आर्य समाज

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आर्यसमाज

प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के एक गांव में सन् 1824 ई0 में हुआ था। इनका प्रारंभिक नाम मूलशंकर तथा पिता का नाम अम्बाशंकर था। ये बाल्यकाल में शंकर के भक्त थे। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं :

  • घर का जीवन(1824-1845) ,
  • भ्रमण तथा अध्ययन (1845-1863) एवं
  • प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा।(1863-1883)

बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य" पड़ा। पश्चात् ये संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई। फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया। दयानन्द सरस्वती के मध्य जीवन काल में जिस महापुरूष ने सबसे बड़ा धार्मिक प्रभाव डाला, वे थे मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं चाहता हूं कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक पहुँचता हुआ पाते हैं। इन्होंने शैवमत एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण में बम्बई से पूरा, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं। पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था। इस बीच इन्होंने साहित्यकार्य भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात् ये गंगातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुन: जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।


10 अप्रैल सन् 1875 में बम्बई में इन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। 1877 में दिल्ली दरबार के अवसर पर दिल्ली जाकर पंजाब के कुछ भद्रजनों से भी मिले, जिन्होंने इन्हें पंजाब आने का निमन्त्रण दिया। यह उनकी पंजाब की पहली यात्रा थी, जहाँ इनका मत भविष्य में खूब फूला-फला। 1878-1881 के मध्य आर्यसमाज एवं थियोसोफिकल सोसाइटी का बड़ा ही सुन्दर भाईचारा रहा। किन्तु शीघ्र ही दोनों में ईश्वर के व्यक्तित्व के ऊपर मतभेद हो गया। स्वामी दयानन्द भारत के अन्य धार्मिक चिन्तकों, जैसे देवेन्द्रनाथ ठाकुर, केशवचन्द्र सेन (ब्रह्मसमाज), मैडम ब्लौवाट्स्की एवं कर्नल आलकाट (थियोसोफिकल सोसाइटी), भोलानाथ साराभाई (प्रार्थनासमाज), सर सैयद (रिफार्म्ड इस्लाम) एवं डा0 टी0 जे0 स्काट तथा रे0जे0ग्रे (ईसाई प्रतिनिधि) से भी मिले। जीवन के अन्तिम दिनों में स्वामीजी राजस्थान में थे। आपने महाराज जोधपुर तथा अन्य राजाओं पर अच्छा प्रभाव डाला। कुछ दिनों बाद स्वामीजी बीमार पड़े एवं 30 अक्तूबर सन् 1883 में अजमेर में इनकी इहलीला समाप्त हुई। कहा जाता है कि रसोइए ने इनको विष दे दिया। आर्यसमाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं— 1. सभी सत्य ज्ञान का प्रारम्भिक कारण ईश्वर हैं। 2. ईश्वर ही सर्वस्व सत्य हैं, सर्वज्ञान है, सर्व सौन्दर्य है, अशरीर है, सर्व शक्तिमान् है, न्यायकारी है, दयालु है, अजन्मा है, अनन्त है, अपरिवर्तनशील है, अनादि है, अतुलनीय है, सबका पालनकर्ता एवं सबका स्वामी है, सर्वव्याप्त है, सर्वज्ञ है, अजर व अमर है, भयरहित है, पवित्र है एवं सृष्टि का कारण है। केवल उसी की पूजा होनी चाहिए। 3. वेद ही सच्चे ज्ञानग्रन्थ है ता प्रत्येक आर्य का सबसे पुनीत कर्तव्य है उन्हें पढ़ना या सुनना एवं उनकी शिक्षा दूसरों को देना। 4. प्रत्येक प्राणी को सत्य को ग्रहण करने एवं असत्य के त्याग के लिए सर्वदा तत्पर रहना चाहिए। 5. प्रत्येक काम नेकीपूर्ण होना चाहिए तथा उचित एवं अनुचित के चिन्तन के बाद ही उसे करना चाहिए। 6. आर्यसमाज का प्राथमिक कर्तव्य है मनुष्य मात्र की शारिरीक , आत्मिक एवं सामाजिक अन्नति द्वारा विश्वकल्याण करना। 7. हर एक के प्रति न्याय, प्रेम एवं उसकी योग्यता के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। 8. अन्धकार को दूर कर ज्ञान ज्योति को फैलाना चाहिए। 9. किसी को भी केवल अपनी ही भलाई से सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए अपितु अपनी उन्नति का सम्बन्ध दूसरो की उन्नति से जोड़ना चाहिए। 10. साधारण समाजोन्नति या समाज कल्याण के सम्बन्ध में मनुष्य को अपना मतान्तर त्यागना तथा अपनी व्यक्तिगत बातों को भी छोड़ देना चाहिए। किन्तु व्यक्तिगत विश्वासों में मनुष्य को स्वतन्त्रता बरतनी चाहिए। ऊपर के दस सिद्धान्तों में से प्रथम तीन जो ईश्वर के अस्तित्व, स्वभाव तथा वैदिक साहित्य के सिद्धान्त को दर्शाते हैं, धार्मिक सिद्धान्त हैं। अन्तिम सात नैतिक सिद्धांत है। आर्य समाज का धर्मविज्ञान वेद के ऊपर अवलम्बत है। स्वामीजी वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे और धर्म के सम्बन्ध में अन्तिम प्रमाण। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने देखा कि देश में अपने ही विभिन्न मतों व सम्प्रदायों के अतिरिक्त विदेशी इस्लाम एवं ईसाई धर्म भी जड़ पकड़ रहे हैं। दयानन्द के समाने यह सतस्या थी कि कैसे भारतीय धर्म का सुधार किया जाय। किस प्रकार प्राचीन एवं अर्वाचीन का तथा पश्चिम एवं पूर्व के धर्म व विचारों का समन्वय किया जाय, जिससे भरतीय गौरव फिर स्थापित हो सके। इसका समाधान स्वामी दयानन्द ने 'वेद' के सिद्धान्तों में खोज निकाला, जो ईश्वर के शब्द हैं। स्वामी दयानन्द के वैदिक सिद्धान्त को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है-'वेद' शब्द का अर्थ ज्ञान है। यह ईश्वर का ज्ञान है इसलिए पवित्र एवं पूर्ण है। ईश्वर का सिद्धान्त दो प्रकार से व्यक्त किया गया है-1 चार वेदों के रूप में, जो चार ऋषियों (अग्नि, वायु, सूर्य एवं अगिंरा) को सृष्टि के आरम्भ में अवगत हुए। 2. प्रकृति या विश्व के रूप में, जो वेदविहित सिद्धान्तों के अनुसार उत्पन्न हुआ। वैदिक साहित्य-ग्रन्थ एवं प्रकृति-ग्रन्थ से यहाँ साम्य प्रकट होता है। स्वामी दयानन्द कहते हैं, "मैं वेदों को स्वत: प्रमाणित सत्य मानता हूँ। ये संशयरहित हैं एवं दूसरे किसी अधिकारी ग्रन्थ पर निर्भर नहीं रहते। ये प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो ईश्वर का साम्राज्य है। वैदिक साहित्य के आर्य सिद्धान्त को यहाँ संक्षेप में दिया जाता है-1. वेद ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये हैं जैसा कि प्रकृति के उनके सम्बन्ध से प्रमाणित है। 2. वेद ही केवल ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये हैं क्योंकि दूसरे ग्रन्थ प्रकृति के साथ यह सम्बन्ध नहीं दर्शाते। 3. वे विज्ञान एवं मनुष्य के सभी धर्मों के मूल स्त्रोत हैं। आर्यसमाज के कर्तव्यों में से सिद्धान्तत: दो महत्वपूर्ण हैं: 1. भारत को (भूले हुए) वैदिक पथ पर पुन: चलाना और 2. वैदिक शिक्षाओं को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करना। स्वामी दयानन्द ने अपने सिद्धान्तों को व्यावहारिकता देने, अपने धर्म को फैलाने तथा भारत व विश्व को जाग्रत करने के लिए जिस संस्था की स्थापना की उसे 'आर्यसमाज' कहते हैं। 'आर्य' का अर्थ हे भद्र एवं 'समाज' का अर्थ है सभा। अत: आर्यसमाज का अर्थ है 'भद्रजनों का समाज' या 'भद्रसभा' । आर्य प्राचीन भारत का देश प्रेमपूर्ण एवं धार्मिक नाम है जो भद्र पुरूषों के लिए प्रयोग में आता था। स्वामीजी ने देशभक्ति की भावना जगाने के लिए यह नाम चुना। यह धार्मिक से भी अधिक सामाजिक एवं राजनीतिक महत्त्व रखता हें इस प्रकार यह अन्य धार्मिक एवं सुधारवादी संस्थाओं से भिन्नता रखता हैं, जैसे –ब्रह्मसमाज (ईश्वर का समाज), प्रार्थना समाज आदि । स्वामी दयानन्द की मृत्यु से अब तक की घटनाओं में समाज का दो दलों में बँटना एक मुख्य परिवर्तन है। इस विभाजन के दो कारण थे: (क) भेजन में मांस के उपयोग पर मतभेद और (ख) उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में उचित नीति सम्बन्धी मतभेद। पहले कारण से उत्पन्न हुए दो वर्ग 'मांसभक्षी दल' एवं 'शाकाहारी दल' कहलाते है ता दूसरे कारण से उत्पन्न दो दल 'कालेज पार्टी' एवं 'महात्मा पार्टी' (प्राचीन पद्धति पर चलने वाले) कहलाते हैं। ये मतभेद एक और भी गहरा मतभेद उपस्थित करते हैं जिसका सम्बन्ध स्वामी दयानन्द की शिक्षाओं की मान्यता के परिणाम से है। इस दृष्टि से कालेज पार्टी अधिक आधुनिक और उदार है, जबकि महात्मा पार्टी का दृष्टिकोण अधिक प्राचीनतावादी है। कालेज पार्टी ने लाहौर की स्थापना की, जबकि महात्मा पार्टी ने हरिद्वार में 'गुरूकुल' स्थापित किया, जिसमें प्राचीन सिद्धान्तों तथा आदर्शों पर विशेष वल दिया जाता रहा हें संघटन की दृष्टि से इसमें तीन प्रकार के समाज हैं— 1.स्थानीय समाज, 2.प्रान्तीय समाज और 3.सार्वदेशिक समाज। स्थानीय समाज की सदस्यता के लिए निम्नलिखित नियमावली है- 1. आर्य समाज के दस नियमों में विश्वास, 2. वेद की स्वामी दयानन्द द्वारा की हुई व्याख्यादि में विश्वास, 3.सदस्य की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए, 4.द्विजों के लिए विशेष दीक्षा संस्कार की आवश्यकता नहीं है किन्तु ईसाई तथा मुसलमानों के लिए एक शुद्धि संस्कार की व्यवस्था है। स्थानीय सदस्य दो प्राकर के हैं-प्रथम, जिन्हे मत देने का अधिकार नहीं, अर्थात् अस्थायी सदस्य; द्वितीय, जिन्हें मत देने का अधिकार प्राप्त है, जो स्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायित्व काल एक वर्ष का होता है। सहानुभूति दर्शाने वालों की भी एक अलग श्रेणी है। स्थानीय समाज के निम्नांकित पदाधिकारी होते हैं— सभापति , उपसभापति, मंत्री, कोशाध्यक्ष और पुस्तकालयाध्यक्ष। ये सभी स्थायी सदस्यों द्वारा उनमें से ही चुने जाते हैं। प्रान्तीय समाज के पदाधिकारी इन्हीं समाजों के प्रतिनिधि एवं भेजे हुए सदस्य होते हैं। स्थानीय समाज के प्रत्येक बीस सदस्य के पीछे एक सदस्य को प्रान्तीय समाज में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। इस प्रकार इसका गठन प्रतिनिधिमूलक है। पूजा पद्धति— साप्ताहिक धार्मिक सत्संग प्रत्येक रविवार को प्रात: होता हैं, क्योंकि सरकारी कर्मचारी इस दिन छुट्टी पर होते है। यह सत्संग तीन या चार घण्टे का होता है। भाषण करने वाले के ठीक सामने पूजास्थान में वैदिक अग्निकुण्ड रहता है। धार्मिक पूजा हवन के साथ प्रारम्भ होती है। साथ ही वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है। पश्चात् प्रार्थना होती है। फिर दयानन्द-साहित्य का प्रवचन होता है, जिसका अन्त समाजगान से होता है। इसमें स्थायी पुरोहित या आचार्य नहीं होता। योग्य सदस्य अपने क्रम से प्रधान वक्ता या पूजा-संचालक का स्थान ग्रहण करते हैं। कार्यप्रणाली – आर्य समाज दूसरे प्रचारवादी धर्मों के समान भाषण, शिक्षा, समाचार, पत्र आदि की सहायता से अपना मत-प्रचार करता है। दो प्रकार के शिक्षक है, प्रथम वेतनभोगी और द्वितीय, अवैतनिक। अवैतनिक में स्थानीय वकील, अध्यापक, व्यारी, डाक्टर आदि लोग होते हैं। जबकि वेतनभोगी सम्पूर्ण समय देने वाले शास्त्रज्ञ और विद्वान् प्रचारक होते हैं। पहला दल शिक्षा पर जोर देता है; दूसरा दल उपदेश और संस्कार पर बल देता है। आर्यसमाज का प्रत्येक संगठन कुछ हाईस्कूल, गुरूकुल, अनाथालय आदि की व्यवस्था करता है। यह मुख्यत: उत्तर भारतीय धार्मिक आन्दोलन है यद्यपि इसके कुछ केन्द्र दक्षिण भारत में भी हैं। बरमा तथा पूर्वी अफ्रीका, मारीशस, फीजी आदि में भी इसकी शाखाएँ है जो वहाँ बसे हुए भारतीय के बीच कार्य करती हैं। आर्य समाज का केन्द्र एवं धार्मिक राजधानी लाहौर में थी, यद्यपि अजमेर में स्वामी दयानन्द की निर्वाणस्थली एवं वैदिक-यन्त्रालय (प्रेस) होने से वह लाहौर का प्रतिद्वन्द्वी था। लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने के पश्चात् आर्यसमाज का मुख्य केन्द्र आजकल दिल्ली है। जहाँ तक इसके भविष्य का प्रश्न है, कुछ ठीक नहीं कहा जा सकता। यह उत्तर भारत की सबसे मूल सुधारवादी एवं लोकप्रिय संस्था है। स्त्रीशिक्षा, हरिजनसेवा, अश्पृश्यता-निवारण एवं दूसरे सुधारों में यह प्रगतिशील है। वेदों को सभी धर्म का मूल आधार एवं विश्व के विज्ञान का स्त्रोत बताते हुए, यह देशभक्ति को भी स्थापना, करता है। इसके सदस्यों में से अनेक ऐसे हैं जो वास्तविक देशहितैषी एवं देशप्रेमी है। शिक्षा तथा सामाजिक सुधार द्वारा यह भारत का खोया हुआ पूर्व-गौरव लाना चाहता है। भारतीय संस्कृति कोश आर्यसमाज— (पेज नम्बर-106 से 107 तक देखें) उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे चरण में भारत में जागृति के जो चतुर्दिक आंदोलन आरंभ हुए, उनमें आर्यसमाज का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान हैं। इस संस्था की स्थापना 10 अप्रेल 1875 ई0 को दयानंद महर्षि (दे0) ने बंबई में की थी। यह भारत के धार्मिक और सामाजिक पुनर्जागरण के प्रतीक के रूप में सामने आई। महर्षि दयानंद वेदों को अपौरूषेय तथा ईश्वरीय ज्ञान मानते थे। आर्यसमाज के निम्नांकित दस विद्धांत मुख्य हैं— 1. सभी शक्ति और ज्ञान का प्रारंभिक कारण ईश्वर है। 2. ईश्वर ही सर्व सत्य है, सर्व व्याप्त है, पवित्र है, सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है और सृष्टि का कारण है। केवल उसी की पूजा होनी चाहिए। 3. वेद ही सच्चे ज्ञान ग्रंथ हैं। 4. सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। 5. उचित-अनुचित के विचार के बाद ही कार्य करना चाहिए। 6. मनुष्य मात्र को शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति के लिए कार्य करना चाहिए। 7. प्रत्येक के प्रति न्याय, प्रेम और उसकी योग्यता के अनुसार व्यवहार करना चाहिए। 8. ज्ञान की ज्योति फैलाकर अंधकार को दूर करना चाहिए। 9. केवल अपनी उन्नति से संतुष्ट न होकर दूसरों की उन्नति के लिए भी यत्न करना चाहिए। 10. समाज के कल्याण और समाज की उन्नति के लिए अपने मत तथा व्यक्तिगत बातों को त्याग देना चाहिए। इनमें से प्रथम तीन सिद्धांत धार्मिक हैं और अंतिम सात नैतिक हैं। आगे चलकर व्यवहार के स्तर पर आर्यसमाज में भी विचार-भेद पैदा हो गया। एक वर्ग 'दयानंद एंग्लो वैदिक कालेज' की विचारधारा की ओर चला और दूसरे ने 'गुरूकुल' की राह पकड़ी। यह उल्लेखनीय है कि देश के स्वतंत्रता-संग्राम में आर्यसमाज ने संस्था के रूप में तो नहीं, पर सइ संस्था के अधिकांश प्रमुख सदस्यों ने व्यक्तिगत स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। हिन्दी साहित्य कोश (भाग-1) आर्यसमाज— (पेज नम्बर-92 से 93 तक देखें) उन्नीसवीं शताब्दी का भारतीय इतिहास और साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इतना व्यापक और सूक्ष्म परिवर्तन मध्ययुग में इस्लाम धर्म के सम्पर्क के फलस्वरूप भी न हुआ था। एक ओर तो भारतवर्ष उन्नीसवीं शताब्दी में एक सुदूरस्थित पाश्चात्य जाति का दास बना और दूसरी ओर पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान तथा वैज्ञानिक आविष्कारो से लाभ उठाकर उसने नवीन चेतना प्राप्त की और मध्ययुगीन एवं अनेक पौराणिक कुरीतियों, कुप्रथाओं तथा परम्पराओं से बुद्ध जीवन की अलसता छोड़कर स्फर्ति प्राप्त की। इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह स्फूर्ति और चेतना, राजनीतिक एवं आर्थिक दासत्वकी परिस्थिति में, पूर्व और पश्चिम के बीच संघर्ष के रूप् में, अर्थात् भारतीय आध्यात्मिकता और पाश्चात्य भौतिकता के संघर्षके रूप में, अभिव्यक्त हुई। राजनीतिक और आर्थिक चेतना उसी चेतना का अशंमात्र थी। यही पूर्व और पश्चिम का संघर्ष था, जिसने राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द , स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द , स्वामी रामतीर्थ, लोकमान्य तिलक, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, योगी अरविन्द और महात्मा गान्धी को जन्म दिया। एक ओर तो पश्चिम के बढ़ते हुए प्रभाव के विरूद्ध प्रतिक्रिया थी, दूसरी ओर प्राचीन भारतीय साहित्य और कला का पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों द्वारा अनुदिन बढ़ता हुआ अध्ययन था। हाजसन, बोत्लिक, मैक्समूलर, प्रिंसेप, कनिंघम, एड्-विन आर्नाल्ड आदि की खोजों और रचनाओं का भारतवासियों पर बहुत प्रभाव पड़ा। उन्हें अपने पूर्वजों की महत्ता का परिचय प्राप्त हुआ। 'थियोसोफीकल सोसाइटी' (1875 ई0) ने भी देशवासियों का देश के प्राचीन गौरव की ओर ध्यान आकृष्ट किया। इन सब कारणों से बढ़ते हुए पश्चिमी प्रभाव के विरूद्ध प्रतिक्रिया होना और भारती की प्राचीन गरिमा की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक था। इस प्रतिक्रिया ने विशुद्ध भारतीय दृष्टिकोण अवश्य अपनाया, किन्तु उद्देश्य विशुद्धवादियों का भी भारतीय जीवन का परिष्कार करना था। इस दृष्टिकोण का ज्वलन्त उदाहरण आर्यसमाज आन्दोलन है। इस आन्दोलन ने हिन्दू धर्म का पुनरूद्धार करने का महान् प्रयास किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883 ई0) ने 1875 ई0 में आर्यसमाज की स्थापना की। आधुनिक भारत के निर्माताओं में उनका उच्च स्थान है। उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण थोड़े ही समय में आर्यसमाज-आन्दोलन का प्रचार समस्त उत्तर भारत में हो गया। आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885 ई0) के जीवन काल में ही आर्यसमाज का प्रचार हो गया था और भारतविसयों की एक बड़ी संख्याने उसे अपनाया। ब्राह्म समाज से कहीं अधिक प्रचार आर्यसमाज का हुआ। उसने शिक्षितों को ही नहीं, वरन् अशिक्षित और अर्धशिक्षित जनता को भी प्रभावित किया। रूढ़िग्रस्त परम्परागत धर्म से असन्तुष्ट शिक्षित लोगों को पश्चिमी प्रभावों से मुक्त सुधारों से सन्तोष प्राप्त हुआ। देश के धार्मिक , सामाजिक , शिक्षा सम्बन्धी और साहित्यिक क्षेत्र में आर्यसमाज की सेवाएँ चिरस्मरणीय रहेंगी। सुधारवादी सनातनधर्मियों के हाथ में बागडोर होते हुए भी हिन्दी उससे प्रभावित हुए बिना न रह सका। यह प्रभाव सर्वप्रथम खड़ीबोली गद्य के क्षेत्र में दृष्टिगोचर होता है। उन्नीसवीं शताब्दी उत्तरार्ध में लोग, उर्दू को राज्याश्रय प्राप्त हो जाने के कारण, हिन्दी भाषा और नागरी लिपिक भूलते जा रहे थे। हिन्दी की शोचनीय अवस्था हो गयी थी और ज्यों-ज्यों लोगों का लगाव उर्दू के साथ बढ़ता गया, त्यों-त्यों हिन्दी के प्रति उनकी उदासीनता बढ़ती गयी। यहाँ तक कि सिर्फ हिन्दी जाननेवाले गँवार समझे जाने लगे। उर्दू ज्ञान के बिना शिष्ट समाज में स्थान पाना भी कठिन हो गया, पढ़े लिखे लोग तो अपनी चिट्ठियाँ तक उर्दू में लिखने लगे थे। ऐसे समय में राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' की नीति बहुत सहायक सिद्ध न हुईं राजा लक्ष्मण सिंह ने उनकी भाषा-नीतिका विरोध किया। अन्य साहित्यकों को भी 'सितारे हिन्द' की भाषा का रूप खटका और उसकी कडत्री आलोचना की गयी। अनेक लोगों ने अरबी-फारसी मिश्रित गद्य भाषा और शैली की घोर निन्दा की और संस्कृत परिवार की भाषाओं के लिए यह प्रवृत्ति घातक बतायी। किन्तु भाषा के क्षेत्र में भाषा के अंग बन गये शब्दों के बहिष्कार की नीति व्यावहारिक सिद्ध न हो सकी। ऐसी परिस्थिति में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने मध्यम मार्ग का अवलम्बन कर हिन्दी के जातीय रूप और शैली की स्थापना की, जिसमें सरल संस्कृत के शब्दों के साथ-साथ लोकप्रचलित विदेशी शब्दो को भी स्थान दिया गया। किन्तु भारतीय नवोत्थान के उस प्रथम चरण में आर्यसमाज-आन्दोलन द्वारा प्रेरित संस्कृत भाषा और साहित्य के अध्ययन के फलस्वरूप हिन्दी संस्कृत शब्दावली के प्रयोग की ओर अधिकाधिक झुकती गयी। स्वामी दयानन्द ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया था और देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक उन्होंने इसी भाषा का प्रयोग किया, जहाँ पहले उर्दू का बोल-बाला था। उन्होंने स्वयं 'सत्यार्थ-प्रकाश' (1874 ई0) , 'व्यवहारभानु', 'गोकरणनिधि' आदि ग्रन्थों की रचना हिन्दी में की। उनकी भाषा संस्कृतगर्भित है। अन्य आर्यसमाजी लेखकों ने भी संस्कृत शब्दावली के प्रयोग की ओर अधिक ध्यान दिया, फलत: भाषा का जो आदर्श भारतेन्दु ने स्थापित किया, वह अन्य अनेक कारणों के अतिरिक्त आर्यसमाज के प्रबल प्रभाव के कारण बहुत दिनों के लिए लुप्त हो गया। हिन्दी के 'संस्कृतीकरण' या 'तत्समीकारण' का आर्यसमाज एक प्रधान कारण था। हिन्दी के 'संस्कृतीकरण' और राष्ट्रभाषा-पदपर स्वीकर करने के अतिरिक्त आर्यसमाज ने हिन्दी गद्य को एक नयी शैली प्रदान की, जो शास्त्रर्थ और खण्डन-मण्डनके उपयुक्त थी। भाषा में आलोचना और वाद-विवाद करने की शक्ति आयी। भाव-व्यंजना में भी इससे सहायता मिली और तर्कशैली के साथ-साथ व्यंग्य तथा कटाक्ष करने की शक्ति का आविर्भाव हुआ। हिन्दी भाषा तथा गद्य शैली का यह विकास अभूतपर्व था और क्योंकि आर्यसमाज का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक था, इसलिए उसने साहित्यिकों को तरह-तरह के विषय सुझाये। यद्यपि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र , राधाकृष्णदास, श्रीनिवासदास, प्रतापनारायण मिश्र जैसे कवि, उपन्यासकार और नाटककार आर्यसमाजी नहीं थे, तो भी उनके द्वारा गृहीत अनेक विषय वे ही हैं, जो आर्यसमाज-आन्दोलन अपनाये हुए था। ऐसे अनेक तत्कालीन नाटक, प्रहसन और उपन्यास उपलब्ध होते हैं, जिनपर तर्कप्रणाली, विषय, शैली आदि की दृष्टि से आर्यसमाज का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।किन्तु कुछ हदतक आर्यसमाज नाटयकला के लिए घातक भी सिद्ध हुआ। उसने अनेक विषय सुझाकर सामग्री प्रस्तुत करने में कोई कसर बाकी न रखी, यह ठीक है, लेकिन शास्त्रार्थवाली शैली ने कृतियों की कलात्मकता को आघात पहुँचाया। ऐसी प्रतीत होता है मानो स्वयं लेखक विविध पात्रों के रूप में आर्यसमाज के प्लेटफार्म से बोल रहा है। आर्यसमाज का जितना प्रभाव नाटक और काव्यपर पड़ा उतना साहित्य के किसी और अंगपर नहीं पड़ा। तो भी उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और बीस वीं शताब्दी में आर्यसमाजी उच्च कोटि के प्रसिद्ध नाटककार, कवि या अन्य लेखक और कलाकार बहुत कम हुए। उन्नीसवीं शताब्दीं में आर्यसमाजी लेखक या कवि नहीं हुआ। बीसवीं शताब्दी में भी पद्मसिंह शर्मा, नाथूराम शंकर शर्मा आदि जैसे कुछ ही प्रसिद्ध लेखक और कवि हुए हैं। यह इसलिए नहीं कि आर्यसमाज कोई साधारण आन्दोलन था, वरन् इसलिए कि वह प्रचारत्मक आन्दोलन होने की बजहसे उच्च कोटि का साहित्य प्रचुर मात्रा में न दे सका। कला का अभाव आर्यसमाज में ही नहीं, संसार के सभी सुधारवादी (Puritonical) आन्दोलनों में पाया जाता हैं। सुधारवादी कुछ तो सौन्दर्य-भावना को सुख और दु:ख की भावना के आश्रित समझकर कला से दूर भागते हैं, अथवा सत् और असत् से परी कोई अनुभव है, इस विचार को नैतिक उद्देश्य से हीन समझकर उसमें विश्र्वास नहीं करते। तो भी भाषा, विषय, चयन, लेखकों और कवियों के दृष्टिकोण तथा उनकी विचार-पद्धति पर आर्यसमाज का काफी प्रभाव पड़ा, यह निस्सन्देह कहा जा सकता था। लगभग पिछले बीस-पच्चीस वर्षों से आर्यसमाज का सांहित्य पर प्रभाव एक प्रकार से नगण्य है। वास्तव में आर्यसमाज एक ऐसा आन्दोलन था, जिसने देश की एक ऐतिहासिक आवश्यकता पूरी की। शिक्षा, समाजसुधार, धर्मसुधार आदि क्षेत्रों में उसके द्वारा प्रचलित लगभग सभी बातें देश द्वारा स्वीकृत हो जाने के फलस्वरूप उसकी गतिशीलता समाप्त हो गयी। आर्यसमाज आन्दोलन अब केवल नाममात्र का रह गया है। साथ ही राष्ट्रीयता का पोषक होने के कारण यह आन्दोलन बहुत कुछ कांग्रेस द्वारा प्रचलित राष्ट्रीय आन्दोलन में घुल-मिलकर अपनी स्वतन्त्र सत्ता खो बैठा। [सहायक ग्रन्थ--'आर्यसमाज': लाला लाजपतराय : आधुनिक हिन्दी साहित्य': लम्मीसागर वार्ष्णेय, 'महर्षि दयानन्द': यदुवंश सहाय बर्मा] --ल0 सा0 वा0