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भगवान् के गुण, प्रभाव आदि को जानने वाले अनन्य प्रेमी भक्तों के भजन का प्रकार बतलाकर अब भगवान् उनसे भित्र श्रेणी के उपासकों की उपासना का प्रकार बतलाते हैं –
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भगवान् के गुण, प्रभाव आदि को जानने वाले अनन्य प्रेमी भक्तों के भजन का प्रकार बतलाकर अब भगवान् उनसे भिन्न श्रेणी के उपासकों की उपासना का प्रकार बतलाते हैं –
 
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दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्रा का ज्ञान यज्ञ के द्वारा अभित्र भाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं, और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट् स्वरूप परमेश्वर की पृथक् भाव से उपासना करते हैं ।।15।।  
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दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्रा का ज्ञान यज्ञ के द्वारा अभिन्न भाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं, और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट् स्वरूप परमेश्वर की पृथक् भाव से उपासना करते हैं ।।15।।  
  
 
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Other (who follow the path of knowledge ) betake themselves to me through their offering of knowledge, worshipping me (in my absolute , of knowledge, worshipping me (in my absolute, formless aspect) as one with themselves; while still others worship me in my universal form in many ways, taking me to be diverse in diverse celestial forms. (15)
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Others, who are engaged in the cultivation of knowledge, worship the Supreme Lord as the one without a second, diverse in many, and in the universal form. (15)
 
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०७:०८, १९ नवम्बर २००९ का अवतरण


गीता अध्याय-9 श्लोक-15 / Gita Chapter-9 Verse-15

प्रसंग-


भगवान् के गुण, प्रभाव आदि को जानने वाले अनन्य प्रेमी भक्तों के भजन का प्रकार बतलाकर अब भगवान् उनसे भिन्न श्रेणी के उपासकों की उपासना का प्रकार बतलाते हैं –


ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ।।15।।



दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्रा का ज्ञान यज्ञ के द्वारा अभिन्न भाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं, और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराट् स्वरूप परमेश्वर की पृथक् भाव से उपासना करते हैं ।।15।।

Others, who are engaged in the cultivation of knowledge, worship the Supreme Lord as the one without a second, diverse in many, and in the universal form. (15)


माम् = मुझ ; विश्र्वतोमुखम् = विराट् स्वरूप परमात्मा को ; ज्ञानयज्ञेन = ज्ञानयज्ञ के द्वारा ; यजन्त:= पूजन करते हुए ; एकत्वेन = एकत्व भाव से अर्थात् जो कुछ है सब वासुदेव ही हे इस भाव से ; (उपासते) = उपासते हैं (और) ; अन्ये = दूसरे ; पृथक्त्वेन = पृथक्त्वभाव से अर्थात् स्वामी सेवक भाव से ; च = और (कोई कोई) ; बहुधा = बहुत प्रकार से ; अपि = भी ; उपासते = उपासते हैं ;



अध्याय नौ श्लोक संख्या
Verses- Chapter-9

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

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