"गीता 7:7" के अवतरणों में अंतर

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हे [[अर्जुन|धनंजय]] ! मुझसे भित्र दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है । यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गुँथा हुआ है ।।7।।  
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हे [[अर्जुन|धनंजय]] ! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है । यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गुँथा हुआ है ।।7।।  
  
 
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११:५६, १७ नवम्बर २००९ का अवतरण

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गीता अध्याय-7 श्लोक-7 / Gita Chapter-7 Verse-7

प्रसंग-


सूत और सूत के मणियों के दृष्टान्त से भगवान् ने अपनी सर्वरूपता और सर्वव्यापकता सिद्ध की । अब भगवान् अगले चार श्लोकों द्वारा इसी को भली-भाँति स्पष्ट करने के लिये उन प्रधान-प्रधान सभी वस्तुओं के नाम लेते हैं, जिनसे इस विश्व की स्थिति है; और सार रूप से उन सभी को अपने से ही ओतप्रोत बतलाते हैं-


मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।7।।



हे धनंजय ! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है । यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गुँथा हुआ है ।।7।।

There is nothing else besides me, Arjuna. Like clusters of yarn-beads by knots on a thread, all this is threaded on me.(7)


धनंजय = हे धनंजय; मत्त: = मेरे से; परतरम् = सिवाय; किंचित् = किंचित् मात्र भी; अन्यत् = दूसरी वस्तु; अस्ति = है; इदम् = यह;सर्वम् = संपूर्ण (जगत्); सूत्रे = सूत्र में; मणिगणा: = (सूत्र के) मणियों के; इव = सदृश; मयि = मेरे में; प्रोतम् = गुंथा हुआ है;



अध्याय सात श्लोक संख्या
Verses- Chapter-7

1 | 2 | 3 | 4, 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30

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