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[[मथुरा]] नगर के पश्चिम में लगभग 22 किमी की दूरी पर यह पहाड़ी स्थित है ।  मान्यता है कि पाँच हजार साल पहले गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊँचा था । पुलस्त्य ऋषि के श्राप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है । इसी पर्वत को भगवान [[कृष्ण]] ने अपनी छोटी अँगुली पर उठा लिया था । गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है ।  गर्गसंहिता में गोवर्धन पर्वत की वंदना करते हुए इसे [[वृन्दावन]] में विराजमान और वृन्दावन की गोद में निवास करने वाला गोलोक का मुकुटमणि कहा गया है ।
 
[[मथुरा]] नगर के पश्चिम में लगभग 22 किमी की दूरी पर यह पहाड़ी स्थित है ।  मान्यता है कि पाँच हजार साल पहले गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊँचा था । पुलस्त्य ऋषि के श्राप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है । इसी पर्वत को भगवान [[कृष्ण]] ने अपनी छोटी अँगुली पर उठा लिया था । गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है ।  गर्गसंहिता में गोवर्धन पर्वत की वंदना करते हुए इसे [[वृन्दावन]] में विराजमान और वृन्दावन की गोद में निवास करने वाला गोलोक का मुकुटमणि कहा गया है ।
 
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११:४३, २५ मई २००९ का अवतरण

गोवर्धन/ Govardhan / Gobardhan

मथुरा नगर के पश्चिम में लगभग 22 किमी की दूरी पर यह पहाड़ी स्थित है । मान्यता है कि पाँच हजार साल पहले गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊँचा था । पुलस्त्य ऋषि के श्राप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है । इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी छोटी अँगुली पर उठा लिया था । गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है । गर्गसंहिता में गोवर्धन पर्वत की वंदना करते हुए इसे वृन्दावन में विराजमान और वृन्दावन की गोद में निवास करने वाला गोलोक का मुकुटमणि कहा गया है ।


पौराणिक मान्यता अनुसार श्रीगिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे । दूसरी मान्यता यह भी है कि जब राम सेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए । पौराणिक उल्लेखों के अनुसार भगवान कृष्ण के काल में यह अत्यन्त हरा-भरा रमणीक पर्वत था । इसमें अनेक गुफा अथवा कदराएँ थी और उनसे शीतल जल के अनेक झरने झरा करते थे । उस काल के ब्रज-वासी उसके निकट अपनी गायें चराया करते थे, अतः वे उक्त पर्वत को बड़ी श्रद्धा की द्रष्टि से देखते थे । भगवान श्री कृष्ण ने इंद्र की परम्परागत पूजा बन्द कर गोवर्धन की पूजा ब्रज में प्रचलित की थी, जो उसकी उपयोगिता के लिये उनकी श्रद्धांजलि थी ।


भगवान श्री कृष्ण के काल में इन्द्र के प्रकोप से एक बार ब्रज में भयंकर वर्षा हुई । उस समय सम्पूर्ण ब्रज जल मग्न हो जाने का आशंका उत्पन्न हो गई थी । भगवान श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन के द्वारा समस्त ब्रजवसियों की रक्षा की थी । भक्तों का विश्वास है, श्री कृष्ण ने उस समय गोवर्धन को छाता के समान धारण कर उसके नीचे समस्त ब्रजवासियों को एकत्र कर लिया था, उस अलौकिक घटना का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन काल से ही पुराणादि धार्मिक ग्रन्थों में और कलाकृतियों में होता रहा है । ब्रज के भक्त कवियों ने उसका बड़ा उल्लासपूर्ण कथन किया है । आजकल के वैज्ञानिक युग में उस आलौकिक घटना को उसी रुप में मानना संभव नहीं है। उसका बुद्धिगम्य अभिप्राय यह ज्ञात होता है कि श्री कृष्ण के आदेश अनुसार उस समय ब्रजवासियों ने गोवर्धन की कंदराओं में आश्रय लेकर वर्षा से अपनी जीवन रक्षा की थी ।


गोवर्धन के महत्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना यह है कि यह भगवान कृष्ण के काल का एक मात्र स्थिर रहने वाला चिन्ह है । उस काल का दूसरा चिन्ह यमुना नदी भी है, किन्तु उसका प्रवाह लगातार परिवर्तित होने से उसे स्थाई चिन्ह नहीं कहा जा सकता है । इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से कृष्णभक्त, वैष्णवजन और वल्लभ संप्रदाय के लोग आते हैं । यह पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है ।


मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जातिपुरा, मुखार्विंद मंदिर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं । गोवर्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिह्न हैं । परिक्रमा की शुरुआत वैष्णवजन जातिपुरा से और सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और पुन: वहीं पहुँच जाते हैं । पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, क्योंकि यहाँ आने से इस बात की पुष्टि मानी जाती है कि आप यहाँ परिक्रमा करने आए हैं ।


परिक्रमा में पड़ने वाले प्रत्येक स्थान से कृष्ण की कथाएँ जुड़ी हैं । मुखारविंद मंदिर वह स्थान है जहाँ पर श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ था । मानसी गंगा के बारे में मान्यता है कि भगवान कृष्ण ने अपनी बाँसुरी से खोदकर इस गंगा का प्राकट्य किया था । मानसी गंगा के प्राकट्य के बारे में अनेक कथाएँ हैं । यह भी माना जाता है कि इस गंगा को कृष्ण ने अपने मन से प्रकट किया था । गिरिराज पर्वत के ऊपर गोविंदजी का मंदिर है । कहते हैं कि भगवान कृष्ण यहाँ शयन करते हैं । उक्त मंदिर में उनका शयनकक्ष है । यहीं मंदिर में स्थित गुफा है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्रीनाथद्वारा तक जाती है ।


गोवर्धन की परिक्रमा का पौराणिक महत्व है । प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक लाखों भक्त यहाँ की सप्तकोसी परिक्रमा करते हैं । प्रतिवर्ष गुरु पूर्णिमा पर यहाँ की परिक्रमा लगाने का विशेष महत्व है । श्रीगिरिराज पर्वत की तलहटी समस्त गौड़ीय सम्प्रदाय, अष्टछाप कवि एवं अनेक वैष्णव रसिक संतों की साधना-स्थली रही है ।