गणगौर

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गणगौर / Gangaur

भारतीय परंपरा और संस्कृति में शिव और पार्वती की जोड़ी दिव्य मानी जाती है। शिव और पार्वती का घर कैलाश पर्वत है। मानसरोवर का रमणीय किनारा और कैलाश पर्वत की बर्फीली चोटियाँ पार्वती का घर-आँगन हैं। वे दोनों अपने नंदी बैल पर सवार होकर यात्राएं करते हैं। जगत के दुःख-सुख से विचलित होकर पार्वती वरदान माँगती हैं और स्नेही भोलेनाथ पत्नी दिल रखने के लिए वरदान दे देते हैं और ऐसे अनंत कथा-वार्ताओं, व्रत-उपवासों, तीज-त्योहारों और आख्यानों का एक क्रम प्रारम्भ होता है जो शिव-पार्वती के सहज-सुखद दांपत्य से जुड़े हैं।

इन्हीं मनमोहक त्यौहारों में से एक है गणगौर। गणगौर का यह त्यौहार चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। होली के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से जो नवविवाहिताएँ प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं। यह व्रत विवाहिता लड़कियों के लिए पति का अनुराग उत्पन्न कराने वाला और कुमारियों को उत्तम पति देने वाला है। इससे सुहागिनों का सुहाग अखंड रहता है।

नवरात्र के तीसरे दिन यानि कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तीज को गणगौर माता (माँ पार्वती) की पूजा की जाती है। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता व भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है। प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान को पति ( वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। शंकर भगवान तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान माँगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें ही वर के रूप में पाने की अभिलाषा की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और पार्वती जी की शिव जी से शादी हो गयी। तभी से कुंवारी लड़कियां इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है। सुहागिन स्त्री पति की लम्बी आयु के लिए यह पूजा करती है। गणगौर पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से आरम्भ की जाती है। सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठ कर बगीचे में जाती हैं, दूब व फूल चुन कर लाती है। दूब लेकर घर आती है उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है। थाली में दही पानी सुपारी और चांदी का छल्ला आदि सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है।

आठवें दिन ईशर जी पत्नी (गणगौर ) के साथ अपनी ससुराल आते है। उस दिन सभी लड़कियां कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के बरतन और गणगौर की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी लेकर आती है। उस मिट्टी से ईशर जी, गणगौर माता, मालिन आदि की छोटी छोटी मूर्तियाँ बनाती हैं। जहाँ पूजा की जाती है उस स्थान को गणगौर का पीहर और जहाँ विसर्जन किया जाता है वह स्थान ससुराल माना जाता है।

गणगौर माता की पूरे राजस्थान में पूजा की जाती है। राजस्थान से लगे ब्रज के सीमावर्ती स्थानों पर भी यह त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है। चैत्र मास की तीज को गणगौर माता को चूरमे का भोग लगाया जाता है। दोपहर बाद गणगौर माता को ससुराल विदा किया जाता है, यानि कि विसर्जित किया जाता है। विसर्जन का स्थान गाँव का कुँआ या तालाब होता है। कुछ स्त्रियाँ जो विवाहित होती हैं वो यदि इस व्रत की पालना करने से निवृति चाहती हैं वो इसका अजूणा करती है (उद्यापन करती हैं ) जिसमें सोलह सुहागन स्त्रियों को समस्त सोलह श्रृंगार की वस्तुएं देकर भोजन करवाती हैं |

इस दिन भगवान शिव ने पार्वती जी को तथा पार्वती जी ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। सुहागिनें व्रत धारण से पहले रेणुका (मिट्टी) की गौरी की स्थापना करती है एवं उनका पूजन किया जाता है। इसके पश्चात गौरी जी की कथा कही जाती है। कथा के बाद गौरी जी पर चढ़ाए हुए सिंदूर से स्त्रियाँ अपनी माँग भरती हैं। इसके पश्चात केवल एक बार भोजन करके व्रत का पारण किया जाता है। गणगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए वर्जित है।

गणगौर माता की पूरे राजस्थान में जगह जगह सवारी निकाली जाती है जिसमें ईशरदास जीव गणगौर माता की आदम कद मू्र्तियाँ होती है। उदयपुर की धींगा, बीकानेर की चांदमल गणगौर प्रसिद्ध हैं। राजस्थानी में कहावत भी है तीज तींवारा बावड़ी ले डूबी गणगौर अर्थ है कि सावन की तीज से त्यौहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर के विसर्जन के साथ ही त्यौहारों पर चार महीने का विराम आ जाता है।

कथा

भगवान शंकर तथा पार्वती जी नारद जी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गाँव में पहुँच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गाँव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं। भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफी विलंब हो गया किंतु साधारण कुल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुँच गईं। पार्वती जी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया।

वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। बाद में उच्च कुल की स्त्रियाँ भांति भांति के पकवान लेकर गौरी जी और शंकर जी की पूजा करने पहुँचीं। उन्हें देखकर भगवान शंकर ने पार्वती जी से कहा, 'तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब उन्हें क्या दोगी?'

पार्वत जी ने उत्तर दिया, 'प्राणनाथ, आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है। परंतु मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उँगली चीरकर अपने रक्त का सुहागरस दूँगी। यह सुहागरस जिसके भाग्य में पड़ेगा, वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यशालिनी हो जाएगी।'

जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वती जी ने अपनी उँगली चीरकर उन पर छिड़क दिया, जिस जिस पर जैसा छींटा पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। अखंड सौभाग्य के लिए प्राचीनकाल से ही स्त्रियाँ इस व्रत को करती आ रही हैं।


साँचा:पर्व और त्यौहार