अगस्त्य

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महर्षि अगस्त्य / Agastya Rishi

ब्रह्मतेज के मूर्तिमान स्वरूप महामुनि अगस्त्य जी का पावन चरित्र अत्यन्त उदात्त तथा दिव्य है। वेदों में इनका वर्णन आया है।

  • ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरूण नामक वेदताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव हुआ। [१]
  • पुराणों में यह कथा आयी है कि महर्षि अगस्त्य (पुलस्त्य)- की पत्नी महान पतिव्रता तथा श्री विद्या की आचार्य हैं, जो 'लोपामुद्रा' के नाम से विख्यात हैं। आगम-ग्रन्थों में इन दम्पत्ति की देवी साधना का विस्तार से वर्णन आया है।
  • महर्षि अगस्त्य महातेजा तथा महातपा ऋषि थे। समुद्रस्थ राक्षसों के अत्याचार से घबराकर देवता लोग इनकी शरण में गये और अपना दु:ख कह सुनाया। फल यह हुआ कि ये सारा समुद्र पी गये, जिससे सभी राक्षसों का विनाश हो गया। इसी प्रकार इल्वल तथा वातापी नामक दुष्ट दैत्यों द्वारा हो रहे ऋषि-संहार को इन्होंने बंद किया और लोक का महान कल्याण हुआ।
  • एक बार विन्ध्याचल सूर्य का मार्ग रोककर खड़ा हो गया, जिससे सूर्य का आवागमन ही बंद हो गया। सूर्य इनकी शरण में आये, तब इन्होंने विन्ध्य पर्वत को स्थिर कर दिया और कहा- 'जब तक मैं दक्षिण देश से न लौटूँ, तब तक तुम ऐसे ही निम्न बनकर रूके रहो।' ऐसा ही हुआ । विन्ध्याचल नीचे हो गया, फिर अगस्त्य जी लौटे नहीं, अत: विन्ध्य पर्वत उसी प्रकार निम्न रूप में स्थिर रह गया और भगवान सूर्य का सदा के लिये मार्ग प्रशस्त हो गया।
  • इस प्रकार के अनेक असम्भव कार्य महर्षि अगस्त्य ने अपनी मन्त्र शक्ति से सहज ही कर दिखाया और लोगों का कल्याण किया। भगवान श्री राम वनगमन के समय इनके आश्रम पर पधारे थे। भगवान ने उनका ऋषि-जीवन कृतार्थ किया। भक्ति की प्रेम मूर्ति महामुनि सुतीक्ष्ण इन्हीं अगस्त्य जी के शिष्य थे। अगस्त्य संहिता आदि अनेक ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया, जो तान्त्रिक साधकों के लिये महान उपादेय है।
  • सबसे महत्त्व की बात यह है कि महर्षि अगस्त्य ने अपनी तपस्या से अनेक ऋचाओं के स्वरूपों का दर्शन किया था, इसलिये ये मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। ऋग्वेद के अनेक मन्त्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों के द्रष्टा ऋषि महर्षि अगस्त्य जी हैं। साथ ही इनके पुत्र दृढच्युत तथा दृढच्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मण्डल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं। महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा आज भी पूज्य और वन्द्य हैं, नक्षत्र-मण्डल में ये विद्यमान हैं। दूर्वाष्टमी आदि व्रतोपवासों में इन दम्पति की आराधना-उपासना की जाती है।

इल्वल और वातापि का वर्णन

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने गया से प्रस्थान किया और अगस्त्याश्रम में जाकर दुर्जय मणिमती नगरी में निवास किया। वहीं वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा- 'ब्रह्मन्! अगस्त्यजी ने यहाँ वातापि को किसलिये नष्ट किया? वहीं वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा सुधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा- 'ब्रह्मन! अगस्त्यजी ने यहाँ वातपि को किस लिये नष्ट किया।  'मनुष्यों का विनाश करने वाले उस दैत्य का प्रभाव कैसा था? और महात्मा अगस्त्यजी के मन में क्रोध का उदय कैसे हुआ'।
लोमशजी ने कहा- कौरव नन्दन! पूर्वकाल की बात है, इस मणिमती नगरी में इल्वल नामक दैत्य रहता था वातापि उसी का छोटा भाई था। एक दिन दितिनन्दन इल्वल ने एक तपस्वी ब्राह्मण से कहा- 'भगवन! आप मुझे ऐसा पुत्र दें, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हो।' उन ब्राह्मणदेवता ने इल्वल को इन्द्र के समान पुत्र नहीं दिया। इससे वह असुर उन ब्राह्मणदेवता पर बहुत कुपित हो उठा। राजन! तभी से इल्वल दैत्य क्रोध में भरकर ब्राह्मणों की हत्या करने लगा। वह मायावी अपने भाई वातापि को माया से बकरा बना देता था। वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था! अत: वह क्षणभर में भेड़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरे को पकाकर उसका मांस राँधता और किसी ब्राह्मण को खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मण को मारने की इच्छा करता था। इल्वल में यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोक में गये हुए प्राणी को उसका नाम लेकर बुलाता, वह पुन: शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था। उस दिन वातापि दैत्य को बकरा बनाकर इल्वल उसके मांस का संस्कार किया और उन ब्राह्मणदेव को वह मांस खिलाकर पुन: अपने भाई को पुकारा।
राजन! इल्वल के द्वारा उच्च स्वर से बोली हुई वाणी सुनकर वह अत्यन्त मायावी ब्राह्मणशत्रु बलवान महादैत्यवातापि उस ब्राह्मण की पसली को फाड़कर हँसता हुआ निकल आया। राजन! इस प्रकार दुष्टहृदय इल्वल दैत्य बार-बार ब्राह्मणों को भोजन कराकर अपने भाई द्वारा उनकी हिंसा करा देता था (इसीलिये अगस्त्यमुनि ने वातापि को नष्ट किया था)। 
इन्हीं दिनों भगवान अगस्त्यमुनि कहीं चले जा रहे थे। उन्होंने एक जगह अपने पितरों को देखा, जो एक गड्ढे में नीचे मुँह किये लटक रहे थे। तब उन लटकते हुए पितरों से अगस्त्यजी ने पूछा- 'आपलोग यहाँ किसलिये नीचे मुँह किये काँपते हुए से लटक रहे है। यह सुनकर उन वेदवादी पितरों ने उत्तर दिया- 'संतान परम्परा के लोप की सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है'।

टीका-टिप्पणी

  1. सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥ इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है- 'ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥'fckLRइस प्रकार कुंभ से अगस्त्य तथा महर्षि वसिष्ठ का प्रादुर्भाव हुआ।


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