"गुप्त काल" के अवतरणों में अंतर

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==गुप्त काल गुप्त राजवंश का उदय और गुप्त सम्राट==
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नाग राजाओं के शासन के बाद गुप्त राजवंश स्थापित हुआ जिसने मगध में देश के एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापित किया । इस वंश के राजाओं को गुप्त सम्राट के नाम से जाना जाता है । गुप्त राजवंश का प्रथम राजा `श्री गुप्त`हुआ, जिसके नाम पर गुप्त राजवंश का नामकरण हुआ । द्वितीय राजा महाराज गुप्त था । उसका लड़का घटोत्कच हुआ, जिसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम 320 ई० में पाटलिपुत्र का शासक हुआ । उसने 'महाराजधिराज' उपाधि ग्रहण की और लिच्छिवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छिवियों की सहायता से शक्ति बढाई । वह एक शक्तिशाली शासक था, चंद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त-शासन का विस्तार दक्षिण विहार से लेकर अयोध्या तक था । <ref></ref> इस राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी । चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने शासन काल में एक नया संवत् चलाया ,जिसे गुप्त संवत् कहा जाता है । यह संवत् गुप्त सम्राटों के काल तक ही प्रचलित रहा; बाद में उस का चलन नहीं रहा ।
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मौर्य शासकों के बाद विदेशी शक-कुषाण राजाओं का शासन इस देश में रहा, उनमें कनिष्क महान और वीर था । कनिष्क के बाद कोई राजा इतना वीर और शक्तिशाली नहीं हुआ, जो विस्तृत और सुदृढ़ राज्य का गठन करता । इसके परिणाम स्वरुप देश में अनेक छोटे-बड़े राज्य बन गये थे । किसी में राजतंत्र और किसी में जनतंत्र था । राजतंत्रों में मथुरा और पद्मावती राज्य के नागवंश विशेष प्रसिद्व थे । जनतंत्र शासकों में यौधेय, मद्र, मालव और अजुर्नायन प्रमुख थे । उत्तर-पश्चिम के प्रदेशों में शक और कुषाणों के विदेशी राज्य थे । चंद्रगुप्त प्रथम के उत्तराधिकारी समुद्र गुप्त ने सत्ता में आते ही उन छोटे-छोटे राज्यों के स्थान पर एक समृध्द, विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की ।
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==समुद्र गुप्त:- (335-376)==
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चंद्रगुप्त प्रथम के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा । उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्व है; समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया । उसने वाकाटक राज्य
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पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदि, महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रूद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था । उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-
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उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया । समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार कायम कर उसने `दिग्विजय` की । समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है ।
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इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चबंल और यमुना नदियों तक हो गया था । पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया । इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी शक और 'देवपुत्र शाहानुशाही` कुषाण राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे । उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण इलाहाबाद किले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है । <ref></ref>
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आर्यावत में समुद्रगुप्त ने 'सर्वराजोच्छेत्ता' [संदर्भ] नीति का पालन नहीं किया । आर्यावत के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया । पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद-स्तम्भ पर मिलते हैं --अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रूद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल । इस महान विजय के बाद उसने अश्वमेघ यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी । इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी ।

०५:४८, २० मई २००९ का अवतरण

पौराणिक इतिहास मौर्य काल शुंग काल शक-कुषाण काल गुप्त काल मध्य काल
आदिम काल गुप्त राजवंश पूर्वार्ध
आदिम काल (कृष्ण पूर्व काल) गुप्त राजवंश उत्तरार्ध
कृष्ण काल

गुप्त काल गुप्त राजवंश का उदय और गुप्त सम्राट

नाग राजाओं के शासन के बाद गुप्त राजवंश स्थापित हुआ जिसने मगध में देश के एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापित किया । इस वंश के राजाओं को गुप्त सम्राट के नाम से जाना जाता है । गुप्त राजवंश का प्रथम राजा `श्री गुप्त`हुआ, जिसके नाम पर गुप्त राजवंश का नामकरण हुआ । द्वितीय राजा महाराज गुप्त था । उसका लड़का घटोत्कच हुआ, जिसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम 320 ई० में पाटलिपुत्र का शासक हुआ । उसने 'महाराजधिराज' उपाधि ग्रहण की और लिच्छिवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छिवियों की सहायता से शक्ति बढाई । वह एक शक्तिशाली शासक था, चंद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त-शासन का विस्तार दक्षिण विहार से लेकर अयोध्या तक था । सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य <ref> टैग; नाम रहित संदर्भों में जानकारी देना आवश्यक है इस राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी । चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने शासन काल में एक नया संवत् चलाया ,जिसे गुप्त संवत् कहा जाता है । यह संवत् गुप्त सम्राटों के काल तक ही प्रचलित रहा; बाद में उस का चलन नहीं रहा ।

मौर्य शासकों के बाद विदेशी शक-कुषाण राजाओं का शासन इस देश में रहा, उनमें कनिष्क महान और वीर था । कनिष्क के बाद कोई राजा इतना वीर और शक्तिशाली नहीं हुआ, जो विस्तृत और सुदृढ़ राज्य का गठन करता । इसके परिणाम स्वरुप देश में अनेक छोटे-बड़े राज्य बन गये थे । किसी में राजतंत्र और किसी में जनतंत्र था । राजतंत्रों में मथुरा और पद्मावती राज्य के नागवंश विशेष प्रसिद्व थे । जनतंत्र शासकों में यौधेय, मद्र, मालव और अजुर्नायन प्रमुख थे । उत्तर-पश्चिम के प्रदेशों में शक और कुषाणों के विदेशी राज्य थे । चंद्रगुप्त प्रथम के उत्तराधिकारी समुद्र गुप्त ने सत्ता में आते ही उन छोटे-छोटे राज्यों के स्थान पर एक समृध्द, विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की ।

समुद्र गुप्त:- (335-376)

चंद्रगुप्त प्रथम के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा । उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्व है; समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया । उसने वाकाटक राज्य

पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदि, महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रूद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था । उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-

उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया । समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार कायम कर उसने `दिग्विजय` की । समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है ।

इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चबंल और यमुना नदियों तक हो गया था । पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया । इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी शक और 'देवपुत्र शाहानुशाही` कुषाण राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे । उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण इलाहाबाद किले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है । सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य <ref> टैग; नाम रहित संदर्भों में जानकारी देना आवश्यक है

आर्यावत में समुद्रगुप्त ने 'सर्वराजोच्छेत्ता' [संदर्भ] नीति का पालन नहीं किया । आर्यावत के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया । पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद-स्तम्भ पर मिलते हैं --अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रूद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल । इस महान विजय के बाद उसने अश्वमेघ यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी । इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी ।