चतुर्वेदी इतिहास 10

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

वशिष्ठ गोत्र

ब्रह्मदेव के 10 मानस पुत्रों में 9400 वि0पू0 से यह गोत्र प्रवर्तित हुआ। स्वायंभुव मन्वंतर के सप्त ऋषियों में ये स्थापित थे। इनकी बड़ी शालीन परंपरा है। ये ब्रह्मदेव के प्राणतत्व से अर्थात् प्राणसमान प्रियभाव से उत्पन्न हुए थे। प्रजापति दक्ष ने अपनी उर्जा (वाढा उझानी क्षेत्र स्वामिनी ब्रज में) पुत्री उन्हें दी थी तथा इस बड़े वंश के नाते यह शंकर भगवान के साढू तथा सतीदेवी के वहनोई थे। ब्रज के सांख्या चार्य कपिलदेव जी की वहिन कर्दम ऋषि (कुमदवन) की पुत्री अरून्धती भी इनकी यज्ञ ज्ञाता पत्नी थी। अरून्धती की शाखा में ही पीछे बाद में वशिष्ठ शक्ति पराशर और वेदव्यास शुकमुनि आदि हुए है। शुक पुत्र भूरिश्रवा, प्रभु, शंभु कृष्ण-गौर (गौरहेठाकुर) हुए तथा वंशिष्ठ जी को घृतात्री अप्सरा से महात्मा अपमन्यु हुए जिनका आश्रम वेदव्यास आश्रम कृष्ण गंगा के निकट सोमतीर्थ पर था जहाँ पुत्र प्राप्ति के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारिका से आकर पाशुपत दीक्षा लेकर कठोर बतचर्या युक्त तप करके सांव पुत्र पाया था तथा यहीं वेद व्यास ने अपना आश्रम स्थापित किया। श्राद्वदेव वैवस्वत मनु 6379 वि0पू0 के सत्र में पुत्र कामना के विपर्यय से श्रद्धा पत्नी की इच्छानुसार इला कन्या प्रगट हुई जिसे माता पिता दोनों को संतुष्ट रखने को महाशक्तिशाली वशिष्ठ देव ने पुत्र रूप में सुद्युम्न और कन्या रूप में इला दोनों देह दिये। सुद्युम्न (दोमन ब्रज) के राजा बने इनके पुत्र गय का गयाकुण्ड तथा विमल का विमलकुण्ड इन्द्र के स्वर्गलोक आदि बृन्दावन कामवन में अभी यथास्थान हैं।

तालजंघ और हैहयों ने जब अयोध्या नरेश बाहु को भारत से बाहर के मलेच्छों की सहायता लेकर मरवाया तब वशिष्ठ के शिष्य सगर ने उन पर चढाई कर पारद (रूद्र पार्षद पारसीक) गंधारी, कंवोडियन (कम्वोज) , (यूनानी अरवी विलोची) यवन और पल्लव (पहलवियों) का निर्मूल करना चाहा तब महाकृपालु वशिष्ठ ने इन्हें केवल अपरूप बनाकर शिखा हीन दाढी युक्त करके क्षमा कर दिया, तभी से वे वशिष्ठ मुनि के शिष्य हो गये और विश्वमित्र के वशिष्ठ आश्रम (वहुलावन) से उनकी कामधेनु कुल की नंदिनी गौ को बलपूर्वक हरण करने का प्रयास करने पर योनिमार्ग (जौनसार भावर) से आकर नंदिनी की रक्षा की और विश्वामित्र का दर्प चूर्ण कर दिया। यह असुरों द्वारा गुरूभक्ति का प्रभाव देख विश्वामित्र आहैं भरने लगे-"धिग्वलं क्षत्रिय वलं, ब्रह्मतेजो वलम् वलम्" विश्वामित्र ने वशिष्ठ के 100 पुत्रों सहित शक्ति का वध किया, आड़ी (उड़िया) और बक (बंगाली) सेनायें लड़वायी और अंत में वे वशिष्ठ के चरणों में गिरे और क्षमाशील मुनि ने उन्हें क्षमा कर ब्रह्मर्षि का पद दे दिया। नंदिनी की रक्षा हेतु भी ये ही पारद यवन काम्वोज शक पल्लव आदि मलेच्छ ही भारत में आये थे और यहीं बस कर भारतीय प्रजाओं में मिल गये।

वशिष्ठ गोत्र के प्रवर शक्ति पाराशर ही माथुर हैं। इन वशिष्ठ देव का समय 3317 वि0पू0 , शक्ति देव 3256 वि0पू0 पाराशर मुनि 3185 वि0पू0 तथा वेदव्यास देव का 3114 वि0पू0 है। वशिष्ठ का आश्रम वाशिष्ठी वन (वाटी वहुलावन), शक्ति का सकीटरा (गोवर्धन) पराशर का पराशर स्थली (पारासौली गेवर्धन) वेदव्यास का कृष्ण गंगा आश्रम तथा किशन टीला मथुरा के ही परम पुण्य स्थान हैं। वशिष्ठ के पुत्र चित्रकेतु (चित्राल के चिश्ती) गंधर्वराज थे जो आरम्भ में मथुरा शूरसेन जनपद पर शासक थे। इनके पुत्र को इनकी सौतेली माताओं ने विष देकर मार डाला, तब अति शोकाकुल मर्हिष अंगिरा (कुत्सगोत्र प्रवरी) ने योगविद्या द्वारा चैतन्य कर संवाद कराया और राजा को आत्मतत्व का मार्ग उपदेश किया। इस चित्रकेतु राजा का समय 9332 वि0पू0 हैं। वशिष्ठ की व्याघ्री पत्नि से मन्यु आदि क्रोध के पुंज देवता जो सूर्य सेनाओं के अधिपति थे। (सूर्यमन्युमन्यु पति रात्रयों देवता) थे जिनका क्षेत्र ब्रज में नूह नोहर नोहवाल जाट नौहरे आदि था। वशिष्ठ वंशियों ने राजा मुचुकुंद, रंतिदेव, श्राद्धदेव मनु आदि को यज्ञ कराये थे। ये सारस्वतों के आदि पुरूष सारस्वत ऋषि के भी गुरू थे।

वशिष्ठ और विश्वामित्र का कलह प्रसिद्ध है। सूर्यवंश की पुरोहिताई, देवों और ऋषियों में सन्मान, नंदिनी कुल का गोवंश आदि कई कारणों को लेकर यह संघर्ष चला । वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ विश्वमित्र के 50 पुत्र तालजंघों की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ (यूनानी पारसी मिश्री अफगान अरब) हो गये तब हार मान कर विश्वामित्र इनके शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमा दान देकर उदारता से ब्रह्मर्षि रूप से स्वीकार कर लिया। वशिष्ठ ने श्राद्ध देव मनु 6379 वि0पू0 को परामर्ष देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बटवाकर दिलाया। ये सभी शूरसेन देश मथुरा के माथुरों के शिष्य थे। इक्ष्वाकु ने 100 रात्रि का कठोर तप करके सूर्य देवता की सिद्धि प्राप्त थी की और वशिष्ठ को गुरू बनाकर उनके उपदेश से अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्या (आयुधधारी संघ जिससे युद्ध करने का कोई साहस न करे) ऐसी पुरी स्थिपित करायी और वे प्राय: वहीं रहने लगे। वशिष्ठ मुनि की दूसरी पत्नि अरूंधती स्वायंभूमनु के जामात्ट कर्दम मुनि 8932 वि0पू0 (कुमुदवन आश्रम) की पुत्री तथा सांख्य शास्त्र सर्व प्रथम मानव वंश के तत्वज्ञान दर्शनशास्त्र के आविष्कार महर्षि कपिल (8867 वि0पू0) की वहिन थीं। इन्हीं से माथुर गोत्र प्रवर वशिष्ठ शक्ति पाराशर तथा महामहर्षि वेद व्यास शुकमुनि आदि उत्पन्न हुए। माथुर वशिष्ठ आरम्भ से सूर्यवंश के सम्राटों , वैवस्वतमनु 6379 वि0पू0 इक्ष्वाकु 6310 वि0पू0 , नृग 6369 वि0पू0, शर्याति 6307 वि0पू0 नभग 6305 वि0पू0 तथा इला बुध वंश 6369 वि0पू0 का चंद्रवंश के परम सन्मानित राजपुरोहित पद पर प्रतित्ठित रहे। रघु 4181 वि0पू0 , अज 4126 वि0पू0 दशरथ 4086 वि0पू0 तथा श्रीराम भगवान 4024 वि0पू0 के भी पुरोहित रहे। उनने दशरथ को पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया, श्री रामजी को जातकर्म चौल, यज्ञोपवीत विवाह कराया और राम की राज्याभिषेक की पूरी व्यवस्था इन्ही के द्वारा हुई। ये इक्ष्वाकुवंशी कुवलयाश्व धुंधमार 5946 वि0पू0 धमार गायन के आदि प्रवर्तक के, युवनाश्व 5612 वि0पू0, मांधाता त्रसदस्युयौवनाश्व 5576 वि0पू0 हरिश्चंद 5262 वि0पू0 सगर 4925 वि0पू0 दिलीप 4811 वि0पू0 भागीरथ 4771 वि0पू0, सिन्धु द्वीप 4670 वि0पू0 , दाशराज्ञ युद्ध के विजेता वेद वणित सम्राट सुदास 4475 वि0पू0 , आदि सभी के कुल परम्परा पुज्य राज पुरोहित रहे। वशिष्ठ ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा 9400 वि0पू0 के यज्ञ के आचार्य रहे और तप के प्रभाव से पुष्कर सरोवर से प्रगट कर सप्त स्त्रोता नंदा सरस्वती को अपने मथुरा क्षेत्र में लाये और उसका यमुना में संगम कराया।

वैदिक काल की देव नदी सरस्वती की 7 धारायें थी इनमें से प्रथम कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर वशिष्इ ने 100 पुत्र पाये थे, राजस्थान की सरस्वती (मरूत्वती घघ्घर) मुनि दुर्वासा के शाप से बालुका समुद्र में लुप्त हो गई, द्वारिका की प्रत्यक् सरस्वती अभी भी अपने स्थान पर अपने नदी चिन्ह के रूप में हैं और वर्षा ऋतु में प्रगट प्रवाहित होकर अपने आस्तित्व की साक्षी देती है। इसी सरस्वती के प्राचीन जल प्रपात महासरोवर बहुलावन में महर्षि वशिष्ठ अपनी ब्रह्मदेव से प्राप्त वहुलावंश (वहुत सुस्वाद अमृतमय दुग्ध प्रदा) की गायों को लेकर रहते थे। वशिष्ठ अयोध्या में शरण्यू शतयूपिका (सरयू) के ब्रज में आदि नंदा सरस्वती के, मरूस्थल में मरूतवती सरस्वती के तथा अपने बहुलावन में बहुला सरस्वती, मधुवन में मधुमती कुमुदवन में कुमुद्वती, गोवर्धन में मानसी, कामवन में कामगा, चरणपर्वत बन में चरणगंगा आदि नदियों के प्रगटकर्ता थे तथा इन ही की ही सिद्ध भूसिंचन विद्या , पुण्यतीर्थो की प्रेतोद्धार क्षमता के शिल्प कौशल से प्रेरणा पाकर राजा भगीरथ ने भागीरथी गंगा का अवतरण 4448 वि0पू0 में किया जो आज भी भारतवर्ष की सबसे बढ़ी पुण्यप्रद और जल सिंचन आधार बनी राष्ट्र संवर्धक महान नदी है। इस प्रकार वशिष्ठ कृषि सिंचन प्रणाली के तो आदि प्रवर्तक थे ही वे गोपालन औरं गोवशं संवर्धन और गोवशं विकास और गोमहिमां तथा गो पूजन के वेद शास्त्रों में श्रेष्ठ महत्व दिये जाने की संस्कृति के भी प्रथम आचार्य थे। उन्होंने गोसंवर्धन क्षेत्र गोवर्धन पर्वत के अनेकों बनों से युक्त आदि ब्रन्दावन जो भागवत के मत से विपुल जल तृण वृक्ष फल पुष्पों से परम ससृद्ध था उसमें गोवंश के विकास के कार्य में सभी देवों को प्रेरित करगो भक्त बनाया तथा उनके द्वारा विकसित वंश की बहुला कामधेनु नंदिनी सुरभी कपिला श्यामा धवला आदि गायों में सर्वक्षेष्ठ नंदिनी के वंश की गौ को प्राप्त करने के लिये देव असुर मुनि सभी अति आतुर रहते थे।

इस हेतु को लेकर ही उनका विश्वामित्र , सहस्त्राबाहु आदि से कलह हुआ तथा इसी वंश की गोमाता की सेवा और गोपय प्राशन व्रत का अनुष्ठान कराकर उन्होंने महाराजा दिलीप 4811 वि0पू0 को भगीरथ जैसा यशस्वी तेजस्वी पुत्र दिया। अन्य क्षेत्रों की सरस्वती धारायें लुप्त हो जाने पर इनने मथुरा के सरस्वती संगम तीर्थ पर सप्त सारस्वत तीर्थ की स्थापना कर धार्मिक श्रद्धालु प्रजा को सातों सरस्वतियों के स्नान दान का फल प्राप्त करने की सुविधा दी । इसी सिंचन विद्या से इनने संवरण राजा के राज में वारबार अकाल पड़ने पर (सावर काँठा में) सावर मती माही तपती नर्मदा आदि नदियों का प्रवाह संयत कर सिंचन व्यवस्था से उस देश को वृक्षों खेतों लता पत्रों फलो पुष्पों शाक धान्य से परिपूर्ण कर जन संरक्षण का महान प्रयास किया। वशिष्ठ वंश (गोत्र) की महिमा का बहुत विस्तार है जो सभी यहाँ देना सम्भव नहीं है।

वशिष्ठ वंशी धीर वीर ज्ञानी शांत क्षमाशील सर्वोपरि ब्रह्मज्ञानी योगी, तपस्वी, लोक कल्याण संवर्धक , विश्व पूज्य तथा ब्रह्मर्षि प्रवर पद प्राप्त थे। वशिष्ठ वंश के रचित अनेक ग्रन्थ अभी उपलब्ध हैं जो लोक शिक्षा और दुर्लभ विद्याओं के आकर ग्रन्थ हैं। वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र , वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति , वशिष्ठ श्राद्ध कल्प, आदि इनमें प्रमुख हैं। वेद वक्ताओं में वशिष्ठ ऋग्वेद के 7 वे मण्डल के प्रणेता हैं तथा 9 वें मंडल में भी इनके वंशधरों के अनेक मंत्र हैं। इनके विरोधी और बाद में कृपा पुष्ट विश्वामित्र के भी वशिष्ठ द्वेषी मंत्र ऋग्वेद में हैं। विश्वामित्र द्वारा शक्ति का वध , सौदास कल्माषपाद का पौरोहित्य, के मंत्र भी ऋग्वेद में हैं।

प्रवर- तीन प्रवरों में प्रथम वशिष्ठ पदस्थ (तिलकायत) वशिष्ठों का वर्णन हो चुका अब इस परम्परा में उन वशिष्ठ 3339 वि0पू0 के प्रवरों का जो माथुरों के गोत्र संस्थापक थे उनके वंश की विस्तृति इस प्रकार हैं-


शक्ति - ये वेदव्यास के तीन पीढी पूर्व के वशिष्ठ के पुत्र थे। इनका समय 3296 वि0पू0 है। इनने अपने पिता से प्राप्त विद्या और प्रताप से विश्वमित्र को शास्त्रवाद में परास्त किया जिससे क्षुब्ध होकर विश्वामित्र ने अपने क्रूर शिष्य सौदास कल्याषपाद द्वारा इनका 100 भाइयों सहित बध करा डाला। जिससे वशिष्ठ अति शोकातुर होकर प्राण त्याग उद्यत होकर विपाशा तट के क्षेत्र में गये जहां पाशवद्ध होकर नदी में कूदने पर भी वे पाशमुक्त हुए। शक्ति की मृत्यु के समय उनकी पत्नि गर्भवती थी। गर्भशिशु ने गर्भ के भीतर से ही इन्हें वेदपाठ सुना कर आशन्वित किया कि मैं आपके तेज को धारण किये हुए हूं। लम्बे समय के बाद उस गर्भ से मुनिवर पाराशर का जन्म हुआ। शक्ति वध कल्माषपद (कलमा पढ़ने वाले) राक्षस समूह की मैत्री से राक्षस बने राजा और उसकी राक्षस सेना द्वारा हुआ , इस घटना का वर्णन ऋग्वेद में हैं। इस राजा के कारण ही राक्षसों म्लेच्छों यवनादिकों का प्रवेश भारत के राजवंशों में हुआ। शक्ति का आश्रम ब्रज का सकीटरा गांव है।

पराशर - ये वेद व्यास के पिता मथुरा के माथुर थे। ये 3240 वि0पू0 में वशिष्ठश्रम (बाटी गांव बहुलावन) में जन्में तथा गोवर्धन पर्वत के निकट अपना आश्रम वनाकर रहे। ये महा तपस्वी तेजस्वी और अनेक विद्याओं के पारंगत थे और अनेक शास्त्रों के रचयिता रहे। गर्भ में से ही इनने वेद मंत्रों का पाठ अपने दादा वशिष्ठ जी को सुनाकर निराश जीवन में आशा का संचार देकर उन्हें आनंदित किया। वशिष्ठ इनकी अदृश्यन्ती माता के उदर के समीप कान लगाकर सुनते और अति आनंदित होते थे। इनने तीर्थयात्रा के मार्ग में मथुरा की यमुना धार के मध्य अपना तपोतेज मत्स्य कन्या काली (उपरिचरवसु कन्या) में स्थापित कर बालक वेदव्यास को जन्म दिया जो मथुरापुरी के प्रमुख क्षेत्र माथुरों के आवास स्थल यमुनाद्वीप या कृष्णादीप में माथुरी माताओं द्वारा पाले पोसे जाकर तथा माथुर महामहर्षियों द्वारा वेदादि समग्र विद्याओं और ग्रन्थों को प्राप्तकर सहासमर्थ विश्व के संस्कृति और साहित्य के सर्वश्रेष्ठ मूर्धन्य शास्त्र प्रवर्तक बन गये। पराशर ने अपने पिता के वध का बदला लेने को अपने आश्रम में राक्षस मेध सत्र किया जिसमें भारत से राक्षस वंश को मंत्रो द्वारा हवन कुंडों में भस्म कर देश को राक्षसों के आतंक से मुक्त करने का सराहनीय संकल्प था पराशर के इस महाबिकट प्रचंड आयोजन से राक्षस और उनके पूर्वपुरूष पुलस्त्य पुलह कृतु महाकृतु और उनके पुरोहित अत्रि चंद्रदेव (चंद्रसरोवर) भयभीत हो उठे। वे अपने बन्धु वशिष्ठ के पास आये और अपने वंश की रक्षा के लिए याचना करने लगे। वशिष्ठ के साथ वे राक्षस सत्र में पहुंचे जहां रज्जूबद्ध असुर राक्षस दैत्य दानव बंधे खड़े थे। उनने पराशर से प्रार्थना की वे उन राक्षस प्रमुखों को मुक्त करें क्योंकि वे मूलत: तो ब्राह्मण पुत्र ऋषियों के वंशज ही हैं। पुत्र पराशर तुम यह तो ध्यान करो कि इनमें प्रहलाद वलि वृषपर्ती आदि जैसे देवभक्त भी हुए है। वशिष्ठ ने भी पराशर को ब्राह्मण के क्षमाधन की महता और क्रोध भाव के अधर्म से मुक्त होने की शालीनता का उपदेश किया और गुरूजनों के आग्रह से यह सत्र बीच में ही भंग हुआ। पराशर ने इस यज्ञ की अभिचार अग्नि को तब हिमालय पार के अरवस्थान , सहारा, अफगान, विलोच तातार, साइवेरिया आदि देशों के विशाल प्रदेशों में उत्सर्जित कर दी जो महा ज्वाला समूम वायु, मिट्टी का तेल, बारूद के खेल (आतिशबाजी) बन कर उन देशों को जलहीन रेतीला और परस्पर घात प्रतिघात से अपने ही कुलों को नष्ट करने वाला रूप धारण कर अपना काम पूरा कर रही है। पराशर भारतवर्ष के अद्वितिय प्रतिभा सम्पन्न महर्षि थे। उनके रचे ग्रन्थों की संख्या बहुत बड़ी है, इनमें ज्योतिष ग्रंथ पराशर संहिता, पराशर होराशास्त्र , आयुर्वेद ग्रंथ, पराशर-तंत्र, वृद्धपराशर तंत्र, हस्त्यायुर्वेद, गवायुर्वेद , बृक्षायुर्वेद , पाराशर कल्प, विमान विद्या पर पाराशर विमान तंत्र महाग्रंथ पाराशर स्मृति बृहत पाराशर संहिता, पाराशर सिद्धांत , विष्णु पुराण, पाराशर नीतिशास्त्र , पाराशर वास्तुशास्त्र पाराशर गीता (भीष्म ने युधिष्ठर से कही) आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं पराशर वेद मंत्र कर्ताओं में भी श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किये हुए थे। ये विष्णु देवता नारायण के उपासक थे जिन की भक्ति का प्रितपादन इन्होंने अपने पुत्र वेदव्यास के आग्रह से 18 पुराणों की संख्या के अंतर्गत 'विष्णुपुराण' की रचना करके किया था। महाभारत की सूचना से ये रूद्र देव के (भूतेश्वर चक्रेश्व कामेश्वर) रूपों के भी भक्त थे। पुष्कर तीर्थ में भी इनने कुछकाल बास किया था और वहां के शिष्यों को ब्रह्मदेव की उपसना प्रदान कर उन्हें पाराशर ब्राह्मण संज्ञा देकर अपने प्रिय शिष्य स्वीकार किया था। इनके ही तेजस्वी वंश में शुकमुनि (परमंहस) तथा ब्रह्मदत्त योगी, आदि हुए। व्यास परम्परा आज भी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ पदवी युक्त मानी जाती है।

अल्लैं- इगके आस्पद (अल्ल) इस प्रकार हैं----


1. काहौ– ये कहो़ड ऋषी के वंशज हैं । कहोड ने नवीन धान्य से यज्ञ हेतु अग्नि स्थापन विधि का प्रवर्तन किया । ये याज्ञवल्क्य 2929 वि0 पू0 के समकालीन थे । ये उद्दालक के शिष्य थे तथा जनक सभाविजेता अष्टावक्र ऋषि इसके पुत्र थे ।

2.बट्ठिया – स्वायंभूमनु 9000 वि0 पू0 के शासित प्रदेश ब्रह्रावर्त में निवास करने के कारण ये ब्रह्रावर्तिया बठ्ठिया संज्ञा से प्रसिद्ध हुए हैं ।

3. दारे- श्री कृष्ण के प्रिय ब्रन्दारण्य (वैदोखर नंदगांव) में 3107 वि0 पू0 में श्री कृष्ण रक्षक बन कर जाकर रहने वाले माथुर ब्राह्राण व्रंदारक वृंदारे या दारे हैं ।

4. खोखावत- ये व्यास कालीन कोकामुख तीर्थ पर तप करने से कोकावत से खोखावत हुए हैं ।

5. सात- सप्तसारस्वत तीर्थ सरस्वती संगम मथुरा कुरूक्षेत्र की सरस्वती के तट पर तपोनिष्ठ स्वायंभूमनु के सप्तऋषियों के यश परिचारक । सात्वतों के गुरू ।

6. निनौलिया – नारायण नेत्रवासिनी आदि योगमाया नैनादेवी के नैनसरोवर शम्याप्राश व्यास बन (सेऊ ब्रज) में शमी भक्षण करके नैनादेवी के उपासक, अथवा ब्रज के नमक वितरण केन्द्र नौनेरा गांव (नमक की मंडी) लवणासुरपुर के निवासी ।

7. डुंडबार- भक्त प्रहलाद 8874 वि0 पू0 को होली में लेकर बैठने वाली ढूढार देश(कोटा बूंदी जैपुर) की ढुंढा राक्षसी(ढांडनियां) के प्रजाजनों के प्रोहित । चंदरासो में पृथ्वीराज और चौहान वंश को ढुंढा (देवी) का वंश चंद कवि ने मान्य किया है ।

8. उटौलिया- ऊंट पर बैठैकरफिरने वाले । मरूवन्य देश (राजस्थान) में भ्रमण करने वाले । ऊटालर गाँव के निवासी ।

9. जौनमाने- यवन मान्य । मनु और कृष्ण कालीन प्राचीन कालयवनादि वंशो की परम्परा में आने वाले सिकन्दर सैलूष (सैल्यूक्स) तथा उनके भारत दर्शन को आने वाले यूनानी यात्रियों विद्वानों को मथुरा का प्राचीन वैभव दिखलाने बतलाने जैन स्तूपों बिहारों मठों संघारामों सनातन धर्म के देव मन्दिरों घाटों तीर्थों वन उपवनों की यात्रा कराके उनकी भाषा में उन्हें भारत ज्ञान देने बाते उनसे तीर्थगुरू का सन्मान प्राप्त करने वाले ।

मीठे चौवों में कुछ पृथक अल्लै

10. पैंठवार – पुरूरवा की राजधानी ब्रज की प्रतिष्ठान पुरी(पैठोगांव) में जाकर बसने वाले ।

11. किंझरे- कंजाक्ष( कज्जाकस्तानी कंजर) तथा हिमालय किन्नौर क्षेत्र के किंन्नरगण (वैदिक किंपुरूष) जो ब्रज में कंझौली क्षेत्र में बसे थे । उनके सहवासी जन । किंन्नर नृत्य गान कुशल उपदेव थे जिनका राग कान्हडा माथुरी नारियों द्वारा 'कनहरी' के नाम से मंगल कार्यों के आरम्भ में बडे समारोह के साथ मिठाई आदि वितरण के साथ सम्पन्न होता है । प्रधान कन्हरीगानकर्त्री वयोवृद्धा को वस्त्र पात्र रूपया मिष्ठान आदि देकर सम्मानित किया जाता है । श्री कृष्ण का किन्नरोपम मधुर मोहक गान के कारण ही कान्हा कन्हैया नाम हुआ । बंबई को अंचल में माथेरान और कन्हैरी गुफायें माथुरों के समुद्र तट तक अपने उपनिवेश स्थापन करने के संकेत देते हैं ।

12. बहरामदे- ये अबकर बादशाह के संरक्षक मुगल सरदार बैहराम खां (वैरम खां) के आश्रयवर्ती रहे थे । 1613 वि0 में जब हुमांयू की मृत्यु हुई और अकबर गद्दी पर बैठा उस समय उसकी 13 वर्ष की आयु के समय बालक बादशाह की राज्य व्यवस्था सभालने में बहराम खां का खास संरक्षण था । अकबर अपने शाहजादाकाल में पंजाब का जगीरदार था । जहां वैरमखां ही उसका सरपरस्त मीर जुमला बड़ा हाकिम था । अकबर के आगरा राजधानी में आने और आगरा समृद्धि और वैभव विस्तार में वैरमखां का योगदान सर्वोपरि था ।

13. तेहरिया- व्यास कालीन भागवत में प्रस्तुत विदुर मैत्रेय संवाद के ब्रह्राज्ञान तत्ववेत्ता मैत्रेय जिनवा आश्रम व्रन्दावन के क्षेत्र में तेहरा गांव तथा पांडवों के इन्द्रप्रस्थ महानगर में तिहाड था तथा जिनके वंशधर बाद में बौद्ध धर्म के अर्हत हो गये थे । पुराणों के अनुसार मैत्रेय पांचाल देश के राजा दिवोदास पुत्र मित्रेयु का पुत्र था । प्रथम यह आंगिरसारें का शिष्य था पीछे भृगु वंशियों में सम्मिलित हो गया । इसका वेदव्यास से धर्मतत्व संवाद "व्यास मैत्रेय संवाद" तथा श्रीकृष्ण का उद्धव को प्रदत्त सर्वोपरि ज्ञान संवाद जो इसने विदुर को उपदेश किया भागवत में हैं । मैत्रेय की बौद्धकालीन विशाल प्रतिमा मथुरा संग्रहालय में दर्मनीय हैं ।

14. मोरेसरिया- मथुरा जनपद में मौर्य सम्राटों का राज्य केन्द्र मौर्यश्री मुडेसी गांव में इनका निवास होने से मौर्यश्रीय ही मौरेसरिया प्रसिद्ध हुए ।

15. मैंठिया- अवष्ठ नरेशों की राजधानी अमैंठी अंवष्ठपुरी के निवासी होने से अमैठिया मेठिया नाम से प्रसिद्ध हुए ।

16. सिहोरिया- ब्रज के सिंहोरा (नृसिंह वंशी सिंहों का पुर) के वास से प्रसिद्ध ।

17. जुनसुटिया- यदुओं की जनुष्ठी शाखा के परिवर्तित नाम से विख्यात ये ब्रज के अजमीढ यादव वंशी जन्हु 4268 वि0 पू0 के जिनके जानूऔ जनूथर जुनसुटी जुन्हौती जान्हवी गंगा का प्राचीन प्रदेश, जन्हुकूप शान्तनुकुंड हैं उस वंश के प्रोहित जनुष्ठी तथा जुनसुटी में जाकर बसने वाले झुनसुटिया कहलाये । जन्हुऋषि बन गये थे ।

18. रिसिनियां- अंवरीष टीला(प्राचीन अंवरीषपुर) के माथुर चतुर्वेद पुर( टीला चौवियान) जहां पहिले चौवो के पूर्वज रहते थे तथा जिसके निकट ही माथुरों की आंगिरस यज्ञ स्थली थी उसके निवासी । यह स्थान टीला चौबियान के नाम से अभी भी उल्लिखित हैं जो उस टीले का ही रूप मात्र है ।

19. जैतिया – ब्रज के अजित शेषनाग के तपोवन जैतगांव में बसे माथुर जैत में प्राचीन नाग मूर्ति सरोवर तट पर हैं जो कितनी गहरी है यह खोदने पर ज्ञात नहीं हो सका है । मीठे चौवों की इन अल्लों से प्राचीनता के साथ इनका ब्रज के इन गांवों में जाकर बस जाना भी इतिहास पुष्ट है । आश्चर्य तो यह है कि अल्लों पर विचार करने वारले महानुभावों ने इनके मूल तथ्यों पर न पहुंच कर इन्हें मनमानी अंधकार युगीन तथा निरर्थक कह दिया है ।