गीता 11:45

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गीता अध्याय-11 श्लोक-45 / Gita Chapter-11 Verse-45

प्रसंग-


इस प्रकार भगवान् से अपने अपराधों के लिये क्षमा-याचना करके तब <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> दो श्लोकों में भगवान् से चतुर्भुज रूप का दर्शन कराने के लिये प्रार्थना करते हैं –


अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास ।।45।।



मैं पहले न देखे हुए आपके इस आश्चर्यमय रूप को देखकर हर्षित हो रहा हूँ और मेरा मन भय से अति व्याकुल भी हो रहा है, इसलिये आप उस अपने चतुर्भुज विष्णु रूप को ही मुझे दिखलाइये ! हे देवेश ! हे <balloon title="मधुसूदन, केशव, पुरुषोत्तम, देवेश, जगन्निवास, वासुदेव, माधव, जनार्दन और वार्ष्णेय सभी भगवान् कृष्ण का ही सम्बोधन है।" style="color:green">जगन्निवास</balloon> ! प्रसन्न होइये ।।45।।

Having seen your wondrous form, which was never seen before, I feel transported with joy; at the same time my mind is tormented by fear. Pray reveal to me that divine form; the form of visnu with four arms; O Lord of celestials Abode of the universe, be gracious. (45)


अदृष्टपूर्वम् = पहिले न देखे हुए आश्र्वर्यमय आपके इस रूपको; दृष्टा = देखकर; हृषित: = हर्षित होरहा; अस्मि = हूं(और); भयेन = मन; प्रव्यथितम् च = अति व्याकुल भी हो रहा है; (अतJ = इसलिये; तत् = उस; रूपम् = (अपने चतुर्भुज)रूप को; दर्शय = दिखाइये; प्रसीद = प्रसत्र होइये



अध्याय ग्यारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-11

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