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तु = और ; ये =जो पुरूष ; इन्द्रियग्रामम् = इन्द्रियोंके समुदायको ; संनियम्य = अच्छी  प्रकार वशमें करके ; अचिन्त्यम् = मन बुद्धिसे परे ; सर्वत्रगम् = सर्वव्यापी ; अनिर्देश्यम् = अकथनीय स्वरूप ; च =और ; कूटस्थम् = सदा एकरस रहने वाले सर्वत्र = सबमें ; समबुद्धय: = समान भाव वाले योगी;  ध्रुवम् = नित्य ; अचलम् = अचल ; अव्यक्तम् = निराकार ; अक्षरम् = सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको ; पर्युपासते = भाव से ध्यान करते हुए उपासते हैं ; ते = वे ; सर्वभूतहितेरता: = संपूर्ण भूतोंके हित में रत हुए (भी) ; माम् = मेरे को ; एव = ही ; प्राप्नुवन्ति = प्राप्त होते हैं  
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तु = और ; ये =जो पुरुष ; इन्द्रियग्रामम् = इन्द्रियोंके समुदायको ; संनियम्य = अच्छी  प्रकार वशमें करके ; अचिन्त्यम् = मन बुद्धिसे परे ; सर्वत्रगम् = सर्वव्यापी ; अनिर्देश्यम् = अकथनीय स्वरूप ; च =और ; कूटस्थम् = सदा एकरस रहने वाले सर्वत्र = सबमें ; समबुद्धय: = समान भाव वाले योगी;  ध्रुवम् = नित्य ; अचलम् = अचल ; अव्यक्तम् = निराकार ; अक्षरम् = सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको ; पर्युपासते = भाव से ध्यान करते हुए उपासते हैं ; ते = वे ; सर्वभूतहितेरता: = संपूर्ण भूतोंके हित में रत हुए (भी) ; माम् = मेरे को ; एव = ही ; प्राप्नुवन्ति = प्राप्त होते हैं  
 
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१९:०३, ४ मार्च २०१० के समय का अवतरण

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गीता अध्याय-12 श्लोक-3, 4 / Gita Chapter-12 Verse-3, 4

प्रसंग-


पूर्व श्लोक में सगुण-साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्तम योगवेत्ता बतलाया, इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि तो क्या निर्गुण निराकार ब्रह्मा के उपासक उत्तम योगवेत्ता नहीं हैं ? इस पर कहते हैं-


ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।3।।
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय: ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: ।।4।।



परन्तु जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन <balloon link="index.php?title=ब्रह्मा" title="सर्वश्रेष्ठ पौराणिक त्रिदेवों में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की गणना होती है। इनमें ब्रह्मा का नाम पहले आता है, क्योंकि वे विश्व के आद्य सृष्टा, प्रजापति, पितामह तथा हिरण्यगर्भ हैं। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">ब्रह्मा</balloon> को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं ।।3-4।।

Those, however, who fully controlling all their senses and even-minded towards all, and devoted to the welfare of all beings constantly adore as their very self the unthinkable; omnipresent, indestructible indefinable, eternal, immovable, unmanifest and changeless Brahma, they too come to me. (3,4)


तु = और ; ये =जो पुरुष ; इन्द्रियग्रामम् = इन्द्रियोंके समुदायको ; संनियम्य = अच्छी प्रकार वशमें करके ; अचिन्त्यम् = मन बुद्धिसे परे ; सर्वत्रगम् = सर्वव्यापी ; अनिर्देश्यम् = अकथनीय स्वरूप ; च =और ; कूटस्थम् = सदा एकरस रहने वाले सर्वत्र = सबमें ; समबुद्धय: = समान भाव वाले योगी; ध्रुवम् = नित्य ; अचलम् = अचल ; अव्यक्तम् = निराकार ; अक्षरम् = सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको ; पर्युपासते = भाव से ध्यान करते हुए उपासते हैं ; ते = वे ; सर्वभूतहितेरता: = संपूर्ण भूतोंके हित में रत हुए (भी) ; माम् = मेरे को ; एव = ही ; प्राप्नुवन्ति = प्राप्त होते हैं



अध्याय बारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-12

1 | 2 | 3,4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13, 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20

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