चतुर्वेदी इतिहास 6

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी


बौद्ध धर्म के महान क्रान्तिकारी आचार्य माथुर महादेव

भारतीय इतिहास और प्राचीन विद्याओं के गहन चिंतक प्रगतिशील मनीथी वन्धुवर श्री जगदीशप्रसादजी चतुर्वेदी दिल्ली ने जो आकाशवाणी दिल्ली के सिद्धहस्त संसद समीक्षक तथा विद्वतापूर्ण चिन्तनशील वार्ताओं के प्रवक्ता हैं, एक अपना लेख "बौद्धकाल के क्रान्तिकारी विश्वविख्यात आचार्य महादेव माथुर " के सम्बन्ध में हमें भेजने की कृपा की है। उनका यह मत है कि बौद्ध महासंधिक के प्रभावशाली आचार्य न्नाह्मण महादेव मथुरा के माथुर थे। हमारा भी यह निष्कर्ष है और हमने इससे पूर्व ही अपने लेखन में इसे मान्यता दी हैं, अस्तु भाई जगदीश जी के मन्तव्य का सार संक्षेप हम यहाँ दे रहे है। जो इस प्रकार है :- "बौद्ध धर्म को सन्यासियों के धर्म से बढाकर सारी जनता का धर्म बनाने का गौरव तथा बौद्ध धर्म को भारत के अतिरकित सारे संसार में फैलाने का श्रेय मथुरा के दो व्यक्तियों को है। इनमें एक हैं महादेव (माथुर) और दूसरे उपगुप्त (सौगांधकिवैश्य) । उपगुप्त के विषय में तो यह मतभेद भी है कि दे मगध या कहीं अन्यत्र के गंध विक्रेता परिवार से मथुरा आये किन्तु महादेव के विषय में तो यह निर्विवाद मान्यता है कि वे मथुरा के प्राचीन निवासी ब्राह्मणों (माथुरों) के परिवार में से थे। उपगुप्त का विशाल यश विहार मथुरा के पूर्व यमुना तट पर साप्तर्थि टीले, बलिटीले से सुदुर रावणकोटि और बुध तीर्थ तक फैले भूभाग में था, यहाँ अनेक महत्वपूर्ण स्तूप विहार और उपवन शोभायमान थे। इनने हज़ारों लोगौं को बोद्ध धर्म में दीक्षित किया था। इससे भी अधिक महत्वशाली दूसरे व्यक्ति महादेव थे, जिनका स्थान महादेव की गली मथुरा के नगलापाइसा मुहल्ले में है और जिसके समीप एक प्राचीन मंदिरनुमां नीची खिड़कों में प्राचीन काल की अनेक ज्ञात अज्ञात मूर्तियाँ दीवाल में चुनी हुई हैं।

तथागत भगवान बुद्ध की मृत्यु के 100 वर्ष बाद बौद्ध साधुओं में धार्मिक आचार विचार को लेकर एक विवाद खड़ा हुआ, जो सिंद्धान्तों को शन लेकर साधारण रहन सहन की चर्चा को लेकर उठा था, जिसमें भिक्षुकश्यप की अध्यक्षता में विचार होकर संगीती के निर्णय के रूप में विनय सूत्र नाम से कुछ नियम निश्चित किये गये। इसी समय एक दूसरी संगीती में बौद्ध भिक्षुओं के ताड़ी पीने सोना चांदी संग्रह करने को धर्म विरुद्ध घोथित किया गया। इससे बहुसंख्यक भिक्षु असन्तुष्ट हुए उन्होंने वैशाली में ही एक दूसरी सभा (संगीती) बुलायी जिसमें 10 हज़ार बौद्ध लोग एकत्रित हुए और इसका नाम "महासंघीती" रक्खा गया तथा इसके निर्णयों को मानने वाले "महासंधिक" कहलाये।

इस माहसांधिक दल या संप्रदाय के नेता महादेव थे। यह संप्रदाय महासंघ के रूप में अफ़ग़ानिस्तान चीन कोरिया, कंवोडिया, जापान, वर्मा श्याम देव तक फैला। महादेव ने इसके 5 सिद्धान्तों निश्चित किये जो सीधे सरल सुधारवादी और सर्वजनसुलभ थे। इनमें 1 – था यह कि अर्हत या सिद्ध पुरूष भी जाने अजाने पाप कर सकता है जिससे वह स्थानच्युत नहीं होता है। 2- यह कि कोई भी व्यक्ति अर्हत बन सकता है। 3- यह के सिद्धांन्त को लेकर अर्हत के मन में भी शंकायें उत्पन्न होती हैं। 4- कोई भी व्यक्ति बिना गुरु के सिद्ध या अर्हत नहीं हो सकतां। 5- भाव विभोर होना ध्यान का एक पवित्र मार्ग या सिद्धि हैं । जब दो शाखायें बनी 1- थेरवादी (स्थिर पंरपरावादी) 2- महासंधिक । इनमें पहिला वर्ग रूढिवादी अनुदारदल या सत्तावादी था तथा दूसरा उदारवादी परिवतनवादी या लोकतांत्रिक था। महादेव इस दूसरे दल महासंधिक संप्रदाय के नाता थे, जिसने बौद्ध सिद्धांन्तों पर नये सिरे से शविचार करने की पद्धति डाली । इसने अभिधर्म , यतिसंविद, और निर्देश तथा कुछ जातकों को मानना अस्वीकार कर दिया। महादेव उधरवादी थे, और उनकी विचारधारा में मथुरा के शालीन ब्राह्मण माथूर वंश की विशालता का समावेश था। इनने आचार्यवाद के नाम से धम्म पिटक और विनय पिटक ग्रन्थों के नवीन भाष्य किये। तथा संकुचित बौद्ध धर्म को विश्व विस्तार के स्तर शपर एक नये सांचे में ढाला, जिन्हें चीन यात्री हवेनसांग फ्याईयान अपने साथ चीन ले गये और वहाँ उनका चीनी भाषा में अनुवाद और महाप्रसार हुआ।

अफ़ग़ानिस्तान और नागार्जुन कौंड़ा में जो इस समय के ताभ्रपत्र लेख आदि पायें गये हैं वे प्राकृत में लिखे गये हैं। मथुरा में जो 63 वि0पू0 का सिंह शिखर सप्तऋषि टीले से मिला है। उसमें लिखा है कि कंवौडिल नाम के गुरु को महासंधिकों को शिक्षा देने के लिये सहायता द्रव्य दान दिया गया, जिससे ज्ञात होता है कि उस काल में मथुरा पुरी महादेव के कारण महासंधिकों का बड़ा गढ़ तथा धर्मप्रचार और शिक्षा का केन्द्र बनगयी थी । महादेव के निर्देंशित महासंधिकों का उस समय प्रभाव मगध साम्राज्य और वैशाली पाटलिपुत्र पर भी था। सातवीं शताब्दी में जो चीनी यात्री आये उन्होंने वहां किसी बड़े बौद्ध महंत का होना नहीं पाया जबकि महासंधिक संर्वत्र थे। बम्बई के पास कार्ली की गुफाओं में, अमरावती और नागार्जुन कौंड़ा में जो विशाल स्तूप बनाये गये वे सभी महासांधिकों के महादेव की प्रेरणा से बने थे।

मथुराकला की स्थापना

इसी समय में मथुरा के ब्राह्मण केन्द्र में बौद्ध शिल्प और स्थापत्य की नव जाग्रति हुई । महासंधिकों के महायान (विशालमार्ग) ने हीनयानी (छोटे मार्ग) वाले थेरवादियों को पीछे छोड़ कर जो विश्व विस्तार किया उसी के फलस्वरूप महादेव के अनुगत शिल्प आचार्य कुणिकने अनेकानेक शिल्प पारंगतों का विशाल कर्मपटु शिलावट नकिाय प्रशिक्षित किया जिसकी कला अभिव्यंजना से आज भी सारा संसार आश्चर्य चकित और भावविभोर है। अपने सूक्ष्म भाव अंकन के वैशिष्ठयके कारण ही इसे मथुरा कला का प्रशस्तिमय गौरव उपलब्ध हैं, किन्तु मूलत: यह मथुरा की पुरातन विश्व विद्या का ही रूप था, जो परखम यक्ष के रूप में देखा जा सकता हैं।

मथुरा को यह गौरव प्राप्त हैं कि उसने एक अति उत्कृष्ट विश्व धर्म को प्रभावित करने वाला रूप देकर संकुचित बौद्ध धर्म को विश्व विस्तार के शैल शिखर पर चढ़ाया तथा जिसके पद चिन्होंने नागार्जुन , वसु मित्र , भाव्य, वसुबंधु जैसे अनेकानेक विद्वान और धर्मधुरीय धर्मसेवी बौद्ध धर्म को दिये। विश्व के विशाल प्राची दिग्भाग में भारतीय धर्म का सूर्योदय स्थापित कर मथुरा के यशस्वी उदार सपूत धर्म की कीर्ति ध्वजा फहराई ।

महादेव अविवाहित रहे। उनका आवास महादेव को घेरा कहा जाता था जहाँ महासांधिक बौद्ध साधुओं का जम घुट लगा रहता था। तथागत बुद्ध ने जिन नाग यक्ष परिवारों को दीक्षित किया उनमें से बहुत से प्रधान लोगों को महादेव ने महायान की शिक्षा देने को अपने समीप बसाया जिनकी बड़ी आबादी नगरा शपाइसा कही जाती थी। यह बड़ी बस्ती भरतपुर दरवाजे से गजापाइसा महौलीपौर तक फैली थी जिसे नीचे काटकर कलक्टर गंज, लालागंज वसाये गये। एक कटरा में यहाँ यक्षवंशी लोग वसाये गये थे जो कुम्हरानौ चमरानौ कहा जाता था क्योंकि ये लोग ही क्रूरकर्म छोड़कर कुम्हारी चर्मकारी का कारीगरी का काम करने लगे थे। महादेव के बड़े परिवार के लोग नगरावार मिहारी या नौसे नवासी का थोक कहे जाते हैं ।

मौर्य वंश

महापद्म के बाद मोर्यो न समस्त उत्तर भारत को अपने विशाल राज्य में सम्मिलित किया। मौर्य मूलत: ब्रज के मयूर वंश के मयूर गण थे जिनका स्थान गोवर्धन पर्वत के समीप मयूर बन या गोरा गांव है। यहाँ से पुरातत्व के अनेक प्राचीन अवशेश मिले हैं । मौर्यों के पुरोहित माथुरों में मौरे कहे जाते हैं। तथा मौर्यों की मुरनाम की शाखा के मुरसार, मोूरौली, सुरार, रार, आदि स्थान हैं। श्री कृष्ण का मयूर नृग्य स्घल मोर कुटी (बरसाना) मोरपंख धारण, मुरकी (कान का अलंकरण) मुरली बादन, ब्रज की अपनी निजी विशेष वस्तुये हैं।

मौर्यों के बाद शुगों का राज मगध पर स्थापित हुआ। शुंग भारद्वाज गोत्रिय ब्राह्मण थे। ये मौर्यो के पुरोहित थे तथा पुण्यमित्रि शुंग मौर्यों की सेना का सेनाध्यक्ष और परामर्श मंत्री था। ब्रज में शुंगों का मूल स्थान सोगर ग्राम तथा शुंगों के सैनिक सोगरिया जाट तथा इनके परिवार के सैगरिया ब्राह्मण ब्रज में ही हैं। सैगरो या महगल (कायस्थ) तथा इनका सैगरपुरा मथुरा शका एक मोहल्ला है। माथुर ब्राह्मणों की बड़ी शाखा सोगर या सैगंवार कहलाती है जो औरंगजेव काल में जाट राजा के दुर्ग सोगर सिनसिनी में अफ़ग़ानों और जपुर नरेश विशनसिंह से जूझकर मथुरा में बसे और वहाँ से ही संकट कालों में प्रवासी हो गये । शुंगों के बाद से मगध साम्राज्य में ब्राह्मण परम्परा चली और फिर कण्व नाम के ब्राह्मण आये। कण्व ऋषी वेद कालीन द्वापर के ऋषियों का वंश है, कण्व का आश्रम बरसाने के समीप कनवारौ नाम का स्थल हे। वर्तमान बृन्दावन में प्रस्कण्व ऋषि सूर्य उपासक थे। कालीदास के शकुन्तला आख्यान में शकुन्तला को कण्व ऋषि की रक्षित पुत्री कहा गया है। ये कण्व वंशी माथुरों के उपदेश से ही सूर्याराधन में प्रबृत हुए थे।

जैन धर्म

जैन धर्म का जन्म प्रधानतया ब्रज भूमि से ही हुआ है। जैन धर्म के आदि प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव का राज्य क्षेत्र अजनाभ वर्ष था । यह स्थान ब्रज की अजनाभ पुष्कर (अजनोखर) के विस्तार का क्षेत्र था। जैन धर्म के प्राय: अधिकांश तीर्थकर पौराणिक सनातन धर्म के मानने वाले थे। भागवत में वर्णित वंशावलियों में इनके नाम और चरित्र उपलब्ध है। इस आधार से इनकी वंश परम्परा और जीवनचर्या का पता जाना जा सकता है। महात्मा ऋषभदेव को भागवत में विष्णु का अवतार और महाप्रतापी नरेश कहा गया है। ये प्रियव्रत वंशी महाराज नाभि के पुत्र थे। इनका संशोधित समय 8324 वि0पू0 है। इनके पुत्र भरत 8255 वि0पू0 जिन्हें जड़ भरत भागवत में कहा हैं, इनके द्वारा ही इस देश का नाम अजनाभ वर्ष से भारतवर्ष विख्यात हुआ। इनने अपने दूसरे जन्म में मथुरा माथुर आंगिरस वंश में जन्म लिया तथा सिन्धु देश के राजा रहुगण को पालकी उठाते हुए ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया, जो स्थल भरत रहुगण संवाद का ब्रह्म विद्या क्षेत्र भतरींड नाम से प्रसिद्ध है इसी वंश में सुमति राजा हुए जो जैन सुमतिनाथ तीर्थकर हैं। इनके ही पुत्र विमति को मथुरा के आक्रमण युद्ध में प्रभु श्वेतवाराह ने पददलित किया था।

सत्य तथ्य की बात यह है कि इन जैन बौद्ध आदि का धर्म ही नहीं भारतीय आदि सनातन वैदिक पौराणिक यज्ञ तप योग आदि 10 लक्षणों वाला मनु भगवान का प्रवर्तित धर्म हो सर्वथा विश्व में व्याप्त था और बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट भी वैभव को त्यागकर वाणप्रस्थ और सन्यास धर्म धारण करते थे तथा इनसे भी श्रेष्ठ अवधूत धर्म या अजगर वृत्ति धर्म था। जिसे गोता में प्रभू श्री कृष्ण ने स्थित प्रज्ञ, आत्माराम, पूर्णकाम, ब्रह्मरूप विर्विकार निर्लेय पद कहकर सर्वोत्कृष्ट स्थिति घोषित किया था। 24 वे तीर्थकर कह जाने वाले श्री वर्धमान महावीरस्वामी ने 1767 वि0पू0 में जब अपने धर्म को जैन शनाम देया तब उनहोंने अपने पूर्व की 23 तीर्थकरों की परंपरा को प्राचीन विष्णु अबतार महात्मा ऋषभदेव जी से जोड़ा और अवधूत पंरपरा को अपनी यती मुनि यर्या से समन्वित किया। ऋषभदेव मूलत: स्वायंभूमनु पुत्र प्रिय ब्रत वंशी थे, इनका मथुरा और माथुरों से निकटस्थ संबंध रहा। इनका चरित्र विस्तार से भागवत में वर्णित है। आरम्भ में जैन तीर्थकर वेद और ब्राह्मणों यज्ञों के विरोधी नहीं थे। भागवत धर्म के 10 धर्म लक्षणों में इनने अहिंसा सत्य अस्तेय अपरिग्रह को अपने धर्मचर्या ब्रत माने तथा वैदिक सूत्र ग्रन्थों की अनुकृति मंं अंग सूत्र , ज्ञातासूत्र, उपांग सूत्र , स्थानाँगसूत्र तथा पुराण, तथा शैवागमों की पद्धति में आगम ग्रंथ तथा अंग उपांग साहित्य रचा जो वैदिक संस्कृत साहित्य से बहुत पश्चात का है क्योंकि इनकी भाषा प्राकृत हैं, जिसका प्रचलन विक्रम संवत आरंभ काल हुआ था।

जैन साहित्य में शूरसेन जनपद और मथुरापुरी का वर्णन अनेक ग्रन्थों में है। जैन हरिवंश पुराण में भारत के 18 महाराज्यों में शूरसेन राज्य का कथन है। निथीथ पूर्ण तथा स्थानाँग सूत्रों में भारतवर्ष की 10 प्रमुख राजधानियों में मथुरा के वैभवपूर्ण विस्तार का वर्णन है, वहाँ उसे अर्हन्तप्रतिष्ठित, चिरकाल (अनादि अनश्वर) प्रतिष्ठित अति पुरातन नगर कहा है। ज्ञाता सूत्र में द्रोपदी स्वयंवर में मथुरा नरेश की उपस्थिति का उल्लेख हैं उपाँग सूत्र में मथुरा और शूरसेन देश का भारत के 25 आर्य देशों में गणना होना कहा गया है। 400 वि0 के प्राकृत ग्रन्थ वासुदेव हिडी में श्यामाविजय लंवक मैं कंस के पराक्रम का आख्यान है। जिनसेन रचित जैन महापुराण में आदि तीर्थकर ऋषभदेव के आदेश से इन्द्रदेव ने पृथ्वी पर 52 राज्यों की स्थापना की, इनमें शूरसेन राज्य तथा उसकी राजधानी मथुरापुरी प्रतिष्ठित हुई ऐसा उल्लेख है। इन वर्णनों से मथुरा की जैन धर्म में आदरणीय स्थिति और उसकी स्वीकृति से मथुरा की पुरातनता का वोध स्पष्ट होता है। माथुरा इन सभी कालों में और उनसे पूर्व से ही इस क्षेत्र में एकाधिकार सम्पन्न स्थिति में रहे, अत: इनका इन सभी कालों में सम्मान और पूजन होता रहा।

तीर्थकरो का सिद्ध क्षेत्र

मथुरा क्षेत्र जैन धर्मियों का सर्वोपरि मान्य तीर्थ रहा। यहाँ समय समय पर अनेक तीर्थकरों के विहार स्थलों और सिद्धि स्थलों पर उनके स्तूप बनाये गये थे। उनका वर्णन मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय के अध्यक्ष श्री रमेश चन्द्र शर्मा की "मथुरा का जैन तीर्थ कंकाली टीला" नामक पुस्तिका में विस्तार से हैं। इसमें मथुरा के प्राचीन जैन स्तूपों के विषय में लिखा है :- "मथुरा में 7 वें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ का कायोत्सर्ग स्तूप अतिभव्य था। इस स्तूप के स्थान पर ही कुवेरानागा (कुवेर पन्नी षष्ठी देवी) ने अपार धन और रत्न लगाकर स्वर्ण निर्मित स्तूप बनाया था। 14 वे तीर्थकर अनंतनाथ का स्तूप संभवत: अनंततीर्थ (भतरौड़) पर था। 22 वे तीर्थकर समुद्र बिजय के पुत्र कृष्ण के भाई नेमीनाथ का स्तूप यहाँ था। 23 वे पार्श्वनाथ का पूजा स्थल यहाँ था जिनकी नागफणायुक्त मूर्तियाँ कंकाली टीले से मिली हैं। नागफण छत्र वलराम जी का चिन्ह (लांछन) मथुरा क्षेत्र में बहुत पूर्व काल से मान्य रहा है।

22 वे तीर्थकर नेमिनाथ जैन मान्यता के अनुसार री कृष्ण के पारिवारिक भाई थे। उनके पिता की राजधानी शौरीपुर (वटेश्वर) के यादव खंण्ड में थी तथा मथुरा में समस्त यादवों का सामूहिक गणतत्न होने से वे मथुरा में ही साधनारत रहे। 23 वे तीर्थकर पार्श्वनाथ की सर्पफणा लाँछन युक्त अनेक मुर्तियाँ मथुरा के कंकाली टीले से मिली है जिनसे इस क्षेत्र में जैन सिद्धस्थल बहुत प्राचीनकाल से होने की संभावना सुपुष्ट होती है। ब्रज का पलसानौ ग्राम पार्श्वनाथ का तप स्थान माना जाता है।

महावीर स्वामी

जैन धर्म के 24 वे तीर्थकर महावीर स्वामी सबसे अधिक प्रभावशाली , धर्म के महाविस्तार और मान्यता वृद्धि के सिद्ध प्रयासी थे। उन्होंने अपने प्रयासों से जैन धर्म को नयी चेतना गति और प्राचीन परम्परा को प्रवल संवर्धन दिया। अधिकाँशत: तो लोग उन्हीं को जैन धर्म का प्रवर्तक के रूप में ख्याल करते हैं। भगवान महावीर का चरित्र जैन इतिहास ग्रन्थों में विस्तार से प्राप्त है, जबकि अहन्य पूर्व तीर्थकरों के समय, वंश, जीवन घटनाओं के विषय में निश्चित तथ्य प्राय: अभाव ग्रस्त ही हैं।

महावीर स्वामी का जन्म 1797 वि0पू0 में विहार के वैशाली क्षेत्र के कुण्डग्राम में हुआ। उनका पारिवारिक नाम वर्धमान था। 1725 वि0पू0 में उन्होंने कैवल्य पद प्राप्त किया। उनकी पूर्ण आयु 72 वर्ष थी, उनने ब्रजभूमि की पुरी मथुरा में आकर विहार किया, तब मथुरा का राजा उदितोदय (उदायी) था। सुबल और कमल उसके दो राजकुमार महावीर स्वामी की सेवा करते थे। नगर सेठ को जिनदत्त नाम देकर जैन दीक्षा दी गयी, तथा उसका पुत्र अर्हतदास था। जिनसेन ने अपने रसिक स्वभाव से प्रेरित होकर मथुरा के शरद उत्सव को "कौमुदी महोत्सव" नाम देकर एक नया सांस्कृतिक रूप दिया, जसमें नगर की सभी नारियाँ श्रंगार सज्जा से सजधज कर नगर के बाहर के विशाल उपवन कुमुदबन में नृत्यगान संगीत का सरस आयोजन करने हेतु एकत्र होती थीं और सारी रात आनंद का उल्लास दिशाओं को गंजाता रहता था। यह उत्सव माथुरों द्वारा देव मंदिरों में आश्विन पूर्णिमा को शरदोत्सव के रूप में अभी भी उत्साह से मनाया जाता है। महावीर स्वामी के शिष्य सुधर्माचार्थ तथा उनके शिष्य जंवू स्वामी थे। जिन्होंने मथुरा में तप कर कैवल्य पद प्राप्त किया। इनका चैत्यालय विशाल किले की तरह के परकीटे से धिरा चौरासीतीर्थ अभी मथुरा में सुरक्षित है। वर्तमान मंदिर का निर्माण जैन भक्त टोडरमल ने कराया था। महावीर स्वामी मथुरा के भक्त थे। उनकी वाणी साहित्य से युक्त "अंग सूत्र" ग्रंथ में मथुरा और उसके तीर्थों का वर्णन है।

रत्न जटित स्वर्ण स्तूप

मथुरा में जैन सिद्ध क्षेत्र के बीचों बीच एक टीले पर जिसे अब कंकालीटीला कहा जाता है, तथा जिसे मथुरा महात्म ग्रन्थ में चर्चिका योग माया तीर्थ कहा गया है – उस स्थान पर एक जैनों का देव निर्मित रत्न जाटित स्वर्ण स्तूप सुपार्श्व स्वामी की स्मुति में बना हुआ था, जिसे देव निर्मित स्तूप कहा जाता था। पौराणिक वंशावली के आधार से सुपार्श्व राजा का समय 3402 वि0पू0 है, तथा उस देव युग में देव निधिपति कुवेर की पत्नी कुवेरा नागा या षष्टीदेवी (षष्ठीपुरा छटीकरा वासिनी) ने अवधूत धर्मा अपने गुरु सुपार्श्व स्वामी के पूजा स्थान के रूप में अपने देव कोष से बहुमूल्य रत्न और सुवर्ण लगाकर यह विशाल वेदीप्यमान देव दुर्लभ स्तूप निर्माण किया था। बहुत लम्बा काल वीत हजाने पर लोग इसे देव निर्मित स्तूप ही जानते थे। शब्रज के देवता कुवेर का प्रमुख कोषागार कुवेरपुर (कुम्हेर) में में था। तथा उसकी शाखायें वैश्रवणपुर (सरवनपुरा) मथुरा में, वैरभसावर, परखमबेरी वेरीभिवानी, यक्षेन्द्रपुरी (जिखिनगाँव) कर्मचारीगण (यक्ष जखैया) गुह्मक (गौहंजेजाट) आदि थे। यह स्तूप चोरों के भय से वाद में ईटों के बाहरी स्तूप से घेर कर बन्द कर दिया गया, और हूणों के आक्रमण में लूटा और ध्वस्त किया गया।


महावीर स्वामी का विहार स्थल कैवल्य धाम भरतपुर क्षेत्र में "केवलादेव कौ घनौ" बताया जाता है जहाँ अब पक्षी विहार स्थापित है। इन सब कारणों से मथुरा सिद्ध क्षेत्र जैन धर्मियों के लिये पवित्र यात्रा स्थल था। कुछ यात्राओं का वर्णन जैन साहित्य में उपलब्ध भी हैं, जो ध्यान देने योग्य है और माथुरों की तीर्थ पौरोहित्य परम्परा की शप्राचीनता को िसद्ध करता है।

1- जिन सेनाचार्य के महापुराण , जैन हरिवंशपुराण, प्रज्ञापना सूत्र , ज्ञाता सूत्र, निशीथचूर्ण, निर्वाणकल्प, वृहतकल्पभाष्य आदि ग्रन्थों में मथुरा के शूरसेन राज्य ब्रज और उसकी राजधानी तीर्थ शिरोमणि पुरी मथुरा का वर्णन है जो इन्द्रदेव द्वारा स्थापित 52 महा जनपदों में श्रेष्ठ देवनिवास भूमि थी। उक्त सभी ग्रन्थों के कर्ता मथुरा तीर्थ यात्रा को आये थे और अपने ग्रन्थों में मथुरा का महत्व प्रतिपादित किया था।

2- कुवेर देवता की पत्नी कुवेरा देवी ने मथुरा में सुपार्श्व स्वामी की स्मृति में रत्न जटिल स्वर्ण स्तूप जिसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती अरबों खरबों मुद्रा मूल्य का स्मारक बनाया जो मथुरा के उस समय तीर्थों में सर्वमुकुटमणि होने का सुदृढ़ प्रमाण है। दशेश भर से लाखों यात्री और यात्रिक संघ सार्थवाहों के रूप में इस पवित्र अदभुद और अनमोल भारत के सर्व प्रथम आश्चर्य को देखने और उसकी तीर्थ यात्रा का पुण्य लेने आते थे।

3- 1100 वि0 में संगम सूरि ने मथुरा की तीर्थ तात्रा का "तीर्थमाला" ग्रन्थ में यात्रा वृतांत लिखा।

4- 1374 वि0 में जिनचंद्र सूरि ने जैन यात्री संघ के साथ मथुरा की तीर्थ यात्रा की।

5- 1476 वि0 में "जैन तीर्थ संघ" ने मुनि शेखर सूरि, मुनि श्री तिलक मुनि भद्रेश्वर सूरि आदि मुनियों के साथ मथुरा सिद्ध क्षेत्र की यात्रा की । ये संघ भरतनगर (भटनेरा) से आया था तथा इसका संघपति नयणागर नाहरंवशी था।

6- 1370 िव0 में मुनि जिन प्रभ सूरि ने मथुरा क्षेत्र यात्रा कर अपना यात्रा ग्रन्थ "मथुरा तीर्थ कल्प" लिखा जिसमें मथुरा के उस समय के तीर्थों का महत्वपूर्ण विषद वर्णन है।

7- 1632 वि0 में वादशाह अकबर के कोष मन्त्री साहू टोडर मल पंजाबी खत्री ने मथुरा की तीर्थ यात्रा करके जैन तीर्थ चौरासी पर 514 स्तूप बनवाये जो प्रधान मुनि जंबूस्वामी स्तूप के आसपास प्राचीन काल के बने अनेक जीर्ण स्तूपों के रूपों में थे। जैन कवि राजमल्ल ने इसी समय तीर्थ वर्णन में "जंवूस्वामी पुराण" की रचना की थी। इनमें से बहुत से अभी भी जैन चौरासी मन्दिर में सुरक्षित हैं। साहू टोडर ने ब्रज के भी अनेक जीर्ण देवालयों और कुंड सरोवरों का जीर्णोंद्वार किया था तथा मथुरा में विश्रान्त घाट पर स्नान करके तीर्थगुरु माथुर ब्राह्मणों को दान देने से निषेध कर दिया। इस राज कर्मचारी के अधार्मिक आचरण के विरुद्ध महामहिमांमय श्री उद्धवायार्य देवजू के वंशधरों ने अकबरी दरवार में मुकदमा दायर कर साहू टोडर पर 350) रुपयों की डिग्री प्राप्त की थी, जिसे चुका कर टोडर माथुरों का परम भक्त बन गया। टोडरमल ने मथुरा में एक ग्रन्थ "टोडरानंद" नाम से भी लिखा था जिसमें ब्रज स्थलों और मथुरा का वर्णन है।

जैन ग्रन्थों का सिद्धान्त और पाठ निरूपण

मथुरा में जैन ग्रन्थों की निश्चिति के लिये विद्वानों के सम्मेलन और सभायें भी आयोजित की जाती रही हैं। जिनमें विवादस्पद रूपों के पाठ और सिद्धांतों का निर्णय करके उन्हें नये सिरे से प्रमाणिक रूप दिये गये। एसी एक सभा विक्रम संवत के आरम्भ काल में प्राकृत भाषा प्रचार युग में मथुरा में आयोजित की गई जिसमें जैन आगम ग्रन्थों के पाठ शोधन कर उनका लिपिकरण किया गया। इस विस्तृत धर्म रक्षा प्रयास को "सरस्वती आन्दोलन" कहा जाता है। इस समय मथुरा में प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां तैयार करने की ग्रन्थ लेखन कला का बड़े स्तर पर शप्रसार हुआ। अनेक ग्रन्थ लेखक (लिखिया) लोग इस कार्य में जुटे रहे, और प्राचीन ग्रन्थों की प्रतियां प्रस्तुत कर धनी मानी लोगों को दूर दूर तक पहुंचाते रहे। मथुरा में गोविंद घाट, मनोहर पुरा आदि स्थानों पर लिखे गये अनेक ग्रन्थों की प्रतियां दूर दूर राजस्थान, गुजरात, बंगाल, हिमाचल प्रदेश, हर्याना, मध्यप्रदेश आँध्रप्रदेश , तक प्राप्त हुई है। दूसरा आन्दोलन "माथुरीवाचना" नाम से प्रसिद्ध है, जो 300 वि0 में मुनि स्कंदिलाचार्य द्वारा प्रवर्तित होकर जैन अंग ग्रन्थों को परिष्कृत और व्यवस्थापित करने को प्रयत्नशील हुआ। इसकी सूचना "जैन नंदीचूर्ण" नामक ग्रन्थ में है।

मथुरा तीर्थ कल्प

1370 वि0 में जैन विद्वान जिनप्रभ सूरि ने मथुरा क्षेत्र की तीर्थ यात्रा करके एक "विविध तीर्थ कल्प" नाम के ग्रन्थ की रचना की इसके मथुरा तीर्थ कल्पखंड में उन्होंने उस समय की भव्य दिव्य तीर्थ गरिमा रूप मयी मथुरापुरी का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं-------

मथुरा 12 योजन दीर्घ 9 योजन विस्तीर्ण, यमुना प्रक्षालित, उत्तुगं प्राचीर से अलंकृत, असंख्य धवल भवनों , देवालयों, जिन मन्दिरों, वापी कूप तड़ागों पुष्करिणी हाट बाज़ारों से शोभित पुरी है, तथा यहाँ अनेक चातुर्वेद्य (चतुर्वेदी माथुर ब्राह्मण) नित्य शास्त्रों का संथा पाठ करते रहते हैं।

मथुरा में 5 लोक तीर्थ हैं:- 1- विश्रान्त तीर्थ 2- असिकुंड तीर्थ 3- बैकुंठ तीर्थ 4- कालिंजर तीर्थ 5- चक्रतीर्थ तीर्थ तथा 12 वन हैं।

तया य महुरा वारह जो अणाई दीहा। नव जो अणाइ वित्थिण्णा पासटि्ठअ जउणा जल पक्खलिय, वरप्पाया रविमूसिआ धवल हर देउल, बावि कूव पुक्खरिघि, जिणामवण, हट्ठोवसोहिआ, पंढत विविह चाउव्बिज्ज विप्पसत्था हुत्था ।"

" इत्थ पंच थलाई । तं जहां अक्कथलं , वीरथलं, पडमथलं, कुसत्थलं, महाथलं, दुवालस वणाई। तं जहां-लोहजंघ वणं, महुवणं, विल्लवणं तालवर्ण कुमुअवणं, विंदावणं, बहुलाबणं महावणं ।"

"इत्थ पंच लोइअतित्थाई । तं जहां – विस्संतिअत्तित्थं, असिकुंड तित्थं, वेकुंत तित्थं, कलिंजर तित्थं, चक्क तित्थं।"

"तथा अयं मथुरा बारह योजनानिदीर्घा नव योजननि विस्तीर्णा, पार्श्वतट- जमुना जल प्रक्षालित, वैरूप्यादि विभूषिता धवल हरि देवल, वापी, कूप पुष्करिणि, जिनभवन, हट्टादि शोभिता, पंडित विवुध चातुर्वेद (चाउविज्ज-चौवेजी) विप्र संथा (वेदपाठ) करते थे।

इति पंच स्थलानि । ते यथा, अर्क स्थल, वीरस्थल, पद्न स्थल, कुश स्थल, महास्थल । द्वादस बनानि। ते यथा – लोहजंघबंन, मधुवनं विल्वबंन, तालबनं, कुमुदबनं, ब्रन्दाबनं, भंडीरबनं, खदिरबनं, काम्यबंन, कोलबंन, बहुलावंन, महाबनं।

"इति पंच लौकिक तीर्थानि । ते यथा – विश्रान्ति तीर्थ, असिकुंड तीर्थ वैकुठतीर्थ, कालिंजर तीर्थ , चक्रतीर्थ"

इस वर्णन से कुछ एतिहासिक तथ्यों के सूत्र इस प्रकार प्राप्त होते हैं- 1- मथुरा के तीर्थ उस समय तक सभी धर्मावलंवी जैन बौद्ध आदि को मान्य थे, तथा वे उनकी यात्रा करते थे। 2- मथुरा उस समय 96 मील लम्बाई में तथा 72 मील चौड़ाई में विस्तारित एक विशाल महानगर था। उसके तट पर यमुना वहती थी। नगर में ऊंचा परकोटा परखम से गरूड गोविन्द तक बना था उसमें बडे़ बड़े सुदृढ़ द्वार वने वे । शनगर में असंख्य श्वेतवर्ण के ऊँचे शिखरों वाले द्वार नगर के मध्य के चतुर्वेद पुर (चौविया पाडा) में शोभायमान थे जहाँ चतुर्वेदी माथुर ब्राह्मण, घर घर में वेद पाठ करते थे। नगर में अनेक ब्राह्मण देवालय, जैनमंदिर (कंकाली टीले पर ) वावड़ियां, कूप , तालाव, सरोवर, पुष्किरणी, हाट" (गूजरहट्टा) , बाज़ार दुकाने मंडियों शोभित थीं। 3- इस क्षेत्र में उस समय भी पंच स्थल 12 वन थे। 5 लौकिक तीर्थ (विश्रान्त, असिकुंड, वैकुठ, कालिंजर ओर चक्रतीर्थ) जो अभी भी हैं अपने स्थानों पर ही स्थिति थे। 4- हूड़ों, गजनवी की लूट के बाद भीं मथुरा श्रीहीन ध्वशस्त नहीं हुई थी। मथुरा को सम्हाले रखने का निश्चय ही उस समय के विशाल देवालयों की अर्चना व्यवस्था में इन शास्त्र चिंतक विद्वानों का बहुत बड़ा योगदान रहा होगा। तभी तो जैनाचारों तक ने इनकी शास्त्र समृद्धि औरं धर्मनिष्ठा की अपने ग्रन्थ में मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। विपक्षी जिसका लोहा मान लै, वही तो साधना की विजय है।

सच बात तो यह है कि माथुर विद्वान सदैव से उदारचेता और स्नेह सम्पन्न मानवता प्रणेता रहे हैं। उन्होंने बौद्धों के धार्मिक संघर्ष से जैनों की रक्षा की और उनके धर्म तथा पूजा प्रतीक चैत्यों आयाग पटों की सुरक्षज्ञ में अपना योगदान दिया। इसके प्रमाण स्वरूप आज भी जैनपूजा के मूल्यवान आयागपट अवशेथ अभी भी माथुरों के पास सुरक्षित उपलब्ध हैं। माथुरों ने सदैव असहिष्णुता का विरोध किया और धैर्य क्षमा तथा प्रेम के साथ धर्म सिद्धांन्तों के प्रचार और प्रस्थापना पर बल दिया ।

वे जैनों बौद्धों के स्तूप भवनों बिहारों जिनालयों चैत्यों संधारामों के रक्षक तथा ज्ेन बौद्ध प्रजाओं के परिपोषक (भिक्षा प्रदाता) तथा तीर्थ यात्रा स्थल दर्शक एवं व्रतांत निर्देशक रहे। यद्यपि वे स्वयं अपने प्राचीन सनातन धर्म पर ही दृढ़ रहे उन्होंने काल प्रभाव में आकर जैन बौद्ध धर्म अंगीकार नहीं किया फिर भी वे न उनके विरोधी बने और न उन्हें कोई कष्ट दिया। वो इन सभी के भी तीर्थ दर्शक बने रहे उनमें भी एक वर्ग स्तूप ज्ञानी तोपजाने उपनाम धारी था। दूसरा बौद्धों का पूजित बुधौआ वर्ग था। बौद्ध जनों की सामाजिक व्यवस्था सम्हालने वाला एक वर्ग वुधौलिया था। मगध के लम्वे शासन में भी मंगोतला (मगोर्रा) मागधपुरा के राज कार्य संथापक माथुर गदवारिया, गदइया, गदेल, गदना , थे। मागधों का जरासंघ कालीन सेनाशिविर गदावसान पुर (गढाये कौ घाट) माथुरों का यात्रा तीर्थ बना।

स्वधर्म संरक्षण – इन नवीन धर्मों से माथुरों को आचार विरोध स्वाभाविक रूप में था। वे जैन दिगम्बर मुनियों को नंगा ठाकुर , दंतधावनस्नान से विंरत व्यक्ति को सरावगी, श्रावक को सलेवरा, भिक्षु को भकुआ, भिक्षुणी को मक्कों , ध्यानी बुद्ध को बुत्तमथान, बौद्ध साधु को भौंदू, मठ के पुजारी को मठोठा कहते थे। यद्यपि उन्हें ईश्वरू उपासना तप नियम कठोर ब्रतचर्या उपदेशों और वैराग्य से कोइ्र विरोध न था परन्तु आचार भिन्नता और अपने कुलाचारी के प्रति सुदृढ़ और सचेत निष्ठा ने उन्हें इस प्रवाह से बचाये रक्खा। जिन्हें माथुर अप्रिय मानते थे। उनमें अपने प्राचीन धर्म के प्रति दृढ़ निष्ठा थी।

जैन धर्म के प्रभाव से उस समय कुछ मथुरा के नागरिकजन जैन धर्मावंलवी बन गये थे। उनके नाम भी जैन ग्रन्थों में हैं- अजात शत्रु राजा के पुत्र कालवेशि मुनि ने अर्श पीड़ित हो जैनचर्या पालन करते हुए मुदगल टीले शपर देहोत्सर्ग किया। गजपुर (गजांपाइसा) के सोमदेव ने , शंखराज यती ने, गति पायी। सुरेन्द्रदत्त राजा की रानी निवृत्ति ने यहाँ पति पाया, पुष्यचूल, कुवेरदत्त, कुवेरदत्ता, उपरसेना, आदि ने दीक्षा ग्रहण की । इन दीक्षित जनों में किसी माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का संकेत नहीं हैं।