चतुर्वेदी इतिहास 8

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माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों का इतिहास-लेखक, श्री बाल मुकुंद चतुर्वेदी

युगों का सांस्कृतिक पर्यवेक्षण

बाराह कल्प के युगों की मानव जीवन विकास की ऐतिहासिक विस्तृति इस प्रकार है---

1. दिवा सतयुग 13,800 वि0पू0 से 9,000 वि0पू0 काल ---

भगवान नील बाराह का अवतार , यज्ञ वेद की आदि स्थापना , हेति प्रहेति, मधुकैटम आदि अज्ञान गर्वित प्रबल असुरों की उत्पत्ति, प्रभुनारायण केशव माधव, पद्मनाभ ब्रह्मा नारायणी नरप्रजा, अग्नि वायु इन्द्र तीन देवों की प्रथम उत्पत्ति , विराट महाविष्णु की उत्पत्ति , विश्व नियंत्रण असुरकर्मा तपोगुणी अपहर्ता प्रचायें, देवसर्ग पृथ्वी जल तेज वायु आकाश के कर्माधिष्ठात्रि देवता, अग्नकिर्मा प्रमथ देवों (माथुरों) की प्रतिष्ठा, ब्रह्मा के 10 पुत्र मरीचि (कश्यप) , अत्रि , अंगिरा, पुलस्त्य , पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, नारद की उत्पत्ति, ब्रह्म वंशों ऋषि गोत्रों की स्थापना, कश्यप वंश का विश्व विस्तृत प्रसारण कश्यप सुरभी से एकादश रूद्र सर्ग (1 वैवस्वान, 2 अर्यमा, 3 पूषा, 4 त्वष्टा, 6 सविता, 7 मित्र , 8 वरूण, 9 अंशुमान, 10 भग, 11 अति तेजा) रूद्रों का सद्योजात रूप में अल्प कालिक विस्तार शतरूद्र, सहस्त्ररूद्र, कोटिरूद्र आदि, रूद्र प्रजासृष्टि भूत प्रेत पिशाच यक्ष राक्षस गंधर्व किन्नर, यातुधान, प्रेत, कूष्मांड भैरव बेताल आदि की उत्पत्ति , रूद्र कार्तिकेय और विनायक सेना में प्रमथों का प्रथम वर्चस्व। हिरण्यकशिपु हिरण्याक्ष, वाराह नृसिंह प्रहलाद वंश, वामन अवतार नाग कूर्म कमठ कोल आदि जातियोंका उद्भव, बलि का दक्षिण देश पर विशाल साम्राज्य , दैत्य दानवों का वेद विरुद्ध हिंसा प्रधान विषयासक्त समाज विस्तार, माथुर ऋषि दक्ष, अंगिरा, वशिष्ठ, अत्रि, चन्द्रमा, भृगु, बृहस्पति , भारद्वाज आदि की इन्द्रादि देवों द्वारा रक्षा और दान सम्मान अर्चना।

2. दिवा त्रेता 9,000 से 5,400 वि0पू0 काल ।

स्वायंभूमनु वंश, उत्तानपाद ध्रुव का साम्राज्य ब्रह्मर्षि देश । प्रधान देव क्षेत्र द्युलोक सूरसेन जनपद, माथुरों का सन्मान और स्वांयंभूमनु द्वारा इस प्रदेश के माथुर ब्राह्मणों द्वारा विश्व को सदाचार शिक्षा के गुरु मानने की घोषणा। प्रियव्रत का विश्व महाद्वीप विभाजन, सप्त समुद्रों और सप्त द्वीपों की साम्राज्य इकाइयाँ निर्धारित कर अपने पुत्रों को बाँटना । अग्नीधु को जभ्बू द्वीप हिम वर्ष नाभि वर्ष या अगनाभ वर्ष का सम्राट पद। अग्नीध्र का माथुरों के शिष्यत्व में माथुर क्षेत्र में अग्निध्र आश्रम अड़ींग बन में तप कर जीवन्मुक्त पद प्राप्त करना। वैवस्वत मनु का विश्व प्रजा पालन, देव संस्कृति का महान विस्तार, युवनाश्व वंशी त्रसदस्यु मांधाता का विश्व दस्यु दलन, मथुर में बाराह तीर्थ और विग्रह की स्थापना ता माथुर कुलपुत्र बनकर कुत्स गोत्र का प्रवर पद ग्रहण करना, यह महायुग दिष्ट वंशी मरूत चक्रवर्ती, निमिवंशी प्रतीपक तक चला तथा चन्द्रवंशी संयाति पर इसका अन्त हो गया।

3. दिवा द्वापर (5400 से 3000 वि0पू0 काल) मरूत चक्रवर्ती के बाद इस दिवा कालीन द्वापर का पदार्पण हुआ। इसमें सगर वंश– हेहय, हरिश्चन्द्र, भगीरथ (गंगा अवतरण) त्रिशंकु का कर्म नाशा प्रवर्तन, सुदास का दाशराज युद्ध, देवासुर संग्राम, रघुवंश दशरथ श्रीराम अवतार आदि प्रमुख घटनायें घटी। यह महायुग रामवंशी बृहद्वल , निमिवंशी शुनक ययाति वंशी यदु अनु रूदु दुह्यु वर्तसु पर समाप्त हुआ। इस युग में माथुरों की महिमा देवों, सम्राटों, धर्मपुरूषों , ऋषि वंशों तथा लोक प्रजाओं में सर्वाधिक श्रेष्ठता से वृद्धि को प्राप्त हुई ।

4. दिवा कलियुग (3,000 से 1,800 वि0पू0) काल।

इस महायुग में सूर्यवंशी सुमित्र तक शाक्य वंश चलता रहा जिसमें आगे बृद्ध, महावीर जैन, भगवान कल्कि आदि धर्म प्रवर्तक पुरूष हुए। इस युग में मगध के विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई जो बृहद्रथ (जरासंध) वंश के रूप में 3233 वि0पू0 से रिंपुजय तक 2011 वि0पू0 तक चला, स्त्रुंजय के समय श्रीकृष्ण वंशी बज्रनाम का राज्य भंग हुआ तथा यादवों के वंश मिथिला, मगध, विदर्भ , गौंडल, जैसरमेल, करौली, काठियावाड, सतारा, दक्षिण मथुरा पांड्यदेश , पल्लव आदि विभिन्न खंडों में बिखर गये। शुनक वंशी प्रद्योत और उसके पांचवे वशंधर नंदिवर्धन (1873 वि0पू0) तक चलकर यह महायुग समाप्त हुआ। दिवा साथ ही वाराह कल्प का दिवस काल भी समाप्त हो गया। इन पूरे चारों महायुगों की नवीन शोधपूर्ण वंशावलियाँ अनुक्रम रूप से हमारे पास तैयार हो चुकी हैं और इनके ही आधार से हम "भारतवर्ष का प्राचीनतम अपना इतिहास" प्रस्तुत करने का हमारा अगला प्रयास है। इससे भारतीय इतिहास की अब तक की सभी भ्रान्तियाँ और आक्षेप की निराधार सभी प्रबृतियाँ समाप्त हो जायेंगी। दिवा कल्प के इस विवरण को यहीं थोड़ा विराम देकर अब हम अगले रात्रि कल्प के इतिहासिक काल को आगे आरम्भ करेंगे। इससे पूर्व इस पुरातन प्रसंग में हम माथुर ब्राह्मणों की उत्पत्ति, उनके गोत्र प्रवर शाखायें, श्री यमुना माता से इनका पुत्र सम्बन्ध आदि पर प्रकाश डाला जाना आवश्यक अनुभव करते हैं।

माथुर ब्राह्मणों की उत्पत्ति

माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों का वंश अग्निवंश है। अग्निदेव, देवता, ब्राह्मण पुरोहित और इन्द्रयज्ञ के अध्वर्यु ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में ही "अग्निमीड़े पुरोहितम्, देवस्य यज्ञ ऋत्विजम्" की उदघोषणा करके मधुच्छंदा ऋषि (छांदेरी निवासी) ने अग्निदेव को प्रम पूज्य और प्रथम उत्पन्न देव निर्धारित किया है। इस मंत्र से माथुरों की आदि उत्पत्ति और पौरोहित्यकर्म की अति प्राचीनता का भी निर्धारण होता है।

ऋग्वेद के मंडल 10 सूत्र 90 में मथुरा आदिनारायण क्षेत्र या ब्रह्मभुवन के अधिष्ठाता प्रभु गतश्रमनारायण के द्वारा प्रणीत प्ररूष सूक्त के 13 वें मंत्र में विराज पुरूष महाविष्णु (दीर्घविष्णु) के प्राण से वायुदेव तथा मुख (मुखराई) से "मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च" के रूप में इन्द्र और अग्निदेव की उत्पत्ति हुई । इस प्रकार इन्द्र अग्नि और वायुदेव विश्व के आदि पुरूष और सहोदर भाई सिद्ध होते हैं। यही बात भागवत 3-6-30 से भी कही गई है। ये तीनों देव "ब्राह्मणा: प्रथमं प्रादुर्भूता: ब्राह्मणेभ्यश्च शेषावर्णा: प्रादुर्भूता:, (महाभा0 शान्ति0 342-21) के प्रमाण से ब्राह्मण जाति के प्रथम मूल पुरूष थे। यह निर्मथ अग्निदेव "मंथन कर्म से यज्ञाग्नि का उत्पन्न कर्ता प्रमथ संज्ञायुक्त, वेद और यज्ञों का मूल तथा देव आवाहन (देवहूति विद्या) का मूल अविष्कर्ता था। सं जायसे मथ्यमान; (साम उत्तराचिंक 3-1-2), 'गोपवनी अंगिरा जनिष्ठ दग्ने अंगिर:' (साम 29) के अरणिमंथन से उत्पन्न अग्नि अंगिरावंशी (कुत्सगोत्रिय) प्रमथ या माथुर कुलोद्भव था। यही बात ऋग्वेद के 4-1-14,4-11-5,5-8-4, 8-23-10, 4-1-14, 4-3-11, आदि अनेक मंत्रों में कही गयी हैं यह आग्निदेव इन्द्रवायु बृहस्पति आदित्यों के साथ यज्ञ में देवभाग लेने को बैठता था (ऋम् 1-14-3) । सामवेद मन्त्र 1617, 1618, 1619, में इसे देवाधिदेव, सहस्त्रगणों से युक्त शाश्वततनु, विश्वपति , होता और वरेण्य कहा गया है। यह सहस्त्रों पूत्रों वाला (ऋग् 2-7-6) तथा 'ऋषीण्यंपुत्रों आधिराज एष:' (भैत्रेय संहिता 1-2-6) अर्थात ऋषि पुत्रों का अधिप्ठाता अधिराज था। यह 'सविद्वां आच पिप्रो यक्षि चिकित्व अनुषक्' (ऋग् 2-6-8) के प्रमाणानुसार परम विद्वान् , प्रियकर्मा , दानी तथा आरोग्यकर्ता था।

यह माथुरों का मूल पुरूष अग्निदेव अध्वर नाम के यज्ञों का प्रधान संयोजक था। 'विशामग्निं स्वध्वरं' (ऋग् 6-16-40) के प्रमाण से यह अपने आयोजित अध्वरों में देवों का समादरकर्ता था। सामवेद में इसे 'अध्वरेण प्रणीयते' (साम 1478) अध्वरों में समादर प्राप्त तथा 'धियांजक्रे वरेण्यों' बृद्धिमानों के मंडल में परमश्रेष्ठ तथा 'भूतानां गर्भ मादधे' (साम 1479) प्राणियों को जन्म धारण कराने वाला कहा है।

प्रमथों का क्षेत्र मथुरा

मथुरा क्षेत्र को इस देवता का निवास क्षेत्र स्पष्ट कहा गया है-

माथुराणां परं क्षेत्र प्रमथानां पर बलम्।
देवानां तत्वविज्ञानं तदेव मथुरा स्मृता ।।16।।
-योग वंत्र 4-16

और भी कहा है-

देवो प्रमथराड् यत्र अध्वर्येषु समाहिता।
तदेव मथुरा प्रोक्ता सर्व सत्व समन्विता:।।24।।

अग्नि मंथं आद्यकर्म ये प्रवर्तन्ति माथुरा:।
ते देव यज्ञ वेदानां लोकानां जनका स्मृता ।।25।।

जहाँ प्रमथराज नाम का देवता अग्नि मंथन कर्ता बनकर अध्वरों में स्थित रहता है वही स्थान मथुरा है जो समस्त देव सत्वों में समन्वित है।।24।।
अग्नि मंथन आदि सभ्यता का उद्भव कर्म है इसे जो प्रवर्तन करते हैं वे ब्रह्मपुत्र ही माथुर ब्राह्मण हैं तथा वे ही देवों और लोक धर्म धारण करने वाली मानव प्रजाओं के आद्यजनक हैं।।25।।

मथ्नाति सर्व पापानि ददाति परमं पदम्।
उत्तमों हि नरो यत्र तेन सा मथुरा स्मृता: ।।
-गौत्तमीय तन्त्र
यह पुरी समस्त पापों का मथन करके भगवत् परम पद दायिनी है और यहाँ उत्तम कोटि के नरदेवता निवास करते हैं, इसी से इसे मथुरा धाम कहा गया है।
मंथु वें माथुरा: प्रोक्ता यज्ञानां ये प्रवर्तका: ।
प्रमाथिनो महावीर्या अग्नि वंश समुद्भवा: ।।

तेषां स्थानं परं पुर्ण्य माथुरेति निगद्यते ।
कलिद्यायास्तटे रम्ये देव क्रीड़ी मयोहि स ।।
-कदर्मसंहिता प्राचीन पत्रक

माथुर ही जो आदि यज्ञों के प्रवर्तक 'मंथु कहे गये हैं, ये यज्ञ अग्नि मंथनकर्ता , महा बलवान और अग्नि वंश में उत्पन्न हैं। इनका परम पुण्यमय स्थान मथुरापुर बर्णित हुआ हैं, जो कालिंदी के सुरम्य तट पर बसा है और देवों की क्रीड़ाओं से युक्त है।

मथ्यतेतु अजत्संर्व ब्रह्ज्ञानेन वै पुरा।
तत्सारभूतं यद्यत्स्यात् मथुरा सा निगद्यते ।।63।।

प्राचीन युगों में जब समस्त जगत की विद्याओं को ब्रह्मज्ञान की रहई द्वारा मथा गया था, तब जो उसमें से सार भूत मक्खन निकला वह मथुरा का क्षेत्र ही था।।63।।

'स जायसे मथ्यमान:' (साम उत्तरर्चिक 3-1-2) माथुरों के अरणी मंथन कर्म से गौरवयुक्त होने से मथुरा क्षेत्र की उत्पत्ति हुई।

मंथु प्रवर्तिता यत्र प्रमथै: वेदपारगै:
तं स्थंलं माथुर दृष्टवा देवामुद मवापह ।।5।।
माथुरेभ्यस्तुमथुरा नहि मथुरात्तु माथुरा: ।
गोंभ्य: आज्य प्रभवति आज्याद् गावोन संभव: ।।2।।
-मथुरा मेरू

जहाँ वेद पारंगत प्रमथ देवों ने मंथन कर्म का प्रवर्तन किया उस माथुर स्थल को देखकर इन्द्रादि देवों को परम आनन्द प्राप्त हुआ। ।।5।। मथुरा माथुरों से उत्पन्न हुई (स्थापित्त की गई), मथुरा वास से माथुर ब्राह्मणों की माथुर संज्ञा हुई ऐसा कहना सत्य नहीं है, क्योंकि गौओं से घृत उत्पन्न होता है, धृत से गायें उत्पन्न नहीं होतीं। अन्य सब ब्राह्मण उन देशों में बंसने से नामांकित हुए, वे परवर्ती वंशों की शाखांये हैं किन्तु एक माथुर ब्राह्मणों की ऐसे ब्राह्मण हैं जिन्होंने अपने क्षेत्र को आप स्वयं ही उत्पन्न किया और उसमें देवों को बसाया। अग्नि देवता माथुर ही क्यों

वेद प्रमाणों से सिद्ध अग्नि माथुर ही हैं इसके अन्य भी अनेक परम्पराबद्ध प्रमाण हैं । ऋग्वेद के मंडल 7-104-2 में अग्नि को 'चरूरग्निवान्' कह कर उसे यरू प्रिय कहा है। चरू का हविष्य पदार्थ (दूधभात) है। माथुरों की सामाजिक जीवन धारा में चरूआ चरूई चरूली चरू चरी आदि वेदिक शब्दों की स्थिति अभी भी वर्तमान है। ये शब्द हमारे किसी अन्य समाज से उधार लिये हुए नहीं हैं।

अग्निवंश के अनेक शाखा भेद वेदों शास्त्रों में हैं, जिनमें से कुछ प्रमाणतत्व माथुरों में अद्यापि प्रचलित हैं। इनसे भरताग्नि 'अमंथिष्टा भारतारेवदग्नि' (ऋग् 3-23-2) की शाखा भरतवार माथुर, वैश्वानर अग्नि (ऋग् 3-2-2) के वंशज वैसांध्र माथुर, गार्हपत्य अग्नि (ऋग्0 8-502-5) 'गृहपतियुवा' के वंशज घरवारी माथुर , सद्योजात अग्नि (ऋग्0 3-5-7) के सद्द और दियोचाट माथुर , अग्नि के गोत्रकार 'सांडिल्य माथुर', तनूनपात अग्नि (ऋग्0 5-577-2) के नुनौलिया निनावले हैं। प्रमथों के अध्वर (अधिवास वस्तुदान) का रूप अधूर्त (दात) हमारे यहाँ वर्तमान है। प्रमथ संस्कृति की धर्मनीति (धर्मरहस्य) महाभारत अनु0 535 में विस्तार से वर्णित है। प्रमथ संस्कृति के प्रयुक्त प्राचीन शब्द , परामठे, परमटा (वस्त्र) परमत होनों , मट्ठें, मठामठरी मठियाँ , मथनियाँ, मट्ठ, मठमटी, प्रमाथिनी (मथुरादेवी) मांट, भटकना, मांठापती, गुम्ममथान, मालभत्ता आदि हमारे यहाँ अभी भी सब प्रचलित है।

माथुरों का पुरातन निवास स्थान

वेद निरूक्तकार यास्क के मतानुसार अग्निदेव का स्थान 'द्युलोक' है। द्युलोक या देवलोक मथुरा मन्डल ही है जिसकी स्थिति इस प्रकार कही गयी है-
यमुना पुष्करयोर्मध्ये इन्द्रप्रस्थाद् गवालयन्।
सूर्याणां देवतानां च द्युलोकं वेद सम्मितम् ।। --- कपिल संहिता
यमुना नदी और पुष्कर सरोवर तथा इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) और गोपालपुर गवालियर के बीच सूर्यदेवों और इन्द्रदिदेवों का द्युलोक है यह वेद सम्मत है। यह द्युलोक दिवलोक शूरसेन जनपद, ब्रह्मलोक 'ब्रह्मर्षिदेश' नारायण क्षेत्र , मधुपुरी और मथुरा आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध रहा है।
        स्वायंभूमनु महाराज (9000 वि0पू0) ने मनुस्मृति में इसका विवरण दिया है—
अहं प्रजा सिसृक्षस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
पतीन् प्रजानामसृजं महर्षिनादितो दश ।।34।।
मरीचिमत्र्यांगिरसो पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
प्रचेतसं वशिष्ठश्चभृगं नारद मेव च ।।35।।
एते मनूंस्तु सप्तान्यानसृजन्भूरिरेतस: ।
देवान्देवनिकायांश्च महर्षिश्वमितौजस: ।।36।।
- मनुस्मृति 5-34-36
सूरसेनपुरी मथुरा स्वायंभूमनु की राजधानी थी, जो बाद में उत्तानपाद तथा ध्रुव की राज्यस्थली रही। मनु के स्थापित सप्तऋषि तथा अन्य देव स्थल (देव निकाय) मथुरा में वर्तमान हैं। यही ऋषि माथुरों के मूलगोत्र प्रवर्तक हैं।
        इन ऋषियों का वर्णन (अथर्व वेद 18-3-20, 18-4-8), तथा ऋग्वेद 3-4-5 में भी है। ऋग्वेद 4-1-12 के प्रमाण से इन्होंने मथुरा में अग्नि तीर्थ पर अग्नि उत्पन्न कर यज्ञ धर्म की स्थापना की थी। अग्नि तीर्थ में अग्निं का नित्य निवास था, जिसे अब मोक्षातीर्थ माना जाता है।
        इस अग्नि सृजेता अग्निदेव का रूप अति उग्र था –

अग्नये रक्तनेत्राय ज्वालमाला चितथि वै।
शक्ति हस्ताय ताभ्राय नमो वै कृष्ण वर्त्मने ।।
- भविष्य पुराण ।। 145 ।।

इस निर्मथ अग्नि का गण (समूह) सूर्य सेनाओं के साथ रहकर महा शक्ति शाली शूरवीर हो गया- महाभारत शान्ति0 अ0 101 के अनुसार ये लोग महा क्रोधी, उग्र मुख, प्रवाद क्रुद्ध, द्वन्द प्रिय, उग्र स्वर, मन्युमंत, महायोधी, कोलाहली , रौद्र रूपा बनकर देवाधिदेव भूतेश्वर की सेना में 'पुरस्कार्या सदा सैन्ये' के रूप में अग्रवर्ती हो गये थे। माथुरों के शिवाराधन की यह पुरातन भूमिका है। स्कंद पुराण के माहेश्वर खंड में अ0 29 में इन्हें 'कपर्दिनो बृषाकश्च गणास्तेति प्रहारिण:, त्रिशूल धारिण: सर्वे सर्वे सर्पागंभूषणा: कहा है।

इतिहास परंपरा में माथुर

पौराणिक इतिहास की विश्वसंनीय परम्परा में माथुर ब्राह्मण स्वायंभूमनु द्वारा 9,000 वि0पू0 में उत्पन्न हुए (ऋग् 1-45-1) तथा मनु भगवान ने ही इन्हें बसुओं रूद्रों और आदित्यों की साक्षी में वेद प्रदान किये । वामन पुराण अ0 24 के कथनानुसार जब वामन भगवान ने तीन लोक प्राप्त कर लिये तब ब्रह्मलोक (मथुरा) में समस्त देवगण विमानों पर चढ़ कर बलि राजा की पराजय देखने आये तब ब्रह्मा की पुरी मथुरा में देवों ने ब्रह्मर्षिगणों के ब्रह्मपुर्या समूह में दक्ष, भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, संवर्त आदि ऋषि बैठे देखे- ये सभी माथुरों के गोत्र प्रवरकर्ता हैं। भगवान वामन ने भारद्वाज ह्रषि को जो अपने निवास के पुण्य स्थान गिनाये है। (9,080 वि0पू0) उनमें सधुवन का उल्लेख है (वामन पु0अ0 90) । बलि राजा ने मथुरा क्षेत्र में जो अपना सौवां अश्वेध यज्ञ किया और वहाँ वामनप्रभु ने तीन लोक भाप कर लिये, तब कुपित हो दैत्यगण देवों से युद्धोद्यत हुए (महा भ्ा0सभा0 38) तब देवों की वामन रक्षित प्रमथ सेना ने दैत्यो को 'प्रमथ्य सर्व दैतेयान् जहाराशु स मेदिनी, मद मथित कर पृथ्वी छीन ली । (वायु पुराण 33) में इन्हें करंज पर्वत (कालंजेश्वर टीला) कृष्ण गंगा के निवासी कहा गया है। (महाभारत शान्ति0 101) में मथुरा की प्रमाथी प्रजा को शूरसेनका: सर्बे शूरा प्रमाथिन: सूर्य सेना के महाप्रबल महारथी कहा गया है। शान्ति पर्व में शूरसेनक प्रमथों की पराक्रम शीलता का विस्तृत वर्णन है। ये प्रमथ देव (स्कंन्द पुराण माहेश्वर खंड अ0 4) के प्रमाण से (कोटिरूद्र तीर्थ) की रूद्र सेना में सबसे आगे सेनामुख रहते थे। ये प्रजापति दक्ष के यज्ञ में (9,376 वि0पू0) चाप, नाराच, परशु , शूल, खग्ड, मुद्गर लेकर चढ़ गये थे। (स्कंद पु0 माहे0 4-16) और वहाँ इन्द्र की सेना के महायौद्धा मरूद्गणों के साथ (मारू गली) मारूत् क्षेत्र में इनका युद्ध हुआ था। ये सेनायें व्यूह बना कर जम कर लड़ी थीं और वहाँ प्रमथों ने मरूतों को पराजित कर भगा दिया था (स्कंद0 4-49) । प्रमथों का 'मधु:" चक्रसेना के 'मूर्ध्त पदस्थ ' (सरदार) नाम ऋग् 1-30-19 में स्पष्ट है, जो माथुर शब्द का मूल रूप है। लिंग पुराण में इन्हें 'प्रमथा प्रीति वर्धना' स्नेही स्वभाव वाले मिठ बोला कहा है। भविष्य पुराण अष्टमी कल्प में जिन शिव पूजक देवों ऋषियों और नागों के नाम दिये हैं, उनमें माथुरों के पूर्व पुरूष वशिष्ठ अंगिरा भृगु आदि के नाम उपलब्ध है। ऋग् 3-27-10 के अनुसार इन पर दक्ष पुत्री (इड़ा) उमा सती का अति स्नेह था और वे अग्नि के अंक (यज्ञ कुन्ड) में ही योग समाहित हुई थीं। रूद्र और देवों के आदरणीय सहायक होने के साथ ही ये (वायु पु0 72-50 ) आगे चल कर सम्मान पूर्वक स्वामि कार्तिकेय की सेना के भी सेनामुख पद् पर स्थापित हुए तथा त्रिपुर युद्ध में महापराक्रम स्थापित कर रूद्रदेव को त्रिपुरांतक नाम दिलाया। इनके शौर्य से प्रभावित होने के कारण भगवान विनायक गणेश ने भी इन्हें अपनी सेना का प्रमुख पद प्रदान किया और अपना नाम 'प्रमथाधिप' घोषित किया (बाराही संहिता अ0 58) वार्हस्पत्य भारद्वाज (4814 वि0पू0) के समय (साम0 609) यज्ञ सदस्यगण चरुपाक बनाकर इन अग्नि पुत्रों को हवि समर्पित करते थे। साम 1374 के कथन से उस समय में ये 'दक्षाय्यो ' दक्ष गोत्रीय पूजित जन थे।

माथुरो की मंथन विद्या का विस्तार

माथुरों ने केवल मंथन विज्ञान का ही आविष्कार नहीं किया, अपितुं मंथन के अनेकों क्षेत्र भी अन्होंनें खोले। अग्नि मंथन विद्या का विस्तार से वर्णन (अथर्व वेद 11) अग्नि मंथन सूक्तों में है। इसमें मंथन यंत्र का प्रधान अंग 'प्रमन्थ' 'अष्टांगुलं प्रमन्थ: स्यात्' तथा चात्र ओविली नेत्र (नेती) अदिकों का विवरण है। अथर्व के अग्नि मंथन सूत्र में अग्नि देव, सप्त ऋषियों और विश्वे देवों की प्रशस्तियाँ हैं। अग्नि मंथन यंत्र को अरिणी मंथन कहते हैं। अरणी मथुरा मंडल का बृक्ष विशेष है, जो प्राय; ब्रज ब्रह्मर्षि देश में ही होता है। अरणी बृक्षों की प्रधानता के कारण ही ब्रज के बन अरण्य, आरण्यक, द्वादशारण्य, ब्रहदारण्य, महारण्य , ब्रन्दारण्य आदि नामों में विख्यात हुए हैं।

मंथु विद्या का आध्यात्म क्षेत्र छांदोग्य उप0 6-6 में तथा गोपाल तापिनी उप0 96 में वर्णित हैं। मधु विद्या का वर्णन ब्रहदराण्यक उप0 2-4 में है । दधि मंथन (मधुपर्क) विद्या का वर्णन छांदोग्य उप0 5-2-4 में है। अग्निदेव का वंश विस्तार वायु पुराण अ0 29 में है। अग्निदेव के 16 कुल 16 नदियों के तटों पर निवास करते थे, इनमें आहवनीय पवमान गार्हपत्य नाम का श्रेष्ठ वंश यमुना तट पर निवास करता था (वायु पु0अ0 29) ।

मधु मंथन विज्ञान से ही चारों वेद, इतिहास पुराण, देव विद्या, पितृ विद्या, निधि विद्या, भूत विद्या, क्षत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, पशु पक्षी अन्न वनस्पति विज्ञान , धर्म अधर्म विज्ञान, अजरामर विज्ञान प्राप्त होते हैं इस प्रकार माथुरों की 'आद्य मंथन विद्या' ने जो विश्वव्यापी विकास उपलब्ध किया उससे ही समन्वित होकर समस्त विश्व सभ्यता के पथ पर अग्रसर हुआ और ज्ञान विज्ञान की मूल प्रेरणायें प्राप्त कीं। माथुर ब्राह्मणों का विश्व मानव पर इतना बड़ा ऋण है कि उससे मानव जाति कभी उऋण हो ही नहीं सकती ।

माथुरों के गोत्र प्रवर शाखा

गोत्र मानव वंशों की प्राचीनतम प्रमुख पहिचान है। ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य सभी के अपने-अपने गोत्र होते हैं। गोत्र संस्थापक ऋषि उस वंश का मूल पुरूष होता है। उसी के नाम से उसका पुत्र पौत्रादि परिवार बहु विस्तृत होने तथा अन्यत्र कहीं भी बस जाने पर भी अपना अस्तित्व उसी गोत्रकार ऋषि के साथ सम्बन्धित बनाये रखता है। गोत्र से उस वंश का गौरव और प्राचीनता का इतिहास सुरक्षित रहता है। गोत्र का सर्वाधिक प्रमुख उपयोग विवाह सम्बन्ध निर्धारण में किया जाता है। 'नृवंश विज्ञान' के आधार से हमारे प्राचीन ऋषियों ने यह निर्धारित किया था और हज़ारों वर्ष के लम्बे अनुभव ने यह सुनिश्चित सिद्ध कर दिया है कि मानव परिवार अपने जितने नकिट के वर्ग में सन्तान उत्पत्ति सम्बन्ध स्थापित करेगा उतनी ही अधम चरित्रहीन निस्तेज दुर्गुणग्राही वणंशंकर उसकी भांबी पीढ़ी होती जायगी । यही कारण है कि आद्य स्मृतिकार स्वायंभू मनु ने ब्रह्म वंश की तेजस्विता के संवर्धन के लिये स्पष्ट निर्धारित किया है-

असपिंडा तु या मातु असगोत्रा च या पितु: ।
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ।।5।।1

जो माता के (ननसाल कुल में) 7 पीढ़ी तक न मिलता हो तथा पिता के गोत्र से संयुक्त (संगोत्र) न हो, वही कन्या उत्तम विवाह में पत्नी रूप से अंगीकार करने योग्य है। पिता के कुल में सगोत्र तथा माता के कुल में सात पीढ़ी तक सपिड और सगोत्र विवाह की सन्तानें अधमगोत्र शंकर और हीन चरित्र भी होती हैं। मनु ने 7 विवाहों में 1- ब्राह्म (शास्त्रानुसार निर्धारित वर को धर्म विधि से कन्या अर्पण करना)। 2- देव विवाह (ज्योतिष्ठोम आदि यज्ञों में सत्पात्र वर को कन्या दान रूप में देना)। 3- आर्ष (कुल मर्यादा से कुल सम्मत वर को 1 गौ के बदले कन्या अर्पण करना ) श्रेष्ठ विवाह कहे हैं, तथा 4- गंधर्व (कन्या की पसन्द से अफ़ग़ान पठानों के आसुरी गंधर्व प्रचलन के अनुसार कन्या द्वारा अर्थ लोभ से पुरूष को मोहित कर उसे संभोग के हेतु अपना यौवन समर्पित करना )। 5- आसुर (कन्या का वलात अपहरण करना जैसा असीरियन असुरों में प्रचलन है) । 6- पिशाच । 7- राक्षस ।

ये विवाह अधम तथा कुल विध्वंसक कहे हैं। ऐसे विवाहों के परिणाम भी सर्व विदित स्पष्ट हैं। ऐसे विवाह जहाँ असीरियनों, कंधारियों , अफ़ग़ानों , तुर्कों , मंगोलो , चीनियों, खसियो, तातारों यूरोप के दैत्य (डचों) दानव डेन्यूव तटवासियों, ब्रात्यों (ब्रिटिशों) जारजों (जार्ज, जार जार्जियावासियों, में होते हैं उनकी सन्ताने सुरापान, मांसाहार, द्यूत, व्यभिचार , स्वच्छंद, संभोग सत्य, दान , दया, नीति, सदाचार से रहित स्वार्थी , लंपट , अत्याचारी और कुटिलकर्मा होते हैं। भारत में भी स्वेच्छा विवाह और प्रेम विवाहों के परिणाम रूप जो नयी पीढ़ी का चरित्र दीख रहा है वह इसी मर्यादा भंग का परिणाम है। मनु जी ने आज से 11,000 वर्ष पूर्व ही ऐसी सन्तानों के विषय में स्पष्अ लिखा है ऐसी कुल शंकर या वर्ण शंकर सन्तानें क्रूरकर्मा , मिथ्यावादी, कपटी, स्वार्थलोलुप और इन्द्रिय सुख आतुर तथा पतनोन्मुख होती हैं तथा उत्तम विवाह की प्रजायें ज्ञानी, सदाचारी, मातृ-पितृ भक्त गुरुजन सेवी, देव आराधक, तपस्यी, योगी संयम नियम व्रतधारी, सत्यवादी, जितेन्द्रिय विद्वान, सौम्य उदार और तेज से युक्त होती हैं।

गोत्रों का उपयोग- गोत्र प्रवर शाखा आदि का प्रयोग यज्ञ में, दान में, संध्या के गुरु अभिवादन मंत्रों विधान के संकल्पों में, जपों ब्रतों, अनुष्ठानों के संकल्पों में तथा यज्ञोपवीत धारण के मंत्रों में सर्वत्र होता हैं जो यह सिद्ध करता है कि परवर्ती क्षेत्रिय जाति व्यवस्था से पूर्व सतयुग त्रेता द्वापर युगों में वर्ण स्थापित प्रजाओं के कुल की पहिचार उनके गोत्र प्रवर शाखाओं के कथन द्वारा ही होती थी। गोत्र विवाह के निर्धारण में प्रमुख सावधानी के स्त्रोत माने जाते थे। विवाह के आवाहित साक्षी समूह आत्मीय और गुरुजनों के समक्ष में उत्सव समारोह में "शाखोच्चार " नाम की एक प्रथा का महत्वपूर्ण आयोजन होता है, इसमें समस्त माननीय विशिष्ट सम्बन्धियों और गुरुजनों सरदारों की साक्षी में पुत्र और कन्या शाखा वेद कुल देवी ख्याति (अल्प) पिता पितामह प्रपितामह आदि के नामों का सस्वर सार्वजनिक उद्घोष होता है, जिससे विवाह की पूर्ण निर्दोषता या सदोषता का स्पष्ट परिज्ञान होता है। प्राचीन समय में इसमें कुछ भी व्यतिरेक या मर्यादा उलंघन प्रतीत होने पर गुरुजन उस सम्बन्ध का खुलकर विरोध करते थे तथा निर्भय लोग प्रतिवाद के साथ समारोह त्याग करते तथा दब्बू लोग चुपचाप शाखोच्चार कक्ष से बहिर्गमन कर जाते थे। छल-कपट या चातुरी से मातृ पक्ष (नन साल) का गोत्र उच्चारण कराने वालों का भी यह रूप देखकर कि यथार्थ में विवाहार्थी ननसार का दाय अधिकारी है या नहीं, वे प्रतारणा और तिरस्कार के साथ समारोह का त्याग कर देते थे जिसका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता था। इस प्रकार हमारे ये गोत्र प्रवर प्राचीनता की गरिमा के साथ ही हमारे तेजस्वी कुलों को वर्ण शंकरता और हीन कुल शंकरता से बचाकर उनकी विशुद्ध रक्त प्रणाली की भी उल्लेखनीय सुरक्षा करते थे।