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गीता अध्याय-9 श्लोक-34 / Gita Chapter-9 Verse-34
प्रसंग-
पिछले श्लोकों में भगवान् ने अपने भजन का महत्व दिखलाया और अन्त में <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।
¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को भजन करने के लिये कहा । अतएव अब भगवान् अपने भजन का अर्थात् शरणागति का प्रकार बतलाते हुए अध्याय की समाप्ति करते हैं-
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ।।34।।
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मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर । इस प्रकार आत्मा को मुझ में नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा ।।34।।
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Fix your mind on me, be devoted to me, worship me and make obeisance to me; thus linking your self with me and entirely depending on me, you shall come to me. (34)
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मनवाला; भव = हो(और); मभ्दक्त: = मुझ परमेश्वर को ही श्रद्धा प्रेमसहित निष्कामभाव से नाम गुण और प्रभावके श्रवण, कीर्तन , मनन और पठनपाठनद्वारा निरन्तर भजनेवाला हो(तथा); मद्याजी(भव) = मेरा(शख्ड चक्र गदा पह्रा और किरीट कुण्डल आदि भूषणों से युक्त पीताम्बर वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका) मन वाणी औ शरीर के द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा भक्त और प्रेम से विहृलतापूर्वक पूजन करनेवाला हो(और); माम् = मुझ सर्वशक्तिमान् विभूति बल ऐश्वर्य माधुर्य गम्भीरता उदरता वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणों से सम्पत्र सबके आश्रयरूप वासुदेव को; नमस्कुरु = विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टारग्ड दण्डवत् प्रणाम् कर; एवम् = इस प्रकार; मत्परायण: = मेरे शरण हुआ(तूं); आत्मानम् = आत्मा को; युक्त्वा = मेरे में एकीभाव करके; माम् = मेरे को; एष्यसि = प्राप्त होवेगा ;
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