्ध मारा गया और युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ सम्पन्न हुआ। राजसूय यज्ञ का दिव्य सभागार भी मय दानव ने भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से ही बनाया। द्यूत में पराजित हुए पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी जब भरी सभा में [[दु:शासन]] के द्वारा नग्न की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमाली ने वस्त्रावतार धारण किया। शाक का एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासा के कोप से पाण्डवों की रक्षा की।<br />
===शान्तिदूत===<br />
युद्ध को रोकने के लिये श्रीकृष्ण शान्तिदूत बने, किंतु [[दुर्योधन]] के अहंकार के कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूययज्ञके अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने। संग्राम भूमि में उन्होंने अर्जु नके माध्यम से विश्व को [[गीता]] रूपी दुर्लभ रत्न प्रदान किया। भीष्म, [[द्रोणाचार्य|द्रोण]], [[कर्ण]] और अश्वत्थामा-जैसे महारथियों के दिव्यास्त्रों से उन्होंने पाण्डवों की रक्षा की। युद्धका अन्त हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ। पाण्डवों का एकमात्र वंशधर उत्तरा का पुत्र [[परीक्षित]] अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से मृत उत्पन्न हुआ, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही उसे जीवनदान मिला। अन्त में [[गांधारी|गान्धारी]] के शाप को स्वीकार करके महाभारत के महानायक भगवान श्रीकृष्णने उद्दण्ड यादवकुल के परस्पर गृहयुद्ध में संहा रके साथ अपनी मानवी लीला का संवरण किया।<br />
<br />
==ऋग्वेद में कृष्ण==<br />
[[वेद|ऋग्वेद]] में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। कृष्ण सम्बन्धी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के ज़िलाने का श्रेय दिया गया है(ऋग्वेद 1।116।7,23)। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है (ऋग्वेद 8।86।1-5)। ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता [[अश्विनीकुमार|अश्विनीकुमारों]] से प्रार्थना की थी। <br />
<br />
कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का [[इन्द्र]] ने वध किया था (ऋग्वेद 1।101।1) ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। [[छान्दोग्य उपनिषद]] में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी थी जिसकी दक्षिणा, तप, दान, आर्जव, अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शान्त हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मण में भी मिलता है (30।9)। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है।<br />
<br />
==बौद्ध साहित्य==<br />
[[बौद्ध]] साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत [[जातक कथा|जातक]] में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है।<br />
==अनेक वृत्तान्त==<br />
===निपुण बलवान योद्धा=== <br />
महाभारत में कृष्ण सम्बन्धी अनेक वृत्तान्त मिलते हैं। भारत युद्ध में उनके पराक्रम, ऐश्वर्य और नीतिनैपुण्य के साथ उनके देवत्व का भी समन्वय पाया जाता है। सभापर्व में भीष्म द्वारा उनकी प्रशंसा समस्त [[वेद]]-[[वेदान्त]] के ज्ञाता तथा राजनीति में निपुण बलवान योद्धा के रूप में की गयी है। [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग पर्व]] में कहा गया है कि अर्जुन वज्रपाणि इन्द्र की अपेक्षा कृष्ण को अधिक पराक्रमी समझकर उन्हें युद्ध में अपनी ओर मिलाने में अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी स्थल पर कृष्ण के पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दस्युओं के संहार, दुर्धर्ष राजाओं के विनाश, रुक्मिणी के हरण, नगजित के पुत्रों की पराजय, सुदर्शनराजा की मुक्ति, पाण्डय के संहार, [[काशी]] नगरी के उद्धार, निषादों के राजा एकलव्य के वध, उग्रसेन के पुत्र सुनाम की मृत्यु आदि कार्यो का वर्णन किया गया है। देवताओं के द्वारा उन्हें अवध्यता का वरदान मिला था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही इन्द्र के घोड़े उच्चै:श्रवा के समान बली, [[यमुना नदी|यमुना]] के वन में रहने वाले हयराज को मार डाला था तथा वृष [[प्रलंब]], नरग, जृम्भ, मुर, [[कंस]] आदि का संहार किया था, जल देवता [[वरुण]] को पराजित किया था तथा पाताल वासी पंचजन को मारकर [[पान्चजन्य]] प्राप्त किया था। अपनी प्रिय पत्नी [[सत्यभामा]] की प्रसन्नता के लिए वे अमरावती से [[पारिजात]] लाये थे।<br />
<br />
===वासुदेव===<br />
महाभारत में प्राप्त कृष्ण सम्बन्धी इन सन्दर्भों से उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की सूचना मिलती है और ज्ञात होता है कि वे [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] वंशीय [[सात्वत]] जाति के पूज्य पुरुष थे। यह भी संकेत मिलता है कि महाभारत और पुराणों में वर्णित कृष्ण के चरित्र और किन्हीं ऐतिहासिक वासुदेव कृष्ण सम्बन्धी कथा में कुछ अन्तर अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाभारत और [[पुराण|पुराणों]] में अनेक स्थलों पर इस बात पर बल दिया गया है कि यही कृष्ण वास्तविक वासुदेव हैं, यही द्वितीय वासुदेव हैं। द्वितीय वासुदेव कहने का अभिप्राय यह था कि कुछ अन्य राजा भी अपने को द्वितीय वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध करने का यत्न करते थे। पौण्ड्र राजा पुरुषोत्तम और करवीरपुर के राजा श्रृगाल इसी प्रकार के व्यक्ति थे, जिन्हें मारकर कृष्ण ने सिद्ध किया कि उनका वासुदेवत्व मिथ्या है तथा वे ही स्चयं एकमात्र वासुदेव हैं।<br />
===पुराणों में कृष्ण===<br />
[[चित्र:Cover-Vishnu-Purana.jpg|thumb|[[विष्णु पुराण]], गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ]]<br />
[[महाभारत]], [[हरिवंश पुराण]] तथा [[विष्णु पुराण]], [[वायु पुराण]], [[वामन पुराण]], [[भागवत पुराण]] आदि पुराणों में कृष्ण की तुलना में इन्द्र की हीनता सिद्ध करने के लिए अनेक कथाएँ दी गयी हैं; परन्तु फिर भी [[गोवर्धन]] धारण के प्रसंग में उनके इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने और 'उपेन्द्र' नाम से स्वीकृत होने का उल्लेख हुआ है। पुराणों में विविध कथाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर कृष्ण की महत्ता और उसी अनुपात में इन्द्र की हीनता प्रमाणित की गयी है। महाभारत में कृष्ण के ऐश्वर्य और देवत्व का प्रचुर वर्णन है परन्तु उनके लालित्य और माधुर्य का कोई संकेत नहीं मिलता। महाभारत उनके गोप जीवन और [[गोपी]] प्रेम के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है। [[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]] के उस प्रसंग में भी, जिसे प्रक्षिप्त कहा जाता है और जिसमें शिशुपाल कृष्ण की निन्दा करते हुए उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वत्सासुर और कंस के वध तथा गोवर्द्धन धारण किये जाने का उल्लेख करता है, गोपियों से उनके प्रेम का कोई संकेत नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि गोपाल कृष्ण का ललित और मधुर चरित मूलत: महाभारत के कृष्ण के चरित से भिन्न था। पुराणों में वर्णित कृष्ण सम्बन्धी ललित कथाएँ उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गयी हैं। उदाहरण के लिए हरिवंश में जिसे 'वास्तव में महाभारत का परिशिष्ट कहा जाता है, उनके गोपाल रूप सम्बन्धी सन्दर्भ अतयन्त संक्षिप्त है। उनकी तुलना में उनके ऐश्वर्य रूप की भोग-विलास सम्बन्धी अनेक कथाएँ कहीं अधिक विस्तार से वर्णित हैं। विष्णु पुराण में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। किन्तु भागवत, [[पद्म पुराण]] , [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] तथा कुछ अन्य पुराणों में, जिन्हें परवर्ती कहा जा सकता है, गोपालकृष्ण सम्बन्धी कथन अधिक विस्तृत होने लगे हैं। पुराणों के भोग-ऐश्वर्य सम्बन्धी आख्यानों और गोप-गोपी लीला सम्बन्धी मधुर कथाओं में वातावरण का बहुत अन्तर पाया जाता है। यदि एक में घोर भौतिकता, विलासिता और नग्न ऐन्द्रियता है तो दूसरे में भावात्मक कोमलता, हार्दिक उत्फुल्लता, सूक्ष्म अनुभूति और अलौकिकता की ओर उन्मुख उदात्तता है।<br />
<br />
===शूरसेन प्रदेश===<br />
[[चित्र:Shursen-Map.jpg|thumb|300px|[[शूरसेन]] महाजनपद<br /> Shursen Great Realm]]<br />
अनुमान है कि गोपाल कृष्ण मूलत: [[शूरसेन]] प्रदेश के सात्वत वृष्णिवंशी पशुपालक क्षत्रियों के कुल देवता थे और उनके क्रीड़ा कौतुक की मनोरंजक कथाएँ मौखिक रूप में लोक-प्रचलित थीं। इन कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण कुछ पाषाण मूर्तियों और शिलापट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों में मिले है। मथुरा में प्राप्त एक खण्डित शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को एक सूप में सिर पर रखकर यमुना पार करते हुए दिखाये गये हैं। 5वीं शताब्दी ईसवी के एक दूसरे खण्डित शिलापट्ट में [[कालिय नाग|कालिय-दमन]] का दृश्य दिखाया गया है। यह छठी शताब्दी ईस्वी की अनुमान की गयी है। बंगाल के पहाड़पुर नामक स्थान में छठी शताब्दी की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें [[धेनुकासुर वध]], [[यमलार्जुन उद्धार]] तथा [[मृष्टिक चाणूर]] के साथ मल्ल-युद्ध के दृश्य दिखाये गये हैं। यहीं पर एक अन्य मूर्ति मिली है जिसमें कृष्ण को किसी गोपी के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। अनुमान किया गया है कि यह गोपी सम्भवत: [[राधा]] का सबसे प्राचीन मूर्तिगत प्रमाण प्रस्तुत करती है। राजस्थान के मण्डोर तथा बीकानेर के पास सूरतगढ़ में क्रमश: द्वारपाटों पर उत्कीर्ण गोवर्द्धन –धारण, नवनीत-चौर्य, [[शकटभंजन]] और कालिय-दमन के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं तथा गोवर्द्धन-धारण और दान-लीला का दृश्यांकन प्रस्तुत करने वाले कुछ सुन्दर मिट्टी के खिलौने प्राप्त हुए हैं। मण्डोर के चित्र चौथी-पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अनुमान किये गये हैं। दक्षिण भारत के बादामी के पहाड़ी क़िले पर कृष्ण-जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, कंस-वध आदि के अनेक दृश्य गुफ़ाओं में उत्कीर्ण मिले हैं। जो छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं<ref>(दे0 आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट 1926-27, 1905-6 तथा 1928-29 ई.)</ref>।<br />
==काव्य में कृष्ण==<br />
काव्य में गोपाल कृष्ण की लीला का पहला सन्दर्भ प्रथम शताब्दी ईसवी में रचित [[अश्वघोष]] के बुद्धिचरित' (1-5) में मिलता है। अनुमानत: प्रथम शताब्दी ईस्वी में हाल [[सातवाहन]] द्वारा संगृहीत 'गाहासत्तसई' (गाथा सप्तशती) में कई गाथाएँ कृष्ण, राधा, गोपी, [[यशोदा]] आदि से सम्बद्ध मिलती हैं <ref>(दे0 'गाहासत्तसई' 1।29, 5।47, 2।12, 2।14)</ref>। इन गाथाओं में कृष्ण द्वारा नारियों के गौरवहरण, मुखमारूत से राधिका के गोरज के अपनयन आदि के उल्लेख हुए हैं। इन उल्लेखों से सूचित होता है कि कृष्ण के गोपी-प्रेमसम्बन्धी प्रसंग कम से कम पहली शताब्दी ईस्वी के पहले से ही लोक-प्रचलित थे। यह अवश्य द्रष्टव्य है कि'गाहासत्तसई' में भक्ति भावना का कोई संकेत नहीं मिलता, उसका वातावरण सर्वथा लौकिक श्रृंगार का ही है परन्तु इससे भिन्न दक्षिण के आलवार सन्तों द्वारा रचित गीत पूर्णतया भक्ति भावना से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। इन सन्तों का समय पाँचवीं से नवीं शताब्दी ईसवी अनुमान किया गया है। आलवार सन्तों के इन गीतों में विष्णु , नारायण अथवा वासुदेव तथा उनके अवतारों-[[राम]] और कृष्ण के प्रति अपूर्व भक्ति –भाव प्रकट किया गया है। इनमें गोपाल-कृष्ण की ललित लीला के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जो उत्तर भारत के मध्यकालीन कृष्ण भक्ति- काव्य के प्रिय विषय रहे हैं। इन गीतों में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से सम्बद्ध एक नाप्पित्राय नामक गोपी का प्रमुख रूप समें वर्णन है। उसे कृष्ण की प्रियतमा और विष्णु की अर्द्धागिनी [[लक्ष्मी]] का अवतार कहा गया है। अनुमान है कि यह गोपी उत्तर भारत की कृष्णकथा में प्रयुक्त राधा ही है। राधाकृष्ण कथा की प्राचीनता की दृष्टि से तमिल साहित्य का यह प्रमाण महत्त्वपूर्ण है।<br />
===राधा के प्रेम सन्दर्भ===<br />
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|250px|[[राधा]]-[[कृष्ण]]]]<br />
आठवीं शंताब्दी में रचित भट्टानारायण के 'वेणीसंहार' नामक-नाटक में नांदीश्लोक में तथा वाकपति राज द्वारा लिखित प्राकृत महाकाव्य 'गउडवहो' के मंगलाचरण में कृष्ण की स्तुति उनके राधा और गोपी-प्रेम तथा यशोदा के वात्सल्यभाजन होने की स्पष्ट सूचना देती है। 'गउडवहो' में उन्हें 'विष्णुस्वरूप' और 'लक्ष्मीपति' भी कहा गया है। नवीं शताब्दी ईसवी के 'ध्वन्यालोक' में उद्धृत दो [[श्लोक|श्लोकों]] में कृष्ण और राधा के मधुर प्रेम के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दसवीं शताब्दी के त्रिविक्रम भट्ट रचित 'नलचम्पू' के एक श्लोक में परम पुरुष कृष्ण के साथ राधा के अनुराग का संकेत प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी की ही बल्लभदेव द्वारा रचित 'शिशुपालवध' की टीका तथा सोमदेवपूरि के 'यशस्यतिलकचम्पू' में भी राधा के प्रिय कृष्ण का जिस रूप में उल्लेख मिलता है उससे कृष्ण के गोपीवल्लभ रूप की सूचना प्राप्त होती है। <br />
===प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ===<br />
'कवीन्द्रवचन समुच्चय' नामक कवितासंग्रह भी दसवीं शताब्दी का माना गया है। इसमें संकलित अनेक श्लोकों में कृष्ण की गोपी और राधा सम्बन्धी प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ मिलता है जिनसे कृष्ण के यशोदा के वात्सल्य-भाजन, गोपियों के कान्त, गोपों के सृहृद् तथा राधा के अनन्य प्रेमभाजन व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। इन सभी सन्दर्भो में कृष्ण के दक्षिण और धृष्ट नायकत्व के भी स्पष्ट संकेत हैं। दशवीं शताब्दी तक राधा और कृष्ण के प्रति पूज्यभाव भी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण मालवाधीश वाक्पति मुंजपरमार के एक अभिलेख से भी मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका विष्णु रूप में वर्णन है और साथ ही उन्हे राधा के विरह में पीड़ित कहा गया है। दशवीं शताब्दी के आसपास रचित श्रीमद्भागवत में कृष्णचरित का व्यापक वर्णन है इसमें उनके सभी स्वरूपों का वर्णन और संकेत है।<br />
<br />
कृष्ण के व्यक्तित्व के लालित्य और माधुर्य के साथ उनके दैवत रूप की प्रतिष्ठा 12वीं शताब्दी तक और अधिक दृढ़ता के साथ हो गयी थी। इसका प्रमाण लीलाशुक द्वारा रचित 'कृष्णकर्णामृतस्तोत्र' ईश्वरपुरी द्वारा रचित 'श्रीकृष्णलीलामृत ' का श्रृगांर रस निश्चित रूप से माधुर्य भक्ति है। इसी प्रकार 'गीतगोविन्द' में राधा-माधव के जिस उद्दाम श्रृंगार का वर्णन किया गया है, उसकी मूल प्रेरणा भी धार्मिक है। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस प्रकार जिस लोकरंजनकारी लालित्य का उदात्तीकरण वैष्णव भक्ति के विकास में होता गया उसी की चरम परिणति हम परवर्ती साहित्य में पाते हैं।<br />
<br />
===असंख्य कथा प्रसंग===<br />
बारहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-काव्य मृक्तकों के अतिरिक्त प्रबन्धों के रूप में भी प्राप्त होता है। 'सदुक्तिकर्णामृत' नामक एक मुक्तक संग्रह 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ का हैं। जिसमें गोपाल कृष्ण की लीला से सम्बद्ध साठ श्लोक हैं। इन श्लोकों में गोपाल कृष्ण के शैशव, कैशोर और यौवन की ललित लीलाओं का ही वर्णन मिलता है। 13वी-14वी शताब्दी में रचित बोपदेव की 'हरिलीला' तथा वेदान्तदेशिककी 'यादवाभ्युदय' नामक रचनाएँ तथा पन्द्रहवीं शताब्दी की 'ब्रजबिहारी' (श्रीधरस्वामी), 'गोपलीला' (रामचन्द्र भट्ट), ' हरिचरित'-काव्य (चतुर्भुज), 'हरिविलास'-काव्य (ब्रजलोलिम्बराज), 'गोपालचरित' (पद्मनाभ), 'मुरारिविजय'- नाटक (कृष्ण भट्ट) और 'कंस-निधन' महाकाव्य (श्रीराम) आदि अनेक काव्य और नाटक गोपालकृष्ण के मधुर, ललित और पूज्य चरित का चित्रण करते हैं। 16वीं शताब्दी से कृष्णभक्ति आन्दोलन सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्याप्त हो गया और कृष्ण-काव्य आधुनिक भाषाओं में रचा जाने लगा। इस काव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत था, परन्तु साथ ही कवियों ने लोक में प्रचलित कृष्णसम्बन्धी उन असंख्य कथा प्रसंगों का भरपूर उपयोग किया जिनमें कृष्ण का चरित वात्सल्य, सख्य और माधुर्यव्यंजक लीलाओं से समन्वित रहा है।<br />
<br />
==सूरदास==<br />
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|[[सूरदास]], सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]|thumb|300px]]<br />
हिन्दी का कृष्ण-भक्ति काव्य यद्यपि [[सूरदास]] से प्रारम्भ होता है परन्तु इससे पहले 15वीं शताब्दी में [[विद्यापति]] ने अपने पदों में कृष्ण के श्रृंगारी रूप का जो वर्णन किया था उसकी प्रकृति भले ही लौकिक श्रृंगार की रही हो, उसका उपयोग भक्तों ने माधुर्य भक्ति के सन्दर्भों में ही किया। विद्यापति और हिन्दी के रीतिकालीन राधाकृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार –काव्य के बीच हिन्दी भक्तिकाव्य का एक लम्बा व्यवधान है जिसमें कृष्ण का व्यक्तित्व कवियों ने अत्यन्त कुशलता के साथ् मानव और अतिमानव के परस्पर विरोधी तत्त्वों से निर्मित कर चित्रित किया है। कृष्ण के इस चरित-चित्रण में बड़ी विलक्षणता है। एक ओर उन्हें विष्णु का अवतार, ब्रह्मा-विष्णु और महेश से परे तथा साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा गया है, तो दूसरी ओर उनकी शैशव, बाल्य और किशोरकाल की अत्यन्त मानवीय और स्वाभाविक लीला का मनोहर वर्णन किया गया है। हिन्दी कृष्ण-काव्य के रचयिताओं में कृष्ण का सम्यक् चरित्र-चित्रण वास्तव में सूरदास ने ही किया किन्तु सूरदास का चरित्र-चित्रण वस्तुत: भावांत्मक है। प्रधान रूप से उन्होंने कृष्ण को वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का आलम्बन बनाया है और इन भावों का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण करते हुए दैन्य और विस्मय के भावों के सहारे उनके प्रति पूज्य भावना व्यक्त की है।<br />
<br />
कृष्ण के चरित्र-चित्रण में सूर की अन्य विशेषता यह है कि यद्यपि वे नन्द-यशोदा, गोप-गोपी, आदि के साथ राग-रंग में आचूल मग्न रहते हैं, फिर भी उनके व्यवहार से व्यंजित होता है कि वास्तव में वे भावातीत और वीतराग हैं। कृष्ण के मथुरा और द्वारका-प्रवास तथा उनके प्रति ब्रजवासियों और विशेषकर गोपियों के विरह-भाव का वर्णन करते हुए सूरदास ने कृष्ण के इस विलक्षण व्यक्तित्व का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है। इसके द्वारा हमें गीता के योगिराज कृष्ण की अनासक्ति का व्यावहारिक परिचय मिलता है।<br />
<br />
सूरदास के अतिरिक्त अन्य कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के सम्पूर्ण चरित का चित्रण नहीं किया। बहुत थोड़े से कवियों ने कृष्ण के बाल्य और किशोरकाल के जीवन का परिचय दिया। अधिकांश कवि उनके माधुर्यपूर्ण चरित की ओर ही झुके और राधा और गोपियों के साथ उनके प्रेम सम्बन्धों के चित्रण में ही निमग्न रहें कृष्ण के प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों रूपों के चित्रण में अनेक कवियों ने तन्मयता प्रदर्शित की, परन्तु सूरदास ने उनमें वीतरागत्व और अनासक्ति के संकेतों तथा अन्य उपायों द्वारा जिस आध्यात्मिकता की उच्च काव्यमयी व्यंजना की थी, वह कोई अन्य कवि नहीं कर सका। सूरदास ने कृष्ण के असुर-संहारी रूप का भी विशद वर्णन किया था। यद्यपि उनके वर्णन में कृष्ण की वीरता और पराक्रम के स्थान पर उनके विस्मयकारी क्रीडा-कौतक की ही प्रधानता है, परन्तु उनका उद्देश्य जिस अलौकिक की व्यंजना करना था उसे परवर्ती कवि नहीं समझ सके। इस कारण उन्होंने कृष्ण-चरित के इस पक्ष की प्राय: उपेक्षा ही की। <br />
<br />
श्रीकृष्ण के सहज मानवीय श्रृंगारी रूप को सूरदास ने उनके प्रति दैन्य भावना व्यक्त करके तथा उनके अलौकिक कृत्यों के वर्णयन द्वारा विस्मय की व्यंजना करके उनके चरित में जिस उदात्तता का सन्निवेश किया था, परवर्ती कवियों ने उसे विस्मृत कर दिया और श्रीकृष्ण का चरित लगभग पूर्ण रूप में इहलौकिक हो गया और उसमें मानव व्यक्तित्व की संकुचित एकांगिता ही शेष रह गयी। फलत: जीवन की व्याख्या की कसौटी पर कसने पर वह अत्यन्त कल्पित और अयथार्थ लगता है, जैसे राग-रंग और आनन्द-विहार में लिप्त जीवन का कोई उद्देश्य ही न हो। वास्तव में तथ्य यही है कि कृष्ण-चरित जीवन के वास्तविक चित्रण अथवा आदर्श चित्रण के रूप में रचा ही नहीं गया, उनका चरित वास्तव में परब्रह्म की लीलामात्र हैं जिसका प्रयोजन लीलानन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। उसका उद्देश्य अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की व्यंजना करना ही हैं भक्त कवियों ने उस आनन्द का रूप स्त्री-आनन्द रूप में परम पुरुष हैं और उनकी परा शक्ति रूप प्रकृति स्वरूपा राधा हैं जिनके संयोग से ही परम आनंद की परिपूर्णता सिद्ध होती है।<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कृष्ण2}}<br />
{{कृष्ण}}<br />
[[en:Krishna References]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
[[Category:महाभारत]]<br />
[[Category:भगवान-अवतार]] <br />
[[Category: कोश]]<br />
__INDEX__</div>
शिल्पी
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कृष्ण संदर्भ
2010-09-28T05:52:00Z
<p>शिल्पी: /* विभिन्न प्रसंग */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==कृष्ण संदर्भ / [[:en:Krishna References|Krishna References]]==<br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए [[कृष्ण]]|250px]]<br />
==छान्दोग्य उपनिषद==<br />
कृष्ण- एक बार आंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र [[कृष्ण]] को यज्ञदर्शन सुनाया था। फलस्वरूप कृष्ण शेष समस्त विधाओं के प्रति तृष्णाहीन हो गये थे।(छा.उ., अध्याय 3,खंड 17, श्लोक 6)<br />
<br />
कृष्ण का मातृपरक नाम 'देवकीपुत्र' [[छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक|छान्दोग्य उप निषद् (3,17,6)]] में पाया जाता है।<br />
<br />
==विभिन्न प्रसंग== <br />
{{Tocright}} <br />
वे अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त ब्रह्म थे। मूलत: वे नारायण थे। वे स्वयंभू तथा संपूर्ण जगत के प्रपितामह थे। द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि, पृथ्वी रचण, [[अश्विनीकुमार]] नासिकास्थान, [[चंद्र देवता|चंद्र]] और [[सूर्य देवता|सूर्य]] नेत्र तथा विभिन्न [[देवता]] विभिन्न देहयष्टियां हैं। वे (ब्रह्म रूप) ही प्रलयकाल के अंत में [[ब्रह्मा]] के रूप में स्वयं प्रकट हुए तथा सृष्टि का विस्तार किया। [[रुद्र]] इत्यादि की सृष्टि करने के उपरांत वे लोकहित के लिए अनेक रूप धारण करके प्रकट होते रहे।<br />
<br />
श्रीकृष्ण के रूप में वही अव्यक्त नारायण व्यक्त रूप धारण करके अवतरित हुए। वे [[वसुदेव]] के पुत्र हुए। [[कंस]] के भय से वसुदेव उन्हें [[नंद]] गोप के यहाँ छोड़ आये। वहीं पलकर वे बड़े हुए। [[यशोदा]] (नंद की पत्नी) से उन्हें अद्भुत वात्सल्य की उपलब्धि हुई।<br /> <br />
(1) शिशुरूप में वे एक बार छकड़े नीचे सो रहे थे। यशोदा उन्हें वहां छोड़ यमुना तट गयी थी। बाल-लीला का प्रदर्शन करते हुए रोते हुए कृष्ण ने अपने पांव के अंगूठे से छकड़े को धक्का दिया तो वह उलट गया। उस पर रखे समस्त मटके चूर-चूर हो गये।<br /> <br />
(2) देवताओं के देखते-देखते उन्होंने [[पूतना-वध|पूतना]] को मार डाला।<br /> <br />
(3) वे अपने बड़े भाई संकर्षण ([[बलराम|बलदेव]]) के साथ खेलते-कूदते बड़े हुए। सात वर्ष की अवस्था में गोचारण के लिए जाया करते थे। एक बार मक्खन चुराकर खाने के दंडस्वरूप मां (यशोदा) ने उन्हें ऊखल में बांध दिया। कृष्ण ने उस ऊखल को [[यमल तथा अर्जुन]] नामक दो वृक्षों के बीच में फंसाकर इतने जोर से खींचा कि वे दोनों वृक्ष भूमिसात हो गये। इस प्रकार उन वृक्षो पर रहनेवाले दो राक्षसों को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(4) वे दोनों भाई ग्वालोचित वेशधारी वन में पिपिहरी तथा [[बांसुरी]] बजाकर आमोद-प्रमोद के साथ गायों को चराते थे। कृष्ण पीले और बलराम नीले वस्त्र धारण करते थे। वे पत्तों के मुकुट पहन लेते। कभी-कभी रस्सी का [[यज्ञोपवीत]] भी धारण कर लेते थे। वे गोप बालकों के आकर्षण का केंद्रबिंदु थे।<br /> <br />
(5) उन्होंने [[कदम्ब]]वन के पास हृद (कुण्ड) में रहने वाले [[कालिय नाग|कालिया नाग]] के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी तथा अन्यत्रा जाने का आदेश दिया था।<br /> <br />
(6) गोपाल बालकों द्वारा किये सर्वभूत स्त्रष्ट ईश्वर स्वरूप को प्रकट किया तथा [[गिरिराज]] को समर्पित होने वाली खीर वे स्वयं खा गये। तब से [[गोपगण]] उनकी पूजा करने लगे।<br /> <br />
(7) जब [[इन्द्र]] ने वर्षा की थी तब श्रीकृष्ण ने गौओं की रक्षा के निमित्त एक सप्ताह तक [[गोवर्धन]] पर्वत को अपने हाथ पर उठाए रखा था। इन्द्र ने प्रसन्न होकर उन्हें गोविंद नाम दिया।<br /> <br />
(8) श्रीकृष्ण ने पशुओं की हितकामना से वृक्ष रूप-धारी [[अरिष्ट]] नामक दैत्य का संहार किया।<br /> <br />
(9) ब्रजनिवासी [[केशी]] नामक दैत्य का संहार किया। उस दैत्य का शरीर घोड़े जैसा और बल दस हज़ार हाथियों के समान था।<br /> <br />
(10) [[कंस]] के दरबार में रहने वाले चाणूर नामक मल्ल को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(11) कंस के भाई तथा सेनापति शत्रुनाशक का भी उन्होंने नाश कर डाला।<br /><br />
(12) कंस के [[कुवलयापीड़]] नामक हाथी को भी उन्होंने मार गिराया।<br /><br />
(13) कंस को मारकर उन्होंने [[उग्रसेन]] का राज्याभिषेक कर दिया।<br /><br />
(14) [[उज्जयिनी]] में दोनों भाइयों ने वेद विद्याध्ययन किया। धनुर्विद्या सीखने वे सांदीपनि के पास गये। [[सांदीपनि]] ने गुरु-दक्षिणा में अपने पुत्र को वापस मांगा, जिसे कोई समुद्री जंतु खा गया था। श्रीकृष्ण ने समुद्र में रहने वाले उस दैत्य का संहार कर दिया तथा गुरुपुत्र को पुनर्जीवनदान दिया जो कि वर्षों पूर्व यमलोक में जा चुका था। कृष्ण के कृपाप्रसाद से उसने पूर्ववत् अपना शरीर धारण किया।<br /><br />
(15)श्रीकृष्ण ने [[नरकासुर]] (भौमासुर) को मार डाला।<br />
(16) श्रीकृष्ण ने [[उषा अनिरुद्ध]] का मिलन करवाया, [[बाणासुर]] को मारा।<br /><br />
(17) उन्होंने रूक्मी को पराजित करके [[रुक्मिणी]] का हरण किया।<br /><br />
(18) इन्द्र को परास्त करके [[परिजात वृक्ष]] का अपहरण किया।<br />
<br />
==महाभारत- उद्योगपर्व, द्रोणपर्व==<br />
<br />
स्वयंवर में गांधारराज की राजकुमारी को प्राप्त किया था। विवाहोपरांत उनके रथ में अच्छी नस्ल के घोड़ो की तरह से राजाओं को जोता गया था। द्यूतक्रीड़ा के उपरांत [[पांडव|पांडवों]] के वनवास काल में [[कौरव|कौरवों]]-पांडवों के [[महाभारत|युद्ध]] की संभावना देख श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए उनकी सभा में गये। कृष्ण के साथ [[धृतराष्ट्र]], [[गांधारी]], [[विदुर]], [[सात्यकि]] इत्यादि सभी इस मत के थे कि पांडवों का राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए तथा उनसे संधि कर, शांति स्थापित करनी चाहिए; किंतु [[दुर्योधन]] उसके लिए तैयार न था। उसने [[शकुनि]] तथा [[कर्ण]] से सलाह करके कृष्ण को बंदी बना लेने का निश्चय किया। सात्यकि को विदित हुआ तो उसने सभासदों के सम्मुख ही कृष्ण को इस तथ्य की सूचना दी। <br />
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]|left]]<br />
कृष्ण ने क्रुद्ध होकर अपना विश्व रूप (विराट् रूप) प्रदर्शित किया। कृष्ण की दाहिनी बांह पर [[अर्जुन]], वायीं बांह पर [[बलराम|हलधर]], वक्ष पर [[शिव]] तथा अंग-प्रत्यंग पर विभिन्न देवी-देवता साक्षात् दिखलायी दिए। कृष्ण के अट्टहास से भूमंडल कांप उठा। शरीर से ज्वाला प्रस्फुटित हुई तथा सब ओर अनेक देवता और योद्धाओं के दर्शन होने लगे। ऐसे रूप के दर्शन दे, कृष्ण ने वहां से प्रस्थान किया। [[महाभारत]] युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के सारथी का कार्यभार संभाला था। [[अभिमन्यु]] की मृत्यु के उपरांत कृष्ण ने अपने-आप स्वीकार किया कि अर्जुन (नर) नारायण (श्रीकृष्ण) का आधा शरीर है। युद्ध में पांडवों की विजय के उपरांत वे लोग कृष्ण सहित [[कुरुक्षेत्र]] में रहे। जब तक [[सूर्य देवता|सूर्य]] उत्तरायण नहीं हो गया, [[भीष्म]] पितामह नित्य ही उन्हें दान, धर्म, कर्तव्य का उपदेश देते रहे। उनके स्वर्गारोहण उपरांत पांडवों को [[हस्तिनापुर]] छोड़ते हुए कृष्ण अपने माता-पिता के दर्शन करने [[द्वारका|द्वारकापुरी]] चले गये।<br /><br />
(म0भा0, उद्योगपर्व, 130-131, [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]] 79)<br />
<br />
श्रीकृष्ण इस प्रकार क्रीड़ा करते हैं जैसे मनुष्य खिलौनें से क्रीड़ा करता है। संपूर्ण चराचर भूत नारायण से उद्भूत है। पानी के बुद्बुद्वत् उसी में लीन हो जाता है।<br /><br />
(म0भा0, सभापर्व, अध्याय 38)<br />
<br />
==हरिवंश पुराण==<br />
कृष्ण और बलराम ने अनुभव किया कि [[ब्रज]]भूमि की वनश्री बच्चों की क्रीड़ा , गोपों की फल-सब्जी बेचने के लिए उपज तथा गौओं के क्षारयुक्त मल इत्यादि से नष्ट हो गयी है। इस कारण से उन्होंने निश्चय किया कि [[गोवर्धन]] पर्वत से युक्त [[कदम्ब]] इत्यादि वृक्षों से अपूरित [[वृन्दावन]] में जाकर रहना चाहिए। कृष्ण ने अपने रोम-रोम से भयानक भेड़ियों को उत्पन्न किया। उनको देखकर गोप-[[गोपी|गोपांगनाएं]] तथा गायें अत्यंत त्रस्त होकर ब्रजभूमि छोड़ने के लिए तुरंत तैयार हो गये। लोग वृन्दावन में जा बसे।<br /> <br />
(हरिवंश [[पुराण]], विष्णुपर्व ।8-9)<br />
==श्रीमद भागवत==<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]]]<br />
कंस की कारागार में वसुदेव के यहाँ भगवान ने कृष्ण-रूप में अवतार लिया। दस वर्ष तक बलराम के साथ ऐसे रहे कि उनकी कीर्ति वृन्दावन से बाहर नहीं गयी। वे गाय चराते तथा बांसुरी बजाकर सबको रिझाते थे। खेल-खेल में उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया, कंस को उठाकर पटक दिया। कृष्ण ने अपनी शक्ति योगमाया से भौमासुर की लाई राजकन्याओं से एक ही मुहूर्त में अलग-अलग महलों में विधिवत् पाणिग्रहण संस्कार संपादित किया। एक बार नंद ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया तथा रात्रि में [[यमुना नदी|यमुना]] में स्नान करने लगे। वह असुरों की वेला थी। अत: एक असुर उन्हें पकड़कर वरुण के पास ले गया। कृष्ण वरुण के पास गये तथा नंद बाबा को वापस ले आये।<br />
<br />
नारद ने कंस को जाकर बताया कि कृष्ण वसुदेव का बेटा है तथा बलराम [[रोहिणी]] का। वे दोनों छिपाकर नंद के यहाँ रखे गये हैं। कंस ने कृष्ण को अपनी भावी मृत्यु का कारण मानकर वसुदेव तथा देवकी को पुन: कैद कर लिया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उन्हें कैद से छुड़ाया। [[यदु]]वंशियों को [[ययाति]] का शाप था कि वे कभी शासन नहीं कर पायेंगे। अत: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन से शासन ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण और बलराम ने नंद से कहा-"पिताजी, आपका वात्सल्य अपूर्व है। आपने तथा यशोदा ने अपने बालकों के समान ही हमें स्नेह दिया। आप ब्रज जाइए। हम लोग भी यहाँ का काम निपटाकर आपसे मिलने आयेंगे।" वे दोनों [[अवंती]]पुर (उज्जैन) निवासी गुरुवर संदीपनि के गुरुकुल में रहकर उनकी सेवा करने लगे। चौंसठ दिन में उन दोनों ने [[चौंसठ कलाएँ|चौंसठ कलाओं]] में निपुणता प्राप्त की तथा संदीपनि को गुरु-दक्षिणास्वरूप उसका मृत पुत्र पुन: लौटाकर वे दोनों मथुरा लौट गये।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 3।3।-,10।28।-,10।44।–)<br />
<br />
श्रीकृष्ण के अनेक विवाह हुए थे। (कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।) उनकी श्रुतकीर्ति नामक बूआ का विवाह केकय देश में हुआ था। उनकी कन्या का नाम था भद्रा जिसका विवाह उसके भाई सन्तर्दन आदि ने कृष्ण से कर दिया था। मद्र देश की राजकुमारी सुलक्षणा को कृष्ण ने स्वयंवर में हर लिया था। इनके अतिरिक्त [[भौमासुर]] को मारकर अनेक सुंदरियों को वे कैद से छुड़ा लाये थे।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 10।56, 57, 58)<br />
<br />
एक बार सूर्य-ग्रहण के अवसर पर [[भारत]] के विभिन्न प्रांतों की जनता कुरुक्षेत्र पहुंची। वहां वसुदेव, कृष्ण और बलराम से नंद, यशोदा, गोप-गोपियों आदि का सम्मिलन हुआ। कृष्ण ने [[गोपी|गोपियों]] आदि को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दियां उन्हीं दिनों वसुदेव के यज्ञोत्सव का आयोजन था। उस संदर्भ में नंद बाबा, यशोदा तथा पांडव-परिवार के अधिकांश सदस्य तीन माह तक द्वारका में ठहरे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0 10 । 82-84)<br />
<br />
एक बार कृष्ण अपने दो भक्तों पर विशेष प्रसन्न हुए। उनमें से एक तो मिथिला निवासी गृहस्थी ब्राह्मण श्रुतदेव था और दूसरा मिथिला का राजा बहुलाश्व था। श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण करके एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए तथा दोनों भक्तों ने भगवत्स्वरूप प्राप्त किया।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, ।10।86।13-)<br />
<br />
[[ब्रह्मा]] की प्रार्थना पर [[विष्णु]] ने हंस का रूप धारण करके सनकादि के चित्त तथा गुणों के अनैक्य के विषय में उपदेश दिया था। यदुवंशियों के संहार के उपरांत जरा नामक व्याध को निमिंत्त बनाकर श्रीकृष्ण ने स्वधाम में प्रवेश कियां उन्हें अपने धाम में प्रवेश करते कोई भी देवता देख नहीं पाया। श्रीकृष्ण की कृपा से उनके शरीर पर प्रहार करने वाला व्याध सदेह स्वर्ग चला गया। <br />
नश्वर शरीर के त्यागोपरांत वसुदेव, अर्जुन आदि बहुत दुखी हुए। सब उनकी अलौकिक लीलाओं को स्मरण करते रहे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, 11।13।15-42/- 11 । 30/-)<br />
<br />
==देवी भागवत==<br />
कृष्ण-कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से [[कामधेनु]] मांगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए। देवी भागवत में [[दिति]] और [[अदिति]] को [[दक्ष]] कन्या माना गया है। अदिति का पुत्र [[इन्द्र]] था जिसने मां की प्रेरणा से दिति के गर्भ के 49 भाग कर दिए थे जो मरूत हुए। अदिति से रुष्ट होकर दिति ने शाप दिया था-'जिस प्रकार गुप्त रूप से तूने मेरा गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करवाया है उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्म लेकर तू बार-बार मृतवत्सा होगी।' फलत: उसने [[देवकी]] के रूप में जन्म लिया।<br />
<br />
विष्णु ने देवताओं की रक्षा करने के निमित्त [[भृगु]] की पत्नी ([[शुकदेव|शुक]] की मां) का हनन किया था अत: भृगु के शापवश उन्होंने पृथ्वी पर बार-बार जन्म लिया। [[नर-नारायण]] अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। अप्सराएं राजकुमारियों के रूप में जन्मीं तथा कृष्ण की पत्नियां हुई।<br />
<br />
दैत्य [[मधु]] का पुत्र [[लवणासुर|लवण]] ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से पीड़ित कर रहा था। [[लक्ष्मण]] के भाई [[शत्रुघ्न]] ने उस दैत्य को मारकर [[मथुरा]] नामक नगरी की स्थापना की। कालांतर में [[सूर्यवंश]] क्षीण हो गया। [[ययाति]] कुलोत्पन्न यादवों ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। यादवराज [[शूरसेन]] के पुत्र का नाम वसुदेव था। वह वरुण के शाप तथा कश्यप के अंश से उत्पन्न हुआ था। शूरसेन की मृत्यु के उपरांत [[उग्रसेन]] को राज्य की प्राप्ति हुई। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। देवक राजा की कन्या का नाम [[देवकी]] था। उसका जन्म वरुण के शाप तथा अदिति के अंश से हुआ था। देवक ने उसका विवाह [[वसुदेव]] से कर दिया। विवाह होते ही आकाशवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान कंस को मार डालेगी। कंस ने देवकी के बाल पकड़कर उसे मारने के लिए खड्ग उठा लिया। वसुदेव के वीर साथियों से [[कंस]] का युद्ध होने लगा। यादवों ने कंस को समझा-बुझाकर शांत किया कि अपनी बहन पर हाथ उठाना उचित नहीं है। हो सकता है, किसी शत्रु ने ही यह आकाशवाणी रची हो। वसुदेव ने कहा कि वह अपनी प्रत्येक संतान कंस को अर्पित कर देगा। इस शर्त पर कंस ने उसे छोड़ दिया। <br />
<br />
वसुदेव देवकी को लेकर अपने घर चला गया। प्रथम पुत्र उत्पन्न होने पर वसुदेव पुत्र सहित कंस के पास पहुंचा। कंस ने 'प्रथम बालक से नहीं, अष्टम बालक से भय है' कहकर बालक उसे लौटा दिया, किंतु तभी [[नारद]] ने वहां पहुंचकर कंस को समझाया कि गिनती कहां से शुरू करके किस बालक को अष्टम माना जायेगा, नहीं कहा जा सकता। यह सुनकर कंस ने बालक को शिला पर पटककर मार डाला। इसी प्रकार देवकी के छह पुत्र मारे गये। वे छहों शापवश जन्मते ही नष्ट हो गये। पूर्वकाल में ब्रह्मा अपनी कन्या के प्रति कामुक हो उठे थे। रमण करते हुए ब्रह्मा को देख महर्षि मरीचि के (उर्णा नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न) छह पुत्रों ने उनका परिहास किया था। इससे रुष्ट होकर ब्रह्मा ने उन्हें असुर योनि में जन्म लेने का शाप दिया था। फलत: पहले वे [[कालनेमि]] के पुत्र हुए, फिर हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए। दूसरे जन्म में ज्ञान विच्युत न होने के कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा था कि हवे मनवांछित देवता अथवा [[गंधर्व]] हो जायें ! वर पाकर वे लोग तो प्रसन्न हुए। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्रों को ब्रह्मा का प्रिय जान क्रोधावेश में कहा-"तुम पाताल में जाकर निद्रा में पड़े रहोगे। पृथ्वी पर षड्गर्क नाम से प्रसिद्ध होगे। देवकी के गर्भ से जन्म लेकर कालनेमि के वंश से उत्पन्न कंस के हाथों मारे जाओगे।" देवकी के सातवें गर्भ में अनंत देव आये। योगमाया ने योग-बल से इस गर्भ का आकर्षण करके उसे [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थापित किया। भौतिक दृष्टि से देवकी का गर्भपात मान लिया गया। तदनंतर विष्णु के अंशावतार कृष्ण ने अष्टम् पुत्र के रूप में जन्म लिया। योगमाया ने स्वेच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया। अन्य पात्रों के जन्म के मूलांश की <br />
[[चित्र:Jarasandh1.jpg|[[भीम]]-जरासंध युद्ध|thumb|200px]]<br />
'''तालिका निम्नलिखित है:'''<br />
<br />
{| border="1" cellpadding="10"<br />
! मूलांश <br />
! कृष्ण-कथा के पात्र <br />
|-<br />
|[[हिरण्यकशिपु]]<br />
|[[शिशुपाल]]<br />
|-<br />
|विप्रचित्त <br />
|[[जरासंध]] <br />
|-<br />
|[[प्रह्लाद]] <br />
|[[शल्य]]<br />
|-<br />
|खर<br />
|[[लंबक तथा धेनुक]]<br />
|-<br />
|वाराह और किशोर<br />
|[[चाणूर और मुष्टिक]]<br />
|-<br />
|दिति पुत्र अरिष्ट<br />
|कुवलय नामक<br />कंस का हाथी<br />
|-<br />
|}<br />
<br />
[[युधिष्ठर|यम]], [[रुद्र]], काम और क्रोध-चारों के अंश से [[अश्वत्थामा]] <br />
<br />
भूमि का भार-हरण करने की प्रार्थना सुनकर हरि ने देवताओं को दो बाल दिये थे; एक काला-कृष्ण, दूसरा सफेद-[[बलराम]]।<br /><br />
(दे0 भा0, 4 । 20-25) <br />
<br />
श्रीकृष्ण परमात्मा है। उनके सोलहवें अंश का एक अंश, सौ करोड़ सूर्यों के प्रकाश से युक्त एक बालक होकर, मूलशक्ति प्रसूत डिंब में स्थापित था डिंब के दो भागों में विभक्त होने पर भूखा-प्यासा वह बालक रोने लगा। कालांतर में पूर्व संस्कार के बल से वह परम पुरुष श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न होकर हंसने लगा। श्रीकृष्ण उस बालक को आशीर्वाद देकर त्रैलोक्य चले गये। कृष्ण के आशीर्वाद से वह ज्ञानयुक्त हुआ। उसने विराट रूप धारण किया, उसी के नाभिकमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया तथा सृष्टि की रचना की। सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए। उस बालक के क्षुद्रांश से ही विष्णु ने उत्पन्न होकर सृष्टि का पालन किया । श्रीकृष्ण को चतुर्भुज नारायण से भिन्न माना गया है। कृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु , [[शिव|महेश]] के कारणभूत हैं। [[राधा]] सर्वशक्तिमति देवी हैं।<br /><br />
(दे0भा0, 8/3)<br />
<br />
==शिव पुराण==<br />
[[दुर्वासा]] कृष्ण की परीक्षा लेने गये। पर्याप्त आतिथ्य पाकर उन्होंने अपने रथ को कृष्ण तथा उनकी पत्नी [[रुक्मिणी]] से खिंचवाने की इच्छा प्रकट की। कृष्ण और रुक्मिणी के सहर्ष रथ खींचने से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कृष्ण को 'पायस' दी और कहा कि वे अपने बदन पर लगा लें। जहां-जहां यह लगेगी, वहां किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं लग पायेगा। कृष्ण ने वैसा ही किया।<br /> <br />
(शि0पु0, 44 ।7। 26) <br />
==महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण==<br />
===मंगलाचरण===<br />
[[महाभारत]] धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकों प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथारूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अन्धकारको विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रन्थके मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। इसलिये सम्पूर्ण महाभारत भगवान् वासुदेव के ही नाम, रूप लीला और धामका संकीर्तन है। नारायण के नाम से इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में व्यासजी ने सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण की ही वन्दना की है।<br />
===द्रौपदी स्वयंवर===<br />
महाभारत के [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]] में भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन [[द्रौपदी]]-स्वयंवर के अवसर पर होता है। अब [[अर्जुन]] के लक्ष्यवेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है। तब [[कौरव]]पक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिये युद्धकी योजना बनाते हैं उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि 'इन लोगों ने द्रौपदी को धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिये।' भगवान् श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शान्त हो गये और द्रौपदी के साथ [[पाण्डव]] सकुशल अपने निवास पर चले गये।<br />
[[चित्र:Bhishma1.jpg|[[महाभारत]] युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए|thumb|250px]]<br />
===प्रथम पूजनीय===<br />
धर्मराज [[युधिष्ठर]] के [[राजसूययज्ञ]] में जब यह प्रश्र उपस्थित हुआ कि यहाँ सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय तो उस समय महात्मा [[भीष्म]] ने कहा कि 'वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलयस्वरूप हैं और इस चराचर जगत् का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं।' भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निन्दा की और भीष्म पितामह को भी खरी-खोटी सुनायी। भगवान् श्री कृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरी रसे एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। इस अलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है। कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।<br />
===द्रौपदी===<br />
पाण्डवों के एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हीं की कृपा और युक्ति से ही [[भीम|भीमसेन]] के द्वारा जरासन्ध मारा गया और युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ सम्पन्न हुआ। राजसूय यज्ञ का दिव्य सभागार भी मय दानव ने भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से ही बनाया। द्यूत में पराजित हुए पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी जब भरी सभा में [[दु:शासन]] के द्वारा नग्न की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमाली ने वस्त्रावतार धारण किया। शाक का एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासा के कोप से पाण्डवों की रक्षा की।<br />
===शान्तिदूत===<br />
युद्ध को रोकने के लिये श्रीकृष्ण शान्तिदूत बने, किंतु [[दुर्योधन]] के अहंकार के कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूययज्ञके अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने। संग्राम भूमि में उन्होंने अर्जु नके माध्यम से विश्व को [[गीता]] रूपी दुर्लभ रत्न प्रदान किया। भीष्म, [[द्रोणाचार्य|द्रोण]], [[कर्ण]] और अश्वत्थामा-जैसे महारथियों के दिव्यास्त्रों से उन्होंने पाण्डवों की रक्षा की। युद्धका अन्त हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ। पाण्डवों का एकमात्र वंशधर उत्तरा का पुत्र [[परीक्षित]] अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से मृत उत्पन्न हुआ, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही उसे जीवनदान मिला। अन्त में [[गांधारी|गान्धारी]] के शाप को स्वीकार करके महाभारत के महानायक भगवान श्रीकृष्णने उद्दण्ड यादवकुल के परस्पर गृहयुद्ध में संहा रके साथ अपनी मानवी लीला का संवरण किया।<br />
<br />
==ऋग्वेद में कृष्ण==<br />
[[वेद|ऋग्वेद]] में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। कृष्ण सम्बन्धी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के ज़िलाने का श्रेय दिया गया है(ऋग्वेद 1।116।7,23)। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है (ऋग्वेद 8।86।1-5)। ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता [[अश्विनीकुमार|अश्विनीकुमारों]] से प्रार्थना की थी। <br />
<br />
कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का [[इन्द्र]] ने वध किया था (ऋग्वेद 1।101।1) ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। [[छान्दोग्य उपनिषद]] में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी थी जिसकी दक्षिणा, तप, दान, आर्जव, अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शान्त हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मण में भी मिलता है (30।9)। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है।<br />
<br />
==बौद्ध साहित्य==<br />
[[बौद्ध]] साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत [[जातक कथा|जातक]] में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है।<br />
==अनेक वृत्तान्त==<br />
===निपुण बलवान योद्धा=== <br />
महाभारत में कृष्ण सम्बन्धी अनेक वृत्तान्त मिलते हैं। भारत युद्ध में उनके पराक्रम, ऐश्वर्य और नीतिनैपुण्य के साथ उनके देवत्व का भी समन्वय पाया जाता है। सभापर्व में भीष्म द्वारा उनकी प्रशंसा समस्त [[वेद]]-[[वेदान्त]] के ज्ञाता तथा राजनीति में निपुण बलवान योद्धा के रूप में की गयी है। [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग पर्व]] में कहा गया है कि अर्जुन वज्रपाणि इन्द्र की अपेक्षा कृष्ण को अधिक पराक्रमी समझकर उन्हें युद्ध में अपनी ओर मिलाने में अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी स्थल पर कृष्ण के पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दस्युओं के संहार, दुर्धर्ष राजाओं के विनाश, रुक्मिणी के हरण, नगजित के पुत्रों की पराजय, सुदर्शनराजा की मुक्ति, पाण्डय के संहार, [[काशी]] नगरी के उद्धार, निषादों के राजा एकलव्य के वध, उग्रसेन के पुत्र सुनाम की मृत्यु आदि कार्यो का वर्णन किया गया है। देवताओं के द्वारा उन्हें अवध्यता का वरदान मिला था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही इन्द्र के घोड़े उच्चै:श्रवा के समान बली, [[यमुना नदी|यमुना]] के वन में रहने वाले हयराज को मार डाला था तथा वृष [[प्रलंब]], नरग, जृम्भ, मुर, [[कंस]] आदि का संहार किया था, जल देवता [[वरुण]] को पराजित किया था तथा पाताल वासी पंचजन को मारकर [[पान्चजन्य]] प्राप्त किया था। अपनी प्रिय पत्नी [[सत्यभामा]] की प्रसन्नता के लिए वे अमरावती से [[पारिजात]] लाये थे।<br />
<br />
===वासुदेव===<br />
महाभारत में प्राप्त कृष्ण सम्बन्धी इन सन्दर्भों से उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की सूचना मिलती है और ज्ञात होता है कि वे [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] वंशीय [[सात्वत]] जाति के पूज्य पुरुष थे। यह भी संकेत मिलता है कि महाभारत और पुराणों में वर्णित कृष्ण के चरित्र और किन्हीं ऐतिहासिक वासुदेव कृष्ण सम्बन्धी कथा में कुछ अन्तर अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाभारत और [[पुराण|पुराणों]] में अनेक स्थलों पर इस बात पर बल दिया गया है कि यही कृष्ण वास्तविक वासुदेव हैं, यही द्वितीय वासुदेव हैं। द्वितीय वासुदेव कहने का अभिप्राय यह था कि कुछ अन्य राजा भी अपने को द्वितीय वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध करने का यत्न करते थे। पौण्ड्र राजा पुरुषोत्तम और करवीरपुर के राजा श्रृगाल इसी प्रकार के व्यक्ति थे, जिन्हें मारकर कृष्ण ने सिद्ध किया कि उनका वासुदेवत्व मिथ्या है तथा वे ही स्चयं एकमात्र वासुदेव हैं।<br />
===पुराणों में कृष्ण===<br />
[[चित्र:Cover-Vishnu-Purana.jpg|thumb|[[विष्णु पुराण]], गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ]]<br />
[[महाभारत]], [[हरिवंश पुराण]] तथा [[विष्णु पुराण]], [[वायु पुराण]], [[वामन पुराण]], [[भागवत पुराण]] आदि पुराणों में कृष्ण की तुलना में इन्द्र की हीनता सिद्ध करने के लिए अनेक कथाएँ दी गयी हैं; परन्तु फिर भी [[गोवर्धन]] धारण के प्रसंग में उनके इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने और 'उपेन्द्र' नाम से स्वीकृत होने का उल्लेख हुआ है। पुराणों में विविध कथाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर कृष्ण की महत्ता और उसी अनुपात में इन्द्र की हीनता प्रमाणित की गयी है। महाभारत में कृष्ण के ऐश्वर्य और देवत्व का प्रचुर वर्णन है परन्तु उनके लालित्य और माधुर्य का कोई संकेत नहीं मिलता। महाभारत उनके गोप जीवन और [[गोपी]] प्रेम के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है। [[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]] के उस प्रसंग में भी, जिसे प्रक्षिप्त कहा जाता है और जिसमें शिशुपाल कृष्ण की निन्दा करते हुए उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वत्सासुर और कंस के वध तथा गोवर्द्धन धारण किये जाने का उल्लेख करता है, गोपियों से उनके प्रेम का कोई संकेत नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि गोपाल कृष्ण का ललित और मधुर चरित मूलत: महाभारत के कृष्ण के चरित से भिन्न था। पुराणों में वर्णित कृष्ण सम्बन्धी ललित कथाएँ उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गयी हैं। उदाहरण के लिए हरिवंश में जिसे 'वास्तव में महाभारत का परिशिष्ट कहा जाता है, उनके गोपाल रूप सम्बन्धी सन्दर्भ अतयन्त संक्षिप्त है। उनकी तुलना में उनके ऐश्वर्य रूप की भोग-विलास सम्बन्धी अनेक कथाएँ कहीं अधिक विस्तार से वर्णित हैं। विष्णु पुराण में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। किन्तु भागवत, [[पद्म पुराण]] , [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] तथा कुछ अन्य पुराणों में, जिन्हें परवर्ती कहा जा सकता है, गोपालकृष्ण सम्बन्धी कथन अधिक विस्तृत होने लगे हैं। पुराणों के भोग-ऐश्वर्य सम्बन्धी आख्यानों और गोप-गोपी लीला सम्बन्धी मधुर कथाओं में वातावरण का बहुत अन्तर पाया जाता है। यदि एक में घोर भौतिकता, विलासिता और नग्न ऐन्द्रियता है तो दूसरे में भावात्मक कोमलता, हार्दिक उत्फुल्लता, सूक्ष्म अनुभूति और अलौकिकता की ओर उन्मुख उदात्तता है।<br />
<br />
===शूरसेन प्रदेश===<br />
[[चित्र:Shursen-Map.jpg|thumb|300px|[[शूरसेन]] महाजनपद<br /> Shursen Great Realm]]<br />
अनुमान है कि गोपाल कृष्ण मूलत: [[शूरसेन]] प्रदेश के सात्वत वृष्णिवंशी पशुपालक क्षत्रियों के कुल देवता थे और उनके क्रीड़ा कौतुक की मनोरंजक कथाएँ मौखिक रूप में लोक-प्रचलित थीं। इन कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण कुछ पाषाण मूर्तियों और शिलापट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों में मिले है। मथुरा में प्राप्त एक खण्डित शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को एक सूप में सिर पर रखकर यमुना पार करते हुए दिखाये गये हैं। 5वीं शताब्दी ईसवी के एक दूसरे खण्डित शिलापट्ट में [[कालिय नाग|कालिय-दमन]] का दृश्य दिखाया गया है। यह छठी शताब्दी ईस्वी की अनुमान की गयी है। बंगाल के पहाड़पुर नामक स्थान में छठी शताब्दी की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें [[धेनुकासुर वध]], [[यमलार्जुन उद्धार]] तथा [[मृष्टिक चाणूर]] के साथ मल्ल-युद्ध के दृश्य दिखाये गये हैं। यहीं पर एक अन्य मूर्ति मिली है जिसमें कृष्ण को किसी गोपी के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। अनुमान किया गया है कि यह गोपी सम्भवत: [[राधा]] का सबसे प्राचीन मूर्तिगत प्रमाण प्रस्तुत करती है। राजस्थान के मण्डोर तथा बीकानेर के पास सूरतगढ़ में क्रमश: द्वारपाटों पर उत्कीर्ण गोवर्द्धन –धारण, नवनीत-चौर्य, [[शकटभंजन]] और कालिय-दमन के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं तथा गोवर्द्धन-धारण और दान-लीला का दृश्यांकन प्रस्तुत करने वाले कुछ सुन्दर मिट्टी के खिलौने प्राप्त हुए हैं। मण्डोर के चित्र चौथी-पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अनुमान किये गये हैं। दक्षिण भारत के बादामी के पहाड़ी क़िले पर कृष्ण-जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, कंस-वध आदि के अनेक दृश्य गुफ़ाओं में उत्कीर्ण मिले हैं। जो छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं<ref>(दे0 आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट 1926-27, 1905-6 तथा 1928-29 ई.)</ref>।<br />
==काव्य में कृष्ण==<br />
काव्य में गोपाल कृष्ण की लीला का पहला सन्दर्भ प्रथम शताब्दी ईसवी में रचित [[अश्वघोष]] के बुद्धिचरित' (1-5) में मिलता है। अनुमानत: प्रथम शताब्दी ईस्वी में हाल [[सातवाहन]] द्वारा संगृहीत 'गाहासत्तसई' (गाथा सप्तशती) में कई गाथाएँ कृष्ण, राधा, गोपी, [[यशोदा]] आदि से सम्बद्ध मिलती हैं <ref>(दे0 'गाहासत्तसई' 1।29, 5।47, 2।12, 2।14)</ref>। इन गाथाओं में कृष्ण द्वारा नारियों के गौरवहरण, मुखमारूत से राधिका के गोरज के अपनयन आदि के उल्लेख हुए हैं। इन उल्लेखों से सूचित होता है कि कृष्ण के गोपी-प्रेमसम्बन्धी प्रसंग कम से कम पहली शताब्दी ईस्वी के पहले से ही लोक-प्रचलित थे। यह अवश्य द्रष्टव्य है कि'गाहासत्तसई' में भक्ति भावना का कोई संकेत नहीं मिलता, उसका वातावरण सर्वथा लौकिक श्रृंगार का ही है परन्तु इससे भिन्न दक्षिण के आलवार सन्तों द्वारा रचित गीत पूर्णतया भक्ति भावना से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। इन सन्तों का समय पाँचवीं से नवीं शताब्दी ईसवी अनुमान किया गया है। आलवार सन्तों के इन गीतों में विष्णु , नारायण अथवा वासुदेव तथा उनके अवतारों-[[राम]] और कृष्ण के प्रति अपूर्व भक्ति –भाव प्रकट किया गया है। इनमें गोपाल-कृष्ण की ललित लीला के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जो उत्तर भारत के मध्यकालीन कृष्ण भक्ति- काव्य के प्रिय विषय रहे हैं। इन गीतों में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से सम्बद्ध एक नाप्पित्राय नामक गोपी का प्रमुख रूप समें वर्णन है। उसे कृष्ण की प्रियतमा और विष्णु की अर्द्धागिनी [[लक्ष्मी]] का अवतार कहा गया है। अनुमान है कि यह गोपी उत्तर भारत की कृष्णकथा में प्रयुक्त राधा ही है। राधाकृष्ण कथा की प्राचीनता की दृष्टि से तमिल साहित्य का यह प्रमाण महत्त्वपूर्ण है।<br />
===राधा के प्रेम सन्दर्भ===<br />
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|250px|[[राधा]]-[[कृष्ण]]]]<br />
आठवीं शंताब्दी में रचित भट्टानारायण के 'वेणीसंहार' नामक-नाटक में नांदीश्लोक में तथा वाकपति राज द्वारा लिखित प्राकृत महाकाव्य 'गउडवहो' के मंगलाचरण में कृष्ण की स्तुति उनके राधा और गोपी-प्रेम तथा यशोदा के वात्सल्यभाजन होने की स्पष्ट सूचना देती है। 'गउडवहो' में उन्हें 'विष्णुस्वरूप' और 'लक्ष्मीपति' भी कहा गया है। नवीं शताब्दी ईसवी के 'ध्वन्यालोक' में उद्धृत दो [[श्लोक|श्लोकों]] में कृष्ण और राधा के मधुर प्रेम के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दसवीं शताब्दी के त्रिविक्रम भट्ट रचित 'नलचम्पू' के एक श्लोक में परम पुरुष कृष्ण के साथ राधा के अनुराग का संकेत प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी की ही बल्लभदेव द्वारा रचित 'शिशुपालवध' की टीका तथा सोमदेवपूरि के 'यशस्यतिलकचम्पू' में भी राधा के प्रिय कृष्ण का जिस रूप में उल्लेख मिलता है उससे कृष्ण के गोपीवल्लभ रूप की सूचना प्राप्त होती है। <br />
===प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ===<br />
'कवीन्द्रवचन समुच्चय' नामक कवितासंग्रह भी दसवीं शताब्दी का माना गया है। इसमें संकलित अनेक श्लोकों में कृष्ण की गोपी और राधा सम्बन्धी प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ मिलता है जिनसे कृष्ण के यशोदा के वात्सल्य-भाजन, गोपियों के कान्त, गोपों के सृहृद् तथा राधा के अनन्य प्रेमभाजन व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। इन सभी सन्दर्भो में कृष्ण के दक्षिण और धृष्ट नायकत्व के भी स्पष्ट संकेत हैं। दशवीं शताब्दी तक राधा और कृष्ण के प्रति पूज्यभाव भी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण मालवाधीश वाक्पति मुंजपरमार के एक अभिलेख से भी मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका विष्णु रूप में वर्णन है और साथ ही उन्हे राधा के विरह में पीड़ित कहा गया है। दशवीं शताब्दी के आसपास रचित श्रीमद्भागवत में कृष्णचरित का व्यापक वर्णन है इसमें उनके सभी स्वरूपों का वर्णन और संकेत है।<br />
<br />
कृष्ण के व्यक्तित्व के लालित्य और माधुर्य के साथ उनके दैवत रूप की प्रतिष्ठा 12वीं शताब्दी तक और अधिक दृढ़ता के साथ हो गयी थी। इसका प्रमाण लीलाशुक द्वारा रचित 'कृष्णकर्णामृतस्तोत्र' ईश्वरपुरी द्वारा रचित 'श्रीकृष्णलीलामृत ' का श्रृगांर रस निश्चित रूप से माधुर्य भक्ति है। इसी प्रकार 'गीतगोविन्द' में राधा-माधव के जिस उद्दाम श्रृंगार का वर्णन किया गया है, उसकी मूल प्रेरणा भी धार्मिक है। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस प्रकार जिस लोकरंजनकारी लालित्य का उदात्तीकरण वैष्णव भक्ति के विकास में होता गया उसी की चरम परिणति हम परवर्ती साहित्य में पाते हैं।<br />
<br />
===असंख्य कथा प्रसंग===<br />
बारहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-काव्य मृक्तकों के अतिरिक्त प्रबन्धों के रूप में भी प्राप्त होता है। 'सदुक्तिकर्णामृत' नामक एक मुक्तक संग्रह 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ का हैं। जिसमें गोपाल कृष्ण की लीला से सम्बद्ध साठ श्लोक हैं। इन श्लोकों में गोपाल कृष्ण के शैशव, कैशोर और यौवन की ललित लीलाओं का ही वर्णन मिलता है। 13वी-14वी शताब्दी में रचित बोपदेव की 'हरिलीला' तथा वेदान्तदेशिककी 'यादवाभ्युदय' नामक रचनाएँ तथा पन्द्रहवीं शताब्दी की 'ब्रजबिहारी' (श्रीधरस्वामी), 'गोपलीला' (रामचन्द्र भट्ट), ' हरिचरित'-काव्य (चतुर्भुज), 'हरिविलास'-काव्य (ब्रजलोलिम्बराज), 'गोपालचरित' (पद्मनाभ), 'मुरारिविजय'- नाटक (कृष्ण भट्ट) और 'कंस-निधन' महाकाव्य (श्रीराम) आदि अनेक काव्य और नाटक गोपालकृष्ण के मधुर, ललित और पूज्य चरित का चित्रण करते हैं। 16वीं शताब्दी से कृष्णभक्ति आन्दोलन सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्याप्त हो गया और कृष्ण-काव्य आधुनिक भाषाओं में रचा जाने लगा। इस काव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत था, परन्तु साथ ही कवियों ने लोक में प्रचलित कृष्णसम्बन्धी उन असंख्य कथा प्रसंगों का भरपूर उपयोग किया जिनमें कृष्ण का चरित वात्सल्य, सख्य और माधुर्यव्यंजक लीलाओं से समन्वित रहा है।<br />
<br />
==सूरदास==<br />
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|[[सूरदास]], सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]|thumb|300px]]<br />
हिन्दी का कृष्ण-भक्ति काव्य यद्यपि [[सूरदास]] से प्रारम्भ होता है परन्तु इससे पहले 15वीं शताब्दी में [[विद्यापति]] ने अपने पदों में कृष्ण के श्रृंगारी रूप का जो वर्णन किया था उसकी प्रकृति भले ही लौकिक श्रृंगार की रही हो, उसका उपयोग भक्तों ने माधुर्य भक्ति के सन्दर्भों में ही किया। विद्यापति और हिन्दी के रीतिकालीन राधाकृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार –काव्य के बीच हिन्दी भक्तिकाव्य का एक लम्बा व्यवधान है जिसमें कृष्ण का व्यक्तित्व कवियों ने अत्यन्त कुशलता के साथ् मानव और अतिमानव के परस्पर विरोधी तत्त्वों से निर्मित कर चित्रित किया है। कृष्ण के इस चरित-चित्रण में बड़ी विलक्षणता है। एक ओर उन्हें विष्णु का अवतार, ब्रह्मा-विष्णु और महेश से परे तथा साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा गया है, तो दूसरी ओर उनकी शैशव, बाल्य और किशोरकाल की अत्यन्त मानवीय और स्वाभाविक लीला का मनोहर वर्णन किया गया है। हिन्दी कृष्ण-काव्य के रचयिताओं में कृष्ण का सम्यक् चरित्र-चित्रण वास्तव में सूरदास ने ही किया किन्तु सूरदास का चरित्र-चित्रण वस्तुत: भावांत्मक है। प्रधान रूप से उन्होंने कृष्ण को वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का आलम्बन बनाया है और इन भावों का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण करते हुए दैन्य और विस्मय के भावों के सहारे उनके प्रति पूज्य भावना व्यक्त की है।<br />
<br />
कृष्ण के चरित्र-चित्रण में सूर की अन्य विशेषता यह है कि यद्यपि वे नन्द-यशोदा, गोप-गोपी, आदि के साथ राग-रंग में आचूल मग्न रहते हैं, फिर भी उनके व्यवहार से व्यंजित होता है कि वास्तव में वे भावातीत और वीतराग हैं। कृष्ण के मथुरा और द्वारका-प्रवास तथा उनके प्रति ब्रजवासियों और विशेषकर गोपियों के विरह-भाव का वर्णन करते हुए सूरदास ने कृष्ण के इस विलक्षण व्यक्तित्व का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है। इसके द्वारा हमें गीता के योगिराज कृष्ण की अनासक्ति का व्यावहारिक परिचय मिलता है।<br />
<br />
सूरदास के अतिरिक्त अन्य कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के सम्पूर्ण चरित का चित्रण नहीं किया। बहुत थोड़े से कवियों ने कृष्ण के बाल्य और किशोरकाल के जीवन का परिचय दिया। अधिकांश कवि उनके माधुर्यपूर्ण चरित की ओर ही झुके और राधा और गोपियों के साथ उनके प्रेम सम्बन्धों के चित्रण में ही निमग्न रहें कृष्ण के प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों रूपों के चित्रण में अनेक कवियों ने तन्मयता प्रदर्शित की, परन्तु सूरदास ने उनमें वीतरागत्व और अनासक्ति के संकेतों तथा अन्य उपायों द्वारा जिस आध्यात्मिकता की उच्च काव्यमयी व्यंजना की थी, वह कोई अन्य कवि नहीं कर सका। सूरदास ने कृष्ण के असुर-संहारी रूप का भी विशद वर्णन किया था। यद्यपि उनके वर्णन में कृष्ण की वीरता और पराक्रम के स्थान पर उनके विस्मयकारी क्रीडा-कौतक की ही प्रधानता है, परन्तु उनका उद्देश्य जिस अलौकिक की व्यंजना करना था उसे परवर्ती कवि नहीं समझ सके। इस कारण उन्होंने कृष्ण-चरित के इस पक्ष की प्राय: उपेक्षा ही की। <br />
<br />
श्रीकृष्ण के सहज मानवीय श्रृंगारी रूप को सूरदास ने उनके प्रति दैन्य भावना व्यक्त करके तथा उनके अलौकिक कृत्यों के वर्णयन द्वारा विस्मय की व्यंजना करके उनके चरित में जिस उदात्तता का सन्निवेश किया था, परवर्ती कवियों ने उसे विस्मृत कर दिया और श्रीकृष्ण का चरित लगभग पूर्ण रूप में इहलौकिक हो गया और उसमें मानव व्यक्तित्व की संकुचित एकांगिता ही शेष रह गयी। फलत: जीवन की व्याख्या की कसौटी पर कसने पर वह अत्यन्त कल्पित और अयथार्थ लगता है, जैसे राग-रंग और आनन्द-विहार में लिप्त जीवन का कोई उद्देश्य ही न हो। वास्तव में तथ्य यही है कि कृष्ण-चरित जीवन के वास्तविक चित्रण अथवा आदर्श चित्रण के रूप में रचा ही नहीं गया, उनका चरित वास्तव में परब्रह्म की लीलामात्र हैं जिसका प्रयोजन लीलानन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। उसका उद्देश्य अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की व्यंजना करना ही हैं भक्त कवियों ने उस आनन्द का रूप स्त्री-आनन्द रूप में परम पुरुष हैं और उनकी परा शक्ति रूप प्रकृति स्वरूपा राधा हैं जिनके संयोग से ही परम आनंद की परिपूर्णता सिद्ध होती है।<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कृष्ण2}}<br />
{{कृष्ण}}<br />
[[en:Krishna References]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
[[Category:महाभारत]]<br />
[[Category:भगवान-अवतार]] <br />
[[Category: कोश]]<br />
__INDEX__</div>
शिल्पी
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कृष्ण संदर्भ
2010-09-28T05:50:37Z
<p>शिल्पी: /* विभिन्न प्रसंग */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==कृष्ण संदर्भ / [[:en:Krishna References|Krishna References]]==<br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए [[कृष्ण]]|250px]]<br />
==छान्दोग्य उपनिषद==<br />
कृष्ण- एक बार आंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र [[कृष्ण]] को यज्ञदर्शन सुनाया था। फलस्वरूप कृष्ण शेष समस्त विधाओं के प्रति तृष्णाहीन हो गये थे।(छा.उ., अध्याय 3,खंड 17, श्लोक 6)<br />
<br />
कृष्ण का मातृपरक नाम 'देवकीपुत्र' [[छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक|छान्दोग्य उप निषद् (3,17,6)]] में पाया जाता है।<br />
<br />
==विभिन्न प्रसंग== <br />
{{Tocright}} <br />
वे अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त ब्रह्म थे। मूलत: वे नारायण थे। वे स्वयंभू तथा संपूर्ण जगत के प्रपितामह थे। द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि, पृथ्वी रचण, [[अश्विनीकुमार]] नासिकास्थान, [[चंद्र देवता|चंद्र]] और [[सूर्य देवता|सूर्य]] नेत्र तथा विभिन्न [[देवता]] विभिन्न देहयष्टियां हैं। वे (ब्रह्म रूप) ही प्रलयकाल के अंत में [[ब्रह्मा]] के रूप में स्वयं प्रकट हुए तथा सृष्टि का विस्तार किया। [[रुद्र]] इत्यादि की सृष्टि करने के उपरांत वे लोकहित के लिए अनेक रूप धारण करके प्रकट होते रहे।<br />
<br />
श्रीकृष्ण के रूप में वही अव्यक्त नारायण व्यक्त रूप धारण करके अवतरित हुए। वे [[वसुदेव]] के पुत्र हुए। [[कंस]] के भय से वसुदेव उन्हें [[नंद]] गोप के यहाँ छोड़ आये। वहीं पलकर वे बड़े हुए। [[यशोदा]] (नंद की पत्नी) से उन्हें अद्भुत वात्सल्य की उपलब्धि हुई।<br /> <br />
(1) शिशुरूप में वे एक बार छकड़े नीचे सो रहे थे। यशोदा उन्हें वहां छोड़ यमुना तट गयी थी। बाल-लीला का प्रदर्शन करते हुए रोते हुए कृष्ण ने अपने पांव के अंगूठे से छकड़े को धक्का दिया तो वह उलट गया। उस पर रखे समस्त मटके चूर-चूर हो गये।<br /> <br />
(2) देवताओं के देखते-देखते उन्होंने [[पूतना-वध|पूतना]] को मार डाला।<br /> <br />
(3) वे अपने बड़े भाई संकर्षण ([[बलराम|बलदेव]]) के साथ खेलते-कूदते बड़े हुए। सात वर्ष की अवस्था में गोचारण के लिए जाया करते थे। एक बार मक्खन चुराकर खाने के दंडस्वरूप मां (यशोदा) ने उन्हें ऊखल में बांध दिया। कृष्ण ने उस ऊखल को [[यमल तथा अर्जुन]] नामक दो वृक्षों के बीच में फंसाकर इतने जोर से खींचा कि वे दोनों वृक्ष भूमिसात हो गये। इस प्रकार उन वृक्षो पर रहनेवाले दो राक्षसों को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(4) वे दोनों भाई ग्वालोचित वेशधारी वन में पिपिहरी तथा [[बांसुरी]] बजाकर आमोद-प्रमोद के साथ गायों को चराते थे। कृष्ण पीले और बलराम नीले वस्त्र धारण करते थे। वे पत्तों के मुकुट पहन लेते। कभी-कभी रस्सी का [[यज्ञोपवीत]] भी धारण कर लेते थे। वे गोप बालकों के आकर्षण का केंद्रबिंदु थे।<br /> <br />
(5) उन्होंने [[कदम्ब]]वन के पास हृद (कुण्ड) में रहने वाले [[कालिय नाग|कालिया नाग]] के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी तथा अन्यत्रा जाने का आदेश दिया था।<br /> <br />
(6) गोपाल बालकों द्वारा किये सर्वभूत स्त्रष्ट ईश्वर स्वरूप को प्रकट किया तथा [[गिरिराज]] को समर्पित होने वाली खीर वे स्वयं खा गये। तब से [[गोपगण]] उनकी पूजा करने लगे।<br /> <br />
(7) जब [[इन्द्र]] ने वर्षा की थी तब श्रीकृष्ण ने गौओं की रक्षा के निमित्त एक सप्ताह तक [[गोवर्धन]] पर्वत को अपने हाथ पर उठाए रखा था। इन्द्र ने प्रसन्न होकर उन्हें गोविंद नाम दिया।<br /> <br />
(8) श्रीकृष्ण ने पशुओं की हितकामना से वृक्ष रूप-धारी [[अरिष्ट नामक दैत्य]] का संहार किया।<br /> <br />
(9) ब्रजनिवासी [[केशी नामक दैत्य]] का संहार किया। उस दैत्य का शरीर घोड़े जैसा और बल दस हज़ार हाथियों के समान था।<br /> <br />
(10) [[कंस]] के दरबार में रहने वाले चाणूर नामक मल्ल को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(11) कंस के भाई तथा सेनापति शत्रुनाशक का भी उन्होंने नाश कर डाला।<br /><br />
(12) कंस के [[कुवलयापीड़]] नामक हाथी को भी उन्होंने मार गिराया।<br /><br />
(13) कंस को मारकर उन्होंने [[उग्रसेन]] का राज्याभिषेक कर दिया।<br /><br />
(14) [[उज्जयिनी]] में दोनों भाइयों ने वेद विद्याध्ययन किया। धनुर्विद्या सीखने वे सांदीपनि के पास गये। [[सांदीपनि]] ने गुरु-दक्षिणा में अपने पुत्र को वापस मांगा, जिसे कोई समुद्री जंतु खा गया था। श्रीकृष्ण ने समुद्र में रहने वाले उस दैत्य का संहार कर दिया तथा गुरुपुत्र को पुनर्जीवनदान दिया जो कि वर्षों पूर्व यमलोक में जा चुका था। कृष्ण के कृपाप्रसाद से उसने पूर्ववत् अपना शरीर धारण किया।<br /><br />
(15)श्रीकृष्ण ने [[नरकासुर]] (भौमासुर) को मार डाला।<br />
(16) श्रीकृष्ण ने [[उषा अनिरुद्ध]] का मिलन करवाया, [[बाणासुर]] को मारा।<br /><br />
(17) उन्होंने रूक्मी को पराजित करके [[रुक्मिणी]] का हरण किया।<br /><br />
(18) इन्द्र को परास्त करके [[परिजात वृक्ष]] का अपहरण किया।<br />
<br />
==महाभारत- उद्योगपर्व, द्रोणपर्व==<br />
<br />
स्वयंवर में गांधारराज की राजकुमारी को प्राप्त किया था। विवाहोपरांत उनके रथ में अच्छी नस्ल के घोड़ो की तरह से राजाओं को जोता गया था। द्यूतक्रीड़ा के उपरांत [[पांडव|पांडवों]] के वनवास काल में [[कौरव|कौरवों]]-पांडवों के [[महाभारत|युद्ध]] की संभावना देख श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए उनकी सभा में गये। कृष्ण के साथ [[धृतराष्ट्र]], [[गांधारी]], [[विदुर]], [[सात्यकि]] इत्यादि सभी इस मत के थे कि पांडवों का राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए तथा उनसे संधि कर, शांति स्थापित करनी चाहिए; किंतु [[दुर्योधन]] उसके लिए तैयार न था। उसने [[शकुनि]] तथा [[कर्ण]] से सलाह करके कृष्ण को बंदी बना लेने का निश्चय किया। सात्यकि को विदित हुआ तो उसने सभासदों के सम्मुख ही कृष्ण को इस तथ्य की सूचना दी। <br />
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]|left]]<br />
कृष्ण ने क्रुद्ध होकर अपना विश्व रूप (विराट् रूप) प्रदर्शित किया। कृष्ण की दाहिनी बांह पर [[अर्जुन]], वायीं बांह पर [[बलराम|हलधर]], वक्ष पर [[शिव]] तथा अंग-प्रत्यंग पर विभिन्न देवी-देवता साक्षात् दिखलायी दिए। कृष्ण के अट्टहास से भूमंडल कांप उठा। शरीर से ज्वाला प्रस्फुटित हुई तथा सब ओर अनेक देवता और योद्धाओं के दर्शन होने लगे। ऐसे रूप के दर्शन दे, कृष्ण ने वहां से प्रस्थान किया। [[महाभारत]] युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के सारथी का कार्यभार संभाला था। [[अभिमन्यु]] की मृत्यु के उपरांत कृष्ण ने अपने-आप स्वीकार किया कि अर्जुन (नर) नारायण (श्रीकृष्ण) का आधा शरीर है। युद्ध में पांडवों की विजय के उपरांत वे लोग कृष्ण सहित [[कुरुक्षेत्र]] में रहे। जब तक [[सूर्य देवता|सूर्य]] उत्तरायण नहीं हो गया, [[भीष्म]] पितामह नित्य ही उन्हें दान, धर्म, कर्तव्य का उपदेश देते रहे। उनके स्वर्गारोहण उपरांत पांडवों को [[हस्तिनापुर]] छोड़ते हुए कृष्ण अपने माता-पिता के दर्शन करने [[द्वारका|द्वारकापुरी]] चले गये।<br /><br />
(म0भा0, उद्योगपर्व, 130-131, [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]] 79)<br />
<br />
श्रीकृष्ण इस प्रकार क्रीड़ा करते हैं जैसे मनुष्य खिलौनें से क्रीड़ा करता है। संपूर्ण चराचर भूत नारायण से उद्भूत है। पानी के बुद्बुद्वत् उसी में लीन हो जाता है।<br /><br />
(म0भा0, सभापर्व, अध्याय 38)<br />
<br />
==हरिवंश पुराण==<br />
कृष्ण और बलराम ने अनुभव किया कि [[ब्रज]]भूमि की वनश्री बच्चों की क्रीड़ा , गोपों की फल-सब्जी बेचने के लिए उपज तथा गौओं के क्षारयुक्त मल इत्यादि से नष्ट हो गयी है। इस कारण से उन्होंने निश्चय किया कि [[गोवर्धन]] पर्वत से युक्त [[कदम्ब]] इत्यादि वृक्षों से अपूरित [[वृन्दावन]] में जाकर रहना चाहिए। कृष्ण ने अपने रोम-रोम से भयानक भेड़ियों को उत्पन्न किया। उनको देखकर गोप-[[गोपी|गोपांगनाएं]] तथा गायें अत्यंत त्रस्त होकर ब्रजभूमि छोड़ने के लिए तुरंत तैयार हो गये। लोग वृन्दावन में जा बसे।<br /> <br />
(हरिवंश [[पुराण]], विष्णुपर्व ।8-9)<br />
==श्रीमद भागवत==<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]]]<br />
कंस की कारागार में वसुदेव के यहाँ भगवान ने कृष्ण-रूप में अवतार लिया। दस वर्ष तक बलराम के साथ ऐसे रहे कि उनकी कीर्ति वृन्दावन से बाहर नहीं गयी। वे गाय चराते तथा बांसुरी बजाकर सबको रिझाते थे। खेल-खेल में उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया, कंस को उठाकर पटक दिया। कृष्ण ने अपनी शक्ति योगमाया से भौमासुर की लाई राजकन्याओं से एक ही मुहूर्त में अलग-अलग महलों में विधिवत् पाणिग्रहण संस्कार संपादित किया। एक बार नंद ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया तथा रात्रि में [[यमुना नदी|यमुना]] में स्नान करने लगे। वह असुरों की वेला थी। अत: एक असुर उन्हें पकड़कर वरुण के पास ले गया। कृष्ण वरुण के पास गये तथा नंद बाबा को वापस ले आये।<br />
<br />
नारद ने कंस को जाकर बताया कि कृष्ण वसुदेव का बेटा है तथा बलराम [[रोहिणी]] का। वे दोनों छिपाकर नंद के यहाँ रखे गये हैं। कंस ने कृष्ण को अपनी भावी मृत्यु का कारण मानकर वसुदेव तथा देवकी को पुन: कैद कर लिया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उन्हें कैद से छुड़ाया। [[यदु]]वंशियों को [[ययाति]] का शाप था कि वे कभी शासन नहीं कर पायेंगे। अत: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन से शासन ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण और बलराम ने नंद से कहा-"पिताजी, आपका वात्सल्य अपूर्व है। आपने तथा यशोदा ने अपने बालकों के समान ही हमें स्नेह दिया। आप ब्रज जाइए। हम लोग भी यहाँ का काम निपटाकर आपसे मिलने आयेंगे।" वे दोनों [[अवंती]]पुर (उज्जैन) निवासी गुरुवर संदीपनि के गुरुकुल में रहकर उनकी सेवा करने लगे। चौंसठ दिन में उन दोनों ने [[चौंसठ कलाएँ|चौंसठ कलाओं]] में निपुणता प्राप्त की तथा संदीपनि को गुरु-दक्षिणास्वरूप उसका मृत पुत्र पुन: लौटाकर वे दोनों मथुरा लौट गये।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 3।3।-,10।28।-,10।44।–)<br />
<br />
श्रीकृष्ण के अनेक विवाह हुए थे। (कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।) उनकी श्रुतकीर्ति नामक बूआ का विवाह केकय देश में हुआ था। उनकी कन्या का नाम था भद्रा जिसका विवाह उसके भाई सन्तर्दन आदि ने कृष्ण से कर दिया था। मद्र देश की राजकुमारी सुलक्षणा को कृष्ण ने स्वयंवर में हर लिया था। इनके अतिरिक्त [[भौमासुर]] को मारकर अनेक सुंदरियों को वे कैद से छुड़ा लाये थे।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 10।56, 57, 58)<br />
<br />
एक बार सूर्य-ग्रहण के अवसर पर [[भारत]] के विभिन्न प्रांतों की जनता कुरुक्षेत्र पहुंची। वहां वसुदेव, कृष्ण और बलराम से नंद, यशोदा, गोप-गोपियों आदि का सम्मिलन हुआ। कृष्ण ने [[गोपी|गोपियों]] आदि को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दियां उन्हीं दिनों वसुदेव के यज्ञोत्सव का आयोजन था। उस संदर्भ में नंद बाबा, यशोदा तथा पांडव-परिवार के अधिकांश सदस्य तीन माह तक द्वारका में ठहरे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0 10 । 82-84)<br />
<br />
एक बार कृष्ण अपने दो भक्तों पर विशेष प्रसन्न हुए। उनमें से एक तो मिथिला निवासी गृहस्थी ब्राह्मण श्रुतदेव था और दूसरा मिथिला का राजा बहुलाश्व था। श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण करके एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए तथा दोनों भक्तों ने भगवत्स्वरूप प्राप्त किया।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, ।10।86।13-)<br />
<br />
[[ब्रह्मा]] की प्रार्थना पर [[विष्णु]] ने हंस का रूप धारण करके सनकादि के चित्त तथा गुणों के अनैक्य के विषय में उपदेश दिया था। यदुवंशियों के संहार के उपरांत जरा नामक व्याध को निमिंत्त बनाकर श्रीकृष्ण ने स्वधाम में प्रवेश कियां उन्हें अपने धाम में प्रवेश करते कोई भी देवता देख नहीं पाया। श्रीकृष्ण की कृपा से उनके शरीर पर प्रहार करने वाला व्याध सदेह स्वर्ग चला गया। <br />
नश्वर शरीर के त्यागोपरांत वसुदेव, अर्जुन आदि बहुत दुखी हुए। सब उनकी अलौकिक लीलाओं को स्मरण करते रहे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, 11।13।15-42/- 11 । 30/-)<br />
<br />
==देवी भागवत==<br />
कृष्ण-कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से [[कामधेनु]] मांगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए। देवी भागवत में [[दिति]] और [[अदिति]] को [[दक्ष]] कन्या माना गया है। अदिति का पुत्र [[इन्द्र]] था जिसने मां की प्रेरणा से दिति के गर्भ के 49 भाग कर दिए थे जो मरूत हुए। अदिति से रुष्ट होकर दिति ने शाप दिया था-'जिस प्रकार गुप्त रूप से तूने मेरा गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करवाया है उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्म लेकर तू बार-बार मृतवत्सा होगी।' फलत: उसने [[देवकी]] के रूप में जन्म लिया।<br />
<br />
विष्णु ने देवताओं की रक्षा करने के निमित्त [[भृगु]] की पत्नी ([[शुकदेव|शुक]] की मां) का हनन किया था अत: भृगु के शापवश उन्होंने पृथ्वी पर बार-बार जन्म लिया। [[नर-नारायण]] अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। अप्सराएं राजकुमारियों के रूप में जन्मीं तथा कृष्ण की पत्नियां हुई।<br />
<br />
दैत्य [[मधु]] का पुत्र [[लवणासुर|लवण]] ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से पीड़ित कर रहा था। [[लक्ष्मण]] के भाई [[शत्रुघ्न]] ने उस दैत्य को मारकर [[मथुरा]] नामक नगरी की स्थापना की। कालांतर में [[सूर्यवंश]] क्षीण हो गया। [[ययाति]] कुलोत्पन्न यादवों ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। यादवराज [[शूरसेन]] के पुत्र का नाम वसुदेव था। वह वरुण के शाप तथा कश्यप के अंश से उत्पन्न हुआ था। शूरसेन की मृत्यु के उपरांत [[उग्रसेन]] को राज्य की प्राप्ति हुई। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। देवक राजा की कन्या का नाम [[देवकी]] था। उसका जन्म वरुण के शाप तथा अदिति के अंश से हुआ था। देवक ने उसका विवाह [[वसुदेव]] से कर दिया। विवाह होते ही आकाशवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान कंस को मार डालेगी। कंस ने देवकी के बाल पकड़कर उसे मारने के लिए खड्ग उठा लिया। वसुदेव के वीर साथियों से [[कंस]] का युद्ध होने लगा। यादवों ने कंस को समझा-बुझाकर शांत किया कि अपनी बहन पर हाथ उठाना उचित नहीं है। हो सकता है, किसी शत्रु ने ही यह आकाशवाणी रची हो। वसुदेव ने कहा कि वह अपनी प्रत्येक संतान कंस को अर्पित कर देगा। इस शर्त पर कंस ने उसे छोड़ दिया। <br />
<br />
वसुदेव देवकी को लेकर अपने घर चला गया। प्रथम पुत्र उत्पन्न होने पर वसुदेव पुत्र सहित कंस के पास पहुंचा। कंस ने 'प्रथम बालक से नहीं, अष्टम बालक से भय है' कहकर बालक उसे लौटा दिया, किंतु तभी [[नारद]] ने वहां पहुंचकर कंस को समझाया कि गिनती कहां से शुरू करके किस बालक को अष्टम माना जायेगा, नहीं कहा जा सकता। यह सुनकर कंस ने बालक को शिला पर पटककर मार डाला। इसी प्रकार देवकी के छह पुत्र मारे गये। वे छहों शापवश जन्मते ही नष्ट हो गये। पूर्वकाल में ब्रह्मा अपनी कन्या के प्रति कामुक हो उठे थे। रमण करते हुए ब्रह्मा को देख महर्षि मरीचि के (उर्णा नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न) छह पुत्रों ने उनका परिहास किया था। इससे रुष्ट होकर ब्रह्मा ने उन्हें असुर योनि में जन्म लेने का शाप दिया था। फलत: पहले वे [[कालनेमि]] के पुत्र हुए, फिर हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए। दूसरे जन्म में ज्ञान विच्युत न होने के कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा था कि हवे मनवांछित देवता अथवा [[गंधर्व]] हो जायें ! वर पाकर वे लोग तो प्रसन्न हुए। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्रों को ब्रह्मा का प्रिय जान क्रोधावेश में कहा-"तुम पाताल में जाकर निद्रा में पड़े रहोगे। पृथ्वी पर षड्गर्क नाम से प्रसिद्ध होगे। देवकी के गर्भ से जन्म लेकर कालनेमि के वंश से उत्पन्न कंस के हाथों मारे जाओगे।" देवकी के सातवें गर्भ में अनंत देव आये। योगमाया ने योग-बल से इस गर्भ का आकर्षण करके उसे [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थापित किया। भौतिक दृष्टि से देवकी का गर्भपात मान लिया गया। तदनंतर विष्णु के अंशावतार कृष्ण ने अष्टम् पुत्र के रूप में जन्म लिया। योगमाया ने स्वेच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया। अन्य पात्रों के जन्म के मूलांश की <br />
[[चित्र:Jarasandh1.jpg|[[भीम]]-जरासंध युद्ध|thumb|200px]]<br />
'''तालिका निम्नलिखित है:'''<br />
<br />
{| border="1" cellpadding="10"<br />
! मूलांश <br />
! कृष्ण-कथा के पात्र <br />
|-<br />
|[[हिरण्यकशिपु]]<br />
|[[शिशुपाल]]<br />
|-<br />
|विप्रचित्त <br />
|[[जरासंध]] <br />
|-<br />
|[[प्रह्लाद]] <br />
|[[शल्य]]<br />
|-<br />
|खर<br />
|[[लंबक तथा धेनुक]]<br />
|-<br />
|वाराह और किशोर<br />
|[[चाणूर और मुष्टिक]]<br />
|-<br />
|दिति पुत्र अरिष्ट<br />
|कुवलय नामक<br />कंस का हाथी<br />
|-<br />
|}<br />
<br />
[[युधिष्ठर|यम]], [[रुद्र]], काम और क्रोध-चारों के अंश से [[अश्वत्थामा]] <br />
<br />
भूमि का भार-हरण करने की प्रार्थना सुनकर हरि ने देवताओं को दो बाल दिये थे; एक काला-कृष्ण, दूसरा सफेद-[[बलराम]]।<br /><br />
(दे0 भा0, 4 । 20-25) <br />
<br />
श्रीकृष्ण परमात्मा है। उनके सोलहवें अंश का एक अंश, सौ करोड़ सूर्यों के प्रकाश से युक्त एक बालक होकर, मूलशक्ति प्रसूत डिंब में स्थापित था डिंब के दो भागों में विभक्त होने पर भूखा-प्यासा वह बालक रोने लगा। कालांतर में पूर्व संस्कार के बल से वह परम पुरुष श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न होकर हंसने लगा। श्रीकृष्ण उस बालक को आशीर्वाद देकर त्रैलोक्य चले गये। कृष्ण के आशीर्वाद से वह ज्ञानयुक्त हुआ। उसने विराट रूप धारण किया, उसी के नाभिकमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया तथा सृष्टि की रचना की। सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए। उस बालक के क्षुद्रांश से ही विष्णु ने उत्पन्न होकर सृष्टि का पालन किया । श्रीकृष्ण को चतुर्भुज नारायण से भिन्न माना गया है। कृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु , [[शिव|महेश]] के कारणभूत हैं। [[राधा]] सर्वशक्तिमति देवी हैं।<br /><br />
(दे0भा0, 8/3)<br />
<br />
==शिव पुराण==<br />
[[दुर्वासा]] कृष्ण की परीक्षा लेने गये। पर्याप्त आतिथ्य पाकर उन्होंने अपने रथ को कृष्ण तथा उनकी पत्नी [[रुक्मिणी]] से खिंचवाने की इच्छा प्रकट की। कृष्ण और रुक्मिणी के सहर्ष रथ खींचने से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कृष्ण को 'पायस' दी और कहा कि वे अपने बदन पर लगा लें। जहां-जहां यह लगेगी, वहां किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं लग पायेगा। कृष्ण ने वैसा ही किया।<br /> <br />
(शि0पु0, 44 ।7। 26) <br />
==महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण==<br />
===मंगलाचरण===<br />
[[महाभारत]] धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकों प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथारूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अन्धकारको विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रन्थके मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। इसलिये सम्पूर्ण महाभारत भगवान् वासुदेव के ही नाम, रूप लीला और धामका संकीर्तन है। नारायण के नाम से इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में व्यासजी ने सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण की ही वन्दना की है।<br />
===द्रौपदी स्वयंवर===<br />
महाभारत के [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]] में भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन [[द्रौपदी]]-स्वयंवर के अवसर पर होता है। अब [[अर्जुन]] के लक्ष्यवेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है। तब [[कौरव]]पक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिये युद्धकी योजना बनाते हैं उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि 'इन लोगों ने द्रौपदी को धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिये।' भगवान् श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शान्त हो गये और द्रौपदी के साथ [[पाण्डव]] सकुशल अपने निवास पर चले गये।<br />
[[चित्र:Bhishma1.jpg|[[महाभारत]] युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए|thumb|250px]]<br />
===प्रथम पूजनीय===<br />
धर्मराज [[युधिष्ठर]] के [[राजसूययज्ञ]] में जब यह प्रश्र उपस्थित हुआ कि यहाँ सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय तो उस समय महात्मा [[भीष्म]] ने कहा कि 'वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलयस्वरूप हैं और इस चराचर जगत् का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं।' भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निन्दा की और भीष्म पितामह को भी खरी-खोटी सुनायी। भगवान् श्री कृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरी रसे एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। इस अलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है। कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।<br />
===द्रौपदी===<br />
पाण्डवों के एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हीं की कृपा और युक्ति से ही [[भीम|भीमसेन]] के द्वारा जरासन्ध मारा गया और युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ सम्पन्न हुआ। राजसूय यज्ञ का दिव्य सभागार भी मय दानव ने भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से ही बनाया। द्यूत में पराजित हुए पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी जब भरी सभा में [[दु:शासन]] के द्वारा नग्न की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमाली ने वस्त्रावतार धारण किया। शाक का एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासा के कोप से पाण्डवों की रक्षा की।<br />
===शान्तिदूत===<br />
युद्ध को रोकने के लिये श्रीकृष्ण शान्तिदूत बने, किंतु [[दुर्योधन]] के अहंकार के कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूययज्ञके अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने। संग्राम भूमि में उन्होंने अर्जु नके माध्यम से विश्व को [[गीता]] रूपी दुर्लभ रत्न प्रदान किया। भीष्म, [[द्रोणाचार्य|द्रोण]], [[कर्ण]] और अश्वत्थामा-जैसे महारथियों के दिव्यास्त्रों से उन्होंने पाण्डवों की रक्षा की। युद्धका अन्त हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ। पाण्डवों का एकमात्र वंशधर उत्तरा का पुत्र [[परीक्षित]] अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से मृत उत्पन्न हुआ, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही उसे जीवनदान मिला। अन्त में [[गांधारी|गान्धारी]] के शाप को स्वीकार करके महाभारत के महानायक भगवान श्रीकृष्णने उद्दण्ड यादवकुल के परस्पर गृहयुद्ध में संहा रके साथ अपनी मानवी लीला का संवरण किया।<br />
<br />
==ऋग्वेद में कृष्ण==<br />
[[वेद|ऋग्वेद]] में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। कृष्ण सम्बन्धी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के ज़िलाने का श्रेय दिया गया है(ऋग्वेद 1।116।7,23)। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है (ऋग्वेद 8।86।1-5)। ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता [[अश्विनीकुमार|अश्विनीकुमारों]] से प्रार्थना की थी। <br />
<br />
कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का [[इन्द्र]] ने वध किया था (ऋग्वेद 1।101।1) ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। [[छान्दोग्य उपनिषद]] में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी थी जिसकी दक्षिणा, तप, दान, आर्जव, अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शान्त हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मण में भी मिलता है (30।9)। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है।<br />
<br />
==बौद्ध साहित्य==<br />
[[बौद्ध]] साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत [[जातक कथा|जातक]] में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है।<br />
==अनेक वृत्तान्त==<br />
===निपुण बलवान योद्धा=== <br />
महाभारत में कृष्ण सम्बन्धी अनेक वृत्तान्त मिलते हैं। भारत युद्ध में उनके पराक्रम, ऐश्वर्य और नीतिनैपुण्य के साथ उनके देवत्व का भी समन्वय पाया जाता है। सभापर्व में भीष्म द्वारा उनकी प्रशंसा समस्त [[वेद]]-[[वेदान्त]] के ज्ञाता तथा राजनीति में निपुण बलवान योद्धा के रूप में की गयी है। [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग पर्व]] में कहा गया है कि अर्जुन वज्रपाणि इन्द्र की अपेक्षा कृष्ण को अधिक पराक्रमी समझकर उन्हें युद्ध में अपनी ओर मिलाने में अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी स्थल पर कृष्ण के पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दस्युओं के संहार, दुर्धर्ष राजाओं के विनाश, रुक्मिणी के हरण, नगजित के पुत्रों की पराजय, सुदर्शनराजा की मुक्ति, पाण्डय के संहार, [[काशी]] नगरी के उद्धार, निषादों के राजा एकलव्य के वध, उग्रसेन के पुत्र सुनाम की मृत्यु आदि कार्यो का वर्णन किया गया है। देवताओं के द्वारा उन्हें अवध्यता का वरदान मिला था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही इन्द्र के घोड़े उच्चै:श्रवा के समान बली, [[यमुना नदी|यमुना]] के वन में रहने वाले हयराज को मार डाला था तथा वृष [[प्रलंब]], नरग, जृम्भ, मुर, [[कंस]] आदि का संहार किया था, जल देवता [[वरुण]] को पराजित किया था तथा पाताल वासी पंचजन को मारकर [[पान्चजन्य]] प्राप्त किया था। अपनी प्रिय पत्नी [[सत्यभामा]] की प्रसन्नता के लिए वे अमरावती से [[पारिजात]] लाये थे।<br />
<br />
===वासुदेव===<br />
महाभारत में प्राप्त कृष्ण सम्बन्धी इन सन्दर्भों से उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की सूचना मिलती है और ज्ञात होता है कि वे [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] वंशीय [[सात्वत]] जाति के पूज्य पुरुष थे। यह भी संकेत मिलता है कि महाभारत और पुराणों में वर्णित कृष्ण के चरित्र और किन्हीं ऐतिहासिक वासुदेव कृष्ण सम्बन्धी कथा में कुछ अन्तर अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाभारत और [[पुराण|पुराणों]] में अनेक स्थलों पर इस बात पर बल दिया गया है कि यही कृष्ण वास्तविक वासुदेव हैं, यही द्वितीय वासुदेव हैं। द्वितीय वासुदेव कहने का अभिप्राय यह था कि कुछ अन्य राजा भी अपने को द्वितीय वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध करने का यत्न करते थे। पौण्ड्र राजा पुरुषोत्तम और करवीरपुर के राजा श्रृगाल इसी प्रकार के व्यक्ति थे, जिन्हें मारकर कृष्ण ने सिद्ध किया कि उनका वासुदेवत्व मिथ्या है तथा वे ही स्चयं एकमात्र वासुदेव हैं।<br />
===पुराणों में कृष्ण===<br />
[[चित्र:Cover-Vishnu-Purana.jpg|thumb|[[विष्णु पुराण]], गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ]]<br />
[[महाभारत]], [[हरिवंश पुराण]] तथा [[विष्णु पुराण]], [[वायु पुराण]], [[वामन पुराण]], [[भागवत पुराण]] आदि पुराणों में कृष्ण की तुलना में इन्द्र की हीनता सिद्ध करने के लिए अनेक कथाएँ दी गयी हैं; परन्तु फिर भी [[गोवर्धन]] धारण के प्रसंग में उनके इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने और 'उपेन्द्र' नाम से स्वीकृत होने का उल्लेख हुआ है। पुराणों में विविध कथाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर कृष्ण की महत्ता और उसी अनुपात में इन्द्र की हीनता प्रमाणित की गयी है। महाभारत में कृष्ण के ऐश्वर्य और देवत्व का प्रचुर वर्णन है परन्तु उनके लालित्य और माधुर्य का कोई संकेत नहीं मिलता। महाभारत उनके गोप जीवन और [[गोपी]] प्रेम के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है। [[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]] के उस प्रसंग में भी, जिसे प्रक्षिप्त कहा जाता है और जिसमें शिशुपाल कृष्ण की निन्दा करते हुए उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वत्सासुर और कंस के वध तथा गोवर्द्धन धारण किये जाने का उल्लेख करता है, गोपियों से उनके प्रेम का कोई संकेत नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि गोपाल कृष्ण का ललित और मधुर चरित मूलत: महाभारत के कृष्ण के चरित से भिन्न था। पुराणों में वर्णित कृष्ण सम्बन्धी ललित कथाएँ उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गयी हैं। उदाहरण के लिए हरिवंश में जिसे 'वास्तव में महाभारत का परिशिष्ट कहा जाता है, उनके गोपाल रूप सम्बन्धी सन्दर्भ अतयन्त संक्षिप्त है। उनकी तुलना में उनके ऐश्वर्य रूप की भोग-विलास सम्बन्धी अनेक कथाएँ कहीं अधिक विस्तार से वर्णित हैं। विष्णु पुराण में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। किन्तु भागवत, [[पद्म पुराण]] , [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] तथा कुछ अन्य पुराणों में, जिन्हें परवर्ती कहा जा सकता है, गोपालकृष्ण सम्बन्धी कथन अधिक विस्तृत होने लगे हैं। पुराणों के भोग-ऐश्वर्य सम्बन्धी आख्यानों और गोप-गोपी लीला सम्बन्धी मधुर कथाओं में वातावरण का बहुत अन्तर पाया जाता है। यदि एक में घोर भौतिकता, विलासिता और नग्न ऐन्द्रियता है तो दूसरे में भावात्मक कोमलता, हार्दिक उत्फुल्लता, सूक्ष्म अनुभूति और अलौकिकता की ओर उन्मुख उदात्तता है।<br />
<br />
===शूरसेन प्रदेश===<br />
[[चित्र:Shursen-Map.jpg|thumb|300px|[[शूरसेन]] महाजनपद<br /> Shursen Great Realm]]<br />
अनुमान है कि गोपाल कृष्ण मूलत: [[शूरसेन]] प्रदेश के सात्वत वृष्णिवंशी पशुपालक क्षत्रियों के कुल देवता थे और उनके क्रीड़ा कौतुक की मनोरंजक कथाएँ मौखिक रूप में लोक-प्रचलित थीं। इन कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण कुछ पाषाण मूर्तियों और शिलापट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों में मिले है। मथुरा में प्राप्त एक खण्डित शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को एक सूप में सिर पर रखकर यमुना पार करते हुए दिखाये गये हैं। 5वीं शताब्दी ईसवी के एक दूसरे खण्डित शिलापट्ट में [[कालिय नाग|कालिय-दमन]] का दृश्य दिखाया गया है। यह छठी शताब्दी ईस्वी की अनुमान की गयी है। बंगाल के पहाड़पुर नामक स्थान में छठी शताब्दी की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें [[धेनुकासुर वध]], [[यमलार्जुन उद्धार]] तथा [[मृष्टिक चाणूर]] के साथ मल्ल-युद्ध के दृश्य दिखाये गये हैं। यहीं पर एक अन्य मूर्ति मिली है जिसमें कृष्ण को किसी गोपी के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। अनुमान किया गया है कि यह गोपी सम्भवत: [[राधा]] का सबसे प्राचीन मूर्तिगत प्रमाण प्रस्तुत करती है। राजस्थान के मण्डोर तथा बीकानेर के पास सूरतगढ़ में क्रमश: द्वारपाटों पर उत्कीर्ण गोवर्द्धन –धारण, नवनीत-चौर्य, [[शकटभंजन]] और कालिय-दमन के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं तथा गोवर्द्धन-धारण और दान-लीला का दृश्यांकन प्रस्तुत करने वाले कुछ सुन्दर मिट्टी के खिलौने प्राप्त हुए हैं। मण्डोर के चित्र चौथी-पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अनुमान किये गये हैं। दक्षिण भारत के बादामी के पहाड़ी क़िले पर कृष्ण-जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, कंस-वध आदि के अनेक दृश्य गुफ़ाओं में उत्कीर्ण मिले हैं। जो छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं<ref>(दे0 आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट 1926-27, 1905-6 तथा 1928-29 ई.)</ref>।<br />
==काव्य में कृष्ण==<br />
काव्य में गोपाल कृष्ण की लीला का पहला सन्दर्भ प्रथम शताब्दी ईसवी में रचित [[अश्वघोष]] के बुद्धिचरित' (1-5) में मिलता है। अनुमानत: प्रथम शताब्दी ईस्वी में हाल [[सातवाहन]] द्वारा संगृहीत 'गाहासत्तसई' (गाथा सप्तशती) में कई गाथाएँ कृष्ण, राधा, गोपी, [[यशोदा]] आदि से सम्बद्ध मिलती हैं <ref>(दे0 'गाहासत्तसई' 1।29, 5।47, 2।12, 2।14)</ref>। इन गाथाओं में कृष्ण द्वारा नारियों के गौरवहरण, मुखमारूत से राधिका के गोरज के अपनयन आदि के उल्लेख हुए हैं। इन उल्लेखों से सूचित होता है कि कृष्ण के गोपी-प्रेमसम्बन्धी प्रसंग कम से कम पहली शताब्दी ईस्वी के पहले से ही लोक-प्रचलित थे। यह अवश्य द्रष्टव्य है कि'गाहासत्तसई' में भक्ति भावना का कोई संकेत नहीं मिलता, उसका वातावरण सर्वथा लौकिक श्रृंगार का ही है परन्तु इससे भिन्न दक्षिण के आलवार सन्तों द्वारा रचित गीत पूर्णतया भक्ति भावना से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। इन सन्तों का समय पाँचवीं से नवीं शताब्दी ईसवी अनुमान किया गया है। आलवार सन्तों के इन गीतों में विष्णु , नारायण अथवा वासुदेव तथा उनके अवतारों-[[राम]] और कृष्ण के प्रति अपूर्व भक्ति –भाव प्रकट किया गया है। इनमें गोपाल-कृष्ण की ललित लीला के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जो उत्तर भारत के मध्यकालीन कृष्ण भक्ति- काव्य के प्रिय विषय रहे हैं। इन गीतों में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से सम्बद्ध एक नाप्पित्राय नामक गोपी का प्रमुख रूप समें वर्णन है। उसे कृष्ण की प्रियतमा और विष्णु की अर्द्धागिनी [[लक्ष्मी]] का अवतार कहा गया है। अनुमान है कि यह गोपी उत्तर भारत की कृष्णकथा में प्रयुक्त राधा ही है। राधाकृष्ण कथा की प्राचीनता की दृष्टि से तमिल साहित्य का यह प्रमाण महत्त्वपूर्ण है।<br />
===राधा के प्रेम सन्दर्भ===<br />
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|250px|[[राधा]]-[[कृष्ण]]]]<br />
आठवीं शंताब्दी में रचित भट्टानारायण के 'वेणीसंहार' नामक-नाटक में नांदीश्लोक में तथा वाकपति राज द्वारा लिखित प्राकृत महाकाव्य 'गउडवहो' के मंगलाचरण में कृष्ण की स्तुति उनके राधा और गोपी-प्रेम तथा यशोदा के वात्सल्यभाजन होने की स्पष्ट सूचना देती है। 'गउडवहो' में उन्हें 'विष्णुस्वरूप' और 'लक्ष्मीपति' भी कहा गया है। नवीं शताब्दी ईसवी के 'ध्वन्यालोक' में उद्धृत दो [[श्लोक|श्लोकों]] में कृष्ण और राधा के मधुर प्रेम के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दसवीं शताब्दी के त्रिविक्रम भट्ट रचित 'नलचम्पू' के एक श्लोक में परम पुरुष कृष्ण के साथ राधा के अनुराग का संकेत प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी की ही बल्लभदेव द्वारा रचित 'शिशुपालवध' की टीका तथा सोमदेवपूरि के 'यशस्यतिलकचम्पू' में भी राधा के प्रिय कृष्ण का जिस रूप में उल्लेख मिलता है उससे कृष्ण के गोपीवल्लभ रूप की सूचना प्राप्त होती है। <br />
===प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ===<br />
'कवीन्द्रवचन समुच्चय' नामक कवितासंग्रह भी दसवीं शताब्दी का माना गया है। इसमें संकलित अनेक श्लोकों में कृष्ण की गोपी और राधा सम्बन्धी प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ मिलता है जिनसे कृष्ण के यशोदा के वात्सल्य-भाजन, गोपियों के कान्त, गोपों के सृहृद् तथा राधा के अनन्य प्रेमभाजन व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। इन सभी सन्दर्भो में कृष्ण के दक्षिण और धृष्ट नायकत्व के भी स्पष्ट संकेत हैं। दशवीं शताब्दी तक राधा और कृष्ण के प्रति पूज्यभाव भी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण मालवाधीश वाक्पति मुंजपरमार के एक अभिलेख से भी मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका विष्णु रूप में वर्णन है और साथ ही उन्हे राधा के विरह में पीड़ित कहा गया है। दशवीं शताब्दी के आसपास रचित श्रीमद्भागवत में कृष्णचरित का व्यापक वर्णन है इसमें उनके सभी स्वरूपों का वर्णन और संकेत है।<br />
<br />
कृष्ण के व्यक्तित्व के लालित्य और माधुर्य के साथ उनके दैवत रूप की प्रतिष्ठा 12वीं शताब्दी तक और अधिक दृढ़ता के साथ हो गयी थी। इसका प्रमाण लीलाशुक द्वारा रचित 'कृष्णकर्णामृतस्तोत्र' ईश्वरपुरी द्वारा रचित 'श्रीकृष्णलीलामृत ' का श्रृगांर रस निश्चित रूप से माधुर्य भक्ति है। इसी प्रकार 'गीतगोविन्द' में राधा-माधव के जिस उद्दाम श्रृंगार का वर्णन किया गया है, उसकी मूल प्रेरणा भी धार्मिक है। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस प्रकार जिस लोकरंजनकारी लालित्य का उदात्तीकरण वैष्णव भक्ति के विकास में होता गया उसी की चरम परिणति हम परवर्ती साहित्य में पाते हैं।<br />
<br />
===असंख्य कथा प्रसंग===<br />
बारहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-काव्य मृक्तकों के अतिरिक्त प्रबन्धों के रूप में भी प्राप्त होता है। 'सदुक्तिकर्णामृत' नामक एक मुक्तक संग्रह 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ का हैं। जिसमें गोपाल कृष्ण की लीला से सम्बद्ध साठ श्लोक हैं। इन श्लोकों में गोपाल कृष्ण के शैशव, कैशोर और यौवन की ललित लीलाओं का ही वर्णन मिलता है। 13वी-14वी शताब्दी में रचित बोपदेव की 'हरिलीला' तथा वेदान्तदेशिककी 'यादवाभ्युदय' नामक रचनाएँ तथा पन्द्रहवीं शताब्दी की 'ब्रजबिहारी' (श्रीधरस्वामी), 'गोपलीला' (रामचन्द्र भट्ट), ' हरिचरित'-काव्य (चतुर्भुज), 'हरिविलास'-काव्य (ब्रजलोलिम्बराज), 'गोपालचरित' (पद्मनाभ), 'मुरारिविजय'- नाटक (कृष्ण भट्ट) और 'कंस-निधन' महाकाव्य (श्रीराम) आदि अनेक काव्य और नाटक गोपालकृष्ण के मधुर, ललित और पूज्य चरित का चित्रण करते हैं। 16वीं शताब्दी से कृष्णभक्ति आन्दोलन सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्याप्त हो गया और कृष्ण-काव्य आधुनिक भाषाओं में रचा जाने लगा। इस काव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत था, परन्तु साथ ही कवियों ने लोक में प्रचलित कृष्णसम्बन्धी उन असंख्य कथा प्रसंगों का भरपूर उपयोग किया जिनमें कृष्ण का चरित वात्सल्य, सख्य और माधुर्यव्यंजक लीलाओं से समन्वित रहा है।<br />
<br />
==सूरदास==<br />
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|[[सूरदास]], सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]|thumb|300px]]<br />
हिन्दी का कृष्ण-भक्ति काव्य यद्यपि [[सूरदास]] से प्रारम्भ होता है परन्तु इससे पहले 15वीं शताब्दी में [[विद्यापति]] ने अपने पदों में कृष्ण के श्रृंगारी रूप का जो वर्णन किया था उसकी प्रकृति भले ही लौकिक श्रृंगार की रही हो, उसका उपयोग भक्तों ने माधुर्य भक्ति के सन्दर्भों में ही किया। विद्यापति और हिन्दी के रीतिकालीन राधाकृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार –काव्य के बीच हिन्दी भक्तिकाव्य का एक लम्बा व्यवधान है जिसमें कृष्ण का व्यक्तित्व कवियों ने अत्यन्त कुशलता के साथ् मानव और अतिमानव के परस्पर विरोधी तत्त्वों से निर्मित कर चित्रित किया है। कृष्ण के इस चरित-चित्रण में बड़ी विलक्षणता है। एक ओर उन्हें विष्णु का अवतार, ब्रह्मा-विष्णु और महेश से परे तथा साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा गया है, तो दूसरी ओर उनकी शैशव, बाल्य और किशोरकाल की अत्यन्त मानवीय और स्वाभाविक लीला का मनोहर वर्णन किया गया है। हिन्दी कृष्ण-काव्य के रचयिताओं में कृष्ण का सम्यक् चरित्र-चित्रण वास्तव में सूरदास ने ही किया किन्तु सूरदास का चरित्र-चित्रण वस्तुत: भावांत्मक है। प्रधान रूप से उन्होंने कृष्ण को वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का आलम्बन बनाया है और इन भावों का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण करते हुए दैन्य और विस्मय के भावों के सहारे उनके प्रति पूज्य भावना व्यक्त की है।<br />
<br />
कृष्ण के चरित्र-चित्रण में सूर की अन्य विशेषता यह है कि यद्यपि वे नन्द-यशोदा, गोप-गोपी, आदि के साथ राग-रंग में आचूल मग्न रहते हैं, फिर भी उनके व्यवहार से व्यंजित होता है कि वास्तव में वे भावातीत और वीतराग हैं। कृष्ण के मथुरा और द्वारका-प्रवास तथा उनके प्रति ब्रजवासियों और विशेषकर गोपियों के विरह-भाव का वर्णन करते हुए सूरदास ने कृष्ण के इस विलक्षण व्यक्तित्व का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है। इसके द्वारा हमें गीता के योगिराज कृष्ण की अनासक्ति का व्यावहारिक परिचय मिलता है।<br />
<br />
सूरदास के अतिरिक्त अन्य कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के सम्पूर्ण चरित का चित्रण नहीं किया। बहुत थोड़े से कवियों ने कृष्ण के बाल्य और किशोरकाल के जीवन का परिचय दिया। अधिकांश कवि उनके माधुर्यपूर्ण चरित की ओर ही झुके और राधा और गोपियों के साथ उनके प्रेम सम्बन्धों के चित्रण में ही निमग्न रहें कृष्ण के प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों रूपों के चित्रण में अनेक कवियों ने तन्मयता प्रदर्शित की, परन्तु सूरदास ने उनमें वीतरागत्व और अनासक्ति के संकेतों तथा अन्य उपायों द्वारा जिस आध्यात्मिकता की उच्च काव्यमयी व्यंजना की थी, वह कोई अन्य कवि नहीं कर सका। सूरदास ने कृष्ण के असुर-संहारी रूप का भी विशद वर्णन किया था। यद्यपि उनके वर्णन में कृष्ण की वीरता और पराक्रम के स्थान पर उनके विस्मयकारी क्रीडा-कौतक की ही प्रधानता है, परन्तु उनका उद्देश्य जिस अलौकिक की व्यंजना करना था उसे परवर्ती कवि नहीं समझ सके। इस कारण उन्होंने कृष्ण-चरित के इस पक्ष की प्राय: उपेक्षा ही की। <br />
<br />
श्रीकृष्ण के सहज मानवीय श्रृंगारी रूप को सूरदास ने उनके प्रति दैन्य भावना व्यक्त करके तथा उनके अलौकिक कृत्यों के वर्णयन द्वारा विस्मय की व्यंजना करके उनके चरित में जिस उदात्तता का सन्निवेश किया था, परवर्ती कवियों ने उसे विस्मृत कर दिया और श्रीकृष्ण का चरित लगभग पूर्ण रूप में इहलौकिक हो गया और उसमें मानव व्यक्तित्व की संकुचित एकांगिता ही शेष रह गयी। फलत: जीवन की व्याख्या की कसौटी पर कसने पर वह अत्यन्त कल्पित और अयथार्थ लगता है, जैसे राग-रंग और आनन्द-विहार में लिप्त जीवन का कोई उद्देश्य ही न हो। वास्तव में तथ्य यही है कि कृष्ण-चरित जीवन के वास्तविक चित्रण अथवा आदर्श चित्रण के रूप में रचा ही नहीं गया, उनका चरित वास्तव में परब्रह्म की लीलामात्र हैं जिसका प्रयोजन लीलानन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। उसका उद्देश्य अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की व्यंजना करना ही हैं भक्त कवियों ने उस आनन्द का रूप स्त्री-आनन्द रूप में परम पुरुष हैं और उनकी परा शक्ति रूप प्रकृति स्वरूपा राधा हैं जिनके संयोग से ही परम आनंद की परिपूर्णता सिद्ध होती है।<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कृष्ण2}}<br />
{{कृष्ण}}<br />
[[en:Krishna References]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
[[Category:महाभारत]]<br />
[[Category:भगवान-अवतार]] <br />
[[Category: कोश]]<br />
__INDEX__</div>
शिल्पी
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कृष्ण संदर्भ
2010-09-28T05:49:56Z
<p>शिल्पी: /* विभिन्न प्रसंग */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==कृष्ण संदर्भ / [[:en:Krishna References|Krishna References]]==<br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए [[कृष्ण]]|250px]]<br />
==छान्दोग्य उपनिषद==<br />
कृष्ण- एक बार आंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र [[कृष्ण]] को यज्ञदर्शन सुनाया था। फलस्वरूप कृष्ण शेष समस्त विधाओं के प्रति तृष्णाहीन हो गये थे।(छा.उ., अध्याय 3,खंड 17, श्लोक 6)<br />
<br />
कृष्ण का मातृपरक नाम 'देवकीपुत्र' [[छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक|छान्दोग्य उप निषद् (3,17,6)]] में पाया जाता है।<br />
<br />
==विभिन्न प्रसंग== <br />
{{Tocright}} <br />
वे अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त ब्रह्म थे। मूलत: वे नारायण थे। वे स्वयंभू तथा संपूर्ण जगत के प्रपितामह थे। द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि, पृथ्वी रचण, [[अश्विनीकुमार]] नासिकास्थान, [[चंद्र देवता|चंद्र]] और [[सूर्य देवता|सूर्य]] नेत्र तथा विभिन्न [[देवता]] विभिन्न देहयष्टियां हैं। वे (ब्रह्म रूप) ही प्रलयकाल के अंत में [[ब्रह्मा]] के रूप में स्वयं प्रकट हुए तथा सृष्टि का विस्तार किया। [[रुद्र]] इत्यादि की सृष्टि करने के उपरांत वे लोकहित के लिए अनेक रूप धारण करके प्रकट होते रहे।<br />
<br />
श्रीकृष्ण के रूप में वही अव्यक्त नारायण व्यक्त रूप धारण करके अवतरित हुए। वे [[वसुदेव]] के पुत्र हुए। [[कंस]] के भय से वसुदेव उन्हें [[नंद]] गोप के यहाँ छोड़ आये। वहीं पलकर वे बड़े हुए। [[यशोदा]] (नंद की पत्नी) से उन्हें अद्भुत वात्सल्य की उपलब्धि हुई।<br /> <br />
(1) शिशुरूप में वे एक बार छकड़े नीचे सो रहे थे। यशोदा उन्हें वहां छोड़ यमुना तट गयी थी। बाल-लीला का प्रदर्शन करते हुए रोते हुए कृष्ण ने अपने पांव के अंगूठे से छकड़े को धक्का दिया तो वह उलट गया। उस पर रखे समस्त मटके चूर-चूर हो गये।<br /> <br />
(2) देवताओं के देखते-देखते उन्होंने [[पूतना-वध|पूतना]] को मार डाला।<br /> <br />
(3) वे अपने बड़े भाई संकर्षण ([[बलराम|बलदेव]]) के साथ खेलते-कूदते बड़े हुए। सात वर्ष की अवस्था में गोचारण के लिए जाया करते थे। एक बार मक्खन चुराकर खाने के दंडस्वरूप मां (यशोदा) ने उन्हें ऊखल में बांध दिया। कृष्ण ने उस ऊखल को [[यमल]] तथा अर्जुन नामक दो वृक्षों के बीच में फंसाकर इतने जोर से खींचा कि वे दोनों वृक्ष भूमिसात हो गये। इस प्रकार उन वृक्षो पर रहनेवाले दो राक्षसों को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(4) वे दोनों भाई ग्वालोचित वेशधारी वन में पिपिहरी तथा [[बांसुरी]] बजाकर आमोद-प्रमोद के साथ गायों को चराते थे। कृष्ण पीले और बलराम नीले वस्त्र धारण करते थे। वे पत्तों के मुकुट पहन लेते। कभी-कभी रस्सी का [[यज्ञोपवीत]] भी धारण कर लेते थे। वे गोप बालकों के आकर्षण का केंद्रबिंदु थे।<br /> <br />
(5) उन्होंने [[कदम्ब]]वन के पास हृद (कुण्ड) में रहने वाले [[कालिय नाग|कालिया नाग]] के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी तथा अन्यत्रा जाने का आदेश दिया था।<br /> <br />
(6) गोपाल बालकों द्वारा किये सर्वभूत स्त्रष्ट ईश्वर स्वरूप को प्रकट किया तथा [[गिरिराज]] को समर्पित होने वाली खीर वे स्वयं खा गये। तब से [[गोपगण]] उनकी पूजा करने लगे।<br /> <br />
(7) जब [[इन्द्र]] ने वर्षा की थी तब श्रीकृष्ण ने गौओं की रक्षा के निमित्त एक सप्ताह तक [[गोवर्धन]] पर्वत को अपने हाथ पर उठाए रखा था। इन्द्र ने प्रसन्न होकर उन्हें गोविंद नाम दिया।<br /> <br />
(8) श्रीकृष्ण ने पशुओं की हितकामना से वृक्ष रूप-धारी [[अरिष्ट नामक दैत्य]] का संहार किया।<br /> <br />
(9) ब्रजनिवासी [[केशी नामक दैत्य]] का संहार किया। उस दैत्य का शरीर घोड़े जैसा और बल दस हज़ार हाथियों के समान था।<br /> <br />
(10) [[कंस]] के दरबार में रहने वाले चाणूर नामक मल्ल को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(11) कंस के भाई तथा सेनापति शत्रुनाशक का भी उन्होंने नाश कर डाला।<br /><br />
(12) कंस के [[कुवलयापीड़]] नामक हाथी को भी उन्होंने मार गिराया।<br /><br />
(13) कंस को मारकर उन्होंने [[उग्रसेन]] का राज्याभिषेक कर दिया।<br /><br />
(14) [[उज्जयिनी]] में दोनों भाइयों ने वेद विद्याध्ययन किया। धनुर्विद्या सीखने वे सांदीपनि के पास गये। [[सांदीपनि]] ने गुरु-दक्षिणा में अपने पुत्र को वापस मांगा, जिसे कोई समुद्री जंतु खा गया था। श्रीकृष्ण ने समुद्र में रहने वाले उस दैत्य का संहार कर दिया तथा गुरुपुत्र को पुनर्जीवनदान दिया जो कि वर्षों पूर्व यमलोक में जा चुका था। कृष्ण के कृपाप्रसाद से उसने पूर्ववत् अपना शरीर धारण किया।<br /><br />
(15)श्रीकृष्ण ने [[नरकासुर]] (भौमासुर) को मार डाला।<br />
(16) श्रीकृष्ण ने [[उषा अनिरुद्ध]] का मिलन करवाया, [[बाणासुर]] को मारा।<br /><br />
(17) उन्होंने रूक्मी को पराजित करके [[रुक्मिणी]] का हरण किया।<br /><br />
(18) इन्द्र को परास्त करके [[परिजात वृक्ष]] का अपहरण किया।<br />
<br />
==महाभारत- उद्योगपर्व, द्रोणपर्व==<br />
<br />
स्वयंवर में गांधारराज की राजकुमारी को प्राप्त किया था। विवाहोपरांत उनके रथ में अच्छी नस्ल के घोड़ो की तरह से राजाओं को जोता गया था। द्यूतक्रीड़ा के उपरांत [[पांडव|पांडवों]] के वनवास काल में [[कौरव|कौरवों]]-पांडवों के [[महाभारत|युद्ध]] की संभावना देख श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए उनकी सभा में गये। कृष्ण के साथ [[धृतराष्ट्र]], [[गांधारी]], [[विदुर]], [[सात्यकि]] इत्यादि सभी इस मत के थे कि पांडवों का राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए तथा उनसे संधि कर, शांति स्थापित करनी चाहिए; किंतु [[दुर्योधन]] उसके लिए तैयार न था। उसने [[शकुनि]] तथा [[कर्ण]] से सलाह करके कृष्ण को बंदी बना लेने का निश्चय किया। सात्यकि को विदित हुआ तो उसने सभासदों के सम्मुख ही कृष्ण को इस तथ्य की सूचना दी। <br />
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]|left]]<br />
कृष्ण ने क्रुद्ध होकर अपना विश्व रूप (विराट् रूप) प्रदर्शित किया। कृष्ण की दाहिनी बांह पर [[अर्जुन]], वायीं बांह पर [[बलराम|हलधर]], वक्ष पर [[शिव]] तथा अंग-प्रत्यंग पर विभिन्न देवी-देवता साक्षात् दिखलायी दिए। कृष्ण के अट्टहास से भूमंडल कांप उठा। शरीर से ज्वाला प्रस्फुटित हुई तथा सब ओर अनेक देवता और योद्धाओं के दर्शन होने लगे। ऐसे रूप के दर्शन दे, कृष्ण ने वहां से प्रस्थान किया। [[महाभारत]] युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के सारथी का कार्यभार संभाला था। [[अभिमन्यु]] की मृत्यु के उपरांत कृष्ण ने अपने-आप स्वीकार किया कि अर्जुन (नर) नारायण (श्रीकृष्ण) का आधा शरीर है। युद्ध में पांडवों की विजय के उपरांत वे लोग कृष्ण सहित [[कुरुक्षेत्र]] में रहे। जब तक [[सूर्य देवता|सूर्य]] उत्तरायण नहीं हो गया, [[भीष्म]] पितामह नित्य ही उन्हें दान, धर्म, कर्तव्य का उपदेश देते रहे। उनके स्वर्गारोहण उपरांत पांडवों को [[हस्तिनापुर]] छोड़ते हुए कृष्ण अपने माता-पिता के दर्शन करने [[द्वारका|द्वारकापुरी]] चले गये।<br /><br />
(म0भा0, उद्योगपर्व, 130-131, [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]] 79)<br />
<br />
श्रीकृष्ण इस प्रकार क्रीड़ा करते हैं जैसे मनुष्य खिलौनें से क्रीड़ा करता है। संपूर्ण चराचर भूत नारायण से उद्भूत है। पानी के बुद्बुद्वत् उसी में लीन हो जाता है।<br /><br />
(म0भा0, सभापर्व, अध्याय 38)<br />
<br />
==हरिवंश पुराण==<br />
कृष्ण और बलराम ने अनुभव किया कि [[ब्रज]]भूमि की वनश्री बच्चों की क्रीड़ा , गोपों की फल-सब्जी बेचने के लिए उपज तथा गौओं के क्षारयुक्त मल इत्यादि से नष्ट हो गयी है। इस कारण से उन्होंने निश्चय किया कि [[गोवर्धन]] पर्वत से युक्त [[कदम्ब]] इत्यादि वृक्षों से अपूरित [[वृन्दावन]] में जाकर रहना चाहिए। कृष्ण ने अपने रोम-रोम से भयानक भेड़ियों को उत्पन्न किया। उनको देखकर गोप-[[गोपी|गोपांगनाएं]] तथा गायें अत्यंत त्रस्त होकर ब्रजभूमि छोड़ने के लिए तुरंत तैयार हो गये। लोग वृन्दावन में जा बसे।<br /> <br />
(हरिवंश [[पुराण]], विष्णुपर्व ।8-9)<br />
==श्रीमद भागवत==<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]]]<br />
कंस की कारागार में वसुदेव के यहाँ भगवान ने कृष्ण-रूप में अवतार लिया। दस वर्ष तक बलराम के साथ ऐसे रहे कि उनकी कीर्ति वृन्दावन से बाहर नहीं गयी। वे गाय चराते तथा बांसुरी बजाकर सबको रिझाते थे। खेल-खेल में उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया, कंस को उठाकर पटक दिया। कृष्ण ने अपनी शक्ति योगमाया से भौमासुर की लाई राजकन्याओं से एक ही मुहूर्त में अलग-अलग महलों में विधिवत् पाणिग्रहण संस्कार संपादित किया। एक बार नंद ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया तथा रात्रि में [[यमुना नदी|यमुना]] में स्नान करने लगे। वह असुरों की वेला थी। अत: एक असुर उन्हें पकड़कर वरुण के पास ले गया। कृष्ण वरुण के पास गये तथा नंद बाबा को वापस ले आये।<br />
<br />
नारद ने कंस को जाकर बताया कि कृष्ण वसुदेव का बेटा है तथा बलराम [[रोहिणी]] का। वे दोनों छिपाकर नंद के यहाँ रखे गये हैं। कंस ने कृष्ण को अपनी भावी मृत्यु का कारण मानकर वसुदेव तथा देवकी को पुन: कैद कर लिया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उन्हें कैद से छुड़ाया। [[यदु]]वंशियों को [[ययाति]] का शाप था कि वे कभी शासन नहीं कर पायेंगे। अत: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन से शासन ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण और बलराम ने नंद से कहा-"पिताजी, आपका वात्सल्य अपूर्व है। आपने तथा यशोदा ने अपने बालकों के समान ही हमें स्नेह दिया। आप ब्रज जाइए। हम लोग भी यहाँ का काम निपटाकर आपसे मिलने आयेंगे।" वे दोनों [[अवंती]]पुर (उज्जैन) निवासी गुरुवर संदीपनि के गुरुकुल में रहकर उनकी सेवा करने लगे। चौंसठ दिन में उन दोनों ने [[चौंसठ कलाएँ|चौंसठ कलाओं]] में निपुणता प्राप्त की तथा संदीपनि को गुरु-दक्षिणास्वरूप उसका मृत पुत्र पुन: लौटाकर वे दोनों मथुरा लौट गये।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 3।3।-,10।28।-,10।44।–)<br />
<br />
श्रीकृष्ण के अनेक विवाह हुए थे। (कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।) उनकी श्रुतकीर्ति नामक बूआ का विवाह केकय देश में हुआ था। उनकी कन्या का नाम था भद्रा जिसका विवाह उसके भाई सन्तर्दन आदि ने कृष्ण से कर दिया था। मद्र देश की राजकुमारी सुलक्षणा को कृष्ण ने स्वयंवर में हर लिया था। इनके अतिरिक्त [[भौमासुर]] को मारकर अनेक सुंदरियों को वे कैद से छुड़ा लाये थे।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 10।56, 57, 58)<br />
<br />
एक बार सूर्य-ग्रहण के अवसर पर [[भारत]] के विभिन्न प्रांतों की जनता कुरुक्षेत्र पहुंची। वहां वसुदेव, कृष्ण और बलराम से नंद, यशोदा, गोप-गोपियों आदि का सम्मिलन हुआ। कृष्ण ने [[गोपी|गोपियों]] आदि को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दियां उन्हीं दिनों वसुदेव के यज्ञोत्सव का आयोजन था। उस संदर्भ में नंद बाबा, यशोदा तथा पांडव-परिवार के अधिकांश सदस्य तीन माह तक द्वारका में ठहरे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0 10 । 82-84)<br />
<br />
एक बार कृष्ण अपने दो भक्तों पर विशेष प्रसन्न हुए। उनमें से एक तो मिथिला निवासी गृहस्थी ब्राह्मण श्रुतदेव था और दूसरा मिथिला का राजा बहुलाश्व था। श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण करके एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए तथा दोनों भक्तों ने भगवत्स्वरूप प्राप्त किया।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, ।10।86।13-)<br />
<br />
[[ब्रह्मा]] की प्रार्थना पर [[विष्णु]] ने हंस का रूप धारण करके सनकादि के चित्त तथा गुणों के अनैक्य के विषय में उपदेश दिया था। यदुवंशियों के संहार के उपरांत जरा नामक व्याध को निमिंत्त बनाकर श्रीकृष्ण ने स्वधाम में प्रवेश कियां उन्हें अपने धाम में प्रवेश करते कोई भी देवता देख नहीं पाया। श्रीकृष्ण की कृपा से उनके शरीर पर प्रहार करने वाला व्याध सदेह स्वर्ग चला गया। <br />
नश्वर शरीर के त्यागोपरांत वसुदेव, अर्जुन आदि बहुत दुखी हुए। सब उनकी अलौकिक लीलाओं को स्मरण करते रहे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, 11।13।15-42/- 11 । 30/-)<br />
<br />
==देवी भागवत==<br />
कृष्ण-कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से [[कामधेनु]] मांगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए। देवी भागवत में [[दिति]] और [[अदिति]] को [[दक्ष]] कन्या माना गया है। अदिति का पुत्र [[इन्द्र]] था जिसने मां की प्रेरणा से दिति के गर्भ के 49 भाग कर दिए थे जो मरूत हुए। अदिति से रुष्ट होकर दिति ने शाप दिया था-'जिस प्रकार गुप्त रूप से तूने मेरा गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करवाया है उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्म लेकर तू बार-बार मृतवत्सा होगी।' फलत: उसने [[देवकी]] के रूप में जन्म लिया।<br />
<br />
विष्णु ने देवताओं की रक्षा करने के निमित्त [[भृगु]] की पत्नी ([[शुकदेव|शुक]] की मां) का हनन किया था अत: भृगु के शापवश उन्होंने पृथ्वी पर बार-बार जन्म लिया। [[नर-नारायण]] अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। अप्सराएं राजकुमारियों के रूप में जन्मीं तथा कृष्ण की पत्नियां हुई।<br />
<br />
दैत्य [[मधु]] का पुत्र [[लवणासुर|लवण]] ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से पीड़ित कर रहा था। [[लक्ष्मण]] के भाई [[शत्रुघ्न]] ने उस दैत्य को मारकर [[मथुरा]] नामक नगरी की स्थापना की। कालांतर में [[सूर्यवंश]] क्षीण हो गया। [[ययाति]] कुलोत्पन्न यादवों ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। यादवराज [[शूरसेन]] के पुत्र का नाम वसुदेव था। वह वरुण के शाप तथा कश्यप के अंश से उत्पन्न हुआ था। शूरसेन की मृत्यु के उपरांत [[उग्रसेन]] को राज्य की प्राप्ति हुई। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। देवक राजा की कन्या का नाम [[देवकी]] था। उसका जन्म वरुण के शाप तथा अदिति के अंश से हुआ था। देवक ने उसका विवाह [[वसुदेव]] से कर दिया। विवाह होते ही आकाशवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान कंस को मार डालेगी। कंस ने देवकी के बाल पकड़कर उसे मारने के लिए खड्ग उठा लिया। वसुदेव के वीर साथियों से [[कंस]] का युद्ध होने लगा। यादवों ने कंस को समझा-बुझाकर शांत किया कि अपनी बहन पर हाथ उठाना उचित नहीं है। हो सकता है, किसी शत्रु ने ही यह आकाशवाणी रची हो। वसुदेव ने कहा कि वह अपनी प्रत्येक संतान कंस को अर्पित कर देगा। इस शर्त पर कंस ने उसे छोड़ दिया। <br />
<br />
वसुदेव देवकी को लेकर अपने घर चला गया। प्रथम पुत्र उत्पन्न होने पर वसुदेव पुत्र सहित कंस के पास पहुंचा। कंस ने 'प्रथम बालक से नहीं, अष्टम बालक से भय है' कहकर बालक उसे लौटा दिया, किंतु तभी [[नारद]] ने वहां पहुंचकर कंस को समझाया कि गिनती कहां से शुरू करके किस बालक को अष्टम माना जायेगा, नहीं कहा जा सकता। यह सुनकर कंस ने बालक को शिला पर पटककर मार डाला। इसी प्रकार देवकी के छह पुत्र मारे गये। वे छहों शापवश जन्मते ही नष्ट हो गये। पूर्वकाल में ब्रह्मा अपनी कन्या के प्रति कामुक हो उठे थे। रमण करते हुए ब्रह्मा को देख महर्षि मरीचि के (उर्णा नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न) छह पुत्रों ने उनका परिहास किया था। इससे रुष्ट होकर ब्रह्मा ने उन्हें असुर योनि में जन्म लेने का शाप दिया था। फलत: पहले वे [[कालनेमि]] के पुत्र हुए, फिर हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए। दूसरे जन्म में ज्ञान विच्युत न होने के कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा था कि हवे मनवांछित देवता अथवा [[गंधर्व]] हो जायें ! वर पाकर वे लोग तो प्रसन्न हुए। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्रों को ब्रह्मा का प्रिय जान क्रोधावेश में कहा-"तुम पाताल में जाकर निद्रा में पड़े रहोगे। पृथ्वी पर षड्गर्क नाम से प्रसिद्ध होगे। देवकी के गर्भ से जन्म लेकर कालनेमि के वंश से उत्पन्न कंस के हाथों मारे जाओगे।" देवकी के सातवें गर्भ में अनंत देव आये। योगमाया ने योग-बल से इस गर्भ का आकर्षण करके उसे [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थापित किया। भौतिक दृष्टि से देवकी का गर्भपात मान लिया गया। तदनंतर विष्णु के अंशावतार कृष्ण ने अष्टम् पुत्र के रूप में जन्म लिया। योगमाया ने स्वेच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया। अन्य पात्रों के जन्म के मूलांश की <br />
[[चित्र:Jarasandh1.jpg|[[भीम]]-जरासंध युद्ध|thumb|200px]]<br />
'''तालिका निम्नलिखित है:'''<br />
<br />
{| border="1" cellpadding="10"<br />
! मूलांश <br />
! कृष्ण-कथा के पात्र <br />
|-<br />
|[[हिरण्यकशिपु]]<br />
|[[शिशुपाल]]<br />
|-<br />
|विप्रचित्त <br />
|[[जरासंध]] <br />
|-<br />
|[[प्रह्लाद]] <br />
|[[शल्य]]<br />
|-<br />
|खर<br />
|[[लंबक तथा धेनुक]]<br />
|-<br />
|वाराह और किशोर<br />
|[[चाणूर और मुष्टिक]]<br />
|-<br />
|दिति पुत्र अरिष्ट<br />
|कुवलय नामक<br />कंस का हाथी<br />
|-<br />
|}<br />
<br />
[[युधिष्ठर|यम]], [[रुद्र]], काम और क्रोध-चारों के अंश से [[अश्वत्थामा]] <br />
<br />
भूमि का भार-हरण करने की प्रार्थना सुनकर हरि ने देवताओं को दो बाल दिये थे; एक काला-कृष्ण, दूसरा सफेद-[[बलराम]]।<br /><br />
(दे0 भा0, 4 । 20-25) <br />
<br />
श्रीकृष्ण परमात्मा है। उनके सोलहवें अंश का एक अंश, सौ करोड़ सूर्यों के प्रकाश से युक्त एक बालक होकर, मूलशक्ति प्रसूत डिंब में स्थापित था डिंब के दो भागों में विभक्त होने पर भूखा-प्यासा वह बालक रोने लगा। कालांतर में पूर्व संस्कार के बल से वह परम पुरुष श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न होकर हंसने लगा। श्रीकृष्ण उस बालक को आशीर्वाद देकर त्रैलोक्य चले गये। कृष्ण के आशीर्वाद से वह ज्ञानयुक्त हुआ। उसने विराट रूप धारण किया, उसी के नाभिकमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया तथा सृष्टि की रचना की। सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए। उस बालक के क्षुद्रांश से ही विष्णु ने उत्पन्न होकर सृष्टि का पालन किया । श्रीकृष्ण को चतुर्भुज नारायण से भिन्न माना गया है। कृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु , [[शिव|महेश]] के कारणभूत हैं। [[राधा]] सर्वशक्तिमति देवी हैं।<br /><br />
(दे0भा0, 8/3)<br />
<br />
==शिव पुराण==<br />
[[दुर्वासा]] कृष्ण की परीक्षा लेने गये। पर्याप्त आतिथ्य पाकर उन्होंने अपने रथ को कृष्ण तथा उनकी पत्नी [[रुक्मिणी]] से खिंचवाने की इच्छा प्रकट की। कृष्ण और रुक्मिणी के सहर्ष रथ खींचने से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कृष्ण को 'पायस' दी और कहा कि वे अपने बदन पर लगा लें। जहां-जहां यह लगेगी, वहां किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं लग पायेगा। कृष्ण ने वैसा ही किया।<br /> <br />
(शि0पु0, 44 ।7। 26) <br />
==महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण==<br />
===मंगलाचरण===<br />
[[महाभारत]] धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकों प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथारूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अन्धकारको विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रन्थके मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। इसलिये सम्पूर्ण महाभारत भगवान् वासुदेव के ही नाम, रूप लीला और धामका संकीर्तन है। नारायण के नाम से इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में व्यासजी ने सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण की ही वन्दना की है।<br />
===द्रौपदी स्वयंवर===<br />
महाभारत के [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]] में भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन [[द्रौपदी]]-स्वयंवर के अवसर पर होता है। अब [[अर्जुन]] के लक्ष्यवेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है। तब [[कौरव]]पक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिये युद्धकी योजना बनाते हैं उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि 'इन लोगों ने द्रौपदी को धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिये।' भगवान् श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शान्त हो गये और द्रौपदी के साथ [[पाण्डव]] सकुशल अपने निवास पर चले गये।<br />
[[चित्र:Bhishma1.jpg|[[महाभारत]] युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए|thumb|250px]]<br />
===प्रथम पूजनीय===<br />
धर्मराज [[युधिष्ठर]] के [[राजसूययज्ञ]] में जब यह प्रश्र उपस्थित हुआ कि यहाँ सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय तो उस समय महात्मा [[भीष्म]] ने कहा कि 'वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलयस्वरूप हैं और इस चराचर जगत् का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं।' भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निन्दा की और भीष्म पितामह को भी खरी-खोटी सुनायी। भगवान् श्री कृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरी रसे एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। इस अलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है। कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।<br />
===द्रौपदी===<br />
पाण्डवों के एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हीं की कृपा और युक्ति से ही [[भीम|भीमसेन]] के द्वारा जरासन्ध मारा गया और युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ सम्पन्न हुआ। राजसूय यज्ञ का दिव्य सभागार भी मय दानव ने भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से ही बनाया। द्यूत में पराजित हुए पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी जब भरी सभा में [[दु:शासन]] के द्वारा नग्न की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमाली ने वस्त्रावतार धारण किया। शाक का एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासा के कोप से पाण्डवों की रक्षा की।<br />
===शान्तिदूत===<br />
युद्ध को रोकने के लिये श्रीकृष्ण शान्तिदूत बने, किंतु [[दुर्योधन]] के अहंकार के कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूययज्ञके अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने। संग्राम भूमि में उन्होंने अर्जु नके माध्यम से विश्व को [[गीता]] रूपी दुर्लभ रत्न प्रदान किया। भीष्म, [[द्रोणाचार्य|द्रोण]], [[कर्ण]] और अश्वत्थामा-जैसे महारथियों के दिव्यास्त्रों से उन्होंने पाण्डवों की रक्षा की। युद्धका अन्त हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ। पाण्डवों का एकमात्र वंशधर उत्तरा का पुत्र [[परीक्षित]] अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से मृत उत्पन्न हुआ, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही उसे जीवनदान मिला। अन्त में [[गांधारी|गान्धारी]] के शाप को स्वीकार करके महाभारत के महानायक भगवान श्रीकृष्णने उद्दण्ड यादवकुल के परस्पर गृहयुद्ध में संहा रके साथ अपनी मानवी लीला का संवरण किया।<br />
<br />
==ऋग्वेद में कृष्ण==<br />
[[वेद|ऋग्वेद]] में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। कृष्ण सम्बन्धी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के ज़िलाने का श्रेय दिया गया है(ऋग्वेद 1।116।7,23)। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है (ऋग्वेद 8।86।1-5)। ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता [[अश्विनीकुमार|अश्विनीकुमारों]] से प्रार्थना की थी। <br />
<br />
कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का [[इन्द्र]] ने वध किया था (ऋग्वेद 1।101।1) ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। [[छान्दोग्य उपनिषद]] में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी थी जिसकी दक्षिणा, तप, दान, आर्जव, अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शान्त हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मण में भी मिलता है (30।9)। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है।<br />
<br />
==बौद्ध साहित्य==<br />
[[बौद्ध]] साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत [[जातक कथा|जातक]] में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है।<br />
==अनेक वृत्तान्त==<br />
===निपुण बलवान योद्धा=== <br />
महाभारत में कृष्ण सम्बन्धी अनेक वृत्तान्त मिलते हैं। भारत युद्ध में उनके पराक्रम, ऐश्वर्य और नीतिनैपुण्य के साथ उनके देवत्व का भी समन्वय पाया जाता है। सभापर्व में भीष्म द्वारा उनकी प्रशंसा समस्त [[वेद]]-[[वेदान्त]] के ज्ञाता तथा राजनीति में निपुण बलवान योद्धा के रूप में की गयी है। [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग पर्व]] में कहा गया है कि अर्जुन वज्रपाणि इन्द्र की अपेक्षा कृष्ण को अधिक पराक्रमी समझकर उन्हें युद्ध में अपनी ओर मिलाने में अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी स्थल पर कृष्ण के पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दस्युओं के संहार, दुर्धर्ष राजाओं के विनाश, रुक्मिणी के हरण, नगजित के पुत्रों की पराजय, सुदर्शनराजा की मुक्ति, पाण्डय के संहार, [[काशी]] नगरी के उद्धार, निषादों के राजा एकलव्य के वध, उग्रसेन के पुत्र सुनाम की मृत्यु आदि कार्यो का वर्णन किया गया है। देवताओं के द्वारा उन्हें अवध्यता का वरदान मिला था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही इन्द्र के घोड़े उच्चै:श्रवा के समान बली, [[यमुना नदी|यमुना]] के वन में रहने वाले हयराज को मार डाला था तथा वृष [[प्रलंब]], नरग, जृम्भ, मुर, [[कंस]] आदि का संहार किया था, जल देवता [[वरुण]] को पराजित किया था तथा पाताल वासी पंचजन को मारकर [[पान्चजन्य]] प्राप्त किया था। अपनी प्रिय पत्नी [[सत्यभामा]] की प्रसन्नता के लिए वे अमरावती से [[पारिजात]] लाये थे।<br />
<br />
===वासुदेव===<br />
महाभारत में प्राप्त कृष्ण सम्बन्धी इन सन्दर्भों से उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की सूचना मिलती है और ज्ञात होता है कि वे [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] वंशीय [[सात्वत]] जाति के पूज्य पुरुष थे। यह भी संकेत मिलता है कि महाभारत और पुराणों में वर्णित कृष्ण के चरित्र और किन्हीं ऐतिहासिक वासुदेव कृष्ण सम्बन्धी कथा में कुछ अन्तर अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाभारत और [[पुराण|पुराणों]] में अनेक स्थलों पर इस बात पर बल दिया गया है कि यही कृष्ण वास्तविक वासुदेव हैं, यही द्वितीय वासुदेव हैं। द्वितीय वासुदेव कहने का अभिप्राय यह था कि कुछ अन्य राजा भी अपने को द्वितीय वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध करने का यत्न करते थे। पौण्ड्र राजा पुरुषोत्तम और करवीरपुर के राजा श्रृगाल इसी प्रकार के व्यक्ति थे, जिन्हें मारकर कृष्ण ने सिद्ध किया कि उनका वासुदेवत्व मिथ्या है तथा वे ही स्चयं एकमात्र वासुदेव हैं।<br />
===पुराणों में कृष्ण===<br />
[[चित्र:Cover-Vishnu-Purana.jpg|thumb|[[विष्णु पुराण]], गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ]]<br />
[[महाभारत]], [[हरिवंश पुराण]] तथा [[विष्णु पुराण]], [[वायु पुराण]], [[वामन पुराण]], [[भागवत पुराण]] आदि पुराणों में कृष्ण की तुलना में इन्द्र की हीनता सिद्ध करने के लिए अनेक कथाएँ दी गयी हैं; परन्तु फिर भी [[गोवर्धन]] धारण के प्रसंग में उनके इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने और 'उपेन्द्र' नाम से स्वीकृत होने का उल्लेख हुआ है। पुराणों में विविध कथाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर कृष्ण की महत्ता और उसी अनुपात में इन्द्र की हीनता प्रमाणित की गयी है। महाभारत में कृष्ण के ऐश्वर्य और देवत्व का प्रचुर वर्णन है परन्तु उनके लालित्य और माधुर्य का कोई संकेत नहीं मिलता। महाभारत उनके गोप जीवन और [[गोपी]] प्रेम के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है। [[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]] के उस प्रसंग में भी, जिसे प्रक्षिप्त कहा जाता है और जिसमें शिशुपाल कृष्ण की निन्दा करते हुए उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वत्सासुर और कंस के वध तथा गोवर्द्धन धारण किये जाने का उल्लेख करता है, गोपियों से उनके प्रेम का कोई संकेत नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि गोपाल कृष्ण का ललित और मधुर चरित मूलत: महाभारत के कृष्ण के चरित से भिन्न था। पुराणों में वर्णित कृष्ण सम्बन्धी ललित कथाएँ उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गयी हैं। उदाहरण के लिए हरिवंश में जिसे 'वास्तव में महाभारत का परिशिष्ट कहा जाता है, उनके गोपाल रूप सम्बन्धी सन्दर्भ अतयन्त संक्षिप्त है। उनकी तुलना में उनके ऐश्वर्य रूप की भोग-विलास सम्बन्धी अनेक कथाएँ कहीं अधिक विस्तार से वर्णित हैं। विष्णु पुराण में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। किन्तु भागवत, [[पद्म पुराण]] , [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] तथा कुछ अन्य पुराणों में, जिन्हें परवर्ती कहा जा सकता है, गोपालकृष्ण सम्बन्धी कथन अधिक विस्तृत होने लगे हैं। पुराणों के भोग-ऐश्वर्य सम्बन्धी आख्यानों और गोप-गोपी लीला सम्बन्धी मधुर कथाओं में वातावरण का बहुत अन्तर पाया जाता है। यदि एक में घोर भौतिकता, विलासिता और नग्न ऐन्द्रियता है तो दूसरे में भावात्मक कोमलता, हार्दिक उत्फुल्लता, सूक्ष्म अनुभूति और अलौकिकता की ओर उन्मुख उदात्तता है।<br />
<br />
===शूरसेन प्रदेश===<br />
[[चित्र:Shursen-Map.jpg|thumb|300px|[[शूरसेन]] महाजनपद<br /> Shursen Great Realm]]<br />
अनुमान है कि गोपाल कृष्ण मूलत: [[शूरसेन]] प्रदेश के सात्वत वृष्णिवंशी पशुपालक क्षत्रियों के कुल देवता थे और उनके क्रीड़ा कौतुक की मनोरंजक कथाएँ मौखिक रूप में लोक-प्रचलित थीं। इन कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण कुछ पाषाण मूर्तियों और शिलापट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों में मिले है। मथुरा में प्राप्त एक खण्डित शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को एक सूप में सिर पर रखकर यमुना पार करते हुए दिखाये गये हैं। 5वीं शताब्दी ईसवी के एक दूसरे खण्डित शिलापट्ट में [[कालिय नाग|कालिय-दमन]] का दृश्य दिखाया गया है। यह छठी शताब्दी ईस्वी की अनुमान की गयी है। बंगाल के पहाड़पुर नामक स्थान में छठी शताब्दी की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें [[धेनुकासुर वध]], [[यमलार्जुन उद्धार]] तथा [[मृष्टिक चाणूर]] के साथ मल्ल-युद्ध के दृश्य दिखाये गये हैं। यहीं पर एक अन्य मूर्ति मिली है जिसमें कृष्ण को किसी गोपी के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। अनुमान किया गया है कि यह गोपी सम्भवत: [[राधा]] का सबसे प्राचीन मूर्तिगत प्रमाण प्रस्तुत करती है। राजस्थान के मण्डोर तथा बीकानेर के पास सूरतगढ़ में क्रमश: द्वारपाटों पर उत्कीर्ण गोवर्द्धन –धारण, नवनीत-चौर्य, [[शकटभंजन]] और कालिय-दमन के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं तथा गोवर्द्धन-धारण और दान-लीला का दृश्यांकन प्रस्तुत करने वाले कुछ सुन्दर मिट्टी के खिलौने प्राप्त हुए हैं। मण्डोर के चित्र चौथी-पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अनुमान किये गये हैं। दक्षिण भारत के बादामी के पहाड़ी क़िले पर कृष्ण-जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, कंस-वध आदि के अनेक दृश्य गुफ़ाओं में उत्कीर्ण मिले हैं। जो छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं<ref>(दे0 आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट 1926-27, 1905-6 तथा 1928-29 ई.)</ref>।<br />
==काव्य में कृष्ण==<br />
काव्य में गोपाल कृष्ण की लीला का पहला सन्दर्भ प्रथम शताब्दी ईसवी में रचित [[अश्वघोष]] के बुद्धिचरित' (1-5) में मिलता है। अनुमानत: प्रथम शताब्दी ईस्वी में हाल [[सातवाहन]] द्वारा संगृहीत 'गाहासत्तसई' (गाथा सप्तशती) में कई गाथाएँ कृष्ण, राधा, गोपी, [[यशोदा]] आदि से सम्बद्ध मिलती हैं <ref>(दे0 'गाहासत्तसई' 1।29, 5।47, 2।12, 2।14)</ref>। इन गाथाओं में कृष्ण द्वारा नारियों के गौरवहरण, मुखमारूत से राधिका के गोरज के अपनयन आदि के उल्लेख हुए हैं। इन उल्लेखों से सूचित होता है कि कृष्ण के गोपी-प्रेमसम्बन्धी प्रसंग कम से कम पहली शताब्दी ईस्वी के पहले से ही लोक-प्रचलित थे। यह अवश्य द्रष्टव्य है कि'गाहासत्तसई' में भक्ति भावना का कोई संकेत नहीं मिलता, उसका वातावरण सर्वथा लौकिक श्रृंगार का ही है परन्तु इससे भिन्न दक्षिण के आलवार सन्तों द्वारा रचित गीत पूर्णतया भक्ति भावना से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। इन सन्तों का समय पाँचवीं से नवीं शताब्दी ईसवी अनुमान किया गया है। आलवार सन्तों के इन गीतों में विष्णु , नारायण अथवा वासुदेव तथा उनके अवतारों-[[राम]] और कृष्ण के प्रति अपूर्व भक्ति –भाव प्रकट किया गया है। इनमें गोपाल-कृष्ण की ललित लीला के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जो उत्तर भारत के मध्यकालीन कृष्ण भक्ति- काव्य के प्रिय विषय रहे हैं। इन गीतों में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से सम्बद्ध एक नाप्पित्राय नामक गोपी का प्रमुख रूप समें वर्णन है। उसे कृष्ण की प्रियतमा और विष्णु की अर्द्धागिनी [[लक्ष्मी]] का अवतार कहा गया है। अनुमान है कि यह गोपी उत्तर भारत की कृष्णकथा में प्रयुक्त राधा ही है। राधाकृष्ण कथा की प्राचीनता की दृष्टि से तमिल साहित्य का यह प्रमाण महत्त्वपूर्ण है।<br />
===राधा के प्रेम सन्दर्भ===<br />
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|250px|[[राधा]]-[[कृष्ण]]]]<br />
आठवीं शंताब्दी में रचित भट्टानारायण के 'वेणीसंहार' नामक-नाटक में नांदीश्लोक में तथा वाकपति राज द्वारा लिखित प्राकृत महाकाव्य 'गउडवहो' के मंगलाचरण में कृष्ण की स्तुति उनके राधा और गोपी-प्रेम तथा यशोदा के वात्सल्यभाजन होने की स्पष्ट सूचना देती है। 'गउडवहो' में उन्हें 'विष्णुस्वरूप' और 'लक्ष्मीपति' भी कहा गया है। नवीं शताब्दी ईसवी के 'ध्वन्यालोक' में उद्धृत दो [[श्लोक|श्लोकों]] में कृष्ण और राधा के मधुर प्रेम के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दसवीं शताब्दी के त्रिविक्रम भट्ट रचित 'नलचम्पू' के एक श्लोक में परम पुरुष कृष्ण के साथ राधा के अनुराग का संकेत प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी की ही बल्लभदेव द्वारा रचित 'शिशुपालवध' की टीका तथा सोमदेवपूरि के 'यशस्यतिलकचम्पू' में भी राधा के प्रिय कृष्ण का जिस रूप में उल्लेख मिलता है उससे कृष्ण के गोपीवल्लभ रूप की सूचना प्राप्त होती है। <br />
===प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ===<br />
'कवीन्द्रवचन समुच्चय' नामक कवितासंग्रह भी दसवीं शताब्दी का माना गया है। इसमें संकलित अनेक श्लोकों में कृष्ण की गोपी और राधा सम्बन्धी प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ मिलता है जिनसे कृष्ण के यशोदा के वात्सल्य-भाजन, गोपियों के कान्त, गोपों के सृहृद् तथा राधा के अनन्य प्रेमभाजन व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। इन सभी सन्दर्भो में कृष्ण के दक्षिण और धृष्ट नायकत्व के भी स्पष्ट संकेत हैं। दशवीं शताब्दी तक राधा और कृष्ण के प्रति पूज्यभाव भी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण मालवाधीश वाक्पति मुंजपरमार के एक अभिलेख से भी मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका विष्णु रूप में वर्णन है और साथ ही उन्हे राधा के विरह में पीड़ित कहा गया है। दशवीं शताब्दी के आसपास रचित श्रीमद्भागवत में कृष्णचरित का व्यापक वर्णन है इसमें उनके सभी स्वरूपों का वर्णन और संकेत है।<br />
<br />
कृष्ण के व्यक्तित्व के लालित्य और माधुर्य के साथ उनके दैवत रूप की प्रतिष्ठा 12वीं शताब्दी तक और अधिक दृढ़ता के साथ हो गयी थी। इसका प्रमाण लीलाशुक द्वारा रचित 'कृष्णकर्णामृतस्तोत्र' ईश्वरपुरी द्वारा रचित 'श्रीकृष्णलीलामृत ' का श्रृगांर रस निश्चित रूप से माधुर्य भक्ति है। इसी प्रकार 'गीतगोविन्द' में राधा-माधव के जिस उद्दाम श्रृंगार का वर्णन किया गया है, उसकी मूल प्रेरणा भी धार्मिक है। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस प्रकार जिस लोकरंजनकारी लालित्य का उदात्तीकरण वैष्णव भक्ति के विकास में होता गया उसी की चरम परिणति हम परवर्ती साहित्य में पाते हैं।<br />
<br />
===असंख्य कथा प्रसंग===<br />
बारहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-काव्य मृक्तकों के अतिरिक्त प्रबन्धों के रूप में भी प्राप्त होता है। 'सदुक्तिकर्णामृत' नामक एक मुक्तक संग्रह 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ का हैं। जिसमें गोपाल कृष्ण की लीला से सम्बद्ध साठ श्लोक हैं। इन श्लोकों में गोपाल कृष्ण के शैशव, कैशोर और यौवन की ललित लीलाओं का ही वर्णन मिलता है। 13वी-14वी शताब्दी में रचित बोपदेव की 'हरिलीला' तथा वेदान्तदेशिककी 'यादवाभ्युदय' नामक रचनाएँ तथा पन्द्रहवीं शताब्दी की 'ब्रजबिहारी' (श्रीधरस्वामी), 'गोपलीला' (रामचन्द्र भट्ट), ' हरिचरित'-काव्य (चतुर्भुज), 'हरिविलास'-काव्य (ब्रजलोलिम्बराज), 'गोपालचरित' (पद्मनाभ), 'मुरारिविजय'- नाटक (कृष्ण भट्ट) और 'कंस-निधन' महाकाव्य (श्रीराम) आदि अनेक काव्य और नाटक गोपालकृष्ण के मधुर, ललित और पूज्य चरित का चित्रण करते हैं। 16वीं शताब्दी से कृष्णभक्ति आन्दोलन सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्याप्त हो गया और कृष्ण-काव्य आधुनिक भाषाओं में रचा जाने लगा। इस काव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत था, परन्तु साथ ही कवियों ने लोक में प्रचलित कृष्णसम्बन्धी उन असंख्य कथा प्रसंगों का भरपूर उपयोग किया जिनमें कृष्ण का चरित वात्सल्य, सख्य और माधुर्यव्यंजक लीलाओं से समन्वित रहा है।<br />
<br />
==सूरदास==<br />
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|[[सूरदास]], सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]|thumb|300px]]<br />
हिन्दी का कृष्ण-भक्ति काव्य यद्यपि [[सूरदास]] से प्रारम्भ होता है परन्तु इससे पहले 15वीं शताब्दी में [[विद्यापति]] ने अपने पदों में कृष्ण के श्रृंगारी रूप का जो वर्णन किया था उसकी प्रकृति भले ही लौकिक श्रृंगार की रही हो, उसका उपयोग भक्तों ने माधुर्य भक्ति के सन्दर्भों में ही किया। विद्यापति और हिन्दी के रीतिकालीन राधाकृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार –काव्य के बीच हिन्दी भक्तिकाव्य का एक लम्बा व्यवधान है जिसमें कृष्ण का व्यक्तित्व कवियों ने अत्यन्त कुशलता के साथ् मानव और अतिमानव के परस्पर विरोधी तत्त्वों से निर्मित कर चित्रित किया है। कृष्ण के इस चरित-चित्रण में बड़ी विलक्षणता है। एक ओर उन्हें विष्णु का अवतार, ब्रह्मा-विष्णु और महेश से परे तथा साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा गया है, तो दूसरी ओर उनकी शैशव, बाल्य और किशोरकाल की अत्यन्त मानवीय और स्वाभाविक लीला का मनोहर वर्णन किया गया है। हिन्दी कृष्ण-काव्य के रचयिताओं में कृष्ण का सम्यक् चरित्र-चित्रण वास्तव में सूरदास ने ही किया किन्तु सूरदास का चरित्र-चित्रण वस्तुत: भावांत्मक है। प्रधान रूप से उन्होंने कृष्ण को वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का आलम्बन बनाया है और इन भावों का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण करते हुए दैन्य और विस्मय के भावों के सहारे उनके प्रति पूज्य भावना व्यक्त की है।<br />
<br />
कृष्ण के चरित्र-चित्रण में सूर की अन्य विशेषता यह है कि यद्यपि वे नन्द-यशोदा, गोप-गोपी, आदि के साथ राग-रंग में आचूल मग्न रहते हैं, फिर भी उनके व्यवहार से व्यंजित होता है कि वास्तव में वे भावातीत और वीतराग हैं। कृष्ण के मथुरा और द्वारका-प्रवास तथा उनके प्रति ब्रजवासियों और विशेषकर गोपियों के विरह-भाव का वर्णन करते हुए सूरदास ने कृष्ण के इस विलक्षण व्यक्तित्व का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है। इसके द्वारा हमें गीता के योगिराज कृष्ण की अनासक्ति का व्यावहारिक परिचय मिलता है।<br />
<br />
सूरदास के अतिरिक्त अन्य कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के सम्पूर्ण चरित का चित्रण नहीं किया। बहुत थोड़े से कवियों ने कृष्ण के बाल्य और किशोरकाल के जीवन का परिचय दिया। अधिकांश कवि उनके माधुर्यपूर्ण चरित की ओर ही झुके और राधा और गोपियों के साथ उनके प्रेम सम्बन्धों के चित्रण में ही निमग्न रहें कृष्ण के प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों रूपों के चित्रण में अनेक कवियों ने तन्मयता प्रदर्शित की, परन्तु सूरदास ने उनमें वीतरागत्व और अनासक्ति के संकेतों तथा अन्य उपायों द्वारा जिस आध्यात्मिकता की उच्च काव्यमयी व्यंजना की थी, वह कोई अन्य कवि नहीं कर सका। सूरदास ने कृष्ण के असुर-संहारी रूप का भी विशद वर्णन किया था। यद्यपि उनके वर्णन में कृष्ण की वीरता और पराक्रम के स्थान पर उनके विस्मयकारी क्रीडा-कौतक की ही प्रधानता है, परन्तु उनका उद्देश्य जिस अलौकिक की व्यंजना करना था उसे परवर्ती कवि नहीं समझ सके। इस कारण उन्होंने कृष्ण-चरित के इस पक्ष की प्राय: उपेक्षा ही की। <br />
<br />
श्रीकृष्ण के सहज मानवीय श्रृंगारी रूप को सूरदास ने उनके प्रति दैन्य भावना व्यक्त करके तथा उनके अलौकिक कृत्यों के वर्णयन द्वारा विस्मय की व्यंजना करके उनके चरित में जिस उदात्तता का सन्निवेश किया था, परवर्ती कवियों ने उसे विस्मृत कर दिया और श्रीकृष्ण का चरित लगभग पूर्ण रूप में इहलौकिक हो गया और उसमें मानव व्यक्तित्व की संकुचित एकांगिता ही शेष रह गयी। फलत: जीवन की व्याख्या की कसौटी पर कसने पर वह अत्यन्त कल्पित और अयथार्थ लगता है, जैसे राग-रंग और आनन्द-विहार में लिप्त जीवन का कोई उद्देश्य ही न हो। वास्तव में तथ्य यही है कि कृष्ण-चरित जीवन के वास्तविक चित्रण अथवा आदर्श चित्रण के रूप में रचा ही नहीं गया, उनका चरित वास्तव में परब्रह्म की लीलामात्र हैं जिसका प्रयोजन लीलानन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। उसका उद्देश्य अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की व्यंजना करना ही हैं भक्त कवियों ने उस आनन्द का रूप स्त्री-आनन्द रूप में परम पुरुष हैं और उनकी परा शक्ति रूप प्रकृति स्वरूपा राधा हैं जिनके संयोग से ही परम आनंद की परिपूर्णता सिद्ध होती है।<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
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{{कृष्ण}}<br />
[[en:Krishna References]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
[[Category:महाभारत]]<br />
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शिल्पी
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कृष्ण संदर्भ
2010-09-28T05:47:46Z
<p>शिल्पी: /* सूरदास */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==कृष्ण संदर्भ / [[:en:Krishna References|Krishna References]]==<br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए [[कृष्ण]]|250px]]<br />
==छान्दोग्य उपनिषद==<br />
कृष्ण- एक बार आंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र [[कृष्ण]] को यज्ञदर्शन सुनाया था। फलस्वरूप कृष्ण शेष समस्त विधाओं के प्रति तृष्णाहीन हो गये थे।(छा.उ., अध्याय 3,खंड 17, श्लोक 6)<br />
<br />
कृष्ण का मातृपरक नाम 'देवकीपुत्र' [[छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक|छान्दोग्य उप निषद् (3,17,6)]] में पाया जाता है।<br />
<br />
==विभिन्न प्रसंग== <br />
{{Tocright}} <br />
वे अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त ब्रह्म थे। मूलत: वे नारायण थे। वे स्वयंभू तथा संपूर्ण जगत के प्रपितामह थे। द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि, पृथ्वी रचण, [[अश्विनीकुमार]] नासिकास्थान, [[चंद्र देवता|चंद्र]] और [[सूर्य देवता|सूर्य]] नेत्र तथा विभिन्न [[देवता]] विभिन्न देहयष्टियां हैं। वे (ब्रह्म रूप) ही प्रलयकाल के अंत में [[ब्रह्मा]] के रूप में स्वयं प्रकट हुए तथा सृष्टि का विस्तार किया। [[रुद्र]] इत्यादि की सृष्टि करने के उपरांत वे लोकहित के लिए अनेक रूप धारण करके प्रकट होते रहे।<br />
<br />
श्रीकृष्ण के रूप में वही अव्यक्त नारायण व्यक्त रूप धारण करके अवतरित हुए। वे [[वसुदेव]] के पुत्र हुए। [[कंस]] के भय से वसुदेव उन्हें [[नंद]] गोप के यहाँ छोड़ आये। वहीं पलकर वे बड़े हुए। [[यशोदा]] (नंद की पत्नी) से उन्हें अद्भुत वात्सल्य की उपलब्धि हुई।<br /> <br />
(1) शिशुरूप में वे एक बार छकड़े नीचे सो रहे थे। यशोदा उन्हें वहां छोड़ यमुना तट गयी थी। बाल-लीला का प्रदर्शन करते हुए रोते हुए कृष्ण ने अपने पांव के अंगूठे से छकड़े को धक्का दिया तो वह उलट गया। उस पर रखे समस्त मटके चूर-चूर हो गये।<br /> <br />
(2) देवताओं के देखते-देखते उन्होंने [[पूतना-वध|पूतना]] को मार डाला।<br /> <br />
(3) वे अपने बड़े भाई संकर्षण ([[बलराम|बलदेव]]) के साथ खेलते-कूदते बड़े हुए। सात वर्ष की अवस्था में गोचारण के लिए जाया करते थे। एक बार मक्खन चुराकर खाने के दंडस्वरूप मां (यशोदा) ने उन्हें ऊखल में बांध दिया। कृष्ण ने उस ऊखल को [[यमल तथा अर्जुन]] नामक दो वृक्षों के बीच में फंसाकर इतने जोर से खींचा कि वे दोनों वृक्ष भूमिसात हो गये। इस प्रकार उन वृक्षो पर रहनेवाले दो राक्षसों को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(4) वे दोनों भाई ग्वालोचित वेशधारी वन में पिपिहरी तथा [[बांसुरी]] बजाकर आमोद-प्रमोद के साथ गायों को चराते थे। कृष्ण पीले और बलराम नीले वस्त्र धारण करते थे। वे पत्तों के मुकुट पहन लेते। कभी-कभी रस्सी का [[यज्ञोपवीत]] भी धारण कर लेते थे। वे गोप बालकों के आकर्षण का केंद्रबिंदु थे।<br /> <br />
(5) उन्होंने [[कदम्ब]]वन के पास हृद (कुण्ड) में रहने वाले [[कालिय नाग|कालिया नाग]] के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी तथा अन्यत्रा जाने का आदेश दिया था।<br /> <br />
(6) गोपाल बालकों द्वारा किये सर्वभूत स्त्रष्ट ईश्वर स्वरूप को प्रकट किया तथा [[गिरिराज]] को समर्पित होने वाली खीर वे स्वयं खा गये। तब से [[गोपगण]] उनकी पूजा करने लगे।<br /> <br />
(7) जब [[इन्द्र]] ने वर्षा की थी तब श्रीकृष्ण ने गौओं की रक्षा के निमित्त एक सप्ताह तक [[गोवर्धन]] पर्वत को अपने हाथ पर उठाए रखा था। इन्द्र ने प्रसन्न होकर उन्हें गोविंद नाम दिया।<br /> <br />
(8) श्रीकृष्ण ने पशुओं की हितकामना से वृक्ष रूप-धारी [[अरिष्ट नामक दैत्य]] का संहार किया।<br /> <br />
(9) ब्रजनिवासी [[केशी नामक दैत्य]] का संहार किया। उस दैत्य का शरीर घोड़े जैसा और बल दस हज़ार हाथियों के समान था।<br /> <br />
(10) [[कंस]] के दरबार में रहने वाले चाणूर नामक मल्ल को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(11) कंस के भाई तथा सेनापति शत्रुनाशक का भी उन्होंने नाश कर डाला।<br /><br />
(12) कंस के [[कुवलयापीड़]] नामक हाथी को भी उन्होंने मार गिराया।<br /><br />
(13) कंस को मारकर उन्होंने [[उग्रसेन]] का राज्याभिषेक कर दिया।<br /><br />
(14) [[उज्जयिनी]] में दोनों भाइयों ने वेद विद्याध्ययन किया। धनुर्विद्या सीखने वे सांदीपनि के पास गये। [[सांदीपनि]] ने गुरु-दक्षिणा में अपने पुत्र को वापस मांगा, जिसे कोई समुद्री जंतु खा गया था। श्रीकृष्ण ने समुद्र में रहने वाले उस दैत्य का संहार कर दिया तथा गुरुपुत्र को पुनर्जीवनदान दिया जो कि वर्षों पूर्व यमलोक में जा चुका था। कृष्ण के कृपाप्रसाद से उसने पूर्ववत् अपना शरीर धारण किया।<br /><br />
(15)श्रीकृष्ण ने [[नरकासुर]] (भौमासुर) को मार डाला।<br />
(16) श्रीकृष्ण ने [[उषा अनिरुद्ध]] का मिलन करवाया, [[बाणासुर]] को मारा।<br /><br />
(17) उन्होंने रूक्मी को पराजित करके [[रुक्मिणी]] का हरण किया।<br /><br />
(18) इन्द्र को परास्त करके [[परिजात वृक्ष]] का अपहरण किया।<br />
<br />
==महाभारत- उद्योगपर्व, द्रोणपर्व==<br />
<br />
स्वयंवर में गांधारराज की राजकुमारी को प्राप्त किया था। विवाहोपरांत उनके रथ में अच्छी नस्ल के घोड़ो की तरह से राजाओं को जोता गया था। द्यूतक्रीड़ा के उपरांत [[पांडव|पांडवों]] के वनवास काल में [[कौरव|कौरवों]]-पांडवों के [[महाभारत|युद्ध]] की संभावना देख श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए उनकी सभा में गये। कृष्ण के साथ [[धृतराष्ट्र]], [[गांधारी]], [[विदुर]], [[सात्यकि]] इत्यादि सभी इस मत के थे कि पांडवों का राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए तथा उनसे संधि कर, शांति स्थापित करनी चाहिए; किंतु [[दुर्योधन]] उसके लिए तैयार न था। उसने [[शकुनि]] तथा [[कर्ण]] से सलाह करके कृष्ण को बंदी बना लेने का निश्चय किया। सात्यकि को विदित हुआ तो उसने सभासदों के सम्मुख ही कृष्ण को इस तथ्य की सूचना दी। <br />
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]|left]]<br />
कृष्ण ने क्रुद्ध होकर अपना विश्व रूप (विराट् रूप) प्रदर्शित किया। कृष्ण की दाहिनी बांह पर [[अर्जुन]], वायीं बांह पर [[बलराम|हलधर]], वक्ष पर [[शिव]] तथा अंग-प्रत्यंग पर विभिन्न देवी-देवता साक्षात् दिखलायी दिए। कृष्ण के अट्टहास से भूमंडल कांप उठा। शरीर से ज्वाला प्रस्फुटित हुई तथा सब ओर अनेक देवता और योद्धाओं के दर्शन होने लगे। ऐसे रूप के दर्शन दे, कृष्ण ने वहां से प्रस्थान किया। [[महाभारत]] युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के सारथी का कार्यभार संभाला था। [[अभिमन्यु]] की मृत्यु के उपरांत कृष्ण ने अपने-आप स्वीकार किया कि अर्जुन (नर) नारायण (श्रीकृष्ण) का आधा शरीर है। युद्ध में पांडवों की विजय के उपरांत वे लोग कृष्ण सहित [[कुरुक्षेत्र]] में रहे। जब तक [[सूर्य देवता|सूर्य]] उत्तरायण नहीं हो गया, [[भीष्म]] पितामह नित्य ही उन्हें दान, धर्म, कर्तव्य का उपदेश देते रहे। उनके स्वर्गारोहण उपरांत पांडवों को [[हस्तिनापुर]] छोड़ते हुए कृष्ण अपने माता-पिता के दर्शन करने [[द्वारका|द्वारकापुरी]] चले गये।<br /><br />
(म0भा0, उद्योगपर्व, 130-131, [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]] 79)<br />
<br />
श्रीकृष्ण इस प्रकार क्रीड़ा करते हैं जैसे मनुष्य खिलौनें से क्रीड़ा करता है। संपूर्ण चराचर भूत नारायण से उद्भूत है। पानी के बुद्बुद्वत् उसी में लीन हो जाता है।<br /><br />
(म0भा0, सभापर्व, अध्याय 38)<br />
<br />
==हरिवंश पुराण==<br />
कृष्ण और बलराम ने अनुभव किया कि [[ब्रज]]भूमि की वनश्री बच्चों की क्रीड़ा , गोपों की फल-सब्जी बेचने के लिए उपज तथा गौओं के क्षारयुक्त मल इत्यादि से नष्ट हो गयी है। इस कारण से उन्होंने निश्चय किया कि [[गोवर्धन]] पर्वत से युक्त [[कदम्ब]] इत्यादि वृक्षों से अपूरित [[वृन्दावन]] में जाकर रहना चाहिए। कृष्ण ने अपने रोम-रोम से भयानक भेड़ियों को उत्पन्न किया। उनको देखकर गोप-[[गोपी|गोपांगनाएं]] तथा गायें अत्यंत त्रस्त होकर ब्रजभूमि छोड़ने के लिए तुरंत तैयार हो गये। लोग वृन्दावन में जा बसे।<br /> <br />
(हरिवंश [[पुराण]], विष्णुपर्व ।8-9)<br />
==श्रीमद भागवत==<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]]]<br />
कंस की कारागार में वसुदेव के यहाँ भगवान ने कृष्ण-रूप में अवतार लिया। दस वर्ष तक बलराम के साथ ऐसे रहे कि उनकी कीर्ति वृन्दावन से बाहर नहीं गयी। वे गाय चराते तथा बांसुरी बजाकर सबको रिझाते थे। खेल-खेल में उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया, कंस को उठाकर पटक दिया। कृष्ण ने अपनी शक्ति योगमाया से भौमासुर की लाई राजकन्याओं से एक ही मुहूर्त में अलग-अलग महलों में विधिवत् पाणिग्रहण संस्कार संपादित किया। एक बार नंद ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया तथा रात्रि में [[यमुना नदी|यमुना]] में स्नान करने लगे। वह असुरों की वेला थी। अत: एक असुर उन्हें पकड़कर वरुण के पास ले गया। कृष्ण वरुण के पास गये तथा नंद बाबा को वापस ले आये।<br />
<br />
नारद ने कंस को जाकर बताया कि कृष्ण वसुदेव का बेटा है तथा बलराम [[रोहिणी]] का। वे दोनों छिपाकर नंद के यहाँ रखे गये हैं। कंस ने कृष्ण को अपनी भावी मृत्यु का कारण मानकर वसुदेव तथा देवकी को पुन: कैद कर लिया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उन्हें कैद से छुड़ाया। [[यदु]]वंशियों को [[ययाति]] का शाप था कि वे कभी शासन नहीं कर पायेंगे। अत: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन से शासन ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण और बलराम ने नंद से कहा-"पिताजी, आपका वात्सल्य अपूर्व है। आपने तथा यशोदा ने अपने बालकों के समान ही हमें स्नेह दिया। आप ब्रज जाइए। हम लोग भी यहाँ का काम निपटाकर आपसे मिलने आयेंगे।" वे दोनों [[अवंती]]पुर (उज्जैन) निवासी गुरुवर संदीपनि के गुरुकुल में रहकर उनकी सेवा करने लगे। चौंसठ दिन में उन दोनों ने [[चौंसठ कलाएँ|चौंसठ कलाओं]] में निपुणता प्राप्त की तथा संदीपनि को गुरु-दक्षिणास्वरूप उसका मृत पुत्र पुन: लौटाकर वे दोनों मथुरा लौट गये।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 3।3।-,10।28।-,10।44।–)<br />
<br />
श्रीकृष्ण के अनेक विवाह हुए थे। (कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।) उनकी श्रुतकीर्ति नामक बूआ का विवाह केकय देश में हुआ था। उनकी कन्या का नाम था भद्रा जिसका विवाह उसके भाई सन्तर्दन आदि ने कृष्ण से कर दिया था। मद्र देश की राजकुमारी सुलक्षणा को कृष्ण ने स्वयंवर में हर लिया था। इनके अतिरिक्त [[भौमासुर]] को मारकर अनेक सुंदरियों को वे कैद से छुड़ा लाये थे।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 10।56, 57, 58)<br />
<br />
एक बार सूर्य-ग्रहण के अवसर पर [[भारत]] के विभिन्न प्रांतों की जनता कुरुक्षेत्र पहुंची। वहां वसुदेव, कृष्ण और बलराम से नंद, यशोदा, गोप-गोपियों आदि का सम्मिलन हुआ। कृष्ण ने [[गोपी|गोपियों]] आदि को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दियां उन्हीं दिनों वसुदेव के यज्ञोत्सव का आयोजन था। उस संदर्भ में नंद बाबा, यशोदा तथा पांडव-परिवार के अधिकांश सदस्य तीन माह तक द्वारका में ठहरे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0 10 । 82-84)<br />
<br />
एक बार कृष्ण अपने दो भक्तों पर विशेष प्रसन्न हुए। उनमें से एक तो मिथिला निवासी गृहस्थी ब्राह्मण श्रुतदेव था और दूसरा मिथिला का राजा बहुलाश्व था। श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण करके एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए तथा दोनों भक्तों ने भगवत्स्वरूप प्राप्त किया।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, ।10।86।13-)<br />
<br />
[[ब्रह्मा]] की प्रार्थना पर [[विष्णु]] ने हंस का रूप धारण करके सनकादि के चित्त तथा गुणों के अनैक्य के विषय में उपदेश दिया था। यदुवंशियों के संहार के उपरांत जरा नामक व्याध को निमिंत्त बनाकर श्रीकृष्ण ने स्वधाम में प्रवेश कियां उन्हें अपने धाम में प्रवेश करते कोई भी देवता देख नहीं पाया। श्रीकृष्ण की कृपा से उनके शरीर पर प्रहार करने वाला व्याध सदेह स्वर्ग चला गया। <br />
नश्वर शरीर के त्यागोपरांत वसुदेव, अर्जुन आदि बहुत दुखी हुए। सब उनकी अलौकिक लीलाओं को स्मरण करते रहे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, 11।13।15-42/- 11 । 30/-)<br />
<br />
==देवी भागवत==<br />
कृष्ण-कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से [[कामधेनु]] मांगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए। देवी भागवत में [[दिति]] और [[अदिति]] को [[दक्ष]] कन्या माना गया है। अदिति का पुत्र [[इन्द्र]] था जिसने मां की प्रेरणा से दिति के गर्भ के 49 भाग कर दिए थे जो मरूत हुए। अदिति से रुष्ट होकर दिति ने शाप दिया था-'जिस प्रकार गुप्त रूप से तूने मेरा गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करवाया है उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्म लेकर तू बार-बार मृतवत्सा होगी।' फलत: उसने [[देवकी]] के रूप में जन्म लिया।<br />
<br />
विष्णु ने देवताओं की रक्षा करने के निमित्त [[भृगु]] की पत्नी ([[शुकदेव|शुक]] की मां) का हनन किया था अत: भृगु के शापवश उन्होंने पृथ्वी पर बार-बार जन्म लिया। [[नर-नारायण]] अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। अप्सराएं राजकुमारियों के रूप में जन्मीं तथा कृष्ण की पत्नियां हुई।<br />
<br />
दैत्य [[मधु]] का पुत्र [[लवणासुर|लवण]] ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से पीड़ित कर रहा था। [[लक्ष्मण]] के भाई [[शत्रुघ्न]] ने उस दैत्य को मारकर [[मथुरा]] नामक नगरी की स्थापना की। कालांतर में [[सूर्यवंश]] क्षीण हो गया। [[ययाति]] कुलोत्पन्न यादवों ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। यादवराज [[शूरसेन]] के पुत्र का नाम वसुदेव था। वह वरुण के शाप तथा कश्यप के अंश से उत्पन्न हुआ था। शूरसेन की मृत्यु के उपरांत [[उग्रसेन]] को राज्य की प्राप्ति हुई। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। देवक राजा की कन्या का नाम [[देवकी]] था। उसका जन्म वरुण के शाप तथा अदिति के अंश से हुआ था। देवक ने उसका विवाह [[वसुदेव]] से कर दिया। विवाह होते ही आकाशवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान कंस को मार डालेगी। कंस ने देवकी के बाल पकड़कर उसे मारने के लिए खड्ग उठा लिया। वसुदेव के वीर साथियों से [[कंस]] का युद्ध होने लगा। यादवों ने कंस को समझा-बुझाकर शांत किया कि अपनी बहन पर हाथ उठाना उचित नहीं है। हो सकता है, किसी शत्रु ने ही यह आकाशवाणी रची हो। वसुदेव ने कहा कि वह अपनी प्रत्येक संतान कंस को अर्पित कर देगा। इस शर्त पर कंस ने उसे छोड़ दिया। <br />
<br />
वसुदेव देवकी को लेकर अपने घर चला गया। प्रथम पुत्र उत्पन्न होने पर वसुदेव पुत्र सहित कंस के पास पहुंचा। कंस ने 'प्रथम बालक से नहीं, अष्टम बालक से भय है' कहकर बालक उसे लौटा दिया, किंतु तभी [[नारद]] ने वहां पहुंचकर कंस को समझाया कि गिनती कहां से शुरू करके किस बालक को अष्टम माना जायेगा, नहीं कहा जा सकता। यह सुनकर कंस ने बालक को शिला पर पटककर मार डाला। इसी प्रकार देवकी के छह पुत्र मारे गये। वे छहों शापवश जन्मते ही नष्ट हो गये। पूर्वकाल में ब्रह्मा अपनी कन्या के प्रति कामुक हो उठे थे। रमण करते हुए ब्रह्मा को देख महर्षि मरीचि के (उर्णा नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न) छह पुत्रों ने उनका परिहास किया था। इससे रुष्ट होकर ब्रह्मा ने उन्हें असुर योनि में जन्म लेने का शाप दिया था। फलत: पहले वे [[कालनेमि]] के पुत्र हुए, फिर हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए। दूसरे जन्म में ज्ञान विच्युत न होने के कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा था कि हवे मनवांछित देवता अथवा [[गंधर्व]] हो जायें ! वर पाकर वे लोग तो प्रसन्न हुए। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्रों को ब्रह्मा का प्रिय जान क्रोधावेश में कहा-"तुम पाताल में जाकर निद्रा में पड़े रहोगे। पृथ्वी पर षड्गर्क नाम से प्रसिद्ध होगे। देवकी के गर्भ से जन्म लेकर कालनेमि के वंश से उत्पन्न कंस के हाथों मारे जाओगे।" देवकी के सातवें गर्भ में अनंत देव आये। योगमाया ने योग-बल से इस गर्भ का आकर्षण करके उसे [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थापित किया। भौतिक दृष्टि से देवकी का गर्भपात मान लिया गया। तदनंतर विष्णु के अंशावतार कृष्ण ने अष्टम् पुत्र के रूप में जन्म लिया। योगमाया ने स्वेच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया। अन्य पात्रों के जन्म के मूलांश की <br />
[[चित्र:Jarasandh1.jpg|[[भीम]]-जरासंध युद्ध|thumb|200px]]<br />
'''तालिका निम्नलिखित है:'''<br />
<br />
{| border="1" cellpadding="10"<br />
! मूलांश <br />
! कृष्ण-कथा के पात्र <br />
|-<br />
|[[हिरण्यकशिपु]]<br />
|[[शिशुपाल]]<br />
|-<br />
|विप्रचित्त <br />
|[[जरासंध]] <br />
|-<br />
|[[प्रह्लाद]] <br />
|[[शल्य]]<br />
|-<br />
|खर<br />
|[[लंबक तथा धेनुक]]<br />
|-<br />
|वाराह और किशोर<br />
|[[चाणूर और मुष्टिक]]<br />
|-<br />
|दिति पुत्र अरिष्ट<br />
|कुवलय नामक<br />कंस का हाथी<br />
|-<br />
|}<br />
<br />
[[युधिष्ठर|यम]], [[रुद्र]], काम और क्रोध-चारों के अंश से [[अश्वत्थामा]] <br />
<br />
भूमि का भार-हरण करने की प्रार्थना सुनकर हरि ने देवताओं को दो बाल दिये थे; एक काला-कृष्ण, दूसरा सफेद-[[बलराम]]।<br /><br />
(दे0 भा0, 4 । 20-25) <br />
<br />
श्रीकृष्ण परमात्मा है। उनके सोलहवें अंश का एक अंश, सौ करोड़ सूर्यों के प्रकाश से युक्त एक बालक होकर, मूलशक्ति प्रसूत डिंब में स्थापित था डिंब के दो भागों में विभक्त होने पर भूखा-प्यासा वह बालक रोने लगा। कालांतर में पूर्व संस्कार के बल से वह परम पुरुष श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न होकर हंसने लगा। श्रीकृष्ण उस बालक को आशीर्वाद देकर त्रैलोक्य चले गये। कृष्ण के आशीर्वाद से वह ज्ञानयुक्त हुआ। उसने विराट रूप धारण किया, उसी के नाभिकमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया तथा सृष्टि की रचना की। सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए। उस बालक के क्षुद्रांश से ही विष्णु ने उत्पन्न होकर सृष्टि का पालन किया । श्रीकृष्ण को चतुर्भुज नारायण से भिन्न माना गया है। कृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु , [[शिव|महेश]] के कारणभूत हैं। [[राधा]] सर्वशक्तिमति देवी हैं।<br /><br />
(दे0भा0, 8/3)<br />
<br />
==शिव पुराण==<br />
[[दुर्वासा]] कृष्ण की परीक्षा लेने गये। पर्याप्त आतिथ्य पाकर उन्होंने अपने रथ को कृष्ण तथा उनकी पत्नी [[रुक्मिणी]] से खिंचवाने की इच्छा प्रकट की। कृष्ण और रुक्मिणी के सहर्ष रथ खींचने से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कृष्ण को 'पायस' दी और कहा कि वे अपने बदन पर लगा लें। जहां-जहां यह लगेगी, वहां किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं लग पायेगा। कृष्ण ने वैसा ही किया।<br /> <br />
(शि0पु0, 44 ।7। 26) <br />
==महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण==<br />
===मंगलाचरण===<br />
[[महाभारत]] धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकों प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथारूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अन्धकारको विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रन्थके मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। इसलिये सम्पूर्ण महाभारत भगवान् वासुदेव के ही नाम, रूप लीला और धामका संकीर्तन है। नारायण के नाम से इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में व्यासजी ने सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण की ही वन्दना की है।<br />
===द्रौपदी स्वयंवर===<br />
महाभारत के [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]] में भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन [[द्रौपदी]]-स्वयंवर के अवसर पर होता है। अब [[अर्जुन]] के लक्ष्यवेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है। तब [[कौरव]]पक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिये युद्धकी योजना बनाते हैं उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि 'इन लोगों ने द्रौपदी को धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिये।' भगवान् श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शान्त हो गये और द्रौपदी के साथ [[पाण्डव]] सकुशल अपने निवास पर चले गये।<br />
[[चित्र:Bhishma1.jpg|[[महाभारत]] युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए|thumb|250px]]<br />
===प्रथम पूजनीय===<br />
धर्मराज [[युधिष्ठर]] के [[राजसूययज्ञ]] में जब यह प्रश्र उपस्थित हुआ कि यहाँ सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय तो उस समय महात्मा [[भीष्म]] ने कहा कि 'वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलयस्वरूप हैं और इस चराचर जगत् का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं।' भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निन्दा की और भीष्म पितामह को भी खरी-खोटी सुनायी। भगवान् श्री कृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरी रसे एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। इस अलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है। कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।<br />
===द्रौपदी===<br />
पाण्डवों के एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हीं की कृपा और युक्ति से ही [[भीम|भीमसेन]] के द्वारा जरासन्ध मारा गया और युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ सम्पन्न हुआ। राजसूय यज्ञ का दिव्य सभागार भी मय दानव ने भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से ही बनाया। द्यूत में पराजित हुए पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी जब भरी सभा में [[दु:शासन]] के द्वारा नग्न की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमाली ने वस्त्रावतार धारण किया। शाक का एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासा के कोप से पाण्डवों की रक्षा की।<br />
===शान्तिदूत===<br />
युद्ध को रोकने के लिये श्रीकृष्ण शान्तिदूत बने, किंतु [[दुर्योधन]] के अहंकार के कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूययज्ञके अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने। संग्राम भूमि में उन्होंने अर्जु नके माध्यम से विश्व को [[गीता]] रूपी दुर्लभ रत्न प्रदान किया। भीष्म, [[द्रोणाचार्य|द्रोण]], [[कर्ण]] और अश्वत्थामा-जैसे महारथियों के दिव्यास्त्रों से उन्होंने पाण्डवों की रक्षा की। युद्धका अन्त हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ। पाण्डवों का एकमात्र वंशधर उत्तरा का पुत्र [[परीक्षित]] अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से मृत उत्पन्न हुआ, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही उसे जीवनदान मिला। अन्त में [[गांधारी|गान्धारी]] के शाप को स्वीकार करके महाभारत के महानायक भगवान श्रीकृष्णने उद्दण्ड यादवकुल के परस्पर गृहयुद्ध में संहा रके साथ अपनी मानवी लीला का संवरण किया।<br />
<br />
==ऋग्वेद में कृष्ण==<br />
[[वेद|ऋग्वेद]] में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। कृष्ण सम्बन्धी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के ज़िलाने का श्रेय दिया गया है(ऋग्वेद 1।116।7,23)। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है (ऋग्वेद 8।86।1-5)। ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता [[अश्विनीकुमार|अश्विनीकुमारों]] से प्रार्थना की थी। <br />
<br />
कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का [[इन्द्र]] ने वध किया था (ऋग्वेद 1।101।1) ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। [[छान्दोग्य उपनिषद]] में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी थी जिसकी दक्षिणा, तप, दान, आर्जव, अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शान्त हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मण में भी मिलता है (30।9)। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है।<br />
<br />
==बौद्ध साहित्य==<br />
[[बौद्ध]] साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत [[जातक कथा|जातक]] में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है।<br />
==अनेक वृत्तान्त==<br />
===निपुण बलवान योद्धा=== <br />
महाभारत में कृष्ण सम्बन्धी अनेक वृत्तान्त मिलते हैं। भारत युद्ध में उनके पराक्रम, ऐश्वर्य और नीतिनैपुण्य के साथ उनके देवत्व का भी समन्वय पाया जाता है। सभापर्व में भीष्म द्वारा उनकी प्रशंसा समस्त [[वेद]]-[[वेदान्त]] के ज्ञाता तथा राजनीति में निपुण बलवान योद्धा के रूप में की गयी है। [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग पर्व]] में कहा गया है कि अर्जुन वज्रपाणि इन्द्र की अपेक्षा कृष्ण को अधिक पराक्रमी समझकर उन्हें युद्ध में अपनी ओर मिलाने में अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी स्थल पर कृष्ण के पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दस्युओं के संहार, दुर्धर्ष राजाओं के विनाश, रुक्मिणी के हरण, नगजित के पुत्रों की पराजय, सुदर्शनराजा की मुक्ति, पाण्डय के संहार, [[काशी]] नगरी के उद्धार, निषादों के राजा एकलव्य के वध, उग्रसेन के पुत्र सुनाम की मृत्यु आदि कार्यो का वर्णन किया गया है। देवताओं के द्वारा उन्हें अवध्यता का वरदान मिला था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही इन्द्र के घोड़े उच्चै:श्रवा के समान बली, [[यमुना नदी|यमुना]] के वन में रहने वाले हयराज को मार डाला था तथा वृष [[प्रलंब]], नरग, जृम्भ, मुर, [[कंस]] आदि का संहार किया था, जल देवता [[वरुण]] को पराजित किया था तथा पाताल वासी पंचजन को मारकर [[पान्चजन्य]] प्राप्त किया था। अपनी प्रिय पत्नी [[सत्यभामा]] की प्रसन्नता के लिए वे अमरावती से [[पारिजात]] लाये थे।<br />
<br />
===वासुदेव===<br />
महाभारत में प्राप्त कृष्ण सम्बन्धी इन सन्दर्भों से उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की सूचना मिलती है और ज्ञात होता है कि वे [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] वंशीय [[सात्वत]] जाति के पूज्य पुरुष थे। यह भी संकेत मिलता है कि महाभारत और पुराणों में वर्णित कृष्ण के चरित्र और किन्हीं ऐतिहासिक वासुदेव कृष्ण सम्बन्धी कथा में कुछ अन्तर अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाभारत और [[पुराण|पुराणों]] में अनेक स्थलों पर इस बात पर बल दिया गया है कि यही कृष्ण वास्तविक वासुदेव हैं, यही द्वितीय वासुदेव हैं। द्वितीय वासुदेव कहने का अभिप्राय यह था कि कुछ अन्य राजा भी अपने को द्वितीय वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध करने का यत्न करते थे। पौण्ड्र राजा पुरुषोत्तम और करवीरपुर के राजा श्रृगाल इसी प्रकार के व्यक्ति थे, जिन्हें मारकर कृष्ण ने सिद्ध किया कि उनका वासुदेवत्व मिथ्या है तथा वे ही स्चयं एकमात्र वासुदेव हैं।<br />
===पुराणों में कृष्ण===<br />
[[चित्र:Cover-Vishnu-Purana.jpg|thumb|[[विष्णु पुराण]], गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ]]<br />
[[महाभारत]], [[हरिवंश पुराण]] तथा [[विष्णु पुराण]], [[वायु पुराण]], [[वामन पुराण]], [[भागवत पुराण]] आदि पुराणों में कृष्ण की तुलना में इन्द्र की हीनता सिद्ध करने के लिए अनेक कथाएँ दी गयी हैं; परन्तु फिर भी [[गोवर्धन]] धारण के प्रसंग में उनके इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने और 'उपेन्द्र' नाम से स्वीकृत होने का उल्लेख हुआ है। पुराणों में विविध कथाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर कृष्ण की महत्ता और उसी अनुपात में इन्द्र की हीनता प्रमाणित की गयी है। महाभारत में कृष्ण के ऐश्वर्य और देवत्व का प्रचुर वर्णन है परन्तु उनके लालित्य और माधुर्य का कोई संकेत नहीं मिलता। महाभारत उनके गोप जीवन और [[गोपी]] प्रेम के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है। [[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]] के उस प्रसंग में भी, जिसे प्रक्षिप्त कहा जाता है और जिसमें शिशुपाल कृष्ण की निन्दा करते हुए उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वत्सासुर और कंस के वध तथा गोवर्द्धन धारण किये जाने का उल्लेख करता है, गोपियों से उनके प्रेम का कोई संकेत नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि गोपाल कृष्ण का ललित और मधुर चरित मूलत: महाभारत के कृष्ण के चरित से भिन्न था। पुराणों में वर्णित कृष्ण सम्बन्धी ललित कथाएँ उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गयी हैं। उदाहरण के लिए हरिवंश में जिसे 'वास्तव में महाभारत का परिशिष्ट कहा जाता है, उनके गोपाल रूप सम्बन्धी सन्दर्भ अतयन्त संक्षिप्त है। उनकी तुलना में उनके ऐश्वर्य रूप की भोग-विलास सम्बन्धी अनेक कथाएँ कहीं अधिक विस्तार से वर्णित हैं। विष्णु पुराण में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। किन्तु भागवत, [[पद्म पुराण]] , [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] तथा कुछ अन्य पुराणों में, जिन्हें परवर्ती कहा जा सकता है, गोपालकृष्ण सम्बन्धी कथन अधिक विस्तृत होने लगे हैं। पुराणों के भोग-ऐश्वर्य सम्बन्धी आख्यानों और गोप-गोपी लीला सम्बन्धी मधुर कथाओं में वातावरण का बहुत अन्तर पाया जाता है। यदि एक में घोर भौतिकता, विलासिता और नग्न ऐन्द्रियता है तो दूसरे में भावात्मक कोमलता, हार्दिक उत्फुल्लता, सूक्ष्म अनुभूति और अलौकिकता की ओर उन्मुख उदात्तता है।<br />
<br />
===शूरसेन प्रदेश===<br />
[[चित्र:Shursen-Map.jpg|thumb|300px|[[शूरसेन]] महाजनपद<br /> Shursen Great Realm]]<br />
अनुमान है कि गोपाल कृष्ण मूलत: [[शूरसेन]] प्रदेश के सात्वत वृष्णिवंशी पशुपालक क्षत्रियों के कुल देवता थे और उनके क्रीड़ा कौतुक की मनोरंजक कथाएँ मौखिक रूप में लोक-प्रचलित थीं। इन कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण कुछ पाषाण मूर्तियों और शिलापट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों में मिले है। मथुरा में प्राप्त एक खण्डित शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को एक सूप में सिर पर रखकर यमुना पार करते हुए दिखाये गये हैं। 5वीं शताब्दी ईसवी के एक दूसरे खण्डित शिलापट्ट में [[कालिय नाग|कालिय-दमन]] का दृश्य दिखाया गया है। यह छठी शताब्दी ईस्वी की अनुमान की गयी है। बंगाल के पहाड़पुर नामक स्थान में छठी शताब्दी की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें [[धेनुकासुर वध]], [[यमलार्जुन उद्धार]] तथा [[मृष्टिक चाणूर]] के साथ मल्ल-युद्ध के दृश्य दिखाये गये हैं। यहीं पर एक अन्य मूर्ति मिली है जिसमें कृष्ण को किसी गोपी के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। अनुमान किया गया है कि यह गोपी सम्भवत: [[राधा]] का सबसे प्राचीन मूर्तिगत प्रमाण प्रस्तुत करती है। राजस्थान के मण्डोर तथा बीकानेर के पास सूरतगढ़ में क्रमश: द्वारपाटों पर उत्कीर्ण गोवर्द्धन –धारण, नवनीत-चौर्य, [[शकटभंजन]] और कालिय-दमन के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं तथा गोवर्द्धन-धारण और दान-लीला का दृश्यांकन प्रस्तुत करने वाले कुछ सुन्दर मिट्टी के खिलौने प्राप्त हुए हैं। मण्डोर के चित्र चौथी-पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अनुमान किये गये हैं। दक्षिण भारत के बादामी के पहाड़ी क़िले पर कृष्ण-जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, कंस-वध आदि के अनेक दृश्य गुफ़ाओं में उत्कीर्ण मिले हैं। जो छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं<ref>(दे0 आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट 1926-27, 1905-6 तथा 1928-29 ई.)</ref>।<br />
==काव्य में कृष्ण==<br />
काव्य में गोपाल कृष्ण की लीला का पहला सन्दर्भ प्रथम शताब्दी ईसवी में रचित [[अश्वघोष]] के बुद्धिचरित' (1-5) में मिलता है। अनुमानत: प्रथम शताब्दी ईस्वी में हाल [[सातवाहन]] द्वारा संगृहीत 'गाहासत्तसई' (गाथा सप्तशती) में कई गाथाएँ कृष्ण, राधा, गोपी, [[यशोदा]] आदि से सम्बद्ध मिलती हैं <ref>(दे0 'गाहासत्तसई' 1।29, 5।47, 2।12, 2।14)</ref>। इन गाथाओं में कृष्ण द्वारा नारियों के गौरवहरण, मुखमारूत से राधिका के गोरज के अपनयन आदि के उल्लेख हुए हैं। इन उल्लेखों से सूचित होता है कि कृष्ण के गोपी-प्रेमसम्बन्धी प्रसंग कम से कम पहली शताब्दी ईस्वी के पहले से ही लोक-प्रचलित थे। यह अवश्य द्रष्टव्य है कि'गाहासत्तसई' में भक्ति भावना का कोई संकेत नहीं मिलता, उसका वातावरण सर्वथा लौकिक श्रृंगार का ही है परन्तु इससे भिन्न दक्षिण के आलवार सन्तों द्वारा रचित गीत पूर्णतया भक्ति भावना से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। इन सन्तों का समय पाँचवीं से नवीं शताब्दी ईसवी अनुमान किया गया है। आलवार सन्तों के इन गीतों में विष्णु , नारायण अथवा वासुदेव तथा उनके अवतारों-[[राम]] और कृष्ण के प्रति अपूर्व भक्ति –भाव प्रकट किया गया है। इनमें गोपाल-कृष्ण की ललित लीला के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जो उत्तर भारत के मध्यकालीन कृष्ण भक्ति- काव्य के प्रिय विषय रहे हैं। इन गीतों में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से सम्बद्ध एक नाप्पित्राय नामक गोपी का प्रमुख रूप समें वर्णन है। उसे कृष्ण की प्रियतमा और विष्णु की अर्द्धागिनी [[लक्ष्मी]] का अवतार कहा गया है। अनुमान है कि यह गोपी उत्तर भारत की कृष्णकथा में प्रयुक्त राधा ही है। राधाकृष्ण कथा की प्राचीनता की दृष्टि से तमिल साहित्य का यह प्रमाण महत्त्वपूर्ण है।<br />
===राधा के प्रेम सन्दर्भ===<br />
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|250px|[[राधा]]-[[कृष्ण]]]]<br />
आठवीं शंताब्दी में रचित भट्टानारायण के 'वेणीसंहार' नामक-नाटक में नांदीश्लोक में तथा वाकपति राज द्वारा लिखित प्राकृत महाकाव्य 'गउडवहो' के मंगलाचरण में कृष्ण की स्तुति उनके राधा और गोपी-प्रेम तथा यशोदा के वात्सल्यभाजन होने की स्पष्ट सूचना देती है। 'गउडवहो' में उन्हें 'विष्णुस्वरूप' और 'लक्ष्मीपति' भी कहा गया है। नवीं शताब्दी ईसवी के 'ध्वन्यालोक' में उद्धृत दो [[श्लोक|श्लोकों]] में कृष्ण और राधा के मधुर प्रेम के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दसवीं शताब्दी के त्रिविक्रम भट्ट रचित 'नलचम्पू' के एक श्लोक में परम पुरुष कृष्ण के साथ राधा के अनुराग का संकेत प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी की ही बल्लभदेव द्वारा रचित 'शिशुपालवध' की टीका तथा सोमदेवपूरि के 'यशस्यतिलकचम्पू' में भी राधा के प्रिय कृष्ण का जिस रूप में उल्लेख मिलता है उससे कृष्ण के गोपीवल्लभ रूप की सूचना प्राप्त होती है। <br />
===प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ===<br />
'कवीन्द्रवचन समुच्चय' नामक कवितासंग्रह भी दसवीं शताब्दी का माना गया है। इसमें संकलित अनेक श्लोकों में कृष्ण की गोपी और राधा सम्बन्धी प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ मिलता है जिनसे कृष्ण के यशोदा के वात्सल्य-भाजन, गोपियों के कान्त, गोपों के सृहृद् तथा राधा के अनन्य प्रेमभाजन व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। इन सभी सन्दर्भो में कृष्ण के दक्षिण और धृष्ट नायकत्व के भी स्पष्ट संकेत हैं। दशवीं शताब्दी तक राधा और कृष्ण के प्रति पूज्यभाव भी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण मालवाधीश वाक्पति मुंजपरमार के एक अभिलेख से भी मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका विष्णु रूप में वर्णन है और साथ ही उन्हे राधा के विरह में पीड़ित कहा गया है। दशवीं शताब्दी के आसपास रचित श्रीमद्भागवत में कृष्णचरित का व्यापक वर्णन है इसमें उनके सभी स्वरूपों का वर्णन और संकेत है।<br />
<br />
कृष्ण के व्यक्तित्व के लालित्य और माधुर्य के साथ उनके दैवत रूप की प्रतिष्ठा 12वीं शताब्दी तक और अधिक दृढ़ता के साथ हो गयी थी। इसका प्रमाण लीलाशुक द्वारा रचित 'कृष्णकर्णामृतस्तोत्र' ईश्वरपुरी द्वारा रचित 'श्रीकृष्णलीलामृत ' का श्रृगांर रस निश्चित रूप से माधुर्य भक्ति है। इसी प्रकार 'गीतगोविन्द' में राधा-माधव के जिस उद्दाम श्रृंगार का वर्णन किया गया है, उसकी मूल प्रेरणा भी धार्मिक है। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस प्रकार जिस लोकरंजनकारी लालित्य का उदात्तीकरण वैष्णव भक्ति के विकास में होता गया उसी की चरम परिणति हम परवर्ती साहित्य में पाते हैं।<br />
<br />
===असंख्य कथा प्रसंग===<br />
बारहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-काव्य मृक्तकों के अतिरिक्त प्रबन्धों के रूप में भी प्राप्त होता है। 'सदुक्तिकर्णामृत' नामक एक मुक्तक संग्रह 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ का हैं। जिसमें गोपाल कृष्ण की लीला से सम्बद्ध साठ श्लोक हैं। इन श्लोकों में गोपाल कृष्ण के शैशव, कैशोर और यौवन की ललित लीलाओं का ही वर्णन मिलता है। 13वी-14वी शताब्दी में रचित बोपदेव की 'हरिलीला' तथा वेदान्तदेशिककी 'यादवाभ्युदय' नामक रचनाएँ तथा पन्द्रहवीं शताब्दी की 'ब्रजबिहारी' (श्रीधरस्वामी), 'गोपलीला' (रामचन्द्र भट्ट), ' हरिचरित'-काव्य (चतुर्भुज), 'हरिविलास'-काव्य (ब्रजलोलिम्बराज), 'गोपालचरित' (पद्मनाभ), 'मुरारिविजय'- नाटक (कृष्ण भट्ट) और 'कंस-निधन' महाकाव्य (श्रीराम) आदि अनेक काव्य और नाटक गोपालकृष्ण के मधुर, ललित और पूज्य चरित का चित्रण करते हैं। 16वीं शताब्दी से कृष्णभक्ति आन्दोलन सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्याप्त हो गया और कृष्ण-काव्य आधुनिक भाषाओं में रचा जाने लगा। इस काव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत था, परन्तु साथ ही कवियों ने लोक में प्रचलित कृष्णसम्बन्धी उन असंख्य कथा प्रसंगों का भरपूर उपयोग किया जिनमें कृष्ण का चरित वात्सल्य, सख्य और माधुर्यव्यंजक लीलाओं से समन्वित रहा है।<br />
<br />
==सूरदास==<br />
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|[[सूरदास]], सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]|thumb|300px]]<br />
हिन्दी का कृष्ण-भक्ति काव्य यद्यपि [[सूरदास]] से प्रारम्भ होता है परन्तु इससे पहले 15वीं शताब्दी में [[विद्यापति]] ने अपने पदों में कृष्ण के श्रृंगारी रूप का जो वर्णन किया था उसकी प्रकृति भले ही लौकिक श्रृंगार की रही हो, उसका उपयोग भक्तों ने माधुर्य भक्ति के सन्दर्भों में ही किया। विद्यापति और हिन्दी के रीतिकालीन राधाकृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार –काव्य के बीच हिन्दी भक्तिकाव्य का एक लम्बा व्यवधान है जिसमें कृष्ण का व्यक्तित्व कवियों ने अत्यन्त कुशलता के साथ् मानव और अतिमानव के परस्पर विरोधी तत्त्वों से निर्मित कर चित्रित किया है। कृष्ण के इस चरित-चित्रण में बड़ी विलक्षणता है। एक ओर उन्हें विष्णु का अवतार, ब्रह्मा-विष्णु और महेश से परे तथा साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा गया है, तो दूसरी ओर उनकी शैशव, बाल्य और किशोरकाल की अत्यन्त मानवीय और स्वाभाविक लीला का मनोहर वर्णन किया गया है। हिन्दी कृष्ण-काव्य के रचयिताओं में कृष्ण का सम्यक् चरित्र-चित्रण वास्तव में सूरदास ने ही किया किन्तु सूरदास का चरित्र-चित्रण वस्तुत: भावांत्मक है। प्रधान रूप से उन्होंने कृष्ण को वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का आलम्बन बनाया है और इन भावों का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण करते हुए दैन्य और विस्मय के भावों के सहारे उनके प्रति पूज्य भावना व्यक्त की है।<br />
<br />
कृष्ण के चरित्र-चित्रण में सूर की अन्य विशेषता यह है कि यद्यपि वे नन्द-यशोदा, गोप-गोपी, आदि के साथ राग-रंग में आचूल मग्न रहते हैं, फिर भी उनके व्यवहार से व्यंजित होता है कि वास्तव में वे भावातीत और वीतराग हैं। कृष्ण के मथुरा और द्वारका-प्रवास तथा उनके प्रति ब्रजवासियों और विशेषकर गोपियों के विरह-भाव का वर्णन करते हुए सूरदास ने कृष्ण के इस विलक्षण व्यक्तित्व का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है। इसके द्वारा हमें गीता के योगिराज कृष्ण की अनासक्ति का व्यावहारिक परिचय मिलता है।<br />
<br />
सूरदास के अतिरिक्त अन्य कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के सम्पूर्ण चरित का चित्रण नहीं किया। बहुत थोड़े से कवियों ने कृष्ण के बाल्य और किशोरकाल के जीवन का परिचय दिया। अधिकांश कवि उनके माधुर्यपूर्ण चरित की ओर ही झुके और राधा और गोपियों के साथ उनके प्रेम सम्बन्धों के चित्रण में ही निमग्न रहें कृष्ण के प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों रूपों के चित्रण में अनेक कवियों ने तन्मयता प्रदर्शित की, परन्तु सूरदास ने उनमें वीतरागत्व और अनासक्ति के संकेतों तथा अन्य उपायों द्वारा जिस आध्यात्मिकता की उच्च काव्यमयी व्यंजना की थी, वह कोई अन्य कवि नहीं कर सका। सूरदास ने कृष्ण के असुर-संहारी रूप का भी विशद वर्णन किया था। यद्यपि उनके वर्णन में कृष्ण की वीरता और पराक्रम के स्थान पर उनके विस्मयकारी क्रीडा-कौतक की ही प्रधानता है, परन्तु उनका उद्देश्य जिस अलौकिक की व्यंजना करना था उसे परवर्ती कवि नहीं समझ सके। इस कारण उन्होंने कृष्ण-चरित के इस पक्ष की प्राय: उपेक्षा ही की। <br />
<br />
श्रीकृष्ण के सहज मानवीय श्रृंगारी रूप को सूरदास ने उनके प्रति दैन्य भावना व्यक्त करके तथा उनके अलौकिक कृत्यों के वर्णयन द्वारा विस्मय की व्यंजना करके उनके चरित में जिस उदात्तता का सन्निवेश किया था, परवर्ती कवियों ने उसे विस्मृत कर दिया और श्रीकृष्ण का चरित लगभग पूर्ण रूप में इहलौकिक हो गया और उसमें मानव व्यक्तित्व की संकुचित एकांगिता ही शेष रह गयी। फलत: जीवन की व्याख्या की कसौटी पर कसने पर वह अत्यन्त कल्पित और अयथार्थ लगता है, जैसे राग-रंग और आनन्द-विहार में लिप्त जीवन का कोई उद्देश्य ही न हो। वास्तव में तथ्य यही है कि कृष्ण-चरित जीवन के वास्तविक चित्रण अथवा आदर्श चित्रण के रूप में रचा ही नहीं गया, उनका चरित वास्तव में परब्रह्म की लीलामात्र हैं जिसका प्रयोजन लीलानन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। उसका उद्देश्य अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की व्यंजना करना ही हैं भक्त कवियों ने उस आनन्द का रूप स्त्री-आनन्द रूप में परम पुरुष हैं और उनकी परा शक्ति रूप प्रकृति स्वरूपा राधा हैं जिनके संयोग से ही परम आनंद की परिपूर्णता सिद्ध होती है।<br />
<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{कृष्ण2}}<br />
{{कृष्ण}}<br />
[[en:Krishna References]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
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शिल्पी
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कृष्ण संदर्भ
2010-09-28T05:44:08Z
<p>शिल्पी: /* महाभारत- उद्योगपर्व, द्रोणपर्व */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==कृष्ण संदर्भ / [[:en:Krishna References|Krishna References]]==<br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए [[कृष्ण]]|250px]]<br />
==छान्दोग्य उपनिषद==<br />
कृष्ण- एक बार आंगिरस ऋषि ने देवकी के पुत्र [[कृष्ण]] को यज्ञदर्शन सुनाया था। फलस्वरूप कृष्ण शेष समस्त विधाओं के प्रति तृष्णाहीन हो गये थे।(छा.उ., अध्याय 3,खंड 17, श्लोक 6)<br />
<br />
कृष्ण का मातृपरक नाम 'देवकीपुत्र' [[छान्दोग्य उपनिषद#तेरहवें खण्ड से उन्नीसवें खण्ड तक|छान्दोग्य उप निषद् (3,17,6)]] में पाया जाता है।<br />
<br />
==विभिन्न प्रसंग== <br />
{{Tocright}} <br />
वे अव्यक्त होते हुए भी व्यक्त ब्रह्म थे। मूलत: वे नारायण थे। वे स्वयंभू तथा संपूर्ण जगत के प्रपितामह थे। द्युलोक उनका मस्तक, आकाश नाभि, पृथ्वी रचण, [[अश्विनीकुमार]] नासिकास्थान, [[चंद्र देवता|चंद्र]] और [[सूर्य देवता|सूर्य]] नेत्र तथा विभिन्न [[देवता]] विभिन्न देहयष्टियां हैं। वे (ब्रह्म रूप) ही प्रलयकाल के अंत में [[ब्रह्मा]] के रूप में स्वयं प्रकट हुए तथा सृष्टि का विस्तार किया। [[रुद्र]] इत्यादि की सृष्टि करने के उपरांत वे लोकहित के लिए अनेक रूप धारण करके प्रकट होते रहे।<br />
<br />
श्रीकृष्ण के रूप में वही अव्यक्त नारायण व्यक्त रूप धारण करके अवतरित हुए। वे [[वसुदेव]] के पुत्र हुए। [[कंस]] के भय से वसुदेव उन्हें [[नंद]] गोप के यहाँ छोड़ आये। वहीं पलकर वे बड़े हुए। [[यशोदा]] (नंद की पत्नी) से उन्हें अद्भुत वात्सल्य की उपलब्धि हुई।<br /> <br />
(1) शिशुरूप में वे एक बार छकड़े नीचे सो रहे थे। यशोदा उन्हें वहां छोड़ यमुना तट गयी थी। बाल-लीला का प्रदर्शन करते हुए रोते हुए कृष्ण ने अपने पांव के अंगूठे से छकड़े को धक्का दिया तो वह उलट गया। उस पर रखे समस्त मटके चूर-चूर हो गये।<br /> <br />
(2) देवताओं के देखते-देखते उन्होंने [[पूतना-वध|पूतना]] को मार डाला।<br /> <br />
(3) वे अपने बड़े भाई संकर्षण ([[बलराम|बलदेव]]) के साथ खेलते-कूदते बड़े हुए। सात वर्ष की अवस्था में गोचारण के लिए जाया करते थे। एक बार मक्खन चुराकर खाने के दंडस्वरूप मां (यशोदा) ने उन्हें ऊखल में बांध दिया। कृष्ण ने उस ऊखल को [[यमल तथा अर्जुन]] नामक दो वृक्षों के बीच में फंसाकर इतने जोर से खींचा कि वे दोनों वृक्ष भूमिसात हो गये। इस प्रकार उन वृक्षो पर रहनेवाले दो राक्षसों को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(4) वे दोनों भाई ग्वालोचित वेशधारी वन में पिपिहरी तथा [[बांसुरी]] बजाकर आमोद-प्रमोद के साथ गायों को चराते थे। कृष्ण पीले और बलराम नीले वस्त्र धारण करते थे। वे पत्तों के मुकुट पहन लेते। कभी-कभी रस्सी का [[यज्ञोपवीत]] भी धारण कर लेते थे। वे गोप बालकों के आकर्षण का केंद्रबिंदु थे।<br /> <br />
(5) उन्होंने [[कदम्ब]]वन के पास हृद (कुण्ड) में रहने वाले [[कालिय नाग|कालिया नाग]] के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी तथा अन्यत्रा जाने का आदेश दिया था।<br /> <br />
(6) गोपाल बालकों द्वारा किये सर्वभूत स्त्रष्ट ईश्वर स्वरूप को प्रकट किया तथा [[गिरिराज]] को समर्पित होने वाली खीर वे स्वयं खा गये। तब से [[गोपगण]] उनकी पूजा करने लगे।<br /> <br />
(7) जब [[इन्द्र]] ने वर्षा की थी तब श्रीकृष्ण ने गौओं की रक्षा के निमित्त एक सप्ताह तक [[गोवर्धन]] पर्वत को अपने हाथ पर उठाए रखा था। इन्द्र ने प्रसन्न होकर उन्हें गोविंद नाम दिया।<br /> <br />
(8) श्रीकृष्ण ने पशुओं की हितकामना से वृक्ष रूप-धारी [[अरिष्ट नामक दैत्य]] का संहार किया।<br /> <br />
(9) ब्रजनिवासी [[केशी नामक दैत्य]] का संहार किया। उस दैत्य का शरीर घोड़े जैसा और बल दस हज़ार हाथियों के समान था।<br /> <br />
(10) [[कंस]] के दरबार में रहने वाले चाणूर नामक मल्ल को उन्होंने मार डाला।<br /> <br />
(11) कंस के भाई तथा सेनापति शत्रुनाशक का भी उन्होंने नाश कर डाला।<br /><br />
(12) कंस के [[कुवलयापीड़]] नामक हाथी को भी उन्होंने मार गिराया।<br /><br />
(13) कंस को मारकर उन्होंने [[उग्रसेन]] का राज्याभिषेक कर दिया।<br /><br />
(14) [[उज्जयिनी]] में दोनों भाइयों ने वेद विद्याध्ययन किया। धनुर्विद्या सीखने वे सांदीपनि के पास गये। [[सांदीपनि]] ने गुरु-दक्षिणा में अपने पुत्र को वापस मांगा, जिसे कोई समुद्री जंतु खा गया था। श्रीकृष्ण ने समुद्र में रहने वाले उस दैत्य का संहार कर दिया तथा गुरुपुत्र को पुनर्जीवनदान दिया जो कि वर्षों पूर्व यमलोक में जा चुका था। कृष्ण के कृपाप्रसाद से उसने पूर्ववत् अपना शरीर धारण किया।<br /><br />
(15)श्रीकृष्ण ने [[नरकासुर]] (भौमासुर) को मार डाला।<br />
(16) श्रीकृष्ण ने [[उषा अनिरुद्ध]] का मिलन करवाया, [[बाणासुर]] को मारा।<br /><br />
(17) उन्होंने रूक्मी को पराजित करके [[रुक्मिणी]] का हरण किया।<br /><br />
(18) इन्द्र को परास्त करके [[परिजात वृक्ष]] का अपहरण किया।<br />
<br />
==महाभारत- उद्योगपर्व, द्रोणपर्व==<br />
<br />
स्वयंवर में गांधारराज की राजकुमारी को प्राप्त किया था। विवाहोपरांत उनके रथ में अच्छी नस्ल के घोड़ो की तरह से राजाओं को जोता गया था। द्यूतक्रीड़ा के उपरांत [[पांडव|पांडवों]] के वनवास काल में [[कौरव|कौरवों]]-पांडवों के [[महाभारत|युद्ध]] की संभावना देख श्रीकृष्ण कौरवों को समझाने के लिए उनकी सभा में गये। कृष्ण के साथ [[धृतराष्ट्र]], [[गांधारी]], [[विदुर]], [[सात्यकि]] इत्यादि सभी इस मत के थे कि पांडवों का राज्य उन्हें लौटा देना चाहिए तथा उनसे संधि कर, शांति स्थापित करनी चाहिए; किंतु [[दुर्योधन]] उसके लिए तैयार न था। उसने [[शकुनि]] तथा [[कर्ण]] से सलाह करके कृष्ण को बंदी बना लेने का निश्चय किया। सात्यकि को विदित हुआ तो उसने सभासदों के सम्मुख ही कृष्ण को इस तथ्य की सूचना दी। <br />
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]|left]]<br />
कृष्ण ने क्रुद्ध होकर अपना विश्व रूप (विराट् रूप) प्रदर्शित किया। कृष्ण की दाहिनी बांह पर [[अर्जुन]], वायीं बांह पर [[बलराम|हलधर]], वक्ष पर [[शिव]] तथा अंग-प्रत्यंग पर विभिन्न देवी-देवता साक्षात् दिखलायी दिए। कृष्ण के अट्टहास से भूमंडल कांप उठा। शरीर से ज्वाला प्रस्फुटित हुई तथा सब ओर अनेक देवता और योद्धाओं के दर्शन होने लगे। ऐसे रूप के दर्शन दे, कृष्ण ने वहां से प्रस्थान किया। [[महाभारत]] युद्ध में कृष्ण ने अर्जुन के सारथी का कार्यभार संभाला था। [[अभिमन्यु]] की मृत्यु के उपरांत कृष्ण ने अपने-आप स्वीकार किया कि अर्जुन (नर) नारायण (श्रीकृष्ण) का आधा शरीर है। युद्ध में पांडवों की विजय के उपरांत वे लोग कृष्ण सहित [[कुरुक्षेत्र]] में रहे। जब तक [[सूर्य देवता|सूर्य]] उत्तरायण नहीं हो गया, [[भीष्म]] पितामह नित्य ही उन्हें दान, धर्म, कर्तव्य का उपदेश देते रहे। उनके स्वर्गारोहण उपरांत पांडवों को [[हस्तिनापुर]] छोड़ते हुए कृष्ण अपने माता-पिता के दर्शन करने [[द्वारका|द्वारकापुरी]] चले गये।<br /><br />
(म0भा0, उद्योगपर्व, 130-131, [[द्रोण पर्व महाभारत|द्रोणपर्व]] 79)<br />
<br />
श्रीकृष्ण इस प्रकार क्रीड़ा करते हैं जैसे मनुष्य खिलौनें से क्रीड़ा करता है। संपूर्ण चराचर भूत नारायण से उद्भूत है। पानी के बुद्बुद्वत् उसी में लीन हो जाता है।<br /><br />
(म0भा0, सभापर्व, अध्याय 38)<br />
<br />
==हरिवंश पुराण==<br />
कृष्ण और बलराम ने अनुभव किया कि [[ब्रज]]भूमि की वनश्री बच्चों की क्रीड़ा , गोपों की फल-सब्जी बेचने के लिए उपज तथा गौओं के क्षारयुक्त मल इत्यादि से नष्ट हो गयी है। इस कारण से उन्होंने निश्चय किया कि [[गोवर्धन]] पर्वत से युक्त [[कदम्ब]] इत्यादि वृक्षों से अपूरित [[वृन्दावन]] में जाकर रहना चाहिए। कृष्ण ने अपने रोम-रोम से भयानक भेड़ियों को उत्पन्न किया। उनको देखकर गोप-[[गोपी|गोपांगनाएं]] तथा गायें अत्यंत त्रस्त होकर ब्रजभूमि छोड़ने के लिए तुरंत तैयार हो गये। लोग वृन्दावन में जा बसे।<br /> <br />
(हरिवंश [[पुराण]], विष्णुपर्व ।8-9)<br />
==श्रीमद भागवत==<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण]] और [[अर्जुन]]]]<br />
कंस की कारागार में वसुदेव के यहाँ भगवान ने कृष्ण-रूप में अवतार लिया। दस वर्ष तक बलराम के साथ ऐसे रहे कि उनकी कीर्ति वृन्दावन से बाहर नहीं गयी। वे गाय चराते तथा बांसुरी बजाकर सबको रिझाते थे। खेल-खेल में उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया, कंस को उठाकर पटक दिया। कृष्ण ने अपनी शक्ति योगमाया से भौमासुर की लाई राजकन्याओं से एक ही मुहूर्त में अलग-अलग महलों में विधिवत् पाणिग्रहण संस्कार संपादित किया। एक बार नंद ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया तथा रात्रि में [[यमुना नदी|यमुना]] में स्नान करने लगे। वह असुरों की वेला थी। अत: एक असुर उन्हें पकड़कर वरुण के पास ले गया। कृष्ण वरुण के पास गये तथा नंद बाबा को वापस ले आये।<br />
<br />
नारद ने कंस को जाकर बताया कि कृष्ण वसुदेव का बेटा है तथा बलराम [[रोहिणी]] का। वे दोनों छिपाकर नंद के यहाँ रखे गये हैं। कंस ने कृष्ण को अपनी भावी मृत्यु का कारण मानकर वसुदेव तथा देवकी को पुन: कैद कर लिया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उन्हें कैद से छुड़ाया। [[यदु]]वंशियों को [[ययाति]] का शाप था कि वे कभी शासन नहीं कर पायेंगे। अत: कृष्ण ने अपने नाना उग्रसेन से शासन ग्रहण करने का अनुरोध किया। कृष्ण और बलराम ने नंद से कहा-"पिताजी, आपका वात्सल्य अपूर्व है। आपने तथा यशोदा ने अपने बालकों के समान ही हमें स्नेह दिया। आप ब्रज जाइए। हम लोग भी यहाँ का काम निपटाकर आपसे मिलने आयेंगे।" वे दोनों [[अवंती]]पुर (उज्जैन) निवासी गुरुवर संदीपनि के गुरुकुल में रहकर उनकी सेवा करने लगे। चौंसठ दिन में उन दोनों ने [[चौंसठ कलाएँ|चौंसठ कलाओं]] में निपुणता प्राप्त की तथा संदीपनि को गुरु-दक्षिणास्वरूप उसका मृत पुत्र पुन: लौटाकर वे दोनों मथुरा लौट गये।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 3।3।-,10।28।-,10।44।–)<br />
<br />
श्रीकृष्ण के अनेक विवाह हुए थे। (कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।) उनकी श्रुतकीर्ति नामक बूआ का विवाह केकय देश में हुआ था। उनकी कन्या का नाम था भद्रा जिसका विवाह उसके भाई सन्तर्दन आदि ने कृष्ण से कर दिया था। मद्र देश की राजकुमारी सुलक्षणा को कृष्ण ने स्वयंवर में हर लिया था। इनके अतिरिक्त [[भौमासुर]] को मारकर अनेक सुंदरियों को वे कैद से छुड़ा लाये थे।<br /> <br />
(श्रीमद् भा0 10।56, 57, 58)<br />
<br />
एक बार सूर्य-ग्रहण के अवसर पर [[भारत]] के विभिन्न प्रांतों की जनता कुरुक्षेत्र पहुंची। वहां वसुदेव, कृष्ण और बलराम से नंद, यशोदा, गोप-गोपियों आदि का सम्मिलन हुआ। कृष्ण ने [[गोपी|गोपियों]] आदि को अध्यात्म ज्ञान का उपदेश दियां उन्हीं दिनों वसुदेव के यज्ञोत्सव का आयोजन था। उस संदर्भ में नंद बाबा, यशोदा तथा पांडव-परिवार के अधिकांश सदस्य तीन माह तक द्वारका में ठहरे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0 10 । 82-84)<br />
<br />
एक बार कृष्ण अपने दो भक्तों पर विशेष प्रसन्न हुए। उनमें से एक तो मिथिला निवासी गृहस्थी ब्राह्मण श्रुतदेव था और दूसरा मिथिला का राजा बहुलाश्व था। श्रीकृष्ण ने दो रूप धारण करके एक ही समय में दोनों को दर्शन दिए तथा दोनों भक्तों ने भगवत्स्वरूप प्राप्त किया।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, ।10।86।13-)<br />
<br />
[[ब्रह्मा]] की प्रार्थना पर [[विष्णु]] ने हंस का रूप धारण करके सनकादि के चित्त तथा गुणों के अनैक्य के विषय में उपदेश दिया था। यदुवंशियों के संहार के उपरांत जरा नामक व्याध को निमिंत्त बनाकर श्रीकृष्ण ने स्वधाम में प्रवेश कियां उन्हें अपने धाम में प्रवेश करते कोई भी देवता देख नहीं पाया। श्रीकृष्ण की कृपा से उनके शरीर पर प्रहार करने वाला व्याध सदेह स्वर्ग चला गया। <br />
नश्वर शरीर के त्यागोपरांत वसुदेव, अर्जुन आदि बहुत दुखी हुए। सब उनकी अलौकिक लीलाओं को स्मरण करते रहे।<br /><br />
(श्रीमद् भा0, 11।13।15-42/- 11 । 30/-)<br />
<br />
==देवी भागवत==<br />
कृष्ण-कथा में अंकित सभी पात्र किसी न किसी कारणवश शापग्रस्त होकर जन्मे थे। कश्यप ने वरुण से [[कामधेनु]] मांगी थी फिर लौटायी नहीं, अत: वरुण के शाप से वे ग्वाले हुए। देवी भागवत में [[दिति]] और [[अदिति]] को [[दक्ष]] कन्या माना गया है। अदिति का पुत्र [[इन्द्र]] था जिसने मां की प्रेरणा से दिति के गर्भ के 49 भाग कर दिए थे जो मरूत हुए। अदिति से रुष्ट होकर दिति ने शाप दिया था-'जिस प्रकार गुप्त रूप से तूने मेरा गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करवाया है उसी प्रकार पृथ्वी पर जन्म लेकर तू बार-बार मृतवत्सा होगी।' फलत: उसने [[देवकी]] के रूप में जन्म लिया।<br />
<br />
विष्णु ने देवताओं की रक्षा करने के निमित्त [[भृगु]] की पत्नी ([[शुकदेव|शुक]] की मां) का हनन किया था अत: भृगु के शापवश उन्होंने पृथ्वी पर बार-बार जन्म लिया। [[नर-नारायण]] अर्जुन और कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। अप्सराएं राजकुमारियों के रूप में जन्मीं तथा कृष्ण की पत्नियां हुई।<br />
<br />
दैत्य [[मधु]] का पुत्र [[लवणासुर|लवण]] ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से पीड़ित कर रहा था। [[लक्ष्मण]] के भाई [[शत्रुघ्न]] ने उस दैत्य को मारकर [[मथुरा]] नामक नगरी की स्थापना की। कालांतर में [[सूर्यवंश]] क्षीण हो गया। [[ययाति]] कुलोत्पन्न यादवों ने मथुरा पर अधिकार कर लिया। यादवराज [[शूरसेन]] के पुत्र का नाम वसुदेव था। वह वरुण के शाप तथा कश्यप के अंश से उत्पन्न हुआ था। शूरसेन की मृत्यु के उपरांत [[उग्रसेन]] को राज्य की प्राप्ति हुई। उग्रसेन के पुत्र का नाम कंस था। देवक राजा की कन्या का नाम [[देवकी]] था। उसका जन्म वरुण के शाप तथा अदिति के अंश से हुआ था। देवक ने उसका विवाह [[वसुदेव]] से कर दिया। विवाह होते ही आकाशवाणी हुई कि देवकी की आठवीं संतान कंस को मार डालेगी। कंस ने देवकी के बाल पकड़कर उसे मारने के लिए खड्ग उठा लिया। वसुदेव के वीर साथियों से [[कंस]] का युद्ध होने लगा। यादवों ने कंस को समझा-बुझाकर शांत किया कि अपनी बहन पर हाथ उठाना उचित नहीं है। हो सकता है, किसी शत्रु ने ही यह आकाशवाणी रची हो। वसुदेव ने कहा कि वह अपनी प्रत्येक संतान कंस को अर्पित कर देगा। इस शर्त पर कंस ने उसे छोड़ दिया। <br />
<br />
वसुदेव देवकी को लेकर अपने घर चला गया। प्रथम पुत्र उत्पन्न होने पर वसुदेव पुत्र सहित कंस के पास पहुंचा। कंस ने 'प्रथम बालक से नहीं, अष्टम बालक से भय है' कहकर बालक उसे लौटा दिया, किंतु तभी [[नारद]] ने वहां पहुंचकर कंस को समझाया कि गिनती कहां से शुरू करके किस बालक को अष्टम माना जायेगा, नहीं कहा जा सकता। यह सुनकर कंस ने बालक को शिला पर पटककर मार डाला। इसी प्रकार देवकी के छह पुत्र मारे गये। वे छहों शापवश जन्मते ही नष्ट हो गये। पूर्वकाल में ब्रह्मा अपनी कन्या के प्रति कामुक हो उठे थे। रमण करते हुए ब्रह्मा को देख महर्षि मरीचि के (उर्णा नामक पत्नी के गर्भ से उत्पन्न) छह पुत्रों ने उनका परिहास किया था। इससे रुष्ट होकर ब्रह्मा ने उन्हें असुर योनि में जन्म लेने का शाप दिया था। फलत: पहले वे [[कालनेमि]] के पुत्र हुए, फिर हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए। दूसरे जन्म में ज्ञान विच्युत न होने के कारण ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा था कि हवे मनवांछित देवता अथवा [[गंधर्व]] हो जायें ! वर पाकर वे लोग तो प्रसन्न हुए। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्रों को ब्रह्मा का प्रिय जान क्रोधावेश में कहा-"तुम पाताल में जाकर निद्रा में पड़े रहोगे। पृथ्वी पर षड्गर्क नाम से प्रसिद्ध होगे। देवकी के गर्भ से जन्म लेकर कालनेमि के वंश से उत्पन्न कंस के हाथों मारे जाओगे।" देवकी के सातवें गर्भ में अनंत देव आये। योगमाया ने योग-बल से इस गर्भ का आकर्षण करके उसे [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थापित किया। भौतिक दृष्टि से देवकी का गर्भपात मान लिया गया। तदनंतर विष्णु के अंशावतार कृष्ण ने अष्टम् पुत्र के रूप में जन्म लिया। योगमाया ने स्वेच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया। अन्य पात्रों के जन्म के मूलांश की <br />
[[चित्र:Jarasandh1.jpg|[[भीम]]-जरासंध युद्ध|thumb|200px]]<br />
'''तालिका निम्नलिखित है:'''<br />
<br />
{| border="1" cellpadding="10"<br />
! मूलांश <br />
! कृष्ण-कथा के पात्र <br />
|-<br />
|[[हिरण्यकशिपु]]<br />
|[[शिशुपाल]]<br />
|-<br />
|विप्रचित्त <br />
|[[जरासंध]] <br />
|-<br />
|[[प्रह्लाद]] <br />
|[[शल्य]]<br />
|-<br />
|खर<br />
|[[लंबक तथा धेनुक]]<br />
|-<br />
|वाराह और किशोर<br />
|[[चाणूर और मुष्टिक]]<br />
|-<br />
|दिति पुत्र अरिष्ट<br />
|कुवलय नामक<br />कंस का हाथी<br />
|-<br />
|}<br />
<br />
[[युधिष्ठर|यम]], [[रुद्र]], काम और क्रोध-चारों के अंश से [[अश्वत्थामा]] <br />
<br />
भूमि का भार-हरण करने की प्रार्थना सुनकर हरि ने देवताओं को दो बाल दिये थे; एक काला-कृष्ण, दूसरा सफेद-[[बलराम]]।<br /><br />
(दे0 भा0, 4 । 20-25) <br />
<br />
श्रीकृष्ण परमात्मा है। उनके सोलहवें अंश का एक अंश, सौ करोड़ सूर्यों के प्रकाश से युक्त एक बालक होकर, मूलशक्ति प्रसूत डिंब में स्थापित था डिंब के दो भागों में विभक्त होने पर भूखा-प्यासा वह बालक रोने लगा। कालांतर में पूर्व संस्कार के बल से वह परम पुरुष श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न होकर हंसने लगा। श्रीकृष्ण उस बालक को आशीर्वाद देकर त्रैलोक्य चले गये। कृष्ण के आशीर्वाद से वह ज्ञानयुक्त हुआ। उसने विराट रूप धारण किया, उसी के नाभिकमल से ब्रह्मा ने जन्म लिया तथा सृष्टि की रचना की। सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए। उस बालक के क्षुद्रांश से ही विष्णु ने उत्पन्न होकर सृष्टि का पालन किया । श्रीकृष्ण को चतुर्भुज नारायण से भिन्न माना गया है। कृष्ण ही ब्रह्मा, विष्णु , [[शिव|महेश]] के कारणभूत हैं। [[राधा]] सर्वशक्तिमति देवी हैं।<br /><br />
(दे0भा0, 8/3)<br />
<br />
==शिव पुराण==<br />
[[दुर्वासा]] कृष्ण की परीक्षा लेने गये। पर्याप्त आतिथ्य पाकर उन्होंने अपने रथ को कृष्ण तथा उनकी पत्नी [[रुक्मिणी]] से खिंचवाने की इच्छा प्रकट की। कृष्ण और रुक्मिणी के सहर्ष रथ खींचने से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने कृष्ण को 'पायस' दी और कहा कि वे अपने बदन पर लगा लें। जहां-जहां यह लगेगी, वहां किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं लग पायेगा। कृष्ण ने वैसा ही किया।<br /> <br />
(शि0पु0, 44 ।7। 26) <br />
==महाभारत के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण==<br />
===मंगलाचरण===<br />
[[महाभारत]] धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकों प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथारूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अन्धकारको विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रन्थके मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। इसलिये सम्पूर्ण महाभारत भगवान् वासुदेव के ही नाम, रूप लीला और धामका संकीर्तन है। नारायण के नाम से इस ग्रन्थ के मंगलाचरण में व्यासजी ने सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण की ही वन्दना की है।<br />
===द्रौपदी स्वयंवर===<br />
महाभारत के [[आदि पर्व महाभारत|आदिपर्व]] में भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन [[द्रौपदी]]-स्वयंवर के अवसर पर होता है। अब [[अर्जुन]] के लक्ष्यवेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है। तब [[कौरव]]पक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिये युद्धकी योजना बनाते हैं उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि 'इन लोगों ने द्रौपदी को धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिये।' भगवान् श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शान्त हो गये और द्रौपदी के साथ [[पाण्डव]] सकुशल अपने निवास पर चले गये।<br />
[[चित्र:Bhishma1.jpg|[[महाभारत]] युद्ध में [[भीष्म]] [[कृष्ण]] की प्रतिज्ञा भंग करवाते हुए|thumb|250px]]<br />
===प्रथम पूजनीय===<br />
धर्मराज [[युधिष्ठर]] के [[राजसूययज्ञ]] में जब यह प्रश्र उपस्थित हुआ कि यहाँ सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाय तो उस समय महात्मा [[भीष्म]] ने कहा कि 'वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलयस्वरूप हैं और इस चराचर जगत् का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं।' भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निन्दा की और भीष्म पितामह को भी खरी-खोटी सुनायी। भगवान् श्री कृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरी रसे एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। इस अलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है। कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान् के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है।<br />
===द्रौपदी===<br />
पाण्डवों के एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हीं की कृपा और युक्ति से ही [[भीम|भीमसेन]] के द्वारा जरासन्ध मारा गया और युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ सम्पन्न हुआ। राजसूय यज्ञ का दिव्य सभागार भी मय दानव ने भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से ही बनाया। द्यूत में पराजित हुए पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी जब भरी सभा में [[दु:शासन]] के द्वारा नग्न की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमाली ने वस्त्रावतार धारण किया। शाक का एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासा के कोप से पाण्डवों की रक्षा की।<br />
===शान्तिदूत===<br />
युद्ध को रोकने के लिये श्रीकृष्ण शान्तिदूत बने, किंतु [[दुर्योधन]] के अहंकार के कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूययज्ञके अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने। संग्राम भूमि में उन्होंने अर्जु नके माध्यम से विश्व को [[गीता]] रूपी दुर्लभ रत्न प्रदान किया। भीष्म, [[द्रोणाचार्य|द्रोण]], [[कर्ण]] और अश्वत्थामा-जैसे महारथियों के दिव्यास्त्रों से उन्होंने पाण्डवों की रक्षा की। युद्धका अन्त हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ। पाण्डवों का एकमात्र वंशधर उत्तरा का पुत्र [[परीक्षित]] अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से मृत उत्पन्न हुआ, किंतु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से ही उसे जीवनदान मिला। अन्त में [[गांधारी|गान्धारी]] के शाप को स्वीकार करके महाभारत के महानायक भगवान श्रीकृष्णने उद्दण्ड यादवकुल के परस्पर गृहयुद्ध में संहा रके साथ अपनी मानवी लीला का संवरण किया।<br />
<br />
==ऋग्वेद में कृष्ण==<br />
[[वेद|ऋग्वेद]] में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था। कृष्ण सम्बन्धी इन दोनों सन्दर्भो में परस्पर सम्बन्ध है अथवा नहीं, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद में अश्विनी कुमारों की स्तुति में कक्षिवान ऋषि द्वारा उन्हे कृष्ण के पौत्र विष्णापु के ज़िलाने का श्रेय दिया गया है(ऋग्वेद 1।116।7,23)। कृष्ण के पुत्र विश्वक (विश्वकाय) ने भी एक सूक्त में सनतान के लिए अश्विनीकुमारों का आवाहन किया है और दूरस्थ विष्णापु को लाने की प्रार्थना की है (ऋग्वेद 8।86।1-5)। ऐसा जान पड़ता है कि कदाचित विष्णापु किसी प्रकार आहत हो गया था और कृष्ण आंगिरस और उनके पुत्र ने उसके जीवन के लिए आरोग्य के देवता [[अश्विनीकुमार|अश्विनीकुमारों]] से प्रार्थना की थी। <br />
<br />
कृष्णासुर के सम्बन्ध में भी उल्लेख है कि उसकी गर्भवती स्त्रियों का [[इन्द्र]] ने वध किया था (ऋग्वेद 1।101।1) ऋग्वेद के एक छंद में गायों के उद्धारकर्ता और स्वामी का उल्लेख है और विष्णु को उस लोक का अधिपति कहा गया है। परन्तु भागवत धर्म के उपास्य कृष्ण की कथा से इन सन्दर्भों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जान पड़ता। [[छान्दोग्य उपनिषद]] में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा गया है और बताया गया है कि गुरु ने उन्हें यज्ञ की एक ऐसी सरल रीति बतायी थी जिसकी दक्षिणा, तप, दान, आर्जव, अहिंसा, और सत्य थी। गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कृष्ण की ज्ञान-पिपासा सदा के लिए शान्त हो गयी।(छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौशीतकी ब्राह्मण में भी मिलता है (30।9)। कृष्ण-सम्बन्धी यह सन्दर्भ उन्हें गीता के उपदेष्टा और भागवत धर्म के पूज्य कृष्ण के निकट ले जाता है।<br />
<br />
==बौद्ध साहित्य==<br />
[[बौद्ध]] साहित्य में कृष्ण का उल्लेख दो स्थलों पर मिलता है-एक घत [[जातक कथा|जातक]] में वर्णित देवगब्भा और उपसागर के बलवान, पराक्रमी, उद्धत और क्रीड़ाप्रिय पुत्र वासुदेव कण्ह की कथा के रूप में और दूसरा महाउमग्ग जातक के कामासक्त वासुदेव कण्ह के सन्दर्भ में। घत जातक के वासुदेव कण्ह पुत्रशोक में दुखी चित्रित किये गये हैं जिससे ऋग्वेद के आंगिरस कृष्ण के सन्दर्भ से उनका सूत्र जोड़ा जा सकता है। महाउमग्ग, जातक में वासुदेव कण्ह द्वारा कामासक्त होकर चाण्डाल कन्या जाम्बवती को महिषी बनाने का उल्लेख हुआ है।<br />
==अनेक वृत्तान्त==<br />
===निपुण बलवान योद्धा=== <br />
महाभारत में कृष्ण सम्बन्धी अनेक वृत्तान्त मिलते हैं। भारत युद्ध में उनके पराक्रम, ऐश्वर्य और नीतिनैपुण्य के साथ उनके देवत्व का भी समन्वय पाया जाता है। सभापर्व में भीष्म द्वारा उनकी प्रशंसा समस्त [[वेद]]-[[वेदान्त]] के ज्ञाता तथा राजनीति में निपुण बलवान योद्धा के रूप में की गयी है। [[उद्योग पर्व महाभारत|उद्योग पर्व]] में कहा गया है कि अर्जुन वज्रपाणि इन्द्र की अपेक्षा कृष्ण को अधिक पराक्रमी समझकर उन्हें युद्ध में अपनी ओर मिलाने में अपना सौभाग्य मानते हैं। इसी स्थल पर कृष्ण के पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके द्वारा दस्युओं के संहार, दुर्धर्ष राजाओं के विनाश, रुक्मिणी के हरण, नगजित के पुत्रों की पराजय, सुदर्शनराजा की मुक्ति, पाण्डय के संहार, [[काशी]] नगरी के उद्धार, निषादों के राजा एकलव्य के वध, उग्रसेन के पुत्र सुनाम की मृत्यु आदि कार्यो का वर्णन किया गया है। देवताओं के द्वारा उन्हें अवध्यता का वरदान मिला था। उन्होंने बाल्यावस्था में ही इन्द्र के घोड़े उच्चै:श्रवा के समान बली, [[यमुना नदी|यमुना]] के वन में रहने वाले हयराज को मार डाला था तथा वृष [[प्रलंब]], नरग, जृम्भ, मुर, [[कंस]] आदि का संहार किया था, जल देवता [[वरुण]] को पराजित किया था तथा पाताल वासी पंचजन को मारकर [[पान्चजन्य]] प्राप्त किया था। अपनी प्रिय पत्नी [[सत्यभामा]] की प्रसन्नता के लिए वे अमरावती से [[पारिजात]] लाये थे।<br />
<br />
===वासुदेव===<br />
महाभारत में प्राप्त कृष्ण सम्बन्धी इन सन्दर्भों से उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व की सूचना मिलती है और ज्ञात होता है कि वे [[वृष्णि संघ|वृष्णि]] वंशीय [[सात्वत]] जाति के पूज्य पुरुष थे। यह भी संकेत मिलता है कि महाभारत और पुराणों में वर्णित कृष्ण के चरित्र और किन्हीं ऐतिहासिक वासुदेव कृष्ण सम्बन्धी कथा में कुछ अन्तर अवश्य रहा होगा, क्योंकि महाभारत और [[पुराण|पुराणों]] में अनेक स्थलों पर इस बात पर बल दिया गया है कि यही कृष्ण वास्तविक वासुदेव हैं, यही द्वितीय वासुदेव हैं। द्वितीय वासुदेव कहने का अभिप्राय यह था कि कुछ अन्य राजा भी अपने को द्वितीय वासुदेव के नाम से प्रसिद्ध करने का यत्न करते थे। पौण्ड्र राजा पुरुषोत्तम और करवीरपुर के राजा श्रृगाल इसी प्रकार के व्यक्ति थे, जिन्हें मारकर कृष्ण ने सिद्ध किया कि उनका वासुदेवत्व मिथ्या है तथा वे ही स्चयं एकमात्र वासुदेव हैं।<br />
===पुराणों में कृष्ण===<br />
[[चित्र:Cover-Vishnu-Purana.jpg|thumb|[[विष्णु पुराण]], गीताप्रेस गोरखपुर का आवरण पृष्ठ]]<br />
[[महाभारत]], [[हरिवंश पुराण]] तथा [[विष्णु पुराण]], [[वायु पुराण]], [[वामन पुराण]], [[भागवत पुराण]] आदि पुराणों में कृष्ण की तुलना में इन्द्र की हीनता सिद्ध करने के लिए अनेक कथाएँ दी गयी हैं; परन्तु फिर भी [[गोवर्धन]] धारण के प्रसंग में उनके इन्द्र द्वारा अभिषिक्त होने और 'उपेन्द्र' नाम से स्वीकृत होने का उल्लेख हुआ है। पुराणों में विविध कथाओं के माध्यम से उत्तरोत्तर कृष्ण की महत्ता और उसी अनुपात में इन्द्र की हीनता प्रमाणित की गयी है। महाभारत में कृष्ण के ऐश्वर्य और देवत्व का प्रचुर वर्णन है परन्तु उनके लालित्य और माधुर्य का कोई संकेत नहीं मिलता। महाभारत उनके गोप जीवन और [[गोपी]] प्रेम के सम्बन्ध में सर्वथा मौन है। [[सभा पर्व महाभारत|सभा पर्व]] के उस प्रसंग में भी, जिसे प्रक्षिप्त कहा जाता है और जिसमें शिशुपाल कृष्ण की निन्दा करते हुए उनके द्वारा पूतना, बकासुर, केशी, वत्सासुर और कंस के वध तथा गोवर्द्धन धारण किये जाने का उल्लेख करता है, गोपियों से उनके प्रेम का कोई संकेत नहीं किया गया है। इससे यह स्पष्ट सूचित होता है कि गोपाल कृष्ण का ललित और मधुर चरित मूलत: महाभारत के कृष्ण के चरित से भिन्न था। पुराणों में वर्णित कृष्ण सम्बन्धी ललित कथाएँ उनमें उत्तरोत्तर वृद्धि पाती गयी हैं। उदाहरण के लिए हरिवंश में जिसे 'वास्तव में महाभारत का परिशिष्ट कहा जाता है, उनके गोपाल रूप सम्बन्धी सन्दर्भ अतयन्त संक्षिप्त है। उनकी तुलना में उनके ऐश्वर्य रूप की भोग-विलास सम्बन्धी अनेक कथाएँ कहीं अधिक विस्तार से वर्णित हैं। विष्णु पुराण में भी लगभग ऐसी ही स्थिति है। किन्तु भागवत, [[पद्म पुराण]] , [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] तथा कुछ अन्य पुराणों में, जिन्हें परवर्ती कहा जा सकता है, गोपालकृष्ण सम्बन्धी कथन अधिक विस्तृत होने लगे हैं। पुराणों के भोग-ऐश्वर्य सम्बन्धी आख्यानों और गोप-गोपी लीला सम्बन्धी मधुर कथाओं में वातावरण का बहुत अन्तर पाया जाता है। यदि एक में घोर भौतिकता, विलासिता और नग्न ऐन्द्रियता है तो दूसरे में भावात्मक कोमलता, हार्दिक उत्फुल्लता, सूक्ष्म अनुभूति और अलौकिकता की ओर उन्मुख उदात्तता है।<br />
<br />
===शूरसेन प्रदेश===<br />
[[चित्र:Shursen-Map.jpg|thumb|300px|[[शूरसेन]] महाजनपद<br /> Shursen Great Realm]]<br />
अनुमान है कि गोपाल कृष्ण मूलत: [[शूरसेन]] प्रदेश के सात्वत वृष्णिवंशी पशुपालक क्षत्रियों के कुल देवता थे और उनके क्रीड़ा कौतुक की मनोरंजक कथाएँ मौखिक रूप में लोक-प्रचलित थीं। इन कथाओं के लोक-प्रचलित होने के प्रमाण कुछ पाषाण मूर्तियों और शिलापट्टों पर उत्कीर्ण चित्रों में मिले है। मथुरा में प्राप्त एक खण्डित शिलापट्ट में वसुदेव नवजात कृष्ण को एक सूप में सिर पर रखकर यमुना पार करते हुए दिखाये गये हैं। 5वीं शताब्दी ईसवी के एक दूसरे खण्डित शिलापट्ट में [[कालिय नाग|कालिय-दमन]] का दृश्य दिखाया गया है। यह छठी शताब्दी ईस्वी की अनुमान की गयी है। बंगाल के पहाड़पुर नामक स्थान में छठी शताब्दी की कुछ मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें [[धेनुकासुर वध]], [[यमलार्जुन उद्धार]] तथा [[मृष्टिक चाणूर]] के साथ मल्ल-युद्ध के दृश्य दिखाये गये हैं। यहीं पर एक अन्य मूर्ति मिली है जिसमें कृष्ण को किसी गोपी के साथ प्रसिद्ध मुद्रा में खड़े दिखाया गया है। अनुमान किया गया है कि यह गोपी सम्भवत: [[राधा]] का सबसे प्राचीन मूर्तिगत प्रमाण प्रस्तुत करती है। राजस्थान के मण्डोर तथा बीकानेर के पास सूरतगढ़ में क्रमश: द्वारपाटों पर उत्कीर्ण गोवर्द्धन –धारण, नवनीत-चौर्य, [[शकटभंजन]] और कालिय-दमन के चित्र उत्कीर्ण मिले हैं तथा गोवर्द्धन-धारण और दान-लीला का दृश्यांकन प्रस्तुत करने वाले कुछ सुन्दर मिट्टी के खिलौने प्राप्त हुए हैं। मण्डोर के चित्र चौथी-पाँचवी शताब्दी ईस्वी के अनुमान किये गये हैं। दक्षिण भारत के बादामी के पहाड़ी क़िले पर कृष्ण-जन्म, पूतना-वध, शकट-भंजन, कंस-वध आदि के अनेक दृश्य गुफ़ाओं में उत्कीर्ण मिले हैं। जो छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी के माने जाते हैं<ref>(दे0 आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट 1926-27, 1905-6 तथा 1928-29 ई.)</ref>।<br />
==काव्य में कृष्ण==<br />
काव्य में गोपाल कृष्ण की लीला का पहला सन्दर्भ प्रथम शताब्दी ईसवी में रचित [[अश्वघोष]] के बुद्धिचरित' (1-5) में मिलता है। अनुमानत: प्रथम शताब्दी ईस्वी में हाल [[सातवाहन]] द्वारा संगृहीत 'गाहासत्तसई' (गाथा सप्तशती) में कई गाथाएँ कृष्ण, राधा, गोपी, [[यशोदा]] आदि से सम्बद्ध मिलती हैं <ref>(दे0 'गाहासत्तसई' 1।29, 5।47, 2।12, 2।14)</ref>। इन गाथाओं में कृष्ण द्वारा नारियों के गौरवहरण, मुखमारूत से राधिका के गोरज के अपनयन आदि के उल्लेख हुए हैं। इन उल्लेखों से सूचित होता है कि कृष्ण के गोपी-प्रेमसम्बन्धी प्रसंग कम से कम पहली शताब्दी ईस्वी के पहले से ही लोक-प्रचलित थे। यह अवश्य द्रष्टव्य है कि'गाहासत्तसई' में भक्ति भावना का कोई संकेत नहीं मिलता, उसका वातावरण सर्वथा लौकिक श्रृंगार का ही है परन्तु इससे भिन्न दक्षिण के आलवार सन्तों द्वारा रचित गीत पूर्णतया भक्ति भावना से प्रेरित और अनुप्राणित हैं। इन सन्तों का समय पाँचवीं से नवीं शताब्दी ईसवी अनुमान किया गया है। आलवार सन्तों के इन गीतों में विष्णु , नारायण अथवा वासुदेव तथा उनके अवतारों-[[राम]] और कृष्ण के प्रति अपूर्व भक्ति –भाव प्रकट किया गया है। इनमें गोपाल-कृष्ण की ललित लीला के ऐसे अनेक प्रसंग वर्णित हैं जो उत्तर भारत के मध्यकालीन कृष्ण भक्ति- काव्य के प्रिय विषय रहे हैं। इन गीतों में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं से सम्बद्ध एक नाप्पित्राय नामक गोपी का प्रमुख रूप समें वर्णन है। उसे कृष्ण की प्रियतमा और विष्णु की अर्द्धागिनी [[लक्ष्मी]] का अवतार कहा गया है। अनुमान है कि यह गोपी उत्तर भारत की कृष्णकथा में प्रयुक्त राधा ही है। राधाकृष्ण कथा की प्राचीनता की दृष्टि से तमिल साहित्य का यह प्रमाण महत्त्वपूर्ण है।<br />
===राधा के प्रेम सन्दर्भ===<br />
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|250px|[[राधा]]-[[कृष्ण]]]]<br />
आठवीं शंताब्दी में रचित भट्टानारायण के 'वेणीसंहार' नामक-नाटक में नांदीश्लोक में तथा वाकपति राज द्वारा लिखित प्राकृत महाकाव्य 'गउडवहो' के मंगलाचरण में कृष्ण की स्तुति उनके राधा और गोपी-प्रेम तथा यशोदा के वात्सल्यभाजन होने की स्पष्ट सूचना देती है। 'गउडवहो' में उन्हें 'विष्णुस्वरूप' और 'लक्ष्मीपति' भी कहा गया है। नवीं शताब्दी ईसवी के 'ध्वन्यालोक' में उद्धृत दो [[श्लोक|श्लोकों]] में कृष्ण और राधा के मधुर प्रेम के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दसवीं शताब्दी के त्रिविक्रम भट्ट रचित 'नलचम्पू' के एक श्लोक में परम पुरुष कृष्ण के साथ राधा के अनुराग का संकेत प्राप्त होता है। दसवीं शताब्दी की ही बल्लभदेव द्वारा रचित 'शिशुपालवध' की टीका तथा सोमदेवपूरि के 'यशस्यतिलकचम्पू' में भी राधा के प्रिय कृष्ण का जिस रूप में उल्लेख मिलता है उससे कृष्ण के गोपीवल्लभ रूप की सूचना प्राप्त होती है। <br />
===प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ===<br />
'कवीन्द्रवचन समुच्चय' नामक कवितासंग्रह भी दसवीं शताब्दी का माना गया है। इसमें संकलित अनेक श्लोकों में कृष्ण की गोपी और राधा सम्बन्धी प्रेम क्रीड़ाओं का सन्दर्भ मिलता है जिनसे कृष्ण के यशोदा के वात्सल्य-भाजन, गोपियों के कान्त, गोपों के सृहृद् तथा राधा के अनन्य प्रेमभाजन व्यक्तित्व की सूचना मिलती है। इन सभी सन्दर्भो में कृष्ण के दक्षिण और धृष्ट नायकत्व के भी स्पष्ट संकेत हैं। दशवीं शताब्दी तक राधा और कृष्ण के प्रति पूज्यभाव भी विकसित हो चुका था। इसका प्रमाण मालवाधीश वाक्पति मुंजपरमार के एक अभिलेख से भी मिलता है जिसमें श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए उनका विष्णु रूप में वर्णन है और साथ ही उन्हे राधा के विरह में पीड़ित कहा गया है। दशवीं शताब्दी के आसपास रचित श्रीमद्भागवत में कृष्णचरित का व्यापक वर्णन है इसमें उनके सभी स्वरूपों का वर्णन और संकेत है।<br />
<br />
कृष्ण के व्यक्तित्व के लालित्य और माधुर्य के साथ उनके दैवत रूप की प्रतिष्ठा 12वीं शताब्दी तक और अधिक दृढ़ता के साथ हो गयी थी। इसका प्रमाण लीलाशुक द्वारा रचित 'कृष्णकर्णामृतस्तोत्र' ईश्वरपुरी द्वारा रचित 'श्रीकृष्णलीलामृत ' का श्रृगांर रस निश्चित रूप से माधुर्य भक्ति है। इसी प्रकार 'गीतगोविन्द' में राधा-माधव के जिस उद्दाम श्रृंगार का वर्णन किया गया है, उसकी मूल प्रेरणा भी धार्मिक है। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस प्रकार जिस लोकरंजनकारी लालित्य का उदात्तीकरण वैष्णव भक्ति के विकास में होता गया उसी की चरम परिणति हम परवर्ती साहित्य में पाते हैं।<br />
<br />
===असंख्य कथा प्रसंग===<br />
बारहवीं शताब्दी के बाद कृष्ण-काव्य मृक्तकों के अतिरिक्त प्रबन्धों के रूप में भी प्राप्त होता है। 'सदुक्तिकर्णामृत' नामक एक मुक्तक संग्रह 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ का हैं। जिसमें गोपाल कृष्ण की लीला से सम्बद्ध साठ श्लोक हैं। इन श्लोकों में गोपाल कृष्ण के शैशव, कैशोर और यौवन की ललित लीलाओं का ही वर्णन मिलता है। 13वी-14वी शताब्दी में रचित बोपदेव की 'हरिलीला' तथा वेदान्तदेशिककी 'यादवाभ्युदय' नामक रचनाएँ तथा पन्द्रहवीं शताब्दी की 'ब्रजबिहारी' (श्रीधरस्वामी), 'गोपलीला' (रामचन्द्र भट्ट), ' हरिचरित'-काव्य (चतुर्भुज), 'हरिविलास'-काव्य (ब्रजलोलिम्बराज), 'गोपालचरित' (पद्मनाभ), 'मुरारिविजय'- नाटक (कृष्ण भट्ट) और 'कंस-निधन' महाकाव्य (श्रीराम) आदि अनेक काव्य और नाटक गोपालकृष्ण के मधुर, ललित और पूज्य चरित का चित्रण करते हैं। 16वीं शताब्दी से कृष्णभक्ति आन्दोलन सम्पूर्ण उत्तर भारत में व्याप्त हो गया और कृष्ण-काव्य आधुनिक भाषाओं में रचा जाने लगा। इस काव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत था, परन्तु साथ ही कवियों ने लोक में प्रचलित कृष्णसम्बन्धी उन असंख्य कथा प्रसंगों का भरपूर उपयोग किया जिनमें कृष्ण का चरित वात्सल्य, सख्य और माधुर्यव्यंजक लीलाओं से समन्वित रहा है।<br />
<br />
==सूरदास==<br />
[[चित्र:Surdas Surkuti Sur Sarovar Agra-19.jpg|सूरदास, सूर कुटी, सूर सरोवर, [[आगरा]]<br /> Surdas, Sur Kuti, Sur Sarovar, Agra|thumb|300px]]<br />
हिन्दी का कृष्ण-भक्ति काव्य यद्यपि [[सूरदास]] से प्रारम्भ होता है परन्तु इससे पहले 15वीं शताब्दी में [[विद्यापति]] ने अपने पदों में कृष्ण के श्रृंगारी रूप का जो वर्णन किया था उसकी प्रकृति भले ही लौकिक श्रृंगार की रही हो, उसका उपयोग भक्तों ने माधुर्य भक्ति के सन्दर्भों में ही किया। विद्यापति और हिन्दी के रीतिकालीन राधाकृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार –काव्य के बीच हिन्दी भक्तिकाव्य का एक लम्बा व्यवधान है जिसमें कृष्ण का व्यक्तित्व कवियों ने अत्यन्त कुशलता के साथ् मानव और अतिमानव के परस्पर विरोधी तत्त्वों से निर्मित कर चित्रित किया है। कृष्ण के इस चरित-चित्रण में बड़ी विलक्षणता है। एक ओर उन्हें विष्णु का अवतार, ब्रह्मा-विष्णु और महेश से परे तथा साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म कहा गया है, तो दूसरी ओर उनकी शैशव, बाल्य और किशोरकाल की अत्यन्त मानवीय और स्वाभाविक लीला का मनोहर वर्णन किया गया है। हिन्दी कृष्ण-काव्य के रचयिताओं में कृष्ण का सम्यक् चरित्र-चित्रण वास्तव में सूरदास ने ही किया किन्तु सूरदास का चरित्र-चित्रण वस्तुत: भावांत्मक है। प्रधान रूप से उन्होंने कृष्ण को वात्सल्य, सख्य और माधुर्य का आलम्बन बनाया है और इन भावों का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण करते हुए दैन्य और विस्मय के भावों के सहारे उनके प्रति पूज्य भावना व्यक्त की है।<br />
<br />
कृष्ण के चरित्र-चित्रण में सूर की अन्य विशेषता यह है कि यद्यपि वे नन्द-यशोदा, गोप-गोपी, आदि के साथ राग-रंग में आचूल मग्न रहते हैं, फिर भी उनके व्यवहार से व्यंजित होता है कि वास्तव में वे भावातीत और वीतराग हैं। कृष्ण के मथुरा और द्वारका-प्रवास तथा उनके प्रति ब्रजवासियों और विशेषकर गोपियों के विरह-भाव का वर्णन करते हुए सूरदास ने कृष्ण के इस विलक्षण व्यक्तित्व का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है। इसके द्वारा हमें गीता के योगिराज कृष्ण की अनासक्ति का व्यावहारिक परिचय मिलता है।<br />
<br />
सूरदास के अतिरिक्त अन्य कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण के सम्पूर्ण चरित का चित्रण नहीं किया। बहुत थोड़े से कवियों ने कृष्ण के बाल्य और किशोरकाल के जीवन का परिचय दिया। अधिकांश कवि उनके माधुर्यपूर्ण चरित की ओर ही झुके और राधा और गोपियों के साथ उनके प्रेम सम्बन्धों के चित्रण में ही निमग्न रहें कृष्ण के प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों रूपों के चित्रण में अनेक कवियों ने तन्मयता प्रदर्शित की, परन्तु सूरदास ने उनमें वीतरागत्व और अनासक्ति के संकेतों तथा अन्य उपायों द्वारा जिस आध्यात्मिकता की उच्च काव्यमयी व्यंजना की थी, वह कोई अन्य कवि नहीं कर सका। सूरदास ने कृष्ण के असुर-संहारी रूप का भी विशद वर्णन किया था। यद्यपि उनके वर्णन में कृष्ण की वीरता और पराक्रम के स्थान पर उनके विस्मयकारी क्रीडा-कौतक की ही प्रधानता है, परन्तु उनका उद्देश्य जिस अलौकिक की व्यंजना करना था उसे परवर्ती कवि नहीं समझ सके। इस कारण उन्होंने कृष्ण-चरित के इस पक्ष की प्राय: उपेक्षा ही की। <br />
<br />
श्रीकृष्ण के सहज मानवीय श्रृंगारी रूप को सूरदास ने उनके प्रति दैन्य भावना व्यक्त करके तथा उनके अलौकिक कृत्यों के वर्णयन द्वारा विस्मय की व्यंजना करके उनके चरित में जिस उदात्तता का सन्निवेश किया था, परवर्ती कवियों ने उसे विस्मृत कर दिया और श्रीकृष्ण का चरित लगभग पूर्ण रूप में इहलौकिक हो गया और उसमें मानव व्यक्तित्व की संकुचित एकांगिता ही शेष रह गयी। फलत: जीवन की व्याख्या की कसौटी पर कसने पर वह अत्यन्त कल्पित और अयथार्थ लगता है, जैसे राग-रंग और आनन्द-विहार में लिप्त जीवन का कोई उद्देश्य ही न हो। वास्तव में तथ्य यही है कि कृष्ण-चरित जीवन के वास्तविक चित्रण अथवा आदर्श चित्रण के रूप में रचा ही नहीं गया, उनका चरित वास्तव में परब्रह्म की लीलामात्र हैं जिसका प्रयोजन लीलानन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। उसका उद्देश्य अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की व्यंजना करना ही हैं भक्त कवियों ने उस आनन्द का रूप स्त्री-आनन्द रूप में परम पुरुष हैं और उनकी परा शक्ति रूप प्रकृति स्वरूपा राधा हैं जिनके संयोग से ही परम आनंद की परिपूर्णता सिद्ध होती है।<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
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[[en:Krishna References]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
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शिल्पी
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कृष्ण
2010-09-28T05:42:19Z
<p>शिल्पी: /* कृष्ण / Krishn / Krishna */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg|कृष्ण|520px]]<br />
==कृष्ण / Krishn / [[:en:Krishna|Krishna]]==<br />
सनातन धर्म के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख [[देवता]] हैं। कृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भगवत गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई॰ सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
¤¤¤<br />
आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|राधा-कृष्ण]]<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरुष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही श्रीकृष्ण भागवत धर्म के महान स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही,साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओत-प्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
----<br />
वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू0 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष [[द्वारका]] में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा [[पुराण|पुराणों]] तथा महाभारत में मिलती है। [[वैदिक साहित्य]]<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे0 तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], देवी भागवत [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण या विष्णु के अवतार रूप में।<br />
<br />
==इतिहास और पुरातत्व==<br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए कृष्ण]] <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और [[बुद्ध]] के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु [[मिर्ज़ापुर]] ज़िले (दरअसल, बौद्ध दक्षिणागिरि) के एक गुफ़ाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जबकि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:blue">*</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही (इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है। जो मूल चित्र मैं नहीं है।)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफ़ाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ॠग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इन्द्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] क़बीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, [[पंजाब]] के [[कबीलों]] में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण [[सात्वत]] भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन [[आभीरों]] से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इन्द्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
[[चित्र:Krishna Birth Place Mathura-13.jpg|[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी शक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र [[वसुदेव]] को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने वासुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भाई [[देवक]] ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<balloon title="पुराणों के अनुसार बलराम सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही बलदेव का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।" style="color:blue">*</balloon> यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में [[भादों]] कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव मन्दिर|कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और [[नक्षत्र|नक्षत्रों]] में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने बालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म [[वसुदेव]], कृष्ण को [[कंस]] के कारागार [[मथुरा]] से [[गोकुल]] ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
====राक्षस आदि का संहार====<br />
* [[पूतना वध]], <br />
* [[शकटासुर वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय दमन]], <br />
* [[धेनुक वध]], <br />
* [[प्रलंब वध]], <br />
* [[अरिष्ट वध]] <br />
====गोवर्धन पूजा====<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षा काल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग0 पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ0 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र0 वै0 (22 और भाग0 (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग0 (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब [[गोवर्धन पूजा]] की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म0 ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु0 (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इन्द्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग0 (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरुण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
<br />
====रास====<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-[[बलराम]], [[देवकी]]-[[वसुदेव]] से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि0 77; ब्रह्म0 189, 1-45; विष्णु0 13; भाग0 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै0 के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग0 पु0 (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
====धनुर्याग====<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुण्डों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें [[पूतना वध|पूतना]] के संबंध में ही [[पुराण|पुराणों]] में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
====धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन====<br />
[[चित्र:Radha-Krishna-3.jpg|thumb|[[राधा]]-कृष्ण ]]<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति [[अक्रूर]] के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरुष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म0 190, 1-21; विष्णु0 15, 1-24; भाग0 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने [[अक्रूर]] को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म0 और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वधार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि [[केशी]] कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म0 190,22-48, भाग0 37, 1-25; विष्णु0 16, 1-28।</ref><br />
<br />
====कृष्ण का मथुरा-गमन====<br />
एक दिन सन्ध्या समय कृष्ण ने समाचार पाया कि अक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहाँ अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म0 191-92; विष्णु0 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै0 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करुण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता वसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे सन्ध्या समय मथुरा पहुंचे थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगे।<br />
<br />
====कंस-वध====<br />
[[चित्र:Krishna-Balarama.jpg|thumb|left|[[कंस]]-वध]]<br />
{| id="textboxrt"<br />
|'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''<br />
<br />
कृष्ण:-<br />
<br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br />
<br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
|}<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, [[कुब्जा दासी]] आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरुद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र0 वै0 (अ0 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु0 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ0 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता [[उग्रसेन]] को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि0 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु0 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान आदर्श उपस्थित किया।<br />
[[चित्र:Krishna-Birth-Place-Mathura-7.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण जन्माष्टमी]] के अवसर पर श्रद्धालुओं की भीड़, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]<br />
==संस्कार==<br />
कंस-वध तक कृष्ण का जीवन एक प्रकार से अज्ञातवास में व्यतीत हुआ। एक ओर कंस का आतंक था तो दूसरी ओर आकस्मिक आपत्तियों का कष्ट। अब इनसे छुटकारा मिलने पर उनके विद्याध्ययन की बात चली। वैसे तो वे दोनो भाई प्रतिभावान्, नीतिज्ञ तथा साहसी थे, परन्तु राजत्य-पंरपरा के अनुसार शास्त्रानुकूल संस्कार एवं शिक्षा-प्राप्ति आवश्यक थी। इसके लिए उन्हें गुरु के आश्रम में भेजा गया। वहाँ पहुँच कर कृष्ण-बलराम ने विधिवत् दीक्षा ली<ref> हरिवंश में कृष्ण-बलराम के यज्ञोपवीत का कोई उल्लेख नहीं है, पर शिक्षा से पहले उसका विधान है। उनका विद्यारंभ संभवत: [[गोकुल]] में हुआ। बाद के पुराणों-जैसे पद्म (273, 1-5), ब्रह्मवैवर्त (99 -102) और भागवत (45, 26-50) में यज्ञोपवीत का वर्णन है। इनके अनुसार गर्गाचार्य ने उन्हें गायत्री-मन्त्र का उपदेश दिया। सांदीपनि के आश्रम में ये चौंसठ दिनों तक रहे। इतने दिनों में वे गुरुकुल की प्रथा का पालन करते हुए धनुर्विद्या में ही विशेश शिक्षा प्राप्त कर सके होंगे। उनकी अवस्था अब बढ़ चली थी, क्योंकि हरिवंश के अनुसार अब वे युवा (`प्राप्त यौवनदेह:') थे। देवी भागवत (24,25) के अनुसार सांदीपनि के यहाँ से लौटने पर उनकी अवस्था केवल बारह वर्ष की थी।</ref> और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी [[सुदामा]] ब्राह्मण से भेंट हुई, जो उनका गुरु-भाई हुआ। [[जरासंध]] की मथुरा पर चढ़ाई कंस की मृत्यु का समाचार पाकर मगध-नरेश जरासंध बहुत-कुद्ध हो गया। वह कंस का श्वसुर था। जरासंध अपने समय का महान् साम्राज्यवादी और क्रूर शासक था। उसने कितने ही छोटे-मोटे राजाओं का राज्य हड़प कर उन राजाओं को बंदी बना लिया था। जरासंध ने कंस को अपनी लड़कियाँ संभवत: इसीलिए ब्याही थी जिससे कि पश्चिमी प्रदेशों में भी उसकी धाक बनी रहे और उधर गणराज्य की शक्ति कमज़ोर पड़-जाय। कंस की प्रकृति भी जरासंध से बहुत मिलती-जुलती थी। शायद जरासंध के बल पर ही बैठा था। अपने जामातृ और सहायक का इस प्रकार वध होते देख जरासंध का कुद्ध होना स्वाभाविक ही था। अब उसने शूरसेन जनपद पर चढ़ाई करने का पक्का विचार कर लिया। [[शूरसेन]] और [[मगध]] के बीच युद्ध का विशेष महत्व है, इसीलिए हरिवंश आदि पुराणों में इसका वर्णन विस्तार से मिलता है।<br />
<br />
==जरासंध की पहली चढ़ाई==<br />
[[चित्र:Krishna-Mandapam.jpg|thumb|गोवर्धन पर्वत उठाते हुए कृष्ण]]<br />
जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद पर चढ़ाई की। पौराणिक वर्णनों के अनुसार उसके सहायक कारूप का राजा दंतवक, चेदिराज, [[शिशुपाल]], कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र [[रूक्मी]], काय अंशुमान तथा [[अंग]], [[बंग]], [[कोषल]], [[दषार्ण]], [[भद्र]], [[त्रिगर्त]] आदि के राजा थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज [[गंधार]] का राजा सुबल नग्नजित् का मीर का राजा गोभर्द, [[दरद|दरद देश]] का राजा तथा कौरवराज [[दुर्योधन]] आदि भी उसके सहायक थे। [[मगध]] की विशाल सेना ने मथुरा पहुँच कर नगर के चारों फाटकों को घेर लिया।<ref> हरिवंश (अ0 91)। पुराणों में यद्यपि अनेक देश के राजाओं का उल्लेख हुआ है, पर यह कहना कठिन है कि वास्तव में किन-किन राजाओं ने जरासंध की पहली मथुरा की चढ़ाई में उसकी सहायता की और अपनी सेनाएं इस निमित्त भेजीं। भागवत् के अनुसार जरासंघ की सेना 23 अक्षौहिणी थी; हरिवंश 20 अक्षौहिणी तथ पद्म 100 अक्षोहिणी बताता है।</ref> सत्ताईस दिनों तक जरासंध मथुरा नगर को घेरे पड़ा रहा, पर वह मथुरा का अभेद्य दुर्ग न जीत सका। संभवत: समय से पहले ही खाद्य-सामग्री के समाप्त हो जाने के कारण उसे निराश होकर मगध लौटना पड़ा। दूसरी बार जरासंध पूरी तैयारी से शूरसेन पहुँचा। यादवों ने अपनी सेना इधर-उधर फैला दी। युवक बलराम ने जरासंध का अच्छा मुक़ाबला किया। लुका-छिपी के युद्ध द्वारा यादवों ने मगध-सैन्य को बहुत छकाया। श्रीकृष्ण जानते थे कि यादव सेना की संख्या तथा शक्ति सीमित है और वह मगध की विशाल सेना का खुलकर सामना नही कर सकती। इसीलिए उन्होंने लुका-छिपी वाला आक्रमण ही उचित समझा। उसका फल यह हुआ कि जरासंध परेशान हो गया और हताश होकर ससैन्य लौट पड़ा। <br />
[[चित्र:Krishna-Birth-Place-Janamashthmi-Mathura-6.jpg|thumb|left|250px|[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]<br />
[[पुराण|पुराणों]] के अनुसार जरासंध ने अठारह बार मथुरा पर चढ़ाई की। सत्रह बार यह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासन कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कृष्ण बलदेव को जब यह ज्ञात हुआ कि जरासंध और कालयवन विशाल फौज लेकर आ रहे हैं तब उन्होंने मथुरा छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाना ही बेहतर समझा।<ref> हरिवंश और भागवत के अनुसार जब कृष्ण ने यह सुना कि एक ओर से जरासंध और दूसरी ओर से कालयवन बड़ी सेनाएँ लेकर शूरसेन जनपद आ रहे हैं, तो उन्होंने यादवों को मथुरा से [[द्वारका]] रवाना कर दिया और स्वयं बलराम के साथ गोमंत पर्वत पर चढ़ गये। जरासंध पहाड़ पर आग लगा कर तथा यह समझ कर कि दोनो जल मरे होंगे, लौट गया। दूसरी कथा के अनुसार कृष्ण सब लोगों को द्वारका भेज चुकने के बाद कालयवन को आता देख अकेले भगे। कालयवन ने इनका पीछा किया। कृष्ण उसे वहाँ तक ले गये जहाँ सूर्यवंशी मुचकुंद सो रहा था। मुचकुंद को यह वर मिला था कि जो कोई उन्हें सोते से उठायेगा वह उनकी दृष्टि पड़ते ही भस्म हो जायगा। कृष्ण ने ऐसा किया कि [[कालयवन]] मुचकुंद द्वारा भस्म कर दिया गया। (हरिवंश 100, 109; भागवत 50, 44,-52) आदि।</ref><br />
<br />
==महाभिनिष्क्रमण==<br />
अब समस्या थी कि कहाँ जाया जाय? यादवों ने इस पर विचार कर निश्चय किया कि सौराष्ट्र की द्वारकापुरी में जाना चाहिए। यह स्थान पहले से ही यादवों का प्राचीन केन्द्र था और इसके आस-पास के भूभाग में यादव बड़ी संख्या में निवास करते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे कृष्ण को न जाने देना चाहते थे और कृष्ण स्वयं भी [[ब्रज]] को क्यों छोड़ते? पर आपत्तिकाल में क्या नहीं किया जाता? कृष्ण ने मातृभूमि के वियोग में सहानुभूति प्रकट करते हुए ब्रजवासियों को कर्त्तव्य का ध्यान दिलाया और कहा-<br /><br />
[[चित्र:Krishna-Birth-Place-Mathura-2.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]<br />
'जरासंध के साथ हमारा विग्रह हो गया है दु:ख की बात है। उसके साधन प्रभूत है। उसके पास वाहन, पदाति और मित्र भी अनेक है। यह मथुरा छोटी जगह है और प्रबल शत्रु इसके दुर्ग को नष्ट किया चाहता है। हम लोग यहाँ संख्या में भी बहुत बढ़ गये हैं, इस कारण भी हमारा इधर-उधर फैलना आवश्यक है।'<br /><br />
इस प्रकार पूर्व निश्चय के अनुसार [[उग्रसेन]], कृष्ण, बलराम आदि के नेतृत्व में यादवों ने बहुत बड़ी संख्या में मथुरा से प्रयाण किया और [[सौराष्ट्र]] की नगरी द्वारावती में जाकर बस गये।<ref>[[महाभारत]] में यादवों के निष्क्रमण का समाचार श्रीकृष्ण के द्वारा युधिष्ठिर को इस प्रकार बताया गया है -<br /><br />
'वयं चैव महाराज जरासंधभयात्तदा।'<br /><br />
'मथुरां संपरित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम्।।' (महाभारत ,2, 13,65)</ref> द्वारावती का जीर्णोद्वार किया गया और उससे बड़ी संख्या में नये मकानों का निर्माण हुआ।<ref> हरिवंश (अ0 113) में आया है कि शिल्पियों द्वारा प्राचीन नगरी का जीर्णोद्धार किया गया। विश्वकर्मा ने सुधर्मा सभा का निर्माण किया (अ0 116)। दे0 देवीभागवत (24, 31)-<br />
'शिल्पिभि: कारयामास जीणोद्धारम।'</ref> मथुरा के इतिहास में महाभिनिष्क्रमण की यह घटना बड़े महत्व की है। यद्यपि इसके पूर्व भी यह नगरी कम-से-कम दो बार ख़ाली की गई थी-पहली बार शत्रुध्न-विजय के उपरांत लवण के अनुयायिओं द्वारा और दूसरी बार कंस के अत्याचारों से ऊबे हुए यादवों द्वारा, पर जिस बड़े रूप में मथुरा इस तीसरे अवसर पर ख़ाली हुई वैसे वह पहले कभी नहीं हुई थी। इस निष्क्रमण के उपरांत मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई होगी। कालयवन और जरासंध की सम्मिलित सेना ने नगरी को कितनी क्षति पहुँचाई, इसका सम्यक पता नहीं चलता। यह भी नही ज्ञात होता कि जरासंध ने अंतिम आक्रमण के फलस्वरूप मथुरा पर अपना अधिकार कर लेने के बाद शूरसेन जनपद के शासनार्थ अपनी ओर से किसी यादव को नियुक्त किया अथवा किसी अन्य को। परंतु जैसा कि महाभारत एवं पुराणों से पता चलता है, कुछ समय बाद ही श्री कृष्ण ने बड़ी युक्ति के साथ [[पांडव|पांडवों]] की सहायता से जरासंध का वध करा दिया। अत: मथुरा पर जरासंध का आधिपत्य अधिक काल तक न रह सका।<br />
[[चित्र:Baldev-Temple-1.jpg|[[दाऊजी मन्दिर]], [[बलदेव]]|thumb|200px]]<br />
==बलराम का पुन: ब्रज-आगमन==<br />
संभवत: उक्त महाभिनिष्क्रमण के बाद कृष्ण फिर कभी ब्रज न लौट सके। द्वारका में जीवन की जटिल समस्याओं में फंस कर भी कृष्ण ब्रजभूमि, [[नंद]]-यशोदा तथा साथ में खेले गोप-गोपियों को भूले नही। उन्हें ब्रज की सुधि प्राय: आया करती थी। अत: बलराम को उन्होंने भेजा कि वे वहाँ जाकर लोगों को सांत्वना दें। बलराम ब्रज में दो मास तक रहे। इस समय का उपयोग भी उन्होंने अच्छे ढंग से किया। वे कृषि-विद्या में निपुण थे। उन्होंनें अपने कौशल से वृन्दावन से दूर बहने वाली यमुना में इस प्रकार से बाँध बांधा कि वह वृन्दावन के पास से होकर बहने लगी।<ref> पुराणों में इस घटना को यह रूप दिया गया है कि बलराम अपने हल से यमुना को अपनी ओर खींच लिया (देखिए ब्रह्म पुराण 197,2, 198,19; विष्णु पुराण 24,8; 25,19 भागवत पुराण अ0 65) परंतु हरिवंश पुराण (103) में स्पष्ट कहा है कि यमुना पहले दूर बहती थी, उसे बलराम द्वारा वहाँ से निकट लाया गया, जिससे यमुना वृन्दावन के खेतों के पास से बहने लगी। कई पुराणों में बलराम द्वारा गोकुल में अत्यधिक वारुणी-सेवन का भी उल्लेख है और लिखा है कि यहाँ रेवती से उनका विवाह हुआ। परंतु अन्य प्रमाणों के आधार पर बलराम का रेवती से विवाह द्वारका में हुआ।</ref><br />
==कृष्ण और पांडव==<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|right|कृष्ण और [[अर्जुन]]]]<br />
द्वारका पहुँच कर कृष्ण ने वहाँ स्थायी रूप से निवास करने का विचार दृढ़ किया और आवश्यक व्यवस्था में लग गये। जब पंचाल के राजा [[द्रुपद]] द्वारा [[द्रौपदी]]-स्वयंवर तथा मध्य-भेद की बात चारों तरफ फैली तो कृष्ण भी उस स्वयंवर में गये। वहाँ उनकी बुआ के लड़के [[पांडव]] भी मौजूद थे। यही से पांडवों के साथ कृष्ण की घनिष्टता का आरंम्भ हुआ। पांडव [[अर्जुन]] ने मध्य भेद कर [[द्रौपदी]] को प्राप्त कर लिया और इस प्रकार अपनी धनुर्विद्या का कौशल अनेक देश के राजाओं के समक्ष प्रकट किया। इससे कृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन के प्रति वे विशेष रूप से आकृष्ट हुए। वे पांडवों के साथ [[हस्तिनापुर]] लौटे। कुरुराज [[धृतराष्ट्र]] ने पांडवों को [[इन्द्रप्रस्थ]] के आस-पास का प्रदेश दिया था। पांडवों ने कृष्ण के [[द्वारका]]-संबंधी अनुभव का लाभ उठाया। उनकी सहायता से उन्होंनें जंगल के एक भाग को साफ करा कर [[इन्द्रप्रस्थ]] नगर को अच्छें ढंग से बसाया। इसक बाद कृष्ण द्वारका लौट गये। कृष्ण के द्वारका लौटने के कुछ समय बाद अर्जुन तीर्थयात्रा के लिए निकले। अनेक स्थानों में होते हुए वे [[प्रभास]] क्षेत्र पहुँचें। कृष्ण ने जब यह सुना तब वे प्रभास जाकर अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपने साथ द्वारिका ले आये। यहाँ अर्जुन का बढ़ा स्वागत हुआ। उन दिनों रैवतक पर्वत पर यादवों का मेला लगता था। इस मेलें में अर्जुन भी कृष्ण के साथ गये। उन्होंनें यहाँ [[सुभद्रा]] को देखा और उस पर मोहित हो गये। कृष्ण ने कहा-सुभद्रा मेरी बहिन है, पर यदि तुम उससे विवाह करना चाहते हो तो उसे यहाँ से हर कर ले जा सकते हो, क्यों कि वीर क्षत्रियों के द्वारा विवाह हेतु स्त्री का हरण निंद्य नहीं, बल्कि श्रेष्ठ माना जाता है।<ref>'प्रसह्म हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते।<br /><br />
विवाहहेतु: शूराणमिति धर्मविदो बिदु: ।।' (महाभारत, [[आदि पर्व महाभारत]] 219,22)</ref><br />
<br />
अर्जुन सुभद्रा को भगा ले चले। जब इसकी ख़बर यादवों को लगी तो उनमें बड़ी हलचल मच गई। सभापाल ने सूचना देकर सब गण-मुख्यों को सुधर्मा-भवन में बुलाया, जहाँ इस विषय पर बड़ा वाद-विवाद हुआ। बलराम अर्जुन के इस व्यवहार से अत्यन्त क्रुद्ध हो गये थे और उन्होंने प्रण किया कि वे इस अपमान का बदला अवश्य लेंगें। कृष्ण ने बड़ी कुशलता के साथ अर्जुन के कार्य का समर्थन किया। श्रीमान् कृष्ण ने निर्भीक होकर कहा कि अर्जुन ने क्षत्रियोचित कार्य ही किया है।<ref>उनका स्वयं का दृष्टान्त भी सामने था, क्योंकि वे विदर्भ-कन्या रुक्मिणी को भगा लाये थे और फिर उसके साथ विवाह किया था।</ref> कृष्ण के अकाट्य तर्कों के आगे किसी की न चली। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर शांत किया। फिर वे बलराम तथा कुछ अन्य अंधक-वृष्णियों के साथ बड़ी धूमधाम से दहेज का सामान लेकर पांडवों के पास इंन्द्रप्रस्थ पहुँचे। अन्य लोग तो शीघ्र इन्द्रप्रस्थ से द्वारका लौट आये, किंतु कृष्ण कुछ समय वहाँ ठहर गये। इस बार पांडवों के राज्य के अंतर्गत [[खांडव वन]] नामक स्थान में भयंकर अग्निकांड हो गया, किंतु कृष्ण और अर्जुन के प्रयत्नों से अग्नि बुझा दी गई और वहाँ के निवासी मय तथा अन्य दानवों की रक्षा की जा सकी।<br />
<ref>ये दानव संभवत: इस भूभाग के आदिम निवासी थे। पुराणों तथा महाभारत से पता चलता है कि मय दानव वास्तु-कला में बहुत कुशल था और उसने पांडवों के लिए अनेक महल आदि बनाये। शायद इसी ने कृष्ण तथा पांडवों को अद्भुत शस्त्रास्त्र भी प्रदान किये । [[ॠग्वेद]] में असुरों के दृढ़ और विशाल किलों, महलों और हथियारों के उल्लेख मिलते हैं। खांडव-वन में मय असुर तथा उसके कुछ काल पहले मधुवन में मधु तथा लवण असुर का होना एक महत्वपूर्ण बात है।</ref><br />
[[चित्र:Radha-Krishna-4.jpg|thumb|200px|left|[[राधा]]-कृष्ण]]<br />
==पांडवों का राजसूय यज्ञ और जरासंध का वध==<br />
कुछ समय बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ आरंभ कर दी। और आवश्यक परामर्श के लिए कृष्णा को बुलाया। कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आये और उन्होंने [[राजसूय यज्ञ]] के विचार की पुष्टि की। उन्होंने यह सुझाव दिया कि पहले अत्याचारी शासकों को नष्ट कर दिया जाय और उसके बाद यज्ञ का आयोजन किया जाय। कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की मन्त्रणा दी। तद्नुसार [[भीम]] और अर्जुन के साथ कृष्ण रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुँच गये। कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम के द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध को मरवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद कृष्ण ने उसके पुत्र [[सहदेव]] को मगध का राजा बनाया।<ref> कृष्ण और पांडवों के पूर्व से लौटने के बाद सहदेव के कई प्रतिद्वंदी खड़े हो गये, जिन्होंने मगध साम्राज्य के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया। कुरुराज दुर्योधन ने कुछ समय बाद [[कर्ण]] को [[अंग]] देश का शासक बनाया, जिसने बंग और पुंड्र राज्यों को भी अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार दुर्योधन को पूर्व में एक शक्तिशाली सहायक प्राप्त हो गया।</ref> फिर उन्होंने गिरिब्रज के कारागार में बन्द बहुत से राजाओं को मुक्त किया। इस प्रकार कृष्ण ने जरासंध-जैसे महापराक्रमी और क्रूर शासक का अन्त कर बड़ा यश पाया। जरासंध के पश्चात पांडवों ने भारत के अन्य कितने ही राजाओं को जीता।<br />
[[चित्र:Radha-1.jpg|thumb|विरहिणी [[राधा]]]]<br />
अब पांडवों का राजसूय यज्ञ बड़ी धूमधाम से आरम्भ हुआ। कृष्ण ने यज्ञ में आये हुए ब्राह्मणों के पैर आदर-भाव से धोये। ब्रह्मचारी [[भीष्म]] ने कृष्ण की प्रशंसा की तथा उनकी `अग्रपूजा` करने का प्रस्ताव किया। सहदेव ने सर्वप्रथम कृष्णको अर्ध्यदान दिया। चेदि-नरेश शिशुपाल कृष्ण के इस सम्मान को सहन न कर सका और उलटी-सीधी बातें करने लगा। उसने युधिष्ठिर से कहा कि 'कृष्ण न तो ऋत्विक् है, न राजा और न आचार्य। केवल चापलूसी के कारण तुमने उसकी पूजा की है।'<ref>नैव ऋत्विङ् न चाचार्यो न राजा मधुसूदन: ।<br /><br />
चर्चितश्य कुरुश्रेष्ठ किमन्यत्प्रियकाम्यया ।। (महाभारत 2,37,17)</ref> शिशुपाल दो कारणों से कृष्ण से विशेष द्वेष मानता था-प्रथम तो विदर्भ कन्या रुक्मिणी के कारण, जिसको कृष्ण हर लाये थे और शिशुपाल का मनोरथ अपूर्ण रह गया था। दूसरे जरासंध के वध के कारण, जो शिशुपाल का घनिष्ठ मित्र था। जब शिशुपाल यज्ञ में कृष्ण के अतिरिक्त भीष्म और पांडवों की भी निंदा करने लगा तब कृष्ण से न सहा गया और उन्होंने उसे मुख बंद करने की चेतावनी दी। किंतु वह चुप नहीं रह सका। कृष्ण ने अन्त में शिशुपाल को यज्ञ में ही समाप्त कर दिया। अब पांडवों का राजसूर्य यज्ञ पूरा हुआ। पर इस यज्ञ तथा पांडवों की बढ़ती को देख उनके प्रतिद्वंद्वी [[कौरव|कौरवों]] के मन में विद्वेश की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और वे पांडवों को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे।<br />
<br />
==युद्ध की पृष्ठ भूमि==<br />
यज्ञ के समाप्त हो जाने पर कृष्ण युधिष्ठिर से आज्ञा ले द्वारका लौट गये। इसके कुछ समय उपरांत दुर्योधन ने अपने मामा [[शकुनि]] की सहायता से छल द्वारा जुए में पांडवों को हरा दिया और उन्हें इस शर्त पर तेरह वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया कि अंतिम वर्ष उन्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा। पांडव द्रौपदी के साथ [[काम्यकवन]] की ओर चले गये। उनके साथ सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग काम्यक वन में पहुँचे, जहाँ पांडव ठहरे थे। भोज, वृष्णि और अंधक-वंशी यादव तथा पंचाल-नरेश द्रुपद भी उनसे मिले। कृष्ण को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह शीघ्र पांडवों से मिलने आये। उनकी दशा देख तथा द्रौपदी की आक्रोशपूर्ण प्रार्थना सुन कृष्ण द्रवित हो उठे। उन्होंने द्रौपदी को वचन दिया कि वे पांडवों की सब प्रकार से सहायता करेगें और उनका राज्य वापस दिलावेंगे। इसके बाद कृष्ण सुभद्रा तथा उसके बच्चे [[अभिमन्यु]] को लेकर द्वारका वापस गये। पांडवों ने अज्ञातवास का एक साल राजा [[विराट]] के यहाँ व्यतीत किया। कौरवों ने विराट पर चढ़ाई कर उनके पशु छीन लिये थे, पर पांडवों की सहायता से विराट ने कौरवों पर विजय पाई और अपने पशुओं को लौटा लिया। विराट को अन्त में यह ज्ञात हुआ कि उनके यहाँ पांडव गुप्त रूप से अब तक निवास करते रहे थे। उन्होंने अपनी पुत्री [[उत्तरा]] का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया। इस विवाह में अभिमन्यु के मामा कृष्ण बलदेव भी सम्मिलित हुए।<br />
<br />
इसके उपरांत [[विराट नगर]] में सभा हुई और उसमें विचार किया गया कि कौरवों से पांडवों का समझौता किस प्रकार कराया जाय। बलराम ने कहा कि शकुनि का इस झगड़े में कोई दोष नही था; युधिष्ठिर उसके साथ जुआ खेलने ही क्यों गये ? हाँ, यदि किसी प्रकार संधि हो जाय तो अच्छा है। सात्यकि और द्रुपद को बलराम की ये बाते अच्छी नहीं लगी। कृष्ण ने द्रुपद के कथन की पुष्टि करते हुए कहा कि कौरव अवश्य दोषी है। अतं में सर्व-सम्मति से यह तय हुआ कि संधि के लिए किसी योग्य व्यक्ति को दुर्योधन के पास भेजा जाय। द्रुपद ने अपने पुरोहित को इस काम के लिए भेजा। कृष्ण इस सभा में सम्मिलित होने के बाद द्वारका चले गये। संधि की बात तब न हो सकी। दुर्धोधन पांडवों को पाँच गाँव तक देने की राजी न हुआ। अब युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्री कृष्ण ने सहायता प्राप्त करने के लिए द्वारका पहुँचे। नीतिज्ञ कृष्ण ने पहले दुर्योधन ने पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को ? दुर्योधन ने तत्त्काल सेना मांगी। कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि वह उसके सारथी बनेगें और स्वयं शस्त्र न ग्रहण करेगें।<br />
<br />
कृष्ण अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ आ गये। कृष्ण के आने पर पांडवों ने फिर एक सभा की और निश्चय किया कि एक बार संधि का और प्रयत्न किया जाय। युधिष्ठिर ने अपना मत प्रकट करने हुए कहा- हम पाँच भाइयों को अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणाबत और एक कोई अन्य गांव निर्वाह मात्र के लिए चाहिए। इतने पर ही हम मान जायेगें, अन्यथा युद्ध के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने भी किया। वह तय हुआ कि इस बार संधि का प्रस्ताव लेकर कृष्ण कौरवों के पास जाये। कृष्ण संधि कराने को बहुत इच्छुक थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाकर उसे समझाया और कहा कि केवल पाँच गाँव पांडवों को देकर झगड़ा समाप्त कर दिया जाय। परंतु अभिमानी दुर्योधन स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के वह पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी ज़मीन न देगा।<br />
<br />
==महाभारत युद्ध==<br />
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|कृष्ण-[[अर्जुन]]]] <br />
इस प्रकार कृष्ण भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्स्य, [[पंचाल]], [[चेदि]], कारूश, पश्चिमी मगध, [[काशी]] और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि यादव भी पांडवो के पक्ष में रहे। कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। ब्रजराम अद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पांडव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की और शूरसेन प्रदेश के यादव तथा महिष्मती, [[अवंति]], [[विदर्भ]] और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के बारे राजा और [[वत्स]] देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पांडवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य कौरवों की तरफ। पांडवों की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी।<br />
<br />
दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हुई। कृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा सात्वकि ने पांडव-सैन्य की ब्यूह-रचना की। कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ डटीं। अर्जुन के सारथी कृष्ण थे। युद्धस्थल में अपने परिजनों आदि को देखकर अर्जुन के चित्त में विषाद उत्पन्न हुआ और उसने युद्ध करने से इंकार कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया और उसकी भ्रांति दूर की। अब अर्जुन के युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो गया। अठारह दिन तक यह महाभीषण संग्राम होता रहा। देश का अपार जन-धन इसमें स्वाहा हो गया। कौरवों के शक्तिशाली सेनापति [[भीष्म]], [[द्रोण]], कर्ण, [[शल्य]] आदि धराशायी हो गये। अठारहवें दिन दुर्योधन मारा गया और महाभारत युद्ध की समाप्ति हुई। यद्यपि पांडव इस युद्ध में विजयी हुए, पर उन्हें शांति न मिल सकी। चारों और उन्हें क्षोभ और निराशा दिखाई पड़ने लगी। श्रीकृष्ण ने शरशय्या पर लेटे हुए भीष्मपितामह से युधिष्ठर को उपदेश दिलवाया। फिर हस्तिनापुर में राज्याभिषेक-उत्सव सम्पन्न करा कर वे द्वारका लौट गये। पांडवों ने कुछ समय बाद एक [[अश्वमेध यज्ञ]] किया और इस प्रकार वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट् घोषित हुए। कृष्ण भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए और फिर द्वारका वापस चले गये। यह कृष्ण की अंतिम हस्तिनापुर यात्रा थी। अब वे वृद्ध हो चुके थे। महाभारत-संग्राम में उन्हें जो अनवरत परिश्रम करना पड़ा उसका भी उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।<br />
[[चित्र:Dwarkadhish-Temple-Dwarka-Gujarat-2.jpg|thumb|250px|[[द्वारिकाधीश मंदिर द्वारका|द्वारिकाधीश मन्दिर]], [[द्वारका]]]]<br />
<br />
==श्रीकृष्ण का द्वारका का जीवन==<br />
द्वारका के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है कि यह नगर बिलकुल नवीन नही था। वैवस्वत मनु के एक पुत्र [[शर्याति]] को शासन में पश्चिमी भारत का भाग मिला था। शर्याति के पुत्र आनर्त के नाम पर कठियावाड़ और समीप के कुछ प्रदेश का नाम आनंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी राजधानी कुशस्थली के ध्वंसावशेषों पर कृष्ण कालीन द्वारका की स्थापना हुई।<ref> यह स्थान आजकल 'मूल द्वारका' के नाम से ज्ञात है और प्रभास-पट्टन के पूर्व कोडीनार के समीप स्थित है। औखामंडल वाली द्वारका बाद में बसाई हुई प्रतीत होती है। सौराष्ट्र में एक तीसरी द्वारका पोरबंदर के पास है।</ref> यहाँ आकर कृष्ण ने उग्रसेन को वृष्णिगण का प्रमुख बनाया। द्वारका में कृष्ण के वैयक्तिक जीवन की पहली मुख्य घटना थी-कुंडिनपुर<ref> यह कुंडिननुर विदर्भ देश (बरार) में था। एक जनश्रुति के अनुसार कुंडिनपुर उत्तरप्रदेश के एटा ज़िले में वर्तमान नोहखेड़ा के पास था। किंवदंती है कि कृष्ण यहीं से रुक्मिणी को ले गये थे। नोहखेड़ा में आज भी रुक्मिणी की मढ़िया बनी है, जहाँ लगभग आठवीं शती की एक अत्यंत कलापूर्ण पाषाण-मूर्ति रुक्मिणी के नाम से पूजी जाती है। खेड़े से अन्य प्राचीन कलावशेष प्राप्त हुए हैं। यह स्थान एटा नगर से क़रीब 20 मील दक्षिण जलेसर तहसील में है।</ref> की सुंदरी राजकुमारी रुक्मिणी के साथ विवाह। हरिवंश पुराण में यह कथा विस्तार से दी हुई है। रुक्मिणी का भाई [[रूक्मी]] था। वह अपनी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल से करना चाहता था। मगधराज जरासंध भी यही चाहता था। किंतु कुंडिनपुर का राजा कृष्ण को ही अपनी कन्या देना चाहता था। रुक्मिणी स्वयं भी कृष्ण को वरना चाहती थी। उनके सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा सुन रखी थी। रुक्मिणी का स्वयंवर रचा गया और वहाँ से कृष्ण उसे हर ले गये। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे पराजित हुए। इस घटना से शिशुपाल कृष्ण के प्रति गहरा द्वेष मानने लगा।<br />
<br />
हरिवंश के अनुसार बलराम का विवाह भी द्वारका जाकर हुआ।<ref> हरि0, अ0 116। बलराम का विवाह आनर्त-वंशी यादव रेवत की पुत्री रेवती से हुआ।</ref> संभवत: पहले बलराम का विवाह हुआ, फिर कृष्ण का। बाद के पुराणों में बलराम और रेवती की विचित्र कथा मिलती है। कृष्ण की अन्य पत्नियाँ-रुक्मिणी के अतिरिक्त कृष्ण की सात अन्य पत्नियाँ होने का उल्लेख प्राय: सभी पुराणों में मिलता है।<ref> [[भागवत पुराण]] (56-57), [[वायु पुराण]] (96, 20-98), [[पद्म पुराण]] (276, 1-37), [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] (122), [[ब्रह्माण्ड पुराण]] (201, 15), [[हरिवंश पुराण]] (118) आदि । पुराणों में नरकासुर का श्रीकृष्ण के द्वारा वध तथा उसके द्वारा बंदी सोलह हज़ार स्त्रियों के छुड़ाने का भी वर्णन मिलता है और कहा गया है कि कृष्ण ने इन सबसे विवाह कर लिया।</ref> इनके नाम [[सत्यभामा]], [[जांबवती]], [[कालिंदी]], मित्रविंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मण दिये हैं। इनमें से कोई को तो उनके माता-पिता ने विवाह में प्रदान किया और शेष को कृष्ण विजय में प्राप्त कर लाये। सतांन-पुराणों से ज्ञात होता है कि कृष्ण के संतानों की संख्या बड़ी थी ।<ref> दे0 भागवत पुराण 61, 1-19; हरिवंश पुराण118 तथा 162; ब्रह्मवैवर्त पुराण 112, 36-41 आदि।</ref> [[रुक्मिणी ]] से दस पुत्र और एक कन्या थी इनमें सबसे बड़ा [[प्रद्युम्न]] था। भागवतादि पुराणों में कृष्ण के गृहस्थ-जीवन तथा उनकी दैनिक चर्या का हाल विस्तार से मिलता है। प्रद्युम्न के पुत्र [[अनिरूद्ध]] का विवाह शोणितपुर<ref> यह शोणितपुर कहाँ था, इस संबंध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इसे गढ़वाल ज़िले में रुद्रप्रयाग के उत्तर ऊषीमठ के समीप मानते हैं। कुमायूँ पहाड़ी का कोटलगढ़ आगरा के समीप बयाना, नर्मदा पर स्थित तेवर (प्राचीन त्रिपुरी) तथा आसाम के तेजपुर को भी विभिन्न मतों के अनुसार शोणितपुर माना जाता है। श्री अमृतवसंत पंड्या का मत है कि शोणितपुर असीरिया में था और श्रीकृष्ण ने असीरिया पर आक्रमण कर बाणासुर (असुरबानी पाल प्रथम) को परास्त किया (ब्रजभारती, फाल्गुन, सं0 2009, पृ0 25-31)। </ref> के राजा वाणासुर की पुत्री ऊषा के साथ हुआ।<br />
<br />
==यादवों का अंत==<br />
[[चित्र:Dwarkadhish Temple Mathura 2.jpg|[[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|द्वारिकाधीश मन्दिर]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]<br />
अंधक-वृष्णि यादव बड़ी संख्या में महाभारत युद्ध में काम आये। जो शेष बचे वे आपस में मिल-जुल कर अधिक समय तक न रह सके। श्रीकृष्ण-बलराम अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे और संभवत: यादवों के ऊपर उनका प्रभाव भी कम हो गया था। पौराणिक विवरणों से पता चलता है कि यादवों में विकास की वृद्धि हो चली थी और ये मदिरा-पान अधिक करने लगे थे। कृष्ण-बलराम के समझाने पर भी ऐश्वर्य से मत्त यादव न माने और वे कई दलों में विभक्त हो गये। एक दिन प्रभास के मेले में, जब यादव लोग वारुणी के नशें में चूर थे, वे आपस में लड़ने लगे। वह झगड़ा इतना बढ़ गया कि अंत में वे सामूहिक रूप से कट मरे। इस प्रकार यादवों ने गृह-युद्ध अपना अन्त कर लिया।<ref> विभिन्न पुराणों में इस गृह-युद्ध का वर्णन मिलता है और कहा गया है कि ऋषियों के शाप के कारण कृष्ण-पुत्र सांब के पेट से एक मुशल उत्पन्न हुआ, जिससे यादव-वंश का नाश हो गया। दे0 महाभारत, मुशल पर्व; ब्रह्म पुर0 210-12; विष्णु0 37-38; भाग0 ग्यारहवां स्कंध अ0 1,6,30,31; लिंग पु0 69,83-94 आदि </ref><br />
<br />
==अंतिम समय==<br />
प्रभास के यादवयुद्ध में चार प्रमुख व्यक्तियों ने भाग नही लिया, जिससे वे बच गये। ये थे-कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और बभ्रु। बलराम दु:खी होकर समुद्र की ओर चले गये और वहाँ से फिर उनका पता नही चला। कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। कुछ स्त्रियों ने जल कर प्राण दे दिये। अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले।<ref> संभवत: इस अवसर पर अर्जुन की कृष्ण से भेंट न हो सकी। कृष्ण पहले ही द्वारका छोड़ गये होंगे। महाभारत (16,7) में श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव से अर्जुन के मिलने का उल्लेख है, जिससे पता चलता है कि वसुदेव इस समय तक जीवित थे। इसके बाद वसुदेव की मृत्यु तथा उनके साथ चार विधवा पत्नियों के चितारोहण का कथन मिलता है।</ref> कहते है मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया।<ref> महाभारत 16,8,60; ब्रह्म0 212,26।</ref> शेष को अर्जुन ने शाल्ब देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर घने वन में चले गये थे। वे चिंतित हो लेटे हुए थे कि जरा नामक एक बहेलियें ने हरिण के भ्रम से तीर मारा। वह वाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया। मृत्यु के समय वे संभवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ। श्रीकृष्ण के अंत का इतिहास वास्तव में यादव गण-तंत्र के अंत का इतिहास है। कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र बज्र यदुवंश के उत्तराधिकारी हुए। पुराणों के अनुसार वे मथुरा आये और इस नगर को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया। कही-कहीं उन्हें इन्द्रप्रस्थ का शासक कहा गया है।<br />
[[चित्र:Krishna-Janmbhumi-Mathura-4.jpg|आकर्षक वस्त्रों से सजे [[श्रीकृष्ण]]|thumb|220px]]<br />
<br />
==अंधक-वृष्णि संघ==<br />
यादवों के अंधक-वृष्णि संघ का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इस संघ की कार्य-प्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक-वृष्णि-संघ काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद़्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था; चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग-अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये। प्रत्येक दल अब अपना राजनैतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा। इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी। एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था। जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है, उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे। महाभारत के शांति पर्व के 82 वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। यह वर्णन श्रीकृष्ण और [[नारद]] के बीच संवाद के रूप में है। उसका हिन्दी अनुवाद नीचे दिया जाता है ।<br />
<br />
====वसुदेव उवाच====<br />
*देवर्षे! जो व्यक्ति सुहृद न हो, जो सुहृद तो हो किन्तु पण्डित न हो तथा जो सुहृद और पण्डित तो हो किन्तु अपने मन को वश में न कर सका हो- ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणा को सुनने या जानने के अधिकारी नहीं हैं।(3)<br />
*स्वर्ग विचरनेवाले नारदजी! मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्ति बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है।(4)<br />
*मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बी-जनों को अपना दास बनाना नहीं चहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोग में लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिये ही छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातों को सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ। (5)<br />
*देवर्षे! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बी-जनों का कटुवचन मेरे ह्रदय को सदा मथता और जलाता रहता है।(6)<br />
*नारद जी! बड़े भाई बलराम में सदा ही असीम बल है; वे उसी में मस्त रहते हैं। छोटे भाई गद में अत्यन्त सुकुमारता है (अत: वह परिश्रम से दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्य के अभिमान से ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हूँ।(7)<br />
*नारद जी! अन्धक तथा वृष्णि वंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान सौभाग्यशाली, बलवान एवं दु:सह पराक्रमी हैं, वे सब के सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं।(8) <br />
*ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में ये चले जाएँ, वह सारा का सारा समुदाय ही विजयी हो जाए। परन्तु आहुक और अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमें किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता।(9)<br />
*आपस में लड़ने वाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दु:ख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रों का न रहना भी महान् दु:खदायी होता है)(10)<br />
*महामते! जैसे दो जुआरियों की एक ही माता एक की जीत चाहती है तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदों में से एक की विजय कामना करता हूँ तो दूसरे की पराजय नहीं चाहता। (11)<br />
*नारद जी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्ष का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयों का भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बताने की कृपा करें। (12)<br />
[[चित्र:Krishna-Janmbhumi-Mathura-2.jpg|thumb|श्रीकृष्ण, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]<br />
====नारद उवाच====<br />
*नारद जी ने कहा- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- एक ब्रह्म और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत<ref>जो आपत्तियाँ स्वत: अपना ही करतूतों से आती हैं, उन्हें स्वकृत कहते हैं।</ref> और परकृत<ref>जिन्हें लाने में दूसरे लोग निमित्त बनते हैं, वे विपत्तियाँ परकृत कहलाती है।</ref> भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं। (13)<br />
*अक्रूर और आहुक से उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आप को प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतों से प्रकट हूई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंश हैं। (14)<br /><br />
*आपने स्वयं जिस ऐश्वर्य को प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजन वश या स्वेच्छा से अथवा कटुवचन से डरकर दूसरे को दे दिया। (15)<br />
*सहायशाली श्री कृष्ण! इस समय उग्रसेन को दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उग्रसेन के साथ जाति के लोग भी सहायक हैं; अत: उगले हुए अन्न की भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्य को वापस नहीं ले सकते। (16)<br />
*श्री कृष्ण! अक्रूर और उग्रसेन के अधिकार में गए हुए राज्य को भाई-बन्धुओं में फूट पड़ने के भय से अन्य की तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते। (17)<br />
*बड़े प्रयत्न से अत्यन्त दुष्कर कर्म महान् संहाररूप युद्ध करने पर राज्य को वापस लेने का कार्य सिद्ध हो सकता है, परन्तु इसमें धन का बहुत व्यय और असंख्य मनुष्यों का पुन: विनाश होगा। (18)<br />
*अत: श्री कृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोहो का बना हुआ न होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है , परिमार्जन<ref>क्षमा, सरलता और कोमलता के द्वारा दोषों को दूर करना 'परिमार्जन' कहलाता है।</ref> और अनुमार्जन<ref>यथायोग्य सेवा-सत्कार के द्वारा हृदय में प्रीति उत्पन्न करना 'अनुमार्जन' कहा गया है।</ref> करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें- उन्हें मूक बना दें(जिससे फिर कलह का आरम्भ न हो) (19)<br />
[[चित्र:Makhanchor.jpg|thumb||left|माखनचोर कृष्ण]]<br />
====वासुदेव उवाच==== <br />
*भगवान श्री कृष्ण ने कहा- मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्वा को उखाड़ लूँ।(20)<br />
====नारद उवाच====<br />
*नारद जी ने कहा- श्री कृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना यही बीना लोहे का बना हुआ शस्त्र है। (21) <br />
*जब सजातीय बन्धु आप के प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन को शान्त कर दें। (22)<br />
[[चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण|thumb|220px]]<br />
*जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है तथा जो सहायकों से सत्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अत: आप ही इस गुरुतर भार को हृदय से उठाकर वहन करें। (23)<br />
*समतल भूमिपर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परन्तु दुर्गम भूमि पर कठिनाई से वहन करने योग्य गुरुतर भार को अच्छे बैल ही ढोते हैं। (24)<br />
*केशव! आप इस यादवसंघ के मुखिया हैं। यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जाएगा; अत: आप ऐसा करें जिससे आप को पाकर इस संघ का- इस यादवगणतन्त्र राज्य का मूलोच्छेद न हो जाए। (25)<br />
*बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह के बिना तथा धन-वैभव का त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान पुरुष की आज्ञा के अधीन नहीं रहता है। (26)<br />
*श्री कृष्ण! सदा अपने पक्ष की ऐसी उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये। (27)<br />
*प्रभु! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- इन छहों गुणों के यथासमय प्रयोग से तथा शत्रु पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा करने पर वर्तमान या भविष्य में क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आप से छिपा नहीं है।(28)<br />
*महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णि वंश के सभी यादव आप में प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आप में अनुराग रखते हैं। औरों की तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े ॠषि-मुनि भी आपकी बुद्धि का आश्रय लेते हैं।(29)<br />
*आप समस्त प्राणियों के गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य को जानते हैं। आप जैसे यदुकुलतिलक महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं।(30)<br />
<br />
उक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि अंधक-वृष्णि संध में शास्त्र के अनुसार व्यवहार (न्याय) संपादित होता था। अंतर और वाह्म विभाग, अर्थ विभाग-ये सब नियमित रूप से शासित होते थे। गण-मुख्य का काम कार्यवाहक प्रण-प्रधान (राजन्य) देखता था। गण-मुख्यों-अक्रुर अंधक, आहुक आदि-की समाज में प्रतिष्ठा थी। अंधक-वृष्णियों का मन्त्रगण सुधर्मा नाम से विख्यात था। समय-समय पर परिषद् की बैठकें महत्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिए हुआ करती थी। `सभापाल' परिषद् बुलाता था। प्रत्येक सदस्स्य को अपना मत निर्भीकता से सामने रखने का अधिकार था। जो अपने मत का सर्वोत्तम ढंग से समर्थन करता वह परिषद् को प्रभावित कर सकता था। गण-मुख्य अलग-अलग शाखाओं के नेता होते थे। राज्य के विभिन्न विभाग उनके निरीक्षण में कार्य करते थे। इन शाखाओं या जातीय संघों को अपनी-अपनी नीति के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता थी महाभारत में यादवों की कुछ शाखाएं इसी कारण पाडंवों की ओर से लड़ी और कुछ कौरवों की ओर से । इससे स्पष्ट है कि महाभारतयुद्ध के समझ जातीय-संघों का काफ़ी जोर हो गया था।<ref> विस्तार के लिए देखिये के. एम.मुंशी-ग्लोरी दैट वाज़ गुर्जर देश, पृ.130 तथा वासुदेवशरण अग्रवाल-इंडिया ऎज़ नोन टु पाणिनि(लखनऊ,1953),पृ.452।</ref><br />
<br />
==वीथिका==<br />
<gallery widths="145px" perrow="4"><br />
चित्र:Krishna-birth2.jpg|कृष्ण जन्म के समय भगवान [[विष्णु]]<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|बाल कृष्ण को [[यमुना]] पार ले जाते [[वसुदेव]]<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण<br />
चित्र:Radha-Krishna-Janmbhumi-Mathura-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]<br />
</gallery><br />
<br />
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{महाभारत}} <br />
{{दशावतार2}}<br />
{{कृष्ण2}}<br />
{{हिन्दू देवी देवता और अवतार}} <br />
{{दशावतार}}<br />
{{कृष्ण}}<br />
[[Category:हिन्दू भगवान अवतार]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
[[Category:महाभारत]]<br />
[[Category:भगवान-अवतार]] [[Category: कोश]]<br />
[[en:Krishna]]<br />
__INDEX__<br />
__NOTOC__</div>
शिल्पी
http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&diff=63161
कृष्ण
2010-09-28T05:39:14Z
<p>शिल्पी: /* अंतिम समय */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg|कृष्ण|520px]]<br />
==कृष्ण / Krishn / [[:en:Krishna|Krishna]]==<br />
सनातन धर्म के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख [[देवता]] हैं। कृष्ण हिन्दू धर्म में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरुष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भगवत गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई॰ सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
¤¤¤<br />
आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
[[चित्र:Krishna-Radha-1.jpg|thumb|राधा-कृष्ण]]<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरुष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही श्रीकृष्ण भागवत धर्म के महान स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही,साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओत-प्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
----<br />
वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई॰ पू0 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष [[द्वारका]] में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा [[पुराण|पुराणों]] तथा महाभारत में मिलती है। [[वैदिक साहित्य]]<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर [[आंगिरस]] का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे0 तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ0 39, 52; आर0जी0 भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ0 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ0 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि0 1, पृ0 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण या विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व==<br />
[[चित्र:Krishna-2.jpg|thumb|बंसी बजाते हुए कृष्ण]] <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और [[बुद्ध]] के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु [[मिर्ज़ापुर]] ज़िले (दरअसल, बौद्ध दक्षिणागिरि) के एक गुफ़ाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जबकि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:blue">*</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही (इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है। जो मूल चित्र मैं नहीं है।)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफ़ाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ॠग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इन्द्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] क़बीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, [[पंजाब]] के [[कबीलों]] में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण [[सात्वत]] भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन [[आभीरों]] से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इन्द्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
[[चित्र:Krishna Birth Place Mathura-13.jpg|[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी शक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्नि की इच्छा से अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचन से मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूप से मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र [[वसुदेव]] को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने वासुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भाई [[देवक]] ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<balloon title="पुराणों के अनुसार बलराम सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही बलदेव का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।" style="color:blue">*</balloon> यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में [[भादों]] कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव मन्दिर|कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और [[नक्षत्र|नक्षत्रों]] में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने बालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म [[वसुदेव]], कृष्ण को [[कंस]] के कारागार [[मथुरा]] से [[गोकुल]] ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
====राक्षस आदि का संहार====<br />
* [[पूतना वध]], <br />
* [[शकटासुर वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय दमन]], <br />
* [[धेनुक वध]], <br />
* [[प्रलंब वध]], <br />
* [[अरिष्ट वध]] <br />
====गोवर्धन पूजा====<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षा काल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग0 पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ0 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र0 वै0 (22 और भाग0 (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग0 (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब [[गोवर्धन पूजा]] की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म0 ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु0 (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इन्द्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग0 (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरुण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
<br />
====रास====<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-[[बलराम]], [[देवकी]]-[[वसुदेव]] से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि0 77; ब्रह्म0 189, 1-45; विष्णु0 13; भाग0 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै0 के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग0 पु0 (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
====धनुर्याग====<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुण्डों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें [[पूतना वध|पूतना]] के संबंध में ही [[पुराण|पुराणों]] में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
====धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन====<br />
[[चित्र:Radha-Krishna-3.jpg|thumb|[[राधा]]-कृष्ण ]]<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति [[अक्रूर]] के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरुष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म0 190, 1-21; विष्णु0 15, 1-24; भाग0 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने [[अक्रूर]] को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म0 और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वधार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि [[केशी]] कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म0 190,22-48, भाग0 37, 1-25; विष्णु0 16, 1-28।</ref><br />
<br />
====कृष्ण का मथुरा-गमन====<br />
एक दिन सन्ध्या समय कृष्ण ने समाचार पाया कि अक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहाँ अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म0 191-92; विष्णु0 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै0 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करुण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता वसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे सन्ध्या समय मथुरा पहुंचे थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगे।<br />
<br />
====कंस-वध====<br />
[[चित्र:Krishna-Balarama.jpg|thumb|left|[[कंस]]-वध]]<br />
{| id="textboxrt"<br />
|'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-82:'''<br />
<br />
कृष्ण:-<br />
<br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरुष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br />
<br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
|}<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, [[कुब्जा दासी]] आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरुद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र0 वै0 (अ0 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्याग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चाणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु0 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ0 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता [[उग्रसेन]] को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि0 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु0 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान आदर्श उपस्थित किया।<br />
[[चित्र:Krishna-Birth-Place-Mathura-7.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण जन्माष्टमी]] के अवसर पर श्रद्धालुओं की भीड़, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]<br />
==संस्कार==<br />
कंस-वध तक कृष्ण का जीवन एक प्रकार से अज्ञातवास में व्यतीत हुआ। एक ओर कंस का आतंक था तो दूसरी ओर आकस्मिक आपत्तियों का कष्ट। अब इनसे छुटकारा मिलने पर उनके विद्याध्ययन की बात चली। वैसे तो वे दोनो भाई प्रतिभावान्, नीतिज्ञ तथा साहसी थे, परन्तु राजत्य-पंरपरा के अनुसार शास्त्रानुकूल संस्कार एवं शिक्षा-प्राप्ति आवश्यक थी। इसके लिए उन्हें गुरु के आश्रम में भेजा गया। वहाँ पहुँच कर कृष्ण-बलराम ने विधिवत् दीक्षा ली<ref> हरिवंश में कृष्ण-बलराम के यज्ञोपवीत का कोई उल्लेख नहीं है, पर शिक्षा से पहले उसका विधान है। उनका विद्यारंभ संभवत: [[गोकुल]] में हुआ। बाद के पुराणों-जैसे पद्म (273, 1-5), ब्रह्मवैवर्त (99 -102) और भागवत (45, 26-50) में यज्ञोपवीत का वर्णन है। इनके अनुसार गर्गाचार्य ने उन्हें गायत्री-मन्त्र का उपदेश दिया। सांदीपनि के आश्रम में ये चौंसठ दिनों तक रहे। इतने दिनों में वे गुरुकुल की प्रथा का पालन करते हुए धनुर्विद्या में ही विशेश शिक्षा प्राप्त कर सके होंगे। उनकी अवस्था अब बढ़ चली थी, क्योंकि हरिवंश के अनुसार अब वे युवा (`प्राप्त यौवनदेह:') थे। देवी भागवत (24,25) के अनुसार सांदीपनि के यहाँ से लौटने पर उनकी अवस्था केवल बारह वर्ष की थी।</ref> और अन्य शास्त्रों के साथ धनुर्विद्या में विशेष दक्षता प्राप्त की। वहीं उनकी [[सुदामा]] ब्राह्मण से भेंट हुई, जो उनका गुरु-भाई हुआ। [[जरासंध]] की मथुरा पर चढ़ाई कंस की मृत्यु का समाचार पाकर मगध-नरेश जरासंध बहुत-कुद्ध हो गया। वह कंस का श्वसुर था। जरासंध अपने समय का महान् साम्राज्यवादी और क्रूर शासक था। उसने कितने ही छोटे-मोटे राजाओं का राज्य हड़प कर उन राजाओं को बंदी बना लिया था। जरासंध ने कंस को अपनी लड़कियाँ संभवत: इसीलिए ब्याही थी जिससे कि पश्चिमी प्रदेशों में भी उसकी धाक बनी रहे और उधर गणराज्य की शक्ति कमज़ोर पड़-जाय। कंस की प्रकृति भी जरासंध से बहुत मिलती-जुलती थी। शायद जरासंध के बल पर ही बैठा था। अपने जामातृ और सहायक का इस प्रकार वध होते देख जरासंध का कुद्ध होना स्वाभाविक ही था। अब उसने शूरसेन जनपद पर चढ़ाई करने का पक्का विचार कर लिया। [[शूरसेन]] और [[मगध]] के बीच युद्ध का विशेष महत्व है, इसीलिए हरिवंश आदि पुराणों में इसका वर्णन विस्तार से मिलता है।<br />
<br />
==जरासंध की पहली चढ़ाई==<br />
[[चित्र:Krishna-Mandapam.jpg|thumb|गोवर्धन पर्वत उठाते हुए कृष्ण]]<br />
जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद पर चढ़ाई की। पौराणिक वर्णनों के अनुसार उसके सहायक कारूप का राजा दंतवक, चेदिराज, [[शिशुपाल]], कलिंगपति पौंड्र, भीष्मक पुत्र [[रूक्मी]], काय अंशुमान तथा [[अंग]], [[बंग]], [[कोषल]], [[दषार्ण]], [[भद्र]], [[त्रिगर्त]] आदि के राजा थे। इनके अतिरिक्त शाल्वराज, पवनदेश का राजा भगदत्त, सौवीरराज [[गंधार]] का राजा सुबल नग्नजित् का मीर का राजा गोभर्द, [[दरद|दरद देश]] का राजा तथा कौरवराज [[दुर्योधन]] आदि भी उसके सहायक थे। [[मगध]] की विशाल सेना ने मथुरा पहुँच कर नगर के चारों फाटकों को घेर लिया।<ref> हरिवंश (अ0 91)। पुराणों में यद्यपि अनेक देश के राजाओं का उल्लेख हुआ है, पर यह कहना कठिन है कि वास्तव में किन-किन राजाओं ने जरासंध की पहली मथुरा की चढ़ाई में उसकी सहायता की और अपनी सेनाएं इस निमित्त भेजीं। भागवत् के अनुसार जरासंघ की सेना 23 अक्षौहिणी थी; हरिवंश 20 अक्षौहिणी तथ पद्म 100 अक्षोहिणी बताता है।</ref> सत्ताईस दिनों तक जरासंध मथुरा नगर को घेरे पड़ा रहा, पर वह मथुरा का अभेद्य दुर्ग न जीत सका। संभवत: समय से पहले ही खाद्य-सामग्री के समाप्त हो जाने के कारण उसे निराश होकर मगध लौटना पड़ा। दूसरी बार जरासंध पूरी तैयारी से शूरसेन पहुँचा। यादवों ने अपनी सेना इधर-उधर फैला दी। युवक बलराम ने जरासंध का अच्छा मुक़ाबला किया। लुका-छिपी के युद्ध द्वारा यादवों ने मगध-सैन्य को बहुत छकाया। श्रीकृष्ण जानते थे कि यादव सेना की संख्या तथा शक्ति सीमित है और वह मगध की विशाल सेना का खुलकर सामना नही कर सकती। इसीलिए उन्होंने लुका-छिपी वाला आक्रमण ही उचित समझा। उसका फल यह हुआ कि जरासंध परेशान हो गया और हताश होकर ससैन्य लौट पड़ा। <br />
[[चित्र:Krishna-Birth-Place-Janamashthmi-Mathura-6.jpg|thumb|left|250px|[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]<br />
[[पुराण|पुराणों]] के अनुसार जरासंध ने अठारह बार मथुरा पर चढ़ाई की। सत्रह बार यह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासन कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कृष्ण बलदेव को जब यह ज्ञात हुआ कि जरासंध और कालयवन विशाल फौज लेकर आ रहे हैं तब उन्होंने मथुरा छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाना ही बेहतर समझा।<ref> हरिवंश और भागवत के अनुसार जब कृष्ण ने यह सुना कि एक ओर से जरासंध और दूसरी ओर से कालयवन बड़ी सेनाएँ लेकर शूरसेन जनपद आ रहे हैं, तो उन्होंने यादवों को मथुरा से [[द्वारका]] रवाना कर दिया और स्वयं बलराम के साथ गोमंत पर्वत पर चढ़ गये। जरासंध पहाड़ पर आग लगा कर तथा यह समझ कर कि दोनो जल मरे होंगे, लौट गया। दूसरी कथा के अनुसार कृष्ण सब लोगों को द्वारका भेज चुकने के बाद कालयवन को आता देख अकेले भगे। कालयवन ने इनका पीछा किया। कृष्ण उसे वहाँ तक ले गये जहाँ सूर्यवंशी मुचकुंद सो रहा था। मुचकुंद को यह वर मिला था कि जो कोई उन्हें सोते से उठायेगा वह उनकी दृष्टि पड़ते ही भस्म हो जायगा। कृष्ण ने ऐसा किया कि [[कालयवन]] मुचकुंद द्वारा भस्म कर दिया गया। (हरिवंश 100, 109; भागवत 50, 44,-52) आदि।</ref><br />
<br />
==महाभिनिष्क्रमण==<br />
अब समस्या थी कि कहाँ जाया जाय? यादवों ने इस पर विचार कर निश्चय किया कि सौराष्ट्र की द्वारकापुरी में जाना चाहिए। यह स्थान पहले से ही यादवों का प्राचीन केन्द्र था और इसके आस-पास के भूभाग में यादव बड़ी संख्या में निवास करते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे कृष्ण को न जाने देना चाहते थे और कृष्ण स्वयं भी [[ब्रज]] को क्यों छोड़ते? पर आपत्तिकाल में क्या नहीं किया जाता? कृष्ण ने मातृभूमि के वियोग में सहानुभूति प्रकट करते हुए ब्रजवासियों को कर्त्तव्य का ध्यान दिलाया और कहा-<br /><br />
[[चित्र:Krishna-Birth-Place-Mathura-2.jpg|thumb|250px|[[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]<br />
'जरासंध के साथ हमारा विग्रह हो गया है दु:ख की बात है। उसके साधन प्रभूत है। उसके पास वाहन, पदाति और मित्र भी अनेक है। यह मथुरा छोटी जगह है और प्रबल शत्रु इसके दुर्ग को नष्ट किया चाहता है। हम लोग यहाँ संख्या में भी बहुत बढ़ गये हैं, इस कारण भी हमारा इधर-उधर फैलना आवश्यक है।'<br /><br />
इस प्रकार पूर्व निश्चय के अनुसार [[उग्रसेन]], कृष्ण, बलराम आदि के नेतृत्व में यादवों ने बहुत बड़ी संख्या में मथुरा से प्रयाण किया और [[सौराष्ट्र]] की नगरी द्वारावती में जाकर बस गये।<ref>[[महाभारत]] में यादवों के निष्क्रमण का समाचार श्रीकृष्ण के द्वारा युधिष्ठिर को इस प्रकार बताया गया है -<br /><br />
'वयं चैव महाराज जरासंधभयात्तदा।'<br /><br />
'मथुरां संपरित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम्।।' (महाभारत ,2, 13,65)</ref> द्वारावती का जीर्णोद्वार किया गया और उससे बड़ी संख्या में नये मकानों का निर्माण हुआ।<ref> हरिवंश (अ0 113) में आया है कि शिल्पियों द्वारा प्राचीन नगरी का जीर्णोद्धार किया गया। विश्वकर्मा ने सुधर्मा सभा का निर्माण किया (अ0 116)। दे0 देवीभागवत (24, 31)-<br />
'शिल्पिभि: कारयामास जीणोद्धारम।'</ref> मथुरा के इतिहास में महाभिनिष्क्रमण की यह घटना बड़े महत्व की है। यद्यपि इसके पूर्व भी यह नगरी कम-से-कम दो बार ख़ाली की गई थी-पहली बार शत्रुध्न-विजय के उपरांत लवण के अनुयायिओं द्वारा और दूसरी बार कंस के अत्याचारों से ऊबे हुए यादवों द्वारा, पर जिस बड़े रूप में मथुरा इस तीसरे अवसर पर ख़ाली हुई वैसे वह पहले कभी नहीं हुई थी। इस निष्क्रमण के उपरांत मथुरा की आबादी बहुत कम रह गई होगी। कालयवन और जरासंध की सम्मिलित सेना ने नगरी को कितनी क्षति पहुँचाई, इसका सम्यक पता नहीं चलता। यह भी नही ज्ञात होता कि जरासंध ने अंतिम आक्रमण के फलस्वरूप मथुरा पर अपना अधिकार कर लेने के बाद शूरसेन जनपद के शासनार्थ अपनी ओर से किसी यादव को नियुक्त किया अथवा किसी अन्य को। परंतु जैसा कि महाभारत एवं पुराणों से पता चलता है, कुछ समय बाद ही श्री कृष्ण ने बड़ी युक्ति के साथ [[पांडव|पांडवों]] की सहायता से जरासंध का वध करा दिया। अत: मथुरा पर जरासंध का आधिपत्य अधिक काल तक न रह सका।<br />
[[चित्र:Baldev-Temple-1.jpg|[[दाऊजी मन्दिर]], [[बलदेव]]|thumb|200px]]<br />
==बलराम का पुन: ब्रज-आगमन==<br />
संभवत: उक्त महाभिनिष्क्रमण के बाद कृष्ण फिर कभी ब्रज न लौट सके। द्वारका में जीवन की जटिल समस्याओं में फंस कर भी कृष्ण ब्रजभूमि, [[नंद]]-यशोदा तथा साथ में खेले गोप-गोपियों को भूले नही। उन्हें ब्रज की सुधि प्राय: आया करती थी। अत: बलराम को उन्होंने भेजा कि वे वहाँ जाकर लोगों को सांत्वना दें। बलराम ब्रज में दो मास तक रहे। इस समय का उपयोग भी उन्होंने अच्छे ढंग से किया। वे कृषि-विद्या में निपुण थे। उन्होंनें अपने कौशल से वृन्दावन से दूर बहने वाली यमुना में इस प्रकार से बाँध बांधा कि वह वृन्दावन के पास से होकर बहने लगी।<ref> पुराणों में इस घटना को यह रूप दिया गया है कि बलराम अपने हल से यमुना को अपनी ओर खींच लिया (देखिए ब्रह्म पुराण 197,2, 198,19; विष्णु पुराण 24,8; 25,19 भागवत पुराण अ0 65) परंतु हरिवंश पुराण (103) में स्पष्ट कहा है कि यमुना पहले दूर बहती थी, उसे बलराम द्वारा वहाँ से निकट लाया गया, जिससे यमुना वृन्दावन के खेतों के पास से बहने लगी। कई पुराणों में बलराम द्वारा गोकुल में अत्यधिक वारुणी-सेवन का भी उल्लेख है और लिखा है कि यहाँ रेवती से उनका विवाह हुआ। परंतु अन्य प्रमाणों के आधार पर बलराम का रेवती से विवाह द्वारका में हुआ।</ref><br />
==कृष्ण और पांडव==<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|right|कृष्ण और [[अर्जुन]]]]<br />
द्वारका पहुँच कर कृष्ण ने वहाँ स्थायी रूप से निवास करने का विचार दृढ़ किया और आवश्यक व्यवस्था में लग गये। जब पंचाल के राजा [[द्रुपद]] द्वारा [[द्रौपदी]]-स्वयंवर तथा मध्य-भेद की बात चारों तरफ फैली तो कृष्ण भी उस स्वयंवर में गये। वहाँ उनकी बुआ के लड़के [[पांडव]] भी मौजूद थे। यही से पांडवों के साथ कृष्ण की घनिष्टता का आरंम्भ हुआ। पांडव [[अर्जुन]] ने मध्य भेद कर [[द्रौपदी]] को प्राप्त कर लिया और इस प्रकार अपनी धनुर्विद्या का कौशल अनेक देश के राजाओं के समक्ष प्रकट किया। इससे कृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन के प्रति वे विशेष रूप से आकृष्ट हुए। वे पांडवों के साथ [[हस्तिनापुर]] लौटे। कुरुराज [[धृतराष्ट्र]] ने पांडवों को [[इन्द्रप्रस्थ]] के आस-पास का प्रदेश दिया था। पांडवों ने कृष्ण के [[द्वारका]]-संबंधी अनुभव का लाभ उठाया। उनकी सहायता से उन्होंनें जंगल के एक भाग को साफ करा कर [[इन्द्रप्रस्थ]] नगर को अच्छें ढंग से बसाया। इसक बाद कृष्ण द्वारका लौट गये। कृष्ण के द्वारका लौटने के कुछ समय बाद अर्जुन तीर्थयात्रा के लिए निकले। अनेक स्थानों में होते हुए वे [[प्रभास]] क्षेत्र पहुँचें। कृष्ण ने जब यह सुना तब वे प्रभास जाकर अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपने साथ द्वारिका ले आये। यहाँ अर्जुन का बढ़ा स्वागत हुआ। उन दिनों रैवतक पर्वत पर यादवों का मेला लगता था। इस मेलें में अर्जुन भी कृष्ण के साथ गये। उन्होंनें यहाँ [[सुभद्रा]] को देखा और उस पर मोहित हो गये। कृष्ण ने कहा-सुभद्रा मेरी बहिन है, पर यदि तुम उससे विवाह करना चाहते हो तो उसे यहाँ से हर कर ले जा सकते हो, क्यों कि वीर क्षत्रियों के द्वारा विवाह हेतु स्त्री का हरण निंद्य नहीं, बल्कि श्रेष्ठ माना जाता है।<ref>'प्रसह्म हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते।<br /><br />
विवाहहेतु: शूराणमिति धर्मविदो बिदु: ।।' (महाभारत, [[आदि पर्व महाभारत]] 219,22)</ref><br />
<br />
अर्जुन सुभद्रा को भगा ले चले। जब इसकी ख़बर यादवों को लगी तो उनमें बड़ी हलचल मच गई। सभापाल ने सूचना देकर सब गण-मुख्यों को सुधर्मा-भवन में बुलाया, जहाँ इस विषय पर बड़ा वाद-विवाद हुआ। बलराम अर्जुन के इस व्यवहार से अत्यन्त क्रुद्ध हो गये थे और उन्होंने प्रण किया कि वे इस अपमान का बदला अवश्य लेंगें। कृष्ण ने बड़ी कुशलता के साथ अर्जुन के कार्य का समर्थन किया। श्रीमान् कृष्ण ने निर्भीक होकर कहा कि अर्जुन ने क्षत्रियोचित कार्य ही किया है।<ref>उनका स्वयं का दृष्टान्त भी सामने था, क्योंकि वे विदर्भ-कन्या रुक्मिणी को भगा लाये थे और फिर उसके साथ विवाह किया था।</ref> कृष्ण के अकाट्य तर्कों के आगे किसी की न चली। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर शांत किया। फिर वे बलराम तथा कुछ अन्य अंधक-वृष्णियों के साथ बड़ी धूमधाम से दहेज का सामान लेकर पांडवों के पास इंन्द्रप्रस्थ पहुँचे। अन्य लोग तो शीघ्र इन्द्रप्रस्थ से द्वारका लौट आये, किंतु कृष्ण कुछ समय वहाँ ठहर गये। इस बार पांडवों के राज्य के अंतर्गत [[खांडव वन]] नामक स्थान में भयंकर अग्निकांड हो गया, किंतु कृष्ण और अर्जुन के प्रयत्नों से अग्नि बुझा दी गई और वहाँ के निवासी मय तथा अन्य दानवों की रक्षा की जा सकी।<br />
<ref>ये दानव संभवत: इस भूभाग के आदिम निवासी थे। पुराणों तथा महाभारत से पता चलता है कि मय दानव वास्तु-कला में बहुत कुशल था और उसने पांडवों के लिए अनेक महल आदि बनाये। शायद इसी ने कृष्ण तथा पांडवों को अद्भुत शस्त्रास्त्र भी प्रदान किये । [[ॠग्वेद]] में असुरों के दृढ़ और विशाल किलों, महलों और हथियारों के उल्लेख मिलते हैं। खांडव-वन में मय असुर तथा उसके कुछ काल पहले मधुवन में मधु तथा लवण असुर का होना एक महत्वपूर्ण बात है।</ref><br />
[[चित्र:Radha-Krishna-4.jpg|thumb|200px|left|[[राधा]]-कृष्ण]]<br />
==पांडवों का राजसूय यज्ञ और जरासंध का वध==<br />
कुछ समय बाद युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की तैयारियाँ आरंभ कर दी। और आवश्यक परामर्श के लिए कृष्णा को बुलाया। कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आये और उन्होंने [[राजसूय यज्ञ]] के विचार की पुष्टि की। उन्होंने यह सुझाव दिया कि पहले अत्याचारी शासकों को नष्ट कर दिया जाय और उसके बाद यज्ञ का आयोजन किया जाय। कृष्ण ने युधिष्ठिर को सबसे पहले जरासंध पर चढ़ाई करने की मन्त्रणा दी। तद्नुसार [[भीम]] और अर्जुन के साथ कृष्ण रवाना हुए और कुछ समय बाद मगध की राजधानी गिरिब्रज पहुँच गये। कृष्ण की नीति सफल हुई और उन्होंने भीम के द्वारा मल्लयुद्ध में जरासंध को मरवा डाला। जरासंध की मृत्यु के बाद कृष्ण ने उसके पुत्र [[सहदेव]] को मगध का राजा बनाया।<ref> कृष्ण और पांडवों के पूर्व से लौटने के बाद सहदेव के कई प्रतिद्वंदी खड़े हो गये, जिन्होंने मगध साम्राज्य के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया। कुरुराज दुर्योधन ने कुछ समय बाद [[कर्ण]] को [[अंग]] देश का शासक बनाया, जिसने बंग और पुंड्र राज्यों को भी अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार दुर्योधन को पूर्व में एक शक्तिशाली सहायक प्राप्त हो गया।</ref> फिर उन्होंने गिरिब्रज के कारागार में बन्द बहुत से राजाओं को मुक्त किया। इस प्रकार कृष्ण ने जरासंध-जैसे महापराक्रमी और क्रूर शासक का अन्त कर बड़ा यश पाया। जरासंध के पश्चात पांडवों ने भारत के अन्य कितने ही राजाओं को जीता।<br />
[[चित्र:Radha-1.jpg|thumb|विरहिणी [[राधा]]]]<br />
अब पांडवों का राजसूय यज्ञ बड़ी धूमधाम से आरम्भ हुआ। कृष्ण ने यज्ञ में आये हुए ब्राह्मणों के पैर आदर-भाव से धोये। ब्रह्मचारी [[भीष्म]] ने कृष्ण की प्रशंसा की तथा उनकी `अग्रपूजा` करने का प्रस्ताव किया। सहदेव ने सर्वप्रथम कृष्णको अर्ध्यदान दिया। चेदि-नरेश शिशुपाल कृष्ण के इस सम्मान को सहन न कर सका और उलटी-सीधी बातें करने लगा। उसने युधिष्ठिर से कहा कि 'कृष्ण न तो ऋत्विक् है, न राजा और न आचार्य। केवल चापलूसी के कारण तुमने उसकी पूजा की है।'<ref>नैव ऋत्विङ् न चाचार्यो न राजा मधुसूदन: ।<br /><br />
चर्चितश्य कुरुश्रेष्ठ किमन्यत्प्रियकाम्यया ।। (महाभारत 2,37,17)</ref> शिशुपाल दो कारणों से कृष्ण से विशेष द्वेष मानता था-प्रथम तो विदर्भ कन्या रुक्मिणी के कारण, जिसको कृष्ण हर लाये थे और शिशुपाल का मनोरथ अपूर्ण रह गया था। दूसरे जरासंध के वध के कारण, जो शिशुपाल का घनिष्ठ मित्र था। जब शिशुपाल यज्ञ में कृष्ण के अतिरिक्त भीष्म और पांडवों की भी निंदा करने लगा तब कृष्ण से न सहा गया और उन्होंने उसे मुख बंद करने की चेतावनी दी। किंतु वह चुप नहीं रह सका। कृष्ण ने अन्त में शिशुपाल को यज्ञ में ही समाप्त कर दिया। अब पांडवों का राजसूर्य यज्ञ पूरा हुआ। पर इस यज्ञ तथा पांडवों की बढ़ती को देख उनके प्रतिद्वंद्वी [[कौरव|कौरवों]] के मन में विद्वेश की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और वे पांडवों को नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे।<br />
<br />
==युद्ध की पृष्ठ भूमि==<br />
यज्ञ के समाप्त हो जाने पर कृष्ण युधिष्ठिर से आज्ञा ले द्वारका लौट गये। इसके कुछ समय उपरांत दुर्योधन ने अपने मामा [[शकुनि]] की सहायता से छल द्वारा जुए में पांडवों को हरा दिया और उन्हें इस शर्त पर तेरह वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया कि अंतिम वर्ष उन्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा। पांडव द्रौपदी के साथ [[काम्यकवन]] की ओर चले गये। उनके साथ सहानुभूति रखने वाले बहुत से लोग काम्यक वन में पहुँचे, जहाँ पांडव ठहरे थे। भोज, वृष्णि और अंधक-वंशी यादव तथा पंचाल-नरेश द्रुपद भी उनसे मिले। कृष्ण को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह शीघ्र पांडवों से मिलने आये। उनकी दशा देख तथा द्रौपदी की आक्रोशपूर्ण प्रार्थना सुन कृष्ण द्रवित हो उठे। उन्होंने द्रौपदी को वचन दिया कि वे पांडवों की सब प्रकार से सहायता करेगें और उनका राज्य वापस दिलावेंगे। इसके बाद कृष्ण सुभद्रा तथा उसके बच्चे [[अभिमन्यु]] को लेकर द्वारका वापस गये। पांडवों ने अज्ञातवास का एक साल राजा [[विराट]] के यहाँ व्यतीत किया। कौरवों ने विराट पर चढ़ाई कर उनके पशु छीन लिये थे, पर पांडवों की सहायता से विराट ने कौरवों पर विजय पाई और अपने पशुओं को लौटा लिया। विराट को अन्त में यह ज्ञात हुआ कि उनके यहाँ पांडव गुप्त रूप से अब तक निवास करते रहे थे। उन्होंने अपनी पुत्री [[उत्तरा]] का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया। इस विवाह में अभिमन्यु के मामा कृष्ण बलदेव भी सम्मिलित हुए।<br />
<br />
इसके उपरांत [[विराट नगर]] में सभा हुई और उसमें विचार किया गया कि कौरवों से पांडवों का समझौता किस प्रकार कराया जाय। बलराम ने कहा कि शकुनि का इस झगड़े में कोई दोष नही था; युधिष्ठिर उसके साथ जुआ खेलने ही क्यों गये ? हाँ, यदि किसी प्रकार संधि हो जाय तो अच्छा है। सात्यकि और द्रुपद को बलराम की ये बाते अच्छी नहीं लगी। कृष्ण ने द्रुपद के कथन की पुष्टि करते हुए कहा कि कौरव अवश्य दोषी है। अतं में सर्व-सम्मति से यह तय हुआ कि संधि के लिए किसी योग्य व्यक्ति को दुर्योधन के पास भेजा जाय। द्रुपद ने अपने पुरोहित को इस काम के लिए भेजा। कृष्ण इस सभा में सम्मिलित होने के बाद द्वारका चले गये। संधि की बात तब न हो सकी। दुर्धोधन पांडवों को पाँच गाँव तक देने की राजी न हुआ। अब युद्ध अनिवार्य जानकर दुर्योधन और अर्जुन दोनों श्री कृष्ण ने सहायता प्राप्त करने के लिए द्वारका पहुँचे। नीतिज्ञ कृष्ण ने पहले दुर्योधन ने पूछा कि तुम मुझे लोगे या मेरी सेना को ? दुर्योधन ने तत्त्काल सेना मांगी। कृष्ण ने अर्जुन को वचन दिया कि वह उसके सारथी बनेगें और स्वयं शस्त्र न ग्रहण करेगें।<br />
<br />
कृष्ण अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ आ गये। कृष्ण के आने पर पांडवों ने फिर एक सभा की और निश्चय किया कि एक बार संधि का और प्रयत्न किया जाय। युधिष्ठिर ने अपना मत प्रकट करने हुए कहा- हम पाँच भाइयों को अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणाबत और एक कोई अन्य गांव निर्वाह मात्र के लिए चाहिए। इतने पर ही हम मान जायेगें, अन्यथा युद्ध के लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने लिए प्रस्तुत होना पड़ेगा। उनके इस कथन का समर्थन अन्य लोगों ने भी किया। वह तय हुआ कि इस बार संधि का प्रस्ताव लेकर कृष्ण कौरवों के पास जाये। कृष्ण संधि कराने को बहुत इच्छुक थे। उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाकर उसे समझाया और कहा कि केवल पाँच गाँव पांडवों को देकर झगड़ा समाप्त कर दिया जाय। परंतु अभिमानी दुर्योधन स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के वह पांडवों को सुई की नोंक के बराबर भी ज़मीन न देगा।<br />
<br />
==महाभारत युद्ध==<br />
[[चित्र:krishna-arjun1.jpg|thumb|250px|कृष्ण-[[अर्जुन]]]] <br />
इस प्रकार कृष्ण भी संधि कराने में असफल हुए। अब युद्ध अनिवार्य हो गया। दोनों पक्ष अपनी-अपनी सेनाएँ तैयार करने लगे। इस भंयकर युद्धग्नि में इच्छा या अनिच्छा से आहुति देने को प्राय: सारे भारत के शासक शामिल हुए। पांडवों की ओर मध्स्य, [[पंचाल]], [[चेदि]], कारूश, पश्चिमी मगध, [[काशी]] और कंशल के राजा हुए। सौराष्ट्र-गुजरात के वृष्णि यादव भी पांडवो के पक्ष में रहे। कृष्ण, युयंधान और सात्यकि इन यादवों के प्रमुख नेता थे। ब्रजराम अद्यपि कौरवों के पक्षपाती थे, तो भी उन्होंने कौरव-पांडव युद्ध में भाग लेना उचित न समझा और वे तीर्थ-पर्यटन के लिए चले गये। कौरवों की और शूरसेन प्रदेश के यादव तथा महिष्मती, [[अवंति]], [[विदर्भ]] और निषद देश के यादव हुए। इनके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल, आसाम, उड़ीसा तथा उत्तर-पश्चिम एवं पश्चिम भारत के बारे राजा और [[वत्स]] देश के शासक कौरवों की ओर रहे। इस प्रकार मध्यदेश का अधिकांश, गुजरात और सौराष्ट्र का बड़ा भाग पांडवों की ओर था और प्राय: सारा पूर्व, उत्तर-पश्चिम और पश्चिमी विंध्य कौरवों की तरफ। पांडवों की कुल सेना सात अक्षौहिणी तथा कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी थी।<br />
<br />
दोनों ओर की सेनाएं युद्ध के लिए तैयार हुई। कृष्ण, धृष्टद्युम्न तथा सात्वकि ने पांडव-सैन्य की ब्यूह-रचना की। कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध मैदान में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सामने आ डटीं। अर्जुन के सारथी कृष्ण थे। युद्धस्थल में अपने परिजनों आदि को देखकर अर्जुन के चित्त में विषाद उत्पन्न हुआ और उसने युद्ध करने से इंकार कर दिया। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के निष्काम कर्मयोग का उपदेश दिया और उसकी भ्रांति दूर की। अब अर्जुन के युद्ध के लिए पूर्णतया प्रस्तुत हो गया। अठारह दिन तक यह महाभीषण संग्राम होता रहा। देश का अपार जन-धन इसमें स्वाहा हो गया। कौरवों के शक्तिशाली सेनापति [[भीष्म]], [[द्रोण]], कर्ण, [[शल्य]] आदि धराशायी हो गये। अठारहवें दिन दुर्योधन मारा गया और महाभारत युद्ध की समाप्ति हुई। यद्यपि पांडव इस युद्ध में विजयी हुए, पर उन्हें शांति न मिल सकी। चारों और उन्हें क्षोभ और निराशा दिखाई पड़ने लगी। श्रीकृष्ण ने शरशय्या पर लेटे हुए भीष्मपितामह से युधिष्ठर को उपदेश दिलवाया। फिर हस्तिनापुर में राज्याभिषेक-उत्सव सम्पन्न करा कर वे द्वारका लौट गये। पांडवों ने कुछ समय बाद एक [[अश्वमेध यज्ञ]] किया और इस प्रकार वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट् घोषित हुए। कृष्ण भी इस यज्ञ में सम्मिलित हुए और फिर द्वारका वापस चले गये। यह कृष्ण की अंतिम हस्तिनापुर यात्रा थी। अब वे वृद्ध हो चुके थे। महाभारत-संग्राम में उन्हें जो अनवरत परिश्रम करना पड़ा उसका भी उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।<br />
[[चित्र:Dwarkadhish-Temple-Dwarka-Gujarat-2.jpg|thumb|250px|[[द्वारिकाधीश मंदिर द्वारका|द्वारिकाधीश मन्दिर]], [[द्वारका]]]]<br />
<br />
==श्रीकृष्ण का द्वारका का जीवन==<br />
द्वारका के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है कि यह नगर बिलकुल नवीन नही था। वैवस्वत मनु के एक पुत्र [[शर्याति]] को शासन में पश्चिमी भारत का भाग मिला था। शर्याति के पुत्र आनर्त के नाम पर कठियावाड़ और समीप के कुछ प्रदेश का नाम आनंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी राजधानी कुशस्थली के ध्वंसावशेषों पर कृष्ण कालीन द्वारका की स्थापना हुई।<ref> यह स्थान आजकल 'मूल द्वारका' के नाम से ज्ञात है और प्रभास-पट्टन के पूर्व कोडीनार के समीप स्थित है। औखामंडल वाली द्वारका बाद में बसाई हुई प्रतीत होती है। सौराष्ट्र में एक तीसरी द्वारका पोरबंदर के पास है।</ref> यहाँ आकर कृष्ण ने उग्रसेन को वृष्णिगण का प्रमुख बनाया। द्वारका में कृष्ण के वैयक्तिक जीवन की पहली मुख्य घटना थी-कुंडिनपुर<ref> यह कुंडिननुर विदर्भ देश (बरार) में था। एक जनश्रुति के अनुसार कुंडिनपुर उत्तरप्रदेश के एटा ज़िले में वर्तमान नोहखेड़ा के पास था। किंवदंती है कि कृष्ण यहीं से रुक्मिणी को ले गये थे। नोहखेड़ा में आज भी रुक्मिणी की मढ़िया बनी है, जहाँ लगभग आठवीं शती की एक अत्यंत कलापूर्ण पाषाण-मूर्ति रुक्मिणी के नाम से पूजी जाती है। खेड़े से अन्य प्राचीन कलावशेष प्राप्त हुए हैं। यह स्थान एटा नगर से क़रीब 20 मील दक्षिण जलेसर तहसील में है।</ref> की सुंदरी राजकुमारी रुक्मिणी के साथ विवाह। हरिवंश पुराण में यह कथा विस्तार से दी हुई है। रुक्मिणी का भाई [[रूक्मी]] था। वह अपनी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल से करना चाहता था। मगधराज जरासंध भी यही चाहता था। किंतु कुंडिनपुर का राजा कृष्ण को ही अपनी कन्या देना चाहता था। रुक्मिणी स्वयं भी कृष्ण को वरना चाहती थी। उनके सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा सुन रखी थी। रुक्मिणी का स्वयंवर रचा गया और वहाँ से कृष्ण उसे हर ले गये। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे पराजित हुए। इस घटना से शिशुपाल कृष्ण के प्रति गहरा द्वेष मानने लगा।<br />
<br />
हरिवंश के अनुसार बलराम का विवाह भी द्वारका जाकर हुआ।<ref> हरि0, अ0 116। बलराम का विवाह आनर्त-वंशी यादव रेवत की पुत्री रेवती से हुआ।</ref> संभवत: पहले बलराम का विवाह हुआ, फिर कृष्ण का। बाद के पुराणों में बलराम और रेवती की विचित्र कथा मिलती है। कृष्ण की अन्य पत्नियाँ-रुक्मिणी के अतिरिक्त कृष्ण की सात अन्य पत्नियाँ होने का उल्लेख प्राय: सभी पुराणों में मिलता है।<ref> [[भागवत पुराण]] (56-57), [[वायु पुराण]] (96, 20-98), [[पद्म पुराण]] (276, 1-37), [[ब्रह्म वैवर्त पुराण]] (122), [[ब्रह्माण्ड पुराण]] (201, 15), [[हरिवंश पुराण]] (118) आदि । पुराणों में नरकासुर का श्रीकृष्ण के द्वारा वध तथा उसके द्वारा बंदी सोलह हज़ार स्त्रियों के छुड़ाने का भी वर्णन मिलता है और कहा गया है कि कृष्ण ने इन सबसे विवाह कर लिया।</ref> इनके नाम [[सत्यभामा]], [[जांबवती]], [[कालिंदी]], मित्रविंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मण दिये हैं। इनमें से कोई को तो उनके माता-पिता ने विवाह में प्रदान किया और शेष को कृष्ण विजय में प्राप्त कर लाये। सतांन-पुराणों से ज्ञात होता है कि कृष्ण के संतानों की संख्या बड़ी थी ।<ref> दे0 भागवत पुराण 61, 1-19; हरिवंश पुराण118 तथा 162; ब्रह्मवैवर्त पुराण 112, 36-41 आदि।</ref> [[रुक्मिणी ]] से दस पुत्र और एक कन्या थी इनमें सबसे बड़ा [[प्रद्युम्न]] था। भागवतादि पुराणों में कृष्ण के गृहस्थ-जीवन तथा उनकी दैनिक चर्या का हाल विस्तार से मिलता है। प्रद्युम्न के पुत्र [[अनिरूद्ध]] का विवाह शोणितपुर<ref> यह शोणितपुर कहाँ था, इस संबंध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इसे गढ़वाल ज़िले में रुद्रप्रयाग के उत्तर ऊषीमठ के समीप मानते हैं। कुमायूँ पहाड़ी का कोटलगढ़ आगरा के समीप बयाना, नर्मदा पर स्थित तेवर (प्राचीन त्रिपुरी) तथा आसाम के तेजपुर को भी विभिन्न मतों के अनुसार शोणितपुर माना जाता है। श्री अमृतवसंत पंड्या का मत है कि शोणितपुर असीरिया में था और श्रीकृष्ण ने असीरिया पर आक्रमण कर बाणासुर (असुरबानी पाल प्रथम) को परास्त किया (ब्रजभारती, फाल्गुन, सं0 2009, पृ0 25-31)। </ref> के राजा वाणासुर की पुत्री ऊषा के साथ हुआ।<br />
<br />
==यादवों का अंत==<br />
[[चित्र:Dwarkadhish Temple Mathura 2.jpg|[[द्वारिकाधीश मन्दिर मथुरा|द्वारिकाधीश मन्दिर]], [[मथुरा]]|thumb|250px]]<br />
अंधक-वृष्णि यादव बड़ी संख्या में महाभारत युद्ध में काम आये। जो शेष बचे वे आपस में मिल-जुल कर अधिक समय तक न रह सके। श्रीकृष्ण-बलराम अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे और संभवत: यादवों के ऊपर उनका प्रभाव भी कम हो गया था। पौराणिक विवरणों से पता चलता है कि यादवों में विकास की वृद्धि हो चली थी और ये मदिरा-पान अधिक करने लगे थे। कृष्ण-बलराम के समझाने पर भी ऐश्वर्य से मत्त यादव न माने और वे कई दलों में विभक्त हो गये। एक दिन प्रभास के मेले में, जब यादव लोग वारुणी के नशें में चूर थे, वे आपस में लड़ने लगे। वह झगड़ा इतना बढ़ गया कि अंत में वे सामूहिक रूप से कट मरे। इस प्रकार यादवों ने गृह-युद्ध अपना अन्त कर लिया।<ref> विभिन्न पुराणों में इस गृह-युद्ध का वर्णन मिलता है और कहा गया है कि ऋषियों के शाप के कारण कृष्ण-पुत्र सांब के पेट से एक मुशल उत्पन्न हुआ, जिससे यादव-वंश का नाश हो गया। दे0 महाभारत, मुशल पर्व; ब्रह्म पुर0 210-12; विष्णु0 37-38; भाग0 ग्यारहवां स्कंध अ0 1,6,30,31; लिंग पु0 69,83-94 आदि </ref><br />
<br />
==अंतिम समय==<br />
प्रभास के यादवयुद्ध में चार प्रमुख व्यक्तियों ने भाग नही लिया, जिससे वे बच गये। ये थे-कृष्ण, बलराम, दारुक सारथी और बभ्रु। बलराम दु:खी होकर समुद्र की ओर चले गये और वहाँ से फिर उनका पता नही चला। कृष्ण बड़े मर्माहत हुए। वे द्वारका गये और दारुक को अर्जुन के पास भेजा कि वह आकर स्त्री-बच्चों को हस्तिनापुर लिवा ले जायें। कुछ स्त्रियों ने जल कर प्राण दे दिये। अर्जुन आये और शेष स्त्री-बच्चों को लिवा कर चले।<ref> संभवत: इस अवसर पर अर्जुन की कृष्ण से भेंट न हो सकी। कृष्ण पहले ही द्वारका छोड़ गये होंगे। महाभारत (16,7) में श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव से अर्जुन के मिलने का उल्लेख है, जिससे पता चलता है कि वसुदेव इस समय तक जीवित थे। इसके बाद वसुदेव की मृत्यु तथा उनके साथ चार विधवा पत्नियों के चितारोहण का कथन मिलता है।</ref> कहते है मार्ग में पश्चिमी राजपूताना के जंगली आभीरों से अर्जुन को मुक़ाबला करना पड़ा। कुछ स्त्रियों को आभीरों ने लूट लिया।<ref> महाभारत 16,8,60; ब्रह्म0 212,26।</ref> शेष को अर्जुन ने शाल्ब देश और कुरु देश में बसा दिया। कृष्ण शोकाकुल होकर घने वन में चले गये थे। वे चिंतित हो लेटे हुए थे कि जरा नामक एक बहेलियें ने हरिण के भ्रम से तीर मारा। वह वाण श्रीकृष्ण के पैर में लगा, जिससे शीघ्र ही उन्होंने इस संसार को छोड़ दिया। मृत्यु के समय वे संभवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर थे। कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ। श्रीकृष्ण के अंत का इतिहास वास्तव में यादव गण-तंत्र के अंत का इतिहास है। कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र बज्र यदुवंश के उत्तराधिकारी हुए। पुराणों के अनुसार वे मथुरा आये और इस नगर को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया। कही-कहीं उन्हें इन्द्रप्रस्थ का शासक कहा गया है।<br />
[[चित्र:Krishna-Janmbhumi-Mathura-4.jpg|आकर्षक वस्त्रों से सजे [[श्रीकृष्ण]]|thumb|220px]]<br />
<br />
==अंधक-वृष्णि संघ==<br />
यादवों के अंधक-वृष्णि संघ का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इस संघ की कार्य-प्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक-वृष्णि-संघ काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद़्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था; चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग-अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये। प्रत्येक दल अब अपना राजनैतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा। इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी। एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था। जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है, उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे। महाभारत के शांति पर्व के 82 वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। यह वर्णन श्रीकृष्ण और [[नारद]] के बीच संवाद के रूप में है। उसका हिन्दी अनुवाद नीचे दिया जाता है ।<br />
<br />
====वसुदेव उवाच====<br />
*देवर्षे! जो व्यक्ति सुहृद न हो, जो सुहृद तो हो किन्तु पण्डित न हो तथा जो सुहृद और पण्डित तो हो किन्तु अपने मन को वश में न कर सका हो- ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणा को सुनने या जानने के अधिकारी नहीं हैं।(3)<br />
*स्वर्ग विचरनेवाले नारदजी! मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्ति बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता है।(4)<br />
*मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाइयों, कुटुम्बी-जनों को अपना दास बनाना नहीं चहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोग में लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिये ही छोड़ देता हूँ और उनकी कड़वी बातों को सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ। (5)<br />
*देवर्षे! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्थन करता है, उसी प्रकार इन कुटुम्बी-जनों का कटुवचन मेरे ह्रदय को सदा मथता और जलाता रहता है।(6)<br />
*नारद जी! बड़े भाई बलराम में सदा ही असीम बल है; वे उसी में मस्त रहते हैं। छोटे भाई गद में अत्यन्त सुकुमारता है (अत: वह परिश्रम से दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्य के अभिमान से ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हूँ।(7)<br />
*नारद जी! अन्धक तथा वृष्णि वंश में और भी बहुत से वीर पुरुष हैं, जो महान सौभाग्यशाली, बलवान एवं दु:सह पराक्रमी हैं, वे सब के सब सदा उद्योगशील बने रहते हैं।(8) <br />
*ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव है और जिसके पक्ष में ये चले जाएँ, वह सारा का सारा समुदाय ही विजयी हो जाए। परन्तु आहुक और अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरुद्ध कर दिया है कि मैं इनमें किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता।(9)<br />
*आपस में लड़ने वाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दु:ख क्या हो सकता है? (क्योंकि ऐसे मित्रों का न रहना भी महान् दु:खदायी होता है)(10)<br />
*महामते! जैसे दो जुआरियों की एक ही माता एक की जीत चाहती है तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहती, उसी प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदों में से एक की विजय कामना करता हूँ तो दूसरे की पराजय नहीं चाहता। (11)<br />
*नारद जी! इस प्रकार मैं सदा उभय पक्ष का हित चाहने के कारण दोनों ओर से कष्ट पाता रहता हूँ। ऐसी दशा में मेरा अपना तथा इन जाति-भाइयों का भी जिस प्रकार भला हो, वह उपाय आप बताने की कृपा करें। (12)<br />
[[चित्र:Krishna-Janmbhumi-Mathura-2.jpg|thumb|श्रीकृष्ण, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]]]<br />
====नारद उवाच====<br />
*नारद जी ने कहा- वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! आपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं- एक ब्रह्म और दूसरी आभ्यन्तर। वे दोनों ही स्वकृत<ref>जो आपत्तियाँ स्वत: अपना ही करतूतों से आती हैं, उन्हें स्वकृत कहते हैं।</ref> और परकृत<ref>जिन्हें लाने में दूसरे लोग निमित्त बनते हैं, वे विपत्तियाँ परकृत कहलाती है।</ref> भेद से दो-दो प्रकार की होती हैं। (13)<br />
*अक्रूर और आहुक से उत्पन्न हुई यह कष्टदायिनी आपत्ति जो आप को प्राप्त हुई है, आभ्यन्तर है और अपनी ही करतूतों से प्रकट हूई है। ये सभी जिनके नाम आपने गिनाये हैं, आपके ही वंश हैं। (14)<br /><br />
*आपने स्वयं जिस ऐश्वर्य को प्राप्त किया था, उसे किसी प्रयोजन वश या स्वेच्छा से अथवा कटुवचन से डरकर दूसरे को दे दिया। (15)<br />
*सहायशाली श्री कृष्ण! इस समय उग्रसेन को दिया हुआ वह ऐश्वर्य दृढ़मूल हो चुका है। उग्रसेन के साथ जाति के लोग भी सहायक हैं; अत: उगले हुए अन्न की भाँति आप उस दिये हुए ऐश्वर्य को वापस नहीं ले सकते। (16)<br />
*श्री कृष्ण! अक्रूर और उग्रसेन के अधिकार में गए हुए राज्य को भाई-बन्धुओं में फूट पड़ने के भय से अन्य की तो कौन कहे इतने शक्तिशाली होकर स्वयं भी आप किसी तरह वापस नहीं ले सकते। (17)<br />
*बड़े प्रयत्न से अत्यन्त दुष्कर कर्म महान् संहाररूप युद्ध करने पर राज्य को वापस लेने का कार्य सिद्ध हो सकता है, परन्तु इसमें धन का बहुत व्यय और असंख्य मनुष्यों का पुन: विनाश होगा। (18)<br />
*अत: श्री कृष्ण! आप एक ऐसे कोमल शस्त्र से, जो लोहो का बना हुआ न होने पर भी हृदय को छेद डालने में समर्थ है , परिमार्जन<ref>क्षमा, सरलता और कोमलता के द्वारा दोषों को दूर करना 'परिमार्जन' कहलाता है।</ref> और अनुमार्जन<ref>यथायोग्य सेवा-सत्कार के द्वारा हृदय में प्रीति उत्पन्न करना 'अनुमार्जन' कहा गया है।</ref> करके उन सबकी जीभ उखाड़ लें- उन्हें मूक बना दें(जिससे फिर कलह का आरम्भ न हो) (19)<br />
[[चित्र:Makhanchor.jpg|thumb||left|माखनचोर कृष्ण]]<br />
====वासुदेव उवाच==== <br />
*भगवान श्री कृष्ण ने कहा- मुने! बिना लोहे के बने हुए उस कोमल शस्त्र को मैं कैसे जानूँ, जिसके द्वारा परिमार्जन और अनुमार्जन करके इन सबकी जिह्वा को उखाड़ लूँ।(20)<br />
====नारद उवाच====<br />
*नारद जी ने कहा- श्री कृष्ण! अपनी शक्ति के अनुसार सदा अन्नदान करना, सहनशीलता, सरलता, कोमलता तथा यथायोग्य पूजन (आदर-सत्कार) करना यही बीना लोहे का बना हुआ शस्त्र है। (21) <br />
*जब सजातीय बन्धु आप के प्रति कड़वी तथा ओछी बातें कहना चाहें, उस समय आप मधुर वचन बोलकर उनके हृदय, वाणी तथा मन को शान्त कर दें। (22)<br />
[[चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण|thumb|220px]]<br />
*जो महापुरुष नहीं है, जिसने अपने मन को वश में नहीं किया है तथा जो सहायकों से सत्पन्न नहीं है, वह कोई भारी भार नहीं उठा सकता। अत: आप ही इस गुरुतर भार को हृदय से उठाकर वहन करें। (23)<br />
*समतल भूमिपर सभी बैल भारी भार वहन कर लेते हैं; परन्तु दुर्गम भूमि पर कठिनाई से वहन करने योग्य गुरुतर भार को अच्छे बैल ही ढोते हैं। (24)<br />
*केशव! आप इस यादवसंघ के मुखिया हैं। यदि इसमें फूट हो गयी तो इस समूचे संघ का विनाश हो जाएगा; अत: आप ऐसा करें जिससे आप को पाकर इस संघ का- इस यादवगणतन्त्र राज्य का मूलोच्छेद न हो जाए। (25)<br />
*बुद्धि, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह के बिना तथा धन-वैभव का त्याग किये बिना कोई गण अथवा संघ किसी बुद्धिमान पुरुष की आज्ञा के अधीन नहीं रहता है। (26)<br />
*श्री कृष्ण! सदा अपने पक्ष की ऐसी उन्नति होनी चाहिए जो धन, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाली हो और कुटुम्बीजनों में से किसी का विनाश न हो। यह सब जैसे भी सम्भव हो, वैसा ही कीजिये। (27)<br />
*प्रभु! संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय- इन छहों गुणों के यथासमय प्रयोग से तथा शत्रु पर चढ़ाई करने के लिए यात्रा करने पर वर्तमान या भविष्य में क्या परिणाम निकलेगा? यह सब आप से छिपा नहीं है।(28)<br />
*महाबाहु माधव! कुकुर, भोज, अन्धक और वृष्णि वंश के सभी यादव आप में प्रेम रखते हैं। दूसरे लोग और लोकेश्वर भी आप में अनुराग रखते हैं। औरों की तो बात ही क्या है? बड़े-बड़े ॠषि-मुनि भी आपकी बुद्धि का आश्रय लेते हैं।(29)<br />
*आप समस्त प्राणियों के गुरु हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य को जानते हैं। आप जैसे यदुकुलतिलक महापुरुष का आश्रय लेकर ही समस्त यादव सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं।(30)<br />
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उक्त उद्धरण से ज्ञात होता है कि अंधक-वृष्णि संध में शास्त्र के अनुसार व्यवहार (न्याय) संपादित होता था। अंतर और वाह्म विभाग, अर्थ विभाग-ये सब नियमित रूप से शासित होते थे। गण-मुख्य का काम कार्यवाहक प्रण-प्रधान (राजन्य) देखता था। गण-मुख्यों-अक्रुर अंधक, आहुक आदि-की समाज में प्रतिष्ठा थी। अंधक-वृष्णियों का मन्त्रगण सुधर्मा नाम से विख्यात था। समय-समय पर परिषद् की बैठकें महत्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिए हुआ करती थी। `सभापाल' परिषद् बुलाता था। प्रत्येक सदस्स्य को अपना मत निर्भीकता से सामने रखने का अधिकार था। जो अपने मत का सर्वोत्तम ढंग से समर्थन करता वह परिषद् को प्रभावित कर सकता था। गण-मुख्य अलग-अलग शाखाओं के नेता होते थे। राज्य के विभिन्न विभाग उनके निरीक्षण में कार्य करते थे। इन शाखाओं या जातीय संघों को अपनी-अपनी नीति के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता थी महाभारत में यादवों की कुछ शाखाएं इसी कारण पाडंवों की ओर से लड़ी और कुछ कौरवों की ओर से । इससे स्पष्ट है कि महाभारतयुद्ध के समझ जातीय-संघों का काफ़ी जोर हो गया था।<ref> विस्तार के लिए देखिये के. एम.मुंशी-ग्लोरी दैट वाज़ गुर्जर देश, पृ.130 तथा वासुदेवशरण अग्रवाल-इंडिया ऎज़ नोन टु पाणिनि(लखनऊ,1953),पृ.452।</ref><br />
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==वीथिका==<br />
<gallery widths="145px" perrow="4"><br />
चित्र:Krishna-birth2.jpg|कृष्ण जन्म के समय भगवान [[विष्णु]]<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|बाल कृष्ण को [[यमुना]] पार ले जाते [[वसुदेव]]<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण<br />
चित्र:Radha-Krishna-Janmbhumi-Mathura-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण, [[कृष्ण जन्मभूमि]], [[मथुरा]]<br />
</gallery><br />
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==<br />
<references/><br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{महाभारत}} <br />
{{दशावतार2}}<br />
{{कृष्ण2}}<br />
{{हिन्दू देवी देवता और अवतार}} <br />
{{दशावतार}}<br />
{{कृष्ण}}<br />
[[Category:हिन्दू भगवान अवतार]]<br />
[[Category:कृष्ण]]<br />
[[Category:महाभारत]]<br />
[[Category:भगवान-अवतार]] [[Category: कोश]]<br />
[[en:Krishna]]<br />
__INDEX__<br />
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