पाणिनि

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पाणिनि / Panini

पाणिनि (500 ई पू) संस्कृत व्याकरण शास्त्र के सबसे बड़े प्रतिष्ठाता और नियामक आचार्य थे। इनका जन्म पंजाब के शालातुला में हुआ था जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के क़रीब तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। इनका जीवनकाल 520-460 ईसा पूर्व माना जाता है। इनके व्याकरण को अष्टाध्यायी कहते हैं। इन्होंने भाषा के शुद्ध प्रयोगों की सीमा का निर्धारण किया, जो प्रयोग अष्टाधायायी की कसौटी पर खरे नहीं उतरे उन्हें विद्वानों ने 'अपणिनीय' कहकर अशुद्ध घोषित कर दिया। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है।
अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, ख़ान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं।

व्याकरण शास्त्र

पाणिनि ने अपने समय की संस्कृत भाषा की सूक्ष्म छानबीन की थी। इस छानबीन के आधार पर उन्होंने जिस व्याकरण शास्त्र का प्रवचन किया, वह न केवल तत्कालीन संस्कृत भाषा का नियामक शास्त्र बना, अपितु उसने आगामी संस्कृत रचनाओं को भी प्रभावित किया। पाणिनि से पूर्व भी व्याकरण शास्त्र के अन्य आचार्यों ने इस विशाल संस्कृत भाषा को नियमों में बांधने का प्रयास किया था, परन्तु पाणिनि का शास्त्र विस्तार और गाम्भीर्य की दृष्टि से इन सभी में सिरमौर सिद्ध हुआ। पाणिनि ने अपनी गहन अन्तदृर्ष्टि, समन्वयात्मक दृष्टिकोण, एकाग्रता, कुशलता, दृढ़ परिश्रम और विपुल सामग्री की सहायता से जिस अनूठे व्याकरण शास्त्र का उपदेश दिया, उसे देखकर बड़े से बड़े विद्वान आश्चर्य चकित होकर कहने लगे – 'पाणिनीयं महत्सुविरचितम्' – पाणिनि का शास्त्र महान और सुविरचित है; 'महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य' उनकी दृष्टि अत्यन्त पैनी है; 'शोभना खलु पाणिनेः सूत्रस्य कृतिः' उनकी रचना अति सुन्दर है; 'पाणिनिशब्दो लोके प्रकाशते' सारे लोक में पाणिनि का नाम छा गया है, इत्यादि। भाष्यकार ने पाणिनि को प्रमाणभूत आचार्य, माङ्गलिक आचार्य, सृहृद्, भगवान आदि विशेषणों से सम्बोधित किया है। उनके अनुसार पाणिनि के सूत्र में एक भी शब्द अनर्थक नहीं हो सकता, और पाणिनीय शास्त्र में ऐसा कुछ नहीं है जो निरर्थक हो। उन्होंने जो सूत्र बनाए हैं, वे बहुत ही सोच विचार कर बनाए गए हैं। उन्होंने सुहृद् के रूप में व्याकरण शास्त्र का अन्वाख्यान किया है। रचना के समय उनकी दृष्टि भविष्य की ओर थी और वह दूरतर की बात सोचते थे। इस प्रकार उनकी प्रतिष्ठा बच्चे बच्चे तक फैल गई और विद्यार्थियों में उन्हीं का व्याकरण सर्वाधिक प्रिय हुआ।

अष्टाध्यायी अथवा पाणिनीयाष्टक

पाणिनि का व्याकरण शब्दानुशासन के नाम से विद्वानों में प्रसिद्ध है, परन्तु आठ अध्यायों में विभक्त होने के कारण यही शब्दानुशासन लोक में अष्टाध्यायी अथवा पाणिनीयाष्टक के रूप में जाना जाता है। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी से संस्कृत भाषा को अमरता प्रदान की। उनकी व्याकरण की रीति से संस्कृत भाषा के सभी अङ्ग आलौकित हो उठे। सर्वशास्त्रोपकारक के रूप में पाणिनीय अष्टाध्यायी की सहायता से हमें कहीं भी अपना मार्ग ढूँढ़ने में कठिनाई नहीं होती है। संसार की अनेक भाषाएं नियमित व्याकरण के अभाव में या तो लुप्त हो गईं हैं, या इतनी दुरूह हैं कि उन्हें समझना ही दुष्कर हैं। किन्तु संस्कृत भाषा के गद्य और पद्य दोनों पाणिनि शास्त्र से नियमित होने के कारण सदा ही सुबोध बने रहे हैं। आज भी हम पाणिनीय अष्टाध्यायी की सहायता से संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य से लेकर नवीनतम रचनाओं का रसास्वाद कर सकते हैं।

अपने व्याकरण को पूर्व एंव सर्वग्राही बनाने के लिए पाणिनि ने देशाटन कर भारत के विभिन्न जनपदों की भाषा, उनके रीति–व्यवहार, वेशभूषा, उद्योग–धन्धे तथा उनके व्यक्ति और जाति–वाचक नामों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। अतः उनका व्याकरण न केवल शब्दानुशासन की दृष्टि से परिपूर्ण है, अपितु वह तत्कालीन सभ्यता और संस्कृति का विश्वसनीय और प्रामाणिक इतिहास भी है। पणिनीय व्याकरण इतना सुव्यवस्थित, वैज्ञानिक, लाघवपूर्ण और सर्वाङ्गपूर्ण सिद्ध हुआ कि उनके सामने समस्त व्याकरण गौण हो गए। यहाँ तक कि धीरे धीरे प्रादेशिक व्याकरणों का प्रचलन बन्द हो गया और कालान्तर में वे नष्टप्राय हो गए। पाणिनीय अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में से प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं और कुल मिलाकर लगभग चार हज़ार सूत्र हैं। अष्टाध्यायी की सूत्र संख्या के विषय में विद्वानों में थोड़ा विवाद है। कुछ विद्वान इसके सूत्रों की संख्या 3981 मानते हैं। इनमें यदि 14 प्रत्याहार–सूत्र जोड़ दें तो यह संख्या 3995 हो जाती है। अष्टाध्यायी को वेदाङ्ग मानने वालों की परम्परा में प्रचलित मौखिक पाठ में यह संख्या 3983 है। काशिका और सिद्धान्त–कौमुदी के परम्परागत पाठ के अनुसार 3983 संख्या ही दी हुई है।

अध्याय

व्याकरणीय प्रक्रिया की दृष्टि से अष्टाध्यायी को मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक, वाक्यों के पदों का संकलन (1–2 अध्याय); दो, पदों का प्रकृति–प्रत्यय में विभाग (3–5 अध्याय); तीन, प्रकृति–प्रत्ययों के साथ आगम आदेशादि का संयोजन कर परिनिष्ठित पदों का निर्माण (6–8 अध्याय)। अष्टाध्यायी के प्रथम दो अध्यायों में पदों के सुबन्त, तिङन्त भेदों और वाक्यों में उनके परस्पर सम्बन्ध पर विचार किया गया है। तृतीय अध्याय में धातुओं से शब्द–सिद्धि का विवेचन तथा चतुर्थ और पञ्चम अध्याय में प्रातिपदिकों एवं शब्द सिद्धि का विचार है। षष्ठ एवं सप्तम अध्यायों में सुबन्त एवं तिङन्त शब्दों की प्रकृति–प्रत्ययात्मक सिद्धि एवं स्वरों का विवेचन है, तथा अष्टम अध्याय में सन्निहित पदों के शीघ्रोच्चारण से वर्णों या स्वरों पर पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा है। यदि प्रतिपाद्य विषयों की दृष्टि से विचार किया जाए तो संज्ञा और परिभाषा, स्वरों और व्यंजनों के प्रकार, धातुसिद्ध क्रियापद, कारक, विभक्ति, एकशेष समास, कृदन्त, सुबन्त, तद्धित, आगम और आदेश, स्वर विचार, दित्व और सन्धि – ये अष्टाध्यायी के प्रतिपाद्य विषय हैं।

अष्टाध्यायी संहिता

पाणिनि ने सम्पूर्ण अष्टाध्यायी संहिता पाठ में रची थी। महाभाष्य में लिखा है<balloon title="1.1.50" style=color:blue>*</balloon> 'उभयथा हि तुल्या संहिता स्थानेऽन्तरतम उरण् रपरः इति।' इस प्रकार के प्रमाणों से स्पष्ट है कि पाणिनि ने अष्टाध्यायी संहिता पाठ में रची थी। यद्यपि पाणिनि ने प्रवचन काल में सूत्रों का विच्छेद अवश्य किया होगा (क्योंकि उसके बिना सूत्रार्थ का प्रवचन सम्भव नहीं), तथापि पतञ्जलि ने उनके संहिता पाठ को ही प्रामाणिक माना है। पाणिनीय व्याकरण में कई स्थानों पर प्राचीन व्याकरणों के श्लोकांशों की स्पष्ट झलक उपलब्ध होती है। जैसे ‘तदस्मै दीयते युक्तं श्राणामांसौदनाट्टठिन।’ ये अनुष्टुप् के दो चरण थे। इसमें पाणिनि ने यंक्तं का नियुक्तं पढ़कर दो सूत्रों का प्रवचन किया है। आचार्य युधिष्ठिर मीमांसक जी के अनुसार यद्यपि पाणिनि ने अपने शास्त्र के प्रवचन में सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय का उपयोग किया है, तो भी पाणिनि का प्रधान उपजीव्य आपिशल व्याकरण है।

सूत्र

अष्टाध्यायी के प्रत्येक पाद की विभिन्न संज्ञाएँ उस–उस पाद के प्रथम सूत्र के आधार पर रखी गईं हैं।

  • गाङ्कुटादिपादः<balloon title="1.2" style=color:blue>*</balloon>
  • भूपादः<balloon title="1.3" style=color:blue>*</balloon>
  • द्विगुपादः<balloon title="2.4" style=color:blue>*</balloon>
  • सम्बन्धपादः<balloon title="3.4" style=color:blue>*</balloon>
  • अङ्गपादः<balloon title="6.4" style=color:blue>*</balloon>

पाणिनि की अष्टाध्यायी के अनुशीलन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे जिस संस्कृत भाषा का व्याकरण लिख रहे थे, वह लोकभाषा थी। सैंकड़ों ऐसे सूत्र हैं जिनका उपयोग व्यवहार–गम्य शब्दों की सिद्धि के निमित्त ही होता है, किसी शास्त्रीय शब्द के लिए नहीं। उदाहरणार्थ – प्लुतविधान की युक्तिमत्ता – प्लुतविधान के निमित्त अनेक सूत्र हैं।

  1. दूर से बुलाने के लिए प्रयुक्त वाक्य के टि की प्लुत संज्ञा होती है – सक्तून् पिब देवदत्त 3 यहाँ दत्त का अन्तिम अकार प्लुत हुआ है।
  2. देवदत्त को दूर से पुकारना होगा तो देवदत्त में तीन स्थानों में क्रमशः प्लुत होगा – देवदत्त, देवदत्त, देवदत्त 3।<balloon title="8.2" style=color:blue>*</balloon>

पाणिनि ने व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के नाम सिद्ध करने के लिए सूत्रों का निर्माण किया है। इन वस्तुओं का सम्बन्ध शास्त्रों से न होकर लोक–संस्कृति से है। उदाहरणार्थ– जितना अनाज एक खेत में बोया जाता है, उतने से उसका नामकरण पाणिनि ने किया है। प्रास्थिक, द्रौणिक तथा खारीक आदि शब्द इसी नियम से बनते हैं।<balloon title="तस्य वापः 5.1.45" style=color:blue>*</balloon> अष्टाध्यायी में उस समय प्रचलित ऐसे मुहावरे का प्रयोग है जो संस्कृत को लोकभाषा सिद्ध करते हैं। विविध प्रयोग इसे स्पष्ट सिद्ध करते हैं। शय्योत्थानं धावति–सेज से सीधे उठकर दौड़ता है।<balloon title="3.4.52" style=color:blue>*</balloon> अर्थात् शीघ्रता के कारण वह अन्य आवश्यक कार्यों की परवाह किए बिना दौड़ता है।

ग्रन्थ

पाणिनि ने पूर्वाचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट प्रभूत संज्ञाओं का प्रयोग अपने ग्रन्थ में किया है, परन्तु लाघव के निमित्त उन्होंने अनेक स्वोपज्ञ संज्ञाएं उद्भवित की हैं जैसे 'घु' संज्ञा– दाधाघ्वदाप्<balloon title="1.1.20" style=color:blue>*</balloon>, 'घ' संज्ञा– तरतमपौ घः<balloon title="1.1.22" style=color:blue>*</balloon>, वृद्ध संज्ञा – वृद्धो यूना<balloon title="1.2.65" style=color:blue>*</balloon> गोत्र संज्ञा – अपत्यं पौत्रपुभृति गोत्रम्।<balloon title="4.1.162" style=color:blue>*</balloon>

पाठान्तर

पाणिनि अष्टाध्यायी के भी पाठान्तर उपलब्ध होते हैं। इन पाठान्तरों को तीन भागों में बांट सकते हैं:–

  1. कुछ पाठान्तर ऐसे हैं, जो पाणिनि के स्वकीय प्रवचन–भेद से उत्पन्न हुए हैं। यथा– उभयथा ह्याचार्येण शिष्याः सूत्रं प्रतिपादिताः<balloon title="काशिका– 6.2.104" style=color:blue>*</balloon>,
  2. वृत्तिकारों की व्याख्याओं के भेद से– काण्ठेविद्धिभ्यः इत्यन्ये पठन्ति<balloon title="पदमञ्जरी–4.1.81" style=color:blue>*</balloon>,
  3. लेखक के प्रमाद से। यथा– एवं चटकादैरत्येतत् सूत्रमासीत्। इदानीं प्रमादात् चटकाया इति पाठः।

अष्टाध्यायी और उसके खिलपाठ (धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ) के विविध पाठों का सूक्ष्म अन्वेण करके इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि आचार्य पाणिनि के पञ्चाङ्ग व्याकरण का ही त्रिविध पाठ है– प्राच्य पाठ- अष्टाध्यायी के जिस पाठ पर काशिका वृत्ति है, वह प्राच्य पाठ है।
औदीच्य पाठ– क्षीरस्वामी आदि कश्मीर प्रदेशीय विद्वानों से आश्रीयमाण सूत्रपाठ है।
दाक्षिणात्य– जिस पाठ पर कात्यायन ने अपने वार्तिक लिखे हैं, वह दाक्षिणात्य पाठ है।
महाभाष्यकार ने अष्टाध्यायी का प्रयोजन शिष्ट प्रयोगों के ज्ञान का मार्ग प्रदर्शन कराना लिखा है – 'शिष्टपरिज्ञानार्था अष्टाध्यायी'।<balloon title="6.3.109" style=color:blue>*</balloon>

पाणिनीय तन्त्र के खिल ग्रन्थ

पाणिनीय सम्प्रदाय की अथवा किसी भी व्याकरण सम्प्रदाय की समग्रता के हेतु पांच अंगों से युक्त होना नितान्त आवश्यक होता है। इसलिए सम्पूर्ण व्याकरण को पञ्चाङ्ग व्याकरण कहा जाता है। इन पांचों अंगों में सूत्रपाठ तो मुख्य ही है, और उसके सहायक अथवा पूरक होने से अन्य अंगों की भी उपयोगिता है। इन्हीं को खिल–ग्रन्थ अथवा परिशिष्ट ग्रन्थ के नाम से पुकारते हैं– 1. धातुपाठ, 2. गणपाठ, 3. उणादिपाठ, 4. लिङ्गानुशासन।

अष्टकं गणपाठश्च धातुपाठस्तथैव च।
लिङ्गानुशासनं शिक्षा पाणिनीया अमी क्रमात्।।

धातुपाठ

पाणिनि का धातुपाठ पाणिनीय व्याकरण का एक महत्वपूर्ण अंग है। पाणिनि–प्रोक्त धातुओं की संख्या लगभग दो सहस्त्र है। ये धातुएं भ्वादि–अदादि दस गणों में विभक्त हैं। प्रत्येक धातु के साथ अर्थ–निर्देश किया गया है। पाश्चात्त्य भाषावेत्ताओं ने पाणिनीय धातु–पाठ की प्रचुर मीमांसा की है।

गणपाठ

गणपाठ अष्टाध्यायी का एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं आवश्यक अंग है। परस्पर भिन्न किन्तु किसी एक विषय में समानता रखने वाले शब्दों को व्याकरण के एक नियम के अन्तर्गत लाने के लिए आचार्य जी ने गणपाठ का कथन किया। गणपाठ के द्वारा पाणिनि ने अष्टाध्यायी रूपी गागर में ग्राम, जनपद, संघ, गोत्र, चरण आदि से सम्बन्धित भौगोलिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक सामग्री का सागर भर दिया है। व्याकरण नियमों की रचना में सहायक गणपाठ की शैली पाणिनि के हाथों में सांस्कृतिक सामग्री का भण्डार बन गई। कुछ गण तो ऐसे थे जिनका पाणिनि के द्वारा ही पूरा पाठ एक बार में दे दिया गया था। ये पठित गण कहलाए। गोत्र और स्थान–नामों की गणसूचियाँ इसी प्रकार की हैं। दूसरे गण आकृतिगण कहलाए। इन आकृतिगणों के द्वार भाषा में उत्पन्न होने वाले नए–नए शब्दों के लिए सर्वथा खुले हुए थे। गणपाठ की इस विशेषता के कारण नए–नए शब्द पाणिनि–शास्त्र के अनुशासन में आते रहे हैं और भी यह एक जीता–जागता शास्त्र बना हुआ है।

उणादि सूत्र

व्याकरण शास्त्र के अनुसार शब्द दो प्रकार के होते हैं– रूढ़ तथा यौगिक। रूढ़ अव्युत्पन्न होते हैं, अर्थात् उनकी व्युत्पत्ति किसी धातु से नहीं दिखाई जा सकती। यौगिक शब्द धातु से निष्पन्न होते हैं, इसलिए वे व्युत्पन्न होते हैं। उणादि सूत्र प्रत्येक शब्द की साधुता प्रत्यय के योग से सिद्ध करते हैं। फलतः उनकी दृष्टि में कोई शब्द अव्युत्पन्न नहीं है, अर्थात् धातु–विशेष से उनकी सिद्धि अवश्य दिखाई जा सकती है। इन सूत्रों में आरम्भिक सूत्र उण् प्रत्यय का विधान करता है। कृ–वा–पा–जिमि–स्वाद–साध्यशूभ्यं उण् – इस प्रत्यय के आदिम होने के कारण यह समस्त प्रत्यय–समुच्चय उणादि के नाम से प्रख्यात है। प्रत्येक व्याकरण–सम्प्रदाय का उणादि अविभाज्य तथा आवश्यक अंग है। पाणिनीय सम्प्रदाय में उणादि के द्विविध रूप में मिलते हैं–

  1. पञ्चपादी,
  2. दशपादी।

पञ्चपादी पांच पादों में विभक्त है और सूत्रों की पूरी संख्या 759 है; दशपादी दशपादों में विभक्त है, और सूत्रों की संख्या 727 है।

लिङ्गानुशासन

संस्कृत में लिङ्गों का निर्धारण करना कठिन है। स्त्रीबोधक होने वाला दार शब्द पुङ्ल्लिग है और कलत्र नपुंसक है। पुरुष–सुहृद् वाचक होने पर भी मित्र नपुंसक है, शत्रुवाचक 'अमित्र' पुल्लिङ्ग है। इसी कठिनाई को दूर करने के लिए आचार्य जी ने लिंगानुशासन की रचना की। व्याडि ही लिंगानुशासन के सर्वप्रथम सर्वप्राचीन ग्रन्थकार हैं। पाणिनि का लिंगानुशासन सूत्रात्मक है। समग्र सूत्रों की संख्या 188 है। इसमें पाँच अधिकार हैं– स्त्री अधिकार, पुल्लिंग अधिकार, नपुंसक अधिकार, पुंनपुंसक अधिकार। पाणिनीय लिंगानुशासन के प्रवक्ता स्वयं सूत्रकार पाणिनि ही हैं। लिङ्गानुशासन का 30वां सूत्र है– 'अप्–सुमनस्–समा–वर्षाणां बहुत्वम्'। इसमें नित्य बहुवचनान्त स्त्रीलिंग शब्दों का परिगणन है। ये शब्द हैं– अप, सुमनस, समा, सिकता तथा वर्षा।

परिभाषा पाठ

परिभाषा किसी भी व्याकरण–शासन का अनिवार्य अंग है। परिभाषा का लक्षण है– 'अनियमे नियमकारिणी परिभाषा'। सामान्यतः परिभाषा दो प्रकार की होती हैः एक तो पाणिनीय अष्टाध्यायी में सूत्ररूप से गठित है, क्योंकि पाणिनि के अनेक सूत्र 'परिभाषा–सूत्र' के नाम से विख्यात हैं। दूसरे प्रकार की परिभाषाएं वे हैं जो या तो किसी सूत्र से ज्ञापित होती हैं (ज्ञापकसिद्धा), अथवा लोक में प्रचलित न्याय का अनुगमन करती हैं (न्यायसिद्धा परिभाषा)।

फिट–सूत्रपाठ

पाणिनीय सम्प्रदाय में फिट् का अपना महत्व है। फिट्सूत्र संख्या में 87 हैं और चार पदों में विभक्त हैं। 'फिट्' शब्द का प्रथमा एकवचन है। 'अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदकिम्'<balloon title="1.2.45" style=color:blue>*</balloon> तथा 'कृत्तद्धितसमासाश्च'<balloon title="1.2.46" style=color:blue>*</balloon> इन सूत्रों के द्वारा अर्थवान् मूल शब्द की प्रतिपादिक संज्ञा पाणिनीय मत में विहित है। सामान्य रीति से कह सकते हैं कि सुप् विभक्ति के योग से पहले अर्थवान् शब्द का जो मूल स्वरूप रहता है, जैसे– राम, हरि, गो, भानु आदि वही प्रतिपादिक है। और यही प्रतिपादिक 'फिट्' के नाम से इस तन्त्र में प्रख्यात है। फिट्–सूत्र–पाठ के 87 सूत्रों में शब्दों के स्वर संचार पर विचार है। इन सूत्रों की आवश्यकता तो शब्दों के अव्युत्पन्न मानने के अवसर पर आती है। 'अव्युत्पन्नानि प्रातिपादिकानि' पाणिनीय मत का एक बहुचर्चित पक्ष है। विद्वानों के अनुसार फिट् सूत्रों के प्रवक्ता आचार्य शन्तनु हैं। शन्तनु–प्रणीत होने से ही ये सूत्र शान्तनव नाम से प्रख्यात हैं। शन्तनु आचार्य द्वारा प्रणीत इन सूत्रों को पाणिनीय सम्प्रदाय भी अपने शास्त्र का उपादेय अंग मानता है।

पाणिनि ने संस्कृत भाषा को एक अलौकिक एवं अद्भुत शास्त्र प्रदान किया। इस शास्त्र के विधि विधान पाणिनि ने अत्यन्त विचार पूर्वक स्थिर किए थे। विवादास्पद मतों के बीच पाणिनि समन्वय और सन्तुलन का मध्यमार्ग स्वीकार करते हैं। पाणिनि के काल में व्याकरण–सम्बन्धी अनेक मत–मतान्तर प्रचलित थे। उदाहरणार्थ– व्याकरण में स्वाभाविक या प्रचलित संज्ञा उचित है या कृत्रिम संज्ञा, शब्द का अर्थ जाति है या व्यक्ति, अनुकरणात्मक शब्दों का अस्तित्व है या नहीं, उपसर्ग वाचक है सा द्योतक, धातु का अर्थ क्रिया है या भाव, शब्द व्युत्पन्न होते हैं या अव्युत्पन्न आदि। पाणिनि इनमें से किसी भी एक मत का निराकरण नहीं करते, अपितु वे इनके समन्वय का मार् स्वीकार करते हैं। समस्त अष्टाध्यायी में समन्वयात्मक और सन्तुलित दृष्टि की प्रधानता है। इस कारण यह शास्त्र इतनी विशाल शब्द–सामग्री को समेटने, नवीन शब्द–भण्डार को अपने में स्थान देने और सूत्रबद्ध करने में सफल हुआ। इसी कारण इसे लोक में इतनी अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई और पाणिनि का नाम बच्चे–बच्चे तक पहुँच गया – 'आकुमारं यशः पाणिनेः'।