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१०:५९, २४ अक्टूबर २००९ का अवतरण
गीता अध्याय-17 श्लोक-28 / Gita Chapter-17 Verse-28
प्रसंग-
इस प्रकार श्रद्धापूर्वक किये हुए शास्त्रविहित यज्ञ, तप, दान आदि कर्मों का महत्व बतलाया गया; उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है कि जो शास्त्रविहित यज्ञादि कर्म बिना श्रद्धा के किये जाते हैं, उनका क्या फल होता है ? इस पर भगवान् इस अध्याय का उपसंहार करते हुए कहते
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ।।28।।
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हे अर्जुन ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्'- इस प्रकार कहा जाता है; इसलिये वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही ।।28।।
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But sacrifices, austerities and charities performed without faith in the Supreme are nonpermanent, O son of Prtha, regardless of whatever rites are performed. They are called asat and are useless both in this life and the next.
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पार्थ = हे अर्जुन ; अश्रद्धया = बिना श्रद्धा के ; हुतम् = होमा हुआ हवन (तथा) ; दत्तम् = दिया हुआ दान (एवं) ; तप्तम् = तपा हुआ ; इति = ऐसे ; उच्यते = कहा जाता हे (इसलिये) ; तत् = वह ; नो = न (तो) ; इह = इस लोक में ; तप: = तप ; च = और ; यत् = जो (कुछ भी) ; कृतम् = किया हुआ कर्म है ; (तत्) = वह (समस्त) ; असत् = असत् ; च = और ; न = न ; प्रेत्य = मरने के पीछे (ही लाभदायक है)
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