महावन

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महावन / Mahavan

जिला मथुरा, उ0प्र में मथुरा के समीप, यमुना के दूसरे तट पर स्थित अति प्राचीन स्थान है जिसे बालकृष्ण की क्रीड़ास्थली माना जाता है। यहां अनेक छोटे-छोटे मंदिर हैं जो अधिक पुराने नहीं हैं। *व्रज के चौरासी वनों में महावन मुख्य था।

  • महावन को औरंगज़ेब के समय में उसकी धर्मांध नीति का शिकार बनना पड़ा था। इसके बाद,
  • 1757 ई0 में अफगान अहमदशाह अब्दाली ने जब मथुरा पर आक्रमण किया तो उसने महावन में सेना का शिविर बनाया। वह यहां ठहर कर गोकुल को नष्ट करना चाहता था। किंतु महावन के चार हजार नागा सन्यासियों ने उसकी सेना के 2000 सिपाहियों को मार डाला और स्वयं भी वीरगति को प्राप्त हुए। गोकुल पर होने वाले आक्रमण का इस प्रकार निराकरण हुआ और अब्दाली ने अपनी फौज वापस बला ली।

इसके पश्चात् महावन के शिविर में विशूचिका (हैजा) के प्रकोप से अब्दाली के अनेक सिपाही मर गए। अत: वह शीघ्र दिल्ली लौट गया किंतु जाते-जाते भी इस बर्बर आक्रांता ने मथुरा, वृन्दावन आदि स्थानों पर जो लूट मचाई और लोमहर्षक विध्वंस और रक्तपात किया वह इसके पूर्व कृत्यों के अनुकूल ही था।


महावन गोकुल से आगे २ किमी. दूर है । लोग इसे पुरानी गोकुल भी कहते हैं । यहाँ चौरासी खम्भों का मन्दिर, नन्देश्वर महादेव, मथुरा नाथ, द्वारिका नाथ आदि मन्दिर हैं।


महावन गोकुल महावन समस्त वनों से आयतन में बड़ा होने के कारण इसे बृहद्वन भी कहा गया है। इसकों महावन, गोकुल या वृहद्वन भी कहते हैं। गोलोक से यह गोकुल अभिन्न है।(1) गोपराज नन्दबाबा के पिता पर्जन्य गोप पहले नन्दगाँव में ही रहते थे। वहीं रहते समय उनके उपानन्द, अभिनन्द, श्रीनन्द, सुनन्द, और नन्दन-ये पाँच पुत्र तथा सनन्दा और नन्दिनी दो कन्याएँ पैदा हुईं। उन्होंने वहीं रहकर अपने सभी पुत्र और कन्याओं का विवाह दिया। मध्यम पुत्र श्रीनन्द को कोई सन्तान न होने से बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने अपने पुत्र नन्द को सन्तान की प्राप्ति के लिए नारायण की उपासना की और उन्हें आकाशवाणी से यह ज्ञात हुआ कि श्रीनन्द को असुरों का दलन करने वाला महापराक्रमी सर्वगुणसम्पन्न एक पुत्र शीघ्र ही पैदा होगा। इसके कुछ ही दिनों बाद केशी आदि असुरों का उत्पात आरम्भ होने लगा। पर्जन्य गोप पूरे परिवार और सगे सम्बन्धियों के साथ इस बृहद्वन में उपस्थित हुए। इस बृहद् या महावन में निकट ही यमुना नदी बहती है। यह वन नाना प्रकार के वृक्षों, लता-वल्लरियों और पुष्पों से सुशोभित है, जहाँ गऊओं के चराने के लिए हरे-भरे चारागाह हैं। ऐसे एक स्थान को देखकर सभी गोप ब्रजवासी बड़े प्रसन्न हुए तथा यहीं पर बड़े सुखपूर्वक निवास करने लगे। यहीं पर नन्दभवन में यशोदा मैयाने कृष्ण कन्हैया तथा योगमाया को यमज सन्तान के रूप में अर्द्धरात्रि को प्रसव किया। यहीं यशोदा के सूतिकागार में नाड़ीच्छेदन आदि जातकर्मरूप वैदिक संस्कार हुए। यहीं पूतना, तृणावर्त, शकटासुर नामक असुरों का बधकर कृष्ण ने उनका उद्धार किया। पास ही नन्द की गोशाला में कृष्ण और बलदेव का नामकरण हुआ। यहीं पास में ही घुटनों पर राम कृष्ण चले, यहीं पर मैया यशोदा ने चंचल बाल कृष्ण को ओखल से बाँधा, कृष्ण ने यमलार्जुन का उद्धार किया। यहीं ढाई-तीन वर्ष की अवस्था तककी कृष्ण और रामकी बालक्रीड़ाएँ हुईं। नीचे हम संक्षेप में इनका वर्णन कर रहे हैं। वृहद्वन या महावन गोकुल की लीलास्थलियों का ब्रह्माण्ड पुराण में इस प्रकार वर्णन किया गया है- (1) गोलोकरूपिणे तुभ्यं गोकुलाय नमो नम: । अतिदीर्घाय रम्याय द्वाविंशद्योजनायते ॥ (भविष्योत्तरे) एकाविंशति तीर्थानां युक्तं भूरिगुणान्वितम । यमलार्जुन पुण्यात्मानम्, नन्दकूपं तथैव च ॥ चिन्ताहरणं ब्रह्मण्डं, कुण्डं सारस्वतं तथा। सरस्वतीशिला तत्र, विष्णुकुण्डं समन्वितम् ॥ कर्णकूपं, कृष्णकुण्डं गोपकूपं तथैव च । रमणं रमणस्थानं तृणावर्ताख्यपातनम् ॥ पूतनापातनस्थानं तृणावर्ताख्यपातनम् । नन्दहर्म्य नन्दगेह घाटं रमणासंज्ञकम् ॥ मथुरानाथोद्भवं क्षेत्रं पुण्यं पापप्रनाशनम्। जन्मस्थानं तु शेषस्य जन्म योगमायया ॥ (ब्रह्माण्ड पुराण) मथुरा से लगभग छह मील पूर्व मं महावन विराजमान है। ब्रजभक्ति विलास के अनुसार महावन में श्रीनन्दमन्दिर, यशोदा शयनस्थल, ओखलस्थल, शकटभजंनस्थान, यमलार्जुन उद्धारस्थल, सप्तसामुद्रिक कूप, पास ही गोपीश्वर महादेव, योगमाया जन्मस्थल, बाल गोकुलेश्वर, रोहिणी मन्दिर, पूतना बधस्थल दर्शनीय हैं। भक्तिरत्नाकर ग्रन्थ के अनुसार यहाँ के दर्शनीय स्थल हैं- जन्मस्थान, जन्मसंस्कारस्थान, गोशाला, नामकरण स्थान, पूतना वधस्थान, अग्निसंस्कार स्थल, शकटभजंन स्थल, स्तन्यपान स्थल, घुटानों पर चलने का स्थान, तृणावर्तवध स्थल, ब्रह्माण्डघाट, यशोदाजी का आंगन, नवनीतचोरी स्थल, दामोदरलीला स्थल, यमलार्जुन-उद्धार-स्थल, गोपीश्वर महादेव, सप्तसामुद्रिक कूप, श्रीसनातन गोस्वामी की भजनस्थली, मदनमोहनजी का स्थान, रमणरेती, गोपकूप, उपानन्द आदि गोपों के वासस्थान, श्रीकृष्ण के जातकर्म आदि का स्थान, गोप-बैठक, वृन्दावन गमनपथ, सकरौली आदि। वर्तमान दर्शनीय स्थल (1)नन्दमहाराजजी का दन्तधावन टीला- यहाँ नन्द महाराज जी बैठकर दातुन के द्वारा अपने दाँतों को साफ करते थे। (2)नन्दबाबा की हवेली तथा अन्यान्य गोप-गोपियों की हवेली- दन्त धावन टीला के नीचे और आसपास नन्द और उनके भाईयों की हवेलियाँ तथा सगे-संबन्धी गोप, गोपियों की हवेलियाँ थीं। आज उनका भग्नावशेष दूर-दूर तक देखा जाता है। (3) नन्दभवन या कृष्ण का जन्मस्थान- नन्द हवेली के भीतर ही श्रीयशोदा मैया के कक्षमें भादों माह के रोहिणी रक्षत्रयुक्त अष्टमी तिथि को अर्द्धरात्रि के समय स्वयं-भगवान् श्रीकृष्ण और योगमाया ने यमज सन्तान के रूपमें माँ यशोदाजी के गर्भ से जन्म लिया था। यहाँ योगमाया का दर्शन है। श्रीमद्भागवत में भी इसका स्पष्ट वर्णन मिलता है कि महाभाग्यवान् नन्दबाबा भी पुत्र के उत्पन्न होने से बड़े आनन्दित हुए । उन्होंने नाड़ीछेद-संस्कार, स्नान आदि के पश्चात् ब्राह्मणों को बुलाकर जातकर्म आदि संस्कारों को सम्पन्न कराया। (1) श्रीरघुपति उपाध्यायजी कहते हैं कि संसार में जन्म-मरण के भय से भीत कोई श्रुतियों का आश्रय लेते हैं तो कोई स्मृतियों का और कोई महाभारत का ही सेवन करते हैं तो करें, परन्तु मैं तो उन श्रीनन्दरायजी की वन्दना करता हूँ कि जिनके आंगन में परब्रह्म बालक बनकर खेल रहा है।(2) (4) पूतना उद्धार स्थल- माता का वेश बनाकर पूतना अपने स्तनों में कालकूट विष भरकर नन्दभवन में इस स्थलपर आयी। उसने सहज ही यशोदा-रोहिणी के सामने ही पलने पर सोये हुए शिशु कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया और स्तन पान कराने लगी। कृष्ण ने कालकूट विष के साथ ही साथ उसके प्राणों को भी चूसकर राक्षसी शरीर से उसे मुक्तकर गोलोक में धातृ के समान गति प्रदान की। पूतना पूर्व जन्म में महाराज बलि की कन्या रत्नमाला थी। भगवान् वामनदेव को अपने पिता के राजभवन में देखकर वैसे ही सुन्दर पुत्र की कामना की थी। किन्तु जब वामनदेव ने बलि महाराज का सर्वस्व हरण कर उन्हं नागपाश में बाँध दिया तो वह रोने लगी। उस समय वह यह सोचने लगी कि ऐसे क्रूर बेटे को मैं विषमिश्रित स्तन-पान कराकर मार डालूँगी। वामनदेव ने उसकी अभिलाषाओं को जानकर 'एवम् अस्तु' ऐसा ही हो वरदान दिया था। इसीलिए श्रीकृष्ण ने उसी रूप में उसका वधकर उसको धात्रोचित गति प्रदान की। (1) नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताह्वादो महामना: । आहूय विप्रान् वेदज्ञान् स्नात:शुचिरंकृत: ॥ (श्रीमद्भा0 10/5/1) (2) श्रुतिमपरे स्मृतिमितरे भारमन्ये भजन्तु भवभीता: । अहमिह नन्दं वन्दे यस्यालिन्दे परंब्रह्म ॥ (श्रीपद्यावली पृष्ठ 67) (5) शकटभंजन स्थल- एक समय बाल-कृष्ण किसी छकड़े के नीचे पलने में सो रहे थे। यशोदा मैया उनके जन्मनक्षत्र उत्सव के लिए व्यस्त थीं। उसी समय कंस द्वारा प्रेरित एक असुर उस छकड़े से प्रविष्ट हो गया और उस छकड़े को इस प्रकार से दबाने लगा जिससे कृष्ण उस छकड़े के नीचे दबकर मर जाएँ। किन्तु चंचल बालकृष्ण ने किलकारी मारते हुए अपने एक पैर की ठोकर से सहज रूप में ही उसका वध कर दिया। छकड़ा उलट गया और उसके ऊपर में रखे हुए दूध, दही, मक्सन आदि के बर्तन चकनाचूर हो गये। बच्चे का रोदन सुनकर यशोदा मैया दौड़ी हुई वहाँ पहुँची और आश्चर्यचकित हो गई। बच्चे को सकुशल देखकर ब्राह्मणों को बुलाकर बहुतसी गऊओं का दान किया। वैदिक रक्षा के मंत्रों का उच्चारणपूर्वक ब्राह्मणों ने काली गाय के मूत्र और गोबर से कृष्ण का अभिषेक किया। यह स्थान इस लीला को संजोये हुए आज भी वर्तमान है। शकटासुर पूर्व जन्म में हिरण्याक्ष दैत्य का पुत्र उत्कच नामक दैत्य था। उसने एक बार लोमशऋषि के आश्रम के हरे-भरे वृक्षों और लताओं को कुचलकर नष्ट कर दिया था। ऋषि ने क्रोध से भरकर श्राप दिया- 'दुष्ट तुम देह-रहित हो जाओं।' यह सुनकर वह ऋषि के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा।' उसी असुरने छकड़े में आविष्ट होकर कृष्ण को पीस डालना चाहा, किन्तु भगवान् कृष्ण के श्रीचरणकमलों के स्पर्श से मुक्त हो गया। श्रीमद्भागवत में इसका वर्णन है। (6) तृणावर्त वधस्थल- एक समय कंस ने कृष्ण को मारने के लिए गोकुल में तृणावर्त नामक दैत्य को भेजा। वह कंस की प्रेरणा से बवण्डर का रूप धारण कर गोकुल में आया और यशोदा के पास ही बैठे हुए कृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया। बालकृष्ण ने स्वाभाविक रूप में उसका गला पकड़ा लिया, जिससे उसका गला पकड़ लिया, जिससे उसका गला रूद्ध हो गया, आँखें बाहर निकल आईं और वह पृथ्वीपर गिरकर मर गया।(1) (7) दधिमन्थन स्थल- यहाँ यशोदाजी दधिमन्थन करती थीं। एक (1) दैत्यो नाम्ना तृणावर्त: कंसभृत्य: प्रणोदित: ।

  चक्रवातरूपेण    जहारासीनमर्भकम् ॥

(श्रीमद्भा0 10/7/20) समय बालकृष्ण निशाके अंतिम भाग में पलंगपर सो रहे थे। यशोदा मैया ने पहले दिन शाम को दीपावली के उपलक्ष्य में दास, दासियों को उनके घरों में भेज दिया था। सवेरे स्वयं कृष्णो मीठा मक्खन खिलाने के लिए दक्षिमन्थन कर रही थीं तथा ऊँचे स्वर एवं ताल-लयसे कृष्ण की लीलाओं का आविष्ट होकर गायन भी कर रही थीं। उधर भूख लगने पर कृष्ण मैया को खोजने लगे। पलगं से उतरकर बड़े कष्ट से ढुलते-ढुलते रोदन करते हुए किसी प्रकार माँ के पास पहँचे। यशोदाजी बड़े प्यार से पुत्र को गोदी में बिठाकर स्तनपान करान लगीं। इसी बीच पास ही आग के ऊपर रखा हुआ दूध उफनने लगा। मैया ने अतृप्त कृष्ण को बलपूर्वक अपनी गोदी से नीचे बैठा दिया और दूध की रक्षा के लिए चली गईं। अतृप्त बालकृष्ण के अधर क्रोध से फड़कने लगे और उन्होंने लोढ़े से मटकें में छेद कर दिया। तरल दधि मटके से चारों ओर बह गया। कृष्ण उसी में चलकर घर के अन्दर उलटे ओखलपर चढ़कर छींकेसे मक्खन निकालकर कुछ स्वयं खाने लगे और कुछ बंदरों तथा कौवों को भी खिलाने लगे। यशोदाजी लौटकर बच्चे की करतूत देखकर हँसने लगीं और उन्होंने छिपकर घर के अन्दर कृष्ण को पकड़ना चाहा। मैया को देखकर कृष्ण ओखल से कूदकर भागे, किन्तु यशोदाजी ने पीछे से उनकी अपेक्षा अधिक वेग से दौड़कर उन्हें पकड़ लिया, दण्ड देने के लिए ओखलसे बाँध दिया। (1) फिर गृहकार्य में लग गयीं। इधर कृष्ण ने सखाओं के साथ ओखल को खींचते हुए पूर्व जन्म के श्रापग्रस्त कुबेर पुत्रों को स्पर्शकर उनका उद्धार कर दिया। यह कथा श्रीमद्भागवत मं विस्तृत रूप से वर्णित है। यहीं पर नन्दभवन में यशोदाजी ने कृष्ण को ओखलसे बाँधा था। नन्दभवन से बाहर पास ही नलकुबेर वर मणिग्रीव के उद्धार का स्थान है। आजकल जहाँ चौरासी खम्बा हैं, वहाँ कृष्ण का नाड़ीछेदन हुआ था। उसी के पास में नन्दकूप है। (8) नन्दबाबा की गोशाला-गोशाला में कृष्ण और बलदेव का नामकरण हुआ था। गर्गाचार्यजी ने इस निर्जन गोशाला में कृष्ण और बलदेवका नामकरण किया था। नामकरण के समय श्रीबलराम और कृष्ण के अद्भुत पराक्रम, दैत्यदलन एवं भागवतोचित लीलाओं के संबन्ध में भविष्यवाणी भी की थीं कंस के अत्याचारों के भय से नन्द महाराज ने बिना किसी उत्सव के नामकरण संस्कार कराया था। (1­) स्वमातु: स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रज: ।

  दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्ण: कृपयाऽऽसीत् स्वबन्धने ॥

(श्रीमद्भा0 10/9/19) (9) मल्ल तीर्थ- यहाँ नंग्गे बाल कृष्ण और बलराम परस्पर मल्लयुद्ध करते थें गोपियाँ लड्डू का लोभ दिखालाकर उनको मल्लयुद्ध की प्रेरणा देतीं तथा युद्ध के लिए उकसातीं। ये दोनों बालक एक दूसरे को पराजित करने की लालसा से मल्लयुद्ध करते थे। यहाँ पर वर्तमान समय में गोपीश्वर महादेव विराजमान हैं। (10) नन्दकूप- महाराज नन्द जी इस कुएँ का जल व्यवहार करते थे। इसका नामान्तर सप्तसामुद्रिक कूप भी है। ऐसा कहा जाता है कि देवताओं ने भगवान् श्रीकृष्णकी सेवा के लिए इसे प्रकट किया था। इसका पानी शीतकाल में उष्ण तथा उष्णकाल में शीतल रहता था। इसमें स्नान करने से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है। (11) महावन में श्रीचैतन्य महाप्रभुजी- श्रीरूपसनातन के ब्रज आगमन से पूर्व श्रीचैतन्य महाप्रभु वनभ्रमण के समय यहाँ पधारे थे। वे महावन में कृष्ण जन्मस्थान में श्रीमदनमोहन जी का दर्शनकर प्रेम में विह्वल होकर नृत्य करने लगे। उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। भक्तिरत्नाकर में लिखा है- अहे श्रीनिवास ! कृष्ण चैतन्य एथाय । जन्मोत्सव स्थान देखि उल्लास हियाय ॥ भावावेशे प्रभु नृत्य, गीते मग्न हैला। कृपा करि सर्वचित्त आकषर्ण कैला ॥ (12) श्रीसनातन गोस्वामी का भजनस्थल— सनातन मदनगोपाल दर्शन। महासुख पाईया रहे महावने ॥ (भक्तिरत्नाकर) चौरासी खम्बा मन्दिर से नीचे उतरने पर सामुद्रिक कूप के पास ही गुफा के भीतर सनातन गोस्वामी की भजनकुटी है। सनातन गोस्वामी कभी-कभी यहाँ गोकुल में आनेपर इसी जगह भजन करते थे और श्रीमदनगोपालजी का प्रतिदिन दर्शन करते थें एक समय सनातन गोस्वामी यमुना पुलिन के रमणीय बालू में एक अद्भुत बालक को खेलते हुए देखकर आश्चर्यचकित हो गये। खेल समाप्त होने पर वे बालक के पीछे-पीछे चले, किन्तु मन्दिर में प्रवेश ही वह बालक दिखाई नहीं दिया, विग्रह के रूप में श्रीमदनगोपाल दीखे। वही श्रीमदनगोपाल कुछ समय बाद पुन: मथुरा के चौबाइन के घर में उसके बालक के साथ में खेलते हुए मिले। श्रीमदनगोपाल ने सनातनजी से उनके साथ वृन्दावन में ले चलने लिए आग्रह किया। सनातन गोस्वामी उनको अपनी भजनकुटी में ले आये और विशाल मन्दिर बनवाकर उनकी सेवा-पूजा आरम्भ करवाई। (13) ब्रह्माण्डघाट, प्रसंग- जन्मस्थली नन्दभवन से प्राय: एक मील पूर्व में ब्रह्मण्डघाट विराजमान है। यहाँ पर बालकृष्ण ने गोप-बालकों के साथ खेलते समय मिट्टी खाई थी। माँ यशोदा ने बलराम से इस विषय में पूछा। बलराम ने भी कन्हैया के मिट्टी खाने की बात की समर्थन किया। मैयाने घटनास्थलपर पहुँचकर कृष्णसे पूछा-'क्या तुमने मिट्टी खाई?' कन्हैया ने उत्तर दिया- नहीं मैया! मैंने मिट्टी नहीं खाईं।' यशोदा मैया ने कहा-कन्हैया ! अच्छा तू मुख खोलकर दिखा।' कन्हैया ने मुख खोलकर कहा- 'देख ले मैया।' अच्छा तू मुख खोलकर दिखा।' कन्हैयाने मुख खोलकर कहा- 'देख ले मैया।' मैया तो स्तब्ध रह गई। अगणित ब्रह्माण्ड, अगणित ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा चराचर सबकुछ कन्हैया के मुख में दिखाई पड़ा। भयभीत होकर उन्होंने आँखें बन्द कर लीं तथा सोचने लगीं, मैं यह क्या देख रही हूँ? क्या यह मेरा भ्रम है य किसी की माया है? आँखें खोलने पर देखा कन्हैया उसकी गोद में बैठा हुआ है। यशोदाजी ने घर लौटकर ब्राह्मणों को बुलाया। इस दैवी प्रकोप की शान्ति के लिए स्वस्ति वाचन कराया और ब्राह्मणों को गोदान तथा दक्षिणा दी। श्रीकृष्ण के मुख में भगवत्ता के लक्षण स्वरूप अखिल सचराचर विश्व ब्रह्माण्ड को देखकर भी यशोदा मैया ने कृष्ण को स्वयं-भगवान के रूप में ग्रहण नहीं किया। उनका वात्सल्य प्रेम शिथिल नहीं हुआ, बल्कि और भी समृद्ध हो गया । दूसरी ओर कृष्ण का चतुर्भुजरूप दर्शनकर देवकी और वसुदेव का वात्सल्य-प्रेम और विश्वरूप दर्शनकर अर्जुन का सख्य-भाव शिथिल हो गया। ये लोग हाथ जोड़कर कृष्णकी स्तव-स्तुति करने लगे। इस प्रकार ब्रज में कभी-कभी कृष्ण की भगवत्तारूप ऐश्वर्य का प्रकाश होने पर भी ब्रजवासियों का प्रेम शिथिल नहीं होता । वे कभी भी श्रीकृष्ण भगवन् के रूप में ग्रहण नहीं करते। उनका कृष्ण के प्रति मधुर भाव कभी शिथिल नहीं होता । दूसरा प्रसंग- बालकृष्ण एक समय यहाँ सहचर ग्वालबालों के साथ खेल रहे थें अकस्मात् बाल-टोली ताली बजाती और हँसती हुई कृष्ण को चिढ़ाने लगी। पहले तो कन्हैया कुछ समझ नहीं सके, किन्तु क्षणभर में उन्हें समझमें आ गया। दाम, श्रीदाम, मधुमंगल आदि ग्वालबाल कह रहे थे कि नन्दबाबा गोरे, यशोदा मैया मेरी किन्तु तुम काले क्यों? सचमुच में तुम यशोदा मैया की गर्भजात सन्तान नहीं हो। किसी ने तुम्हें जन्म के बाद पालन-पोषण करने में असमर्थ होकर जन्म ते ही किसी वटवृक्ष के कोटरे में रख दिया था। परम दयालु नन्दबाबा ने वहाँ पर असहाय रोदन करते हुए देखकर तुम्हें उठा लिया और यशोदाजी की गोद में डाल दिया। किन्तु यथार्थत: तुम नन्द-यशोदा के पुत्र नहीं हो। कन्हैया खेलना छोड़कर घर लौट गया और आँगन में क्रन्दन करता हुआ लोटपोट करने लगा। माँ यशोदाने उसे गोद में लेकर बड़े प्यार से रोने का कारण पूछना चाहा, किन्तु आज कन्हैया गोद में नहीं आया। तब मैया जबरदस्ती अपने अंक में धारण कर अंगों की धूल झाड़ते हुए रोने का कारण पूछने लगी। कुछ शान्त होने पर कन्हैयाने कहा-दाम, श्रीदाम आदि गोपबालक कह रहे हैं कि तू अपनी मैया की गर्भजात सन्तान नहीं है। 'बाबा गोरे, मैया गोरी और तू कहाँ से काल' निकल आया। यह सुनकर मैया हँसने लगी और बोली-'अरे लाला! ऐसा कौन कहता हैं?' कन्हैया ने कहा-'दाम, श्रीदाम, आदि के साथ दाऊ भैया भी ऐसा कहते हैं।' मैया गृहदेवता श्रीनारायण की शपथ लेते हुए कृष्ण के मस्तकपर हाथ रखकर बोली- 'मैं श्रीनारायण की शपथ खाकर कहती हूँ कि तुम मेरे ही गर्भजात पुत्र हो।' अभी मैं बालकों को फटकारती हूँ। इस प्रकार कहकर कृष्ण को स्तनपान कराने लगी। इस लीला को संजोए हुए यह स्थली आज भी विराजमान है। यथार्थत: नन्दबाबाजी गौर वर्णके थे। किन्तु यशोदा मैया कुछ हल्की सी साँवले रंग की बड़ी ही सुन्दरी गोपी थीं। नहीं तो यशोदाके गर्भ से पैदा हुए कृष्ण इतने सुन्दर क्यों होते? किन्तु कन्हैया यशोदाजी से कुछ अधिक साँवले रगं के थे। बच्चे तो केवल चिढ़ाने के लिए वैसा कह रहे थे। (14) चिन्ताहरणघाट- ब्रह्माण्डघाट से सटे हुए पूर्व की ओर श्रीयमुनाजी का चिन्ताहरण घाट है। यहाँ चिन्ताहरण महादेवका दर्शन है। ब्रजवासी इनका पूजन करते हैं कन्हैया के मुख में ब्रह्माण्ड दर्शन के पश्चात् माँ यशोदा ने अत्यन्त चिन्तित होकर चिन्ताहरण महादेव से कृष्ण के कल्याण की प्रार्थना की थी। (15) कोलेघाट- ब्रह्माण्डघाट से यमुनापार मथुरा की ओर कोलेघाट विराजमान है। श्रीवसुदेवजी नवजात कृष्ण को लेकर यहीं से यमुनापार होकर गोकुल नन्दभवन में पहुँचे थे। जिस समय वसुदेव जी यमुनापार करते समय बीच में उपस्थित हुए, उस समय यमुना श्रीकृष्ण के चरणों को स्पर्श करने के लिए बढ़ने लगी। वसुदेवजी कृष्ण को ऊपर उठाने लगे। जब वसुदेवजी के गले तक पानी पहुँचा तो वे बालक की रक्षा करने की चिन्ता से घबड़ाकर कहने लगे इसे 'को लेवे' अर्थात् इसे कौन लेकर बचाये। इसलिए वज्रनाभजी ने यमुना के इस घाट का नाम कोलेघाट रखा। यमुना के स्तर को बढ़ते देखकर बालकृष्णने पीछे से अपने पैरों को यमुनाजी के कोल में (गोदी में) स्पर्श करा दिया। यमुनाजी कृष्ण के चरणों का स्पर्श पाकर झट नीचे उतर गईं। पीछे से वहाँ टापू हो गया और वहाँ कोलेगाँव बस गया। कोले घाट के तटपर उथलेश्वर और पाण्डेश्वर महादेवजी के दर्शन हैं। दाऊजी से पांच कोस उत्तर की तरफ देवस्पति गोपका निवास स्थान देवनगर है। वहाँ रामसागरकुण्ड, प्राचीन बृहद् कदम्ब वृक्ष और देवस्पति गोप के पूजन की गोवर्धन शिला दर्शनीय है। दाऊजी के पास ही हातौरा ग्राम हैं वहाँ नन्दरायजी की बैठक है। (16) कर्णछेदन स्थान- यहाँ बालकृष्ण और बलराम का कर्णछेदन संस्कार हुआ था। इसका वर्तमान नाम कर्णावल गाँव है। यहाँ कर्णबेध कूप, रत्नचौक और श्रीमदनमोहन तथा माधवरायजी के श्रीविग्रहों के दर्शन हैं।