चतुर्वेदी इतिहास 19

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

तीर्थ पौरोहित्य सम्मान

तीर्थ पुरोहित के नाते ब्रज चौरासी कोस के तीर्थाचार्य माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों के चरण पूजते और अपने हस्त लेख इनकी वाहियों में अंकित करने वाले विशिष्ट महानुभावों की एक संक्षिप्त नामाबलि हम यहाँ दे रहे हैं । इसमें समय विक्रम संवत में है ।

1. शुंग नरेश का ताम्र पत्र- धौलपुर के शेरगढ स्थान से एक ताम्र पत्र मिला है, जिसमें अहिच्छत्रा (उत्तर पांचाल रूहेलखंड) के निवासी शुंग वंशी राजा शिवादित्य के वंशज द्वारा अपने पूज्य पुरोहित माथुर चतुर्वेद ब्राह्मण को 15 द्राम (सिक्के) तथा भूमि पुप्यार्थ दान में दी गई । यह लेख 128 वि0 पू0 का है ।

2. गुप्त वंश का दान- 533 वि0 में गुप्त सम्राट के विषयपति शर्वनाग ने इन्द्रपुर के सूर्य मन्दिर में देव अर्चना करने वाले मथुरा के चतुर्वेदी देवविष्णु को दीपार्चन के लिये द्रव्य राशि दान दी । इस दान पत्र में दानदाता के स्वामी सम्राट समुद्र गुप्त को परम भट्टारक महाराजाधिराज तथा उनके विषय पति सर्वनाग को अभिवर्धमान विजय राज्य कहा गया है ।

3. चित्तौड़ उदयपुर के राणा भीमसिंह जी का श्री उजागर देव वंशजों को पौरोहित्य 1853 वि0 ।

4. नैपाल नरेन्द्र श्री सुरेन्द्रवीर विक्रम शाहबहादुर 1830 तथा महाराजाधिराज श्री त्रिभुवनवीर विक्रम ।

5. मैसूर राज्य के महाराज का लेख ।

6. करौली नरेश महाराज प्रतापपालदेव 1897 वि0 । -7कोटा नरेश महाराज छत्रसाल कोटा 1815 -1820 वि0 रीवाँ, दतिया, ओरछा, जोधपुर जैसलमेर के नरेशों के लेख ।

7. पूंछ काश्मीर के राज श्री मोतीसिंह का लेख 1327 वि0 श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ ।

8. जंबू काश्मीर नरेश महाराज श्री गुलाबसिंह जी का तथा श्री प्रतापसिंह जी एवं महाराज जगतसिंह जी के यात्रा लेख 1888 ।

9. परिशिष्ट 7, 9, 10-4; 5, 238-3; 6; 7 बड़े चौब जी श्री विनोदी चन्द जी के वंशधरों के यहाँ हैं । बड़े चौबेजी गोपालचंद जी जमनादासजी के यहाँ

9. श्री पैहारीजी महाराज 1592 वि0 । श्री रामलालजी मिहारी सर्दार के वंशजों के पास गोपाल भट्ट गोस्वामी 1590 । श्री भट्ट दामोदरदास जी 1580 । ब्रह्मचारी मन्दिर के महंतजी श्री गिरिधारीदास जी 1549 । राधावल्लजी के गो0 श्री दामोदरदास जी, विलासदासजी, कमलनयनजी, हित हरिवंशजी के पौत्र । गो0 श्री शुकदेवजी हरिदेवजी । गो0 छबीलेलालजी, गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी, श्री प्रसादबल्लभजी । श्री चैतन्य महाप्रभु को दामोदरजी भगवान जी मिहारी द्वारा विश्रान्त स्नान और ब्रज दर्शन ।

10. श्री बल्लभाचार्य वंश- श्री महाप्रभु बल्लभाचार्यजी का ताम्रपत्र- 'श्री मद् विष्णुस्वामिमतानुयायिन: श्री बल्लभेन मथुरा मंडले श्री उजागरशर्मण: पौरोहित्येन सम्मानित:' 1551 । श्री विश्रान्त तीर्थराज पर श्री यमुनाष्टक की प्रेरणा और पौरोहित्य आवाहन 1552 । श्री गो0 विठ्टलनाथ जी तथा 7 स्वरूपों का मथुरा (सतघरा) में निवास 1600 वि । गो0 गोविन्दलालजी नाथ द्वारा 1818 । गो0 विठ्टलनाथजी कोटा 1881 गो0 गोकुलनाथजी चापासनी जोधपुर 1828 । गो0 गोवर्धनलाल जी बम्बई, 1847 । गो0 बाल कृष्णजी बम्बई 1862 । गो0 प्रद्युम्नजी कोटा 1822 । गो0 यदुनाथजी बम्बई 1891 गो0 विठ्टलनाथजी वल्लभजी 1867 । गो0 गिरधरलालजी कांकरोली 1822 । गो0 प्रद्युम्न जी बड़ौदा 1822 । गो0 गोपीनाथजी राजाठाकुर गोकुल 1888 । गो0 टीकमजी सूरत 1881 । गो0 श्री दामोदरलालजी तिलकायत नाथ द्वारा 1869 । गो0 गिरधरलालजी कांकरौली 1916-1940 । गो0 बालकृष्ण जी 1940 । गो0 गोपाललालजी कोटा 1931 । गो0 घनश्यामलाल जी कामवन 1914 । गो0 देवकीनन्दनजी की माताजी जमनाबहू जी कामवन 1925 । गो0 ब्रजरत्नजी नड़ियाद 1915 । गो0 नृसिंहलालजी बंबई 1919 । गो0 ब्रज जीवनजी काशी 1806-1932 । गो0 रणछोरलालजी पोरबंदर 1974 । गो0 कल्याणरायजी 1967 । गो0 ब्रजभूषणलालजी कांकरौली 2025 । श्री बन महाराज बृन्दावन के दो बार ब्रज यात्रा किये जाने के लेख 2001 तथा 2008 वि0 । गो0 तिलकामत महाराज श्री गोवर्धनलालजी नाथ द्वारा, श्री दामोदरलाल जी 1822 । गो0 श्री गिरधरलालजी कांकरौली 1822 । गो0 हरिरायजी जगन्नाथजी । गो0 दामोदरलालजी दूसरी गादी नाथ द्वारा 1889 । गो0 श्री बालकृष्ण जी गोवर्धननाथजी बम्बई 1862 । गो0 श्री टीकमजी सूरत 1881 । राजा ठाकुर गोकुल के गो0 गोपीनाथजी ब्रज जीवनजी 1885 । नाथ द्वारा दूसरी गादी के गो0 श्री घनश्याम लालजी , बालकृष्ण जी 1940 । मथुरा मदनमोहन हवेली के गो0 कल्याण राय ब्रजनाथजी 1967, श्री माजी महाराज यमुना बहूजी गोपाललालजी 1967 ।

11. माध्व संप्रदाय- गो0 श्याम सुन्दर जी चरण । गो0 श्री रामचन्द्र देव चरण 1912 ।

12. रामानन्दी- श्री मद् अनंताचार्य शिष्य श्री स्वामि जनार्दन पयोहारिणा श्री मद् कृष्णाचार्येण श्री मथुरा क्षेत्रे श्री उजागरजी माथुर: पुरोधानित: वैशाख: शु0 3 सं0 1592 वि0 ।

13. द्वारिका के रणछोरजी के गोस्वामिगण- श्री नरोत्तमदास जी राम प्रसाद जी शंखोद्वार संस्थान 1936 । श्री रूपलालजी सत्यभामा मन्दिर द्वारिका 1937 । श्रीगंगादासजी अधिकारी जामवती मन्दिर 1969 । श्री हरिवल्लभ जी ब्रह्मचारी जामवती मन्दिर 1936 । श्री हरिवल्लभजी जगन्नाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री यदुनाथजी राधिका मन्दिर 1936 । श्री नारायण जी ब्रह्मचारी शंख नारायण मन्दिर 1936 । श्री रघुवीरदास जी शंखोद्वार बेट 1935 ।

14. श्री राधाबल्लभ संप्रदाय- गो0 श्री दामोदरजी श्री हितहरिवंश जी के पौत्र श्री रासदास जी, श्री विलासदासजी, श्रीकमलनयनजी बृन्दावन 1707 । श्रीसुख देवलालजी हरदेवलालजी जैदेवलालजी 1707 । श्री छबीलेलालजी 1707 । गो0 श्री राधाबल्लभदास जी, श्री शिरोमणिदासजी श्री प्रसादबल्लभ जी 1707 । गो0 श्री हरप्रसादजी हरवल्लभजी 1707 । गो0 ब्रजपति जी ब्रजानन्द जी 1739 । श्री दयालालजी सुन्दरलालजी 1814 । श्री गोपीलालजी रमणलालजी खड़िया अहमदाबाद 1925 । गो0 श्री दामोदर लालजी 1970 । श्री रूपलाल जी किशोरी लालजी 1987 ।


15. श्री बांकेबिहारी के गोस्वामी गण- श्री रासदासजी स्वामी हरिरायजी सुत कृष्णदासजी वृन्दावन 1711 । श्री राजारामजी सुत वैनीदासजी 1785 । श्री हरिदासजी श्री जगन्नाथजी के वंशज गोर्धनाथजी 1834 ।

16. श्री गोविन्ददेवजी जैपुर के गौडीय गोस्वामी गण- गो0 श्री रामनारायणजी, हरेकृष्णजी, कृष्णचन्द्रजी श्री बलीरामजी श्रीजी के, श्री चरणदेवजी 1810 । श्री नीलांवरदेवजी 1825 । श्री ब्रजानन्दजी राधागोविन्द जी के गोस्वामी 1862 । श्री कृष्णशरणजी 1869 । श्री भक्त सारंग गोस्वामी गौडीयमठ लंदन के प्रधान 1941 । श्री अतुलदेवजी 1989 । श्री त्रिदंडीजी स्वामी भक्ति प्रज्ञान केशव महाराज (ब्रज यात्रा की)2001 । श्री नृसिंह महाराज नवद्वीप 2008 । श्री भक्ति विलास तीर्थ जी 2009 । श्री भक्ति कुमुद संत महाराज मिदनापुर 1952 । श्री नारायण महाराज गौड़ीय वेदान्त समिति 1954 । श्री सिद्धांती महाराज सारस्वत गौडीय मठ 1954 । श्री योगी त्रिदंडी स्वामी 2010 । श्री प्रकाश तीर्थ स्वामी महाराज 2011 ।

17. बड़े चौबे जी श्री विजयचन्द्र जी प्रतापचन्द जी के यहाँ-

1. बादशाह अकबर का अपने राज्य प्राप्ति के दूसरे वर्ष में माधौपुर गाँव के समीप चौबे गोकुलचन्दजी शोभाराम जी बड़े चौबे जी को भूमि दान का शाही फर्मान 1615 वि0 ।

2. बादशाह जहाँगीर द्वारा अपनेराज्य के चौथे वर्ष में बड़े चौवेजी गोकुल चन्दजी को ज़मीन वाग कुआ बख्शीश देने का शाही फर्मान 1667 वि0 ।

3. दिल्ली के मुग़ल बादशाही मुहम्मद शाहबली द्वारा बड़े चौबे जी गोकुल चन्दजी को गांव मुर्शिबाद, आजमपुर, मगोर्रा माधौपुर आदि में भूमि 6 बाग खेत आदि दिये जाने का फर्मान 1791 वि0 ।

4. श्री जयपुर नरेश महाराज सबाई जयसिंह जी द्वारा बड़े चौबेजी श्रीगोकुल चन्द जी को वृन्दावन में केशी घाट पर तीर्थ स्नान कर जागीर की भूमि दान में देने का राजकीय दानपत्र 1778 वि0 ।

18. बड़े चौबे जी श्री विनोदी चन्दजी के यहाँ-

1. उदैयपुर चित्तौड़ के राणा श्री भीमसिंह जी महाराज का ब्रज चौरासी कोस के पौरोहित्य का लेख 1639 वि0 ।

2- शिवपुर (बड़ौदा) के राजा साहब इन्द्रसिंह जी की सनद 1781 वि0 ।

3- जयपुर नरेश सवाई महाराज श्री ईश्वरी सिंह जी द्वारा बृन्दावन में केशी घाट पर स्नान करके बड़े चौबे जी को भूमि दान देने का लेख 1803 वि0 ।

4- जैपुर नरेश सवाई माधौसिंह जी 1809 वि0 ।

5- करौली नरेश महाराज श्री प्रतापपालजी देव 1857 वि0 ।

6- स्यामुई नरेश महाराज श्री शिवदानसिंह जी 1860 वि0 ।

7- करौली नरेश महाराज हरबक्श पालसिंह जी 1889 वि0 ।

8- रामपुरा भानपुरा नरेश राजा लक्ष्मणसिंह जी की धर्मपत्नि माजी साहब का लेख 1900 वि0 ।

9- रामपुरा भानपुरा नरेश महाराज श्यौदान सिंहजी 1915 वि0 ।

10- कोटा नरेश महाराज श्री छत्रसालसिंह जी 1929 वि0 ।

19. श्री शिम्भू मुंशी जी के यहाँ-

1. पूँछ काश्मीर नरेश राजा मोतीसिंह जी 1627 ।

2- जम्बू काश्मीर नरेश महाराज श्री रणवीरसिंह जी 1931 ।

3- जम्बू नरेश महाराज प्रतापसिंह जी 1942 ।

4- चिन्हैनी राज्य के दीवान श्री चरणदासजी 1960 ।

5- जंबू नरेश महाराज श्री गुलाबसिंह जी बालिया 1888 ।

6- पूंछ नरेश श्री राजा जगदेवसिंह जी 1990 ।

7- सफौरा वीसलपुर (पीलीभीत) के राजा रामलाल जी छदम्मी लालजी 1990 वि0 ।

20. श्री विशंभरनाथ माना राव के पुत्र श्रीकैलाश नाथ जी के वंश धरों के यहाँ-

1. महाराज शिवाजी के गुरु श्री समर्थरामदास महाराज का मथुरा में गणेश टीले पर निवास का लेख 1743 । 2- ग्वालियर के कुशाजी शिंदे, महारानी साहब श्री विजयावाई शिंदे 1754 । 3- ग्वालियर नरेश महाराज श्री जियाजी महाराज शिंदे 1795 । 4- दत्र पति श्री शिवाजी महाराज के पुत्र श्री शंभाजी भौंसले फल्टन सितारा की पुरोहिताई की सनद, मंत्री शिवदेव द्वारा लिखित 1797 । ग्वालियर के महाराज दौलतराव शिंदे तथा माधवजी शिंदे का चौबे जी को तेहरा गांव दान 1710 । 5- महाराजा मैसूर का लेख 1788 । 6- शाहजादा रहिजान अलीखाँ 1245 । 7- शाह साहिबराम नियाज अलीखाँ 1247 । 8- कोल्हापुर की महारानी श्रीमती पद्मावती रानी साहब 1252 । 9- मिरज सांगली नरेश बाबा साहब पटवर्धनजी तथा श्रीमती जमुनाबाई पटवर्धन 1680 । 10- आलमगीर साहब नवाब बंदेबहादुर 1893 ।

21. श्री श्यामलाल जी चौधरी के वंशजों के यहाँ-

1-बीकानेर के श्रीमंत सेठ हरखचन्द जै गोविन्द जैचन्द ने शाहजहाँ काल में मथुरा यात्रा की, प्रोहित गोपाल जी कुंज बिहारी जी (कचरेजी) द्वारिकानाथ जी (दुआरो) को पूर्व के सेठ गोपाल जी नरसिंह जी का 1665 वि0 का लेख देख कर पूजित किया 1713 वि0 में । इन्होंने अपनी मथुरा यात्रा पर एक पुस्तक लिखी है जो अनूप संस्कृत लाईब्रेरी बीकानेर में सुरक्षित है ।

2- महामना श्री मदनमोहन जी मालवीय तथा समस्त मालवीय वंशों के पौरोहित्य लेख ।

3- माल पानी माहेश्वरी सेठ सहजराम जिन्होंने बेणीराम वंश को वेद मूर्ति पूजनीक लिखा है 1868 वि0 ।

4- रामानुज श्री संप्रदाय के डीडवाना (राजस्थान) के झालरिया मठ के आचार्य श्री स्वामीजी रामावत जी 1773 वि0 ।

5- डीडवाना के महंत चतुर्भुजदासजी 1889 वि0 ।

6- यहीं के रामानुज पीठ के महंत मनसारामदास जी 1889 वि0 ।

7- महंतजी श्री भगवानदास जी गुरु तुलसीदास जी 1889 वि0 ।

8- महंत जी श्री कान्हरदास जी गुरु भागीरथदास जी 1888 वि0 ।

9- महंतजी श्री रामदास जी गुरु राधाकृष्णदास जी जानकीदास जी 1990 वि0 । सुप्रसिद्ध उद्योगपति माहेश्वरी सेठ बांगड़ परिवार (मगनीराम रामकुमार बांगड़) के पौरोहित्य के वंश परम्परागत लेख ।


23. निम्बार्क संप्रदाय- निम्बार्क संप्रदाय के अनेक गण्यमान्य साधु संतों आचार्यों के लेख मिहारी सर्दार रामलालजी के यहाँ हैं ।

श्री रघुनाथ प्रशादजी शास्त्री (घासीराम बद्रीजी चौबे के बंशजों) के पास- निम्बार्क संप्रदाय के प्राचीन आचार्य महंतों के हस्त लेख हैं, इनमें कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं- श्री सर्वेश्वर शरणजी 1862 वि0- 1871 वि0 50 बीघा भूमि का दान, श्री हरिव्यासदेव जी 20 महंतों के साथ विश्रान्त तीर्थ स्नान को पधारे 1866 वि0, ब्रज दूलह श्री महादास जी 12 बीघा भूमि दान 1868 वि0, श्री केशव काश्मीरी परम्परा के श्री भट्टजी हरिव्यासदेवजी, सोभूरामजी, कान्हर देवजी (चतुरानागा जी) 1869 वि0, धूलेड़ा के महंत भगवानरामजी 1870 वि0, राधौगढ के संतोषदासजी तुलसीदासजी गंगारामजी देवदासजी 1872 वि0, टोड़ा के गरिनारी दयामरामदासजी 1889 वि0, महंत गोपेश्वरलालजी 1904 वि0, निर्वाणी अखाड़े के समस्त महंतों का लेख 1911 वि0, महानिर्वाणी केशौदास जी माधुरीदास जी 1911 वि0, जुनागढ के पीताम्बरदासजी 1922 वि0, दिगंबरी अखाड़े के नाथजी 1925 वि0, आदि के पचीसियों लेख ।

24. काश्मीर मंडल- काश्मीर के सुप्रसिद्ध नेहरू परिवार में-

1- श्री गंगाधर जी नेहरू तथा समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों का लेख श्रीबालकरामशर्मा का लिखित 18 सोने की मुहरों से युक्त चौबे श्री गोपीनाथ जी बनकली जी काश्मीरी प्रोहित के यहाँ है 1920 ।

2- श्री अमरनाथजी हरीशंकरजी काश्मीरी पंडित का लेख समस्त काश्मीरी ब्राह्मणों की तरफ से प्रोहिताई का 1922 ।

3- श्री मोतीलाल जी नेहरू 1908 । श्री जवाहरलाल जी श्रीमती इन्दिरागांधी जी का हस्तलेख 25-3-52 । श्री मोतीलाल जी नेहरू पुत्र श्री गंगाराम नेहरू पौत्र श्री वृन्दावन नेहरू का उर्दू हस्तलेख 22-8-42 का । दूसरा 19-7-1908 का ।

25 महामान्य श्री राजेन्द्र प्रशाद जी- का लेख चौबेजी श्रीधर जी हरिहरजी के यहाँ हैं । प्रोहित श्री त्रिलोकीनाथ चौबे 25-12-59 । हिमालचल प्रदेश के राजाओं के लेख सर्दार बन्दर सिकन्दर चौबे जी के वंशजों के यहाँ हैं ।

26. राष्ट्रपिता पूज्य महात्मा गांधी जी- इनका तथा इनके समस्त परिवारों के लेख चौबेजी लालाराम सालिगराम रामरज वंश के यहाँ हैं ।

27. इनके अतिरिक्त- श्री बल्लभभाई पटैल, श्री भूलाभाई देसाई, श्री मुरारजी देसाई, श्री गोविन्द बल्लभ पंत, श्री सुभाष चन्द्र बोस, श्री राजा महेन्द्र प्रतापजी तथा बिरला, बांगड़, डालमियाँ, मोदी, सिहानियाँ, आदि अनेकों भारत प्रसिद्ध परिवारों के पौरोहित्य पूज्यता के लेख माथुरों की बहियों में लेख बद्ध हैं, जो इनकी अखिल भारतीय पूज्यता और मान्यतायुक्त गौरव के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।

1782 वि0 में चौबे हुलासीराम और इनके पुत्र गंगाराम चौबे पूना रह कर पेशवा वाजीराव को श्री मद्भागवत सुनाते थे । श्री याज्ञिक सोहनलालजी नैपाल बड़ोदा कोटाबूंदी चरखारी पन्ना बिजावर 21 राज्यों के पूज्य पंडित थे और इन राजाओं के संस्कार यज्ञ देव समारोह सम्पन्न कराने को बुलाये जाते थे ।

मन्दिर द्वारिकाधीश की स्थापना

द्वारिकाधीश भगवान मथुरा के प्रमुखतम देवता हैं । श्री द्वारिकाधीश की स्थापना के विषय में मथुरा की जनता बहुत कम जानती है । लेखक विद्वान भी यथार्थशून्य मन गढन्त कपोल-कल्पनाओं को बटोर कर भ्रान्तियों का ताना बाना बुनते रहते हैं । द्वारिकाधीश मन्दिर की स्थापना का सारा प्रयास चतुर्वेदियों का है और उनके ही पास इसकी विशेष जानकारी भी है । माथुरों में श्री उद्धवाचार्य देव जू के बंश में श्री द्वारिकानाथ जी मिहारी बड़े सिद्ध और त्यागी तपस्वी महापुरूष हुए हैं । अपने 'ब्रज मथुरा इतिहास' ग्रंथ में श्री छंगालाल जी ने लिखा है-'श्री द्वारिकानाथ जी ग्वालियर महाराज के गुरु और दानाध्यक्ष हे, लश्कर में सब चौबे और ब्राह्मणों को हौसा (वार्षिक वृत्ति) बाँटते । मथुरा हू में सब ऋतुन में महाराज के दान के बस्त्र, कलश पात्र, अन्न आदि ब्राह्मणन कौं बांटते रहते । ये बहौत पुण्यात्मा, भजनानन्दी, शास्त्र पठन पाठनकारी, जीव है । दुपहर तक अपने पाठ पूजा में लगे रहते- गोपाल जी कों लाढ लढाते- एकादसी के दिन निर्जल ब्रत करते, पानी तक न पीते, रात कौं प्राय: मथुरा ही में रहते, काहूते बात न करते, एकांत में बैठ श्री हरि कौ ध्यान करते । इनके चेहरा पैं सूर्य के समान तेज प्रकाश मान देखवे में आती हो, लोग दूर दूरते इनके दरसन कौं आयौ करते, ये देवर्सि कोटिके महात्मा हैं ।?

इनके तप को देखकर सिंधिया महाराज दौलत राव ने इन्हें अपने राज्य के दानध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित किया तथा 5 गाँव-सौंसा साहिपुरा चैनपुरा कुदौली और लाढ़पुरा इनकी भेंट किये । इनका समय 1825-1896 वि0 है । 1844 वि0 में बड़ौदा के प्रसिद्ध पारिख परिवार से आये गोकुलदास भाई की राज्य के खजानची के पद पर नौकरी लगवाई पारिख इनका अनन्य आज्ञाकारी भक्त था, जिसका समय 1831- 1917 वि0 है । 1849 वि0 में उज्जैन में एक साधु महंत लच्छी गिरि महाराज थे जिनका क्षिप्रा तट पर विशाल मठ तथा 500 तलवार धारी उग्रकर्मा नागा सन्यासी इनके चेले थे । महंत महाराज को लूटमार और आतंक से सारी प्रजा दुखी थी । इन्हैं पकड़ कर लाने के लिये महाराज ने प्रश्न उठाया और पारिख ने आज्ञा पालन की प्रतिज्ञा ली तथा एक लाख रुपया तथा 100 बंदूकधारी सिपाही सहायता को माँगे । तुरंत सहायता प्राप्त होते ही पारिख उज्जैन तीर्थ यात्रा को चल दिये । उज्जैन में आकर उन्हौंने एक बाड़ा लिया और उसमें नित्य साधुओं ब्राह्मणों को भोजन और जिसने जो मांगा वही दान देने का कार्य चालू किया । सोमवती अमावास्या को महंत लच्छी गिरि के साधुओं ने सेठ के यहाँ भोजन का निमंत्रण लिया और सब साधुओं के बाड़े में आजाने पर पारिख ने फाटक बंद करा दिया तथा पत्तल परोस कर 'लड्डू आवें' इस संकेत पर गोली बर्सा कराके समस्त साधुओं को पत्तलों पर ख़ून से लथ पथ विछा दिया । वे महंत लच्छी गिरि के खजाने का अपार अटूट द्रव्य और महंत महाराज को बांधकर ग्वालियर को चल दियो । इसी बीच किसी चुगलने चुगली की और महाराज ने क्रोधित हो पापी पारिख का मुंह न देखने का निश्चय किया । पारिख ने आकर सुना तो वे व्याकुल हो गुरु जी द्वारिकानाथ जी की सेवा में उपस्थित हुए और कर्तव्य निर्देशन की प्रार्थना की । इससे पूर्व पारिख जी लश्कर नगर में अपना एक विशाल भवन और घेरा पारिख जी का बाड़ा नाम से बनवा चुके थे तथा उसमें गुरु द्वारिकानाथ जी की कचहरी तथा महाराज के छत्री बाग में नींव खोदते समय प्राप्त दो देव प्रतिमाओं में (1 हरीहरनाथ 2 चतुर्भुज ) नारायण प्रतिमा को अपने कांकरौली गुरु घराने की सेवानुसार द्वारिकाधीश नाम से पूजित कर वहाँ पधरा चुके थे । श्री द्वारिकानाथ जी की सलाह से इनने वह सारा अपार द्रव्य जिसे गंगाजली खाते में नहीं लिया गया उस सबको द्वारिकाधीश प्रभु की भेंट कर उसे गाढ़ाओं में लाद तथा बैलों के रथ में श्री द्वारिकाधीश देव को विराजमान कर मथुरा वैष्णव तीर्थ की ओर प्रयाण किया ।

आश्चर्य यह कि मथुरा आते ही प्रभु का रथ नगर में नहीं घंसा और बृन्दावन मार्ग में मतरौढ़ बन में लाकर रूक गया । तब यहीं प्रभु को तथा सारे धन को उतार कर वहाँ भूमि लेकर एक किलेनुमा बाग और सेवा मंडप का निर्माण कराया गया । रक्षा के लिये सिपाहियों का दल रखकर धन ज़मीन में गाढ़ दिया गया । इस समय इस बन में राधा कंजरी और उसके लुटेरे कंजर टांड़े का बड़ा जोर था अत: मथुरा में एक हवेली लेकर उसके नीचे तबेले में रक्षार्थ लड़ाकू मेवों की एक टोली रक्खी गयी ।

प्रभु की सेवा उत्सव प्रसाद सामिग्री बड़ी राशि में तैयार होती किन्तु लुटेरों के उस बन में मथुरा का कोई नागरिक दर्शन प्रसाद को न जाता- बृन्दावन के विरक्त साधु मधुकरी भिक्षा की जगह षटरस पकवान लेना स्वीकार न करते । यह देख पारिखजी अति दुखी हुए और मनीराम राधाकिशन के पक्ष विपक्ष में चिठ्ठी डालकर मथुरा का निर्णय आने पर ठाकुर को मथुरा ले आये । बृन्दावन से प्रभु की सवारी बड़े धूमधाम से मथुरा पधारी । चौबों का दल नाचता गाता भगवान को लेकर आया ।वे कूद कूद कर गा रहे थे-

आये द्वारिकाधीश, हमारे आये द्वारिकाधीश ।
ठाकुर कौं ससुरार न भायी, घर नहीं होइ सो बसैं ससुरायी ।।
तीन लोक को नाथ हमारौ, सब देवन को ईस-हमारे आये0
बृन्दावन से गोपेश्वर के एक साधु से ठकुरानी मूर्ति लेकर प्रभु सपत्नीक आ रहे थे- तब यह गाया-
जै द्वारिकाधीश की, बृन्दावन ते व्याहिलाये पांच की पच्चीस की । रडुआ गयौ दुल्हा बनि आयौ, पाग बंधाई सीस की-जै0
न चौबे कौं नित लडुआ छकावै, यही कला जगदीश की-जै0

मथुरा में भगवान द्वारिकाधीश बीबी का महल जो अब जूना मन्दिर गोलपारे में है । उसमें विराजे जो पहिले बज्रनाम का महल था तथा इसे अलाउद्दीन खिलजी 1352 वि0 के भाई उलग खाँ ने अपनी बीबी का महल बनाया तथा उसकी मृत्यु पर बेगम ने उसकी एक बड़ी क़ब्र मजार गोर के नाम से बनवाई । श्री द्वारिकाधीश 1850 वि0 में यहाँ आकर विराजे और भवन का रूप परिवर्तन कर उसे द्वारिकाधीश की हवेली जूना मन्दिर बनाया गया किन्तु यह भवन गली के अन्दर अंधेरे और सन्नाटे युक्त देव शोभा के लिये अनुपयुक्त मानकर नवीन भव्य मन्दिर निर्माण के लिये भूमि की शोध की जाने लगी । विश्रान्त घाट और असिकुंड तीर्थ पुष्पस्थल मणिकर्णिका अविमुक्त तीर्थ श्री कृष्णजन्म स्थली (कंस कारागार कारा महल) आदि युक्त गतश्रम नारायण के निकट एक चौड़ा ऊँचा कुकुर यादव दुर्ग का टीला था । यहाँ ककोरों मिहारियों कोहरे पटवारियों मानिक चौक कुआ वारी गली के सर्दारों की बगीची और मुरारी भगवान का मन्दिर या जिसे 'मोर वारौ बाग' कहा जाता था । श्री द्वारिकानाथ जी ने सब सरदारों को राजी कर उन्हें 'चार हज़ार की बगीची' के लिये भूतेश्वर पर एक बड़ा भूखंड दिलाकर इसे द्वारिकाधीश मन्दिर के लिये ले लिया । मन्दिर की इस भूमि के चौकोर होने में एक कोने पर एक मिहारी सर्दार चिन्ताराम चौबे का घर था । उनकी पत्नी बिरजोदेवी अपना घर छोड़ने को राजी न थीं । द्वारिकानाथ जी ने बहुत समझाया तब उसने कहा- 'पुरखन के हाड़ बेचौंगी नांइ-पारिख भीक मांगै तो देदोंगी' इधर पारिख जी भीख माँगने को तैयार न थे । तब श्री द्वारिकानाथ जी ने उन्हें समझाया-'अपने लिये भीख मत माँगो-प्रभु सेवा के लिये भीख माँगना तो उत्तम धर्म है । बामन प्रभु ने देवों के कार्य हेतु असुर बलिराज से भरी सभा में भीख मांगी थी' गुरुजी की शिक्षा से पारिखजी भीख माँगने बिरजौ माई के द्वार पर आये । उस समय यह दृश्य देखने को भारी भीड़ जमा थी । किसी भाबुक कवि ने तभी यह रचना की-

अमर कर्यो जस बिरजो माई, कुल कीरति बिस्तारी ।
पारिख जेसौ दानी मानी, द्वारै ठड़ौ भिकारी ।।
चिन्तामन कौ नाम बढ़ायौ, मन्दिर में बनि साझी ।
मंद-मंद मुसक्यावै ठाकुर, ऊँची नौवत बाजी ।।
साधु महात्मा चकित निहारैं, अदभुत बुद्धी पाई ।
गुनन गुनीली प्रेम पगीली, धत्र-धत्र मेरी बिरजोमाई ।।
चिन्ताराम आनन्द मग्न हो नांचने लगे-
मेरौ प्रान द्वारिकाधीश, बिजै चौवेन की भई ।
नित बाजैं संख घरियार, बात चौबे की रही ।।
चौबे बाप चौविन ही मइया, ये चौबेन कौ ठाकुर ।
चौबे लाये चौबे राखैं, विप्र बंस प्रेमातुर ।।
जमना जी कौ पुन्न प्रताप चित्त की चिन्ता गई ।।मेरौ0 ।।

मन्दिर के दूसरे सिरे पर काजियों की एक मसजिद थी । चौबे सरदारों ने बड़ी युक्ति से अधिकृत कर मन्दिर को चारौं कोनों से सम्पूर्ण शोभायमान बनाया । गाथा बहुत लंबी है- यहाँ बहुत संक्षेप में लिखी जा रही है । मन्दिर के निर्माण की अनेक अदभुत घटनायें हैं- श्री द्वारिकानाथजी के गुरु देवासिद्ध महात्मा ने मन्दिर का नकशा बनाया और मन्दिर निर्माण के बाद उसके प्रत्येक खंभा देहर महराव में देवताओं की स्थापना की । ये महासिद्ध संत थे- चतुरानागा की निवार्क परंपरा में दीक्षित ये बरसाने के निकट सुन्हैरा वन में तप करते थे तथा आकाश मार्ग से प्रतिदिन मथुरा आकर यमुना स्नान करते थे । ये नित्य मन्दिर के निर्माण कार्य का निरीक्षण करते तथा आगे के कार्य का निर्देशन शिल्पियों के मुखिया जगना धांधू को देते थे । मन्दिर का पाटोत्सव पारिख ने बड़ी धूम-धाम से किया । 1 मास तक चौबों और साधु संतों भक्तों को उत्तम उत्तम पकवान भोजन कराये गये । चौबों को पोसाकैं कड़े दुशाला पीताम्बर पात्र मुहरैं दक्षिण में दी गयीं । गुरु देवासिद्ध की आज्ञा से मंदिर की प्रतिष्ठा श्री शीलचंदजी ने तथा उस समय के बैदिक कर्म कांडी विद्वान यज्ञ दत्त हुलासीराम चौबेजी ने सम्पन्न करायी । इस समारोह की कुछ उल्लेखनीय समयाबलि इस प्रकार है- श्री द्वारिकाधीश मथुरा पदार्पण 1850 चैत्र शु0 11, भतरोंड में सेवा 1850-1858 वि, जूना मन्दिर में बिराजे 1858-1874 वि0, नवीन बर्तमान मन्दिर का शिलान्यास 1871 कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा, मन्दिर का निर्माण सम्पन्न 1874 वि0, देव प्रतिष्ठा 1874 बैशाखशुक्ल 3, कांकरौली भेट 1930 वि0, जेठ सुदी 11, रंगजी का मन्दिर 1908 वि0 में 34 वर्ष बाद बना । मथुरा वासियों के लिये द्वारिकाधीश की स्थापना एक महान हर्ष और सौभाग्य की बात थी । औरंगजेबी ध्वंस के 148 वर्ष बाद और अब्दाली के संहार के 61 वर्ष बाद मथुरा ने एक नये देवता और हर्ष के वातावरण का आनन्द पाया । पारिख मन्दिर ,द्वारिकाधीश के गुरु द्वारिकानाथ जी को अर्पण करना चाहते थे परन्तु उनने- 'देवलो ग्राम याचक:' वृत्ति को हीन मान कर निषेध कर दिया तब पारिख ने एक विशाल हवेली बनवा कर उनकी भेट की जिसके आगे पीछे खुली भूमि तथा द्वारिकाधीश मन्दिर शैली की गौख हैं । लालजी महाराज-1896 वि0 में 71 वर्ष की आयु में श्री द्वारिकानाथ जी का गोलोक वास हुआ और तब उनके पुत्र श्री लालजी महाराज उत्ताधिकारी हुए । जैसा कि होता है प्रतापी पुरूष के बाद उनकी सन्तति विलासी भोगी और अपव्ययी होती है । लालजी यद्यपि विद्वान कवि दानी और स्वाभिमानी थे, किन्तु उनने पिता के प्रयासों को आगे बढाने का प्रयास नहीं किया । उनके अमीरी ख़र्च काफ़ी बढ गये । रोज चौका में 100-150 भोजन करने वालों के पटा पड़ते थे, मनों अचार मुरव्वा फल शाक वितरित होता रहता था- फलस्वरूप एक -एक कर पांचों गांव बिक गये । ग्वालियर का दानध्यक्ष पद निकल गया और हौसा (वार्षिक वृत्ति ) के वितरण का कार्य भी लापरवाही से हाथ से चला गया । कोई पुत्र सन्तान न होने से पुत्री ने छीना झपटी शुरू कर दी और भाई भतीजों से विद्वेष मानने के कारण निज की हवेली भी कर्जा में फंसा दी । अंत में उनके राज सम्मान के कागज पत्र अभिलेख गाँवों के खाते खतौनी मूल्यवान पैत्रिक लेख फर्मान दस्तावेज भी सभी पुत्री द्वारा अपहृत कर लिये गये, और इस प्रकार उनके गौरव के सारे प्रमाण क्रूर काल के गर्त में समा गये ।

जन संख्या विमर्ष

माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की संख्या लगभग 3 लाख अनुमान की जाती है ।

4022 वि0 पू0 में लवणासुर के विनाश से बचे 200 से कुछ अधिक माथुर अयोध्या गये थे । शत्रुघ्न के मथुरा में उन्हैं फिर एकत्र कर बसाने के समय उनकी संख्या 36,000 हो गयी थी, संभवत: ये सभी इधर उधर गहन वनों में छिपे रहे थे । 3042 वि0 पू0 में ब्रज्रनाभ के समय ये हज़ारों की संख्या में मुख्य श्रेणियों (धड़े थोकों अखाड़ों) में सुसंगठित थे, जो पांडवों की परम समृद्ध धार्मिक नगरी इन्द्रप्रस्थ में कुछ समय ही पहिले जाकर बसे थे । 964 वि0 भट्ट दिवाकर के समय तक इनकी संख्या छत्तीस हज़ार ही थी । इस संख्या का विनाश 1074 वि0 में महमूद गजनवी के साके में हुआ । एक अनुभवी वयोवद्ध ने बतलाया है कि गजनवी की मार काट में 10 हज़ार योद्धा लड़े, 2,000 कट मारे गये, 26 हज़ार स्त्री बालक बूढे दुर्बल डरपोक जंगलों में छिपाये गये थे, जिनमें से 20 हज़ार फिर नहीं लौटे गाँवों को पलायन कर गये । शेष 8 हज़ार शूरवीर विजयी पुरूष तथा 6 हज़ार उनके स्त्री बच्चे वृद्ध गण वनों से लौट कर आये, तब मथुरा में हमारी संख्या 14 हज़ार थी । इसके बाद गुलामों खिलजी तुगलक सैयद लोदियों के नित्य के प्रहारों और अत्याचारों से संख्या मथुरा में घट कर ग्राउस काल 1931 वि0 तक 6,000 (4,000 पुरूष 2,000 स्त्रियाँ) ही रह गयी । इन अवधियों में कितने ही समूहों में हमारे वन्धु 20 सहस्त्र की संख्या में छोटे-छोटे दलों में बंटकर भदावर एटा मैनपुरी कासगंज बरेली मालवा बुंदेलखंड पंजाब राजस्थान गुजरात आदि निकलते गये थे । वे वहाँ और अधिक बढ़े और फैले । आज मथुरा की 2043 वि0 की श्री दयारामजी ककोर के पुत्रों के यज्ञोपवीत उपलक्ष में वितरित गिदौड़ा दैंनी की सही गणना के अनुसार हमारी मथुरा में जनसंख्या पुरूष वर्ग 6,400 तथा इसी अनुमान से स्त्री वर्ग की संख्या 8,600 कुल संख्या 15 सहस्त्र के लगभग है । सब स्थानों को मिलाकर मथुरा के 15,000, भदावर वासी 40,000, मीठे 30,000 तथा देश के अन्यत्र सभी प्रान्तों और क्षेत्रों में फैले असीमित विस्तार वालों की संख्या2,15,000 मानकर समस्त जाति की जनसंख्या 3 लाख आंकी जा रही है । चौबों की सही गणना अभी तक कहीं भी कभी भी नहीं की जा सकी है जिससे पूरा समाज अंधकार में है ।

चतुर्वेदी सुविज्ञ महानुभाव अपने को देश की अल्प संख्यक जाति अनुमान करते हैं, किन्तु आज के युग में अल्प संख्यकों को ही तो बहुतायत से संरक्षण और राजकीय सहायतायें दी जाती हैं । अस्तु हमें ग़रीबी की रेखा से नीचे दबे हुए अपने बन्धुओं की संख्या गणना करके उनके लिये भूमि रोजगार पोषक आहार चिकित्सा बैंकऋण शिक्षा सरकारी नौकरियों में आरक्षण आदि की विशेषाधिकार पूर्ण मांगैं सरकार के सन्मुख प्रस्तुत करके जोरदार आवाज उठानी चाहिये ।