जय केशव 11

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

राजा कुलचन्द्र अपने राज्य में सेना की भरती को देख आश्चर्य चकित थे। युवकों में इतना उत्साह पहले कभी न देखा था। महामात्य ने आसपास की गढ़ियों के युवकों में इतना उत्साह पहले कभी न देखा था। महामात्य ने आसपास की गढ़ियों की सुदृढ़ व्यवस्था करा दी थी। इसका एक–मात्र कारण था कि यवन आदि आक्रमण करेगा भी तो मथुरा आने के लिए सिन्धु के रास्ते से ही आ सकेगा। इसलिए महामात्य ने पश्चिमोत्तर व पूर्वोतर सीमाओं की ओर अधिक ध्यान दिया। सिन्ध, भटिण्डा और मुल्तान पर तो वह पहिले ही विजय प्राप्त कर चुका था। लेकिन पूर्वी पंजाब पर अभी भी शाही साम्राज्य का राज्य था। महावन से कोइले तक व मथुरा से दिल्ली तक चारों ओर सृदृढ़ व्यवस्था की जा चुकी थी। इसके अतिरिक्त गंगा–यमुना के दोआब के बीच चारों ओर सधन वन, नदी, झील और तालाब थे। इसके अतिरिक्त न तो कोई पहाड़ थे, न ही किसी प्रकार के सुरक्षात्मक स्थान थे। राज्य के कोष में धन का अभाव न था। इसलिये जहाँ सम्भव हुआ नयी गढ़ियों का व छोटे−छोटे किलों का निर्मान करा दिया गया। इधर राजा कुलचन्द्र पूर्ण−रूपेण युद्ध की तैयारियों में जुटे थे तो उधर दिल्ली में विजयपाल की सेना यवन सेनाओं को भूखे भेड़िये की तरह आँख गढ़ाये देख रही थी। राजा कुलचन्द्र ने इतने पर सन्तोष न कर दक्षिण पश्चिम की ओर विचार किया तो श्रीपथ (बयाना) में राजा जैतपाल, ग्वालियर में कछवाहे राजा कीर्तिराज, जबलपुर में गांगेय देव तथा कालिंजर में वीर राजा विद्याधर तथा मालवराज भोज के पूर्ण सहयोग का विश्वास हो जाने से राज्य के पास लाखों की संख्या में सेना उपलब्ध हो चुकी थीं। जिनमें हाथी, घोड़े, ऊँट आदि की संख्या दासियों हजार में थीं। राजा सब कुछ करते हुये भी महारानी से विचार−विमर्श अवश्य करते। आज भी जब उन्होंने सैन्य व्यवस्था का सारा ब्यौरा इन्दुमती को बताया तो वह गम्भीरता पूर्वक सुनती रही। सब कुछ सुनने के बाद वह बोली− "श्री महाराज ! अपराध क्षमा हो। आपके कहे अनुसार हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिये कि हमारी प्रजा में व्यावहारिक एकता तो है लेकिन भावात्मक एकता नहीं। राजगद्दी ही हमारी पराजय का कारण रहा है। अच्छा तो यही होगा कि जो भी उपलब्ध है उसका श्रेष्ठतम उपयोग हो। युद्ध संचालन के बारे में आपने क्या विचार किया ?" इन्दुमती इतना कह राजा कुलचन्द्र की ओर देखने लगी। "हमने तो यही विचार किया है कि दिल्ली नरेश विजयपाल किसी भी मूल्य पर यवन को अपने राज्य में होकर ब्रज में प्रवेश न करने देंगे और यदि वह ऐसा न कर जमुना में पूर्वी तट पर बढ़ा तो बरन् के राजा हरदत्त अपनी अश्ववाहिनी को लेकर उस पर टूट पड़ेगे। मूल यह कि किसी न किसी तरह यवन को वनों, खादरों में फंसा कर उस पर चारों ओर से आक्रमण कर अधिक से अधिक हानि पहुँचाना है।" इस तरह बातें करते दोनों को समय का भी ध्यान न रहा था। उधर नगर श्रेष्ठियों ने अपना धन भूमिगत करना प्रारम्भ कर दिया। प्रजा भावी युद्ध के लिये पूर्ण सहयोग कर रही थी। महामात्य और सेनापति दिवाकर के सहयोग के नित्य नये युद्ध से सम्बन्धित चित्र बनवाकर उनको गुप्त स्थान पर पहुँचवा रहे थे। श्रावण के झूले पड़ते ही यात्री परदेसी आने लगे थे। मूसलाधार पानी पड़ रहा था। बादल गरज रहे थे। इन्दुमती पति के पास बैठी−बैठी कुछ अनमनी हो उठी तो राजा ने तुरन्त दासी को बुलाया। दासी ने तुरन्त वृद्ध परिचारिकाओं को पुकारा। उन्होंने आते ही श्री महाराज से हाथ जोडकर वहाँ से हट जाने को कहा तो कुलचन्द्र को समझते देर न लगी कि रानी प्रसव वेदना से पीड़ित लगती है। अत: वे तुरन्त बाहर आ गये और यह समाचार फैलते ही राजगुरु से लेकर आमात्य तक सभी राजमहल में राजा कुलचन्द्र के पास एकत्रित हो गये। सभी युवराज की कामना से मन ही मन भगवान केशव का स्मरण कर रहे थे कि कुछ देर बाद अन्दर से दासी ने आकर युवराज के जन्म का शुभ समाचार दिया। अब तो राजा कुलचन्द्र और सारे सभासदों की खुशी का पारावार न था। पलक झपकते ही यह समाचार सारे राज्य में फैल गया। चारों ओर खुशियाँ मनाई जाने लगीं। पंडितों व राज्य ज्योतिषी को बालक की जन्म−लग्न, ग्रह−नक्षत्रों की गणना करने को बुलाबा भेजा। सोमदेव दिवाकर को साथ ले रूप महल जा पहुँचा। इधर समस्त प्रजा प्रसन्न हो रही थी। उधर इस अवसर पर भी रानी रूपाम्बरा का मन दु:खी था। सेनापति सोमदेव और दिवाकर दोनों की रूपाम्बरा को समझाने का प्रयत्न कर रहे थे। सोमदेव कह रहा था:− "भाभी। क्या ऐसा हो सकता है कि आप पुन: वही विश्वास अर्जित कर स्वस्थ हो जाये ?" "अब असम्भव ही समझो।" "लेकिन क्यूँ ?" "यही समझ लो कि अब कोई विश्वास दिला नहीं सकता।" "यह आपकी भूल ह ै।' "आप इसे भूल समझें, परन्तु जिसने सदैव सबको तिरस्कार की भावना से देखा हो वह अब अपनत्व की भावना कहाँ से लाये ? क्या श्री महाराज इस बात का विश्वास कर सकेंगे कि चम्पा........।" वह आगे कहते−कहते ऐसे रूक गई मानो उसका कंठ रूंधा जा रहा है। सोमदेव भी रूपाम्बरा की दशा देख गम्भीर हो उठा। वह धीरे से दिवाकर से बोला − "देखा दिवाकर, उस तनिक सी बात पर भाभी स्वयं को ही मिटाने पर तुली हुई हैं। यही बात होती तो रानी माँ कभी कुछ नहीं कहती। उन्होंने तो आज भी यही कहा कि उन्हें यहाँ बुला लाओ, मन बदल जायेगा।" "उन जैसी नारी होना दुर्लभ ही है। परन्तु क्या तुम नहीं जानते कि मैं अपने आप में एक प्रायश्चित की अग्नि में जल रही हूँ। मुझे स्वयं से ही घृणा हो गई है। मैंने अनेक ऐसी भूलें की हैं जिनका न कोई प्रायश्चित ही प्रतीत होता है। ना ही.....।" "भूल...भूल.....उसे स्पष्ट क्यूँ नहीं करतीं भाभी जिससे कि मन का भ्रम दूर हो सके।" सोम ने बीच में ही टोका। "उसे आप सुन नहीं सकेंगे।" "आज मैं सुनकर ही जाऊँगा।" "मैं दु:खी हूँ मुझे और अधिक दु:खी न करो सेनापति, मेरा जीवन केवल एक अभिशाप है।" "मैं उसी अभिशाप को ही तो जानना चाहता हूँ जिसके लिये आपने अपने जीवन में घुन लगा लिया है।" "क्या होगा उसे दोहराने से ? क्या आप नहीं जानते कि श्री महाराज मुझे किसी स्वयंवर से मेरी इच्छा से नहीं अपितु अपने बाहुबल पर यहाँ हरण करके लाये थे।" "जानता हूँ भाभी परन्तु.....।" "क्या आप नहीं जानते कि मैं किसी की प्रेमिका हूँ।" "यह भी जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि वह कोई और नहीं स्वयं मित्र दिवाकर ही है।" सोम के मुँह से अपना नाम सुनकर दिवाकर एक बार तो सकपका गया। लेकिन सोम कहता ही चला गया। "दिवाकर, अपना ही प्रेम पाने के लिये ही अहमद बना था। शंकर स्वामी के सामने कुछ कहा भी था। यहाँ तक कि भावावेश में आपने उसे महल के गुप्त मार्ग से बाहर भी निकाला था लेकिन यह महामात्य की दृष्टि से ओझल न हो सका और आज अतीत की समस्त भूलों को भूलकर राज्य हेतु यह प्राणार्पण करने को कृतसंकल्प है। भूल मनुष्य से ही होती है। क्या अब भी ऐसा समय है कि हम अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को भूल−कर अपना ही अनर्थ करें ?" "नहीं। मैं इतनी नीच नहीं हूँ।" रूपम्बरा ने निर्भीक उत्तर दिया तो सोम पुन: कह उठा− "क्या हमारी शक्ति ही छिन्न−भिन्न होकर हमें विजय दिला सकेगी ? दिवाकर से ही पूछो भाभी−कि तुच्छ दासी भी करागार में पड़ी हुई यही कहती है कि मुझे इसका दु:ख नहीं कि मैं अपराधिनी बनकर कारागार में पड़ी हुई हूँ। दु:ख इस बात का है कि इस आपत्ति काल में मैं कुछ करने में असमर्थ हूँ। यहाँ कौन अपना है, कौन पराया है ?­ आप तो विदुषी हैं। आज विजय हेतु समस्त मतभेदों को भुलाकर हमें मार्ग दिखायें।" सोम की बातें सुनते−सुनते रूपाम्बरा की आँखों में आँसू उमड़ आये। उसने ज्यों हीं पलकें ऊपर उठाई तो दिवाकर रूंधे कंठ से बोला − "हाँ देवी। ऐसा अतीत जो आगत भविष्य को अंधकार बनाये, भूल जाने के योग्य है। आज वचन दीजिये कि आप श्री महाराज को अपना आत्मिक भाव देकर राज्य को नई शक्ति प्रदान करेंगी।" कहते हुये दिवाकर की आँखे भर आयीं। "यह तुम कह रहे हो, कलाकार ?" "हाँ। वही दिवाकर तुमसे याचना कह रहा है कि रानी माँ आपकी प्रतीक्षा कर रही है।" "ईश्वर के लिये चलो भाभी।" "चलिये, सेनापति। आज मेरा मन शान्त है। मैं वचन देती हूँ।" कहते हुए रूपाम्बरा उठ खड़ी हुई। महलों में पहुँचने पर इन्दुमती ने स्वयं उठकर रूपाम्बरा का स्वागत किया तो संध्या बाबली मुस्करा उठी। राजा कुलचन्द्र ने रूपाम्बरा की ओर दृष्टिपात किया तो वे चकित रह गये। उसकी आँखों के नीचे कालिमा छा गई है। उसका चम्पई रंग पीला पड़ गया है। वे कुछ और सोंचे कि रूपाम्बरा उनके चरणों में नतमस्तक को बिलख पड़ी − "अन्नदाता। अपराधिनी रूपम्बरा क्षमा मांगती है।" "अपराधिनी ? यह क्या कह रही हो ? मैंने तो सपने में सोचा तक भी नहीं कि रूपाम्बरा कभी कोई अपराध करेगी। उठो, भगवान केशव की कृपा से आज सभी प्रसन्न हैं। उसी हेतु जो बीत गया उसे भूल जाओ।" कह कुलचन्द्र ने रूपाम्बरा के सर पर हाथ फेरा। कुछ देर तक वे समझाते रहे पुन: कुछ नये आदेश दे वहाँ से चल दिये। इन्दुमती ने दासियों को संकेत किया तो वे रानी रूपम्बरा को अपने साथ ले गईं। इधर युवराज को गोद में ले इन्दुमती शैया पर उसे दुग्धपान कराने लगीं। सांध्य दीप की ज्योर्तिमालायें आज बड़ी सुहावनी लग रही थीं। दासियों ने रूपाम्बरा का श्रंगार करना प्रारम्भ कर दिया था। इन्दुमती का मन प्रसन्न था परन्तु यवन आक्रमण की चिन्ता उसे हर क्षण कचोटती ही रहती। वह एक ओर चिन्तामग्न थी तो दूसरी ओर प्रसन्न भी, लेकिन दासियों का अथक प्रयास व राजभवन के बहुमूल्य आभूषण भी रूपाम्बरा का आकर्षण वापिस न ला सके। इन्दुमती उसे देख मन ही मन कुछ दु:खी हुई और उसे अपने पास ही बैठा लिया। सभी दासियों को जाने का संकेत कर दिया। कल तक जो मन−मुटाव की ज्वाला में जल रही थी आज उसमें अपनत्व उमड़ पड़ा। युवराज को गोद में ले रूपाम्बरा आत्मसुख का अनुभव करने लगी। धीरे−धीरे बातचीत होने लगी तो रूपाम्बरा ने पट्टमहिषी से हंसा को मुक्त करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।


टीका टिप्पणी और संदर्भ