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गीता अध्याय-10 श्लोक-40 / Gita Chapter-10 Verse-40
प्रसंग-
उन्नीसवे श्लोक में भगवान् ने अपनी दिव्य विभूतियों को अनन्त बतलाकर प्रधानता से उनका वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुसार बीसवें से उनतालीसवें श्लोक तक उनका वर्णन किया । अब पुन: अपनी दिव्य विभूतियों की अनन्तता दिखलाते हुए उनका उपसंहार करते हैं-
नान्तोस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप ।
एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ।।40।।
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हे <balloon title="पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।" style="color:green">परंतप</balloon> ! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिये एकदेश से अर्थात् संक्षेप से कहा है ।।40।।
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Arjuna, there is no limit to my divine manifestation. This is only a brief description by Me of the extent of my glory. (40)
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परंतप = हे परंतप; मम = मेरी; दिव्यानाम् = दिव्य; विभूतीताम् = विभूतियोंका; अन्त: = अन्त; एष: = यह; तु = तो; मया = मैंने(अपनी); विभूते: = विभूतियों का; विस्तर: = विस्तार(तेरे लिये); उद्देशत: = एक देश से अर्थात् संक्षेप से; प्रोक्त: = कहा है;
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