ऋषि पञ्चमी

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ऋषि पञ्चमी / Rishi Panchami

भाद्रपद के शुक्लपक्ष की पंचमी को ऋषि पञ्चमी व्रत सम्पादित होता है। प्रथमत: यह सभी वर्णों के पुरूषों के लिए प्रतिपादित था, किन्तु अब यह अधिकांश में नारियों द्वारा किया जाता है। हेमाद्रि [१] ने ब्रह्माण्डपुराण को उद्धृत कर विशद विवरण उपस्थित किया है। व्यक्ति को नदी आदि में स्नान करने तथा आह्लिक कृत्य करने के उपरान्त अग्निहोत्रशाला में जाना चाहिए, सातों ऋषियों की प्रतिमाओं को पंचामृत में नहलाना चाहिए, उन पर चन्दन लेप, कर्पूर लगाना चाहिए, पुष्पों, सुगन्धित पदार्थों, धूप, दीप, श्वेत वस्त्रों, यज्ञोपवीतों, अधिक मात्रा में नैवेद्य से पूजा करनी चाहिए और मन्त्रों के साथ अर्घ्य चढ़ाना चाहिए।(1) इस व्रत में केवल शाकों का प्रयोग होता है और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। इसके करने से सभी पापों एवं तीनों प्रकार के दु:खों से छुटकारा मिलता है(2) तथा सौभाग्य की वृद्धि होती है। जब नारी इसे सम्पादित करती है तो उसे आनन्द, शरीर-सौन्दर्य , पुत्रों एवं पौत्रों की प्राप्ति होती है। पश्चात्कालीन निबन्ध व्रतार्क, व्रतराज (पृ0 200-206) आदि ने भविष्योत्तर0 से उद्धृत कर बहुत-सी बातें लिखी हैं, जहाँ कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को सुनायी गयी एक कथा भी है। जब इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र वृत्र का हनन किया तो उन्हें ब्रह्महत्या का अपराध लगा। उस पाप को चार स्थानों में बाँटा गया, यथा अग्नि (धूम से मिश्रित प्रथम ज्वाला), नदियों (वर्षाकाल के पंकिल जल), पर्वतों (जहाँ गोंद वाले वृक्ष उगते हैं) में तथा स्त्रियों (रजस्वला) में। अत: मासिक धर्म के समय लगे पाप से छुटकारा पाने के लिए यह व्रत स्त्रियों द्वारा किया जाना चाहिए। इसका संकल्प यों है--'अहं ज्ञानतोऽज्ञानतो वा रजस्वलावस्यायां कृतसंपर्कजनितदोषपरिहारार्थमृषिपञ्चमीव्रतं करिष्ये।' ऐसा संकल्प करके अरून्धती के साथ सप्तर्षियों की पूजा करनी चाहिए (व्रतार्क)। व्रतराज (पृ0 201) के मत से इस व्रत में केवल शाकों या नीवारों या साँवा (श्यामाक) या कन्द-मूलों या फलों का सेवन करना चाहिए तथा हल से उत्पन्न किया हुआ अन्न नहीं खाना चाहिए। आजकल जब पुरूष भी इस व्रत को करते हैं तो वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है, यथा कश्यप ¬ऋषि के लिए ऋग्वेद (9।14।2), अत्रि के लिए ऋ0 (5।78।4), भरद्वाज के लिए ऋ0 (6।25।9), विश्वामित्र के लिए ऋ0 (10।167।4), गोतम के लिए ऋ0 (1।78।1), जमदग्नि के लिए ऋ0 (3।62।18) एवं वसिष्ठ के लिए0 (7।31।11)। अरून्धती के लिए भी मन्त्र है— "अत्रेर्यथानसूया स्याद् वसिष्ठस्याप्यरून्धती। कौशिकस्य यथा सती तथा त्वमपि भर्तरि॥" यह अरून्धती के आवाहन के लिए है। यह व्रत सात वर्षों का होता है। सात घड़े होते हैं और सात ब्राह्मण निमन्त्रित रहते हैं, जिन्हें अन्त में ऋषियों की सातों प्रतिमाएँ (सोने या चाँदी की) दान में दे दी जाती हैं। यदि सभी प्रतिमाएँ एक ही कलश में रखी गयी हों तो वह कलश एक ब्राह्मण को तथा अन्यों को कलशों के साथ वसत्र एवं दक्षिणा दी जाती है। यदि पंचमी तिथि चतुर्थी एवं षष्टी से संयुक्त हो तो ऋषिपंचमी व्रत चतुर्थी से संयुक्त पंचमी को किया जाता है न कि षष्ठीयुक्तपंचमी को। किन्तु इस विषय में मतभेद है। देखिए का0 नि0 (पृ0 186), हेमाद्रि, माधव, निर्णयसिन्धु आदि। ऐसा प्रतीत होता है कि आरम्भ में ऋषिपंचमी व्रत सभी पापों की मुक्ति के लिए सभी लोगों के लिए व्यवस्थित था, किन्तु आगे चलकर यह केवल नारियों से ही सम्बन्धित रह गया। किन्तु सौराष्ट्र में इसका सम्पादन नहीं होता। (1) अर्ध्यमन्त्र:। कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोय गौतम:। जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषय: स्मृता:॥ गृह्णन्त्वर्ध्य मया दत्तं तुष्टा भवत मे सदा॥ हे0 (व्रत, भाग 1, पृ0 571); स्मृति कौ0 (पृ0 217); व्रतराज (पृ0 200)। वराहमिहिर की बृहत्संहिता (13।5-6) में सप्तर्षियों के नाम आये हैं (जो पूर्व से आरम्भ किये गये हैं) यथा मरीचि, वसिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, कतु; 13।6 में आया है कि आध्वी अरून्धती वसिष्ठ के पास हैं। (2) तीन दु:ख ये हैं- आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक। 'आध्यात्मिकादि मैत्रेय ज्ञात्वा तापत्रयं बुध:। उत्पन्नज्ञानवैराग्य: प्राप्नोत्यात्यन्तिकं लयम्॥' (विष्णु0 6।5।1)। आध्यात्मिक दु:ख शारीरिक (रोग आदि) एवं मानसिक (चिन्ता, ईर्ष्या आदि) हैं; आधिभौतिक दु:ख पशुओं, मनुष्यों, पिशाचों आदि से उत्पन्न होते हैं; आधिदैविक दु:खों की उत्पत्ति तुषारपात, पवन, वर्षा आदि से होती है।

  1. (ब्रह्माण्डपुराण व्रत, भाग 1, पृ0 568-572)