कुशीनगर

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कुशीनगर / Kushinagar

  • कुशीनगर बुद्ध के महापरिनिर्वाण का स्थान है।
  • किंवदंती के अनुसार यह नगर श्री रामचन्द्र जी के ज्येष्ठ पुत्र कुश द्वारा बसाया गया था।
  • बौद्ध ग्रंथ महावंश<balloon title="महावंश2,6" style=color:blue>*</balloon> में कुशीनगर का नाम इसी कारण कुशावती भी कहा गया है। बौद्धकाल में यही नाम कुशीनगर या पाली में कुसीनारा हो गया।
  • एक अन्य बौद्ध किंवदंती के अनुसार तक्षशिला के इक्ष्वाकु वंशी राजा तालेश्वर का पुत्र तक्षशिला से अपनी राजधानी हटाकर कुशीनगर ले आया था। उसकी वंश परम्परा में बारहवें राजा सुदिन्न के समय तक यहाँ राजधानी रही। इनके बीच में कुश और महादर्शन नामक दो प्रतापी राजा हुए जिनका उल्लेख गौतम बुद्ध ने<balloon title="(महादर्शनसुत्त के अनुसार)" style=color:blue>*</balloon> किया था।

कुसीनारा के वैभव का वर्णन

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  • 'महादर्शनसुत्त' में कुसीनारा के वैभव का वर्णन है-'राजा महासुदर्शन के समय में कुशावती पूर्व से पश्चिम तक बारह योजन और उत्तर से दक्षिण तक सात योजन थी। कुशावती राजधानी समृद्ध और सब प्रकार से सुख-शान्ति से भरपूर थी। जैसे देवताओं की अलकनन्दा नामक राजधानी समृद्ध है वैसे ही कुशावती थी। यहाँ दिन रात हाथी, घोड़े, रथ, भेरी, मृदंग, गीत, झांझ, ताल, शंख और खाओ-पिओ-के दस शब्द गूंजते रहते थे। नगरी सात परकोटों से घिरी थी। इनमें चार रंगो के बड़े-बड़े द्वार थे। चारों ओर ताल वृक्षों की सात पक्तियाँ नगरी को घेरे हुई थीं। इस पूर्व बुद्धकालीन वैभव की झलक हमें कसिया में खोदे गये कुओं के अन्दर से प्राय: बीस फुट की गहराई पर प्राप्त होने वाली भित्तियों के अवशेषों से मिलती है।
  • 'महापरिनिर्वाणसुत्त' से ज्ञात होता है कि कुशीनगर बहुत समय तक समस्त जंबुद्वीप की राजधानी भी रही थी। बुद्ध के समय (छठी शती ई॰ पू॰) में कुशीनगर मल्ल जनपद की राजधानी थी। नगर के उत्तरी द्वार से शाल वन तक एक राजमार्ग जाता था जिसके दोनों ओर शाल वृक्षों की पंक्तियाँ थीं। शाल वन से नगर में प्रवेश करने के लिए पूर्व की ओर जाकर दक्षिण की ओर मुड़ना पड़ता था। शाल वन से नगर के दक्षिण द्वार तक बिना नगर में प्रवेश किए ही एक सीधे मार्ग से पहुँचा जा सकता था। पूर्व की ओर हिरण्यवती नदी (राप्ती) बहती थी जिसके तट पर मल्लों की अभिषेकशाला थी। इसे मुकुटबंधन चैत्य कहते थे। नगर के दक्षिण की ओर भी एक नदी थी जहाँ कुशीनगर का श्मशान था। बुद्ध ने कुशीनगर आते समय इरावती (अचिरावती, अजिरावती या राप्ती नदी) पार की थी।<balloon title="(बुद्ध चरित 25, 53)" style=color:blue>*</balloon> नगर में अनेक सुन्दर सड़कें थीं। चारों दिशाओं के मुख्य द्वारों से आने वाले राजपथ नगर के मध्य में मिलते थे। इस चौराहे पर मल्ल गणराज्य का प्रसिद्ध संथागार था जिसकी विशालता इसी से जानी जा सकती है कि इसमें गणराज्य के सभी सदस्य एक साथ बैठ सकते थे। संथागार के सभी सदस्य राजा कहलाते थे और बारी-बारी से शासन करते थे। शेष व्यापार आदि कार्यों में व्यस्त रहते थे। कुशीनगर में मल्लों की एक सुसज्जित सेना रहती थी। इस सेना पर मल्लों को गर्व था। इसी के बल पर वे युद्ध के अस्थि-अवशेषों को लेने के लिए अन्य लोगों से लड़ने के लिए तैयार हो गए थे। भगवान बुद्ध अपने जीवनकाल में कई बार कुशीनगर आए थे। वे शाल वन बिहार में ही प्राय: ठहरते थे। उनके समय में ही यहाँ के निवासी बौद्ध हो गए थे। इनमें से अनेक भिक्षु भी बन गए थे। दब्बमल्ल स्थविर, आयुष्मान सिंह, यशदत्त स्थविर इन में प्रसिद्ध थे। कोसलराज प्रसेनजित का सेनापति बंधुलमल्ल, दीर्घनारायण, राजमल्ल, वज्रपाणिमल्ल और वीरांगना मल्लिका यहीं के निवासी थे।

भगवान बुद्ध के उपदेश

भगवान बुद्ध की मृत्यु 483 ई॰ में कुसीनारा में हुई थी<balloon title="बुद्ध चरित 25, 52" style=color:blue>*</balloon> 'तब शिष्य मंडली के साथ चुंद के यहाँ भोजन करने के पश्चात उसे उपदेश देकर वे कुशीनगर आए।' उन्होंने शाल वन के उपवन में युग्मशाल वृक्षों के नीचे चिर समाधि ली थी।<balloon title="(बुद्ध चरित 25, 55)" style=color:blue>*</balloon> निर्वाण के पूर्व कुशीनगर पहुँचने पर तथागत कुशीनगर में कमलों से सुशोभित एक तड़ाग के पास उपवन में ठहरे थे।<balloon title="बुद्ध चरित 25, 53" style=color:blue>*</balloon> अंतिम समय में बुद्ध ने कुसीनारा को बौद्धों का महातीर्थ बताया था। उन्होंने यह भी कहा था कि पिछले जन्मों में छ: बार वे चक्रवर्ती राजा होकर कुशीनगर में रहे थे।

बुद्ध के शरीर का दाहकर्म

बुद्ध के शरीर का दाहकर्म मुकुटबंधन चैत्य, वर्तमान रामाधार में किया गया था और उनकी अस्थियाँ नगर के संथागार में रक्खी गई थीं[१]। बाद में उत्तर भारत के आठ राजाओं ने इन्हें आपस में बाँट लिया था। मल्लों ने मुकुटबंधन चैत्य के स्थान पर एक महान स्तूप बनवाया था। बुद्ध के पश्चात कुशीनगर को मगध-नरेश अजातशत्रु ने जीतकर मगध में सम्मिलित कर लिया और वहाँ का गणराज्य सदा के लिए समाप्त हो गया किंतु बहुत दिनों तक यहाँ अनेक स्तूप और विहार आदि बने रहे और दूर-दूर से बौद्ध यात्रियों को आकर्षित करते रहे।

राजाओं द्वारा निर्माण

बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार मौर्य सम्राट अशोक<balloon title="(मृत्यु 232 ई॰ पू॰)" style=color:blue>*</balloon> ने कुशीनगर की यात्रा की थी और एक लाख मुद्रा व्यय करके यहाँ के चैत्य का पुनर्निर्माण करवाया था। युवानच्वांग के अनुसार अशोक ने यहाँ तीन स्तूप और दो स्तंभ बनवाए थे। तत्पश्चात कनिष्क (120 ई॰) ने कुशीनगर में कई विहारों का निर्माण करवाया। गुप्त काल में यहाँ अनेक बौद्ध विहारों का निर्माण हुआ तथा पुराने भवनों का जीर्णोद्धार भी किया गया। गुप्त-राजाओं की धार्मिक उदारता के कारण बौद्ध संघ को कोई कष्ट न हुआ। कुमार गुप्त (5वीं शती ई॰ का प्रारम्भ काल) के समय में हरिबल नामक एक श्रेष्ठी ने परिनिर्वाण मन्दिर में बुद्ध की बीस फुट ऊँची प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की। छठी व सातवीं ई॰ से कुशीनगर उजाड़ होना प्रारम्भ हो गया। हर्ष (606-647 ई॰) के शासनकाल में कुशीनगर नष्ट प्रायः हो गया था यद्यपि यहाँ भिक्षओं की संख्या पर्याप्त थी। युवानच्वांग के यात्रा-वृत्त से सूचित होता है कि कुशीनारा, सारनाथ से उत्तर-पूर्व 116 मील दूर था। युवान के परवर्ती दूसरे चीनी यात्री इत्सिंग के वर्णन से ज्ञात होता है कि उसके समय में कुशीनगर में सर्वास्तिवादी भिक्षुओं का आधिपत्य था। हैहयवंशीय राजाओं के समय उनका स्थान महायान के अनुयायी भिक्षुओं ने ले लिया जो तांत्रिक थे। 16 वीं शती में मुसलमानों के आक्रमण के साथ ही कुशीनगर का इतिहास अंधकार के गर्त में लुप्त सा हो जाता है। संभवत: 13 वीं शती में मुसलमानों ने यहाँ के सभी विहारों तथा अन्यान्य भवनों को तोड़-फोड़ डाला था।

खुदाई

  • 1876 ई॰ की खुदाई में यहाँ प्राचीन काल में होने वाले एक भयानक अग्निकाडं के चिन्ह मिले हैं, जिससे स्पष्ट है कि मुसलमानों के आक्रमण के समय यहाँ के सब विहारों आदि को भस्म कर दिया गया था। तिब्बत का इतिहास लेखक तारानाथ लिखता है कि इस आक्रमण के समय मारे जाने से बचे हुए भिक्षु भाग कर नेपाल, तिब्बत तथा अन्य देशों में चले गए थे। परिवर्ती काल में कुशीनगर के अस्तित्व तक का पता नहीं मिलता।
  • 1861 ई॰ में जब जनरल कनिंघम ने खोज द्वारा इस नगर का पता लगाया तो यहाँ जंगल ही जंगल थे। उस समय इस स्थान का नाम माथा कुंवर का कोट था। कनिंघम ने इसी स्थान को परिनिर्वाण-भूमिसिद्ध किया। उन्होंने 'आनुरुधवा' ग्राम को प्राचीन कुसीनारा और 'रामाधार' को मुकुटबंधन चैत्य बताया।
  • 1876 ई॰ में इस स्थान को स्वच्छ किया गया। पुराने टीलों की खुदाई में महापरिनिर्वाण स्तूप के अवशेष भी प्राप्त हुए। तत्पश्चात कई गुप्तकालीन विहार तथा मन्दिर भी प्रकाश में लाए गए। कलचुरि नरेशों के समय 12 वीं शती का एक विहार भी यहाँ से प्राप्त हुआ था।
  • कुशीनगर का सबसे अधिक प्रसिद्ध स्मारक बुद्ध की विशाल प्रतिमा है जो शयनावस्था में प्रदर्शित है (बुद्ध का निर्वाण दाहिनी करवट पर लेटे हुए हुआ था)। इसके ऊपर धातु की चादर जड़ी है।
  • यहीं बुद्ध की साढ़े दस फुट ऊँची दूसरी मूर्ति है जिसे माथाकुंवर कहते हैं। इसकी चौकी पर एक ब्राह्मी लेख अंकित है। महापरिनिर्वाण स्तूप में से एक ताम्रपट्ट निकला था जिस पर ब्राह्मी लेख अंकित है- '(परिनि) वार्ण चैत्य पाम्रपट्ट इति'। इस लेख से तथा हरिबल द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्ति पर के अभिलेख देयधर्मोयं महाविहारे स्नामिनो हरिबलस्य प्रतिमा चेयं घटिता दीनेन माथुरेण से कसिया का कुशीनगर से अभिज्ञान प्रमाणित होता है।
  • पहले विंसेंट स्मिथ का मत था कि कुशीनगर नेपाल में अचिरवती (राप्ती) और हिरण्यवती (गंडक ?) के तट पर बसा हुआ था।
  • मजूमदार-शास्त्री कसिया को बेठदीप मानते हैं जिसका वर्णन बौद्ध साहित्य में है<balloon title="(दे॰ एंशेंट ज्याग्रेफ़ी आव इंडिया, पृ॰ 714)" style=color:blue>*</balloon>, किन्तु अब कसिया का कुशीनगर से अभिज्ञान पूर्णरूपेण सिद्ध हो चुका है।

वीथिका


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मुकुटबंधन चैत्य में मल्लराजाओं का राज्याभिषेक होता था। बुद्ध चरित 27, 70 के अनुसार बुद्ध की मृत्यु के पश्चात 'नागद्वार के बाहर आकर मल्लों ने तथागत के शरीर को लिए हुए हिरण्यवती नदी पार की और मुकुट चैत्य के नीचे चिता बनाई'