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कुषाण इस देश के लिए पूर्णत: विदेशी थे । प्राचीनकाल में चीन के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में [[यूची]] नाम की एक जाति रहा करती थी । लगभग 165 ई. पू. में ये लोग वहां से भगाये गये । अपनी मूलभूमि छोड़ने के बाद कुछ काल तक ये लोग सीस्तान या शक स्थान में जमे रहे पर आगे चलकर उन्हें वह स्थान भी छोड़ना पड़ा । वे और भी अधिक दक्षिण की ओर हटे । लगभग ई. पू. 10 में [[बल्ख]] या बैक्ट्रिया पर इनका अधिकार हो गया । लगभग ईस्वी 50 में तक्षशिला का भू प्रदेश भी इनके अधिकार में आ गया । अब ये कुषाण नाम से पहिचाने जाने लगे । इस समय उनका नेता था [[कुजुल कैडफाइसेस]] या कट्फिस प्रथम । इसके बाद कट्फिस द्वितीय या वेम उसका उत्तराधिकारी हुआ । इसके इष्टदेव [[शिव]] थे । यह पराक्रमी शासक था । इसकी मृत्यु के बाद ईस्वी 78 में कुषाण साम्राज्य का शासन [[कनिष्क]] के हाथ में आया ।
 
कुषाण इस देश के लिए पूर्णत: विदेशी थे । प्राचीनकाल में चीन के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में [[यूची]] नाम की एक जाति रहा करती थी । लगभग 165 ई. पू. में ये लोग वहां से भगाये गये । अपनी मूलभूमि छोड़ने के बाद कुछ काल तक ये लोग सीस्तान या शक स्थान में जमे रहे पर आगे चलकर उन्हें वह स्थान भी छोड़ना पड़ा । वे और भी अधिक दक्षिण की ओर हटे । लगभग ई. पू. 10 में [[बल्ख]] या बैक्ट्रिया पर इनका अधिकार हो गया । लगभग ईस्वी 50 में तक्षशिला का भू प्रदेश भी इनके अधिकार में आ गया । अब ये कुषाण नाम से पहिचाने जाने लगे । इस समय उनका नेता था [[कुजुल कैडफाइसेस]] या कट्फिस प्रथम । इसके बाद कट्फिस द्वितीय या वेम उसका उत्तराधिकारी हुआ । इसके इष्टदेव [[शिव]] थे । यह पराक्रमी शासक था । इसकी मृत्यु के बाद ईस्वी 78 में कुषाण साम्राज्य का शासन [[कनिष्क]] के हाथ में आया ।
 
==वेम और कनिष्क==
 
==वेम और कनिष्क==
वेम और कनिष्क ने राज्य की सीमाओं को खूब बढ़ाया । इस समय राज्य की राजधानी पेशावर (पुरूषपुर) थी, परन्तु उसके दक्षिण भाग का मुख्य नगर मथुरा था । शक, क्षत्रपों के समय मथुरा उनका एक प्रमुख केन्द्र रहा । कुषाणों ने भी उसे इसी रूप में अपनाया । मथुरा के इन राजकीय परिर्वतनों का प्रभाव उसकी कला पर पड़ना स्वाभाविक था । इसी प्रभाव ने यहाँ कला की एक नवीन शैली को जन्म दिया जो भारतीय कला के इतिहास में कुषाण-कला या मथुरा-कला के नाम से प्रसिद्ध है । [[कुषाणवंश]] के तीनों सम्राट् कनिष्क, [[हुविष्क]] तथा [[वासुदेव]] के समय यह नगर और यहाँ की कला उन्नत होती चली गयी । अपनी कलाकृतियों के लिए समस्त उत्तर-भारत में मथुरा प्रसिद्ध हो गया और यहाँ की मूर्तियां दूर-दूर तक जाने लगीं ।
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वेम और कनिष्क ने राज्य की सीमाओं को खूब बढ़ाया । इस समय राज्य की राजधानी पेशावर (पुरूषपुर) थी, परन्तु उसके दक्षिण भाग का मुख्य नगर मथुरा था । शक, क्षत्रपों के समय मथुरा उनका एक प्रमुख केन्द्र रहा । कुषाणों ने भी उसे इसी रूप में अपनाया । मथुरा के इन राजकीय परिर्वतनों का प्रभाव उसकी कला पर पड़ना स्वाभाविक था । इसी प्रभाव ने यहाँ कला की एक नवीन शैली को जन्म दिया जो भारतीय कला के इतिहास में कुषाण-कला या मथुरा-कला के नाम से प्रसिद्ध है । [[कुषाणवंश]] के तीनों सम्राट् कनिष्क, [[हुविष्क]] तथा [[वसुदेव|वासुदेव]] के समय यह नगर और यहाँ की कला उन्नत होती चली गयी । अपनी कलाकृतियों के लिए समस्त उत्तर-भारत में मथुरा प्रसिद्ध हो गया और यहाँ की मूर्तियां दूर-दूर तक जाने लगीं ।
 
==गुप्त साम्राज्य==
 
==गुप्त साम्राज्य==
 
उत्तर-भारत के यौधेयादि गणराज्यों ने दूसरी शताब्दी के अन्त में यहां से कुषाणों के पैर उखाड़ डाले । अब कुछ समय के लिए मथुरा नागों के अधिकार में चली गया । चौथी शती के आरम्भ में उत्तर-भारत में [[गुप्तवंश]] का बल बढ़ने लगा । धीरे-धीरे मथुरा भी गुप्त साम्राज्य का एक अंग बन गया । [[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य]] का ध्यान मथुरा की ओर बना रहता था । इस समय के मिले हुए लेखों से पता चलता है कि गुप्तकाल में यह नगर शैव तथा वैष्णव सम्प्रदाय का केन्द्र रहा । साथ ही साथ [[बौद्ध]] और [[जैन]] भी यहां जमे रहे ।
 
उत्तर-भारत के यौधेयादि गणराज्यों ने दूसरी शताब्दी के अन्त में यहां से कुषाणों के पैर उखाड़ डाले । अब कुछ समय के लिए मथुरा नागों के अधिकार में चली गया । चौथी शती के आरम्भ में उत्तर-भारत में [[गुप्तवंश]] का बल बढ़ने लगा । धीरे-धीरे मथुरा भी गुप्त साम्राज्य का एक अंग बन गया । [[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य]] का ध्यान मथुरा की ओर बना रहता था । इस समय के मिले हुए लेखों से पता चलता है कि गुप्तकाल में यह नगर शैव तथा वैष्णव सम्प्रदाय का केन्द्र रहा । साथ ही साथ [[बौद्ध]] और [[जैन]] भी यहां जमे रहे ।

१०:२२, २१ सितम्बर २००९ का अवतरण


परिचय


ब्रज


मथुरा एक झलक

पौराणिक मथुरा

मौर्य-गुप्त मथुरा

गुप्त-मुग़ल मथुरा


वृन्दावन

गुप्तकालीन से मुग़ल कालीन / Mathura, Gupta-Mughal

सम्पन्नता-वैभव

शुंगकाल के प्रारंभ से ही मथुरा का महत्व बढ़ गया था । शुंग वंश का शासनकाल ई. पू. 185 के लगभग प्रारम्भ हुआ । पतंजली ने यहां के लोगों की श्री व सम्पन्नता का उल्लेख किया है । [१] मथुरा का महत्व इस काल में भी बना रहा । शुंग-साम्राज्य के पश्चिमी प्रदेश की राजधानी मथुरा ही थी । प्राचीन भारत का उत्तर-पश्चिमी भाग, गांधार के प्रमुख नगर पुष्कलावती से पाटलीपुत्र, वैशाली, ताम्रलिप्ति, श्रावस्ती, कौशाम्बी आदि मथुरा मार्ग से ही जुड़े थे । पश्चिम के सबसे बड़े बन्दरगाह भरूकच्छ (भडौच) को जाने वाला मार्ग भी विदिशा और उज्जयिनी होकर मथुरा से ही जाता था [२] मथुरा, व्यापार का भी एक बड़ा केन्द्र बनता गया ।

इस नगरी को समकालीन साहित्य में सुभिक्षा, ऐश्वर्यवती और घनी बस्ती वाली कहा गया है । [३] मथुरा के जगमगाते वैभव को देखकर यूनानी आक्रमणकारियों की दृष्टि इस ओर घूमी और उन्होंने लगभग ई. पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में मथुरा पर आक्रमण किया । इस आक्रमण का उल्लेख युग पुराण में मिलता है । परन्तु आपसी झगड़ों के कारण यवनों के यहां पैर न जम सके । गार्गी-संहिता में कहा गया है कि 150 ई० पू० के लगभग यवनराज दिमित्रियस (Demetrius) ने थोड़े से समय के लिए मथुरा पर अधिकार कर लिया था ।

शुंग वंश की समाप्ति के बाद भी कहीं-कहीं इस वशं के छोटे-मोटे शासक राज्य करते रहे । मथुरा में मित्रवंशी राजाओं का शासन कुछ काल तक चलता रहा । इनकी मुद्राएं मथुरा से प्राप्त हो चुकी हैं । इनके अतिरिक्त बलभूति तथा दत्त नाम वाले राजाओं के सिक्के मथुरा से प्राप्त हुए हैं । ये सारे शासक मथुरा में ई. पू. 100 तक शासन करते रहे । लगभग ई. पू. 100 में विदेशी शकों का बल बढ़ने लगा । मथुरा में भी इनका केन्द्र स्थापित हुआ ।

राजुल या राजबुल तथा शोडास

यहां के शासक शक क्षत्रप के नाम से पहचाने जाते थे । इनमें राजुल या राजबुल तथा शोडास का काल विशेष उल्लेखनीय है । उन्होंने लगभग 75 वर्षों तक शासन किया । इस समय के कई महत्त्वपूर्ण शिलालेख हमें प्राप्त हुए हैं जिनमें सबसे उल्लेखनीय वह लेख है जिसमें एक कृष्ण (वासुदेव) मन्दिर का निर्माण किये जाने का उल्लेख है । [४] इन शकों को ई. पू. 57 में मालवगण ने जीत लिया, तथापि इसी समय से शकों की एक दूसरी शाखा, जो आगे कुषाण कहलायी, बलशाली हो रही थी । अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इन्होंने यहां यमुना-तट पर एक सिंह-स्तंभ बनवाया था जो बहुत विशाल था और अब जिसका शीर्ष लंदन के संग्रहालय में रखा हुआ है । खंडितावस्था में प्राप्त शोडास के अभिलेख से मथुरा का, उस काल का वृतांत मिलता है जिसमें मथुरा का वासुदेव कृष्ण की उपासना का केन्द्र होने का पता चलता है । [५]

कुषाण

कुषाण इस देश के लिए पूर्णत: विदेशी थे । प्राचीनकाल में चीन के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में यूची नाम की एक जाति रहा करती थी । लगभग 165 ई. पू. में ये लोग वहां से भगाये गये । अपनी मूलभूमि छोड़ने के बाद कुछ काल तक ये लोग सीस्तान या शक स्थान में जमे रहे पर आगे चलकर उन्हें वह स्थान भी छोड़ना पड़ा । वे और भी अधिक दक्षिण की ओर हटे । लगभग ई. पू. 10 में बल्ख या बैक्ट्रिया पर इनका अधिकार हो गया । लगभग ईस्वी 50 में तक्षशिला का भू प्रदेश भी इनके अधिकार में आ गया । अब ये कुषाण नाम से पहिचाने जाने लगे । इस समय उनका नेता था कुजुल कैडफाइसेस या कट्फिस प्रथम । इसके बाद कट्फिस द्वितीय या वेम उसका उत्तराधिकारी हुआ । इसके इष्टदेव शिव थे । यह पराक्रमी शासक था । इसकी मृत्यु के बाद ईस्वी 78 में कुषाण साम्राज्य का शासन कनिष्क के हाथ में आया ।

वेम और कनिष्क

वेम और कनिष्क ने राज्य की सीमाओं को खूब बढ़ाया । इस समय राज्य की राजधानी पेशावर (पुरूषपुर) थी, परन्तु उसके दक्षिण भाग का मुख्य नगर मथुरा था । शक, क्षत्रपों के समय मथुरा उनका एक प्रमुख केन्द्र रहा । कुषाणों ने भी उसे इसी रूप में अपनाया । मथुरा के इन राजकीय परिर्वतनों का प्रभाव उसकी कला पर पड़ना स्वाभाविक था । इसी प्रभाव ने यहाँ कला की एक नवीन शैली को जन्म दिया जो भारतीय कला के इतिहास में कुषाण-कला या मथुरा-कला के नाम से प्रसिद्ध है । कुषाणवंश के तीनों सम्राट् कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के समय यह नगर और यहाँ की कला उन्नत होती चली गयी । अपनी कलाकृतियों के लिए समस्त उत्तर-भारत में मथुरा प्रसिद्ध हो गया और यहाँ की मूर्तियां दूर-दूर तक जाने लगीं ।

गुप्त साम्राज्य

उत्तर-भारत के यौधेयादि गणराज्यों ने दूसरी शताब्दी के अन्त में यहां से कुषाणों के पैर उखाड़ डाले । अब कुछ समय के लिए मथुरा नागों के अधिकार में चली गया । चौथी शती के आरम्भ में उत्तर-भारत में गुप्तवंश का बल बढ़ने लगा । धीरे-धीरे मथुरा भी गुप्त साम्राज्य का एक अंग बन गया । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का ध्यान मथुरा की ओर बना रहता था । इस समय के मिले हुए लेखों से पता चलता है कि गुप्तकाल में यह नगर शैव तथा वैष्णव सम्प्रदाय का केन्द्र रहा । साथ ही साथ बौद्ध और जैन भी यहां जमे रहे ।

कुमारगुप्त प्रथम के शासन के अन्तिम दिनों में गुप्त साम्राज्य पर हूणों का भयंकर आक्रमण हुआ । इससे मथुरा बच न सका । आक्रमणकारियों ने इस नगर को बहुत कुछ नष्ट कर दिया । गुप्तों के पतन के बाद यहां की राजनीतिक स्थिति बड़ी डावांडोल थी । सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह नगर हर्ष के साम्राज्य में समाविष्ट हो गया । इसके बाद बारहवीं शती के अन्त तक यहां क्रमश: गुर्जर-प्रतिहार और गढ़वाल वंश ने राज्य किया । इस बीच की महत्त्वपूर्ण घटना महमूद गजनवी का आक्रमण है । यह आक्रमण उसका नवां आक्रमण था जो सन् 1017 में हुआ । हूण आक्रमण के बाद मथुरा के विनाश का यह दूसरा अवसर था । 11वीं शताब्दी का अन्त होते-होते मथुरा पुन: एक बार हिन्दू राजवंश के अधिकार में चली गयी । यह गढ़वाल वंश था । इस वंश के अन्तिम शासक जयचंद के समय मथुरा पर मुसलमानों का अधिकार हो गया ।


महमूद ग़ज़नवी ने मथुरा में भगवान कृष्ण का विशाल मंदिर विध्वस्त कर दिया । मुसलमानों के शासनकाल में मथुरा नगरी कई शतियों तक उपेक्षित अवस्था में पड़ी रही । अकबर और जहाँगीर के शासनकाल में अवश्य कुछ भव्य मंदिर यहां बने किंतु औरंगजेब की कट्टर धर्मनीति ने मथुरा का सर्वनाश ही कर दिया । उसने यहां के प्रसिद्ध जन्मस्थान के मंदिर को तुड़वा कर वर्तमान मस्जिद बनवाई और मथुरा का नाम बदल कर इस्लामाबाद कर दिया । किंतु यह नाम अधिक दिनों तक न चल सका ।

अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के समय (1757 ई०) में एक बार फिर मथुरा को दुर्दिन देखने पड़े । इस बर्बर आक्रांता ने सात दिनों तक मथुरा निवासियों के खून की होली खेली और इतना रक्तपात किया कि यमुना का पानी एक सप्ताह के लिए लाल रंग का हो गया । मुगल-साम्राज्य की अवनति के पश्चात् मथुरा पर मराठों का प्रभुत्व स्थापित हुआ और इस नगरी ने सदियों के पश्चात् चैन की सांस ली । 1803 ई० में लार्ड लेक ने सिंधिया को हराकर मथुरा-आगरा प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया । मथुरा में श्रीकृष्ण के जन्मस्थान(श्री कृष्ण जन्मस्थान) (कटरा केशवदेव) का भी एक अलग ही और अद्भुत इतिहास है । प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार भगवान का जन्म इसी स्थान पर कंस के कारागार में हुआ था । यह स्थान यमुना तट पर था और सामने ही नदी के दूसरे तट पर गोकुल बसा हुआ था जहां श्रीकृष्ण का बचपन ग्वाल-बालों के बीच बीता ।

इस स्थान से जो प्राचीनतम अभिलेख मिला है वह शोडास के शासनकाल (80-57 ई० पू०) का है । इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । इससे सूचित होता है कि संभवत: शोडास के शासनकाल में ही मथुरा का सर्वप्रथम ऐतिहासिक कृष्णमंदिर भगवान के जन्मस्थान पर बना था । इसके पश्चात् दूसरा बड़ा मंदिर 400 ई० के लगभग बना जिसका निर्माता शायद चंद्रगुप्त विक्रमादित्य था । इस विशाल मंदिर को धर्मांध महमूद गजनी ने 1017 ई० में गिरवा दिया । इसका वर्णन महमूद के मीर मुंशी अलउतबी ने इस प्रकार किया है- महमूद ने एक निहायत उम्दा इमारत देखी जिसे लोग इंसान के बजाए देवों द्वारा निर्मित मानते थे । नगर के बीचों-बीच एक बहुत बड़ा मंदिर था जो सबसे अधिक सुंदर और भव्य था । इसका वर्णन शब्दों अथवा चित्रों से नहीं किया जा सकता । महमूद ने इस मंदिर के बारे में खुद कहा था कि यदि कोई मनुष्य इस तरह का भवन बनवाए तो उसे 10 करोड़ दीनार खर्च करने पडे़गे और इस काम में 200 वर्षो से कम समय नहीं लगेगा चाहे कितने ही अनुभवी कारीगर काम पर क्यों न लगा दिए जाएं ।


कटरा केशवदेव से प्राप्त एक संस्कृत शिलालेख से पता लगता है कि 1150 ई० (1207 वि० सं०) में, जब मथुरा पर महाराज विजयपाल देव का शासन था, जज्ज नामक एक व्यक्ति ने श्रीकृष्ण के जन्म स्थान (श्रीकृष्णजन्मस्थान) पर एक नया मंदिर बनवाया । श्री चैतन्य महाप्रभु ने शायद इसी मंदिर को देखा था । [६] कहा जाता है कि चैतन्य ने कृष्णलीला से संबद्ध अनेक स्थानों तथा यमुना के प्राचीन घाटों की पहचान की थी । यह मंदिर भी सिंकदर लोदी के शासनकाल (16वीं शतीं के प्रारम्भ) में नष्ट कर दिया गया । लगभग 300 वर्षों तक अर्थात् 12वीं से 15वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक मथुरा दिल्ली के सुल्तानों के अधिकार में रही । परन्तु इस काल की कहानी केवल अवनति की कहानी है । सन् 1526 के बाद मथुरा मुगल साम्राज्य का अंग बनी । इस काल-खण्ड में अकबर के शासनकाल को (सन् 1556-1605) नहीं भुलाया जा सकता । सभी दृष्टियों से, विशेषत: स्थापत्य की दृष्टि से इस समय मथुरा की बड़ी उन्नति हुई । अनेक हिन्दू मन्दिरों का निर्माण हुआ तथा ब्रज साहित्य भी अष्टछाप के कवियों की छाया में खूब पनपा । इसके पश्चात् मुगल-सम्राट जहाँगीर के समय में ओरछा नरेश वीरसिंह देव बुंदेला ने इसी स्थान पर एक अन्य विशाल मंदिर बनवाया ।


फ्रांसीसी यात्री टेवर्नियर ने जो 1650 ई० के लगभग यहां आया था, इस अद्भुत मंदिर का वर्णन इस प्रकार लिखा है- यह मंदिर समस्त भारत के अपूर्व भवनों में से है । यह इतना विशाल है कि यद्यपि यह नीची जगह पर बना है तथापि पांच छ: कोस की दूरी से दिखाई पड़ता है । मंदिर बहुत ही ऊंचा और भव्य है । इटली के पर्यटक मनूची के वर्णन से ज्ञात होता है कि इस मंदिर का शिखर इतना ऊंचा था कि 36 मील दूर आगरा से दिखाई पड़ता था । जन्माष्टमी के दिन जब इस पर दीपक जलाए जाते थे तो उनका प्रकाश आगरा से भली-भांति देखा जा सकता था और बादशाह भी उसे देखा करते थे । मनूची ने स्वयं केशवदेव के मंदिर को कई बार देखा था । संकीर्ण-हृदय औरंगजेब ने श्रीकृष्ण के जन्म स्थान के इस अंतिम भव्य और ऐतिहासिक स्मारक को 1668 ई० में तुड़वा दिया और मंदिर की लंबी चौड़ी कुर्सी के मुख्य भाग पर ईदगाह बनवाई जो आज भी विद्यमान है । उसकी धर्मांध नीति को कार्य रूप में परिणत करने वाला सूबेदार अब्दुलनबी था जिसको हिंदू मंदिरों के तुड़वाने का कार्य विशेष रूप से सौंपा गया था । केशवदेव का विशाल मन्दिर अन्य मन्दिरों के साथ धाराशायी हो गया और वहां मस्जिदें बनवाई गयीं । औरंगजेब ने मथुरा और वृन्दावन के नाम भी क्रमश: इस्लामाबाद और मोमिनाबाद रखे थे, परन्तु ये नाम उसकी गगनचुंबी आकांक्षाओं के साथ ही विलीन हो गये । औरंगजेब की शक्ति को सुरंग लगाने वालों में जाटों का बहुत बड़ा हाथ था । चूड़ामणि जाट ने मथुरा पर अधिकार कर लिया । उसके उत्तराधिकारी बदनसिंह और सूरजमल के समय में यहां जाटों का प्रभुत्व बढ़ा । इसी बीच मथुरा पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ । सन् 1757 में इस नगर को एक दूसरे क्रूर आक्रमण का सामना करना पड़ा जिसमें यमुना का जल सात दिन तक मानवीय रक्त से लाल होकर बहता रहा । यह अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण था । सन् 1770 में जाट मराठों से पराजित हुए और यहां अब मराठा शासन की नींव जमी । इस सम्बन्ध में महादजी सिंधिया का नाम विशेष रूप से स्मरणीय है । सन् 1803 तक मथुरा मराठों के अधिकार में रही । 30 दिसम्बर, 1803 को अंजनगांव की संधि के अनुसार यहाँ अंग्रेजों का अधिकार हो गया जो 15 अगस्त, 1947 तक बराबर बना रहा । 1815 ई० में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कटरा केशवदेव को बनारस के राजा पट्टनीमल के हाथ बेच दिया । इन्होंने मथुरा में अनेक इमारतों का निर्माण करवाया जिनमें शिवताल भी है । मूर्तिकला तथा स्थापत्यकला की दृष्टि से मुसलमानों के अधिकार के बाद, अकबर के शासनकाल को छोड़कर, मथुरा ने कोई उल्लेखनीय उन्नति नहीं की ।


टीका-टिप्पणी

  1. प्रभुदयाल अग्निहोत्री,पतञ्जलिकालीन भारत,पटना 1963,पृ.119 ।
  2. जे.पी. एच.फोगल,La Sculpture De Mathura, pw. 17-18 ।
  3. ललितविस्तर,3 पृ.15- इयं मथुरा नगरी श्रध्दा च स्फीता च क्षेमा च सुभिक्षा च आकीर्ण बहुजनमनुष्या
  4. (मथुरा सं. सं. 00 क्यू ; 13.367)
  5. 'वसुना भगवतो वासुदेवस्य महास्थान चतु:शालं तोरणं वेदिका प्रतिष्ठापितो प्रीतोभवतु वासुदेव: स्वामिस्य महाक्षत्रपस्य शोडासस्य संवर्तेयाताम्`
  6. 'मथुरा आशिया करिला विश्रामतीर्थे स्नान, जन्म स्थान केशव देखि करिला प्रणाम, प्रेमावेश नाचे गाए सघन हुकांर, प्रभु प्रेमावेश देखि लोके चमत्कार` (चैतन्य चरितावली)