गोपथ ब्राह्मण

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गोपथ ब्राह्मण / Gopath Brahman

अथर्ववेद का एकमात्र उपलब्ध ब्राह्मणग्रन्थ गोपथ-ब्राह्मण है। सुदीर्घकाल तक इसके शाखा-सम्बन्ध के विषय में अनिश्चय की स्थिति रही, क्योंकि अथर्ववेद की नौ शाखाओं में से शौनकीया शाखा विशेष प्रसिद्ध और प्रचलित रही है। गोपथ-ब्राह्मण में शौनकीया शाखा के मन्त्रों का भी निर्देश प्रतीकों के द्वारा किया गया है, इसलिए इस शाखा से भी इसका सम्बद्ध मान लिया गया था। अब गोपथ-ब्राह्मण का सम्बन्ध पैप्पलाद शाखा से सुनिश्चित हो गया है, क्योंकि पतंजलि ने व्याकरण-महाभाष्य में अथर्ववेद के प्रथम मन्त्र के रूप में 'शन्नो देवीरभिष्टये' प्रभृति मन्त्र का उल्लेख किया है जो पैप्पलादशाखीय अथर्ववेद में ही प्राप्त होता है। इसका विवरण गोपथ-ब्राह्मण में भी है। वेङ्कटमाधव की 'ऋग्वेदानुक्रमणी' से भी इसकी पुष्टि होती है-
ऐतरेयमस्माकं पैप्पलादमथर्वणाम्। तृतीयं तित्तिरिप्रोक्तं जानन् वृद्ध इहोच्यते<balloon title="ऋग्वेदानु. 8.1.13" style=color:blue>*</balloon>

गोपथ-ब्राह्मण का नामकरण

गोपथ-ब्राह्मण के नामकरण के विषय में सामान्यत: चार प्रकार के मत उपलब्ध हैं-

  • ऋषि गोपथ इस ब्राह्मण के प्रवक्ता हैं। उन्हीं के नाम से इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि हुई। स्मरणीय है कि शौनकीय अथर्ववेदी के चार सूक्तों<balloon title="शौनकीय अथर्ववेदी 19.47-50" style=color:blue>*</balloon> के द्रष्टा गोपथ माने जाते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण, कौषीतकि ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण प्रभृति अन्य ब्राह्मण-ग्रन्थों की प्रसिद्धि भी प्रवचनकर्ता आचार्यो के नाम पर है।
  • 'गोपथ' शब्द यहाँ 'गोप्ता' से निष्पन्न माना गया है। अथर्वाङ्गिरसो की प्रसिद्धि यज्ञ के गोप्ता (रक्षक) रूप में है- 'अथर्वाङ्गिरसो हि गोप्तार:'।<balloon title="गोपथ ब्राह्मण 1.1.13" style=color:blue>*</balloon> 'गुप्' धातु में 'अथ' के योग से 'गोपथ' शब्द व्युत्पन्न हो जाता है। इन्हीं गोपथों से सम्बद्ध रहा है यह ब्राह्मणग्रन्थ।
  • शतपथ ब्राह्मण से गोपथ-ब्राह्मण ने पुष्कल सामग्री ग्रहण की है, इसलिए नामकरण में भी यहाँ उसी परम्परा का अनुवर्तन हुआ। 'शतपथ' के नामकरण में 100 अध्यायों की सत्ता हेतुभूत थी- और 'गोपथ', जिसका अर्थ है इन्द्रियाँ और जिनकी संख्या 11 है, में इन्द्रियों के साम्य से 11 प्रपाठक हैं। इस प्रकार संख्या-साम्य ही गोपथ के नामकरण में निमित्तभूत है।
  • डॉ. सूर्यकान्त ने एक अपना मत व्यक्त किया है जो ऋग्वेद के 'सरमा-पणि' संवाद-सूक्त पर आधृत है।[१] उस सूक्त में कहा गया है कि देव-शुनी सरमा से प्राप्त सूचना के आधार पर इन्द्र ने पणियों के द्वारा छिपाई हुई गायों का उद्धार किया था। इन्द्र के इस साहस-कृत्य में अङ्गिरसों ने उनका सहयोग किया था। गायों के पथ को ऋषि अङ्गिरस् जानते थे, और यह उनका ब्राह्मण है।

इन सभी मतों में अंशत: कुछ-न-कुछ उपादेय हो सकता है, किन्तु अधिक विश्वसनीय प्रथम मत ही प्रतीत होता है कि ऋषि गोपथ के प्रवक्ता होने के कारण इस ब्राह्मण का ऐसा नामकरण हुआ।

गोपथ-ब्राह्मण का विभाग

आथर्वणपरिशिष्ट 'चरणव्यूह' के अनुसार गोपथ-ब्राह्मण में 100 प्रपाठक कभी थे- 'तत्र गोपथ: शतप्रपाठकं ब्राह्मणम् आसीत्। तस्यावशिष्टे द्वे ब्राह्मणे पूर्वम् उत्तरं च'। सम्प्रति गोपथब्राह्मण में दो भाग हैं- पूर्व और उत्तर। पूर्वभाग में पाँच प्रपाठक हैं और उत्तरभाग में छ:। इस प्रकार समग्र प्रपाठकों की संख्या केवल 11 है। पूर्वभाग के पाँचों प्रपाठकों की कुल कण्डिकाएँ 135 हैं और उत्तर भाग में 123।

गोपथ-ब्राह्मण का आदान

ब्लूमफील्ड ने गोपथ-ब्राह्मण के उत्तरभागस्थ उन अंशों को रेखाङ्कित करने की चेष्टा की है,<balloon title="पृष्ठ. 213-220" style=color:blue>*</balloon> जो उन्हें पूर्ववर्ती साहित्य से गृहीत प्रतीत हुए हैं। नि:सन्देह उत्तरभाग में ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनका विपुल साम्य कौषीतकि-ब्राह्मण, शतपथ-ब्राह्मण तथा ऐतरेय-ब्राह्मण के सन्दर्भित अंशों से है। कुछ स्थलों पर तैत्तिरीय-संहिता और मैत्रायणी-संहिता की प्रतिच्छाया भी उन्हें प्रतीत हुई है, लेकिन वास्तव में ये वे अंश हैं, जो ब्रह्मवादियों के मध्य यज्ञस्वरूप के प्रसंग में अत्यन्त प्रचलित थे और सभी की साझी सम्पत्ति समझे जाते थे। इनके आदान का प्रयोजन अपने प्रतिपाद्य को पूर्णता भर प्रदान करना था। गहराई से सन्धान करने पर ऐसे आदान के कुछ-न-कुछ अंश सभी ब्राह्मणों में दिखाई दे जाते हैं। इन्हीं के आधार पर कुछ विद्वानों ने मूलवेद के साम्य पर किसी 'मूल ब्राह्मणग्रन्थ' का विचार भी प्रकट किया है। ब्लूमफील्ड के समय तक ब्राह्मणग्रन्थों का अनुशीलन प्रारम्भिक स्थिति में था, इसलिए उनके लिए 'गोपथ-ब्राह्मण' के प्रति समुचित न्याय कर पाना असंभव ही था। स्वयं 'गोपथ-ब्राह्मण' का ही कोई सुसम्पादित संस्करण उनके सामने नहीं था। वास्तव में, विभिन्न ब्राह्मण-ग्रन्थों में विद्यमान समानस्थल, उनकी पारस्परिक संवादशीलता के परिचायक हैं। ब्राह्मणग्रन्थों के प्रवक्ताओं का मुख्य उद्देश्य यज्ञों की अङ्गविकलता से रक्षा करना ही था, न कि अपनी मौलिकता अथवा रचना-कौशल की प्रतीति कराना। इस दृष्टि से, गोपथ-ब्राह्मण के प्रवक्ता श्लाघा के आस्पद ही सिद्ध होते हैं।

अथर्ववेदीय संहितेतर

साहित्य की आनुपूर्वी- इस सन्दर्भ में भी ब्लूमफील्ड की यह अवधारणा, कि अथर्व-साहित्य में ब्राह्मण, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र के संकलन का कालगत सम्बन्ध उलट जाता है तथा कौशिक-गृह्यसूत्र वैतान-श्रौतसूत्र से पहले रचा गया था और वैतान-श्रौतसूत्र गोपथ-ब्राह्मण से पहले<balloon title="ब्लूमफील्ड पृष्ठ 213" style=color:blue>*</balloon>, अग्राह्य प्रतीत होती है। वस्तुत: वैतान-श्रौतसूत्र गोपथ-ब्राह्मण के उत्तरभाग पर ही आश्रित दिखलाई देता है। इसी प्रकार 'कौशिक सूत्र' के 'संहिता-विधि' होने का तात्पर्य भी भिन्न है। संहिता-विधि का प्रयोजन ऋत्विजों के लिए दैनन्दिन कर्मकाण्डीय आवश्यकता की पूर्ति रहा है, जो श्रौतसूत्र अथवा गृह्यसूत्र ही कर सकते हैं। आगे चलकर, यह स्थान पद्धतियों ने ले लिया। ब्राह्मणग्रन्थों की विषय-विवेचना में विधि के साथ ही अर्थवाद, हेतुवाद, आख्यान तथा निर्वचनादि भी अनिवार्य तथा समाविष्ट रहे है, इसलिए वे दैनन्दिन अनुष्ठान-विधियों के सुबोध प्रस्तावक नहीं ही हो सकते थे। इस कार्य के लिए तो कल्प ही उपादेय हो सकता था। यहाँ तक विषय-वस्तु की व्यापकता का प्रश्न है, कौशिक ही नहीं, अन्य वेदों के गृह्यसूत्र भी कभी-कभी अपनी गृह्यकर्मों की सीमा से निकलकर श्रौत एवं अभिचार कर्मों के प्रतिपादन में संलग्न दिखलाई देते हैं। यहाँ भी इस तर्क का आश्रय लिया जा सकता है कि ब्लूमफील्ड के समय में वैदिक कर्मानुष्ठानों का अध्ययन शैशवावस्था में था, अत: उनका भ्रान्तिग्रस्त होना भी अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। इसीलिए कीथ और कलान्द-सदृश मनीषियों ने ब्लूमफील्ड के द्वारा प्रस्तावित आनुपूर्वी से वैमत्य प्रकट करते हुए गोपथ-ब्राह्मण की पर्याप्त प्राचीनता के प्रति आस्था व्यक्त की है। सन्दर्भित मतों के तारतम्य की विचेना के प्रसंग में अधिक-से-अधिक यह स्वीकार किया जा सकता है कि गोपथ-ब्राह्मण, ब्राह्मण-काल के अन्तिम चरण की रचना है।

गोपथ-ब्राह्मण में प्रतिपादित विषयवस्तु

अन्य ब्राह्मण ग्रन्थों की अपेक्षा गोपथ-ब्राह्मण में निरूपित विषय-वस्तु अत्यन्त व्यापक है। पूर्वभाग के प्रथम प्रपाठक में सर्वप्रथम अथर्ववेद के अनुसार सृष्टि-प्रक्रिया का निरूपण है। तदनुसार सृष्टि की कामना से स्वयम्भू ब्रह्म का तप, जल-सृष्टि, जल में रेत:स्खलन, शान्तजल के समुद्र से भृगु, अथर्वा आथर्वण ऋषि, अथर्ववेद, ओङ्कार, लोक और त्रयी का आविर्भाव वर्णित है। अशान्त जल के समुद्र से वरुण, मृत्यु, अङ्गिरा, आङ्गिरस ऋषि, आङ्गिरस वेद, जगत्, वेद, व्याहृतियों, शम्, चन्द्रादि तथा यज्ञ की उत्पत्ति बतलाई गई है। देवयज्ञों के संरक्षक-रूप में अथर्वाङ्गिरसों तथा दक्षिणा का भी यहीं वर्णन है। तदनन्तर प्रणवोपनिषद् है जिसमें पुष्कर में ब्रह्म के द्वारा ब्रह्मा की सृष्टि, ओङ्कार-दर्शन तथा ओङ्कार की मात्राओं से आथर्वणिक तत्त्वों, देवो, वेदों, इतिहासादि वाङमय, ओङ्कार-जप का फल, प्रश्नोत्तररूप में निरूपित है। इसके पश्चात् गायत्र्युपनिषद् है, जिसमें गायत्री मन्त्र की अत्यन्त विशद व्याख्या प्राप्त होती है। इस प्रपाठक के अन्त में आचमन-विधि वर्णित है। द्वितीय प्रपाठक की प्रथम आठ कण्डिकाओं में ब्रह्मचारी के महत्त्व और कर्त्तव्यों का निरूपण किया गया हा। तदनन्तर यज्ञ में होता प्रभृति चारों ऋत्विजों की भूमिका का विचार है। विचारक कबन्धि का उल्लेख करते हुए देवयजनादि यज्ञीय तत्त्वों की विशद मीमांसा की गई है। तृतीय प्रपाठक का विषय भी यज्ञ-विवेचन ही है। इसमें ब्रह्मा का महत्त्व विशेषरूप से निरूपित है। दर्शपूर्णमास, ब्रह्मोद्य, अग्निहोत्र, अग्निष्टोम प्रभृति का विचार बड़े व्यापक पटल पर किया गया है। चतुर्थ प्रपाठक में गवामयनादि सत्रयागों की मीमांसा की गई है। यही क्रम पंचम प्रपाठक में भी चलता रहता है। इसमें यज्ञ-क्रम, विभिन्न ऋत्विजों की वाणी आदि की प्राप्ति, अंगिरा की उत्पत्ति, ऋत्विजों के कृत्यों की विवेचना है। अन्त में बहुसंख्यक कारिकाएँ भी दी गई हैं जिनका प्रयोजन यज्ञ-क्रम के स्मरण को सुगम बनाना है। उत्तरभाग में-

  • प्रथम प्रपाठक का आरम्भ ब्रह्माख्य ऋत्विक् की प्ररोचना से होता है। तदनन्तर 12वीं काण्डिका तक दर्शपूर्णमास का वर्णन है। इसके पश्चात् चार कण्डिकाओं<balloon title="13-16 तक" style=color:blue>*</balloon> काम्येष्टियों का निरूपण है। तदनन्तर 10 काण्डिकाओं<balloon title="17 से 26 तक" style=color:blue>*</balloon> आग्रयण, अग्निचयन और चातुर्मास्यों का विवरण है।
  • द्वितीय प्रपाठक की प्रथममण्डिका में काम्येष्टियों का उल्लेख है। तत्पश्चात् क्रमश: तानूनप्त्रेष्टि<balloon title="2-4" style=color:blue>*</balloon>, प्रवर्ग्येष्टि<balloon title="5-6" style=color:blue>*</balloon>, यज्ञ-शरीर के भेद, दूसरे के सोमयाग के ध्वंस और सोमस्कन्द-प्रायश्चित्त<balloon title="7-12" style=color:blue>*</balloon> का वर्णन है। आगे स्तोमभाग<balloon title="13-15" style=color:blue>*</balloon>, आग्नीध्रविभाग, प्रवृत्ताहुतियों, सदस्जन्यकर्म, प्रस्थित ग्रहों तथा दर्शपूर्णमास<balloon title="16-23" style=color:blue>*</balloon> का निरूपण है।
  • तृतीय प्रपाठक की विषवस्तु क्रमश: यह है- वषट्कार और अनुवषट्कार<balloon title="1 से 6" style=color:blue>*</balloon>, ऋतुग्रहादि<balloon title="7-11" style=color:blue>*</balloon>, एकाहप्रात:सवन<balloon title="12-19" style=color:blue>*</balloon>, एकाह-माध्यन्दिनसवन।<balloon title="20-23" style=color:blue>*</balloon>
  • चतुर्थ प्रपाठक में पूर्वक्रम का अनुवरृतन करते हुए एकाह के तृतीय सवन का निरूपण करने के अनन्तर षोडशियाग का विधान है। इसी क्रम में पंचम और षष्ठ प्रपाठकों की सामग्री भी है, जिनमें अतिरात्र<balloon title="1-5" style=color:blue>*</balloon>, सौत्रामणी<balloon title="6-7" style=color:blue>*</balloon>, वाजपेय<balloon title="8" style=color:blue>*</balloon>, अप्तोर्याम<balloon title="9-10" style=color:blue>*</balloon>, अहीन और सत्रयाग निरूपित हैं।
  1. अथर्ववेद एवं गोपथब्राह्मण (ब्लूमफील्ड-कृत), हिन्दी अनुवाद, भूमिका, 1964 ई.पृष्ठ 9,