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==अस्त्र शस्त्र==
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==अस्त्र शस्त्र / Mythological Weapons==
आज हम यूरोप के अस्त्र-शस्त्र देखकर चकित और स्तम्भित हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि ये सब नये आविष्कार हैं। हमें अपनी पूर्व परम्परा का ज्ञान नहीं है। प्राचीन [[आर्यावर्त]] के आर्यपुरूष अस्त्र-शस्त्रविद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी। [[आर्य|आर्यों]] की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी। प्राचीनकाल में जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है-  
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*अस्त्र उसे कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं। वे अग्नि, गैस और विद्युत् तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं। <br />
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आज हम यूरोप के अस्त्र-शस्त्र देखकर चकित और स्तम्भित हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि ये सब नये आविष्कार हैं। हमें अपनी पूर्व परम्परा का ज्ञान नहीं है। प्राचीन [[आर्यावर्त]] के आर्यपुरुष अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी। [[आर्य|आर्यों]] की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी। प्राचीन काल में जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है-  
* शस्त्र खतरनाक हथियार हैं, जिनके प्रहार से चोट पहुँचती है और मृत्यु होती है। ये हथियार अधिक उपयोग किये जाते हैं।  
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*अस्त्र उसे कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं। वे अग्नि, गैस और विद्युत तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं। <br />
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*शस्त्र ख़तरनाक हथियार हैं, जिनके प्रहार से चोट पहुँचती है और मृत्यु होती है। ये हथियार अधिक उपयोग किये जाते हैं।
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==अस्त्रों के विभाग==
 
==अस्त्रों के विभाग==
 
अस्त्रों को दो विभागों में बाँटा गया है- <br />
 
अस्त्रों को दो विभागों में बाँटा गया है- <br />
(1)वे आयुध जो मन्त्रों से चलाये जाते हैं- ये दैवी हैं। प्रत्येक शस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मन्त्र-तन्त्र के द्वारा उसका संचालन होता है। वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मान्त्रिक अस्त्र कहते हैं। इन बाणों के कुछ रूप इस प्रकार हैं—
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(1)वे आयुध जो मन्त्रों से चलाये जाते हैं- ये दैवी हैं। प्रत्येक शस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मन्त्र-तन्त्र के द्वारा उसका संचालन होता है। वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मान्त्रिक-अस्त्र कहते हैं। इन बाणों के कुछ रूप इस प्रकार हैं—
*'''आग्नेय''' यह विस्फोटक बाण है। यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है। <br />
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*'''आग्नेय''' यह विस्फोटक बाण है। यह [[जल]] के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है। <br />
 
*'''पर्जन्य''' यह विस्फोटक बाण है। यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है।<br />  
 
*'''पर्जन्य''' यह विस्फोटक बाण है। यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है।<br />  
 
*'''वायव्य''' इस बाण से भयंकर तूफान आता है और अन्धकार छा जाता है।<br />  
 
*'''वायव्य''' इस बाण से भयंकर तूफान आता है और अन्धकार छा जाता है।<br />  
*'''पन्नग''' इससे सर्प पैदा होते हैं। इसके प्रतिकार स्वरूप गरूड़बाण छोड़ा जाता है।<br />  
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*'''पन्नग''' इससे सर्प पैदा होते हैं। इसके प्रतिकार स्वरूप गरुड़ बाण छोड़ा जाता है।<br />  
*'''गरूड़''' इस बाण के चलते ही गरूड़ उत्पन्न होते है, जो सर्पों को खा जाते हैं।<br />  
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*'''गरुड़''' इस बाण के चलते ही गरुड़ उत्पन्न होते है, जो सर्पों को खा जाते हैं।<br />  
 
*'''ब्रह्मास्त्र''' यह अचूक विकराल अस्त्र है। शत्रु का नाश करके छोड़ता है। इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं।<br />  
 
*'''ब्रह्मास्त्र''' यह अचूक विकराल अस्त्र है। शत्रु का नाश करके छोड़ता है। इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं।<br />  
*'''पाशुपत''' इससे विश्व नाश हो जाता हैं यह बाण महाभारतकाल में केवल अर्जुन के पास थां।<br />  
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*'''पाशुपत''' इससे विश्व नाश हो जाता हैं यह बाण महाभारतकाल में केवल अर्जुन के पास था।<br />  
*'''वैष्णव—नारायणास्त्र''' यह भी पाशुपत के समान विकराल अस्त्र है। इस नारायण-अस्त्र का कोई प्रतिकार ही नहीं है। यह बाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई शक्ति इसका मुकाबला नहीं कर सकती। इसका केवल एक ही प्रतिकार है और वह यह है कि शत्रु अस्त्र छोड़कर नम्रतापूर्वक अपने को अर्पित कर दे। कहीं भी हो, यह बाण वहाँ जाकर ही भेद करता है। इस बाण के सामने झुक जाने पर यह अपना प्रभाव नहीं करता।  
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*'''वैष्णव—नारायणास्त्र''' यह भी पाशुपत के समान विकराल अस्त्र है। इस नारायण-अस्त्र का कोई प्रतिकार ही नहीं है। यह बाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई शक्ति इसका मुक़ाबला नहीं कर सकती। इसका केवल एक ही प्रतिकार है और वह यह है कि शत्रु अस्त्र छोड़कर नम्रतापूर्वक अपने को अर्पित कर दे। कहीं भी हो, यह बाण वहाँ जाकर ही भेद करता है। इस बाण के सामने झुक जाने पर यह अपना प्रभाव नहीं करता।  
 
इन दैवी बाणों के अतिरिक्त ब्रह्मशिरा और एकाग्नि आदि बाण है। आज यह सब बाण-विद्या इस देश के लिये अतीत की घटना बन गयीं महाराज [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] के बाद बाण-विद्या का सर्वथा लोप हो गया।<br />  
 
इन दैवी बाणों के अतिरिक्त ब्रह्मशिरा और एकाग्नि आदि बाण है। आज यह सब बाण-विद्या इस देश के लिये अतीत की घटना बन गयीं महाराज [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] के बाद बाण-विद्या का सर्वथा लोप हो गया।<br />  
(2) वे शस्त्र हैं, जो यान्त्रिक उपाय से फेंके जाते हैं; ये अस्त्रनलिका आदि हैं नाना प्रकार के अस्त्र इसके अन्तर्गत आते हैं। अग्नि, गैस, विद्युत् से भी ये अस्त्र छोडे जाते हैं। प्रमाणों की जरूरत नहीं है कि प्राचीन आर्य गोला-बारूद और भारी तोपें, टैंक बनाने में भी कुशल थें। इन अस्त्रों के लिये देवी और देवताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये भयकंर अस्त्र हैं और स्वयं ही अग्नि, गैस या विद्युत आदि से चलते हैं। यहाँ हम कुछ अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन करते हैं, जिनका प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों में उल्लेख है।<br />
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(2) वे शस्त्र हैं, जो यान्त्रिक उपाय से फेंके जाते हैं; ये अस्त्रनलिका आदि हैं नाना प्रकार के अस्त्र इसके अन्तर्गत आते हैं। अग्नि, गैस, विद्युत से भी ये अस्त्र छोडे जाते हैं। प्रमाणों की ज़रूरत नहीं है कि प्राचीन आर्य गोला-बारूद और भारी तोपें, टैंक बनाने में भी कुशल थे। इन अस्त्रों के लिये देवी और देवताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये भयकंर अस्त्र हैं और स्वयं ही अग्नि, गैस या विद्युत आदि से चलते हैं। यहाँ हम कुछ अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन करते हैं, जिनका प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों में उल्लेख है।<br />
 
*'''शक्ति''' यह लंबाई में गजभर होती है, उसका हेंडल बड़ा होता है, उसका मुँह सिंह के समान होता है और उसमें बड़ी तेज जीभ और पंजे होते हैं। उसका रंग नीला होता है और उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ लगी होती हैं। यह बड़ी भारी होती है और दोनों हाथों से फेंकी जाती है।<br />  
 
*'''शक्ति''' यह लंबाई में गजभर होती है, उसका हेंडल बड़ा होता है, उसका मुँह सिंह के समान होता है और उसमें बड़ी तेज जीभ और पंजे होते हैं। उसका रंग नीला होता है और उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ लगी होती हैं। यह बड़ी भारी होती है और दोनों हाथों से फेंकी जाती है।<br />  
*'''तोमर''' यह लोहे का बना होता है। यह बाण की शकल में होता है और इसमें लोहे  का मुँह बना होता हैं साँप की तरह इसका रूप होता है। इसका धड़ लकड़ी का होता है। नीचे की तरफ पंख लगाये जाते हैं, जिससे वह आसानी से उड़ सके। यह प्राय: डेढ़ गज लंबा होता है। इसका रंग लाल होता है।<br />  
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*'''तोमर''' यह लोहे का बना होता है। यह बाण की शकल में होता है और इसमें लोहे  का मुँह बना होता है साँप की तरह इसका रूप होता है। इसका धड़ लकड़ी का होता है। नीचे की तरफ पंख लगाये जाते हैं, जिससे वह आसानी से उड़ सके। यह प्राय: डेढ़ गज़ लंबा होता है। इसका रंग लाल होता है।<br />  
*'''पाश''' ये दो प्रकार के होते हैं, वरूणपाश और साधारण पाश; इस्पात के महीन तारों को बटकर ये बनाये जाते हैं। एक सिर त्रिकोणवत् होता है। नीचे जस्ते की गोलियाँ लगी होती हैं। कहीं-कहीं इसका दूसरा वर्णन भी है। वहाँ लिखा है कि वह पाँच गज का होता है और सन, रूई, घास या चमड़े के तार से बनता है। इन तारों को बटकर इसे बनाते हैं।<br />  
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*'''पाश''' ये दो प्रकार के होते हैं, वरुणपाश और साधारण पाश; इस्पात के महीन तारों को बटकर ये बनाये जाते हैं। एक सिर त्रिकोणवत होता है। नीचे जस्ते की गोलियाँ लगी होती हैं। कहीं-कहीं इसका दूसरा वर्णन भी है। वहाँ लिखा है कि वह पाँच गज़ का होता है और सन, रूई, घास या चमड़े के तार से बनता है। इन तारों को बटकर इसे बनाते हैं।<br />  
 
*'''ऋष्टि''' यह सर्वसाधारण का शस्त्र है, पर यह बहुत प्राचीन है। कोई-कोई उसे तलवार का भी रूप बताते हैं।<br />  
 
*'''ऋष्टि''' यह सर्वसाधारण का शस्त्र है, पर यह बहुत प्राचीन है। कोई-कोई उसे तलवार का भी रूप बताते हैं।<br />  
*'''गदा''' इसका हाथ पतला और नीचे का हिस्सा वजनदार होता है। इसकी लंबाई जमीन से छाती तक होती है। इसका वजन बीस मन तक होता है। एक-एक हाथ से दो-दो गदाएँ उठायी जाती थीं।<br />  
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*'''गदा''' इसका हाथ पतला और नीचे का हिस्सा वज़नदार होता है। इसकी लंबाई ज़मीन से छाती तक होती है। इसका वज़न बीस मन तक होता है। एक-एक हाथ से दो-दो गदाएँ उठायी जाती थीं।<br />  
 
*'''मुद्गर''' इसे साधारणतया एक हाथ से उठाते हैं। कहीं यह बताया है कि वह हथौड़े के समान भी होता है।<br />  
 
*'''मुद्गर''' इसे साधारणतया एक हाथ से उठाते हैं। कहीं यह बताया है कि वह हथौड़े के समान भी होता है।<br />  
 
*'''चक्र''' दूर से फेंका जाता है।<br />  
 
*'''चक्र''' दूर से फेंका जाता है।<br />  
*'''वज्र''' कुलिश तथा अशानि-इसके ऊपर के तीन भाग तिरछे-टेढ़े बने होते हैं। बीच का हिस्सा पतला होता है। पर हाथ बड़ा वजनदार होता है।<br />  
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*'''वज्र''' कुलिश तथा अशानि-इसके ऊपर के तीन भाग तिरछे-टेढ़े बने होते हैं। बीच का हिस्सा पतला होता है। पर हाथ बड़ा वज़नदार होता है।<br />  
 
*'''त्रिशूल''' इसके तीन सिर होते हैं। इसके दो रूप होते है।<br />  
 
*'''त्रिशूल''' इसके तीन सिर होते हैं। इसके दो रूप होते है।<br />  
*'''शूल''' इसका एक सिर नुकीला, तेज होता है। शरीर में भेद करते ही प्राण उड़ जाते जाते हैं। <br />  
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*'''शूल''' इसका एक सिर नुकीला, तेज होता है। शरीर में भेद करते ही प्राण उड़ जाते हैं। <br />  
 
*'''असि''' तलवार को कहते हैं। यह शस्त्र किसी रूप में पिछले काल तक उपयोग होता रहा। पर विमान, बम और तोपों के आगे उसका भी आज उपयोग नहीं रहा। पर हम इस चमकने वाले हथियार को भी भूल गये। लकड़ी भी हमारे पास नहीं, तब तलवार कहाँ से हो। <br />  
 
*'''असि''' तलवार को कहते हैं। यह शस्त्र किसी रूप में पिछले काल तक उपयोग होता रहा। पर विमान, बम और तोपों के आगे उसका भी आज उपयोग नहीं रहा। पर हम इस चमकने वाले हथियार को भी भूल गये। लकड़ी भी हमारे पास नहीं, तब तलवार कहाँ से हो। <br />  
 
*'''खड्ग''' बलिदान का शस्त्र है। दुर्गाचण्डी के सामने विराजमान रहता है। <br />  
 
*'''खड्ग''' बलिदान का शस्त्र है। दुर्गाचण्डी के सामने विराजमान रहता है। <br />  
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*'''धनुष''' इसका उपयोग बाण चलाने के लिये होता है। <br />
 
*'''धनुष''' इसका उपयोग बाण चलाने के लिये होता है। <br />
 
*'''बाण''' सायक, शर और तीर आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं ये बाण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। हमने ऊपर कई बाणों का वर्णन किया है। उनके गुण और कर्म भिन्न-भिन्न हैं। <br />
 
*'''बाण''' सायक, शर और तीर आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं ये बाण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। हमने ऊपर कई बाणों का वर्णन किया है। उनके गुण और कर्म भिन्न-भिन्न हैं। <br />
*'''परिघ''' एक में लोहे की मूठ है। दूसरे रूप में यह लोहे की छड़ी भी होती है और तीसरे रूप के सिरे पर बजनदार मुँह बना होता है। <br />
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*'''परिघ''' में एक लोहे की मूठ है। दूसरे रूप में यह लोहे की छड़ी भी होती है और तीसरे रूप के सिरे पर बजनदार मुँह बना होता है। <br />
 
*'''भिन्दिपाल''' लोहे का बना होता है। इसे हाथ से फेंकते हैं। इसके भीतर से भी बाण फेंकते हैं।<br />  
 
*'''भिन्दिपाल''' लोहे का बना होता है। इसे हाथ से फेंकते हैं। इसके भीतर से भी बाण फेंकते हैं।<br />  
 
*'''नाराच''' एक प्रकार का बाण हैं। <br />
 
*'''नाराच''' एक प्रकार का बाण हैं। <br />
*'''परशु''' यह छुरे के समान होता है। भगवान [[परशुराम]] के पास अक्सर रहता था। इसके नीचे लोहे का एक चौकोर मुँह लगा होता हे। यह दो गज लंबा होता है। <br />
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*'''परशु''' यह छुरे के समान होता है। भगवान [[परशुराम]] के पास अक्सर रहता था। इसके नीचे लोहे का एक चौकोर मुँह लगा होता है। यह दो गज़ लंबा होता है। <br />
*'''कुण्टा''' इसका ऊपरी हिस्सा हल के समान होता है। इसके बीच की लंबाई पाँच गज की होती है। <br />
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*'''कुण्टा''' इसका ऊपरी हिस्सा हल के समान होता है। इसके बीच की लंबाई पाँच गज़ की होती है। <br />
 
*'''शंकु बर्छी''' भाला है। <br />
 
*'''शंकु बर्छी''' भाला है। <br />
 
*'''पट्टिश''' एक प्रकार का कुल्हाड़ा है। <br />
 
*'''पट्टिश''' एक प्रकार का कुल्हाड़ा है। <br />
 
*इसके सिवा वशि तलवार या कुल्हाड़ा के रूप में होती है।  <br />
 
*इसके सिवा वशि तलवार या कुल्हाड़ा के रूप में होती है।  <br />
इन अस्त्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक अस्त्र हैं, जिनका हम यहाँ वर्णन नहीं कर सके। भुशुण्डी आदि अनेक शस्त्रों का वर्णन [[पुराण|पुराणों]] में है। इनमें जितना स्वल्प ज्ञान है, उसके आधार पर उन सबका रूप प्रकट करना सम्भव नहीं। (*)
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इन अस्त्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक अस्त्र हैं, जिनका हम यहाँ वर्णन नहीं कर सके। भुशुण्डी आदि अनेक शस्त्रों का वर्णन [[पुराण|पुराणों]] में है। इनमें जितना स्वल्प ज्ञान है, उसके आधार पर उन सबका रूप प्रकट करना सम्भव नहीं।<ref>लगभग 15 वर्ष पहले बस्ती के प्रज्ञाचक्षु पं॰ श्रीधनराज जी के दर्शन हुए थे। उन्होंने बतलाया था कि धनुर्वेद, धनुष-चन्द्रोदय और धनुष-प्रदीप-तीन प्राचीन ग्रन्थ याद है, इनमें से दो की प्रत्येक की श्लोक-संख्या 60000 है। अन्य ग्रन्थों के साथ इन ग्रन्थों की उन्होंने एक सूची भी लिखवायी थी, जो सम्भवतः बनारस के डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज श्रीकृष्णचन्द्रजी श्रीवास्तव के पास है। इसमें 'परमाणु' से शक्ति निर्माण का भी वर्णन है। यह विषय संवत 1995 में प्रकाशित स्वर्गीय प्रो0 श्रीरामदासजी गौड़ के 'हिंदुत्व' नामक ग्रन्थ में भी छप चुका है। इससे पता चलता है कि प्राचीन काल में 'परमाणु' (ऐटम) से शस्त्रादि-निर्माण की क्रिया भी भारतीयों को ज्ञात थी।</ref>
आज हम इन सभी अस्त्र-शस्त्रों को भूल गये। हम भगवान श्री[[राम]] के हाथ में धनुष-बाण और भगवान श्री[[कृष्ण]] के हाथ में सुदर्शन चक्र, [[शिव|महादेव]] के हाथ में त्रिशूल और [[दुर्गा]] के हाथ में खंग देखकर भी उनके भक्त बनते हैं। पर निर्बल, कायर और भीरू पुरूष क्या भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण और दुर्गा के भक्त बन सकते हैं? क्या [[रामायण]], [[गीता]] और दुर्गासप्तशती केवल पाठ करने के ही ग्रन्थ हैं? क्या इन अमर ग्रन्थों के सन्देश हमें वीर, शक्तिशाली और अस्त्र-शस्त्रधारी बनने की प्रेरणा नहीं करते? सच तो यह है कि हम भगवान को भूल गये और अपने धर्म-ग्रन्थों को भीं हम भगवान को पुकार-पुकार कर बुलाना चाहते हैं। पर हम कर्तव्यहीन निर्बलों के पास भगवान कैसे आयेंगे। वे आये थे [[महाभारत]] में, जहाँ उन्होंने [[अर्जुन]] को गीतामृत के द्वारा रण में जूझने के लिये उद्यत किया था। आवश्यकता है कि रण में कभी पीठ न दिखाने वाले भगवान श्रीरामचन्द्र, सुदर्शनचक्रधारी योगेश्वर श्रीकृष्ण और महामाया दुर्गा को हम कभी न भूलें। एक-बार फिर बलशाली बनकर आर्यधर्म और आर्यदेश की रक्षा करने में समर्थ हों। यदि आज हम न सम्हले, तो हमारे विनाश का अन्त नहीं। भारतमाता आशामय नेत्रों से हमारी ओर निहार रही हे कि आर्यपुत्र, ऋषियों की सन्तानें क्या एक बार फिर उठ खड़ी न होंगी। 'मानव-धर्म'
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आज हम इन सभी अस्त्र-शस्त्रों को भूल गये। हम भगवान श्री [[राम]] के हाथ में धनुष-बाण और भगवान श्री [[कृष्ण]] के हाथ में सुदर्शन चक्र, [[शिव|महादेव]] के हाथ में त्रिशूल और [[दुर्गा]] के हाथ में खड़ग देखकर भी उनके भक्त बनते हैं। पर निर्बल, कायर और भीरू पुरुष क्या भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण और दुर्गा के भक्त बन सकते हैं? क्या [[रामायण]], [[गीता]] और दुर्गासप्तशती केवल पाठ करने के ही ग्रन्थ हैं? [[महाभारत]] में, जहाँ उन्होंने [[अर्जुन]] को गीतामृत के द्वारा रण में जूझने के लिये उद्यत किया था। आवश्यकता है कि रण में कभी पीठ न दिखाने वाले भगवान श्रीरामचन्द्र, सुदर्शनचक्रधारी योगेश्वर श्रीकृष्ण और महामाया दुर्गा को हम कभी न भूलें।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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<references/>
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[[Category:महाभारत]]
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[[Category:कोश]]
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०७:०८, २९ अगस्त २०१० के समय का अवतरण

अस्त्र शस्त्र / Mythological Weapons

आज हम यूरोप के अस्त्र-शस्त्र देखकर चकित और स्तम्भित हो जाते हैं और सोचने लगते हैं कि ये सब नये आविष्कार हैं। हमें अपनी पूर्व परम्परा का ज्ञान नहीं है। प्राचीन आर्यावर्त के आर्यपुरुष अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। उन्होंने अध्यात्म-ज्ञान के साथ-साथ आततियों और दुष्टों के दमन के लिये सभी अस्त्र-शस्त्रों की भी सृष्टि की थी। आर्यों की यह शक्ति धर्म-स्थापना में सहायक होती थी। प्राचीन काल में जिन अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग होता था, उनका वर्णन इस प्रकार है-

  • अस्त्र उसे कहते हैं, जिसे मन्त्रों के द्वारा दूरी से फेंकते हैं। वे अग्नि, गैस और विद्युत तथा यान्त्रिक उपायों से चलते हैं।
  • शस्त्र ख़तरनाक हथियार हैं, जिनके प्रहार से चोट पहुँचती है और मृत्यु होती है। ये हथियार अधिक उपयोग किये जाते हैं।

अस्त्रों के विभाग

अस्त्रों को दो विभागों में बाँटा गया है-
(1)वे आयुध जो मन्त्रों से चलाये जाते हैं- ये दैवी हैं। प्रत्येक शस्त्र पर भिन्न-भिन्न देव या देवी का अधिकार होता है और मन्त्र-तन्त्र के द्वारा उसका संचालन होता है। वस्तुत: इन्हें दिव्य तथा मान्त्रिक-अस्त्र कहते हैं। इन बाणों के कुछ रूप इस प्रकार हैं—

  • आग्नेय यह विस्फोटक बाण है। यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है।
  • पर्जन्य यह विस्फोटक बाण है। यह जल के समान अग्नि बरसाकर सब कुछ भस्मीभूत कर देता है। इसका प्रतिकार पर्जन्य है।
  • वायव्य इस बाण से भयंकर तूफान आता है और अन्धकार छा जाता है।
  • पन्नग इससे सर्प पैदा होते हैं। इसके प्रतिकार स्वरूप गरुड़ बाण छोड़ा जाता है।
  • गरुड़ इस बाण के चलते ही गरुड़ उत्पन्न होते है, जो सर्पों को खा जाते हैं।
  • ब्रह्मास्त्र यह अचूक विकराल अस्त्र है। शत्रु का नाश करके छोड़ता है। इसका प्रतिकार दूसरे ब्रह्मास्त्र से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं।
  • पाशुपत इससे विश्व नाश हो जाता हैं यह बाण महाभारतकाल में केवल अर्जुन के पास था।
  • वैष्णव—नारायणास्त्र यह भी पाशुपत के समान विकराल अस्त्र है। इस नारायण-अस्त्र का कोई प्रतिकार ही नहीं है। यह बाण चलाने पर अखिल विश्व में कोई शक्ति इसका मुक़ाबला नहीं कर सकती। इसका केवल एक ही प्रतिकार है और वह यह है कि शत्रु अस्त्र छोड़कर नम्रतापूर्वक अपने को अर्पित कर दे। कहीं भी हो, यह बाण वहाँ जाकर ही भेद करता है। इस बाण के सामने झुक जाने पर यह अपना प्रभाव नहीं करता।

इन दैवी बाणों के अतिरिक्त ब्रह्मशिरा और एकाग्नि आदि बाण है। आज यह सब बाण-विद्या इस देश के लिये अतीत की घटना बन गयीं महाराज पृथ्वीराज के बाद बाण-विद्या का सर्वथा लोप हो गया।
(2) वे शस्त्र हैं, जो यान्त्रिक उपाय से फेंके जाते हैं; ये अस्त्रनलिका आदि हैं नाना प्रकार के अस्त्र इसके अन्तर्गत आते हैं। अग्नि, गैस, विद्युत से भी ये अस्त्र छोडे जाते हैं। प्रमाणों की ज़रूरत नहीं है कि प्राचीन आर्य गोला-बारूद और भारी तोपें, टैंक बनाने में भी कुशल थे। इन अस्त्रों के लिये देवी और देवताओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये भयकंर अस्त्र हैं और स्वयं ही अग्नि, गैस या विद्युत आदि से चलते हैं। यहाँ हम कुछ अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन करते हैं, जिनका प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों में उल्लेख है।

  • शक्ति यह लंबाई में गजभर होती है, उसका हेंडल बड़ा होता है, उसका मुँह सिंह के समान होता है और उसमें बड़ी तेज जीभ और पंजे होते हैं। उसका रंग नीला होता है और उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ लगी होती हैं। यह बड़ी भारी होती है और दोनों हाथों से फेंकी जाती है।
  • तोमर यह लोहे का बना होता है। यह बाण की शकल में होता है और इसमें लोहे का मुँह बना होता है साँप की तरह इसका रूप होता है। इसका धड़ लकड़ी का होता है। नीचे की तरफ पंख लगाये जाते हैं, जिससे वह आसानी से उड़ सके। यह प्राय: डेढ़ गज़ लंबा होता है। इसका रंग लाल होता है।
  • पाश ये दो प्रकार के होते हैं, वरुणपाश और साधारण पाश; इस्पात के महीन तारों को बटकर ये बनाये जाते हैं। एक सिर त्रिकोणवत होता है। नीचे जस्ते की गोलियाँ लगी होती हैं। कहीं-कहीं इसका दूसरा वर्णन भी है। वहाँ लिखा है कि वह पाँच गज़ का होता है और सन, रूई, घास या चमड़े के तार से बनता है। इन तारों को बटकर इसे बनाते हैं।
  • ऋष्टि यह सर्वसाधारण का शस्त्र है, पर यह बहुत प्राचीन है। कोई-कोई उसे तलवार का भी रूप बताते हैं।
  • गदा इसका हाथ पतला और नीचे का हिस्सा वज़नदार होता है। इसकी लंबाई ज़मीन से छाती तक होती है। इसका वज़न बीस मन तक होता है। एक-एक हाथ से दो-दो गदाएँ उठायी जाती थीं।
  • मुद्गर इसे साधारणतया एक हाथ से उठाते हैं। कहीं यह बताया है कि वह हथौड़े के समान भी होता है।
  • चक्र दूर से फेंका जाता है।
  • वज्र कुलिश तथा अशानि-इसके ऊपर के तीन भाग तिरछे-टेढ़े बने होते हैं। बीच का हिस्सा पतला होता है। पर हाथ बड़ा वज़नदार होता है।
  • त्रिशूल इसके तीन सिर होते हैं। इसके दो रूप होते है।
  • शूल इसका एक सिर नुकीला, तेज होता है। शरीर में भेद करते ही प्राण उड़ जाते हैं।
  • असि तलवार को कहते हैं। यह शस्त्र किसी रूप में पिछले काल तक उपयोग होता रहा। पर विमान, बम और तोपों के आगे उसका भी आज उपयोग नहीं रहा। पर हम इस चमकने वाले हथियार को भी भूल गये। लकड़ी भी हमारे पास नहीं, तब तलवार कहाँ से हो।
  • खड्ग बलिदान का शस्त्र है। दुर्गाचण्डी के सामने विराजमान रहता है।
  • चन्द्रहास टेढ़ी तलवार के समान वक्र कृपाण है।
  • फरसा यह कुल्हाड़ा है। पर यह युद्ध का आयुध है। इसकी दो शक्लें हैं।
  • मुशल यह गदा के सदृश होता है, जो दूर से फेंका जाता है।
  • धनुष इसका उपयोग बाण चलाने के लिये होता है।
  • बाण सायक, शर और तीर आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं ये बाण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। हमने ऊपर कई बाणों का वर्णन किया है। उनके गुण और कर्म भिन्न-भिन्न हैं।
  • परिघ में एक लोहे की मूठ है। दूसरे रूप में यह लोहे की छड़ी भी होती है और तीसरे रूप के सिरे पर बजनदार मुँह बना होता है।
  • भिन्दिपाल लोहे का बना होता है। इसे हाथ से फेंकते हैं। इसके भीतर से भी बाण फेंकते हैं।
  • नाराच एक प्रकार का बाण हैं।
  • परशु यह छुरे के समान होता है। भगवान परशुराम के पास अक्सर रहता था। इसके नीचे लोहे का एक चौकोर मुँह लगा होता है। यह दो गज़ लंबा होता है।
  • कुण्टा इसका ऊपरी हिस्सा हल के समान होता है। इसके बीच की लंबाई पाँच गज़ की होती है।
  • शंकु बर्छी भाला है।
  • पट्टिश एक प्रकार का कुल्हाड़ा है।
  • इसके सिवा वशि तलवार या कुल्हाड़ा के रूप में होती है।

इन अस्त्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक अस्त्र हैं, जिनका हम यहाँ वर्णन नहीं कर सके। भुशुण्डी आदि अनेक शस्त्रों का वर्णन पुराणों में है। इनमें जितना स्वल्प ज्ञान है, उसके आधार पर उन सबका रूप प्रकट करना सम्भव नहीं।[१]

आज हम इन सभी अस्त्र-शस्त्रों को भूल गये। हम भगवान श्री राम के हाथ में धनुष-बाण और भगवान श्री कृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र, महादेव के हाथ में त्रिशूल और दुर्गा के हाथ में खड़ग देखकर भी उनके भक्त बनते हैं। पर निर्बल, कायर और भीरू पुरुष क्या भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण और दुर्गा के भक्त बन सकते हैं? क्या रामायण, गीता और दुर्गासप्तशती केवल पाठ करने के ही ग्रन्थ हैं? महाभारत में, जहाँ उन्होंने अर्जुन को गीतामृत के द्वारा रण में जूझने के लिये उद्यत किया था। आवश्यकता है कि रण में कभी पीठ न दिखाने वाले भगवान श्रीरामचन्द्र, सुदर्शनचक्रधारी योगेश्वर श्रीकृष्ण और महामाया दुर्गा को हम कभी न भूलें।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लगभग 15 वर्ष पहले बस्ती के प्रज्ञाचक्षु पं॰ श्रीधनराज जी के दर्शन हुए थे। उन्होंने बतलाया था कि धनुर्वेद, धनुष-चन्द्रोदय और धनुष-प्रदीप-तीन प्राचीन ग्रन्थ याद है, इनमें से दो की प्रत्येक की श्लोक-संख्या 60000 है। अन्य ग्रन्थों के साथ इन ग्रन्थों की उन्होंने एक सूची भी लिखवायी थी, जो सम्भवतः बनारस के डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज श्रीकृष्णचन्द्रजी श्रीवास्तव के पास है। इसमें 'परमाणु' से शक्ति निर्माण का भी वर्णन है। यह विषय संवत 1995 में प्रकाशित स्वर्गीय प्रो0 श्रीरामदासजी गौड़ के 'हिंदुत्व' नामक ग्रन्थ में भी छप चुका है। इससे पता चलता है कि प्राचीन काल में 'परमाणु' (ऐटम) से शस्त्रादि-निर्माण की क्रिया भी भारतीयों को ज्ञात थी।