जयधवल टीका

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जयधवल टीका

  • आचार्य वीरसेन स्वामी<balloon title="जयधवला, पृ0 1 प्रस्ता0 पृ0 72।" style=color:blue>*</balloon> ने धवला की पूर्णता<balloon title="(शक सं0 738)" style=color:blue>*</balloon> के पश्चात शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध आचार्य गुणधर द्वारा विरचित कसायपाहुड<balloon title="(कषाय प्राभृत)" style=color:blue>*</balloon> की टीका जयधवला का कार्य आरंभ किया और जीवन के अंतिम सात वर्षों में उन्होंने उसका एक तिहाई भाग लिखा। तत्पश्चात शक सं0 745 में उनके दिवंगत होने पर शेष दो तिहाई भाग उनके योग्यतम शिष्य जिनसेनाचार्य (शक सं0 700 से 760) ने पूरा किया। 21 वर्षों की सुदीर्घ ज्ञानसाधना की अवधि में यह लिखी जाकर शक सं0 759 में पूरी हुई।
  • आचार्य जिनसेन स्वामी ने सर्वप्रथम संस्कृत महाकाव्य पार्श्वाभ्युदय की रचना<balloon title="(शक सं0 700)" style=color:blue>*</balloon> में की थी। इनकी दूसरी प्रसिद्ध कृति 'महापुराण' है। उसके पूर्वभाग-'आदिपुराण' के 42 सर्ग ही वे बना पाए थे और दिवंगत हो गए। शेष की पूर्ति उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने की।<balloon title="तदेव पु0 1, पृ0 73।" style=color:blue>*</balloon>
  • जयधवल टीका का आरंभ वाटपुरग्राम संभवत: बड़ौदा<balloon title="जैन साहित्य का इतिहास पृ0 254" style=color:blue>*</balloon> में चन्द्रप्रभुस्वामी के मंदिर में हुआ था। मूल ग्रन्थ 'कषायपाहुड' है<balloon title="कषायपाहुड का दूसरा नाम पेज्जदास पाहुड है, जिसका अर्थ राग-द्वेष प्राभृत है- ज0ध0 पु0 1, पृ0 181।" style=color:blue>*</balloon>, जो गुणधराचार्य द्वारा 233 प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। इस पर यतिवृषभाचार्य द्वारा चूर्णिसूत्र<balloon title="संक्षिप्त सूत्रात्मक व्याख्यान" style=color:blue>*</balloon> लिखे गये और इन दोनों पर आचार्य वीरसेन और जिनसेन ने जयधवला व्याख्या लिखी। इस तरह जयधवला की 16 पुस्तकों में मूलग्रन्थ कषायपाहुड इस पर लिखित चूर्णिसूत्र और इसकी जयधवला टीका-ये तीनों ग्रंथ एक साथ प्रकाशित हैं।
  • जयधवला की भाषा भी धवला टीका की तरह मणिप्रवालन्याय से प्राकृत और संस्कृत मिश्रित है। जिनसेन ने स्वयं इसकी अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है-

प्राय: प्राकृतभारत्या क्वचित् संस्कृतमिश्रया।
मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोयं ग्रन्थविस्तर:॥(37)

  • जयधवला में दार्शनिक चर्चाएं और व्युत्पत्तियां तो संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। पर सैद्धान्तिक चर्चा प्राकृत में है। किंचित ऐसे वाक्य भी मिलते हैं, जिनमें युगपत दोनों भाषाओं का प्रयोग हुआ है। जयधवल की संस्कृत और प्राकृत दोनो भाषाएं प्रसादगुण युक्त और प्रवाहपूर्ण तथा परिमार्जित हैं। दोनों भाषाओं पर टीकाकारों का प्रभुत्व है और इच्छानुसार उनका वे प्रयोग करते हैं। इस टीका का परिमाण 60 हज़ार श्लोकप्रमाण है। इसका हिन्दी अनुवाद वाराणसी में जैनागमों और सिद्धान्त के महान मर्मज्ञ विद्वान सिद्धान्ताचार्य पं॰ फूलचन्दजी शास्त्री ने तथा सम्पादनादि कार्य पं॰ कैलाश चंद जी शास्त्री ने किया है। इसका प्रकाशन 16 पुस्तकों में, जिनके कुल पृष्ठ 6415 हैं, जैन संघ चौरासी, मथुरा से हुआ है। इसके हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन में 48 वर्ष (ई॰ 1940 से 1988) लगे।
  • इसमें मात्र मोहनीय कर्म का ही वर्णन है। शेष सात कर्मों की प्ररूपणा इसमें नहीं की गयी। जैसा कि निम्न वाक्य से प्रकट है- 'एत्थ कसायपाहुडे सेससन्तण्हं कम्माणं परूवणा णत्थि'- जयधवला, पुस्तक 1, पृ0 165, 136, 235 आदि।

विषय परिचय

मूलग्रन्थ का नाम कसायपाहुड (कषायप्राभृत) है। इसका दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' है। 'प्रेज्ज' अर्थात् प्रेय का अर्थ है। 'राग' और 'दोस' अर्थात द्वेष का अर्थ है शत्रुभाव (शत्रुता)। सारा जगत इन दोनों से व्याप्त है। इन्हीं दोनों का वर्णन इसमें किया गया है। वीरसेन और जिनसने ने इसका और इस पर यतिवृषभाचार्य द्वारा लिखे गये चूर्णिसूत्रों का स्पष्टीकरण करने के लिए अपनी यह विशाल टीका जयधवला लिखी है। इसमें 15 अधिकार हैं। वे इस प्रकार हैं-

  1. प्रेय-द्वेष-विभक्ति,
  2. स्थितिविभक्ति,
  3. अनुभाग विभक्ति,
  4. बन्धक,
  5. संक्रम,
  6. वेदक,
  7. उपयोग,
  8. चतु:स्थान,
  9. व्यंजन,
  10. दर्शनमोह की उपशामना,
  11. दर्शनमोह की क्षपणा,
  12. देशविरति,
  13. संयम,
  14. चारित्रमोह की उपशमना और
  15. चारित्रमोह की क्षपणा। इन अधिकारों के निरूपण के पश्चात पश्चिमस्कन्ध नामक एक पृथक् अधिकार का भी वर्णन किया गया है। इनका विषय संक्षेप में यहाँ दिया जाता है।

पेज्जदोस विभक्ति

इस अधिकार का यह नाम मूल ग्रन्थ के द्वितीय नाम पेज्जदासपाहुड की अपेक्षा से रखा गया है। इसी से इसमें राग और द्वेष का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। अतएव उदय की अपेक्षा मोह का इसमें वर्णन है। चार कषायों में क्रोध और मान द्वेष रूप हैं और माया एवं लोभ प्रेय (राग) रूप हैं। इस अधिकार में इनका बड़ा सूक्ष्म वर्णन है। विशेषता यह है कि यह अधिकार पुस्तक 1 में पूर्ण हुआ है और न्यायशास्त्र की शैली से इसे ख़ूब पुष्ट किया गया है।

स्थिति विभक्ति

इसमें मोहनीय कर्म की प्रकृति और स्थिति इन दो का वर्णन है। जब मोहनीय कर्म नामक जड़ पुद्गलों का आत्मा के साथ चिपकना-बंधना-एकमेकपना या संश्लेष सम्बन्ध होता है तब वे कर्म परमाणु आत्मा के साथ कुछ समय टिक कर फिर फल देकर, तथा फलदान के समय आत्मा को विमूढ़ (विमोहित), रागी, द्वेषी आदि रूप परिणत करके आत्मा से अलग हो जाते हैं। इस मोहनीय कर्म का जो उक्त प्रकार का विमोहित करने रूप स्वभाव है, वह 'प्रकृति' कहलाता है तथा जितने समय वह आत्मा के साथ रहता है वह 'स्थिति' कहा जाता है, उसकी फलदानशक्ति 'अनुभाग' कहलाती है तथा उस कर्म के परमाणुओं की संख्या 'प्रदेश' कहलाती है। प्रकृत अधिकार में प्रकृति और स्थिति का विस्तृत, सांगोपांग एवं मौलिक प्ररूपण है, जो पुस्तक 2,3 व 4 इन तीन में पूरा हुआ है।

अनुभाग विभक्ति

इसके दो भेद हैं-

  1. मूल प्रकृति अनुभागविभक्ति और
  2. उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्ति। इन मूल प्रकृतियों के अनुभाग और उत्तरप्रकृतियों के अनुभाग का पुस्तक 5 में विस्तृत वर्णन है।

प्रदेश विभक्ति

इसके भी दो भेद हैं-

  1. मूल और
  2. उत्तर। मूल प्रकृति प्रदेश विभक्ति और उत्तर प्रकृति प्रदेश विभक्ति इन दोनों अधिकारों में क्रमश: मूल और उत्तर कर्म प्रकृतियों के प्रदेशों की संख्या वर्णित है। यह अधिकार पुस्तक 6 व 7 में समाप्त हुआ है। किस स्थिति में स्थित प्रदेश- कर्म परमाणु उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य एवं अयोग्य हैं, इसका निरूपण इस अधिकार में सूक्ष्मतम व आश्चर्यजनक किया गया है। इसके साथ ही उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त, जघन्य स्थिति को प्राप्त आदि प्रदेशों का भी वर्णन इस अधिकार में है।

बन्धक

इसके दो भेद हैं-

  1. बन्ध और
  2. संक्रम। मिथ्यादर्शन, कषाय आदि के कारण कर्म रूप होने के योग्य कार्मणपुद्गलस्कन्धों का जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाह- सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं। इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार भेद कहे गये हैं। इनका इस अधिकार में वर्णन है। यह अधिकार पुस्तक 8 व 9 में पूरा हुआ है।

संक्रम

बंधे हुए कर्मों का जीवन के अच्छे-बुरे परिणामों के अनुसार यथायोग्य अवान्तर भेदों में संक्रान्त (अन्य कर्मरूप परिवर्तित) होना संक्रम कहलाता है। इसके प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम, और प्रदेशसंक्रम ये चार भेद हैं। किस प्रकृति का किस प्रकृति रूप होना और किस रूप न होना प्रकृतिसंक्रम है। जैसे सातावेदनीय का असातावेदनीय रूप होना। मिथ्यात्वकर्म का क्रोधादि कषायरूप न होना। इसी तरह स्थितिसंक्रम आदि तीन के सम्बन्ध में भी बताया गया है। इस प्रकार इस अधिकार में संक्रम का सांगोपांग वर्णन किया गया है, जो पुस्तक 8 व 9 में उपलब्ध है।

वेदक

इस अधिकार में मोहनीय कर्म के उदय व उदीरणा का वर्णन है। अपने समय पर कर्म का फल देने को उदय कहते हैं तथा उपाय विशेष से असमय में ही कर्म का पहले फल देना उदीरणा हुं यत: दोनों ही अवस्थाओं में कर्मफल का वेदन (अनुभव) होता है। अत: उदय और उदीरणा दोनों ही वेदक संज्ञा है।<balloon title="जयधवल, पृ0 10, पृष्ठ 2।" style=color:blue>*</balloon> यह अधिकार पुस्तक 10 व 11 में समाप्त हुआ है।

उपयोग

इस अधिकार में क्रोधादि कषायों के उपयोग का स्वरूप वर्णित है। इस जीव के एक कषाय का उदय कितने काल तक रहता है। किस जीव के कौन-सी कषाय बार-बार उदय में आती है, एक भव में एक कषाय का उदय कितनी बार होता है, एक कषाय का उदय कितने भवों तक रहता है, आदि विवेचन विशदतया इस अधिकार में किया गया है। यह अधिकार पुस्तक 12 में पृ0 1 से 147 तक प्रकाशित है।

चतु:संस्थान

घातिकर्मों की शक्ति की अपेक्षा लता, दारु, अस्थि और शैलरूप 4 स्थानों का विभाग करके उन्हें क्रमश: एक स्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतु:स्थान कहा गया है। इस अधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभ के उन 4-4 स्थानों का वर्णन है। जैसे-पर्वत, पृथ्वी, रेत तथा पानी में खींची गई लकीरों के समान क्रोध 4 प्रकार का होता है। पर्वतशिला पर पड़ी लकीर किसी कारण से उत्पन्न होकर फिर कभी मिटती नहीं है वैसे ही जीव का अन्य जीव पर हुआ क्रोध का संस्कार इस भव में नहीं मिटता तथा जन्मान्तर में भी वह क्रोध उसके साथ में जाता है, ऐसा क्रोध पर्वतशिला सदृश कहलाता है। ग्रीष्मकाल में पृथ्वी पर हुई लकीर पृथ्वी का रस क्षय होने से वह बन जाती है, पुन: वर्षाकाल में जल के प्रवाह से वह मिट जाती है। इसी तरह जो क्रोध चिरकाल तक रहकर भी पुन: किसी दूसरे निमित्त से या गुरु उपदेश से उपशांत हो जाता है वह पृथ्वी सदृश क्रोध कहलाता है। रेत में खींची गई रेखा हवा आदि से मिट जाती है। वैसे ही जो क्रोध मंदरूप से उत्पन्न होकर गुरु उपदेश रूप पवन से नष्ट हो जाता है। वह रेतसदृश क्रोध है। जल में लगड़ी आदि से खींची गई रेखा जैसे बिना उपाय से उसी समय मिट जाती है वैसे ही जो क्षणिक क्रोध उत्पन्न होकर मिट जाता है वह जलसदृश कहलाता है। इसी तरह माल, माया और लोभ भी 4-4 प्रकार के होते हैं। इन सबका विवेचन इस अधिकार में विस्तारपूर्वक किया गया है। यह अधिकार पुस्तक 12, पृष्ठ 149 से 183 में समाप्त हुआ है।

व्यंजन

इस अधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभ के पर्यायवाची शब्दों को बताया गया है। यह अधिकार पुस्तक 12 पृ0 184 से 192 तक है।

दर्शनमोहोपशामना

इसमें दर्शनमोहनीय कर्म की उपशामना का वर्णन है। यह पुस्तक 12, पृष्ठ 193 से 328 तक है।

दर्शनमोहनीयक्षपणा

इसमें दर्शनमोहनीयकर्म का जीव किस तरह नाश करता है इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। जीव को दर्शनमोहनीय की क्षपणा करने में कुल अन्तर्मुहूर्त काल ही लगता है। पर उसकी तैयारी में दीर्घकाल लगता है। दर्शनमोह की क्षपणा करने वाला मनुष्य (जीव द्रव्य से पुरुष) एक भव में अथवा अधिक से अधिक आगामी तीन भवों में अवश्य मुक्ति पा लेता है। यह अधिकार पुस्तक 13 पृष्ठ 1 से 103 में वर्णित है।

देशविरत

इस अधिकार में देशसंयमी अर्थात् संयमासंयमी (पंचय गुणस्थान) का वर्णन है। यह अधिकार पुस्तक 13, पृष्ठ 105 से 156 में पूरा हुआ है।

संयम

संयम को संयमलब्धि के रूप में वर्णित किया गया है। यह किस जीव को प्राप्त होती है वह बाहर से नियम से दिगम्बर (नग्न) होता है तथा अन्दर आत्मा में उसके मात्र संज्वलनकषायों का ही उदय शेष रहता है। शेष तीन चौकड़ियों का नहीं। संयमासंयम लब्धि से ज़्यादा यह संयमलब्धि मुमुक्षु के लिए अनिवार्य रूप में उपादेय है। यह अधिकार पुस्तक 13, पृष्ठ 157 से 187 तक है।

चारित्रमोहोपशामना

यह अधिकार में चारित्रमोह की 21 प्रकृतियों का उपशामना का विविध प्रकार से प्ररूपण किया गया हा, जो अन्यत्र अलभ्य है। यह अधिकार पुस्तक 13, पृष्ठ 189 से 324 तथा पुस्तक 14, पृष्ठ 1 से 145 में समाप्त है।

चारित्रमोहक्षपणा

यह अधिकार बहुत विस्तृत है। यह पुस्तक 14, पृष्ठ 147 से 372 तथा पुस्तक 15 पूर्ण और पुस्तक 16 पृष्ठ 1 से 138 में समाप्त हुआ है। इसमें क्षपक श्रेणी का बहुत अच्छा एवं विशद् विवेचन किया गया है। इसके बाद पुस्तक 16 पृष्ठ 139 से 144 में क्षपणा-अधिकार-चूलिका है, इमें क्षपणा संबन्धी विशिष्ट विवेचन है। इसके उपरान्त पुस्तक 16, पृष्ठ 146 से 195 में पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार है। उसमें जयधवलाकार ने चार अघातियाकर्मों (आयु, नाम, गोत्र, और वेदनीय) के क्षय का विधान किया है। इस प्रकार यह जयधवला टीका वीरसेन और उनके शिष्य जिनसेन इन दो आचार्यों द्वारा संपन्न हुई है। बीस हज़ार आचार्य वीरसेन द्वारा और 40 हज़ार आचार्य जिनसेन द्वारा कुल 60 हज़ार श्लोक प्रमित यह टीका है।

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