"गीता 1:38-39" के अवतरणों में अंतर
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− | ==गीता अध्याय- | + | ==गीता अध्याय-1 श्लोक-38-39 / Gita Chapter-1 Verse-38-39== |
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'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
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− | + | कुल के नाश से कौन-कौन से दोष उत्पत्र होते हैं, इस पर अर्जुन कहते हैं- | |
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<div align="center"> | <div align="center"> | ||
− | ''' | + | '''यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: ।'''<br /> |
+ | '''कुलक्षयकृतं दोषं मित्रदोहे च पातकम् ।।38।।'''<br /> | ||
+ | '''कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मात्रिवर्तितुम् ।'''<br /> | ||
+ | '''कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।39।।''' | ||
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− | + | यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पत्र दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पत्र दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिए ।।38-39।। | |
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− | + | Even if these people, with minds blinded by greed; perceive no evil in destroying their own race and no sin in treason to friends, why should not we, o krsna, who see clearly the sin accruing form the destruction of one’s family think of turning away from this crime. (38-39) | |
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− | + | यद्यपि = यद्यपि; लोभोपहतचेतस: = लोभ से भ्रष्ट चित्त हुए; एते = यह लोग; कुलक्षयकृतम् = कुल के नाशकृत; दोषम् = दोष को; मित्रद्रोहे = मित्रों के साथ विरोध करने में; पातकम् = पापको; न = नहीं; पश्यन्ति = देखते हैं | |
+ | कुलखयकृतम् = कुल के नाश करने से होते हुए; प्रपश्यभ्दि: = जानने वाले; अस्माभि: = हम लोगों को; अस्मात् =इस ; पापत् =पाप से; निवर्तितुम् = हटने के लिये; कथम् = क्यों; न =नहीं; ज्ञेयम् = विचार करना चाहिये; | ||
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− | <div align="center" style="font-size:120%;">'''<= पीछे Prev | आगे Next =>'''</div> | + | <div align="center" style="font-size:120%;">'''[[गीता 1:37|<= पीछे Prev]] | [[गीता 1:40|आगे Next =>]]'''</div> |
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०८:२५, ८ अक्टूबर २००९ का अवतरण
गीता अध्याय-1 श्लोक-38-39 / Gita Chapter-1 Verse-38-39
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अध्याय एक श्लोक संख्या Verses- Chapter-1 |
1 | 2 | 3 | 4, 5, 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17, 18 | 19 | 20, 21 | 22 | 23 | 24, 25 | 26 | 27 | 28, 29 | 30 | 31 | 32 | 33, 34 | 35 | 36 | 37 | 38, 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 |
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