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==जलालउद्दीन मुहम्मद अकबर / Jalal-ud-din Muhammad Akbar==
 
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==अकबर (शासन काल सन् 1556 से 1605 )==
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जब [[हुमायूँ]] [[शेरशाह]] से हारकर भागने की तैयारी में था, उस समय अकबर का जन्म [[सिंध]] के रेगिस्तान में अमरकोट के पास 23 नवंबर सन 1542 में हुआ था। हुमायूँ की दयनीय दशा के कारण अकबर की बाल्यावस्था संकट में बीती और कई बार उसकी जान पर भी जोखिम रहा। सं. 1612 में हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त कर लिया, किंतु वह केवल 7 माह तक ही जीवित रहा था । उसकी मृत्यु सं.1612 के अंत में [[दिल्ली]] में हो गयी थी । उस समय अकबर पंजाब में था । हुमायूँ की मृत्यु के 21 दिन बाद (14 फरवरी, सन 1556) पंजाब के जिला गुरदासपुर के कलानूर में बड़ी सादगी के साथ उसको गद्दी पर बैठा दिया था। इस समय तक हुमायूँ की मृत्यु का समाचार गुप्त रखा गया और अकबर के गद्दी पर बैठने पर ही हुमायूँ को दिल्ली में दफनाया गया था। उसका मकबरा उसकी दूसरी पत्नी रानी बेगम ने अपने निजी धन से बनवाना शुरू किया था, जो 13-14 वर्ष के बाद (अप्रैल सन 1570 में) बन कर तैयार हुआ था। यह मकबरा अकबर कालीन मुग़ल स्थापत्य शैली का एक दर्शनीय नमूना है।
 
जब [[हुमायूँ]] [[शेरशाह]] से हारकर भागने की तैयारी में था, उस समय अकबर का जन्म [[सिंध]] के रेगिस्तान में अमरकोट के पास 23 नवंबर सन 1542 में हुआ था। हुमायूँ की दयनीय दशा के कारण अकबर की बाल्यावस्था संकट में बीती और कई बार उसकी जान पर भी जोखिम रहा। सं. 1612 में हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त कर लिया, किंतु वह केवल 7 माह तक ही जीवित रहा था । उसकी मृत्यु सं.1612 के अंत में [[दिल्ली]] में हो गयी थी । उस समय अकबर पंजाब में था । हुमायूँ की मृत्यु के 21 दिन बाद (14 फरवरी, सन 1556) पंजाब के जिला गुरदासपुर के कलानूर में बड़ी सादगी के साथ उसको गद्दी पर बैठा दिया था। इस समय तक हुमायूँ की मृत्यु का समाचार गुप्त रखा गया और अकबर के गद्दी पर बैठने पर ही हुमायूँ को दिल्ली में दफनाया गया था। उसका मकबरा उसकी दूसरी पत्नी रानी बेगम ने अपने निजी धन से बनवाना शुरू किया था, जो 13-14 वर्ष के बाद (अप्रैल सन 1570 में) बन कर तैयार हुआ था। यह मकबरा अकबर कालीन मुग़ल स्थापत्य शैली का एक दर्शनीय नमूना है।
 
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१०:२२, ५ दिसम्बर २००९ का अवतरण


जलालउद्दीन मुहम्मद अकबर / Jalal-ud-din Muhammad Akbar

अकबर (शासन काल सन 1556 से 1605 )

जब हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागने की तैयारी में था, उस समय अकबर का जन्म सिंध के रेगिस्तान में अमरकोट के पास 23 नवंबर सन 1542 में हुआ था। हुमायूँ की दयनीय दशा के कारण अकबर की बाल्यावस्था संकट में बीती और कई बार उसकी जान पर भी जोखिम रहा। सं. 1612 में हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर अपना खोया हुआ राज्य पुन: प्राप्त कर लिया, किंतु वह केवल 7 माह तक ही जीवित रहा था । उसकी मृत्यु सं.1612 के अंत में दिल्ली में हो गयी थी । उस समय अकबर पंजाब में था । हुमायूँ की मृत्यु के 21 दिन बाद (14 फरवरी, सन 1556) पंजाब के जिला गुरदासपुर के कलानूर में बड़ी सादगी के साथ उसको गद्दी पर बैठा दिया था। इस समय तक हुमायूँ की मृत्यु का समाचार गुप्त रखा गया और अकबर के गद्दी पर बैठने पर ही हुमायूँ को दिल्ली में दफनाया गया था। उसका मकबरा उसकी दूसरी पत्नी रानी बेगम ने अपने निजी धन से बनवाना शुरू किया था, जो 13-14 वर्ष के बाद (अप्रैल सन 1570 में) बन कर तैयार हुआ था। यह मकबरा अकबर कालीन मुग़ल स्थापत्य शैली का एक दर्शनीय नमूना है।

अकबर

अकबर और बैरमखाँ

हुमायूँ ने भारत से निष्कासित होने के बाद काबुल पर अधिकार किया, और 10 वर्ष के बालक अकबर को सं. 1609 (जनवरी सन 1552) में गजनी का राज्यपाल बनाया था। जब हुमायूँ पुन: भारत में आया, तब 13 वर्ष का अकबर पंजाब का राज्यपाल था। जिस समय कलानूर में उसे हुमायूँ का उत्तराधिकारी घोषित किया गया, उस समय उसकी आयु केवल 13−14 वर्ष की थी। छोटी उम्र में ही वह वयस्क व्यक्तियों से अधिक उतार−चढ़ाव के अनुभव प्राप्त कर चुका था। आरंभ में बैरमखाँ उसका संरक्षक था, जो उसकी तरफ से राज्य का संचालन करता था। अकबर के शासन काल के आरंभिक 5 वर्ष में उसके संरक्षक बैरमखाँ का प्रभुत्व था। अकबर को बैरमखाँ की कठोर नीति कतई पंसद नहीं थी। इधर उसने अपनी योग्यता, वीरता और प्रबंध−कुशलता का भी परिचय दिया। वह बैरमखाँ के हाथ की कठपुतली बनना नहीं चाहता था। उसने सन 1560 में बैरमखाँ को हज भेजा और स्वतंत्रतापूर्वक राज्य की व्यवस्था करने लगा। हज के मार्ग में बैरमखाँ की मृत्यु हो गई थी। उस समय उसका एक मात्र पुत्र रहीम केवल 4 वर्ष का बालक था। अकबर ने रहीम को अपने संरक्षण में रखा।

राजपूतों से वैवाहिक संबंध

बैरमखाँ के अनुशासन से मुक्त होते ही अकबर ने उदार नीति से शासन करना आरंभ किया। उसने शेरशाह का अनुकरण करते हुए हिन्दुओं के साथ सद्व्यवहार किया। उनके सहयोग से राज्य विस्तार और शासन को सुदृढ़ करने में सफलता प्राप्त की थी। वह राजपूतों की वीरता और प्रतिज्ञा−पालन की आदत से प्रभावित था। उसने अपनी कुशाग्र बुद्धि से समझ लिया कि भारत में मुग़ल राज्य को सुदृढ़ और स्थायी बनाने के लिए राजपूत वीरों का सहयोग प्राप्त करना आवश्यक है, उसके लिए वह राजपूत राजाओं से मित्रतापूर्ण वैवाहिक संबंध स्थापित करने लगा। उससे पहले सुल्तानों के काल में सुंदर हिन्दू-लड़कियों को मुसलमानी शासक बलात पकड़ कर निकाह कर लेते थे, जिससे पारस्परिक कटुता की निरंतर वृद्धि होती रही थी। अकबर ने बल के स्थान पर मित्रता का व्यवहार किया। इस प्रकार उसने सुल्तानी काल की कुप्रथा को खत्म कर कटुता के स्थान पर हिन्दुओं का प्रेम पाया।


गोविन्द देव जी का मंदिर, वृन्दावन
सम्राट अकबर ने निर्माण के लिए लाल पत्थर दिया।
कहा जाता है कि मन्दिर के शिल्पकार की सहायता अकबर के प्रभाव के कुछ ईसाई पादरियों ने की थी। यह मिश्रित शिल्पकला का उत्तरी भारत में अपनी किस्म का एक ही नमूना है।

14 जनवरी, सन 1562 में अपनी प्रथम अजमेर यात्रा में वह आमेर राजा बिहारीमल से मिला और राजपूतों से वैवाहिक संबंध स्थापित कर सहयोग प्राप्त करने में सफल हुआ। इस प्रकार राजपूत राजाओं में कछवाहा नरेश सबसे पहले अकबर के सम्बन्धी और सहायक हुए। राजा बिहारीमल ने अपनी बेटी का विवाह अकबर के साथ किया। उस समय अकबर की उम्र 19 वर्ष थी। यह विवाह अकबर की उन्नति का सूत्रधार बन गया। बिहारीमल का पुत्र भगवानदास और पौत्र मानसिंह अंत तक अकबर के सहयोगी और सहायक बने रहे थे।

अकबर की पहली पत्नी और युवराज सलीम की माँ का मूल नाम अज्ञात है। वह अपने वास्तविक नाम से नहीं अपनी उपाधि 'मरियम ज़मानी' (विश्व के प्रति दयालु महिला) के नाम से प्रसिद्ध रही थी। अकबरी दरबार के इतिहासकार 'अबुल फ़ज़ल' कृत 'आइना-ए-अकबरी' में और जहाँगीर के लिखे आत्मचरित 'तुजुक जहाँगीर' में उसे मरियम ज़मानी ही कहा गया है । यह उपाधि उसे सलीम के जन्म पर सन 1569 में दी गई थी। कुछ लोगों ने उसका नाम जोधाबाई लिख दिया है, जो सही नहीं है। जोधाबाई जोधपुर के राजा उदयसिंह की पुत्री थी, जिसका विवाह सलीम के साथ सन 1585 में हुआ था।


वह सम्राट अकबर की महारानी और जहाँगीर की माता होने से मुग़ल अंत:पुर की सर्वाधिक प्रतिष्ठित नारी थीं। वह मुस्लिम बादशाह से विवाह होने पर भी हिन्दू धर्म के प्रति निष्ठावान रही। सम्राट अकबर ने उसे पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी थी। वह हिन्दू धर्म के अनुसार धर्मोपासना, उत्सव−त्यौहार एवं रीति−रिवाजों को करती थी। उसकी मृत्यु सम्राट अकबर के देहावसान के 18 वर्ष पश्चात सन 1623 में आगरा में हुई थी। उसकी याद में एक भव्य स्मारक आगरा के निकटवर्ती सिकंदरा नामक स्थान पर सम्राट के मकबरे के समीप बनाया गया, जो आज भी है।

मेवाड़ का युद्ध

राजस्थान में मेवाड़ राज्य अपनी गौरवमयी परंपरा और अनुपम वीरता के कारण सर्वोपरि माना जाता था। राजपूत राजाओं पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर विशाल सेना के साथ आक्रमण किया था। उस समय मेवाड़ का राजा उदयसिंह था । वह डरकर राजधानी से भाग गया, लेकिन वहाँ के सामंतों ने बिना राजा के ही अकबर की सेना से संघर्ष किया। इन वीरों के कारण अकबर की विशाल सेना को चित्तौड़ पर शीघ्र विजय नहीं मिली थी। बाद में कहीं मुग़ल सेना चित्तौड पर अधिकार कर सकी थी। सम्राट अकबर ने चित्तौड़ पर अधिकार कर राज्य के अधिकांश भाग को अपने राज्य में मिला लिया था, किंतु महाराणा प्रताप ने मुग़ल सम्राट की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। वे जीवन पर्यंत छापामार युद्ध कर अकबर को परेशान करते रहे थे।

प्रशासन व्यवस्था

सुल्तानों के शासनकाल का प्रशासनिक या राजनैतिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं था। यही स्थिति अकबर के समय में थी। अकबर के समय में वित्तमंत्री राजा टोडरमल ने प्रशासन का ढ़ाँचा ही बदल दिया था। उसने भूमि का नया बंदोबस्त कर राज्य को 15 सूबों में बाँट दिया था। प्रत्येक सूबे में कई सरकार(जिले),प्रत्येक सरकार में कई परगने और प्रत्येक परगना में कई मुहालें होते थे। सूबे के शासन को 'सिपहसालार' और सरकार के हकिम को 'फौजदार' कहा जाता था। बड़े−बड़े शहरों में 'कोतवाल' भी होते थे। सब सूबों में आगरा का सूबा सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण था। आगरा सूबा में 13 सरकारें और 203 परगने थे। आगरा सरकार में 31 परगनें थे, जिनका क्षेत्रफल 1864 वर्ग मील था। उस समय में मथुरा मंडल आगरा सरकार के अंतर्गत था और उनका प्रशासनिक केन्द्र महावन था। मथुरा नगर तब साधारण ही था, जिसका कोई प्रशासनिक महत्व नहीं था। सुल्तानों के समय से ही मथुरामंडल का प्रशासनिक केन्द्र महावन रहा था, मुग़ल काल में वही व्यवस्था कायम रही थी। अकबर के समय में महावन का हाक़िम अलीख़ान था। उसका पिता ब्रज के बच्छगाँव का रहने वाला क्षत्रिय था, जो पठानों के समय में मुसलमान हो गया था। अलीख़ान की पुत्री पीरजादी बचपन से ही कृष्ण−भक्त थी। उसके प्रभाव से अलीख़ान कृष्ण−भक्त हो गया था। दोनों पिता−पुत्री गो. विट्टलनाथ जी के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे। मथुरा मुहाल का तब विस्तार 37,347 बीघा था और उसकी मालगुजारी 11,55807 दाम थी।

आगरा में राजधानी की व्यवस्था

मुग़लों के शासन के प्रारम्भ से सुल्तानों के शासन के अंतिम समय तक दिल्ली ही भारत की राजधानी रही थी। सुल्तान सिंकदर लोदी के शासन के उत्तर काल में उसकी राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र दिल्ली के बजाय आगरा हो गया था। यहाँ उसकी सैनिक छावनी थी। मुग़ल राज्य के संस्थापक बाबर ने शुरू से ही आगरा को अपनी राजधानी बनाया। बाबर के बाद हुमायूँ और शेरशाह सूरी और उसके उत्तराधिकारियों ने भी आगरा को ही राजधानी बनाया। मुग़ल सम्राट अकबर ने पूर्व व्यवस्था को कायम रखते हुए आगरा को राजधानी का गौरव प्रदान किया। इस कारण आगरा की बड़ी उन्नति हुई और वह मुग़ल साम्राज्य का सबसे बड़ा नगर बन गया था। कुछ समय बाद अकबर ने फतेहपुर सीकरी को राजधानी बनाया।

तीर्थकर और जजिया हटाना

अकबर राजा बनने के 8वें वर्ष सन 1563 में पहली बार मथुरा आया था। तभी उसे पता चला कि मथुरा में तीर्थ−यात्रियों से कर लिया जाता है। उसने तीर्थकर बंद करने का हुक्म दे दिया, इस कर से शाही खजाने को 10 लाख सालाना की आमदनी होती थी। गैर मुस्लिमों पर एक कर और लगाया था, जो जज़िया कहलाता था। अकबर ने अपने शासन के नवें वर्ष मार्च, सन 1564 में उस कर को भी हटा दिया था। इस कर को हटवाने में अकबर की हिन्दू-रानियों और हिन्दू दरबारियों का विशेष रूप से हाथ था।

धर्मस्थानों के निर्माण की आज्ञा

सम्राट अकबर ने सभी धर्म वालों को अपने मंदिर−देवालय आदि बनवाने की स्वतंत्रता प्रदान की थी। जिसके कारण ब्रज के विभिन्न स्थानों में पुराने पूजा−स्थलों का पुनरूद्धार किया गया और नये मंदिर−देवालयों को बनवाया गया था।

गो−वध पर रोक

हिन्दू समुदाय में गौ को पवित्र माना जाता है। मुसलमान हिन्दुओं को आंतकित करने के लिए गौ−वध किया करते थे। अकबर ने गौ−वध बंद करने की आज्ञा देकर हिन्दू जनता के मन को जीत लिया था। शाही आज्ञा से गौ−हत्या के अपराध की सजा मृत्यु थी।

धार्मिक विद्वानों का सत्संग

जिस समय अकबर ने अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी में स्थानान्तरित की, उस समय उसकी धार्मिक जिज्ञासा बड़ी प्रबल थी। उसने वहाँ राजकीय इमारतों के साथ ही साथ एक इबादतखाना (उपासना गृह) भी सन 1575 में बनवाया था, जहाँ वह सभी धर्मों के विद्वानों के प्रवचन सुन उनसे विचार−विमर्श किया करता था। वह अपना अधिकांश समय धर्म−चर्चा में ही लगाता था। वह मुस्लिम धर्म के विद्वानों के साथ ही साथ ईसाई, जैन और वैष्णव धर्माचार्यों के प्रवचन सुनता था और कभी−कभी उनमें शास्त्रार्थ भी कराता था। सन 1576 से जनवरी, सन 1579 तक लगभग 3 वर्ष तक वहाँ धार्मिक विचार−विमर्श का जोर बढ़ता गया। उस समय के धर्माचार्य श्री विट्ठलनाथ जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हीरविजय सूरि श्वेतांबर जैन धर्म के विद्वान आचार्य थे। अकबर ने दीन-ए-इलाही धर्म बनाया और चलाया।


दिल्ली के सुल्तानों के पश्चात मथुरा मंडल पर मुग़ल सम्राट का शासन हुआ था। उनमें सम्राट अकबर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। उसने अपनी राजधानी दिल्ली के बजाय आगरा में रखी थी। आगरा ब्रजमंडल का प्रमुख नगर है; अत: राजकीय रीति−नीति का प्रभाव इस भूभाग पर पड़ा था। ये सम्राट अकबर की धार्मिक नीति उदार थी, जिससे ब्रज के अन्य धर्मावलंबी प्रचुरता से लाभान्वित हुए थे। सम्राट अकबर से पहले ग्वालियर और बटेश्वर (जि.आगरा) जैन धर्म के परंपरागत केन्द्र थे। अकबर के शासन काल में आगरा भी इस धर्म का प्रसिद्ध केन्द्र हो गया था। ग्वालियर और बटेश्वर का तो पहले से ही सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व था, किंतु आगरा राजनैतिक कारण से जैनियों का केन्द्र बना। ब्रजमंडल के जैन धर्मावलंबियों में अधिक संख्या व्यापारी वैश्यों की थी। उनमें सबसे अधिक अग्रवाल, खंडेलवाल−ओसवाल आदि थे। मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा उस समय में व्यापार−वाणिज्य का भी बड़ा केन्द्र था, इसलिए वणिक वृत्ति के जैनियों का वहाँ बड़ी संख्या में एकत्र होना स्वाभाविक था।


मुग़ल सम्राट अकबर की उदार धार्मिक नीति के फलस्वरूप ब्रजमंडल में वैष्णव धर्म के नये मंदिर−देवालय बनने लगे और पुराने का जीर्णोंद्धार होने लगा, तब जैन धर्मावलंबियों में भी उत्साह का संचार हुआ था। गुजरात के विख्यात श्वेतांबराचार्य हीर विजय सूरि से सम्राट अकबर बड़े प्रभावित हुए थे। सम्राट ने उन्हें बड़े आदरपूर्वक सीकरी बुलाया, वे उनसे धर्मोपदेश सुना करते थे। इस कारण मथुरा−आगरा आदि ब्रज प्रदेश में बसे हुए जैनियों में आत्म गौरव का भाव जागृत हो गया था। वे लोग अपने मंदिरों के निर्माण अथवा जीर्णोद्धार के लिए प्रयत्नशील हो गये थे। आचार्य हीर विजय सूरि जी स्वयं मथुरा पधारे थे। उनकी यात्रा का वर्णन 'हीर सौभाग्य' काव्य के 14 वें सर्ग में हुआ था। उसमें लिखा है, सूरि जी ने मथुरा के विहार कर पार्श्वनाथ और जम्बू स्वामी के स्थलों तथा 527 स्तूपों की यात्रा की थी। सूरि जी के कुछ काल पश्चात सन 1591 में कवि दयाकुशल ने जैन तीर्थों की यात्रा कर तीर्थमाला की रचना की थी। उसके 40 वें पद्य में उसने अपने उल्लास का इस प्रकार कथन किया है,−

मथुरा देखिउ मन उल्लसइ । मनोहर थुंम जिहां पांचसइं ।।


गौतम जंबू प्रभवो साम । जिनवर प्रतिमा ठामोमाम ।।

अकबर की मृत्यु

सम्राट अकबर अपनी योग्यता, वीरता, बुद्धिमत्ता और शासन−कुशलता के कारण ही एक बड़े साम्राज्य का निर्माण कर सका था। उसका यश, वैभव और प्रताप अनुपम था। इसलिए उसकी गणना भारतवर्ष के महान सम्राटों में की जाती है। उनका अंतिम काल बड़े क्लेश और दु:ख में बीता था। अकबर ने 50 वर्ष तक शासन किया था। उस दीर्घ काल में मानसिंह और रहीम के अतिरिक्त उसके सभी विश्वसनीय सरदार−सामंतों का देहांत हो गया था। अबुलफज़ल, बीरबल, टोडरमल, पृथ्वीराज जैसे प्रिय दरबारी परलोक जा चुके थे। उसके दोनों छोटे पुत्र मुराद और दानियाल का देहांत हो चुका था। पुत्र सलीम शेष था; किंतु वह अपने पिता के विरूद्ध सदैव षड्यंत्र और विद्रोह करता रहा था। जब तक अकबर जीवित रहा, तब तक सलीम अपने दुष्कृत्यों से उसे दु:खी करता रहा; किंतु वह सदैव अपराधों को क्षमा करते रहे थे। जब अकबर सलीम के विद्रोह से तंग आ गया, तब अपने उत्तरकाल में उसने उस बड़े बेटे शाहज़ादा ख़ुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया था। किंतु अकबर ने ख़ुसरो को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया लेकिन उस महत्वाकांक्षी युवक के मन में राज्य की जो लालसा जागी, वह उसकी अकाल मृत्यु का कारण बनी। जब अकबर अपनी मृत्यु−शैया पर था, उस समय उसने सलीम के सभी अपराधों को क्षमा कर दिया और अपना ताज एवं खंजर देकर उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। उस समय अकबर की आयु 63 वर्ष और सलीम की 38 वर्ष थी। अकबर का देहावसान अक्टूबर, सन 1605 में हुआ था। उसे आगरा के पास सिकंदरा में दफनाया गया, जहाँ उसका कलापूर्ण मकबरा बना हुआ है। अकबर के बाद सलीम जहाँगीर के नाम से मुग़ल सम्राट बना।

अकबर के नवरत्न

अकबर के दरबार में 9 विशेष दरबारी थे जिन्हें अकबर के 'नवरत्न' के नाम से भी जाना जाता है।

  • अबुलफज़ल (1551 - 1602 ) ने अकबर के काल को क़लमबद्ध किया था। उसने अकबरनामा और आइना-ए-अकबरी की भी रचना की थी।
  • फ़ैज़ी (1547 - 1595) अबुल फ़ज़ल का भाई था। वह फ़ारसी में कविता करता था। राजा अकबर ने उसे अपने बेटे के गणित शिक्षक के पद पर नियुक्त किया था।
  • मिंया तानसेन अकबर के दरबार में गायक थे। वह कविता भी लिखा करते थे।
  • राजा बीरबल (1528 - 1583) दरबार के विदूषक और अकबर के सलाहकार थे।
  • राजा टोडरमल अकबर के वित्त मंत्री थे।
  • राजा मान सिंह आम्बेर (आमेर, जयपुर) के कच्छवाहा राजपूत राजा थे । वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे।
  • अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना एक कवि थे और अकबर के संरक्षक बैरम ख़ान के बेटे थे।
  • फ़कीर अजिओं-दिन अकबर के सलाहकार थे।
  • मुल्ला दो पिआज़ा अकबर के सलाहकार थे।