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भगवान [[महावीर]] के उपदेश [[जैन धर्म]] के मूल सिद्धान्त हैं, जिन्हें 'आगम' कहा जाता है । वे अर्धमागधी [[प्राकृत]] भाषा में हैं । उन्हें आचारांगादि बारह 'अंगों' में संकलित किया गया, जो 'द्वादशंग आगम' कहे जाते हैं । [[वैदिक]] संहिताओं की भाँति जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में ही थे । महावीर जी के बाद भी कई शताब्दियों तक उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था । श्वेताम्बर और दिगम्बर आम्नाओं में जहाँ अनेक बातों में मत-भेद था, वहीं आगमों को लिपिबद्ध न करने में दोनों एक मत थे । कालांतर में उन्हें लिपिबद्ध तो किया गया; किन्तु लिखित रूप की प्रमाणिकता इस धर्म के दोनों संप्रदायों को समान रूप से स्वीकृत नहीं हुई ।  
 
भगवान [[महावीर]] के उपदेश [[जैन धर्म]] के मूल सिद्धान्त हैं, जिन्हें 'आगम' कहा जाता है । वे अर्धमागधी [[प्राकृत]] भाषा में हैं । उन्हें आचारांगादि बारह 'अंगों' में संकलित किया गया, जो 'द्वादशंग आगम' कहे जाते हैं । [[वैदिक]] संहिताओं की भाँति जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में ही थे । महावीर जी के बाद भी कई शताब्दियों तक उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था । श्वेताम्बर और दिगम्बर आम्नाओं में जहाँ अनेक बातों में मत-भेद था, वहीं आगमों को लिपिबद्ध न करने में दोनों एक मत थे । कालांतर में उन्हें लिपिबद्ध तो किया गया; किन्तु लिखित रूप की प्रमाणिकता इस धर्म के दोनों संप्रदायों को समान रूप से स्वीकृत नहीं हुई ।  
 
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१०:४६, ६ अगस्त २००९ का अवतरण

आगम / Aagam

भगवान महावीर के उपदेश जैन धर्म के मूल सिद्धान्त हैं, जिन्हें 'आगम' कहा जाता है । वे अर्धमागधी प्राकृत भाषा में हैं । उन्हें आचारांगादि बारह 'अंगों' में संकलित किया गया, जो 'द्वादशंग आगम' कहे जाते हैं । वैदिक संहिताओं की भाँति जैन आगम भी पहले श्रुत रूप में ही थे । महावीर जी के बाद भी कई शताब्दियों तक उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था । श्वेताम्बर और दिगम्बर आम्नाओं में जहाँ अनेक बातों में मत-भेद था, वहीं आगमों को लिपिबद्ध न करने में दोनों एक मत थे । कालांतर में उन्हें लिपिबद्ध तो किया गया; किन्तु लिखित रूप की प्रमाणिकता इस धर्म के दोनों संप्रदायों को समान रूप से स्वीकृत नहीं हुई ।


श्वेताम्बर संप्रदाय के अनु्सार समस्त आगमों के छ: विभाग हैं, जो 'अंग', 'उपांग', 'प्रकीर्णक', 'छेदसूत्र', 'सूत्र' और मूलसूत्र कहलाते हैं । इनमें 'एकादश अंग सूत्र' सबसे प्राचीन माने जाते हैं ।


दिगम्बर संप्रदाय उपयुक्त आगमों को नहीं मानता है । इस संप्रदाय का मत है, अंतिम श्रुतकेवली भद्रवाहु के पश्चात् आगमों का ज्ञान लुप्तप्राय हो गया था ।