गोपी

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गोपी /Gopi

प्राचीन साहित्य में 'गोपी' शब्द का प्रयोग पशुपालक जाति की स्त्री के अर्थ में हुआ है। इस जाति के कुलदेवता 'गोपाल कृष्ण' थे । भागवत की प्रेरणा लेकर पुराणों में गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को आध्यात्मिक रूप दिया गया है। इससे पहले महाभारत में यह आध्यात्मिक रूप नहीं मिलता। इसके बाद की रचनाओं –हरिवंश पुराण तथा अन्य पुराणों , में गोप-गोपियों को देवता बताया गया है जो कृष्ण के ब्रज में जन्म लेने पर पृथ्वी पर अवतरित हुए। धीरे-धीरे कृष्ण भक्त संप्रदायों (विशेषत: गौड़ीय वैष्णव चैतन्य संप्रदाय) में गोपी का चित्रण कृष्ण की शक्ति तथा उनकी लीला में सहयोगी के रूप में होने लगा।


कृष्ण-भक्त कवियों ने अपने काव्य में गोपी-कृष्ण की रासलीला को प्रमुख स्थान दिया है। सूरदास के राधा और कृष्ण प्रकृति और पुरूष के प्रतीक हैं। और गोपियां राधा की अभिन्न सखियां हैं। राधा कृष्ण के सबसे निकट दर्शाई गई है, पर अन्य गोपियां उससे ईर्ष्या नही करतीं। वे स्वयं को कृष्ण से अभिन्न मानती हैं।


ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप','गोपति', और 'गोपा' शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हें। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपदमें मधुके उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं । [१] कदाचित् इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है। इस आलंकारिक वर्णन में अनेक विद्वानों , यथा मेकडानेल, ब्लूमफील्ड ने विष्णु को सूर्य माना है, जो पूर्व दिशा से उठकर अन्तरिक्ष को नापते हुए तीसरे पाद-क्षेप में आकाश में फैल जाता है। कुछ लोगों ने ग्रह-नक्षत्रों को ही गोपी कहा है, जो सूर्य मण्डल के चारों ओर घूमते हैं।


परन्तु गोपी शब्द की प्रतीकात्मक व्याख्या कुछ भी हुई हो, इसका साधारण अर्थ है, बल्कि अनेकानेक धार्मिक व्याख्याओं के बावजूद काव्य और साधारण व्यवहार, दोनों में निरन्तर समझा जाता रहा है। पशुपालक आभीरों या अहीरों की जाति परम्परा से क्रीड़ा-विनोदप्रिय आनन्दी जाति रही है। इसी जाति के कुलदेव गोपाल कृष्ण थे, जो प्रेम के देवता थे, अत्यन्त सुन्दर, ललित, मधुर-गोपियों के प्रेमाराध्य। ऐसा जान पड़ता है कि इस जाति में प्रचलित कृष्ण और गोपी सम्बन्धी कथाएँ और गीत छठी शताब्दी ईसवीतक सम्पूर्ण देश में प्रचलित होने लगे थे। धीरे-धीरे उन्हें पुराणों में सम्मिलित करके धार्मिक उद्देश्यपरक रूप दिया जाने लगा। दक्षिण भागवत धर्म आल्वार भक्ति के गीतों में गोपी-कृष्ण-लीला के अनेक मनोहर वर्णन मिलते हैं। काव्य में सबसे पहले 'गाहा सत्तसई' [२] में गोपी और उनमें विशिष्ट नामवाली राधा तथा कृष्ण के मिलन-विरह सम्बन्धी प्रेम-प्रसंग सर्वथा लौकिक सन्दर्भ वर्णित मिलते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि गोपी-कृष्ण की कथा के अनेकानेक प्रसंग लोक-कथाओं और लोक-गीतों के रूप में देश भर में प्रचलित रहे होंगे। इन कथाओं और गीतों के भाव तथा प्रसंग साहित्य में भी यदा-कदा अभिव्यक्ति पाते रहे होंगे, जिसके बहुत थोड़े से प्रमाण शेष रह गये हैं। कदाचित् साहित्य के इस अंशको शिष्ट जनों में अपेक्षाकृत कम महत्त्व मिला और इसी उपेक्षाके कारण यह नष्टप्राय हो गया। जो हो, संस्कृत में 'गीतगोविन्द' (बारहवीं शती) में उसका वह रूप मिलता है , जो आगे चलकर भाषा-काव्य में विकसित हुआ। 'गीतगोविन्द' और विद्यापतिकी 'पदावली' से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि गोपी-कृष्ण और राधा-कृष्ण की कथा का लोक-साहित्य उस समय भी भाव-लालित्य की दृष्टि से कैसा सम्पन्न और मनोहर रहा होगा।


मध्ययुग में कृष्ण-भक्ति-सम्प्रदायों ने पुराणों, मुख्य रूप में श्रीमद्भागवत का आधार लेकर गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को धार्मिक सन्दर्भ में आध्यात्मिक रूप दे दिया और गोपी, गोपी-भाव तथा राधा-भाव की अत्यन्त गम्भीर और रहस्यपूर्ण व्याख्याएँ होने लगीं। निश्चय ही इन व्याख्याओं के मूलाधार पुराण ही हैं, परन्तु उनके विवरण और विस्तार कहीं-कहीं स्वतन्त्र रूप में कल्पित किये गये जान पड़ते हैं। उनका प्रयोजन प्रतीकात्मक है।


'महाभारत' में गोपियों के सम्बन्ध में कोई आध्यात्मिक व्याख्या नहीं मिलती। हरिवंश में, जिसे महाभारत का 'खिल' कहा जाता है, कृष्णावतार का हेतु बताते हुए कहा गया है कि वसुदेव पहले कश्यप थे और कुबेर की गौ हरण करने के अपराध में शापित होकर उन्होंने गौओं के बीच स्थित गोपरूप में जन्म लिया था। कश्यप की स्त्री अदिति और सुरभी, देवकी और रोहिणी थीं। इन्हीं के यहाँ कृष्ण ने, देवताओं को ब्रज में जन्म लेने की आज्ञा देकर, स्वयं जन्म लेने की इच्छा की थी। सैकड़ो-सहस्त्रों देवता पांचाल देश के कुरूवंश और वृष्णिवंश में उत्पन्न हुए [३]। हरिवंश में स्पष्टत: कहा नहीं गया है, परन्तु यह ध्वनित होता है कि गोप-गोपियाँ भी देव-देवियाँ ही थे। हरिवंश के बाद वैष्णव पुराणों में गोप-गोपियों का दैवी उत्पत्ति –विषयक न्यूनाधिक उल्लेख बराबर पाया जाता है। श्रीमद्भागवत में भी गोपियों को देवताओं की स्त्रियाँ कहा गया है, जो वसुदेव के भवन में जन्म लेनेवाले साक्षात् भगवान् विष्णु का प्रिय करने के लिए पृथ्वीपर अवतरित हुई थीं [४]। परन्तु 'हरिवंश', 'विष्णुपुराण' और 'भागवत' की गोपियाँ फिर भी लौकिक रूप में ही चित्रित की गयी हैं, उनके विषय में कोई रहस्य-संकेत नहीं है।


'पद्म' और 'ब्रह्मवैवर्त्त ' पुराणो में गोलोक के नित्य वृन्दावन की विशद कल्पना मिलती है, जिसमें परमानन्दरूप परब्रह्म श्रीकृष्ण राधा तथा गोपियों के साथ नित्य क्रीड़ात रहते हैं। 'ब्रह्मवैतर्त' (श्रीकृष्णजन्मखण्ड) में वर्णन है कि नन्दव्रज में अवतीर्ण होने के पूर्व श्रीकृष्ण ने राधा तथा गोलोक के सब गोप और गोपियों को ब्रज में जन्म लेने की आज्ञा दी [५]। साथ ही देवी-देवताओं ने भी ब्रज में जन्म लेने के लिए गोप-गोपी का रूप धारण किया था [६] 'पद्मपुराण' के अनुसार दण्डकारण्यवासी कृष्ण-भक्त मुनियों ने भी सौन्दर्य-माधुर्य का आस्वादन करने के हेतु गोपियों का जन्म पाया था। यहीं एक दूसरे स्थलपर तांत्रिक प्रभाव के कारण वंशीरवको अनाहत नाद, कालिन्दी को सुषुम्णा तथा गोपियों को योगिनी कहा है [७]। एक तीसरे स्थलपर इन्हें 'श्रुतिरूपिणी' भी कहा गया है [८]


मध्ययुग के कृष्ण-भक्त-सम्प्रदायों ने ही वस्तुत: गोपियों की उत्पत्ति सम्बन्धी रहस्यात्मक कल्पनाएँ की हैं और कुछ आलोचकों ने यहाँ तक अनुमान किया हे कि 'पद्म' और 'ब्रह्मवैवर्त्त' पुराणों के राधा और गोपी सम्बन्धी अनेक विवरण उसी के प्रभाव हैं जो हो, गोपियों का उत्पत्ति सम्बन्धी उल्लेख अत्यन्त रोचक और विचारणीय है। निम्बार्क के सनकादि या हंस-सम्प्रदाय में कृष्ण-ब्रह्म की अचिन्त्य शक्ति को द्विविध बताया गया है- एक ऐश्वर्य और दूसरी माधुर्य। रमा, लक्ष्मी या 'भू' नामकी उनकी ऐश्वर्य-शक्ति है और गोपी और राधा माधुर्य या प्रेम-शक्ति । इस प्रकार राधा तथा अन्य गोपियाँ कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं। निम्बार्करचित 'दशश्लोकी' में कहा गया है-[९] अनुरूप सौभगारूप से कृष्ण के वामांग में आनन्दपूर्वक विराजमान, समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली बृषभानुजी को नमस्कार करता हूँ, जो सहस्त्रों सखियों द्वारा परिसेवित हैं।


गोपी सम्बन्धी सबसे अधिक विस्तार गौडीय वैष्णव (चैतन्य) सम्प्रदाय और पुष्टिमार्ग (वल्लभ-सम्प्रदाय) में मिलते हैं। गौडीय वैष्णव मत के अनुसार गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्णकी ह्लादिनी शक्ति हैं। वे अप्रकट तथा प्रकअ दोनों लीलाओं में उनके नित्य परिकरके यप में निरन्तर उनके साथ रहती हैं । श्रीकृष्ण की तरह गोप-गोपियों की प्रकट और अप्रकट, दोनों शरीर होते हैं। वृन्दावनकी प्रकट लीला में गोपियाँ भगवान् की स्वरूप-शक्ति-प्रादुर्भाव-रूपा हैं। भगवान् की ह्लादिनी गुह्य विद्या के रहस्य का प्रवर्तन उन्हीं के द्वारा होता है। वे नित्यसिद्ध हैं। रूपगोस्वामी प्रभृति चैतन्य-मत के विवेचकों ने गोपियों का वर्गीकरण करके कृष्ण की व्रजवृन्दावनकी प्रेमलीला में उनके विभिन्न स्थानों का निर्देश किया है।


'उज्ज्वल नीलमणि' के 'कृष्णवल्लभा' अध्याय के अनुसार कृष्णवल्लभाओं को पहले स्वकीया और परकीया-इन दो भागों में बाँटा गया है। रूक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती आदि कृष्णकी विवाहिता पत्नियाँ स्वकीया हैं तथा उनकी प्रेयसी गोपियाँ परकीया हैं। परन्तु गोपियों का परकीयत्व लौकिक दृष्टिमात्र से है। वास्तव में तो वे सभी स्वकीया हैं, क्योंकि उन्होंने प्राण, मन और शरीर सभी कुछ कृष्णार्पण कर रखा है। फिर भी प्रकट लीला में इन गोपियों का परकीयात्व ही स्वीकार किया गया है। परकीया गोपियाँ-कन्या और परोढा दो प्रकार की हैं। कन्या अविवाहित कुमारियाँ हैं, जो कृष्ण को ही अपना पति मानती हैं। प्रेम-भक्ति में श्रेष्ठता परोढाओं की ही है। परोढा गोपियाँ पुन: तीन प्रकार की हैं- नित्यप्रिया, साधन-परा और देवी। जो गपियाँ नित्यकालके लिए नित्य वृन्दावन में श्रीकृष्ण के लीला-परिकरकी अंग हैं, वे नित्यप्रिया हैं। ये वस्तुत: वे भक्त जीव हैं, जिन्होंने प्रेम-भक्ति के द्वारा भगवत्-स्वरूप में प्रवेश पा लिया है और जो नित्यसिद्ध गोपी-देह से उनकी लीला के अभिन्न अंग बन गये हैं। नित्यप्रिया गोपियों को प्राचीना भी कहा गया है, क्योंकि ये वे जीव हैं, जो बहुत लम्बी साधना के फलस्वरूप गोपी-देह पाते हैं। इनका गोपी-भाव भक्तों का साध्य नहीं है। उनका साध्य साधना-परा गोपियों का रूप है।


ये साधना-परा गोपियाँ यौथिकी और अयौथिकी, दो प्रकार की हैं। यौथिकी अपने गणके साथ प्रेम-साधना में संलग्न रहती हैं। यौथिकी पुन: दो प्रकार की होती हैं- मुनि और उपनिषद्। पौराणिक प्रमाणों के अनुसार अनेक मुनिगण जो कृष्ण के माधुर्यरूप का आव्वाद लेने के लिए गोपी-भावकी आकांक्षा करते हैं, गोपियों का जनम पाकर कृष्णकी ब्रजलीला में सम्मिलित होने का सौभाग्य लाभ करते हैं। ये ही मुनि-यूथकी गोपियाँ हैं। उपनिषद्-यूथकी गोपियाँ पूर्वजन्म के उपनिषद्गण् हैं, जिन्होंने तपस्या करके ब्रज में गोपी रूप पाया है।

  • अयौथिकी गोपियों का रूप उन कृपाप्राप्त जीवों को मिलता है, जो गोपी-भाव से भगवान् कृष्ण के प्रेम में रत रहते हैं और अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद गोपीरूप पाते हैं ये अयौथिकी गोपियाँ नवीना भी कहलाती हैं और इन्हें भक्ति के फलस्वरूप प्राचीना नित्यप्रिया गोपियों के साथ सालोक्य प्राप्ति होती है।
  • देवी उन गोपियों का नाम है, जो नित्यप्रियाओं के अशं से श्रीकृष्ण के सन्तोष के लिए उस समय देवी के रूप में जन्म लेती हैं, जब स्वयं श्रीकृष्ण देवयोनि में अंशावतार धारण करते हैं। उपर्युक्त कन्या गोपियाँ ये ही देवियाँ हैं जो नित्यप्रियाओं की परम प्रिय सखियों का पद पाती हैं।
  • नित्यप्रिया गोपियों में आठ प्रधान गोपियाँ यूथेश्वरी होती है। प्रत्येक यूथ में यूथेश्वरी गोपी के भावकी असंख्य गोपियाँ होती हैं। राधा और चन्द्रावली सर्वप्रधान यूथेश्वरी गोपियाँ हैं। इनमें भी राधा सर्वश्रेष्ठ-महाभाव-स्वरूपा हैं। रूपगोस्वामी के अनुसार ये सुष्ठुकान्तस्वरूपा, धृतषोडश-श्रृगांरा और द्वाद्वशा भरणाश्रिता हैं उनके अनन्त गुण हैं। राधा के यूथ की गोपियाँ भी सर्वगुणसम्पन्न हैं। राधा की ये अष्टसखियाँ पाँच प्रकार की होती हैं-सखी (कुसुमिका, विद्या आदि) , नित्य –सखी (कस्तूरिका, मणिमंजरिका आदि), प्राण-सखी (शशिमुखी, वासन्ती आदि), प्रिय सखी (कुरगांक्षी, मदनालसा, मंजुकेशी, माली आदि) तथा परम श्रेष्ठ सखी।
  1. ऋग्वेद, 1।155।5
  2. गाथा-सत्पशती
  3. हरिवंश-आदिपर्व, अध्याय 53-55
  4. स्कं0 पुराण, 1 23
  5. अ0 6| 63-69
  6. वही, 119
  7. पाताल0, 75 | 10-13
  8. वही-77।75
  9. "अंगे तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमानामनुरूप सौभगाम् । सखीसहस्त्रै: परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम् ॥"