"गीता 1:38-39" के अवतरणों में अंतर

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२१:४७, ४ मार्च २०१० का अवतरण

गीता अध्याय-1 श्लोक-38, 39 / Gita Chapter-1 Verse-38, 39

प्रसंग-


कुल के नाश से कौन-कौन से दोष उत्पन्न होते हैं, इस पर <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> कहते हैं-


यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस: ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।।38।।
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।39।।



यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन ! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिये क्यों नहीं विचार करना चाहिए ।।38-39।।

Even if these people, with minds blinded by greed, perceive no evil in destroying their own race and no sin in treason to friends, why should not we, o Krishna, who see clearly the sin accruing form the destruction of one’s family think of turning away from this crime. (38-39)


यद्यपि = यद्यपि; लोभोपहतचेतस: = लोभ से भ्रष्ट चित्त हुए; एते = यह लोग; कुलक्षयकृतम् = कुल के नाशकृत; दोषम् = दोष को; मित्रद्रोहे = मित्रों के साथ विरोध करने में; पातकम् = पापको; न = नहीं; पश्यन्ति = देखते हैं कुलखयकृतम् = कुल के नाश करने से होते हुए; प्रपश्यभ्दि: = जानने वाले; अस्माभि: = हम लोगों को; अस्मात् =इस ; पापत् =पाप से; निवर्तितुम् = हटने के लिये; कथम् = क्यों; न =नहीं; ज्ञेयम् = विचार करना चाहिये;



अध्याय एक श्लोक संख्या
Verses- Chapter-1

1 | 2 | 3 | 4, 5, 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17, 18 | 19 | 20, 21 | 22 | 23 | 24, 25 | 26 | 27 | 28, 29 | 30 | 31 | 32 | 33, 34 | 35 | 36 | 37 | 38, 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

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