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गीता अध्याय-11 श्लोक-48 / Gita Chapter-11 Verse-48
ने वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै-
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरूग्रै: ।
एवंरूप: शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ।।48।।
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हे <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! मनुष्य लोक में इस प्रकार विश्व रूप वाला मैं न <balloon link="index.php?title=वेद" title="वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">वेद</balloon> और यज्ञों के अध्ययन से, न दान से, न क्रियाओं से और न उग्र तपों से ही तेरे अतिरिक्त दूसरे के द्वारा देखा जा सकता हूँ ।।48।।
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Arjuna, in this mortal world I cannot be seen in this form by anyone else than you, either through study of the vedas or of rituals, or a gain through gifts, actions or austere penances. (48)
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कुरुप्रवीर = हे अर्जुन; नृलोके = मनुष्यलोकमें; एवंरूप्: = इस प्रकार विश्वरूपवाला; अहम् = मैं; वेदयज्ञाध्ययनै: = वेद और यज्ञों के अध्ययन से(तथा); दानै: = दानसे(और); क्रियाभि: = क्रियाओंसे; तपाभि: =तपों से(ही); त्वदन्येन = तेरे सिवाय दूसरेसे; द्रष्टुम् = देखा जाने को
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