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गीता अध्याय-4 श्लोक-37 / Gita Chapter-4 Verse-37
प्रसंग-
इस प्रकार चौतीसवें श्लोक से यहाँ तक तत्त्वज्ञानी महापुरुषों की सेवा आदि करके तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने के लिये कह कर भगवान् ने उसके फल का वर्णन करते हुए उसका माहात्म्य बतलाया । इस पर यह जिज्ञासा होती है कि यह तत्त्वज्ञान ज्ञानी महापुरुषों से श्रवण करके विधि पूर्वक मनन और निदध्यासनादि ज्ञान योग के साधनों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है या इसकी प्राप्ति का कोई दूसरा मार्ग भी है, इस पर अगले श्लोक में पुन: उस ज्ञान की महिमा प्रकट करते हुए भगवान् कर्मयोग के द्वारा भी वही ज्ञान अपने-आप प्राप्त होने की बात कहते हैं-
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।37।।
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क्योंकि हे <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।
¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है ।।37।।
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For as the blazing fire turns the fuel to ashes, Arjuna, even so the fire of knowledge turns all actions to ashes. (37)
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अर्जुन = हे अर्जुन; यथा = जैसे; समिद्व: = प्रज्वलित; एधांसि = इन्धन को; भस्मसात् = भस्ममय; कुरुते = कर देता है; तथा = वैसे ही; ज्ञानभि: = ज्ञानरूप अग्नि; सर्वकर्माणि = संपूर्ण कर्मों को; भस्मसात् = भस्ममय; कुरुते = कर देता है
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