गीता 4:36

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गीता अध्याय-4 श्लोक-36 / Gita Chapter-4 Verse-36

प्रसंग-


कोई भी दृष्टान्त परमार्थ विषय को पूर्ण रूप से नहीं समझा सकता, उसके एक अंश को ही समझाने के लिये उपयोगी होता है; अतएव पूर्व श्लोक में बतलाये हुए ज्ञान के महत्व को अग्नि के दृष्टान्त से पुन: स्पष्ट करते हैं-


अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम: ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यासि ।।36।।




यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है; तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा नि:संदेह सम्पूर्ण पाप समुद्र से भली-भाँति तर जायेगा ।।36।।


Even though you were the foulest of all sinners, this knowledge alone would carry you, like a raft, across all your sin. (36)


चेत् = यदि (तुं); सर्वेभ्य: = सब; पापेभ्य: = पापियों से; आपि = भी; पापकृत्तम: = अधिक पाप करने वाला; असि = है (तो भी) ज्ञानप्लवेन = ज्ञानरूप नौका द्वारा; एव = नि:सन्देह; सर्वम् = संपूर्ण; वृजिनम् = पापों को; संतरिष्यसि = अच्छी प्रकार तर जायगा।



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

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