चतुर्वेदी इतिहास 14

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

माथुर धर्म विवेक

श्रीमान् परम हंस संन्यासियों के श्रेष्ठ आचार्य, व्याकरण न्याय आदि शास्त्रों के पारंगत विद्वान, यम, नियम आसन, प्राणायम, प्रत्यौहार धारणा, ध्यान, समाधि आदि आठ अंगों वाले योग के धारण से निष्ठायुक्त तपश्चर्या के करने वाले चक्रवर्ती सम्राट, अनादि काल से निरन्तर चली आने वाली गुरु परंपरा से प्राप्त हुए ये मतों का सिद्धान्तों की स्थापना के आचार्य, तीन सांख्य शास्त्रों के प्रतिपादक वैदिक मार्ग के प्रवर्तक, समस्त वेद शास्त्रों के सारयुक्त ह्दय वाले श्रीमान् सुधन्वा के साम्राज्य को सथापित करने वाले आचार्य, श्रीमान् राजाधिराजों के गुरु, भूमण्डल के आचार्य, चारों वर्णों के शिक्षक, गोमती के तीर पर बसी हुई श्रीमती द्वारिकापुरी के अधीश्वर, पश्चिम में गुरु परम्परा से प्राप्त संप्रदाय से युक्त श्रीमान् शारदापीठ के अधीश्वर ब्रह्मज्ञानोपदेश श्री मान् केशवाश्रम स्वामी के कर कमलों से स्थापित हुए श्री शारदापीठ के अधीश्वर श्रीमान् राज राजेश्वर श्री शंकराश्रम स्वामी के द्वारा शिष्य कोटि में प्रविष्ट हुए अनेक प्रकार की कलाओं के विलास भवन समस्त देशीय ब्राह्मणों को, तथा श्रीमान् महाराज पुरूषों को निर्विरोध ईश्वर के ऐक्यानुसंधान से निश्चित, नारायण के स्मरण से भली भाँति सूचित आशीर्वाद प्राप्त हो ।

जगद्गुरु, भगवान महेश्वर के अन्य अवतार, पूज्यपाद श्रीमान् भगवान् शंकराचार्य के आदिम एकान्त के स्थान द्वारिकास्थ श्रीमान् शारदापीठ से सम्बन्ध रखने वाली भक्ति ही इस समय मानव के असीम कल्याण की कारण है, इस बात को सभी जानते हैं ।
अनन्तर इस समय मनोहर मधुपुरी(मथुरा) में निवास करने वाले, "चौबे" इस दूसरे पर्याय वाचक नाम से प्रवहन्त माथुरों की जाति पर इधर उधर से होने वाली सामयिक अनेक शंकाओं के स्वरूप पर धर्मालोचन या विचार करने से उसके निर्णय विशेष को ग्रहण करने की इच्छा के कारण प्रसस्त प्रार्थना वाले, वहां के ब्रह्मज्ञानोपदेश आचार्य के पद से अंकित श्रीमान् वासुदेव एवं रज्जु शर्मा के लिये ता अन्य शिष्ट यनों के लिये पराभव नामक संवत्सर के आश्विन मास की पूर्णिमा तिथि में जब की सूर्य नारायण अस्त हो रहे थे यहाँ इस मथुरापुरी में इस विज्ञप्ति की व्यवस्था दी गई ।

क्या माथुर चतुर्वेदी ब्रह्मण पंचद्राविणों के अन्तर्गत हैं !
श्री माथुर चतुर्वेदियों का श्रेष्ठ ब्राह्मणत्व!

कृतर्कवादियों का मान मर्दन

क्या ये माथुर चतुर्वेद दश ब्राह्मणों के अन्तभूर्त हैं या इनसे बाहिर किसी अन्य जाति में अन्तर्भूत होते हैं या कोई अन्य स्वतन्त्र ब्राह्मण हैं इस प्रकार स्वयं इनके विषय में जिज्ञासा पैदा हो जाती है, यद्यपि-'समुख-तस्त्रिवृतं निरमीत, गायत्र्या ब्राह्मणम् । ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् । चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुण कर्म विभागश :- इत्यादिक श्रुति स्मृतियों में उनके स्वरूप का परिचय कराया है इससे उसके आवान्तर भेदों से भिन्न किसी स्थान के कारण से बिलक्षण जातीयता तो नहीं पाई जाती । तथापि-'आन्ध्र द्रविड़ कर्नाटा महाराष्ट्रश्च गुर्जरा: पञ्चैते द्रविड: ख्याता विन्ध्य दक्षिण वासिन: । सारस्वता: कान्यकुब्जा गौड़ा उत्कल मैथिला: पञ्च गौड़ा इति ख्याजा विन्ध्यस्योत्तर वासिन: ।। इन कूर्म पुराण के वाक्यों के तात्पर्य को सोचने से जो श्रति स्मृति में सामान्य रीित से कही है दश प्रकार से ब्राह्मण पाये जाते हैं । कदाचित् यहाँ पर यह शंका की जाय कि-उक्त बचनों में-'आन्ध्र बगैरह देशों के नाम लेकर और वहाँ के ब्राह्मणों का प्रतिपादन कर जो कि मूल बचन से पाया जाता है सिर्फ ये ही दश ब्राह्मण हैं और कोई नहीं हैं' – यह बात तो अनुकूल नहीं प्रतीत होती । इसके उत्तर में इतना ही कहना पर्याप्त है कि ये कूर्म पुराण के बचन प्रामाणिक ही मानने चाहिये यदि ये कहा जाय कि-' सर्वे द्विजा कान्यकुब्जा: माथुर मागधं बिना' इत्यादि बचन से माथुर मागध आदि ब्राह्मणावांतर भेद पाया जाता है सो यह बात नहीं है क्यों कि इस वचनों का कोई पोषक प्रमाण नहीं पाया जाता है ।

उक्त वचन न कूर्म पुराण में तथा न किसी अन्य पुराण में पाया जाता है और न किसी मयूखादि ग्रन्थों के संग्रहकार ने इस बचन को उद्धृत किया है और न हमारी जानकारी में ही है । किंतु इसी पूर्वाद्ध के आगे कहे गये कान्य कुब्जा द्विजा श्रेष्ठा, कूर्म एवहि केवलम् इस वाक्य विशेष के समझने से तथा विद्वानों के विचारों से उक्त वचन की निर्मूलता ही प्रती होती है और यह वचन केवल कान्य कुब्ज ब्राह्मणों की प्रशंसा परक है यदि मागध और माथुरों से अतिरिक्त सब वर्गों के ब्राह्मण कान्य कुव्ज ही कहाते हों तो हम (आगमो ऽभ्यधि को भोगद्विजा पूर्वक्रमागतात्) इस याज्ञ वल्क्य स्मृति के कहे हुए न्याय के अनुसार यदि व्यवह्त होते उक्त वचन को हम प्रमाण मान सकते हैं ? किंतु विचार करने से पता चलता है कान्य कुब्जों को छोड़ कर और कोई ब्राह्मण अब तक इस दुनियाँ में न कान्य कुब्ज कहायें और न हैं ही । किंतु जो हैं वे उसी नाम से संसार में व्यवह्त होते हैं उक्त स्मृति के उतरार्ध इस वाक्य से कि-(आगमेऽपि बलं नैव भुक्ति: स्तोकाऽपि यत्रनो) 'सर्वे द्विजा' यह बचन संदिग्ध होता ही बाधित समझना चाहिये क्यों कि सबका कान्य कुब्ज-त्वेन व्यवहार नहीं पाया जाता कान्य कुब्ज ब्राह्मण तो व्यावर्तक भूत अपने नाम से ही युक्त पहिचाने जाते हैं और ब्राह्मणों के खासकर कुलादिक धर्मों से इनका कोई संबन्ध भी नहीं रहता है । माथुर और मागधों के कान्यकुब्जत्व के अभाव की तरह कभी किसी की बुद्धि में यह तो आही नहीं सकता कि ये ब्राह्मण नहीं हैं क्योंकि 'सर्वेसैं द्विजा: कान्य कुब्जा' इस बचन के बल से समरत ब्राह्मण जाति के कान्य कुब्ज कहने से कान्य कुब्ज वर्ग की घटितता से उद्देश किये गये माथुर मागधों को कान्य कुब्जत्व होते हुए भी किसी प्रकार कान्य कुब्ज ब्राह्मणों से माथुर मागधों को पृथग् धर्मता से (युक्त) किया गया है । केवल पृथग धर्म दिखाने से ही इन दोनों में ब्राह्मण त्वा ऽभाव शंकित नहीं करना चाहिये क्यों कि इनके ब्राह्मणत्वाभाव सूचक पद उसमें कोई नहीं दीखता है इसमें कारण स्पष्ट ही है कि बिना सम्वादक वचन के संवाध्य की प्रतीति अर्थवती नहीं होती । यदि अपनी परम्परा से माथुर ब्राह्मण कुश्ती कसरत करने वो भांग पीने वाले अनाप सनाप वकने वाले जब ये हैं तब फिर कैसे इनकी ब्राह्मण जाति में गणना की जाय इस विचार में यह कहा जात सकता है कि अपने रस वीर्य ताक़त बढ़ाने के वास्ते भले ही परम्परा से अभ्यास की हुई ये मल्ल कला इनके दूषण के लिये नहीं अपितु भूषण के लिये ही हैं क्यों कि स्वरूप के अनुरूप् रक्षा करने के लिये ये मल्ल किया सबके लिये ही अभीष्ट है ।

कृष्ण, बलदेव, भीमसेन प्रभृति की व ऐसे ही अन्य शिष्ट पुरूषों की भी मल्लकला का चातुर्य पुराणेतिहासों में अच्छी तरह बताया गया है । तब से लेकर ब्रज भूमि की राजधानी मथुरापुरी में रहने वाले ब्राह्मणों में भी ये मल्ल कला प्रचलित है । इससे कोई ब्राह्मणत्वाऽभाव सूचक दोष नहीं लगता । दोष तो, ‘शंखचक्राद्यंकनं व गीतनृत्यादिकं तथा एक जाते रयं धर्मों न जातु स्याद् द्विजमन:' अर्थात् शंखचक्र से चिन्हित होना, गाना नाचना इत्यादि धर्म एक जातिका है' द्विजातिका नहीं, इस स्मृति कार के निन्दा जैसे इन हीनाचार क्यों होने की कही गई है ऐसे ही जो केवल जीविका के लिये ही मल्ल विद्या धारण करते हैं उनके लिये वास्तव में ब्राह्मण त्वा भाव सूचक है ही । इनका भाँग पीना भी सहसा उस अब्राह्मणता का सूचक नहीं मानना चाहिये क्योंकि व्यसनियों का व्यसन अपनी जातिका खंडक नहीं माना जाता है । जैसे यद्यपि श्रुति में लिखा है ' न कलञ्जं भक्षयेत्' अर्थात् कलञ्ज भक्षण न करे भगवान् विद्यारण्य मुनिने कलंज शब्द का अर्थ उन्मार्ग जनक: पर्ण चूर्ण विशेष किया है । निषेध से भाग का निषेध पाया जाता ही है क्योंकि भाँग पीने से कुछ चित्त की विभ्रान्ति होती है तो भी प्रकीर्णका दिसा धारण दोषों में यह दोष आही माना है किंतु इससे ब्राह्मणता का अपहरण किसी तरह नहीं होता । वस्तुत: ऐसी कोई भी वस्तु जिससे कि मन वाणी शरीर का कुमार्ग में ले जाना जिसका नतीजा होता हो वह सभी निषिद्ध जाननी चाहिये, ऐसे ही ऐसी नशा आदि की चीजों से बचना भी तपस्या रूप होने से अच्छा फल वाला माना जाता है ।

जैसा कि मनुजी ने कहा है- 'व्यसन और मौत के बीच में व्यसन बहुत दु:ख दायक होता है क्योंकि व्यसनी हमेशा नीचे से नीचे की तरफ गिरता रहता है अब्यसनी मरा हुआ स्वर्ग जाता है अस्तु' । यदि यह शंका की जाय कि 'मागधों माथुरश्वैव कापट: कीट कानजौ, पञ्चविप्रा न पूज्यन्ते बृहस्पति समा यदि' इस अत्रि स्मृति के बचन से माथुरों की अपूज्यता ही प्राप्त होती है तो इसका उत्तर यह दिया जाता है कि- यहाँ पर मथुरा में जो यात्री आते हैं वह सब इनको अपनी परम्परा से पुरोहित पदवी के होने के कारण पूज्य ही मानते हैं । जबकि ये किन्हीं कारणों से (भंगादि दोषों से) अपूज्य होने लगे तब से ही अत्रि स्मृति का प्रकीर्णक श्लोक इनके प्रति प्रवृत्त हुआ मालुम पड़ता है यह श्लोक सदा के लिये नहीं है । इसी वजह से 'पूज्यन्ते' इस पद में लकार का प्रयोग किया गया है यह लट् का प्रयोग तत्काल में वर्तमान ब्राह्मणों के संनिधान में समस्त रूप में तत्कालीन माथुर ब्राह्मणों की अमान्यता का सूचक नहीं है क्योंकि लट् लकार का प्रयोग त्रैकालिक अर्थ को व्यक्त न करता हुआ केवल वर्तमान कालिक अर्थ को ही प्रतिपादित करता है । और यह भी नहीं कहा जा सकता है कि स्मृति बचन के समय में मौजूद रहते हुए ये अपूज्य माने जाते तथा भविष्य में इनकी सन्तान भी अपूज्य मानी जाय क्योंकि ऐसा देखा गया है कि कभी किसी नदी, तालाब, बृक्ष आदि में कोई विकार पैदा हो जाता है तो वह दोष कालान्तर में फिर दूर हो जाता है , इसीसे इस स्मृति में अन्यान्य ब्राह्मणों की पूज्यता के समान भाव वाला विशेष पद अपूज्यता को बताता हुआ पूज्यता को प्रतिपादन करने वाले माथुरों में भी ऐसे युक्त संगत हो जाता है जैसे, 'यह अब्राह्मण है जो खड़ा हो पेशाब करता है' और 'यह अब्राह्मण है जो खड़ा खड़ा खाता है' अर्थात् इन क्रियाओं से उसकी अपूज्यता है न कि जातिगत अमान्यता । क्यों कि कहा भी है- ब्राह्मण होते हुए भी जिन्होंने वेदाध्ययन, व्रत, नियम सामान्य रीति से छोड़ दिया है और स्वच्छन्द भीख मांगते फिरते हैं, वे नामधारी ही विप्र, दंड पाने के योग्य हैं' ।

इस प्रकार पद 2 पर बड़े लोगों के कहे हुए-कल्याणकारी अर्थ से आजकल के माथुरों को कभी भी प्रमाद न करना चाहिये और न उससे होने वाले तिरस्कार को भी भूलना चाहिये , क्योंकि कहा भी है- 'काठ का हाथी चमड़े का मृग तथा वे पढ़ा ब्राह्मण ये तीनों केवल नाम धारी हैं । भगवान वसिष्ठ ने तो यहाँ तक कहा है कि जिस गांव में बिना पढ़े लिखे तथा ब्रत न करने वाले और कोरी भीख मांगने वाले ब्राह्मण रहते हों उन ब्राह्मणों को राजा को चाहिये कि दंड दे क्योंकि वह गाँव चोरों का मददगार है ।' श्रुति में लिखा है, तप, शास्त्र, योने ये तीनों ब्राह्मणत्व के संपादक है, जो तप और शास्त्र से हीन होता है वह केवल ब्राह्मण जाति वाला तो है ही इस श्रुति से इनके ब्राह्मणत्व में तो कोई दोष नहीं आता, केवल तप और शास्त्र के न होने के कारण ही उस समय में इनकी अपूज्यता स्मृति में बता दी गई है । यदि इनकी सन्तान परम्परा से ही इनकी अमान्यता होती चली आती तो उन्हीं ब्राह्मणों की सन्तान के मूलभूत आद्य शंकराचार्य जी अपने दिग्विजय के समय में छोटे बड़े वर्णाश्रमों के श्रेणी विभाग के प्रबन्ध करने वाले केरलीय, ब्राह्मणों की तरह इस माथुर ब्राह्मणों का बहिष्कार कर दिया गया होता जो कि अब भी पाया जाता है किन्तु दिग्विजय के वर्णन में यह बात स्पष्ट भी नहीं की गई है । इसलिये इस बेतुकी बात को हम आगे नहीं बढ़ाते । लेकिन जो स्मृति में 'बृहस्पति समा यदि' इनकी मान्यता का निषेध स्पष्ट दीख रहा है वह भी इनके भांग पान, बुरा बोलना आदि छुपाये न जा सकने वाले दोषों के कारण ही दीखता है । ऋषि का केवल आवेश के वश से या उपहास के लिये यह वचन मालूम नहीं पड़ता है । इस लिये आजकल के माथुरों को इस जाने हुए दोषों के दूर करने का उपाय करना चाहिये ।

अब इनके ब्राह्मणत्व की और इनकी पूज्यता का समाधान हो जाने पर ये विचार उत्पन्न होता है कि ये द्राविणों में गिने जांय या गौड़ों में इसमें हमारी सम्मति से द्राविणों में ही गणना की जाय क्योंकि वैदिक निबन्धों से और परम्परा से श्रेष्ठ जो आश्वलायनी और राणापनी ऋग्वेद, सामवेद की शाखाओं का द्वधिणादि दाक्षिणात्य देशों में हैं जैसे तैसे हो यहाँ पर भी माथुरों में यथामति अपनी प्रणाली से प्रचार पाया जाता है । अगर ये गुर्जर या गौड़ों में अन्तर्गत माने जाते हैं तो शांखायनी और कौथमी शाखा की प्रवृत्ति होनी चाहिये थी । इनमें यजुर्वेदियों के न होने से तैत्तीरीय शाखा की प्रवृत्ति तो बिलकुल ही प्रतीत नहीं होती । रूद्राऽभिषेक आदि में तो ग्राह्म शत रूद्रियाऽवर्तन के प्रसंग होने पर तैत्तिरीय शाखा के विधान से ही यथा योग्य उसका आवर्तन करना पाया जाता है । सुहृद होकर बाजसनेयी शाखा वाले रहते भी हैं लेकिन उनकी शाखा में शतरूद्रिया-वर्तन का पता आज तक किसी याक्षिक को नहीं लग सका है और परम्परा से इन माथुरों का इन शाखाओं से कोई संसर्ग नहीं हैं । इनके लड़कों का 11 साल के पहिले ही अत्यन्त श्रद्धा सेकिया गया उपनयन विधान आज तक देखा जाता है और इतनी ही अवस्था में लड़कियों के विवाह भी इन लोगों में पाये जाते हैं । बाकी के भी संस्कार गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त उसी तरीक़ा के प्राय: शास्त्रीय विधि की रक्षा के लिये स्थान पाये हुए हैं ।

पहिले किसी समय में यक्ष के वक़्त बनावटी भूख से भोजन मांगते हुए भगवान् कृष्ण से इन माथुरों ने इस कारण से निषेध कर दिया था कि अपने को यज्ञ के बीच में ही उनके उच्छिष्ट हो जाने का डर था । इस उदाहरण से स्पष्ट है कि माथुरों में बड़े 2 वैदिक विद्वान पहिले ही से होते रहे हैं । यदि यह शंका की जाय कि मथुरा में जो रहते हैं वे माथुर होते हैं तो चौबों से अतिरिक्त वैश्य, कायस्थ आदि को का नाम भी माथुर पड़ता है और इससे भी अधिक जो वस्तु मात्र मथुरा में होगी वह सब सेन्धव शब्द की तरह माथुर ही कही जायेगी फिर चौबों का ही नाम माथुर हो इसमें क्या विशेष युक्ति है इसके उत्तर में यह कहना है कि- किन्हीं 2 कारणों से वैश्यादिकों में भी उपलक्षणों से माथुर शब्द का व्यवहार किया भी जाता है तो भी मुख्य बृत्ति से चौबे ही माथुर पद से चिन्हित सुने जाते हैं जैसे कि महाभारत के सभापर्व, भागवत का दशमस्कन्ध, वाल्मीकि रामायण का उत्तराकाण्ड तथा बाराह पुराण में लिखा हुआ है और यह न्याय भी है कि 'पुरोहित के गोत्र वाले क्षत्रिय आदि होते हैं- ' इसलिये मथुरा में रहने वालों के माथुर ब्राह्मण पुरोहित हो सकते हैं । इसलिये वैश्य, कायस्थादिकों में भी माथुर पद का व्यवहार प्रतीत होता है । यह कह नहीं सकते कि आज कल ये माथुर ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थादिकों के पुरोहित होते ही नहीं , क्योंकि पहिली और पिछली प्रतीति को कायम रखने वाली (निर्वाहक) मथुरापुरी की मर्यादा ही इनके पुरोहित्व की संपादन करने वाली होती है ।

'माथुरों मागधा' इस स्मृति में आया हुआ माथुर पद भी इसी (ब्रह्मणत्व) अर्थ के साधकता में हम सब लोगों के सामने स्पष्ट झलकता है । जैसा कि सैन्धव पद के सुनने से नौन या घोड़े आदि की प्रतीति हो जाती है इसी तरह माथुर पद से माथुर ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की प्रतीति नहीं होती हैं । अप्रतीति होने से हम अनुमान भी नहीं कर सकते क्योंकि इसमें कोई साधक लिंग नहीं पाया जाता और जब कि अनुगत प्रतीति ही नहीं है तो फिर किसी प्रकार की संभावना भी नहीं हो सकती । यही मान्य बंधा है । इस लिये ब्रह्मत्व, पूज्यत्व, पुरोहितत्व आदि धर्म होने से माथुर ब्राह्मण भी अन्य ब्राह्मणों के समान ही माने जाने चाहिये । अगर इनकी मूलोपपत्ति के विषय में विचार किया जाय तो द्वारकानिवासी जैसे गुग्गुली ब्राह्मणों की भगवान् बालखिल्य की सन्तानभूत बहुत सी शाखाओं में श्रेष्ठ होने से और उन्हीं में से किसी अन्यतम शाखा वाले गुग्गुली ब्राह्मण होते हैं, इसी तरह मथुरा में अतीत अनन्त काल से रहने वाले माथुर ब्राह्मणों के आविर्भाव का मूल भी पद्म पुराणदिकों से पाया जाता है । इससे अधिक कार्य क्या । यह लेख भगवत्पूज्यपाद जगद्गुरु शंकराचार्य के अवतार सूचक शक 2365 विक्रम शक- 1951 पौष वदी 13 चंद्रवार की लिखा गया है । क्योंकि उस समय मथुरा में आपकी स्थिति थी ।

श्री जगद् गुरु महाराज ने माथुरों को पंचद्राविणों के अंतर्गत माना है जो वर्तमान स्थिति पर आधारित है । आप श्री ने इस ओर ध्यान नहीं किया कि मूलत: दक्षिण भारत के तीर्थ दक्षिण मथुरा, दक्षिण काशी, दक्षिण मायापुरी, (हरिद्वार) दक्षिण अयोध्या (औंध सितारा) प्रयाग द्वारिका से पूर्व के उत्तर भारत के तीर्थ हैं । आश्वलायनऋषि उत्तर के ब्रह्मर्षिदेश के थे रामायण वेदव्यास के सामशिष्य कृष्णगंगा मथुरा के निवासी थे मथुरा की एक शाखा मथुरा क्षेत्र में द्वादश वाषिय महादुभिक्ष (विश्वामित्र) के साथ में दक्षिण गयी और वहाँ अपने वंश दक्षिण (द्रविणोदा) के नाम से ज्ञात रही । उविणों में मुथुस्वामी मुझखिया अभी होते हैं किन्तु माथुरों में दिर्खाणया, दाखेड. से कहलाते । यजु को माथुरों ने वैशेयम्पायन याशवल्क की ब्रह्मवह के कारण तथा अथर्व के आसुर वेद होने के कारण स्वीकार नहीं किया ।

श्री जगद्गुरु शंकराचार्य महाराज यात्रा में माथुर कुल रत्न श्री डिव्वारामजी चौबे की आयोजित व्यवस्था में मथुरा पुरी में तीर्थबास करते हुए विराजे थे । उन्होंने उत्तम पांडेजी को अपना तीर्थ पुरोहित निर्धारियत कर तीर्थ विधि दर्शन यात्रा की थी तथा लेख लिखा था यह उनके एक पत्र से जो उन्होंने 1951 भाद्रा शुक्ल 2 के अपने पर्यटन शिविर हाथरस नगर से लिखा है, और जिसमें श्री डिव्वारामजी को पूर्ण सम्मानितरूप में भक्तिभाव के साथ संबोधित किया है ज्ञात होता है । ये मूल आलेख उनके पौत्र श्री कुंजबिहारीलाल पांडे के पास थे । यह माथुर चतुर्वेद ब्राह्मण समाज की अमूल्य धरोहर हैं जो अनुवाद सहित 16 पृष्ठों में हैं । इसका समग्र रूप में प्रकाशन अत्यंत आवश्यक है ।

कल्किदेव की धर्म स्थापना के बाद बौड़मत का भारत से अंत हो गया, तथा वेद यज्ञमय सनातन धर्म के प्रवाह में राजकेन्द्रों में अश्वमेद्य यज्ञ होने लगे । शुंगों के प्रथम सम्राट पुष्यमित्र ने 1274 वि0पू0 से अपने 34 वर्ष के राज्यकाल में अयोध्या मथुरा पाटलिपुत्र आदि में कई अश्वमेघ कर यज्ञों की परंपरा चालू की जिसको कण्वों, आंध्रभृत्य सातवाहनों, राष्द्रकूटों, मालवों, वाकाटकों शकों, नागों और गुप्तों ने निरन्तर प्रगति प्रदान की । माथुर मागध सम्पर्क का एक अति महत्वपूर्ण प्रतिफल यह सामने आया कि मगध के विशाल साम्राज्य से क्षत्रिय सत्ता का क्षय होकर ब्राह्मणों के हाथ में महान शासन की बागडोर आयी, ख़ास कर ये ब्राह्मणवंश ब्रजमंडल मूल के थे और माथुरों से विशेष संपर्क युक्त थे ।

शुंग भारद्वाज गोत्रिय ब्राह्मणों का केन्द्र सैंगरपुरा मथुरा था, सोगरिया ।
सैंगवार माथुर इस वर्ग में थे, कण्व सौश्रवस गोत्र के प्रवरी ।।

देवराट् के पुत्र थे, यदुवंश के पुरोहित होने से ब्रज के कण्वाश्रम (कनवारौ) में सुन्हैश पर्वत के समीप निवास करते थे, घोर काष्व कृष्ण के ब्रह्मविद्या गुरु थे, शुनक व्यास शिष्य शौनक के पिता थे जो शौनकपुर (सौंख खेड़ा) में गोवर्धन के समीप के निवासी थे । शिशुनाग मथुरा के अनंत शेष तीर्थ के अधिपति, मौर्य ब्रज के मयूरबन मोरा गाँव के प्राचीन निवासी, तथा सातवाहन आंध्र दक्षिणी ब्राह्मण थे । श्री शंकराचार्य काल में मथुरा के ब्राह्मण कितने विश्व व्यापी ज्ञान और यश के अधिकारी बन चुके थे इसकी जानकारी एक उद्धरण से ज्ञातव्य है । पारसी संप्रदाय के मान्यग्रंथ 'शातीर' में जो 413 वि0पू0 का है लिखा है- जब फारस में जरथुस्त नाम का धर्म प्रचारक अपना मत प्रचार करने लगा तब वलख के लोगों ने उससे शास्त्रार्थ करने को हिन्दुस्तान से एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण बुलाया । ग्रंथ का यथावत उद्धरण इस प्रकार है- 'एकन् विरेमने व्यास नाम अजहिन्द, दानाकिइल्मोहुनरमंद चुना अस्त, चूँव्यास हिन्दी-वलख आमद, गश्ताश्प जरस्तरख रव्वा नन्द'- अर्थात् एक ब्राह्मण व्यास नाम वाला यहाँ हिन्द देश से आया है, वह बड़ा ज्ञान और बुद्धि का समुद्र है, क्योंकि यह महात्मा व्यास हिन्द देश से वलख में आया है-फारस के बादशाह गश्तास्प ने तब अपने प्रधान पण्डित जरथुस्त को उसके सामने बुलाया । व्यास ने जरथुस्त से कहा -'मन मरदे अम हिन्दी निजाद' मैं हिन्दू देश का उत्पत्र हुआ पुरूष हिन्दू हूँ । शास्त्रार्थ लंबा चला और महात्मा व्यास देव जरथुस्त को परास्त कर हिन्दुस्तान लौट आये । अखिल विश्व में ख्याति प्राप्त ये महात्मा मथुरा के महर्षि वेद व्यास के आश्रम (प्रघान व्यास पीठ) के (वशिष्ठ गोत्रिय माथुर) प्रधान पीठाधीश ही हो सकते हैं । उस समय के मथुरा के यमुना तट वासी ब्राह्मणों की जीवन चर्या भी ध्यान देने योग्य है-'यव भोजी भूमिशायी पत्रभुक् जितमानस: ब्रह्मचारी मौनव्रती

सौमारि कहते हैं- ये ब्राह्मण, जौ का सत्तू खाने वाले, धरती पर सोने वाले, शाक पत्र दूर्वा शमी पर निर्वाह करने वाले, ब्रह्मचारी मौनव्रत धारी, और अपने मन को पूरी तरह वश में रखने वाले हैं ।

1069 वि0 में सौराष्ट्र के पाटण राज्य के नरेश मूलराज के आयोजित यज्ञ में समस्त भारत से श्रेष्ठतम ब्राह्मण बुलाये गये, इन 1037 चुनिंदा ब्राह्मणों में 100 सामवेदी सरयूतट अयोध्या के, 200 यजुर्वेदी कान्यकुला देश के, 100 यजुर्वेदी काशी के, 100 यजुर्वेदी कुरूक्षेत्र के, 100 ऋग्वेदी हरिद्वार के, 100 ऋगवेदी नैमिषारण्य के, 105 यजुर्वेदी प्रयाग के, 100सामवेदी यमुना तट च्यवना श्रम (चूनाकंकड़) मथुरा के तथा 132 ऋग्वेदी पुष्कर तीर्थ के थे जिन्हें- 'मूलदेव नृपति: समदात्स, ग्रामदान मति श्रेष्ठ जनेभ्य: राजा मूलदेव ने इन्हैं परम पूज्य पण्डित मानकर 500 ग्राम दान में दिये । माथुरों की वेद विद्या का चमत्कार- 964 वि0 में भट्ट दिबाकर (ब्राह्मण) नाम के एक विद्वान ने माथुरों से विद्या पढ़कर समुद्र पार कर काम्बोज देश(कम्पूचिया) की यात्रा की । वहां पहुंच कर उसने हज़ारों शिष्य बनाये और वहाँ की रानी से विवाह करके अपनी सन्तति को वहाँ के राजशासन का अधिकारी बनाया । कम्पूचिया के एक प्राचीन शिलालेख से यह ज्ञात हुआ है- वे ही दिवाकर भट्ट अपनी 'मथुरा वर्णन' रचता में लिखते हैं-' जहाँ सुन्दर कलिंदी (यमुना) प्रवाहित होती है, छत्तीस हज़ार माथुर ब्राह्मणों द्वारा तीनों काल गायें जाने वाले ऋक यजु साम की मन्त्र ध्वनियों से जहाँ की सारी भूमि प्रतिध्वनि होती रहती है, जहां कृष्ण ने कालियानाग का मर्दन किया, दैत्यों को मारा और बचपन में मनोरम बाल क्रीड़ायें कीं उसी मथुरा में मैं भट्ट दिवाकर पैदा हुआ हूँ ।

1074 वि. में गजनी के महमूद ने अपने नौवें हमले का मथुरा को शिकार बनाया । हमला भयानक था माथुरों ने इसे 'बड़ौ साकौ' कहा है । मुसलमानी इतिहास लेखकों ने जो लुटेरों हत्यारों और भारत शत्रुओं के टुकड़ों पर पलते थे, अपने मालिकों को खुश करने और बहुत सा इनाम पाने के लिए इस हमले को बहुत बढ़ा चढ़ कर लिखा है और कूटनीतिज्ञ गोरे इतिहास कारों तथा उनके चेलों ने इन्हीं को इतिहास क्षेत्र में प्रचारित कर भारत के राष्ट्रीय गौरव मनोबल और शौर्य को कुचलने का प्रयास किया है । भारत के प्रत्येक देशी राज्य और राजवंश के पास अपने अपने इतिहास हैं किन्तु इन्हैं खुशामदे इतिहास कह कर उपेक्षित कर दिया गया है जबकि भारतीय मनोबल और राष्ट्र गौरव को नीचे गिराने वाले विदेशी लेखकों के दुर्भावना लिप्त वर्णनों को हम सही प्रमाण मानते आ रहे हैं यह महान आश्चर्य की बात है ।

गजनवी के हमले को 'बड़ौ साकौ' के रूप में चम्पति कवि का लिखा हुआ प्राचीन पत्र हमें प्राप्त हुआ है । इस साके को श्रीबाराहदेव मन्दिर में कार्तिकमास के अत्र कूट के अवसर पर प्रसाद पाने के एकत्रित माथुर मण्डली के आग्रह पर मदनदादा नाम को एक वयोवृद्ध बड़े उत्साह और गम्भीर स्वर में सुनाते थे जो इस प्रकार है-

दोहा- गजनी बारौ महमदा, दल बादल सौ छाइ ।
रावल तक डायौं कटक, मथुरा घेरी सो आइ ।।
जै रतनेसुर नगरपति, जै महाविद्या माइ ।
चौबेन मौ साकौ कहौं, सब सुनियो ध्यान लगाइ ।।
छन्द- आयौ महमदा अर्राती, होरी की झर सौ झर्रातौ ।
मन्दिर देव किये औंधे, चौबे बनिया सब रौंधे ।
महल हवेली ठाड़े रोवें, घाट वाट मरघटा में सौंमें ।
चौबे गूजर जादों अहीर, मूँड लिपेटैं कफ्फन चीर ।
लाठी सोटा फरसा बल्लम, जो पायौ सो लियौ अगल्लम ।
मार मार की परी पुकार, मच्यौ पुरी में हाहाकार ।
बेर छौंकरा हींस उपारे, लै लै चले जौम के मारे ।
भठ्ठिन तेल के चढ़े कढ़ाउ, पानी को खलबल खदकाउ ।
भाटा ईंट धरे असमानं, बज्र गिरैं नभ भौकी खानं ।
तीर चढ़ावत लिए कमण्ठा, बाज्यौ काल बली कौ घंटा ।
ज्वाला लोचन भैरौ रूप, फरकल अंग उछंग अनूप ।
कोउ पाइ न पांछै धरियौ, नीच मलेछल छाती छरियो ।
मथुरा मैया प्रान हमारी, याके काजैं सरबस बारी ।
ए आये ए आये हल्ला, पानी उतरे पार मुसल्ला ।
चमकाउत नंगी तरबारा, टोप मुंड घोड़न असवारा ।
घोड़ा झपटत शीश उतारें, हू अल्ला अल्ला डुंकारैं ।
पैलोई मन्दिर तिंडुक ईस, तड़ तड़ तौर्यो खल रजनीस ।
बरसन लगे गनन ते भाटा , ताकी मार जवन दल फाटा ।
झार झूकटे म्हौड़ेन परे, लोऊ लुहार गिरे घुड़चढ़े ।
हवसी कसविन मंद्र गिरायौ, ठाकुर पूजा कौ धन पायौ ।
चूनाँ कंकर चढ़े लुटेरे, महल हवेली लूट विखेरे ।
अवला रोमें बालक विलखैं, अधम भेड़िया कूदैं किलकैं ।
पुर गोपाल बड़ों देवालौ, सोतौ सात देवन संग घालौ ।
खार बजार कूद कैं आये, नगर भूतिया कटक घंसाये ।
चौबेन औ गढ जोधन खेरौ, तहाँ गजनीदल विप्रन घेरौ ।
लट्ठन फोरीं घोरन टाँगैं, फरसन कटै पनाही मांगे ।
जोड़िनु फोरे चपटासीस, भालय छेदे उदर खबीस ।
भादों की झर पथरा परैं, औधे म्हौंडेन गिरगिर परैं ।
गैंल गिरारे नलोथन टीले, माथुर मल्ल परैं नहीं ढीले ।
चौवच्चा पुर चढि नहीं पाऐ, वीरभद्र घटिया पै खाए ।
परिगई संझा अथयौ भान, मुठी प्रान लौटे खसियान ।
तेल उबलतौ खदकत पानी, धार परत गज सुन्ड समानी ।
पैने तीर परत बौछार, होत जिरह बखतर के पार ।
 कूतड़ सूकर मूसा बिल्ली, छप छप छपक गिरत छपकिल्ली ।
धूर राख गोवर पुनि कूरौ, बरसै धुंधूकाल भभूरौ ।
लैंड़ा मूत गिरैं सिर आइ, लत पत भए गऐ घबराइ ।
दोहा- हाल देख सुलतान हूँ, भौं पाथर कौ खम्भ।
ये जौहर बामनन में, मुझ को बड़ा अचम्भ ।
काल तुमहु बरछान सम्हारौ, काफर कोट नबूद कर डारौ ।
दूजे द्यौस परौ फिर हल्ला, दोऊ ओर जूझे रन मल्ला ।
पदम नाथ देवालै ढायौ, जवन कटक तहाँ बहोत कटायौ ।
चौबे कटे हज़ारन रून्डा, लुढकत घरनी अगनित मुन्डा ।
मनि कंचन बटोर खल लीने, और साज बिखरे तजि दीने ।
खारी कूआ धन धन्नो माता, दोऊ कर खरग डटी खल घाता ।
रनचन्डी बीजुरी समाना, खरग घात काटे जु पठाना ।
कट कट काटि बिछाए मुसल्ले, चरनन तरतफ घाइल कल्ले ।
एकु न आगैं वढवे पाई, खाप्पर भरै चामुन्डा माई ।
परौ मुसल्ला दल में हल्ला, या रहीम या अल्ला अल्ला ।
एक नीच पाछे ते आई, दियौ पीठ में खरग घुसाई ।
तोऊ न गिरी लौट खल मारौ, महिसासुर को सीस उतारौ ।
जै मथुरा देवी मेरी मैया, राखियो लाज विप्र कुल रैया ।
बजी दुन्दुभी भेरी जानी, धनियाँ घन्न विमान बिराजीं ।
घन्ना मन्ना खंगू गदना, माथुर वीर डुंकारौ मदना ।
माथुरवीर जमन ललकारे, सहस सहस्त्र रौंद महि डारे ।
पकरि मुंडते मुंड बजाये, टांग टांग धरि चीर गिराये ।
मथुरादेवी घेरा पार्यों, अन्ध मलेच्छ नहीं परत निहार्यो ।
चढे दीर्घ विस्नू पै हरे, केसौपुर केसौ ललकारे ।
फाटिक तोर देव दोऊ खंड़े, जादौं गूजर बीर उमंडे ।
मारे मरे महाबल बीरा, जूझे जोभ महा रनधीरा ।
कटे पुजारी छोड़ न भाजे, मन्दिर सीस कुठारा बाजे ।
दोहा- त्राहि त्राहि महिदेव मुनि, इत हू करौ सहाइ ।
सब धन लेहु जु इत धयौ, केसौं लेउ बचाइ ।।
धन पै धूर प्रानन की परी, अपुनौ घर राखन की घरी ।
जो हीरि रची सो अदबद होई, याकौं मैटि सकै नहीं कोई ।
तब काबुलियन मन्दिर ढायौ, टीड़ी दल सौ दल उमड़ायौ ।
मन्दिर द्वहारे कोठ खजाने, सब तोरे लूटे मन माने ।
बारै दिवस कठिन दिन राती, कीनी तोर असुर उतपाती ।
बस्ती एक मजूर न पायौ, तब गुलाम दल काम लगायौ ।
मन्दिर ढाइ कसाई राखे, मांस बजार कियौ मद छाके ।
याही बीच असुरं की सेना, बहु देवनतौ रे मद ऐनां ।
नारी एक नगर नहिं पाई, प्रजा सतोहा बन पहुंचाई ।
बौला बन बन खन्डी भारी, तहाँ माथुर कुल रिच्छापारी ।
मुखरारी कौंनई जसौंदी, कुसमां कानन टौड़ बसौंधी ।
तोरे देवल गिनियो नामां, विचलित कर मन करत न कामा ।
देव गतसरम अठभुज माया, जादौं राइ जनम थल छाया ।
गरूड़ केसौ बारहाइ मुरारी, देव स्वयंभू गिरबर धारी ।
अंग्ब चर्चिका देवी वारैं, लांगुर पिपला देवनि हारैं ।
वज्रनाभ कौ महल विशाल, जमुना तट धन कोस निहाल ।
सोमेस्वर सिव अन्नपूरना, कार्पिलेसुर सिव व्यास उरनां ।
सिव गोकरन कौ मंद्र बिसाला, अस्वमेघ बामन मखसाला ।
अंवरीस कौ ऊँचौ मन्दिर, धन ते भरौ विंदुसर कदर ।
लिखौं कहाँ लौं लिख्यौ न जाई, बानी बुद्धि गती चकराई ।
पत्ता टूकन पढि सुनि गाई, चंपत माथुर जोर बनाई ।
सुनौ मिहारी सब सरदारा, जै जै होत उछाह अपारा ।
येह साकौ माथुर कुल केरौ,जुग जुग पावै मान घनेरौ ।
नर कौ मौल हाड़ नहीं मांसा, साहस धीर धरम बिसवासा ।
खरग धार जिन धरमुन त्यागौ, प्रानन मोहन मन अनुरागौ ।
वे जन घन्न अमर पुरबासी, कादर जीवत मरे दुरासी ।
कछू कुल कादर गरव जिहीने, जीव रखान पलाइनु कीने ।।
नहीं बगदे गांमन में छाए, मिठ बोला मीठे कहवाये ।
करूऔ पीतों करूए रहे, कुलमरजादा मधुपुरी गहे ।
मथुरा रही अमर सुख छाई, यमुना मैया सदा सहाई ।

माथुरों का यह साका एतिहासिक है । इस समय मथुरा में भदृ दिवाकर के कथन से छत्तीस हज़ार माथुरों की बस्ती थी । कहते हैं इनमें से दो हज़ार माथुर कटे मरे, बीस हज़ार नर नारी दूर भाग गये ? मथुरा में छै हज़ार पुरूष और आठ हज़ार नारी वर्ग कुल चौदह हज़ार जन बल शेष रह गया। सोने चाँदी की मूर्ति नहीं थीं ? शैलमयी मूर्तियों की सेवा और उत्सव श्रृंगार का अपार साज सामान स्वर्ण और रत्न मय था । मथुरा नगर की बस्ती गूजर जाटों अहीर, वैश्य कारीगर सब मिलाकर 60-70 हज़ार रही होगी । इनमें से भी बहुत लोग कटे मरे और भागे । गजनबी का गुलाम बनकर कोई नहीं गया जो पकड़े गये उनने पत्थरों से सिर पीटकर अन्न जल त्याग कर और अचल आसन जमाकर प्राण त्याग कर दिये ।

इस समय का महावन का कूलचन्द राजा धारानगरी के परमार राजा भोज का सेनापति था जिसने कई बड़े युद्ध जीते थे तथा संभवत: महावन में किला बनाकर मथुरा पर राज कर रहा था ।
महमूद को मथुरा में रसद मिलना खतम हो गया सिफाही भूखे मरने लगे और 21 वे दिन वह भाग गया । धन कितना मिला मालुम नहीं होता- गौंडल के इतिहास के अनुसार उसने 100 ऊँट लूट के माल से लादे थे । गजनवी 1087 वि0 में गजनजी में मरा और 1097 वि0 में तातारी सलजौक कबीला उसका सारा धन लूट ले गया । यह धन 10 वर्ष भी उसके पास न रहा ।

कुषाण कनिष्क

150 वि0 के लगभग मथुरा में शक कुषाणों का राज्य आया । कुषाण शिव के कूष्मांड गण थे । कनिष्क 182 -205 वि0 इस वंश का महान प्रतापी सम्राट था । उसने अपने विशाल राज्य में पटना से मथुरा पेशावर खोतन काशगर होकर चीन तक का राजमार्ग निकाला । मथुरा इस मार्ग के बीच में साम्राज्य की राजधानी थी । इस मार्ग में भारत एशिया के बीच अरवों रूपयों का व्यापार होता था जिससे मथुरा के घरों में सौने जवाहरात के अंडग लग गये । मथुरा में अपार सम्पत्ति का संचय हुआ और यहाँ के भवनों के विशाल शिखर सुवर्न कलशों से दमदमाते थे । कनिष्क माथुरों का भक्त था उसके कृपा पात्र माथुर कनिसवारे या नसवारे कहे जाने लगे ।

257 वि0 में यहाँ नागों की भारशिव शाखा का राज जमा । मथुरा और ब्रज में जितने भी शिव दुर्गा भैरव और गणेश मन्दिर हैं प्राय: सभी इस काल में बने ।
नागों ने यमुना सरस्वती संगम पर 10 अश्व एक साथ छोड़कर महाविशाल दशाश्वमेघ यज्ञ मथुरा में किया । नागों का वंश नागर और नागरावार तथा केन्द्र नगरापाइसा नाग टीला आदि स्थानों पर था ।
कुषाण वाशिष्क (159-163) द्वारा चलाये गये अपने राज्य संवत 24 वे वर्ष 183 वि0 में हुविष्क (163-195 वि0) के राज्य प्राप्ति के 10 वे वर्ष में ईशानपुर मथुरा मंल माथुर द्रोड़ल ने सामवेदी आग्निष्टोभ यज्ञ किया । जिसका लेख युक्त स्तंभ मथुरा संग्रहालय में है देखा परिशिष्ट सं01

हुविष्क ने एक बड़ी धनराशि अक्षयनिधि के रूप में जमाकर प्रति मास 100 माथुर ब्राह्मणों को उसके नाम से ब्राह्मण भोजन कराने का स्थायी प्रबन्ध किया था । कुषाण वासुदेव (195 वि0) का वासुदेव चतुशाल मन्दिर और कूप मथुरा छावनी मैं था । गुप्त काल- 395 वि0 में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजयों के उपलक्ष में चतु समुद्र कूप और सरत समुद्र कूपों पर विशाल यज्ञ किये जिनमें नाग वंशी राजाओं की बलि दी गई । यहाँ नागवलि का विधान श्राद्ध रूप में अभी भी किया जाता है । 435 वि0 के द्वितीय चन्द्रगुप्त की रानी कुवेरानागा ने कंकाली टीले पर जैन रत्न जटिल स्तूप बनवाया, केशव मन्दिर बनाया तथा रंगेश्वर पर कपिलेश्वर शिव की स्थापना की ।
522 वि0 स्कंदगुप्त के समय का एक तामपत्र मिला है जिसमें देव विष्णु नाम के चतुर्वेदी (माथुर) ब्राह्मण द्वारा इन्द्रपुर के सूर्य मन्दिर में दीपक जलाने के लिये अक्षय निधि के रूप में धन राशि दान का उल्लेख है ।

हूण आक्रमण- 600 वि0 के लगभग हूणों ने मथुरा पर आक्रमण किया ।

इस समय मथुरा और माथुर बहुत समृद्ध थे । हूणों ने अपार धन लूटा मन्दिर तोड़े स्तूप संघारामों को बर्वाद किया । माथुरों ने मित्र बनकर हूणों को गोपाचल ग्वालियर और मध्य प्रदेश की ओर अग्रसर कर दिया । विदेशी आक्रमण- भारत पर उत्तर पश्चिम की असुर जातियों की दृष्टि हमेशा से लगी रहती थी, उनका लक्ष मथुरा की अपार सम्पत्ति को लूटने का रहता था । इनकी रोक के लिए भारतीय वीरों के प्रयासों को 'निरोध' कहा गया है । प्राप्त लेखों के अनुसार पहिला पारसीक धवन कुरूष 493 वि0 पू0 का है । दर्यी बहू ने सिंध पर कब्जा किया था । और वहाँ से सोने के टुकड़ों के कई हज़ार थैले प्रतिवर्ष फारस जाते थे । 588 वि0 में नौशेरवां ने अपनी लड़की राणा वंश के राजकुमार को दी थी । पीछे यूनानी बारव्त्री शक पलजव अरब लगातार आते रहे । कुषाणों के सम्बन्ध में बड़ा भ्रम फैलाया गया है । भारतीय ग्रन्थों के अनुसार स्वायंम्मनु काल में 'कूष्मांडैर्वापि जुहुयात' अर्थात् झूठा गवाह कूष्मांड देवों के मन्त्रों से सरस्वती का हवन कर पाप के छूटे । पंच ब्राह्मण के कुतस्ताद के पुत्र अरिमेजय के भाई ने नागों का राज विस्तार करने को नाग विजय सत्र किया । कुषंढ नाग उस दल का यज्ञाधिकारी था । शक कुषाणों के शाक द्वीप को स्वायंमू मनु पुत्र प्रिय व्रत ने सप्तद्वीप विभाजन के समय बसाया था । धारापति मोज और माथुर- 1075 वि0 में मथुरा और महावन पर विद्वानों के गुणग्राही धारा नरेश भोज का राज्य था । उसका सेनापति महमूद गजनवी से लड़ा था । मथुरा के प्रसिद्ध विद्वान मालोजी की (वनमाली) चौबे भोज की विद्वान सभ के सदस्य थे । इनने हनुमन्नाटक पर ससुंन्दर टीका की है । जो हमने स्वयं श्री बिदुरजी पाठक के पास देखी थी । इसी समय 1,10 वि0 में मथुरा के श्री कृष्ण के वंश में यादवों की प्रधान शाखा ने करौली राज्य बसाया । इनमें विजयपालदेव, हरपालदेव, गोपालपाल आदि प्रतापी पुरूष हुए हैं । वीर हरपाल ने मथुरा पर चढ़ाई को आते महमूद गजनवी की सेना के सारे घोड़े छीन कर तवनगढ़ में बन्द कर लिये इससे गजनवी घबड़ा गया माँफी मांगी मिन्नतें कीं तब घोड़े लौटा दिये । इनके साथ मथुरा से 500 घर चौबों के करौली जाकर बसे जो राजसम्मान के साथ अभी भी वहीं बसे हैं ।

चौहान प्रृथ्वीराज और गोरी

1240 वि0 में चौहान राजा पृथ्वीराज को अपने नाना अनंगपाल तोमर की राजधानी दिल्ली मिली थी । वह मथुरा में चाहमानपुर (गजीचाह) में आकर माथुरों की सेवा करता था- मोक्ष शास्त्र सुनता था । पृथ्वीराज ने मथुरा में गोकर्णशिव तथा पद्मासनस्थ चन्डी (चर्चिका) की पूजा की जो चौबों की 64 अल्लों की पजूनीय थी ।

चन्द कवि ने लिख है-

पदम्मासनं पुष्टि चंडी प्रचंडी, चवंवेद आमोद 'चौसट्'ट चंडी ।
इहं पुप्पलानाथ थानं अपूव्वं, तिनन्नं उपासं निराहार षट्क-
बहुं दिव्व मानिक्क मुक्तादि दृट्टम्'
सहस्सं गव्व मगाइ सच्छिय, दिन्न दिव्वय लै अच्छिछय अच्यि ।

पृथ्वीराज रासौ छन्द 407

चौहान नरेश ने चंडी चर्चिका और पप्पलेश्वर शिव की बड़े समारोह से पूजा कर 6 दिन निराहार ब्रत करके बहुत सा सोना जवाहारात द्रव्य तथा एक सहस्त्र सवत्सा गौंऐ रत्न कंचन से सजाकर माथुर ब्राह्मणों को दान करके दी इन पृथ्वीराज के गुरु हृषीकेश मिश्र छिरौरा थे- जो नामी वैद्य थे । इनके ही पुत्र जजीदत्त माथुर राजा के अंग रक्षक और पुरोहित थे । 1250 वि0 में यवन मुहम्मद गोरी ने छल से पृथ्वीराज को बन्दी बना लिया और गजनी लेजाकर उनकी हत्या की । 1248 वि0 पृथ्वीराज ने इसी गोरी को कैद किया था और मिन्नतें दीनता दिखाने पर छोड़ दिया । शत्रु पर दया की राजनैतिक भूल के कारण चौहान का विशाल राज्य नष्ट हो गया ।
माथुर चीतौड़ गये- महाकवि चंद वरदाई के रासो ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज की बहिन पृथावाई के संरक्षक होने के कारण चौवे रिषीकेश मिश्र को पृथ्वीराज ने पृथावाई के साथ उसके ससुराल चितौड़ रावल समरसिंह के यहाँ भेज दिये तभी से 1242 वि0 से माथुर वंश चित्तौड़ में जाकर बसा । वेणीदत्त माथुर तो अन्त तक चौहान के साथ रहे । वे पृथ्वीराज के साथ कैद होकर गजनी गये और वहीं मारे गये । मुहम्मद गोरी को दिल्ली से बहुत ज़्यादा धन हाथ नहीं लगा- पृथ्वीराज अपने शूर सामंतों को पहिले ही अपार धन दे चुके थे । गोरी ने दिल्ली तख्त पर राज करने के लिये अपना एक तुर्क गुलाम कुतुबुद्दीन गजनी से भेजा ।