ऐतरेय आरण्यक

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ऐतरेय आरण्यक

ऐतरेय आरण्यक में, पाँच प्रपाठक हैं, जो पृथक आरण्यक के नाम से ही प्रसिद्ध हैं। यह आरण्यक साहित्य का ही एक अंग है।

  • प्रथम आरण्यक में महाव्रत का वर्णन है, जो गवामयनसंज्ञक सत्रयाग का उपान्त्य दिन माना जाता है। महाव्रत के अनुष्ठान में प्रयोज्य शस्त्रों की व्याख्या इसमें आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक ढंग से की गई है।
  • द्वितीय आरण्यक के प्रथम तीन अध्यायों में उक्थ या निष्कैवल्य शस्त्र तथा प्राणविद्या और पुरुष का वर्णन है। इस आरण्यक के चतुर्थ, पञ्चम तथा षष्ठ अध्यायों में ऐतरेयोपनिषद है।
  • तृतीय आरण्यक 'संहितोपनिषद्' के रूप में भी प्रसिद्ध है। इसमें संहिता, पद–क्रम तथा स्वर–व्यंजनादि के स्वरूप का निरूपण है। इस खण्ड में शाकल्य तथा माण्डूकेय प्रमृति आचार्यों के मतों का उल्लेख है।
  • चतुर्थ आरण्यक में महानाम्नी ऋचाओं का संग्रह है। ये ऋचाएँ भी महाव्रत में प्रयोज्य हैं।
  • पञ्चम आरण्यक में महाव्रत के माध्यदिन सवन के निष्केवल्यशस्त्र का वर्णन है।

द्वितीय प्रपाठक के प्रारम्भ में कहा गया है कि वैदिक अनुष्ठान के मार्ग का उल्लंघन करने वाले पक्षी, पौधे तथा सर्प प्रभृति रूपों में जन्म लेते हैं और इसके विपरीत वैदिक मार्ग के अनुयायी अग्नि, आदित्य, वायु प्रभृति देवों की उपासना करते हुए उत्तम लोकों को प्राप्त करते हैं। पुरुष को प्रज्ञा–सम्पन्न होने के कारण इससे विशेष गौरव प्रदान किया गया है।[१] ऐतरेय आरण्यक में आत्मा के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा गया है कि जो पुरुष सब प्राणियों में विद्यमान अश्रुत, अदृष्ट और अविज्ञात है, किन्तु जो श्रोता, मन्ता, द्रष्टा, विज्ञाता इत्यादि है, वही आत्मा है।[२] 'महाव्रत' संज्ञक कृत्य के नामकरण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि इन्द्र वृत्र को मारकर महान् हो गए इसीलिए इसे 'महाव्रत' कहा गया (ऐतरेय आरण्यक 1.1.1)।

ऐतरेय आरण्यक से ज्ञात होता है कि उस समय समाज में स्त्रियों को विशिष्ट स्थान प्राप्त था। कहा गया है कि पत्नी को प्राप्त करके ही पुरुष पूर्ण होता है।[३] नैतिकता पर, इसमें, विशेष बल दिया गया है। कहा गया है, सत्यवादी लौकिक सम्पत्ति तो प्राप्त करता ही है, वैदिकानुष्ठानों से कीर्तिभाजन भी हो जाता है।[४]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'पुरुषे तवेवाविस्तरामात्मा स हि प्रज्ञानेन सम्पन्नतमो विज्ञातं विज्ञानं पश्यति' (ऐतरेय आरण्यक 2.3.2)
  2. 'स योऽतोऽश्रुतोऽगतोऽमतोऽनतोऽदृष्टोऽविज्ञातोऽनादिष्टः श्रोता मन्ता द्रष्टाऽऽदेष्टा घोष्टा विज्ञाता प्रज्ञाता सर्वेषां भूतानामान्तर पुरुषः स म आत्मेति विद्यात्' (3.2.4)
  3. 'पुरुषो जायां वित्त्वा कृत्स्नतरमिवात्मानं मन्यते' (1.3.5)
  4. 'तदेतत् पुण्यं फलं यत्सत्यं स हेश्वरो यशस्वी कल्याण–कीर्तिर्भवितोः पुष्पं हि फलं वाचः सत्यं वदति' (2.3.6)

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