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==पु्ष्यभूति==
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==मध्य काल (लगभग 550 ई० से 1194 ई० तक)==
ई० छठी शती के प्रारम्भ में पु्ष्यभूति ने थानेश्वर में एक नये राजवंश की नींव डाली । इस वंश का पाँचवा और शक्तिशाली राजा प्रभाकरवर्धन (लगभग 583 - 605 ई०) हुआ । उसकी उपाधि  'परम भट्टारक महाराजाधिराज' थी । उपाधि से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था । बाणभट्ट द्वारा रचित 'हर्षचरित' से पता चलता है कि इस शासक ने सिंध, गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया था । गांधार प्रदेश तक के शासक प्रभाकरवर्धन से डरते थे तथा उसने [[हूण|हूणों]] को भी पराजित किया था ।  
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गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग आधी शताब्दी तक उत्तर भारत की राजनैतिक स्थिति अस्थिर रही । छोटे-बड़े राजा अपनी शक्ति बढ़ाने लगे । सम्राट् हर्षवर्धन के शासन में आने तक कोई ऐसी शक्तिशाली  केन्द्रीय सत्ता  न थी जो छोटे-छोटे राज्यों को सुसंगठित करके शासित करती । छठी शती के मध्य में मौखरी, वर्धन, गुर्जन, मैत्रक कलचुरि आदि राजवंशों का अभ्युदय प्रारम्भ हुआ । मथुरा प्रदेश पर अनेक वंशों का राज्य मध्यकाल में रहा । यहाँ अनेक छोटे बड़े राज्य स्थापित हो गये थे और उनके शासक अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रयास में आपस लड़ रहे थे । उस समय देश में दो राजवंशों का उदय हुआ, मौखरी राजवंश और वर्धन राजवंश ।
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==मौखरीवंश का शासन==  
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गुप्त-काल के पहले भी गया और कोटा (राजस्थान) के आसपास संज्ञान में आता है । मौखरियों का उदय मगध से हुआ था, वे गुप्त सम्राटों के अधीनस्थ सामंत थे । गुप्तों की आपसी कलह और कमजोरी का लाभ उठा कर उन्होंने अपना राज्य  स्थापित किया और कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया । मौखरी वंश का प्रथम राजा ईशानवर्मन था,वह बड़ा शाक्तिशाली राजा था । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग 554 ई. में मौखरी शासक ईशानवर्मन  ने 'महाराजाधिराज' उपाधि धारण की ।  ईशानवर्मन के समय में मौखरी राज्य की सीमाएं पूर्व में मगध तक, दक्षिण में मध्य प्रांत और आंध्र तक, पश्चिम में मालवा तथा उत्तर-पश्चिम में थानेश्वर राज्य तक थी । उसके राज्य की दो राजधानियाँ थीं,
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#कन्नौज और
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#मथुरा ।
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ईशानवर्मन के शासन के बाद जिन शासकों ने कन्नौज तथा मथुरा प्रदेश पर शासन किया वे क्रमशः शर्ववर्मन, अवंतिवर्मन, तथा ग्रहवर्मन नामक मौखरी शासक थे । इन शासकों की मुठभेड़ें गुप्त राजाओं के साथ काफी समय तक होती रहीं । बाणभट्ट के हर्षचरित से ज्ञात होता है कि छठी शती के अंत में और सातवीं के प्रारम्भ में मौखरी शासक शक्ति शाली थे । ईशानवर्मन या उसके उत्तराधिकारी के काल में हूणों ने भारत पर आक्रमण किया परन्तु उन्हें मौखरियों शासकों ने पराजित कर पश्चिम की ओर भगा दिया । ग्रहवर्मन का विवाह, 606 ई० के लगभग थानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री से हुआ । इस वैवाहिक संबंध से उत्तर भारत के दो प्रसिद्ध राजवंश--वर्धन तथा मौखरी एक सूत्र में जुड़ गये । लेकिन प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात मालव के राजा देवगुप्त ने ग्रहवर्मन की हत्या कर दी और राज्यश्री को कन्नौज में कारागार में ड़ाल दिया । राज्यश्री के बड़े भाई राज्यवर्धन ने मालव पर आक्रमण कर देवगुप्त को हरा दिया । पंरतु इस जीत के बाद ही गौड़ के शासक शशांक ने राज्यवर्धन को धोखे से मार डाला । पु्ष्यभूति ने ई० छठी शती के प्रारम्भ में थानेश्वर में एक नये राजवंश की नींव डाली । इस वंश का पाँचवा और शक्तिशाली राजा प्रभाकरवर्धन (लगभग 583 - 605 ई०) हुआ । उसकी उपाधि  'परम भट्टारक महाराजाधिराज' थी । उपाधि से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था । बाणभट्ट द्वारा रचित 'हर्षचरित' से पता चलता है कि इस शासक ने सिंध, गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया था । गांधार प्रदेश तक के शासक प्रभाकरवर्धन से डरते थे तथा उसने हूणों को भी पराजित किया था, जो दोबारा आक्रमण करने लगे थे । हर्षचरित से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से पहले राज्यवर्धन को उत्तर दिशा में हूणों का दमन करने के लिए भेजा था । संभवत: उस समय हूणों का अधिकार उत्तरी पंजाब और काश्मीर के कुछ भाग पर ही था । शक्तिशाली प्रभाकरवर्धन का शासन पश्चिम में व्यास नदी से लेकर पूर्व में यमुना तक था । मथुरा राज्य की पूर्वी सीमा पर था । राजा प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन, हर्षवर्धन और एक पुत्री राज्यश्री थी । राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरीवंश के शासक ग्रहवर्मन से हुआ था । प्रभाकरवर्धन के निधन के पश्चात ही मालव के शासक ने ग्रहवर्मन की हत्या कर दी थी । राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात हर्षवर्धन थानेश्वर राज्य का शासक हुआ ।
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==गुर्जर-प्रतीहार वंश==
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यशोवर्मन के पश्चात कुछ समय तक के मथुरा प्रदेश के इतिहास की पुष्ट जानकारी नहीं मिलती । आठवीं शती के अन्त में उत्तर भारत में गुर्जर प्रतीहारों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी । गुर्जर लोग पहले राजस्थान में जोधपुर के आस-पास निवास करते थे । इस वजह से उनके कारण से ही लगभग छठी शती के मध्य से राजस्थान का अधिकांश भाग 'गुर्जरन्ना-भूमि' के नाम से जाना था । आज तक यह विवाद का विषय है कि गुर्जर भारत के ही मूल निवासी थे या हूणों आदि की ही भाँति वे कहीं बाहर से भारत आये थे । भारत में सबसे पहले गुर्जर राजा का नाम हरिचंद्र मिलता है, जिसे वेद-शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण कहा गया है । उसकी दो पत्नियाँ थी- एक ब्राह्मण स्त्री से प्रतीहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति और भद्रा नाम की एक क्षत्रिय पत्नी से प्रतीहार-क्षत्रिय वंश हुआ, प्रतीहार-क्षत्रिय वंश के पुत्रों ने शासन का कार्य भार संभाला । गुप्त-साम्राज्य के समाप्त होने के बाद हरिचंद्र ने अपने क्षत्रिय-पुत्रों की मदद से जोधपुर के उत्तर-पूर्व में अपने राज्य को विस्तृत किया । इनका शासन-काल सम्भवतः  550 ई० से 640 ई० तक रहा । उनके बाद प्रतीहार-क्षत्रिय वंश के दस राजाओं ने लगभग दो शताब्दियों तक राजस्थान तथा मालवा के एक बड़े भाग पर शासन किया । इन शासकों ने पश्चिम की ओर से बढ़ते हुए अरब लोगों की शक्ति को रोकने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।
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==अरब लोगों के आक्रमण==
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सातवीं शती में अरबों ने अपनी शक्ति को बहुत संगठित कर लिया था । सीरिया और मिस्त्र पर विजय के बाद अरबों ने उत्तरी अफ्रीका, स्पेन और ईरान पर भी अपना अधिकार कर लिया । आठवीं शती के मध्य तक अरब साम्राज्य पश्चिम में फ्रांस से लेकर पूर्व में अफगानिस्तान तक फैल गया था । 712 ई0 में उन्होंनें सिंध पर हमला किया । सिंध का राजा दाहिर ने बहुत वीरता से युध्द किया और अनेक बार अरबों को हराया । लेकिन युध्द में वह मारा गया और सिंध पर अरबों का अधिकार हो गया । इसके बाद अरब पंजाब के मुलतान तक आ गये थे । उन्होंने पश्चिम तथा दक्षिण भारत को भी अधिकार में लेने की बहुत कोशिश की लेकिन प्रतीहारों एवं राष्ट्रकूटों ने उनकी सभी कोशिशों को नाकाम कर दिया । प्रतीहार शासक वत्सराज के पुत्र नागभट ने अरबों को हराकर उनकी बढ़ती हुई शक्ति को बहुत  धक्का लगाया ।
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==कन्नौज के प्रतीहार शासक==
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नवीं शती के शुरु में कनौज पर प्रतीहार शासकों का अधिकार हो गया था । वत्सराज के पुत्र नागभट ने  संभवतः 810 ई. में कन्नौज पर विजय प्राप्त कर अपने अधिकार में लिया । उस समय दक्षिण में राष्ट्रकूटों तथा पूर्व में पाल-शासकों बहुत शक्तिशाली थे । कन्नौज पर अधिकार करने के लिए ये दोनों राजवंश लगे हुए थे । पाल-वंश के शासक धर्मपाल (780-815 ई०) ने बंगाल से लेकर पूर्वी पंजाब तक अपने राज्य को विस्तृत कर लिया और आयुधवंशी राजा चक्रायुध को कनौज का शासक बनाया था । नागभट ने धर्मपाल को हराकर चक्रायुध से कनौज का राज्य छीन लिया और सिंध प्रांत से लेकर कंलिंग तक के विशाल भूभाग पर नागभट का अधिकार हो गया । मथुरा प्रदेश इस समय से दसवीं शती के अंत तक गुर्जर-प्रतीहार साम्राज्य के अंतर्गत रहा ।
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==नागभट तथा मिहिरभोज==
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इसके कुछ समय बाद ही नागभट को एक अधिक शक्तिशाली राष्ट्रकूट राजा गोविंद तृतीय से युध्द करना पड़ा । नागभट उसका सामना न कर सका और राज्य छोड़ कर भाग गया । गोविंद तृतीय की सेनाएं उत्तर में हिमालय तक पहँच गई किंतु महाराष्ट्र में अराजकता फैल जाने के कारण गोविंद को दक्षिण लौटना पड़ा । नागभट के बाद उसका पुत्र रामभद्र लगभग 833 ई० में कनौज साम्राज्य का राजा हुआ ।  उसका बेटा मिहिरभोज (836 -885 ईं0 )बड़ा  प्रतापी व शक्तिशाली राजा हुआ । उसके भी पालों और राष्ट्रकूटों के साथ युद्ध चलते रहे । पहले तो भोज को कई असफलताओं मिली, परंतु बाद में उसने  भारत की दोनों प्रमुख शक्तियों को हराया । उसके अधिकार में पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मालवा भी आ गये । इतने विशाल साम्राज्य को व्यवस्थित करने का श्रेय मिहिरभोज को ही जाता है ।
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==महेंद्रपाल (लगभग 885 - 910 ई0)==
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मिहिरभोज का पुत्र महेन्द्रपाल अपने पिता के ही समान था । उसने अपने शासन में उत्तरी बंगाल को भी प्रतीहार साम्राज्य में मिला लिया था ।  हिमालय से लेकर विंध्याचल तक और बंगाल की खाड़ी से लेकर अरब सागर तक प्रतीहार साम्राज्य का शासन हो गया था । महेंन्द्रपाल के शासन काल के कई लेख कठियावाड़ से लेकर बंगाल तक में प्राप्त हुए है । इन लेखों में महेंद्रपाल की अनेक उपाधियाँ मिलती हैं । 'महेन्द्रपुत्र', 'निर्भयराज', 'निर्यभनरेन्द्र' आदि उपाधियों से महेन्द्रपाल को विभूषित किया गया था ।
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==महीपाल (912 - 944)==
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महेन्द्रपाल के दूसरे बेटे का नाम महीपाल था और वह अपने बड़े भाई भोज द्वितीय के बाद शासन का अधिकारी हुआ । संस्कृत साहित्य के विद्वान राजशेखर इसी के शासन काल में हुए, जिन्होंने महीपाल को 'आर्यावर्त का महाराजाधिराज' वर्णित किया है और उसकी अनेक विजयों का वर्णन किया है । अल-मसूदी नामक मुस्लिम यात्री बगदाद से लगभग 915 ई० में भारत आया । प्रतीहार साम्राज्य का वर्णन करते हुए इस यात्री ने लिखा है, कि उसकी दक्षिण सीमा राष्ट्रकूट राज्य से मिलती थी और सिंध का एक भाग तथा पंजाब उसमें सम्मिलित थे । प्रतीहार सम्राट के पास घोड़े और ऊँट बड़ी संख्या में थे । राज्य के चारों कोनों में सात लाख से लेकर नौ लाख तक फौज रहती थी । उत्तर में मुसलमानों की शक्ति को तथा दक्षिण में राष्ट्रकूट शक्ति को बढ़ने से रोकने के लिए इस सेना को रखा गया था ।[संदर्भ देखें]
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==राष्ट्रकूट-आक्रमण==
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916 ई० के लगभग दक्षिण से राष्ट्रकूटों ने पुन: एक बड़ा आक्रमण किया । इस समय राष्ट्रकूट- शासक इंद्र तृतीय का शासन था । उसने एक बड़ी फौज लेकर उत्तर की ओरचढ़ाई की और उसकी सेना ने बहुत नगरों को बर्बाद किया, जिसमें कनौज प्रमुख था । इन्द्र ने महीपाल को हराने के बाद प्रयाग तक उसका पीछा किया । किन्तु इंद्र को उसी समय दक्षिण लौटना पड़ा । इंद्र के वापस जाने पर महीपाल ने फिर से अपने राज्य को संगठित किया किन्तु राष्ट्रकूटों के हमले के बाद प्रतीहार राज्य संम्भल नही पाया और उसका गौरव फिर से लौट कर नहीं आ सका । लगभग 940 ई० में राष्ट्रकूटों ने उत्तर में बढ़ कर प्रतीहार साम्राज्य का एक बड़ा भाग अपने राज्य में मिला लिया । इस प्रकार प्रतीहार शासकों का पतन हो गया ।
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==परवर्ती प्रतीहार शासक (लगभग 944 - 1035 ई०)==
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महीपाल केबाद क्रमशः महेंन्द्रपाल, देवपाल, विनायकपाल, विजयपाल, राज्यपाल, त्रिलोचनपाल तथा यशपाल नामक प्रतीहार शासकों ने राज्य किया । इनके समय में कई प्रदेश स्वतंत्र हो गये । महाकोशल में कलचुरि, बुदेंलखंड में चंदेल, मालवा में परमार, सौराष्ट्र में चालुक्य, पूर्वी राजस्थान में चाहभान, मेवाड़ में गुहिल तथा हरियाना में तोमर आदि अनेक राजवंशों ने उत्तर भारत में स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया । इन सभी राजाओं में कुछ समय तक शासन के लिए खींचतान होती रही
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==प्रतीहार-शासन में मथुरा की दशा==
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नवीं शती से लेकर दसवीं शतीं के अंत तक लगभग 200 वर्षों तक मथुरा प्रदेश गुर्जर प्रतीहार-शासन में रहा । इस वंश में मिहिरभोज, महेंन्द्रपाल तथा महीपाल बड़े प्रतापी शासक हुए । उनके समय में लगभग पूरा उत्तर भारत एक ही शासन के अन्तर्गत हो गया था । अधिकतर प्रतीहारी शासक वैष्णव या शैव मत को मानते थे । उस समय के लेखों में इन राजाओं को विष्णु, शिव तथा भगवती का भक्त बताया गया है । नागभट द्वितीय, रामभद्र तथा महीपाल सूर्य-भक्त थे । प्रतीहारों के शासन-काल में मथुरा में हिंदू पौराणिक धर्म की बहुत उन्नति हुई । मथुरा में उपलब्ध तत्कालीन कलाकृतियों से इसकी पुष्टि होती है । नवी शती के प्रारम्भ का एक लेख हाल ही में श्रीकृष्ण जन्म स्थान से मिला है । इससे राष्ट्रकूटों के उत्तर भारत आने तथा जन्म-स्थान पर धार्मिक कार्य करने का ज्ञान होता है । संभवत: राष्ट्रकूटों ने अपने हमलों में धार्मिक केन्द्र मथुरा को कोई हानि नहीं पहुँचाई । नवीं और दसवीं शती में कई बार भारत की प्रमुख शक्तियों में प्रभुत्व के लिए संघर्ष हुए । इन सभी का मुख्य उद्देश्य भारत की राजधानी कन्नौज को जीतना था । मथुरा को इन युद्धों से कोई विशेष हानि हुई हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता ।
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==महमूद गजनवी का आक्रमण==
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ग्यारहवीं शती के प्रारम्भ में उत्तर -पश्चिम की तरफ से मुसलमानों के आक्रमण होने लगे । गजनी के सुल्तान महमूद ने सत्रह बार देश पर आक्रमण किया । महमूद गजनवी के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य लूटपाट करके  वापस गजनी लौटना होता था । महमूद गजनवी ने अपने नौवें आक्रमण का निशाना  मथुरा को बनाया । 1017 ई0 में उसने आक्रमण मथुरा पर आक्रमण किया । महमूद के मीर मुंशी 'अल-उत्वी' ने अपनी पुस्तक 'तारीखे यामिनी' में इस आक्रमण का वर्णन किया है- "महावन में उस समय कूलचंद नाम का राजा था । उसका बहुत बड़ा किला था । (संभवतः इस समय मथुरा प्रदेश का राजनैतिक केंद्र महावन ही था ।) कूलचंद बड़ा शक्तिशाली राजा था, उससे युध्द में कोई जीत नहीं सका था । वह विशाल राज्य का शासक था । उसके पास अपार धन था और वह एक बहुत बड़ी सेना का स्वामी था और उसके सुदृढ किले कोई भी दुश्मन नहीं ढहा सकता था । जब उसने सुलतान (महमूद) की चढ़ाई की बाबत सुना तो अपनी फौज इकट्ठी करके मुकाबले के लिए तैयार हो गया । परन्तु उसकी सेना शत्रु को हटाने में असफल रही और सैनिक मैदान छोड़ कर भाग गये, जिससे नदी पार निकल जाये । जब कूलचंद्र के लगभग 50,000 आदमी मारे गये या नदी में डूब गये, तब राजा ने एक खंजर लेकर अपनी स्त्री को समाप्त कर दिया और फिर उसी के द्वारा अपना भी अंत कर लिया । सुलतान को इस विजय में 185 गाड़ियाँ, हाथी तथा अन्य माल हाथ लगा "
 
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==प्रभाकरवर्धन==
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इसके बाद सुलतान महमूद की फौज मथुरा पहुँची । यहाँ का वर्णन करते हुए  उत्वी लिखता है - "इस शहर में सुलतान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बता कर देवताओं की कृति बताई नगर का परकोटा पत्थर का बना हुआ था, उसमें नदी के ओर ऊँचे तथा मजबूत आधार-स्तंभों पर बने हुए दो दरवाजे स्थित है शहर के दोनों ओर हजारों मकान बने हुए थे जिनमे लगे हुए देवमंदिर थे । ये सब पत्थर के बने थे, और लोहे की छड़ों द्वारा मजबूत कर दिये गये थे । उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी । शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका  पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है । सुलतान महसूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न खर्च करने पड़ेगें और उस निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये ।' सुलतान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें  धराशायी कर दिया जाय । बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही । इस लूट में महसूद के हाथ खालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखे बहुमूल्य मणिक्यों से जड़ी हुई थी । इनका मूल्य पचास हजार दीनार था । केवल एक सोने की मूर्ति का ही वजन चौदह मन था । इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर गजनी ले जाया गया " [दे.ग्राउज - मेम्वायर, पृ. 31-32]
राजा प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन, [[हर्षवर्धन]] और एक पुत्री राज्यश्री थी राज्यश्री का विवाह [[कन्नौज]] के मौखरीवंश के शासक ग्रहवर्मन से हुआ था । उस वैवाहिक संबंध के कारण उत्तरी भारत के दो प्रसिद्ध मौखरी और वर्धन राज्य प्रेम-सूत्र मे बँध गये थे, जिससे उन दोनों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी । हर्षचरित से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से पहले राज्यवर्धन को उत्तर दिशा में हूणों का दमन करने के लिए भेजा था । संभवत: उस समय हूणों का अधिकार उत्तरी पंजाब और काश्मीर के कुछ भाग पर ही था । शक्तिशाली प्रभाकरवर्धन का शासन पश्चिम में [[व्यास नदी]] से लेकर पूर्व में [[यमुना]] तक था । [[मथुरा]] राज्य की पूर्वी सीमा पर था ।
 
 
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कन्नौज भारतवर्ष के राजनैतिक और सांस्कृतिक महत्व का केन्द्र रहा । प्रागैतिहासिक काल में यह [[कुरू]]–[[पंचाल]] जनपदों का भूभाग था । जब से देश का प्रामाणिक इतिहास प्रारम्भ हुआ है, तब से उस महत्व का केन्द्र [[मगध]] ही रहा । मगध साम्राज्य और उसकी राजधानी [[पाटलिपुत्र]] का महत्व प्राय: हजारों वर्षों तक रहा था । गुप्त साम्राज्य का अंत होने पर मगध का महत्व भी समाप्त हो गया था । जब हर्षवर्धन का उदय हुआ, तब कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थी कि हर्षवर्धन को इच्छा न होते हुए भी थानेश्वर के साथ ही साथ कन्नौज का शासन भी  सम्भालना पड़ा । हर्षवर्धन के शासन काल में कन्नौज का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्व इतना अधिक बढ़ गया था कि उसकी तुलना मगध से की जाने लगी थी । कन्नौज का यह महत्व हर्षवर्धन के जीवन काल तक रहा था ।
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महमूद ने मथुरा की बहुत बरबादी की इसकी चर्चा अन्य मुसलमान लेखकों ने भी की है इनमें बदायूँनी तथा फरिश्ता के विवरण उल्लेखनीय है बदायूँनी ने लिखा है - "मथुरा काफिरों के पूजा की जगह है । यहाँ वसुदेव के लड़के कृष्ण पैदा हुए । यहाँ असंख्य देव-मंदिर है सुलतान (महमूद गजनवी) ने मथुरा को फतह किया और उसे बरबाद कर डाला मुसलमानों के हाथ बड़ी दौलत लगी सुलतान की आज्ञा से उन्होंने एक देवमूर्ति को तोड़ा, जिसका वजन 98,300 मिश्कल [संदर्भ देखें] खरा सोना था एक बेशकीमती पत्थर मिला, जो तोल में 450 मिश्कल था । इन सबके अतिरिक्त एक बड़ा हाथी मिला, जो पहाड़ के मानिंद था । यह हाथी राजा गोविदंचंद का था ।"[संदर्भ]
 
 
'''प्रभाकर वर्धन की मृत्यु और थानेश्वर की स्थिति'''
 
 
 
प्रभाकर वर्धन के शासन के अंतिम काल में उत्तर के हुणों ने उपद्रव आरंभ कर दिया था, जिसे दबाने के लिए उसने अपने बड़े पुत्र राज्यवर्धन को एक प्रबल सेना के साथ भेजा था, जिस समय राज्यवर्धन हूणों से युद्ध करने गया था, उसी समय उसका वृद्ध पिता असाध्य रूप से बीमार हो गया । हर्षवर्धन ने अपने भाई राज्यवर्धन के पास दूतों को भेज कर महाराज की असाध्य बीमारी से अवगत कराया और शीघ्र ही राजधानी लौटने का आग्रह किया । राज्यवर्धन हूणों को पराजित कर अपने पिता के अंतिम दर्शन के लिए शीध्रता से राजधानी की ओर चला, किंतु उसके पँहुचने से पहिले ही महाराज का स्वर्गवास हो गया । हर्ष, थानेश्वर राज्य के सरदार-सांमत तथा प्रजाजन सभी शोकाकुल थे । राज्यवर्धन भी बहुत दु:खी था । वह अपनी मानसिक विक्षोभ से और महाराज की अंतिम इच्छा के बाद भी थानेश्वर का शासक बनने को तैयार नहीं हुआ । वह हर्ष को राज्याधिकार सौंप कर स्वयं विरक्त और तपस्वी का जीवन व्यतीत करना चाहता था । हर्ष को उसके विचारों से अपार कष्ट हुआ । हर्षवर्धन ने राजा बनने से इंकार कर दिया और आग्रह पूर्वक राज्यवर्धन से शासन सम्भालने की प्रार्थना की । उन दोनों भाईयों का वह प्रसंग त्रेता युग के राम और भरत की कथा का स्मरण दिलाता था । वह दृश्य परवर्ती मुस्लिम काल से भिन्न था, जिनमें राज्य के कारण परिजनों की हत्या करना साधारण बात थी ।  
 
 
 
'''कन्नौज का संकट'''
 
 
 
इस समय थानेश्वर में विषम परिस्थितियाँ थीं, साथ ही कन्नौज में भी परिवर्तनकारी घटनाएँ घटित हो रही थीं । थानेश्वर और कन्नौज के घरानों के बीच वैवाहिक संबंधों को देख कर उत्तर भारत के शासक शंकित और भयग्रस्त थे । दोनों राज्यों की सम्मिलित शक्ति के विरोध में मालवा के शासक देवगुप्त और गौड़ के शासक शशांक ने अपना संगठन बना लिया । [[हुएन-सांग]] ने शंशाक को कर्णसुवर्ण का राजा लिखा है । कर्णसुवर्ण सम्भवतः वर्तमान काल का मुर्शिदाबाद जिला हैं, जो उस समय गौड़ प्रदेश की राजधानी था । उस समय गौड़ प्रदेश बंगाल के एक भाग का नाम था, जो उत्तर मध्य काल तक रहा, किंतु प्राचीन काल में इस देश के कुछ दूसरे भी गौड़ कहलाते थे । थानेश्वर के निकट का भू-भाग इस काल में गौड़ प्रदेश कहलाता था और वहाँ के ब्राह्मणों को गौड़ ब्राह्मण कहा जाता था ।  पुराणों में उत्तर कौशल (वर्तमान फैजाबाद कमिश्नरी) को गौड़ प्रदेश कहा गया है, इसकी राजधानी [[श्रावस्ती]] थी । वर्तमान गोंड़ा जिला उसकी प्राचीन नाम की पुष्टि करता है । शशांक का राज्याधिकार सभंवत: गोंडा से मुर्शिदाबाद तक था । जब मालवा के शासक देवगुप्त को प्रभाकरवर्धन की असाध्य बीमारी और राज्यवर्धन का हूणों के संघर्ष में फँसे होने का समाचार मिला, उसने एक विशाल सेना के साथ कन्नौज पर आक्रमण कर दिया । कन्नौज के मौखरी राजा ग्रहवर्मन ने वीरतापूर्वक युध्द किया, किंतु दुर्भाग्य से वह वीरगति को प्राप्त हुए । कन्नौज पर शत्रुओं का अधिकार हो गया और ग्रहवर्मन की रानी राजश्री को कारागार में डाल दिया गया । जब इस घटना का समाचार थानेश्वर पहुँचा, उस समय विरक्त जीवन बिताने की इच्छा रखने वाले राज्यवर्धन को बाध्य होकर अपना विचार बदलना पड़ा । वह थानेश्वर के प्रबंध का भार हर्ष पर छोड़ कर स्वयं एक विशाल सेना के साथ देवगुप्त को दंड देने के लिए चल पड़ा । उसका उद्देश्य ग्रहवर्मन की मृत्यु का बदला लेना और राजश्री को बंधन-मुक्त कराना था । उसने देवगुप्त को परास्त कर दिया, किंतु गौड़ के शासक शशांक ने उसे धोखा से मार डाला । इस प्रकार जीती हुई बाजी पलट गई । जब वह दु:खद समाचार थानेश्वर पहुँचा तो वहाँ बड़ा दुःखद वातावरण था । इस विषम परिस्थिति में हर्ष का बाध्य होकर थानेश्वर की बागड़ोर संभालनी पड़ी ।  राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात हर्षवर्धन थानेश्वर राज्य का शासक हुआ । भविष्यति पुरी रम्या शूरसेना न संशय: <ref> [रामा0, उत्तर0, 70, 6]</ref> तथा-स पुरा दिव्यसंकाशो वर्षे द्वादशमें शुभे । निविष्ट: शूरसेनानां विषयंश्चाकुतोभय: ।<ref> [रामा0, उत्तर070, 1]</ref>
 
==हर्षवर्धन (606 - 647 ई०)==
 
हर्षवर्धन बहुत ही विषम स्थिति में थानेश्वर का शासक हुआ । उस समय की अभूतपूर्व विकट परिस्थितियों से वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ, वरन उसने साहसपूर्वक उनका सामना किया । वह शीघ्र ही अपनी सेना लेकर युद्ध स्थल को चल दिया । उसे सबसे पहिले अपनी बहन राजश्री को बंधनमुक्त करना था और फिर शशांक तथा देवगुप्त को दंड देना था । जब हर्ष अपनी सेना सहित युद्ध अभियान के लिए जा रहा था, तब मार्ग में उसे कन्नौज की सेना मिल गई । उसके सेनापति भांडी से उसे समाचार मिला कि राजश्री कन्नौज के कारागृह से भाग कर विंध्याचल के वन्य प्रदेश में चली गई है हर्ष ने भांडी को शत्रु से मोर्चा लेने का भार सौंपा और वह स्वयं राजश्री की खोज में चला गया । जिस समय हर्ष राजश्री के पास पहुँचा, उस समय वह सती होने के लिए चिता पर बैठने की तैयारी कर रही थी । हर्ष ने बड़ी कठिनाईपूर्वक उसे जलने से रोका और फिर उसे साथ लेकर भांडी की सेना से आ मिला । उसके बाद वह कन्नौज पर अधिकार करने के लिए आगे बढ़ा । गौड़ाधिपति शशांक ने हर्ष से युद्ध करना उचित न समझ कर कन्नौज से अपना अधिकार हटा लिया और वह अपने राज्य को वापिस चला गया । इस प्रकार हर्ष ने राजश्री के साथ ही साथ कन्नौज का भी उद्धार किया, उसने कन्नौज की राजगद्दी पर राज्यश्री को बैठने के लिए कहा, पर उसने अस्वीकार कर दिया वह अपने पति की मृत्यु से बहुत दु:खी थी, वह अपने जीवन का अंत करना चाहती थी, अथवा विरक्त होकर तपस्विनी की भाँति रहना चाहती थी । राज्यश्री ने अपने भाई हर्ष से कन्नौज का शासन भी संभालने के लिए कहा । कन्नौज राज्य के सरदार-सामन्त भी यही चाहते थे, किंतु हर्ष इसके लिए तैयार नहीं हुआ । थानेश्वर के पैतृक राज्य को सँभालने में उसकी अनिच्छा थी, बहिन का राज्य वह किस प्रकार स्वीकार कर सकता था, परन्तु परिस्थितियों ने जहाँ थानेश्वर का राज्य भार उस पर डाला, वहीं कन्नौज का शासन भी उसे  संभालना पड़ा थानेश्वर और कन्नौज दोनों का शासन हर्षवर्धन ने सं. 670 के लगभग असाधारण परिस्थितियों में स्वीकार किया । वह उत्तर भारत के दो विशाल राज्यों का शासक होने के कारण देश का सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था । उसने 'शीलादित्य' की उपाधि धारण की और वह 'सकलोत्तरापथेश्वर' कहलाया । अपने शासन को दृढ़ता और सुव्यवस्थित चलाने के लिए उसने अपने राज्य के केन्द्र कन्नौज में अपनी राजधानी रखी जो महत्व पिछले एक हजार वर्ष से मगध की राजधानी पाटलिपुत्र का था, वह हर्ष के काल में कन्नौज का था और बाद में भी मुसलमानों के आक्रमण काल तक कन्नौज महत्वपूर्ण रहा ।  
 
 
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हर्ष वीर योद्धा, सुयोग्य शासक, उदार, दानी, विद्याव्यसनी और उच्च कोटि का कवि था । व्यवस्थित शासन और योग्यता से हर्ष के व्यक्तित्व का ज्ञान होता है । हर्ष पहिले सूर्योपासक था, परन्तु कालान्तर में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था हर्ष सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता था और उन्हें आश्रय देता था वह धार्मिक और जनोपयोगी कार्यों में बड़ी उदारतापूर्वक दान किया करता था । [[प्रयाग]] में हर्ष हर अर्धकुम्भ और कुम्भ में विशाल धर्मोत्सव करता था, जिसमें सभी धर्मों के अनुयायी बड़ी संख्या में उपस्थित होते थे उत्सव के अंतिम दिन वह अपने राजकोष का समस्त धन धर्मार्थ वितरित कर दिया करता था हर्ष के दरबार मे सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट था, जिसके द्वारा रचित 'हर्ष-चरित्' प्रसिद्ध ग्रन्थ है । कवि बाणभट्ट ने संस्कृत में यह गद्य ग्रन्थ लिखा है । इस ग्रन्थ में बाणभट्ट ने हर्ष के प्रारंभिक शासन-काल का विस्तृत वर्णन किया है । इसके अलावा 'मंजुश्रीमूलकल्प' आदि ग्रन्थों से और प्राप्त कई समकालीन अभिलेखों से उस काल के इतिहास का ज्ञान होता है हर्ष ने सिंहासन पर बैठते ही एक बड़ी सेना तैयार की और उत्तरी पूर्वी अनेक राज्यों को जीत लिया हर्ष ने थोडे समय में ही अपनी विशाल सेना की सहायता से एक बहुत बड़े साम्राज्य को निर्मित कर लिया वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के लगभग सभी राज्य हर्ष के शासन के अंतर्गत हो गये थे । पश्चिम में जालंधर तक उसका शासन स्थापित हो गया । मथुरा का प्रदेश हर्ष के शासन के अंतर्गत ही रहा <ref>डा.रमाशंकर त्रिपाठी का विचार है कि मथुरा तथा मतिपुर - ये दो राज्य हर्ष के साम्राज्य से बाहर रहे ।त्रिपाठी जी हुएन-सांग के यात्रा विवरण के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं -दे.हिस्ट्री आफ कनौज,पृ.119 </ref> हर्षवर्धन ने उत्तरी भारत में अपना एकच्छत्र राज्य स्थापित कर लिया । इसके पश्चात उसने दक्षिण को भी जीतने की इच्छा होने के कारण दक्षिण पर चढ़ाई की लेकिन बादामी के तत्कालीन चालुक्य राजा पुलकेशिन, द्वितीय ने उसे हरा दिया, जिससे हर्ष की यह इच्छा पूरी न हो सकी चालुक्य-वंश के लेखों में हर्ष की उपाधि 'सकलोत्तरापथनाथ' मिलती है जिससे समग्र उत्तरापथ पर हर्ष के एकाधिकार का ज्ञान होता है हर्षवर्धन ने गद्दी पर बैठते ही एक नया संवत् प्रारम्भ किया था, जो 'हर्ष संवत्' नाम से जाना जाता है
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1600 ई. के आस-पास फरिश्ता ने मथुरा के विषय में विस्तृत विवरण किया है । महमूद गजनबी की भारत पर चढ़ाई का विस्तृत वर्णन करते हुए फरिश्ता ने  लिखा है कि महमूद मेरठ में लूटपाट कर महावन पहुँचा था । महावन को लूटने के बाद वह मथुरा पहुँचा । फरिश्ता ने लिखा है--"सुलतान ने मथुरा में मूर्तियों को भग्न करवाया और बहुत-सा सोना-चांदी प्राप्त किया वह मंदिरों को भी तोड़ना चाहता था, पर उसने यह देखकर कि यह काम बड़ा श्रमसाध्य है, अपना विचार बदल दिया [संदर्भ] उसने गजनी के गवर्नर को मथुरा की बाबत जो लिखा उससे प्रमाणित होता है कि इस शहर तथा यहाँ की इमारतों का उसके मन पर बड़ा असर पड़ा । सुलतान मथुरा में बीस दिन तक ठहरा इस अवधि में शहर की बड़ी बर्बादी की गई "[संदर्भ देखें]  
==अलबेरूनी==
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महमूद के आक्रमण से मथुरा नगर की बड़ी क्षति हुई । यह आक्रमण एक बड़े तूफान की तरह का था । मथुरा को लूटने और बर्बाद करने के बाद लुटेरे यहाँ रूके नहीं । नगर को व्यवस्थित करने और सुधारने में कुछ समय अवश्य लगा होगा कूलंचन्द्र के बाद उसके वंश के शासकों का कोई विवरण नहीं मिलता । 
11वीं शताब्दी के लेखक अलबेरूनी ने लिखा है कि श्रीहर्ष का संवत् मथुरा और कन्नौज में प्रचलित था हर्षवर्धन ने एक बड़े एवं दृढ़ साम्राज्य की स्थापना के साथ साथ अपने शासन काल में साहित्य, कला और धर्म की भी बहुत उन्नति कराई । बाणभट्ट तथा मयूर-जैसे प्रसिद्ध लेखक उसकी सभा में थे बाण का विद्वान पुत्र भूषणभट्ट, आचार्य, दंडी, मातंग-दिवाकर तथा मानतुंगाचार्य भी हर्ष की सभा के रत्न थे हर्ष स्वयं एक अच्छा लेखक था । उसके द्वारा रचित तीन नाटक 'रत्नावली', 'प्रियदर्शिका' तथा 'नागानं'द मिले हैं, इन रचनाओं से हर्ष की साहित्यिक प्रतिभा का ज्ञान होता है नालंदा के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की हर्ष ने सहायता की । उसने नालंदा में एक विशाल बौद्ध विहार निर्मित कराया । हर्ष बौद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य सभी धर्मों का भी आदर करता था । उसकी दानशीलता बहुत प्रसिद्ध है । प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में गंगा यमुना के संगम पर होने वाले कुम्भ में हर्ष और राजश्री दान किया करते थे । कनौज नगर की हर्ष के शासन-काल में बड़ी उन्नति हुई । यहाँ अनेक भव्य इमारतों का निर्माण हुआ हर्ष की राजसभा में धार्मिक शास्त्रार्थ हुआ करते थे सम्राट हर्ष ने हुएन-सांग की विद्वत्ता और धार्मिकता से अत्यंत प्रभावित हो कर कन्नौज की राजसभा में उसे बहुत सम्मानित किया था हर्ष के शासन-काल में प्रजा बहुत सुखी थी । राज्य का प्रबंध सुव्यवस्थित और अच्छा था ।  अपराधों के लिए कठोर दंड व्यवस्था थी अधिकारी  अपने कर्तव्यों का बड़ी सतर्कता और सजगता से पालन करते थे कृषकों से जमीन की आय का छठा भाग कर के रूप में लिया जाता था । सभी धर्मों के मानने वालों को पूरी स्वतन्त्रता थी । मथुरा में उस समय पौराणिक हिंदू धर्म अपने चरम की ओर हो चला था, ऐसा उस समय की कला-कृतियों से अनुमान होता है ।
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==अरूबेरूनी==
हुएन-सांग नाम का प्रसिध्द चीनी यात्री भी हर्ष के शासन-काल में भारत आया था । हुएनसांग एक चीनी विद्वान और बौद्ध भिक्षु था । उसका जन्म और देहावसान चीन देश में क्रमश संवत् 653 और संवत् 721 में हुआ था । उसने अपने देश में बौद्ध ग्रंथों के चीनी अनुवाद पढ़े, जो उसे अशुद्ध लगे । उसने भारत जाकर उन ग्रंथों का पालि और संस्कृत भाषाओं मे लिखे हुए मूल संस्करण उपलब्ध करने का निश्चय किया, जिससे वह स्वयं उनका शुद्ध चीनी अनुवाद कर सके उक्त निश्चय की पूर्ति के लिए वह भारत चल पड़ा । मध्य एशिया के मार्ग से होता हुआ बहुत ही मुश्किल से यहाँ पहुँचा यह उत्तर–पश्चिमी सीमा से सं. 687 में पहुँचा और 2 वर्ष तक रहा था फिर पंचनद प्रदेश में होता हुआ वह वैराट गया और वहाँ से मथुरा आया था ।  
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महमूद गजनवी के आक्रमण के थोड़े समय बाद अलवेरूनी नामक प्रसिद्ध मुस्लिम लेखक भारत आया अलवेरूनी महमूद के दरबार में रहा था । उसने यहाँ आकर संस्कृत में योग्यता प्राप्त की । भारत में कुछ दिन रहने के बाद अलबेरूनी ने 1030 ई. में 'किताबुलहिंद' नाम की एक बड़ी किताब लिखी जो भारतके विषय में थी । इस पुस्तक में उसने भारतीय इतिहास, साहित्य, दर्शन, ज्योतिष आदि विषयओं और यहाँ के नागरिकों का विस्तृत विवरण किया है । अलबेरूनी ने 'वायु पुराण', 'वृहत्संहिता' आदि पुस्तकों के आधार पर शूरसेन तथा मथुरा का भी विवरण किया [संदर्भ देखें] अलवेरूनी ने लिखा है कि 'मथुरा नगर यमुना-तट पर बसा है ।' भगवान वासुदेव (कृष्ण) के मथुरा में जन्म और उनके चरित्र का वर्णन अलबेरूनी ने विस्तार से किया है । [संदर्भ देखें] परंतु उसमें कई बातें भ्रामक लगती हैं । अलवेरूनी ने लिखा है कि कृष्ण के पिता वासुदेव शूद्र थे और वे जट्टवंश के पशुपालक थे अपनी पुस्तक में अलबेरूनी ने मथुरा में व्यवह्र्त संवत् का भी विवरण किया है अलवेरूनी के अनुसार मथुरा और कन्नौज के राज्यों में श्रीहर्ष का संवत् चलता था । [संदर्भ देखें] महमूद गजनवी के आक्रमण के बाद कुछ समय तक मथुरा प्रदेश की दशा का कहीं ठीक विवरण नहीं मिलता । इस समय हरियाणा प्रदेश के तोमरों ने दक्षिण की ओर अपने राज्य  का प्रसार किया । दूसरी तरफ राजस्थान के चाहमानों ने भी मथुरा की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था अजमेर से दिल्ली तक का प्रदेश पर धीरे-धीरे चाहमानों ने अधिकार कर लिया ग्वालियर पर कछवाहा राजपूतों ने अपना अधिकार कर लिया । कछवाहों तथा बुदेंलखंड के चंदलों ने मुसलमानों से कई बार युध्द किये महमूद के बाद कछवाहों तथा चंदेलों का आक्रमण प्रतीहार राजाओं के राज्य कन्नौज तक होने लगा 11 वीं शताब्दी के अन्त में राष्ट्रकूट वंश का अधिकार कुछ दिनों तक कन्नौज पर रहा
इस तरह वह प्राय: 17 वर्ष तक पूरे भारत में घूमता रहा उसने बौद्ध धर्म से संबंधित विविध स्थानों की यात्रा की और [[बौद्ध]] ग्रंथों के प्रमाणिक संस्करण प्राप्त किये । वह अपने साथ बहुसंख्यक हस्त लिखित ग्रंथों के अतिरिक्त इस देश से कुछ अन्य बहुमूल्य भारतीय सामग्री लेकर चीन गया, तब वहाँ के शासक ने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया । उसके बाद उसने अपना शेष जीवन भारत से उपलब्ध बौद्ध ग्रंथो के चीनी भाषा में अनुवाद करने में व्यतीत किया ।  
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==गाहडवाल वंश==
==हुएन-सांग==
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11 शताब्दी में उत्तर-भारत में गाहडवाल वंश का राज्य स्थापित हुआ । इस वंश के प्रथम महाराजा चंद्रदेव थे इसने अपने शासन का बहुत विस्तार किया कनौज से लेकर बनारस तक महाराजा चंद्रदेव का राज्य था । पंजाब के तुरूष्कों से भी इसने युध्द किया
हुएन-सांग अपनी भारत यात्रा में सम्राट हर्षवर्धन से भेंट करने कन्नौज गया और वहाँ कई महीनों तक रहा था । वह सन् 636 में कन्नौज पहुँचा उस समय तक हर्ष 30 वर्ष से भी अधिक काल तक शासन कर चुका था और उसके यश, प्रताप, बल, विक्रम, और वैभव की देश भर में धूम थी । उसने हुएनसांग का बहुत आदर किया और उसे अपने दरबार में समस्त धर्माचार्यों में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया । इस कारण वह विभिन्न धर्मों के विद्वानों का कोप-भाजन भी हुआ, फिर भी उसने उस विदेशी पर्यटक के आदर-सम्मान में कोई कमी नहीं आने दी वह प्रयाग में आयोजित कुम्भ नामक धर्मोंत्सव में भी हुएनसांग को ले गया और वहाँ उसने अन्य धर्म वालों धर्माचार्यों के साथ उसके शास्त्रार्थ की व्यवस्था कराई किंतु बिना शास्त्रार्थ कराये ही उसने हुएनसांग की विजयी घोषित कर दिया, ताकि उस विदेशी विद्वान का किसी प्रकार का अपमान न हो यह हर्ष की उदारता ही थी कि हुएनसांग भारतवर्ष में रह कर अत्यधिक आदर-सम्मान और सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्राप्त करता रहा जब वह यहाँ से जाने लगा, तब उसे इस देश की बहुमूल्य सामग्री को अपने साथ ले जाने की सभी राजकीय सुविधाएँ दी गई थीं
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==गोविन्दचंन्द्र (लगभग 1112 - 1155 ई०)==
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चंद्रदेव के बाद कुछ समय तक उसका पुत्र मदनचंद्र शासन का अधिकारी रहा । उसके बाद उसका पुत्र गोविदचंद्र शासक हुआ जो बहुत यशस्वी हुआ । इसके समय के लगभग चालीस अभिलेख मिले है । गोविंदचंद्र ने अपने राज्य का विस्तार किया । संपूर्ण उत्तर प्रदेश और मगध का एक बड़ा भाग उसके अधिकार में आ गया । पूर्व में पाल तथा सेन राजाओं से गोविंदचंद्र का युध्द हुआ । चंदेलों को हराकर उसने उनसे पूर्वी मालवा छीन लिया दक्षिण कोशल के कलचुरि राजाओं से भी उसका युद्ध हुआ राष्ट्रकूट, चालुक्य, चोल तथा काश्मीर के राजाओं के साथ गोविदचंद्र की राजनैतिक मैत्री रही । मुसलमानों को आगे बढ़ने से रोकने में भी गोविंदचंद्र सफल  भूमिका रही गोविंदचंद्र नेउत्तर भारत में एक विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की । उसके शासन-काल में 'मध्य देश' में शांति रही । कन्नौज नगर के गौरव को गोविदचंद्र ने एक बार फिर गौरवान्वित किया गोविंदचंद्र  वैष्णव शासक था; इसने काशी के आदिकेशव घाट में स्नान कर ब्राह्मणों को दक्षिणा दी । गोविन्दचंन्द्र की रानी कुमारदेवी ने सारनाथ में एक बौद्ध विहार को निर्मित कराया था । गोविंदचंद्र ने भी श्रावस्ती में बौद्ध भिक्षुओं को छह गाँव दान में दे दिये थे । इस बातों से गोविन्दचंन्द्र की धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का प्रमाण मिलता है ताम्रपत्रों में गोविन्दचंद्र की 'महाराजाधिराज' और 'विविध विद्या-विचार वाचस्पति' नामक उपाधियाँ मिलती है, जिससे प्रमाणित होता है कि गोविन्दचंन्द्र विद्वान था इसके एक मंत्री लक्ष्मीधर ने 'कृत्यकल्पतरू' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें राजनीति तथा धर्म के सम्बन्ध में अनेक बातों का विवरण है गोविंदचंद्र के सोने और तांबे के सिक्के मथुरा से लेकर बनारस तक मिलते है इन पर एक तरफ 'श्रीमद् गोविंदचंद्रदेव' लिखा है और दूसरी ओर बैठी हुई लक्ष्मी जी की मूर्ति है । ये सिक्कें चवन्नी से कुछ बड़े है । ताँबे के सिक्के कम मिले हैं ।  
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==विजयचंद्र या विजयपाल (1155 -70)==
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गोविंदचंद्र के पश्चात उसका बेटा विजयचंद्र शासक हुआ । विजयचंद्र वैष्णव था । इसने अपने राज्य में कई विष्णु-मंदिरों को निर्मित कराया । मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर सं० 1207 (1150 ई०) में विजयचंद्र ने एक भव्य मंदिर को निर्मित कराया था । [संदर्भ] संभवत: उस समय विजयचंद्र युवराज था और अपने पिता की ओर से मथुरा प्रदेश का शासक नियुक्त था । अभिलेख में राजा का नाम 'विजयपालदेव' है । 'पृथ्वीराजरासों' में भी विजयचंद्र का नाम 'विजयपाल' ही मिलता है । रासो के अनुसार विजयपाल ने कटक के सोमवंशी राजा और दिल्ली, पाटन, कर्नाटक आदि राज्यों से युध्द किया और विजयी हुआ । [संदर्भ] इसने अपनी जीवनकाल में ही अपने पुत्र जयचंद्र को राजकाज सौंप दिया था ।
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==जयचंद्र (1170 - 94 ई०)==
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'रासों' के अनुसार जयचंद्र दिल्ली के राजा अनंगपाल की पुत्री से उत्पन्न हुआ यह विजयचंद्र का पुत्र था । जयचंद्र द्वारा रचित 'रंभामंजरी नाटिका' में वर्णित है कि इसने चंदेल राजा मदनवर्मदेव को हराया था । इस नाटिका और 'रासों' से पता चलता है कि जयचंद्र ने  शिहाबुद्दीन गोरी को कई बार पराजित किया । मुस्लिम लेखकों के वृतांत से पता चलता है कि जयचंद्र के शासन काल में गाहडवाल साम्राज्य बहुत विशाल हो गया था इब्नअसीर नामक लेखक ने तो उसके राज्य की सीमा चीन से लेकर मालवा तक लिखी है । पूर्व में बंगाल के सेन राजाओं से जयचंद्र का युद्ध लम्बे समय तक चला जयचंद्र के शासन-काल में बनारस और कन्नौज की बहुत उन्नति हुई कन्नौज, असनी (जि० फतहपुर) तथा बनारस में जयचंद्र ने मजबूत किले बनवाये । इसकी सेना बहुत विशाल थी गोविंदचंद्र की तरह जयचंद्र भी विद्वानों का आश्रयदाता था । प्रसिद्ध 'नैषधमहाकाव्य' के रचयिता श्रीहर्ष जयचंद्र की राजसभा में थे । उन्होंनें कान्यकुब्ज सम्राट के द्वारा सम्मान-प्राप्ति का विवरण अपने महाकाब्य के अन्त में किया है [संदर्भ देखें] जयचंद्र के द्वारा राजसूय यज्ञ करने के भी विवरण मिलते है [संदर्भ]
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==मुसलमानों द्वारा उत्तर भारत की विजय==
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परन्तु तत्कालीन प्रमुख शक्तियों में एकता न थी गाहडवाल, चाहमान, चन्देह, चालुक्य तथा सेन एक-दूसरे के शत्रु थे । जयचंद्र ने सेन वंश के साथ लंबी लड़ाई की अपनी शक्ति को कमजोर कर लिया । चाहमान शासक पृथ्वीराज से उसकी शत्रुता थी । इधरचंदेलों और चाहमानों के बीच अनबन थी । 1120 ई. में जब मुहम्मद गौरी भारत-विजय का सपना लिये पंजाब में बढ़ता आ रहा था ,पृथ्वीराज ने चंदेल- शासक परमर्दिदेव पर चढ़ाई कर उसके राज्य को नष्ट कर दिया । फिर उसने चालुक्यराज भीम से भी युद्ध किया । उत्तर भारत में शासकों की इस आपसी दुश्मनी का मुसलमानों ने फायदा उठाया । शिहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी पंजाब से बढ़ कर गुजरात गया । उसने पृथ्वीराज के राज्य पर भी आक्रमण किया [संदर्भ] 1191 ई० में थानेश्वर के पास तराइन के मैदान में पृथ्वीराज और गौरी की सेनाओं के बीच युध्द हुआ गौरी घायल हो गया और हार कर भाग गया । दूसरे वर्ष वह फिर बड़ी सेना लेकर आया । इस बार फिर घमासान युद्ध हुआ, इस युध्द में पृथ्वीराज हार गया और मारा गया । अजमेर और दिल्ली पर मुसलमानों का अधिकार हो गया । कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत का प्रशासक नियुक्त किया गया 1194 ई. में कुतुबुद्दीन की कमान में मुसलमानों ने कन्नौज पर चढ़ाई की । चंदावर (जि० इटावा) के युद्ध में जयचंद्र ने बहुत बहादुरी से मुसलमानों से युध्द किया । मुस्लिम लेखकों के लेखों से पता चलता है कि चंदावर का युद्ध भंयकर था । कुतुबुद्दीन की फौज में पचास हजार सैनिक थे । जयचंद्र ने स्वंय अपनी सेना का संचालन किया वह हार गया और मारा गया इस समय कन्नौज से लेकर बनारस तक मुसलमानों का अधिकार हो गया । इस प्रकार 1194 ई० में कन्नौज साम्राज्य का पतन हुआ और मथुरा प्रदेश पर भी मुसलमानों का शासन हो गया
  
  
 
==टीका-टिप्पणी==
 
==टीका-टिप्पणी==
 
<references/>
 
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[[category:राजनैतिक इतिहास]]
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[[category:इतिहास]]

११:४७, १८ जून २००९ का अवतरण

इतिहास

मध्य काल : मध्य काल (2)


मध्य काल (लगभग 550 ई० से 1194 ई० तक)

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग आधी शताब्दी तक उत्तर भारत की राजनैतिक स्थिति अस्थिर रही । छोटे-बड़े राजा अपनी शक्ति बढ़ाने लगे । सम्राट् हर्षवर्धन के शासन में आने तक कोई ऐसी शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता न थी जो छोटे-छोटे राज्यों को सुसंगठित करके शासित करती । छठी शती के मध्य में मौखरी, वर्धन, गुर्जन, मैत्रक कलचुरि आदि राजवंशों का अभ्युदय प्रारम्भ हुआ । मथुरा प्रदेश पर अनेक वंशों का राज्य मध्यकाल में रहा । यहाँ अनेक छोटे बड़े राज्य स्थापित हो गये थे और उनके शासक अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रयास में आपस लड़ रहे थे । उस समय देश में दो राजवंशों का उदय हुआ, मौखरी राजवंश और वर्धन राजवंश ।

मौखरीवंश का शासन

गुप्त-काल के पहले भी गया और कोटा (राजस्थान) के आसपास संज्ञान में आता है । मौखरियों का उदय मगध से हुआ था, वे गुप्त सम्राटों के अधीनस्थ सामंत थे । गुप्तों की आपसी कलह और कमजोरी का लाभ उठा कर उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया और कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया । मौखरी वंश का प्रथम राजा ईशानवर्मन था,वह बड़ा शाक्तिशाली राजा था । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग 554 ई. में मौखरी शासक ईशानवर्मन ने 'महाराजाधिराज' उपाधि धारण की । ईशानवर्मन के समय में मौखरी राज्य की सीमाएं पूर्व में मगध तक, दक्षिण में मध्य प्रांत और आंध्र तक, पश्चिम में मालवा तथा उत्तर-पश्चिम में थानेश्वर राज्य तक थी । उसके राज्य की दो राजधानियाँ थीं,

  1. कन्नौज और
  2. मथुरा ।

ईशानवर्मन के शासन के बाद जिन शासकों ने कन्नौज तथा मथुरा प्रदेश पर शासन किया वे क्रमशः शर्ववर्मन, अवंतिवर्मन, तथा ग्रहवर्मन नामक मौखरी शासक थे । इन शासकों की मुठभेड़ें गुप्त राजाओं के साथ काफी समय तक होती रहीं । बाणभट्ट के हर्षचरित से ज्ञात होता है कि छठी शती के अंत में और सातवीं के प्रारम्भ में मौखरी शासक शक्ति शाली थे । ईशानवर्मन या उसके उत्तराधिकारी के काल में हूणों ने भारत पर आक्रमण किया परन्तु उन्हें मौखरियों शासकों ने पराजित कर पश्चिम की ओर भगा दिया । ग्रहवर्मन का विवाह, 606 ई० के लगभग थानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री से हुआ । इस वैवाहिक संबंध से उत्तर भारत के दो प्रसिद्ध राजवंश--वर्धन तथा मौखरी एक सूत्र में जुड़ गये । लेकिन प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात मालव के राजा देवगुप्त ने ग्रहवर्मन की हत्या कर दी और राज्यश्री को कन्नौज में कारागार में ड़ाल दिया । राज्यश्री के बड़े भाई राज्यवर्धन ने मालव पर आक्रमण कर देवगुप्त को हरा दिया । पंरतु इस जीत के बाद ही गौड़ के शासक शशांक ने राज्यवर्धन को धोखे से मार डाला । पु्ष्यभूति ने ई० छठी शती के प्रारम्भ में थानेश्वर में एक नये राजवंश की नींव डाली । इस वंश का पाँचवा और शक्तिशाली राजा प्रभाकरवर्धन (लगभग 583 - 605 ई०) हुआ । उसकी उपाधि 'परम भट्टारक महाराजाधिराज' थी । उपाधि से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था । बाणभट्ट द्वारा रचित 'हर्षचरित' से पता चलता है कि इस शासक ने सिंध, गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया था । गांधार प्रदेश तक के शासक प्रभाकरवर्धन से डरते थे तथा उसने हूणों को भी पराजित किया था, जो दोबारा आक्रमण करने लगे थे । हर्षचरित से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से पहले राज्यवर्धन को उत्तर दिशा में हूणों का दमन करने के लिए भेजा था । संभवत: उस समय हूणों का अधिकार उत्तरी पंजाब और काश्मीर के कुछ भाग पर ही था । शक्तिशाली प्रभाकरवर्धन का शासन पश्चिम में व्यास नदी से लेकर पूर्व में यमुना तक था । मथुरा राज्य की पूर्वी सीमा पर था । राजा प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन, हर्षवर्धन और एक पुत्री राज्यश्री थी । राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरीवंश के शासक ग्रहवर्मन से हुआ था । प्रभाकरवर्धन के निधन के पश्चात ही मालव के शासक ने ग्रहवर्मन की हत्या कर दी थी । राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात हर्षवर्धन थानेश्वर राज्य का शासक हुआ ।

गुर्जर-प्रतीहार वंश

यशोवर्मन के पश्चात कुछ समय तक के मथुरा प्रदेश के इतिहास की पुष्ट जानकारी नहीं मिलती । आठवीं शती के अन्त में उत्तर भारत में गुर्जर प्रतीहारों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी । गुर्जर लोग पहले राजस्थान में जोधपुर के आस-पास निवास करते थे । इस वजह से उनके कारण से ही लगभग छठी शती के मध्य से राजस्थान का अधिकांश भाग 'गुर्जरन्ना-भूमि' के नाम से जाना था । आज तक यह विवाद का विषय है कि गुर्जर भारत के ही मूल निवासी थे या हूणों आदि की ही भाँति वे कहीं बाहर से भारत आये थे । भारत में सबसे पहले गुर्जर राजा का नाम हरिचंद्र मिलता है, जिसे वेद-शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण कहा गया है । उसकी दो पत्नियाँ थी- एक ब्राह्मण स्त्री से प्रतीहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति और भद्रा नाम की एक क्षत्रिय पत्नी से प्रतीहार-क्षत्रिय वंश हुआ, प्रतीहार-क्षत्रिय वंश के पुत्रों ने शासन का कार्य भार संभाला । गुप्त-साम्राज्य के समाप्त होने के बाद हरिचंद्र ने अपने क्षत्रिय-पुत्रों की मदद से जोधपुर के उत्तर-पूर्व में अपने राज्य को विस्तृत किया । इनका शासन-काल सम्भवतः 550 ई० से 640 ई० तक रहा । उनके बाद प्रतीहार-क्षत्रिय वंश के दस राजाओं ने लगभग दो शताब्दियों तक राजस्थान तथा मालवा के एक बड़े भाग पर शासन किया । इन शासकों ने पश्चिम की ओर से बढ़ते हुए अरब लोगों की शक्ति को रोकने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।

अरब लोगों के आक्रमण

सातवीं शती में अरबों ने अपनी शक्ति को बहुत संगठित कर लिया था । सीरिया और मिस्त्र पर विजय के बाद अरबों ने उत्तरी अफ्रीका, स्पेन और ईरान पर भी अपना अधिकार कर लिया । आठवीं शती के मध्य तक अरब साम्राज्य पश्चिम में फ्रांस से लेकर पूर्व में अफगानिस्तान तक फैल गया था । 712 ई0 में उन्होंनें सिंध पर हमला किया । सिंध का राजा दाहिर ने बहुत वीरता से युध्द किया और अनेक बार अरबों को हराया । लेकिन युध्द में वह मारा गया और सिंध पर अरबों का अधिकार हो गया । इसके बाद अरब पंजाब के मुलतान तक आ गये थे । उन्होंने पश्चिम तथा दक्षिण भारत को भी अधिकार में लेने की बहुत कोशिश की लेकिन प्रतीहारों एवं राष्ट्रकूटों ने उनकी सभी कोशिशों को नाकाम कर दिया । प्रतीहार शासक वत्सराज के पुत्र नागभट ने अरबों को हराकर उनकी बढ़ती हुई शक्ति को बहुत धक्का लगाया ।

कन्नौज के प्रतीहार शासक

नवीं शती के शुरु में कनौज पर प्रतीहार शासकों का अधिकार हो गया था । वत्सराज के पुत्र नागभट ने संभवतः 810 ई. में कन्नौज पर विजय प्राप्त कर अपने अधिकार में लिया । उस समय दक्षिण में राष्ट्रकूटों तथा पूर्व में पाल-शासकों बहुत शक्तिशाली थे । कन्नौज पर अधिकार करने के लिए ये दोनों राजवंश लगे हुए थे । पाल-वंश के शासक धर्मपाल (780-815 ई०) ने बंगाल से लेकर पूर्वी पंजाब तक अपने राज्य को विस्तृत कर लिया और आयुधवंशी राजा चक्रायुध को कनौज का शासक बनाया था । नागभट ने धर्मपाल को हराकर चक्रायुध से कनौज का राज्य छीन लिया और सिंध प्रांत से लेकर कंलिंग तक के विशाल भूभाग पर नागभट का अधिकार हो गया । मथुरा प्रदेश इस समय से दसवीं शती के अंत तक गुर्जर-प्रतीहार साम्राज्य के अंतर्गत रहा ।

नागभट तथा मिहिरभोज

इसके कुछ समय बाद ही नागभट को एक अधिक शक्तिशाली राष्ट्रकूट राजा गोविंद तृतीय से युध्द करना पड़ा । नागभट उसका सामना न कर सका और राज्य छोड़ कर भाग गया । गोविंद तृतीय की सेनाएं उत्तर में हिमालय तक पहँच गई किंतु महाराष्ट्र में अराजकता फैल जाने के कारण गोविंद को दक्षिण लौटना पड़ा । नागभट के बाद उसका पुत्र रामभद्र लगभग 833 ई० में कनौज साम्राज्य का राजा हुआ । उसका बेटा मिहिरभोज (836 -885 ईं0 )बड़ा प्रतापी व शक्तिशाली राजा हुआ । उसके भी पालों और राष्ट्रकूटों के साथ युद्ध चलते रहे । पहले तो भोज को कई असफलताओं मिली, परंतु बाद में उसने भारत की दोनों प्रमुख शक्तियों को हराया । उसके अधिकार में पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मालवा भी आ गये । इतने विशाल साम्राज्य को व्यवस्थित करने का श्रेय मिहिरभोज को ही जाता है ।

महेंद्रपाल (लगभग 885 - 910 ई0)

मिहिरभोज का पुत्र महेन्द्रपाल अपने पिता के ही समान था । उसने अपने शासन में उत्तरी बंगाल को भी प्रतीहार साम्राज्य में मिला लिया था । हिमालय से लेकर विंध्याचल तक और बंगाल की खाड़ी से लेकर अरब सागर तक प्रतीहार साम्राज्य का शासन हो गया था । महेंन्द्रपाल के शासन काल के कई लेख कठियावाड़ से लेकर बंगाल तक में प्राप्त हुए है । इन लेखों में महेंद्रपाल की अनेक उपाधियाँ मिलती हैं । 'महेन्द्रपुत्र', 'निर्भयराज', 'निर्यभनरेन्द्र' आदि उपाधियों से महेन्द्रपाल को विभूषित किया गया था ।

महीपाल (912 - 944)

महेन्द्रपाल के दूसरे बेटे का नाम महीपाल था और वह अपने बड़े भाई भोज द्वितीय के बाद शासन का अधिकारी हुआ । संस्कृत साहित्य के विद्वान राजशेखर इसी के शासन काल में हुए, जिन्होंने महीपाल को 'आर्यावर्त का महाराजाधिराज' वर्णित किया है और उसकी अनेक विजयों का वर्णन किया है । अल-मसूदी नामक मुस्लिम यात्री बगदाद से लगभग 915 ई० में भारत आया । प्रतीहार साम्राज्य का वर्णन करते हुए इस यात्री ने लिखा है, कि उसकी दक्षिण सीमा राष्ट्रकूट राज्य से मिलती थी और सिंध का एक भाग तथा पंजाब उसमें सम्मिलित थे । प्रतीहार सम्राट के पास घोड़े और ऊँट बड़ी संख्या में थे । राज्य के चारों कोनों में सात लाख से लेकर नौ लाख तक फौज रहती थी । उत्तर में मुसलमानों की शक्ति को तथा दक्षिण में राष्ट्रकूट शक्ति को बढ़ने से रोकने के लिए इस सेना को रखा गया था ।[संदर्भ देखें]

राष्ट्रकूट-आक्रमण

916 ई० के लगभग दक्षिण से राष्ट्रकूटों ने पुन: एक बड़ा आक्रमण किया । इस समय राष्ट्रकूट- शासक इंद्र तृतीय का शासन था । उसने एक बड़ी फौज लेकर उत्तर की ओरचढ़ाई की और उसकी सेना ने बहुत नगरों को बर्बाद किया, जिसमें कनौज प्रमुख था । इन्द्र ने महीपाल को हराने के बाद प्रयाग तक उसका पीछा किया । किन्तु इंद्र को उसी समय दक्षिण लौटना पड़ा । इंद्र के वापस जाने पर महीपाल ने फिर से अपने राज्य को संगठित किया किन्तु राष्ट्रकूटों के हमले के बाद प्रतीहार राज्य संम्भल नही पाया और उसका गौरव फिर से लौट कर नहीं आ सका । लगभग 940 ई० में राष्ट्रकूटों ने उत्तर में बढ़ कर प्रतीहार साम्राज्य का एक बड़ा भाग अपने राज्य में मिला लिया । इस प्रकार प्रतीहार शासकों का पतन हो गया ।

परवर्ती प्रतीहार शासक (लगभग 944 - 1035 ई०)

महीपाल केबाद क्रमशः महेंन्द्रपाल, देवपाल, विनायकपाल, विजयपाल, राज्यपाल, त्रिलोचनपाल तथा यशपाल नामक प्रतीहार शासकों ने राज्य किया । इनके समय में कई प्रदेश स्वतंत्र हो गये । महाकोशल में कलचुरि, बुदेंलखंड में चंदेल, मालवा में परमार, सौराष्ट्र में चालुक्य, पूर्वी राजस्थान में चाहभान, मेवाड़ में गुहिल तथा हरियाना में तोमर आदि अनेक राजवंशों ने उत्तर भारत में स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया । इन सभी राजाओं में कुछ समय तक शासन के लिए खींचतान होती रही

प्रतीहार-शासन में मथुरा की दशा

नवीं शती से लेकर दसवीं शतीं के अंत तक लगभग 200 वर्षों तक मथुरा प्रदेश गुर्जर प्रतीहार-शासन में रहा । इस वंश में मिहिरभोज, महेंन्द्रपाल तथा महीपाल बड़े प्रतापी शासक हुए । उनके समय में लगभग पूरा उत्तर भारत एक ही शासन के अन्तर्गत हो गया था । अधिकतर प्रतीहारी शासक वैष्णव या शैव मत को मानते थे । उस समय के लेखों में इन राजाओं को विष्णु, शिव तथा भगवती का भक्त बताया गया है । नागभट द्वितीय, रामभद्र तथा महीपाल सूर्य-भक्त थे । प्रतीहारों के शासन-काल में मथुरा में हिंदू पौराणिक धर्म की बहुत उन्नति हुई । मथुरा में उपलब्ध तत्कालीन कलाकृतियों से इसकी पुष्टि होती है । नवी शती के प्रारम्भ का एक लेख हाल ही में श्रीकृष्ण जन्म स्थान से मिला है । इससे राष्ट्रकूटों के उत्तर भारत आने तथा जन्म-स्थान पर धार्मिक कार्य करने का ज्ञान होता है । संभवत: राष्ट्रकूटों ने अपने हमलों में धार्मिक केन्द्र मथुरा को कोई हानि नहीं पहुँचाई । नवीं और दसवीं शती में कई बार भारत की प्रमुख शक्तियों में प्रभुत्व के लिए संघर्ष हुए । इन सभी का मुख्य उद्देश्य भारत की राजधानी कन्नौज को जीतना था । मथुरा को इन युद्धों से कोई विशेष हानि हुई हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता ।

महमूद गजनवी का आक्रमण

ग्यारहवीं शती के प्रारम्भ में उत्तर -पश्चिम की तरफ से मुसलमानों के आक्रमण होने लगे । गजनी के सुल्तान महमूद ने सत्रह बार देश पर आक्रमण किया । महमूद गजनवी के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य लूटपाट करके वापस गजनी लौटना होता था । महमूद गजनवी ने अपने नौवें आक्रमण का निशाना मथुरा को बनाया । 1017 ई0 में उसने आक्रमण मथुरा पर आक्रमण किया । महमूद के मीर मुंशी 'अल-उत्वी' ने अपनी पुस्तक 'तारीखे यामिनी' में इस आक्रमण का वर्णन किया है- "महावन में उस समय कूलचंद नाम का राजा था । उसका बहुत बड़ा किला था । (संभवतः इस समय मथुरा प्रदेश का राजनैतिक केंद्र महावन ही था ।) कूलचंद बड़ा शक्तिशाली राजा था, उससे युध्द में कोई जीत नहीं सका था । वह विशाल राज्य का शासक था । उसके पास अपार धन था और वह एक बहुत बड़ी सेना का स्वामी था और उसके सुदृढ किले कोई भी दुश्मन नहीं ढहा सकता था । जब उसने सुलतान (महमूद) की चढ़ाई की बाबत सुना तो अपनी फौज इकट्ठी करके मुकाबले के लिए तैयार हो गया । परन्तु उसकी सेना शत्रु को हटाने में असफल रही और सैनिक मैदान छोड़ कर भाग गये, जिससे नदी पार निकल जाये । जब कूलचंद्र के लगभग 50,000 आदमी मारे गये या नदी में डूब गये, तब राजा ने एक खंजर लेकर अपनी स्त्री को समाप्त कर दिया और फिर उसी के द्वारा अपना भी अंत कर लिया । सुलतान को इस विजय में 185 गाड़ियाँ, हाथी तथा अन्य माल हाथ लगा । "


इसके बाद सुलतान महमूद की फौज मथुरा पहुँची । यहाँ का वर्णन करते हुए उत्वी लिखता है - "इस शहर में सुलतान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बता कर देवताओं की कृति बताई । नगर का परकोटा पत्थर का बना हुआ था, उसमें नदी के ओर ऊँचे तथा मजबूत आधार-स्तंभों पर बने हुए दो दरवाजे स्थित है । शहर के दोनों ओर हजारों मकान बने हुए थे जिनमे लगे हुए देवमंदिर थे । ये सब पत्थर के बने थे, और लोहे की छड़ों द्वारा मजबूत कर दिये गये थे । उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी । शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है । सुलतान महसूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न खर्च करने पड़ेगें और उस निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये ।' सुलतान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें धराशायी कर दिया जाय । बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही । इस लूट में महसूद के हाथ खालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखे बहुमूल्य मणिक्यों से जड़ी हुई थी । इनका मूल्य पचास हजार दीनार था । केवल एक सोने की मूर्ति का ही वजन चौदह मन था । इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर गजनी ले जाया गया ।" [दे.ग्राउज - मेम्वायर, पृ. 31-32]


महमूद ने मथुरा की बहुत बरबादी की इसकी चर्चा अन्य मुसलमान लेखकों ने भी की है । इनमें बदायूँनी तथा फरिश्ता के विवरण उल्लेखनीय है । बदायूँनी ने लिखा है - "मथुरा काफिरों के पूजा की जगह है । यहाँ वसुदेव के लड़के कृष्ण पैदा हुए । यहाँ असंख्य देव-मंदिर है । सुलतान (महमूद गजनवी) ने मथुरा को फतह किया और उसे बरबाद कर डाला । मुसलमानों के हाथ बड़ी दौलत लगी । सुलतान की आज्ञा से उन्होंने एक देवमूर्ति को तोड़ा, जिसका वजन 98,300 मिश्कल [संदर्भ देखें] खरा सोना था । एक बेशकीमती पत्थर मिला, जो तोल में 450 मिश्कल था । इन सबके अतिरिक्त एक बड़ा हाथी मिला, जो पहाड़ के मानिंद था । यह हाथी राजा गोविदंचंद का था ।"[संदर्भ]


1600 ई. के आस-पास फरिश्ता ने मथुरा के विषय में विस्तृत विवरण किया है । महमूद गजनबी की भारत पर चढ़ाई का विस्तृत वर्णन करते हुए फरिश्ता ने लिखा है कि महमूद मेरठ में लूटपाट कर महावन पहुँचा था । महावन को लूटने के बाद वह मथुरा पहुँचा । फरिश्ता ने लिखा है--"सुलतान ने मथुरा में मूर्तियों को भग्न करवाया और बहुत-सा सोना-चांदी प्राप्त किया । वह मंदिरों को भी तोड़ना चाहता था, पर उसने यह देखकर कि यह काम बड़ा श्रमसाध्य है, अपना विचार बदल दिया । [संदर्भ] उसने गजनी के गवर्नर को मथुरा की बाबत जो लिखा उससे प्रमाणित होता है कि इस शहर तथा यहाँ की इमारतों का उसके मन पर बड़ा असर पड़ा । सुलतान मथुरा में बीस दिन तक ठहरा । इस अवधि में शहर की बड़ी बर्बादी की गई । "[संदर्भ देखें] महमूद के आक्रमण से मथुरा नगर की बड़ी क्षति हुई । यह आक्रमण एक बड़े तूफान की तरह का था । मथुरा को लूटने और बर्बाद करने के बाद लुटेरे यहाँ रूके नहीं । नगर को व्यवस्थित करने और सुधारने में कुछ समय अवश्य लगा होगा । कूलंचन्द्र के बाद उसके वंश के शासकों का कोई विवरण नहीं मिलता ।

अरूबेरूनी

महमूद गजनवी के आक्रमण के थोड़े समय बाद अलवेरूनी नामक प्रसिद्ध मुस्लिम लेखक भारत आया । अलवेरूनी महमूद के दरबार में रहा था । उसने यहाँ आकर संस्कृत में योग्यता प्राप्त की । भारत में कुछ दिन रहने के बाद अलबेरूनी ने 1030 ई. में 'किताबुलहिंद' नाम की एक बड़ी किताब लिखी जो भारतके विषय में थी । इस पुस्तक में उसने भारतीय इतिहास, साहित्य, दर्शन, ज्योतिष आदि विषयओं और यहाँ के नागरिकों का विस्तृत विवरण किया है । अलबेरूनी ने 'वायु पुराण', 'वृहत्संहिता' आदि पुस्तकों के आधार पर शूरसेन तथा मथुरा का भी विवरण किया । [संदर्भ देखें] अलवेरूनी ने लिखा है कि 'मथुरा नगर यमुना-तट पर बसा है ।' भगवान वासुदेव (कृष्ण) के मथुरा में जन्म और उनके चरित्र का वर्णन अलबेरूनी ने विस्तार से किया है । [संदर्भ देखें] परंतु उसमें कई बातें भ्रामक लगती हैं । अलवेरूनी ने लिखा है कि कृष्ण के पिता वासुदेव शूद्र थे और वे जट्टवंश के पशुपालक थे । अपनी पुस्तक में अलबेरूनी ने मथुरा में व्यवह्र्त संवत् का भी विवरण किया है । अलवेरूनी के अनुसार मथुरा और कन्नौज के राज्यों में श्रीहर्ष का संवत् चलता था । [संदर्भ देखें] महमूद गजनवी के आक्रमण के बाद कुछ समय तक मथुरा प्रदेश की दशा का कहीं ठीक विवरण नहीं मिलता । इस समय हरियाणा प्रदेश के तोमरों ने दक्षिण की ओर अपने राज्य का प्रसार किया । दूसरी तरफ राजस्थान के चाहमानों ने भी मथुरा की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था । अजमेर से दिल्ली तक का प्रदेश पर धीरे-धीरे चाहमानों ने अधिकार कर लिया । ग्वालियर पर कछवाहा राजपूतों ने अपना अधिकार कर लिया । कछवाहों तथा बुदेंलखंड के चंदलों ने मुसलमानों से कई बार युध्द किये । महमूद के बाद कछवाहों तथा चंदेलों का आक्रमण प्रतीहार राजाओं के राज्य कन्नौज तक होने लगा । 11 वीं शताब्दी के अन्त में राष्ट्रकूट वंश का अधिकार कुछ दिनों तक कन्नौज पर रहा

गाहडवाल वंश

11 शताब्दी में उत्तर-भारत में गाहडवाल वंश का राज्य स्थापित हुआ । इस वंश के प्रथम महाराजा चंद्रदेव थे । इसने अपने शासन का बहुत विस्तार किया । कनौज से लेकर बनारस तक महाराजा चंद्रदेव का राज्य था । पंजाब के तुरूष्कों से भी इसने युध्द किया ।

गोविन्दचंन्द्र (लगभग 1112 - 1155 ई०)

चंद्रदेव के बाद कुछ समय तक उसका पुत्र मदनचंद्र शासन का अधिकारी रहा । उसके बाद उसका पुत्र गोविदचंद्र शासक हुआ जो बहुत यशस्वी हुआ । इसके समय के लगभग चालीस अभिलेख मिले है । गोविंदचंद्र ने अपने राज्य का विस्तार किया । संपूर्ण उत्तर प्रदेश और मगध का एक बड़ा भाग उसके अधिकार में आ गया । पूर्व में पाल तथा सेन राजाओं से गोविंदचंद्र का युध्द हुआ । चंदेलों को हराकर उसने उनसे पूर्वी मालवा छीन लिया । दक्षिण कोशल के कलचुरि राजाओं से भी उसका युद्ध हुआ । राष्ट्रकूट, चालुक्य, चोल तथा काश्मीर के राजाओं के साथ गोविदचंद्र की राजनैतिक मैत्री रही । मुसलमानों को आगे बढ़ने से रोकने में भी गोविंदचंद्र सफल भूमिका रही । गोविंदचंद्र नेउत्तर भारत में एक विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की । उसके शासन-काल में 'मध्य देश' में शांति रही । कन्नौज नगर के गौरव को गोविदचंद्र ने एक बार फिर गौरवान्वित किया । गोविंदचंद्र वैष्णव शासक था; इसने काशी के आदिकेशव घाट में स्नान कर ब्राह्मणों को दक्षिणा दी । गोविन्दचंन्द्र की रानी कुमारदेवी ने सारनाथ में एक बौद्ध विहार को निर्मित कराया था । गोविंदचंद्र ने भी श्रावस्ती में बौद्ध भिक्षुओं को छह गाँव दान में दे दिये थे । इस बातों से गोविन्दचंन्द्र की धार्मिक सहिष्णुता और उदारता का प्रमाण मिलता है । ताम्रपत्रों में गोविन्दचंद्र की 'महाराजाधिराज' और 'विविध विद्या-विचार वाचस्पति' नामक उपाधियाँ मिलती है, जिससे प्रमाणित होता है कि गोविन्दचंन्द्र विद्वान था । इसके एक मंत्री लक्ष्मीधर ने 'कृत्यकल्पतरू' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें राजनीति तथा धर्म के सम्बन्ध में अनेक बातों का विवरण है । गोविंदचंद्र के सोने और तांबे के सिक्के मथुरा से लेकर बनारस तक मिलते है । इन पर एक तरफ 'श्रीमद् गोविंदचंद्रदेव' लिखा है और दूसरी ओर बैठी हुई लक्ष्मी जी की मूर्ति है । ये सिक्कें चवन्नी से कुछ बड़े है । ताँबे के सिक्के कम मिले हैं ।

विजयचंद्र या विजयपाल (1155 -70)

गोविंदचंद्र के पश्चात उसका बेटा विजयचंद्र शासक हुआ । विजयचंद्र वैष्णव था । इसने अपने राज्य में कई विष्णु-मंदिरों को निर्मित कराया । मथुरा में श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर सं० 1207 (1150 ई०) में विजयचंद्र ने एक भव्य मंदिर को निर्मित कराया था । [संदर्भ] संभवत: उस समय विजयचंद्र युवराज था और अपने पिता की ओर से मथुरा प्रदेश का शासक नियुक्त था । अभिलेख में राजा का नाम 'विजयपालदेव' है । 'पृथ्वीराजरासों' में भी विजयचंद्र का नाम 'विजयपाल' ही मिलता है । रासो के अनुसार विजयपाल ने कटक के सोमवंशी राजा और दिल्ली, पाटन, कर्नाटक आदि राज्यों से युध्द किया और विजयी हुआ । [संदर्भ] इसने अपनी जीवनकाल में ही अपने पुत्र जयचंद्र को राजकाज सौंप दिया था ।

जयचंद्र (1170 - 94 ई०)

'रासों' के अनुसार जयचंद्र दिल्ली के राजा अनंगपाल की पुत्री से उत्पन्न हुआ यह विजयचंद्र का पुत्र था । जयचंद्र द्वारा रचित 'रंभामंजरी नाटिका' में वर्णित है कि इसने चंदेल राजा मदनवर्मदेव को हराया था । इस नाटिका और 'रासों' से पता चलता है कि जयचंद्र ने शिहाबुद्दीन गोरी को कई बार पराजित किया । मुस्लिम लेखकों के वृतांत से पता चलता है कि जयचंद्र के शासन काल में गाहडवाल साम्राज्य बहुत विशाल हो गया था । इब्नअसीर नामक लेखक ने तो उसके राज्य की सीमा चीन से लेकर मालवा तक लिखी है । पूर्व में बंगाल के सेन राजाओं से जयचंद्र का युद्ध लम्बे समय तक चला । जयचंद्र के शासन-काल में बनारस और कन्नौज की बहुत उन्नति हुई । कन्नौज, असनी (जि० फतहपुर) तथा बनारस में जयचंद्र ने मजबूत किले बनवाये । इसकी सेना बहुत विशाल थी । गोविंदचंद्र की तरह जयचंद्र भी विद्वानों का आश्रयदाता था । प्रसिद्ध 'नैषधमहाकाव्य' के रचयिता श्रीहर्ष जयचंद्र की राजसभा में थे । उन्होंनें कान्यकुब्ज सम्राट के द्वारा सम्मान-प्राप्ति का विवरण अपने महाकाब्य के अन्त में किया है । [संदर्भ देखें] जयचंद्र के द्वारा राजसूय यज्ञ करने के भी विवरण मिलते है । [संदर्भ]

मुसलमानों द्वारा उत्तर भारत की विजय

परन्तु तत्कालीन प्रमुख शक्तियों में एकता न थी । गाहडवाल, चाहमान, चन्देह, चालुक्य तथा सेन एक-दूसरे के शत्रु थे । जयचंद्र ने सेन वंश के साथ लंबी लड़ाई की अपनी शक्ति को कमजोर कर लिया । चाहमान शासक पृथ्वीराज से उसकी शत्रुता थी । इधरचंदेलों और चाहमानों के बीच अनबन थी । 1120 ई. में जब मुहम्मद गौरी भारत-विजय का सपना लिये पंजाब में बढ़ता आ रहा था ,पृथ्वीराज ने चंदेल- शासक परमर्दिदेव पर चढ़ाई कर उसके राज्य को नष्ट कर दिया । फिर उसने चालुक्यराज भीम से भी युद्ध किया । उत्तर भारत में शासकों की इस आपसी दुश्मनी का मुसलमानों ने फायदा उठाया । शिहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी पंजाब से बढ़ कर गुजरात गया । उसने पृथ्वीराज के राज्य पर भी आक्रमण किया । [संदर्भ] 1191 ई० में थानेश्वर के पास तराइन के मैदान में पृथ्वीराज और गौरी की सेनाओं के बीच युध्द हुआ । गौरी घायल हो गया और हार कर भाग गया । दूसरे वर्ष वह फिर बड़ी सेना लेकर आया । इस बार फिर घमासान युद्ध हुआ, इस युध्द में पृथ्वीराज हार गया और मारा गया । अजमेर और दिल्ली पर मुसलमानों का अधिकार हो गया । कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत का प्रशासक नियुक्त किया गया । 1194 ई. में कुतुबुद्दीन की कमान में मुसलमानों ने कन्नौज पर चढ़ाई की । चंदावर (जि० इटावा) के युद्ध में जयचंद्र ने बहुत बहादुरी से मुसलमानों से युध्द किया । मुस्लिम लेखकों के लेखों से पता चलता है कि चंदावर का युद्ध भंयकर था । कुतुबुद्दीन की फौज में पचास हजार सैनिक थे । जयचंद्र ने स्वंय अपनी सेना का संचालन किया वह हार गया और मारा गया । इस समय कन्नौज से लेकर बनारस तक मुसलमानों का अधिकार हो गया । इस प्रकार 1194 ई० में कन्नौज साम्राज्य का पतन हुआ और मथुरा प्रदेश पर भी मुसलमानों का शासन हो गया ।


टीका-टिप्पणी