"अक्रूर" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
− | |||
तीर्थराजं हि चाक्रूरं गुह्यानां गुह्यभुत्तमम् । | तीर्थराजं हि चाक्रूरं गुह्यानां गुह्यभुत्तमम् । | ||
पंक्ति १०: | पंक्ति ९: | ||
ये [[वसुदेव]] के भाई बताए जाते हैं । [[कंस]] की सलाह पर श्री [[कृष्ण]] और [[बलराम]] को यही [[वृन्दावन]] से [[मथुरा]] लाए थे । कंस का वध करने के पश्चात श्री कृष्ण इनके घर गए थे । वे अक्रूर को अपना गुरु मानते थे । सत्राजित नामक [[यादव]] को [[सूर्य]] से मिली [[स्यमंतक मणि]], जिसकी चोरी का कलंक श्री कृष्ण को लगा था, इन्हीं के पास थी । ये डरकर मणि को लेकर काशी चले गए । स्यमंतक मणि की यह विशेषता थी कि जहां वह होती वहां धन-धान्य भरा रहता था । अक्रूर के चले जाने पर [[द्वारका]] में अकाल के लक्षण प्रकट होने लगे । इस पर श्री कृष्ण का अनुरोध मानकर अक्रूर [[द्वारका]] वापस चले आए । इन्होंने स्यमंतक मणि श्री कृष्ण को दे दी । श्री कृष्ण ने मणि का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करके अपने ऊपर लगा चोरी का कलंक मिटाया । | ये [[वसुदेव]] के भाई बताए जाते हैं । [[कंस]] की सलाह पर श्री [[कृष्ण]] और [[बलराम]] को यही [[वृन्दावन]] से [[मथुरा]] लाए थे । कंस का वध करने के पश्चात श्री कृष्ण इनके घर गए थे । वे अक्रूर को अपना गुरु मानते थे । सत्राजित नामक [[यादव]] को [[सूर्य]] से मिली [[स्यमंतक मणि]], जिसकी चोरी का कलंक श्री कृष्ण को लगा था, इन्हीं के पास थी । ये डरकर मणि को लेकर काशी चले गए । स्यमंतक मणि की यह विशेषता थी कि जहां वह होती वहां धन-धान्य भरा रहता था । अक्रूर के चले जाने पर [[द्वारका]] में अकाल के लक्षण प्रकट होने लगे । इस पर श्री कृष्ण का अनुरोध मानकर अक्रूर [[द्वारका]] वापस चले आए । इन्होंने स्यमंतक मणि श्री कृष्ण को दे दी । श्री कृष्ण ने मणि का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करके अपने ऊपर लगा चोरी का कलंक मिटाया । | ||
==अक्रूर घाट== | ==अक्रूर घाट== | ||
− | [[मथुरा]] और [[वृन्दावन]] के बीच में [[ब्रह्मह्रद]] नामक एक स्थान है । श्री कृष्ण ने यहीं पर अक्रूर को दिव्य दर्शन कराए थे । [[ब्रजक्षेत्र]] का यह भी एक प्रमुख तीर्थ माना जाता है और वैशाख शुक्ल नवमी को यहां मेला लगता है । | + | [[मथुरा]] और [[वृन्दावन]] के बीच में [[ब्रह्मह्रद]] नामक एक स्थान है । श्री कृष्ण ने यहीं पर अक्रूर को दिव्य दर्शन कराए थे । [[ब्रजक्षेत्र]] का यह भी एक प्रमुख तीर्थ माना जाता है और वैशाख शुक्ल नवमी को यहां मेला लगता है । वृंदावन आते हुए अक्रूर ने मार्ग में यमुना में कृष्ण तथा बलराम के दिव्य रूप के दर्शन किये अर्थात् भगवान अनंत की गोद में कृष्ण को देखा। <ref>हरि0 ब0 पु0, विष्णु पर्व, 25 26 </ref> |
==अक्रूर तीर्थ== | ==अक्रूर तीर्थ== | ||
अक्रूर तीर्थ, सर्व तीर्थो के राजा एवं गोपनीयता के बीच में अति गोपनीय है । पुन: सूर्यग्रहण के दिन अक्रूर तीर्थ में स्नान करने से [[राजसूय-अश्वमेध यज्ञ]] के फल प्राप्त होता है । इस स्थान पर श्री अक्रूरजी ने स्नान करते समय श्री [[कृष्ण]] के विभूति दर्शन का लाभ प्राप्त किया था । [[कंस]] ने श्रीमहादेवजी को तपस्या से सन्तुष्ट कर एक धनुष प्राप्त किया था । श्रीमहादेव ने उनको आशीर्वादपूर्वक वरदान दिया था कि- इस धनु के द्वारा तुम बहुत राज्य जयलाभ कर सकते हो । इस धनु्ष को कोई शीघ्र सरलता से तोड़ नहीं सकता । जो इस धनुष को तोड़ेगा उसके हाथों से ही तुम्हारी मृत्यु होगी । धनुष यज्ञ का संवाद कंस ने विभिन्न देश विदेश में प्रचार कर दिया । इधर श्रीकृष्ण-बलराम के अनुष्ठान में योगदान के लिये कंस ने श्री अक्रूरजी को [[गोकुल]] में प्रेषित किया तब अक्रूर जी श्रीकृष्ण और बलराम को रथ में बैठाकर कंस की राजधानी मथुरा की तरफ चल पड़े । | अक्रूर तीर्थ, सर्व तीर्थो के राजा एवं गोपनीयता के बीच में अति गोपनीय है । पुन: सूर्यग्रहण के दिन अक्रूर तीर्थ में स्नान करने से [[राजसूय-अश्वमेध यज्ञ]] के फल प्राप्त होता है । इस स्थान पर श्री अक्रूरजी ने स्नान करते समय श्री [[कृष्ण]] के विभूति दर्शन का लाभ प्राप्त किया था । [[कंस]] ने श्रीमहादेवजी को तपस्या से सन्तुष्ट कर एक धनुष प्राप्त किया था । श्रीमहादेव ने उनको आशीर्वादपूर्वक वरदान दिया था कि- इस धनु के द्वारा तुम बहुत राज्य जयलाभ कर सकते हो । इस धनु्ष को कोई शीघ्र सरलता से तोड़ नहीं सकता । जो इस धनुष को तोड़ेगा उसके हाथों से ही तुम्हारी मृत्यु होगी । धनुष यज्ञ का संवाद कंस ने विभिन्न देश विदेश में प्रचार कर दिया । इधर श्रीकृष्ण-बलराम के अनुष्ठान में योगदान के लिये कंस ने श्री अक्रूरजी को [[गोकुल]] में प्रेषित किया तब अक्रूर जी श्रीकृष्ण और बलराम को रथ में बैठाकर कंस की राजधानी मथुरा की तरफ चल पड़े । | ||
पंक्ति १६: | पंक्ति १५: | ||
[[नारद]] कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । | [[नारद]] कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा । | ||
− | + | स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु दु:खतरं तत: । | |
− | + | यस्य वापि न तौ स्यातां किं नु दु:खतरं तत: ॥10॥<ref>[[महाभारत]] शांति पर्व अध्याय-८२</ref> | |
− | यस्य वापि न तौ स्यातां किं नु दु:खतरं तत: ॥10॥ | ||
इसके अतिरिक्त [[आहुक]] और अक्रूर दोनों ही पराक्रमी तथा कठिन कर्म करनेवाले हैं, इससे वे लोग जिस ओर रहेंगे, उसकी अपेक्षा दु:ख दायक कुछ भी नहीं है, और जिसकी ओर न रहेंगे, उसे भी उससे अधिक दु:खका विषय कुछ भी नहीं हो सकता ॥10॥ | इसके अतिरिक्त [[आहुक]] और अक्रूर दोनों ही पराक्रमी तथा कठिन कर्म करनेवाले हैं, इससे वे लोग जिस ओर रहेंगे, उसकी अपेक्षा दु:ख दायक कुछ भी नहीं है, और जिसकी ओर न रहेंगे, उसे भी उससे अधिक दु:खका विषय कुछ भी नहीं हो सकता ॥10॥ | ||
+ | ==टीका-टिप्पणी== | ||
+ | <references/> | ||
[[category:पौराणिक इतिहास]] | [[category:पौराणिक इतिहास]] | ||
[[category:कृष्ण]] | [[category:कृष्ण]] |
१०:३९, १४ जून २००९ का अवतरण
तीर्थराजं हि चाक्रूरं गुह्यानां गुह्यभुत्तमम् ।
तत्फलं समवाप्नोति सर्व्वतीर्थावगाहनात् ॥
अक्रूरे च पुन: स्नात्वा राहुग्रस्त दिवाकरे ।
राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलमाप्नोति मानव:॥
ये वसुदेव के भाई बताए जाते हैं । कंस की सलाह पर श्री कृष्ण और बलराम को यही वृन्दावन से मथुरा लाए थे । कंस का वध करने के पश्चात श्री कृष्ण इनके घर गए थे । वे अक्रूर को अपना गुरु मानते थे । सत्राजित नामक यादव को सूर्य से मिली स्यमंतक मणि, जिसकी चोरी का कलंक श्री कृष्ण को लगा था, इन्हीं के पास थी । ये डरकर मणि को लेकर काशी चले गए । स्यमंतक मणि की यह विशेषता थी कि जहां वह होती वहां धन-धान्य भरा रहता था । अक्रूर के चले जाने पर द्वारका में अकाल के लक्षण प्रकट होने लगे । इस पर श्री कृष्ण का अनुरोध मानकर अक्रूर द्वारका वापस चले आए । इन्होंने स्यमंतक मणि श्री कृष्ण को दे दी । श्री कृष्ण ने मणि का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करके अपने ऊपर लगा चोरी का कलंक मिटाया ।
अक्रूर घाट
मथुरा और वृन्दावन के बीच में ब्रह्मह्रद नामक एक स्थान है । श्री कृष्ण ने यहीं पर अक्रूर को दिव्य दर्शन कराए थे । ब्रजक्षेत्र का यह भी एक प्रमुख तीर्थ माना जाता है और वैशाख शुक्ल नवमी को यहां मेला लगता है । वृंदावन आते हुए अक्रूर ने मार्ग में यमुना में कृष्ण तथा बलराम के दिव्य रूप के दर्शन किये अर्थात् भगवान अनंत की गोद में कृष्ण को देखा। [१]
अक्रूर तीर्थ
अक्रूर तीर्थ, सर्व तीर्थो के राजा एवं गोपनीयता के बीच में अति गोपनीय है । पुन: सूर्यग्रहण के दिन अक्रूर तीर्थ में स्नान करने से राजसूय-अश्वमेध यज्ञ के फल प्राप्त होता है । इस स्थान पर श्री अक्रूरजी ने स्नान करते समय श्री कृष्ण के विभूति दर्शन का लाभ प्राप्त किया था । कंस ने श्रीमहादेवजी को तपस्या से सन्तुष्ट कर एक धनुष प्राप्त किया था । श्रीमहादेव ने उनको आशीर्वादपूर्वक वरदान दिया था कि- इस धनु के द्वारा तुम बहुत राज्य जयलाभ कर सकते हो । इस धनु्ष को कोई शीघ्र सरलता से तोड़ नहीं सकता । जो इस धनुष को तोड़ेगा उसके हाथों से ही तुम्हारी मृत्यु होगी । धनुष यज्ञ का संवाद कंस ने विभिन्न देश विदेश में प्रचार कर दिया । इधर श्रीकृष्ण-बलराम के अनुष्ठान में योगदान के लिये कंस ने श्री अक्रूरजी को गोकुल में प्रेषित किया तब अक्रूर जी श्रीकृष्ण और बलराम को रथ में बैठाकर कंस की राजधानी मथुरा की तरफ चल पड़े ।
नारद कृष्ण संवाद ने कृष्ण के सम्बन्ध में कई बातें हमें स्पष्ट संकेत देती हैं कि कृष्ण ने भी एक सहज संघ मुखिया के रूप में ही समस्याओं से जूझते हुए समय व्यतीत किया होगा ।
स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु दु:खतरं तत: ।
यस्य वापि न तौ स्यातां किं नु दु:खतरं तत: ॥10॥[२]
इसके अतिरिक्त आहुक और अक्रूर दोनों ही पराक्रमी तथा कठिन कर्म करनेवाले हैं, इससे वे लोग जिस ओर रहेंगे, उसकी अपेक्षा दु:ख दायक कुछ भी नहीं है, और जिसकी ओर न रहेंगे, उसे भी उससे अधिक दु:खका विषय कुछ भी नहीं हो सकता ॥10॥