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वह मोरक्को निवासी एक प्रबुद्ध मुसलमान था, जो मुम्मद तुगलक के शासन काल में भारत की यात्रा करने को आया था । वह दिल्ली में मुहम्मद से मिला था । मुहम्मद इसकी विद्वत्ता से बड़ा प्रभावित हुआ और उसे दिल्ली का काजी बना दिया । फिर किसी बात पर रूष्ट होकर शाह ने उसे कारागार में डाल दिया था; किंतु शीघ्र ही उसे बंधन मुक्त कर दिया । इब्नबतूता कई वर्ष तक भारत में रहा था । उसने सामान्यतः इस देश की और विशेषतया मुहम्मद तुगलक के शासन−काल की परिस्थिति का सूक्ष्म अध्ययन किया था । उसने अपने अध्ययन का सार "किताब−उल−रहला" नामक पुस्तक में लिखा है । उस पुस्तक की रचना अरबी भाषा में हुई है । उसमें मुहम्मद तुगलक के शासन काल की अनेक महत्तवपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया गया है, जो ऐतिहासिक महत्व का है । उसने भारतीयों की उदारता, गुण−ग्राहकता और ईमादारी की बड़ी प्रशंसा की है ।  
 
वह मोरक्को निवासी एक प्रबुद्ध मुसलमान था, जो मुम्मद तुगलक के शासन काल में भारत की यात्रा करने को आया था । वह दिल्ली में मुहम्मद से मिला था । मुहम्मद इसकी विद्वत्ता से बड़ा प्रभावित हुआ और उसे दिल्ली का काजी बना दिया । फिर किसी बात पर रूष्ट होकर शाह ने उसे कारागार में डाल दिया था; किंतु शीघ्र ही उसे बंधन मुक्त कर दिया । इब्नबतूता कई वर्ष तक भारत में रहा था । उसने सामान्यतः इस देश की और विशेषतया मुहम्मद तुगलक के शासन−काल की परिस्थिति का सूक्ष्म अध्ययन किया था । उसने अपने अध्ययन का सार "किताब−उल−रहला" नामक पुस्तक में लिखा है । उस पुस्तक की रचना अरबी भाषा में हुई है । उसमें मुहम्मद तुगलक के शासन काल की अनेक महत्तवपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया गया है, जो ऐतिहासिक महत्व का है । उसने भारतीयों की उदारता, गुण−ग्राहकता और ईमादारी की बड़ी प्रशंसा की है ।  
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===फीरोज तुगलक (सन् 1351 से सन् 1388 )===
 
===फीरोज तुगलक (सन् 1351 से सन् 1388 )===
 
 
फीरोज तुगलक  मुहम्मद तुगलक का चचेरा भाई था । इसकी माँ भट्टी राजपूत जाति की सुंदर स्त्री थी, उसके साथ उसके पिता ने बलपूर्वक निकाह किया था । एक हिंदु माता का पुत्र होने की वजह से उस समय के तुर्क सरदार उसे  मुसलमान नहीं मानते थे । इसलिए फीरोज खुद को तुर्कों के समान सिध्द करने के लिए हिंदुओं के साथ बड़ी निर्ममता और बर्बरता से पेश आता था । हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाना और उनके मन्दिरों को तोड़ना वह अपना मज़हबी फर्ज समझता था । फीरोज तुगलक ने मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान के मंदिर को तुड़वाया था जोलगभग दो शताब्दी पहले विजयपाल देव ने बनवाया था । सम्भवतः ये मंदिर बनवा दिया गया; क्योंकि सिकंदर लोदी के समय में भी इस मन्दिर को नष्ट किये जाने का विवरण मिलता है ।  
 
फीरोज तुगलक  मुहम्मद तुगलक का चचेरा भाई था । इसकी माँ भट्टी राजपूत जाति की सुंदर स्त्री थी, उसके साथ उसके पिता ने बलपूर्वक निकाह किया था । एक हिंदु माता का पुत्र होने की वजह से उस समय के तुर्क सरदार उसे  मुसलमान नहीं मानते थे । इसलिए फीरोज खुद को तुर्कों के समान सिध्द करने के लिए हिंदुओं के साथ बड़ी निर्ममता और बर्बरता से पेश आता था । हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाना और उनके मन्दिरों को तोड़ना वह अपना मज़हबी फर्ज समझता था । फीरोज तुगलक ने मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान के मंदिर को तुड़वाया था जोलगभग दो शताब्दी पहले विजयपाल देव ने बनवाया था । सम्भवतः ये मंदिर बनवा दिया गया; क्योंकि सिकंदर लोदी के समय में भी इस मन्दिर को नष्ट किये जाने का विवरण मिलता है ।  
===तैमूर का आक्रमण===
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===तैमूर का आक्रमण===
 
तुगलक वंश में बाद के शासक अयोग्य थे । इन्हीं शासकों में से एक नसिरूद्दीन मुहमूद था, जो बहुत ही कमजोर शासक था । उसके समय में मध्य एशिया के एक बहुत ही क्रूर आक्रमणकारी तैमूर लंग ने भारत पर हमला किया । उसने सन् 1388 में पंजाब और दिल्ली पर हमला कर वहाँ के लाखों लोगों का बड़ी बेरहमी से कत्लेआम कराया । तैमूर के जैसे बर्बर और निरंकुश हमलावर संसार के इतिहास में विरले ही मिलते हैं ।
 
तुगलक वंश में बाद के शासक अयोग्य थे । इन्हीं शासकों में से एक नसिरूद्दीन मुहमूद था, जो बहुत ही कमजोर शासक था । उसके समय में मध्य एशिया के एक बहुत ही क्रूर आक्रमणकारी तैमूर लंग ने भारत पर हमला किया । उसने सन् 1388 में पंजाब और दिल्ली पर हमला कर वहाँ के लाखों लोगों का बड़ी बेरहमी से कत्लेआम कराया । तैमूर के जैसे बर्बर और निरंकुश हमलावर संसार के इतिहास में विरले ही मिलते हैं ।
 
तुगलक सुल्तानों की कमजोरी और बेवकूफियों के कारण राज्य की पहले की बहुत बुरी दशा थी,उस पर तैमूर जैसे बर्बर आक्रमण्कर्ता के आक्रमण की वजह बहुत तबाही और बरबादी हुई यहाँ तक कि तुगलकवंश का पतन हो गया ।
 
तुगलक सुल्तानों की कमजोरी और बेवकूफियों के कारण राज्य की पहले की बहुत बुरी दशा थी,उस पर तैमूर जैसे बर्बर आक्रमण्कर्ता के आक्रमण की वजह बहुत तबाही और बरबादी हुई यहाँ तक कि तुगलकवंश का पतन हो गया ।

१२:२९, २३ मई २००९ का अवतरण

इतिहास

उत्तर मध्य काल (सन् 1206 - से 1576 तक)


मुस्लिम साम्राज्य

वीर राजपूत राजाओं पृथ्वीराज और जयचंद्र को सन् 1191 एवं सन् 1194 वि. में हराने के बाद मोहम्मद गौरी ने भारत में मुस्लिम साम्राज्य की नीवं डाली और अपने जीते गये राज्य की व्यवस्था अपने सेनापति कुतुबुद्दीन को सौंपकर खुद वापस चला गया । मोहम्मद गौरी के जीवन काल तक कुतुबुद्दीन उसके अधीनस्थ शासक बन कर मुस्लिम साम्राज्य को व्यवस्थित करता रहा । सन् 1206 में गौरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन भारत के मुस्लिम साम्राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक बना; उसने दिल्ली को राजधानी बनाया । शुरू से ही दिल्ली मुस्लिम साम्राज्य की राजधानी रही; और बाद तक बनी रही। मुगल काल में अकबर ने आगरा को राजधानी बनाया ; फिर उसके पौत्र शाहजहाँ ने दोबारा दिल्ली को राजधानी बना दिया ।

सल्तनत काल (सन् 1206 से सन् 1526 तक)

भारत में मुस्लिम साम्राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक कुतुबुद्दीन था । उसने सन् 1206 में पहिले 'मलिक' और फिर 'सुलतान' की पदवी धारण की ।उसने दिल्ली को राजधानी बनाया कुतुबुद्दीन से लेकर इब्राहीम लोदी तक दिल्ली में अनेक सुल्तान हुए, इस कारण सन् 1206 से सन् 1526 तक का 320 साल का वक्त 'सल्तनत काल' कहलाता है । दिल्ली के ये सुलतान कई वंशों से थे । इतिहास में वे गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश और लोदी वंश के नाम से जाने जाते हैं । लगभग सभी वंश तुर्क जाति के थे, केवल लोदी वंश पठान जाति का था ।

गुलाम वंश (सन् 1206 से सन् 1290 तक )

कुतुबुद्दीन (सन् 1206 − सन् 1210 )

इस वंश का संस्थापक कुतुबद्दीन ऐबक था । जीवन के शुरू में वह मुहम्मद गौरी का गुलाम था, इसी कारण यह वंश गुलाम वंश के नाम से इतिहास में जाना जाता है। कुतुबुद्दीन के बाद इल्तमश और बलवन नामक नामी शासक हुए; अपने जीवन में ये सभी गुलाम थे । कुतुबुद्दीन साहसी योध्दा और काबिल शासक था । योग्य होने से ही वह गुलाम से सुल्तान बना। कुतुबुद्दीन ने 2 मस्जिदें बनवाकर भारत में इस्लामिक इमारतों को बनवाना शुरू किया था । ये मस्जिद हिंदु मदिंरों को नष्ट कर एक दिल्ली में और दूसरी अजमेर में बनवाई गई । दिल्ली की 'कुतुब मीनार' उसी के नाम से जानी जाती है;पर कहते हैं कि उसका निर्माण बाद में हुआ।

इल्तमश (सन् 1210 - सन् 1235 )

इसका पूरा नाम शमसुद्दीन इल्तमश था । वह कुतुबुद्दीन ऐबक का गुलाम था; अपनी काबलियत की वजह से वह अपने मालिक का दामाद और फिर उत्तराधिकारी बना। उसने भारत के मुस्लिम इलाके को गौरी के वंशजों से आजाद कर उसे स्वतंत्र राज्य बनाया; इस तरह इल्तमश दिल्ली का प्रथम सु्ल्तान बना । ये कहा जाता है कि दिल्ली की 'कुतुब मीनार' इल्तमश ने बनवाई थी, पर साक्ष्य कहते हैं समुद्रगुप्त ने दिल्ली में एक वेधशाला बनवाई थी, यह उसका सूर्य स्तंभ है । कालान्तर में अनंगपाल तौमर और पृथ्वीराज चाहमान के शासन के समय में उसके आसपास कई मंदिर और भवन बने, जिन्हें मुस्लिम हमलावरों ने दिल्ली में घुसते ही तोड़ दिया था। कुतुबुद्दीन ने वहाँ 'कुबत−उल−इस्लाम' नाम की मस्जिद का निर्माण कराया और इल्तमश ने उस सूर्य स्तंभ में तोड़-फोड़कर उसे मीनार का रूप दे दिया था । स्थापत्य कला से भी यह हिंदू इमारत ही लगती है । मुस्लिम शासन में इस पर से 'अजान' दी जाती थी ।

खिलजी वंश (सन् 1290 से सन् 1319 तक)

अलाउद्दीन (सन् 1296 से सन् 1316 )

अलाउद्दीन खिलजी वंश का सबसे मशहूर सुल्तान था । अपने चाचा की हत्या करा कर वह शासक बना और पूरे अपने जीवन काल में वह युध्द कर राज्य का विस्तार करता रहा । वह कुटिल क्रूर और हिंसक प्रवृति का बहुत ही महत्वाकांक्षी और होशियार सेना प्रधान था 20 वर्ष के अपने शासन काल में उसने लगभग सारे भारत को अपने शासन में कर लिया था । उसने ही देवगिरि, गुजरात, राजस्थान, मालवा और दक्षिण के अधिकतर राज्यों पर सबसे पहले मुस्लिम शासन स्थापित किया । चित्तौड़ की रानी पदि्मनी के लिए राजपूतों से युध्द किया, इस युध्द में बहुत से राजपूत नर−नारियों ने बलिदान दिया । शासक बनते ही उसकी कुदृष्टि मथुरा की तरफ हुई । उसने सन् 1297 में मथुरा के असिकुंडा घाट के पास के पुराने मंदिर को तोड़ कर एक मस्जिद बनवाई ,कालान्तर में यमुना की बाढ़ से यह मस्जिद नष्ट हो गई । अलाउद्दीन पढ़ा−लिखा नहीं था किन्तु साहित्य और कला का कद्रदान था । उसके दरबार में बहुत से विद्वान और कलाकार थे। अमीर खुसरों जैसा प्रसिद्ध विद्वान और कला−मर्मज्ञ अलाउद्दीन के दरबार में था । इसी के शासन काल में अमीर खुसरों और गोपाल नायक के बीच संगीत प्रतियोगिता हुई ,इसमें भारतीय कला का पहली बार विदेशी कला से मुकाबला हुआ।

अमीर ख़ुसरो

अमीर ख़ुसरो के पिता सैफुद्दीन महमूद मध्य एशिया का एक तुर्क जाति का मुसलमान था । किसी कारण वह अपने देश को छोड़ कर भारत आ गया था। वह ब्रज क्षेत्र के पटियाली ग्राम (जिला−एटा) में बस गया था । वहाँ उसने एक हिन्दू महिला से जबर्दस्ती निकाह कर लिया था; जिससे लगभग सन् 1253 में एक बच्चा पैदा हुआ, उस बच्चे का नाम अबुल हसन रखा गया, वही बच्चा बड़ा हो कर 'अमीर खुसरो' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दिल्ली के गुलाम वंश के शासक सुल्तान गयासुद्दीन बलबन के समय में खुसरो राजा के दरबार में था। अमीर खुसरो ने गुलाम, खिलजी और तुगलक वंश के 11 सुल्तानों का शासन देखा इनमें से सात शासकों के दरबार में वह रहा । उसके जीवन में बड़े चढ़ाव−उतार रहे । अमीर खुसरो सूफी विचारधारा को मानता था । सूफी संत हजरत निजामुद्दीन अमीर खुसरो के गुरू थे । खुसरो बड़ा बुध्दिमान, प्रतिभाशाली, विद्वान और कई भाषाओं का ज्ञाता था और साथ ही वह महान कवि और संगीतज्ञ भी था । खुसरो को अपनी योग्यता के कारण बहुत से सुल्तानों के दरबार विशेष स्थान प्राप्त था । दिल्ली के सुलतान गयासुद्दीन तुगलक के शासन काल में अमीर खुसरो की मुत्यु सन् 1325 के लगभग हुई थी । उस समय अमीर खुसरो की आयु 72 वर्ष थी । अमीर खुसरो का मकबरा उसके गुरू शेख निजामुद्दीन की दरगाह के निकट दिल्ली में बना हुआ है । अमीर खुसरो अनेक भाषाओं का ज्ञाता, विद्वान, फारसी का महाकवि और संगीत का विशेषज्ञ था । अमीर खुसरो की मातृभाषा ब्रज भाषा, पितृभाषा तुर्की, धार्मिक भाषा अरबी, काव्य भाषा फारसी और उसके संगीत की भाषा फारसी एवं ब्रज भाषा थीं । अमीर खुसरो ने फारसी में अनेक काव्य ग्रंथों की रचना करने के साथ ही साथ ब्रज भाषा−हिन्दी में भी काव्य−रचना की । उस भाषा को अमीर खुसरो 'हिंदवी' कहता था, जिसमें उसने मनोरंजक शैली में बहुत रचनाएँ की । ये रचनाएँ पहेलियों, मुकरियों, दो सखुनों, दोहों एवं पदों के रूप में मिलती हैं । मुसलमानों के सम्पर्क में आने और रहने के कारण उत्तर भारत में भारतीय और ईरानी संगीत के मेलजोल से जो संगीत सामने आया वह 'हिन्दुस्तानी संगीत' के नाम से जाना जाता है । इस तरह अमीर खुसरो के समय से एक नई गायन−पद्धति प्रचलन में आई । इस पध्दति के आरंभिक प्रचारक के रूप में अमीर खुसरों को ही जाना जाता है । हिन्दुस्तानी संगीत का अमीर खुसरों को व्यावहारिक ज्ञान था, किंतु भारत की परंपरागत संगीत−सिद्धातों से परिचित होने का अवसर अमीर खुसरों को नहीं मिला था । उसने भारतीय रागों का वर्गीकरण ईरानी संगीत के स्वर शास्त्र की 'मुकाम' पद्धति से किया था । उस संगीत−पद्धति का प्रयोग सूफी संतों ने किया था; और खुसरों जैसे प्रतिभासम्पन्न और ज्ञानी संगीतज्ञ द्वारा उसे विस्तार प्राप्त हुआ । खुसरो के नाम से जो पहेलियाँ एवं मुकरियाँ प्राप्त हैं, वह ब्रजभाषा में ही प्राप्त है । ये रचनायें मूल रूप में प्राप्त नहीं हैं । इन्हें उसके बाद के कवियों ने संशोधित किया है । कुछ पहेलियाँ,मुकरियाँ,गीत और दोहे इस प्रकार हैं −

पहेलियाँ

1. सावन भादों बहुत चलत है, माह−पूस में थोरी । अमीर, खुसरों यों कहै, तू बूझ पहेली मोरी ।। (मोरी )

2. आवै तौ अंधेरी लावै । जावै तो सब सुख ले जावै । (आँख )

मुकरियाँ

1. आँख चलावै भौं मटकावै । नाँच−कूद कै खेल खिलावै । । मन में आवै ले जाऊँ अंदर । ऐ सखी साजन, ना सखी बंदर ।। (बंदर )

2. बाट चलत मोरा अँ चरा गहै । मेरी सुनै न अपनी कहै ।। ना कुछ मोसों झगड़ा−झांटा । ऐ सखी साजन, ना सखी काँटा ।। (काँटा )

3. आठ पहर मेरे ढिंग रहै । मीठी प्यार बातें करै ।। स्याम बरन और राते नैना । ऐ सखी साजन, ना सखी मैना ।। (मैना )

खुसरो के ब्रजभाषा गीतों एवं दोहों इस प्रकार है :−

गीत : − मोरा जौवना नवेलर भयो है गुलाल । कैसे गर दीना, बकस मोरी लाल ।। निजामुद्दीन ओलिया को कोई समझाए । जों जों मनाऊँ, वह मोसों रूसा ही जाए ।। सूनी सेज डरावन लागै, विरहा अगिन मोहै डस−डस जाए । जौवना मोरा।।

दोहे :− खुसरो रैन सोहाग, की जागी पी के संग । तन मेरौ मन पीव कौ, दोऊ भए एक रंग ।।

गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारै केस । चल खुसरों घर आपने, रैन भई चहुँ देस ।।

समझा जाता है कि ये दोहे खुसरो ने अपने गुरू निजामुद्दीन की मृत्यु होने के बाद उनके प्रति भक्ति व श्रद्धा में कहे थे । मुख्य रूप से खुसरों का महत्व उसका फारसी भाषा का महाकवि होना है । खुसरों ने भारत के संगीत में ईरानी संगीत को मिला कर नई पद्धति 'मुकाम' को बनाया और उसके हिसाब से ही नये राग, नये गीत और नये-नये वाद्य यंत्रों का आविष्कार किया एवं उन्हें प्रचलित किया । अमीर खुसरों द्वारा बनाये गये संगीत के रागों में 'फकीरूल्ला' के वर्णनानुसार, 'जैल्फ, उष्षाक, सरपर्दा, फरोदस्त, ऐमनी, साजगिरी, आहंग और शनम' प्रमुख थे।(लेखक कृत 'ब्रज की कलाओं' का इतिहास, पृष्ठ−178) ये सब भारतीय और ईरानी रागों को मिलाकर बनाये थे। अमीर खुसरों ने जिस गायन−शैली को प्रचलित किया उसे उस समय 'कौल' कहा गया; और उस शैली के लिए लिखे गये मज़हबी गीत 'कव्वाली' कहे गये । इस प्रकार खुसरो ने भारतीय संगीत को हिन्दुस्तानी संगीत में ढाल कर संगीत में अद्भुत और कला की दृष्टि से क्रांतिकारी बदलाव किया था ।

नायक गोपाल

नायक गोपाल दक्षिण का सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ और प्रसिध्द गायक था, जो सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के शासन के समय में (सन् 1296 − सन् 1316 ) में उसके दरबार में था । सम्भ्वतः उसका जन्म सन् 1243 के आसपास हुआ होगा । वह भारतीय संगीत की उस समय प्रचलित शैलियों का महान गायक था । सुल्तान अलाउद्दीन के सेनापति मलिक काफूर ने दक्षिण के देवगिरि राज्य पर हमला किया और वहाँ के यादव राजा रामंचद्र राय को हरा दिया। यादव राजारामंचद्र राय ने दिल्ली आ कर अलाउद्दीन की परतत्रंता स्वीकार कर ली थी । तभी देवगिरि राज्य के अनेक विद्वान, गुणीजन और कलाकारों ने भी दिल्ली आ कर सुल्तान की सेवा करना स्वीकार किया था। ऐसा कहा जाता है कि गोपाल नायक भी उसी समय में दिल्ली आया था । वह सुल्तान अलाउद्दीन के दरबार में उपस्थित हुआ था ।

अमीर खुसरो और नायक गोपाल की संगीत-प्रतियोगिता

आज भी संगीत जगत में खुसरो और गोपाल की संगीत−प्रतियोगिता प्रसिद्ध है । इसका विवरण फकीरूल्ला, विलर्ड और भारतखंडे जैसे जाने-माने संगीतज्ञों के ग्रंथों में भी मिलता है । नायक गोपाल दक्षिण से दिल्ली आया था और उसने अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में जाकर दरबारी संगीतज्ञों को गायन−प्रतियोगिता के लिए चुनौती दी थी । अमीर खुसरो उस समय में खिलजी दरबार का सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ था । अमीर खुसरो की गोपाल से संगीत−प्रतियोगिता हुई थी, जिसमें खुसरो ने छलपूर्वक नायक गोपाल को हरा दिया था, लेकिन नायक गोपाल के प्रकांड संगीत के ज्ञान का लोहा स्वंय अमीर खुसरो ने और साथ ही पूरे दिल्ली दरबार के सभी संगीतज्ञों ने माना था । संगीत की इस गायन−प्रतियोगिता का उल्लेख मुगल शासक औरंगजेब के काश्मीरी सूबेदार 'फकीरूल्ला' द्वारा लिखे गये 'राग दर्पण' में किया गया है । आचार्य बृहस्पति ने उसके कथन को उल्लिखित करते हुए लिखा है,−'खुसरो ने ईरानी स्वर शास्त्र के आधार पर भारतीय रागों का वर्गीकरण जिस 'मुकाम' पद्धति से किया था, उसे भारतीय कलाकारों ने चुपचाप स्वीकार कर लिया; क्योंकि भारतीय पद्धति को 'गुप्त' रखना ही वे उसे विकृत होने से बचाने का उपाय समझते थे । उसी प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप अमीर खुसरो से हार मान कर गोपाल नायक ने झगड़ा जीत लिया था । अपने आश्रयदाता देवगिरि नरेश की दुर्दशा देख कर वे पराजय स्वीकार न करते, तो क्या करते । गोपाल नायक के झुकने पर सारे दक्षिण ने हथियार डाल लिये ।

खुसरो का निधन लगभग 72 वर्ष की उम्र में सन् 1325 के आसपास दिल्ली में हुआ था । अमीर खुसरो को उसके गुरू हजरत निजामुद्दीन की कब्र के पास ही दफनाया गया था । वहाँ उन दोनों के मकबरे बने हुए हैं ।

तुगलक वंश (सन् 1320 से सन् 1413 तक)

मुहम्मद तुगलक (सन् 1320 से सन् 1351 )

प्रयोगात्मक क्रांतिकारी कार्यों के लिए इस वंश के सुलतानों में मुहमम्द तुगलक का नाम मशहूर है । पहले सुल्तानों की वित्त, खेती और सिक्कों सम्बन्धी नीति में बदलाव करने क साहस इस शासक ने किया और साथ ही अपनी राजधानी को देवगिरि ले जाने का उसने कदम उठाया , इन सब वजहों से वह जनता के क्रोध का पात्र बना और अलोकप्रिय हो गया था । हालाँकि मुहमम्द तुगलक बहुत विद्वान, बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति था; फिर भी व्यवहारिक ज्ञान ना होने की वजह से उसका शासकीय योग्यता में नाकाम माना जाता है ।बहुत से इतिहासकारों ने उसका मूल्यांकन किया है; पर उनका मत आपस में एक−दूसरे से नहीं मिलता है । दिल्ली के सुलतानों में मुहमम्द तुगलक का चरित्र बहुत विवादग्रस्त और मनोरंजन से भरा मिलता है ऐसा वृतांत किसी और शासक का नहीं मिलता । कुछ इतिहासकारों ने तो उसे विक्षिप्त भी बतलाया है,पर वह पागल नहीं था ,हाँ उसने अपने शासन में अनेक प्रयोग किये थे । मुहमम्द तुगलक के शासन के समय में 'इब्नबतूता' नाम का एक मुस्लिम यात्री भारत यात्रा पर आया था । वह सन् 1333 में दिल्ली पहुँचा और कई वर्ष तक दिल्ली रहा । उसने अपनी यात्रा के वृतांत में मुहम्मद तुगलक के शासन सम्बन्धी विस्तृत विवरण किया है ।:−

वह मोरक्को निवासी एक प्रबुद्ध मुसलमान था, जो मुम्मद तुगलक के शासन काल में भारत की यात्रा करने को आया था । वह दिल्ली में मुहम्मद से मिला था । मुहम्मद इसकी विद्वत्ता से बड़ा प्रभावित हुआ और उसे दिल्ली का काजी बना दिया । फिर किसी बात पर रूष्ट होकर शाह ने उसे कारागार में डाल दिया था; किंतु शीघ्र ही उसे बंधन मुक्त कर दिया । इब्नबतूता कई वर्ष तक भारत में रहा था । उसने सामान्यतः इस देश की और विशेषतया मुहम्मद तुगलक के शासन−काल की परिस्थिति का सूक्ष्म अध्ययन किया था । उसने अपने अध्ययन का सार "किताब−उल−रहला" नामक पुस्तक में लिखा है । उस पुस्तक की रचना अरबी भाषा में हुई है । उसमें मुहम्मद तुगलक के शासन काल की अनेक महत्तवपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया गया है, जो ऐतिहासिक महत्व का है । उसने भारतीयों की उदारता, गुण−ग्राहकता और ईमादारी की बड़ी प्रशंसा की है ।

===फीरोज तुगलक (सन् 1351 से सन् 1388 )=== फीरोज तुगलक मुहम्मद तुगलक का चचेरा भाई था । इसकी माँ भट्टी राजपूत जाति की सुंदर स्त्री थी, उसके साथ उसके पिता ने बलपूर्वक निकाह किया था । एक हिंदु माता का पुत्र होने की वजह से उस समय के तुर्क सरदार उसे मुसलमान नहीं मानते थे । इसलिए फीरोज खुद को तुर्कों के समान सिध्द करने के लिए हिंदुओं के साथ बड़ी निर्ममता और बर्बरता से पेश आता था । हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाना और उनके मन्दिरों को तोड़ना वह अपना मज़हबी फर्ज समझता था । फीरोज तुगलक ने मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान के मंदिर को तुड़वाया था जोलगभग दो शताब्दी पहले विजयपाल देव ने बनवाया था । सम्भवतः ये मंदिर बनवा दिया गया; क्योंकि सिकंदर लोदी के समय में भी इस मन्दिर को नष्ट किये जाने का विवरण मिलता है ।

तैमूर का आक्रमण

तुगलक वंश में बाद के शासक अयोग्य थे । इन्हीं शासकों में से एक नसिरूद्दीन मुहमूद था, जो बहुत ही कमजोर शासक था । उसके समय में मध्य एशिया के एक बहुत ही क्रूर आक्रमणकारी तैमूर लंग ने भारत पर हमला किया । उसने सन् 1388 में पंजाब और दिल्ली पर हमला कर वहाँ के लाखों लोगों का बड़ी बेरहमी से कत्लेआम कराया । तैमूर के जैसे बर्बर और निरंकुश हमलावर संसार के इतिहास में विरले ही मिलते हैं । तुगलक सुल्तानों की कमजोरी और बेवकूफियों के कारण राज्य की पहले की बहुत बुरी दशा थी,उस पर तैमूर जैसे बर्बर आक्रमण्कर्ता के आक्रमण की वजह बहुत तबाही और बरबादी हुई यहाँ तक कि तुगलकवंश का पतन हो गया ।

सैयद वंश (सन् 1414 से सन् 1451 तक)

मुस्लिमों की तुर्क जाति का यह आखरी राजवंश था । इस वंश का शासन थोड़े ही समय तक रहा । इस समय में जो 3−4 सुलतान हुए, उनका इतिहास में कोई उल्लेख्नीय वर्णन नहीं मिलता है ।

लोदी वंश (सन् 1489 से सन् 1526 )

इस वंश के शासक जाति से पठान थे । इनमें सिकंदर लोदी सबसे अधिक धर्मांध शासक था । वह जाति से हिन्दू सुनारिन का बेटा था, इस कारण से वह हीन भावनाओं से भरा था। विदेशी मुसलमान सरदार के बराबर पक्का मुसलमान सिद्ध होने के लिए वह हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार करता था । उसने अपने शासन काल में हिन्दू प्रजा को बलपूर्वक मुसलमान बनाने और हिन्दूओं के मंदिरों को तोड़ने का कार्य भी किया। सिकंदर का बाद का जीवन ग्वालियर के बहादुर राजा मानसिंह तोमर से युद्ध करने में व्यतीत हुआ। उसने राजा मानसिंह को हराने की कई बार कोशिश की , पर वह हर बार नाकाम रहा । सिकन्दर ने सन् 1504 में आगरा को अपनी सैनिक छावनी बनाया । वहीं से उसने ग्वालियर पर आक्रमण किया । वर्तमान में जहाँ सिकंदरा है, वहाँ सिकंदर की सेना का पड़ाव था । उसी के नाम पर इस जगह का नाम 'सिकंदरा' पड़ा । सिकंदर से आक्रमण से पहले आगरा एक छोटा सा नगर था । किन्तु जब से वह लोदी सुलतान की सैनिक छावनी बना, तभी से उसका विकास होने लगा था । मथुरा के लिए सिकंदर का शासन विशेष रूप से कष्टदायक था । सिकंदर ने मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान का विशाल मंदिर तुड़वाया और हिन्दूओं पर रोक लगा दी । कोई हिन्दू बाल भी नहीं बनवा सकता था; और न ही यमुना में स्नान कर सकता था । ===इब्राहीम लोदी (सन् 1517- सन् 1576 )=== वह लोदी वंश का आखरी शासक था । उसके समय में बाबर नाम के एक मुगल सरदार ने भारत पर हमला किया । बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर सल्तनत शाही को खत्म किया और इस प्रकार भारत में मुगल साम्राज्य की नींव ड़ाली।