कर्ण

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कर्ण का जन्म यदुवंशी राजा शूरसेन की पोषित कन्या कुन्ती जब सयानी हुई तो पिता ने उसे घर आये हुये महात्माओं के सेवा में लगा दिया। पिता के अतिथिगृह में जितने भी साधु-महात्मा, ऋषि-मुनि आदि आते, कुन्ती उनकी सेवा मन लगा कर किया करती थी। एक बार वहाँ दुर्वासा ऋषि आ पहुँचे। कुन्ती ने उनकी भी मन लगा कर सेवा की। कुन्ती की सेवा से प्रसन्न हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, "पुत्री! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ अतः तुझे एक ऐसा मन्त्र देता हूँ जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी वह तत्काल तेरे समक्ष प्रकट हो कर तेरी मनोकामना पूर्ण करेगा।" इस प्रकार दुर्वासा ऋषि कुन्ती को मन्त्र प्रदान कर के चले गये।

एक दिन कुन्ती ने उस मन्त्र की सत्यता की जाँच करने के लिये एकान्त स्थान पर बैठ कर उस मन्त्र का जाप करते हुये सूर्यदेव का स्मरण किया। उसी क्षण सूर्यदेव वहा प्रकट हो कर बोले, "देवि! मुझे बताओ कि तुम मुझ से किस वस्तु की अभिलाषा करती हो। मैं तुम्हारी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा।" इस पर कुन्ती ने कहा, "हे देव! मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है। मैंने तो केवल मन्त्र की सत्यता परखने के लिये ही उसका जाप किया है।" कुन्ती के इन वचनों को सुन कर सूर्यदेव बोले, "हे कुन्ती! मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता। मैं तुम्हें एक अत्यन्त पराक्रमी तथा दानशील पुत्र प्रदान करता हूँ।" इतना कह कर सूर्यदेव अन्तर्ध्यान हो गये।

कुन्ती ने लज्जावश यह बात किसी से नहीं कह सकी। समय आने पर उसके गर्भ से कवच-कुण्डल धारण किये हुये एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुन्ती ने उसे एक मंजूषा में रख कर रात्रि बेला में गंगा में बहा दिया। वह बालक बहता हुआ उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पर धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को गंगा नदी में जल पिला रहा था। उसकी दृष्टि कवच-कुण्डल धारी शिशु पर पड़ी। अधिरथ निःसन्तान था इसलिये उसने बालक को अपने छाती से लगा लिया और घर ले जाकर उसे अपने पुत्र के जैसा पालने लगा। उस बालक के कान अति सुन्दर थे इसलिये उसका नाम कर्ण रखा गया।


महाभारत का युद्ध निश्‍चित हो जाने पर कुन्ती व्याकुल हो उठीं। वे नहीं चाहती थीं कि कर्ण का अन्य पाण्डवों के साथ युद्ध हो। वे कर्ण को समझाने के उद्‍देश्य से उनके पास पहुँची। कुन्ती का आया देखकर कर्ण उनके सम्मान में उठ खड़े हुये और झुक कर बोले, "आप प्रथम बार मेरे यहाँ आई हैं अतः आप इस 'राधेय' का प्रणाम स्वीकार कीजिये।" कर्ण के इन वचनों को सुनकर कुन्ती का हृदय व्यथित हो गया और उन्होंने कहा, "पुत्र! तुम 'राधेय' नहीं 'कौन्तेय' हो। मुझ अभागन ने ही तुम्हें जन्म दिया था किन्तु लोकाचार के भय से मुझे तुमको त्यागना पड़ गया था। तुम पाण्डवों के ज्येष्ठ भ्राता हो। इसलिये इस युद्ध में तुम्हें कौरवों का साथ छोड़कर अपने भाइयों का साथ देना चाहिये। मैं नहीं चाहती कि सहोदर भाइयों में परस्पर युद्ध हो। मेरी तुमसे विनती है कि तुम पाण्डवों के पक्ष में आ जाओ। ज्येष्ठ भ्राता होने के नाते पाण्डवों के राज्य के अधिकारी तुम्हीं हो। मेरी इच्छा है कि युद्ध जीतकर तुम इस राज्य के राजा बनो।" कर्ण ने उत्तर दिया, "हे माता! आपने शैशवास्था में ही मेरा त्याग कर दिया था। इसलिये क्षत्रियों के उत्तम कुल में जन्म लेने के बाद भी मैं सूतपुत्र कहलाता हूँ। समस्त संसार के समक्ष मुझे नीचा देखना पड़ रहा है। क्षत्रिय होते हुये भी सूतपुत्र कहलाने के कारण द्रोणाचार्य ने मेरा गुरु बनना स्वीकार नहीं किया। युवराज दुर्योधन के सिवाय अन्य किसी ने मेरा साथ नहीं दिया। वे मेरे सच्चे मित्र हैं और मैं उनके द्वारा किये गये उपकार को भूल कर कृतघ्न कदापि नहीं बन सकता। इतने पर भी आपका मेरे पास आना व्यर्थ नहीं जायेगा क्योंकि आज तक कर्ण के पास से बिना कुछ पाये खाली हाथ कभी कोई वापस नहीं गया है। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं अर्जुन के सिवाय आपके किसी पुत्र पर अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग नहीं करूँगा। मेरा और अर्जुन का युद्ध अवश्यम्भावी है और उस युद्ध में हम दोनों में से एक की मृत्यु निश्‍चित है। मेरी यह प्रतिज्ञा है कि आप पाँच पुत्रों की ही माता बनी रहेंगी।" कर्ण की बात सुनकर तथा उन्हें आशीर्वाद देकर कुन्ती व्यथित हृदय लेकर लौट आईं।