मीरां
मीरांबाई
मीरांबाई कृष्ण-भक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं । उनका जन्म 1498 ईस्वी में जोधपुर के ग्राम कुड्की में हुआ था । उनके पिता का नाम रत्नसिंह था । उनके पति कुंवर भोजराज उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र थे । विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहांत हो गया । पति की मृत्यु के बाद उन्हे पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु मीरां इसके लिये तैयार नही हुई । वे संसार की ओर से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं । कुछ समय बाद उन्होंने घर का त्याग कर दिया और तीर्थाटन को निकल गईं । वे बहुत दिनों तक वृंदावन में रहीं और फिर द्वारिका चली गईं । जहाँ संवत 1547 ईस्वी में उनका देहांत हुआ । इनके जन्म को लेकर कई मतभेद रहे हैं। मीरांबाई ने कृष्ण-भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है । ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं ।
रचित ग्रंथ
मीरांबाई ने चार ग्रंथों की रचना की– |
बरसी का मायरा |
गीत गोविंद टीका |
राग गोविंद |
राग सोरठ के पद |
इनकी एक रचना इस प्रकार हैं- |
पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो । |
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो ॥ |
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो । |
खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो ॥ |
सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो । |
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो ॥ |