http://hi.brajdiscovery.org/api.php?action=feedcontributions&user=Brajdis1&feedformat=atomBrajdiscovery - सदस्य योगदान [hi]2024-03-28T11:36:52Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.35.6http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=Gla&diff=65555Gla2011-04-07T16:52:44Z<p>Brajdis1: जी.एल.ए समूह को अनुप्रेषित</p>
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<div>#REDIRECT[[जी.एल.ए समूह]]</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%8F%E0%A4%B2%E0%A4%8F_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B9&diff=65553जीएलए समूह2011-04-07T16:49:36Z<p>Brajdis1: जी.एल.ए समूह को अनुप्रेषित</p>
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<div>#REDIRECT[[जी.एल.ए समूह]]</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=Sanjay_College_of_Pharmacy&diff=65551Sanjay College of Pharmacy2011-04-07T16:48:07Z<p>Brajdis1: संजय कॉलेज ऑफ़ फ़ार्मेसी को अनुप्रेषित</p>
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<div>#REDIRECT[[संजय कॉलेज ऑफ़ फ़ार्मेसी]]</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=Sanjay_College_Mathura&diff=65550Sanjay College Mathura2011-04-07T16:46:46Z<p>Brajdis1: संजय कॉलेज ऑफ़ फ़ार्मेसी को अनुप्रेषित</p>
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<div>#REDIRECT[[संजय कॉलेज ऑफ़ फ़ार्मेसी]]</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8&diff=62199समर्थ रामदास2010-09-11T04:53:44Z<p>Brajdis1: "समर्थ रामदास" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))</p>
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<div>{{menu}}<br />
[[Category:कोश]] [[Category:संत]]<br />
==समर्थ गुरु रामदास / Samarth Guru Ramdas==<br />
[[चित्र:Samarth-Guru-Ramdas.jpg|समर्थ गुरु रामदास<br />Samarth-Guru-Ramdas|thumb|250px]]<br />
समर्थ रामदास का जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले के जांब नामक स्थान पर शके 1530 में हुआ। इनका नाम ‘नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी’ था। ये बचपन में बहुत शरारती हुआ करते थे। गाँव के लोग रोज उनकी शिकायत उनकी माता से करते थे।<br />
एक दिन माता राणुबाई ने नारायण से कहा, ' कुछ काम किया करो, तुम दिनभर शरारत करते हो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं!' यह बात नारायण के मन में लग गई। दो-तीन दिन बाद इन्होंने अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यान लगा लिया। दिनभर में नारायण नहीं दिखा तो माता ने बड़े बेटे से पूछा कि नारायण के बारे में पूछा और दोनों को चिंता हुई, उन्हें ढूँढने निकले पर, उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक़्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, 'नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?' तब नारायण ने जवाब दिया, 'मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूँ।'<br />
<br />
इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर [[हनुमान]] जी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो।<br />
<br />
आख्यायिका है कि 12 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय "शुभमंगल सावधान" में "सावधान" शब्द सुनकर वे विवाहमंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्री [[राम]]चंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम "रामदास" पड़ा। इसके बाद 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। इस प्रवस में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्षसाधना के स्थान पर अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। [[कश्मीर]] से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। <br />
<br />
इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्री [[शिवाजी]] महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्यस्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था। शिवाजी महाराज रामदासजी के कार्य से बहुत प्रभावित हुए तथा जब इनका मिलन हुआ तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य रामदासजी की झोली में डाल दिया।<br />
रामदासजी ने महाराज से कहा, 'यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है, हम सिर्फ न्यासी हैं।' शिवाजी समय-समय पर उनसे सलाह-मशविरा किया करते थे।<br />
रामदास स्वामी ने बहुत से ग्रंथ लिखे। इसमें 'दासबोध' प्रमुख है। इसी प्रकार उन्होंने हमारे मन को भी संस्कारित किया 'मनाचे श्लोक' द्वारा। <br />
<br />
उन्होंने शके 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{संत}}<br />
[[en:Samarth Ramdas]]<br />
__INDEX__</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8&diff=62198समर्थ रामदास2010-09-11T04:53:22Z<p>Brajdis1: </p>
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<div>{{menu}}<br />
[[Category:कोश]] [[Category:संत]]<br />
==समर्थ गुरु रामदास / Samarth Guru Ramdas==<br />
[[चित्र:Samarth-Guru-Ramdas.jpg|समर्थ गुरु रामदास<br />Samarth-Guru-Ramdas|thumb|250px]]<br />
समर्थ रामदास का जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले के जांब नामक स्थान पर शके 1530 में हुआ। इनका नाम ‘नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी’ था। ये बचपन में बहुत शरारती हुआ करते थे। गाँव के लोग रोज उनकी शिकायत उनकी माता से करते थे।<br />
एक दिन माता राणुबाई ने नारायण से कहा, ' कुछ काम किया करो, तुम दिनभर शरारत करते हो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं!' यह बात नारायण के मन में लग गई। दो-तीन दिन बाद इन्होंने अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यान लगा लिया। दिनभर में नारायण नहीं दिखा तो माता ने बड़े बेटे से पूछा कि नारायण के बारे में पूछा और दोनों को चिंता हुई, उन्हें ढूँढने निकले पर, उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक़्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, 'नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?' तब नारायण ने जवाब दिया, 'मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूँ।'<br />
<br />
इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर [[हनुमान]] जी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो।<br />
<br />
आख्यायिका है कि 12 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय "शुभमंगल सावधान" में "सावधान" शब्द सुनकर वे विवाहमंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्री [[राम]]चंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम "रामदास" पड़ा। इसके बाद 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। इस प्रवस में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्षसाधना के स्थान पर अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। [[कश्मीर]] से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। <br />
<br />
इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्री [[शिवाजी]] महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्यस्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था। शिवाजी महाराज रामदासजी के कार्य से बहुत प्रभावित हुए तथा जब इनका मिलन हुआ तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य रामदासजी की झोली में डाल दिया।<br />
रामदासजी ने महाराज से कहा, 'यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है, हम सिर्फ न्यासी हैं।' शिवाजी समय-समय पर उनसे सलाह-मशविरा किया करते थे।<br />
रामदास स्वामी ने बहुत से ग्रंथ लिखे। इसमें 'दासबोध' प्रमुख है। इसी प्रकार उन्होंने हमारे मन को भी संस्कारित किया 'मनाचे श्लोक' द्वारा। <br />
<br />
उन्होंने शके 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।<br />
==सम्बंधित लिंक==<br />
{{संत}}<br />
[[en:Samarth Ramdas]]<br />
__INDEX__</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%B0%E0%A4%A4&diff=53731भरत2010-03-27T13:39:37Z<p>Brajdis1: </p>
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<div>{{menu}}<br />
==भरत / Bharat==<br />
भरत नाम तीन लोगों के है जो इस प्रकार है। विस्तार में पढ़ने के लिए नाम पर क्लिक करें-<br /><br />
#[[भरत दशरथ पुत्र|भरत]]- राजा दशरथ के पुत्र और राम के भाई।<br />
#[[भरत दुष्यंत पुत्र|राजा भरत]]- राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र।<br />
#[[भरत ॠषभदेव पुत्र|भरत]]- ॠषभदेव के पुत्र।<br />
[[Category:कोश]]<br />
__INDEX__</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%B0%E0%A4%A4&diff=53730भरत2010-03-27T13:27:13Z<p>Brajdis1: </p>
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<div>{{menu}}<br />
==भरत / Bharat==<br />
भरत नाम तीन लोगों के है जो इस प्रकार है। विस्तार में पढ़ने के लिए नाम पर क्लिक करें-<br /><br />
#[[भरत दशरथ पुत्र|भरत]]- राजा दशरथ के पुत्र और राम के भाई।<br />
#[[भरत दुष्यंत पुत्र|राजा भरत]]- राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र।<br />
#[[भरत ॠषभदेव पुत्र|भरत]]- ॠषभदेव के पुत्र।<br />
[[Category:कोश]]<br />
{{Disambig}}<br />
__INDEX__</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%B0%E0%A4%A4&diff=53728भरत2010-03-27T13:23:32Z<p>Brajdis1: </p>
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<div>{{menu}}<br />
==भरत / Bharat==<br />
भरत नाम तीन लोगों के है जो इस प्रकार है। विस्तार में पढ़ने के लिए नाम पर क्लिक करें-<br /><br />
#[[भरत दशरथ पुत्र|भरत]]- राजा दशरथ के पुत्र और राम के भाई।<br />
#[[भरत दुष्यंत पुत्र|राजा भरत]]- राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र।<br />
#[[भरत ॠषभदेव पुत्र|भरत]]- ॠषभदेव के पुत्र।<br />
[[Category:कोश]]<br />
{{Disambiguation}}<br />
__INDEX__</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A5%81&diff=53721केतु2010-03-27T12:41:04Z<p>Brajdis1: </p>
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<div>{{Menu}}<br />
==केतु / Ketu==<br />
*केतु की दो भुजाएँ हैं। वे अपने सिर पर मुकुट तथा शरीर पर काला वस्त्र धारण करते हैं। उनका शरीर धूम्रवर्ण का है तथा मुख विकृत है। वे अपने एक हाथ में गदा और दूसरे में वरमुद्रा धारण किये रहते हैं तथा नित्य गीध पर समासीन हैं। <br />
*भगवान [[विष्णु]] के चक्र से कटने पर सिर [[राहु]] कहलाया और धड़ केतु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। केतु राहु का ही कबन्ध है। राहु के साथ केतु भी ग्रह बन गया। [[मत्स्य पुराण]] के अनुसार केतु बहुत-से हैं, उनमें धूमकेतु प्रधान है। <br />
*भारतीय-ज्योतिष के अनुसार यह छायाग्रह है। व्यक्ति के जीवन-क्षेत्र तथा समस्त सृष्टि को यह प्रभावित करता है। आकाश मण्डल में इसका प्रभाव वायव्यकोण में माना गया है। कुछ विद्वानों के मतानुसार राहु की अपेक्षा केतु विशेष सौम्य तथा व्यक्ति के लिये हितकारी है। कुछ विशेष परिस्थितियों में यह व्यक्ति को यश के शिखर पर पहुँचा देता है। केतु का मण्डल ध्वजाकार माना गया है। कदाचित यही कारण है कि यह आकाश में लहराती ध्वजा के समान दिखायी देता है। इसका माप केवल छ: अंगुल है। <br />
*यद्यपि राहु-केतु का मूल शरीर एक था और वह दानव-जाति का था। परन्तु ग्रहों में परिगणित होने के पश्चात उनका पुनर्जन्म मानकर उनके नये गोत्र घोषित किये गये। इस आधार पर राहु पैठीनस-गोत्र तथा केतु [[जैमिनि]]-गोत्र का सदस्य माना गया। केतु का वर्ण धूम्र है। कहीं-कहीं इसका कपोत वाहन भी मिलता है। <br />
*केतु की महादशा सात वर्ष की होती है। इसके अधिदेवता चित्रकेतु तथा प्रत्यधिदेवता [[ब्रह्मा]] हैं। यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली में केतु अशुभ स्थान में रहता है तो वह अनिष्टकारी हो जाता है। अनिष्टकारी केतु का प्रभाव व्यक्ति को रोगी बना देता है। इसकी प्रतिकूलता से दाद, खाज तथा कुष्ठ जैसे रोग होते हैं। <br />
*केतु की प्रसन्नता हेतु दान की जानेवाली वस्तुएँ इस प्रकार बतायी गयीं हैं-<br />
<blockquote><poem>वैदूर्य रत्नं तैलं च तिलं कम्बलमर्पयेत्।<br />
शस्त्रं मृगमदं नीलपुष्पं केतुग्रहाय वै॥</poem></blockquote><br />
*वैदूर्य नामक रत्न, तेल, काला तिल, कम्बल, शस्त्र, कस्तूरी तथा नीले रंग का पुष्प दान करने से केतु ग्रह साधक का कल्याण करता है। इसके लिये लहसुनिया पत्थर धारण करने तथा मृत्यंजय जप का भी विधान है। [[नवग्रह]] मण्डल में इसका प्रतीक वायव्यकोण में काला ध्वज है। <br />
<br />
केतु की शान्ति के लिये<br />
<br />
'''वैदिक मन्त्र-'''<br />
<br />
'ॐ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेश से। सुमुषद्भिरजायथा:॥', <br />
<br />
'''पौराणिक मन्त्र-'''<br />
<br />
<poem>'पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम्। <br />
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥',</poem> <br />
<br />
'''बीज मन्त्र-''' <br />
<br />
ॐ स्रां स्रीं स्रौं स: केतवे नम:।', तथा <br />
<br />
'''सामान्य मन्त्र-''' <br />
<br />
ॐ कें केतवे नम:' है। इसमें किसी एक का नित्य श्रद्धापूर्वक निश्चित संख्या में जप करना चाहिये। जप का समय रात्रि तथा कुल जप-संख्या 17000 है। हवन के लिये कुश का उपयोग करना चाहिये। विशेष परिस्थिति में विद्वान ब्राह्मण का सहयोग लेना चाहिये। <br />
<br />
<br />
[[Category:कोश]] <br />
[[Category:पौराणिक]]<br />
<br />
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__INDEX__<br />
[[Category:ग्रह_नक्षत्र]]</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A5%81&diff=53720केतु2010-03-27T12:40:09Z<p>Brajdis1: </p>
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<div>{{Menu}}<br />
==केतु / Ketu==<br />
*केतु की दो भुजाएँ हैं। वे अपने सिर पर मुकुट तथा शरीर पर काला वस्त्र धारण करते हैं। उनका शरीर धूम्रवर्ण का है तथा मुख विकृत है। वे अपने एक हाथ में गदा और दूसरे में वरमुद्रा धारण किये रहते हैं तथा नित्य गीध पर समासीन हैं। <br />
*भगवान [[विष्णु]] के चक्र से कटने पर सिर [[राहु]] कहलाया और धड़ केतु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। केतु राहु का ही कबन्ध है। राहु के साथ केतु भी ग्रह बन गया। [[मत्स्य पुराण]] के अनुसार केतु बहुत-से हैं, उनमें धूमकेतु प्रधान है। <br />
*भारतीय-ज्योतिष के अनुसार यह छायाग्रह है। व्यक्ति के जीवन-क्षेत्र तथा समस्त सृष्टि को यह प्रभावित करता है। आकाश मण्डल में इसका प्रभाव वायव्यकोण में माना गया है। कुछ विद्वानों के मतानुसार राहु की अपेक्षा केतु विशेष सौम्य तथा व्यक्ति के लिये हितकारी है। कुछ विशेष परिस्थितियों में यह व्यक्ति को यश के शिखर पर पहुँचा देता है। केतु का मण्डल ध्वजाकार माना गया है। कदाचित यही कारण है कि यह आकाश में लहराती ध्वजा के समान दिखायी देता है। इसका माप केवल छ: अंगुल है। <br />
*यद्यपि राहु-केतु का मूल शरीर एक था और वह दानव-जाति का था। परन्तु ग्रहों में परिगणित होने के पश्चात उनका पुनर्जन्म मानकर उनके नये गोत्र घोषित किये गये। इस आधार पर राहु पैठीनस-गोत्र तथा केतु [[जैमिनि]]-गोत्र का सदस्य माना गया। केतु का वर्ण धूम्र है। कहीं-कहीं इसका कपोत वाहन भी मिलता है। <br />
*केतु की महादशा सात वर्ष की होती है। इसके अधिदेवता चित्रकेतु तथा प्रत्यधिदेवता [[ब्रह्मा]] हैं। यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली में केतु अशुभ स्थान में रहता है तो वह अनिष्टकारी हो जाता है। अनिष्टकारी केतु का प्रभाव व्यक्ति को रोगी बना देता है। इसकी प्रतिकूलता से दाद, खाज तथा कुष्ठ जैसे रोग होते हैं। <br />
*केतु की प्रसन्नता हेतु दान की जानेवाली वस्तुएँ इस प्रकार बतायी गयीं हैं-<br />
<blockquote><poem>वैदूर्य रत्नं तैलं च तिलं कम्बलमर्पयेत्।<br />
शस्त्रं मृगमदं नीलपुष्पं केतुग्रहाय वै॥</poem></blockquote><br />
*वैदूर्य नामक रत्न, तेल, काला तिल, कम्बल, शस्त्र, कस्तूरी तथा नीले रंग का पुष्प दान करने से केतु ग्रह साधक का कल्याण करता है। इसके लिये लहसुनिया पत्थर धारण करने तथा मृत्यंजय जप का भी विधान है। [[नवग्रह]] मण्डल में इसका प्रतीक वायव्यकोण में काला ध्वज है। <br />
<br />
केतु की शान्ति के लिये<br />
<br />
'''वैदिक मन्त्र-'''<br />
<br />
'ॐ केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेश से। सुमुषद्भिरजायथा:॥', <br />
<br />
'''पौराणिक मन्त्र-'''<br />
<br />
<poem>'पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम्। <br />
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥',</poem> <br />
<br />
'''बीज मन्त्र-''' <br />
<br />
ॐ स्रां स्री स्रौं स: केतवे नम:।', तथा <br />
<br />
'''सामान्य मन्त्र-''' <br />
<br />
ॐ कें केतवे नम:' है। इसमें किसी एक का नित्य श्रद्धापूर्वक निश्चित संख्या में जप करना चाहिये। जप का समय रात्रि तथा कुल जप-संख्या 17000 है। हवन के लिये कुश का उपयोग करना चाहिये। विशेष परिस्थिति में विद्वान ब्राह्मण का सहयोग लेना चाहिये। <br />
<br />
<br />
[[Category:कोश]] <br />
[[Category:पौराणिक]]<br />
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__INDEX__<br />
[[Category:ग्रह_नक्षत्र]]</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1&diff=51543विमल कुण्ड2010-03-19T07:29:01Z<p>Brajdis1: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==विमल कुण्ड / Vimal Kund==<br />
[[चित्र:Vimal-Kund-Kama-3.jpg|विमल कुण्ड, [[काम्यवन]]<br />Vimal Kund, Kamyavan|thumb|500px|center]]<br />
[[चित्र:Vimal-Kund-Kama-1.jpg|thumb|200px|विमल कुण्ड, [[काम्यवन]]<br /> Vimal Kund, Kamyavan]]<br />
[[काम्यवन|कामवन]] ग्राम से दो फर्लांग दूर दक्षिण–पश्चिम कोण में प्रसिद्ध विमलकुण्ड स्थित है । कुण्ड के चारों ओर क्रमश: <br />
#दाऊजी, <br />
#सूर्यदेव, <br />
#श्रीनीलकंठेश्वर महादेव, <br />
#श्रीगोवर्धननाथ, <br />
#श्री मदनमोहन एवं काम्यवन विहारी, <br />
#श्री विमल विहारी, <br />
#विमला देवी, <br />
#श्री मुरलीमनोहर, <br />
#भगवती गंगा और <br />
#श्री गोपालजी विराजमान हैं ।<br />
'''प्रसंग'''<br />
{|style="background-color:#FFEBE1;border:1px solid #993300; margin:left-5px" cellspacing="5" align="right"<br />
|<br />
<font color="#993300">'''अन्य सम्बंधित लिंक'''</font><br />
----<br />
*[[काम्यवन]]<br />
*[[धर्म कुण्ड]]<br />
|}<br />
<br />
[[गर्ग संहिता]] के अनुसार प्राचीनकाल में सिन्धु देश की चम्पकनगरी में विमल नामक के एक प्रतापी राजा थे । उनकी छह हजार रानियों में से किसी को कोई सन्तान नहीं थी । श्री[[याज्ञवल्क्य]] ऋषि की कृपा से उन रानियों के गर्भ से बहुत सी सुन्दर कन्याओं ने जन्म ग्रहण किया । वे सभी कन्याएँ पूर्व जन्म में जनकपुर की वे स्त्रियाँ थीं जो श्री[[राम]]चन्द्रजी को पति रूप से प्राप्त करने की इच्छा रखती थीं । राजा विमल के घर जन्म ग्रहण करने पर जब वे विवाह के योग्य हुई, तब महर्षि याज्ञवल्क्य की सम्मति से राजा विमल ने अपनी कन्याओं के लिए सुयोग्य वर श्री[[कृष्ण]] को ढूँढने के लिए अपना दूत [[मथुरा|मथुरापुरी]] में भेजा । सौभाग्य से मार्ग में उस दूत की भेंट श्री[[भीष्म|भीष्म पितामह]] से हुई । श्री भीष्म पितामह ने उस दूत को श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए श्री[[वृन्दावन]] भेजा । श्रीकृष्ण उस समय वृन्दावन में विराजमान थे । राजदूत ने वृन्दावन पहुँचकर श्रीकृष्ण को राजा विमल का निमन्त्रण–पत्र दिया, जिसमें श्रीकृष्ण को चम्पक नगरी में आकर राजकन्याओं का पाणिग्रहण करने की प्रार्थना की गई थी । श्रीकृष्ण, महाराज विमल का निमन्त्रण पाकर चम्पक नगरी पहुँचे और राजकन्याओं को अपने साथ [[ब्रजमंडल]] के इस कमनीय कामवन में ले आये । उन्होंने उन कन्याओं की संख्या के अनुरूप रूप धारणकर उन्हें अंगीकार किया । उनके साथ रास आदि विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ कीं । उन कुमारियों की चिरकालीन अभिलाषा पूर्ण हुई । उनके आनन्दाश्रु से प्रपूरित यह कुण्ड विमल कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस विमल कुण्ड में स्नान करने से लौकिक, अलौकिक एवं अप्राकृत सभी प्रकार की कामनाएँ पूर्ण होती हैं । हृदय निर्मल होता है तथा उसमें ब्रज भक्ति का संचार होता है ।<br />
<br />
'''द्वितीय प्रसंग'''<br />
<br />
जनश्रुति के अनुसार चातुर्मास्य काल में विश्व के सारे तीर्थ [[ब्रज]] में आगमन करते हैं । एक बार चातुर्मास्य काल में तीर्थराज [[पुष्कर]] ब्रज में नहीं आये । श्रीकृष्ण ने योगमाया का स्मरण किया । स्मरण करते ही पृथ्वी तल से एक जल का प्रबल प्रवाह निकला । आश्चर्य की बात उस पवित्र जल के प्रवाह से परम सुन्दर एक किशोरी प्रकट हुई । श्रीकृष्ण ने उस सुन्दरी के साथ जल–प्रवाह में विविध प्रकार से जलविहार किया । उस किशोरी ने अपनी विशुद्ध प्रेममयी सेवाओं और सौन्दर्य से परम रसिक श्रीकृष्ण को परितृप्त कर दिया । श्रीकृष्ण ने परितृप्त होकर उस किशोरी को वरदान दिया कि आज से तुम विमला देवी के नाम से विख्यात होगी । यह कुण्ड तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा । इसमें स्नान करने से तीर्थराज पुष्कर में स्नान करने की अपेक्षा सात गुणा अधिक पुण्यफल प्राप्त होगा । तब से यह कुण्ड विमला कुण्ड के नाम से विख्यात हुआ । इस कुण्ड के किनारे श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करने के लिए बड़े–बड़े ऋषि–महर्षियों ने वास किया है । महर्षि [[दुर्वासा]] और [[पांडव|पाण्डवों]] का निवास यहाँ प्रसिद्ध ही है । प्रत्येक ब्रजमण्डल परिक्रमा–मण्डली अथवा परिक्रमा करने वाले यात्री यहाँ निवास करते हैं तथा यहीं से [[काम्यवन]] की परिक्रमा आरम्भ करते हैं ।<br />
<br />
==वीथिका==<br />
<gallery widths="145px" perrow="3"><br />
चित्र:Vimal-Kund-Neelkantheshwar-Mahadeva- kama-2.jpg|नीलकंठेश्वर महादेव, विमल कुण्ड, [[काम्यवन]]<br />Neelkantheshwar Mahadev, Vimal Kund, Kamyavan<br />
चित्र:Vimal-Kund-Kama-4.jpg|विमल कुण्ड, [[काम्यवन]]<br />Vimal Kund, Kamyavan<br />
चित्र:Vimal-Kund-Kama-5.jpg|विमल कुण्ड, [[काम्यवन]]<br />Vimal Kund, Kamyavan<br />
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==अन्य लिंक==<br />
{{साँचा:कुण्ड}}<br />
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[[Category:कोश]] [[Category:धार्मिक स्थल]]<br />
[[Category:दर्शनीय-स्थल कोश]]</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1&diff=51532विमल कुण्ड2010-03-19T07:27:58Z<p>Brajdis1: /* वीथिका */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==विमल कुण्ड / Vimal Kund==<br />
[[चित्र:Vimal-Kund-Kama-1.jpg|thumb|200px|विमल कुण्ड, [[काम्यवन]]<br /> Vimal Kund, Kamyavan]]<br />
[[काम्यवन|कामवन]] ग्राम से दो फर्लांग दूर दक्षिण–पश्चिम कोण में प्रसिद्ध विमलकुण्ड स्थित है । कुण्ड के चारों ओर क्रमश: <br />
#दाऊजी, <br />
#सूर्यदेव, <br />
#श्रीनीलकंठेश्वर महादेव, <br />
#श्रीगोवर्धननाथ, <br />
#श्री मदनमोहन एवं काम्यवन विहारी, <br />
#श्री विमल विहारी, <br />
#विमला देवी, <br />
#श्री मुरलीमनोहर, <br />
#भगवती गंगा और <br />
#श्री गोपालजी विराजमान हैं ।<br />
'''प्रसंग'''<br />
{|style="background-color:#FFEBE1;border:1px solid #993300; margin:left-5px" cellspacing="5" align="right"<br />
|<br />
<font color="#993300">'''अन्य सम्बंधित लिंक'''</font><br />
----<br />
*[[काम्यवन]]<br />
*[[धर्म कुण्ड]]<br />
|}<br />
<br />
[[गर्ग संहिता]] के अनुसार प्राचीनकाल में सिन्धु देश की चम्पकनगरी में विमल नामक के एक प्रतापी राजा थे । उनकी छह हजार रानियों में से किसी को कोई सन्तान नहीं थी । श्री[[याज्ञवल्क्य]] ऋषि की कृपा से उन रानियों के गर्भ से बहुत सी सुन्दर कन्याओं ने जन्म ग्रहण किया । वे सभी कन्याएँ पूर्व जन्म में जनकपुर की वे स्त्रियाँ थीं जो श्री[[राम]]चन्द्रजी को पति रूप से प्राप्त करने की इच्छा रखती थीं । राजा विमल के घर जन्म ग्रहण करने पर जब वे विवाह के योग्य हुई, तब महर्षि याज्ञवल्क्य की सम्मति से राजा विमल ने अपनी कन्याओं के लिए सुयोग्य वर श्री[[कृष्ण]] को ढूँढने के लिए अपना दूत [[मथुरा|मथुरापुरी]] में भेजा । सौभाग्य से मार्ग में उस दूत की भेंट श्री[[भीष्म|भीष्म पितामह]] से हुई । श्री भीष्म पितामह ने उस दूत को श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए श्री[[वृन्दावन]] भेजा । श्रीकृष्ण उस समय वृन्दावन में विराजमान थे । राजदूत ने वृन्दावन पहुँचकर श्रीकृष्ण को राजा विमल का निमन्त्रण–पत्र दिया, जिसमें श्रीकृष्ण को चम्पक नगरी में आकर राजकन्याओं का पाणिग्रहण करने की प्रार्थना की गई थी । श्रीकृष्ण, महाराज विमल का निमन्त्रण पाकर चम्पक नगरी पहुँचे और राजकन्याओं को अपने साथ [[ब्रजमंडल]] के इस कमनीय कामवन में ले आये । उन्होंने उन कन्याओं की संख्या के अनुरूप रूप धारणकर उन्हें अंगीकार किया । उनके साथ रास आदि विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ कीं । उन कुमारियों की चिरकालीन अभिलाषा पूर्ण हुई । उनके आनन्दाश्रु से प्रपूरित यह कुण्ड विमल कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस विमल कुण्ड में स्नान करने से लौकिक, अलौकिक एवं अप्राकृत सभी प्रकार की कामनाएँ पूर्ण होती हैं । हृदय निर्मल होता है तथा उसमें ब्रज भक्ति का संचार होता है ।<br />
<br />
'''द्वितीय प्रसंग'''<br />
<br />
जनश्रुति के अनुसार चातुर्मास्य काल में विश्व के सारे तीर्थ [[ब्रज]] में आगमन करते हैं । एक बार चातुर्मास्य काल में तीर्थराज [[पुष्कर]] ब्रज में नहीं आये । श्रीकृष्ण ने योगमाया का स्मरण किया । स्मरण करते ही पृथ्वी तल से एक जल का प्रबल प्रवाह निकला । आश्चर्य की बात उस पवित्र जल के प्रवाह से परम सुन्दर एक किशोरी प्रकट हुई । श्रीकृष्ण ने उस सुन्दरी के साथ जल–प्रवाह में विविध प्रकार से जलविहार किया । उस किशोरी ने अपनी विशुद्ध प्रेममयी सेवाओं और सौन्दर्य से परम रसिक श्रीकृष्ण को परितृप्त कर दिया । श्रीकृष्ण ने परितृप्त होकर उस किशोरी को वरदान दिया कि आज से तुम विमला देवी के नाम से विख्यात होगी । यह कुण्ड तुम्हारे नाम से प्रसिद्ध होगा । इसमें स्नान करने से तीर्थराज पुष्कर में स्नान करने की अपेक्षा सात गुणा अधिक पुण्यफल प्राप्त होगा । तब से यह कुण्ड विमला कुण्ड के नाम से विख्यात हुआ । इस कुण्ड के किनारे श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त करने के लिए बड़े–बड़े ऋषि–महर्षियों ने वास किया है । महर्षि [[दुर्वासा]] और [[पांडव|पाण्डवों]] का निवास यहाँ प्रसिद्ध ही है । प्रत्येक ब्रजमण्डल परिक्रमा–मण्डली अथवा परिक्रमा करने वाले यात्री यहाँ निवास करते हैं तथा यहीं से [[काम्यवन]] की परिक्रमा आरम्भ करते हैं ।<br />
<br />
==वीथिका==<br />
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चित्र:Vimal-Kund-Neelkantheshwar-Mahadeva- kama-2.jpg|नीलकंठेश्वर महादेव, विमल कुण्ड, [[काम्यवन]]<br />Neelkantheshwar Mahadev, Vimal Kund, Kamyavan<br />
चित्र:Vimal-Kund-Kama-4.jpg|विमल कुण्ड, [[काम्यवन]]<br />Vimal Kund, Kamyavan<br />
चित्र:Vimal-Kund-Kama-5.jpg|विमल कुण्ड, [[काम्यवन]]<br />Vimal Kund, Kamyavan<br />
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==अन्य लिंक==<br />
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[[Category:कोश]] [[Category:धार्मिक स्थल]]<br />
[[Category:दर्शनीय-स्थल कोश]]</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%A8&diff=51514काम्यवन2010-03-19T07:20:30Z<p>Brajdis1: /* गया कुण्ड */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==श्रीकाम्यवन / [[:en:Kamyavan|Kamyavan]]==<br />
'''कामवन / कामां / Kamvan / Kaman'''<br /><br />
[[चित्र:Gokul-Chandrama-Temple-Kama-1.jpg|thumb|250px|चन्द्रमाजी मन्दिर, काम्यवन<br /> Chandramaji Temple, Kamyavan]]<br />
*ब्रजमण्डल के द्वादशवनों में चतुर्थवन काम्यवन हैं। यह ब्रजमण्डल के सर्वोत्तम वनों में से एक हैं। इस वन की परिक्रमा करने वाला सौभाग्यवान व्यक्ति ब्रजधाम में पूजनीय होता है।<balloon title="चतुर्थ काम्यकवनं वनानां वनमुत्तमं । तत्र गत्वा नरो देवि ! मम लोके महीयते ।। आ. वा. पुराण" style="color:blue">*</balloon><br />
*हे महाराज ! तदनन्तर काम्यवन है, जहाँ आपने (श्रीब्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण ने) बहुत सी बालक्रीड़ाएँ की थीं । इस वन के कामादि सरोवरों में स्नान करने मात्र से सब प्रकार की कामनाएँ यहाँ तक कि [[कृष्ण]] की प्रेममयी सेवा की कामना भी पूर्ण हो जाती है ।<ref>तत: काम्यवनं राजन ! यत्र बाल्ये स्थितो भवान् । स्नानमात्रेण सर्वेषां सर्वकामफलप्रदम् ।। [[स्कन्द पुराण|स्कंध पुराण]]</ref> <br />
*यथार्थ में श्रीकृष्ण के प्रति [[गोपी|गोपियों]] का प्रेम ही 'काम' शब्द वाच्य है । 'प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यागमत प्रथाम्', अर्थात गोपिकाओं का निर्मल प्रेम जो केवल श्रीकृष्ण को सुख देने वाला होता है, जिसमें लौकिक काम की कोई गन्ध नहीं होती, उसी को शास्त्रों में काम कहा गया है । सांसारिक काम वासनाओं से गोपियों का यह शुद्ध काम सर्वथा भिन्न है । सब प्रकार की लौकिक कामनाओं से रहित केवल प्रेमास्पद कृष्ण को सुखी करना ही गोपियों के काम का एकमात्र तात्पर्य है । इसीलिए गोपियों के विशुद्ध प्रेम को ही [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवता]]दि शास्त्रों में काम की संज्ञा दी गई है । जिस कृष्णलीला स्थली में श्रीराधाकृष्ण युगल के ऐसे अप्राकृत प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है, उसका नाम कामवन है। गोपियों के विशुद्ध प्रेमस्वरूप शुद्धकाम की भी सहज ही सिद्धि होती है, उसे कामवन कहा गया है।<br />
{{tocright}}<br />
*काम्य शब्द का अर्थ अत्यन्त सुन्दर, सुशोभित या रूचिर भी होता है । [[ब्रजमंडल]] का यह वन विविध–प्रकार के सुरम्य सरोवरों, कूपों, कुण्डों, वृक्ष–वल्लरियों, फूल और फलों से तथा विविध प्रकारके विहग्ङमों से अतिशय सुशोभित श्रीकृष्ण की परम रमणीय विहार स्थली है । इसीलिए इसे काम्यवन कहा गया है । <br />
*विष्णु पुराण के अनुसार काम्यवन में चौरासी कुण्ड (तीर्थ), चौरासी मन्दिर तथा चौरासी खम्बे वर्तमान हैं । कहते हैं कि इन सबकी प्रतिष्ठा किसी प्रसिद्ध राजा श्रीकामसेन के द्वारा की गई थी <br />
*ऐसी भी मान्यता है कि [[देवता]] और असुरों ने मिलकर यहाँ एक सौ अड़सठ(168) खम्बों का निर्माण किया था ।<br />
<br />
==कुण्ड और तीर्थ==<br />
यहाँ छोटे–बड़े असंख्य कुण्ड और तीर्थ है । इस वन की परिक्रमा चौदह मील की है । विमलकुण्ड यहाँ का प्रसिद्ध तीर्थ या कुण्ड है । सर्वप्रथम इस विमलकुण्ड में स्नान कर श्रीकाम्यवन के कुण्ड अथवा काम्यवन की दर्शनीय स्थलियों का दर्शन प्रारम्भ होता है । विमलकुण्ड में स्नान के पश्चात गोपिका कुण्ड, सुवर्णपुर, गया कुण्ड एवं धर्म कुण्ड के दर्शन हैं । धर्म कुण्ड पर धर्मराज जी का सिंहासन दर्शनीय है । आगे यज्ञकुण्ड, पाण्डवों के पंचतीर्थ सरोवर, परम मोक्षकुण्ड, मणिकर्णिका कुण्ड हैं । पास में ही निवासकुण्ड तथा यशोदा कुण्ड हैं ।<br />
पर्वत के शिखर भद्रेश्वर शिवमूर्ति है । अनन्तर अलक्ष [[गरुड़]] मूर्ति है । पास में ही पिप्पलाद ऋषि का आश्रम है । अनन्तर दिहुहली, राधापुष्करिणी और उसके पूर्व भाग में ललिता पुष्करिणी, उसके उत्तर में विशाखा पुष्करिणी, उसके पश्चिम में चन्द्रावली पुष्करिणी तथा उसके दक्षिण भाग में चन्द्रभागा पुष्करिणी है, पूर्व–दक्षिण के मध्य स्थल में लीलावती पुष्करिणी है । पश्चिम–उत्तर में प्रभावती पुष्करिणी, मध्य में राधा पुष्करिणी है । इन पुष्करिणियों में चौंसठ सखियों की पुष्करिणी हैं । आगे कुशस्थली है । वहाँ शंखचूड़ बधस्थल तथा कामेश्वर महादेव जी दर्शनीय हैं ।, वहाँ से उत्तर में चन्द्रशेखर मूर्ति विमलेश्वर तथा वराह स्वरूप का दर्शन है । वहीं द्रोपदी के साथ पंच पाण्डवों का दर्शन, आगे वृन्दादेवी के साथ गोविन्दजी का दर्शन, श्रीराधावल्लभ, श्रीगोपीनाथ, नवनीत राय, गोकुलेश्वर और श्रीरामचन्द्र के स्वरूपों का दर्शन है । इनके अतिरिक्त [[चरणपहाड़ी]] श्रीराधागोपीनाथ, श्रीराधामोहन (गोपालजी), चौरासी खम्बा आदि दर्शनीय स्थल है । <br />
==विमल कुण्ड==<br />
[[चित्र:Vimal-Kund-Kama-5.jpg|thumb|250px|[[विमल कुण्ड]], काम्यवन<br />Vimal Kund, Kamyavan]]<br />
कामवन ग्राम से दो फर्लांग दूर दक्षिण–पश्चिम कोण में प्रसिद्ध [[विमल कुण्ड]] स्थित है। कुण्ड के चारों ओर क्रमश: (1) दाऊजी, (2) सूर्यदेव, (3) श्रीनीलकंठेश्वर महादेव, (4) श्रीगोवर्धननाथ, (5) श्रीमदन मोहन एवं काम्यवन विहारी, (6) श्रीविमल विहारी, (7) विमला देवी, (8) श्रीमुरलीमनोहर, (9) भगवती गंगा और (10) श्रीगोपालजी विराजमान हैं। [[विमल कुण्ड|..और पढ़े]]<br />
<br />
==श्रीवृन्दादेवी और श्रीगोविन्ददेव==<br />
यह काम्यवन का सर्वाधिक प्रसिद्ध मन्दिर है । यहाँ वृन्दादेवी का विशेष रूप से दर्शन है, जो ब्रजमण्डल में कहीं अन्यत्र दुर्लभ है । श्रीराधा–गोविन्ददेवी भी यहाँ विराजमान हैं । पास में ही श्रीविष्णु सिंहासन अर्थात श्रीकृष्ण का सिंहासन है । उसके निकट ही चरण कुण्ड है, जहाँ श्रीराधा और गोविन्द युगल के श्रीचरणकमल पखारे गये थे । <br />
श्री[[रूप गोस्वामी|रूप]]–[[सनातन गोस्वामी|सनातन]] आदि गोस्वामियों के अप्रकट होने के पश्चात धर्मान्ध मुग़ल सम्राट [[औरंगजेब]] के अत्याचारों से जिस समय ब्रज में [[वृन्दावन]], [[मथुरा]] आदि के प्रसिद्ध मन्दिर ध्वंस किये जा रहे थे, उस समय [[जयपुर]] के परम भक्त महाराज ब्रज के श्रीगोविन्द, श्रीगोपीनाथ, श्रीमदनमोहन, श्रीराधादामोदर, श्रीराधामाधव आदि प्रसिद्ध विग्रहों को अपने साथ लेकर जब जयपुर आ रहे थे, तो उन्होंने मार्ग में इस काम्यवन में कुछ दिनों तक विश्राम किया । श्रीविग्रहों को रथों से यहाँ विभिन्न स्थानों में पधराकर उनका विधिवत स्नान, भोगराग और शयनादि सम्पन्न करवाया था । तत्पश्चात वे जयपुर और अन्य स्थानों में पधराये गये । तदनन्तर काम्यवन में जहाँ–जहाँ श्रीराधागोविन्द, श्रीराधागोपीनाथ और श्रीराधामदनमोहन पधराये गये थे, उन–उन स्थानों पर विशाल मन्दिरों का निर्माण कराकर उनमें उन–उन मूल श्रीविग्रहों की प्रतिभू–विग्रहों की प्रतिष्ठा की गई । श्रीवृन्दादेवी काम्यवन तक तो आई, किन्तु वे ब्रज को छोड़कर आगे नहीं गई । इसीलिए यहाँ श्रीवृन्दादेवी का पृथक् रूप दर्शन है । <br />
श्री[[चैतन्य महाप्रभु]] और उनके श्रीरूप सनातन गोस्वामी आदि परिकरों ने ब्रजमण्डल की लुप्त लीलास्थलियों को प्रकाश किया है । इनके ब्रज में आने से पूर्व काम्यवन को वृन्दावन माना जाता था । किन्तु, श्रीचैतन्य महाप्रभु ने ही मथुरा के सन्निकट श्रीधाम वृन्दावन को प्रकाशित किया । क्योंकि काम्यवन में [[यमुना]]जी, [[चीरघाट]], [[निधिवन]], [[कालियदह|कालीदह]], [[केशीघाट]], [[सेवाकुंज]], रासस्थली वंशीवट, श्रीगोपेश्वर महादेव की स्थिति असम्भव है । इसलिए विमलकुण्ड, कामेश्वर महादेव, चरणपहाड़ी, सेतुबांध रामेश्वर आदि लीला स्थलियाँ जहाँ विराजमान हैं, वह अवश्य ही वृन्दावन से पृथक् काम्यवन है । वृन्दादेवी का स्थान वृन्दावन में ही है। वे वृन्दावन के कुञ्ज की तथा उन कुञ्जों में श्रीराधाकृष्ण युगल की क्रीड़ाओं की अधिष्ठात्री देवी है । अत: अब वे श्रीधाम वृन्दावन के श्रीरूप सनातन [[गौड़ीय मठ]] में विराजमान हैं । यहाँ उनकी बड़ी ही दिव्य झाँकी है । श्रीगोविन्द मन्दिर के निकट ही गरुड़जी, चन्द्रभाषा कुण्ड, चन्द्रेश्वर महादेवजी, वाराहकुण्ड, वाराहकूप, यज्ञकुण्ड और धर्मकुण्डादि दर्शनीय हैं ।<br />
<br />
==धर्म कुण्ड==<br />
यह कुण्ड काम्यवन की पूर्व दिशा में हैं । यहाँ श्रीनारायण धर्म के रूप में विराजमान हैं । पास में ही विशाखा नामक वेदी है । श्रवणा नक्षत्र, बुधवार, भाद्रपद कृष्णाष्टमी में यहाँ स्नान की विशेष विधि है । [[धर्म कुण्ड]] के अन्तर्गत नर–नारायण कुण्ड, नील वराह, पंच पाण्डव, हनुमान जी, पंच पाण्डव कुण्ड (पञ्च तीर्थ) मणिकर्णिका, विश्वेश्वर महादेवादि दर्शनीय हैं ।<br />
==यशोदा कुण्ड==<br />
काम्यवन में यहीं कृष्ण की माता श्रीयशोदाजी कापित्रालय था । श्रीकृष्ण बचपन में अपनी माता जी के साथ यहाँ कभी–कभी आकर निवास करते थे । कभी–कभी [[नन्द]]–[[गोकुल]] अपने गऊओं के साथ पड़ाव में यहीं ठहरता था । श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ गोचारण भी करते थे ।<balloon title="देख यशोदाकुण्ड परम निर्मल । एथा गोचारणे कृष्ण हईया विहृल॥ (भक्तिरत्नाकर)" style="color:blue">*</balloon> ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है । यह स्थान अत्यन्त मनोहर है ।<br />
<br />
==गया कुण्ड==<br />
[[चित्र:Gaya-Kund-Kama-1.jpg|thumb|250px|[[गया कुण्ड]], काम्यवन <br /> Gaya Kund, Kamyavan]]<br />
गयातीर्थ भी ब्रजमण्डल के इस स्थान पर रहकर कृष्ण की आराधना करते हैं । इसमें अगस्त कुण्ड भी एक साथ मिले हुए हैं । गया कुण्ड के दक्षिणी घाट का नाम अगस्त घाट है । यहाँ आश्विन माह के कृष्ण पक्ष में स्नान, तर्पण और पिण्डदान आदि प्रशस्त हैं ।<br />
<br />
==प्रयाग कुण्ड==<br />
तीर्थराज [[प्रयाग]] ने यहाँ श्रीकृष्ण की आराधना की थी । प्रयाग और पुष्कर ये दोनों कुण्ड एक साथ हैं । <br />
==द्वारका कुण्ड==<br />
श्रीकृष्ण ने यहाँ पर द्वार का से ब्रज में पधारकर महर्षियों के साथ शिविर बनाकर निवास अवस्थित किया था । द्वारकाकुण्ड, सोमती कुण्ड, मानकुण्ड और बलभद्र कुण्ड– ये चारों कुण्ड परस्पर सन्निकट अवस्थित हैं । <br />
==नारद कुण्ड==<br />
यह नारदजी की आराधना स्थली है । देवर्षि नारद इस स्थान पर कृष्ण की मधुर लीलाओं का गान करते हुए अधैर्य हो जाते थे ।<balloon title="देखह नारद कुण्ड नारद एई खाने । हैल महा अधैर्य कृष्णेर लीला गाने । (भक्तिरत्नाकर)" style="color:blue">*</balloon><br />
<br />
==मनोकामना कुण्ड==<br />
विमल कुण्ड और यशोदा कुण्ड के बीच में मनोकामना कुण्ड और काम सरोवर एक साथ विराजमान हैं । यहाँ स्नानादि करने पर मन की सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ।<balloon title="तत्र कामसरो राजन ! गोपिकारमणं सर: । तत्र तीर्थ सहस्त्राणि सरांसि च पृथक्–पृथक् ।। स्कंध पुराण" style="color:blue">*</balloon> काम्यवन में गोपिकारमण कामसरोवर है, जहाँ पर मन की सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । उसी काम्यवन में अन्यान्य सहस्त्र तीर्थ विराजमान हैं ।<br />
<br />
==सेतुबन्ध सरोवर==<br />
श्रीकृष्ण ने यहाँ पर श्रीराम के आवेश में गोपियों के कहने से बंदरों के द्वारा सेतुका निर्माण किया था । अभी भी इस सरोवर में सेतु बन्ध के भग्नावशेष दर्शनीय हैं । कुण्ड के उत्तर में रामेश्वर महादेवजी दर्शनीय हैं । जो श्रीरामावेशी श्रीकृष्ण के द्वारा प्रतिष्ठित हुए थे । कुण्ड के दक्षिण में उस पार एक टीले के रूप में लंकापुरी भी दर्शनीय है । <br />
<br />
'''प्रसंग'''<br />
<br />
श्रीकृष्ण लीला के समय दिन परम कौतुकी श्रीकृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर विनोदिनी श्रीराधिका के साथ हास्य–परिहास कर रहे थे । उस समय इनकी रूप माधुरी से आकृष्ट होकर आस पास के सारे बंदर पेड़ों से नीचे उतरकर उनके चरणों में प्रणामकर किलकारियाँ मारकर नाचने–कूदने लगे । बहुत से बंदर कुण्ड के दक्षिण तट के वृक्षों से लम्बी छलांग मारकर उनके चरणों के समीप पहुँचे । भगवान श्रीकृष्ण उन बंदरों की वीरता की प्रशंसा करने लगे । गोपियाँ भी इस आश्चर्यजनक लीला को देखकर मुग्ध हो गई । वे भी भगवान श्री[[राम|रामचन्द्र]] की अद्भुत लीलाओं का वर्णन करते हुए कहने लगीं । कि श्रीरामचन्द्रजी ने भी बंदरों की सहायता ली थी । उस समय ललिताजी ने कहा– हमने सुना है कि महापराक्रमी [[हनुमान]] जी ने त्रेतायुग में एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया था । परन्तु आज तो हम साक्षात रूप में बंदरों को इस सरोवर को एक छलांग में पार करते हुए देख रही हैं । ऐसा सुनकर कृष्ण ने गर्व करते हुए कहा– जानती हो ! मैं ही त्रेतायुग में श्रीराम था मैंने ही रामरूप में सारी लीलाएँ की थी । ललिता श्रीरामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं की प्रशंसा करती हुई बोलीं– तुम झूठे हो । तुम कदापि राम नहीं थे । तुम्हारे लिए कदापि वैसी वीरता सम्भव नहीं । श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा– तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, किन्तु मैंने ही रामरूप धारणकर जनकपुरी में शिवधनु को तोड़कर [[सीता]] से विवाह किया था । पिता के आदेश से धनुष-बाण धारणकर सीता और [[लक्ष्मण]] के साथ [[चित्रकूट]] और [[दण्डकारण्य]] में भ्रमण किया तथा वहाँ अत्याचारी दैत्यों का विनाश किया । फिर सीता के वियोग में वन–वन भटका । पुन: बन्दरों की सहायता से [[रावण]] सहित [[लंका|लंकापुरी]] का ध्वंसकर [[अयोध्या]] में लौटा । मैं इस समय गोपालन के द्वारा वंशी धारणकर गोचारण करते हुए वन–वन में भ्रमण करता हुआ प्रियतमा श्रीराधिका के साथ तुम गोपियों से विनोद कर रहा हूँ । पहले मेरे रामरूप में धनुष–बाणों से त्रिलोकी काँप उठती थी । किन्तु, अब मेरे मधुर वेणुनाद से स्थावर–जग्ङम सभी प्राणी उन्मत्त हो रहे हैं । ललिताजी ने भी मुस्कराते हुए कहा– हम केवल कोरी बातों से ही विश्वास नहीं कर सकतीं । यदि श्रीराम जैसा कुछ पराक्रम दिखा सको तो हम विश्वास कर सकती हैं । श्रीरामचन्द्रजी सौ [[योजन]] समुद्र को भालू–कपियों के द्वारा बंधवाकर सारी सेना के साथ उस पार गये थे । आप इन बंदरों के द्वारा इस छोटे से सरोवर पर पुल बँधवा दें तो हम विश्वास कर सकती हैं । ललिता की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने वेणू–ध्वनि के द्वारा क्षणमात्र में सभी बंदरों को एकत्र कर लिया तथा उन्हें प्रस्तर शिलाओं के द्वारा उस सरोवर के ऊपर सेतु बाँधने के लिए आदेश दिया । देखते ही देखते श्रीकृष्ण के आदेश से हजारों बंदर बड़ी उत्सुकता के साथ दूर -दूर स्थानों से पत्थरों को लाकर सेतु निर्माण लग गये । श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से उन बंदरों के द्वारा लाये हुए उन पत्थरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया । सेतु के प्रारम्भ में सरोवर की उत्तर दिशा में श्रीकृष्ण ने अपने रामेश्वर महादेव की स्थापना भी की । आज भी ये सभी लीलास्थान दर्शनीय हैं । इस कुण्ड का नामान्तर लंका कुण्ड भी है ।<br />
==लुकलुकी कुण्ड==<br />
गोचारण करते समय कभी कृष्ण अपने सखाओं को खेलते हुए छोड़कर कुछ समय के लिए एकान्त में इस परम रमणीय स्थान पर गोपियों से मिले । वे उन ब्रज– रमणियों के साथ यहाँ पर लुका–छिपी (आँख मुदउवल) की क्रीड़ा करने लगे । सब गोपियों ने अपनी–अपनी आँखें मूँद लीं और कृष्ण निकट ही पर्वत की एक कन्दरा में प्रवेश कर गये । सखियाँ चारों ओर खोजने लगीं, किन्तु कृष्ण को ढूँढ़ नहीं सकीं । वे बहुत ही चिन्तित हुई कि कृष्ण हमें छोड़कर कहाँ चले गये ? वे कृष्ण का ध्यान करने लगीं । जहाँ पर वे बैठकर ध्यान कर रही थीं, वह स्थल ध्यान–कुण्ड है । जिस कन्दरा में कृष्ण छिपे थे , उसे लुक–लुक कन्दरा कहते हैं । <br />
==चरणपहाड़ी==<br />
[[चित्र:Charan-Pahadi-Kama-1.jpg|thumb|200px|चरणपहाड़ी, काम्यवन<br /> Charan Pahadi, Kamyavan]]<br />
श्रीकृष्ण इस कन्दरा में प्रवेशकर पहाड़ी के ऊपर प्रकट हुए और वहीं से उन्होंने मधुर वंशीध्वनि की । वंशीध्वनि सुनकर सखियों का ध्यान टूट गया और उन्होंने पहाड़ी के ऊपर प्रियतम को वंशी बजाते हुए देखा। वे दौड़कर वहाँ पर पहुँची और बड़ी आतुरता के साथ कृष्ण से मिलीं । वंशीध्वनि से पर्वत पिघल जाने के कारण उसमें श्रीकृष्ण के चरण चिह्न उभर आये । आज भी वे चरण– चिह्न स्पष्ट रूप में दर्शनीय हैं । पास में उसी पहाड़ी पर जहाँ बछडे़ चर रहे थे और सखा खेल रहे थे, उसके पत्थर भी पिघल गये जिस पर उन बछड़ों और सखाओं के चरण– चिह्न अंकित हो गये, जो पाँच हजार वर्ष बाद आज भी स्पष्ट रूप से दर्शनीय हैं । लुक–लुकी कुण्ड में जल–क्रीड़ा हुई थी । इसलिए इसे जल–क्रीड़ा कुण्ड भी कहते हैं ।<br />
<br />
==विहृल कुण्ड==<br />
चरणपहाड़ी के पास ही विहृल कुण्ड और पञ्चसखा कुण्ड है । यहाँ पर कृष्ण की [[मुरली]] ध्वनि को सुनकर गोपियाँ प्रेम में विहृल हो गई थी । इसलिए वह स्थान विहृल कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ । पञ्च सखा कुण्डों के नाम रग्ङीला, छबीला, जकीला, मतीला और दतीला कुण्ड हैं । ये सब अग्रावली ग्राम के पास विद्यमान हैं ।<br />
<br />
==यशोधरा कुण्ड==<br />
नामान्तर में घोषरानी कुण्ड है । घोषरानी यशोधर गोप की बेटी थी । यशोधर गोप ने यहीं अपनी कन्या का विवाह कर दिया था । श्रीकृष्ण की मातामही पाटला देवी का वह कुण्ड है । <br />
==श्री प्रबोधानन्द सरस्वती भजन स्थली==<br />
लुकलुकी कुण्ड के पास ही बड़े ही निर्जन किन्तु सुरम्य स्थान में श्रीप्रबोधानन्दजी की भजन–स्थली है । श्रीप्रबोधानन्द , श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी के गुरु एवं पितृव्य थे । ये सर्वशास्त्रों के पारंगत अप्राकृत कवि थे । राधारससुधानिधि, श्रीनवद्वीप शतक, श्रीवृन्दावन शतक आदि इन्हीं महापुरुष की कृतियाँ हैं । श्रीकविकर्णपूर ने अपने प्रसिद्ध गौरगणोद्देशदीपिका में उनको कृष्णलीला की अष्टसखियों में सर्वगुणसम्पन्ना तुंगविद्या सखी बतलाया है । श्रीरग्ङम में श्रीमन्महाप्रभु से कुछ कृष्ण कथा श्रवणकर ये श्रीसम्प्रदाय को छोड़कर श्रीमन्महाप्रभु के अनुगत हो गये । श्रीमन्महाप्रभु के श्रीरग्ङम से प्रस्थान करने पर ये वृन्दावन में उपस्थित हुए और कुछ दिनों तक यहाँ इस निर्जन स्थान में रहकर उन्होंने भजन किया था । अपने अन्तिम समय में श्रीवृन्दावन कालीदह के पास भजन करते–करते नित्यलीला में प्रविष्ट हुए । आज भी उनकी भजन और समाधि स्थली वहाँ दर्शनीय है । <br />
==फिसलनी शिला==<br />
कलावता ग्राम के पास में इन्द्रसेन पर्वत पर [[फिसलनी शिला]] विद्यमान है । गोचारण करने के समय श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ फिसलने की क्रीड़ा करते थे । कभी–कभी राधिकाजी भी सखियों के साथ यहाँ फिसलने की क्रीड़ा करती थीं । आज भी निकट गाँव के लड़के गोचारण करते समय बड़े आनन्द से यहाँ पर फिसलने की क्रीड़ा करते हैं । यात्री भी इस क्रीड़ा कौतुकवाली शिला को दर्शन करने के लिए जाते हैं । <br />
==व्योमासुर गुफ़ा==<br />
इसके पास ही पहाड़ी के मध्य में व्योमासुर की गुफ़ा है । यहीं पर कृष्ण ने व्योमासुर का वध किया था । इसे मेधावी मुनि की कन्दरा भी कहते हैं । मेधावी मुनि ने यहाँ कृष्ण की आराधना की थी । पास में ही पहाड़ी नीचे श्रीबलदेव प्रभु का चरणचिह्न है । जिस समय श्रीकृष्ण व्योमासुर का वध कर रहे थे, उस समय [[पृथ्वी]] काँपने लगी । बल्देव जी ने अपने चरणों से पृथ्वी को दबाकर शान्त कर दिया था । उन्हीं के चरणों का चिह्न आज भी दर्शनीय है ।<br />
<br />
'''प्रसंग''' <br />
<br />
एक समय कृष्ण गोचारण करते हुए यहाँ उपस्थित हुए । चारों तरफ वन में बड़ी–बड़ी हरी–भरी घासें थीं । गऊवें आनन्द से वहाँ चरने लग गई । श्रीकृष्ण निश्चिन्त होकर सखाओं के साथ मेष(भेड़)चोरी की लीला खेलने लगे । बहुत से सखा भेड़ें बन गये और कुछ उनके पालक बने । कुछ सखा चोर बनकर भेड़ों को चुराने की क्रीड़ा करने लगे । कृष्ण विचारक (न्यायाधीश) बने । मेष पालकों ने न्यायधीश कृष्ण के पास भेड़ चोरों के विरूद्ध मुक़दमा दायर किया । श्रीकृष्ण दोनों पक्षों को बुलाकर मुकदमे का विचार करने लगे । इस प्रकार सभी ग्वालबाल क्रीड़ा में आसक्त हो गये । उधर व्योमासुर नामक [[कंस]] के गुप्तचर ने कृष्ण को मार डालने के लिए सखाओं जैसा वेश धारण कर सखा मण्डली में प्रवेश किया और भेड़ों का चोर बन गया तथा उसने भेड़ बने हुए सारे सखाओं को क्रमश: लाकर इसी कन्दरा में छिपा दिया । श्रीकृष्ण ने देखा कि हमारे सखा कहाँ गये ? उन्होंने व्योमासुर को पहचान लिया कि यह कार्य इस सखा बने दैत्य का ही है । ऐसा जानकर उन्होंने व्योमासुर को पकड़ लिया और उसे मार डाला । तत्पश्चात् पालक बने हुए सखाओं के साथ पर्वत की गुफ़ा से सखाओं का उद्धार किया । श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध में श्रीकृष्ण की इस लीला का वर्णन देखा जाता है ।<br />
<br />
==भोजन थाली==<br />
व्योमासुर गुफ़ा से थोड़ी दूर भोजन थाली है । श्रीकृष्ण ने व्योमासुर का वधकर यहीं पर इस कुण्ड में सखाओं के साथ स्नान किया था उस कुण्ड को क्षीरसागर या कृष्णकुण्ड कहते हैं । इस कुण्ड के ऊपर कृष्ण ने सब गोप सखाओं के साथ भोजन किया था । भोजन करने के स्थल में अभी भी पहाड़ी में थाल और कटोरी के चिह्न विद्यमान हैं । पास में ही श्रीकृष्ण के बैठने का सिंहासन स्थल भी विद्यमान है । भोजन करने के पश्चात् कुछ ऊपर पहाड़ी पर सखाओं के साथ क्रीड़ा कौतुक का स्थल भी विद्यमान है । सखालोग एक शिला को वाद्ययन्त्र के रूप में व्यवहार करते थे । आज भी उस शिला को बजाने से नाना प्रकार के मधुर स्वर निकलते हैं यह बाजन शिला के नाम से प्रसिद्ध है । पास में ही शान्तु की तपस्या स्थली शान्तनुकुण्ड है, जिसमें गुप्तगंगा नैमिषतीर्थ, हरिद्वार कुण्ड, अवन्तिका कुण्ड, मत्स्य कुण्ड, गोविन्द कुण्ड, नृसिंह कुण्ड और प्रह्लाद कुण्ड ये एकत्र विद्यमान हैं । भोजन स्थली की पहाड़ी पर श्रीपरशुरामजी की तपस्या स्थली है । यहाँ पर श्रीपरशुरामजी ने भगवद आराधना की थी ।<br />
---- <br />
*काम्यवन में श्रीगौड़ीय सम्प्रदाय के विग्रह–श्रीगोविन्दजी, श्रीवृन्दाजी, श्रीगोपीनाथजी और श्रीमदनमोहनजी हैं ।<br />
*श्रीवल्लभ सम्प्रदाय के विग्रह– श्रीकृष्णचन्द्रमाजी, नवनीतप्रियाजी और श्रीमदनमोहनजी हैं । <br />
==काम्यवन के दरवाजे== <br />
काम्यवन में सात दरवाजे हैं–<br />
#डीग दरवाजा– काम्यवन के अग्नि कोण में (दक्षिण–पूर्व दिशा में) अवस्थित है । यहाँ से [[डीग]] (दीर्घपुर) और [[भरतपुर]] जाने का रास्ता है । <br />
#लंका दरवाजा– यह काम्यवन गाँव के दक्षिण कोण में अवस्थित है । यहाँ से सेतुबन्ध कुण्ड की ओर जाने का मार्ग है । <br />
#आमेर दरवाजा– काम्यवन गाँव के नैऋत कोण में (दक्षिण–पश्चिम दिशा में) अवस्थित है । यहाँ से चरणपहाड़ी जाने का मार्ग है ।<br />
#देवी दरवाजा– यह काम्यवन गाँव के पश्चिम में अवस्थित है । यहाँ से वैष्णवीदेवी (पंजाब) जाने का मार्ग है । <br />
#दिल्ली दरवाजा –यह काम्यवन के उत्तर में अवस्थित है । यहाँ से [[दिल्ली]] जाने का मार्ग है । <br />
#रामजी दरवाजा– गाँव के ईशान कोण में अवस्थित है । यहाँ से [[नन्दगाँव|नन्दगांव]] जाने का मार्ग है । <br />
#मथुरा दरवाजा– यह गाँव के पूर्व में अवस्थित है । यहाँ से [[बरसाना]] होकर [[मथुरा]] जाने का मार्ग है ।<br />
<br />
==टीका-टिप्पणी== <br />
<references/><br />
<br /><br />
{{वन}}<br />
==अन्य लिंक==<br />
{{कुण्ड}}<br />
[[en:Kamyavan]]<br />
[[Category:ब्रज के वन]] <br />
[[Category:कोश]] <br />
[[Category:धार्मिक स्थल]]<br />
[[Category:दर्शनीय-स्थल कोश]]<br />
__INDEX__</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%A8&diff=51512काम्यवन2010-03-19T07:19:22Z<p>Brajdis1: /* विमल कुण्ड */</p>
<hr />
<div>{{menu}}<br />
==श्रीकाम्यवन / [[:en:Kamyavan|Kamyavan]]==<br />
'''कामवन / कामां / Kamvan / Kaman'''<br /><br />
[[चित्र:Gokul-Chandrama-Temple-Kama-1.jpg|thumb|250px|चन्द्रमाजी मन्दिर, काम्यवन<br /> Chandramaji Temple, Kamyavan]]<br />
*ब्रजमण्डल के द्वादशवनों में चतुर्थवन काम्यवन हैं। यह ब्रजमण्डल के सर्वोत्तम वनों में से एक हैं। इस वन की परिक्रमा करने वाला सौभाग्यवान व्यक्ति ब्रजधाम में पूजनीय होता है।<balloon title="चतुर्थ काम्यकवनं वनानां वनमुत्तमं । तत्र गत्वा नरो देवि ! मम लोके महीयते ।। आ. वा. पुराण" style="color:blue">*</balloon><br />
*हे महाराज ! तदनन्तर काम्यवन है, जहाँ आपने (श्रीब्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण ने) बहुत सी बालक्रीड़ाएँ की थीं । इस वन के कामादि सरोवरों में स्नान करने मात्र से सब प्रकार की कामनाएँ यहाँ तक कि [[कृष्ण]] की प्रेममयी सेवा की कामना भी पूर्ण हो जाती है ।<ref>तत: काम्यवनं राजन ! यत्र बाल्ये स्थितो भवान् । स्नानमात्रेण सर्वेषां सर्वकामफलप्रदम् ।। [[स्कन्द पुराण|स्कंध पुराण]]</ref> <br />
*यथार्थ में श्रीकृष्ण के प्रति [[गोपी|गोपियों]] का प्रेम ही 'काम' शब्द वाच्य है । 'प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यागमत प्रथाम्', अर्थात गोपिकाओं का निर्मल प्रेम जो केवल श्रीकृष्ण को सुख देने वाला होता है, जिसमें लौकिक काम की कोई गन्ध नहीं होती, उसी को शास्त्रों में काम कहा गया है । सांसारिक काम वासनाओं से गोपियों का यह शुद्ध काम सर्वथा भिन्न है । सब प्रकार की लौकिक कामनाओं से रहित केवल प्रेमास्पद कृष्ण को सुखी करना ही गोपियों के काम का एकमात्र तात्पर्य है । इसीलिए गोपियों के विशुद्ध प्रेम को ही [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवता]]दि शास्त्रों में काम की संज्ञा दी गई है । जिस कृष्णलीला स्थली में श्रीराधाकृष्ण युगल के ऐसे अप्राकृत प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है, उसका नाम कामवन है। गोपियों के विशुद्ध प्रेमस्वरूप शुद्धकाम की भी सहज ही सिद्धि होती है, उसे कामवन कहा गया है।<br />
{{tocright}}<br />
*काम्य शब्द का अर्थ अत्यन्त सुन्दर, सुशोभित या रूचिर भी होता है । [[ब्रजमंडल]] का यह वन विविध–प्रकार के सुरम्य सरोवरों, कूपों, कुण्डों, वृक्ष–वल्लरियों, फूल और फलों से तथा विविध प्रकारके विहग्ङमों से अतिशय सुशोभित श्रीकृष्ण की परम रमणीय विहार स्थली है । इसीलिए इसे काम्यवन कहा गया है । <br />
*विष्णु पुराण के अनुसार काम्यवन में चौरासी कुण्ड (तीर्थ), चौरासी मन्दिर तथा चौरासी खम्बे वर्तमान हैं । कहते हैं कि इन सबकी प्रतिष्ठा किसी प्रसिद्ध राजा श्रीकामसेन के द्वारा की गई थी <br />
*ऐसी भी मान्यता है कि [[देवता]] और असुरों ने मिलकर यहाँ एक सौ अड़सठ(168) खम्बों का निर्माण किया था ।<br />
<br />
==कुण्ड और तीर्थ==<br />
यहाँ छोटे–बड़े असंख्य कुण्ड और तीर्थ है । इस वन की परिक्रमा चौदह मील की है । विमलकुण्ड यहाँ का प्रसिद्ध तीर्थ या कुण्ड है । सर्वप्रथम इस विमलकुण्ड में स्नान कर श्रीकाम्यवन के कुण्ड अथवा काम्यवन की दर्शनीय स्थलियों का दर्शन प्रारम्भ होता है । विमलकुण्ड में स्नान के पश्चात गोपिका कुण्ड, सुवर्णपुर, गया कुण्ड एवं धर्म कुण्ड के दर्शन हैं । धर्म कुण्ड पर धर्मराज जी का सिंहासन दर्शनीय है । आगे यज्ञकुण्ड, पाण्डवों के पंचतीर्थ सरोवर, परम मोक्षकुण्ड, मणिकर्णिका कुण्ड हैं । पास में ही निवासकुण्ड तथा यशोदा कुण्ड हैं ।<br />
पर्वत के शिखर भद्रेश्वर शिवमूर्ति है । अनन्तर अलक्ष [[गरुड़]] मूर्ति है । पास में ही पिप्पलाद ऋषि का आश्रम है । अनन्तर दिहुहली, राधापुष्करिणी और उसके पूर्व भाग में ललिता पुष्करिणी, उसके उत्तर में विशाखा पुष्करिणी, उसके पश्चिम में चन्द्रावली पुष्करिणी तथा उसके दक्षिण भाग में चन्द्रभागा पुष्करिणी है, पूर्व–दक्षिण के मध्य स्थल में लीलावती पुष्करिणी है । पश्चिम–उत्तर में प्रभावती पुष्करिणी, मध्य में राधा पुष्करिणी है । इन पुष्करिणियों में चौंसठ सखियों की पुष्करिणी हैं । आगे कुशस्थली है । वहाँ शंखचूड़ बधस्थल तथा कामेश्वर महादेव जी दर्शनीय हैं ।, वहाँ से उत्तर में चन्द्रशेखर मूर्ति विमलेश्वर तथा वराह स्वरूप का दर्शन है । वहीं द्रोपदी के साथ पंच पाण्डवों का दर्शन, आगे वृन्दादेवी के साथ गोविन्दजी का दर्शन, श्रीराधावल्लभ, श्रीगोपीनाथ, नवनीत राय, गोकुलेश्वर और श्रीरामचन्द्र के स्वरूपों का दर्शन है । इनके अतिरिक्त [[चरणपहाड़ी]] श्रीराधागोपीनाथ, श्रीराधामोहन (गोपालजी), चौरासी खम्बा आदि दर्शनीय स्थल है । <br />
==विमल कुण्ड==<br />
[[चित्र:Vimal-Kund-Kama-5.jpg|thumb|250px|[[विमल कुण्ड]], काम्यवन<br />Vimal Kund, Kamyavan]]<br />
कामवन ग्राम से दो फर्लांग दूर दक्षिण–पश्चिम कोण में प्रसिद्ध [[विमल कुण्ड]] स्थित है। कुण्ड के चारों ओर क्रमश: (1) दाऊजी, (2) सूर्यदेव, (3) श्रीनीलकंठेश्वर महादेव, (4) श्रीगोवर्धननाथ, (5) श्रीमदन मोहन एवं काम्यवन विहारी, (6) श्रीविमल विहारी, (7) विमला देवी, (8) श्रीमुरलीमनोहर, (9) भगवती गंगा और (10) श्रीगोपालजी विराजमान हैं। [[विमल कुण्ड|..और पढ़े]]<br />
<br />
==श्रीवृन्दादेवी और श्रीगोविन्ददेव==<br />
यह काम्यवन का सर्वाधिक प्रसिद्ध मन्दिर है । यहाँ वृन्दादेवी का विशेष रूप से दर्शन है, जो ब्रजमण्डल में कहीं अन्यत्र दुर्लभ है । श्रीराधा–गोविन्ददेवी भी यहाँ विराजमान हैं । पास में ही श्रीविष्णु सिंहासन अर्थात श्रीकृष्ण का सिंहासन है । उसके निकट ही चरण कुण्ड है, जहाँ श्रीराधा और गोविन्द युगल के श्रीचरणकमल पखारे गये थे । <br />
श्री[[रूप गोस्वामी|रूप]]–[[सनातन गोस्वामी|सनातन]] आदि गोस्वामियों के अप्रकट होने के पश्चात धर्मान्ध मुग़ल सम्राट [[औरंगजेब]] के अत्याचारों से जिस समय ब्रज में [[वृन्दावन]], [[मथुरा]] आदि के प्रसिद्ध मन्दिर ध्वंस किये जा रहे थे, उस समय [[जयपुर]] के परम भक्त महाराज ब्रज के श्रीगोविन्द, श्रीगोपीनाथ, श्रीमदनमोहन, श्रीराधादामोदर, श्रीराधामाधव आदि प्रसिद्ध विग्रहों को अपने साथ लेकर जब जयपुर आ रहे थे, तो उन्होंने मार्ग में इस काम्यवन में कुछ दिनों तक विश्राम किया । श्रीविग्रहों को रथों से यहाँ विभिन्न स्थानों में पधराकर उनका विधिवत स्नान, भोगराग और शयनादि सम्पन्न करवाया था । तत्पश्चात वे जयपुर और अन्य स्थानों में पधराये गये । तदनन्तर काम्यवन में जहाँ–जहाँ श्रीराधागोविन्द, श्रीराधागोपीनाथ और श्रीराधामदनमोहन पधराये गये थे, उन–उन स्थानों पर विशाल मन्दिरों का निर्माण कराकर उनमें उन–उन मूल श्रीविग्रहों की प्रतिभू–विग्रहों की प्रतिष्ठा की गई । श्रीवृन्दादेवी काम्यवन तक तो आई, किन्तु वे ब्रज को छोड़कर आगे नहीं गई । इसीलिए यहाँ श्रीवृन्दादेवी का पृथक् रूप दर्शन है । <br />
श्री[[चैतन्य महाप्रभु]] और उनके श्रीरूप सनातन गोस्वामी आदि परिकरों ने ब्रजमण्डल की लुप्त लीलास्थलियों को प्रकाश किया है । इनके ब्रज में आने से पूर्व काम्यवन को वृन्दावन माना जाता था । किन्तु, श्रीचैतन्य महाप्रभु ने ही मथुरा के सन्निकट श्रीधाम वृन्दावन को प्रकाशित किया । क्योंकि काम्यवन में [[यमुना]]जी, [[चीरघाट]], [[निधिवन]], [[कालियदह|कालीदह]], [[केशीघाट]], [[सेवाकुंज]], रासस्थली वंशीवट, श्रीगोपेश्वर महादेव की स्थिति असम्भव है । इसलिए विमलकुण्ड, कामेश्वर महादेव, चरणपहाड़ी, सेतुबांध रामेश्वर आदि लीला स्थलियाँ जहाँ विराजमान हैं, वह अवश्य ही वृन्दावन से पृथक् काम्यवन है । वृन्दादेवी का स्थान वृन्दावन में ही है। वे वृन्दावन के कुञ्ज की तथा उन कुञ्जों में श्रीराधाकृष्ण युगल की क्रीड़ाओं की अधिष्ठात्री देवी है । अत: अब वे श्रीधाम वृन्दावन के श्रीरूप सनातन [[गौड़ीय मठ]] में विराजमान हैं । यहाँ उनकी बड़ी ही दिव्य झाँकी है । श्रीगोविन्द मन्दिर के निकट ही गरुड़जी, चन्द्रभाषा कुण्ड, चन्द्रेश्वर महादेवजी, वाराहकुण्ड, वाराहकूप, यज्ञकुण्ड और धर्मकुण्डादि दर्शनीय हैं ।<br />
<br />
==धर्म कुण्ड==<br />
यह कुण्ड काम्यवन की पूर्व दिशा में हैं । यहाँ श्रीनारायण धर्म के रूप में विराजमान हैं । पास में ही विशाखा नामक वेदी है । श्रवणा नक्षत्र, बुधवार, भाद्रपद कृष्णाष्टमी में यहाँ स्नान की विशेष विधि है । [[धर्म कुण्ड]] के अन्तर्गत नर–नारायण कुण्ड, नील वराह, पंच पाण्डव, हनुमान जी, पंच पाण्डव कुण्ड (पञ्च तीर्थ) मणिकर्णिका, विश्वेश्वर महादेवादि दर्शनीय हैं ।<br />
==यशोदा कुण्ड==<br />
काम्यवन में यहीं कृष्ण की माता श्रीयशोदाजी कापित्रालय था । श्रीकृष्ण बचपन में अपनी माता जी के साथ यहाँ कभी–कभी आकर निवास करते थे । कभी–कभी [[नन्द]]–[[गोकुल]] अपने गऊओं के साथ पड़ाव में यहीं ठहरता था । श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ गोचारण भी करते थे ।<balloon title="देख यशोदाकुण्ड परम निर्मल । एथा गोचारणे कृष्ण हईया विहृल॥ (भक्तिरत्नाकर)" style="color:blue">*</balloon> ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है । यह स्थान अत्यन्त मनोहर है ।<br />
<br />
==गया कुण्ड==<br />
[[चित्र:Gaya-Kund-Kama-1.jpg|thumb|200px|[[गया कुण्ड]], काम्यवन <br /> Gaya Kund, Kamyavan]]<br />
गयातीर्थ भी ब्रजमण्डल के इस स्थान पर रहकर कृष्ण की आराधना करते हैं । इसमें अगस्त कुण्ड भी एक साथ मिले हुए हैं । गया कुण्ड के दक्षिणी घाट का नाम अगस्त घाट है । यहाँ आश्विन माह के कृष्ण पक्ष में स्नान, तर्पण और पिण्डदान आदि प्रशस्त हैं ।<br />
<br />
==प्रयाग कुण्ड==<br />
तीर्थराज [[प्रयाग]] ने यहाँ श्रीकृष्ण की आराधना की थी । प्रयाग और पुष्कर ये दोनों कुण्ड एक साथ हैं । <br />
==द्वारका कुण्ड==<br />
श्रीकृष्ण ने यहाँ पर द्वार का से ब्रज में पधारकर महर्षियों के साथ शिविर बनाकर निवास अवस्थित किया था । द्वारकाकुण्ड, सोमती कुण्ड, मानकुण्ड और बलभद्र कुण्ड– ये चारों कुण्ड परस्पर सन्निकट अवस्थित हैं । <br />
==नारद कुण्ड==<br />
यह नारदजी की आराधना स्थली है । देवर्षि नारद इस स्थान पर कृष्ण की मधुर लीलाओं का गान करते हुए अधैर्य हो जाते थे ।<balloon title="देखह नारद कुण्ड नारद एई खाने । हैल महा अधैर्य कृष्णेर लीला गाने । (भक्तिरत्नाकर)" style="color:blue">*</balloon><br />
<br />
==मनोकामना कुण्ड==<br />
विमल कुण्ड और यशोदा कुण्ड के बीच में मनोकामना कुण्ड और काम सरोवर एक साथ विराजमान हैं । यहाँ स्नानादि करने पर मन की सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ।<balloon title="तत्र कामसरो राजन ! गोपिकारमणं सर: । तत्र तीर्थ सहस्त्राणि सरांसि च पृथक्–पृथक् ।। स्कंध पुराण" style="color:blue">*</balloon> काम्यवन में गोपिकारमण कामसरोवर है, जहाँ पर मन की सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । उसी काम्यवन में अन्यान्य सहस्त्र तीर्थ विराजमान हैं ।<br />
<br />
==सेतुबन्ध सरोवर==<br />
श्रीकृष्ण ने यहाँ पर श्रीराम के आवेश में गोपियों के कहने से बंदरों के द्वारा सेतुका निर्माण किया था । अभी भी इस सरोवर में सेतु बन्ध के भग्नावशेष दर्शनीय हैं । कुण्ड के उत्तर में रामेश्वर महादेवजी दर्शनीय हैं । जो श्रीरामावेशी श्रीकृष्ण के द्वारा प्रतिष्ठित हुए थे । कुण्ड के दक्षिण में उस पार एक टीले के रूप में लंकापुरी भी दर्शनीय है । <br />
<br />
'''प्रसंग'''<br />
<br />
श्रीकृष्ण लीला के समय दिन परम कौतुकी श्रीकृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर विनोदिनी श्रीराधिका के साथ हास्य–परिहास कर रहे थे । उस समय इनकी रूप माधुरी से आकृष्ट होकर आस पास के सारे बंदर पेड़ों से नीचे उतरकर उनके चरणों में प्रणामकर किलकारियाँ मारकर नाचने–कूदने लगे । बहुत से बंदर कुण्ड के दक्षिण तट के वृक्षों से लम्बी छलांग मारकर उनके चरणों के समीप पहुँचे । भगवान श्रीकृष्ण उन बंदरों की वीरता की प्रशंसा करने लगे । गोपियाँ भी इस आश्चर्यजनक लीला को देखकर मुग्ध हो गई । वे भी भगवान श्री[[राम|रामचन्द्र]] की अद्भुत लीलाओं का वर्णन करते हुए कहने लगीं । कि श्रीरामचन्द्रजी ने भी बंदरों की सहायता ली थी । उस समय ललिताजी ने कहा– हमने सुना है कि महापराक्रमी [[हनुमान]] जी ने त्रेतायुग में एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया था । परन्तु आज तो हम साक्षात रूप में बंदरों को इस सरोवर को एक छलांग में पार करते हुए देख रही हैं । ऐसा सुनकर कृष्ण ने गर्व करते हुए कहा– जानती हो ! मैं ही त्रेतायुग में श्रीराम था मैंने ही रामरूप में सारी लीलाएँ की थी । ललिता श्रीरामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं की प्रशंसा करती हुई बोलीं– तुम झूठे हो । तुम कदापि राम नहीं थे । तुम्हारे लिए कदापि वैसी वीरता सम्भव नहीं । श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा– तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, किन्तु मैंने ही रामरूप धारणकर जनकपुरी में शिवधनु को तोड़कर [[सीता]] से विवाह किया था । पिता के आदेश से धनुष-बाण धारणकर सीता और [[लक्ष्मण]] के साथ [[चित्रकूट]] और [[दण्डकारण्य]] में भ्रमण किया तथा वहाँ अत्याचारी दैत्यों का विनाश किया । फिर सीता के वियोग में वन–वन भटका । पुन: बन्दरों की सहायता से [[रावण]] सहित [[लंका|लंकापुरी]] का ध्वंसकर [[अयोध्या]] में लौटा । मैं इस समय गोपालन के द्वारा वंशी धारणकर गोचारण करते हुए वन–वन में भ्रमण करता हुआ प्रियतमा श्रीराधिका के साथ तुम गोपियों से विनोद कर रहा हूँ । पहले मेरे रामरूप में धनुष–बाणों से त्रिलोकी काँप उठती थी । किन्तु, अब मेरे मधुर वेणुनाद से स्थावर–जग्ङम सभी प्राणी उन्मत्त हो रहे हैं । ललिताजी ने भी मुस्कराते हुए कहा– हम केवल कोरी बातों से ही विश्वास नहीं कर सकतीं । यदि श्रीराम जैसा कुछ पराक्रम दिखा सको तो हम विश्वास कर सकती हैं । श्रीरामचन्द्रजी सौ [[योजन]] समुद्र को भालू–कपियों के द्वारा बंधवाकर सारी सेना के साथ उस पार गये थे । आप इन बंदरों के द्वारा इस छोटे से सरोवर पर पुल बँधवा दें तो हम विश्वास कर सकती हैं । ललिता की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने वेणू–ध्वनि के द्वारा क्षणमात्र में सभी बंदरों को एकत्र कर लिया तथा उन्हें प्रस्तर शिलाओं के द्वारा उस सरोवर के ऊपर सेतु बाँधने के लिए आदेश दिया । देखते ही देखते श्रीकृष्ण के आदेश से हजारों बंदर बड़ी उत्सुकता के साथ दूर -दूर स्थानों से पत्थरों को लाकर सेतु निर्माण लग गये । श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से उन बंदरों के द्वारा लाये हुए उन पत्थरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया । सेतु के प्रारम्भ में सरोवर की उत्तर दिशा में श्रीकृष्ण ने अपने रामेश्वर महादेव की स्थापना भी की । आज भी ये सभी लीलास्थान दर्शनीय हैं । इस कुण्ड का नामान्तर लंका कुण्ड भी है ।<br />
==लुकलुकी कुण्ड==<br />
गोचारण करते समय कभी कृष्ण अपने सखाओं को खेलते हुए छोड़कर कुछ समय के लिए एकान्त में इस परम रमणीय स्थान पर गोपियों से मिले । वे उन ब्रज– रमणियों के साथ यहाँ पर लुका–छिपी (आँख मुदउवल) की क्रीड़ा करने लगे । सब गोपियों ने अपनी–अपनी आँखें मूँद लीं और कृष्ण निकट ही पर्वत की एक कन्दरा में प्रवेश कर गये । सखियाँ चारों ओर खोजने लगीं, किन्तु कृष्ण को ढूँढ़ नहीं सकीं । वे बहुत ही चिन्तित हुई कि कृष्ण हमें छोड़कर कहाँ चले गये ? वे कृष्ण का ध्यान करने लगीं । जहाँ पर वे बैठकर ध्यान कर रही थीं, वह स्थल ध्यान–कुण्ड है । जिस कन्दरा में कृष्ण छिपे थे , उसे लुक–लुक कन्दरा कहते हैं । <br />
==चरणपहाड़ी==<br />
[[चित्र:Charan-Pahadi-Kama-1.jpg|thumb|200px|चरणपहाड़ी, काम्यवन<br /> Charan Pahadi, Kamyavan]]<br />
श्रीकृष्ण इस कन्दरा में प्रवेशकर पहाड़ी के ऊपर प्रकट हुए और वहीं से उन्होंने मधुर वंशीध्वनि की । वंशीध्वनि सुनकर सखियों का ध्यान टूट गया और उन्होंने पहाड़ी के ऊपर प्रियतम को वंशी बजाते हुए देखा। वे दौड़कर वहाँ पर पहुँची और बड़ी आतुरता के साथ कृष्ण से मिलीं । वंशीध्वनि से पर्वत पिघल जाने के कारण उसमें श्रीकृष्ण के चरण चिह्न उभर आये । आज भी वे चरण– चिह्न स्पष्ट रूप में दर्शनीय हैं । पास में उसी पहाड़ी पर जहाँ बछडे़ चर रहे थे और सखा खेल रहे थे, उसके पत्थर भी पिघल गये जिस पर उन बछड़ों और सखाओं के चरण– चिह्न अंकित हो गये, जो पाँच हजार वर्ष बाद आज भी स्पष्ट रूप से दर्शनीय हैं । लुक–लुकी कुण्ड में जल–क्रीड़ा हुई थी । इसलिए इसे जल–क्रीड़ा कुण्ड भी कहते हैं ।<br />
<br />
==विहृल कुण्ड==<br />
चरणपहाड़ी के पास ही विहृल कुण्ड और पञ्चसखा कुण्ड है । यहाँ पर कृष्ण की [[मुरली]] ध्वनि को सुनकर गोपियाँ प्रेम में विहृल हो गई थी । इसलिए वह स्थान विहृल कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ । पञ्च सखा कुण्डों के नाम रग्ङीला, छबीला, जकीला, मतीला और दतीला कुण्ड हैं । ये सब अग्रावली ग्राम के पास विद्यमान हैं ।<br />
<br />
==यशोधरा कुण्ड==<br />
नामान्तर में घोषरानी कुण्ड है । घोषरानी यशोधर गोप की बेटी थी । यशोधर गोप ने यहीं अपनी कन्या का विवाह कर दिया था । श्रीकृष्ण की मातामही पाटला देवी का वह कुण्ड है । <br />
==श्री प्रबोधानन्द सरस्वती भजन स्थली==<br />
लुकलुकी कुण्ड के पास ही बड़े ही निर्जन किन्तु सुरम्य स्थान में श्रीप्रबोधानन्दजी की भजन–स्थली है । श्रीप्रबोधानन्द , श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी के गुरु एवं पितृव्य थे । ये सर्वशास्त्रों के पारंगत अप्राकृत कवि थे । राधारससुधानिधि, श्रीनवद्वीप शतक, श्रीवृन्दावन शतक आदि इन्हीं महापुरुष की कृतियाँ हैं । श्रीकविकर्णपूर ने अपने प्रसिद्ध गौरगणोद्देशदीपिका में उनको कृष्णलीला की अष्टसखियों में सर्वगुणसम्पन्ना तुंगविद्या सखी बतलाया है । श्रीरग्ङम में श्रीमन्महाप्रभु से कुछ कृष्ण कथा श्रवणकर ये श्रीसम्प्रदाय को छोड़कर श्रीमन्महाप्रभु के अनुगत हो गये । श्रीमन्महाप्रभु के श्रीरग्ङम से प्रस्थान करने पर ये वृन्दावन में उपस्थित हुए और कुछ दिनों तक यहाँ इस निर्जन स्थान में रहकर उन्होंने भजन किया था । अपने अन्तिम समय में श्रीवृन्दावन कालीदह के पास भजन करते–करते नित्यलीला में प्रविष्ट हुए । आज भी उनकी भजन और समाधि स्थली वहाँ दर्शनीय है । <br />
==फिसलनी शिला==<br />
कलावता ग्राम के पास में इन्द्रसेन पर्वत पर [[फिसलनी शिला]] विद्यमान है । गोचारण करने के समय श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ फिसलने की क्रीड़ा करते थे । कभी–कभी राधिकाजी भी सखियों के साथ यहाँ फिसलने की क्रीड़ा करती थीं । आज भी निकट गाँव के लड़के गोचारण करते समय बड़े आनन्द से यहाँ पर फिसलने की क्रीड़ा करते हैं । यात्री भी इस क्रीड़ा कौतुकवाली शिला को दर्शन करने के लिए जाते हैं । <br />
==व्योमासुर गुफ़ा==<br />
इसके पास ही पहाड़ी के मध्य में व्योमासुर की गुफ़ा है । यहीं पर कृष्ण ने व्योमासुर का वध किया था । इसे मेधावी मुनि की कन्दरा भी कहते हैं । मेधावी मुनि ने यहाँ कृष्ण की आराधना की थी । पास में ही पहाड़ी नीचे श्रीबलदेव प्रभु का चरणचिह्न है । जिस समय श्रीकृष्ण व्योमासुर का वध कर रहे थे, उस समय [[पृथ्वी]] काँपने लगी । बल्देव जी ने अपने चरणों से पृथ्वी को दबाकर शान्त कर दिया था । उन्हीं के चरणों का चिह्न आज भी दर्शनीय है ।<br />
<br />
'''प्रसंग''' <br />
<br />
एक समय कृष्ण गोचारण करते हुए यहाँ उपस्थित हुए । चारों तरफ वन में बड़ी–बड़ी हरी–भरी घासें थीं । गऊवें आनन्द से वहाँ चरने लग गई । श्रीकृष्ण निश्चिन्त होकर सखाओं के साथ मेष(भेड़)चोरी की लीला खेलने लगे । बहुत से सखा भेड़ें बन गये और कुछ उनके पालक बने । कुछ सखा चोर बनकर भेड़ों को चुराने की क्रीड़ा करने लगे । कृष्ण विचारक (न्यायाधीश) बने । मेष पालकों ने न्यायधीश कृष्ण के पास भेड़ चोरों के विरूद्ध मुक़दमा दायर किया । श्रीकृष्ण दोनों पक्षों को बुलाकर मुकदमे का विचार करने लगे । इस प्रकार सभी ग्वालबाल क्रीड़ा में आसक्त हो गये । उधर व्योमासुर नामक [[कंस]] के गुप्तचर ने कृष्ण को मार डालने के लिए सखाओं जैसा वेश धारण कर सखा मण्डली में प्रवेश किया और भेड़ों का चोर बन गया तथा उसने भेड़ बने हुए सारे सखाओं को क्रमश: लाकर इसी कन्दरा में छिपा दिया । श्रीकृष्ण ने देखा कि हमारे सखा कहाँ गये ? उन्होंने व्योमासुर को पहचान लिया कि यह कार्य इस सखा बने दैत्य का ही है । ऐसा जानकर उन्होंने व्योमासुर को पकड़ लिया और उसे मार डाला । तत्पश्चात् पालक बने हुए सखाओं के साथ पर्वत की गुफ़ा से सखाओं का उद्धार किया । श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध में श्रीकृष्ण की इस लीला का वर्णन देखा जाता है ।<br />
<br />
==भोजन थाली==<br />
व्योमासुर गुफ़ा से थोड़ी दूर भोजन थाली है । श्रीकृष्ण ने व्योमासुर का वधकर यहीं पर इस कुण्ड में सखाओं के साथ स्नान किया था उस कुण्ड को क्षीरसागर या कृष्णकुण्ड कहते हैं । इस कुण्ड के ऊपर कृष्ण ने सब गोप सखाओं के साथ भोजन किया था । भोजन करने के स्थल में अभी भी पहाड़ी में थाल और कटोरी के चिह्न विद्यमान हैं । पास में ही श्रीकृष्ण के बैठने का सिंहासन स्थल भी विद्यमान है । भोजन करने के पश्चात् कुछ ऊपर पहाड़ी पर सखाओं के साथ क्रीड़ा कौतुक का स्थल भी विद्यमान है । सखालोग एक शिला को वाद्ययन्त्र के रूप में व्यवहार करते थे । आज भी उस शिला को बजाने से नाना प्रकार के मधुर स्वर निकलते हैं यह बाजन शिला के नाम से प्रसिद्ध है । पास में ही शान्तु की तपस्या स्थली शान्तनुकुण्ड है, जिसमें गुप्तगंगा नैमिषतीर्थ, हरिद्वार कुण्ड, अवन्तिका कुण्ड, मत्स्य कुण्ड, गोविन्द कुण्ड, नृसिंह कुण्ड और प्रह्लाद कुण्ड ये एकत्र विद्यमान हैं । भोजन स्थली की पहाड़ी पर श्रीपरशुरामजी की तपस्या स्थली है । यहाँ पर श्रीपरशुरामजी ने भगवद आराधना की थी ।<br />
---- <br />
*काम्यवन में श्रीगौड़ीय सम्प्रदाय के विग्रह–श्रीगोविन्दजी, श्रीवृन्दाजी, श्रीगोपीनाथजी और श्रीमदनमोहनजी हैं ।<br />
*श्रीवल्लभ सम्प्रदाय के विग्रह– श्रीकृष्णचन्द्रमाजी, नवनीतप्रियाजी और श्रीमदनमोहनजी हैं । <br />
==काम्यवन के दरवाजे== <br />
काम्यवन में सात दरवाजे हैं–<br />
#डीग दरवाजा– काम्यवन के अग्नि कोण में (दक्षिण–पूर्व दिशा में) अवस्थित है । यहाँ से [[डीग]] (दीर्घपुर) और [[भरतपुर]] जाने का रास्ता है । <br />
#लंका दरवाजा– यह काम्यवन गाँव के दक्षिण कोण में अवस्थित है । यहाँ से सेतुबन्ध कुण्ड की ओर जाने का मार्ग है । <br />
#आमेर दरवाजा– काम्यवन गाँव के नैऋत कोण में (दक्षिण–पश्चिम दिशा में) अवस्थित है । यहाँ से चरणपहाड़ी जाने का मार्ग है ।<br />
#देवी दरवाजा– यह काम्यवन गाँव के पश्चिम में अवस्थित है । यहाँ से वैष्णवीदेवी (पंजाब) जाने का मार्ग है । <br />
#दिल्ली दरवाजा –यह काम्यवन के उत्तर में अवस्थित है । यहाँ से [[दिल्ली]] जाने का मार्ग है । <br />
#रामजी दरवाजा– गाँव के ईशान कोण में अवस्थित है । यहाँ से [[नन्दगाँव|नन्दगांव]] जाने का मार्ग है । <br />
#मथुरा दरवाजा– यह गाँव के पूर्व में अवस्थित है । यहाँ से [[बरसाना]] होकर [[मथुरा]] जाने का मार्ग है ।<br />
<br />
==टीका-टिप्पणी== <br />
<references/><br />
<br /><br />
{{वन}}<br />
==अन्य लिंक==<br />
{{कुण्ड}}<br />
[[en:Kamyavan]]<br />
[[Category:ब्रज के वन]] <br />
[[Category:कोश]] <br />
[[Category:धार्मिक स्थल]]<br />
[[Category:दर्शनीय-स्थल कोश]]<br />
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<hr />
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<hr />
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<hr />
<div>{{menu}}<br />
{{बौध्द दर्शन}}<br />
==बौद्ध धर्म / Buddhism==<br />
[[चित्र:Buddha-3.jpg|thumb|200px|[[बुद्ध]] प्रतिमा<br /> Buddha Image<br /> [[संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]]]<br />
बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] है। इसके संस्थापक महात्मा बुद्ध, शाक्यमुनि (गौतम बुद्ध) थे। बुद्ध राजा [[शुद्धोदन]] के पुत्र थे और इनका जन्म [[लुंबिनी]] नामक ग्राम (नेपाल) में हुआ था। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व तक जीवित थे। उनके गुज़रने के बाद अगली पाँच शताब्दियों में, बौद्ध धर्म पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ैला, और अगले दो हज़ार सालों में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फ़ैल गया। आज, बौद्ध धर्म में तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं: थेरवाद, महायान और वज्रयान। बौद्ध धर्म को पैंतीस करोड़ से अधिक लोग मानते हैं और यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म है।<br />
बौद्ध धर्म में दो मुख्य सम्प्रदाय हैं:<br />
<br />
'''थेरवाद'''<br />
<br />
थेरवाद या हीनयान बुद्ध के मौलिक उपदेश ही मानता है।<br />
<br />
'''महायान'''<br />
<br />
महायान बुद्ध की पूजा करता है। ये थेरावादियों को "हीनयान" (छोटी गाड़ी) कहते हैं। बौद्ध धर्म की एक प्रमुख शाखा है जिसका आरंभ पहली शताब्दी के आस-पास माना जाता है। ईसा पूर्व पहली शताब्दी में वैशाली में बौद्ध-संगीति हुई जिसमें पश्चिमी और पूर्वी बौद्ध पृथक् हो गए। पूर्वी शाखा का ही आगे चलकर महायान नाम पड़ा। देश के दक्षिणी भाग में इस मत का प्रसार देखकर कुछ विद्वानों की मान्यता है कि इस विचारधारा का आरंभ उसी अंचल से हुआ। महायान भक्ति प्रधान मत है। इसी मत के प्रभाव से बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण आंरभ हुआ। इसी ने बौद्ध धर्म में बोधिसत्व की भावना का समावेश किया। यह भावना सदाचार, परोपकार, उदारता आदि से सम्पन्न थी। इस मत के अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति सर्वोपरि लक्ष्य है। महायान संप्रदाय ने गृहस्थों के लिए भी सामाजिक उन्नति का मार्ग निर्दिष्ट किया। भक्ति और पूजा की भावना के कारण इसकी ओर लोग सरलता से आकृष्ट हुए। महायान मत के प्रमुख विचारकों में [[अश्वघोष]], [[नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन]] और [[असंग बौद्धाचार्य|असंग]] के नाम प्रमुख हैं।<br />
<br />
==ब्रज (मथुरा) में बौद्ध धर्म==<br />
[[मथुरा]] और बौद्ध धर्म का घनिष्ठ संबंध था। जो [[बुद्ध]] के जीवन-काल से [[शक-कुषाण काल|कुषाण-काल]] तक अक्षु्ण रहा। '[[अंगुत्तरनिकाय]]' के अनुसार भगवान बुद्ध एक बार मथुरा आये थे और यहाँ उपदेश भी दिया था।<balloon title="अंगुत्तनिकाय, भाग 2, पृ 57; तत्रैव, भाग 3,पृ 257" style="color:blue">*</balloon> 'वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त' में भगवान् बुद्ध के द्वारा मथुरा से वेरंजा तक यात्रा किए जाने का वर्णन मिलता है।<balloon title="भरत सिंह उपापध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ 109" style="color:blue">*</balloon> पालि विवरण से यह ज्ञात होता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बारहवें [[वर्ष]] में ही बुद्ध ने मथुरा नगर की यात्रा की थी। <ref>[[दिव्यावदान]], पृ 348 में उल्लिखित है कि भगवान बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण काल से कुछ पहले ही मथुरा की यात्रा की थी। भगवान्......परिनिर्वाणकालसमये..........मथुरामनुप्राप्त:।'' [[पालि भाषा|पालि]] परंपरा से इसका मेल बैठाना कठिन है।</ref> मथुरा से लौटकर बुद्ध वेरंजा आये फिर उन्होंने श्रावस्ती की यात्रा की। <ref>उल्लेखनीय है कि वेरंजा उत्तरापथ मार्ग पर पड़ने वाला बुद्धकाल में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो मथुरा और सोरेय्य के मध्य स्थित था।</ref> भगवान बुद्ध के शिष्य [[महाकाच्यायन]] मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आए थे। इस नगर में [[अशोक]] के गुरु [[उपगुप्त]]<balloon title="वी ए स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया (चतुर्थ संस्करण), पृ 199" style="color:blue">*</balloon>, [[ध्रुव]] ([[स्कंद पुराण]], काशी खंड, अध्याय 20), एवं प्रख्यात गणिका [[वासवदत्ता]]<balloon title="मथुरायां वासवदत्ता नाम गणिकां।' दिव्यावदान (कावेल एवं नीलवाला संस्करण), पृ 352" style="color:blue">*</balloon> भी निवास करती थी। मथुरा राज्य का देश के दूसरे भागों से व्यापारिक संबंध था। मथुरा उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों भागों से जुड़ा हुआ था।<balloon title="आर सी शर्मा, बुद्धिस्ट् आर्ट आफ मथुरा, पृ 5" style="color:blue">*</balloon> राजगृह से [[तक्षशिला]] जाने वाले उस समय के व्यापारिक मार्ग में यह नगर स्थित था।<balloon title="भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धिकालीन भारतीय भूगोल, पृ 440" style="color:blue">*</balloon><br />
<br />
==बौद्ध मूर्तियाँ==<br />
मथुरा के कुषाण शासक जिनमें से अधिकांश ने बौद्ध धर्म को प्रोत्साहित किया मूर्ति निर्माण के पक्षपाती थे। यद्यपि कुषाणों के पूर्व भी मथुरा में बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्म से सम्बन्धित प्रतिमाओं का निर्माण किया गया था। [[चित्र:Buddha1.jpg|200px|left|thumb|[[बुद्ध]] प्रतिमा<br /> Buddha Image<br /> [[संग्रहालय मथुरा|राजकीय संग्रहालय]], [[मथुरा]]]] विदित हुआ है कि कुषाण काल में मथुरा उत्तर भारत में सबसे बड़ा मूर्ति निर्माण का केन्द्र था और यहां विभिन्न धर्मों सम्बन्धित मूर्तियों का अच्छा भण्डार था। इस काल के पहले बुद्ध की स्वतंत्र मूर्ति नहीं मिलती है। बुद्ध का पूजन इस काल से पूर्व विविध प्रतीक चिन्हों के रूप में मिलता है। परन्तु कुषाण काल के प्रारम्भ से महायान भक्ति, पंथ भक्ति उत्पत्ति के साथ नागरिकों में बुद्ध की सैकड़ों मूर्तियों का निर्माण होने लगा। बुद्ध के पूर्व जन्म की [[जातक कथा|जातक कथायें]] भी पत्थरों पर उत्कीर्ण होने लगी। मथुरा से बौद्ध धर्म सम्बन्धी जो अवशेष मिले हैं, उनमें प्राचीन धार्मिक एवं लौकिक जीवन के अध्ययन की अपार सामग्री है। मथुरा कला के विकास के साथ–साथ बुद्ध एवं बौधित्सव की सुन्दर मूर्तियों का निर्माण हुआ। गुप्तकालीन बुद्ध प्रतिमाओं में अंग प्रत्यंग के कला पूर्ण विन्यास के साथ एक दिव्य सौन्दर्य एवं आध्यात्मिक गांभीर्य का समन्वय मिलता है।<br />
----<br />
पाँचवी शताब्दी ई. में [[फ़ाह्यान]] भारत आया तो उसने भिक्षुओं से भरे हुए अनेक विहार देखे। सातवीं शताब्दी में [[हुएन-सांग]] ने भी यहाँ अनेक विहारों को देखा। इन दोनों चीनी यात्रियों ने अपनी यात्रा में यहाँ का वर्णन किया है। "पीतू" देश से होता हुआ चीनी यात्री फ़ाह्यान 80 [[योजन]] चलकर मताउला <ref>`मूचा' (मोर का शहर) का विस्तार 27° 30' उत्तरी आक्षांश से 77° 43' पूर्वी देशांतर तक था। यह [[कृष्ण]] की जन्मस्थली थी जिसका राजचिन्ह मोर था।</ref> (मथुरा) जनपद पहुँचा था। इस समय यहाँ बौद्ध धर्म अपने विकास की चरम सीमा पर था। उसने लिखा है कि यहाँ 20 से भी अधिक [[संघाराम]] थे, जिनमें लगभग तीन सहस्र से अधिक भिक्षु रहा करते थे।<balloon title="जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फ़ाह्यान , पृ 42" style="color:blue">*</balloon> यहाँ के निवासी अत्यंत श्रद्धालु और साधुओं का आदर करने वाले थे। राजा भिक्षा (भेंट) देते समय अपने मुकुट उतार लिया करते थे और अपने परिजन तथा अमात्यों के साथ अपने हाथों से दान करते (देते) थे। यहाँ अपने-आपसी झगड़ों को स्वयं तय किया जाता था; किसी न्यायाधीश या क़ानून की शरण नहीं लेनी पड़ती थीं। नागरिक राजा की भूमि को जोतते थे तथा उपज का कुछ भाग राजकोष में देते थे। मथुरा की जलवायु शीतोष्ण थी। नागरिक सुखी थे। राजा प्राणदंड नहीं देता था, शारीरिक दंड भी नहीं दिया जाता था। अपराधी को अवस्थानुसार उत्तर या मध्यम अर्थदंड दिया जाता था (जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फ़ाह्यान, पृ 43)। अपराधों की पुनरावृत्ति होने पर दाहिना हाथ काट दिया जाता था। फ़ाह्यान लिखता हैं कि पूरे राज्य में चांडालों को छोड़कर कोई निवासी जीव-हिंसा नहीं करता था। मद्यपान नहीं किया जाता था और न ही लहसुन-प्याज का सेवन किया जाता था। चांडाल (दस्यु) नगर के बाहर निवास करते थे। क्रय-विक्रय में सिक्कों एवं कौड़ियों का प्रचलन था (जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फ़ाह्यान, पृ 43)।<br />
बौद्ध ग्रंथों में [[शूरसेन]] के शासक अवंति पुत्र की चर्चा है, जो [[उज्जयिनी]] के राजवंश से संबंधित था। इस शासक ने बुद्ध के एक शिष्य महाकाच्यायन से ब्राह्मण धर्म पर वाद-विवाद भी किया था।<balloon title="मज्झिमनिकाय, भाग दो, पृ 83 और आगे; मललसेकर, डिक्शनरी आँफ् पालि प्रापर नेम्स, भाग 2, पृ 438" style="color:blue">*</balloon> भगवान् बुद्ध शूरसेन जनपद में एक बार [[मथुरा]] गए थे, जहाँ [[आनंद]] ने उन्हें उरुमुंड पर्वत पर स्थित गहरे नीले रंग का एक हरा-भरा वन दिखलाया था।<balloon title="(दिव्यावदान, पृ 348-349)" style="color:blue">*</balloon> [[मिलिंदपन्हों]]<balloon title=" (मिलिंदपन्हो (ट्रेंकनर संस्करण), पृ 331)" style="color:blue">*</balloon> में इसका वर्णन भारत के प्रसिद्ध स्थानों में हुआ है। इसी ग्रंथ में प्रसिद्ध नगरों एवम् उनके निवासियों के नाम के एक प्रसंग में माधुर का (मथुरा के निवासी का भी उल्लेख मिलता है<balloon title=" (मिलिंदपन्हों (ट्रेंकनर संस्करण), पृ 324)" style="color:blue">*</balloon> जिससे ज्ञात होता है कि राजा [[मिलिंद (मिनांडर)|मिलिंद]] (मिनांडर) के समय (150 ई॰ पू0) मथुरा नगर पालि परंपरा में एक प्रतिष्ठित नगर के रूप में विख्यात हो चुका था।<br />
<br /><br /><br />
==वीथिका==<br />
<gallery widths="145px" perrow="4"><br />
चित्र:Standing-Buddha-in-Abhaya-Mathura-Museum-6.jpg|अभय मुद्रा में खड़े भगवान [[बुद्ध]]<br /> Standing Buddha in Abhayamudra<br />
चित्र:Headless-Image-of-Buddha-Mathura-Museum-22.jpg|सिर विहीन [[बुद्ध]] प्रतिमा<br /> Headless Image of Buddha<br />
चित्र:Torso-Of-Buddha-Image-Mathura-Museum-27.jpg|[[बुद्ध]] मुर्ति का धड़<br /> Torso Of Buddha Image<br />
चित्र:Head Of Buddha Mathura-Museum-5.jpg|[[बुद्ध]] मस्तक<br /> Head Of Buddha<br />
चित्र:Relief-Showing-Buddha's-Descent-From-Trayastrimsa-Heaven-Mathura-Museum-47.jpg|[[बुद्ध]]<br /> Buddha<br />
चित्र:First-Bath-Of-Baby-Buddha-Mathura-Museum-4.jpg|शिशु [[बुद्ध]] का प्रथम स्नान<br /> First Bath Of Baby Buddha<br />
चित्र:Buddha-Mathura-Museum-46.jpg|[[बुद्ध]]<br /> Buddha <br />
चित्र:Buddha-Image-Installed-by-Kayastha-Bhatti-Priya-Mathura-Museum-3.jpg|[[बुद्ध]] प्रतिमा <br /> Buddha Image<br />
<br />
</gallery><br />
<br />
==टीका-टिप्पणी==<br />
<references/><br />
<br />
<br />
[[Category:धर्म-संप्रदाय]]<br />
[[Category:बौद्ध]]<br />
[[Category: कोश]]<br />
__INDEX__</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7&diff=51507बुद्ध2010-03-19T07:15:06Z<p>Brajdis1: </p>
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<div>{{menu}}<br /><br />
{{बौध्द दर्शन}}<br />
[[चित्र:buddha1.jpg|गौतम बुद्ध|250px|right]]<br />
==गौतम बुद्ध / [[:en:Buddha|Buddha]]==<br />
गौतम बुद्ध का नाम सिद्धार्थ था। सिंहली, अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि ५६३ ई.पूर्व स्वीकार की गयी है। इनका जन्म शाक्यवंश के राजा [[शुद्धोदन]] की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। शाक्य गणराज्य की राजधानी [[कपिलवस्तु]] के निकट [[लुंबिनी]] में उनका जन्म हुआ। सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोधन थे। बुद्ध को '''शाक्य मुनि''' भी कहते हैं। सिद्धार्थ की माता मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थी। कहा जाता है कि फिर एक ऋषि ने कहा कि वे या तो एक महान राजा बनेंगे, या फिर एक महान साधु। लुंबिनी में, जो दक्षिण मध्य नेपाल में है, सम्राट [[अशोक]] ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। मथुरा में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। जो [[मौर्य काल]] और कुषाण काल में [[मथुरा]] की अति उन्नत मूर्ति कला की अमूल्य धरोहर हैं।<br />
----<br />
यह विधाता की लीला ही थी कि लुम्बिनी में जन्म लेने वाले बुद्ध को काशी में धर्म प्रवर्त्तन करना पड़ा। [[त्रिपिटक]] तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनैतिक महत्व की सहज ही कल्पना हो जाती है। प्राचीन [[बौद्ध]] ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) [[काशी]] की गणना [[चम्पा]], [[राजगृह]], [[श्रावस्ती]], [[साकेत]] एवं [[कौशाम्बी]] जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी। [[चित्र:Buddha-3.jpg|पारदर्शी चीवर धारण किए हुए बुद्ध<br /> भिक्षु यशदिन्न द्वारा निर्मित स्थापित बुद्ध प्रतिमा, [[मथुरा]]<br /> Buddha|thumb|200px|left]] पुत्र जन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे थे। पिता शुद्धोदन ने 'आठ' भविष्य वक्ताओं से उनका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा और यदि उसने गृह त्याग किया तो संन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित कर देगा। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, किंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबा दिखायी देता था। अंत में पिता ने उसे विवाह बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली। एक बार एक दुर्बल वृद्ध व्यक्ति को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये। पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा। उसके चेहरे पर शांति और तेज की अपूर्व चमक विराजमान थी। सिद्धार्थ उस दृश्य को देख-कर अत्यधिक प्रभावित हुए।<br />
----<br />
उनके मन में निवृत्ति मार्ग के प्रति नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी। जीवन का यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया। विवाह के दस [[वर्ष]] के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा- 'राहु'- अर्थात बंधन। उन्होंने पुत्र का नाम राहुल रखा। इससे पहले कि सांसारिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करें, उन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया। एक महान रात्रि को २९ वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े। <br />
*कुछ विद्वानों का मत है कि गौतम ने यज्ञों में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया।<br />
*कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दुख को न सह सकने के कारण घर छोड़ा था।<br />
गृहत्याग के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे। बिंबिसार, उद्रक, आलार एवम् कालाम नामक सांख्योपदेशकों से मिल कर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें कौंडिल्य आदि पाँच साधक मिले। उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी। किंतु उसमें असफल होने पर वे गया के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्त रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ। सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधिवृक्ष' के नाम से विख्यात है। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था ३५ वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद तपस्सु तथा काल्लिक नामक दो शूद्र उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया।<br />
[[चित्र:Kushinagar.jpg|thumb|250px|बुद्ध, [[कुशीनगर ]]<br /> Buddha, Kushinagar]]<br />
बोधगया से चल कर वे सारनाथ पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश दे कर अपना शिष्य बना दिया। बौद्ध परंपरा में यह उपदेश 'धर्मचक्र प्रवर्त्तन' नाम से विख्यात है।<br />
महात्मा बुद्ध ने कहा कि इन दो अतियों से बचना चाहिये-<br />
*काम सुखों में अधिक लिप्त होना तथा<br />
*शरीर से कठोर साधना करना। उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा है, उसका सेवन करना चाहिये।<balloon title="विनय पिटक १, १०" style=color:blue>*</balloon> यही 'धर्मचक्र प्रवर्तन' के रूप में पहला उपदेश था। अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे वाराणसी पहुँचे। यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठि पुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से 'धर्म प्रवर्त्तन' में जुट गये। अब तक उत्तर भारत में इनका काफी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे। कई बाद महाराज शुद्धोदन ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहा लेकिन जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बन जाता था।<br />
इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे। इनके धर्म का इनके जीवन काल में ही काफी प्रचार हो गया था क्योंकि उन दिनों कर्मकांड का जोर काफी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी। इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीव मात्र पर दया करने का उपदेश दिया। प्राय: ४४ वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्त्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में [[कुशीनगर]] के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात शरीरांत हुआ। मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया।<br />
<br />
==उनके मुख से निकले अंतिम शब्द थे==<br />
हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी [[संस्कार]] हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो। यह ४८३ ई. पू. की घटना है। वे अस्सी [[वर्ष]] के थे।<balloon title="हदं हानि भिक्खये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया -महापरिनिब्वान सुत्त, २३५" style=color:blue>*</balloon> <br />
==वीथिका==<br />
<gallery widths="145px" perrow="4"><br />
चित्र:Headless-Image-of-Buddha-Mathura-Museum-22.jpg|सिर विहीन बुद्ध प्रतिमा<br /> Headless Image of Buddha<br />
चित्र:Head Of Buddha Mathura-Museum-5.jpg|बुद्ध मस्तक<br /> Head Of Buddha<br />
चित्र:Statue-Buddha-Kushinagar-2.jpg|बुद्ध मूर्ति,[[कुशीनगर]]<br /> Buddha Statue, Kushinagar<br />
चित्र:Torso-Of-Buddha-Image-Mathura-Museum-27.jpg|बुद्ध मूर्ति का धड़<br /> Torso Of Buddha Image<br />
चित्र:Buddha-In-Abhayamudra-Mathura-Museum-33.jpg|अभय मुद्रा में खड़े भगवान बुद्ध<br /> Standing Buddha in Abhayamudra<br />
चित्र:Statue-Buddha-Kushinagar-1.jpg|बुद्ध मूर्ति, [[कुशीनगर]]<br /> Buddha Statue, Kushinagar<br />
चित्र:Buddha-In-Meditation-Mathura-Museum-2.jpg|ध्यानावस्थित बुद्ध<br /> Buddha In Meditation<br />
चित्र:Buddha-Mathura-Museum-46.jpg|बुद्ध<br /> Buddha <br />
चित्र:Lower-Part-Of-Buddha-Mathura-Museum-25.jpg|बुद्ध प्रतिमा का निचला भाग<br /> Lower Part Of Buddha<br />
चित्र:First-Bath-Of-Baby-Buddha-Mathura-Museum-4.jpg|शिशु बुद्ध का प्रथम स्नान<br /> First Bath Of Baby Buddha<br />
चित्र:Kushinagar-1.jpg|बौद्ध भिक्षु ध्यान स्थली, [[कुशीनगर]]<br />
चित्र:Relief-Showing-Buddha's-Descent-From-Trayastrimsa-Heaven-Mathura-Museum-47.jpg|बुद्ध<br /> Buddha<br />
चित्र:Buddha-Image-Installed-by-Kayastha-Bhatti-Priya-Mathura-Museum-3.jpg|बुद्ध प्रतिमा <br /> Buddha Image<br />
चित्र:Standing-Buddha-in-Abhaya-Mathura-Museum-6.jpg|अभय मुद्रा में खड़े भगवान बुद्ध<br /> Standing Buddha in Abhayamudra<br />
चित्र:Slab-Showing-Scenes-of-Buddhas-Life-Mathura-Museum-39.jpg|बुद्ध<br /> Buddha <br />
चित्र:Buddhist-Centers-Map.jpg|[[उत्तर प्रदेश]] के प्रमुख बौद्ध केंद्र<br /> Uttar Pradesh Prominent Buddhist Centres<br />
</gallery><br />
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<br />
[[Category: बुद्ध]] <br />
[[Category:कोश]] <br />
[[Category:बौद्ध]]<br />
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[[en:Buddha]]<br />
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__INDEX__</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7&diff=51506बुद्ध2010-03-19T07:07:47Z<p>Brajdis1: /* वीथिका */</p>
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<div>{{menu}}<br /><br />
[[चित्र:buddha1.jpg|गौतम बुद्ध|250px|right]]<br />
==गौतम बुद्ध / [[:en:Buddha|Buddha]]==<br />
गौतम बुद्ध का नाम सिद्धार्थ था। सिंहली, अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि ५६३ ई.पूर्व स्वीकार की गयी है। इनका जन्म शाक्यवंश के राजा [[शुद्धोदन]] की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। शाक्य गणराज्य की राजधानी [[कपिलवस्तु]] के निकट [[लुंबिनी]] में उनका जन्म हुआ। सिद्धार्थ के पिता शाक्यों के राजा शुद्धोधन थे। बुद्ध को '''शाक्य मुनि''' भी कहते हैं। सिद्धार्थ की माता मायादेवी उनके जन्म के कुछ देर बाद मर गई थी। कहा जाता है कि फिर एक ऋषि ने कहा कि वे या तो एक महान राजा बनेंगे, या फिर एक महान साधु। लुंबिनी में, जो दक्षिण मध्य नेपाल में है, सम्राट [[अशोक]] ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। मथुरा में अनेक बौद्ध कालीन मूर्तियाँ मिली हैं। जो [[मौर्य काल]] और कुषाण काल में [[मथुरा]] की अति उन्नत मूर्ति कला की अमूल्य धरोहर हैं।<br />
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यह विधाता की लीला ही थी कि लुम्बिनी में जन्म लेने वाले बुद्ध को काशी में धर्म प्रवर्त्तन करना पड़ा। [[त्रिपिटक]] तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनैतिक महत्व की सहज ही कल्पना हो जाती है। प्राचीन [[बौद्ध]] ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) [[काशी]] की गणना [[चम्पा]], [[राजगृह]], [[श्रावस्ती]], [[साकेत]] एवं [[कौशाम्बी]] जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी। [[चित्र:Buddha-3.jpg|पारदर्शी चीवर धारण किए हुए बुद्ध<br /> भिक्षु यशदिन्न द्वारा निर्मित स्थापित बुद्ध प्रतिमा, [[मथुरा]]<br /> Buddha|thumb|200px|left]] पुत्र जन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे थे। पिता शुद्धोदन ने 'आठ' भविष्य वक्ताओं से उनका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी। यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा और यदि उसने गृह त्याग किया तो संन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित कर देगा। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, किंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबा दिखायी देता था। अंत में पिता ने उसे विवाह बंधन में बांध दिया। एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली। एक बार एक दुर्बल वृद्ध व्यक्ति को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये। पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा। उसके चेहरे पर शांति और तेज की अपूर्व चमक विराजमान थी। सिद्धार्थ उस दृश्य को देख-कर अत्यधिक प्रभावित हुए।<br />
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उनके मन में निवृत्ति मार्ग के प्रति नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी। जीवन का यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया। विवाह के दस [[वर्ष]] के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा- 'राहु'- अर्थात बंधन। उन्होंने पुत्र का नाम राहुल रखा। इससे पहले कि सांसारिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करें, उन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया। एक महान रात्रि को २९ वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े। <br />
*कुछ विद्वानों का मत है कि गौतम ने यज्ञों में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया।<br />
*कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दुख को न सह सकने के कारण घर छोड़ा था।<br />
गृहत्याग के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे। बिंबिसार, उद्रक, आलार एवम् कालाम नामक सांख्योपदेशकों से मिल कर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें कौंडिल्य आदि पाँच साधक मिले। उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी। किंतु उसमें असफल होने पर वे गया के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्त रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ। सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये। जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधिवृक्ष' के नाम से विख्यात है। ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था ३५ वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद तपस्सु तथा काल्लिक नामक दो शूद्र उनके पास आये। महात्मा बुद्ध नें उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया।<br />
[[चित्र:Kushinagar.jpg|thumb|250px|बुद्ध, [[कुशीनगर ]]<br /> Buddha, Kushinagar]]<br />
बोधगया से चल कर वे सारनाथ पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश दे कर अपना शिष्य बना दिया। बौद्ध परंपरा में यह उपदेश 'धर्मचक्र प्रवर्त्तन' नाम से विख्यात है।<br />
महात्मा बुद्ध ने कहा कि इन दो अतियों से बचना चाहिये-<br />
*काम सुखों में अधिक लिप्त होना तथा<br />
*शरीर से कठोर साधना करना। उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा है, उसका सेवन करना चाहिये।<balloon title="विनय पिटक १, १०" style=color:blue>*</balloon> यही 'धर्मचक्र प्रवर्तन' के रूप में पहला उपदेश था। अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे वाराणसी पहुँचे। यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठि पुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से 'धर्म प्रवर्त्तन' में जुट गये। अब तक उत्तर भारत में इनका काफी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे। कई बाद महाराज शुद्धोदन ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहा लेकिन जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बन जाता था।<br />
इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे। इनके धर्म का इनके जीवन काल में ही काफी प्रचार हो गया था क्योंकि उन दिनों कर्मकांड का जोर काफी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी। इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीव मात्र पर दया करने का उपदेश दिया। प्राय: ४४ वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्त्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में [[कुशीनगर]] के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात शरीरांत हुआ। मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया।<br />
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==उनके मुख से निकले अंतिम शब्द थे==<br />
हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी [[संस्कार]] हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर अपना कल्याण करो। यह ४८३ ई. पू. की घटना है। वे अस्सी [[वर्ष]] के थे।<balloon title="हदं हानि भिक्खये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया -महापरिनिब्वान सुत्त, २३५" style=color:blue>*</balloon> <br />
==वीथिका==<br />
<gallery widths="145px" perrow="4"><br />
चित्र:Headless-Image-of-Buddha-Mathura-Museum-22.jpg|सिर विहीन बुद्ध प्रतिमा<br /> Headless Image of Buddha<br />
चित्र:Head Of Buddha Mathura-Museum-5.jpg|बुद्ध मस्तक<br /> Head Of Buddha<br />
चित्र:Statue-Buddha-Kushinagar-2.jpg|बुद्ध मूर्ति,[[कुशीनगर]]<br /> Buddha Statue, Kushinagar<br />
चित्र:Torso-Of-Buddha-Image-Mathura-Museum-27.jpg|बुद्ध मूर्ति का धड़<br /> Torso Of Buddha Image<br />
चित्र:Buddha-In-Abhayamudra-Mathura-Museum-33.jpg|अभय मुद्रा में खड़े भगवान बुद्ध<br /> Standing Buddha in Abhayamudra<br />
चित्र:Statue-Buddha-Kushinagar-1.jpg|बुद्ध मूर्ति, [[कुशीनगर]]<br /> Buddha Statue, Kushinagar<br />
चित्र:Buddha-In-Meditation-Mathura-Museum-2.jpg|ध्यानावस्थित बुद्ध<br /> Buddha In Meditation<br />
चित्र:Buddha-Mathura-Museum-46.jpg|बुद्ध<br /> Buddha <br />
चित्र:Lower-Part-Of-Buddha-Mathura-Museum-25.jpg|बुद्ध प्रतिमा का निचला भाग<br /> Lower Part Of Buddha<br />
चित्र:First-Bath-Of-Baby-Buddha-Mathura-Museum-4.jpg|शिशु बुद्ध का प्रथम स्नान<br /> First Bath Of Baby Buddha<br />
चित्र:Kushinagar-1.jpg|बौद्ध भिक्षु ध्यान स्थली, [[कुशीनगर]]<br />
चित्र:Relief-Showing-Buddha's-Descent-From-Trayastrimsa-Heaven-Mathura-Museum-47.jpg|बुद्ध<br /> Buddha<br />
चित्र:Buddha-Image-Installed-by-Kayastha-Bhatti-Priya-Mathura-Museum-3.jpg|बुद्ध प्रतिमा <br /> Buddha Image<br />
चित्र:Standing-Buddha-in-Abhaya-Mathura-Museum-6.jpg|अभय मुद्रा में खड़े भगवान बुद्ध<br /> Standing Buddha in Abhayamudra<br />
चित्र:Slab-Showing-Scenes-of-Buddhas-Life-Mathura-Museum-39.jpg|बुद्ध<br /> Buddha <br />
चित्र:Buddhist-Centers-Map.jpg|[[उत्तर प्रदेश]] के प्रमुख बौद्ध केंद्र<br /> Uttar Pradesh Prominent Buddhist Centres<br />
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[[Category: बुद्ध]] <br />
[[Category:कोश]] <br />
[[Category:बौद्ध]]<br />
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[[en:Buddha]]<br />
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==दयानन्द सरस्वती / [[:en:Dayanand Saraswati|Dayanand Saraswati]]==<br />
[[चित्र:Dayanand-Saraswati.jpg|दयानन्द सरस्वती<br />Dayanand Saraswati|thumb|250px]]<br />
[[आर्यसमाज]] के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी संन्यासी थे। जिस समय केशवचन्द्र सेन [[ब्रह्मसमाज]] के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की [[मथुरा]]पुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक संन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वात्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह संन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।<br />
----<br />
प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के एक गांव में सन् 1824 ई॰ में हुआ था। इनका प्रारंभिक नाम मूलशंकर तथा पिता का नाम अम्बाशंकर था। ये बाल्यकाल में शंकर के भक्त थे। ये बड़े मेधावी और होनहार थे। ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं : <br />
*घर का जीवन(1824-1845) , <br />
*भ्रमण तथा अध्ययन (1845-1863) एवं <br />
*प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा।(1863-1883)<br />
---- <br />
इनके प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं :<br />
#चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),<br />
#अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय और<br />
#इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात् 18 वर्ष तक इन्होंने संन्यासी का जीवन बिताया। बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।<br />
----<br />
बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य" पड़ा। पश्चात ये संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई। फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया। दयानन्द सरस्वती के मध्य जीवन काल में जिस महापुरुष ने सबसे बड़ा धार्मिक प्रभाव डाला, वे थे मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला [[वैदिक धर्म]] तक पहुँचता हुआ पाते हैं। इन्होंने [[शैवमत]] एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण में बम्बई से पूरा, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं। पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था। इस बीच इन्होंने साहित्यकार्य भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात ये गंगातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुन: जनसेवा का कार्य आरम्भ किया। <br />
----<br />
1863 से 1875 ई॰ तक स्वामी जी देश का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करते रहें। उन्होंने वेदों के प्रचार का वीणा उठाया और इस काम को पूरा करने के लिए 7 अप्रैल 1875 ई॰ को 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की। शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गई। देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिंदू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद मे विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिंदू को हिंदू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।<br />
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स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिंदी भाषा को अपनाया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिंदी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था-"मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब [[कश्मीर]] से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।" स्वामी जी धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे। अत: कुछ लोग उनसे शत्रुता भी करने लगे। इन्हीं में से किसी ने 1883 ई॰ में दूध में कांच पीसकर पिला दिया जिससे आपका देहांत हो गया। आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।<br />
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[[category: कोश]]<br />
[[category:धर्म-संप्रदाय]]<br />
[[en:Dayanand Saraswati]]<br />
__INDEX__</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%82%E0%A4%A6_%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A5%80&diff=44980दयानंद सरस्वती2010-02-20T15:25:24Z<p>Brajdis1: </p>
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==दयानन्द सरस्वती / [[:en:Dayanand Saraswati|Dayanand Saraswati]]==<br />
[[चित्र:Dayanand-Saraswati.jpg|दयानन्द सरस्वती<br />Dayanand Saraswati|thumb|250px]]<br />
[[आर्यसमाज]] के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी संन्यासी थे। जिस समय केशवचन्द्र सेन [[ब्रह्मसमाज]] के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की [[मथुरा]]पुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक संन्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वात्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह संन्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।<br />
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प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के एक गांव में सन् 1824 ई॰ में हुआ था। इनका प्रारंभिक नाम मूलशंकर तथा पिता का नाम अम्बाशंकर था। ये बाल्यकाल में शंकर के भक्त थे। ये बड़े मेधावी और होनहार थे। ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं : <br />
*घर का जीवन(1824-1845) , <br />
*भ्रमण तथा अध्ययन (1845-1863) एवं <br />
*प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा।(1863-1883)<br />
---- <br />
इनके प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं :<br />
#चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),<br />
#अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय और<br />
#इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात् 18 वर्ष तक इन्होंने संन्यासी का जीवन बिताया। बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।<br />
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बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य" पड़ा। पश्चात ये संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई। फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया। दयानन्द सरस्वती के मध्य जीवन काल में जिस महापुरुष ने सबसे बड़ा धार्मिक प्रभाव डाला, वे थे मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला [[वैदिक धर्म]] तक पहुँचता हुआ पाते हैं। इन्होंने [[शैवमत]] एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण में बम्बई से पूरा, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं। पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था। इस बीच इन्होंने साहित्यकार्य भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात ये गंगातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुन: जनसेवा का कार्य आरम्भ किया। <br />
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1863 से 1875 ई॰ तक स्वामी जी देश का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करते रहें। उन्होंने वेदों के प्रचार का वीणा उठाया और इस काम को पूरा करने के लिए 7 अप्रैल 1875 ई॰ को 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की। शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गई। देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिंदू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद मे विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिंदू को हिंदू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।<br />
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स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिंदी भाषा को अपनाया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिंदी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था-"मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब [[कश्मीर]] से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।" स्वामी जी धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे। अत: कुछ लोग उनसे शत्रुता भी करने लगे। इन्हीं में से किसी ने 1883 ई॰ में दूध में कांच पीसकर पिला दिया जिससे आपका देहांत हो गया। आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।revision<br />
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*'''नीचे दिये गये बक्से में आप अंग्रेज़ी अक्षरों में टाइप कीजिये।''' <br />
*'''एक शब्द टाइप करने के बाद 'स्पेस बार' दबाएँ।''' अब आपके द्वारा लिखा गया शब्द हिन्दी में बदल जाएगा।<br />
*'''अब यदि हिंदी में बदला शब्द आपकी इच्छानुसार नहीं है तो [[चित्र:back-space.jpg|70px]] दो बार दबाएँ और सही शब्द चुनें।'''<br />
*हिन्दी के लिए आपको हर शब्द के बाद स्पेस दबाना होगा। याद रखिए आख़िरी शब्द के बाद भी… <br />
*उदाहरण के लिये यदि आप &quot;mathura&quot; टाइप करेंगे और स्पेस दबाएंगे तो यह &quot;मथुरा&quot; में बदल जाएगा।<br />
*'''अब कॉपी करने के बाद ऊपर के बक्से में पेस्ट करें।'''<br />
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*'''नीचे दिये गये बक्से में आप अंग्रेज़ी अक्षरों में टाइप कीजिये।''' <br />
*'''एक शब्द टाइप करने के बाद 'स्पेस बार' दबाएँ।''' अब आपके द्वारा लिखा गया शब्द हिन्दी में बदल जाएगा।<br />
*'''अब यदि हिंदी में बदला शब्द आपकी इच्छानुसार नहीं है तो [[चित्र:back-space.jpg|70px]] दो बार दबाएँ और सही शब्द चुनें।'''<br />
*हिन्दी के लिए आपको हर शब्द के बाद स्पेस दबाना होगा। याद रखिए आख़िरी शब्द के बाद भी… <br />
*उदाहरण के लिये यदि आप &quot;mathura&quot; टाइप करेंगे और स्पेस दबाएंगे तो यह &quot;मथुरा&quot; में बदल जाएगा।<br />
*'''अब कॉपी करने के बाद ऊपर के बक्से में पेस्ट करें।'''<br />
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*'''नीचे दिये गये बक्से में आप अंग्रेज़ी अक्षरों में टाइप कीजिये।''' <br />
*'''एक शब्द टाइप करने के बाद 'स्पेस बार' दबाएँ।''' अब आपके द्वारा लिखा गया शब्द हिन्दी में बदल जाएगा।<br />
*'''अब यदि हिंदी में बदला शब्द आपकी इच्छानुसार नहीं है तो [[चित्र:back-space.jpg|70px]] दो बार दबाएँ और सही शब्द चुनें।'''<br />
*हिन्दी के लिए आपको हर शब्द के बाद स्पेस दबाना होगा। याद रखिए आख़िरी शब्द के बाद भी… <br />
*उदाहरण के लिये यदि आप &quot;mathura&quot; टाइप करेंगे और स्पेस दबाएंगे तो यह &quot;मथुरा&quot; में बदल जाएगा।<br />
*'''अब कॉपी करने के बाद ऊपर के बक्से में पेस्ट करें।'''<br />
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*'''नीचे दिये गये बक्से में आप अंग्रेज़ी अक्षरों में टाइप कीजिये।''' <br />
*'''एक शब्द टाइप करने के बाद 'स्पेस बार' दबाएँ।''' अब आपके द्वारा लिखा गया शब्द हिन्दी में बदल जाएगा।<br />
*'''अब यदि हिंदी में बदला शब्द आपकी इच्छानुसार नहीं है तो [[चित्र:back-space.jpg|70px]] दो बार दबाएँ और सही शब्द चुनें।'''<br />
*हिन्दी के लिए आपको हर शब्द के बाद स्पेस दबाना होगा। याद रखिए आख़िरी शब्द के बाद भी… <br />
*उदाहरण के लिये यदि आप &quot;mathura&quot; टाइप करेंगे और स्पेस दबाएंगे तो यह &quot;मथुरा&quot; में बदल जाएगा।<br />
*'''अब कॉपी करने के बाद ऊपर के बक्से में पेस्ट करें।'''<br />
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*'''नीचे दिये गये बक्से में आप अंग्रेज़ी अक्षरों में टाइप कीजिये।''' <br />
*'''एक शब्द टाइप करने के बाद 'स्पेस बार' दबाएँ।''' अब आपके द्वारा लिखा गया शब्द हिन्दी में बदल जाएगा।<br />
*'''अब यदि हिंदी में बदला शब्द आपकी इच्छानुसार नहीं है तो [[चित्र:back-space.jpg|70px]] दो बार दबाएँ और सही शब्द चुनें।'''<br />
*हिन्दी के लिए आपको हर शब्द के बाद स्पेस दबाना होगा। याद रखिए आख़िरी शब्द के बाद भी… <br />
*उदाहरण के लिये यदि आप &quot;mathura&quot; टाइप करेंगे और स्पेस दबाएंगे तो यह &quot;मथुरा&quot; में बदल जाएगा।<br />
*'''अब कॉपी करने के बाद ऊपर के बक्से में पेस्ट करें।'''<br />
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<div>{{menu}}<br /><br />
{{कृष्ण}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg]]<br />
[[category:कृष्ण]]<br />
[[category:महाभारत]]<br />
[[category:भगवान-अवतार]] [[श्रेणी: कोश]]<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250|कृष्ण <br />Krishna]]<br />
==कृष्ण / Krishn / Krishna==<br />
[[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरूष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भागवत् गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई0 सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
[[ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करे ]]">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरूष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही। श्रीकृष्ण भागवतधर्म के महान् स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओतप्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
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वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई० पू० 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे० तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ० 39, 52; आर०जी० भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ० 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ० 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि० 1, पृ० 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व== <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जब कि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:green">[संदर्भ]</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही ( इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है . जो मूल चित्र मैं नहीं है .)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इंद्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इंद्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-८२:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरूष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र बसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने बसुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भी देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<balloon title="पुराणों के अनुसार बलराम सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही बलदेव का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।" style="color:green">[संदर्भ]</balloon> यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने वालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
===राक्षस आदि का संहार===<br />
* [[पूतना-वध]], <br />
* [[शकटासुर-वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय-दमन]], <br />
* [[धेनुक-वध]], <br />
* [[प्रलंब-वध]], <br />
* [[अरिष्ट-वध]] <br />
===गोवर्धन पूजा===<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षकाल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग० पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ० 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र० वै० (22 और भाग० (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग० (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन-पूजा की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म० ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु० (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इंद्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग० (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरूण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
===रास===<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि० 77; ब्रह्म० 189, 1-45; विष्णु० 13; भाग० 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै० के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग० पु० (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
===धनुर्याग===<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुंडों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रुर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरूष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म० 190, 1-21; विष्णु० 15, 1-24; भाग० 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म० और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वथार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म० 190,22-48, भाग० 37, 1-25; विष्णु० 16, 1-28।</ref><br />
===कृष्ण का मथुरा-गमन===<br />
एक दिन संध्या समय कृष्ण ने सामाचार पाया कि अंक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहां अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म० 191-92; विष्णु० 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै० 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करूण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता बसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान् अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे संध्या समय मथुरा पहुंच थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगें।<br />
===कंस-वध===<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र० वै० (अ० 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्यांग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चारणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु० 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ० 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि० 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु० 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान् आदर्श उपस्थित किया।<br />
<br /><br />
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चित्र:krishna-birth2.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:makhanchor.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण<br />Radha-Krishna<br />
चित्र:krishna-arjun1.jpg|कृष्ण-[[अर्जुन]]<br /> Krishna-Arjuna<br />
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<br />
==टीका टिप्पणी==<br />
<references/><br />
{{महाभारत}}</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&diff=20398कृष्ण2009-11-22T10:45:35Z<p>Brajdis1: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br /><br />
{{कृष्ण}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg]]<br />
[[category:कृष्ण]]<br />
[[category:महाभारत]]<br />
[[category:भगवान-अवतार]] [[श्रेणी: कोश]]<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250|कृष्ण <br />Krishna]]<br />
==कृष्ण / Krishn / Krishna==<br />
[[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरूष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भागवत् गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई0 सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
[[ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करे ]]">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरूष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही। श्रीकृष्ण भागवतधर्म के महान् स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओतप्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
----<br />
वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई० पू० 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे० तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ० 39, 52; आर०जी० भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ० 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ० 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि० 1, पृ० 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व== <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जब कि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:green">[संदर्भ]</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही ( इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है . जो मूल चित्र मैं नहीं है .)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इंद्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इंद्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-८२:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरूष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र बसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने बसुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भी देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<ref>पुराणों के अनुसार [[बलराम]] सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही [[बलदेव]] का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।</ref>यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने वालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
===राक्षस आदि का संहार===<br />
* [[पूतना-वध]], <br />
* [[शकटासुर-वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय-दमन]], <br />
* [[धेनुक-वध]], <br />
* [[प्रलंब-वध]], <br />
* [[अरिष्ट-वध]] <br />
===गोवर्धन पूजा===<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षकाल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग० पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ० 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र० वै० (22 और भाग० (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग० (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन-पूजा की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म० ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु० (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इंद्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग० (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरूण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
===रास===<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि० 77; ब्रह्म० 189, 1-45; विष्णु० 13; भाग० 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै० के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग० पु० (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
===धनुर्याग===<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुंडों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रुर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरूष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म० 190, 1-21; विष्णु० 15, 1-24; भाग० 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म० और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वथार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म० 190,22-48, भाग० 37, 1-25; विष्णु० 16, 1-28।</ref><br />
===कृष्ण का मथुरा-गमन===<br />
एक दिन संध्या समय कृष्ण ने सामाचार पाया कि अंक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहां अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म० 191-92; विष्णु० 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै० 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करूण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता बसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान् अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे संध्या समय मथुरा पहुंच थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगें।<br />
===कंस-वध===<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र० वै० (अ० 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्यांग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चारणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु० 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ० 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि० 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु० 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान् आदर्श उपस्थित किया।<br />
<br /><br />
<gallery><br />
चित्र:krishna-birth2.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:makhanchor.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण<br />Radha-Krishna<br />
चित्र:krishna-arjun1.jpg|कृष्ण-[[अर्जुन]]<br /> Krishna-Arjuna<br />
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<br />
==टीका टिप्पणी==<br />
<references/><br />
{{महाभारत}}</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&diff=20397कृष्ण2009-11-22T10:44:44Z<p>Brajdis1: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br /><br />
{{कृष्ण}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg]]<br />
[[category:कृष्ण]]<br />
[[category:महाभारत]]<br />
[[category:भगवान-अवतार]] [[श्रेणी: कोश]]<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250|कृष्ण <br />Krishna]]<br />
==कृष्ण / Krishn / Krishna==<br />
[[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरूष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भागवत् गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई0 सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
[[ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करे ]]">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरूष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही। श्रीकृष्ण भागवतधर्म के महान् स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओतप्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
----<br />
वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई० पू० 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे० तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ० 39, 52; आर०जी० भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ० 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ० 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि० 1, पृ० 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व== <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जब कि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:greeen">संदर्भ</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही ( इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है . जो मूल चित्र मैं नहीं है .)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इंद्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इंद्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-८२:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरूष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र बसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने बसुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भी देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<ref>पुराणों के अनुसार [[बलराम]] सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही [[बलदेव]] का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।</ref>यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने वालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
===राक्षस आदि का संहार===<br />
* [[पूतना-वध]], <br />
* [[शकटासुर-वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय-दमन]], <br />
* [[धेनुक-वध]], <br />
* [[प्रलंब-वध]], <br />
* [[अरिष्ट-वध]] <br />
===गोवर्धन पूजा===<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षकाल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग० पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ० 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र० वै० (22 और भाग० (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग० (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन-पूजा की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म० ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु० (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इंद्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग० (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरूण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
===रास===<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि० 77; ब्रह्म० 189, 1-45; विष्णु० 13; भाग० 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै० के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग० पु० (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
===धनुर्याग===<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुंडों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रुर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरूष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म० 190, 1-21; विष्णु० 15, 1-24; भाग० 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म० और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वथार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म० 190,22-48, भाग० 37, 1-25; विष्णु० 16, 1-28।</ref><br />
===कृष्ण का मथुरा-गमन===<br />
एक दिन संध्या समय कृष्ण ने सामाचार पाया कि अंक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहां अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म० 191-92; विष्णु० 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै० 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करूण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता बसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान् अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे संध्या समय मथुरा पहुंच थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगें।<br />
===कंस-वध===<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र० वै० (अ० 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्यांग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चारणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु० 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ० 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि० 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु० 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान् आदर्श उपस्थित किया।<br />
<br /><br />
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चित्र:krishna-birth2.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:makhanchor.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण<br />Radha-Krishna<br />
चित्र:krishna-arjun1.jpg|कृष्ण-[[अर्जुन]]<br /> Krishna-Arjuna<br />
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<br />
==टीका टिप्पणी==<br />
<references/><br />
{{महाभारत}}</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&diff=20396कृष्ण2009-11-22T10:40:29Z<p>Brajdis1: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br /><br />
{{कृष्ण}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg]]<br />
[[category:कृष्ण]]<br />
[[category:महाभारत]]<br />
[[category:भगवान-अवतार]] [[श्रेणी: कोश]]<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250|कृष्ण <br />Krishna]]<br />
==कृष्ण / Krishn / Krishna==<br />
[[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरूष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भागवत् गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई0 सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
[[ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करे ]]">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरूष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही। श्रीकृष्ण भागवतधर्म के महान् स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओतप्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
----<br />
वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई० पू० 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे० तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ० 39, 52; आर०जी० भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ० 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ० 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि० 1, पृ० 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व== <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जब कि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:blue">∆∇</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही ( इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है . जो मूल चित्र मैं नहीं है .)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इंद्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इंद्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-८२:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरूष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र बसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने बसुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भी देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<ref>पुराणों के अनुसार [[बलराम]] सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही [[बलदेव]] का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।</ref>यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने वालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
===राक्षस आदि का संहार===<br />
* [[पूतना-वध]], <br />
* [[शकटासुर-वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय-दमन]], <br />
* [[धेनुक-वध]], <br />
* [[प्रलंब-वध]], <br />
* [[अरिष्ट-वध]] <br />
===गोवर्धन पूजा===<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षकाल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग० पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ० 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र० वै० (22 और भाग० (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग० (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन-पूजा की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म० ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु० (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इंद्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग० (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरूण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
===रास===<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि० 77; ब्रह्म० 189, 1-45; विष्णु० 13; भाग० 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै० के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग० पु० (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
===धनुर्याग===<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुंडों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रुर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरूष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म० 190, 1-21; विष्णु० 15, 1-24; भाग० 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म० और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वथार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म० 190,22-48, भाग० 37, 1-25; विष्णु० 16, 1-28।</ref><br />
===कृष्ण का मथुरा-गमन===<br />
एक दिन संध्या समय कृष्ण ने सामाचार पाया कि अंक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहां अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म० 191-92; विष्णु० 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै० 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करूण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता बसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान् अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे संध्या समय मथुरा पहुंच थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगें।<br />
===कंस-वध===<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र० वै० (अ० 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्यांग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चारणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु० 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ० 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि० 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु० 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान् आदर्श उपस्थित किया।<br />
<br /><br />
<gallery><br />
चित्र:krishna-birth2.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:makhanchor.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण<br />Radha-Krishna<br />
चित्र:krishna-arjun1.jpg|कृष्ण-[[अर्जुन]]<br /> Krishna-Arjuna<br />
</gallery><br />
<br />
==टीका टिप्पणी==<br />
<references/><br />
{{महाभारत}}</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&diff=20395कृष्ण2009-11-22T10:39:05Z<p>Brajdis1: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br /><br />
{{कृष्ण}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg]]<br />
[[category:कृष्ण]]<br />
[[category:महाभारत]]<br />
[[category:भगवान-अवतार]] [[श्रेणी: कोश]]<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250|कृष्ण <br />Krishna]]<br />
==कृष्ण / Krishn / Krishna==<br />
[[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरूष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भागवत् गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई0 सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
[[ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करे ]]">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरूष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही। श्रीकृष्ण भागवतधर्म के महान् स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओतप्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
----<br />
वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई० पू० 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे० तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ० 39, 52; आर०जी० भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ० 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ० 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि० 1, पृ० 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व== <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जब कि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:green">∆∇</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही ( इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है . जो मूल चित्र मैं नहीं है .)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इंद्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इंद्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-८२:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरूष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र बसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने बसुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भी देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<ref>पुराणों के अनुसार [[बलराम]] सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही [[बलदेव]] का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।</ref>यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने वालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
===राक्षस आदि का संहार===<br />
* [[पूतना-वध]], <br />
* [[शकटासुर-वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय-दमन]], <br />
* [[धेनुक-वध]], <br />
* [[प्रलंब-वध]], <br />
* [[अरिष्ट-वध]] <br />
===गोवर्धन पूजा===<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षकाल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग० पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ० 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र० वै० (22 और भाग० (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग० (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन-पूजा की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म० ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु० (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इंद्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग० (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरूण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
===रास===<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि० 77; ब्रह्म० 189, 1-45; विष्णु० 13; भाग० 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै० के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग० पु० (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
===धनुर्याग===<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुंडों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रुर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरूष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म० 190, 1-21; विष्णु० 15, 1-24; भाग० 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म० और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वथार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म० 190,22-48, भाग० 37, 1-25; विष्णु० 16, 1-28।</ref><br />
===कृष्ण का मथुरा-गमन===<br />
एक दिन संध्या समय कृष्ण ने सामाचार पाया कि अंक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहां अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म० 191-92; विष्णु० 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै० 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करूण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता बसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान् अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे संध्या समय मथुरा पहुंच थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगें।<br />
===कंस-वध===<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र० वै० (अ० 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्यांग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चारणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु० 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ० 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि० 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु० 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान् आदर्श उपस्थित किया।<br />
<br /><br />
<gallery><br />
चित्र:krishna-birth2.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:makhanchor.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण<br />Radha-Krishna<br />
चित्र:krishna-arjun1.jpg|कृष्ण-[[अर्जुन]]<br /> Krishna-Arjuna<br />
</gallery><br />
<br />
==टीका टिप्पणी==<br />
<references/><br />
{{महाभारत}}</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&diff=20394कृष्ण2009-11-22T10:37:45Z<p>Brajdis1: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br /><br />
{{कृष्ण}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg]]<br />
[[category:कृष्ण]]<br />
[[category:महाभारत]]<br />
[[category:भगवान-अवतार]] [[श्रेणी: कोश]]<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250|कृष्ण <br />Krishna]]<br />
==कृष्ण / Krishn / Krishna==<br />
[[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरूष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भागवत् गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई0 सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
[[ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करे ]]">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
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[[मथुरा]] नगरी इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरूष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही। श्रीकृष्ण भागवतधर्म के महान् स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओतप्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
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वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई० पू० 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे० तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
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[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ० 39, 52; आर०जी० भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ० 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ० 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि० 1, पृ० 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व== <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जब कि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:green">∆ ↸ ¶ ⌆ </balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही ( इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है . जो मूल चित्र मैं नहीं है .)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इंद्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इंद्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-८२:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरूष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र बसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने बसुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भी देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<ref>पुराणों के अनुसार [[बलराम]] सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही [[बलदेव]] का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।</ref>यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने वालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
===राक्षस आदि का संहार===<br />
* [[पूतना-वध]], <br />
* [[शकटासुर-वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय-दमन]], <br />
* [[धेनुक-वध]], <br />
* [[प्रलंब-वध]], <br />
* [[अरिष्ट-वध]] <br />
===गोवर्धन पूजा===<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षकाल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग० पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ० 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र० वै० (22 और भाग० (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग० (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन-पूजा की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म० ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु० (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इंद्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग० (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरूण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
===रास===<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि० 77; ब्रह्म० 189, 1-45; विष्णु० 13; भाग० 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै० के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग० पु० (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
===धनुर्याग===<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुंडों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रुर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरूष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म० 190, 1-21; विष्णु० 15, 1-24; भाग० 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म० और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वथार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म० 190,22-48, भाग० 37, 1-25; विष्णु० 16, 1-28।</ref><br />
===कृष्ण का मथुरा-गमन===<br />
एक दिन संध्या समय कृष्ण ने सामाचार पाया कि अंक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहां अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म० 191-92; विष्णु० 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै० 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करूण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता बसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान् अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे संध्या समय मथुरा पहुंच थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगें।<br />
===कंस-वध===<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र० वै० (अ० 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्यांग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चारणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु० 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ० 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि० 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु० 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान् आदर्श उपस्थित किया।<br />
<br /><br />
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चित्र:krishna-birth2.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:makhanchor.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण<br />Radha-Krishna<br />
चित्र:krishna-arjun1.jpg|कृष्ण-[[अर्जुन]]<br /> Krishna-Arjuna<br />
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<br />
==टीका टिप्पणी==<br />
<references/><br />
{{महाभारत}}</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&diff=20393कृष्ण2009-11-22T10:28:02Z<p>Brajdis1: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br /><br />
{{कृष्ण}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg]]<br />
[[category:कृष्ण]]<br />
[[category:महाभारत]]<br />
[[category:भगवान-अवतार]] [[श्रेणी: कोश]]<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250|कृष्ण <br />Krishna]]<br />
==कृष्ण / Krishn / Krishna==<br />
[[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरूष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भागवत् गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई0 सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
[[ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करे ]]">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरूष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही। श्रीकृष्ण भागवतधर्म के महान् स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओतप्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
----<br />
वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई० पू० 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे० तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ० 39, 52; आर०जी० भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ० 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ० 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि० 1, पृ० 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व== <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जब कि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:green">↸ ¶ ⌆</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही ( इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है . जो मूल चित्र मैं नहीं है .)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इंद्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इंद्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-८२:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरूष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र बसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने बसुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भी देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<ref>पुराणों के अनुसार [[बलराम]] सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही [[बलदेव]] का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।</ref>यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने वालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
===राक्षस आदि का संहार===<br />
* [[पूतना-वध]], <br />
* [[शकटासुर-वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय-दमन]], <br />
* [[धेनुक-वध]], <br />
* [[प्रलंब-वध]], <br />
* [[अरिष्ट-वध]] <br />
===गोवर्धन पूजा===<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षकाल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग० पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ० 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र० वै० (22 और भाग० (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग० (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन-पूजा की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म० ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु० (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इंद्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग० (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरूण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
===रास===<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि० 77; ब्रह्म० 189, 1-45; विष्णु० 13; भाग० 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै० के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग० पु० (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
===धनुर्याग===<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुंडों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रुर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरूष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म० 190, 1-21; विष्णु० 15, 1-24; भाग० 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म० और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वथार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म० 190,22-48, भाग० 37, 1-25; विष्णु० 16, 1-28।</ref><br />
===कृष्ण का मथुरा-गमन===<br />
एक दिन संध्या समय कृष्ण ने सामाचार पाया कि अंक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहां अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म० 191-92; विष्णु० 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै० 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करूण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता बसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान् अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे संध्या समय मथुरा पहुंच थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगें।<br />
===कंस-वध===<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र० वै० (अ० 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्यांग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चारणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु० 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ० 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि० 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु० 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान् आदर्श उपस्थित किया।<br />
<br /><br />
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चित्र:krishna-birth2.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:makhanchor.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण<br />Radha-Krishna<br />
चित्र:krishna-arjun1.jpg|कृष्ण-[[अर्जुन]]<br /> Krishna-Arjuna<br />
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==टीका टिप्पणी==<br />
<references/><br />
{{महाभारत}}</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&diff=20392कृष्ण2009-11-22T10:26:18Z<p>Brajdis1: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br /><br />
{{कृष्ण}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg]]<br />
[[category:कृष्ण]]<br />
[[category:महाभारत]]<br />
[[category:भगवान-अवतार]] [[श्रेणी: कोश]]<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250|कृष्ण <br />Krishna]]<br />
==कृष्ण / Krishn / Krishna==<br />
[[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरूष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भागवत् गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई0 सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
[[ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करे ]]">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरूष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही। श्रीकृष्ण भागवतधर्म के महान् स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओतप्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
----<br />
वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई० पू० 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे० तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ० 39, 52; आर०जी० भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ० 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ० 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि० 1, पृ० 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व== <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जब कि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की नींव पड़ी। <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:green">↸</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही ( इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है . जो मूल चित्र मैं नहीं है .)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इंद्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इंद्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-८२:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरूष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र बसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने बसुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भी देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<ref>पुराणों के अनुसार [[बलराम]] सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही [[बलदेव]] का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।</ref>यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने वालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
===राक्षस आदि का संहार===<br />
* [[पूतना-वध]], <br />
* [[शकटासुर-वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय-दमन]], <br />
* [[धेनुक-वध]], <br />
* [[प्रलंब-वध]], <br />
* [[अरिष्ट-वध]] <br />
===गोवर्धन पूजा===<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षकाल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग० पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ० 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र० वै० (22 और भाग० (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग० (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन-पूजा की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म० ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु० (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इंद्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग० (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरूण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
===रास===<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि० 77; ब्रह्म० 189, 1-45; विष्णु० 13; भाग० 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै० के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग० पु० (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
===धनुर्याग===<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुंडों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रुर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरूष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म० 190, 1-21; विष्णु० 15, 1-24; भाग० 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म० और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वथार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म० 190,22-48, भाग० 37, 1-25; विष्णु० 16, 1-28।</ref><br />
===कृष्ण का मथुरा-गमन===<br />
एक दिन संध्या समय कृष्ण ने सामाचार पाया कि अंक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहां अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म० 191-92; विष्णु० 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै० 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करूण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता बसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान् अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे संध्या समय मथुरा पहुंच थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगें।<br />
===कंस-वध===<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र० वै० (अ० 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्यांग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चारणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु० 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ० 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि० 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु० 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान् आदर्श उपस्थित किया।<br />
<br /><br />
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चित्र:krishna-birth2.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:makhanchor.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण<br />Radha-Krishna<br />
चित्र:krishna-arjun1.jpg|कृष्ण-[[अर्जुन]]<br /> Krishna-Arjuna<br />
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<br />
==टीका टिप्पणी==<br />
<references/><br />
{{महाभारत}}</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3&diff=20391कृष्ण2009-11-22T10:18:23Z<p>Brajdis1: </p>
<hr />
<div>{{menu}}<br /><br />
{{कृष्ण}}<br />
[[चित्र:krishn-title.jpg]]<br />
[[category:कृष्ण]]<br />
[[category:महाभारत]]<br />
[[category:भगवान-अवतार]] [[श्रेणी: कोश]]<br />
[[चित्र:Gita-Krishna-1.jpg|thumb|250|कृष्ण <br />Krishna]]<br />
==कृष्ण / Krishn / Krishna==<br />
[[सनातन धर्म]] के अनुसार भगवान [[विष्णु]] सर्वपापहारी पवित्र और समस्त मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले प्रमुख देवता हैं। कृष्ण [[हिन्दू धर्म]] में विष्णु के अवतार माने जाते हैं । श्रीकृष्ण साधारण व्यक्ति न होकर युग पुरूष थे। उनके व्यक्तित्व में भारत को एक प्रतिभासम्पन्न राजनीतिवेत्ता ही नही, एक महान् कर्मयोगी और दार्शनिक प्राप्त हुआ, जिसका [[गीता]]- ज्ञान समस्त मानव-जाति एवं सभी देश-काल के लिए पथ-प्रदर्शक है। कृष्ण की स्तुति लगभग सारे भारत में किसी न किसी रूप में की जाती है। वे लोग जिन्हें हम साधारण रूप में नास्तिक या धर्म निरपेक्ष की श्रेणी में रखते हैं निश्चित रूप से भागवत् गीता से प्रभावित हैं। गीता किसने और किस काल में कही या लिखी यह शोध का विषय है किन्तु गीता को कृष्ण से ही जोड़ा जाता है। यह आस्था का प्रश्न है और यूँ भी आस्था के प्रश्नों के उत्तर इतिहास में नहीं तलाशे जाते।<br />
----<br />
<balloon link="index.php?title=ब्रज" title="वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में शूरसेन जनपद के नाम से प्रसिद्ध था । <br />
ई0 सातवीं शती में जब चीनी यात्री हुएन-सांग यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था । <br />
दक्षिण-पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी । <br />
वर्तमान समय में ब्रज शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है । <br />
प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है । <br />
शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं । इसकी राजधानी मधुरा या मथुरा नगरी थी । कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ। <br />
[[ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करे ]]">ब्रज</balloon> या [[शूरसेन]] जनपद के इतिहास में श्रीकृष्ण का समय बड़े महत्व का है। इसी समय में प्रजातंत्र और नृपतंत्र के बीच कठोर संघर्ष हुए, [[मगध]]-राज्य की शक्ति का विस्तार हुआ और भारत का वह महान् भीषण संग्राम हुआ जिसे [[महाभारत]] युद्ध कहते है। इन राजनैतिक हलचलों के अतिरिक्त इस काल का सांस्कृतिक महत्व भी है। <br />
<br />
[[मथुरा]] नगरी इस महान् विभूति का [[कृष्ण जन्मभूमि|जन्मस्थान]] होने के कारण धन्य हो गई। मथुरा ही नहीं, सारा शूरसेन या ब्रज जनपद आनंदकंद कृष्ण की मनोहर लीलाओं की क्रीड़ाभूमि होने के कारण गौरवान्वित हो गया। मथुरा और ब्रज को कालांतर में जो असाधारण महत्व प्राप्त हुआ वह इस महापुरूष की जन्मभूमि और क्रीड़ाभूमि होने के कारण ही। श्रीकृष्ण भागवतधर्म के महान् स्त्रोत हुए। इस धर्म ने कोटि-कोटि भारतीय जन का अनुरंजन तो किया ही, साथ ही कितने ही विदेशी इसके द्वारा प्रभावित हुए। प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का एक बड़ा भाग कृष्ण की मनोहर लीलाओं से ओतप्रोत है। उनके लोकरंजक रूप ने भारतीय जनता के मानस-पटली पर जो छाप लगा दी है, वह अमिट है।<br />
----<br />
वर्तमान ऐतिहासिक अनुसंधानों के आधार पर श्रीकृष्ण का जन्म लगभग ई० पू० 1500 माना जाता है। ये सम्भवत: 100 वर्ष से कुछ ऊपर की आयु तक जीवित रहे। अपने इस दीर्घजीवन में उन्हें विविध प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहना पड़ा। उनका प्रारंभिक जीवन तो ब्रज में कटा और शेष द्वारका में व्यतीत हुआ। बीच-बीच में उन्हें अन्य अनेक जनपदों में भी जाना पडा़। जो अनेक घटनाएं उनके समय में घटी उनकी विस्तृत चर्चा पुराणों तथा महाभारत में मिलती है। वैदिक साहित्य<ref>छांदोग्य उपनिषद(3,17,6), जिसमें देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख है और उन्हें घोर आंगिरस का शिष्य कहा है। परवर्ती साहित्य में श्रीकृष्ण को देव या [[विष्णु]] रूप में प्रदर्शित करने का भाव मिलता है (दे० तैत्तिरीय आरण्यक, 10, 1, 6; [[पाणिनि]]-अष्टाध्यायी, 4, 3, 98 आदि)।<br />
<br />
[[महाभारत]] तथा [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]], [[विष्णु पुराण|विष्णु]], [[ब्रह्म पुराण|ब्रह्म]], [[वायु पुराण|वायु]], [[भागवत पुराण|भागवत]], [[पद्म पुराण|पद्म]], [[देवी भागवत]] [[अग्नि पुराण|अग्नि]] तथा [[ब्रह्मावर्त|ब्रह्मवर्त]] [[पुराण|पुराणों]] में उन्हें प्राय: भगवान के रूप में ही दिखाया गया है। इन ग्रंथो में यद्यपि कृष्ण के आलौकिक तत्व की प्रधानता है तो भी उनके मानव या ऐतिहासिक रूप के भी दर्शन यत्र-तत्र मिलते हैं। पुराणों में कृष्ण-संबंधी विभिन्न वर्णनों के आधार पर कुछ पाश्चात्य विद्वानों को यह कल्पना करने का अवसर मिला कि कृष्ण ऐतिहासिक पुरूष नहीं थे। इस कल्पना की पुष्टि में अनेक दलीलें दी गई हैं, जो ठीक नहीं सिद्ध होती। यदि महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त, ब्राह्मण-ग्रंथों तथा [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उल्लेख देखे जायें तो कृष्ण के ऐतिहासिक तत्व का पता चल जायगा। बौद्ध-ग्रंथ घट [[जातक कथा|जातक]] तथा [[जैन]]-ग्रंथ उत्तराध्ययन सूत्र से भी श्रीकृष्ण का ऐतिहासिक होना सिद्ध है। यह मत भी भ्रामक है कि [[ब्रज]] के कृष्ण, [[द्वारका]] के कृष्ण तथा महाभारत के कृष्ण एक न होकर अलग-अलग व्यक्ति थे। <br />
(श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता तथा तत्संबंधी अन्य समस्याओं के लिए देखिए- राय चौधरी-अर्ली हिस्ट्री आफ वैष्णव सेक्ट, पृ० 39, 52; आर०जी० भंडारकार-ग्रंथमाला, जिल्द 2, पृ० 58-291; विंटरनीज-हिस्ट्री आफ इंडियन लिटरेचर, जिल्द 1, पृ० 456; मैकडॉनल तथा कीथ-वैदिक इंडेक्स, जि० 1, पृ० 184; ग्रियर्सन-एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजंस (`भक्ति' पर निबंध); भगवानदास-कृष्ण; तदपत्रिकर-दि कृष्ण प्रायलम; पार्जीटर-ऎश्यंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन आदि।)</ref> में तो कृष्ण का उल्लेख बहुत कम मिलता है और उसमें उन्हें मानव-रूप में ही दिखाया गया है, न कि नारायण का विष्णु के अवतार रूप में।<br />
==इतिहास और पुरातत्व== <br />
दामोदर धर्मानंद कोसंबी के अनुसार, कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उसका पारंपरिक हथियार चक्र जिसे फेंककर मारा जाता था। वह इतना तीक्ष्णधार होता था कि किसी का भी सिर काट दे । यह हथियार वैदिक नहीं है, और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्खिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से आदिवासियों पर (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है। अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई.पू. जब कि, मोटे तौर पर, [[वाराणसी]] में पहली बस्ती की <balloon title="प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता- दामोदर धर्मानंद कोसंबी" style="color:green">नींव पड़ी।</balloon><br />
[[चित्र:chakra-krishna.jpg|thumb|left|चक्र द्वारा आक्रमण करता अश्वारोही ( इस चित्र को स्पष्ट रूप से दिखाने के लिए background बदल दिया है . जो मूल चित्र मैं नहीं है .)]]<br />
ये रथारोही [[आर्य]] रहे होंगे, और नदी पार के क्षेत्र में लोह-खनिज की खोज करने आए होंगे- उस हैमाटाइट खनिज की, जिससे ये गुफाचित्र बनाए गए हैं। दूसरी ओर , [[ऋग्वेद]] में कृष्ण को दानव और [[इन्द्र|इंद्र]] का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से [[यदु]] कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है। कृष्ण सात्वत भी है, [[अंधक]]-[[वृष्णि संघ|वृष्णि]] भी, और मामा [[कंस]] से बचाने के लिए उसे [[गोकुल]] (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन (कुछ उल्लेखों में पुत्री) [[देवकी]] के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति [[वसुदेव]] सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव (वासुदेव का पुत्र) गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इंद्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर [[कालिय नाग]] का, जिसने मथुरा के पास [[यमुना]] के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई [[बलराम]] ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। यहाँ यह ध्यान में रखना जरूरी है कि कुछ आदिम समाजों में मुखिया की बहिन का पुत्र ही उसका उत्तराधिकारी होता है; साथ ही, उत्तराधिकारी को प्राय: मुखिया की बलि चढ़ानी पड़ती है। आदिम प्रथाओं से कंस-वध को अच्छा समर्थन मिलता है, और यह भी स्पष्ट होता है कि मातृस्थानक समाज में ईडिपस-आख्यान का क्या रूप हो जाता।<br />
<br />
==नारद कृष्ण संवाद==<br />
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । श्रीकृष्ण मंझले भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम [[बलराम]] था जो अपनी भक्ति में ही मस्त रहते थे। उनसे छोटे का नाम 'गद' था। वे अत्यंत सुकुमार होने के कारण श्रम से दूर भागते थे। श्रीकृष्ण के बेटे [[प्रद्युम्न]] अपने दैहिक सौंदर्य से मदासक्त थे। कृष्ण अपने राज्य का आधा धन ही लेते थे, शेष यादववंशी उसका उपभोग करते थे। श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसे क्षण आये जब उन्होंने अपने जीवन का असंतोष [[नारद]] के सम्मुख कह सुनाया और पूछा कि यादववंशी लोगों के परस्पर द्वेष तथा अलगाव के विषय में उन्हें क्या करना चाहिए। नारद ने उन्हें सहनशीलता का उपदेश देकर एकता बनाये रखने को कहा। <br /><br />
'''महाभारत शांति पर्व अध्याय-८२:'''<br /><br />
अरणीमग्निकामो वा मन्थाति हृदयं मम।<br />
वाचा दुरूक्तं देवर्षे तन्मे दहति नित्यदा ॥6॥<br /><br />
हे देवर्षि ! जैसे पुरूष अग्रिकी इच्छासे अरणी काष्ठ मथता है; वैसे ही उन जाति-लोगों के कहे हुए कठोर वचनसे मेरा हृदय सदा मथता तथा जलता हुआ रहता है ॥6॥<br /><br /><br />
बलं संकर्षणे नित्यं सौकुमार्य पुनर्गदे।<br />
रूपेण मत्त: प्रद्युम्न: सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥<br /><br />
हे नारद ! बड़े भाई बलराम सदा बल से, गद सुकुमारता से और प्रद्युम्न रूपसे मतवाले हुए है; इससे इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय हुआ हूँ। ॥7॥<br />
==जन्म और जीवन परिचय==<br />
[[कंस]] की चचेरी बहन देवकी शूर-पुत्र बसुदेव को ब्याही गई थी पुराणों के अनुसार जब कंस को यह भविष्यवाणी ज्ञात हुई कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवें बच्चे के हाथ से उसकी मृत्यु होगी तो वह बहुत सशंकित हो गया। उसने बसुदेव-देवकी को कारागार में बन्द करा दिया। उल्लेख है की कंस के चाचा और [[उग्रसेन]] के भी देवक ने अपनी सात पुत्रियों का विवाह वासुदेव से कर दिया था जिनमें देवकी भी एक थी । <br />
<br />
[[देवकी]] से उत्पन्न प्रथम छह बच्चों को कंस ने मरवा डाला। सातवें बच्चे (बलराम) का उसे कुछ पता ही नही चला।<ref>पुराणों के अनुसार [[बलराम]] सर्वप्रथम देवकी के गर्भ में आये, किन्तु देवी शक्ति द्वारा वे वसुदेव की दूसरी पत्नी [[रोहिणी]] के गर्भ में स्थानांतरित कर दिये गये। इस घटना के कारण ही [[बलदेव]] का नाम 'संकर्षण' पड़ा ।</ref>यथा समय देवकी की आठवीं सन्तान कृष्ण का जन्म कारागार में भादों कृष्णा अष्टमी की आधी रात को हुआ।<ref>) भागवत पुराण और ब्रह्म पुराण को छोड़ प्राय: सब पुराण श्री कृष्ण के स्वाभाविक जन्म की बात कहते हैं, न कि उनके ईश्वर-रूप की। श्रीकृष्ण का जन्म-स्थान मथुरा के [[कटरा केशवदेव]] मुहल्ले में [[औरंगजेब]] की [[लाल मस्जिद]] ([[ईदगाह]]) के पीछे माना जाता है।</ref> जिस समय वे प्रकट हुए प्रकृति सौम्य थी, दिशायें निर्मल हो गई थीं। और नक्षत्रों में विशेष कांति आ गई थी। भयभीत वसुदेव नवजात बच्चे को शीघ्र लेकर यमुना-पार गोकुल गये और वहाँ अपने मित्र [[नंद]] के यहाँ शिशु को पहुँचा आये।<ref> हरिवंश पुराण में मार्ग का कोई वर्णन नहीं है। अन्य पुराणों में अपने आप कारागार के कपाटों के खुलने तथा प्रहरियों की निंद्रा से लेकर अन्य अनेक घटनाओं का वर्णन है।</ref>बदले में वे उनकी पत्नी यशोदा की सद्योजाता कन्या को ले आये। जब दूसरे दिन प्रात: कंस ने वालक के स्थान पर कन्या को पाया तो वह बड़े सोच-विचार में पड़ गया। उसने उस बच्ची को भी जीवित रखना ठीक न समझ उसे दिवंगत कर दिया। गोकुल में नंद ने पुत्र जन्म पर बड़ा उत्सव मनाया। नंद प्रति वर्ष कंस को कर देने मथुरा आया करते थे। उनसे भेंट होने पर वसुदेव ने नंद को बलदेव और कृष्ण के जन्म पर बधाई दी। पितृ-मोह के कारण उन्होंने नंद से कहा -'ब्रज में बड़े उपद्रवों की आंशका है, वहाँ शीघ्र जाकर रोहिणी और बच्चों की रक्षा करो।'<br />
[[चित्र:krishna-birth.jpg|thumb|कृष्ण जन्म वसुदेव, कृष्ण को कंस के कारागार मथुरा से गोकुल ले जाते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
===राक्षस आदि का संहार===<br />
* [[पूतना-वध]], <br />
* [[शकटासुर-वध]], <br />
* [[यमलार्जुन मोक्ष]], <br />
* [[कालियदह|कलिय-दमन]], <br />
* [[धेनुक-वध]], <br />
* [[प्रलंब-वध]], <br />
* [[अरिष्ट-वध]] <br />
===गोवर्धन पूजा===<br />
गोकुल के गोप प्राचीन-रीति के अनुसार वर्षकाल बीतने और शरद के आगमन के अवसर पर [[इन्द्र]] देवता की पूजा किया करते थे।<ref>प्रर्लय-यथ के उपरान्त भाग० पुराण मे सुंजयन में अग्नि-कांड का प्रसंग है; कृष्ण ने अग्नि शांत कर गावों की रक्षा की (अ० 19 । शरद ऋतु के आगमन पर ब्र० वै० (22 और भाग० (27) कात्यायनी ब्रत का उल्लेख करते हैं। इन पुराणों के अनुसार गोपियाँ कृष्ण का पतिभाव से चिंतन करती हुई कात्यायनी-व्रत करती थीं। कृष्ण ने एक दिन यमुना में स्नान करती हुई गोपियों के कपड़े चुरा लिये ओर कुछ देर तक उन्हें तंग करने के बाद वापस दे दिये। इन पुराणों में आगे कहा है कि इस ब्रत के तीन मास बाद महारास-लीला हुई। कात्यायनी-व्रत का वर्णन प्रारंभिक पुराणों में नहीं मिलता। भाग० (23 )में उल्लिखित ब्राह्मणी के वेश में भूखे गोपों द्वारा भोजन माँगने का प्रसंग भी प्राचीन पुराणों में नहीं मिलता।</ref> इनका विश्वास था कि इन्द्र की कृपा के कारण वर्षा होती है, जिसके परिणामस्वरूप पानी पड़ता है। कृष्ण और बलराम ने इन्द्र की पूजा का विरोध किया तथा गोवर्धन (धरती माँ, जो अन्न और जल देती है) की पूजा का अवलोकन किया। इस प्रकार एक ओर कृष्ण ने इन्द्र के काल्पनिक महत्व को बढ़ाने का कार्य किया, दूसरी और बलदेव ने हल लेकर खेती में वृद्धि के साधनों को खोज निकाला। पुराणों मे कथा है कि इस पर इन्द्र क्रुद्ध हो गया और उसने इतनी अत्यधिक वर्षा की कि हाहाकार मच गया। किन्तु कृष्ण ने बुद्धि-कौशल के गिरि द्वारा [[गोपी|गोप-गोपिकाओं]], गौओं आदि की रक्षा की। इस प्रकार इन्द्र-पूजा के स्थान पर अब गोवर्धन-पूजा की स्थापना की गई।<ref>हरि (72-76) तथा पद्म० ``(372,181-217) में इन्द्र द्वारा सात दिन तक घोर वृष्टि,करने का उल्लेख मिलता है। ब्रह्म पुराण (180), विष्णु० (10,1-12,56) तथा हरिवंश के अनुसार वर्षा शांत होने पर इन्द्र ऐरावत पर चढ़कर क्षमा माँगने के लिए कृष्ण के पास आये। भाग के अनुसार इंद्र गुप्त रूप से कृष्ण से मिले; उन्हें अन्य गोपी ने नहीं <br />
देखा। वह कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वर्ग से मुरली साथ लेकर आये-भाग० (37)। गोवर्धन-पूजा के बाद भागवत (28,1-10) में यह घटना वर्णित है कि एक दिन नंद को जब वे नदी में स्नान कर हे थे, वरूण के दूत अपने लोक को ले गये। कृष्ण ने वहाँ जाकर नंद को छुड़ाया और इसके बाद गोपों को बैंकुण्ठ-लोक के दर्शन कराये।</ref><br />
===रास===<br />
कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों का बड़ा स्नेह था। गोपियाँ तो विशेष रूप उनके सौंदर्य तथा साहस पूर्ण कार्यों पर मुग्ध थीं। प्राचीन पुराणों के अनुसार [[शरद पूर्णिमा]] की एक सुहावनी रात को गोपियों ने कृष्ण के साथ मिलकर नृत्य-गान किया। इसका नाम [[रासलीला|रास]] प्रसिद्ध हुआ।,<ref>हरि० 77; ब्रह्म० 189, 1-45; विष्णु० 13; भाग० 29-33। परवर्ती पुराणों में रास या महारास का विस्तार से कथन मिलता है। पद्म (72, 158-180) तथा ब्रह्मवैवर्त (28-53) में तो रास के सहारे काम-क्रीड़ा का विस्तृत वर्णन किया गया है। ब्रह्म वै० के वर्णन में राधा तथा असंख्य सखियों का भी अतिशयोक्तिपूर्ण आलेखन किया गया है। वस्तुत: एक सीधीसादी घटना को संस्कृत एवं भाषा के परवर्ती भक्त कवियों ने बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया है।<br />
भाग० पु० (34) रासक्रीड़ा के तत्काल बाद दो और घटनाओं का समावेश करता है-(1) आम्बिका-वन में सरस्वती नदी के किनारे सोते नंद की अजगर से रक्षा और (2) उसी रात कुबेर-किंकर शंखचूड़ का वध।</ref>धीरे-धीरे यह प्रथा एक नैमित्तिक उत्सव बन गया, जिसमें गोपी-ग्वाल सभी सम्मिलित होते थे। सभंवत: रात में इस प्रकार के मनोविनोंदों और खेलकूदों को इस हेतु भी प्रचारित किया गया कि जिससे रात मे भी सजग रह कर कंस के उन षड्यंत्रों से बचा जा सके जो आये दिन गोकुल में हुआ करते थे।<br />
===धनुर्याग===<br />
इस प्रकार ब्रज तथा उसके निवासियों पर संकट आये और चले गये। आपत्तिग्रस्त जंगलों और कुंडों को भी कृष्ण ने अपनी शक्ति और चातुर्य से निष्कंटक बना दिया। अभी तक जितनी घटनाएँ घटी उनमें पूतना के संबंध में ही पुराणों में स्पष्ट संकेत मिलता है कि वह कंस की भेजी हुई थी। अन्य सब घटनाएं आकस्मिक या दैवी प्रतीत होती है, संभवत: उनमें कंस का विशेष हाथ न था। इन घटनाओं के संबंध में दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि प्रारंभिक पुराणों-हरिवंश, वायु, ब्रह्म-में कृष्ण के साथ कम चामत्कारिक घटनाओं का संबंध है और बाद के पुराणों यथा भागवत, पद्म और ब्रह्मवैवर्त-में क्रमश: इन घटनाओं में वृद्धि हुई है। केवल घटनाओं की संख्या में ही वृद्धि नहीं हुई, प्राचीन पुराणों की कथाओं को भी परवर्ती पुराणों में बहुत घटा बढ़ा कर कहा गया है। बारहवीं शती के बाद के संस्कृत एवं भाषा साहित्य में तो ये बातें और भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।<br />
<br />
धनुर्याग और अक्रूर का ब्रज-आगमन<br />
[[चित्र:krishna-parents.jpg|thumb|left|कृष्ण-बलराम, देवकी-वसुदेव से मिलते हुए, द्वारा- [[राजा रवि वर्मा]]]]<br />
<br />
कृष्ण बचपन में ही कई आकस्मिक दुर्धटनाओं का सामना करने तथा कंस के षड्यंत्रों को विफल करने के कारण बहुत लोक-प्रिय हो गये थे। सारे ब्रज में इस छोटे वीर बालक के प्रति विशेष महत्व पैदा हो गया। किन्तु दूसरी ओर मथुरा पति कंस कृष्ण की इस ख्याति से घबरा रहा था और समझ रहा था कि एक दिन अपने ऊपर भी सकंट आ सकता है।<br />
<br />
साम्राज्यवादी कंस ने अन्त में कूटनीति की शरण ली और दानपति अक्रुर के द्वारा धनुर्याग के बहाने कृष्ण-बलराम को मथुरा बुलाने का विचार किया। अक्रूर अपने समय में [[वृष्णि संघ|अंधक-वृष्णि संघ]] के एक वर्ग का प्रसिद्ध नेता था। संभवत: वह बहुत ही कुशल और व्यावहारिक-ज्ञान-सम्पन्न पुरूष था। कंस को उस समय ऐसे ही एक ही एक चतुर और विश्वस्त व्यक्ति की आवश्यकता थी।<br />
<br />
कंस ने पहले [[रंगेश्वर महादेव|धनुर्याग]] की तैयारी कर ली और फिर अक्रुर को गोकुल भेजा।<ref>हरिवंश 79; ब्रह्म० 190, 1-21; विष्णु० 15, 1-24; भाग० 36, 16,16-34 आदि। हरिवंश के अनुसार कंस ने अक्रूर को भेजने के पहले वसुदेव को बुरा-भला कहा और उन्हें ही अपने और कृष्ण के बीच वैमनस्य उत्पन्न करने वाला कहा । ब्रह्म० और विष्णु के अनुसार कंस ने अकूर को छोड़ कर सभी यादवों के वध की प्रतिज्ञा की।</ref> अक्रूर के कुछ पूर्व केशी कृष्ण के वथार्थ ब्रज पहुँच चुका था, परंतु कृष्ण ने उसे भी मार डाला।<ref>हरिवंश के वर्णन से प्रतीत होता है कि केशी कंस का परम प्रिय भाई या मित्र था। केशी के मारने से कृष्ण का नाम `केशव' हुआ। पुराणों के अनुसार केशी घोड़े का रूप बना कर कृष्ण को मारने गया था-ब्रह्म० 190,22-48, भाग० 37, 1-25; विष्णु० 16, 1-28।</ref><br />
===कृष्ण का मथुरा-गमन===<br />
एक दिन संध्या समय कृष्ण ने सामाचार पाया कि अंक्रुर उन्हें लेने वृन्दावन आये है। कृष्ण ने निर्भीक होकर अक्रुर से भेंट की और उन्हें नंद के पास ले गये। यहां अक्रूर ने कंस का धनुर्याग-संदेश सुनाकर कहा--``राजा ने आपको गोपों और बच्चों सहित यह मेला देखने बुलाया है``। अक्रूर दूसरे दिन सवेरे बलदेव और कृष्ण को लेकर मथुरा के लिए चले।<ref> हरिवंश 82; ब्रह्म० 191-92; विष्णु० 17, 1-19, 9; भागवत 31, 1-41; ब्रह्म्वै० 70, 1-72।<br />
हरिवंश के अतिरिक्त अन्य पुराणों में आया है कि ब्रज की गोपियाँ कृष्ण को मथुरा न जाने देना चाहती थीं। उन्होंने अक्रूर का विरोध भी किया और रथ को रोक लिया। ब्रह्मवैवर्त में गोपियों की वियोग-व्यथा विस्तार से वर्णित है। ब्रज भाषा, बंगला तथा गुजराती के अनेक कवियों ने इस करूण प्रसंग का मार्मिक वर्णन किया है।</ref> नंद संभवत: बच्चों को न भेजते, किन्तु अक्रूर ने नंद को समझाया कि कृष्ण का यह कर्तव्य है कि वह अपने माता-पिता बसुदेव और देवकी से मिलें और उनका कष्ट दूर करें। नंद अब भला कैसे रोकते ? मथुरा पहुंचने पर नीतिवान् अक्रूर ने प्रथम ही माता-पिता से बच्चों को मिलाना उचित नही समझा। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कंस भड़क जायगा और बना-बनाया काम बिगड़ जायगा। वे संध्या समय मथुरा पहुंच थे, अक्रूर दोनों भाइयों को पहले अपने घर ले गये।<br />
<br />
ये वीर बालक सन्ध्या समय मथुरा नगरी की शोभा देखने के लोभ का संवरण न कर सके। पहली बार उन्होंने इतना बड़ा नगर देखा था। वे मुख्य सड़कों से होते हुए नगर की शोभा देखने लगें।<br />
===कंस-वध===<br />
कृष्ण-बलराम का नाम मथुरा में पहले से ही प्रसिद्ध हो चुका था। उनके द्वारा नगर में प्रवेश करते ही एक विचित्र कोलाहल पैदा हो गया। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे इन बालकों द्वारा दंडित किये गये। ऐसे मथुरावासियों की संख्या कम न थी जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण के प्रति सहानुभूति रखते थे। इनमें कंस के अनेक भृत्य भी थे, जैसे सुदाभ या गुणक नामक माली, कुब्जा दासी आदि।<br />
<br />
कंस के शस्त्रागार में भी कृष्ण पहुंच गये<ref>ज्ञात होता है कि कृष्ण ने शस्त्रागार में जानबूझ कर गड़बड़ी की, जिससे उनके पक्ष वालों को कंस के विरूद्ध युद्ध करने को हथियार मिल जाये। पुराणकारों ने तो इतना ही लिखा है कि धनुष तोड़ कर वे आगे बढ़े।</ref>और वहाँ के रक्षक को समाप्त कर दिया। इतना करने के बाद कृष्ण-बलराम ने रात में संभवत: अक्रूर के घर विश्राम किया। अन्य पुराणों में यह बात निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हो पाती कि दोनों भाइयों ने रात कहाँ बिताई।<ref> पद्म पुराण (272, 331-393) के अनुसार यह रात दोनों भाइयों ने अपने सहयोगियों सहित रंगमंच पर ही बिताई। ब्र० वै० (अ० 12) के अनुसार नंद और कृष्ण आदि रात में कुविंद नामक एक वैष्णव के यहाँ रहे । </ref> कंस ने ये उपद्रवपूर्ण बातें सुनी। उसने चाणूर और मुष्टिक नामक अपने पहलवानों को कृष्ण-बलराम के वध के लिए सिखा-पढ़ा दिया। शायद कंस ने यह भी सोचा कि उन्हें रंग भवन में घुसने से पूर्व ही क्यों न हाथी द्वारा कुचलवा दिया जाय, क्योंकि भीतर घुसने पर वे न जाने कैसा वातावरण उपस्थित कर दें। प्रात: होते ही दोनों भाई धनुर्यांग का दृश्य देखने राजभवन में घुसे। ठीक उसी समय पूर्व योजनानुसार कुवलय नामक राज्य के एक भयंकर हाथी ने उन पर प्रहार किया। दोनों भाइयों ने इस संकट को दूर किया। भीतर जाकर कृष्ण चारणूर से और बलराम मुष्टिक से भिड़ गये। इन दोनों पहलवानों को समाप्त कर कृष्ण ने तोसलक नामक एक अन्य योद्धा को भी मारा। कंस के शेष योद्धाओं में आतंक छा जाने और भगदड़ मचने के लिए इतना कृत्य यथेष्ट था। इसी कोलाहल में कृष्ण ऊपर बैठे हुए कंस पर झपटे और उसको भी कुछ समय बाद परलोक पहुँचा दिया। इस भीषण कांड के समय कंस के सुनाम नामक भृत्य ने कंस को बचाने की चेष्टा की। किन्तु बलराम ने उसे बीच में ही रोक उसका वध कर डाला। <ref>भागवत में कूट और शल योद्धाओं तथा कंस के आठ भाइयों (कंक, न्यग्रोधक आदि) के मारे जाने का भी उल्लेख है।<br />
कंस के इस प्रकार मारे जाने पर कुछ लोगों ने हाहाकार भी किया-<br /><br />
'ततो हाहाकृर्त सर्वमासीत्तद्रङमंडलम् ।<br /><br />
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेशवरम् ।।' (विष्णु पु० 5, 20, 91)<br />
<br />
तथा- 'हाहेति शब्द: सुमहांस्तदाSभूदुदीरित: सर्वजनैर्नरेन्द्र ।' (भागवत 10,44,38)<br /><br />
हो सकता है कि मथुरेश कंस की इस प्रकार मृत्यु देखकर तथा उसकी रानियों और परिजनों का हाहाकार (हरिवंश अ० 88) सुनकर दर्शकों में कुछ समय के लिए बड़ी बेचैनी पैदा हो गई हो ।</ref><br />
<br />
अपना कार्य पूरा करने के उपरांत दोनो भाई सर्वप्रथम अपने माता-पिता से मिले। वसुदेव और देवकी इतने समय बाद अपने प्यारे बच्चों से मिल कर हर्ष-गदगद हो गये। इस प्रकार माता-पिता का कष्ट दूर करने के बाद कृष्ण ने कंस के पिता उग्रसेन को, जो अंधकों के नेता थे, पुन: अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। समस्त संघ चाहता था कि कृष्ण नेता हों, किन्तु कृष्ण ने उग्रसेन से कहा:-<br />
<br />
"मैनें कंस को सिंहासन के लिए नहीं मारा है। आप यादवों के नेता हैं । अत: सिंहासन पर बैठें।" <ref>हरि० 87, 52। sS</ref> मालूम होता है कि इस पर भी कृष्ण से विशेष अनुरोध किया गया, तब उन्होंने नीतिपूर्वक ययाति के शाप का स्मरण दिलाकर सिंहासन-त्याग की बात कही।<ref>"ययाति शापाद्वं शोSयमराज्यार्ह Sपि साम्प्रतम् ।<br /><br />
मयि भृत्ये स्थिते देव नाज्ञापयतु किं नृपै: ।।" (विष्णु० 5,21,120)</ref> इस प्रकार कृष्ण ने त्याग और दूर-दर्शिता का महान् आदर्श उपस्थित किया।<br />
<br /><br />
<gallery><br />
चित्र:krishna-birth2.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Vasudev-Krishna.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:makhanchor.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:cheer-haran.jpg|कृष्ण <br />Krishna<br />
चित्र:Radha-Krishna-1.jpg|[[राधा]]-कृष्ण<br />Radha-Krishna<br />
चित्र:krishna-arjun1.jpg|कृष्ण-[[अर्जुन]]<br /> Krishna-Arjuna<br />
</gallery><br />
<br />
==टीका टिप्पणी==<br />
<references/><br />
{{महाभारत}}</div>Brajdis1http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%9A%E0%A4%BE:Tooltip_Balloon2&diff=20380साँचा:Tooltip Balloon22009-11-22T08:40:54Z<p>Brajdis1: "साँचा:Tooltip Balloon2" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))</p>
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