अमीर ख़ुसरो

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
Govind (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:३६, १० नवम्बर २००९ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ


अमीर खुसरो / Amir Khusro

(1253 ई. से 1325 ई.)

अमीर खुसरो
Amir-Khusro

अमीर खुसरो दहलवी का जन्म उत्तर-प्रदेश के एटा जिले के पटियाली नामक ग्राम में गंगा किनारे हुआ था। अमीर खुसरो की माँ दौलत नाज़ हिन्दू (राजपूत) थीं । ये दिल्ली के एक रईस अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं। ये बादशाह बलबन के युद्ध मंत्री थे। ये राजनीतिक दवाब के कारण नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे । खुसरो के ननिहाल में गाने-बजाने और संगीत का माहौल था । खुसरो के नाना को पान खाने का बेहद शौक था। इस पर बाद में खुसरो ने 'तम्बोला' नामक एक मसनवी भी लिखी । इस मिले जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर किशोर खुसरो पर पड़ा । वे जीवन में कुछ अलग हट कर करना चाहते थे और वाक़ई ऐसा हुआ भी । खुसरो के श्याम वर्ण रईस नाना इमादुल्मुल्क और पिता अमीर सैफुद्दीन दोनों ही चिश्तिया सूफ़ी सम्प्रदाय के महान सूफ़ी साधक एवं संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया उर्फ़े सुल्तानुल मशायख के भक्त अथवा मुरीद थे । उनके समस्त परिवार ने औलिया साहब से धर्मदीक्षा ली थी । उस समय खुसरो केवल सात वर्ष के थे। खुसरो ने अपना सारा जीवन राज्याश्रय में ही बिताया । राजदरबार में रहते हुए भी खुसरो हमेशा कवि, कलाकार, संगीतज्ञ और सेनिक ही बने रहे । खुसरो की लोकप्रियता का कारण उनकी हिन्दी रचनाएँ ही हैं।

हजरत निजामुद्दीन

उन्होंने स्वयं कहा है-मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ । अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो । मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा खुसरो को हिन्दी खड़ीबोली का पहला लोकप्रिय कवि माना जाता है । एक बार की बात है। तब खुसरो गयासुद्दीन तुगलक के दिल्ली दरबार में दरबारी थे । तुगलक खुसरो को तो चाहता था मगर हजरत निजामुद्दीन के नाम तक से चिढता था । खुसरो को तुगलक की यही बात नागवार गुजरती थी । मगर वह क्या कर सकता था, बादशाह का मिजाज । बादशाह एक बार कहीं बाहर से दिल्ली लौट रहा था तभी चिढक़र उसने खुसरो से कहा कि हजरत निजामुद्दीन को पहले ही आगे जा कर यह संदेस दे दें कि बादशाह के दिल्ली पहुँचने से पहले ही वे दिल्ली छोड क़र चले जाएं । खुसरो को बडी तकलीफ हुई, पर अपने सन्त को यह संदेस कहा और पूछा अब क्या होगा ?

कुछ नहीं खुसरो ! तुम घबराओ मत । हनूज दिल्ली दूरअस्त - यानि अभी बहुत दिल्ली दूर है । सचमुच बादशाह के लिये दिल्ली बहुत दूर हो गई। रास्ते में ही एक पडाव के समय वह जिस खेमे में ठहरा था, भयंकर अंधड से वह टूट कर गिर गया और फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। तभी से यह कहावत अभी दिल्ली दूर है पहले खुसरो की शायरी में आई फिर हिन्दी में प्रचलित हो गई । अमीर खुसरो किसी काम से दिल्ली से बाहर कहीं गए हुए थे वहीं उन्हें अपने ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के निधन का समाचार मिला । समाचार क्या था खुसरो की दुनिया लुटने की खबर थी । वे सन्नीपात की अवस्था में दिल्ली पहुँचे , धूल-धूसरित खानकाह के द्वार पर खडे हो गए और साहस न कर सके अपने पीर की मृत देह को देखने का । आखिरकार जब उन्होंने शाम के ढलते समय पर उनकी मृत देह देखी तो उनके पैरों पर सर पटक-पटक कर मूर्छित हो गए । और उसी बेसुध हाल में उनके होंठों से निकला,

गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देस।।

अपने प्रिय के वियोग में खुसरो ने संसार के मोहजाल काट फेंके। धन-सम्पत्ति दान कर, काले वस्त्र धारण कर अपने पीर की समाधि पर जा बैठे-कभी न उठने का दृढ निश्चय करके। और वहीं बैठ कर प्राण विसर्जन करने लगे। कुछ दिन बाद ही पूरी तरह विसर्जित होकर खुसरो के प्राण अपने प्रिय से जा मिले। पीर की वसीयत के अनुसार अमीर खुसरो की समाधि भी अपने प्रिय की समाधि के पास ही बना दी गई।


ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराये नैना बनाये बतियां | कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान, न लेहो काहे लगाये छतियां ||

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह, सखि पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ||

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं, किसे पडी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियां ||

चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह | न नींद नैना, ना अंग चैना ना आप आवें, न भेजें पतियां ||

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर कि दाद मारा, गरीब खुसरौ | सपेट मन के, वराये राखूं जो जाये पांव, पिया के खटियां ||

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके

प्रेम भटी का मदवा पिलाइके

मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ

बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा

अपनी सी रंग दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

खुसरो निजाम के बल बल जाए

मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके

ख़ुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार, जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.

सेज वो सूनी देख के रोवुँ मैं दिन रैन, पिया पिया मैं करत हूँ पहरों, पल भर सुख ना चैन.