गीता 6:36

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गीता अध्याय-6 श्लोक-36 / Gita Chapter-6 Verse-36

प्रसंग-


योगसिद्धि के लिये मन को वश में करना परम आवश्यक बतलाया गया । इस पर यह जिज्ञासा होती है कि जिसका मन वश में नहीं है,किंतु योग में श्रद्धा होने के कारण जो भगवत्प्राप्ति के लिये साधन करता है, उसकी मरने के बाद क्या गति होती है ? इसी लिये <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> पूछते हैं-


असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति: ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत: ।।36।।



जिसका मन वश में किया हुआ नहीं है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किये हुए मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है ।।36।।

Yoga is difficult of achievement for one whose mind is not subdued; by him; however who has the mind under control, and is ceaselessly striving, it can be easily attained through practice. Such is my conviction. (36)


असंयतात्मना = मन को वशमें न करने वाले पुरुष द्वारा ; योग: = योग ; दुष्प्राप: = दुष्पाप्य है अर्थात् प्राप्त होना कठिन है ; तु = और ; वश्यात्मना = स्वाधीन मनवाले ; यतता = प्रयत्नशील पुरुषद्वारा ; उपायत: = साधन करने से ; अवाप्तुम् = प्राप्त होना ; शक्य: = सहज है ; इति = यह ; मे = मेरा ; मति: = मत है ;



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

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