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*भक्तवर अम्बरीष वैवस्वत मनु के पौत्र महाराज नाभाग के पुत्र थे। | *भक्तवर अम्बरीष वैवस्वत मनु के पौत्र महाराज नाभाग के पुत्र थे। | ||
− | *'धनोन्मत्त अम्बरीष! तुमने मेरा अनादर किया है।' श्री[[दुर्वासा]] ने तपोबल से जान लिया था कि [[यमुना|कालिन्दी]]-कूल से मेरे आने के पूर्व ही इन्होंने श्री हरि का चरणामृत ले लिया है। द्वादशी केवल एक घण्टा शेष थीं। वर्ष भर का एकादशी व्रत आज सविधि पूर्ण हुआ थां। | + | *'धनोन्मत्त अम्बरीष! तुमने मेरा अनादर किया है।' श्री [[दुर्वासा]] ने तपोबल से जान लिया था कि [[यमुना|कालिन्दी]]-कूल से मेरे आने के पूर्व ही इन्होंने श्री हरि का चरणामृत ले लिया है। द्वादशी केवल एक घण्टा शेष थीं। वर्ष भर का एकादशी व्रत आज सविधि पूर्ण हुआ थां। वस्त्रा-भूषणों से सुसज्जित अनेकों गायें दान दी गयी थीं और सादर ब्राह्मण-भोजन कराया गया था। पारण-विधि की रक्षा के लिये अम्बरीष ने यह व्यवस्था ली थी, पर ऋषि क्रोधित हो गये। 'तू श्री [[विष्णु]] का भक्त नहीं। तू महा अभिमानी और धृष्ट है। आमन्त्रण देकर अनादृत करने का दण्ड दिये बिना मैं मान नहीं सकूँगां' ऋषि ने अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर पृथ्वी पर पटक दिया। |
*महाभयानक कृत्या हाथ में तीक्ष्ण खंग लिये उत्पन्न हो गयी। वह अम्बरीष पर झपटी ही थी कि तेजोमय चक्र चमक उठा, कृत्या वहीं राख हो गयीं ऋषि प्राण लेकर दौड़े, पर वह तीव्र प्रकाश-पुंज उनके पीछे पड़ गया था। | *महाभयानक कृत्या हाथ में तीक्ष्ण खंग लिये उत्पन्न हो गयी। वह अम्बरीष पर झपटी ही थी कि तेजोमय चक्र चमक उठा, कृत्या वहीं राख हो गयीं ऋषि प्राण लेकर दौड़े, पर वह तीव्र प्रकाश-पुंज उनके पीछे पड़ गया था। | ||
− | *दसों दिशाओं और चतुर्दश भुवनों में ऋषि घूमते-घूमते थक गये, पर कहीं आश्रय नहीं मिला और वह सुदर्शन चक्र उनके प्राण की क्षुधा लिये आतुरता से पीछे लगा था। | + | *दसों दिशाओं और चतुर्दश भुवनों में ऋषि घूमते-घूमते थक गये, पर कहीं आश्रय नहीं मिला और वह सुदर्शन चक्र उनके प्राण की क्षुधा लिये आतुरता से पीछे लगा था। श्रीविष्णु के चरणों में प्रणिपात करते ही उत्तर मिला, 'मैं विवश हूँ, महामुने! अपनी रक्षा चाहते हैं तो आप अम्बरीष से ही क्षमा माँगें। वे ही आपको शान्ति दे सकते हैं।' |
− | *'समस्त प्राणियों के आत्मा प्रभु मुझ पर सन्तुष्ट हों तो ऋषि का संकट दूर हो।' दुर्वासा ने रोते हुए प्रार्थना की। ब्राह्मण को अपना पैर स्पर्श करते देखकर अम्बरीष काँप उठे थे। अत्यन्त दु:ख से एक वर्ष से वे केवल जल पर जीवन चला रहे थे। ऋषि के पीछे सुदर्शन-चक्र को लगे इतना समय हो गया था। | + | *'समस्त प्राणियों के आत्मा प्रभु मुझ पर सन्तुष्ट हों तो ऋषि का संकट दूर हो।' [[दुर्वासा]] ने रोते हुए प्रार्थना की। ब्राह्मण को अपना पैर स्पर्श करते देखकर अम्बरीष काँप उठे थे। अत्यन्त दु:ख से एक वर्ष से वे केवल जल पर जीवन चला रहे थे। ऋषि के पीछे सुदर्शन-चक्र को लगे इतना समय हो गया था। |
*'भगवान के भक्तों का स्वरूप मैंने अब समझा!' सुदर्शन के अदृश्य होने पर ऋषि के मुँह से निकल पड़ां 'वे काँटों पर सोकर भी दूसरे के लिये सुमन-शय्या प्रस्तुत कर देते हैं। दूसरे का सुख ही उनका अपना सुख है।' | *'भगवान के भक्तों का स्वरूप मैंने अब समझा!' सुदर्शन के अदृश्य होने पर ऋषि के मुँह से निकल पड़ां 'वे काँटों पर सोकर भी दूसरे के लिये सुमन-शय्या प्रस्तुत कर देते हैं। दूसरे का सुख ही उनका अपना सुख है।' | ||
*ऋषि की आँखें गीली हो गयी थीं और श्री अम्बरीष का मस्तक उनके चरणों पर था। | *ऋषि की आँखें गीली हो गयी थीं और श्री अम्बरीष का मस्तक उनके चरणों पर था। |
०७:१०, १२ नवम्बर २००९ का अवतरण
अम्बरीष / Ambrish
- भक्तवर अम्बरीष वैवस्वत मनु के पौत्र महाराज नाभाग के पुत्र थे।
- 'धनोन्मत्त अम्बरीष! तुमने मेरा अनादर किया है।' श्री दुर्वासा ने तपोबल से जान लिया था कि कालिन्दी-कूल से मेरे आने के पूर्व ही इन्होंने श्री हरि का चरणामृत ले लिया है। द्वादशी केवल एक घण्टा शेष थीं। वर्ष भर का एकादशी व्रत आज सविधि पूर्ण हुआ थां। वस्त्रा-भूषणों से सुसज्जित अनेकों गायें दान दी गयी थीं और सादर ब्राह्मण-भोजन कराया गया था। पारण-विधि की रक्षा के लिये अम्बरीष ने यह व्यवस्था ली थी, पर ऋषि क्रोधित हो गये। 'तू श्री विष्णु का भक्त नहीं। तू महा अभिमानी और धृष्ट है। आमन्त्रण देकर अनादृत करने का दण्ड दिये बिना मैं मान नहीं सकूँगां' ऋषि ने अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर पृथ्वी पर पटक दिया।
- महाभयानक कृत्या हाथ में तीक्ष्ण खंग लिये उत्पन्न हो गयी। वह अम्बरीष पर झपटी ही थी कि तेजोमय चक्र चमक उठा, कृत्या वहीं राख हो गयीं ऋषि प्राण लेकर दौड़े, पर वह तीव्र प्रकाश-पुंज उनके पीछे पड़ गया था।
- दसों दिशाओं और चतुर्दश भुवनों में ऋषि घूमते-घूमते थक गये, पर कहीं आश्रय नहीं मिला और वह सुदर्शन चक्र उनके प्राण की क्षुधा लिये आतुरता से पीछे लगा था। श्रीविष्णु के चरणों में प्रणिपात करते ही उत्तर मिला, 'मैं विवश हूँ, महामुने! अपनी रक्षा चाहते हैं तो आप अम्बरीष से ही क्षमा माँगें। वे ही आपको शान्ति दे सकते हैं।'
- 'समस्त प्राणियों के आत्मा प्रभु मुझ पर सन्तुष्ट हों तो ऋषि का संकट दूर हो।' दुर्वासा ने रोते हुए प्रार्थना की। ब्राह्मण को अपना पैर स्पर्श करते देखकर अम्बरीष काँप उठे थे। अत्यन्त दु:ख से एक वर्ष से वे केवल जल पर जीवन चला रहे थे। ऋषि के पीछे सुदर्शन-चक्र को लगे इतना समय हो गया था।
- 'भगवान के भक्तों का स्वरूप मैंने अब समझा!' सुदर्शन के अदृश्य होने पर ऋषि के मुँह से निकल पड़ां 'वे काँटों पर सोकर भी दूसरे के लिये सुमन-शय्या प्रस्तुत कर देते हैं। दूसरे का सुख ही उनका अपना सुख है।'
- ऋषि की आँखें गीली हो गयी थीं और श्री अम्बरीष का मस्तक उनके चरणों पर था।