जय केशव 14

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

बरन के राजा ने सूचना पाते ही किले के सभी द्वार बन्द करा दिये । दुर्गपाल जीवटसिंह राजा हरदत्त का दाहिना हाथ था। वह स्वयं किले के बुर्ज पर चारों ओर आँखे और कान लगाये खड़ा हुआ था कि तभी सुदूर कुछ धूल उड़ती दिखाई दी। उसने तुरन्त अपने बेटे समरसिंह को पुकारा तो वह नीचे द्वार पर से ही बोला−

"दादा क्या हुआ ?"
        "अरे, देख तो ये धूल कैसी उड़ रही है ? लगता है घुड़सवार आ रहे है।"
        "कहीं दुश्मन तो नहीं।" समर दौड़कर ऊपर की ओर भागा।
        "अब इस बुढ़ापे में मित्र है या शत्रु इतनी दूर से....नहीं रे तू द्वार पर ताला डाल पहरिये को सावधान कर ऊपर आ।"­.......
        वृद्ध की आवाज सुन अन्य लोग भी उसके पास पहुँच गये। सभी ने अपने शस्त्र कस कर पकड़ लिये। कुछ ही पल में धूल की ओर से श्वेत ध्वजा फहराते अश्व द्वार के सामने रूके तो समरसिंह कड़क कर बोला−
        "सावधान। जो जरा भी आगे बढ़े। कौन हो तुम ?"
        "अरे समर। तू मुझे भी नहीं पहिचानता ? मैं सुखपाल हूँ और साथी जानकी शाही....।"
        "अरे मलेच्छ नवासाशाह कुलागार, कायर कहीं के प्राणों के मोह के मारे लुटेरे का साथ दे रहा है ?"
        "नहीं बाबा नहीं। जो हो गया है उसे भूल जाओ अमीर का दिल बदल गया है।"
        "वह क्या उसकी पुश्त भी नहीं बदल सकती। तुम क्या चाहते हो ?"
        "वह उन्हीं से दुश्मनी रखता है जो उसको दुश्मन समझते है उसने आपके राज्य को दोस्त कहा है। हम सुलहनामा लेकर श्री महाराज से मिलना चाहते हैं। कह सुखपाल चुप हो गया−सुलहनामा ? दाँत काटते हुए समरसिंह ने धीरे से कहा और जीवट सिंह की ओर देखते हुए धीरे से बोला−"बाबा यवन कोई चाल चल रहा है। कहो तो एक बाण में दोनों को घोड़ों सहित ढ़ेर कर दूँ। कहते हुए समर सिंह ने धनुष को उठाया तो वृद्ध जीवट सिंह ने उसे रोकते हुए कहा−"नहीं बेटा दूत को मारकर हम अपनी नीति नहीं तोड़ना चाहते। फिर महाराज की आज्ञा चाहिए। सो तू यहीं रह और मैं श्री महाराज से जाकर निवेदन करता हूँ।" कह जीवट सिंह तेजी से घूम पड़ा।
        जीवट सिंह की मुट्टियाँ भिंज रही थी। क्रोध के मारे उसका श्वास फूल रहा था। वह सुनते ही अन्दर पहुँचा। अन्दर जाकर उसने महाराज के समक्ष दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया। राजा हरदत्त वृद्ध जीवट सिंह को देखेते ही बोला−"काका जी क्या बात है ?"
        "अन्नदाता, सुखपाल महमूद का दूत बनकर आया हैं।"
"क्या....?" सभी एक साथ बोल उठे। यकायक सभी के हाथ तलवारों की मूठ पर पहुँच गये। तभी हरदत्त ने हाथ उठाकर कहा−
        "शान्त वीरो। हमें उत्तेजित नहीं होना चाहिये। हम करेंगे वही जो हमें करना चाहिये। लेकिन दूत की बात सुनने में कोई हानि नहीं। काका तुम उसे आने दो और सबको चौकन्ना कर दो।"
        थोड़ी देर बाद सुखपाल ने अपने साथ जानकी को लिये प्रवेश किया। दोनों ने राजा को प्रणाम किया तो सभी उन्हें देखने लगे और सभी की भाव भंगिमा समाचार सुनने को उत्सुक−सी प्रतीत होने लगी।
        हरदत्त ने सुखपाल से कहा−"सुखपाल कहो क्या बात है ?"
        "अन्नदाता। पिताजी....के बारे में इतना ही कहूँगा कि उन्होंने जब यह सुना कि अमीर की मंशा बरन होकर मथुरा जाने की है तो वे गंभीर हो उठे। अमीर से आपके साथ बचपन की मित्रता का हवाला देकर उसे सुलह के लिये राजी कर लिया है। उन्होंने यही कहा था कि महाराज से जाकर निवेदन करूँ कि समय की गति को देखते हुए भूल न करें। अमीर से सुलह कर लें।
        "क्या....वह इतनी नीचता भी कर सकता है ? यह तो मैं सोच भी नहीं सकता था। उसने ही सन्धि कर क्या लाभ पाया ? यहाँ तक कि स्वयं का नाम तक न रहा। गुलामी की गुलामी और वह भी महमूद के साथ...।"
        उसके साथ जो न केवल राज्य का शत्रु है अपितु जो सारे राष्ट्र का शत्रु है। आज मैं सुलह कर उसके लिये ब्रज का मार्ग खोल दूँ ? उसे मनचाही सुलह की कीमत दूँ ? अपने जीते जी बरन की प्रजा पर अत्याचार कराऊँ ? धर्म पर कुठाराघात कराऊँ ? अपने सुल्तान...और उसकी सेना को...।"हरदत्त कुछ और कहता कि सुखपाल बीच में ही बोल उठा....।
        "अन्नदाता। उसके साथ लगभग दो लाख सेना होगी। जिसमें सभी लड़ाकू जाति के हैं। फिर कहाँ दो लाख और कहाँ......श्री महाराज।"
        वह इतना की कह पाया कि हरदत्त का सेनापति वीरसिंह अपनी तलवार म्यान में न रख सका। तलवार ऊपर उठाकर बोला−
        "खबरदार। जो आगे कुछ और कहा तो। आज तू यदि दूत बनकर न आया होता तो....।"
        "शान्त। सेनापति वीरसिंह इसमें इसका दोष नहीं। दोष तो अपना ही है जो आज उस मलेच्छ का इतना साहस बढ़ा दिया।"
        "तुम्हारे अमीर ने तुम्हें जो काम करने को भेजा है वह तुमने कर दिया। हम खुश हैं।"
        "तब अन्नदाता इस सुलहनामा को स्वीकार करें।" कह सुखपाल ने पास खड़े जानकी की ओर संकेत किया और वह तेज चाल से राजा हरदत्त के सिंहासन की ओर बढ़ा। उसने आगे की ओर झुककर राजा की ओर दोनो हाथ बढ़ाये।
        हरदत्त एक−दम उठे और हाथ में सुलहनामा लेकर उसे बिना पड़े ही सुखपाल की ओर फेंकते हुए बोले−
        "तुम्हारे अमीर का यही जवाब है। रही दोस्ती की बात तो अमीर से कहना कि दोस्ती बराबरी से की जाती है। अमीर से कहना कि ब्रज में घुसने के सपने देखना छोड़ दे। ब्रज की सीमा रेखा लाँधने के लिए बहुत कुछ करना होगा। अब तुम जा सकते हो।" सुखपाल की आखें क्रोध, अपमान, ग्लानि से दग्ध हो उठीं। बरन से ख़ाली हाथ लौटकर जाते हुए दोनों ने एक बार, बरन दुर्ग की ओर देखा और वे दोनों घोड़ों पर सवार बरन से लौट गये।
        दोनों के जाने के बाद हरदत्त ने तुरन्त एक मंत्रणा की और उसमें युद्ध कालीन नये आदेश राज्य के सभी सरदारों व सामततों को भेजे गये। उस पार के सभी जंगलों में तुरन्त सेना को भेजने की आज्ञा की। चारों ओर घुड़सवार दौड़ाये गये। दूसरे ही दिन नगरवासियों को दुर्ग के अन्दर ले लिया गया । यूँ तो आवश्यक सामग्री दुर्ग में एकत्रित की जा रही थी परन्तु गजनी के सुलहनमा का हरदत्त ने एक वीरोचित उत्तर दे एक वीर के समान चुनौती को स्वीकार किया। राष्ट्र−प्रेम का अग्नि पिण्ड साधारण से साधारण और क्षीण मनोबल में भी अग्नि प्रज्वलित कर देता है। देखते ही देखते सारा नगर वीरान सा हो गया। जिन्हें अपना जीवन सुरक्षित न दिखा वे नगर छोड़ कर विपरीत दिशाओं की ओर चले गये। कई दिन इसी तरह बीत गये लेकिन सेनापति वीरसिंह की आँखे गजनी की सेना पर लगी रहीं।
        दीपावली की खुशियाँ और भाई दूज की भावनाओं का स्थान भय और क्रोध ने ले लिया। समय बीत रहा था, ठण्ड और बढ़ती जा रही थी। महासेनापति वीरसिंह ने किले के द्वार बन्द करा दिये। नगर के परकोटे पर धनुर्धर अपने धनुष वाण लिये तैनात खड़े हो गये । दुर्ग के पूर्वोत्तरी बुर्ज पर खड़े वीरसिंह बार−बार दूर जंगलों की ओर देखते परन्तु जैसे वे प्रतीक्षा करते−करते थक रहे हों।
        सूर्य डूब रहा था परन्तु आकाश पर छाये छोटे−छोटे काले बादलों की कोरें साँझ की लालिमा में डूबी जा रही थी। पश्चिमोत्तर कोंण पर एक पीतरंगी चादर तन रही थी। उस चादर को चीरते हुए उन्हें एक घुड़सवार तेजी से आता हुआ दिखाई दिया। घुड़सवार और कोई न था जीवटसिंह का बेटा समरसिंह था। समरसिंह, वीरसिंह, का सबसे अधिक विश्वासपात्र सेवक था। इस लिए उसे गुप्तचरों का भार सौंपा हुआ था। यूँ उसे सेना की गतिविधियों की सारी सूचनायें नित्य ही देने को कहा गया था। लेकिन एक पखवाड़ा बीत जाने पर भी जब वह न आया तो वीरसिंह के क्रोध का पारावार न रहा। वे शीघ्र नीचे पहुँचे कि समरसिंह घोड़े से उतरकर तीव्र गति से सेनापति की ओर बढ़ा − और साष्टांग दण्डवत कर बोला−
        "पूज्यवर। गजनी का दैत्य बरन की ओर बढ़ा चला आ रहा है।"
        "वह सेना के कूँच से पहले तक सबको यही सूचना देता रहा कि हमें दिल्ली की ओर जाना है। लेकिन दिल्ली की ओर मुँह की हुई सेना को कूच करने से पहले उसने रात के अंधियारे में, फौज हमारी ओर मोड़ दीं हैं।"
        "और ?"
        "और वह न केवल अपनी शक्ति का प्रयोग करता है, बल्कि राह में पड़ने वाले गाँव, नगर, नर−नारी तथा वहाँ के देवालयों को नष्ट करता चला आ रहा है। उसकी पल−पल पर बदलती आज्ञाओं की प्रतिक्रियाओं का अध्ययन करने के लिये ही मुझे तथा मेरे आदमियों को इतना समय लगा। अब आपकी जो आज्ञा हो वह मुझे स्वीकार है। कह समरसिंह ने हाथ जोड़ दिये। "
        "समर तू बहादुर है। वीर है। तूने जितना किया है वह बहुत है। जा बेटा, तू आराम कर। जीवट सिंह से कहना कि वह सचेत रहें।"
        "जो आज्ञा।" कह कर समर सिंह ने पुन: साष्टांग किया और वापिस चल दिया।
        सेनापति शीघ्रतिशीघ्र राजमहल की ओर बढ़े। राजमहल के मार्ग पर बढ़ते चरणों की गति में एक अनोखी गम्भीरता दृष्टिगोचर हो रही थी।
        लेकिन उस समय वीरसिंह सन्न रह गये जब उनके कानों को वाद्य पर नियत अनुरागी स्वरों में डूबी हुई पायल की झंकार सुनाई दी। वह मन ही मन कहने लगा−"बहुत सुन्दर। सच ही है−वासना का लोभी कभी प्रजा की सेवा नहीं कर सकता। सारी प्रजा के भावी दु:ख की चिन्ता न कर हरदत्त तुम सुरापान करते−करते अचेत हो गये हो। तुम्हारी यह दशा कभी भी घातक सिद्ध हो सकती है। प्रजा के प्राणों में बलिदान की भावना जमाने के स्थान पर तुम उन्हें आज भी बन्धनों की ओर ले जा रहे हो।" वह सोचता रहता यदि सामने खड़ा प्रहरी सेनापति के समक्ष हाथ जोड़ पूछ न बैठता। वीरसिंह ने उसे समाचार दे राजा के पास भेज दिया कि वे अभी इसी समय मिलना चाहते है।
        राजा ने जब सुना कि सेनापति आये हैं तो सभी को चले जाने की आज्ञा दी। केवल दो दासियाँ चँवर ढो रही थीं। उनके अलावा और कोई न रहा । हरदत्त अपने आप पर संयम करने की चेष्टा करते हुए सीधे बैठे। तभी द्वार के अन्दर वीरसिंह ने प्रवेश किया और प्रणाम करते हुए बोला−
        "श्री महाराज। समरसिंह लौट आया है। कहता है शत्रु की सेनायें बरन की ओर चल चुकी हैं।"
        "क्या.....?" हरदत्त चौंक पड़े।
        "जी, महाराज। बरन की लाज आपके हाथ है।"
        "और वह भेड़िया....­?"
        "भेड़िया मेरा !" वीरसिंह ने तलवार पर हाथ रखते हुए कहा।
        "वीर सिंह तुम वास्तव में वीर हो, जाओं सेना को किसी भी क्षण आक्रमण करने के लिये तैयार रखो। हम बरन की देहरी पर पैर रखने से पूर्व ही उसे समाप्त कर देना चाहते हैं।"
        "यह असम्भव है महाराज। क्योंकि महमूद पर मेरा अधिकार है।"
        "हाँ सेनापति, तुम ठीक कहते हो। जाओ तुम्हारा वचन पूरा हो।"
        पुन: थोड़ा रूककर हरदत्त बोले−"सुनो ! मैं भी चलता हूँ।" कह हरदत्त भी चल दिये।
        पल भर पहिले जो हरदत्त विलासी स्वर्ग के नन्दवन में विचरण कर रहा था। जिस महल में सहस्त्रों रूपसियाँ हरदत्त की सेवा करते हुए अपना गौरव समझ रही थी। वह महल साँय−साँय कर उठा। कभी−कभी तो सिसकियाँ भी सुनाई देने लगतीं। महाराज के जाते ही अन्त:पुर में यह समाचार फैलते देर न लगी कि सुल्तान की फौजें बरन पर आक्रमण करने आ चुकी हैं। रात बढ़ती जा रही थी और बरन के दुर्ग में चारों ओर लोग इधर−उधर आ जा रहे थे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ