आर्य

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आर्य / Arya / Aryan

आर्य प्रजाति की आदि भूमि के संबंध में अभी तक विद्वानों में बहुत मतभेद हैं। भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के प्रारंभ में प्राय: भाषा और प्रजाति को अभिन्न मानकर एकोद्भव (मोनोजेनिक) सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ और माना गया कि भारोपीय भाषाओं के बोलने वालों के पूर्वज कहीं एक ही स्थान में रहते थे और वहीं से विभिन्न देशों में गए। भाषा वैज्ञानिक साक्ष्यों की अपूर्णता और अनिश्चितता के कारण यह आदि भूमि कभी मध्य एशिया, कभी पामीर-कश्मीर, कभी आस्ट्रिया-हंगरी, कभी जर्मनी, कभी स्वीडन-नार्वे और आज दक्षिण रूस के घास के मैदानों में ढूँढ़ी जाती है। भाषा और प्रजाति अनिवार्य रूप से अभिन्न नहीं। आज आर्यों की विविध शाखाओं के बहूद्भव (पॉलिजेनिक) होने का सिद्धांत भी प्रचलित होता जा रहा है जिसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आर्य-भाषा-परिवार की सभी जातियाँ एक ही मानव वंश की रही हों। भाषा का ग्रहण तो संपर्क और प्रभाव से भी होता आया है, कई जातियों ने तो अपनी मूल भाषा छोड़कर विजातीय भाषा को पूर्णत: अपना लिया है। जहां तक भारतीय आर्यों के उद्गम का प्रश्न है, भारतीय साहित्य में उनके बाहर से आने के संबंध में एक भी उल्लेख नहीं है।

परंपरा और अनुश्रुति

कुछ लोगों ने परंपरा और अनुश्रुति के अनुसार मध्यदेश (स्थूण) (स्थाण्वीश्वर) तथा कजंगल (राजमहल की पहाड़ियां) और हिमालय तथा विंध्य के बीच का प्रदेश अथवा आर्यावर्त (उत्तर भारत) ही आर्यों की आदि भूमि माना है। पौराणिक परंपरा से विच्छिन्न केवल ॠग्वेद के आधार पर कुछ विद्वानों ने सप्तसिंधु (सीमांत एवं पंजाब) को आर्यों की आदि भूमि माना है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में वर्णित दीर्घ अहोरात्र, प्रलंबित उषा आदि के आधार पर आर्यों की मूल भूमि को ध्रुव प्रदेश में माना था। बहुत से यूरोपीय विद्वान और उनके अनुयायी भारतीय विद्वान अब भी भारतीय आर्यों को बाहर से आया हुआ मानते हैं। अब आर्यों के भारत के बाहर से आने का सिद्धान्त ग़लत सिद्ध कर दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करके अंग्रेज़ और यूरोपीय लोग भारतीयों में यह भावना भरना चाहते थे कि भारतीय लोग पहले से ही गुलाम हैं।

आर्य शब्द का प्रयोग

आर्य शब्द का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था फिर उच्च और निम्न अथवा श्रमिक वर्ग में अंतर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और अनार्य अथवा शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा। आर्यों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज चार वर्णों में वृत्ति और श्रम के आधार पर विभक्त हुआ। ऋक्संहिता में चारों वर्णों की उत्पत्ति और कार्य का उल्लेख इस प्रकार है :
ब्राहृणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत।। [१]

सामाजिक विभाजन

आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि संबध और भोजन, पान आदि होते थे। क्रमश: ये वर्ग परस्पर वर्जनशील होते गए। ये सामाजिक विभाजन आर्य परिवार की प्राय: सभी शाखाओं में पाए जाते हैं, यद्यपि इनके नामों और सामाजिक स्थिति में देशगत भेद मिलते हैं। प्रारंभिक आर्य परिवार पितृसत्तात्मक था, यद्यपि आदित्य अदिति से उत्पन्न), दैत्य (दिति से उत्पन्न) आदि शब्दों में मातृसत्ता की ध्वनि वर्तमान है। दंपति की कल्पना में पति पत्नी का गृहस्थी के ऊपर समान अधिकार पाया जाता है। परिवार में पुत्र जन्म की कामना की जाती थी। दायित्व के कारण कन्या का जन्म परिवार को गंभीर बना देता था, किंतु उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थी। घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, विश्ववारा आदि स्त्रियां मन्त्रद्रष्टा ऋषि पद को प्राप्त हुई थीं। विवाह प्राय: युवावस्था में होता था। पति-पत्नी को परस्पर निर्वाचन का अधिकार था। विवाह धार्मिक कृत्यों के साथ संपन्न होता था, जो परवर्ती ब्राहृ विवाह से मिलता जुलता था।

आर्यों का प्राचीनतम साहित्य

प्रारंभिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य और कला का ऊँचा स्थान है। भारोपीय भाषा ज्ञान के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई। इसमें काव्य, धर्म, दर्शन आदि विभिन्न शास्त्रों का उदय हुआ। आर्यों का प्राचीनतम साहित्य वेद भाषा, काव्य और चिंतन, सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋक्संहिता 10।।90।22 (इस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण , भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरण से शूद्र उत्पन्न हुआ।)